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पुरस्कृत उपन्यास 'डार्क हॉर्स'का एक अंश

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2016 का युवा साहित्य अकादेमी पुरस्कार नीलोत्पल मृणालके उपन्यास 'डार्क हॉर्स'को दिया गया है. यह युवा रचनाशीलता के लिए बहुत बड़ी घटना है. एक अनाम से प्रकाशन शब्दारम्भ से प्रकाशित एक लगभग गुमनाम से लेखक की किताब को पुरस्कृत किया जाना संस्थाओं के ऊपर भरोसा बढाने वाला है. उस संस्था पर जो मठाधीशी का गढ़ रहा है. बहरहाल, डार्क हॉर्स का एक अंश- मॉडरेटर 
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अरे कल से कहाँ हैं मनोहर लाल जी, फोनवो नहीं लग रहा था आपका, अजी संतोष जी का एडमिशन करवा दिये हैं, बधाई दे दीजिये और पार्टी का तय कर लीजियेरायसाहब ने इस जोश के साथ बताया जैसे भारत को यूएन सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता दिला कर आ रहें हों. अरे हम तो अभी ईंहां साला लाल किला में हैं महराज, चचा को घुमाने लाये हैं, एम्स में किडनी दिखाए हैं अब अपने पूरा दिल्ली देखेंगें, साला बताइए ई सौंवा बार आ गए हम लाल किला, अभी हुमायूँ के कब्बर पर जाना है और गांधी जी के भी. फिर कहे हैं कि कुतुबमीनार और इंडिया गेट दिखाओ. साला हम त गाँव के लोग को दिल्ली पर्यटन कराने में ही आधा साल गँवा देते हैं. एकदम पूरा दिल्ली का जनरल नालेज पढ़ कर आये हैं ई, एको गो चीज नय छोड़ रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे कम्बोडिया का सुल्तान आया है भारत भ्रमण पर. ऊपर से इनका प्रश्न त आप जानबे करते हैं, एकदम पढ़ाई भी कल से छूटा हुआ है रायसाहब, अब ई चचा जायें तबे त कुछ काम का बात हो. अच्छा सुनिए न ऊ पार्टी दो दिन बाद का रख लीजिये न, चचवा का परसों ट्रेन है, धरा देते हैं तब कपार फ्री होगा थोड़ा, हेडेक हो गया है सालामनोहर ने एक साँस में अपनी पूरी वेदना कह डाली.

दिल्ली रहने वाले छात्र अपने गाँव इलाके के लोगों के लिए एक गाड की तरह थे. दिल्ली आये परिचितों को दिल्ली परिभ्रमण कराना उनके सामाजिक दायित्वों में था. एक ही जगह पर कई बार जाना और हर बार अलगअलग लोगों के साथ नए जोश के साथ जाना निश्चित रूप से बड़ा कष्टकारी था. आपको ऐसा दिखाना होता था कि आप भी उनके साथ पहली बार ही उस स्थान पर आये हैं और आपको भी उनके जैसे ही सामान उत्साह और रुचि के साथ चीजों को देखना होता था, नहीं तो साथ वाला बुरा भी मान सकता था. घूमने-फिरने के साथ ऐसे लोग चोर बाजार और पालिका बाजार में खरीददारी का भी अटल कार्यक्रम ले के आते थे. ऐसे लोगों के साथ पीछे-पीछे दुकान दर दुकान घूमना जीवन के सबसे खराब क्षणों मेंसे एक होता था किसी भी छात्र के लिए. चोर बाजार और पालिका बाजार दिल्ली से बाहर के बिहार यूपी के लोगों के लिए सबसे लोकप्रिय और जाना पहचाना बाजार था.

रायसाहब से बात कर मनोहर वापस लाल किले के मुख्य गेट पर खड़े अपने चाचा के पास पहुँचा. का हुआ, बहुत जल्दी में तो नहीं हो, किसका फोन थाचाचा ने लाल किले में प्रवेश में हो रही देरी पर खीझते हुए कहा. नहीं कोई बात नहीं है,ऊ सर का फ़ोन था कि इतना इम्पोर्टेंट टॉपिक चल रहा है और हम क्लास नहीं जा रहे हैं, त हम बोल दिए कि सर कल भर छुट्टी दे दीजिए, हमारे चाचा आये हैं, हॉस्पिटल में हूँमनोहर ने मन ही मन कुढ़ते हुए कहा.ठीक है त, अब चलोगे भीतरवा?” चाचा ने बढ़ते हुए कहा. दो मिनट कतार में चलते हुए दोनों लाल किले के अन्दर पहुँच गए. भाई, बहुत पुराना है यार ई तोचाचा ने एक नजर किले के चारों ओर घुमाते हुए कहा. सुनते ही मनोहर ने मन में चिढ़ते हुए कहा, “हाँ चचा आप तनी देर आये, जिस साल हम आये थे शुरू-शुरू में तब एकदम नया थामनोहर ने चाचा की लगभग लेते हुए कहा. केतना साल पहले बे, कोनो आजे का बना है का, अच्छा छोड़ो, देखो ये यहीं से झंडवा फहराते है न मनमोहन सिंह?” चाचा ने ऊँगली से इशारा करते हुए कहा. हाँ, नेहरु जी भी यहीं से फहराए थेमनोहर ने मुंह बिचका कर कहा. चाचा लाल किले का एक-एक कोना घूम-घूम कर ऐसे देख रहे थे जैसे इसे खरीदने का बैना करने आये हों. दीवारों को छूकर देख रहे थे, खम्भों को ऊँगली से खोद कर लाल बलुआ पत्थर की क्वालिटी भी देखी, क्योंकि उनका भी मोतिहारी में छड़ सीमेंट का धंधा था, सो ये पुराने जमाने की प्लास्टर की भी विशेषता देखना चाह रहे थे. थोड़ी देर घूमने के बाद वो ठीक मुख्य बरामदे के पास जहाँ कभी मुग़ल बादशाह का तख्ते-ताउस रखा जाता था, वहां बैठ गए और ऊपरी जेब से खैनी की डिब्बी निकाली. चलो जरा यहाँ खैनी खा लें, यादे रहेगा कि लाल किला में बैठ के खैनी खाये थे कबोचाचा ने चहुंकते हुए कहा. चाचा गार्ड देख लेगा त मना करेगा, जहाँतहाँ थूकिएगा तो जुर्माना लग जाएगा, बाहर खाइएगा चलिए नमनोहर ने टोकते हुए कहा. बेटा जब हम सातवीं में थे तब से खाते हैं, बाप त मने नहीं कर सका, अब गार्ड करेगा हो? अरे कोय नहीं देखेगा, खाने दो, कहीं नहीं थूकेंगेचाचा ने निश्चिन्त करते हुए कहा. फिर दोनों जाँघों के बीच हाथ को घुसेड़ इतनी सफाई के साथ खैनी बनाया और खा लिया कि एक झलक में तो मनोहर को भी पता नहीं चला. अक्सर ऐसे धुरंधर खैनीबाज इस तरह का हुनर ख़ास तौर पर रखते हैं, क्योंकि माँ, बाप, चाचा, मामा से नज़र बचा के रोज़ खैनी खाने का अभ्यास उनको बचपन से होता है. उसमें भी मनोहर के चाचा तो सातवीं कक्षा से ही खैनी खाते थे, उनका एक लम्बा अनुभव था. उन्होंने स्वभ्यास से घंटों खैनी को बिना थूके होंठ में दबाये रखने की क्षमता भी विकसित कर ली थी. ये क्षमता ऐसे स्मारकों, मंदिरों या समाधियों में घूमने-फिरने के दौरान खूब काम आती थी, जैसे आज आयी थी. मनोहर का इस तरह खैनी खाने से रोकना चाचा को थोड़ा खटक गया था. उनसे रहा नहीं गया सो उन्होंने खैनी की डिब्बी जेब में डालते हुए कहा बेटा, खैनी रटाने, बनाने और खिलाने के बहाने ही तो रिश्ते बनते हैं, भला तुम्हारे शहर के आइसक्रीम में ये क्षमता कहाँ है”.

चाचा ने अनजाने में ही एक दार्शनिक वाले अंदाज़ में गजब की बात कह डाली थी. वास्तव में, खैनी में लोगों को जोड़ने की अदभुत क्षमता होती है. एक अनजान व्यक्ति भी किसी अजनबी से बेहिचक खैनी मांग सकता था और दूसरा बड़े आत्मीयता से रगड़कर उसे खिलाता था. इस दौरान दो अजनबियों के बीच हुई बातचीत से वे अजनबी नहीं रह जाते थे. गाँवों में तो खैनी और गांजा को चौपालों को जोड़े रखने वाला फेविकोल ही जानिए.

चाचा ने फिर उचक के कहा सुनो मनोहर एक बात कि हम कहीं खैनी खा के थूकेगें नहीं, लेकिन अगर गलती से मानो थूक भी दिए तो दो सौ रुपये का जुर्माना दे कर ही न जाएंगे. किसी के बाप का कुछ लेकर तो नहीं न जाएंगे. खैनी की थूक पर रुपया न्योछावर करने का साहस कोई बिहारी ही कर सकता था.” “हो गया चाचा, अब छोड़िये भी, आप त खैनी पुराण चालू कर दिएमनोहर ने कहा.

लगभग दो घंटे तक लाल किले में बिताने के बाद अब उनका अगला पर्यटन स्थल था राजघाट. राजघाट का खुला वातावरण चाचा को बड़ा अच्छा लगा. अन्दर गांधीजी की समाधि पर पहुँच चाचा उसे बड़े ध्यान से देखने लगे. इधर-उधर देखा और मौका देख समाधि को छू कर प्रणाम किया. मोतिहारी से आए आदमी का गांधी से एक विशेष लगाव बन जाना लाजिमी था, आखिर पहला सत्याग्रह चंपारण में ही तो किया था गांधीजी ने. चाचा बड़े देर तक तीनकठिया नील किसान की भांति एकटक समाधि को देखे जा रहे थे मानो कह रहे हों फेर चंपारण चलियेगा का बापू?” मनोहर मन ही मन सोच रहा था कि, अब जल्दी से चलें चाचा नय त देख तो ऐसे रहें हैं जैसे समाधि कोड के अस्थिकलश मोतिहारी ले जाने का प्लान बना रहे हों. राजघाट से निकलते ही चाचा ने अपने अर्जित इतिहास के ज्ञान का पिटारा खोला आदमी बहुत फिट थे ये गाँधीजी, एतना कुछ किया देश के लिए बस एक ठो मिस्टेक कर दिया ई आदमी, पाकिस्तान बनवा दिए, यही एगो गलती कर दिए ईचाचा ने गाँधीजी की ऐतिहासिक गलती के प्रति अपनी ताजी सहानुभूति के साथ कहा. मानो ऐसी ही रोज मिलने वाली सहानुभूति के तेल से राजघाट की समाधि का चिराग जला रहता था.

गाँधीजी के साथ ये कैसी एक अजीब विडम्बना आज तक रही थी कि जिस देश ने इन्हें बापू कहा, उसी अपने देश ने इन्हें सबसे कम पढ़ा था, इनके बारे में सबसे कम जानना चाहा था. हैरी पॉटर और चेतन भगत को दिन रात एक करके पढ़ने वाली पीढ़ी ने कभी गाँधीजी के लिए समय नहीं निकाला और गाँधीजी जैसे और भी कई व्यक्तित्वों के बारे में उनकी जानकारी केवल पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे से सुनी किस्से कहानियों के सहारे ही थी और उनकी सारी धारणाएँ भी इसी पर आधारित होती थीं. हिन्दुस्तान में लगभग हर साक्षर, पढ़ा लिखा टाइप आदमी गाँधीजी को पाकिस्तान के बनने का शाश्वत कारण मानता था, और यह फैन्सी ऐतिहासिक ज्ञान खूब प्रचलन में था. ये अलग बात थी कि उनमें कुछ लोग मनोहर के चाचा की तरह सहानुभूति रखते थे और कुछ तो सीधे नफरत करते थे. इस देश ने जितना मार्क्स को पढ़ा, समझा और अपने में गूंथा-ठूंसा, उतना अगर गाँधीजी को पढ़ा समझा होता तो शायद पीढ़ियों का सबक कुछ और होता.

मनोहर ने राजघाट से सटे शक्ति स्थल, किसान घाट, एकता स्थल, समता स्थल, वीर भूमि आदि के भी दर्शन चाचा को करा दिए. चाचा अब जेतना कब्बर और समाधि था दिल्ली में, आप सब देख लिए, कुछ छूटा नहीं है, सोनिया जी, और वाजपेयी जी या मनमोहन जी त अभी खैर ठीके हैं. दस-पंद्रह साल में फेर कभी आइएगा त घुमा देंगेमनोहर ने हाँफते हुए कहा. साथ ही मनोहर ने मन ही मन पूरे प्रतिशोध के साथ सोचा और अगर ई बीच आपका किडनी फेल हो गया त उपरे भेंट करिएगा छूटा बचा से”. “चलो अब साँझ हो जाएगा, डेरा चलते हैं, कल लोटस टेम्पल, इंडिया गेट और कुतुबमीनार बाकी रह गया हैचाचा ने अगले दिन के कार्यक्रम की घोषणा करते हुए कहा. चचा अरे लोटस टेम्पुल तो मेट्रो जब बन रहा था, तबे टूट गया, अब कहाँ है लोटस टेम्पुल, वहां से मेट्रो का पुल बना कर पार कर दिया नमनोहर ने कार्यक्रम को छोटा करने की उम्मीद से एक भयंकर झूठ बोला. हाय टूट गया, ई साला दिल्ली में रस्ता नय था क्या पुल बनाने का, अबे टेम्पुल टूट गया, कौनो बवाल नहीं हुआ?” चाचा ने बड़े हैरत से पूछा. बवाल काहे का, कौनो मंदिर या मस्जिद थोड़े टूटा था, ई टेम्पुल-फेम्पुल में का बवाल होगा ई देश मेंमनोहर ने व्यंग वाले लहजे में कहा. अरे भतीजा ठीक कह रहे हो लेकिन तुमको बताएं, ऊ अपने गाँव के आगे रघुपुर से माधवपुर वाला रस्ता में जो बजरंगबली मोड़ पर एक छोटका हनुमानजी के मंदिरवा था न, उसका दीवार का कोई एक ठो ईंटा उखाड़ दिया था, अरे सोलह घंटा एनएच जाम कर दिए थे हम सब साला, पानी पिला दिए जी परशासन को हम लोग. बारह ट्रक एक के बाद एक फूंक दिए, लास्ट में डीएम साहब बोले कि यहाँ भव्य मंदिर बनेगा तब जा के जाम टूटा, अभी काम चल रहा है. बगल में अस्पताल बनने का भी प्रोजेक्ट आया था, पर उसका बाउण्ड्री मंदिर का दीवाल से सट रहा था, अब मंदिर के बगल में रोज आदमी मरेगा-जियेगा हॉस्पिटल में, ई ठीक थोड़े रहेगा, उसका भी विरोध किये हम लोग, अस्पताल उठा कर दुसरे जिला में चल गया साला, धरम बचा हम लोग काचाचा ने महान वृतान्त सुनाया.

चाचा इतने में ही नहीं रुके, टेम्पुल टूटा और बवाल न हुआ पर लगातार आश्चर्य करते हुए उन्होंने एक और किस्सा सुनाया अच्छा और बताएं, वो रहमतगंज गाँव में जो ठीक गाँव के घुसते ही मस्जिद है, वहां से सट कर गाँव में घुसने का पक्की सड़क वाला रस्ता बन रहा था. अब सड़क जा के मस्जिद के हाता से सट रहा था. कौन बर्दाश्त करेगा जी. आठ गाँव का मुसलमान घेर लिया सड़क के काम करने वाला कर्मचारी और इंजीनियर सब को, बुलडोज़र में आग लगा दिया. आखिर काम रोकना पड़ा भाई. जनता के आगे आपको झुकना होगा. मस्जिद के बगल से सड़क ले जाइएगा तो विरोध त होवे करेगा. आज तक सड़क नहीं बना गाँव में घुसने का, काम रुकले है, वही सड़कवा भेलवा गाँव में दे दिया पीडब्लूडी विभाग. सबको अपना धरम प्यारा होता है, ऊ बचेगा तबे ना आगे कुछ है, अरे मेट्रो चढ़ कर नरक जाएगा ई दिल्ली वाला देखना, टेम्पुल तोड़ा है न”. “हाँ आप ठीक बोल रहें हैं. एक दो ठो मर्डर तो होना ही चाहिए था टेम्पुल टूटने पर, का करियेगा, दिल्ली में सब मतलबी है. किसी को किसी से कुछ लेना देना है नहीं, ऊपर से सब यहाँ अधर्मी टाइप है चचामनोहर ने चाचा को फुल सपोर्ट करते हुए कहा. साथ ही उसका कपार पीटने को मन कर रहा था.

मनोहर को लग रहा था कि बस ये दिन दिन भर भूखे बउआने से जान छूटे. वो तो कुतुबमीनार और इंडिया गेट भी तुड़़वा देता पर सोचा कि इनकी तस्वीर हमेशा टीवी या अखबार में आती रहती है सो इतना बड़ा झूठ पच नहीं पाएगा, धरा ही जाएगा. वो तो मन में सोचने लगा कि भला हो अप्पूघर अब खतम हो गया नहीं तो एक दिन वहां भी झूला झूलने और तारामाची चढ़ने में लगा देते चचा.

उस दिन दोनों कमरे पर वापस आ गए. दूसरे दिन निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार इंडिया गेट पर जाना हुआ. इंडिया गेट को देख चाचा को ये बड़ा रोचक लगा कि ये कैसा गेट है जिसमें आर-पार नहीं हो सकते. इसको यहाँ बनाने का का मतलब था ए मनोहर, हमको कुछ समझ नहीं आयाचाचा ने पुनः एक सवाल पूछा. चचा अब आप आज भर तो हैं दिल्ली में, काहे एतना चिंता और रिसर्च कर रहें हैं दिल्ली के बारे में, भाड़ में जाने दीजिए न जिसको जो बनाना था, जहाँ बनाना था बना दिया, का मतलब इससे हम लोग को? अब आईएएस की तैयारी कर रहें हैं इसका मतलब थोड़े है कि हर चीज के बनाने तोड़ने का सब कारण पूछ के रखे हैं सरकार से?” मनोहर पूरी तरह झुंझलाहट से बोला. अरे ई सब जानना चाहिए, का पता कुछु पूछ दे इंटरव्यू में, ऐसे कैसे होगा तैयारी बेटा, तुरंत भोकला जाते होचाचा ने नपे तुले खीझ से कहा. अच्छा आप ई बताइए ऊ गाँव में पंचायत भवन के सामने चबूतरा काहे बनवाया था सरकारमनोहर ने पूरे दिन में पहला सवाल पूछा. अरे लोग उठते-बैठते हैं, ताश-तूश खेलते हैं, और काहेचचा ने कहा. तो यहाँ भी क्या पहलवानी हो रहा है, लोग चारों तरफ़ उठता बैठता है, घूमता है, बच्चा-बड़ा खेल कूद रहा है, इसलिए बनवा दिया इंडिया गेट, लौक नहीं रहा है?” मनोहर ने मौलिक कारण बताते हुए कहा. ओ हो , हाँ ई हुआ न एक ठो कारण, अच्छा ये जो चिराग है ई हरदम जलते रहता है का, बुतता नहीं है कबो?” पहले जवाब से संतुष्ट ना होने के बाद भी दूसरा प्रश्न पूछ दिया चाचा ने. चचा ई हमनी के बड़का बाबू के दुआरी का लालटेन थोड़ी है जो रात आठ बजे ही भभक के बुत जाता है, अरे इसको जलाने के लिए यहाँ चौबीसों घंटा आदमी रहता हैमनोहर ने दांत खटख़टाते हुए कहा.

इंडिया गेट सम्बन्धी जिज्ञासा को शांत कर वहां से मनोहर चाचा को लेकर कुतुबमीनार पहुँचा. इस बीच उसे ये भी डर लग रहा था कि कहीं चचवा किसी से लोटस टेम्पुल के बारे में इन्क्वायरी ना शुरू कर दे, इसलिए वो चाचा के साथ साए की तरह सटा रहा और उनके हर सवाल का जवाब दे उन्हें अपने साथ ही बातों में उलझाए रखा. ये अलग बात थी कि उनके हर सवाल में वो खुद उलझ जाता था. कुतुबमीनार पहुँच चाचा ने कुतुबमीनार की उंचाई और उसकी नींव की गहराई से सम्बन्धित सवाल पूछे. वहाँ गड़े लौह स्तम्भ के लोहे की क्वालिटी पर भी कुछ बातें की जो इनका छड़ बेचने का पुश्तैनी धंधा होने के कारण लाजिमी था. चाचा ने ये बताया कि ऐसा लोहा अब मिलना मुश्किल है, साथ ये भी बताया कि उनके सत्तर वर्ष पुराने पुश्तैनी मकान में इसी तरह का लोहा इस्तेमाल हुआ था. अब उसी जगह मनोहर के पिता और चाचा ने वो घर तोड़ नया घर बना लिया था. बस वो ये नहीं बता पाए कि वे छड़ और लोहे अब किस संग्रहालय में गड़े या रखे हुए हैं.

लगभग संपूर्ण दिल्ली दर्शन के बाद वे पुनः शाम तक कमरे पर लौट आए. हालाँकि चाँदनी चौक ना घूम पाने का मलाल चाचा जी के मन में रह ही गया था, पर ये संतोष था कि लाल किला जाने के दौरान एक झलक चाँदनी चौक की भी देख ली थी उन्होंने. वो जामा मस्जिद भी देखना चाहते थे पर मन की बात अब मनोहर से कहना उचित नहीं समझा. सोचा फिर कभी आऊंगा तो देखा जाएगा. इधर रात को खाना खाने के लिए मनोहर चाचा को बतरा ही ले आया. मनोहर के मित्रों रायसाहब और संतोष के अलावा औरों ने भी चाचा से मिलने की इच्छा जताई थी. मनोहर ने सोचा सबको बुला के एक बार इस सुनामी के दर्शन करा ही दूँ. मनोहर के चाचा ज्यों ही बत्रा पहुँचे यहाँ के माहौल और भीड़-भड़क्का, आवाजाही देख कर उनके मुहँ से निकला बाप रे यहाँ त मीनाबाजार जैसन माहौल है रे मनोहर, इहें तैयार होता है देश का आईएएस-आईपीएस है न?, साला देख के त एतना नय लगता है, पढ़ो बेटा मनोहर पढ़ो, ई शाम के घुम्मा-फेरी से नय होगा सलेक्शन”.

असल में ऐसा कहने के पीछे चाचा जी की कोई गलत मंशा नही थी. उन्होंने या उनके जैसे लाखों लोगों ने मुखर्जी नगर और आईएएस के लड़कों की तैयारी के माहौल को लेकर जो खांटी गंभीर टाइप कल्पना कर रखी थी, उससे वास्तविक मुखर्जी नगर का चेहरा अलग था. यहाँ लोग शाम को घूमते-फिरते, हँसते-मिलते थे. रंग-बिरंगे कपड़े पहने थे, ठिठोली और बहस सब चल रहा था. जबकि मनोहर के चाचा जैसे लोगों की कल्पना थी कि ये कोई ऐसी जगह होगी जहाँ लड़के रात-दिन कमरे में बंद बस पढ़ते होंगे. हर आदमी गंभीर होगा. लोग केवल किताब खाते और स्याही पीते होंगे. उन्हें लगता था कि हर आदमी शंकराचार्य की तरह सर मुड़़ाये होगा या रविन्द्रनाथ टैगोर की तरह दाढ़ी बढ़ाए होगा. यहाँ के शिक्षक गुरु द्रोण की भांति तेज से भरे होंगे. हर छात्र एक अर्जुन होगा और सब मछली की आँख फोड़ने के प्रयास में लगे होंगे. कुछ ऐसी ही कल्पनाओं से भरा होता था यहाँ आने वाले हर अभिभावक का मन. पर यहाँ वास्तव में ऐसा तो था नहीं. हाँ, यहाँ कई अर्जुन अपनी अपनी मछली के साथ बत्रा विहार करते भले दिख जा रहे थे. मनोहर ने तब तक फोन करके अपने मित्रों को बुला लिया. ये हैं हमारे चाचाजीमनोहर ने सबसे परिचय कराते हुए कहा.

आते ही एक-एक कर सबने चाचा जी के पांव छुए. एक साथ इतने लम्बे चौड़े, पढ़े-लिखे लड़कों से पांव छुआने का चाचाजी के लिए यह पहला मौका था. इस वक़्त उनका चेहरा गर्व से झिलमिल कर रहा था. मोतिहारी में दुकान पर रोज ग्राहकों से खिचखिच करने वाले, उधार के पैसों को लेकर गाली-गलौच सुनने वाले चाचाजी के लिए ये एक बड़ा सुखदायी और गौरवदायी क्षण था. वो सोच रहे थे कि इन्हीं में से कल को कोई आईएएस बन जाएगा, वाह! एक भविष्य का आईएएस पांव छू रहा है. यद्यपि उन्होंने मनोहर के लिए ऐसा शायद ही कभी सोचा था, असल में वे उसके चाचा थे और भतीजे की प्रतिभा को लेकर निश्चिंत भी थे कि कुछ अप्रत्याशित नहीं होने वाला है. चाचाजी ने प्रफ्फुलित मन से सबको एक-एक कर आशीर्वाद दिया और सबको ध्यान से देखा. वो शायद उनमें अपने भतीजे मनोहर से कुछ अलग ढूंढ रहे थे. रायसाहब ने एकदम तमीजदार अंदाज़ में कहा अंकल चलें, चाय पी लें”. “हाँ हाँ चलिए सब चाय पीजिए, चलिए न पहले कुछ समोसा पकौड़ा खा लीजिए आप लोगचाचा ने पूरे चचत्व भाव के साथ कहा. समोसा पकौड़ा खिलाने की बात सुनते ही मनोहर ने सोचा चलो इनको ईश्वर ने सही समय पर सदबुद्धि तो दे दी, वरना तीन दिन में दस रुपया का भूजा तक न खाये, ना साला हमको खिलाये ई, चलो शायद आज ही के लिए बचा के रखे थे खर्चवा”. “हाँ हाँ चलिए संतोष, भरत, रायसाहब आइए आइएमनोहर ने दुकान की ओर चलते हुए कहा.

दुकान पहुँच सब समोसा खाने लगे, इतने में भरत ने पॉकेट से सिगरेट निकाली और एक्सक्यूज़ मीका मन्त्र पढ़ सिगरेट जलाने लगा. एक जोरदार कश ले के उसने सिगरेट मनोहर की तरफ़ बढ़ाया ही था कि मनोहर कुछ पीछे हो लिया और मुंह घुमा पकौड़ी का आर्डर देने लगा. चाचा ने भरत को भर नज़र देखा. भरत के लिए ये सब नार्मल था. आप सिगरेट पीते हैं?” चाचा ने यूँ ही पूछ दिया. या अंकल 10th से पीता हूँ, एक्चुअली हमारे हॉस्टल में सब पीते थे, हाँ बट स्मोकिंग हद से ज्यादा नहीं होनी चाहिए, मैं ड्रिंक भी करता हूँ न तो लिमिट में हीभरत ने गोल गोल छल्ला बनाते हुए कहा. चाचा को पहली बार सवाल से बड़ा जवाब मिला था. रायसाहब ने मामला भांप लिया. संतोष तो समोसा बस गले में अटकाए खड़ा था और मनोहर पकौड़ा ले के आ ही नहीं रहा था. असल में यहाँ लोग इतना मेंटल प्रेसर में होते हैं न दिन रात पढ़कर, सो कभी कभी ले लेते हैं कुछ लड़के. पर हाँ, सब नहीं करते हैं ऐसा, अब अपने मनोहर को ही ले लीजिए, छूना भी पाप समझता हैरायसाहब ने मामला रफ़ू करते हुए कहा. चाचाजी ने भी असहज होते हुए भी खुद को संभाला और चुपचाप ही रहे. इसके बाद मनोहर के मित्र चले गए, वे दोनों चाचा-भतीजा कमरे पर वापस आ गए. चाचाजी ने भरत उवाच पर कोई चर्चा नहीं की. मनोहर तो तब से लगातार चिंता और दहशत में था कि अब आगे बाबूजी को कुछ पता न चल जाए.

सुबह मनोहर और चाचा जी दोनों देर से उठे. पैदल इतना चल चुके थे दिल्ली दर्शन करने में कि थकान तो होनी ही थी. शाम को चाचाजी की ट्रेन थी. थोड़ा जल्दी ही निकल वे दोनों नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गए. ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ के खड़ी हो गई. अब चाचा जी ने अपने मन का सारा गुबार निकालते हुए पूछा तुमको भी बहुत मेंटल स्ट्रेस रहता है का बेटा?” सुनते ही मनोहर का सर चकरा गया कि ये कैसे हुआ, कहाँ चूक हो गई कि चाचा को सब पता चल गया. बेटा तुम्हारा अंग्रेजी अखबार, अंग्रेजी गाना, अंग्रेजी गायिका तो ठीक है लेकिन थोड़ा ज्यादे अंग्रेजी नहीं हो गए हो? हम तुम्हारे कमरे पर बेड के नीचे अंग्रेजी बोतल भी देख लिए हैं, थोड़ा अंग्रेजी मीडियम कम ही रखो तुम, हिंदी ही ठीक है, समझे! बहुत मेंटल स्ट्रेस है न तो घर वापस चल चलो बाप-चाचा का बिजनेस संभालो. बहुत पढ़ लिए तुमचाचा ने एकबारगी सारा क्रोध उगल दिया था मनोहर पर. नहीं चाचा आपकी कसम कुछ नहीं पीते हैं हममनोहर ने एक निरीह खरगोश की भांति कहा. चुप बेहूदा, हमारा झूठा कसम खाता है, किडनी फेल करवाओगे का रे, और तुम्हरा जो सर्किल हम देखें हैं, बोलो ऊ चोट्टा लड़का फ्रेंच दाढ़ी वाला हमरे मुंह पर धुआं उड़ा रहा था. संस्कार नाम का चीज नहीं है. बड़ों के आगे सिगरेट पी रहा थाचाचा ने आगबबूला होते हुए कहा. चाचाजी वो उसका ऐसा ही है कल्चर, हमको तो माफ़ कर दीजिए ना, हम अब गलती नहीं करेंगेमनोहर ने आँखों में लगभग कुछ पानी की बूंदे लाते हुए कहा. चाचाजी अपनी दिए जा रहे थे. वो कौन था एक बुजुर्ग सा आदमीचाचा ने किसी के बारे में पूछा. जी वो रायसाहब थेमनोहर ने कहा. कहाँ का साहब हैचाचा ने थोड़ा डाउन होके कहा. जी, वो हम लोग प्यार से रायसाहब कहते हैं, वो भी साथ में तैयारी कर रहे हैं”. मनोहर ने चाचा को भ्रम से निकालते हुए कहा.क्या इतना उम्र का आदमी भी तैयारी करता है? धन्य है ई जगह हो बाबूचाचा ने सर ऊपर कर कहा. ट्रेन खुलने को हुई. तब तक मनोहर ने सीधे चाचा के पांव पकड़ लिए और बाबूजी से कुछ नहीं कहने को कहा. चाचा आखिर चाचा ही तो थे. दिल पसीज गया. मनोहर को ऊपर उठाते हुए कहा ठीक है सुधर जाओ, हम कुछ नहीं बताएँगे, और सुनो हमारा रिपोर्ट दिखा के, दवा खरीद कर टाइम पर कुरियर कर देना समझेचाचा ने मौके पर चौका मारते हुए कहा. मनोहर ने आँसू पोंछते हुए हाँ कहा और ट्रेन खुल गई. चाचा दौड़ कर ट्रेन पर चढ़े और एक बार हाथ हिलाया. मनोहर को चैन आया. स्टेशन से निकलते समय वो यही सोच रहा था कि जातेजाते भी कपार पर एक हेडेक दे गए चचा, चचा हैं कि कसाई?

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