आज जाने माने लेखक, पत्रकार, कार्टूनिस्ट राजेंद्रधोड़पकरका लेख आया है 'दैनिक हिन्दुस्तान'में .क्रूरता के मनोविज्ञान को लेकर. बहुत बढ़िया है- मॉडरेटर
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जब भी कोई आतंकवादी वारदात होती है और बड़े पैमाने पर बेकसूर लोग मारे जाते हैं, तो एक सवाल सबके दिमाग में आता है कि इन आतंकवादियों का दिमाग कैसा होता है? कैसे वे बेहिचक इतने सारे लोगों को मार डालते हैं? आमतौर पर ज्यादातर आतंकवादी नौजवान होते हैं, जो सामान्य जीवन जी रहे होते हैं।
हमारे आसपास के लोगों से उनमें कोई खास फर्क नहीं होता। फिर ऐसे आम लोग कैसे इस तरह असाधारण किस्म की हिंसा पर उतारू हो जाते हैं? तमाम राजनीति-शास्त्री, समाज विज्ञानी, धर्म-शास्त्री और वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने में लगे हैं। इस पर काफी सारी जानकारियां भी सामने आई हैं, लेकिन ज्ञान के साथ अक्सर यह होता है कि जितना ज्यादा हम जानते हैं, गुत्थी उतनी ही ज्यादा उलझती जाती है।
एक विज्ञान पत्रिका ने अमेरिका में पिछले हफ्ते हुए हत्याकांड के बाद एक लेख छापा है, जो इस समस्या के एकदम अलग पक्ष को सामने लाता है। पिछले कुछ साल में यह बहस चल पड़ी है कि मनोविज्ञान और तंत्रिका विज्ञान (न्यूरो साइंस) के जरिये यह समझा जाए कि ऐसे जघन्य अपराध धर्म या किसी बड़े उद्देश्य के नाम पर करने वाले लोगों के दिमाग में क्या होता है? यानी इस क्रूरता या दुष्टता को क्या किसी बीमारी की तरह समझा जा सकता है? अगर ऐसा हो, तो इसका शायद इलाज भी हो सकता है। वैसे यह खोज दूसरे विश्व युद्ध के बाद शुरू हुई कि कैसे नाजी सेना में शामिल आम नौजवानों ने लाखों यहूदियों या यातना शिविरों में बंद अन्य निरीह लोगों को मार डाला? इस खोज की प्रक्रिया को गति पिछले दो-ढाई दशकों में हुए नए तकनीकी आविष्कारों ने दी और कुछ दिलचस्प तथ्य सामने आए।
हम अक्सर जघन्य कारनामों के लिए 'पाशविक कृत्य'या 'दरिंदगी'जैसे शब्द इस्तेमाल करते हैं। यह आम धारणा है कि इंसानी दिमाग की उच्चतर समझ का नियंत्रण जब खत्म हो जाता है, तो निम्न स्तरीय या बुनियादी पाशविक प्रवृत्तियां बेकाबू हो जाती हैं और इंसान ऐसा काम कर बैठता है। विज्ञान के मुताबिक, यह सोच गलत है। ऐसे कामों में सबसे ज्यादा सक्रिय या अति-सक्रिय इंसानी दिमाग का उच्चतर 'प्रीफ्रंटल लोब'होता है, जिसका काम तार्किक विश्लेषण और फैसले करना है। बल्कि ऐसी स्थिति में दिमाग के इस हिस्से का अपेक्षाकृत 'आदिम'या 'पाशविक'हिस्से 'लिंबिक जोन'से संपर्क कमजोर हो जाता है। यानी दिमाग के जिस हिस्से ने हमें इंसान बनाया, हमें संस्कृति-सभ्यता व ज्ञान की ओर प्रेरित किया, वही हिस्सा इंसान को क्रूर भी बना सकता है। पशु कभी भी बेवजह या अंधाधुंध हिंसा या परपीड़न नहीं करते। जर्मन लेखक हाइनरिख ब्योल के शब्दों में अमानवीयता एक मानवीय तत्व है, हम पशुओं के संदर्भ में 'अमानवीय'शब्द का इस्तेमाल नहीं करते। इसी तरह, हमारे दिमाग के 'आदिम'या 'पाशविक'हिस्से में सहजीविता और दूसरों की मदद की सहज प्रवृत्ति होती है, गड़बड़ हमारे दिमाग के उच्चतर हिस्सों में होती है।
यह समझना भी काफी मुश्किल है कि आखिर दिमाग में ऐसी गड़बड़ी क्यों होती है? कुछ दिक्कत व्यक्ति और समूह के रिश्ते में भी है। समाज बनाना भी सहज इंंसानी फितरत है और समाज रचना ने इंसान को बहुत कुछ दिया है, जिसका बखान करना मुश्किल है। समाज या समूह के अपने नियम होते हैं, जिनके मुताबिक किसी व्यक्ति को ढलना होता है। हर व्यक्ति का अपने समाज से, अपने परिवार से, अपने काम की जगह से, देश से, बिरादरी से अलग रिश्ता होता है, यानी व्यक्ति में कुछ उसका निजी और कुछ सामूहिक होता है। लेकिन समूह के नियम दमनकारी या क्रूर भी हो सकते हैं, जैसा कि हम अपने आसपास जाति या धर्म के नाम पर 'ऑनर किलिंग'जैसी घटनाओं में देखते हैं।
उच्चतर इंसानी दिमाग का जो हिस्सा स्वतंत्र फैसले करता है, वही समूह या समाज की आज्ञा का पालन भी करता है। कई प्रयोगों में यह पाया गया कि जो लोग स्वतंत्र फैसला करते वक्त सहज मानवीय या पाशविक सहिष्णुता से काम लेते हैं, उनके लिए अगर खेल के नियम बदल दिए जाएं, तो उनमें से कई दबाव में या फिर आज्ञा पालन के लिए दुष्टता भी कर सकते हैं। बहुत सारे लोग, जो अपने निजी फैसलों के लिए निजी जिम्मेदारी महसूस करते हैं, उन्हें अगर यह महसूस होता है कि वे किसी उच्चतर ताकत की आज्ञा के पालन के लिए कोई काम कर रहे हैं, तो उनमें निजी जवाबदेही का एहसास खत्म हो जाता है। अगर नौजवानों को यह लगता है कि वे नाजी विचारधारा के लिए या धर्म के लिए या फिर अपने करिश्माई नेता के हुक्म से हत्याएं कर रहे हैं, तो उनकी सहज सहृदयता खत्म हो जाती है। कई भले लोग 'बॉस'के कहने से घपलेबाजी कर सकते हैं और अपनी बेटी पर कभी हाथ न उठाने वाले माता-पिता बिरादरी की इज्जत के नाम पर उसका गला दबा सकते हैं।
जाहिर है, जिस क्रूरता के इतने सारे सामाजिक, सांस्कृतिक, सभ्यतामूलक आयाम हों, उसे हम कोई दिमागी बीमारी मानकर न उसका इलाज कर सकते हैं, न ही ऐसी बीमारी होने की आशंका वाले नौजवानों को चुनकर उन्हें किसी अलग जगह पर बंद कर सकते हैं। यह भी कहना गलत होगा कि धर्म के नाम पर अगर हिंसा हो रही है, तो धर्म के न रहने से इसका इलाज हो जाएगा, क्योंकि ऐसी हिंसा तमाम वजहों से होती रही है, कभी धर्म, कभी राष्ट्र, कभी विचारधारा, तो कभी नस्ल के नाम पर। हम अगर इस तरह कारण खोजेंगे, तो हमें समूची मानव सभ्यता को ही खत्म करना पड़ेगा। वैसे भी हम देखें, तो आतंकवादियों में बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है, जो बहुत धार्मिक वृत्ति के नहीं हैं। ओरलैंडो का हत्यारा उमर मतीन बहुत धर्मपरायण नहीं था, न ही अजमल कसाब को धर्म का बहुत ज्ञान था। कुछ आतंकवादी जरूर बहुत धर्मपरायण रहे हैं, लेकिन कई ऐसे थे, जिन्होंने न धर्म की शिक्षा ली, न धार्मिक नियमों का पालन किया, और न ही वे किसी संगठन में रहे।
जैसे मानवीय स्वभाव का हिस्सा उदात्तता, दया और परोपकार हैं, वैसे ही क्रूरता या दुष्टता भी है। कुछ लोगों में कुछ विशेष परिस्थितियों में अंधेरी प्रवृत्तियां ज्यादा प्रबल हो जाती हैं। जानकारों का कहना है कि अक्सर ऐसे लोग किसी विचारधारा या धर्म की ओर उसके मूल तत्वों की वजह से नहीं, बल्कि किसी संगठन की अति-हिंसक प्रवृत्तियों की वजह से आकर्षित होते हैं। किन्हीं वजहों से जो नौजवान समाज में अपने को अलगाव, अपमान या हीनता का पात्र अनुभव करते हैं, वे इस अति-हिंसक प्रवृत्ति में अपने लिए बदले या ताकत का एहसास पाते हैं। एक बड़े उद्देश्य के लिए हिंसा करने का विचार उन्हें सार्थकता और बड़प्पन के एहसास से भर देता है, और उन्हें अपराध भावना भी नहीं सताती। हमारेे समाज, संस्कृति और इंसानी दिमाग की बुनावट में जो ये उलझनें हैं, उनका कोई आसान इलाज नहीं है। आसान निदान और आसान इलाज बताने वाले लोग हमेशा हल की बजाय समस्या का दूसरा पहलू साबित होते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)