अभी हाल में ही मनोहर श्याम जोशीका उपन्यास आया है 'उत्तराधिकारिणी'. वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास वैसे तो जोशी जी ने हेनरी जेम्स के उपन्यास 'वाशिंगटन स्क्वायर'का पुनर्लेखन कहा था. मेरी राय में कई अर्थों में एक तरह से यह उनका पहला पूर्ण उपन्यास है. प्रस्तुत है उपन्यास की भूमिका जिसे उनकी पत्नी भगवती जोशीने लिखी है- मॉडरेटर
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कई अर्थों में ‘उत्तराधिकारिणी’ जोशी जी का पहला सम्पूर्ण उपन्यास है. 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों में अपने तीन अधूरे उपन्यासों से ध्यान हटाकर उन्होंने इसे लिखा था और तब ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में इसका प्रकाशन भी हुआ था. जोशी जी ने स्वयं इस उपन्यास के बारे में लिखा है कि यह हेनरी जेम्स के 1880 में लिखित उपन्यास ‘वाशिंगटन स्क्वायर’ की कथा के आधार पर पुनर्रचित उपन्यास है. अनुवाद नहीं है पुनर्रचना है.
यह ध्यान देने वाली बात है. इस तरफ किसी का ध्यान गया कि नहीं, पता नहीं कि अपने लेखन में निरंतर प्रयोगधर्मी रहे जोशी जी ने पुनर्रचना के रूप में एक नई विधा का हिंदी में सूत्रपात किया था. उस अर्थ में ‘उत्तराधिकारिणी’ का अपना ख़ास महत्व है. जो बात इसमें विशेष रूप से ध्यान रखने वाली है वह यह है कि बावजूद इसके कि इसे पुनर्रचना कहा गया है यह पूर्ण रूप से मौलिक उपन्यास है. ‘वाशिंगटन स्क्वायर’ की पुनर्रचना कहकर जोशी जी ने 19 वीं शताब्दी के महान लेखक हेनरी जेम्स के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित की है.
एक महत्वाकांक्षी और बेहद सफल डॉक्टर और लगभग हृदयहीन पिता बलदेव राज, जिनके डॉक्टरी नुस्खे को अचूक माना जाता है और अपने पेशे के कारण जिनका यश दूर-दूर तक फैला हुआ है, और उसकी सामान्य बुद्धि पुत्री कामिनी के संबंधों की इस कहानी में में पिता-पुत्री के प्यार-लगाव की उत्कटता भी है और पारिवारिक छल-कपट के दांवपेंच भी. डॉक्टर साहब चाहते थे कि उनकी बेटी, जो उनकी एकमात्र उत्तराधिकारिणी है, उनकी ही तरह अंग्रेजी तौर-तरीकों में ढले लेकिन वह साधारण देशी तौर-तरीकों की थी. पिता, जिनकी बुद्धि का लोहा सभी मानते थे, वहीँ अपने बेटी को देखकर उनको इस बात की बड़ी निराशा होती थी कि उनकी बेटी इस कदर मंद बुद्धि कैसे हो गई. बचपन में उसकी माँ का देहांत हो गया था और उसकी निशानी अपनी बेटी का नामकरण डॉक्टर साहब ने उसी के नाम पर कामिनी रखा था. अपनी व्यस्तताओं के कारण वे उसकी पढ़ाई लिखाई के ऊपर ठीक से ध्यान नहीं दे पाए. जिसका नतीजा यह हुआ कि वह अपना ध्यान रखने वाली शन्नो की तरह कस्बाई चाल-ढाल वाली बन गई.
डॉक्टर बलदेव राज की सबसे बड़ी चिंता यह थी कि किस तरह से अपनी उत्तराधिकारिणी के लिए सुयोग्य वर खोजा जाए जो उनकी संपत्ति का उचित रखवाला बन पाए. उधर हर बात में अपने पिता के सामने सिर्फ हाँ या न या अक्सर दोनों बोलने वाली कामिनी जीवन में पहली बार एक बात अपने पिता से पूछे बगैर एक काम करती है- प्रेम. जिसके बाद उसका जीवन बदलता चला जाता है. माँ को छुटपन में खो देने के बाद, अति व्यस्त पिता से बहुत कम मिल पाने के कारण उसके जीवन में सब कुछ था, बस एक प्यार नहीं था. मन्मथ से उसे वह मिलने लगता है. उसके पिता को यह लगता है कि हो न हो यह आदमी उनकी संपत्ति के लालच में उस्की भोली बेटी को अपने जाल में उलझा रहा हो. वह उसकी शादी के लिए योग्य वर की तलाश में लगा रहता है. डॉक्टर साहब की मौत हो जाती है उपन्यास की कथा उलझती चली जाती है- प्रेम, विवाह, कर्त्तव्य. धीरे धीरे जिसके कई सूत्र बनते-जुड़ते चले जाते हैं. कुछ छूट भी जाते हैं.
जोशी जी का यह उपन्यास उनके समस्त लेखन में एक भिन्न स्थान रखता है. इसमें उनकी वह शैली नहीं है जिसकी वजह से उनको हिंदी में उत्तर आधुनिक उपन्यास के जनक के रूप में देखा गया- अनेकांतता या किस्सों के भीतर से निकलते हुए किस्से, भाषा का जबरदस्त खेल. लेकिन एक बात है इस उपन्यास में रोचकता भरपूर है. भाषा का वह बांकपन भी है जो बाद में उनकी सिग्नेचर शैली मानी गई.
लगभग 40 साल के बाद इसे उपन्यास के रूप में पुनः प्रकाशित होते हुए देखना सुखद लग रहा है. आज भी पारिवारिकता, संबंधों को लेकर एक प्रासंगिक उपन्यास है जिसके केंद्र में पिता-पुत्री के रिश्तों की उत्कटता, आकांक्षाएं, आशाएं, निराशाएं हैं जो अंत तक पाठकों को रहस्य के धागे से बाँधे रखता है.
-भगवती जोशी