मंजरी श्रीवास्तवमूलतः कवयित्री हैं. लेकिन कई मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहने के कारण उसका कवि रूप इधर कुछ छिप सा गया था. उसकी नई कविताएं पढ़ते हुए ताजगी का अहसास हुआ. खासकर इसलिए भी क्योंकि ये कविताएं मेरे प्रिय लेखकों में एक निर्मल वर्मा के लेखन, उसके जादू को लेकर है- प्रभात रंजन
निर्मल वर्मा को पढ़ते हुए
१.
कभी घोड़े की आँखों में झांककर देखो
एक ठहरी हुई उदासी होती है वहां
आजकल मैं घोड़े की आँखों जैसी होती जा रही हूँ
जो आदमियों की दुनिया में सबसे ज़्यादा उदास रहते हैं
दरअसल वे अपनी सबसे आत्मीय चीज़ से अलग होने के बावजूद भी उस अलगाव के आदी नहीं हो पाते
मैं भी नहीं हो पाई हूँ उस अलगाव की आदी
तुमसे अलग होने के बावजूद
अब भी मेरे लैपटॉप की स्क्रीन रोशन होते ही जगमगाता है तुम्हारा नाम
मेरी ज़िन्दगी से लेकर कंप्यूटर और ई-मेल के तमाम पासवर्ड तुमसे शुरू होकर तुम पर ही ख़त्म होते हैं
किसी चीज़ का आदी न हो पाना
इससे बड़ा कोई और दुर्भाग्य है क्या ...?
अभी घोड़े की आँखों की उदासी मेरी आँखों में आकर ठहर गई है
लेकिन जीवन के अंतिम पड़ाव तक भी गर न हो पाई मैं इस अलगाव की आदी
तो आख़िर तक ढूँढती रह जाऊंगी धूप का एक आख़िरी मद्धिम टुकड़ा
दरअसल दुनिया ऐसा नहीं सोचती...
यह मेरे ही भीतर का खटका है.
बात यह है कि
अब भी तुम्हारे प्यार का चमगादड़ मेरे अंधेरों में मेरे चारों ओर फड़फड़ाता रहता है
कानों से सिर्फ़ एक गर्म, सनसनाती फड़फड़ाहट टकराती रहती है हरपल
मेरी देह और मेरी आत्मा एक खंडहर बन गई है
और इसकी दीवारों पर मैं अब भी तलाश रही हूँ तुम्हारा नाम
जो कभी प्यार के उन दिनों में तुमने अपने होंठों से लिखा था.
लेकिन अब कहाँ है वहां मेरा नाम...
कहीं नहीं शायद
वहां उभर आए हैं समय के साथ कुछ और निशान
जो आज से पहले मुझे कभी नज़र नहीं आए
जिनका दूर-दूर तक मुझसे कोई वास्ता नहीं.
तुम्हारे प्यार के चमगादड़ के साथ
ये निशान मंडराते हैं मेरे चारों ओर अब
और तुम्हारी मुर्दा देह लिए अपने साथ फिरती हूँ मैं हरपल
अब भी मेरे जिस्म पर रेंगते हैं तुम्हारे मुर्दा हाथ
जबकि हमारे बीच आये खालीपन में किसी भी चीज़ के लिए कोई जगह नहीं
वह हमेशा ख़ाली रहेगा अब
लेकिन...देखो न ...
इस खालीपन ने मुझे अचानक कितना बड़ा बना दिया है.
२.
आजकल रोज़ रात को अपने छत पर लेटकर
नीली मखमली डिबिया-सा खुला, ढेर सारे तारों भरा आकाश देखती हूँ
और मर जाने की ख्वाहिश होती है
पर दिन इतना गर्म, सफ़ेद, धुला और साफ़ होता है कि मरने की इच्छा ही नहीं होती.
फिर नज़र जाती है घास के बीच खिले बहुत नन्हे-नन्हे फूलों पर
जिन्हें शायद जीसस ने ‘लिलीज़ ऑफ़ द फ़ील्ड’ कहा था
(ऐसे फूल जो आनेवाले दिनों के बारे में नहीं सोचते और गुज़री हुई गर्मियों की याद दिलाते हैं)
सोचती हूँ ऐसी ही कोई ‘लिली’ बन जाऊं
आनेवाले दिनों से बेफ़िक्र और बेपरवाह
फिर अचानक तुम्हारी यादों की अनगिन तहें खुलती जाती हैं...
आकाश फिर से उतना ही नीला दिखाई देने लगता है जितनी तुम्हारी आँखें
और नीचे घास-सी बिछी मैं निहारती रहती हूँ अपलक तुम्हारा नीलापन
फिर एक सफ़ेद बादल का टुकड़ा मुझे और तुम्हें अपने अँधेरे की ज़द में ले लेता है.
हम एक साथ चीख पड़ते हैं मारे भय के
और हमारे शब्द का आख़िरी हिस्सा लाल डोर में बंधे गुब्बारे की तरह नज़र आता है दूsssर तक जाता हुआ...
गुब्बारे की लाल डोर खींचकर कभी बांधे थे तुमने मेरे अधगीले खुले-खुले भूरे बाल
डोर खुलकर न जाने कहाँ खो गई है और बाल फिर से बिखर गए हैं...
पर अब वे धूसर और मटमैले हो गए हैं...
शायद...बहुत थक गए हैं...
अब तुम्हें याद करते वक़्त मेरे होंठों पर आती है पीली धूल-सी हंसी
जो शाम की ढलती आख़िरी धूप की तरह हर चीज़ पर बैठ जाती है.
एक उदास-सी हंसी जो एक ख़ाली जगह से उठकर दूसरी ख़ाली जगह पर जाकर ख़त्म हो जाती है और बीच की जगह को भी ख़ाली छोड़ जाती है.
मैली धूप का यह टुकड़ा मेरी हंसी के साथ मेरे पूरे वजूद में पैवस्त हो जाता है और रात हो जाने के बाद भी मुझमें रेंगता रहता है.
अँधेरे में भी एक पीला...ज़र्द...अवसन्न-सा आलोक फैला रहता है प्रभामंडल की तरह मेरे इर्द-गिर्द
अब कोई प्रश्न नहीं तुमसे, न ही कोई शिकायत है.
सारी शिकायतों और प्रश्नों की मैंने एक पुड़िया बनाई है और उन्हें किसी अँधेरे गड्ढे में फेंक आई हूँ.
अब वक़्त ने करवट ली है
नीचे रात है, ऊपर दिन
अब मैं नीला आकाश हो गई हूँ असंख्य तारों भरा
और तुम हरे घास से भरा पार्क बनकर नीचे लेटे हो
तुम ज़मीन हो मेरी
जहाँ बड़ी ही मजबूती से जमा रखे हैं मैंने अपने पैर
तुम्हारा अपना एक सुरक्षित अँधेरा है जो किसी भी बड़े पंछी के पंखों की भयावह छाया पर भारी है.
तुमपर पड़ने के बाद यह छाया बस एक बादल-सी दिखाई देती है जो हवा में इधर-उधर मंडराती रहती है.
तुमसे फूटनेवाले फव्वारे मुझे घुटनों तक भिगोते रहते हैं अब भी
तुम अब भी कबूतरों-सी फड़फड़ाती मेरी मांसल धडकनों को दबोच लेते हो.
अब भी हमारे बीच फड़फड़ाती है कबूतरों की छाया
पतझड़ और बर्फ़ के दिन आए और गए लेकिन अब हम नहीं बच पायेंगे एक-दूसरे से
गर्मियां चल रही हैं और हमारा झूठ पिघलने लगा है.
शाम के पीले चिपचिपे धुंधलके में बहने लगी हैं हमारी आँखें
और हम एक-दूसरे के गाल सहलाने लगे हैं...जैसे...
जैसे बारिश के बाद घास की धुली-धुली-सी नर्म-गर्म पत्तियाँ.
इन झूठी गर्मियों के दिन ख़त्म हो जायेंगे जल्द ही
और सारे शहर पर पीली धुंध की परत-दर-परत जम जाएगी
फिर कुछ नज़र नहीं आएगा
सपने भी भयानक हो जायेंगे
जैसे कि आप खुद मर चुके हों...कब्र में लेटे हों...
और कब्र के बाहर से बारिश की टिप-टिप सुन रहे हों
कब्र से उठकर बाहर आने के बाद भी
वही टिप-टिप, वही बारिश होगी
लेकिन इन सबसे घबराना मत
एक न एक दिन आकाश नज़र आएगा
बेशक़ पूरा न सही...एक नीली डूबी फांक-सा ही सही
पेड़ों पर चमकेगी वही बारिश
जिसकी टिप-टिप कब्र में से सुनाई पड़ती थी
फिर आनेवाली सर्दियों की अफ़वाह से सिकुड़ने लगेंगे वे
धीरे-धीरे शाम का पीला, पतझड़ी आलोक मंद पड़ने लगेगा
लेकिन तब भी चमकेगी शाम की आख़िरी धूप
और हमें ले जाएगी किसी प्रागैतिहासिक युग में
जहाँ,
हमारे भीतर जो कुछ भी होगा, वहीँ ठहर जाएगा
और बाहरी दुनिया चलती हुई नज़र आएगी.
तुम्हारे ऊपर उठे हुए होंठ और भीगी आँखें
हवा में उड़ते परिंदों को निहारती हुई
ठहर जाएंगी निविड़ शून्य में
फिर रात होगी
धीरे-धीरे पेड़ों पर तारे थिरकेंगे हर रात की तरह
पर वह अद्भुत रात होगी
जब तारे भी बारिश से धुले-धुले
साफ़ और और ज़्यादा चमकीले नज़र आयेंगे
सहसा हवा उठेगी
तुम्हारे प्यार से असीम आग्रह में लिपटी
एक हल्का-सा झोंका मुझे फिर से छू जाएगा
और शायद एक बार फिर तुम सरसराने लगोगे मेरे पूरे वजूद में.