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भयावह फिल्मों का अनूठा संसार

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प्रचण्ड प्रवीर विश्व सिनेमा पर सीरिज लिख रहे हैं. यह दूसरी क़िस्त है 'हॉरर'फिल्मों पर. इस लेख में न सिर्फ कुछ महान हॉरर फिल्मों का उन्होंने सूक्ष्म विश्लेषण किया है बल्कि शास्त्रों के भयानक रस के आधार पर भी उन्हें देखने का प्रयास किया है. सिनेमा और रस सिद्धांत का यह मेल अगर चलता रहा तो हिंदी में सिनेमा पर एक नायाब किताब बन जाएगी- मौलिक. जानकी पुल अगर अब तक नहीं टूटा है ऐसे ही मौलिक लेखकों के लेखन एक दम पर. समय निकाल कर न सिर्फ लेख पढ़िए बल्कि इन फिल्मों को देखने का समय भी निकालिए. अब देखिये न, मैंने तो अशोक कुमार की फिल्म 'महल'तक नहीं देखी है- प्रभात रंजन 
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इसलेखमालामेंअबतकआपनेपढ़ा:
  1. भारतीयदृष्टिकोणसेविश्वसिनेमाकासौंदर्यशास्त्र: http://www.jankipul.com/2014/07/blog-post_89.html
इसीमेंदूसरीकड़ीहैभयानकरसकीविश्वकीमहानफिल्में।
अबआगे:-
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भयावहफिल्मोंकाअनूठासंसार

फिल्मोंकापारंपरिकअध्ययनफिल्मोंकेकथानककेप्रकारों की भिन्नतापरआधारितहोतीहैजैसेकिरहस्यप्रधान, संगीतप्रधान, वैज्ञानिकफंतासी, प्रेमकहानीवगैरह। हालांकि गोदार्दसरीखेनिर्देशकफिल्मोंकोपूरीतरहकलामाननेसेइनकारकरतेहैं, औरइसेजीवनऔरकलाकेबीचएकनएतरहकाअभिव्यक्तिकहकरसंबोधितकरतेहैं। इस लेखमाला में प्राचीनभारतीयसौंदर्यशास्त्रोंकेसिद्धांतसेहमफिल्मोंकारसकेअनुसारअध्ययनकरेंगे। इसतरहसेकथानककेदांव-पेंच, तकनीककीउत्कृष्टताऔरनवीनता, रंगोंकाखूबसूरतप्रयोग, हमारीचर्चामेंवरीयतामेंनहींहोंगे। हमारेअध्ययनकाकेंद्रबिंदुस्वयंकीसंवेदनाऔरअनुभूतिहै।

सन१९४९मेंबॉम्बेटाकीजकीफिल्मआयीथीमहल! अशोककुमारऔरकमालअमरोहीकीइसफिल्मनेलतामंगेशकरऔरमधुबालाकोस्थापितकरदिया। यहहिन्दी फिल्मकईमायनोंमेंडरावनीथी। इसयादगारफिल्मकीउल्लेखनीयशुरुआतनेपथ्यमेंएकअधेड़आदमीकीबुलंदकर्कशसीआवाज़सेहोतीहै-
"तीसबरसपहले, बरसातकीइकतूफानीरातथी...(आँधी-तूफ़ानकाशोर, दृश्यपटलपरतूफ़ानीरातमेंएकमहल..) इलाहाबादकेनजदीकनैनीरेलवेस्टेशनसेठीकदोमीलकेफासलेपर, जमनाकेउसपारसंगमभवननामकीयेआलीशानइमारतमुद्दतोंसेवीरानऔरलावारिसपड़ीहै।(तभीमहलकेप्रवेशद्वारसेएकबरसातीऔरहैटपहनेएककालासायाअन्दरजातानजरआताहै) सुनाजाताहैकिबरसातकीडरावनीरातोंमेंजबमूसलाधारबारिशहोतीहैतोआधीरातकोएककश्तीकहींसेकरइसमहलकेसामनेजमनाकेदरमियानडूबजातीहैऔरमहलसेकिसीकेरोनेकीआवाजेंआनीलगतीहै।इसीलिएलोगइससेखौफखानेलगेहैंऔरइसेमनहूससमझतेहैं...मगरइसउजाड़महलकेटूटे-फूटेक्वार्टरमेंएकबूढ़ामालीअबतकरहताहै।इसीबूढ़ेमालीकीबयानकीहुयीएकअजीबकहानीइसमहलकेमुताल्लिकमशहूरहै- यहाँमोहब्बतकाबड़ाहीदर्दनाकवाकयागुजराहै..

http://www.youtube.com/watch?v=fWECBUQtLWU&list=PL2B2640EBBC9BC383

इसरहस्यमयीऔरभयावहउद्घोषणाकेउपरांत, फिल्ममेंनिर्जनमहलमेंअँधेरीतूफानीरातमेंकिसीलुकती-छुपतीलड़कीकागाया‘आयेगाआनेवाला’सुनकरअशोककुमारदहशतमेंपड़जातेहैंऔरयहाँतकपरदेकेसामनेबैठासुरक्षितदर्शकभी

यहाँएकगौरकरनेवालीदो बातेंआतीहैं। पहली- इससे पहले की भय का अनुभव हो भय का बीज बहुत से रूपों में बोया जा चुका था, जैसे कि निर्जन महल, तूफानी रात, महल का खौफनाक इतिहास। दूसरी- कहानीकानायककिसीअनिष्टकीआशंकासेडररहाहै, लेकिनदेखनेवालाक्योंडरजारहाहै? यहीसौन्दर्यशास्त्रकाप्रमुखप्रश्नहैवहभयजोफिल्मकेनायककाहै, वहभयजोकिसीवास्तविककारणोंसेदर्शककेअन्दरनहींहै, उसीभयकाआभिर्भावकेवलफिल्मदेखनेसेदर्शकअन्दरक्योंहोरहाहै?
भारतीयप्राचीनसौन्दर्यशास्त्रकेअनुसारमूलतःचाररसहैं:- श्रृंगार, रौद्र, वीरऔरवीभत्स। हास्यरसकीउत्पत्तिश्रृंगारसे, कारुण्य रसरौद्ररससे, अद्भुत रसवीररससे, औरभयानक रसवीभत्सरससेउत्पन्नहोताहै। कोईभीनाटककिसीएकरसकानहींहोसकता। एकसमयमेंदोरसकास्वादनहींलियाजासकता। हर रसकेसाथस्थायीभावजुड़ेहोतेहैं। इसकीविस्तृतचर्चाहमआगेकेलेखोंमेंकरतेरहेंगे। फिलहालइतनाजानलेंकिभयानकरसकेसाथभयस्थायीभावजुड़ाहोताहै, औरवीभत्सरसकेसाथजुगुप्सा। भयानक रस जुगुप्सा के साथ जुड़ा हुआ होता है।

सैद्धांतिक रूप से जिनकारणों(याविभाव) सेभयउत्पन्नहोसकताहैउनमेंप्रमुखहैंअप्रियडरावनीआवाजें, भूत-प्रेतकेदर्शन, उल्लूऔरसियारकीअसमयआवाज़, निर्जनघरयावनमेंरहना, किसीप्रियकोमृत्युकेसमीपदेखना, आसन्नमृत्युयाउसकीचर्चा!

केवलकिसीकारणसेभयकेभावउत्पन्नहोनेसेदर्शककोभयानकरसकीप्राप्तिनहींहोती। लेकिनजबयहीभावसेदर्शककेहृदयमेंऐसेझंकृतहोनेलगे, किदर्शकअपनीसुध-बुध, अपनीदशाखोकरउसरसकेस्वादमेंखोजाये, तभीरसकीप्राप्तिहोतीहै। प्राचीनसाहित्यमेंरसशब्दकाप्रयोगखट्टा, मीठायानमकीनकेस्वाद, किसीखाद्यतरलपदार्थ, इच्छा, शक्ति, रासायनिकअभिकारक, पौधोंमेंबहनेवालीजीवनदायनीधारासेलेकरजहरतककेलिएहोतारहाहै। रसकीअवधारणाभीइसीजटिलताकोसमाहितकियेसमस्तअर्थोंकोसहेजेहुयेहै।

यहकलाकारपरनिर्भरकरताहैकिवहकिनकारणोंसेभयउत्पन्नकरताहैऔरउसमेंसक्षमहोताहै। आइयेहमफिल्मविशारदोंकीफिल्मोंकीचर्चाकरते  हैंजोविभिन्नदेशऔरकालकेआमदर्शकोंमेंव्यावसायिक रूप सेसफलऔरसमीक्षकोंमेंचर्चितरही।

The Cabinet of Dr Caligari
दुनियाकीपहलीमहानभयानकफिल्मथी। यहश्वेत-श्याममूकफिल्मसन१९२०मेंजर्मनीकेचित्रकारोंऔरप्रबुद्धलोगोंकेसौजन्यसेबनीथी। इसफिल्ममेंदोमित्रऔरउनमेंसेएककीमंगेतरकीकहानीहै। डॉक्टरकैलिगरीनामकाएकआदमीमेलेमेंअपनेजमूरेकेद्वारालोगोंकाभविष्यबताताहै। यहनींदमेंचलनेवालेवालाज़मूरा कैलिगरी केएकताबूतमेंसोयाकरताहै, औररात के घोरअँधेरेमेंलोगोंकीहत्याएँकरताफिरताहै। इसफिल्मकीखासियतहैआरी-तिरछीरेखाओंसेबनीडरावनीकलात्मक पृष्ठभूमि। रेखाओंसेबनेचित्रसेशहर, मेले, घरऔर टेढे-मेढेरास्तोंकीकल्पनाकरना, जमूरेका मेक-अप औरपहनावा, अभिनेताओं के परछाईयोंकाइस्तेमाल, औरअभिनेताओंकेहाव-भाव।
 
अँधेरेदृश्यऔरपरछाइयोंसेडरपैदाकरनेकीदूसरीमहानफिल्मरहीसन१९२२मेंबनीजर्मनफिल्मNosferatu (नोसफेरातु)। ब्रैमस्टोकरकी‘ड्रैकुला’परआधारितयहफिल्मबिनाउपन्यासकेअधिकारोंकोख़रीदेबनायीगयीथी, इसलिएकथानकमेंकईपरिवर्तनकियेगए। ड्रैकुलाकानामबदलकरनोसफेरातुकरदियागया। इसकेनिर्देशक‘मुर्नाओ’इसफिल्मऔरsunrise: A song of two humans (1929)  केकारणफिल्मइतिहासमेंअमरमानेजातेहैं। ड्रैकुलाकेभयानककथानककेबादउसेप्रभावीढंगसेफिल्मानेकेलिएनिर्देशककीकल्पनाशीलतालाजवाबरही। नोसफेरातुकेकिलेतकपहुँचानेवालेतांगेकेकोचवान, यहाँतककिउसमेंजुतेघोड़ेभीअपनेखुरोंतककालेकपड़ोंमेंढंकेथे, औरअजबसीतेजचालमेंचलनेवालेथे। नोसफेरातुकीवेशभूषा, उसकेलम्बेनाखून, बड़ीभयानकआँखें, चलनेकातरीका, औरघूरनेकाअंदाज़इतनाप्रभावशालीरहाकिप्रसिद्धजर्मननिर्देशक‘वर्नरहरज़ोग’नेविख्यातअभिनेता‘क्लाउसकिन्सकी’केसाथमिलकरश्रद्धांजलिकेतौरपरNosferatu The Vampyre (1979) केनामसेरीमेकबनायीं, जोकिएक बेहदखूबसूरतफिल्महै। तथाकथितनोसफेरातुकोरोशनीकेडरकोदर्शानेकेलिएनोसफेरातुकीताबूतकिलेकेतहखानेमेंछुपीथी। मृत्युसेजुड़ेहोनेकेभावकेलिएइसतहखानेमेंरखेताबूतकेपल्लेसड़ेहुएथेऔरजमीनमेंबेतरतीबघासउगेहुएथे। हाँ, जब'ड्रैकुला'पर ही बनीबेलालुगोसीद्वाराअभिनीतअमेरिकीफिल्मDracula (1931) मेंआयी, तबवहकोहरे, स्पेशलइफ़ेक्ट, संवाद, मूलकहानीसेजुड़ावकेकारणबेहदसफलरही। इसमेंड्रैकुलादिखनेमेंइतनाभयावहनहींथा, परचेहरेपरकुटिलताऔरसंवादइसफिल्मकीजानरहे।

दर्शकोंमेंभयपैदाकरनेकासाधारणफार्मूलाजोआमतौरपरदेखने को अक्सर मिलताहैसरकटीलाश, खूनमेंलथ-पथचेहरा, आँखों की पुतलियों का बदला रंग, सुनसानघरमेंअचानकरोशनीकाआना-जाना, तीखेऔजारोंसेअंग-भंगदिखाना, चीजोंकोहवामेंतैरना, अचानकसेपीछेसेकिसीकाआनाऔरअनचाहीजोरोंकीचौंकादेनेवालीतीखीआवाज़! थोड़ीशांतिकेबादअचानकचौंकानेकेसाथ, आवाज़कीकर्कशताएकतरहकाचिरपरिचिततरीकाटीवीऔरफिल्मोंमेंदिखायाजातारहाहै। इनसबकेपीछेमूलअवधारणायहहैकिहमारेआस-पासकेवातावरणमेंअपरिचितस्थितियावस्तुअप्रत्याशितढंगसेसामनेजाए, जिससेहमेंहानिकीआशंकाहोतोहमेंभयमहसूसहोगा। लेकिनफिल्मकारइनसेकहींआगेगए। उन्होंनेभयकेसिद्धांतकोसमझाऔरअनोखेप्रयोगकिये।

रूपसज्जासेभयावहतालानेकेलिएThe Phantom of The Opera (1925) विशेषतौरपरउल्लेखनीयहै। इसफिल्ममेंएकअज्ञातनकाबपोशसंगीतकारएकऑपेराकलाकारकाअपहरणकरकेऑपेराहाउसकेतहखानेमेंबनेडरावनेकमरेमेंरखताहै। भयावहफिल्मोंकास्वर्णकालतीसकेदशककोकहाजासकताहै। इसमेंबनीअमेरिकीनिर्देशकजेम्सह्वेलकीचारप्रसिद्दफिल्मेंFrankenstein (1931), The Old Dark House (1932), The Invisible Man (1933), औरBride of Frankenstein (1935) महत्वपूर्णहै। एकअजबबातरहीकिअपनीडरावनीफिल्मोंसेऊबकरजबउन्होंनेदूसरीतरहकीफिल्मेंबनानीशुरूकी, तब उनकाकैरियरडूबगया। अंतमेंसन1957मेंघोरनिराशामेंउन्होंनेतरणतालमेंडूबकरआत्महत्याकरली।

डराने के लिये विशिष्ट सेट, वेशभूषा, चाल ढाल जैसे विभावों का प्रयोग करने वाली Frankenstein और Bride of Frankenstein इनमें से अविस्मरणीय फिल्में हैं। मेरी शेली के उपन्यास पर आधारित यह फिल्म 'फ्रैंकेन्सटाइन'नामक वैज्ञानिक द्वारा मुर्दा शरीरों से जीवित प्राणी बनाने के प्रयास पर है। किन्हीं गलतियों से प्रयोग में जीवित प्राणी में एक खूनी का दिमाग लग जाता है और यह प्राणी एक खतरनाक दानव निकलता है। महात्वाकांक्षी वैज्ञानिक की पहाड़ी पर बनी प्रयोगशाला, पवनचक्की, मॉन्सटर की रूप रेखा, चाल  - यह फिल्म  The Cabinet of Dr Caligari के भय के विभाव से प्रभावित तो थी ही, पर इसकी बेहतरीन मार्केटिंग और अविश्वसनीय सफलता से अनेकों भयानक फिल्मों को प्रभावित किया। इसके कई आधिकारिक- गैर आधिकारिक उत्तर फिल्में यानि सीक्वेल बने। महान निर्देशक अॉरसन वेल्स ने जब काफी कम लागत में Macbeth (1948) बनायी, तब मैकबेथ का महल का डिजाइन 'फ्रैंकेन्सटाइन'की पहाड़ी पर बनी प्रयोगशाला जैसा रखा। कई मायनों में  Bride of Frankenstein पहली फिल्म से बढ-चढ कर है। इसमें खतरनाक मॉन्सटर वैज्ञानिक को अपने लिये एक दुल्हन बनाने के लिये बाध्य कर देता है। 'फ्रैंकेन्सटाइन'के मॉन्सटर की दुल्हन की वेशभूषा, केशसज्जा भी मॉन्सटर के तरह ही बेहद सराहनीय रही।

इसीदौरमेंबनीअन्यअमेरिकीफिल्मेंजैसेDracula (1931), Dr Jekyll & Mr Hyde (1931), Mummy (1932), King Kong (1933), और  The Black Cat (1934) भीबेहदसफलऔरचर्चितरहीं, दर्शकोंकोडरानेमेंकामयाबरहीं।

महाननिर्देशककार्लड्रेयरकीजर्मन-फ्रेंचफिल्मVampyr (1932) नेडरावनीफिल्मोंकेनएआयामऔरमानकगढ़े। दुनियाकेमहानतमनिर्देशकोंमेंसेएककार्लड्रेयरनेभयकेलिएकईविचित्रप्रयोगकिये। जैसेबैठेहुएनायकसेउसकीछविकानिकलना(जोआत्माहैयाउसकाचिंतनयहठीकठीककहनामुश्किलहै) औरताबूतमेंअपनीहीलाशकोदेखना, एकलंगड़ेचौकीदारकीछायाकानिकलकरसीढियाँचढ़नाऔरवापसयथास्थानजाना, ताबूतमेंपड़ीलाशकेनजरियेसेआकाशकोदेखना, जैसेकईप्रयोगदर्शकोंकेअवचेतनपरगहराप्रभावडालजातेहैं। कईमनोवैज्ञानिकोंऔरशोधकर्ताओंनेइसफिल्मकीतरहतरहसेव्याख्याकीहै।
http://www.youtube.com/watch?v=GZDCurPnFyg; http://www.youtube.com/watch?v=b2ub9_wkYpc 


भूत-प्रेत या चुड़ैलों को फिल्मों दर्शाने के लिये तीन बेहतरीन फिल्मों के दृश्य अविस्मरणीय हैं। शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ पर आधारित अॉरसन वेल्स की 1948 में बनी Macbeth (1948) में बनी खौफनाक चुड़ैलें जो वू-डू से मैकबेथ को साथ-साथ बरबाद भी करती जाती हैं। धुयें से भरी पृष्ठभूमि पर सीधी रूखे बालों वाली मनहूस तीन बुढियाँ का चरित्र मूल नाटक से थोड़ा परिवर्तित कर दिया गया। इसी नाटक पर बनी जापानी निर्देशक अकिरा कुरोसावा की Throne of Blood (1957) में तीन चुड़ैलों के बजाये चरखा चलाती भूत का रोंगटे खड़े देने वाला दृश्य किसी की रातों की नींद छीन सकता है। महान जापानी निर्देशक केंजी मिजोगुची की श्वेत-श्याम Ugetsu (1953), जिसमें में गेइशा नृत्य के दौरान दुष्ट नृत्यांगना के मृतक पिता का पैशाचिक गायन जो डरावने मुखौटों के जरिये सुनाई देता - बिना किसी विशेष साज सज्जा के, केवल आवाज की उतार चढाव, वाद्य संगीत और अभिनय से बेहद डरा देने वाला बन पड़ा है।

फिल्म इतिहास में अल्फ्रेड हिचकॉक एकमात्र एेसे निर्देशक रहे जो बिना भूत-पिशाच, काल्पनिक कथानकों के, हमेशा रहस्य, हत्या, अपराध, और मानव मन के भय से जुड़ी फिल्में बनाते रहें। दिलचस्प कथानकों, बेहतरीन साउंडट्रैक, विनम्र संवाद शैली से सजी उनकी कई कामयाब फिल्मों से दो फिल्में  Psycho (1960) और The Birds (1963) भयानक रस की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण हैं। फिल्म Psycho में मोटल मे पास बना विचित्र सा घर, निर्जन अॉफिस में मरे पक्षियों में भूसा भर के सजा कर रखने वाले मालिक, रहस्यमय हत्या के दौरान पार्श्व संगीत, लगभग सभी फिल्म प्रेमियों ने दसियों बार देख-सुन रखा है। माइकल पॉवेल की Peeping Tom (1960) का कथानक इस बात के इर्द गिर्द घूमता है कि हत्यारे का मानना होता है दुनिया की सबसे डरावनी चीज खुद की आसन्न मौत है। हत्यारा उस भय को अपने कैमरे में कैद करना चाहता है और कई हत्यायें करता है। आलोचकों ने इस फिल्म की धज्जियाँ उड़ा दी और इस निर्देशक का कैरियर खत्म हो गया। करीब बीस साल बाद यह महान फिल्मों मे शामिल कर ली गयी। भयानक रस की दृष्टि से The Birds बहुत गौर करने लायक है। इस फिल्म के खत्म हो जाने तक चिड़ियों का नगर निवासियों पर हमले का कारण पता नहीं चल पाता है। केवल मासूम सी लगने वाले चिड़ियों का समूह अचानक भय पैदा करने लगता है। एक दृश्य में चिड़ियों के हमले के बाद एक लाश की आँखें फूटी हुयी रहती है और खिड़की का शीशा टूटा दिखायी देता है। इसमें भय से तनिक देर के लिये अभिनेत्री की आवाज चली जाती है और उसके साथ तेज दौड़ता कैमरा क्षणिक विभीषिका को दीर्घ कर देता है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी मोनिहारा पर आधारित सत्यजीत राय की Teen Kanya (1961) – Monihara में गहना के मोह में फँसी पिशाचिनी का फिल्मांकन देखने  लायक है। इंगमर बर्गमैन की  Hour of the wolf (1968) के एक भयानक दृश्य में एक पात्र अपने चेहरे पर से अपनी चमड़ी, यहाँ तक कि अपनी आँखें निकाल कर टेबल पर सहजता से निकाल कर रख देता है, मानों वह चश्मा जैसी मामूली वस्तु हो।

भय की पराकाष्ठा तब होती है जब स्वयं के अंदर ऐसी आत्मविस्मृति पैदा हो जाये कि एक साधारण चीज भी भय पैदा कर दे। इसके लिये सर कटी लाश, हत्या या भूत-पिशाच के बजाये सड़क पार करने की मामूली सी घटना भी भयावह लगने लगे। ऐसा करने में कामयाब हुयी रोमन पोलांस्की की Rosemary’s Baby (1968)। एक नवविवाहित दंपत्ति नये घर में जब रहने आता है, तब विचित्र पड़ोसियों और पति की कुटिलताओं वह शैतानी ताकतों से गर्भवती हो जाती है। हर तरफ से अकेली पड़ती जा रही रोजमेरी अपनी होने वाली संतान से किस तरह पेश आये - यह परिस्थिति, अभिनेत्री के कौशल और निर्देशक की दूरदर्शिता से यह बहुत ही असहज कर देने वाली भयावह फिल्म है।


अगले अंक में हम चर्चा करेंगे जुगुप्सा रस की महान फिल्मों की।

क्या सचमुच अच्छे अनुवादक नहीं हैं?

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सी-सैट को समाप्त करने के लिए युवाओं के आन्दोलन के पीछे एक बड़ा तर्क अनुवाद के सम्बन्ध में दिया जा रहा है. जिस तरह की भाषा में प्रश्न पत्र का अनुवाद हो रहा है उसे खुद अनुवादक कैसे समझ लेता है यह दिलचस्प है. बहरहाल, इसी प्रसंग को ध्यान में रखते हुए वरिष्ठ लेखक प्रेमपाल शर्माने यह विचारोत्तेजक लेख लिखा है. आप भी पढ़िए- जानकी पुल.
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     संघ लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा विवाद की जड़ में अनुवाद की खामियां विशेष रूप से उजागर हुई हैं और हों भी क्‍यों न। जिस परीक्षा के माध्‍यम से आप देश की सबसे बड़ी नौकरी के लिए लाखों मेधावी नौजवानों के बीच से चुनाव कर रहे हों और उसका परचा ऐसी भाषा में पूछा जाए कि जिसे न हिन्‍दी वाले समझ पाएं न अंग्रेजी वाले तो इसे देश का दुर्भाग्‍य नहीं माने तो क्‍या माने। आजादी के तुरंत बाद के दशकों में एक अधिनियम के तहत यह फैसला किया गया कि अंग्रेजी अगले पन्‍द्रह वर्षों तक चलती रहेगी और इन वर्षों में हिन्‍दी समेत भारतीय भाषाओं में ऐसा साहित्‍य अनुदित किया जाएगा या मौलिक रूप से लिखा जाएगा जिससे कि उसके बाद भारतीय भाषाओं में काम किया जा सके। लेकिन हुआ उलटा। शुरू के दो-तीन दशकों तक तो भी राजभाषा और अनुवाद के काम में प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष वे लोग भी लगे जो जाने-माने साहित्यकार थे जैसे बच्‍चन, दिनकर बालकृष्‍ण राव, अज्ञेय आदि। स्‍वयं प्रेमचंद ने अंग्रेजी की कई किताबों के अनुवाद किये जिसमें जवाहर लाल नेहरू की प्रसिद्ध पुस्‍तक पिता के पत्र पुत्री के नामभी शामिल हैं। अनुवाद को इन सभी ने इतना ही महत्‍वपूर्ण माना जितना कि मौलिक लेखन और यही कारण है कि उन दिनों के किसी अनुवाद को पढ़कर कभी लगता नहीं कि आप मूल कृति पढ़ रहे हैं या अनुवाद।

लेकिन पिछले बीस-तीस वर्षों में ऐसा अनुवाद सामने आ रहा है जिसको पढ़ने के बजाए आप मूल भाषा में पढ़ना बेहतर समझते हैं। सरकार द्वारा जारी परिपत्रों में तो बार-बार यह कहा ही जाता है कि जहां भी समझने में शक-सुबहा हो तो अंग्रेजी को प्रामाणिक माना जाए। नतीजा धीरे-धीरे यह हुआ कि कम से कम सरकारी अनुवाद तो इतनी लापरवाही से होने लगा है जिसका प्रमाण हाल ही में सी-सैट की परीक्षा से उजागर हुआ है जहां कांफिडेस बिल्डिंगका अनुवाद विश्‍वास भवनऔर लैंड रिफॉर्मका आर्थिक सुधारकिया गया है। और जो भाषा इस्‍तेमाल की गई है उसे गूगल या कंप्‍यूटर भले ही समझ ले किसी हाड़मॉंस का आदमी उसे नहीं समझ सकता। यह प्रश्‍न और भी महत्‍वपूर्ण इसलिए हो जाता है कि जब आप परीक्षा भवन में बैठे होते हैं तो आपके पास अटकलें लगाने या मूल प्रश्‍न से भटकने का समय भी नहीं होता। संघ लोक सेवा आयोग के एक पूर्व अधिकारी ने बातचीत के बाद जब यह समस्‍या स्‍वीकार करते हुए कहा कि आखिर अच्‍छे अनुवादक कहां से लाएं तो लगा कि समस्‍या पर पूरे समाज और सरकार को विचार करने की जरूरत है। आखिर अनुवादक भी तो इसी शिक्षा व्‍यवस्‍था या देश की उपज हैं।

     सबसे पहली खामी तो शायद अनुवादक या हिन्‍दी अधिकारी की भर्ती प्रक्रिया की है। भर्ती नियम कहते हैं कि हिन्‍दी अधिकारी या अनुवादक बनने के लिए हिन्‍दी, संस्‍कृत या अंग्रेजी भाषा में एम.ए. होना चाहिए और डिग्री स्‍तर पर दूसरी भाषा। बात ऊपर से देखने पर तो ठीक लगती है लेकिन सारा कबाड़ा इसी नीति ने किया है। कम से कम हिन्‍दी पट्टी के विश्‍वविद्यालयों से जिन्‍होंने हिन्‍दी में एम.ए. किया है वे सूर कबीर, तुलसीदास जायसी को तो जानते समझते हैं, भाषाओं, बदलते विश्‍व के आधुनिक ज्ञान, मुहावरों को नहीं, जिसमें रोजाना का जीवन राजनीति समाज और जटिलताएं झलकती हैं। इसके दोषी वे नहीं है बल्कि वह पाठ्यक्रम है जिसकी इतिहास, राजनीति शास्‍त्र, भूगोल या विज्ञान के विषयों में कभी आवा-जाही रही ही नहीं। वे संस्‍कृत साहित्‍य या तुलसीदास के मर्मज्ञ हो सकते हैं अनुवाद के विशेषज्ञ नहीं। बेरोजगारी के इस दौर में भी जितनी आसानी से प्रवेश हिन्‍दी अधिकारी या अनुवादक की नौकरी में होता है उतना देश की किसी दूसरी नौकरी में नहीं। नौकरी में आने के बाद इन्‍हें फिर शायद ही अच्‍छे अनुवाद या सरल भाषा में अपनी बात कहने का कोई विधिवत शिक्षण-प्रशिक्षण नियमित अंतराल से दिया जाता हो। इसीलिए आपने अधिकांश मामलों में देखा होगा कि इनके अनुवाद की भाषा कठिन बोझिल ज्‍यादातर मामलों में संस्‍कृत के शब्‍दों से लदी हुई या ऐसी टकसाली भाषा होती है जिसका बोलचाल की भाषा से दूर-दूर तक कोई संबंध ही नहीं होता। उर्दू या बोलचाल की हिन्‍दुस्‍तानी से दूरी भी इसमें एक प्रमुख भूमिका निभाती है। पुरानी पीढ़ी के संस्‍कृत के मारे प्रशिक्षक राजभाषा के नाम पर इन्‍हें ऐसा करने पर और पीठ थपथपाते हैं। इस कमी को पूरा किया जा सकता है बशर्ते कि आप लगातार उस साहित्‍य और पत्रिकाओं के सम्‍पर्क में रहें। पिछले कई दशकों के अनुभव के बाद कहा जा सकता है कि सरकार के हिन्‍दी विभागों में काम करने वाले ज्‍यादातर कर्मचारी नौकरी में आने के बाद पढ़ने-लिखने से शायद ही कोई संबंध रखते हों और यही कारण है कि धीरे-धीरे उनके पास शब्‍द भंडार और सरल शब्‍दों का क्षय होता जाता है।

     प्रश्‍न उठता  है कि आखिर वे हिन्‍दी की किताब क्‍यों पढ़ें? और क्‍यों अपनी भाषा को सरल बोधगम्‍य पठनीय बनाए? पहले तो उनको सरकारी मशीनरी का हर विभाग देखता ही ऐसे नजरिए से है कि जैसे वे किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हों। जिन सरकारी बाबूओं को दूर-दूर तक अंग्रेजी नहीं आती वे भी हिन्‍दी विभाग में काम करने वालों को एक अस्‍पृश्‍य नजरिए से देखता है। यानि ऐसा विभाग जो खुशामद करते हुए काम कराता हो, सितंबर के महीने में जो टॉफी, चॉकलेट या दूसरे उपहारों को बांट कर भीड़ जुटाता हो, क्‍या इन विभागों के शीर्ष पर बैठे हुए बड़े अफसरों ने भी इस ओर कभी ध्‍यान दिया, कभी अनुवाद को बेहतर करने की सूझी? और क्‍या दिल्‍ली के सरकारी कार्यालयों में काम करने वाले ये तथाकथित अंग्रेजीदां छोटे-छोटे काम आवेदनों के जवाब, टिप्‍पण आदि हिन्‍दी में नहीं कर सकते? कब तक आप चंद अनुवादकों के सहारे इतने बड़े सचिवालय या देश का बोझ ठोएंगे ? साठ वर्ष के बाद या राजभाषा अधिनियम की पन्‍द्रह वर्ष की अवधि समाप्‍त होने के बाद क्‍या हमें हिन्‍दी में काम करने के योग्‍य नहीं हो जाना चाहिए था?

इसीलिये एक तुरंत समाधान तो अनुवादकों की गुणवत्‍ता बेहतर करने का यह है कि अनुवादकों के भर्ती नियम तुरंत बदले जायें। हिन्‍दी अनुवादकों की भर्ती एक परीक्षा के माध्‍यम से होती है और जब प्रतियोगी परीक्षा ले ही रहे हैं तो उनमें किसी भी विषय में डिग्री या स्‍नातकोत्‍तर ही पर्याप्‍त माना जाए  । किसी भाषा विशेष में स्‍नातक या स्‍नातकोत्‍तर होना नहीं । क्‍या सिविल सेवा परीक्षा समेत कर्मचारी चयन आयोग, बैंक आदि की ज्‍यादातर परीक्षाओं में केवल ग्रेजुएट डिग्री ही पर्याप्‍त नहीं मानी जाती? इससे मेधावी, प्रखर, भाषा ज्ञान रखने वाले वे भी चुने जा सकते हैं जिन्‍होंने हिन्‍दी माध्‍यम से राजनीति शास्‍त्र, इतिहास या विज्ञान विषयक कोई भी पढ़ाई पूरी की है। इसका उलटा भी कि अंग्रेजी माध्‍यम से पढ़े जाने वाले वे नौजवान भी इसमें आराम से चुने जा सकते हैं जिनकी मातृभाषा हिन्‍दी रही हो। भाषाओं से इतर योग्‍यता रखने वाले को विषयों का बेहतर ज्ञान होने के कारण अनुवाद में वे गलतियों नहीं आएंगी जो संघ लोकसेवा आयोग की सी-सैट परीक्षा से उजागर हुई हैं । आधुनिक विषयों का ज्ञान रखने वाले अनुवादक ऐसी गंभीर गलतियां । भी नहीं करेंगे।

दूसरे भारतीय भाषा-भाषी हिन्‍दी अनुवादकों में शामिल हों पायें तो सबसे अच्‍छा रहे। उन्हें परीक्षा में रियायत देकर भी राजभाषा विभागों में नौकरी देनी चाहिये। इससे वह पाप भी धुलेगा जो हिन्‍दी भाषियों ने त्रिभाषा सूत्र को धोखा देकर दक्षिण की कोई भाषा न सीखकर किया है । क्‍या भारतीय भाषाओं की एकता राष्‍ट्रीय एकता के समतुल्‍य नहीं है?
   
     अनुवाद की चक्कियों के बीच पिसते राजभाषा हिन्‍दी के कर्मचारियों को शायद ही कभी समकालीन साहित्‍य को पढ़ने की फुर्सत मिलती हो। एक पुस्‍तक चयन समिति के दौरान कुछ विवाद बढ़ने पर एक हिन्‍दी अधिकारी ने सफाई दी मुझे क्‍या पता कौन सी किताब अच्‍छी है या बुरी। मैंने तो पिछले पन्‍द्रह साल से कोई नयी किताब नहीं पढ़ी। अनुवाद से फुर्सत मिले तब न।आश्‍चर्यजनक पक्ष यह है कि ऐसे अधिका‍री न पढ़ने के बावजूद भी आखिर पुस्‍तक चयन समिति में क्‍यों बने रहना चाहते हैं? एक अधिकारी का दर्द और उभरकर सामने आया। पहले तो अनुवाद से फुर्सत नहीं मिलती उसके बाद संसदीय समितियों के साठ-सत्‍तर पेजों के ब्‍यौरे, फार्म, अनुलग्‍नक, प्रपत्र । कितने कंप्‍यूटर खरीदे गये ? उसमें कितने द्विभाषी थे? कितने कर्मचारी हैं, कितनो को प्रबोध, प्रवीण का ज्ञान है, कितने पत्र क्षेत्र को गये कितने क्षेत्र को और कितने विज्ञापन अंग्रेजी में गये कितने दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में? और फिर उन्‍हें लगातार यह डर रहता है कि संसदीय समिति इन आंकड़ों को जोड़ कर देखने पर कोई गलती न निकाल दे। हिन्‍दी विभाग न हो कोई गणित की प्रयोगशाला हो गया। यानि कि उन्‍हें राजभाषा का गणित और समितियों को खुश रखने का बीजगणित तो सिखाया जाता है भाषा को सहज, लोकप्रिय बनाने का बुनियादी पक्ष नहीं। इस निरीक्षण ने ऐसा आतंकित कर रखा है कि देश भर में इन आंकड़ों, परिपत्रों को भरने वाले राजभाषा अधिकारियों ने सेवानिवृत्ति के बाद एजेन्‍सी या दुकानें खोल ली हैं। वे प्रश्‍न और पूरक प्रश्‍नों की सूची भी देते हैं और समिति के निरीक्षण के बाद पाते हैं विभागों से भरपूर, मुआवला फीस। भाषा गयी भाड़ में आंकड़ों की वाह-वाह। एक और अनुभव। एक ऐसे ही हिन्‍दी अधिकारियों की बैठक में भाग लेने का मौका हुआ । निदेशक महोदय बड़े उत्‍साह से बताते कि ये अमुक हैं संयुक्‍त सचिव हैं और लेखक भी। कई चेहरों के विचित्र भावों को देख के जब प्रश्‍न पूछा कि क्‍या कभी कुछ पढ़ा है कोई पत्रिका, किताब आदि तो सबका एक सा ही निरीह जवाब था कि पढ़ने को फुर्सत कहां मिलती है । क्‍या भाषा के प्रचार-प्रसार से जुड़े हुए किसी कर्मचारी से ऐसी उम्‍मीद कर सकते हैं कि जो अपने वक्‍त के साहित्‍य और विमर्श से इतना अलग हो।

कुछ व्‍यक्तिगत अनुभवों का जिक्र करना भी जरूरी लगता है। वर्ष 1979 सिविल सेवा परीक्षा समेत कई प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के क्रम में मैंने एक बैंक में एक हिन्‍दी अधिकारी पद के लिए भी आवेदन कर दिया जब फीस दी थी तो लिखित परीक्षा के लिए बुलावा भी आया और लिखित में पास भी हो गया । साक्षात्‍कार के समय उन्‍होंने पेंच लगाए कि आप हिन्‍दी में स्‍नातकोत्‍तर तो हैं लेकिन बी.ए. में तो आपके पास विज्ञान था । न हिन्‍दी थी, न अंग्रेजी । मैंने समझाने की कोशिश भी की कि बी.एस.सी. अंग्रेजी माध्‍यम में थी जिसे अंग्रेजी के एक विषय से बेहतर नहीं तो बराबर माना जा सकता है लेकिन वे संतुष्‍ट नहीं हुए क्‍योंकि उनके भर्ती नियमों में यह महत्‍वपूर्ण नहीं है कि कितना किसी को अनुवाद और भाषा ज्ञान है महत्‍वपूर्ण यह है कि उन्‍होंने उन विषयों में डिग्री ली है या नहीं । इनके भर्ती नियमों के अनुसार तो रामचंद्र शुक्‍ल न बनारस विश्‍वविद्यालय में प्रोफसर बन सकते थे न ये उन्‍हें हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास लिखने देते। आप सब जानते होंगे कि उर्दू के कथाकार मंटो बारहवीं में दो बार उर्दू विषय में फेल हुए थे। लेकिन उर्दू साहित्‍य में उनका शानी पूरे महाद्वीप में कोई नहीं। एक दशक पहले मंत्रालय में निदेशक राजभाषा के पद पर प्रतिनियुक्ति से आवेदन मांगे गये थे। एक आवेदनकर्त्‍ता विज्ञान और हिन्‍दी दोनों में स्‍नातकोत्‍तर था । लेकिन उसे साक्षात्‍कार के लिये भी इसलिये नहीं बुलाया गया कि डिग्री स्‍तर के विषयों में हिन्‍दी या अंग्रेजी का उल्‍लेख नहीं है । यहां भी वही पेंच । क्‍या अंग्रेजी माध्‍यम से विज्ञान पढ़ना अंग्रेजी विषय की पूर्ति नहीं करता ? काश इन नियमों में अपेक्षित परिवर्तन किया जाये तो विज्ञान या हिन्‍दीतर दूसरे विषयों को पढ़कर आने वाले मौजूदा अनुवादकों से कहीं ज्‍यादा अच्‍छे साबित होंगे । 
आखिरी बात कि अनुवाद के सहारे कब तक? कम से कम दिल्‍ली स्थित केन्‍द्र सरकार के पिचानवे प्रतिशत कर्मचारी, अधिकारी हिन्‍दी जानते, समझते, बोलते हैं । संसदीय समितियां भी यहीं हैं और राजभाषा के सर्वोच्‍च विभाग भी । क्‍यों ये अपनी बात फाइलों पर अपनी भाषा में कहने में हिचकते हैं ? इसकी शुरूआत उच्‍च पदों पर बैठे अधिकारियों से करनी होगी । पिछले तीस वर्षों में हिन्‍दी माध्‍यम से चुने गये अधिकारियों का तो यह थोड़ा-बहुत नैतिक दायित्‍व बनता ही है कि जिस भाषा के बूते वे इन प्रतिष्ठित सेवाओं में आये हैं, उसमें कुछ काम भी किया जाये और राजभाषा विभाग का बोझ कुछ हल्‍का करें । इनमें से अधिकांश कविता तो लिखते हैं, फाइल पर नोट, या पत्र नहीं । वहां तो कई बार ये दूसरों से बेहतर अंग्रेजी लिखने की दौड में शामिल हो जाते हैं । इसका प्रमाण मिला दक्षिण भारत के एक सरकारी कार्यालय में । हिन्‍दी प्रेमी दक्षिण भारतीयों का कहना था कि यहां उत्‍तर प्रदेश, बिहार से बड़ी संख्‍या में अधिकारी तैनात हैं । हम चाहते थे कि इनके साथ रहकर हमारी हिन्‍दी ठीक हो जायेगी क्‍योंकि हमें भी दिल्‍ली या दूसरे हिन्‍दी क्षेत्रों में जाना होता है । उन्‍होंने अफसोस के साथ बताया कि उत्‍तर के ये अधिकारी तो अंग्रेजी सुधारने में लगे रहते हैं । क्‍या भारतीय भाषाओं या हिन्‍दी के लिये सड़कों पर आंदोलनरत ये छात्र देश को यह यकीन दिला सकते हैं कि प्रशासन के इस दुर्ग में प्रवेश पाने के बाद वे जनता से जनता की भाषा में ही बात करेंगे ? पिछले तीस बरस का अनुभव तो कुछ उल्‍टा ही कहता है कि ये और ज्‍यादा और जल्‍दी अंग्रेजी सीखकर अमेरिका, इंग्‍लैंड उड़ जाना चाहते हैं ? लेकिन यह प्रश्‍न और बड़ा होकर वापस लौटता है कि क्‍या मानव मूल्‍यों, बराबरी, जाति, धर्म से ऊपर उठने की बात करने और लिखने वाले लेखक बुद्धिजीवी अपने जीवन में ऐसा हो पाते हैं ? क्‍या संविधान की शपथ लेने वाले मंत्री घंटे दो घंटे भी उसे याद रखते हैं?

सी-सैट के प्रश्‍नों के हिन्‍दी अनुवादकों को बरखास्‍तगी की मांगभी कुछ लोगों ने की है । लेकिन क्‍या इसमें उनका कसूरकम है जो हिन्‍दी क्षेत्रों में हैं उसी में पढ़े हैं लेकिन अपनी भाषा से उतनी ही दूरी बनाने में फख्र करते हैं । हमें आयोग के समक्ष अनुवाद की चुनौती को समझने की भी जरूरत है । जरा सी चूक हुई तो प्रश्‍न पत्र लीक हो सकता है और पूरी प्रतिष्‍ठा दांव पर । इसलिय हर हालत में यू.पी.एस.सी. में ही कुछ विशेष प्रावधान करके सर्वश्रेष्‍ठ अनुवादकों की  भर्ती की जरूरत है ।

सी-सैट विवाद के मुद्दे ने अनुवाद की खामियों की ओर पूरे देश का ध्‍यान खींचा है लेकिन यदि हम समस्‍याओं को समाधान चाहते हैं तो हमें भर्ती नियमों और उनकी योग्‍यता आदि के प्रावधानों में  तुरंत बदलाव करने होंगे और दीर्घजीवी समाधन तो यही है कि जब तक स्‍कूल, कॉलिजों में शिक्षा अपनी भाषाओं में नहीं दी जायेगी, इस समस्‍या का पूरा हल संभव नहीं होगा। और दीर्घजीवी समाधान तो यही है कि जब तक स्‍कूल, कॉलिजों में शिक्षा अपनी भाषा में नहीं दी जाएगी इस समस्‍या का पूरा समाधान संभव नहीं होगा।

'जनसत्ता'से साभार 
       
प्रेमपाल शर्मा                                     
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मनोहर श्याम जोशी से वह मेरी पहली मुलाकात थी

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आजमनोहर श्याम जोशीजीवित होते तो 81 साल के होते. उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ और उनके ऊपर लिखी जा रही अपनी किताब का एक अंश आपके लिए जो उनसे मेरी पहली मुलाकात को लेकर है- मॉडरेटर.
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उदयप्रकाश ने एक दिन एक पतला-सा उपन्यास दिया ‘स्ट्रीट ऑफ क्रोकोडायल्स’.देते हुए कहा  इसे मनोहर श्याम जोशी के घर देने जाना है. लेखक थे ब्रुनो शुल्ज, जिसके बारे में पहले भी उदय जी कई बार बता चुके थे, कि पोलैंड के इस यहूदी लेखक की महज पचास साल की उम्र में हत्या कर दी गई, कि उसके दो उपन्यासों में उत्तर-आधुनिक उपन्यासों के आरंभिक बीज मिलते हैं. यथार्थ में विश्वासों-मान्यताओं के मिश्रण की शैली में लिखे गए उनके उपन्यासों में जादुई यथार्थवाद के दर्शन होते हैं. वे कहते कि उनकी चर्चा नहीं होती, लेकिन उनके पास उनके दोनों उपन्यास हैं और वे उनके माध्यम से उत्तर-आधुनिकता पर कुछ लिखना चाहते हैं. जल्दी ही कुछ लिखेंगे. हालाँकि उन्होंने कुछ लिखा हो ब्रुनो शुल्ज पर मुझे ध्यान नहीं आता. ब्रुनो शुल्ज के दूसरे उपन्यास का नाम है ‘सैनेटोरियम अंडर द साइन ऑफ द आवरग्लास’.

ब्रुनो शुल्ज के उपन्यास को देते हुए उदयप्रकाश ने कहा कि यह उपन्यास उनको दे देना. आप उनके ऊपर पी.एच.डी. कर रहे हैं तो आपके लिए अच्छा रहेगा कि उनसे मुलाकात भी कर लें. उदयप्रकाश का यह प्रस्ताव मुझे अच्छा लगा. अपने एक प्रिय लेखक से मिलने का मौका जो मिलने वाला था. कुछ दिन पहले ही मानसरोवर हास्टल में उनके लिखे धारावाहिक ‘जमीन-आसमानको नियमित देखते और उसको लेकर अपने सीनियर संजीव जी से चर्चा करते. वे हमारे आदर्श तो नहीं लेकिन मन ही मन हमारी महत्वाकांक्षा के शिखर-पुरुष थे. केवल 35साल की उम्र में ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी लोकप्रिय पत्रिका का संपादक बन जाना, 47 साल की उम्र में पहला उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ लिखकर आलोचकों का ध्यान खींच लेना, हमलोग, बुनियाद जैसे धारावाहिक लिख कर टेलीविजन धारावाहिकों के इतिहास में अमर हो जाने वाला, जिसे देखने की हसरत में हमारे घर में टेलीविजन आया, वेस्टन का ब्लैक एंड व्हाइट. ३६ इंच वाला, जो १२ वोल्ट की बैटरी से भी चल जाता था. उसी मनोहर श्याम जोशी से मिलने का मौका था. ब्रुनो शुल्ज के एक उपन्यास ‘स्ट्रीट ऑफ क्रोकोडायल्स’ के माध्यम से वह मौका मिलने वाला था.

मैं सहर्ष तैयार हो गया. उदय जी ने जोशी जी का फोन नंबर दिया. वह लैंडलाइन फोन का जमाना था, वैसे भी मनोहर श्याम जोशी ने अपने जीवन में कभी मोबाइल फोन नहीं रखा. मैंने उनको फोन किया, मिलने का समय लिया. समय देने के साथ उन्होंने पूरा रास्ता समझाया कि साकेत में उनके घर कैसे पहुंचना है, कौन-सी बस कहां से मिलेगी- बस अड्डे से साकेत ५०१ नंबर की बस चलती है, मेरे मानसरोवर हॉस्टल से बस अंतरराज्यीय बस अड्डा पास पड़ता है- सब उनको पता था.उदय प्रकाश जी ने उनको मेरे बारे में बता दिया था, कि मैं उनके उपन्यासों पर पीएच.डी. कर रहा हूं. मैंने पीएच.डी. में नामांकन करवाया ही था तब, ले-दे कर वही एक परिचय बनता था. लेखन के नाम पर कुछ भी ऐसा खास नहीं था कि अपना परिचय लेखक के रूप में दे पाता.

जोशी जी से मिलने नियत दिन, नियत समय पर पहुँच गया. प्रसंगवश, वे इस बात का खास ध्यान रखते थे कि जो उनसे मिलने आये समय लेकर आये. बिना बताये मिलने पहुँच जाने वालों पर कई बार वे प्रकट तौर पर नाराज हो जाते थे. इसका एक कारण यह था कि वे नियम से सुबह १० बजे से शाम पांच बजे तक लेखन का काम करते. लेखन क्या वाचन करते. वे बोलते जाते, उनका टाइपिस्ट टाइप करता जाता. कभी कोई उपन्यास, कभी कोई कहानी, कोई टीवी धारावाहिक, किसी फिल्म की पटकथा, अखबार या किसी मैग्जीन के लिए लेख. बरसों मैंने उनके लेखन की यही दिनचर्या देखी. जिसमें कभी-कभी ही बाधा आती. प्रसंगवश, उनके लिए इन रचनाओं को टाइप करने वाले शम्भूदत्त सती भी बाद में लेखक बने. शम्भूदत्त सती का एक उपन्यास बाद में भारतीय ज्ञानपीठ से छपा, ‘ओ इजा’ के नाम से. 

बहरहाल, उनके घर के पास वाले स्टॉप पर बस से उतर कर जब मैं उनके घर पहुँच तो वे मेरा इंतज़ार कर रहे थे. मुझे याद है शाम के पांच-सवा पांच बजे थे. उनकी शाम की चाय का समय यही होता. उस समय वे बहुत अच्छे मूड में होते, खूब कहानियां सुनाते. चाय फीकी पीते थे और गुड़ का टुकड़ा अलग से रखते. कुतर-कुतर कर गुड़ खाते और चाय का सिप लेते हुए वे इतनी बातें करते कि सामने वाला इस भ्रम में आ जाता कि वे उसे अपना अन्तरंग समझने लगे हैं.

मैं उनके घर पहली बार गया था. उस लेखक के घर जिसे मैं स्कूल के दिनों से ही पढ़ता आया था. पहले साप्ताहिक हिन्दुस्तान के कॉलम ‘नेताजी कहिन’, फिर बाद में जब कुछ बड़ा हुआ तो सीतामढ़ी के सनातन धर्म पुस्तकालय से उनके उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ को लाकर पढ़ने की असफल कोशिश की थी. तब मुझे वे ‘केवल वयस्कों के लिए’ टाइप लेखक लगे थे. उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में ‘केवल वयस्कों के लिए’ फ़िल्में होती हैं. बल्कि इस अर्थ में कि उसको समझ पाना मुश्किल लगा, कुछ-कुछ दुरूह, उसकी मुम्बईया हिंदी मुझ देहाती के जुबान नहीं चढ़ी. इस बात से भी चिढ़ हुई कि यह कैसा लेखक है? सीधे-सीधे कुछ कहता ही नहीं है. बाद में पूर्ण वयस्क होने के बाद जब दोबारा ‘कुरु कुरु स्वाहा’ पढ़ा तब उसका आस्वाद ले पाया. मुझे कई अर्थों में वह उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास लगता है. भाषा, कहने का ढंग, किस्सागोई, आत्मकथात्मक टुकड़े, समाज का बदलता चेहरा... वह अपनी सम्पूर्णता में उपन्यास है. अपनी कहानी के लिए नहीं, कभी पात्रों के लिए, कभी प्रसंगों के लिए याद आता है. ‘कसप’ ने भी अपने पहले पाठ में मुझे बहुत प्रभावित किया था, एक गहरा अवसाद मन पर छा गया था. मार्च का महीना था. हिंदू कॉलेज हॉस्टल के कमरे में मैं घंटों बत्ती बुझाकर पड़ा रहता- बेबी-डीडी की प्रेम कहानी के बारे में सोचता रहता.
कई दिनों तक.

वह ‘कसप’ का पहला पाठ था.

बाद में वह प्रभाव जाता रहा.  

‘हमलोग’, ‘बुनियाद’ के लेखक के रूप में मैं क्या सारा टीवी समाज उनको जानता था. हाल में ही उनका लिखा और महेश भट्ट का निर्देशित किया हुआ धारावाहिक ‘जमीन-आसमान’ का प्रसारण डीडी पर पूरा हुआ था. वे तब भी एक ‘सेलिब्रिटी’ की तरह लगते थे.

मैं कुछ घबड़ाया हुआ-सा उनके ड्राइंग रूम में पीछे-पीछे घुसा. मध्यवर्गीय मानसिकता का मारा मैं एक ‘सेलिब्रिटी’ लेखक के ड्राइंग रूम में घुसते हुए डर रहा था. जिनके ऐश्वर्य के किस्से सुने थे. एक-एक एपिसोड के हजारों लेने वाले लेखक का ड्राइंग रूम पता नहीं कैसा हो? लेकिन अंदर जाते ही कुछ भी ऐसा नहीं दिखा जो हमारे मध्यवर्गीय घरों में न होता हो. साधारण सोफे, अति साधारण साज-सज्जा, जूते तो मैं A-53, साकेत के उस डीडीए फ़्लैट के बाहर ही खोल आया था, लेकिन वहां के कालीन में भी कुछ ऐसा नहीं था मेरे जूतों से जिसके गंदे होने का डर हो. वहां बैठते ही मैं सहज होने लगा. सर्दियों के दिन थे लेकिन मैंने देख लिया था कमरे में एसी तक नहीं लगा था.

जोशी जी ने अपनी बातों से और सहज बना दिया. मैंने बैठते ही उनके हाथों में उदय प्रकाश का दिया हुआ ब्रुनो शुल्ज का उपन्यास रख दिया. पहले उस उपन्यास के बारे में मुझसे पूछा. सच बताऊँ तो मैंने उपन्यास पढ़ नहीं रखा था लेकिन उदय प्रकाश ने उसके बारे में मुझे इतना बताया था कि उसी के आधार पर उत्तर-आधुनिकता के अपने अधकचरे ज्ञान का छौंक लगा कर उनको उस उपन्यास के बारे में  कुछ-कुछ बता दिया- यह उपन्यास पारंपरिक नैरेटिव में एक बहुत बड़ा शिफ्ट है, कि इसमें आधुनिक तार्किकता को प्रश्नित किया गया है.

वे बड़े ध्यान से सुनते रहे. फिर उन्होंने पूछा, ‘प्रभात रंजन जी, आप क्या कर रहे हैं?’

‘सर, मैंने अभी एम.फिल. किया उदय प्रकाश की कहानियों पर, अब पीएचडी में रजिस्ट्रेशन करवाया है. शीर्षक है ‘उत्तर-आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास’, मेरे शोध निर्देशक हैं सुधीश पचौरी.’ सुनकर उनके चेहरे पर किसी तरह का भाव आया हो मुझे याद नहीं आता. अलबत्ता उन्होंने हिंदी विभागों में होने वाले शोधों को लेकर एक कहानी अवश्य सुनाई, जिसमें उनके कहानी-उपन्यासों की तरह ही गहरा व्यंग्य था, खिलंदड़ापन था और वह सिनिसिज्म जो बाद में उनके लेखन का एक तरह से स्थायी भाव बन गया था. मैं थोड़ा निराश हुआ क्योंकि हमें हमारे गुरुओं ने समझाया था कि किसी लेखक की रचनाओं पर शोध करना असल में उस लेखक का कल्याण करना होता है, कुछ-कुछ अहसान सरीखा या उद्धार करना समझ लीजिए. मैं पहले एम.फिल. में उदयप्रकाश का ‘कल्याण’ कर चुका था, अब मनोहर श्याम जोशी का करने निकला था. लेकिन उनके इस बेपरवाह अंदाज से मुझे भान हो गया कि इस तरह के कल्याण में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. वे तो अपना उद्धार करवाना चाहते ही नहीं थे. बाद में जाना वे इन सब चीजों से परे थे. न शोध के इतिहास में अमर होना चाहते थे, न पुरस्कारों की होड़ में पड़ते थे. हिंदी के बड़े-छोटे आलोचक-पाठक भी उनको ‘बड़ा’ उपन्यासकार मानते रहे, लेकिन पूरे जीवन में ठीक-ठिकाने का एक ही पुरस्कार उनको मिला-साहित्य अकादेमी. वह भी जीवन के अंतिम साल में.

इसी बीच उनकी पत्नी भगवती जोशी, जो तब लेडी श्रीराम कॉलेज में पढ़ाती थीं, खुद चाय लेकर आ गईं. कुल मिलाकर, बड़ा घरेलू टाइप माहौल लगा. मेरी पढ़ाई लिखाई के बारे में बात करते रहे. बीच-बीच में कहते, आज अच्छे मौके पर आये हो. एक बहुत बड़े आदमी आने वाले हैं उनसे तुम्हारी मुलाकात हो जायेगी. मैं सोच रहा था कि पता नहीं इतना बड़ा लेखक- टीवी-फिल्मों के ग्लैमर में जीने वाला लेखक कह रहा है कि बड़ा आदमी आने वाला है, तो पता नहीं कौन हो? इसी लोभ में मैं चाय धीरे-धीरे पी रहा था कि पता नहीं अगर चाय समाप्त हो गई तो कहीं जोशी जी जाने के लिए न कह दें.

आखिरकार ‘वे’ आये. छोटे कद के कुछ खोए-खोए से. जोशीजी उठ खड़े हुए. मुझसे कहा जल्दी से उठकर पांव छुओ, ये वागीश शुक्ल हैं. इतने बड़े विद्वान से मिलने का अवसर मिल रहा है तुमको. मैंने पढ़ा था उनको, पूर्वग्रह में, समास में. उनका लिखा कुछ खास पल्ले नहीं पड़ता था इसलिए हम भी उनको बड़ा विद्वान मानते थे. मैं झट से उठ खड़ा हुआ और वागीश जी के पैरों पर झुक गया. वागीश जी ने ‘खुश रहिये’ कहते हुए पूछा, ‘कहां के रहने वाले हैं?’ मैंने कहा, ‘मुजफ्फरपुर के’. ‘तो आप वैशाली के हैं’

‘नहीं लिच्छवी गणराज्य के,’ मैंने जवाब दिया.

वागीश जी चुपचाप मुझे देखने लगे. मैंने जोशी जी से आज्ञा ली और चलने के लिए पीछे मुड गया.
यह वागीश जी से भी मेरी पहली मुलाकात थी. अब उनका प्रसंग चल ही निकला है तो यह भी बता दूँ कि हिंदी समाज में अपने बहुपठित होने के आतंक से सबको आतंकित कर देने वाले मनोहर श्याम जोशी जिस एक विद्वान के ज्ञान से आतंकित रहते थे वे वागीश शुक्ल ही थे. प्रकाश मनु को दिए एक इंटरव्यू में जोशी जी ने वागीश जी के लिए लिखा है कि वे एक लिटररी जायंट’ हैं. वे उनका बड़ा सम्मान करते थे. मुझे एक बार उन्होंने बताया था कि ‘कसप’ के बाद उनका अगला उपन्यास ‘हरिया हरक्युलीज की हैरानी’ दस साल से भी अधिक के अंतराल पर आया तो इसके पीछे एक बड़ा कारण यह था कि उन्होंने वागीश शुक्ल के लिखे जा रहे उपन्यास के अंश पढ़ लिए थे. जिसके बाद उनको डिप्रेशन हो गया.  क्योंकि जिस तरह का पांडित्य और लालित्य एक साथ उनको वागीश जी के उपन्यास ‘अथ याज्ञवल्कोपाख्यानाम’ में दिखे वह हिंदी में दुर्लभ था. असल में जोशी जी स्वयं अर्जेंटीनी लेखक बोर्खेस की तरह ऐसा साहित्य लिखना चाहते थे जिसमें गहरा पांडित्य भी हो रोचकता भी, लेकिन उसमें मार्केस की सी लोकप्रियता अधिक आ गई- कई बार कहते थे. उनको लगा कि वे वैसा नहीं लिख पाएंगे जैसा वागीश जी ने लिखा है. इसलिए उपन्यास लेखन से वे विमुख हो गए. प्रसंगवश, वागीश शुक्ल के इस उपन्यास के कुछ अंश जरू छपे लेकिन उनका यह उपन्यास अधूरा ही रह गया.

अब प्रसंग चल ही रहा है तो बता दूं कि जोशी जी के उपन्यासों ‘हरिया हरक्युलीज की हैरानी’ और ‘हमजाद’ का ब्लर्ब वागीश शुक्ल ने ही लिखा है, सो भी बिना नाम के. अपनी लिखी जा रही रचनाओं के बारे में जोशी जी वागीश जी से नियमित चर्चा करते. अक्सर शाम में आइआईटी कैम्पस चले जाते. दोनों घंटों आइआईटी के परिसर में टहलते रहते. जोशी जी के उपन्यास ‘कसप’ की एक उम्दा समीक्षा वागीश शुक्ल ने भी लिखी है.

बहरहाल, विषयान्तर से आपस विषय पर लौटते हैं-
फोन करना तुमसे कुछ काम है’, मैं दरवाजे से बाहर निकल गया था कि पीछे से जोशी जी की आवाज आई.

‘जी’, मैंने बाहर से दरवाजा भिड़काते हुए कहा.

असल में बात यह थी कि मनोहर श्याम जोशी से मिलने के पीछे एक लोभ यह भी समाहित था कि इतने बड़े पटकथा लेखक हैं, बड़े-बड़े फिल्मकार उनकी तारीफ करते हैं. मैंने रमेश सिप्पी, कमल हासन के इंटरव्यू भी पढ़े थे, जिन्होंने उनके लेखन की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी. तो कहीं न कहीं मन में यह बात भी थी कि जोशी जी अगर किसी टीवी सीरियल के प्रोड्यूसर से कह दें या किसी फिल्म वाले से तो पटकथा लेखन में अपना भी नंबर लग जाए. इसलिए जब उन्होंने कहा कि फोन करना तो मन में यह बात भी आई कि हो न हो वही बात होगी जो मैं सोच रहा हूं. अपना भी नाम किसी सीरियल या फिल्म के क्रेडिट रोल में आएगा. पांच अंकों में पैसे मिलेंगे... और कम से कम मैं तो जोशी जी तरह इतनी कंजूसी से नहीं रहने वाला. शान से रहूँगा, दुनिया घूमूँगा... उस दिन लौटते वक्त बस के करीब १ घंटे के सफर में मन में यही सब चलता रहा.

आखिर मुझ अकिंचन से उनको ऐसा कौन-सा काम होगा जो उन्होंने फोन करने के लिए कहा?
हॉस्टल वापस आने के बाद फिर वही पुराना संकोच उभर आया. इतने बड़े आदमी को फोन कैसे करूँ? मन कहता था कर लो फोन. चलते समय उन्होंने स्वयं कहा था. फोन तक जाता भी था लेकिन याद आ जाता कि उन्होंने हिंदी विभागों में होने वाले रिसर्च को लेकर क्या कहा था? फिर कुछ-कुछ डर कुछ संकोच मन के उस ख़याल पर हावी हो जाता. फोन करना टलता रहा...

खैर, कुछ दिनों बाद ही दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन हुआ. उन दिनों अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का नियमित आयोजन दिल्ली में ही होता था, सीरी फोर्ट में. अपने एक दोस्त की कृपा से मुझे एक ‘सिल्वर पास’ मिल गया. जिसे गले में लटकाए फिल्म वालों के बीच मुझे भी घूमने का अवसर मिल गया. मैंने वहां कौन-कौन सी फ़िल्में देखी यह तो याद नहीं लेकिन किन-किन फिल्मकारों से मिला यह अवश्य याद है. मेरा एक दोस्त नरेश शर्मा उन दिनों एफटीआई से सिनेमाटोग्राफी का कोर्स करके निकला था. फिल्म फेस्टिवल में १० दिनों के लिए उसने घर ही बना लिया था. अहले-सुबह आ जाता, देर रात तक वहीं डोलता रहता. उसके सौजन्य से अमोल पालेकर के साथ मैंने चाय पी, कुमार शाहनी के साथ फोटो खिंचवाई. जीवन में पहली बार इस तरह का अनुभव मिला था, उसके एक-एक पल का मैं लाभ उठा रहा था.

दूसरे या तीसरे दिन वहां मनोहर श्याम जोशी मिल गए. गले में बड़ा सा पास लटकाए अकेले वे एक हॉल की तरफ बढ़े जा रहे थे कि मैं उनकी ओर लपका. मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता कि उन्होंने मुझे पहचान लिया. पहचानते ही कहा, ‘तुमने फोन नहीं किया?’ उसके बाद तो मैं बहुत बेतकल्लुफ हो गया. उनके सीरियल ‘जमीन आसमान के बारे में बात करने लगा. मैंने कहा कि मुझे तो यह सीरियल ‘मिलियनायार्स डॉटर’ की कथा से प्रभावित लगा. उन्होंने कहा कि वैसा नहीं है. बहरहाल, इस तरह की बातें करता हुआ मैं उनके साथ सीरी फोर्ट परिसर में घूम रहा था और लोग उनसे अधिक मुझे देख रहे थे क्योंकि उन दिनों दिल्ली के कला-सर्किल में जोशीजी किसी स्टार से काम दर्जा नहीं रखते थे. लोग देख रहे थे कि इतने बड़े स्टार के साथ यह लड़का कौन घूम रहा है? मैं और बेतकल्लुफ होता जा रहा था उनके हालिया प्रकाशित उपन्यास ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’ के बारे में बात करने लगा.

जब अधिक देर हो गई तो उन्होंने अचानक मुझसे पूछा- ‘कमल को कहीं देखा है?’ मैं उनका मुँह देखने लगा. वे कमल यानी कमल हासन की बात कर रहे थे.

मेरी वह बेतकल्लुफी जाती रही. जिस बात को उनके साथ बातचीत में मैं भूला हुआ था वह फिर से याद आ गई. वे एक स्टार थे और मैं हिंदी विभाग का शोधार्थी. जो नजदीकी मैं उनके साथ महसूस कर रहा था अचानक वह दूरी में बदलने लगी. उनके एक सवाल ने हमारे बीच एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी. बाद में मैंने महसूस किया कि यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी- आपसे ऐसे बात करने लगते जैसे कि आपके बहुत पुराने दोस्त हों और अचानक कुछ ऐसा कह देते कि वे आपको अपने से बहुत दूर लगने लगते- एक महान शख्सियत की तरह.

उस दिन मुझे इस बात का पहला अनुभव हुआ. पहली बार.

‘कमल कहीं दिखे तो कहना मैं हॉल नंबर दो में जा रहा हूं. शो का टाइम हो गया है. और हाँ... कल-परसों में फोन जरूर कर लेना. कुछ काम है तुमसे!’ कहते हुए वे हॉल के अंदर चले गए. मैं पीछे मुड गया. शायद कमल हासन को ढूंढने.

उस दिन मुझे कमल हासन कहीं नहीं दिखे. पूरे फेस्टिवल के दौरान मुझे कमाल हासन कहीं नहीं दिखे.

असल में कमल हासन उस साल दिल्ली अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में आये ही नहीं थे.     
    


झुकी पलकें पलटकर लिखतीं एक ऐसे महान अभिनय का शिलालेख

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अच्छी कविताएं हमारी स्मृतियों में रह जाती हैं. करीब 15 साल पहले हिंदी के चर्चित कवि दिनेश कुशवाहने फिल्म अभिनेत्रियों रेखा, हेलेन, स्मिता पाटिल और मीना कुमारी पर कवितायेँ लिखी थी, जो 'हंस'में छपी थी. मुझे याद है उसके अगले अंक में उन कविताओं पर मनोहर श्याम जोशी का पत्र छपा था. जिस दिन संसद में रेखा की अनुपस्थिति को लेकर हल्ला मचा हुआ था उस दिन मुझे इन कविताओं की याद आई और मैंने फेसबुक पर लेखकों, पाठकों से पूछा तो असंख्य लोगों की स्मृतियाँ जाग गईं. आज वे चारों कविताएं. पढने के लिए और युवा कवियों के लिए कि महान कवितायेँ कैसे लिखी जाती हैं- मॉडरेटर 
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रेखा
जो लोग तुम्हें नशा कहते थे
मुकम्मल ताजमहल
उनके लिए भी
नहीं है तुम्हारा कोई पुरातात्विक महत्व
कि बचाकर रखे जाएँगे तुम्हारे खंडहर।

न तो इन्द्र ही रखेंगे बचाकर तुम्हें
धरती पर सहस्र वर्ष
पुरानी वारुणी की तरह।

अजंता-एलोरा के शिल्पियों के स्वप्न भी
नहीं थीं तुम
पर तुम्हारे माथे पर लिखा जा सकता था
कोणार्क का सूर्य मंदिर।

पहली बार देखा था तुम्हें
तो याद आया एक टुकड़ा कहरवा
लगा जैसे रजत खंभे पर हाथ टिकाये
तिर्यक मुद्रा में खड़ी हो कोई यक्षिणी
जिसकी गहरी नाभि और उन्नत वक्षों पर
बार-बार आकर टिक जाता हो ढीठ सूरज
एक याचक का पीला चेहरा लिये हुए।

मेरा कहानीकार दोस्त देवेन
करता था जिन दिनों प्यार
उन दिनों भी
उसके रात के सपनों में
चली आती थीं तुम
ऐसा क्या था दुर्निवार?
जो बान्हने-छानने पर भी
झाँक ही जाता था
जीभ चिढ़ाती चंचल किशोरी की तरह।

तुम्हारे चौड़े पंजे नाचे होंगे न जाने कितने नाच
तुम्हारी लम्बी अँगुलियाँ बुनी होंगी ज़रूर
कुछ मोज़े-कुछ स्वेटर
एक अनदेखे बच्चे के लिए।

मैंने देखा कि कला में डूब जाना
भूल जाना है काल को
पर हमें रात-दिन डसती रहती हैं उसकी क्रूरताएँ
कि जिसे मन से उरेहते हैं ब्रह्मा
उसे कैसे लग जाती है
पहले उनकी ही नज़र!

सोचता रहा मैं
कि धरती की सुन्दर कलावती बेटियों को
कौन बाँटता है
नटी से लेकर नगरवधू तक के ख़ानों में
कि जिसे हज़ारों-हज़ार लोग
लिफ़ाफे़ में भरकर भेजते हैं सिन्दूर
उसे कोई नहीं भेजता डिठौना?


हेलेन

हँसना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है
क्या आप बता सकते हैं
अपनी ज़िन्दगी में कितनी बार
हँसे होंगे ईसा मसीह?

ठट्ठा नहीं है थिरकना भी
या तो बलइया लेती हैं
या विद्रोह करती है देह की
एक-एक बोटी।

मैंने उसे कभी खड़े
या लेटे हुए नहीं देखा
समुद्र का एक उत्ताल नर्तन
आता था लहराते हुए
और लौट जाता था
सामने किनारों तक छूकर
अपनी अथाह दुनिया में।

चमकते श्रमबिन्दु याद दिलाते थे
कि अभी-अभी
पर्वत-जंगल-मैदान लाँघती
इधर से दौड़ती हुई गई लकड़हारे की बेटी
या किसी वनवासी ने चन्दन घिसकर
बिंदियों से सजा दिए हैं
अपनी प्रिया के कपोल
और उसे पहनाने के लिए
लेने गया है वन देवता से एक चितकबरी खाल।

मैंने उसके हाथ में कभी पानी नहीं देखा
न कोई खाने की चीज़
जब भी देखी तो शराब
मन हुआ कई बार
जैसे कोठे पर
मिली लड़की से पूछने को होता है
क्या है तुम्हारा असली नाम?
उसने दुखी होकर कहा
झूमते हाथी,दौड़ते खरगोश
नाचते मोर से तुम नहीं पूछते
उसका असली नाम?
तुम्हारी पंचकन्याओं में
कैसे आएँगी इजाडोरा डंकन
प्यारी मग्दालीना?

दुनिया के सारे कलावंत बेटों को
मैंने ही नहीं बनाया शराबख़ोर!
न झूठों से कहा
कि खोल लो शराब के कारखाने!
मैंने नहीं बिछाई
सूली ऊपर पिया की सेज!

बारूद से जली
गुलाब की पत्तियों का हाहाकार
मैंने नहीं चुराया।


स्मिता पाटिल

उसके भीतर एक झरना था
कितनी विचित्र बात है
एक दिन वह उसमें नहा रही थी
लोगों ने देखा
देखकर भी नहीं देखा
उसकी आँखों का पानी।

मैना ने कोशिश की
कि कैसे गाया जाए पिंजरे का गीत
कि लोग
आँखों में देखने के आदी हो जाएँ। 

तब घर के पीछे बँसवारी में
हवा साँय-साँय करती थी
जब उसने कोयल की नक़ल की थी
और चल पड़ी थी बगीचे की ओर
कि देखा
बड़े बरगद के पेड़ पर
किस तरह ध्यान लगाकर बैठते हैं गिद्ध
पूरे सीवान की थाह लेते हुए।

पिटती-लुटती-कुढ़ती स्त्री के रूप में
गालियाँ नहीं
मंत्र बुदबुदाती थी नैना जोगिन।


एक दिन मैंने उससे पूछा
बचपन में तुम ज़रूर सुड़कती रही होंगी नाक
वह मुस्कुराकर रह गई
मैंने कहा
जिसने गौतम बुद्ध को खिलाई थी खीर
तुम जैसी ही रही होगी वह सुजाता।

उसने पूछा
पुरुष के मुँह में लगी सिगरेट
बढ़कर सुलगा देने वाली लड़की भी
क्या इसी तरह आ सकती है इतिहास में?

कविता द्रोही भी मानते थे
अभिनय करती थी कविता
जीवन के रंगमंच पर
भीड़ भरी सिटी बसों में।

सुनते थे हम प्रसव की पीड़ा के बाद
औरत जनमती है दूसरी बार
अभिनेत्री!
जीवन के इस अभिशप्त अभिनय के लिए
हम तैयार नहीं थे।


मीना कुमारी

बिस्तर पर जाते ही
किसी का माथा सहलाने के लिए
हुलसी हथेलियाँ
फफक पड़ती इतनी
कि उसके चेहरे पर उभर आती थी कोख।

जलते बलुवे पर नंगे पैर
चली जा रही थी एक माँ
तलवों में कपड़ा लपेटे
जब हम उसे देख रहे थे अमराइयों में।

महुवा के पेड़ तले
अपने आँचल में बीनते हुए कुछ
शायद दुनिया का सबसे रस भरा फूल
उसके गाल खिल उठते थे
और साथ ही भर आती थीं आँखें।

यह क्या उल्लाह मियाँ?
मात्र आँसुओं की भीख के लिए ही
नहीं होते बड़री आँखों के कटोरे।

चाँदनी में सिर्फ़ चाँद-तारों से
बातें कर जी नहीं भरता
चाहिए ही चाहिए एक आदमी
अकेले आदमी का आसमान
कभी ख़त्म नहीं होता।

वर्जित फल खाया भी,नहीं भी
स्वर्ग में रही भी,नहीं भी
पर ज़िन्दगी-भर चबाती रही धतूरे के बीज
और लोग कैंथ की तरह उसका कच्चापन
अपनी लाडली के लिए ही
रसूल ने भेजा था एक जानमाज़
मुट्ठी-भर खजूर और एक चटाई।

झुकी पलकें पलटकर लिखतीं
एक ऐसे महान अभिनय का शिलालेख
कि मन करता था चूम लें इसे
जैसे करोड़ों-करोड़ लोग चूमते हैं क़ाबे का पत्थर
या जैसे बच्चों को बेवज़ह चूम लेते हैं।



          

किस्मत के मारे यह काबिल सितारे

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आज सैयद एस. तौहीदने कुछ गुमनाम फ़िल्मी सितारों पर लिखा है. आपको कुछ नाम याद आयें तो आप भी इनमें नाम जोड़ सकते हैं- मॉडरेटर
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वक्त का न्याय सबसे महान होता है। हमारी फिल्म इंडस्ट्री ने किसी को आसमान की बुलंदिया नवाज कीं तो किसी को फकीर बना दिया। सच ही कहा गया कि यह एक मायानगरी है।जब कभी हमने यह विचार किया कि यहां के सितारे बडे तकदीर वाले होते हैं, अक्सर गलत साबित कर दिए गए। हमने देखा कि यहां किस्मत के मारों की कमी नहीं। एक से बढकर एक मामला सामने आएगा कि कभी लोगों के दिलों पर राज करने वाले सितारे युं ही बेपरवाह रुकसत हो लिए। भूले बिसरे लोगों की विरासत को जिन्दा रखने में काफी हद तक नाकाम रहा है बालीवुड। कोई सितारा चुपचाप गुजर जाए तो जनाजे में लोग भी नहीं मिलते। आप परवीन बाबी का ही उदाहरण लें जिनका जाना युं हुआ मानो वो कभी थी ही नहीं।  गुजरे जमाने की इस मशहूर अदाकारा की अंतिम संस्कार की खबर भी लोगों को काफी विलम्ब से मिली थी। बहुतों के लिए यह जिंदगी का आखिरी मोड हिंसक रहा। आप सयीदा खान की निर्मम हत्या-वसंत देसाई की तकलीफदेह अंत- शंकर दास गुप्ता की दुखदायक निधन- संगीतकार माधोलाल के दर्दनाक अंतिम मोड को याद करें। फिर गुरु दत्त-बुलो रानी को भी ना भूलें कि इन लोगों खुदकुशी में जान दी। आप गरीबी-भिकमंगी में आखिरी वक्त गुजारने वालों को भी याद करें। मास्टर निसार को याद करें जिनकी मकबूलियत जमाना देख चुका है। याद करें वो दौर जब निसार साहेब के दीवानों को रास्ता देने के लिए बाम्बे के गवर्नर को अपनी गाडी रोक देनी होती थी। निसार कमाथीपुरा के सलम्स में गरीबी में सिर से पांव डूबे मर गए। कभी दीवानों की धडकन रही मीना शोरए को बेटी की शादी निभाने वास्ते लोगों से भीक मांगने पर मजबूर होना पडा। कहना जरूरी नहीं कि मीना भी बेहद गरीबी में जीने को मजबूर थी। बीते जमाने की नामचीन गायिका मुबारक बेगम जावेद अख्तर की मदद से किसी तरह पेंशन के सहारे चल रही हैं। उनके पास अपनी बीमार बेटी का इलाज कराने वास्ते रूपया नहीं बचता था । 


किसी जमाने के मशहूर अभिनेता वास्ती को बाम्बे के ट्रेफिक सिग्नलों पर भीख मांगने की बात कम दुखदायक नहीं थी। गायिका रतनबाई को कुछ ऐसी जिंदगी का सामना था। गुजारा करने के लिए वो दरगाहों पर भीख मांग कर गुजारा करके चल बसीं। आप याद करें कि भारत भूषण-खान मस्ताना-भगवान दादा सभी का फिल्म के बाद का सफर बेहद गरीबी में गुजरा था।  बदनसीब कलाकारों की तलाश में आप निकलेंगे तो बहुत सारी तकलीफदेह कहानियां मिलेंगी। लेकिन याद रखें कि यह काम हमेशा तो नहीं लेकिन रह रहकर जरूर उदासीन करता रहेगा क्योंकि भूले बिसरे सितारों के बारे में जानकारी लेना आसान काम नहीं। यह इसलिए भी क्योंकि ज्यादातर रिकार्डस केवल बडे लोगों के वास्ते ही खोले जाते हैं। इन हालात में किसी रिश्तेदार की मदद से इन सितारों पर जानकारी लेना एक आसान रास्ता नजर आता है। लेकिन गौर करें कि उम्र के साथ सितारों की याद उनको धोखा देने लगती है।


गुजरे जमाने के नामी चरित्र अभिनेता परशुराम लक्षमण के नाम से आप वाकिफ होंगे।  रंजीत स्टुडियो में एक्सट्रा की हैसियत से फिल्मी सफए शुरू करने वाले परशुराम शुरू मे यहां टिक नहीं पाए। पिता ने यह सोंच कर यहां डाला कि पुत्र के लिए यह ठीक काम होगा। लेकिन फिलवक्त ऐसा नहीं हुआ। तकदीर का करिश्मा देखें कि गायन में सक्षम बालक परशुराम को वी शांताराम ने किसी रोज सुना और काफी पसंद किया । शांताराम उसी वक्त उस बालक को प्रभात स्टुडियो ले आए। सिनेमा में एक उम्दा पारी परशुराम के इंतजार में थी। प्रभात स्टुडियो की फिल्म ‘दुनिया न माने’ में एक चरित्र किरदार से अभिनय पारी की सकारात्मक शुरुआत हुई। परशुराम का यह किरदार भजन गाने वाले युवा का था। हम जानते हैं कि उस जमाने में अभिनय में आने के लिए गायक होना जरूरी था। उनकी गायिकी व अभिनय को प्रभात की ओर से खूब सराहना मिली। इसके दम पर उन्हें प्रभात की कुछ और द्विभाषी फिल्मों में अवसर मिला। परशुराम को शांताराम का सहयोग मिलता रहा। उनके विवाह में शांताराम ने खूब मदद की। फिर जब प्रभात का साथ छूटा तो एक बार फिर शांताराम की कंपनी ‘राजकमल कलामंदिर’ में खुशकिस्मती से काम मिला। राजकमल की फिल्म ‘शकुंतला’ में मुनी के किरदार में जोहराबाई अंबालेवाली एवं जयश्री के साथ युग्ल गीत गाए थे। परिवार हो जाने से उनकी जरूरतें अब पहले से ज्यादा थी। आमदनी की खातिर राजकमल से बाहर जाकर भी काम किया। अभिनेता भारत भूषण की होम प्रोडक्शन ‘बसंत बहार’ में दरबारी गायक का किरदार उन्हें काफी शोहरत अता की। फिल्म का गीत ‘केतकी गुलाब’ परशुराम पर ही फिल्माया गया था। पचास व साठ दशक में चरित्र किरदारों के साथ काफी बिजी रहने वाले परशुराम का बुरा वक्त दस्तक दे रहा था। एक दुर्घटना में पांव टूट गया। शारीरिक रूप से मजबूर हो चुके परशुराम अब ना के बराबर आफर आने लगे। इस बदकिस्मती से जूझते हुए उन्हें पीने की भारी लत पड गई। पीने की लत की वजह से परिवार ने मझधार में अकेला छोड दिया। अब उनकी फिक्र करने वाला शायद कोई ना बाकी था। गुजारा करने वास्ते बाम्बे के ट्रेफिक सिग्नल पर भीख मांगने का सबसे खराब समय सामने था।


पहली ही फिल्म से अभिनय  क्षेत्र में बवंडर मचाने  वाले असीमित संभावनाओं के अभिनेता निर्मल पांडे को वक्त लंबे समय तक याद रखेगा।  पहली फिल्म में ही असीमित काबलियत बखूबी दिखा दी थी।  निर्मल के हुनर को समझने  के लिए हमें बैंडिट क्वीन, इस रात की सुबह नहीं, दायरा  तथा ट्रेन टु पाकिस्तान  जैसी महान फिल्मों की लौटना  होगा। चंबल घाटी की दस्यु रानी फूलन देवी के जीवन से प्रभावित ‘बैंडिट क्वीन’ को निर्मल  के अभिनय सैंपल तौर  पर देखें तो उनमें  विश्व स्तर पर पहचान  कायम करने की पूरी काबलियत दिखेगी। अफसोस जोकि हो न सका,एक बहुत बडी संभावना  वाले अभिनेता को मौत ने असमय ही पास बुला लिया।  शेखर जी की फिल्म के यादगार किरदार विक्रम मल्लाह (निर्मल पांडे) के संपर्क में आकर समझ पाएंगे कि पुरूष जाति की सताई फूलन देवी (सीमा बिश्वास) के समक्ष वही टिक सकते थे । फिल्म के हरेक फ्रेम में निर्मल  की काबलियत बार बार देखने लायक है ।  विक्रम मल्लाह का किरदार निर्मल के  उच्चतम स्तर का बडा दस्तावेज है। बेशक  ‘विक्रम मल्लाह’ का किरदार निर्मल की महान भूमिकाओं में एक थी। सुधीर मिश्र की ‘इस रात की सुबह नही’ आमोल पालेकर की ‘दायरा’ ,पामेला रुक्स की ‘ट्रेन टु पाकिस्तान’ तथा एन चंद्रा की ‘शिकारी’ के किरदारों को भी यहां याद किया जा सकता है ।  दायरा के लिए फ्रांस के फिल्म समारोह में ‘सर्वश्रेष्ठ  नायिका’ का पुरस्कार मिला। किसी भी अभिनेता के लिए ऐसा कर पाना एक दुर्लभ कीर्तिमान बना रहेगा। तमाम जरुरी काबलियत होने पर भी  महान संभावनाओं वाले निर्मल पांडे हिंदी  फिल्मों में दुखद रूप से सीमित किरदारों तक टाइप्ड कर दिए गए। सिनेमा के नजरिए से यह बडी तकलीफदेह  हालात रहे  जब निर्मल को केवल बेकार से किरदार आफर हो रहे थे।

हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की काबिल शख्सियत दान सिंह का नाम भी याद आता है । फिल्म संगीत के  सुनहरे जमाने में बहुत से लोगों कम काम किया,लेकिन बेहतरीन काम किया। कम  काम की वजह से इनका योगदान लोग भूल गए हैं ।  संगीतकार दान सिंह का नाम इसमें शामिल किया जा सकता है । दान सिंह का नाम दरअसल फिल्म  ‘माई लव’ के हिट गाने की याद दिलाता है । हिंदी फिल्म संगीत के सुनहरे समय से ताल्लुक रखने वाले दान सिंह के लिए यह फिल्म महत्त्वपूर्ण पडाव थी। लेकिन इस महान मोड के बाद भी दान जी को फिल्मों में ना के बराबर काम मिला। बेहतरीन संगीत के मुस्तकबिल के लिए यह एक नागवार बात थी।

‘वो तेरे प्यार का ग़म एक बहाना था सनम
अपनी किस्मत ही कुछ  ऐसी थी कि दिल टूट गया’

संगीतकार सरदार मलिक को  भी काबलियत के हिसाब जगह नहीं मिल सकी। मलिक जी का शुमार  बडे संगीतकारों में कभी  नहीं किया गया। उनका ताल्लुक  हिंदी सिने संगीत के बेहतरीन  दौर से रहा,लेकिन मकबूल  नामों में  यह नाम ना जाने क्युं नहीं लिया गया ? बात सामान्य समझ से परे है । मलिक जी की काबलियत  का नजरअंदाज होना संगीत की मकबूलियत के लिए  नुकसानदेह बात थी । उस्ताद अलाउददीन खान  से संगीत की तालीम लेकर फिल्मों  में आए सरदार मलिक ने फन की शिददत से इबादत की ।  शुरू में गायन व धुन बनाने  का आफर मिलता रहा। धुनों से जिंदगियों को संवारने का बडा लेकर चले।  कुछ  खास शुरूआत न मिलने की कमी ‘लैला मजनूं’ ने पूरी की थी। हिंदी सिनेमा में पचास का दशक सरदार मलिक के आमद का दौर था। इसमें उनकी तरफ से ‘अए गम-ए-दिल क्या करूं’ तथा ‘मैं गरीबों का दिल हूं’  की यादगार धुनें मिली। साठ का दशक मलिक जी के जीवन में और भी उम्मीद की रोशनी दे गया । इस दरम्यान में ‘सारंगा’ एक खास पेशकश रही । बेशक फिल्म का संगीत उसे अमरत्व प्रदान करता है। मलिक जी का जादू ‘सारंगा तेरी याद में’  में खास तौर पर काफी संजीदा था। सारंगा का यह गाना  सदाबहार गानों में  बडा ऊंचा मुकाम रखता है। सरदार मलिक की काबलियत को चंदा के देश में रहती है एक रानी- सुन चांद मेरी यह दास्तान’ गानों में भी महसूस किया जा सकता है।  मलिक महान संभावना के संगीतकार थे। फिल्म संगीत में मकबूल  मुकाम हासिल करने की क़ुव्वत थी उनके पास । अफसोस, ऐसा हो न सका। 


नोट: अधूरी लिस्ट में पाठक और भी नाम जोड सकते हैं।


सैयद एस.तौहीद
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देशभक्ति गीत और उनके गीतकार

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हर साल आजादी के दिन हम कुछ देशभक्ति की बातें कर लेते हैं, कुछ गीत गा-सुन लेते हैं मगर उन गीतकारों को नहीं याद करते हैं जिन्होंने देशभक्ति की भावना से लबरेज ये गीत लिखे थे. ऐसे ही कुछ गीतकारों पर सैयद एस. तौहीद का यह लेख- मॉडरेटर.
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देश को मिली आज़ादी हजारों की कुर्बानी का सिला है। देशभावना को देशभक्ति गीतों में एक जुबान मिल जाती है। कहना होगा कि हिन्दी फिल्म में इस जुनून के गीतों की एक सकारात्मक विरासत रही है। इन गीतों के लिखने वालों पर हमारा उतना ध्यान नहीं रहता, ना इनमें जीता आम आदमी नजर आता है। यह आम आदमी कौन है? क्या आम आदमी पार्टी के लोग ही आम हैं? सडक का आदमी-गरीब आदमी-दुखी आदमी-असहाय आदमी आम आदमी है। देशभावना में इस आदमी का भी हिस्सा बनता है।

एक बेकार काम दस खूबसुरत कामों को हाशिए पर डाल दिया करता है। ज्यादातर फिल्म वाले सामाजिक जिम्मेदारियों को अदा करने में सीमाओं की बात लाकर खुद को बचा लिया करते हैं। सकारात्मक चीजें करने में दायरा देखने से काम  मुश्किल हो जाता है। फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन के दायरे में डालने से सिनेमा के सामाजिक पक्षों को कमजोर सा कर दिया है। मुख्यधारा फिल्मों में इसको ठीक करने में काफी लोग जुटे हुए हैं। सिनेमा का एक सेक्शन जिम्मेदारियों को पूरा करने की दिशा में चल रहा,एक मनोरंजन सिर्फ मनोरंजन की बात कर साथियों की कोशिशों को कमजोर कर रहा। बुरी बातों के साथ कुछ सकारात्मक बातें जरूर पेश आती हैं,लेकिन पहले का असर दूसरे को देखने से रोक देता है। फिल्म मेकिंग में जन भावनाओं को आवाज देने की एक पहल देशभावना के गीतों में मिलती है । सामानांतर सिनेमा की फिल्मों ने देश-समाज के हितों को दूसरे तरीकों से पेश किया।

देशभक्ति गाने आपको राजेद्र कृशन की याद देंगे। सितारों की भीड में वो एक बडे सितारे थे। फिल्मी दुनिया में रहकर धारा से अलग होकर चलने का उनमें कमाल का फन था। वो अनबुझ पहेली की तरह समकालीनों के साथ कभी नजर नहीं आए। कहा जा सकता है कि उनके समय के बहुत से फनकार राजेन्द्र को जानते भी ना होंगे। आज उनको गुजरे अरसा हुआ लेकिन फनकारी की विरासत कभी ना फना हो शायद। ताज्जुब नहीं कि हिन्दी सिनेमा के पांच सर्वकालिक गीतकारों में आपका भी शुमार है। चालीस से साठ दशक के दरम्यान राजेन्द्र कृशन को पूरा फिल्म जगत दीवानों की तरह मांगा करता था। बेहतरीन फनकारी को बार-बार पाना एक वाजिब चाहत थी।

दिल्ली है दिल हिन्दुस्तान का
यह तीरथ है जहान का
कहने को छोटा सा नाम है यह
सोचों तो इसके मतलब हजार
बिखरा है इतिहास गलियों में इसकी
सदियों के बाक़ी यहां पे निशान।

फिल्म पतंग का यह गीत राजधानी दिल्ली पर सरसरी नजर रखने में बेहद कामयाब मालूम पडेगा। यह शहर अपने में बेशुमार भूली बिसरी दास्तानों को सदियों से समेट कर चल रहा है। यहां के हरेक पडाव पर एक इतिहास तालाश का इंतजार करता है। अतीत की कहानियों के साथ जीना का चलन यहां सांस लेता है। फिर भी दिल्ली का आज रह-रह कर खतरनाक क्यों हो जाता है? राजेन्द्र जी एक गाना इक तहजीबों का संगम हैभी याद आता है। देश की गंगा-जमुनी तहजीब को समर्पित यह गीत विविधता में एकता को बयान करता है। यह गीत देश के गौरव गान की तरह लिखा गया था। हमें खुद के भीतर जिंदा भारतीय को तलाश करने की जरूरत है।तालाश उसकी जो हमारे भीतर रहता जरूर है, लेकिन वक्त पर सवाल-जवाब नहीं करता। नहीं करता सवाल कि भला ऐसा क्यों नहीं ?

इक तहजीबों का संगम है
जिसे दुनिया भारत कहती है
तुलसी के दोहों के संग
गालिब की गजल भी रहती है।

देशभक्ति गानों के लिए मशहूर कवि प्रदीप को देश का सिनेमा याद करता है। जिस किसी ने अए मेरे वतन के लोगोंको सुना वो प्रदीप को भी जानता होगा। चालीस के दशक में फिल्मों से हुआ रिश्ता लंबे समय तक कायम रहा। प्रदीप की शख्सियत को उनकी रचनाओं के बहाने याद करना मुल्क की इबादत से कम नहीं। सरल जीवन में  यकीं रखने वाले इस लेखक ने कभी नहीं सोंचा होगा कि एक दिन सारा हिन्दुस्तान उनका आदर करेगा। प्रदीप ने गीत व कविताएं गाकर सुनाने का रास्ता अपनाया, अपने बहुत से फिल्मी गीतों  को आवाज देने का अवसर नसीब हुआ था। आपको मालूम होगा कि पहली ही फिल्म में लेखन के साथ गायन का काम मिला था। गायक का फर्ज जागृतिसे निखर कर आया। फिल्म क गीत साबरमती के संत तुने कर दिया कमालयाद आता है। हिन्दुस्तान की जानी मानी आडियो कंपनी एचएमवी ने प्रदीप के लिखे व गाए गानों का अल्बम जारी किया था। कवि प्रदीप भारत के मुस्तकबिल की बडी जिम्मेदारी लेकर चल रहे थे। वो इंसानियत को बचाने की फिक्र में लिखा किया करते कितना बदल गया इंसानफिर यह भी

दुनिया के दांव पेंच से रखना ना वास्ता
मंजिल तुम्हारी दूर है रास्ता

भटका ना दे कोई तुम्हें धोखे में डाल के
इस देश को रखना संभाल के

प्रेम धवन ने चालीस दशक में आजादी के आसपास फिल्मों में कदम रखा। फिल्म के लिए संगीत रचकर गीत लेखन का रास्ता भी अपनाया। देव आनंद की एक फिल्म में किशोर कुमार के साथ कामयाब गाने दिए। गर आप उनके गीतों का जायजा लें तो महान गीतकारों का ख्याल होगा। कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा के दिग्गज गीतकारों में प्रेम धवन को जगह मिलनी चाहिए। खेमचंद प्रकाश से लेकर अनिल बिश्वास फिर सलील चौधरी व रवि एवम चित्रगुप्त के साथ काम किया था। सिनेमा में उनका नजरिया जिक्र का हक़दार होकर भी उससे बाहर रहा। धवन ने देश भावना को गीतों के जरिए खास जुनून दिया । उनके लिखे गाने सुनने वालों में वतन का जज्बा तराश कर लाते हैं। यह गीत इंसानी भलमनसाहत का एहसास कराते हैं। समपन्न लोगों को हाशिए पर पडे लोगों की इस भावना का ख्याल करके इनकी सहायता में वाजिब कदम उठाने चाहिए। जिन लोगों का इनसे मोहभंग हुआ, खुद हक़ के लिए उठ खडे हुए। मुल्क की खातिर मर मिटने वाले अपने वास्ते भी लड सकते हैं।


अए मेरे प्यारे वतन ,अए मेरे बिछडे चमन
तुझपे दिल क़ुरबान…!
तु ही मेरी आरजूतू ही मेरी आबरू।

फिल्मी गीतों को सरल सुगम बनाने में दीनानाथ मढोक जैसे गीतकारों का सराहनीय योगदान था। चालीस दशक की बहुत सी हिट फिल्मों में दीनानाथ  की लेखन काबलियत उभरकर आई ।  उस वक्त की फिल्मों में  तानसेन,रतन एवं भक्त सूरदास के गीत काफी सराहे गए। कलकत्ता के न्यु थियेटर्स से फिल्मों में आने वाले दीनानाथ ने पहले पहल बतौर हीरो काम किया। लेकिन उन्हें बहुत जल्द ही समझ आया कि यह वो मंजिल नहीं जिसकी उनको जुस्तजु थी । वो समझ गए कि लेखन  को उनकी ज्यादा जरूरत है। चालीस के दशक की बहुत सी हिट फिल्मों का अहम हिस्सा रहे दीनानाथ ने देशभक्ति स्वर के गाने का अंदाज काबिले तारीफ था।  हर आदमी में जी रहे देश जज्बे को जानते थे। वतन से अलग हमारी पहचान नहीं हो सकती। सामाजिक न्याय के बिना क्या अपनी मुकम्मल पहचान मिल सकती है? मूक-बधिरों के हक़ में राजपथ की परेड का आंखो देखा हाल बताना सराहनीय कदम था। लेकिन इसमें देर तो नहीं हुई? एक गाने में दीनानाथ कह गए


वतन की मिटटी हांथ में लेकर माथे तिलक लगा लो
जिस माटी ने जन्म दिया उस माटी के गुन गा लो।


अमृतसर के एक पंजाबी परिवार से ताल्लुक रखने वाले ओमप्रकाश उर्फ क़मर जलालाबादी को बचपन से शायरी में दिलचस्पी थी। इस शौक की वजह जल्द ही शायरी लिखना-पढना सीख लिया था। स्कूल की पढाई पूरी होने तक अखबारों में लिखने का फन हासिल कर लिया था। चालीस के दशक में फिल्मों की कशिश क़मर को बाम्बे ले आई। ज्यादातर कहानी व सीन की डिमांड पर लिखने वाले इस गीतकार की संजीदा शख्सियत गानों में बखूबी महसूस की जा सकती है। वतनपरस्ती के जुनून में डूबे गीत क़मर जलालाबादी को एक और पहचान का मालिक बनाते हैंशहीदों तुमको मेरा सलाम,फांसी के तख्ते पर चढकर लिया वतन का नामको सुने। आप उनका यह गीत भी सुनेंशोषण की शक्तियों का खात्मा अब भी नहीं हुआ है, किसी बदले हुए रूप में वो आज भी जनता के दुख का कारण हैं।

सिकंदर भी आए कलंदर भी आए
ना कोई रहा है न कोई रहेगा
मेरा देश आजाद होके रहेगा।

गीतकारों में शौकत परदेसी का नाम एक बहुत जाना पहचाना नाम नहीं। हिन्दी संगीत की बडी  विरासत में आज यह एक भूला-बिसरा नाम है । इस गीतकार ने वतन की इबादत में एक खूबसुरत फिल्मी गीत लिखा था। जिसके बोल सराहनीय कहे जा सकते हैं। परदेसी का यह बोल एकता का महत्त्व बता गए। कहना जरूरी नहीं कि सामाजिक न्याय के लिए आंदोलन का तुफान हर समय जरुरी है।

आकाश के आंचल में सितारा ही रहेगा
यह देश हमारा, हमारा ही रहेगा
तुफान का अंजाम किनारा ही रहेगा।

आपको सत्तर दशक  के गीतकार वर्मा मलिक का ख्याल होगा। हिंदी सिनेमा में  परिवर्तन का समय लेकर आया। इस युग में रूमानियत व  प्रतिशोध की धाराएं हिन्दी सिनेमा को एक खास सांचे में ढाल रहा था। पचास व साठ दशक के बडे नाम  उभरते सितारों के कारवां से अलग होकर खुद में एक नयी शख्सियत देख रहे थे। रूमानियत से आगे के  समय पर सोंच कर सलीम-जावेद ने प्रतिशोधथीम वाली कहानियों को लिखा। परदे की एंग्री इमेजने रूमानी कहानियों से हमारा ध्यान हटा दिया। वर्मा मलिक के गीतों ने इस समय को गीतों की जुबान देने की अच्छी कोशिश की। उनके देशभावना गीत हुकूमत को सडक के आदमी की ताकत बताने में कामयाब रहे थे। इन पंक्तियों का तेवर महसुस करें

मजलूम किसी कौम के जब ख्वाब जागते हैं
तो देश में हजारों इंकलाब जागते हैं।

यही हम यही इरादा,यही फैसला करना है
हमें देश की खातिर जीना और मरना है।


वर्मा मलिक के समकालीन संतोष आनंद भी याद आते हैं। मनोज कुमार अपनी फिल्मों में संतोष आनंद एवं वर्मा मलिक सरीखे गीतकारों को लेकर आए। संतोष के गीतों में देशभक्ति-रिश्तों की झनक-मानवीयता विषयों का दिलचस्प मेल देखने को मिलता है। मनोज कुमार एवं राजकपूर की फिल्मों के गीत लिखते हुए एहसास के ज्यादातर पहलुओं को देखा था। मनोज सिनेमा में अगली पारी का तेवर लेकर मुल्क से ताल्लुक रखने वाले विषयों पर फिल्म बना रहे थे। संतोष आनंद का लिखा यह गीत यह कह गया कि आंदोलन के लिए मेहनतकश हमेशा सजग रहते हैंदुआएं तुमको ना दूंगा ऐश-ओ-इशरत कीकि जिंदगी को जरूरत है कडी मेहनत की।


दुनिया की सारी दौलत से इज्जत हमको प्यारी
मुटठी में किस्मत अपनी,हमको मेहनत प्यारी।

देश का हर दीवाना बोला,मेरा रंग दे बसंती चोला


इंदीवर को भी आज याद किया जा सकता है। हिन्दी फिल्मों के लिए एक से एक सुंदर गीत लिखने वाले इंदीवर रूमानियत से रूबरू होकर जीवन के सत्य से अलग नहीं थे। उनकी यह सोंच जिंदगी का सफर,यह कैसा सफरफिर नदिया चले रे धारा तुझको चलना होगामें देखी जा सकती है। मौत से मुहब्बत निभाने का वादा सिखाने वाले इंदीवर का यह गीत याद आता है। न्याय व तरक्की को लेकर जुबानें एक स्वर में आवाज उठाएं तो हर मुश्किल आसान होने लगती है।


दुनिया में कितने वतन
दुनिया में कितने वतन कितनी जुबानें
प्यार का बस एक वतन दिल
एक जुबान सब जानें।

गुजरे वक्त के गीतकारों में अनजान का नाम इस मायने में काफी महत्त्व रखता है कि वो कवि सम्मेलनों में जाया करते थे। बनारस से ताल्लुक रखने वाले लालजी पांडेय उर्फ अनजान को हिन्दी प्रसार से दिली मुहब्बत थी। हालांकि वो मुशायरों में भी शिरकत करते रहे। पचास दशक के शुरुआती सालों में फिल्मों का रूख करने वाले इस गीतकार ने हिन्दी संगीत को बेहतर गानों की विरासत दी है। आज अनजान का लिखा मत पूछ मेरा कौन वतनयाद आता है।


मत पूछ मेरा है कौन वतन
और मैं कहां का हूं
सारा जहान है मेरा, मैं सारे जहान का हूं।


नब्बे दशक ने भी हिन्दी सिनेमा को उम्दा गीतकार दिए। पी के मिश्रा- मेहबूब सरीखे लोग आज भी याद आते हैं। मणि रतनम की फिल्मों से लेखन की शुरूआत करने वाले  मेहबूब का यह गीत हर भारतीय के दिल में बसा होगा। इस गाने पर भारतबला ने ए आर रहमान को लेकर काफी उम्दा विडियो भी बनाया था। रहमान का मां तुझे सलामआप ने पिछली बार कब सुनामेहबूब को सही मायने में बहुत ज्यादा मिस करता हूं। माटी के इबादत के लिए दिन का इंतजार नहीं करना चाहिए। हर किसी को उचित न्याय मिलने पर लोकतंत्र में आस्था बनती है।


अस्सी नहीं सौ दिन दुनिया घूमा है
नहीं कहीं तेरे जैसा कोई नहीं
मैं गया जहां भी,बस तेरी याद थी
जो मेरे साथ थी मुझको तडपाती,रूलाती
सबसे प्यारी तेरी सूरत
मां तुझे सलाम,अम्मा तुझे सलाम।

वंदे मातरमवंदे मातरम


मेहबूब के समकालीन पी के मिश्रा का लिखा भारत हमको जान से प्यारामणि रतनम की फिल्म को पूरा करता है। नब्बे के दशक में तमिल व हिन्दी फिल्मों का एक दिलचस्प रिश्ता बना। इस वक्त में बहुत सी तमिल फिल्मों का या तो रिमेक हुआ या फिर डबिंग करके रिलीज हुई। इस समय में राजस्थान से ताल्लुक रखने वाले पीके मिश्रा ने फिल्मों के लिए गीत लिखना शुरू किया। संगीतकार रहमान के साथ मेहबूब व पीके मिश्रा का तालमेल सिनेमा को बेहतरीन उपहार दे गया। सांप्रदायिक हवाओं के खिलाफ लिखा यह गीत इंसानियत के नजरिए से सोंचने को कहता है। पीडित की मदद करते वक्त उसकी जाति भला कोई पूछता है?


भारत हमको जान से प्यारा है
सबसे न्यारा गुलिस्तां हमारा है।

मंदिर यहां,मस्जिद वहां,हिन्दू यहां,मुस्लिम यहां
मिलते रहें हम प्यार से,
हिन्दुस्तान नाम हमारा है,सबसे प्यारा देश हमारा है।


एड गुरु पीयुष पांडे की रचनात्मक दुनिया मनभावन एडस की सीमाओं के बाहर भी सांस लेती है। आप ने कभी सोंचा कि मिले सुर मेरा तुम्हारापीयुष पांडे ने लिखा था। लोक सेवा संचार परिषद ने पीयुष के लिखे गीत का वीडियो बनाकर पहली बार दूरदर्शन पर प्रसारित किया था। नए युग के देशभावना गीतों में यह काफी मक़बूल हुआ। इसे सुनकर बार-बार सुनने से खुद को रोक नहीं पाएंगे।


मिले सुर मेरा तुम्हारा
तो सुर बने हमारा


सुर की नदिया हर दिशा से
बहके सागर में मिले
बादलों का रुप लेकर
बरसे हलके हलके
मिले सुर मेरा तुम्हारा



देशभावना के गीतों का ख्याल दरअसल मुल्क पर मर मिटने की एक कशिश सी है। वतन के लिए जज्बा हर किसी में होता है।  जिंदगी की धुन में डूबे दिनों का हर लम्हा खास होता है,फिर भी आम आदमी की खुशियों का दिन रोज नहीं आता। जिंदगी की खूबसुरती से दूर बेपरवाह मर जाना ही इसने पाया है। आपको मालूम है कि इन दिनों में भी कोई गरीब भूख के मारे मरता जरूर होगा। गरीब को पेट भर खाना व कपडा देखकर कर संतोष मिलता है। किसी गरीब का चूल्हा दिनों से राहत का इंतजार देखकर बंद ना पडे तो बात सुहाती है। बीता दिन मुडकर नहीं आता,वह अन्य रूप में बदल जाता है। कुछ लोग रोज मरते हैं।

क्रिकेट खेल, धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण था

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आजादी से पहले के दौर में अंग्रेजों ने किस तरह क्रिकेट के खेल का राजनीतिक इस्तेमाल किया इसको समझने के लिए रामचंद्र गुहाकी किताब 'विदेशी खेल अपने मैदान पर' पढने लायक है. उसी का एक सम्पादित अंश क्रिकेट और साम्प्रदायिकता को लेकर- मॉडरेटर
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बंबई का वार्षिक क्रिकेट उत्सव,युद्ध की पृष्ठभूमि लिए खेल,धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण था। इसका अस्तित्व एक विचित्र विरोधाभास था- एक कट्टर सांप्रदायिक प्रतियोगिता जो आधुनिक भारत के सबसे प्रगतिशील और महानगरीय शहर में परवान चढ़ी थी। कोई भी अब उनकी गहरी भावना को समझ सकता था जिन्होंने कड़वाहट से इसका विरोध किया था। भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए,बरेलवी या तलेयारखान के लिए क्रिकेट मैदान पर सांप्रदायिक पहचान के ही स्वीकार ने साझी नागरिकता के विचार को भंग कर दिया था,जिस का अर्थ था कि और कुछ भी होने से पहले हम सभी भारतीय हैं।पंचकोणीय क्रिकेट प्रतियोगिता के अस्तित्व ने समावेशी राष्ट्रवाद को अंगूठा दिखा दिया जिसका महात्मा गांधी,जवाहरलाल नेहरू जैसे लोगों ने समर्थन किया था,और जाति-धर्म के विभाजनों को बढ़ावा दिया। पहले यह बहस हुई कि प्रतियोगिता की शुरुआत ही ब्रितानी फूट डालो और राज करो की नीति के लिए थी और दूसरी दलील ये थी कि इसे जारी रखना पाकिस्तान की नाजायज़ परंतु खतरनाक रूप से फैशनेबल मांग को बढ़ावा देता था।

        प्रशासकों ने जानबूझकर सांप्रदायिक आधार पर खेल के संगठन को प्रोत्साहित किया था ऐसा विस्तृत रूप से माना जाता था। स्वतंत्रता की पूर्वसंध्या को भारत का दौरा कर रहे एक अमेरिकन पत्रकार ने लिखा कि ब्रितानी फूट डालो और राज करो की नीति विद्यालयों में भी पहुंच गई थी - खेल में हिंदू टीम मुस्लिम टीम से लड़ रही थी और स्नातक होने के साथ यह प्रतियोगिता नौकरी के लिए प्रतिस्पर्धा बन जाती थी। स्वतंत्रता के फौरन बाद लिखे अपने एक लेख में पूना के जाने माने क्रिकेटर डीबी देवधर ने दावा किया कि भारत के उच्चतम क्रिकेट में सांप्रदायिकता की भावना सिर्फ ब्रिटिश अफसरों की ही वजह से आई क्योंकि शुरुआती दिनों में ये लोग भारतीयों से निपटते समय खुद को श्रेष्ठता की भावना से भरे रहते थे। भारत में ब्रितानी साम्राज्य की रक्षा के लिए आने वाले सभी ब्रितानी अधिकारियों को उच्च अधिकारियों ने कह रखा था कि मूलवासियों के साथ वो बहुत कम संपर्क रखें। इसलिए अंग्रेज़ों ने बंबई,कलकत्ता और मद्रास के तीन प्रांतीय शहरों में खास क्लब बना लिए। बाद में इनकी देखा देखी पूना और बैंगलोर जैसे दूसरे शहरों में भी क्लबों की स्थापना की गई। पारसी लोगों ने भी इस खेल को चुना और उन्होंने खेल के साथ साथ अंग्रेज़ों की पृथकतावादी प्रवृत्ति को भी ले लिया। एक तरफ अंग्रेज़ पारसियों को उनके पवित्र किलों में प्रवेश नहीं करने देते थे। इसलिए पारसियों ने विवशतापूर्वक अलग क्लब बना लिया। परंतु उन क्लबों में वे दूसरे भारतीयों को अनुमति दे सकते थे। दुर्भाग्यवश यह किया नहीं गया। परिणामस्वरूप हिंदुओं को भी वही रास्ता अपनाना पड़ा। और आखिर में मुसलमान भी यही रास्ता अपानने को बाध्य थे।

        औपनिवेशिक क्लबों का जातिवाद साफ दिखता था। परंतु यह उद्धरण यह भी सुझाता है कि हिंदू सांप्रदायिक क्रिकेट में खुद शामिल होने के इच्छुक होने की बजाए पीडि़त व्यक्ति थे। जबकि वह एक पूर्वव्यापी सोच लगती थी जिस पर शायद 1920से गांधी और उनके जैसों द्वारा प्रोत्साहित सम्मिलित राष्ट्रवाद का प्रभाव था। यदि ब्रितानी अलग थे तो इसी प्रकार हिंदू समाज भी अपने धार्मिक दायरों के चलते जातियों और उप जातियों के बीच बंटा हुआ था। वास्तव में 19वीं शताब्दी के आखिर के भारत में क्रिकेट क्लबों ने खुद को जाति के आधार पर व्यवस्थित कर लिया था। शासकों ने शायद सोचा होगा कि चतुष्कोणीय क्रिकेट प्रतियोगिता का स्वरूप भारत के लिए स्वाभाविक होगा लेकिन वे इसे बिना सहायता के अस्तित्व में नहीं लेकर आ रहे थे। सांप्रदायिक क्रिकेट में जितने हिंदू जाति के पूर्वाग्रह थे उतना ही पारसियों का सामाजिक दंभ,मुसलमानों की सांस्कृतिक मानसिक संकीर्णता और अंग्रेज़ों की जातीय प्रधानता भी।

        यदि चतुष्कोणीय प्रतियोगिता के जन्म के मूल में पूर्णतया ब्रिटिश सरकार की फूट डालो राज करो की नीति न भी रही हो तो इसकी निरंतरता के बारे में क्या?क्या 1930और 1940में प्रतियोगिता की बढ़ रही लोकप्रियता ने पाकिस्तान के आंदोलन के लिए चारे का काम नहीं किया?और अधिक सटीक रूप से क्या सांप्रदायिक क्रिकेट ने सांप्रदायिक वैरभाव को पोषित और गहरा नहीं किया?खिलाडि़यों के अनुसार नही। दो सिंध के खिलाडि़यों ने जिनमें से एक हिंदू और एक अंग्रेज़ था कहा कि जो सोचता है कि सांप्रदायिक क्रिकेट बुरी भावना को जन्म देता है उसे कराची आकर दोनों खिलाडि़यों और दर्शकों के बीच मौजूद खेल प्रतिद्वंद्विता और अच्छी दोस्ती को देखना चाहिए। उसने इसमें जोड़ा कि वे बहुत बदली हुई राय के साथ वापस जाएंगे। यह बात 1928में अखबार के किसी क्रिकेट के पन्ने पर लिखी थी लेकिन करीब दस साल बाद बंबई के एक क्रिकेटर ने भी,जहां पर खेल के और राजनैतिक दांव भी स्पष्ट रूप से ऊंचे थे,यही बात कही। नवंबर 1940में मुस्लिम कप्तान सैयद वजीर अली को यह कहते हुए उद्धत किया गया कि यह प्रतियोगिता थोड़ी भी राष्ट्रविरोधी नहीं है और इसे भारतीय क्रिकेट के हितों में जरूरी और आवश्यक रूप से जारी रहना चाहिए। इसके अगले साल जब इस क्रिकेट टूर्नामेंट का भाग्य अधर में लटका हुआ था तो हिंदू कप्तान सीके नायडू ने दावा किया कि इस प्रतियोगिता ने किसी भी प्रकार से सांप्रदायिक भेदभाव को बढ़ावा नहीं दिया है। इसने स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और सांप्रदायिक एकता को बढ़ावा दिया है। इसने समुदायों को बांटने की बजाए मिलाया है। सीके के एक और साथी मुश्ताक अली के मुताबिक महोत्सव ने हमेशा खिलाडि़यों और जनता के बीच प्रतिस्पर्धा की एक स्वस्थ भावना और खेल भावना को प्रोत्साहन दिया है। उनके अनुभव के अनुसार-स्टैंड के हर तरफ से सराहना की तरंग और शोर ने बिना भेदभाव के अच्छे प्रदर्शन का स्वागत किया है। बेशक यह नायडू (एक हिंदू) के छक्कों के लिए हो,निसार (एक मुस्लिम) की विकेट उखाड़ती गेंदों के लिए हो या फिर भाया (एक पारसी) के चतुर क्षेत्ररक्षण के लिए।

        क्रिकेटरों के कथन में सच्चाई की झलक थी परंतु क्या सच में यही मसला था?क्या हिंदू और मुसलमानों के बीच के खेल मुकाबलों ने एक दूसरे के कौशल और उपलब्धियों की तारीफ को बढ़ाया था या फिर उन्होंने कहीं और ज्यादा खतरनाक जंग को आरंभ करने का काम किया?यहां पर इस विषय पर बहस लंबे समय से चल रही और अब तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकी है। उदाहरण के तौर पर जार्ज आरवेल जैसे लोग इस अंतरराष्ट्रीय खेल को गोलाबारी रहित युद्ध के रूप में पेश करते हैं। नवंबर 1938में जब पंचकोणीय प्रतियोगिता का विवाद चरम पर था तो एक दूसरे अंग्रेज़ लेखक ने इसे इस तरह पेश किया। एल्डस हक्सले ने टिप्पणी की कि आशावादी सिद्धांतकार खेल को राष्ट्रों के बीच रिश्तों के रूप में मानते हैं। राष्ट्रवादी भावना के वर्तमान हालात में यह सिर्फ अंतरराष्ट्रीय गलतफहमी पैदा करने का एक और कारण है। फुटबाॅल मैदान पर और रेस-ट्रैक पर होने वाली झड़पें महज शुरुआती होती हैं और प्रतियोगिता की अधिक तैयारी में सहयोग करती हैं। ब्रितानी उपन्यासकारों के बीच इस सर्वसम्मति के भाव को आगे बढ़ाते हैं एलन सिलितो,जो सोचते है कि खेल राष्ट्रीय भावना को शांति के समय में भी जिंदा रखने का एक साधन है। यह युद्ध की संभावित घटना के लिए राष्ट्रीय भावना को तैयार करता है।


पेंगुइन बुक्स इंडिया द्वारा प्रकाशित रामचंद्र गुहा की किताब 'विदेशी खेल अपने मैदान पर'का एक संपादित अंश। प्रकाशक की अनुमति से प्रकाशित।

लखनऊ और अमृतलाल नागर दोनों एक दूसरे के लिए बने थे!

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आज हिंदी के विलक्षण गद्यकार अमृतलाल नागर की जयंती है. नागर जी की स्मृति को प्रणाम करते हुए लखनवी ठाठ के इस लेखक पर समकालीन लेखक दयानंद पाण्डेय का यह लेख पढ़िए, जो बड़ी रोचक शैली में लिखा गया है- मॉडरेटर 
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कहना बहुत कठिन है कि अमृतलाल नागर(1916 -1990) का दिल लखनऊ में धड़कता था कि लखनऊ के दिल में अमृतलाल नागर धड़कते थे। 'हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा'की इबारत दरअसल नागर जी पर ऐसे चस्पा होती है गोया लखनऊ और नागर जी दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हों। हिंदी ही क्या समूचे विश्व साहित्य में कोई एक लेखक मुझे ऐसा नहीं मिला जिस की सभी रचनाओं में सिर्फ़ एक ही शहर धड़कता हो.......एक ही शहर की कहानी होती हो फिर भी वह कहानी सब को ही अपनी ही कहानी लगती हो और कि पूरी दुनिया में छा जाती हो। लिखने को लखनऊ को अपनी रचनाओं में बहुतेरे लेखकों ने रचा है प्रेमचंद से ले कर श्रीलाल शुक्ल, कामतानाथ तक ने। मैं ने खुद भी। पर जैसा नागर जी ने रचा है, वैसा तो न भूतो, न भविष्यति। और उस लखनऊ में भी चौक। चौक ही उन की कहानियों में खदबदाता रहता है ऐसे जैसे किसी पतीली में कोई भोज्य पदार्थ। आते तो वह बनारसी बाग और सिकंदर बाग तक हैं पर लौट-लौट जाते हैं चौक। जैसे करवट में वह जाते तो कोलकाता भी हैं पर बताते लखनऊ और चौक ही हैं। यहीं की यादें हैं। खत्री परिवार की तीन पीढियों की इस कथा में जो बदलाव के कोलाहल का कोलाज वह रचते हैं वह अप्रतिम है। उस अंगरेज मेम के यूज एंड थ्रो की जो इबारत एक अविरल देहगंध की दाहकता और रंगीनी के रंग में रंगते और बांचते हैं, जिस शालीनता और संकेतों की मद्धिम आंच में उसे पगाते हैं, वह देहयात्रा अविस्मरणीय बन जाती है।

गोमती से बरास्ता गंगा नाव यात्रा से कोलकाता पहुंचने के बीच उस नौजवान खत्री के साथ रंगरेलियां मनाती रेजीडेंसी में तैनात किसी बडे़ अंगरेज अफ़सर की वह अंगरेज मैम कोलकाता पहुंच कर कैसे तो उसे न सिर्फ़ पहचानने से कतराती है बल्कि तिरस्कृत भी करती है तो नौकरी की आस में आया यह नौजवान कैसे तो टूट जाता है। फिर वह लखनऊ की यादों और संपर्कों की थाह लेता है। बूंद और समुद्र नागर जी का महाकाव्यात्मक उपन्यास है। पर समूची कथा लखनऊ के चौक में ही चाक-चौबस्त है। बूंद और समुद्र की ताई विलक्षण चरित्र है। ताई के बडे अंधविश्वास हैं। बहुत कठोर दिखने वाली ताई बाद में पता चलता है कि भीतर से बहुत कोमल, बहुत आर्द्र हैं। वनकन्या, नंदो, सज्जन, शीला, महिपाल, कर्नल आदि तमाम पात्र बूंद और समुद्र में हमारे सामने ऐसे उपस्थित होते हैं गोया हम उन्हें पढ़ नहीं रहे हों, साक्षात देख रहे हों। बिल्कुल किसी सिनेमा की तरह। फ़िल्म, रेडियो और फ़िल्मी गानों से तर-बतर मिसेज वर्मा का चरित्र भी तब के दिनों में रचना नागर जी के ही बूते की बात थी। मिसेज वर्मा न सिर्फ़ फ़िल्मों और फ़िल्मी गानों से प्रभावित हैं बल्कि असल ज़िंदगी में भी वह उसे आज़माती चलती हैं। शादी करना और उसे तोड़ कर फिर नई शादी करना और बार-बार इसे दुहराना मिसेज वर्मा का जीवन बन जाता है। कोई बूंद कैसे तो किसी समुद्र में तूफ़ान मचा सकती है यह बूंद और समुद्र पढ़ कर ही जाना जा सकता है। पांच दशक से भी अधिक पुराना यह उपन्यास लखनऊ के जीवन में उतना ही प्रासंगिक है  जितना अपने छपने के समय था। अमृत और विष वस्तुत: एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। अरविंद शंकर इस उपन्यास में लेखक पात्र है। लखनऊ के अभिजात्य वर्ग की बहुतेरी बातें इस उपन्यास में छ्न कर आती हैं।

नागर जी कोई भी उपन्यास अमूमन बोल कर ही लिखवाते थे। उन का उपन्यास लिखते-लिखते जाने कितने लोग लेखक संपादक हो गए। मुद्राराक्षस उन्हीं में से एक हैं। अवध नारायन मुदगल जो बाद में सारिका के संपादक हुए। ऐसे और भी बहुतेरे लोग हैं। बूंद और समुद्र तो उन्हों ने अपने बच्चों को ही बोल कर लिखवाया। इस की लंबी दास्तान नागर जी के छोटे पुत्र शरद नागर ने बयान की है। कि कैसे रात के तीसरे पहर जब यह उपन्यास लिखना खत्म हुआ जो शरद नागर को ही बोल कर वह लिखवा रहे थे, तब घर भर को जगा कर यह खुशखबरी बांटी थी, नागर जी ने। बा को भी सोते से जगाया था और बताया था बिलकुल बच्चों की तरह कि आज बूंद और समुद्र पूरा हो गया। नागर जी असल में फ़िल्मी कथा-पटकथा लिख चुके थे। सारा नरम गरम देख चुके थे। जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव देख चुके थे सो जब वह बोल कर लिखवाते थे तो ऐसे गोया वह दृश्य उन के सामने ही घटित हो रहा है बिलकुल किसी सिनेमा की तरह। नागर जी तो कई बार चिट्ठियां तक बोल कर लिखवाते थे। ऐसे ही उन की एक और आदत थी कि वह जब कोई उपन्यास लिखते थे तो उस को लिखने के पहले जिस विषय पर लिखना होता था उस विषय पर पूरी छानबीन, शोध करते थे। कई बार किसी अखबार के रिपोर्टर की तरह जांच-पडताल करते गोया उपन्यास नहीं कोई अखबारी रिपोर्ट लिखनी हो। नाच्यो बहुत गोपाल हो या खंजन नयन। उन्हों ने पूरी तैयारी के साथ ही लिखा।सुहाग के नूपुर पौराणिक उपन्यास है जब कि शतरंज के मोहरे ऐतिहासिक। पर इन दोनों उपन्यासों को भी पूरी पड़ताल के बाद ही उन्हों ने लिखा। ये कोठे वालियां तो इंटरव्यू आधारित है ही। गदर के फूल लिखने के लिए भी वह जगह-जगह दौड़ते फिरे। मराठी किताब का एक अनुवाद भी उन्हों ने पूरे पन से किया था- आंखों देखा गदर। नागर जी ने आकाशवाणी लखनऊ में नौकरी भी की और बहुतेरे रेडियो नाटक भी लिखे। नाटकों में वैसे भी उन की गहरी दिलचस्पी थी। नागर जी ने इसी लखनऊ में कई छोटे-मोटे काम किए। मेफ़ेयर के पास डिस्पैचर तक के काम किए। बाद के दिनों में वह पूर्णकालिक लेखक हो गए। 1985 की बात है उन्हों ने एक बार बताया था कि राजपाल प्रकाशन वाले उन्हें हर महीने चार हज़ार रुपए देते हैं और साल के अंत में रायल्टी के हिसाब में एडजस्ट कर देते हैं। तब के दिनों में नागर जी के कई उपन्यास विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगे पडे़ थे। वह चौक में तब शाह जी की हवेली में किराएदार थे। और सोचिए कि हिंदी का यह इतना बड़ा लेखक लखनऊ में या कहीं और भी अपना एक घर नहीं बना सका। किराए के घरों में ही ज़िंदगी बसर कर ली। उन को पद्म भूषण भी मिला ज़रुर था पर अंतिम समय में उन के इलाज के लिए इसी मेडिकल कालेज में सिफ़ारिशें लगानी पड़ी थीं। और वह सिफ़ारिशें भी नाकाम रहीं थीं। तब जब कि नागर जी जन-जन के लेखक थे। उन के जाने के बाद लखनऊ क्या अब हिंदी जगत के पास भी कोई एक लेखक नहीं है जिसे देख कर लोग दूर से ही पहचान लें कि देखो वह हिंदी का लेखक जा रहा है। या किसी लेखक के घर का पता आप पूछें तो कोई आप को उस के घर तक पहुंचा भी आए। घर पहुंचाना तो दूर वह उस लेखक को ही न जानता हो। लेखक पाठक का वह जो रिश्ता था वह अब बिसर गया है। जनता लेखक से और लेखक जनता से कट चुका है। कह सकते हैं आप कि अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वो मधुशाला!

जापान में शेक्सपीयर को ले कर एक सर्वे हुआ था। एक जापानी से पूछा गया कि शेक्सपीयर यहां क्यों इतना लोकप्रिय हैं? तो उस जापानी का सीधा सा जवाब था - क्यों कि शेक्सपीयर जापानियों के बारे में बहुत अच्छा लिखते हैं। नागर जी के बारे में भी यह बात कही जा सकती है। क्यों कि नागर जी भी भले लखनऊ को ही अपनी कथावस्तु बनाते थे, पर वह कथा तो सभी शहरों की होती थी। उन से एक बार मैं ने पूछा था कि, 'आप गांव के बारे में भी क्यों नहीं लिखते?'वह बोले, 'अरे मैं नागर हूं, गांव के बारे में मुझे क्या मालूम? फिर कैसे लिखूं?'करवट में देह प्रसंगों को ले कर एक बार मैं ने उन से संकोचवश ज़िक्र किया और पूछा कि, 'यह दृश्य रचना कैसे संभव हुआ आप के लिए?'पान कूंचते हुए वह मुस्‍कुराए और बोले, 'क्या हम को एकदम बुढऊ समझते हो? अरे हमने भी दुनिया देखी है और तरह-तरह की? तुम लोग क्या देख-भोग पाओगे जो हमने देखी-भोगी है।'कह कर वह फिर अर्थपूर्ण ढंग से मुस्‍कुराए।

वह अकसर सब के बारे में बहुत विनय और आदर भाव रखते थे पर पता नहीं क्यों जब कभी श्रीनारायण चतुर्वेदी की बात आती तो वह भड़क जाते। एक श्रीनारायण चतुर्वेदी और दूसरे महंगाई दोनों से वह बेतरह भड़कते। नागर जी से पहली बार मैं 1979 में मिला था। तब विद्यार्थी था। पिता जी के साथ दिल्ली घूमने जा रहा था। तब गोरखपुर से दिल्ली की सीधी ट्रेन नहीं हुआ करती थी। लखनऊ आ कर ट्रेन बदलनी होती थी। सुबह गोरखपुर से आया। रात को काशी विश्वनाथ पकड़नी थी। वेटिंग रूम में बैठे-बैठे मैं ने पिता जी से कहा कि मैं नागर जी से मिलने जाना चाहता हूं। पिता जी ने अनुमति दे दी। मैं स्टेशन से बाहर निकला। एक टेलीफ़ोन बूथ पर जा कर टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री में नागर जी का नंबर ढूंढा। नंबर मिलाया। नागर जी ने खुद फ़ोन उठाया। उन से मिलने की इच्छा जताई और बताया कि गोरखपुर से आया हूं। स्टेशन से बोल रहा हूं। उन्हों ने स्टेशन से आने के लिए बस कहां मिलेगी बताया और कहा कि बस चौक चौराहे पर रुकेगी वहां उतर कर ऐसे-ऐसे चले आना मेरा घर मिल जाएगा। मैं चौक चौराहे पर उतर कर जब नागर जी के बारे में पूछने लगा तो हर कोई नागर जी का पता बताने लगा। जैसे होड़ सी लग गई। और अंतत: एक सज्जन नहीं माने मुझे ले कर नागर जी के घर पहुंचा आए। दोपहर हो चली थी। नागर जी ऐसे ठठा कर मिले जैसे कितने जन्मों से मुझे जानते हों। अपने बैठके में बिठाया। हाल चाल पूछा। फिर पूछा कैसे आना हुआ। मैं उन से कहना चाहता था कि आप से मिलने आया हूं पर मुंह से निकला आप का इंटरव्यू करना चाहता हूं। वह अचकचाए, 'इंटरव्यू?'फिर बोले,'ठीक है। ले लो इंटरव्यू।'मैं ने इंटरव्यू शुरु किया बचकाने सवालों के साथ। पर वह जवाब देते गए। थोड़ी देर बाद बोले, 'बेटा थोड़ी जूठन गिरा लो फिर इंटरव्यू करो।'मैं उन का जूठन गिराने का अभिप्राय समझा नहीं। तो वह बोले, 'अरे दो कौर खा लो।'असल में मैं खुद भूख से परेशान था। पेट में मरोड़ उठ रही थी। छूटते ही बोला, 'हां-हां।'शरद जी की पत्नी को नागर जी ने बुलाया और कहा कि कुछ जूठन गिराने का बंदोबस्त करो। वह जल्दी ही पराठा सब्जी बना कर ले आईं। खा कर उठा तो वह बोले, 'दरअसल बेटा तुम्हारे चेहरे पर लिखी भूख मुझ से देखी नहीं जा रही थी।'मैं झेंप गया।

इंटरव्यू ले कर जब चलने लगा तो वह बडे मनुहार से बोले, 'बेटा यह इंटरव्यू छपने भेजने के पहले मुझे भेज देना। फिर जब मैं वापस ठीक कर के भेजूं तब ही कहीं छपने भेजना। सवाल तो तब मेरे कच्चे थे ही लिखना भी कच्चा ही था। यह तब पता चला जब नागर जी ने वह इंटरव्यू संशोधित कर के भेजा। दंग रह गया था वह बदला हुआ इंटरव्यू देख कर। एक सुखद अनुभूति से भर गया था तब मैं। समूचे इंटरव्यू की रंगत बदल गई थी। अपने कच्चेपन की समझ भी आ गई थी। नागर जी द्वारा संशोधित वह इंटरव्यू आज भी मेरे पास धरोहर के तौर पर मौजूद है। और छपा हुआ भी। एक बार फिर उन से मिला लखनऊ आ कर। तब प्रेमचंद पर कुछ काम कर रहा था। संपादन मंडल में उन्हों ने न सिर्फ़ अपनी भागीदारी तय की, अपना लेख दिया बल्कि जैनेंद्र कुमार के लिए भी एक चिट्ठी बतौर सिफ़ारिश लिख कर दी। नागर जी की तरह जैनेंद्र जी को भी दिल्ली के दरियागंज में सब लोग जानते थे। नेता जी सुभाष मार्ग पर राजकमल प्रकाशन के पास ही उन के बारे में पूछा। वहां भी सब लोग जैनेंद्र जी के बारे में बताने को तैयार। एक आदमी वहां भी मिला जो जैनेंद्र जी के घर तक मुझे पहुंचा आया। जैनेंद्र जी बहुत कम बोलने वाले लोगों में थे। नागर जी की चिट्ठी दी तो मुस्‍कुराए। कहा कि जब यह चिट्ठी ले कर आए हैं तो ''करने का प्रश्न कहां से आता है?'उन्हों ने भी सहमति दे दी संपादक मंडल के लिए। लिखने की बात आई तो वह बोले, 'इतना लिख चुका हूं प्रेमचंद पर कि अब कुछ लिखने को बचा ही नहीं। बात कर के जो निकाल सकें, निकाल लें। लिख लें मेरे नाम से।'खैर, नागर जी से चिट्ठी पत्री बराबर जारी रही। एक बार गोरखपुर वह गए। संगीत नाटक अकादमी के नाट्य समारोह का उद्घाटन करने। मुझे ढूंढते फिरे तो लोगों ने बताया। जा कर मिला। बहुत खुश हुए। बोले, 'तुम मेरे शहर में मिलते हो आ कर तो मुझे लगा कि तुम्हारे शहर में मैं भी तुम से मिलूं।'यह कह कर वह गदगद हो गए।

जब मेरा पहला उपन्यास दरकते दरवाजे छपा तब मैं दिल्ली रहने लगा था। 1983-84 की बात है। यह उपन्यास नागर जी को ही समर्पित किया था। उन्हें उपन्यास देने दिल्ली से लखनऊ आया। मिल कर दिया। वह बहुत खुश हुए। थोड़ी देर पन्ने पलटते रहे। मैं उन के सामने बैठा था। फिर अचानक उन्हों ने मेरी तरफ देखा और बोले, 'इधर आओ!'और इशारा कर के अपने बगल में बैठने को कहा। मैं संकोच में पड़ गया। फिर उन्हों ने लगभग आदेशात्मक स्वर में कहा, 'यहां आओ!'और जैसे जोड़ा, 'यहां आ कर बैठो !'मैं गया और लगभग सकुचाते हुए उन की बगल में बैठा। और यह देखिए आदेश देने वाले नागर जी अब बिलकुल बच्चे हो गए थे। मेरे कंधे से अपना कंधा मिलाते हुए लगभग रगड़ते हुए बोले, 'अब मेरे बराबर हो गए हो !'मैं ने कुछ न समझने का भाव चेहरे पर दिया तो वह बिलकुल बच्चों की तरह मुझे दुलारते हुए बोले. 'अरे अब तुम भी उपन्यासकार हो गए हो ! तो मेरे बराबर ही तो हुए ना !'कहते हुए वह हा-हा कर के हंसते हुए अपनी बाहों में भर लिए। आशीर्वादने लगे, 'खूब अच्छा लिखो और यश कमाओ !'आदि-आदि।

बाद के दिनों में मैं लखनऊ आ गया स्वतंत्र भारत में रिपोर्टर हो कर। तो जिस दिन कोई असाइनमेंट दिन में नहीं होता तो मैं भरी दुपहरिया नागर जी के पास पहुंच जाता। वह हमेशा ही धधा कर मिलते। ऐसे गोया कितने दिनों बाद मिले हों। भले ही एक दिन पहले ही उन से मिल कर गया होऊं। हालां कि कई बार शरद जी नाराज हो जाते। कहते यह उन के लिखने का समय होता है। तो कभी कहते आराम करने का समय होता है। एकाध बार तो वह दरवाजे से ही लौटाने के फेर में पड़ जाते तो भीतर से नागर जी लगभग आदेश देते, 'आने दो- आने दो।'वह सब से ऐसे ही मिलते थे खुल कर। सहज मन से। सरल मन से बतियाते हुए। उन से मिल कर जाने क्यों मैं एक नई ऊर्जा से भर जाता था। हर बार उन से मिलना एक नया अनुभव बन जाता था। उन के पास बतियाने और बताने कि जाने कितनी बातें थीं। साहित्य,पुरातत्व,फ़िल्म, राजनीति, समाज, बलात्कार, मंहगाई। जाने क्या-क्या। और तो और जासूसी उपन्यास भी।

शाम को विजया उन की नियमित थी ही। विजया मतलब भांग। खुद बडे़ शौक से घोंटते। जो भी कोई पास होता उस से एक बार पूछ ज़रुर लेते। किसी के साथ ज़बरदस्ती नहीं करते। एक बार मुझे पीलिया हो गया। महीने भर की छुट्टी हो गई। कहीं नहीं गया। नागर जी के घर भी नहीं। उन की एक चिट्ठी स्वतंत्र भारत के पते से आई। लिखा था क्या उलाहना ही था कि बहुत दिनों से आए नहीं। फिर कुशल क्षेम पूछा था और लिखा था कि जल्दी आओ नहीं यह बूढ़ा खुद आएगा तुम से मिलने। अब मैं तो दफ़्तर जा भी नहीं रहा था। यह चिट्ठी विजयवीर सहाय जो रघुवीर सहाय के अनुज हैं उन के हाथ लगी। वह बिचारे चिट्ठी लिए भागे मेरे घर आए। बोले, 'कहीं से उन को फ़ोन कर ही सूचित कर दीजिए नहीं नाहक परेशान होंगे।'मेरे घर तब फ़ोन था नहीं। टेलीफ़ोन बूथ से फ़ोन कर उन्हें बताया तो उन्हों ने ढेर सारी हिदायतें कच्चा केला, गन्ना रस, पपीता वगैरह की दे डालीं।उन दिनों वह करवट लिख रहे थे। बाद में बताने लगे कि, 'उस में एक नए ज़माने का पत्रकार का भी चरित्र है जो तुम मुझे बैठे -बिठाए दे जाते हो इस लिए तुम्हारी तलब लगी रहती है।'वास्तव में वह अपने चरित्रों को ले कर, उपन्यास में वर्णित घटनाओं को ले कर इतने सजग रहते थे, कोई चूक न हो जाए, कोई छेद न रह जाए के डर से ग्रस्त रहते थे कि पूछिए मत। करवट में ही एक प्रसंग में अंगरेजों के खिलाफ एक जुलूस का ज़िक्र है। पूरा वर्णन वह लिख तो गए पर गोमती के किस पुल से होते हुए आया वह जुलूस इस को ले कर उन्हें संशय हो गया। फिर उन्हें याद आया कि हरेकृष्ण अवस्थी भी उस जुलूस में थे। वही हरेकृष्ण अवस्थी जो विधान परिषद सदस्य रहे हैं और कि लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति भी। नागर जी ने वह पूरा अंश अवस्थी जी को एक चिट्ठी के साथ भेजा और अपना संशय बताया और लिखा कि इस में जो भी चूक हो उसे दुरुस्त करें। अवस्थी जी राजनीतिक व्यक्ति थे। जवाब देने में बहुत देर कर बैठे। पर जवाब दिया और जो भी चूक थी उसे बताया और देरी के लिए क्षमा मांगी।

नागर जी ने उन्हें जवाब में लिखा कि देरी तो बहुत हो गई पर चूंकि बिटिया अभी ससुराल नहीं गई है, घर पर ही है। इस लिए कोई देरी नहीं हुई है। पुल तो वही था जो नागर जी ने वर्णित किया था पर कुछ दूसरी डिटेल में हेर-फेर थी। जिसे अवस्थी जी ने ठीक करवा दिया। इस लिए भी कि अवस्थी जी ने इस जुलूस में खुद भी अंगरेजों की लाठियां खाई थीं। नागर जी रचना को बिटिया का ही दर्जा देते थे। बिटिया की ही तरह उस की साज-संभाल भी करते थे। और ससुराल मतलब प्रकाशक। नागर जी का एक उपन्यास है अग्निगर्भा। दहेज को ले कर लिखा गया यह उपन्यास अनूठा है। कथा लखनऊ की ही है। लेकिन इस की नायिका जिस तरह दहेज में पिसती हुई खम ठोंक कर दहेज और अपनी ससुराल के खिलाफ़ अचानक पूरी ताकत से खड़ी होती है वह काबिले गौर है। पर सोचिए कि अग्निगर्भा जैसा मारक और दाहक उपन्यास लिखने वाले नागर जी खुद व्यक्तिगत जीवन में दहेज से अभिशप्त रहे। क्या हुआ कि उन दिनों उन्हें लगातार दो -तीन लखटकिया पुरस्कार मिल गए थे। व्यास सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान और बिहार सरकार का भी एक लखटकिया सम्मान। मैं ने उन से मारे खुशी के कहा कि चलिए अब जीवन कुछ आसान हो जाएगा। सुनते ही वह कुपित हो गए। बोले, 'खाक आसान हो जाएगा?'पोतियों की शादी करनी है। जहां जाते हैं लोग मुंह बड़ा कर लेते हैं कि आप के पास तो पैसा ही पैसा है। अग्निगर्भा के लेखक की यह बेचैनी और यातना मुझ से देखी नहीं गई। फिर मुझे उन का ही कहा याद आया। एक बार एक इंटरव्यू में उन से पूछा था कि, 'क्या साहित्यकार भी टूटता है?'तो नागर जी पान की गिलौरी मुंह में दाबे धीरे से बोले थे, 'साहित्यकार भी आदमी है, टूटता भी होगा।'उन का वह कहा और यह टूटना अब मैं देख रहा था। उन को बेतरह टूटते मैं ने एक बार फिर देखा जब बा नहीं रहीं थीं। बा मतलब उन की धर्मपत्नी। जिन को वह अक्सर बात बात में कहते, 'बुढिया कहां गई? अभी आती होगी।'वगैरह-वगैरह कहते रहते थे। उसी बुढिया के न रहने पर इस बूढे को रोता देखना मेरे लिए दुखदाई हो गया था तब। तब मैं भी रो पड़ा था। करता भी क्या उन को अपने जीवन में मैं ने पहली बार फूट-फूट कर रोते देखा था। कोई 72-73 वर्ष की उम्र में वह रो रहे थे। तेरही के बाद एक दुपहरिया गया तो वह फिर फूट पडे। रोते-रोते अचानक बा के लिए वह गाने लगे, 'तुम मेरे पास होते हो गोया जब कोई दूसरा नहीं होता।'अदभुत था यह। पतियों के न रहने पर बिलखते-रोते तो मैं ने बहुतेरी औरतों को देखा था पर पत्नी के न रहने पर बिलखते रोते मैं पहली बार ही इस तरह किसी पुरुष को देख रहा था। यह पुरुष नागर जी थे। नागर जी ही लोक लाज तज कर इस तरह रो सकते थे। रोते-रोते कहने लगे- मेरा ज़्यादतर जीवन संघर्ष में बीता। बुढिया ने बच्चों को भले चने खिला कर सुला दिया पर कभी मुझ से कोई उलाहना नहीं दिया। न कभी किसी से कुछ कहने गई, न किसी के आगे हाथ पसारा। कह कर वह फिर उन की याद में रोने लगे।

मैं ने तब स्वतंत्र भारत में ही नागर जी की इस व्यथा को रेखांकित करते हुए एक भावांजलि लिखी। जो संडे को संपादकीय पेज पर छ्पी थी। बाद में यही भावांजलि नागर जी के एक इंटरव्यू के साथ कोलकोता से प्रकाशित रविवार में बाक्स बन कर छपी। अब शरद नागर फिर मुझ पर बेतरह नाराज। कहने लगे, 'पहले आप ने स्वतंत्र भारत में यह सब लिखा तो वह उसे पढ़ कर रोते रहे। अब किसी तरह स्थिर हुए तो अब रविवार पढ़ - पढ़ कर रो रहे हैं। ऐसा क्यों कर रहे हैं आप? बंद कीजिए यह सब !'मैं निरुत्तर था। और देखिए कि बा के जाने के बाद नागर जी सचमुच इस कदर टूट गए थे कि जल्दी ही खुद भी कूच कर गए। वह शायद पीढियां उपन्यास पूरा करने के लिए ही अपने को ढो रहे थे। 74 वर्ष की उम्र में उन का महाप्रयाण सब को तोड़ देने वाला था। उन के 75 वर्ष में अमृत महोत्सव की तैयारियां थीं। जैसे बा के जाने पर नागर जी कहते रहे थे कि, 'ज़्यादा नहीं भगवान से बस यही मांगा था कि दो-तीन साल का साथ और दे देते !'ठीक वैसे ही शरद नागर अब बिलख रहे थे कि बस अमृत महोत्सव मना लिए होते.....!'खैर।


नागर जी जैसे लोग हम तो मानते हैं कि कभी मरते नहीं। वह तो अभी भी ज़िंदा हैं, अपने तमाम-तमाम पात्रों में। अपनी अप्रतिम और अनन्य रचनाओं में। इस लखनऊ के कण-कण में। लखनऊ के लोग अब उन्हें भले बिसार दें तो भी वह बिसरने वाले हैं नहीं। चौक में होली की जब भी बात चलती है, नागर जी मुझे लगता है हर होली जुलूस में खडे़ दीखते हैं अपनी पूरी चकल्लस के साथ। वहां के कवि सम्मेलनों का स्तर कितना भी क्यों न गिर जाए नागर जी की याद के बिना संपन्न होता नहीं। चौक में उन की हवेली को स्मारक का दर्जा भले न मिल पाया हो पर चौक के वाइस चांसलर तो वह आज भी हैं। हकीकत है यह। सोचिए कि एक बार जब उन्हें एक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बनाने का प्रस्ताव रखा गया तो उन्हों ने उस प्रस्ताव को ठुकराते हुए यही कहा था कि मैं अपनी चौक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर ही ठीक हूं। क्या उस चौक में उन का दिल अब भी धडकता न होगा? उन के परिवार के लोग भी अब चौक छोड़ इंदिरा नगर, विकास नगर और मुंबई भले रहने लगे हैं पर उन के पात्र? वह तो अभी भी वही रहते हैं। बूंद और समुद्र की ताई को खोजने की ज़रूरत नहीं है न ही करवट के खत्री बंधुओं की न अग्निगर्भा के उस नायिका को, नाच्यो बहुत गोपाल की वह ब्राह्मणी भी अपने सारे दुख सुख संभाले मिल जाएगी आप को इसी लखनऊ के चौक में।और जो सच कहिए तो मैं भी वही गाना चाहता हूं जो नागर जी बा के लिए कभी गा गए हैं, 'तुम मेरे पास होते गोया जब कोई दूसरा नहीं होता !'लेकिन यह तो हमारी या हम जैसे कुछ थोडे़ से लोगों की बात है। खामखयाली वाली। एक कड़वा सच यह है कि इस लखनऊ में लेखन की जो त्रिवेणी थी उस की अजस्र धारा में भीगे लोग अब कृतघ्न हो चले हैं। नागर जी की याद में यह शहर तभी जागता है जब उन के परिवारीजन उन की जयंती और पुण्‍य-तिथि पर कोई आयोजन करते हैं। यही हाल भगवती चरण वर्मा का भी है कि जब उन के परिवारीजन उन की जयंती व पुण्‍य-तिथि पर कोई आयोजन करते हैं तब शहर उन की याद में भी जाग लेता है। अब बचे यशपाल जी। उन के बेटे और बेटी में सुनते हैं कि उन की रायलटी को ले कर लंबा विवाद हो गया और फिर वह लोग देश से बाहर रहते हैं। उन की पत्नी प्रकाशवती पाल भी इलाज के लिए सरकारी मदद मांगते हुई सिधार गईं। सो यशपाल जी को उन की जयंती या पुण्‍य-तिथि पर कोई फूल माला भी नहीं नसीब होती इस शहर में कभी। तब जब कि वह सिर्फ़ लेखक ही नहीं क्रांतिकारी भी थे। और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी के दल में। दुर्गा भाभी के साथ प्रकाशवती पाल भी उस यात्रा में साझीदार थीं और राज़दार भी जिस में भगत सिंह को अंगरेज वेष-भूषा में ट्रेन से निकाल कर ले गई थीं। 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले/वतन पर मरने वालों का बस यही बाकी निशां होगा !'शायद हम लोग झूठ ही गाते रहे हैं। नहीं अभी वर्ष 2003 में यशपाल और भगवती चरण वर्मा की जन्मशती थी। यह कब निकल गई लखनऊ ने या हिंदी जगत ने जाना क्या? अभी नागर जी की भी जन्मशती करीब है, कोई चार साल बाद। देखना होगा कि कौन सा बाकी निशां होगा! यह कौन सा झूठा सच है मेरे लखनऊ वालो, हिंदी वालो! आखिर कृतघ्नता की भी कोई हद होती है दोस्तो! एक फ़िल्मी गाने के सहारा ले कर ही जो कहूं तो 'जो तुम पर मिटा हो उसे ना मिटाओ !'सचमुच गुजरात से उन के पूर्वज भले आए थे यहां पर नागर जी तो लखनऊ पर मर मिटे। बात यहां तक आई कि एक समय वह तस्लीम लखनवी तक बन बैठे। तो मसला वही था कि हम फ़िदाए लखनऊ, लखनऊ हम पे फ़िदा! आखिर इस तस्लीम लखनवी की याद को लखनऊ भी तस्लीम [स्वीकार] कर ले तो आखिर हर्ज़ क्या है!

गुलजार की पहुँच हर पीढ़ी, हर दिल तक है!

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गुलजार शायद ऐसे अकेले लेखक-कलाकार हैं जिनसे हर उम्र, हर सोच के लोग गहरे मुतास्सिर हैं. जीते जी वे एक ऐसे मिथक में बदल गए हैं सब जिनके मानी अपन अपने ढंग से समझना चाहते हैं. यकीन न हो तो इस युवा लेखक अंजुम शर्माका लेख पढ़ लीजिये और देखिये एकदम टटकी पीढ़ी उनको कैसे देखती है. उनके जन्मदिन पर विशेष- मॉडरेटर
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गुलज़ार साहब से मेरी पहली मुलाक़ात राष्ट्रीय बाल भवन के बारहमासा कार्यक्रम में हुई थी. सफ़ेद कुर्ता, चौड़े पायचे वाला पैजामा, पैरों में क्रीम मोजरी और शायद कुछ इसी रंग की शॉल. आँखों पर काले फ्रेम का चश्मा जिसके लेंस पर मानो प्रोमप्टर की तरह कोई नज़्म चल रही हो, होठों पर हल्की सी हँसी और शायरी में डूबा चेहरा. जब भी उनके बारे में कुछ लिखने बैठता हूँ यह तस्वीर बार बार सामने आ जाती है. उनका गला उनकी कलम का क्या बखूबी साथ देता है, सुनने वाला सोचता रह जाए की उनकी आवाज़ और कलम दोनों में क्या भारी है.

गुलज़ार के लेखन का फलक गीत, शायरी, फिल्म निर्देशन, पटकथा संवाद लेखन, कहानी से लेकर बाल साहित्य और अनुवाद तक विस्तृत है. पिछले छः दशक उनकी कलम के निब के नीचे से गुज़रे हैं और उनके गीतों का काजल लगातार गाढ़ा होता रहा. अपने समय के यथार्थ को पकड़ने की चुनौती उनको उनके अदीबहोने से मिली जिसका असर उनके गीतों और फिल्मों पर साफ़ देखा जा सकता है. गुलज़ार की सबसे बड़ी खासियत उनका नए और पुराने का संधि पसंद होना है. शुरू से अब तक परंपरा को उन्होंने अपने हाथ से कहीं फिसलने नहीं दिया और वैचारिक परंपरा को वे नएपन के साथ आगे बढाते रहे.  

बिमल रॉय की उंगली पकड़कर फिल्मी दुनिया की बारीकी सीखने वाले इस मक़बूल शायर ने जब फिल्म निर्देशन में क़दम रखा तो अपने गुरु की संजीदगी को खोने नहीं दिया. बिमल रॉय का हाथ छूटने का दर्द गुलज़ार की किताब रावी पारके पन्नों में सुना जा सकता है. ख़ुद को ग़ालिब का मुलाज़िम बताने वाले गुलज़ार, ग़ालिब का पता पूछने वालों को हाथ पकड़ कर बल्लीमारान की पेचीदा दलीलों सी गलियों में घुमाते हुए गली क़ासिम जानतक ले जाते हैं और ग़ालिब की हवेली के भीतर तमाम क़िस्सों के साथ दाखिल करा देते हैं. उनका मानना है की वे ग़ालिब की पेंशन खा रहे हैं. ग़ालिब से उनका यह लगाव मिर्ज़ा ग़ालिबटीवी धारावाहिक निर्देशन के अतिरिक्त उनके कई गीतों में हमें दिखाई सुनाई देता है. मसलन, ‘जी ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिनका इस्तेमाल गुलज़ार ने फिल्म मौसम के गीत दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिनके तौर पर किया. इसी तरह अमीर खुसरो की ग़ज़ल का मतला जिहाले मिस्कीं मुकुन तगाफुल दुराए नैना बनाये बतियांको आधार बना कर गुलामी फिल्म में जिहाले मिस्कीं मुकुन ब रंजिश बहाले हिज्र बेचारा दिल हैलिखा. ऐसे कई अज़ीम शायरों के मिसरे गुलज़ार के गीतों और नज्मों में जगह जगह बिखरे पड़े हैं जिन्हें गुनगुनाते हुए लोग जाने अनजाने अपने समृद्ध लेखन इतिहास को गुनगुनाने लगते हैं.
                 

1963 में बंदिनी फिल्म के गीत मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे श्याम रंग दई देसे अपने गीति सफ़र की शुरुआत करने के बाद गुलज़ार ने कोई होता जिसको अपना..’, ‘मुसाफिर हूँ यारो...’, ‘इस मोड़ से जाते हैं....’, हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू....’, ‘दिल हूम हूम करे...’, ‘नाम गुम जायेगा...’, ‘यारा सीली सीली विरह की रात का जलना...’, ‘मेरा कुछ सामान...’, ‘छैयां छैयां...’, ‘चप्पा चप्पा चरखा चले...’, ‘एक सूरज निकला था...’, ‘ओ हमदम सुनियो रे...और कजरारे कजरारे....’(जिसे ट्रकों के पीछे लिखे जुमलों को ध्यान में रखकर लिखा गया) जैसे एक से बढकर एक सदाबहार गीत लिखे. एस डी बर्मन, सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, मदन मोहन, लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल, शंकर जयकिशन जैसे दिग्गज संगीतकारों से लेकर शंकर एहसान लॉय, विशाल भरद्वाज तक की धुनों पर गुलज़ार के अलफ़ाज़ उनके चाहने वालों को रुलाते, हंसाते, और नचाते गए. पंचम(राहुल देव बर्मन) गुलज़ार की जोड़ी अपने दौर में हिटशब्द का पर्याय बन चुकी थी. घूमते फिरते कहीं भी पंचम धुन तैयार कर देते और गुलज़ार उस पर बोल चढ़ा दिया करते थे. अपने संस्मरण पिछले पन्नेमें संकलित पोर्ट्रेट्स और मर्सियेमें पंचम को याद कर गुलज़ार लिखते हैं- 

याद है
, बारिश का दिन पंचम
जब पहाड़ी के नीचे वादी में
धुंध से झाँक कर निकलती हुई
रेल की पटरियां गुज़रती थी
धुंध में ऐसे लग रहे थे हम
जैसे दो पौधे पास बैठे हों
.......मैं धुंध में अकेला हूँ पंचम.


ऐसी ही जोड़ी नए दौर में ए.आर रहमान के साथ बनी और जय हो..ने उन्हें ऑस्कर और ग्रैमी अवार्ड से सम्मानित कराया. गुलज़ार के गीत अपने दौर की कहानी कहते हुए स्थायी से अंतरे की ओर बढ़ते हैं, यही उनकी विशेषता भी है. सिनेमा की इमेजिनरी भाषा में गुलज़ार ने अपने गीतों को कभी किरदार से बाहर नहीं निकलने दिया. उर्दू-हिंदी मिश्रित हिन्दुस्तानीमें गुलज़ार शब्दों को ऐसे घोल देते हैं मनो वे अभी भी वही कार मैकेनिक हैं जो जानता है कि एक्सीडेंटल कार को रंगने के लिए कितनी कितनी मात्र में किन किन रंगों का मिश्रण करने से कार की चमक लौट आएगी. दरअसल गुलज़ार शैलेन्द्र को गीतकारों में  सर्वश्रष्ठ मानते हैं. इसलिए नहीं कि शैलेन्द्र के कारण गुलज़ार फ़िल्मी गीतों की तरफ आए थे बल्कि इसलिए कि शैलेन्द्र के गीतों की आमज़बानी का कोई सानी था. बड़ी से बड़ी बात शैलेन्द्र रोज़मर्रा की भाषा में कह जाते थे. जैसे- दिल का हाल सुने दिल वाला, मीठी सी बात न मिर्च मसाला’. शैलेन्द्र गीतों में पोलिटिकल कमेन्ट भी बड़ी सरल भाषा में कर देते थे. गुलज़ार आज भी कहते हैं वे शैलेन्द्र की कुर्सी के बगल में खड़े हैं, उस पर बैठने की हिम्मत आज तक उनकी नहीं हुई. लेकिन फिर भी मानवीकरण की जो शैली गुलज़ार अपनाते हैं वे उनके नाम के साथ एक औहदा लगा देती है. गीतों में बिम्ब लगातार बोलते चले जाते हैं. ख़ासकर उनकी नज़्में, जो इस मामले में लाजवाब हैं. ज़रा इसे देखिये- 


सरहद के रेगिस्तानों में

सांस दबा कर चलती है खामोश हवा
रेत ज़मीं से गर्दन घिस कर उडती है
सरहद पर सकता तारी है
सरहद की बर्फ़ाब सी ख़ामोशी से डर लगता है.

गुलज़ार के यहाँ ख़ामोशी की गूँज बहुत गहरी होती है. वे ख़ुद कहते हैं कि गीतों में मैं ख़ुद रोता हूँ, किसी को रुलाने के लिए नहीं लिखता. इसका कारण शायद मीरासी होने के कारण परिवार से उनकी बेदख्ली और फिर वैवाहिक रिश्ते की असफलता से पसरा अकेलापन है. यही अकेलापन उन्हें सालता है जिसका ज़िक्र उनकी कई नज्मों में मिलता है. जैसे- 


जीने की वजह तो कोई नहीं

मरने का बहाना ढूंढता हूँ.
 गुलज़ार रातको बेहद अहम मानते हैं क्योंकि उनका मानना है कि आदमी रात में सबसे ज्यादा अकेला होता है. शायद इसी कारण उनके अधिकाँश गीतों और नज्मों में रातके साथ दिल, चाँद, और धुंए से उनकी मोहोब्बत महसूस की जा सकती है. यहाँ तक की उनके प्रमुख संग्रहों में से कई नाम भी इन्हीं पर आधारित है- रात पश्मीने की’, ‘चाँद पुखराज का’, ‘धुंआ’, ‘चौरस रातआदि.
गीतों के बाद फिल्म निर्देशन में जब गुलज़ार ने क़दम रखा तो सबको चौंकाया. इसकी प्रमुख वजह पूर्व में उनका बिमल रॉय और हृषिकेश मुख़र्जी जैसे निर्देशकों (जो स्वयं में संस्थान थे) का सहायक होना था. बेरोज़गारी के दर्द को उकेरती फिल्म मेरे अपनेसे गुलज़ार ने फिल्म निर्देशन में अपने पाँव जमाए. अपने साहित्यिक लगाव को गुलजार ने फिल्मों के बीच छूटने नहीं दिया और शेक्सपियर के कॉमेडी ऑफ़ एररर्सपर आधारित अंगूर’,क्रोनिन के उपन्यास पर आधारित मौसमशरतचंद्र के पंडित मोशायपर ख़ुशबूऔर राजकुमार मोइत्रा के बांगला उपन्यास पर परिचयजैसी साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों के साथ आंधी, किनारा, नमकीन, माचिस, हूँ तू तू जैसी संजीदा फिल्में भी बनाई. आनंद’ ‘गुड्डी’, ‘बावर्ची’ ‘नमक हराम’, ‘दो दूनी चार’ ‘ख़ामोशीजैसी फिल्में लिखकर गुलज़ार ने नया मुक़ाम हासिल किया. संजीव कुमार उनके पसंदीदा अभिनेता थे जिन्हें लेकर उन्होंने सर्वाधिक और यादगार फिल्में बनाई.  
अंजुम शर्मा 

फिल्म निर्देशन से संन्यास के बाद त्रिवेणीविधा के इस सर्जक ने गीतों के बदलते ट्रेंड में बड़ी आसानी से ख़ुद को उसका हिस्सा बना लिया. उनकी कलम का यही लचीलापन उनसे बीड़ी जलई लेऔर हनी सिंह के लिए रैपतक लिखवा लेता है. नई पीढ़ी संग काम करते हुए अपने गीतों में अदब के हिस्से को उन्होंने हमेशा बनाये रखा और फूहड़ता को कहीं आस पास भटकने तक नहीं दिया. शायरी, नज़्म को पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर लोगों तक पहुँचाने वाले इस फ़नकार ने अपने दिल को बच्चा करके जब बच्चों के लिए लिखा तो ऐसा लिखा कि वे गीत पीढ़ी दर पीढ़ी धरोहर की तरह आगे बढ़ते गए. गुड्डी फिल्म का गीत हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करेआज भी देशभर के विद्यालयों की प्रार्थना सभा में बच्चों को शक्ति देता है और मकड़ी फिल्म के ओ पापड़ वाले पंगा न लेमें यह शक्ति बच्चों को कमतर आंकने वालों को अंगूठा दिखाती है. मेरा दावा है कि मेरी पीढ़ी के युवा आज भी चड्डी पहन के फूल खिला हैगीत नहीं भूले होंगे और न ही लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ाजैसा गीत ज़बान से उतरा होगा जिसे हम बड़ों के मुंह से सुनते और ख़ुद गुनगुनाते हुए बड़े हुए हैं. गुलज़ार भारतीय भाषाओँ में बच्चों के लिए बहुत बड़ा संसार देखते हैं. उनका कहना है कि हमारी भाषाओँ में जितना बाल सहित्य लिखा जाना चाहिए था उतना नहीं लिखा गया, बच्चों को उनकी दुनिया का साहित्य देना बेहद ज़रूरी है. शायद इसीलिए पिछले कुछ वर्षों से गुलज़ार की सक्रियता बच्चों के बीच में बढ़ी है. यह सच है कि बच्चों के लिए साहित्य सृजन सबसे मुश्किल और चुनौतीपूर्ण कार्य है लेकिन जिस किसी ने गुलज़ार को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल, पटना लिटरेचर फेस्टिवल या अन्यत्र कहीं बच्चों संग बात करते देखा होगा वह बता सकता है कि कैसे उन्हें बौद्धिक मसालों की जटिल दीवारें तोड़कर बच्चों की काल्पनिक दुनिया में खेलने का हुनर आता है. अनेक सृजनात्मक कार्यों सहित विज्ञान के ‘चकमक’ जहान में ‘साल चढ़ने का ज़ीना है, पांव में पहला महिना है’ जैसी दो पक्तियां देकर बच्चों की जादुई नज़र बचाए रखने प्रयास वे लगातार कर रहे हैं. दरअसल गुलज़ार ने अपनी उम्र और काम के बीच कोई सरहद नहीं बनाई. शायद इसीलिए वे हर पीढ़ी के चहेते भी हैं. साहित्य समाज भले गुलज़ार को अपनाने में नाक भौं सिकोड़ता हो लेकिन आम जन ने उन्हें उनके सृजन के लिए ऐसी इज़्ज़त बख्शी कि गुलज़ार ‘गुलज़ार’ से ‘गुलज़ार साहब’ कहलाने लगे. गुलज़ार ने वीरान सफ़र में, आबाद नगर में, हर शहर में, हर पीढ़ी के लोगों के दिलों को अपने लेखन की रेंज से लगातार छुआ है और उम्मीद है ऐसे ही छूते रहेंगे. उन्हीं जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाएं.

मल को कमल बनानेवाले पुराणकार आचार्य रामपदारथ शास्त्री की जय हो!

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आलोचक संजीव कुमारइन दिनों किसी 'सबलोग'नामक पत्रिका में व्यंग्य का एक शानदार स्तम्भ लिखते हैं 'खतावार'नाम से. अब चूँकि वह पत्रिका कहीं दिखाई नहीं देती है इसलिए हमारा कर्त्तव्य बनता है कि अनूठी शैली में लिखे गए इन व्यंग्य लेखों को आप तक पहुंचाएं. यह नया है और कमाल का है- मॉडरेटर 
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इस बार रामपदारथ भाई का फ़ोन आया तो बड़े नाराज़ थे. बोले, ‘अरे, हम तुमको दिमागी तौर पर ही दीवालिया समझते थे, पर तुम तो नैतिक रूप से भी दीवालिया निकले!’

‘क्या हो गया, पदारथ भाई?’ मैंने किसी बड़े ख़तरे को सूंघते हुए उनका मूड हल्का करना चाहा, ‘मैं न तो किसी स्कैम में फंसा हूँ, न ही सेक्सुअल हरास्स्मेंट केस में. मोदी को लेकर आपसे डिफ़रेंस ज़रूर है, पर वह तो राजनैतिक मामला है, नैतिक नहीं!’

‘छोड़ो-छोड़ो, डिफ़रेंस-फिफरेंस सब नौटंकी है.’ पदारथ भाई हमलावर हुए, ‘तुम हो घुन्ना! मेरे सामने उलटा-सुलटा बात कहके हमसे बोलवाते हो और हमरे बतवा लिख-लिखके लेखक कहलाते हो. साला, बात हमारा और लेखक तुम! ई किसी स्कैम से कम है का? हमको तो पते नहीं चलता अगर कंकरबाग वाले महतो जी ‘सबलोग’ मैग्जिन्वा नहीं दिखलाए होते!’

मैं समझ गया, आज शामत आई... पर शामत ही है, कोई क़यामत तो नहीं! मैंने बिखरते आत्मविश्वास को इकठ्ठा किया और उनका मूड हल्का करने की दुरभिसंधि में जुट गया, ‘देखिये पदारथ भाई, दिमागी तौर पर मैं दीवालिया हूँ, यह तो आप जानते ही हैं. अब लेखक कहलाने की हसरत अन्दर ठाठें मार रही है. तो जो लोग अपने हैं, उन्हीं के दिमाग की तिजोरी से माल मारूंगा ना! किसी पराये से कैसे मारूं, बताइये!’

‘अच्छा बेटा, त हम ई सोच के संतोष कर लें कि घी कहाँ गिरा, थालिये में न!... अब कान खोल के सुन लो, हम घी गिरने ही नहीं देंगे. हमारा बात लिख के जो तुम लेखक बनोगे, सो  हमही काहे नहीं लेखक बन जाएँ? अब तुम कितनो छेड़ो, हम अपना अनमोल वचन बोलेंगे ही नहीं.’

इस बात गुस्सा न आना निर्वीर्य होने का प्रमाण था, सो मैंने आने दिया. थोड़े तैश में कहा, ‘ऐसा है सर जी, आपकी जिन बातों को मैं लिख मारता हूँ, उनका मज़ा तभी तक है जब तक वे एक कैरेक्टर के मुंह से निकलती हैं. आप भला खुद उन्हें कैसे लिखेंगे? अगर आप उन बातों को अखबार के अग्रलेख के रूप में लिखें तो यकीन मानिए, वे दो कौड़ी की ठहरेंगी. कोई छापने को राज़ी न होगा. ऐसा अछ्प्य लेखक बनने से तो अच्छा है, एक बिंदास कैरेक्टर बन कर ही लोगों के बीच रहिये... भाई जी, लेखन का कंटेंट अपने फॉर्म के साथ पैदा होता है. फॉर्म बदल दीजिये, सारा गुड़गोबर हो जाएगा.’

शायद तैश में आने का कुछ असर हुआ. पदारथ भाई नरम पड़े. बोले, ‘देखो, कंटेंट और फॉर्म, ई सब तो हम जानते नहीं हैं, लेकिन आईडिया हमारे पास है. लाओ कुछ नकद नारायण, तब हम आईडिया का उल्टी करेंगे, और का?’

‘नकद नारायण!’ मुझे हंसी आ गयी, ‘आज तक अपने किसी लिखे पर मुझे एक छदाम नहीं मिला, और आप कह रहे हैं कि...’

‘नहीं मिला त लिख काहे रहे हो? इससे तो अच्छा है, दीनानाथ बत्रा या आई सी एच आर वाले राव साहब का घोस्ट राईटर बन जाओ. १०८ बार भारतीय संस्कृति लिखोगे, उसीमें हज़ारों का कमाई हो जाएगा. और कुछ नहीं त एक ठो पुराण लिख मारो. अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना वाला लोग मालामाल कर देगा.’

‘पुराण?’ मैं चौंका. 

‘हाँ भाई, पुराण!’ पदारथ भाई बोले, ‘इसमें चौंकने वाला कौन बात है! आर एस एस का पुरानान्तार्गत इतिहास वाला प्रोजेक्ट के बारे में सुने नहीं हो? अभी से लेके २०२५ तक, माने आर एस एस की सौवीं सालगिरह तक इस प्रोजेक्ट पर काम चलेगा और एक खांटी देसी इतिहास लिखा जाएगा. १०६ पुराण तो ऊ लोग उपरा चुका है. एक ठो तुम भी लिख के ठेल दो, फिर देखो मजा.’

‘लेकिन पदारथ भाई, पुराण आज के जमाने में कैसे लिखा जा सकता है?’

‘अरे आज के ज़माना में नहीं लिखा जा सकता है त पुराना ज़माना में चले जाओ, और का! लगता है, तुम दूधनाथ सिंह वाला ‘आख़िरी कलाम’ नहीं पढ़े हो.’

‘वो पुराण शैली में लिखा हुआ है?’

‘अरे नहीं मरदे! उसमें एक जगह पुराण लिखने का भेद बताया है. कैसे साला मल को भी कमल ठहराया जा सकता है! उसमें एक ठो महंथ है, एकदम जब्बर राजा स्टाइल में रहने वाला. जिस गुरु से ई पूरा ठाठ बाट मिला है, उसको याद करके बार बार रोने लगता है. सच्चाई है कि गुरुआ का मर्डर ऊ खुद किया है. लेकिन कहता है कि गुरु तो सनातन हैं, अजर-अमर हैं, वे सिर्फ अलोप हुए हैं. उनकी अलोप-कथा को मह्न्थवा एक नया पुराण कहता है जिसको ऊ रचने जा रहा है. ‘रचूंगा ज़रूर, कभी फुर्सत से. इसी तरह गुरु-ऋण से उऋण हो पाऊंगा.’ अब अलोप-कथा क्या है? सुनो, उपन्यास में से ही सुना रहे हैं :  बहराइच में हमारा एक मठ है. पुरानी माफी है हज़ार बीघे की. तब हम वहीं रहते थे. हम अक्सर कहते थे, ‘गुरु जी, जर-जमीन बहुत बड़ा टंटा है. गेरुआ पहने अक्सर कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं. तप में बाधा पड़ती है. छोड़िये सब, चलकर साकेतधाम में निवास करें या फिर रक्षार्थ हथियार उठाने की आज्ञा दीजिये.’ हमारे गुरुदेव इस पर कहते थे, ‘अचेतानंद, हथियार खुद को मारता है. उसे कभी पास न रखो. वह आत्मवध का प्रतीक है. और मारनेवाला तो हमेशा अदृश्य रहता है. वह कब प्रकट होगा, तुम नहीं जानते. फिर भी मेरे बाल-हठ पर वे मान गए और इजाज़त दे दी. तब से यह साथ है. (पास में रखा हुआ बंदूकवा के बारे में कह रहा है.) कितना पछताता हूँ, अगर उस दिन भी साथ होती. लेकिन जल्दी-जल्दी में बिसर गया. हमारे गुरु को खुले में निबटने की आदत थी. वे निकलते तो मैं पीछे-पीछे जल-पात्र लिए चलता और मुंह फेर कर खड़ा हो जाता. उस दिन भी वैसे ही खड़ा रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि मेरे गुरु की गहन गुरुवाणी सुनाई पड़ेगी, ‘लाओ.’ लेकिन तभी में क्या सुनता हूँ कि गुरु सिंह की गर्जना में हँसे. मैंने पलट कर देखा तो मेरी घिग्घी बंध गयी. क्या देखा मैंने? अजगुत... अभूतपूर्व! मैंने देखा, मेरे गुरु सुनहरी अयालोंवाले सिंह पर सवार हैं और सिंह हंस रहा है. मेरे गुरु मुड़कर देख रहे हैं और वे भी हँसते जा रहे हैं, हँसते जा रहे हैं. मेरा मुंह जो खुला तो बंद होने का नाम ही न ले. फिर मैं एकाएक धाड़ मारकर रो पड़ा. रोते-रोते चिल्लाने लगा, ‘लौट आइये गुरुदेव, लौट आइये.’ तब गुरुदेव की वाणी की जगह सिंह की वाणी सुनाई पड़ी, ‘यह जो महात्मा मेरी पीठ पर सवार हैं, तुम उनके उत्तराधिकारी हो.’ मैं फिर चिल्लाया, ‘लौट आइये गुरुदेव!’ लेकिन वे नेपाल, भूटान फिर तिब्बत होते हुए अन्तरिक्ष में अलोप हो गए. उनकी छवि एकाएक मिट गयी और सर्वत्र अन्धकार छा गया. तबसे यह अंधकारग्रस्त मन लिए मैं इस नश्वर संसार में भटक रहा हूँ.’

अंश पढ़ कर सुनाने के बाद पदारथ भाई ने आधे मिनट का पॉज़ लिया. फिर पूछा, ‘मामला समझ रहे हो ना?’

‘जितना दिमाग है, उतने भर तो समझ रहा हूँ.’

‘अब ज़्यादा दिमाग लगा के बेसी सवाल-उवाल खड़ा मत करना. काहे कि गुरु का कोप चढ़ गया त खड़े-खड़े टें बोल जाओगे. अचेतानंद का आदेश था अपने सैनिकवन सब को कि यही अलोप-कथा सबको बताना है. फिर एक दिन क्या हुआ, सुनो : एक बाल-जिज्ञासु आया. बारादरी पर तैनात रक्षक ने पूछा, ‘कैसे आये?’ उसने पूछा, ‘स्वामी दिव्यानंद जी का स्वर्गवास कैसे हुआ?’ रक्षक ने डांटा कि स्वर्गवास नहीं हुआ और सविस्तार बखान दिया. बाल-जिज्ञासु ने कहा, ‘यह हो नहीं सकता.’ बस फिर क्या था! वह गली में ही मूर्छित हो गया. पुलिस उसे टांग कर ले गयी और चार दिन बाद उसकी मृत्यु हो गयी. मेरे गुरु की अलोप-कथा पर उसने शंका की, उसी का यह फल था. मेरे गुरु का कोप चढ़ बैठा.अब सोचो, इसी स्टाइल में अगर भाजपाइयों के हर लौकिक खून-खच्चर को अलौकिक शक्तियों के वरदान-अभिशाप में बदल दिया जाए त नया पुराण बन जाएगा कि नहीं! मल का कमल में रूपांतरण! शुरू करो ‘एकदा-आर्यावर्ते-कच्छ-सौराष्ट्र-प्रान्ते-हर-हर-मोदी:-नाम्नी-अवतारस्य-शासनान्तार्गते’ से, और फिर विस्तार से बताओ कि कैसे रामभक्तों के प्रति बुरे भाव रखने वाले मलेच्छों की एक-के-बाद-एक मृत्यु होती गयी, महामारी सी फैल गयी - मियांमारी नहीं, महामारी - फिर कैसे सबको रामभक्ति का माहात्म्य समझ में आया और हर हर मोदी नामक अवतार को अभूतपूर्व स्वीकृति मिली और कालान्तर में वह सम्पूर्ण आर्यावर्त का हृदय-सम्राट बना. बेटा, अभी भी कह रहे हैं, ऊल-जलूल लिखना छोड़ के पुराणकार बन जाओ. भगवत्कृपा से सात पुश्त बैठ के खायेगा.’

कहने के बाद पदारथ भाई क्षण भर को ठहरे. फिर बोले, ‘लेकिन हमको पता है, तुम साला ऊल-जलूल लिखने से बाज नहीं आओगे. भगवत्कोप के शिकार हो जाओ त हमको मत कहना.’ कह कर पदारथ भाई ने फ़ोन रख दिया और मैंने मन-ही-मन उन्हें धन्यवाद दिया कि गुरु ने बिना जताये-बताये ऊल-जलूल की एक और खेप मुहैया करा दी. जय हो पुराणकार गुरुदेव आचार्य रामपदारथ शास्त्री की!    

 

  

अविनाश मिश्र की कविताएं

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हरेप्रकाश उपाध्याय के संपादन में निकली पत्रिका 'मंतव्य'की वाह-वाह हो रही है लेकिन यह लिखने वाले कम लोग हैं कि इस पत्रिका में छपी रचनाओं में अच्छा क्या है. सोशल मीडिया की वाह-वाह ऐसी ही होती है. बहरहाल, इस पत्रिका पर मैं विस्तार से बाद में लिखूंगा. पहले युवा कवि अविनाश मिश्रकी कविताएं जिसका तेवर मुझे अच्छा लगा. 'मंतव्य'के प्रवेशांक की एक उपलब्धि- प्रभात रंजन 


सोलह अभिमान


सिंदूर

क्या वह बता सकता था
कि अब तुम मेरी नहीं रहीं
लेकिन उसने ही बताया
जब तुम मिलीं बहुत बरस बाद
और वह तुम्हारे साथ नहीं था
***

बेंदा

यूं तुम देखने में बुरे नहीं
उम्र भी तुम्हारी कुछ खास नहीं
बनावट से भी तुम्हारी रश्क होता है
लेकिन तुम्हें सब वक्त ढोया नहीं जा सकता
जबकि तुम उसके इतने करीब हो!
***

बिंदिया

वह तुम्हारा कोई स्वप्न थी
या अभिलाषा
या कोई आत्म-गौरव
या वह कोई बाधा थी
सूर्य, चंद्रमा, नखत, समुद्र या पृथ्वी की तरह नहीं
एक रंग-बूंद की तरह प्रतिष्ठित—
तुम्हारे भाल पर
***

काजल

तुम्हारी आंखों में बसा
वह रात की तरह था
दिन की कालिमा को संभालता
उसने मुझे डूबने नहीं दिया
कई बार बचाया उसने मुझे
कई बार उसकी स्मृतियों ने
***

नथ

वह सही वक्त बताती हुई घड़ी है
चंद्रमा को उसमें कसा जा सकता है
और समुद्र को भी
***

कर्णफूल

बहुत बड़े थे वे और भारी भी
तुम्हारे कानों की सबसे नर्म जगह पर
एक चुभन में फंसे झूलते हुए
क्या वे दर्द भी देते थे
तुम से फंसे तुम में झूलते हुए
क्या बेतुका ख्याल है यह
क्या इनके बगैर तुम अधूरी थीं
नहीं, आगे तो कई तकलीफें थीं
***



गजरा

मैं तुम्हारे अधरों की अरुणाई नहीं
तुम्हारे नाखूनों पर चढ़ी गुलाबी चमक नहीं
तुम्हारे पैरों में लगा महावर नहीं
नाहक ही मैं पीछे आया
तुम्हारे केश-अरण्य में गमकता
अपनी ही सुगंध से अनजान
मैं तुम्हारा अंतरंग नहीं
***

मंगलसूत्र

वह वास्तविक निकष है एक तय निष्कर्ष का   
या मुझे अनाकर्षित करने की कोई क्षमता
मर्यादा उसका प्रकट गुण है
और कामना तुम्हारा
मैं अगर कोई सूत्र हूं
तब मेरा मंगल तुम पर निर्भर है
***

बाजूबंद

वह आमंत्रित है
मैं भी
अन्य भी

प्रथम पुरुष के लिए वह अर्गला है
मध्यम के लिए आश्चर्य 
अन्य के लिए आकांक्षा
***  

मेहंदी

इस असर से तुम्हारी हथेलियां
कुछ भारी हो जाती थीं
इतनी भारी
कि तुम फिर और कुछ उठा नहीं सकती थीं
इस असर के सूखने तक
बहुत भारी था जीवन
समय बहुत निर्भर
***

चूड़ियां

तुम्हें न देखूं तब भी
बंधा चला आता था
बहुत मीठी और नाजुक थी उनकी खनक
छूते ही रेजा-रेजा...
***

अंगूठी

इसका मुहावरा ही और है
यह सबसे पहले आती है
शेष सब इसके बाद
एक भार की तरह
आत्म-प्रचार की तरह
इसमें उदारता भी स्वाभाविक होती है और उपेक्षा भी
यह जब जी चाहे उतारकर दी जा सकती है
उधार की तरह
*** 


मेखला

मध्यमार्गी वह
मध्य में मैं
मध्यमांगी तुम
***

पायल

वह शोर और दर्द जो उठ रहा था
उनसे नहीं उनके बिछड़ जाने से उठ रहा था
कितनी सूनी और कितनी अधूरी थी इस बिछुड़न में
तुम्हारी चाल
बेताल
***

बिछुए

वे रहे होंगे
मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं जानता
मैं उनके बारे में जानना नहीं चाहता
उनके बारे में जानना स्मृतियों में व्यवधान जैसा है
***

इत्र

मैं ऐसे प्रवेश चाहता हूं तुम में
कि मेरा कोई रूप न हो
मैं तुम्हें जरा-सा भी न घेरूं
और तुम्हें पूरा ढंक लूं

***

विस्मय और चमत्कार : विश्व सिनेमा में अद्भुत रस की फिल्में

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आइआइटी पलट युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीरको कुछ लोग 'अल्पाहारी गृहत्यागी'(हार्पर कॉलिन्स) उपन्यास के कारण जानते हैं, आजकल मैं उनको विश्व सिनेमा पर लिखी इस लेखमाला के कारण जान रहा हूँ, जिसमें उन्होंने रसों के आधार पर विश्व सिनेमा की विशेषताओं को रेखांकित करने का काम किया है. आज अद्भुत रस के आधार पर विश्व सिनेमा का एक मूल्यांकन प्रस्तुत है. पढ़िए बड़ा रोचक है- प्रभात रंजन 
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इस लेखमाला में अब तक आपने पढ़ा:
1.                  भारतीय दृष्टिकोण से विश्व सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र - http://www.jankipul.com/2014/07/blog-post_89.html 
2.                  भयावह फिल्मों का अनूठा संसार - http://www.jankipul.com/2014/08/blog-post_8.html 
3.                  वीभत्स रस और विश्व सिनेमा - http://www.jankipul.com/2014/08/blog-post_20.html  
भारतीय शास्त्रीय सौंदर्यशास्त्र के दृष्टिकोण से विश्व सिनेमा का परिचय कराती इस लेखमाला की चौथी कड़ी है अद्भुत रस की विश्व की महान फिल्में :-
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विस्मय और चमत्कार : विश्व सिनेमा में अद्भुत रस की फिल्में 

प्राचीन शास्त्रीय सिद्धान्त को पढ़ने और समझाने में कई दिक्कतें आती हैं। एक तो, इतने तरह के विचार-परिवार और विशिष्ट परंपरा हैं और उनके आपस के विचित्र मतभेद कि समझ नहीं आता कि सारांश में किस शब्द का क्या अर्थ निकाला जाये। सांख्य - योग में जिसको मन, अंतःकरण, चित्त, बुद्धि, अहंकार कहते हैं, वैशेषिक-न्याय में इन्हीं शब्दों कुछ और मतलब निकलता है। बौद्ध धर्म की शाखाओं - माध्यमिका और योगाचार दर्शन में बुद्धि अलग ही तरह से परिभाषित है।  प्राचीन वैशेषिक और वृहत प्राचीन साँख्य ईश्वर शब्द को भी अलग-अलग तरह से देखते हैं। कभी-कभी सोचता हूँ कि अपनी छाती फुलायें, अपनी संस्कृति का झंडा और हाथों में डंडा उठाये जो लोग हर बात पे कहते हैं कि तू क्या है, उनसे पूछा जाए कि आपके अपने अंदाज़-ए-गुफ्तगु में शामिल उन नायब लफ़्ज़ों के मायने भी पता हैं?

अद्भुत रस के लिए विस्मय भाव, और विस्मय भाव के लिए अद्भुत रस का होना आवश्यक है। कई मूर्धन्य विद्वानों का मानना है कि सामान्य की परिस्थिति से बढ़ कर चित्त की चमत्कृत अवस्था ही विस्मय है। मेरा मानना है कि ऐसी परिभाषा मिथ्या नहीं है, पर अपूर्ण है। यह अविद्या है चूँकि अविद्या मिथ्या न हो कर भ्रम की स्थिति होती है, और अविद्या को दूर करना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।

विश्व सिनेमा और अद्भुत रस की चर्चा करने से पहले दो फिल्मों का पुनरावलोकन करते हैं.

कुछ साल पहले आयी Martin Scorsese की  Hugo (2011) में सन 1902में बनी A Trip to the Moon या Le Voyage dans la Lune के निर्देशक के बारे में बताया गया था था। चाँद पर मानव के कदम से 67साल पहले, जुल वर्न के उपन्यास से प्रभावित इस अठारह मिनट की फिल्म में कुछ लोगों का चाँद पर जाना दिखाया गया है, और चन्द्रवासियों का इन पर्यटकों का विरोध भी चित्रित किया गया है। कपोल कल्पना पर बनी विशिष्ट सेटों पर बनी यह फिल्म कुछ हिस्सों में रंगी हुई थी।

बारह मिनट की अमेरिकी फ़िल्म The Great Train Robbery (1903) में लुटेरे ट्रेन लूट लेते हैं, बाद में उसका पीछा करते हुए कुछ लोग लुटेरों की हत्या कर देते हैं। इस फिल्म में चलती ट्रेन से एक आदमी को फेंक दिया जाता है। वस्तुतः यह पहली बार डमी का इस्तेमाल था। अपनी मौलिक तकनीक और कथानक से यह फिल्म बड़ी हिट साबित हुयी थी।

इन दोनों फिल्मों में दर्शक विस्मित रह गये थे। यह ठीक ठीक कहा जा सकता है कि उस समय की तकनीक आज की तुलना में पिछड़ी हुई थी, और आज ऐसी फिल्मों को कोई न पूछेगा। चकित और चमत्कृत होने के लिए दर्शकों में वैसा चमत्कार की भावना आनी चाहिये। इसी तरहMartin Scorsese की  Hugo (2011) अपने अपूर्व त्रिआयामी (3-D) प्रभाव से दर्शकों को ऐसी विस्मित कर देती है।

नाट्यशास्त्र के अनुसार अद्भुत रस की उत्पत्ति के लिए आवश्यक विस्मय के विभाव कुछ इस तरह से हैं : भव्य महल, अट्टालिका, सभा में प्रवेश करना, अलौकिक दृश्यों या घटना, और जादू के करतब देखना। अद्भुत रस दो तरह के होते हैं : अलौकिक और हर्षजन्य। अलौकिक अद्भुत रस में अपूर्व दृश्य या घटना की अनुभूति होती है। हर्षजन्य अद्भुत रस उस तरह के हर्ष के लिए हैं जिस के होने की संभावना नगण्य हो अथवा बिलकुल ही असंभव हो।
 
फिल्मों के इतिहास में अधिकतर बड़े बजट की फिल्में, और व्यवसायिक रूप से बहुत सफल फिल्में अद्भुत रस से जुडी हुयी हैं। 

यह बहुत मुश्किल नहीं होगा बहुत बड़े बजट वाली हॉलीवुड की कमाऊ फिल्में (जैसे कि Pirates of the Caribbean, Spider Man, Harry Potter, The Dark Knight, Star Wars,  Superman, James Bond movies, X-Men,  Lord of the Rings Trilogy, Matrix Trilogy, Transformers) का मुख्य भाव अलौकिक अद्भुत रस से सम्बंधित है।

कई महान फिल्म निर्देशकों ने फिल्म सेटों की भव्यता, विशालता से विस्मय पैदा करनी कोशिश रही है। ऐसा कई प्रयोग व्यावसायिक दृष्टि से काफी सफल रहा है।

मूक फिल्मों के सबसे प्रमुख निर्देशक D W Griffith ने अपनी नस्लवादी फिल्म The Birth of a Nation (1915) पर आलोचकों को जवाब देने के लिए उस समय तक की सबसे महँगी फ़िल्म Intolerance (1916) बनायीं। यह फिल्म युद्ध के दृश्यों, बेबीलोन के राजदरबार के भव्य सेटों से सजी उम्दा बनी। लेकिन फिल्म के पिट जाने के बाद ग्रिफिथ के दोस्तों को अपनी फिल्म कम्पनी बंद करनी पड़ी। फिल्म में बेबीलोन का भव्य सेट जो तीन साल बाद नष्ट किया गया, अपने समय में अच्छा खासा आकर्षण केंद्र बन गया था। तीन हज़ार एक्स्ट्रा कलाकारों को सहेजे, यह फिल्म आज भी विश्व सिनेमा की कलात्मक उपलब्धि है.

Dr. Mabuse the Gambler (1922) और M (1931) जैसी अविस्मरणीय जर्मन फिल्मों के फिल्म निर्देशक Fritz Lang (1890- 1976) ने सन 1927में दुनिया की सबसे महँगी मूक फिल्म Metropolis बनायीं थी। विस्मय के लिए भव्य सेट, बड़े कारखाने, हजारों एक्स्ट्रा कलाकारों की भीड़, पागल वैज्ञानिक का एक हाथ में काला दस्ताना पहनना (Stanley Kubrick की Dr Strangelove (1964) में इसका प्रभाव साफ़ दीखता है) और एक अद्भुत महिला रोबोट भी थी। फिल्म की शूटिंग में भी कई दिक्कतें थी, मिसाल के तौर पर पांच सौ छोटे बच्चों को पंद्रह दिन तक ठण्डे पानी में शूटिंग कराना, आदि। वैश्विक समाजवादी आंदोलनों के दौर में निर्देशक ने यह सन्देश देने की कोशिश की थी कि हाथ और दिमाग के मिलन के बीच में दिल का होना चाहिये।

अमेरिकी निर्देशक Victor Flemming (1875- 1948) दो महान फिल्मों The Wizard of Oz (1939) और Gone with the Wind (1939) के लिए प्रसिद्ध रहे। ये दोनों ही फिल्में अद्भुत रस की हैं। पहली फिल्म में, जो प्यारे प्यारे गीतों से भरी है, डोरोथी नाम की बच्ची सपने में विचित्र प्राणियों और जादूगरों से मिलती है। जब कि इस जादू भरी फिल्म ने बहुत पैसे नहीं कमाये, लेकिन सन 1956में टीवी प्रसारण के बाद इस फिल्म को महान फिल्मों में गिना जाने लगा। साल 1939के अंत आयी गोन विद द विंडमुद्रास्फीति के संतुलन के बाद दुनिया के सबसे कमाऊ फिल्म मानी जाती है। इसमें आगजनी का बड़ा विस्मयकारी दृश्य है।

मूक फिल्मों के महान निर्देशकों में प्रमुख Cecil B. DeMille (1881- 1959) ने अपने महान कैरियर में आखिरी फिल्म The Ten Commandments (1956) बना कर भव्यता, कला, और पुरजोर कमाई के लिए नए मानक बना दिए। मूसा और मिस्र के फैरो की बाइबिल की कहानी पर आधारित फिल्म बनाने के लिए मिस्र के इतिहास, नयी तकनीक, आज से साधे तीन हज़ार साल पहले की वेश भूषा का गहरा अध्ययन और प्रयोग है- जैसे कि पिरामिड का निर्माण, मिस्र की औरतों का चेहरा देखने के लिए धातु की चमकती चादर का प्रयोग करना (शीशे का आईना ग्यारहवी सदी के बाद प्रचलन में आया, और चाँदी की परत वाला शीशे का आईना सन 1835में आया)। फिल्म के प्रसिद्द दृश्य में मूसा नदी को दो हिस्सों में काट कर पानी में लोगो के जाने का रास्ता बना देते हैं। इस अद्भुत कथा का फिल्मांकन फिल्म इतिहास में अमर है।

महान अमेरिकी निर्देशक William Wyler (1902- 1981) जो अपनी रोमांटिक और ड्रामा फिल्मों के लिए जाने जाते थे, ईसा मसीह के समकालीन यहूदी व्यापारी के जीवन पर विशाल फिल्म Ben Hur (1959) ने ग्यारह अकादेमी अवार्ड जीत कर नया कीर्तिमान बनाया था। इस फिल्म में रथों की दौड़ का एक अद्भुत दृश्य है। इसने भी कमाई के नए कीर्तिमान बना दिए थे।

Great Expectations (1946), Oliver Twist (1948), और Brief Encounter (1946) जैसी ड्रामा फिल्मों के लिए प्रसिद्द ब्रिटिश निर्देशक David Lean (1908- 1991) ने दो महान फिल्में बनायीं, जो कि भव्य होने के साथ साथ, फिल्म कला के लिए बड़ी महत्वपूर्ण रहीं- Lawrence of Arabia (1962) और Doctor Zhivago (1965)! विभिन्न देशों और उनकी विषम परिस्थियों, जैसे एक जोशीले आदमी का लंबा रेगिस्तान पार कर जाना, एक युद्ध की अगुवाई करना, कई सालों के बाद बिछड़े प्रेमी-प्रेमिका का मिलना, साइबेरिया का बर्फीला मैदान, ये बृहद फिल्में कई तकनीकी कारणों से भी अद्भुत बन पड़ी हैं, जिसके केवल देख कर अनुभव किया जा सकता है।

मशहूर ड्रामा फिल्म All about eve(1950) के लिए जाने जाने वाले फिल्म निर्देशक Joseph L. Mankiewicz (1909- 1993) ने जब बेहद ही महँगी Cleopetra (1963) बनायी, तब छः घंटे की फिल्मों को काट छांट कर दो भागों में दिखने के बजाये एक ही भाग की तीन घंटे की फिल्म बना दी गयी। उस साल सबसे ज्यादा कमाई करने के बावजूद इस फिल्म ने अपने बड़े बजट के कारण तत्कालीन ४४ मिलियन डॉलर का नुक्सान उठाया था। इस फिल्म में एलिज़ाबेथ टेलर ने पैंसठ बार कपड़े बदल कर नया रिकॉर्ड बनाया था।

बड़ी फिल्मों के बनाने के लिए ढेर सारा पैसा और जोखिम उठाने का कलेजा होना चाहिये। कुरोसावा बहुत दिनों से एक बड़े पैमाने पर फिल्म बनाना चाहते थे। Red Beard (1965) के उपरांत अभिनेता Toshiro Mifune (1920-1997) और Akira Kurosawa (1910- 1998) की महान जोड़ी टूटी, तब से कुरोसावा के हालात बिगड़ते गए। नौबत यहाँ तक आयी कि उन्होंने आत्महत्या का प्रयत्न तक किया। उनकी फिल्मों से प्रभावित Star Wars के निर्देशक George Lucas और Godfather के निर्देशक Francis Ford Coppola की मदद के कारण उन्हें बुढ़ापे में फिल्मों के लिए निवेशक मिल पाया। एक फ्रेंच निर्माता ने उनकी Ran (1985) बनाने के लिये राजी हो गया। कुरोसावा इस फिल्म के लिए हर छोटे-छोटे दृश्य के चित्र अपने स्टोरीबोर्ड पर कुछ दर साल पहले से बना रखे थे। इस कहानी में एक बूढ़े राजा के तीन किले दर्शाए गए हैं। दो किले तो पुरानी जापानी किलों में शूट कर लिए गए। पर तीसरा किला, जहाँ भीषण आक्रमण और आगजनी होती है, उसे पचहत्तर साल के कुरोसावा ने बड़ी मेहनत से बनवाया। ऐसी कड़ी मेहनत और विशाल बजट का भव्य परिणाम Ran उनके पूर्ववर्ती महान फिल्मों के समकक्ष हो पाया ।

अब बात करते हैं दो अमेरिकी निर्देशकों की, जो अद्भुत रस से अभिभूत रहते हैं, जिनके चर्चा के बिना विश्व सिनेमा में अद्भुत रस के विशालता और वैभवता का अनुमान लगाना अधूरा रह जाएगा। James Cameron (जन्म 1954), जिन्होंने Aliens (1986), Titanic (1997) और Avatar (2009) जैसे बड़े बजट की भव्य फिल्में बनायीं, अपने समय की सबसे महँगी फिल्म Titanic के लिए उन्होंने ठीक वैसा ही जहाज़ (कालीन, क्रॉकरी, फर्नीचर समेत) बनवाया, और वैसी ही विभीषिका दर्शाने के लिए नवीनतम तकनीकों का प्रयोग किया। ऐसे विशिष्ट साम्य का चित्रण ही अपने आप में अद्भुत है।

Steven Spielberg  (जन्म 1946) की कृतियों में अद्भुत की अपनी विशिष्ट शैली रही है। उनकी विख्यात फिल्मों में  ET (1982),  Jurassic Park (1993), Indiana Jones Series (1984, 1989, 2008), The Adventures of Tintin (2011) दौड़ भाग के दौरान विचित्र संयोग (जैसी खोयी चीज फिर से मिल जाना, भागते हुए वाहन का सही सलामत खतरों से बच निकलना) विस्मय के रूप में हमेशा प्रस्तुत होते हैं। फिल्म E.T. the Extra-Terrestrial में अंतरिक्षवासी के चित्रण के माध्यम से उन्होंने दर्शकों को विस्मय से आनंदित करते रहे। फिल्म जुरासिक पार्क में उन्होंने विस्मय भाव पैदा करने के लिए मॉडल और कम्प्यूटर जनित चित्रों की मदद से करोड़ो साल पहले लुप्त हुए डायनासोर को परदे पर जिन्दा कर दिया। वैज्ञानिकों और इतिहासकारों के शोध के विषय को सर्वसाधारण की चेतना में मनोरंजन और कला के स्तर पर ले जाने के लिए हम उनके ऋणी हैं।

जादू पर आधारित अफ़्रीकी देश माली के एक बहुत अच्छी फ़िल्म आयी थी – Yeelen (1987) । निर्देशक Souleymane Cissé ने तेरहवीं सदी के जादूगर और उसके बेटे की कहानी दिखायी है जिसमें बदमाश बाप अपने बेटे को मारने के लिए एक पवित्र लकड़ी को कंधे पर रखे लम्बी यात्रा कर रहा है । जादूगर का बेटा अपने जादू से लोगों की मदद करता है । राष्ट्रीयता और इतिहास के प्रति दृष्टि, मानवता के प्रति कर्त्तव्य, और अद्भुत का साधारणीकरण के फिल्मांकन के लिए इसे कान फिल्म समारोह में जूरी का पुरस्कार भी मिला था । 
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उपरोक्त फिल्में अपने भव्यता और तकनीक के नयेपन से लोगों को अद्भुत रस से विभोर किया। किन्ही हद तक ये सारी फिल्में अलौकिक अद्भुत रस जैसी थी।

जिस तरह घृणा और जुगुप्सा में अंतर है, उसी तरह आश्चर्य और विस्मय में अंतर है। समझने के लिये ऐसे समझें - जिसकी हमें आशा नहीं है, पर वैसा आचरण, घटना हमें आश्चर्य में डाल देती हैं। जैसे किसी फिल्म में कोई पात्र मर चुका हो, वह अगर फिर कहानी में वापस आ जाये तो आश्चर्य होगा। जिस विचार हमारे अवधारणा से बहुत हट कर हो, वह हमें अचंभे में डाल सकता है, आश्चर्य पैदा कर सकता है। लेकिन जिस अवधारणा में किसी दूसरी अवधारणा का कोई संभावना न हो, उसका हो जाना विस्मय कहलाता है। अधिकतर इसका अर्थ सुखद रूप में लिया जाता है। अब कोई गरीब आदमी जिसने कभी महल-अट्टालिका न देखा, वह उसकी भव्यता देख कर विस्मित हो जायेगा। जैसे मैंने कभी राजस्थान के किले नहीं देखे। अत: यह संभव है प्रत्यक्ष दर्शन में किले की विलक्षणता से मुझे विस्मय में डाल दे। अब दूसरे तरह का विस्मय हुआ अनपेक्षित हर्ष, जिसकी संभावना नगण्य हो वैसा विलक्षण कुछ हो जाना।

बहुधा हर्ष का कारण ज्ञानेन्द्रियाँ के मन से सन्निकर्ष से होने वाला सुख से होता है। इस तरह अनपेक्षित हर्ष के उदाहरण कुछ इस तरह से हैं।

दृष्टि के लिये तारकोवस्की The Mirror (Zerkalo – 1975) में साधारण दृश्य असाधारण रूप से लिये हुये हैं। इसी तरह Kurosawa की सन 1990में आयी जादुई यथार्थ वाली Dreams, जो संवाद की अपेक्षा दृश्य पर निर्भर है विशेष उल्लेखनीय है। इसके पहले दो अध्याय बड़े मनोरम हैं। कहते हैं बारिश में लोमड़ियों की शादी होती है। ऐसे में एक बालक चुपके से लोमड़ियों की शादी का नृत्य देख लेता है। जिसके कारण उसे उसकी माँ आत्महत्या करने के लिये कहती है। बच्चा लोमड़ियों से माफी माँगने के लिये घर से निकलता और एक इंद्रधनुष देखता है। दूसरे अध्याय में आड़ू के बगीचे का प्रतीकात्मक नृत्य कथानक और दृष्टि दोनो ही रूप से अद्भुत बनी हैं।  अमेरीकी निर्देशक Peter Jackson (b 1961) की  लॉर्ड अॉफ द रिंग्स की तीनों फिल्में (LOTR – 2001, 2002, 2003) अपनी अद्भुत दृश्य के लिये ही जानी जाती है। Stanley Kubrick की सन 1968में आयी 2001 A Space Odyssey अंतरिक्ष औऱ  अंतरिक्ष यानों के सुंदर दृश्यों के कारण अविस्मरणीय है। सन 2011में बनी पोलिश -स्वीडिश फिल्म The Mill and the Cross, एक पेंटिग में दर्शाये 500चरित्रों में कुछ दर्जन पात्रों को दर्शाती है। इसका एक-एक फ्रेम ऐसा लगता है जैसे किसी ने सुंदर पेंटिग बना रखी है।

जिसने भी विजय भट्ट द्वारा निर्देशित, मीना कुमारी और भारत भूषण द्वारा अभिनीत बैजू बावरा (1952) या कुंदन लाल सहगल की तानसेन (1943) देखी हो, यह समझ सकता है कि संगीत का जादू पानी में आग लगा सकता है, बुझे दीपक जला सकता है, या सोयी कली को खिला कर उस में छुपे भँवर को आजाद कर सकता है। सुनने के आधार पर संगीत का अद्भुत चित्रण महान संगीतकार मोजार्ट की जिंदगी पर बनी Milos Forman की 1984में बनी Amadeus, जिसमें बीमार मोजार्ट की अंतिम और महानतम रचना 'रिक्विम'की कहानी फिल्म के कथानक का अद्भुत हिस्सा हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि मोजार्ट और लगभग बहरे हो चुके बीथोफेन ने अपनी कई महान संगीत रचना जनता को प्रस्तुत करने से पहले बिना किसी तोड़ मरोड़ के मन मे रच कर एक ही बार में कागज में संगीत के संकेतों में उतार लिया करते थे। म्यूजिकल फिल्मों में The Sound of Music (1965), Singin' in the Rain (1952), My Fair Lady (1964) फिल्में अद्भुत की श्रेणी में इसलिये आती हैं कि ये अनजाने में कहीं मन में बैठ जाती हैं कि अच्छा सुनने के लिये अच्छी तरह से बोलना और शुद्ध उच्चारण करना बेहद आवश्यक है।

डेनमार्क में बनी कैरिन ब्लिक्सन की कहानी पर बनी Babett's Feast (1987) एक अच्छा भोजन और उसकी लगभग चमत्कारी प्रभाव को दर्शाती महान फिल्म हैं- इसे विदेशी फिल्म के लिये अॉस्कर अवार्ड भी मिला था। बैबेट के बनाये भोजन का ये आलम था कि कुछ रेस्तराँ बैबेट के बनाये खाने का मेनू विशेष रूप से चलाने लगे थे।

जर्मन निर्देशक की फिल्म Perfume - the story of a murder (2006) पैट्रिक सस्किंड के उपन्यास परफ्यूम पर आधारित थी। इस फिल्म में एक अनाथ लड़के को गंध पहचानने औऱ इस तरह नये तरह के इत्र बनाने की कुदरती देन होती है। एक महान गंध बनाने के लिये वह कई खूबसूरत लड़कियों की हत्यायें करने लगता है, अंतत: एक विश्वविजयी इत्र बनाने में वह कामयाब भी हो जाता है]

Bonnie & Clyde और The Chase के लिये मशहूर निर्देशक Arthur Penn (1922- 2010) ने कैरियर के शुरुआत में हेलेन कीलर की आत्मकथा पर आधारित The Miracle Worker (1962) में एक गूँगी बहरी बच्ची को स्पर्श की मदद से सिखाने की कोशिश करती अद्भुत फिल्म बनायी। जब उसकी शिक्षिका और माँ-पिता सब निराश हो चुके होते हैं, तब जिस तरह पानी को छू कर बच्ची उसका नाम पुकारती है, वह अद्भुत है।

इस तरह से सिनेमा हो या कोई भी कला का माध्यम, सबसे पहले ये एक तरह के चमत्कार हैं। एक अच्छी कविता, एक मधुर गीत, मनोहर संगीत रचना, एक मनोरम चित्र सब कुछ अजूबा है। फ़ूलों में जो खुशबू आये अजूबा है, तितली जो सारे रंग लाये अजूबा है, बांसुरी का ये संगीत अजूबा है, कोयल जो गाती है गीत अजूबा है। जो भी इस अजूबे को महसूस कर सकता है, वह कभी बूढ़ा नहीं हो सकता है। यह किसी तरह से वृद्धों का उपहास नहीं है, क्योंकि पारंपरिक रूप से वृद्धावस्था में ज्ञान, और शुद्ध ज्ञान में समस्त विश्व से अरूचि या वैराग्य शोभित माना जाता है।

कई दार्शनिकों के अनुसार भ्रान्ति, मरीचिका, भ्रम ही मनोरंजन की साधारण शुरुआत है। कला बहुत से भ्रमों का सहारा ले कर मन में ओढ़ लिए भ्रम से मानव को सत्य की तरफ ले जाने का संघर्ष है।

महान जर्मन दार्शनिक कांट मनोरंजन और सौंदर्य अनुभूति में फ़र्क करने के लिए एक उदहारण देते हैं - अगर आप किसी भोजन समारोह में शामिल होते हैं, जहाँ पार्श्व संगीत बज रहा हो। वहाँ पर उस मनोरंजक संगीत की उपलब्धि बस इतनी सी है कि आपका समय व्यतीत हो जाये और आपको उसका पता भी न चले। वह सौंदर्य की अनुभूति से हट कर केवल समय व्यतीत करने का साधन है।

केवल मन के रंगे रहने से बढ़ कर उसके मंदिर में स्थायी भावों की घंटियों का आन्दोलन कला की उपलब्धि और सार्थकता है। उत्तम कला की सामर्थ्य प्रवृत्ति भावों का रसास्वादन और मानस में सत्य की स्थापना है। सत्य जटिल है, कठिन है, अतः कला भी उतनी ही अंतहीन संभावनायें लिए युग-युगान्तर तक हमें विस्मित करती रहेंगी।

अगले लेख में हम वीर रस पर नजर डालेंगे।


बादल रोता है बिजली शरमा रही

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जब सीतामढ़ी में था तो नवगीत दशक-1 को साहित्य की बहुत बड़ी पुस्तक मानता था. एक तो इस कारण से कि हमारे शहर के कवि/गीतकार रामचंद्र 'चंद्रभूषण'के गीत उसमें शामिल थे, दूसरे देवेन्द्र कुमारके गीतों के कारण. नवगीत के प्रतिनिधि संकलन 'पांच जोड़ बांसुरी'में उनका मशहूर गीत 'एक पेड़ चांदनी लगाया है आंगने...'पढ़ा था. आज 'हिंदी समय'पर देवेन्द्र कुमार बंगाली नाम से उनके गीत पढ़े तो वह दौर याद आ गया, और वह बिछड़ा दोस्त श्रीप्रकाश, जो मेरे पढने के लिए डाक से ये किताबें मंगवाता था. आप भी पढ़िए- जानकी पुल. 
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1.
एक पेड़ चाँदनी

एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
      आँगने,
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।

ढिबरी की लौ
जैसे लीक चली आ रही
बादल रोता है
बिजली शरमा रही
      मेरा घर
छाया है
तेरे सुहाग ने।

तन कातिक, मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुआर
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो,
यह हिसाब
कर लेना बाद में।

नदी, झील, सागर के
रिश्‍ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहाँ-वहाँ छोड़ना
      मुझको
पहुँचाया है
तुम तक अनुराग ने।

एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
      आँगने।
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।

2.
मेघ आए, निकट कानों के

मेघ आए, निकट कानों के
फूल काले खिले धानों के

दूब की छिकुनी सरीखे
हवा का चलना
दूर तक बीते क्षणों में
घूमना-फिरना
सिलसिले ऊँचे मकानों के।

रंग की चर्चा तितलियों में
मेह भीगी शाम
       बिल्‍ली-सी
नदी की पहुँच गलियों में
खिड़कियों का इस तरह गिरना
गीत ज्‍यों उठते पियानों के।

मेघ आए निकट कानों के
फूल काले खिले धानों के।

3.
हमको भी आता है
पर्वत के सीने से झरता है
              झरना...
हमको भी आता है
भीड़ से गुजरना।

कुछ पत्‍थर
कुछ रोड़े
कुद हंसों के जोड़े
नींदों के घाट लगे
कब दरियाई घोड़े
       मैना की पाँखें हैं
       बच्‍चों की आँखें हैं
       प्‍यार है नींद, मगर शर्त
              है, उबरना।

गूँगी है
बहरी है
काठ की गिलहरी है
आड़ में मदरसे हैं
सामने कचहरी है
बँधे खुले अंगों से
भर पाया रंगों से
डालों के सेव हैं, सँभाल के
कुतरना।

4.
मन न हुए मन से
मन न हुए मन से
हर क्षण कटते रहे किसी छन से।

तुमसे-उनसे
मेरी निस्बत
क्या-क्या बात हुई।
अगर नहीं, तो
फिर यह ऐसा क्यों?
दिन की गरमी
रातों की ठंडक
चायों की तासीर
समाप्त हुई
एक रोज पूछा निज दर्पन से।

मन न हुए मन से
हर क्षण कटते रहे किसी छन से।

5.
सोच रहा हूँ
सोच रहा हूँ
लगता है जैसे साये में अपना ही
गला दबोच रहा हूँ।

एक नदी
उठते सवाल-सी
कंधों पर
है झुकी डाल-सी
अपने ही नाखूनों से अपनी ही
देह खरोंच रहा हूँ।

दूर दरख्तों का
छा जाना
अपने में कुआँ
हो जाना
मुँह पर घिरे अँधेरे को
बंदर-हाथों से नोच रहा हूँ।

6.
हम ठहरे गाँव के

हम ठहरे गाँव के
बोझ हुए रिश्‍ते सब
कंधों के, पाँव के।
भेद-भाव सन्‍नाटा
ये साही का काँटा
सीने के घाव हुए
सिलसिले अभाव के!

सुनती हो तुम रूबी
एक नाव फिर डूबी
ढूँढ़ लिए नदियों ने
रास्‍ते बचाव के।

सीना, गोड़ी, टाँगें
माँगें तो क्‍या माँगें
बकरी के मोल बिके
बच्‍चे उमराव के।




इतिहास की सही समझ के सिद्धांतकार

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आज प्रसिद्ध इतिहासकार बिपिन चन्द्राको श्रद्धांजलि देते हुए प्रोफ़ेसरराजीव लोचनने 'दैनिक हिन्दुस्तान'में बहुत अच्छा लेख लिखा है. जिन्होंने न पढ़ा हो उनके लिए- मॉडरेटर 
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पिछले 50साल में शायद ही इतिहास का कोई ऐसा छात्र होगा, जिसने बिपिन चंद्रा द्वारा लिखी हुई किताबें न पढ़ी हों। बिपिन चंद्रा के लिए किताबें लिखना महज बौद्धिक शगल नहीं था, वह अपने लेखन से समाज को बदलने का काम भी कर रहे थे। एक शिक्षक, वह भी कम्युनिस्ट विचारधारा वाले, बिपिन चंद्रा छात्रों को देश में फैली समस्याओं से जूझने की एक समझ देते थे। स्थिति यह थी कि उनके लेक्चर सुनने के लिए दूसरे विभागों तक के छात्र आ जाते थे। कुछ  उनकी आज्ञा लेकर वहां बैठते, तो बाकी बस चुपके से इतिहास के छात्रों में घुल-मिलकर बैठ जाते थे। उनकी कक्षाओं में एक अनौपचारिक-सा माहौल रहता। भारत में राष्ट्रवाद किस तरह पला-बढ़ा, वह इसके बारे में बताना शुरू करते और पता नहीं कहां से देश के वर्तमान की समस्याओं पर चर्चा शुरू हो जाती। हर चीज की समझ के लिए, प्रोफेसर साहब के अनुसार, बीसवीं सदी में राष्ट्रवाद के विस्तार और उसकी समस्याओं को समझना जरूरी था। इससे छात्रों में इतिहास की समझ भी बढ़ती, और देश के मौजूदा हालात की भी।

बिपिन चंद्रा खुद द्वितीय विश्व-युद्ध के समय के छात्र थे। यह वह पीढ़ी थी, जिसने भारतीय कम्युनिस्टों को बरतानिया सरकार से हाथ मिलाते देखा था। जिसने देश का विभाजन देखा था। और यह भी देखा था कि किस तरह लोग हालात के शिकार बन जाते हैं। उनके लिए इस तरह कि दुविधाओं से बचने का एक ही रास्ता था कि लोग इतिहास की बेहतर समझ रख सकें। वह खुद बताते थे कि किस तरह कम्युनिस्ट नेता पीसी जोशी के कहने पर उन्होंने गांधी के चंपारण सत्याग्रह के बारे में जानकारी हासिल की। बिपिन चंद्रा ने जाना कि यदि भारत के स्वतंत्रता संग्राम को समझना है, यह समझना है कि लोग किस तरह से इस संग्राम के साथ जुड़े, तो गांधी को समझना जरूरी है। गांधी चंपारण के किसानों की समस्याओं को लेकर किस तरह सरकार से जूङो, यह समझना जरूरी है। आगे जाकर देश के इतिहास ज्ञान में उनका एक बड़ा योगदान शायद इस अनुभव से ही निकला। उन्होंने भारतीय इतिहास को फॉल्स कॉन्शसनेसयानी मिथक चेतना का सिद्धांत दिया। यह सिद्धांत कहता है कि लोगों की ऐतिहासिक समझ गलत होगी, तो उनकी वर्तमान के बारे में भी समझ गलत ही होगी। बिपिन चंद्रा का अधिकांश लेखन सही समझ प्रेषित करने में लगा रहा, ताकि लोग गलत समझ से बच सकें।

इस सिलसिले में एनसीईआरटी की स्कूली पाठ्य-पुस्तकों के जरिये बिपिन चंद्रा ने सीधे सरल तरीके से यह समझाने का प्रयास किया कि जब लोग राष्ट्रवाद की मुख्यधारा को छोड़कर संप्रदायवाद की तरफ बढ़ते थे, तो वे किस तरह ऐतिहासिक गलतफहमियों का शिकार हो जाते थे। इन गलतफहमियों को फैलाने में सांप्रदायिक राजनेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी। बिपिन चंद्रा मानते थे कि ऐसे हालात में यह इतिहासकार का जिम्मा है कि वह लोगों को यह समझा सके कि उनकी समस्याओं की जड़ देश की औपनिवेशिक गुलामी थी और समस्याओं का समाधान देश को मजबूत बनाने में है। 1973में लिखी गई उनकी यह किताब आज भी लोग पढ़ रहे हैं। यह जरूर है कि सांप्रदायिक राजनीति करने वाले आज भी इन किताबों की आलोचना करते हैं, पर पढ़े-लिखे लोगों के लिए आज भी यह सबसे जरूरी पढ़ने लायक किताबों की सूची में शामिल है।

इन किताबों के जरिये वह लोगों तक सुदृढ़ भारत की एक ऐसी तस्वीर पेश करना कहते थे, जो लोकतांत्रिक हो, जो सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर टिका हो, जहां रूढ़िवादिता के लिए कोई स्थान न हो और जो भारतीय संस्कृति की नैसर्गिक धारा से जुड़ा हो। स्वतंत्र भारत को सांप्रदायिकता के जहर से बचाने के लिए बिपिन चंद्रा को इतिहास की सही समझ ही एकमात्र साधन जान पड़ती थी। इसलिए वह अपनी पूरी जिंदगी, जो भी लिखते रहे, जो भी कहते रहे, हर जगह लोगों को सही समझ बनाने के लिए प्रेरित करते रहे। उनके छात्रों में न केवल वे थे, जो उनके लेक्चर सुनते, बल्कि वे भी थे, जो उनके विचारों से प्रेरित होकर उनकी किताबें पढ़ते थे। पढ़ाई का सिलसिला क्लास रूम में ही खत्म नहीं होता था। अपने छात्रों को वह कहते कि केवल पुस्तकालय में बैठकर इतिहास लेखन न करो। जहां मौका मिलता, आगे बढ़कर छात्रों को बाहर भेजने की कोशिश करते।

जाओ, फील्ड ट्रिप करो, लोगों से मिलो, उनकी बातें सुनो, समझो कि उनके अनुभव क्या थे।कई छात्रों को उनके साथ फील्ड ट्रिप पर जाने का मौका मिला। बिपिन चंद्रा बीसवीं सदी के इतिहास की प्रमुख हस्तियों का इंटरव्यू करते, जहां जाते अपने विद्यार्थियों को भी ले जाते, खुद सारा काम करते और नौजवानों से कहते: देखो, ऐसे काम किया जाता है। मजाल है कि कभी उन्होंने किसी विद्यार्थी से अपना कोई काम करने को कहा हो। कहां तो देश की पुरानी परंपरा थी कि विद्यार्थी गुरुजी की सेवा करता फिरता, कहां बिपिन चंद्रा थे कि अपने छात्रों की सेवा करते। इनमें से अनेक खुद आगे बढ़कर देश में बड़े काम कर रहे हैं।

मृदुला मुखर्जी, माजिद सिद्दीकी, भगवान जोश, आदित्य मुखर्जी, सलिल मिश्र, विशालाक्षी मेनन वगैरह उनके अनेक छात्र आज देश के जाने-माने इतिहासकार हैं। हफ्ते में एक दिन बिपिन चंद्रा के घर सभी छात्र इकट्ठा होते और रिसर्च के बारे में चर्चा होती। कोई दो दशकों तक, जब तक बिपिन साहब जेएनयू परिसर में रहे, तो चर्चा का यह सिलसिला बदस्तूर चलता रहा। छह दशक के अपने सार्वजनिक जीवन में बिपिन चंद्रा ने इतिहास लेखन के अलावा लोगों तक बेहतर साहित्य पहुंचाने में बड़ा योगदान दिया। अनेक भारतीय प्रकाशकों को उन्होंने इतिहास की बेहतरीन किताबें छापने के लिए प्रेरित किया। नेशनल बुक ट्रस्ट की अगुआई की। इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। पर उनका सबसे बड़ा योगदान तो समर्थ नागरिक बनाने में रहा।

बिपिन चंद्रा एक महान राष्ट्रवादी तो थे ही, भारतीय साम्यवाद में सन 1964में हुए दो फाड़ से वह नाखुश थे। 1979में उन्होंने आग्रह किया था कि भारत में साम्यवाद की दोनों धाराएं जुड़ जाएं, तो सभी के लिए अच्छा रहेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। साल 2009में भी उन्होंने यह आग्रह दोहराया। देश को संप्रदायवादी और उपनिवेशवादी शक्तियों से बचने के लिए जो सही समझ चाहिए, उनके अनुसार, यह केवल एक साम्यवादी समझ ही हो सकती थी। आज जब देश पुन: सांप्रदायिकता में उभार देख रहा है, तो लगता है कि बिपिन चंद्रा का बताया रास्ता ही शायद ठीक था।

लड़कियां तरह-तरह से बचाए रखती हैं अपना प्रेम

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'लव जेहाद'के बहाने ये कविताएं लिखी जरूर गई हैं मगर ये प्रेम की कवितायेँ हैं, उस प्रेम की जिसके लिए भक्त कवि 'शीश उतार कर भूईं धरि'की बात कह गए हैं. ये कवितायेँ प्रासंगिक भी हैं और शाश्वत भी. प्रियदर्शनकी कविताई की यह खासियत है कि वे नितांत समसामयिक लगने वाले प्रसंगों में शाश्वत के तत्त्व ढूंढ लेते हैं. दिलो-दिमाग को छूने वाली कविताएं- मॉडरेटर.
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लव जेहाद

एक

लड़के पिटेंगे और लड़कियां मारी जाएंगी
इस तरह संस्कृति की रक्षा की जाएगी, सभ्यता को बचाया जाएगा।
किसी ज़रूरी कर्तव्य की तरह अपनों के वध के बाद
भावुक अत्याचारी आंसू पोछेंगे
प्रेम पर पाबंदी नहीं होगी
लेकिन उसके सख्त नियम होंगे
जिनपर अमल का बीड़ा वे उठाएंगे
जिन्होंने कभी प्रेम नहीं किया।
जो बोलेंगे, उन्हें समझाया जाएगा
जो चुप रहेंगे उन्हें प्रोत्साहित किया जाएगा
जो प्रशंसा करेंगे उन्हें प्रेरित किया जाएगा
जो आलोचना करेंगे, उन्हें ख़ारिज और ख़त्म किया जाएगा।
धर्म के कुकर्म के बाद पैसे के बंटवारे को लेकर पीठ और पंठ का झगड़ा
राजा सुलझाएगा,
और पुरोहितों-पंडों, साधुओं की जयजयकार पाएगा
राष्ट्र कहीं नहीं होगा, लेकिन सबसे महान होगा
धर्म कहीं नहीं होगा, लेकिन हर जगह उसका गुणगान होगा
एक तानाशाह अपनी जेब में चने की तरह उदारता लिए चलेगा
और मंचों और सभाओं में थोड़ी-थोड़ी बांटा करेगा
उसके पीछे खड़े सभासद उच्चारेंगे अभय-अभय
और
पीछे अदृश्य भारी हवा की तरह टंगा रहेगा विराट भय।                  
इस पाखंडी-क्रूर समय में
प्रेम से ही आएगा,
वह विवेक, वह संवेदन, वह साहस,
जो संस्कृति के नाम पर प्रतिष्ठित की जा रही बर्बरता का प्रतिरोध रचेगा।

 

दो

और संकरी हो गई है प्रेम की गली,
गली के दोनों तरफ़ तरह-तरह की चमकती दुकानें सौदागरों ने जमा ली हैं
जो प्रेम के अलग-अलग पैकेज पेश करते हैं
इन गलियों में इत्र सूंघते, बाल संवारते, शीशों में अपना चुपड़ा हुआ चेहरा देखते
और प्रेम के नाम पर तरह-तरह की अश्लील कल्पनाओं से भरे शोहदे जब पाते हैं कि
उनकी बहनें भी सहमी-सकुचाई, दुकानों के कानफाड़ू शोर से बचती हुई
आंखें नीची किए, किन्हीं लड़कों के साथ गुज़र रही हैं
तो उनके भीतर का भाई और मर्द जाग जाता है- अपनी कुंठित कल्पनाओं के प्रतिशोध में
वै वैसी ही कुंठित नैतिकता की शरण में चले जाते हैं,
उनके हाथों में लाठियां, साइकिल की चेन, बेल्ट, बंदूकें कुछ भी हो सकती हैं
और वे घर की आबरू बचाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
ज़्यादा वक़्त नहीं लगता- अगले दिन प्रेम किसी पेड़ से लटका मिलता है,
किसी तालाब में डूबा मिलता है,
किसी सड़क पर क्षत-विक्षत पड़ा मिलता है।
घर की दीवारें राहत की सांस लेती हैं-
ग़मगीन पिता क्रुद्ध-उदास भाइयों की पीठ थपथपाते हैं
कलपती हुई मां मन ही मन करमजली को कोसती है
बस अकेली छोटी बहन अपने कातर प्रतिरोध के बीच सहमी हुई
छटपटाती हुई तय करती है- बचाए रखेगी वह अपना प्रेम
किसी को पता नहीं लगने देगी और एक दिन निकल जाएगी चुपचाप,
शीश देने को तैयार उद्धत प्रेम बचा ही रहता है।

तीन

लड़कियां तरह-तरह से बचाए रखती हैं अपना प्रेम।
चिड़ियों के पंखों में बांध कर उसे उड़ा देती हैं
नदियों में किसी दीये के साथ सिरा देती हैं
किताबों में किसी और की लिखी हुई पंक्तियों के नीचे
एक लकीर खींच कर आश्वस्त हो जाती हैं
किसी को नहीं पता चलेगा, यह उनके प्रेम की लकीर है
सिनेमाघरों के अंधेरे में किन्हीं और दृश्यों के बीच
अपने नायक को बिठा लेती हैं,
हल्के से मुस्कुरा लेती हैं
कभी-कभी रोती भी हैं
कभी-कभी डरती हैं और उसे हमेशा-हमेशा के लिए भूल जाने की कसम खाती हैं
लेकिन अगली ही सुबह फिर एक डोर बांध लेती हैं उसके साथ।
अपनी बहुत छोटी, तंग और बंद दुनिया के भीतर भी वे एक सूराख खोज लेती हैं
एक आसमान पहचान लेती हैं, कल्पनाओं में सीख लेती हैं उड़ना
और एक दिन निकल जाती हैं
कि हासिल करेंगी वह दुनिया जो उनकी अपनी है
जो उन्होंने अपनी कल्पनाओं में सिरजी है
बाकी लोग समझते रहें कि यह प्रेम है
उनके लिए यह तो बस अपने को पाना है- सारे जोखिमों के बीच और बावजूद।



समेकित भारतीय साहित्य की अवधारणा - के. सच्चिदानंदन

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उमेश कुमार सिंह चौहान हिंदी के समर्थ कवि ही नहीं हैं, वे हिंदी के उन दुर्लभ लोगों में हैं जिन्होंने अन्य भारतीय भाषाओं और हिंदी के बीच पुल बनाया है. मलयालम साहित्य की समृद्ध परंपरा का ज्ञान हम हिंदी वालों को अगर थोड़ा बहुत है तो उसमें बहुत बड़ा योगदान उमेश जी का भी है. अब सच्चिदानंद की इस बातचीत को ही ले लीजिये. भारतीय साहित्य की अवधारणा को लेकर की गई एक गंभीर बातचीत उनके सुन्दर हिंदी अनुवाद में- प्रभात रंजन 
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(मलयालम व अंग्रेज़ी के वरिष्ठ कवि एवं आलोचक के. सच्चिदानन्दनएक लब्धप्रतिष्ठ अनुवादक भी हैं। वे अंग्रेज़ी के प्राध्यापक होने के अतिरिक्त एक लंबे समय तक साहित्य अकादमी से जुड़े रहे हैं तथा उसके सचिव भी रहे हैं। वे मलयालम की आधुनिक व नवोत्थानवादी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनके दो दर्ज़न से अधिक कविता-संग्रह तथा विश्व की विभिन्न भाषाओं की रचनाओं के अनुवाद के अनेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी खुद की रचनाओं का भी विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उन्हें देश - विदेश में साहित्य के विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। यहाँ प्रस्तुत है समेकित भारतीय साहित्य की अवधारणा के संबन्ध में कल के लिएपत्रिका में प्रकाशनार्थ उनके साथ की गई बातचीत का कवि एवं आलोचक उमेश चौहान द्वारा किया गया गया हिन्दी रूपांतरण)
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प्रश्न 1. क्या भारतीय साहित्य की कोई समेकित अवधारणा निर्मित हो सकी है?यदि हां तो उसकी सामान्य विशेषताएं क्या है?

              
उत्तर:अनेक विद्वानों ने भारतीय साहित्य के एक समेकित स्वरूप को स्थापित करने की कोशिश की है. डॉ. एस. राधाकृष्णन ने एक समय पर कहा था,"विभिन्न भाषाओं में लिखे जाने के बावजूद भारतीय साहित्य एक है."उसके बाद डॉ. रामविलास शर्मा,उमाशंकर जोशी,यू. आर. अनंतमूर्ति,शिशिर कुमार दास,शेल्डान पोलॉक,वसुधा डालमिया,ए. के,रामानुजम तथा कई अन्य साहित्यिक इतिहासकारों व विद्वानों ने भी अलग-अलग तरीके से भारतीय साहित्य की एक समेकित अवधारणा होने का समर्थन किया है. मेरे सहित भारतीय साहित्य के तमाम समकालीन अध्येता (मैं स्वयं को एक स्कॉलर नहीं मानता),जिनमें गणेश डेवी व ई. वी. रामकृष्णन जैसे लोग शामिल हैं,सोचते हैं कि भारत की विभिन्न भाषाओं के साहित्य की विविधताओं को दरकिनार कर,एक एकीकृत भारतीय साहित्य की अवधारता को स्थापित करना ख़तरनाक होगा. यू. आर. अनंतमूर्ति ने एक अवसर पर कहा है,"जब हम भारतीय साहित्य की एकता को देखने चलते हैं तब इसकी विविधता सामने आ जाती है और जब हम इसकी विविधता को परखने चलते हैं तब इसकी एकता दिखाई देने लगती है."यही बात सत्य के सबसे नज़दीक लगती है.हालाँकि मैं निहार रंजन रे जैसे आलोचकों से सहमत नहीं हूँ,जिनके विचार में न ही हम किसी साहित्य को 'भारतीय साहित्य'कह सकते हैं और न ही किसी भाषा को 'भारतीय भाषा'. यह एक झूठी अवधारणा है,विशेषकर तब,जब हम 'यूरोपियन'जैसी किसी भाषा के न होते हुए भी 'यूरोपियन साहित्य'की बात करते हैं या फिर एक ही भाषा अंग्रेज़ी में लिखे हुए साहित्य को ब्रिटिश,अमेरिकन,आस्ट्रेलियन,कनाडियन अथवा भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य जैसे अलग-अलग रूपों में देखते हैं. भाषा ही साहित्य के वर्गीकरण का एकमात्र आधार नहीं होती. आलोचकों ने वर्ग,जाति,लिंग,संरचना,उत्पत्ति,सैद्धांतिकता,मनोवैज्ञानिक-विश्लेषण आदि के आधार पर साहित्य का वर्गीकरण किया है. वास्तव में हमें भारतीय साहित्य की एक समेकित अवधारणा को विकसित करने के बजाय उसके तुलनात्मक स्वरूप को सामने रखना चाहिए ताकि न तो हम भारतीय भाषाओं एवं उनके साहित्य में अन्तर्निहित एकता को नज़रंदाज़ कर सके और न ही उनकी विविधताओं को.  

प्रश्न 2.भारतीय साहित्य की एक समेकित अवधारणा किन-किन सामान्य तत्वों के आधार पर विकसित हो सकती है?


उत्तर:भारतीय साहित्य के सामान्य आधार हैं;एक - साझा परम्पराएँ, जैसे संस्कृत,प्राकृत,पाली आदि का साहित्य,दो - साझे प्रभाव, जैसे फारसी व पाश्चात्य (यूरोपियन) साहित्य का असर,तीन - समान आंदोलन, जैसे भक्ति व सूफी आंदोलन,सामाजिक सुधारवाद एवं राष्ट्रवाद,प्रगतिवाद,आधुनिकतावाद एवं अन्य सम्बद्ध या अंतर्निहित आंदोलन, जैसे दलित-विमर्श,स्त्री-विमर्श,आदिवासी-विमर्श आदि,चार - हमारे रचनाकारों के साझे सामाजिक व सांस्कृतिक सरोकार, जैसे वर्ग,जाति,वर्ण,लिंग-स्वातंत्र्य,मौलिक स्वातंत्र्य,राष्ट्रीय एकता,धर्म-निरपेक्षता आदि से जुड़ी चिन्ताएँ,पाँच - प्राचीन महाकाव्यात्मक साहित्य, जैसे रामायण,महाभारत आदि का विभिन्न भाषाओं पर पड़ा समान प्रभाव. लेकिन मैं यहाँ यह भी जोड़ना चाहूँगा कि जब हम इन बातों को बारीकी से देखते हैं तो यह भी पाते हैं कि जिस तरह से यह बातें विभिन्न भाषाओं में अभिव्यक्त होती हैं,उसमें भी काफी भिन्नता है और कुछ बातें पूरी विशिष्टताओं के साथ साझा भी नहीं होती हैं. जैसे कि पूर्वोत्तर भारत में संस्कृत महाकाव्यों का प्रभाव काफी कम रहा,विभिन्न भाषाओं में भक्ति-साहित्य की शैली अलग-अलग रही (शबद,बीजक,अभंग,वख,वचन,कीर्तन,धुन,भजन आदि) तथा आदिवासियों की भाषाओं के अपने अलग ही मौखिक अथवा श्रुत महाकाव्य एवं वाचिक परम्पराएँ हैं. जब हम सरसरी तौर पर कुछ कहते हैं तो उसमें बहुत कुछ छूट जाता है. हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रारम्भिक दौर के यूरोपीय इतिहासकारों ने जब भारतीय साहित्य की बात की तो उन्होंने मुख्यतः केवल संस्कृत भाषा के साहित्य की ही बात की, जबकि इन इतिहासों के लिखे जाने के अर्थात् उन्नीसवीं शताब्दी तक देश की लगभग सभी भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य का सृजन हो चुका था. उन्होंने तमिल-साहित्य तक को संज्ञान में नहीं लिया जिसकी उत्पत्ति तो लगभग ढाई हज़ार वर्ष पुरानी है.

प्रश्न 3. क्या भारतीय साहित्य के विभिन्न भाषायी घटकों के बीच अंतर्सम्बंध बनाने में हिन्दी एक सेतु बन सकती है?अब तक इस क्षेत्र में हिन्दी ने जो भूमिका निभाई है उसके बारे में आपके क्या विचार हैं?


उत्तर: जब हम अन्य भारतीय भाषाओं के अंतर्सम्बंध की बात करते हैं तो पाते हैं कि अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में हिंदी में काफी खुलापन है. कुछ भारतीय भाषाओं जैसे बांग्ला,कन्नड़ व मराठी आदि में विदेशी भाषाओं से तो खूब अनुवाद होते हैं लेकिन अन्य भारतीय भाषाओं से बहुत कम. हिंदी में अनुवाद की एक लम्बी परम्परा है,लेकिन अभी भी बहुत किया जाना बाकी है. दूसरी भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी में भी बांग्ला से अनुवाद किए जाने की प्रचुरता रही है. हिंदी में दूर-दराज़ की अन्य साहित्य-सम्पन्न भाषाओं जैसे असमिया,ओड़िया,तमिल,मलयालम,मणिपुरी आदि से और ज्यादा अनुवाद किए जाने की आवश्यकता है.

प्रश्न 4.भारतीय सहित्य के अंतर्सम्बंधों को मजबूत करने में कौन-कौन से तत्व उपयोगी हो सकते हैं?इस क्षेत्र में हिन्दी भाषा के साहित्यकारों से आपको और क्या अपेक्षाएं हैं?


उत्तर:हमारी समस्या यह है कि हिंदी के ऐसे बहुत कम वक्ता हैं जिन्होंने अन्य भारतीय भाषाएँ सीखी हों. इसी कारण से हिंदी से अन्य भाषाओं में तथा अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुवाद भी प्राय: दूसरी भाषाएँ बोलने वाले लोगों द्वारा ही किए जाते हैं. इस प्रवृत्ति ने अन्य भाषा-भाषियों के बीच हिंदी के विरुद्ध काफी पूर्वाग्रह-भरी भावना पैदा की है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अन्य भाषाएँ बोलने वाले तो हिंदी सीखते हैं किंतु हिंदी बोलने वाले अन्य भारतीय भाषाएँ नहीं सीखना चाहते. हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के बीच स्वस्थ सम्बंध स्थापित करने लिए यह सबसे पहली समस्या है जिसका समाधान किया जाना चाहिए. और इसका एकमात्र समाधान इसी में निहित है कि हिंदी-भाषी प्रदेशों की स्कूली-शिक्षा में अनिवार्य रूप से तथा कड़ाई के साथ त्रिभाषा फार्मूला लागू किया जाय. प्रारम्भिक आयु में तीन भाषाएँ सीखना किसी भी बच्चे के लिए कठिन काम नहीं है. इस शर्त को पूरा किए बिना हिंदी सही मायनों में देश की सम्पर्क भाषा नहीं बन सकती है. इसी के साथ ही हिंदी में होने वाले अनुवादों की गुणवत्ता सुनिश्चित किया जाना भी बहुत जरूरी है,क्योंकि वर्तमान में जो अनुवाद अन्य भाषा-भाषियों द्वारा हिंदी में किए जा रहे हैं, वे बहुत अच्छे और समसामयिक नहीं हैं.

प्रश्न 5. इस क्षेत्र में आप की जातीय भाषा के साहित्यकार की क्या भूमिका हो सकती है?इस क्षेत्र में सेतु निर्मित करने वाले साहित्यकारों-अनुवादकों के योगदान पर संक्षेप में प्रकाश डालें.


उत्तर:मैं यह भी जरूरी मानता हूँ कि क्षेत्रीय भाषाओं के लेखकों को भी अन्य भाषाओं का बेहतरीन साहित्य पढ़ना चाहिए तथा उसका ज्यादा से अनुवाद भी करना चाहिए. अपनी भाषा मलयालम के सम्बन्ध में मैं कह सकता हूँ कि आज हिन्दी क्षेत्र से केवल तीन ही ऐसे जीवित व्यक्ति हैं, जो मलयालम से हिन्दी में सीधे अनुवाद कर सकते हैं. ये हैं यू.के.एस. चौहान, रति सक्सेना एवं सुधांशु चतुर्वेदी. इन लोगों ने मलयालम की कुछ प्रमुख कृतियों का हिन्दी में अनुवाद किया है. इनमें से पहले दो ने कविताओं का अनुवाद किया है और तीसरे ने कथा-कृतियों का. मलयालम से हिन्दी में किए गए बाकी अधिकांश अनुवाद तथा हिन्दी से मलयालम में किए गए लगभग समस्त अनुवाद ऐसे मलयालियों द्वारा ही किए गए हैं, जिन्हें हिन्दी आती है.

प्रश्न 6. राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय साहित्य की क्या सकारात्मक भूमिका हो सकती है?


उत्तर:भाषाओं और लोगों को करीब लाने में साहित्य की महती भूमिका होती है क्योंकि इसके माध्यम से ही लोगों में एक दूसरे की क्षेत्रीय संस्कृति, भौगोलिक पृष्ठभूमि, स्वभाव और रहन-सहन के बारे में समझ विकसित होती है. अगर मैं आज बंगालियों के बारे में इतना सब कुछ जानता हूँ तो वह केवल इसी कारण से है कि मैं बचपन से टैगोर, माणिक बन्दोपाध्याय, शरतचन्द्र चटर्जी, ताराशंकर बनर्जी, शंकर, जरासंधन, सुनील गंगोपाध्याय, महाश्वेतादेवी, विमलकर दिब्येन्दु पालित, आदि की मलयालम में उप्लब्ध कृतियों को पढ़ता रहा हूँ. यही बात हिन्दी के बारे में भी है. मैंने बचपन से प्रेमचन्द, यशपाल, जैनेन्द्र कुमार, निर्मल वर्मा, अज्ञेय आदि की कृतियों को मलयालम में पढ़ा है. इसी के कारण हम कोलकाता, दिल्ली और मुंबई की सड़कों बिल्डिंगों व सार्वजनिक स्थानों के बारे में इन शहरों का भ्रमण करने के पहले से ही अच्छी तरह से जान जाते हैं. इतना ही नहीं हम इन स्थानों की संस्कृति, रिश्ते-नातों व व्यवहार-विचार आदि के बारे में भी बहुत कुछ जान जाते हैं। अतः देश के विभिन्न हिस्सों के लोगों के बीच सम्बन्धों को पुख़्ता बनाने के लिए साहित्य से ज्यादा योगदान किसी और चीज़ का नहीं हो सकता है.    

प्रश्न 7. अहिन्दी भाषियों द्वारा रचे जाने वाले हिन्दी-साहित्य को साहित्य के इतिहास में कितनी जगह मिली है?क्या आप इससे संतुष्ट हैं?इसी प्रकार विभिन्न भाषाओं के अनूदित साहित्य के योगदान के बारे में आपका क्या मूल्यांकन है?


उत्तर:मैंयहनहींमानताकिगैर-हिन्दीभाषियोंकेहिन्दी-लेखनकोहिन्दी-साहित्यकीमुख्यधारामेंकभीकोईजगहमिलीहै, हालाँकिउन्हेंप्रोत्साहितऔरपुरस्कृतकिएजानेकीतमामयोजनाएँहैं. यह स्थिति विचित्र लगती है क्योंकि इसी के बरक्स भारतीय भाषा-भाषियों का अंग्रेज़ी साहित्य देश के साहित्य की मुख्यधारा में अपना स्थान बना चुका है, भले ही अभी कुछ अपवादों को छोड़कर उसे विश्व के अंग्रेज़ी-साहित्य की मुख्यधारा में स्थान न मिला हो.ऐसे गैर-हिन्दी भाषी हिन्दी-लेखकों को अपने क्षेत्र में भी समुचित सम्मान नहीं मिलता, भले ही जम्मू, नेपाल एवं राजस्थान की स्थिति कुछ भिन्न है. इसका मुख्य कारण यही है कि ज्यादातर क्षेत्रीय लेखक अपनी भाषा में ही लिखना पसन्द करते हैं और वे अंग्रेज़ी में तभी लिखना शुरू करते हैं जब वे अपनी भाषा में अच्छ लेखन नहीं कर पाते क्योंकि अंग्रेज़ी की स्वीकार्यता देश में तथा बाहर भी ज्यादा व्यापक है. यह प्रवृत्ति आगे भी बनी रहेगी और ज्यादा मज़बूत होगी क्योंकि विभिन्न कारणों से नई पीढ़ी का आत्माभिव्यक्ति के लिए अंग्रेज़ी की ओर ज्यादा झुकाव है. ये युवा जीवन-यापन की नई परिस्थितियों, शिक्षा, पहचान तथा ज्यादा पैसे कमाने जैसे उद्देश्यों को लेकर अपनी मातृभाषा से कटे जा रहे हैं. यहाँ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि ऐसे ज्यादातर लेखक सशक्त साहित्यिक विरासत वाली बांग्ला तथा मलयालम जैसी भाषाओं से निकलकर अंग्रेज़ी में आ रहे हैं, किन्तु साथ ही साथ इन भाषाओं में भी उत्कृष्ट साहित्य का रचा जाना जारी है. इसकी वज़ह इन प्रदेशों की सामान्य साहित्यिक संस्कृति भी हो सकती है. लेकिन मैं किसी बंगाली या मलयाली को महत्वपूर्ण हिन्दी-लेखन करते हुए नहीं देख रहा, हालाँकि उनमें से तमाम लोग हिन्दी के अच्छे ज्ञाता हैं. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यद्यपि हिन्दी में बड़े उत्कृष्ट लेखक हुए हैं और हिन्दी का साहित्य भी श्रेष्ठ है लेकिन हिन्दी-भाषी प्रदेशों में केरल व बंगाल जैसी वह साहित्यिक संस्कृति नहीं है, जिसमें आम लोगों द्वारा साहित्यिकारों को विशेष आदर व सम्मान दिया जाता हो. इसका एक कारण वहाँ साक्षरता का स्तर बेहतर होना हो सकता है. अनूदित-साहित्य ने सभी भाषाओं में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है. इससे नई प्रवृत्तियों, विधाओं, सोच तथा नए साहित्यिक आंदोलनों तक का जन्म हुआ है. उदाहरण के लिए देखा जाय तो हम पाते हैं कि प्रेमचन्द, यशपाल, ताराशंकर, माणिक बंदोपाध्याय आदि के अनूदित साहित्य के साथ-साथ टॉलस्टाय, दास्तोवेस्की, गोर्की, मोपासा, एमिले, ज़ोला, बाल्ज़ाक आदि के अनूदित साहित्य के प्रभाव ने ही काफी हद तक मलयालम-साहित्य में प्रगतिवाद को जन्म दिया. ऐसा ही आधुनिकतावाद जैसे अन्य आंदोलनों के बारे में भी हुआ.     

प्रश्न 8.भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेशएक ऐसी पुस्तक है जिसमें रामविलास शर्मा ने भारतीय साहित्य की अवधारणा को आकार देने की कोशिश की है. क्या आप की नजर में हिन्दी अथवा किसी अन्य भारतीय भाषा में इस तरह की कोई अन्य उल्लेखनीय पुस्तक है?इस काम को और आगे कैसे बढ़ाया जा सकता है?


उत्तर:अनेक भारतीय विद्वानों ने भारतीय साहित्य पर अंग्रेज़ी में पुस्तकें लिखी हैं.शिशिर कुमार दास की ‘हिस्टरी ऑफ इंडियन लिटरेचर’ (तीन खंड) और उमाशंकर जोशी की ‘द आइडिया ऑफ इंडियन लिटरेचर’ इसके दो उत्तम उदाहरण हैं. . वी. रामकृष्णन कीमेकिंग इट न्यूमें हिन्दी, मराठी, गुजराती और मलयालम काव्य-साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है. उनकी पुस्तकलोकेटिंग इंडियन लिटरेचरभारतीय साहित्य से सम्बन्धित लेखों का संग्रह है. मेरी खुद की भारतीय साहित्य पर तीन पुस्तकें हैं: ‘इंडियन लिटरेचरपोजीशन्स एण्ड प्रपोजीशन्स’, ‘ऑथर्स, टेक्स्ट्स, इस्यूजइंडियन लिटरेचर: पैराडिग्म्स एण्ड प्रैक्सिस’. अक्षय कुमार की एक पुस्तक है– ‘पोएट्री, पॉलिटिक्स एण्ड कल्चर’. यह सभी पुस्तकें अंग्रेज़ी में हैं क्योंकि आज भारतीय साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन की लगभग सारी श्रेष्ठ कृतियाँ अंग्रेज़ी में लिखी जा रही हैं, जिनमें से अधिकांश गोष्ठियों व आन्थोलॉजी की देन हैं. इस तरह के अध्ययनों का अंग्रेज़ी में होने का एक कारण यह भी है कि आज विभिन्न भारतीय भाषाओं से सैकड़ों अनुवाद अंग्रेज़ी में हो रहे हैं, आन्थोलॉजी लिखी जा रही हैं और लगभग अंग्रेज़ी ही भारत की संपर्क भाषा बन गई है, जबकि यह भूमिका हिन्दी द्वारा निभाई जानी थी. हिन्दी ने यह मौका इसलिए गँवा दिया, क्योंकि यदि श्रेष्ठता के अहसास के कारण नहीं, तो फिर शायद अपनी शिथिलता के कारण, हिन्दी बोलने वाले लोग अन्य भारतीय भाषाएँ सीखने और उनमें लिखने के लिए आगे नहीं आए. लेकिन मैं यहाँ एक बात और बताना चाहूँगा कि हममें से अधिकांश ने अपनी मातृभाषाओं में भी भारतीय साहित्य पर अनेक निबन्ध लिखे हैं.      

 
उमेश कुमार सिंह चौहान 

प्रश्न 9. भारतीय साहित्य की अवधारणा को विकसित करने में साहित्य अकादमी की क्या भूमिका है?उसके लिए आप के क्या सुझाव हैं?क्या इस तरह की और भी संस्थाएं हैं?क्या ऐसी अन्य संस्थाओं की  जरूरत है?



उत्तर:साहित्य अकादमी ने अपनी गोष्ठियों, पाठों, परिचर्चाओं व अंग्रेज़ी पत्रिका ‘इंडियन लिटरेचर’ व हिन्दी पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ जैसे प्रकाशनों के माध्यम से भारतीय साहित्य के बारे में काफी जानकारी पैदा की है. अकादमी ने अपनी हज़ारों आन्थोलॉजी की पुस्तकों, मोनोग्राफ व अनुवाद-पुस्तकों द्वारा भी यही काम किया है. लेकिन भारत इतना बड़ा देश है और भारतीय भाषाओं का इतिहास इतना सम्पन्न है कि सिर्फ एक ही संस्था आवश्यकता के अनुरूप सभी कुछ नहीं कर सकती. नेशनल बुक ट्रस्ट ने भी अपनेआदान-प्रदानकार्यक्रम के माध्यम से कुछ उल्लेखनीय अनुवाद प्रकाशित किए हैं. क्षेत्रीय साहित्य अकादमियाँ भी प्रायः अपनी भाषा से अंग्रेज़ी में और कभी-कभी हिन्दी व अन्य भाषाओं में अनुवाद कराती हैं. मेरा सुझाव है कि सभी राज्यों को इस तरह के काम के लिए अनुवाद-केन्द्र व ब्यूरो आदि स्थापित करने चाहिए. हिन्दी अकादमी जैसी संस्थाओं को ऐसे काम करने चाहिए. यदि सरकार राजभाषा पर खर्च की जाने वाली अपनी धनराशि का एक चौथाई भी अनुवाद की संस्थाएँ और अनुवाद-फंड स्थापित करने पर खर्च कर दे तो स्थिति बहुत बेहतर हो जाएगी. मुझे नहीं लगता कि हिन्दी की संस्थाओं ने भारतीय साहित्य को एक साथ लाने की कोई पर्याप्त कोशिश की है. पहले भोपाल का भारत भवन भारतीय काव्योत्सव व अनुवाद की कार्यशालाएँ आयोजित किया करता था लेकिन अशोक बाजपेयी जी के जाने के बाद वह भी अर्धमृत सा लगता है. भारतीय साहित्य के पुस्तकालय व भंडारागारों की स्थापना, अनुवाद की परियोजनाओं का संचालन, अनुवादकों के लिए विभिन्न भाषाओं में अनुवाद का प्रशिक्षण, ऐसे अनेक कार्य हमें करने होंगे. चौबीस भारतीय भाषाओं में अनुवाद-पुस्तकें प्रकाशित कर रही साहित्य अकादमी ही एकमात्र संस्था है जो इस दिशा में कुछ करती हुई दिखाई पड़ रही है. वह विभिन्न प्रकार के एन्साइक्लोपीडिया, व्हूज़ हू, बिब्लिओग्राफी तथा प्राचीन, मध्यकालीन व आधुनिक साहित्य की आन्थोलॉजी आदि के माध्यम से भारतीय साहित्य का एक डाटाबेस भी सृजित कर रही है. लेकिन सीमित कर्मी-बल व संसाधनों के बूते केवल एक ही संस्था इस बारे में कितना कुछ कर सकती है?      

दिल का एक सितारा चला गया है

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अभी कुछ दिन पहले ही 30 अगस्त को हिंदी सिनेमा के अमर गीतकार शैलेन्द्रकी जयंती थी. उनका और राज कपूर का रिश्ता अटूट माना जाता था. फिल्म समीक्षक सैयद एस. तौहीदने इसी बात की याद दिलाने के लिए यह सौगात भेजी है हम पाठकों के लिए कि राज कपूर ने शैलेन्द्र के मरने पर क्या कहा था. पढ़िए और उस महान गीतकार को याद कीजिए- मॉडरेटर.
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दिल का एक सितारा चला गया है।  ठीक नहीं हुआ। आपके बगिया के खूबसुरत गुलाबों में से कोई एक भी जाए, तकलीफ होती है। अजीज के लिए यह आंसु भी कम पड़ रहे हैं। किस कदर सादा सच्चा बेखुदगर्ज़ इंसान था। इस शख्सियत का एक अहम हिस्सा। अब जबकि वो नहीं रहाहमेशा के लिए चला गया,याद में आँसू में आएंगे। गुजरे जमाने को मुडकर देखता हूं तो चालीस का दशक आंखों में तारी हो जाता है। ख्वाबों की दुनियाख्वाब जिन्हें पूरा करना था। इरादे की बुलंदियों से ताकत मिल रही थी। उस जमाने में आगपर काम कर रहा था। पृथ्वी थियेटर से थोडा ही आगे इप्टा का कार्यालय था। एक बेबाक आदर्श युवा कवि से मिलना शायद लिखा था। मुलाकात के उस दिन को भुला नहीं सकता। मिलकर जल्द ही समझ गया कि मेरी फिल्म के थीम गाने के साथ केवल यही व्यक्ति न्याय कर सकेगा। फिल्म के लिए लिखने को कहा। वो कविताओं की कीमत पाने के लिए लिखा नहीं करता था। फिल्म वालों में खासी दिलचस्पी भी नहीं दिखी थी। एक समझ से ठीक भी लगाक्योंकि रेलवे में काम करके ठीक-ठाक तनख्वाह मिल जाती थी। मुंबई के परेल में एक ठिकाना भी बना लिया था। मुल्क के मुस्तकबिल के बारे सोचने वाला - क्रांतिकारी विचारों का शख्स था। गांधी जी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया। नेहरू के समाजवादी चिंतन- मार्क्सवादी विचारों का प्रवक्ता बन क्रांति की ज्योत जलाई। लेखन में मार्क्सवादी प्रगतिशील विचारों का तेवर था। कवि के इंकार को स्वीकार कर लिया। लेकिन मुलाकात का प्रभाव अब भी साथ था। मेरी मुलाकात शंकरदास केसरीलाल उर्फ शैलेन्द्र से हुई थी। उस वक्त थोडा निराश जरूर हुआफिर भी उस लेखक का मुरीद था। हमारे प्रोडक्शन ने आगे बरसात पर काम शुरू किया। उस जमाने में महालक्ष्मी में हमारी एक सिनेलैब हुआ करती थी। शैलेन्द्र एक रोज़ वहां किसी जरूरत पडने पर पहुंचे। रूपए की शख्त की जरूरत थी। कहा कि मुझे अभी आपकी सहायता चाहिए,बदले में कोई काम ले लेना। उस वक्त मेरे मन में बरसात का मुखडा बरसात में हमसे मिले तुम साजन तुम से मिले हमथा। हमने उस फिल्म पर साथ काम किया। वो एक मधुर रिश्ते की शुरुआत बनी। तब से आज इस मोड तक हम साथ रहे। मृत्यु ने मुझसे मेरे अजीज को हमेशा के लिए दूर कर दिया है। अब वो नहीं रहा

उस शख्स की महान धरोहर आंखों के सामने है। क्या लोगों ने कभी रूककर सोचा कि सोवियत रूस व दुनिया में राजकपूर को मिली शोहरत में शैलेन्द्र का योगदान क्या था? उन गीतों जिसकी दुनियावालों ने गुनगुनाया आवारा हूंलेकर मेरा जूता है जापानीया जिस देश में गंगा बहती हैके गीत मेरे नाम राजू घराना अनामअथवा होठों पे सच्चाई रहती हैसरीखे गीतों को किसने लिखा? माध्यम को लेकर शैलेन्द्र की समझ में बदलाव एक स्वागतमय मोड़ था। सिनेमा में भी आम आदमी की तड़प शायद उन्हें नजर आई थी। कविताएं लिखने वाला शख्स ने फिल्मों को भी एक सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया। खूबसुरत अंदाज मेंएक सितारा आसमान पर बुलंद हुआ। आम आदमी को एक सिनेमाई अभिवयक्ति देने का सराहनीय काम किया था। मिसाल के लिए जिस देश में गंगा बहती हैका गीत कुछ लोग ज्यादा जानते हैं,इंसान को कम पहचानते हैंको याद करें। शाटस व दृश्यों के मुताबिक से गीतों के बोल सटीक थे। राजकपूर की इमेज में शैलेन्द्र का निर्णायक हिस्सा था। आम आदमी का राजकपूर कविताई के अक्स से बना था।  आर के स्टुडियो के लोगों की समझ में फिल्म निर्माण में कदम रखने की बडी भूल ने गीतकार की जान ली। हुआ यही थातीसरी कसम के साथ जो हुआ उसने शैलेन्द्र की असमय मौत तक पहुंचा दिया था। फिल्म व्यवसाय की बारिकियों को ठीक से समझ बिना वो निर्माण में डूब गए। रूपया डूब गयाफिल्म फिर भी अधूरी थी । मुकेश-शंकर जयकिशन के सहयोग से किसी तरह पूरी होकर रिलीज हुई। यह हमारी टीम की एकता को एक महान श्रधांजली थी। मुश्किलों के बावजूद शैलेन्द्र ने फिल्म को पूरा किया। आज भी जुबान पर दर्ज गीत तीसरी कसम को खास बनाते हैं। मुझे याद आ रहा कि एक रात फिल्म की आर के स्टुडियो में प्राईवेट स्क्रीनिंग थी। उपस्थित लोगों से फिल्म के ऊपर मत देने को कहा गया। ज्यादातर लोगों ने महसूस किया कि फिल्म को बाक्स-आफिस की थोडी फिक्र करनी चाहिए। सभी मतों को पढ कर भी गीतकार ने अपने काम में बदलाव से मना कर दिया।  मेरी डायरी में शैलेन्द्र ने लिखा मेरे पास वो दो पंक्तियां अब भी शेष बची फिल्म अपने हिसाब से बनाऊंगा।  फिल्म से जुडे व्यावसायिक रिश्ते ने शैलेन्द्र को बडी पीडा दी थी। शरीर व आत्मा गहरे रूप से दुखित हुए थे। फिर भी दिल को छु जाने वाले गीतों को लिखा। फिर मेरे अगली फिल्म मेरा नाम जोकरके लिए भी गीत लिखे। उसकी गहरी भावपूर्ण थीम पंक्तियों को रचा।  यह पंक्तियां बहुत दिनों से मेरे मन में थीलेकिन शैलेन्द्र मिल नहीं रहे थे। एक रात मकान पर वो खुद आ पहुंचे। थीम पंक्तियों को लिपिबध करके नीचे अपना दस्तखत कर दिया। संकेत मिला कि जीना यहां मरना यहां,इसके सिवा जाना कहांकी अमर पंक्तियां लिखी जा चुकी थीं ।

 खुदा के सामने झोली फैलाए खडा अपने अजीज के जाने का मातम कर रहा हूं। वापसी की दुआएं कर रहा हूंना सुनने वाले को आवाज दे रहा हूं। मेरा अजीज मुझे अधूरा छोड गया है। मेरा दिल तडप रहाउसे ढूंढ रहा।


                                                                                                                                            (राजकपूर)

अकथ का आश्चर्यलोक : ‘अँधेरे में’

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मुक्तिबोधआधुनिक हिंदी कविता के गुरु हैं. आज उनकी कविता 'अँधेरे में'पर लिखा यह आत्मीय लेख पढ़ते हैं. लिखा है विदुषी कवयित्रीसविता सिंहने- मॉडरेटर.
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जब मैं कविता लिखने लगी अँधेरा मेरे लिए रहस्य नहीं रह गया। अकसर रात में ही लिखती। रात अपने कई रूपों का दर्शन कराती।कितना कुछ मैंने जाना अपने बारे में उसी संगत में! अँधेरा मेरी कविता का मुख्य रंग जैसे बनता गया। हम एक दूसरे के लिए पारदर्शी होतेगये... एक दूसरे का हिस्सा। मेरी देह ज्यों पिघलती गयी उसमें, उस जैसी होती गयी। एक दिन फिर मैंने मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंपढ़ी;  अकथ का आश्चर्यलोक होती हुई भी वह मेरे लिए बहुत जानी पहचानी ज़मीन लगीकाली, जिस पर मैं चलती हुई खुद तक पहुँची।उसके बाद इस सहज यात्रा के बारे में कभी खुद से भी जि़क्र नहीं किया। वह एक ऐसी यात्रा थी जो घटित होकर मेरी स्मृति में काली मिट्टीबन जा बैठी।

बहुत कुछ और पढ़ती रही, यात्रा करती रही। कविता मुझे विवश करती रही कि मैं और गहरे किसी काले जल में उतरूँ जो शायद यहसंसार ही है। लेकिन जब-तब किसी दीवार से कोई पलस्तर झड़ता, मैं आकृतियाँ खोजतीं। झड़े पलस्तर वाली दीवार से सहानुभूति होती, सीमेंट की पपड़ियों को हाथों में भर लेती जैसे अँधेरे मेंकविता मेरे हाथों में आ गयी हो। कुछ इस तरह ये कविता मेरे साथ रहने लगी।जुलूसों में मशाल लिये दस्तों को मैंने शायद कभी नहीं देखा, मगर दिन में निकलने वाले जुलूसों में ज़रूर शामिल हुई और भीतर ही भीतरमुक्तिबोध की तरह ही मुझे भी लगता यह मशालें जलने वाली हैं। जादुई यथार्थ यूँ मेरे ठोस यथार्थ पर उतरता गया और भीतर की संवेदनाऔर उकमीद की तरह बना रहा। गुंटर ग्रास का पहला उपन्यास टीन ड्रमजो 1958में प्रकाशित हुआ था, बचपन में पढ़ा था। यह उपन्यासहमारे समवय मित्रों में बहुत लोकप्रिय था। उसको पढ़ने के बाद महीनों आश्चर्य से भरी रही। फिर एक दिन बोर्खेज़ की एक कहानी पढ़ीजिसमें एक पादरी के जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित होती हैं, जिसमें वह एक बहुत बड़े पद पर पहुँच जाता है। परन्तु बीच मेंही कहीं आकर घटनाएँ उलझ जाती हैं और वह पादरी को पसन्द नहीं। अचानक कहानी में एक मोड़ पैदा होता है जिसमें बोर्खेज़ अपनीकहानी के इस पात्र से कहते हैं, ‘चलो इस कहानी को बदल देते हैं कयोंकि यह सब कुछ तो अभी कल्पना में ही चल रहा है। इसे बदलनालेखक की नियति है।इससे यह भी पता चला कि यथार्थ में दरअसल यह सब कुछ भी घटित नहीं हुआ। फिर भी इसकी प्रतीति यथार्थकी तरह ही थी। मेरे लिए यह बहुत बड़ा झटका था जिससे मैं शायद आज भी नहीं उबरी। यथार्थ सी दिखती कल्पना, यथार्थ ही है;  औरकल्पना भी यथार्थ। इन्हीं दोनों के बीच एक कवि या लेखक आनन्द से रह सकता है, या फिर मानीखेज़ ढंग से। यह एक नयी जगह थीहमारे लिए। मुझे नहीं मालूम मुक्तिबोध ने बोर्खेज़ को पढ़ा था या नहीं, लेकिन अँधेरे मेंकविता भारतीय जादुई यथार्थवाद का एक अप्रतिमनमूना तो है ही। इसमें जितना दिखता है उससे कहीं अधिक घटित होता है। और वे तमाम चेहरे जिन्हें हम पहचानते हैं जब वे अत्याचारीया अत्याचार करने की क्षमता रखने वाले लोगों के रूपों में दिखते हैं तब यह कविता इतिहास, संस्कृति और भारतीय आधुनिकता में व्याप्तखतरों और शंकाओं को यथार्थत: हमारे समक्ष रख देती है। ये चेहरे उजाले में भी अपने सच्चे रूपों में नहीं दिखते जिन्हें यह कविता दिखा देतीहै।

अपनी अभिव्यकित को तलाशता कवि मुक्तिबोध हम सबों को आज भी अँधेरी डगर पर चलता हुआ मिल सकता है, या मिलता है जबहम चाँद, तीर और अनश्वर स्त्री’, या फिर सपनें और तितलियाँजैसी कविताएँ अपनी सफेदी ओढ़े अँधेरे की आत्मा तलाशती उसी डगरपर निकलती हैं। मुक्तिबोध मिलते हैं अपनी अभिव्यकित से मिलते हुए। गौरतलब है कि जब स्वप्न दु:स्वप्न बनते हैं, हमारी यात्रा हमारीअपनी ही होती है अँधेरे मेंमिथक कल्पना के ही पुष्प-फल होते हैं और इनकी जगह जादुई यथार्थ में कुछ इस तरह है जैसे इनके बिना अँधेरे के अरण्य अपूर्ण होतेहों।


एम.ए. के दिनों में मार्केज़ को पढ़ा— ‘एकान्त के सौ वर्ष। मुझे लगने लगा एक लेखक के लिए कुछ भी मिथ्या नहीं, मिथक भी नहींसब सच है अपने कई-कई रूपों में, मिथ्या भी उसका एक रूप ही है। बहुत बाद में रॉय भास्कर के साथ काम करते हुए मिथ्या का दर्शन मेंगौरवपूर्ण स्थान समझ में आया। दरअसल यह संसार एक जादुई यथार्थ ही हैएक नींद जिसमें हम चलते रहते हैं, ‘नींद उचटी कि गायबहुआ स्वप्न सा चलता यह यथार्थ’ ;  वैसे यह जानना कितना दिलचस्प होगा/किसकी नींद है यह जिसका स्वप्न है यह यथार्थ’, (स्वप्नसमय)ऐसी पंक्तियाँ इसी समझ के तहत तो मेरे पास आयीं होंगी। यह बात अलग है कि इस संसार में हमारा हाथ किसी पत्थर के नीचेज़रूर उलटा पड़ा हुआ है जिसको सीधा करने का यत्न ही यह जीवन है। और पत्थर की आत्मीयता के लिए तड़पना हमारा सबसे मार्मिकप्रयास इस जीवन को जीने का। मुक्तिबोध की कविता, ‘अँधेरे में’, हमें उस पत्थर तक ले जाती है जिसके नीचे हमारे हाथ दबे हुए हैं।

'नया ज्ञानोदय'से साभार 

लेखिका संपर्क- savita.singh6@gmail.com



पामेला एंडरसन की कविता हिंदी अनुवाद में

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किसे ख़बर थी कनेडियाई अदाकारापामेला एंडरसनज़िंदगी के कई रंगों में नहाने के बाद, हाल में ही दूसरी बार तलाक के बाद कविता की ओट में आ खड़ी होगी। हाल में पामेला ने एक लम्बी कविता लिखी है, जिसमें जीवन का भोगा हुआ यथार्थ और सच का नंगा सियाह रूप दिखाई देता है। जिसमें एक औरत होने के मायने भी छुपे हैं, तो उसकी अधूरी चाहतों का क़बूलनामा भी। जानकीपुल के पाठकों के लिए प्रस्तुत है पामेला एंडरसन की कविता। मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद किया है त्रिपुरारि कुमार शर्माने। हम इससे पहले त्रिपुरारि के अनुवाद में एक और मशहूर अदाकारा मर्लिन मुनरोकी कविता यहाँपढ़ चुके हैं मॉडरेटर
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मैं एक चुलबुली लड़की से अतृप्त औरत कब बन गई?

सुलगता हुआ...
मैं जानती हूँ यह तुम्हारे लिए ग़लत है...
लेकिन, जब मैं यह सोचती हूँ—
मेरे पास एक सिगरेट थी
जिसे जलाने की कभी इच्छा नहीं हुई
एक तरह का आराम...
मैं चाहती हूँ
चालीस साल पहले यह इटली थी
खुले आकाश में चाँद निकला था
जैसे एक जबरदस्त ताली
ऐसा लगता है कि
यूरोपियन धुम्रपान के नियमों की परवाह नहीं करते
हम वही करते हैं जो हमें पसंद है
बंद दरवाज़ों के पीछे
हमारा वास्तविक चरित्र, सामूहिक पेचीदगी
बच्चों जैसी बदमाशियाँ
अनुवांशिक उदाहरण? ध्यान का भटकना
...सेक्स...एक खोई कला--एक बीमारी--
विकृति-
निष्काम-
नारंगी बौरों का निर्दयी गंध...
मुझे अच्छा लगता है प्रेम में होना--
लेकिन आशाएँ,
सुख और संतुष्टि को असंभव बनाती हैं...
मैंने बहुत कोशिश की...
हो सकता है यह चलन न हो--
रोमानी होना परम्परा न हो...
मेरा अनुमान है कि यह इस्तेमाल किया हुआ आदर्श है--
पुराने ढंग के लिए...
नया नहीं...
महिला सुरक्षा...खो चुका-
कोई चारा नहीं--
संकेतों से भरा हुआ सेलफोन,
कंप्युटर्स--
ऑनलाइन सेक्स ऑर्डर करना-
जैसे अमेजॉन पर किताब ऑर्डर करना--
और ताकना भर तुम्हें ज़िंदा खा जाता है--
जैसे दर्पण की प्रतिक्रिया, आवेशित प्रेम...
अस्वस्थ,
निराश-
कन्नी काटना--
हमेशा असंतोष की भावना रहती है
जैसे कि कुछ बुझा-सा हो
मैं सवालों पर अपनी उंगलियाँ नहीं रख सकती
कौन रक्षक होना चाहता है
मैं यहाँ से बाहर जाना चाहती हूँ
समय से परे, शून्य में
धूसर, एक चुप पारदर्शी
स्वादहीन जगह से--
ख़राब नीयत,
नीरस-उत्तेजनाहीन-एक पवित्र जीवन
अपने होटल के बिस्तर में लेटी हुई
अपने मोजे को ध्यानपूर्वक उतारती हुई
मोजाबंद से खोलती हुई
ठीक तरह से

बहुत से काम...
थोड़ी-सी अपराधबोध से ग्रस्त-
मैं कल्पना करने लगी--
पोस्तीनो,पाब्लो नेरुदा-
मुझे कैप्रीजाना चाहिए--?
बहुत से कुंठित
जलते हुए सवाल...
कोई पुरुष नहीं जानता कि मेरे साथ क्या करे
मैं ख़ुद को दोष देती हूँ
मेरे साथ मैथुन करना अनंत जैसा है--
समय का अस्तित्व मिट जाता है...
मैं समय के साथ नहीं चलती
...
ना ही उधार हूँ--
रररर--
मुझे इस कमरे से बाहर जाना था-
मखमली सामान और चीनी मिट्टी की चीज़ें
मुझ पे बंद हो रहे हैं
मैंने क्या किया है?
मैंने जाना कि यह शुरूआत से ही ग़लत था
आदिम, बुनियादी इच्छा  
एक अमीर आदमी से कभी शादी नहीं करो
आवारा दौलत...
चलना शुरू करो (जैसे जेनी मोरी और माइल्स डेविस)
कभी पीछे मत देखो-
आगे सिर्फ़ सौंदर्य है,
मुक्ति...
गौरव
भीड़...
अब मैं भूल चुकी कि मैं कहाँ थीओह
मेरा सफ़ेद बरबेरी ट्रेंच कोट-
फ़र्श पर?
(एक काले व्यक्ति की गहरी आवाज़)
काला व्यक्तिइस ख़ूबसूरत डिज़ाइन को उसने सराहना छोड़ दिया
मैं—“बहुत ख़ूबसूरत है
काले व्यक्ति ने ख़ुद को उपर समेट लिया
एक धीमी आवाज़ के साथ
वह दरवाज़े से बाहर चली गई
और बिना किसी मिलाप के
हॉल में मँडराने लगी
उसके मर्दानी पैर ज़मीन को नहीं छू रहे थे
एलेवेटर पर बेतरह से गिरती हुई
नैट किंग कोलको सुनती हुई...स्टारडस्ट?
(फ़िल्म याद करती हुई)
मैं—“फ़ॉलेन एंजल?”
काला व्यक्तिउपर अबतक कोई नहीं था-
जिस सुखी संसार से वह बाहर जाती है,
मैंआज़ादी...
मैं साँस ले सकती हूँ...
काला व्यक्तिक्या किसी पुरुष का हल्का-सा स्पर्श चाहिए?
एक कामुक प्रलोभन?
मैं—“मुझे बहुत भूख लगी है...
काला व्यक्तिउसका दिल भेद करता है--
मैंयह नीच नंगापन था--
सही रौशनी में नहाया-
जादूई समय -- --
मैं—“आज सभी अच्छे दिखते हैं
काला व्यक्तिबिल्लियाँ और गुनगुनाने वाली चिड़ियाँ
कोई उसे देख रही थी...
उसने एक सियाह खिड़की में ताका
जहाँ कोई भी नहीं...
और जैकेट को अपने चारों ओर गिर जाने दिया
उसका कंधा...
भीड़ पीछे आ रही है...
प्रयोजन में थोड़ी-सी कमी
कोनों से छुपाते हुए
मैं—“बहुत ख़तरनाक है-
मेरा जिस्म आग पर है...
मेरा जिस्म कभी ख़त्म नहीं हुआसमस्याएँ मुझे खोजती हैं
तुम मुझे खोजो 
लोहा हमेशा गर्म है!
काला व्यक्तिवह चर्च के एक ठंढे दीवार से लगकर खड़ी हुई
यह सुखद एहसास था, मुलायम-
मैंहैरान हूँ मैं कि वेश्यावृत्ति कैसे सम्भव है?
क्या यह कभी अच्छा महसूसता है?
थोड़ी-सी आत्मा मरी
जैसे ही हम फ़ायदा उठाते या देते हैं
क्या यह सिर्फ़ पैसे के लिए है?
क्या यह ध्यान आकर्षित करने के लिए है?
या दोनों के लिए
औरत दुख सहती है
हर जगह
नियम,नियम, नियम--
परस्पर विरोधी आवश्यकताएँ
मैं जवाब नहीं ढूँढ सकतीयह एक महामारी है
मैं जानती हूँ कि
एक कंप्युटर से इसका मुकाबला नहीं कर पाऊंगी

या- हॉलीवुड के लड़के
(जो बत्तखों की झुंड की तरह हैं)

जो ग़रीब रसियन लड़कियों को किराए पर मंगाते हैं
उनके नितम्भों पर रखकर ब्रेड के टुकड़े खाते हैं
वह कैसे होता है?”
काला व्यक्तिवह परेशान थी--
इसे आख़िर कब तक सहती? --क्या यही सच है?--
मैं—“क्या हमने आदमियों को झीनी हवा में खो दिया है---
पाताल मेंतकनीकी और मूर्खता में
माँस दिल-ओ-दिमाग़ से चिपका हुआ है
एक कोशिश चाहिए और हुनर भी
महान प्रेमी कहाँ हैं? —एक खोई कला…
ईश्वर, मैं उम्मीद नहीं करती...
मैं कोलम्बिया कभी नहीं गईमुझे जाना चाहिए?
मैं सच में जाना चाहती हूँ! 
क्या यह हिस्टिरिया है?
वस्तुपरकता?
अबछत से नीचे आते हुए,
सुनहरी झिलमिलाहट में टपकते हुए--
नुरेयेवके साथ नाचते हुएबंद आँखों से
सपनों में...
मेरी कोमलता को उत्तेजित करते हुए,
एक मीठा कच्चापन--
चोटिल और खरोंची हुई महसूसते हुए
सम्मोहित-
जीवन संवेदनायुक्त है—“जिसे पोस्ट में नहीं रख सकते” 
मैंमैं प्लेब्यॉय को भूलती हूँ -
एक सदी का अंत--
शौर्य, रमणीय-
अपूर्णताओं का उत्सव -
विवाद...गर्म---कामुक सपनों के दृश्य...
दि गर्ल नेक्स्ट डोर’—लज्जापन—“यह मेरा पहली दफ़ा है
लेकिन मेरा अंतिम नहीं...(पलकें झपकती हैं)
मैं एक रहस्यमयी चाल की योजना बना रही हूँ
इसके साथ आना चाहोगे—‘जुलियन असांजे’?
क्या यह ठीक है,
मेरा कई लोगों के बारे मे सोचना--
वह मकसद नहीं है-
हम कितने प्रभावित हो सकते हैं--
चाहे जाने की चाहत बहुत स्वाभाविक है--
दुनिया तुम पर रेंगती है--
और वहाँ तुम हो
हर जगह-
उस जगह भी जहाँ तुम नहीं होना चाहते—(रेत भरी आँधी?)
(सैनिक)
मैं मनुष्य हूँ तुम जानते हो--
पागलपन तक समझौता करने को छोड़
कोई दया नहीं-क़ीमत चुकाओ-मेरा क़सूर-
काला व्यक्तिख़ाली महसूस कर रही हो, उदासखिंची हुई-
अकेलीइलाज कराओ।
सो जाओ--
मैंनहीं! मैं ऐसा नहीं करुंगी--
मैंतुम्हें पता हैयह विचित्रता काफी नहीं है,
ख़ूबसूरत होने के लिए--
मैंने कभी ख़ूबसूरत महसूस नहीं किया-
मैंने हमेशा कामुक महसूस किया...और अंधा...
ओह! मैं अपना होश खो रही हूँ--
मैं गिर रही हूँ...यह एक अजीब एहसास है...
सुन्न हो रही हूँ... सभी के सामने---
यह ख़ुद ही ख़ुद खिंचने जैसा है... मुश्किल है--
(अलार्म बजता है!!)--  
मैं इस तरह कब होना चाहती थी?--
आकर्षित होना?
मैं एक चुलबुली लड़की से अतृप्त औरत कब बन गई?
भागती हुई लड़की...
फेम्म फटेले’... समर्पित और....विभाजित
क्या हम सभी पागल हो रहे हैं? –
या सिर्फ़ मैं?
बिना धोई सब्ज़ियों पर क्या यह वही है?
मैंने कब अपने ही दिल का नियंत्रण खो दिया? --
मैंने कब विश्वास करना शुरू कर दिया,
कि मेरे बेहतर निर्णय के विरुद्ध मैं यही अच्छी हूँ--
इसके लिए नाकाम हूँ-यह सब बकवास है--
इसे इस्तेमाल किया जाना अच्छा नहीं लगता,
ठुकराया गया, अनदेखा किया गया, नियंत्रित... 
मैं यह नहीं कर रही हूँ---
यह अपमानजनक है-
मुझे इसे पीछे लौटाना है--
ढाँचा शक्तिहीन है-निराशाजनक--
एक मोहभ्रम--
इससे मैं तुम्हारी राह नहीं खरीद सकती...दोस्त!!,
मैं सर्द हूँ
(वह हँसना रोक नहीं सकती..)
मुझे एक नाटक की याद दिलाती हैजो मैंने लिखा था
वह हेल्स एंजल्स के बारे में है,
चमकती हुई-
स्टीव क्वीन और ब्रीडगिट बारडॉट --
नाटक के बीच में...
** एक कार पीछा कर रही है -
वह आगे और आगे जा रही है
वह उसके साथ सिर्फ़ अपने तरीके से करने की कोशिश कर रहा है-
सबकुछ दोगुना है अजीब/कामोत्तेजक
उन्होंने बेहिसाब हीरे चुराए हैं
वह सर से पाँव तक पसीने में तर है
एक चमकती हुई हँसी के पागलपन में---60’ का पोर्च?
सब एक कार में--उछल-कूच कर रहे हैंरोशनीदर्शकों के सामने--
(उनके पीछे से ब्लैक एण्ड व्हाइट प्रोजेक्शन)
वे अलग-अलग प्रेम में पड़ जाते हैं
मुझे नहीं पता कि हेल्स एंजल्स को इसके क्या करना चाहिए--
लेकिन वे टायटल में मौजूद रहते हैं---
समाप्त... 

नीलेश रघुवंशी को 2014 का शैलप्रिया स्मृति सम्मान

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नीलेश रघुवंशीजानी-मानी कवयित्री हैं और 2012 में प्रकाशित उनके उपन्यास 'एक कस्बे के नोट्स'की काफी चर्चा हुई थी. उनको जानकी पुल की ओर से 'शैलप्रिया स्मृति सम्मान'की बधाई- मॉडरेटर.
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शैलप्रिया स्मृति न्यास की ओर से द्वितीय शैलप्रिया स्मृति सम्मान सुख्यात लेखिका नीलेश रघुवंशी को देने की घोषणा की गई है। यह पुरस्कार स्त्री-लेखन के लिए दिया जाता है इस सम्मान के निर्णायक मंडल में सर्वश्री रविभूषण, महादेव टोप्पो और प्रियदर्शन शामिल हैं। निर्णायक मंडल ने सम्मान पर एक राय से फ़ैसला किया है। निर्णायक मंडल की ओर से कहा गया है, नब्बे के दशक में अपनी कविताओं से हिंदी के युवा लेखन में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली कवयित्री नीलेश रघुवंशी की रचना यात्रा पिछले दो दशकों में काफी विपुल और बहुमुखी रही है। इसी दौर में भूमंडलीकरण के चौतरफ़ा हमले में जो घर, जो समाज, जो कस्बे अपनी चूलों से उख़ड़ रहे हैं, उन्हें नीलेश रघुवंशी का साहित्य जैसे फिर से बसाता है। जनपक्षधरता उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता भर नहीं, उनकी रचना का स्वभाव है जो उनके जीवन से निकली है। कमजोर लोगों की हांफती हुई आवाज़ें उनकी  कलम में नई हैसियत हासिल करती हैं। 2012 में प्रकाशित उनके उपन्यास एक कस्बे के नोट्सके साथ उनके लेखकीय व्यक्तित्व का एक और समृद्ध पक्ष सामने आया है। समकालीन हिंदी संसार में यह औपन्यासिक कृति अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है जिसमें एक कस्बे के भीतर बेटियों से भरे एक मेहनतकश घर की कहानी अपनी पूरी गरिमा के साथ खुलती है। कहना न होगा कि इस पूरे रचना संसार में स्त्री-दृष्टि सक्रिय है जो बेहद संवेदनशील और सभ्यतामुखी है। द्वितीय शैलप्रिया स्मृति सम्मान के लिए नीलेश रघुवंशी का चयन करते हुए हमें खुशी हो रही है।

नीलेश रघुवंशी को यह सम्मान 14 दिसंबर 2014 को रांची में आयोजित एक कार्यक्रम में प्रदान किया जाएगा। उन्हें सम्मान स्वरूप पंद्रह हज़ार की राशि, एक मानपत्र और शॉल प्रदान किए जाएंगे।


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