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गीत ऐसा होना चाहिए जिसमें मैं पूरी तरह खो जाऊँ

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युवा लेखक यतीन्द्र मिश्र इन दिनों लता मंगेशकर पर अपनी किताब को अंतिम रूप देने में लगे हैं. इस पुस्तक में लता जी के साथ संगीत को लेकर उनकी बातचीत भी है, जो उनके ग्लैमर से प्रभावित हुए बिना शुद्ध संगीत को लेकर है. एक छोटा सा अंश आज लता मंगेशकर के जन्मदिन पर- मॉडरेटर 
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यतीन्द्र मिश्रः  आप जब फिल्म इंडस्ट्री में आयी ही थीं,उस समय बहुत सारे लोग,बहुत सारी आवाज़ें सक्रिय थीं। मसलन- सुरैया,राजकुमारी,जोहराबाई अम्बालावाली,अमीरबाई कर्नाटकी,कानन देवी,पारुल घोष और शमशाद बेग़म जैसी नामचीन आवाज़ें। उस ज़माने में,इन गायिकाओं की गायिकी को ध्यान में रखते हुए क्या आपने यह तय कर रखा था कि मुझे इन लोगों की तरह तो कतई नहीं गाना है। मतलब यह कि पिछले समयों में जो चालीस का महत्त्वपूर्ण दशक रहा,उसमें जिस तरह यह गायिकाएँ अपना गायन सिनेमा के लिये करती रहीं,वैसा आपने न करने की कोई बात मन में रखी थी,एक विभाजन रेखा उन गायिकाओं की कला से सम्बद्ध मन में गहराई से आकार ले रही थी अथवा यह सहज ढंग से ही लता मंगेशकर द्वारा गायिकी का तरीका एकाएक बदलने का मामला था?

लता मंगेशकरः देखिए,एक तो बहुत सारे लोग अभी भी ठीक से जानते नहीं हैं कि उस दौर में गायिकी की जो स्टाईल थी,वह किस हद तक एक ही ढर्रे पर कायम थी। इस बात को जब मैं बहुत गौर से देखती हूँ,तो इन सारे लोगों के बीच में मुझे नूरज़हाँ अकेली खड़ी दिखाई पड़ती हैं। मैंने उनको बहुत सुना था और अपने लिये यह पाया कि अगर फ़िल्मों के लिये गाना है,तो वह कैसा गाना होना चाहिए। नूरज़हाँ को पहली दफ़ा सुनकर ही मैं यह समझ सकी कि अगर सैड सांग है,तो वह कैसे गाया जाये और वह खुशी का गीत है,तो उसे कैसे गाना चाहिए। यह एक बात उनके गायन से,उस दौर के बारे में मेरी समझ में आती है। मैं आपको इसे अपने ढंग से अगर बताऊँतो मेरे लिये गीत ऐसा होना चाहिए,जिसमें मैं पूरी तरह खो जाऊँ,ख़ुद को पूरी तरह मिटाकर भूल सकूँ। गीत के जो बोल हैं,उसकी जो धुन है,अगर वह दुःख के लिये बनाई गयी है,तो मैं यह कोशिश करती हूँ कि उसका प्रभाव इतना दुःख भरा निकले कि लोगों को हिचकी नहीं सुनाई दे,पर लगे कि वाकई कोई रो रहा है। यह कोशिश मैं ज्यादा से ज्यादा करती रही हूँ,ताकि फ़िल्म में जो सिचुएशन काम कर रही है,वह आसान हो जाये। गाते हुए गीत की शक्ल उभरनी चाहिए। यह नहीं हो सकता कि सैड सांग के समय कोई यह महसूस करे कि इसमें तो ग़म की बात ही नहीं दिखाई दे रही।

यतीन्द्र मिश्रः  इस लिहाज़ से आपका यह कहना है कि जो भी मनोदशाएँ जीवन में व्याप्त हैं,उसके अनुसार गाया जाना चाहिए और आपके दिमाग़ में इस तरह के अनुसरण के लिये आदर्श नूरजहाँ जी का रहा है।

लता मंगेशकरः  आदर्श का मतलब बस इतना ही नहीं। मैंने गानों के बोलों के साथ ये सब भी समझने की कोशिश की है कि एक गाना कैसा होना चाहिए,क्या होना चाहिए,किस तरह बयाँ होना चाहिए। नूरज़हाँ जी की स्टाईल को पसन्द करते हुए भी मैंने उनको फौलो नहीं किया,बल्कि यह सीखा- किस तरह गाने को बरता जाता है,जिसकी तमीज़ मैं ख़ुद के गायन में पैदा कर सकूँ।

यतीन्द्र मिश्रः  यह तो ठीक बात है,लेकिन जैसे कलाओं की दुनिया में होता रहा है कि कोई बड़ा से बड़ा फ़नकार,कलाकार किसी दूसरे कलाकार के काम को आदर्श की तरह देखता है या कि उसे बिल्कुल किताब की तरह पढ़ता है। ऐसे में उस जमाने में क्या आपको सबसे नेचुरल नूरज़हाँ जी की आवाज़ ही लगती थी?

लता मंगेशकरः  आवाज़ से ज़्यादा उनका एक्प्रेशन। वो उस ज़माने में एकदम नयी बात थी कि गाना ऐसा भी गाया जाता है। सैड सांग या लव सांग ऐसे भी गाया जाता है। नूरज़हाँ जी से अलग सहगल साहब एक अलग ही मुकाम पर मौजूद थे। हालाँकि सहगल साहब मर्द थे और उनकी स्केल या उनके सिगिंग टेम्परामेण्ट को पकड़ पाना मामूली बात नहीं है। उनके गाने में मुझे एक ही बात मिलती थी और वह हर तरह से परफेक्शन का मामला था। जैसे,उन्होंने दुःख के अब दिन बीतत नाहीं (देवदास) गाया है। वह कितना अच्छा और कमाल का गाया है। फ़िल्म में उनका किरदार बहुत दुःखी है और शराब पीकर बैठा हुआ है। वह गा रहा है और बहुत उदास है। अब यह जो उन्होंने एक्सप्रेशन दिया था,वह मुझे गहरे आश्चर्य में डालता है। मुझे बचपन से ऐसा लगता था कि यह गाना उन्होंने कैसे गाया होगा?गाते वक्त तो आदमी सिर्फ़ गाता है और रोता नहीं है। गाते हुए आप रो नहीं सकते या बहुत रो रहे हों,तो सुर में गा नहीं पायेंगे। तो उन्होंने कैसे रोने का आभास दिलाते हुए यह गीत गा दिया,वह कमाल की बात लगती है। ऐसे तमाम सिचुएशन जो हमें दिये जाते हैं,उसके लिये सहगल साहब की तरह गा पाना या कि नूरज़हाँ की तरह उस बात को एक्सप्रेस कर ले जाना मुझे हमेशा ही चुनौती भरा और सीखने वाला लगता रहा है। इसीलिये बिल्कुल शुरुआत से ही,जिसका जिक्र आप कर रहे हैं,मैं हमेशा दर्द के,प्रेम के या खुशियों के गीत को उन्हीं लोगों को ध्यान में रखकर सोचकर गाने की कोशिश करती थी।

यतीन्द्र मिश्रः  किन लोगों की आवाज़ ऐसी थी,जो आपको बहुत प्रभावित नहीं करती थी। या इसे इस तरह कहें कि बेहद नाटकीय ढंग की कुछ ऐसी आवाज़ें,जो फ़िल्म के सिचुएशन के साथ मौलिक ढंग के एक्सप्रेशन नहीं दे पाती थीं?

लता मंगेशकरः  मैंने इस तरह का अन्दाज़ा नहीं लगाया है,इसलिए कुछ कहना ठीक नहीं होगा। अलबत्ता यह जरूर है कि हमसे पहले गायन के क्षेत्र में सिनेमा की दुनिया में सक्रिय आवाज़ों से लगभग एक तरह का ही काम लिया जाता था। जैसे-जैसे संगीत के क्षेत्र में बदलाव आना शुरु हुआ,नये संगीतकार कुछ पश्चिम से प्रभाव लेकर,तो कुछ भारतीय लोक संगीत की धुनों को पकड़कर गीत रचने में आगे बढ़े,तो उसी के मुताबिक फ़िल्म की सिचुएशन रखने का और गानों को रेकार्ड करने का रिवाज़ प्रचलित हुआ। मेरे आने से पहले जो लोग थे,उनमें से किसी की आवाज़ तो ऐसी नहीं लगी,जो बहुत ख़राब या रिजेक्ट करने के लायक हो। कुछ लोगों का अन्दाज़ मुझे बहुत भाता था,जिनको सुनना तो मुझको पसन्द था ही,वे अलग से मौलिक आवाज़ें भी जान पड़ती थीं।लगभग एक ढर्रे पर विकसित गायिकी को थोड़ी देर के लिए अगर नज़र-अन्दाज़ कर दें,तो भी वहाँ पर तमाम लोग बढ़िया गा रहे थे। जैसे,जोहराबाई अम्बालावाली, अमीरबाई कर्नाटकी,पारुल घोष,सुरैया और राजकुमारी जी जैसी गायिकाएँ।

यतीन्द्र मिश्रः  आपकी संगीत-यात्रा का जो पूरा बाना है,उस संस्कृति में जो चीज़ अलग से रेखांकित किये जाने योग्य है,उसमें यह बात प्रमुखता से उभरती है कि आपने कभी अश्लील या गलत आशयों को सन्दर्भित गाने नहीं गाये। बहुत हद तक आपने  मर्यादा का पुनर्वास किया उस फ़िल्म इण्ड्रस्टी में,जहाँ कुछ भी चलता था,बस उसके होने की शर्त केवल लोकप्रियता या बाज़ार से निर्धारित होती थी। ऐसे में वह कौन सी बात है,जो आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित करती थी?

लता मंगेशकरः  जहाँ तक मेरा सवाल है,मैंने हमेशा अपनी शर्तों पर इस इण्डस्ट्री में काम किया है। मुझे शुरु से ही जो संस्कार मिले थे,उसमें एक बात पहले से ही तय हो चुकी थी,कि मैं जो भी करूँगी,उसका स्वरूप और सीमाएँ क्या होंगी। जहाँ तक फ़िल्मी गीतों का मामला है,तो वह किसी भी कलाकार से ज्यादा उसके निर्देशक,संगीतकार व गीतकार पर निर्भर करता है कि वे लोग फ़िल्म की सिचुएशन के हिसाब से हमसे क्या गवाना चाहते हैं। मैंने इस माध्यम के इस सीमित दायरे को बहुत पहले ही समझ लिया था और मुझे कहीं यह लगने लगा था कि जब इस इण्डस्ट्री में मुझे लगातार रहना और काम करना है,तो कुछ चीज़ें अगर शुरु से ही साफ कर ली जायें,तो आसानी रहेगी। इसमें यह अश्लीलता वाला भी मामला था,जिसके खिलाफ मैं डटी रही और अपनी पसन्द के कुछ बेहतर शब्दावली के गीत गा सकी। 

यतीन्द्र मिश्रः  कई बार आपको ऐसा नहीं लगता कि जो गीत आप बहुत पहले गा चुकीं,आज उसको कुछ दूसरे ढंग से गाना पसन्द करेंगी। बहुत सारे ऐसे गीत हैं,जो बहुत मकबूल हुए,सुपरहिट रहे और आज भी बेहद पसन्द किये जाते हैं। एक कलाकार की हैसियत से जो आपने लगातार ग्रो किया है,आपको कभी लगा हो कि मुझे यह पिछला गाना तो ऐसे गाना चाहिए था,जबकि मैंने उसे तो बिल्कुल दूसरी तरह से गा दिया है।

लता मंगेशकरः   नहीं,मुझे नहीं लगता है। मेरे मन में यह बात कभी आती ही नहीं। कमी ज़रूर ही दिख जाती है,मगर उसे फिर से गाने या सुनने का मन तो नहीं होता। मुझे ऐसा लगता है कि जो उस समय हो गया,वो हो गया। यह इसलिये भी क्योंकि फ़िल्म म्यूजिक में गुंजाइश नहीं होती है कुछ और करने की,तो जो हो जाये,वो अच्छा है। कभी-कभी बहुत अच्छा हो जाता है,तो अकसर ठीक ही रहता है। जो थोड़ा-बहुत ठीक हुआ है,वह वैसे ही सही लगता है। यह बात और है कि अगर कोई गाना बिल्कुल ठीक नहीं हुआ है,तो अलग बात है। हालाँकि मेरे मामले में ऐसी स्थिति शायद नहीं ही आई है.... और अगर आई हो,या दूसरों को ऐसा लगता है,तो हो भी सकता है क्योंकि कई बार गाने बनाने वाले भी कोई हल्का गाना बना डालते हैं। इस मामले में सिर्फ़ पार्श्वगायक या गायिका ही नहीं,संगीतकार और गीतकार भी जिम्मेदार हैं। इसी तरह मैं यह भी देखती हूँ कि कोई गाना जो हमने गाया हो,अगर वह नहीं चला,तो इसका मतलब है कि उसमें कोई न कोई कमी ज़रूर रही होगी। फिर यह भी देखने में आया है कि गाना बहुत अच्छा था,मगर न जाने किस कारण वो सुना नहीं गया या ऐसे ही बिसरा दिया गया। मुझे हँसी आती है यह देखकर,कि अधिकांश रेकार्ड कम्पनियाँ हम सभी के कुछ गानों को जब भूले-बिसरे गीतोंके लेबल से प्रसारित करती हैं,उनमें भी अधिकांश गाने सभी को याद होते हैं या कि अपने जमाने में सुपरहिट रहे होते हैं।

यतीन्द्र मिश्रः  मुझे तो आपके सन्दर्भ में यह भी लगता है कि अकसर फ़िल्म नहीं चली है,मगर गाने चले हैं। यह तो मैंने कई बार पाया है और मेरे ख्याल से बहुतेरे संगीतप्रेमी इस बात से सहमत होंगे कि फ़िल्म पिट गयी,मगर गाने सुपरहिट हुए। मिसाल के तौर पर एक फ़िल्म है शंकर हुसैन। शायद ही इस फ़िल्म को बहुत से लोगों ने देखा हो या इसके बारे में सुना हो... लेकिन इसके दोनों गाने,जो आपकी आवाज़ में हैं और जिसे ख़य्याम साहब ने संगीतबद्ध किया- आप यूँ फासलों से गुजरते रहेअपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैंशायद ही किसी संगीतप्रेमी और आपके प्रशंसकों की निग़ाह से अछूते रहे होंगे। ऐसे में आप क्या सोचती हैं?

लता मंगेशकरः  ठीक बात है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे भी अपने ये दोनों गाने बेहद पसन्द हैं। ख़य्याम साहब की धुनों और ज़ाँनिसार अख़्तर और कैफ भोपाली  की दिलकश शायरी के कारण भी। आपने जो बात कही है वह बेहद सही है फ़िल्म इण्डस्ट्री के बारे में। हिन्दी सिनेमा में हमने यह बहुत नज़दीक से देखा है कि अच्छे संगीत के बगैर कोई फ़िल्म ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाती। कई बार बीऔर सीग्रेड की फ़िल्में दर्शकों द्वारा आसानी से भुला दी जाती हैं,मगर उनके संगीत का रेकार्ड वर्षों बाद तक वैसे ही बिकता रहता है। मैंने ऐसी बहुत सारी फ़िल्मों में गाया है,जिनमें ज्यादातर धार्मिक और स्टण्ट फ़िल्में शामिल हैं। उनके गाने बहुत चले,मगर फ़िल्म के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। मेरे ख्याल से यह मेरा तज़ुर्बा ही नहीं है,बल्कि इसे मुकेश जी,रफ़ी साहब,किशोर दा और आशा भी महसूस करते होंगे। मेरे लिये बस इतना ज़रूरी है कि मैं जो गीत गाऊँ,वह अच्छे हों और बहुत दिनों तक याद किये जाएँ। फ़िल्म कैसी है और कैसी बननी चाहिए,यह मेरे अधिकार क्षेत्र का मामला नहीं है।

यतीन्द्र मिश्रः  आपने कई बार यह स्वीकारा है कि चाचा जिन्दाबादका गीत बैरन नींद न आयेही अकेला ऐसा गीत है,जो आपको गायिकी के लिहाज़ से बिल्कुल शुद्ध व सही लगता है। इसके पीछे कोई ख़ास वज़ह या तर्क?

लता मंगेशकरः   नहीं,ऐसी कोई वज़ह नहीं है,जो मैं आपको दे सकूँ। अपने गाये हुए गानों में मुझे यह सुनकर लगा कि मैंने इसे बिल्कुल ठीक ढंग से अंजाम दिया है। मसलन कई बार मुझे अपने गीतों को सुनकर यह लगा,कि इसमें मैं थोड़ी बेहतर तान ले पाती तो अच्छा होता या सुर को थोड़ा और नीचे से उठाया होता,तो ठीक रहता। यह गीत मुझे इस तरह की दिक्कतों से दूर लगता है इसलिए मैंने ऐसा कहा था। आपको एक सच्ची बात बताऊँ,जब भी किसी फ़िल्म में मेरा सेमी-क्लासिकल गाना आता है,तो मुझे अच्छा ही लगता है। मतलब कोई अगर उसको तरीके से रखे,ढंग से बनाये,तो वो मुझे अच्छा लगेगा। मदन भैया ने तो इतने सारे अच्छे गीत बनाये हैं,कि उनको गिनाना आसान नहीं। मैं इस बारे में यह भी कहना चाहूँगी कि गाने का मूड और रेकार्डिंग का मूड भी कई बार गानों को बड़ा और बेहतरीन बना देता है।

यतीन्द्र मिश्रः  शुद्ध रागदारी के सन्दर्भ में यदि हम संगीतकारों की बात करें,तो आप किनको शुरुआती पायदान पर रखती हैं। विशेषकर पहली,दूसरी और तीसरी सीढ़ी पर...।

लता मंगेशकरः  अनिल विश्वास,एस.डी. बर्मन,मदन मोहन,नौशाद साहब ये सब लोग... और किसी हद तक ख़य्याम साहब को रखना चाहूँगी,जो रागदारी को गम्भीरता से बरतते हैं।

यतीन्द्र मिश्रः  मुझे लगता है कि एक नाम,रोशन साहब का भी इसमें होना चाहिए।

लता मंगेशकरः  हाँ! रोशनलाल को मैं भूल गयी। वे बेहद अच्छे संगीतकार थे,उनकी रागदारी पर पकड़ इसलिए भी दिखाई देती है कि उन्होंने मैहर के विख्यात बीनकर उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ साहब से भी सीखा हुआ था। वे इतनी बढ़िया दिलरुबा बजाते थे,जिसका जवाब नहीं। हालाँकि उन्हें सारंगी और हारमोनियम का भी बख़ूबी ज्ञान था। वे अकेले ऐसे संगीतकार हैं,जिन्होंने मुझसे रागों की बन्दिशों को भी जस का तस गवाया। जैसे यमन की बन्दिश सखी ए री आली पिया बिनको राग-रंगमें और गौड़ मल्हार की बन्दिश गरजत बरसत भीजत अइलोको मल्हारमें। इसी तरह चित्रलेखाका गीत ए री जाने न दूँगीको साहिर साहब से लिखवाकर गवाया था,जो राग कामोद की बन्दिश को आधार बनाकर लिखी गयी और उसी राग में कम्पोज़ भी हुई।
यतीन्द्र मिश्रः  रोशन साहब ने और भी बहुत सुन्दर गाने आपके लिये बनाये हैं।

लता मंगेशकरः  जी। बेहद सुन्दर गाने। ख़ासकर- नौबहार’,ममता’,ताजमहल’,जिन्दगी और हम’,बहू बेग़म’,चित्रलेखा’,राग-रंग’,टकसाल’,आरती’,मल्हारऔर अनोखी रातके गाने।

यतीन्द्र मिश्रः  मुझे लगता है कि वे बड़े मुकम्मल संगीतकार रहे हैं,जिनका एक बड़ा पक्ष ग़ज़ल कम्पोजीशन को भी जाता है। हमारे यहाँ ग़ज़ल बनाने के लिए नौशाद साहब और मदन मोहन जी को ही अधिक श्रेय दिया जाता है,जबकि यदि गम्भीरता से आकलन किया जाये,तो रोशन साहब और ख़य्याम भी उसी श्रेणी में खड़े नज़र आयेंगे। रोशन की संगीतबद्ध फ़िल्मों,विशेषकर- बरसात की रात,ताजमहल,बहू बेग़म,दिल ही तो है,ममता और बाबर आदि में उनकी ग़ज़लों का मेयार देखने लायक है। आपका इस बारे में क्या सोचना है।

लता मंगेशकरः  बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। उनकी ग़ज़लें उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं,जितनी कि मदन भैया या नौशाद साहब की। इनमें उन कव्वालियों को भी जोड़ना चाहिए,जो उनको अलग से एक बड़े संगीतकार का दर्जा देती हैं। बरसात की रात,ताजमहल,बहू बेग़म और दिल ही तो है की उनकी कम्पोज़ की हुई कव्वालियों को भुलाना मुश्किल है। यह एक संयोग ही है कि इन सारी फ़िल्मों में मैंने उनके लिये गाया है,पर एक भी कव्वाली में मैं मौजूद नहीं हूँ।

यतीन्द्र मिश्र :   अगर हम समय के चक्र (टाईम मशीन) को घुमाकर सन् 1949-50में ले जायें,तो आपके फ़िल्मों से सम्बन्धित सांगीतिक जीवन की शुरुआत में खेमचन्द प्रकाश,शंकर-जयकिशन,हुस्नलाल-भगतराम जैसे म्यूजिक डायरेक्टर आते हैं और आपको एक मजबूत ज़मीन बनाने के लिए,आयेगा आने वाला (महल),हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का (बरसात) और चले जाना नहीं नैन मिला के (बड़ी बहन) जैसे गाने मिलते हैं। इससे एक नये युग का सूत्रापात होता है,जो कहीं आपके कद को बड़ा बनाने में मददगार रहता है। मैं यह जानना चाहता हूँ कि यदि उस जमाने में ए.आर. रहमान आये होते,जतिन-ललित आये होते,शंकर-एहसान लाय होते,तो ये सारे गाने कैसे बनते?उस समय आयेगा आने वालाकी आमद कैसी होती?


लता मंगेशकरः   (हँसते हुए) बड़ा मजेदार प्रश्न है आपका। कहना मुश्किल है इस पर क्या बोलूँ?समझ में नहीं आ रहा है कि वाकई अगर ऐसा हुआ होता,तो ये गाने कैसे बनते। यह विचार और कल्पना तो सुनने में अच्छी लगती है,पर मैं पूरी तरह इसका आकलन नहीं कर सकती कि आयेगा आने वालाको ए.आर. रहमान ने बनाया होता या हवा में उड़ता जाएको जतिन-ललित ने,तो कैसा प्रभाव पैदा होता। ... मगर मैं इतना ज़रूर जानती हूँ कि कुछ बहुत बढ़िया होता या बिल्कुल दूसरे अन्दाज़ में सामने आता,जिसकी शायद धुनें और तर्ज़ भी अलग होते। मैं आपसे प्रश्न करती हूँ कि जो मेरे गाने रहमान ने बनाये,या जतिन-ललित के लिये मैंने मेरे ख़्वाबों में जो आए(दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे) गाया है,उसे श्याम सुन्दर जी,नौशाद साहब या अनिल विश्वास ने रचा होता,तो आपके लिहाज़ से वह किस तरह बनता?यह वाकई बहुत रोचक और सोचने वाली बात है कि समय के हेर-फेर से हमारे गीतों का स्वभाव कैसा होता?इतना ज़रूर मैं कहना चाहूँगी कि पुराने समयों में,जब मैनें महल’,बड़ी बहन’,बरसात’,तराना’, ‘बाज़ारऔर ‘संगदिलजैसी फ़िल्मों के लिये पार्श्वगायन किया था,उस समय तकनीकी रूप से सिनेमा में बहुत तरक्की नहीं हुई थी। आयेगा आने वालामें मुझे कमरे से निकलकर दबे पाँव रेकार्डिंग वाले कमरे तक आना पड़ता था और उसी अनुपात में रेकार्डिंग के माइक पर स्वर का उतार-चढ़ाव कैद किया जाता था। बहुत सारे ऐसे गाने मुझे याद हैं,जिसमें कुछ विशेष प्रभावों को देने के लिये अनिल विश्वास,श्याम सुन्दर,सज्जाद हुसैन,सलिल चौधरी और सी.रामचन्द्र ने कुछ नये तरीके और अजीबोगरीब टोटके आजमाये थे,जिनसे गीतों में वह प्रभाव पैदा हो सका। आज,जो स्थिति है और जिस तरह हमारी तकनीकी विकसित हो चुकी है,उसमें अगर इन लोगों को काम करने का मौका मिलता,तब तो कमाल ही हो गया होता। न जाने कितना और अधिक एडवांस किस्म का ये लोग संगीत रच पाते, आप सोच सकते हैं। ठीक उसी तरह,जैसा सुन्दर और स्तरीय संगीत आज के संगीतकार बना रहे हैं। रहमान,जतिन-ललित और तमाम अन्य लोग,अगर पीछे जाकर काम करते,तो कितनी मुश्किलें आतीं और कितना संघर्ष करते हुए वे सब अपना गाना बनाते,इसका अन्दाज़ा भी लगाया जा सकता है। मेरे लिये भी यह कम चुनौती की बात नहीं कि मैं अनिल विश्वास की धुनों जैसा काम रहमान के साथ कर रही होती,और उसी तरह इन नये लोगों की धुनों पर नौशाद साहब के लिये रेकार्ड करती,तो कैसा होता?

'नया ज्ञानोदय'में पूर्व प्रकाशित 


70 के दशक की पत्रकारिता का 'सच्चा झूठ'

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एक जमाने तक हिंदी में कला और सिनेमा लेखन के पर्याय जैसे रहे विनोद भारद्वाजने हाल में ही एक उपन्यास लिखा है- 'सच्चा झूठ', जो 70 के दशक की पत्रकारिता को लेकर है. वह पत्रकारिता का वह दौर था जब साहित्य और पत्रकारिता में फर्क नहीं किया जाता था, जब बड़े बड़े साहित्यकार पत्रकारिता की दशा-दिशा निर्धारित कर रहे थे. लेकिन क्या वह पत्रकारिता का स्वर्ण काल था? यह जानने के लिए आपको उपन्यास पढना पड़ेगा. फिलहाल, उपन्यास को लेकर लेखक का वक्तव्य पढ़िए- मॉडरेटर 
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कुछ साल पहले मेरे चित्रकार मित्र मनजीत बावा जब कोमा में चले गये और एक दिन अखबार में इस खबर की उपेक्षा करते हुए पेज थ्री की सारी रंगीनियत के बीच हाथ में वाइन लिये एक पार्टी में एक सुन्दरी के साथ मैंने उनकी तस्वीरें देखीं, तो विचलित हो कर मैंने अपने पहले उपन्यास सेप्पुकुके तीन अध्याय लिख दिये। फिर उन्हें भूल गया। तीन-चार साल बाद दूरदर्शन की पत्रिका दृश्यांतरके प्रवेशांक के लिए सम्पादक अजित राय ने जब उस उपन्यास का एक चैप्टर छापने के लिए काफी जोर दिया, तो मैंने पुराने तीनों अध्याय भूल कर पूरा उपन्यास पूरा कर दिया। वाणी प्रकाशन के उत्साही मित्र अरुण माहेश्वरी ने उसे फौरन छाप दिया, तो मेरे मित्र और हिन्दी के अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे चर्चित समकालीन हिन्दी लेखक उदय प्रकाश ने जनसत्तामें इस उपन्यास की एक गम्भीर समीक्षा में कई महत्त्वपूर्ण सवाल उठाये। उसका अंग्रेजी अनुवाद मेरे टाइम्स के पुराने साथी ब्रज शर्मा ने किया और मुझे जब पेंग्विन और हॉर्पर कॉलिंस दोनों प्रतिष्ठित प्रकाशकों ने ऑफर भेजे, तो मेरा हौसला बढ़ा। कला की दुनिया पर मैं लिख चुका था पर हिन्दी पत्रकारिता की दुनिया पर लिखना बर्रे यानी शहद के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। मैंने दिनमानसाप्ताहिक में जब नौकरी शुरू की, तो वहाँ हिन्दी के तीन सबसे बड़े साहित्यकार मेरे कोलीग थे। मैंने इतने बड़े साहित्यकारों की जटिल मनोवैज्ञानिक ईर्ष्या को काफी हैरानी से करीब से देखा। बाद में अपनी साथी तीन महिलाओं की ईर्ष्या को भी मैंने देखा पर इस साहित्यिक ईर्ष्या के सामने वह भी फीकी थी। सच्चा झूठमें यही दुनिया है और उसका निर्मम विश्लेषण है। अमेरिकी लेखक हेमिंग्वे ने उपन्यास के चरित्रों के बारे में पते की बात की है। मैंने जब अपने दोनों उपन्यास पूरे कर लिये, तो हेमिंग्वे की यह बात इंटरनेट पर पढ़ने को मिली, “"People in a novel, not skillfully constructed characters, must be projected from the writer’s assimilated experience, from his knowledge, from his head, form his heart and form all there is of him”  दिनमान के जब बन्द होने की अफवाह जोरों पर थी, तो सम्पादक और प्रसिद्ध कवि-लेखक रघुवीर सहाय के साथ मैं बात कर रहा था कि अब हम क्या करेंगे? सेंस ऑफ ह्यूमर दिखाते हुए एक प्रस्ताव छोले-भटूरे का खोमचा लगाने का भी था। मैंने कहीं पढ़ा है कि मलयाली के एक चर्चित और अच्छे कवि मछली बेच कर अपना घर चलाते हैं। अंग्रेजी के एक बड़े प्रकाशक ने मुझे हिन्दी में एक सेक्स गाइड लिखने का ऑफर दिया, यह कह कर कि रॉयल्टी भी मिलेगी। अरुण जी मुझे क्षमा करेंगे वह तो नियमित रॉयल्टी दे रहे हैं पर हिन्दी के अधिकांश प्रकाशक रॉयल्टी को ले कर बदनाम रहे हैं। मैं मनोविज्ञान का छात्र था, फ्रॉयड और विलहेम राइक आदि सभी को पढ़ा था। प्रकाशक ने कहा एक नमूने का चैप्टर लिखिए, मेरे दादाजी उसे पढ़ना चाहते हैं। मैंने सेक्स और फैंटेसी नाम से एक चैप्टर लिखा। मित्र प्रकाशक ने मुझे बुला कर एक चेक दिया और कहा, “खेद है कि हम इसे नहीं छाप पायेंगे। अंग्रेजी में हम ये सब बेचते हैं। पर दादा जी कह रहे हैं कि हिन्दी में हमारे घर की बहू-बेटियाँ भी यह सब पढ़ेंगी।पर इस तरह के लेखन के खतरे भी हैं। ओरहान पामुक ने ‘इस्तांबुलकिताब लिखी, तो उनकी माँ ने उनसे बोलना बन्द कर दिया।

            आप देखेंगे, मेरे नये उपन्यास में इस सच्ची घटना का बिलकुल दूसरी तरह से इस्तेमाल है। मैंने दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य का शायद दो प्रतिशत भी नहीं पढ़ा होगा पर विश्व सिनेमा की सभी सर्वश्रेष्ठ फिल्में मैंने कई बार देखी हैं। इसलिए मेरी लेखन शैली पर सिनेमाई भाषा का जबरदस्त असर है। हिन्दी में सेक्स शब्द से ही पाठकों और समीक्षकों को बुखार आ जाता है। पर मैं कभी सेक्स का ग्राफिक चित्रण नहीं करता हूँ। उसका उल्लेख खास तरह से होता है। मिसाल के लिए एक प्रसंग में उपन्यास में एक कम पढ़ी-लिखी लड़की हमारे इंटेलेक्चुअली स्मार्ट नायक को मास्टरबेशन के बारे में टिप्पणी कर के लगभग बेहोश कर देती है। यह एक तकनीक है। वाणी प्रकाशन के सम्पादकीय विभाग में मेरे नाम के एक वरिष्ठ मेहनती सहयोगी विनोद भारद्वाज हैं। उन्होंने मेरे उपन्यास के प्रूफ पढ़ कर कहा आपके उपन्यास में पठनीयता तो है। मैं इसे एक अच्छा सर्टिफिकेट मानता हूँ। आप इसे खरीद कर पढ़िए। मेरी एक थ्योरी है कि मुफ्त में दी किताबों को लोग रद्दी की टोकरी में डालने में देरी नहीं करते हैं।

            मैं वाणी प्रकाशन के अदिति सरीखे योग्य युवा प्रतिनिधियों को स्थापना दिवस पर मन से बधाई और शुभकामनाएँ देता हूँ।


'सच्चा झूठ'नामक उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है 

ख्वाजा अहमद अब्बास की पटकथा और 'नीचा नगर'

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करीब 60 साल पहले बनी चेतन आनंद की फिल्म'नीचा नगर'हिंदी सिनेमा में सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली आरंभिक फिल्मों में थी. जिसकी पटकथा लिखी थी ख्वाजा अहमद अब्बास ने. ख्वाजा अहमद अब्बास की जन्म शताब्दी पर सैयद एस. तौहीदकी पेशकश- मॉडरेटर.
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विश्व सिनेमा से प्रेरणा लेते हुए भारत में भी यथार्थवादी फिल्मों का निर्माण हुआ। हमारे सिनेमा में सामानांतर प्रवाह की आवश्यक धारा शुरुआती जमाने से ही बनी रही । बाबूराव पेंटर की साहूकारी पाश एक मायने में ऐतिहासिक थी । शाषक वर्ग की दमनकारी नीतियों के संदर्भ में साहूकारी पाश’  दस्तावेज से कम नहीं थी।  इस मिजाज की फिल्में समानांतर प्रवाह का उदगम बनी। व्यवसायिक सिनेमा के बाज़ार में नए धारा का परचम लेकर चलने वाले फिल्मकारों की विरासत की प्रशंसा करनी चाहिए। आज का सिनेमा व्यवसायिक एवं नवीन धाराओं का मंथन कर रहा। अलग करने के जुनून में नयी पीढी सकारात्मक विकल्प बनाने में सफल रही है। नयी पीढी का एक खेमा चीजों को अलग ढंग से ट्रीट कर रहाअलग फिल्में बनाने का जज्बा लेकर चल रहा। दूसरा व्यवसायिक विषयों को उठा रहा।  लेकिन चालीस का दशक किस तरह का रहा होगा ? उस जमाने में भी सामानांतर का चिराग जला हुआ था। कहना चाहिए कि चिराग वहीं से आज को पहुंचा है। 

प्रगतिशील आंदोलन ने कला के हर प्रारूप से जुडे लोगों को प्रभावित किया था। लेखक फिल्मकार व फनकारों की एक जमात ने प्रगतिशील विचारों का जिम्मा उठा रखा था। प्रगतिशील हलचल के प्रांगण में भारतीय जन नाट्य संगठन अथवा इप्टा के आशियाने से बहुत से फनकार व अदीब जुडे रहे। समाज हित का जज्बा लेकर चलने वाले इस संस्था ने नीचा नगरसरीखा वैचारिक फिल्में उस समय दी। सामाजिक यथार्थ की इस तस्वीर को रिलीज के अगले साल ही ख्यातिनाम कांस फिल्म महोत्सव में ग्रेंड प्रिक्स अवार्ड से सम्मानित किया गया। क्रांतिकारी व सामाजिक संवाद की मुखर इस फिल्म को व्यवसायिक रिलीज कभी नहीं मिल सका। फिल्म सामारोहों में बेशक खूब प्रशंसा मिलीकांस फिल्म सामारोह में मिली प्रतिष्ठा को याद रखना चाहिए। नीचा नगर को भारतीय सिनेमा की बडी उपलब्धि माना जाता है । अंतराष्ट्रीय स्वीकृति ने फिल्मकार चेतन आनंद व लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास समेत कलाकार व तकनीशियनों को मशहूर कर दिया। नीचा नगर की कामयाबी बाद खुद की स्वतंत्र पहचान बनाने वालों में ख्वाजा अहमद अब्बास व चेतन आनंद एवं मोहन सहगल फिर पंडित रविशंकर तथा कामिनी कौशल का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।

विषय को सामने लाने वाली समकालीन कहानियों की तरह अब्बास की यह कहानी समकालीन वर्ग संघर्षों को व्यक्त कर रही थी। अमीरी के अकेलेपन में डूबा जमीनदार पहाडों पर शाषक की जिंदगी गुजार रहा। जबकि पहाडों के आरामों से दूर समतल जमीनों पर गरीब कामगार लोग जिंदगी के आधारभूत चीजों के लिए कडा संघर्ष कर रहे। इन हालात को शोषित तबकों ने अपनी तकदीर सा मान लिया था क्योंकि विरोध नहीं करना सीखा था। जिंदगी की कठोरता का उन्हें उतना नहीं तकलीफ देती जितना अपनी जमीन व घर की फिक्र । आज के दयनीय हालात पर अफसोस करने से अधिक उन्हें जीवन की जमा पूंजी की चिंता थी। दुखी के लिए जमीन का चिथडा व सर छुपाने की छत जीवन से जरूरी होती है। घोर गरीबी व शोषण के हालातों के मददेनजर गरीबों का एक टुकडा सुख बेशकीमती  था । जमीन के लोगों की पीडा को शाषक जमीनदार ने घोर गंभीर बना दिया । पहाडों पर रहने वाला मालिक पानी छोडने वक्त नहीं सोंचता कि समतल इलाके के गरीब लोगों की पूंजी बर्बाद हो जाएगी। पहाडों से निकली पानी की बडी मात्रा गरीबों को मिटा देने के लिए पर्याप्त थी। यहां तबाही महामारी के रूप में जिंदगियों को लील रही । 

शोषण के इस प्रारूप का एकजुट विरोध कमजोर करने के लिए ईमान की खरीद फरोख्त काम नहीं आई। शोषितों की गहराती पीडा व असंतोष कब तक खामोश रह सकता था ? मुखर क्रांति हुक्मरान को शोषित से भी कमजोर कर देने के लिए पर्याप्त होती है । संगठित विद्रोह के सामने शाषक मजबूर हो गया। पटकथा लेखक अब्बास ने मेक्सिम गोर्की एक कथा को आधार बनाया था। यह कामगार व बुर्जुआ वर्गों के संघर्ष की कहानी थी। यथार्थ की कडवाहट के साथ पेश किया गयी इस कहानी में सहज चिन्हों व प्रतीकों को कथन में शामिल किया गया। यह क्लासरूम में मिली फिल्म शिक्षा के बहुत समीप अनुभव था। बहुत कुछ फ्रिट्ज लांग की महान पेशकश मेट्रोपोलीस किस्म की फिल्म। वहां वर्ग संघर्ष अत्यंत स्पष्टता के साथ निरूपित हुए थे। मेट्रोपोलीस की कथा में शाषक खुली जमीन के टुकडे पर अमीर जिंदगी गुजार रहाजबकि निर्धन मजदूर भूमिगत बदतर घरों में जीने को मजबूर थे। नीचा नगर में बुर्जआ व कामगार के दो वर्गों के ताने बाने में कहानी कही गयी। दुखद बात यह रही कि फिल्म से कामगार वर्ग का संघर्ष व एकजुटता परोक्ष रूप से ना जाने क्यों कमजोर हो गया। समय के साथ सिनेमा में बाजार की शक्तियां अधिक प्रखर हो गयी हैं।


फिल्म में सदियों के ज्वलंत संदर्भ शाषक व शोषित वर्ग को विषय बनाया गया। समकालीन वर्ग परिस्थितियों की यथार्थ स्थिति को सेल्युलाइड पर लाने की सार्थक पहल थी। परतंत्रता की बेडियों में जकडे देश के आम लोगों पर मालिक का शोषण व अत्याचार को व्यक्त किया गया। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदारों के हांथों गरीब व वंचित पर अत्याचार होते थे। ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी में समाज के दुखों को व्यक्त करने का जज्बा था। समाजवाद की गहरी टीस से उपजी कहानी में शोषण पर विमर्श था। फिल्म की वैश्विक स्वीकृति ने यह बताया कि शोषण को प्रकाश में लाकर ही उसे खत्म किया जा सकता है। चेतन आनंद का विषय अनुकूलन व प्रस्तुत छायांकन का उत्तम दर्जा तथा अब्बास की सीधी सच्ची कहानी फिल्म की खासियत थी। याद करें दृश्य जिसमें प्यास की शिददत से तडपता बालक जो गंदे बदबूदार पानी पीने को मजबूर था। अब्बास ने कहानी में केवल अत्याचार अथवा शोषण व पीडा ही नहीं अपितु इंसानियत के फूलों को गुंथा था। लीनियर तकनीक से लिखा गए कथाक्रम में विषय को पूरी शिदद्त से रखा गया। यथार्थ से अवगत करने का कडवा किंतु सादा सच्चा व दिलों को जीत लेने वाला तरीका।

'हैदर'देखिए, बशारत पीर की किताब पढ़िए

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मेरे हमनाम हैं प्रभात रंजन. कल उन्होंने 'तहलका'में लिखी शुभम उपाध्याय की लिखी हैदर फिल्म की समीक्षा साझा की. लिखने का अंदाज अच्छा लगा तो साझा कर रहा हूँ- प्रभात रंजन
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'हैदरगोल-गोल कंटीली बाड़ों से हर तरफ लिपटा हुआ एक इंद्रधनुष है. वे कंटीले तार जो उन शहरों में बिछते हैं जिन्हें आर्मी अपना घर बना लेती है. कश्मीर में. हर तरफ. फिल्म के पास हर वो रंग है जो जिंदगी के साथ आता है, लेकिन क्योंकि कश्मीर है, त्रासदी की कंटीली तारों से झांकने को हर वो रंग मजबूर है. वो फिर भी खूबसूरत है, रिसता है, बदले की बात करता है, खून के छींटे उछालता है, मगर खालिस सच दिखाता है.

फिल्म के पास क्या नहीं है. कब्रों को खोदते फावड़ों का शोर, कब्रों को दड़बे बनाने का हुनर, झेलम की रक्तरंजित गाथा, श्रापित इंसानियत, और सच दिखाने का साहस. हैदर का साहस देखिए, पागलपन को जो आवाजें राष्ट्रभक्ति कहती हैं उन्हीं की दुनिया में वो बन रही है, हमें उधेड़ रही है, कुरेद रही है. वो फिल्म के रूप में भी उत्कृष्ट है और जो बात कहना चाहती है उसमें भी गजब की ईमानदार. वो कभी जिंदगी की खाल खींचती है कभी खींची खाल वापस लगाकर सहलाती है. वापस खींचने के लिए उसे फिर तैयार करती है.

मगर आप हेमलेट से तुलनात्मक अध्ययन करके हैदर का मजा मत खराब करिएगा. विशाल पर विश्वास करिएगा. वे हैं तो शेक्सपियर को भी थोड़ा बदलेंगे ही, और नया कुछ कहेंगे ही. हैदर के लिए उनके पास हेमलेट भी था और बशारत पीर भी. और उनकी किताब कर्फ्यूड नाइटभी. किताब के बशारत पीर के निजी अनुभवों को फिक्शन के साथ जोड़ने की विशाल की अद्भुत कला ने ही फिल्म को दुर्लभ दृश्य भी दिए हैं. आइडेंटिटी कार्ड लेकर परेड करने का दृश्य हो या एक स्कूल में बना इंटेरोगेशन सेंटर. एक बार जब विशाल कश्मीरी जिंदगियों की नब्ज पकड़ लेते हैं, तब हेमलेट को लाते हैं. शाहिद कपूर को लाते हैं. फिल्म के शुरूआत में शाहिद को किरदार हो जाने में जो कसमसाहट होती है, साफ दिखती है. मगर धीरे-धीरे जब वे रवां होते हैं, क्या खूब अभिनय करते हैं. लाल चौक पर वो अभिनय के सर्वोत्तम मुकाम को छूते हैं,‘टू बी और नाट टू बीको हिंदी आत्मा देते गुलजार के शब्दों का शरीर हो जाते हैं, और बिसमिलमें हमें बताते हैं कि अगर चाहो तो नृत्य भी अभिनय हो सकता है. लेकिन अभिनय जब साक्षात दर्शन देता है, समझ लें वो के के मेनन के रूप में आता है. उन्होंने अपनी नसों में भर के हैदर के चाचा का किरदार जिया है. और वे सर्वश्रेष्ठ होते अगर फिल्म में तब्बू नहीं होतीं.

फिल्म जहां-जहां धीमी होती है, हेमलेट से न्याय करने के चक्कर में, वहां भी उसके पास तब्बू हैं जिनका सिर्फ चेहरा ही अभिनय की पाठशाला है यहां. यही चेहरा कश्मीर की सारी बेवाओं, सारी ब्याहताओं के दर्द को सामने लाने का बीड़ा उठाता है. या शायद आधी बेवाओं और आधी ब्याहताओं का. हैदर और उसकी मां के रिश्ते को जिस साहस से विशाल परदा देते हैं, हमारे सिनेमा में ऐसी हिम्मत इससे पहले कभी नहीं रही. इसके अलावा इरफान खान हैं, जिनकी राकस्टार एंट्री दिलचस्पी बढ़ाती है. बेहद छोटे रोल में कुलभूषण खरबंदा हैं, एक जरूरी संवाद के साथ, जिसे सुना जाना चाहिए. और भुलाये जा चुके नरेंद्र झा हैं, हैदर के पिता, जिनके ईमानदार अभिनय को देखकर अच्छा लगता है. बहुत अच्छा.


कुछ चीजों की तलब जरूरी है. इसलिए हैदर देखिए. बशारत पीर की किताब पढ़िए. ठंड आने से पहले कुछ तो समझदार काम करिए.

चेतन भगत लेखन की दुनिया के सलमान खान हैं

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चेतन भगत के नए उपन्यास 'हाफ गर्लफ्रेंड'की बुकिंग अगस्त में की थी, अक्टूबर में रिलीज होते ही मुझे भी मिल गई. उपन्यास में उनके परिचय में लिखा है कि वे छह ‘ब्लॉकबस्टर’ उपन्यास लिख चुके हैं. वे संभवतः भारत के पहले लेखक हैं जिन्होंने बेस्टसेलर को ब्लॉकबस्टर बना दिया. उनकी तुलना भारत के किसी लेखक से नहीं की जा सकती है. असल में वे लेखन की दुनिया के सलमान खान हैं, हर फिल्म रिलीज होने से पहले ही सैकड़ों करोड़ कमाने के लिए बदी होती है, सलमान खान की तरह उनका मुकाबला कमाई के मामले में किसी और से नहीं अपने पिछले उपन्यास से होता है. सलमान खान अभिनेता नहीं हैं फिनोमिना हैं, चेतन भगत भी लेखक नहीं फिनोमिना हैं, जिन्होंने मैनेजमेंट, आईआईटी के पढ़े लिखे नौजवानों को लेखन के रूप में एक बिजनेस मॉडल दिया, जिसमें चोखी कमाई है, ग्लैमर है. ऐसे ही अमेरिका की फ़ास्ट कम्पनी उनको बिजनेस के क्षेत्र में दुनिया के सौ सबसे रचनात्मक लोगों में थोड़े गिनती है. सलमान खान ने सिनेमा को सफल बिजनेस का मॉडल बना दिया, चेतन भगत ने लेखन को.

आप कहेंगे कि मैंने शुरुआत में कहा था कि मैं चेतन भगत के नए उपन्यास ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ से की थी, तो इतना और अर्ज कर दूँ कि सलमान खान की 100 करोड़- 200 करोड़ बिजनेस करने वाली फिल्मों को देखने के बाद आप-मेरे जैसे दर्शकों को क्या हासिल होता है? चेतन भगत को पढ़ते हुए भी हासिल होता है तो बस यही कि सफलता का एक और नया फॉर्मूला. और सच बताऊँ हर बार एक ऐसा नया फॉर्मूला दे जाते हैं कि बस पढने वाले उसके सूत्र को खोजते रह जाते हैं.

न्यूयॉर्क टाइम्स का कहना है कि चेतन भगत भारत के अब तक के सबसे बिकाऊ लेखक हैं. सो इस उपन्यास से और पुख्ता होगा. ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ की कहानी पर आता हूँ. ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ फिल्म से सीक्वेंस आधारित पटकथाओं पर फिल्म बनाने का जोर बढ़ा था. इस उपन्यास की कथा भी सीक्वेंस में हैं. पटना के चाणक्य होटल में लेखक को डुमरांव की खस्ताहाल रियासत का राजकुमार माधव झा मिलता है. उसके बाद कहानी दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में प्रवेश कर जाती है जहाँ माधव झा बास्केटबॉल के कोटे पर दाखिला पाता है, जहाँ रिया सोमानी उसके जीवन में आ जाती है, फिर चली जाती है.

कहानी का दूसरा सीक्वेंस डुमरांव में चलता है माधव झा जहाँ अपनी माँ रानी साहिबा के खस्ताहाल स्कूल में काम करने के लिए लौट जाता है एचएसबीसी के 50 हजार की नौकरी को लात मारकर. उसके स्कूल की हालत सुधारने के लिए बिल गेट्स का दौरा होने वाला होता उसके लिए माधव अंग्रेजी में भाषण देने के लिए पटना में अंग्रेजी सीखने के एक कोचिंग में दाखिला लेता है(कमाल है बन्दा स्टीफेंस में पढ़कर भी अंग्रेजी नहीं सीख पाया, जबकि वहां से सैंस ऑनर्स करने वाले मेरे दोस्त भी अंग्रेजी में गिटपिट करने लगते थे), और चमत्कार होता है अपने शादी से डेढ़ साल में छुटकारा पाकर रिया पटना आ जाती है उसे अंग्रेजी सिखाती है और जिस दिन उसके अंग्रेजी भाषण का फल यानी बिल गेट्स का दान मिलता है उसी दिन गायब हो जाती है.

उपन्यास की कहानी का तीसरा सीक्वेंस है न्यूयॉर्क का. डुमरांव से माधव झा रिया की तलाश में वहां चला जाता है. जाने से पहले रिया एक चिठ्ठी जो छोड़ गई थी और पहली बार उसको आई लव यु भी लिख गई थी. अपने पहले और सच्चे प्यार की तलाश में नायक को न्यूयॉर्क तो जाना ही था न. बस इतना सा हिंट था माधव को कि रिया का सपना था कि वह अपने माता-पिता, पति सबकी अकूत दौलत को छोड़कर न्यूयॉर्क में रेस्तरां में सिंगर बनेगी. बस बन्दा तीन महीना लगाता है और सच्चे प्यार को पा लेता है.

यही है एक ब्लॉकबस्टर उपन्यास लिखने वाले लेखक के नए ब्लॉकबस्टर उपन्यास की कहानी, जिसके एक पक्के ब्लॉकबस्टर फिल्म बनने का चांस है. इधर मैं ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ पर लिख रहा हूँ उधर टीवी पर खबर आ रही है कि इस पर फिल्म बनाने की घोषणा हो रही है और माधव झा के किरदार के लिए रणवीर कपूर या रणवीर सिंह से बात चल रही है.

हाफ गर्लफ्रेंड को फुल वाइफ बनाने में आजकल बड़े पापड बेलने पड़ते हैं. लेकिन एक बात है बन्दे ने रिसर्च अच्छा किया है. लिट्टी चोखा खाने के लिए वह मौर्या लोक जाता है, जहाँ सच में बहुत अच्छा लिट्टी चोखा मिलता है. लेकिन डुमरांव का राजा झा जी को बना कर गलती कर गए भगत बाबू. लेकिन फिक्शन में तो सब चलता है न.

260 पेज के उपन्यास को पढ़ें का यही हासिल है कि उपन्यास वही पढना चाहिए जिसे आप दिल्ली से पटना के डेढ़ घंटे की एक फ्लाईट में पढ़ सकें. कीमत भी कम हो और ड्रामा, मेलोड्रामा कम्बाइन हो, exotic लोकेशन हो, सुशी से लेकर लिट्टी चोखा तक सब हो, और हाँ अपने पटना वाला चाणक्य होटल हो, गाँव, देहात से लेकर न्यूयॉर्क के लाइफ की रंगीनी हो. अब 149 रुपये के उपन्यास में आ क्या चाहते हैं.

इतना सब कुछ एक उपन्यास में देने वाले चेतन भगत बाबा की जय हो.


वैसे और कुछ दिया हो या नहीं दिया हो भगत बाबा ने फिल्म के किसी लोकप्रिय डायलौग की तरह नई पीढ़ी को एक नया मुहावरा तो दे ही दिया है- हाफ गर्लफ्रेंड!  

इतिहास की सच्ची अदायगी है 'हैदर'

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'हैदर'फिल्म जब से आई है तब से तब से उसकी कई ख़ूबसूरत समीक्षाएं पढ़ी. एक साझा भी किया था. कल युवा साथी मोहम्मद अनसकी लिखी यह समीक्षा भी उनके ब्लॉग पर देखी थी. चाहता तो था कि आज सुबह ही साझा करूँ. लेकिन दिल्ली से बाहर होने के कारण समय पर साझा नहीं कर पाया. अब उनके लिए जिन्होंने नई डायरी नामक ब्लॉग पर न पढ़ी हो- प्रभात रंजन 
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आपने कश्मीर को सनी देओल की फिल्मों में देखा है तो इस बार इरफ़ान,तब्बू,शाहिद,श्रद्धा और के के मेनन की फिल्म हैदरमें देख आना बहुत ज़रूरी हो जाता है. कश्मीर और कश्मीरियत अपने वजूद के वक्त से लगातार जिन संघर्षों के दौर से गुजर कर, टूट कर, लड़खड़ा कर फिर से उठ खड़ी, चल पड़ी होती है उस तरह का उदाहरण इतिहास में कहीं और नहीं मिलता.

मैंने पचास की उम्र पार किए लोगों की पीठ पर गो इंडिया गो बैकके नारे लगाने की एवज में डंडो और तारों के ऐसे निशान देखें हैं जिसे दिखाने की एक ईमानदार कोशिश विशाल भारद्वाज ने फिल्म में की है. आज़ादी की अपनी तरह की यह लड़ाई कब हिंसक रूप अख्तियार कर बैठी इसका पता तब चला जब घाटी की बहुत सी औरतें आधी विधवा कहलाई जाने लगी. सरहद के उस पार से बरगलाने और इस ओर से तड़पाने का जो सिलसिला अस्सी और नब्बे के मध्य से शुरू हुआ वह ख़त्म होते होते ऐसे दर्द छोड़ गया जिससे उभरने में हजारों लाखों कश्मीरी तबाह हो गए.

हैदर, भारतीय सिनेमा के वर्तमान और इतिहास के अद्भुत राजनीतिक सच्चाई के बतौर दर्ज़ किया जाएगा.

मैं हूं कि मैं नहीं हूं. जैसा चुभता सवाल दोनों ओर उछाला जाता है.इस तरह के सवाल से न तो दिल्ली सहज हो पाती है और न ही इस्लामाबाद. लेकिन यह सवाल तो वहां का अंतिम सच है जिसे हम किसी राष्ट्रवाद की केतली में चाय के तौर पर उड़ेल चुस्की के बतौर नहीं ले सकते और न तो जेहाद के नाम पर इसकी चुभन को कम कर सकते हैं. स्वाद तो इसका कहवा जैसा ही रहेगा. तासीर भी झनझनाहट और झकझोरने जैसी होगी.

हैदर की कहानी भ्रम, भरोसा से आगे निकलते हुए इंतक़ाम के उन अनछुए पहलुओं से रूबरू करवाती है जिसमे एक अलीगड़ियन कश्मीरी अपने अब्बू, मोजी, चचा, महबूबा, मुजाहिदीन और फौज के बीच के फर्क को खोजते हुए खो जाता है. सब कुछ में इतना मेल नज़र आता है की वह हैरानी के चरम पर पहुँच कर जो हो रहा है उसमे बहता चला जाता है. लकड़ी के बने घरों पर ग्रेनेड दाग कर जो दाग हुकूमतों ने कश्मीरियों को लगाएं उसका साफ़ असर आज़ादी की उस मांग के कमज़ोर हो जाने में दिखाई देने लगी है जिसमे खुर्रम नज़र आता है.

रिश्तों को सहेजने और उसे बचाने के लिए निकले हैदर ने आखिर वक्त आते आते उन सभी रिश्तों को खुद से इतनी दूर चले जाने दिया जहां से दुबारा लौट आने की उम्मीद न के बराबर होती है. कश्मीर का नौजवान फिलहाल तो उस दौर से निकल आने की बात करता है लेकिन इंतक़ाम की टीस उनके भीतर कहीं न कहीं होती ही है. फिलहाल कश्मीर मिलिटेंसी के भयानक समय से निकल आया है लेकिन आफस्पा की शक्ल में चूतस्पा आज भी कश्मीरियों को अपने घरों से बाहर निकलने पर कश्मीरी होने की बर्बर सज़ा दे रहा है. विशाल ने हैदरबनाई है वह भले ही प्रासंगिक और सामयिक न हो पर इतिहास की सच्ची अदायगी ज़रुर कही जा सकती है और बहुत हद तक उसने 'कश्मीर का क्या होगा'जैसे सवाल ज़िंदा कर दिए हैं हम सबके सामने.

भारत माता की जय, कश्मीर में कैसे उगलवाया जाता है, उससे 

आप यह अनुमान लगा सकते हैं की कश्मीरी अपनी पहचान के लिए कितने गंभीर हैं. उनकी लड़ाई उनका अपना राष्ट्रवाद है.

बशारत पीर ने जो लिखा है वह मिटाया नहीं जा सकता पर सेंसर बोर्ड ने काफी कुछ मिटाते हुए फिल्म को इजाज़त दे ही दी. फैज़ और गुलज़ार की रूहानी अलफ़ाज़ अदायगी ऐसा लगता है की फज़िर की नमाज़ के बाद आर्मी कैम्प में कैद किए गए कश्मीरी और डल लेक के ऊपर से बह कर आती हवाओं के बीच एक दूसरी के गम को बांट लेने और दर्द को सुन लेने की होड़ सी मची हो. पूरी फिल्म ही दर्द की ऐसी बारिश नज़र आती है जिससे बचने की कोशिश हम भले ही कितनी कर लें लेकिन बहे बिना नहीं रह सकते.

नरेंद्र झा अगर डॉ हिलाल मीर न बने होते तो वो गुम भी न होते और न रूहदार(इरफ़ान खान) से आर्मी कैम्प में उनकी मुलाक़ात होती. रूहदार ने इंतक़ाम का जो पैगाम अर्शिया(श्रद्धा कपूर) के हाथों हैदर(शाहिद कपूर) तक भिजवाया था उस पैगाम ने फिल्म की सारी कहानी का रुख तय कर दिया. गज़ाला मीर( तब्बू) पर इल्ज़ाम लगाया भी जाए तो आखिर कैसे और किन वजहों से. उस रात खुर्रम (के.के. मेनन) को फोन करके डॉ साहब और मिलिटेंट वाली बात बताने के लिए. पर गज़ाला को तो यह पहले ही नापसंद था, की कोई सब कुछ को दांव पर लगा कर, कैसी आज़ादी पाना चाहता है. गज़ाला उस किरदार की पूरी अदायगी है जहां बिस्तर, बाकी हर चीज़ से पहले की बात होती है. खुर्रम से गज़ाला इश्क़ करती थी या नहीं, यह तो नहीं मालूम पर इतना तो कहा जा सकता है कि इश्क़ के कई तेवर होते हैं, उसका रंग बिल्कुल वैसा नहीं होता जैसा हम देख रहे होते हैं. कुछ सेक्स भी होता है जहां इश्क़ होता है. कुछ लोग उसे देखते हैं लेकिन उस पर ज्यादा गौर ओ फ़िक्र नहीं करते. हैदर में बिल्कुल वही है. बहुत कुछ देख कर भी आप बहुत कुछ नहीं देख पाएंगे. दिखाई दे जाए वह इश्क़ कहां रह गया फिर. माँ के तौर पर गज़ाला जहां पूरी तरह डूबी वहीँ आखिर आते आते माशूका और बीवी के लिहाफ को उतार फेका.

खुर्रम ने डॉ साहब को फौज के हवाले करवा कर गज़ाला की उन मुश्किलों को ज़रूर आसान बनाया था जिससे वह नतीज़े के बारे में सोचे बिना फैसले ले सके. हैदर अपने अब्बू की कब्र तक तो पहुँच चुका था पर उसने अपनी माँ खो दी थी. एक मुर्दा के लिए हैदर का जुनून और जद्दोजहद कमाल का है, क्योंकि उसमे जिंदा लोगों से इंतकाम छुपा है. अर्शिया अपने बाप के क़ातिल से भला कैसे मोहब्बत करती जिस बाप ने उसे जल्लाद भाई की पाबंदियों से आज़ाद रहने की छूट दी थी उसका कत्ल हो चूका था,अंजाने में ही सही हैदर से यह जुर्म हो चूका था.


हाथ से बुना मफ़लर कंधों और ज़मीन से होता हुआ अर्शिया के बदन पर खुला पड़ा था और एक राजनीतिक कहानी का अंत मोहब्बत और रिश्तों की उन अबूझ पहेलियों में समा जाता है जहां खुर्रम की कटी टांगों, गज़ाला के उधड़े जिस्म, डॉ साहब की तस्वीर और अर्शिया की कफ़न में लिपटी लाश पड़ी होती है. हैदर कहीं खो जाता है.

http://nayidiary.blogspot.in से साभार 

मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ/ जिससे यारी है उससे यारी है

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आज अख्तर नज्मीकी कुछ ग़ज़लें. इनके बारे में इतना ही पता है कि इनका जन्म 1930 में हुआ और 1997 में इंतकाल. आज प्रचण्ड प्रवीर की इस प्रस्तुति का लुत्फ़ लीजिये और इस शदार शायर के बारे में हमारा ज्ञानवर्धन कीजिए- मॉडरेटर 
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जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ।
या किसी और तलबगार को दे देता हूँ।

धूप को देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये
और साया किसी दीवार को दे देता हूँ।

जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे
वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ।

मुतमइन अब भी अगर कोई नहीं है, न सही
हक़ तो मैं पहले ही हक़दार को दे देता हूँ।

जब भी लिखता हूँ मैं अफ़साना यही होता है
अपना सब कुछ किसी किरदार को दे देता हूँ।

ख़ुद को कर देता हूँ कागज़ के हवाले अक्सर
अपना चेहरा कभी अख़बार को देता हूँ ।

मेरी दुकान की चीजें नहीं बिकती नज़्मी
इतनी तफ़सील ख़रीदार को दे देता हूँ।

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कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के पत्थर नहीं फेंके
वो ख़त भी मगर मैंने जला कर नहीं फेंके

ठहरे हुए पानी ने इशारा तो किया था
कुछ सोच के खुद मैंने ही पत्थर नहीं फेंके

इक तंज़ है कलियों का तबस्सुम भी मगर क्यों
मैंने तो कभी फूल मसल कर नहीं फेंके

क्या बात है उसने मेरी तस्वीर के टुकड़े
घर में ही छुपा रक्खे हैं बाहर नहीं फेंके

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अपना अपना रास्ता है कुछ नहीं
क्या भला है क्या बुरा है कुछ नहीं

जुस्तजू है इक मुसलसल जुस्तजू
क्या कही कुछ खो गया है कुछ नहीं

मुहर मेरे नाम की हर शय पे है
मेरे घर मे मेरा क्या है कुछ नहीं

कहने वाले अपनी अपनी कह गए
मुझसे पूछ क्या सुना है कुछ नहीं

कोई दरवाजे पे है तो क्या हुआ
आप से कुछ मांगता है कुछ नहीं
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सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है
ये ज़मी दूर तक हमारी है

मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है

हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा
हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है

मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद
जिस इमारत पे संगबारी है

नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने
अब समन्दर की ज़िम्मेदारी है

फ़लसफ़ा है हयात का मुश्किल
वैसे मज़मून इख्तियारी है

रेत के घर तो बह गए नजमी
बारिशों का खुलूस जारी है

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मई महीने से तरक्की की चिड़िया ने पंख फड़फड़ाए

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सदफ नाज़ फिर हाज़िर हैं. समकालीन राजनीतिक हालात पर इतना गहरा व्यंग्य शायद ही कोई लिखता हो. आम तौर पर लेखिकाओं के बारे में यह माना जाता है कि उनको राजनीति की समझ जरा कम होती है, तो मेरा कहना है कि उनको सदफ नाज़ के व्यंग्य पढने चाहिए- प्रभात रंजन 
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कल बटेसर भैया औरमियां बुकरात से मुठभेड़  हो गई। मिलते ही बटेसर भईय्या कहने लगे जनाब जब से मज़बूत तकरीर (भाषण) सुना है, बड़ा कन्फयूज़ सा हूं,  कुछ पेंच रह गएं हैं मन में! मैने कहा माशाल्लाह! इतनी मज़बूत तकरीर थी। पूरी कायनात अश-अश कर रही है और आप हैं कि ......!एनआरआईयों ने सुन लिया तो आपकी ख़बर लेने पहली फ्लईट से आ धमकेंगे। कान पकड़ किसी एनआरआई स्कूल में देश हित का पाठ पढ़ाने लिए आपका दाखिला करवा देंगे। वैसे हम तो मज़बूत तकरीर सुन कर बड़े मसरूर(खुश) हैं!आईफा अवार्ड टाईप शानदार इंटरटेंमेंट उस पर मजबूत तकरीर। लेकिन आप बताएं कि आप के मन में हुड़क क्यों मच गई, कहीं आप सेक्युलर  तो नहीं हो गए हैं ?बिचारे बटेसर भईया ऐसा सुनते ही घबड़ा गए। कहने लगे नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है। दरअसल मज़बूत तकरीर में हमने सुना कि हमारे पास ये है, वो है, हम टेक्नो फ्रेंडली हैं, हमारे देश के नौजवान तकनीक को उंगलियों पर नचाते हैं वगैरह। ऐसी बातें सुनकर लगा कि हमारे देश में भी पहले से तरक्की मौजूद है। वरना पिछले कुछ महीनों से हम यही सुनते आ रहे थे कि हमारे मुल्क का तो पूरी तरह से डिब्बा गोल है। कईयों ने यहां तक कहा कि भारत वर्ष की जो शान थी उसे पहले तातरियों-मुगलों ने खत्म किया,फिर लाट साहबों ने कबाड़ा किया और सन 47 के बाद कांग्रेस ने लुटिया डुबोई। तरक्की की चिड़िया बिचारी देश में कभी पंख फड़फड़ा ही नहीं सकी। देश तो भ्रष्टाचार-पिछड़ेपन का जखीरा बन के रह गया है।

मियां बुकरात भी हमारी गुफ्तगु सुन रहे थेवो भी इसमें कूद पड़े। बुकरात कहने लगे कि ये सियासी दाँव-पेंच की बातें हैं आप जैसे कन्फ्यूज और कुढ़मगज़ों को कहां समझ में आएगी। दरअसल, पिछले कुछ महीनों से जो आबो-हवा तैयार की गई थी। हमें जो समझाया जा रहा था वो तो बस समझ-समझ का फेर था !’  हमने कहा कि मियां बुकरात, आप तो पूरे सिनिकल सेकुलर लगते हैं,उन जैसी बातें कर रहे हैं। मेरी बात सुन कर बुकरात भड़क गए। कहने लगे, मोहतरमा आप क्या समझती हैं, आप लोगों की पालिश्ड बातों से सच्चाई लोगों को नहीं दिखेगी ?लोगों को गंजसराय का समझना छोड़िए, अच्छा आप यह बताइए कि अगर हमारा मुल्क इतनी ही तबाहकुन हालत में था तो जो मंगल पर हमने परचम लहराया वो क्या है ?मैंने कहा मंगल पर जाना कौन सी तरक्की वाली बात हुई ?दरअसल, चंद्रयान ने भी पिछले चार-पांच महीने की मज़बूती की पॉज़िटिव एनर्जी से इंस्पायर्ड होकर सोचा होगा कि अतंरीक्ष में टहलने से क्या फायदा, मार्स में चल के खैरखूबी से औरों की तरह ही मज़बूत काम करते हैं। बुकरात मेरी बात से जलाल में आ गएकहने लगे बटेसर भाई इन मोहतरमा पर जो रंग चढ़ा है उसपर दुनिया की कोई  दलील काम नहीं करेगी। लेकिन ख़ैर आप ही बताएं आपने भी सुना होगा कि लोग मुनादी करवा रहे थे कि हमारे देश का बंटाढार हो चुका है?

बिचारे बटेसर भईया कहने लगे कि हां बुकरात भाई हमें भी ऐसा ही लगने लगा है कि दुनिया कहां से कहां पहुंच गई और हम तो जी जंगल राज में पड़े हैं आज तक। मैंने कहा कि तो इसमें झूठ क्या है ?  लेकिन मिंया बुकरात मुझे फटकारते हुए कहने लगे, मोहतरमा आप तो चुप ही रहिए आपकी ना कोई सोच है, ना अपना मुशाहदा (ऑब्जरवेशन)। न्यूज चैनलों को देख-देख अपनी राय बनाती हैं, अरे ऐसा ही पिछड़ा हुआ है मुल्क तो फिर आपके दादा जान जिन्होंने रेडियो से लेकर इंटरनेट का सफर तय किया वो क्या है? अच्छा ये रहने दीजिए हम कई बरस पहले परमाणु शक्ति बने वो क्या था, और जो हमारी रॉकेट आसमान में उड़ती-फिरती हैं, कल-कारखाने और डिजिटल क्रांति की बातें, नब्बे की दहाई की उदारीकरणकी पॉलिसी और फॉरेन इंवेस्टमेंट की कवायद?

लेकिन खैर छोड़िए आप जैसे लोग पिछले दिनों जिस तरह की बातें फैला रहे थे मालूम हो रहा था कि अब तक हम अठारहवीं सदी से भी पहले के युग में जी रहे हैं। और हमारे मुल्क की जो दुनिया भर में सबसे बड़े डेमोक्रेटिक-तरक्कीयाफ्ता और खुदमुख़्तार (आत्मनिर्भर) देश की पहचान है वो तो बस कमज़ोर लोगों का तैयारकरदा फरेब था!  तरक्की के कारपेट बिछाने का काम तो बस पिछले पांच महीने से ही शुरू हुआ है, नॉनसेंस!मैंने भी कह दिया कि मिंया बुकरात! आप चाहे जितनी उछल-कूद मचाएं यही सच्चाई है कि ख़ुदा के फज़लोकरम से तरक्की की चिड़िया ने मई महीने से अपने पंख फड़फड़ाने शुरू किए हैं। देखिएगा ये कुछ दिनों में कैसे फर्राटे भरेगी। यूं ज़ूं-ज़पाट, शन्न ज़ट्ट करती आपके सरों के ऊपर से गुज़रेगी कि आप हैरत से देखते रह जाएंगे। और जो आपको न दिखे तो आप ठहरे सेक्युलर बेवकूफ !!

बुकरात कहने लगे- वाह!और जनाबा जो तरक्की है क्या वो बिना इन्फ्रास्ट्रक्चर के आसमान से टपकेगी ?मोहतरमा ख़ामख्याली में मत रहिए, तरक्की के लिए मज़बूत इन्फ्रास्ट्रक्चर पहले से ही मौजूद है। यानी कि गुदाज गद्दा और उस पर महीन कढ़ाई की चादर तो बिछी ही थी। बस अब उस पर मखमली चद्दर उढ़ाने के ख्वाब दिखाए गए हैं। मैने कहा मियां बुकरात और भईया बटेसर ऐसी बातें धीरे-धीरे कहें कहीं कोई सुन लेगा तो आप भी सेक्युलरों की जमात में शामिल कर दिए जाएंगे और खुदा न खस्ता एनआरआईयों को भनक पड़ी तो आप की सेहत का तो अल्लाह ही हाफ़िज़ !!

शुभ-शुभ

संपर्क: sadafmoazzam@yahoo.in

'हाफ गर्लफ्रेंड'से क्या सीख मिलती है?

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चेतन भगत ने एक बड़ा काम यह किया है कि उसने ऐसे दौर में जबकि पढना लोगों की जीवन शैली से से दूर होता जा रहा है, पढने को फैशन से जोड़ा है, उसकी पहुँच बढ़ाई है, उसका दायरा बढ़ाया है. हम अक्सर उसके लेखन की आलोचना करते हुए इस सकारात्मक पहलू को भूल जाते हैं, उसे नजरंदाज कर देते हैं. मेरा मानना है कि जैसे चेतन भगत को पढना फैशन का हिस्सा बना है उसी तरह उसकी आलोचना करना भी. अभी हाल में ही मैंने बैंगलोर में देखा कि एक माँ अपने स्कूल जाने वाले बेटे को चिढाते हुए अंग्रेजी में कह रही थी कि 'हाफ गर्लफ्रेंड'नहीं पढोगे और वह बच्चा मुँह बिचका रहा था. बहरहाल, यह मुझे याद आया पुणे डीपीएस में कक्षा सात में पढने वाले अमृत रंजनकी इस रिव्यू को पढ़कर. इतनी अच्छी हिंदी कि रश्क होता है. यकीन मानिए मुझे भाषा तक दुरुस्त नहीं करनी पड़ी. जी, चेतन भगत के नए उपन्यास 'हाफ गर्लफ्रेंड'की रिव्यू. पढ़िए- प्रभात रंजन 
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यह मेरी पहली चेतन भगत की किताब थी और शायद यह आख़िरी भी होगी। चेतन भगत, मैं आपकी बुराई या कुछ, नहीं कर रहा लेकिन इस किताब की कहानी क्या है? एक लड़का था माधव, एक लड़की थी रिया। माधव को दोस्ती से बढ़कर कुछ और चाहिए था। लेकिन रिया बस एक दोस्त बनना चाहती थी। मुझे पूरी किताब पढ़ते हुए लगा कि सर चेतन भगत इस कहानी को बस खींचते जा रहे हैं। कहानी के मसाले में उपन्यास।

मैं जब किताब के बीच में था, तो एक स्थान आया जहाँ सर चेतन भगत ने अपनी ही तारीफ़ की है, यह उन्होंने तब किया जब रिया माधव को अंग्रेज़ी सीखने के गुर बता रही थी। उन्होंने रिया से बुलवाया कि उसे अंग्रेज़ी की आसान किताबें पढ़नी चाहिए जैसे कि लेखक चेतन भगत की किताबें। मुझे इस बात पर बहुत हंसी आई, ख़ुद की किताब में अपने ढोल। वह अपने नाम की जगह अर्नेस्ट हेमिंग्वे या चार्ल्स डिकैन्स या किसी का नाम ले सकते थे। मुझे एक बात इस किताब में बहुत बुरी लगी। लड़का अंग्रेजी नहीं जानता, हिन्दी में बात करता है। इस बात में क्या ख़राबी है? उसके दिल को, उसकी भाषा को, सब वह लड़की बदल देती है। चेतन भगत को हिन्दी की तरफ अपनी नाव की दिशा खींचनी चाहिए थी। हाँ मैं मानता हूँ कि अंग्रेज़ी लेखक हैं लेकिन फिर भी, भारतीय हैं। जो चेतन भगत के प्रशंसक हैं, माफ़ कीजिएगा। अब किताब की अच्छी बातों पर आता हूँ। माधव के दोस्त जो उसे सलाह देते हैं वह मुझे बहुत 'सच्ची'लगी। मेरे दोस्त भी मुझे ऐसी ही सलाह देते हैं जिससे मैं हमेशा प्रिंसिपल की ऑफ़िस के सामने खड़ा रहता हूँ।

माधव बिहार का एक सीधा-सादा लड़का है जो बस पढ़ने आया था। लेकिन पहले ही दिन उसकी नज़र एक ख़ूबसूरत लड़की पर पड़ी और वह उसपर फ़िदा हो गया। एक दिन उस लड़की को माधव अपने हॉस्टल में ले आया। उसने यह बात अपने दोस्तों को बताई और वे उससे सवाल पूछने लगे कि उसने उस लड़की के साथ क्या-क्या किया। इसी से सारी कहानी शुरू हुई और ख़तम उस दिन हुई जब रिया के साथ वह कुछ करना चाहता था और रिया ने मना कर दिया और माधव ने गुस्से में आकर कहा, "देती है तो दे वरना कट ले।"उस दिन के बाद उनका रिश्ता टूट गया। रिया की शादी ज़ल्दी हो जाती है, न चाहते हुए भी उसे लंदन के रोहन से शादी करनी पड़ती है जो रिया को बहुत सताता है। उधर अकेला माधव बस पढ़ाई करता रह गया।
अमृत रंजन 

कहानी का दूसरा हिस्सा माधव के बिहार लौटने का है। अपनी माँ के कारण वह बिहार लौटता है। फिर स्कूल में ट्वायलेट फैसिलिटी के लिए गेट्स फाउंडेशन को बुलाता है। कहानी में शौचालय पर जो़र कुछ ज़्यादा ही दिखता है, पता नहीं क्यों? और उस फंक्शन में बोलने के लिए अंग्रेज़ी सीखने पटना जाता है। जहाँ उसका सामना रिया से होता है। माधव की फिर वही कोशिश कि किसी तरह वह रिया को हासिल कर ले। दिल्ली-बिहार के बाद अमेरिका भी कहानी में आता है। आखिर में मुझे वह स्थान अच्छा लगा जहाँ रिया और माधव की शादी हो जाती है और उनका एक बेटा होता है। माधव और रिया उसे बास्केटबॉल खेलना सिखा रहे होते हैं। उनका बेटा बहुत कोशिश करता है और आख़िर में हार मान जाता है। लेकिन माधव उसे कहता है कि सफल होते रहने के लिए लगातार कोशिश करना होता है। मुझे एक बात समझ नहीं आई। इस किताब से क्या सीख मिलती है? कोशिश करते रहना, लेकिन माधव ने किस चीज़ की कोशिश की। इस बात को अपने मन में दोहरा कर देखिए।

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किताब का नाम - हाफ़ गर्लफ़्रैंड
लेखक - चेतन भगत
भाषा - अंग्रेज़ी
प्रकाशक - रूपा पब्लिकेशन्स
पेपरबैक संस्करण
पृष्ठ - 260

मूल्य - 176

मैं आशिक बनना चाहता हूँ, पर बन नहीं पाया हूँ

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आईआईटी पलट हिंदी लेखक प्रचण्ड प्रवीर,जिनके उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी'का मैं बड़ा मुरीद रहा हूँ, बरसों से हिंदी में 'कल की बात'नाम से एक श्रृंखला लिख रहे हैं. जो अक्सर किसी व्यक्ति, किसी घटना पर होती है. इस बार इनके लपेटे में आये हैं मेरे दो प्रिय कलाकार. जिनसे मिलना तो नहीं हो पाया है लेकिन जिनके काम का मैं मुरीद रहा हूँ. पढ़िए और देखिये कैसे बात बात में बात निकलती है- प्रभात रंजन 
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कल की बात है। जैसे ही मैंने उस पार्क में कदम रखा, सामने सुशील जी सुदूर कोने से हाथ हिलाते हुये नजर आये। जैसी तस्वीर देखी थी, उन्हें उससे बढ़ कर पाया। मतलब यह हुआ कि बाल ज्यादा बड़े थे, फ्रेंच कट दाढ़ी भी बढ़ी हुयी थी। पीले फ्रेम का चश्मा भी बड़ा था, और जब नजदीक जा कर पाँव छूने को झुका तो देखा कि चप्पल भी एक साईज बढ़ कर थी। लेकिन सुशील जी इन सब छोटी मोटी बातों से बेफिक्र पार्क के उस पार दीवार पर बने बड़े मुखौटे को दिखाते हुये बोलने लगे, “देखो, उस मुखौटे के पीछे रहते हैं हम!मुखौटे के पीछे तो सभी रहते हैं पर सुशील जी और उनकी धर्मपत्नी, दोनों ही कुशल चित्रकार हैं, उस मुखौटे का रूप बना रखा था। यह विकराल नहीं था, न ही अट्टाहास करता हुआ, बल्कि निरीह और स्तब्ध! सुशील जी ने कहा, “ये मुखौटा तुम्हें देख कर डर सा गया है। खैर, जब इसका डर दूर हो जायेगा तो यह मुस्कुराने लगेगा।"

जैसे ही हम दोनों ने चप्पलें उतारी और ग्राउंड फ्लोर वाले घर में कदम रखा, किचन से मीनाक्षी जी निकल कर आयी। रंगीन सजी दीवारों की मालकिन मिथिला की राजकुमारी ने बड़ी ही बेतकल्लुफी से कहा, “अगर आप पार्क सीधे रास्ते से आते तो मैं आपको घुसने भी नहीं देती। लेकिन आप पार्क की छड़े फाँद कर आये, लगता है हमारी बातें हो सकती है। सुशील जी को मेहमाननवाजी में मज़ा आता है, झेलना बीवी को पड़ता है। पर लगता है तुम हम जैसे ही हो।"

सुशील जी ने संभलने नहीं दिया। बैठते ही पूछ बैठे, “जो तुम कह रहे थे फोन पर, सच है क्या कि 'मीर तकी मीर'के पिता जी दिल्ली से आपके शहर की दरगाह पर दुआ माँगने गये थे और वहीं आपके दादा जी के परदादा जी से दोस्ती हो गयी थी?” जो मैंने हामी भरी सुशील जी कहने लगे कि बहुत कोशिशों के बाद भी उन्हें अपने दादा जी से पहले का इतिहास नहीं मालूम। लेकिन इतना पता था कि दादा जी बड़े ज्योतिषी थे, और उन्होंने अपने मृत्यु का पूर्वानुमान हो गया था। उन्होंने बहुत सी बातें लिख रखी थी, जिनका छुपछुपा कर अध्ययन आज भी किया जा रहा है। 

नींबू पानी के बाद मीनाक्षी जी मखाना भूँज कर ले आयी। "अऱे आपने तो इसमें चीनी डाल रखी है। मैंने जब भी खाया है तो इसमें नमक डाला हुआ रहता था।"मीनाक्षी जी मुस्कुरा कर कहने लगी, “मैं मैथिल हूँ न। मुझे ज्यादा नमक बर्दाश्त नहीं होता। बिना मीठे के मैं रह नहीं सकती। आप खाइये न! बहुत भूँज रखा हैं। इनके कुछ दोस्त भी आने वाले हैं।

सुशील जी अपने संघर्ष के दिनों के साथ-साथ मीनाक्षी जी से पहली मुलाकात के बारे में बता रहे थे। बताया किस तरह दर दर भटकने के बाद नौकरी लगी, किस तरह कष्टों में जवानी के कितने दिन सड़कों पर गुजारे। मीनाक्षी जी ने कहा था, सुशील जी के मित्र प्रशांत औऱ उनकी मंगेतर शुचि भी वहाँ आ गये। सुशील जी ने हमारा परिचय कराते हुये बताया कि हम पहली बार मिल रहे थे। बहुत ही नाजुक और कोमल शुचि ने मेरा नाम सुनते ही मुँह पर हाथ रख कर कहा, “मैंने आपकी कल की बात पढ़ी है। आप तो वो हैं न जो किसी से भी मिल कर उसके बारे में सब कुछ बता देते हैं?” मीनाक्षी ने भौहें चढ़ा कर हमें देखते हुये कहा, "फिर तो हम भी देखेंगे आज आपका हुनर। सबसे पहले आप हमारी शुचि रानी के बारे में बताइये।"

मैंने मन ही मन सोचा, “हे भगवान, लोग मुझसे ऐसी आशा क्यों रखते हैं? अगर रखते हैं तो इम्तिहान क्यों लेते हैं?” प्रकट में मैंने शुचि जी को देख कर कहा, “आपका हाथ देखूँ?” मीनाक्षी जी ने आपत्ति दर्ज की, “ये तो बेईमानी है। वैसे हाथ देख कर हमारी शुचि तुम्हारे बारे में सब कुछ बता देगी। बहुत पहुँची हुयी है हमारी शुचि। तुम ऐसे ही कुछ बताओ।"


मैंने सोच कर कहा, “शुचि जी को किसी तरह का मत विरोध पसंद नहीं।"शुचि ने फौरन जबाव दिया, “मैं तो लोगों से चुन-चुन कर झगड़ा मोल लेती हूँ।

मैंने कहा, "जी मेरा मतलब था कि आप बहस में नहीं पड़ना चाहती। आप अपनी बात पे अड़ जाती हैं। दूसरों को समझाना आपका उद्देश्य नहीं होता।"शुचि जी सोचने लगी, फिर बोली, “कह सकते हो ऐसा!


दूसरी बात आप बहुत संयमप्रिय हैं। किस तरह के कपड़े पहने जाये, क्या कहा जाये, कैसे व्यवहार किया जाये, इसमें आप बहुत सख्त हैं।"शुचि ने उत्तर दिया, “कपड़ों के मामले में तो इतनी सख्त नहीं, पर जुबान के मामले में बिल्कुल सही। जुबान पर लगाम देना बहुत जरूरी है।"

तीसरी बात आपको रोना अच्छा लगता है लेकिन आप को पसंद नहीं कि कोई आपको रोते देखे।"मीनाक्षी जी ने टोक कर कहा, “एक मिनट, एक मिनट, इसमें कौन सी बड़ी बात है? ये तो सारी लड़कियों के साथ होता है।"मैंने उनकी बात काट कर जोरों से अपनी बात कही, “नहीं, सबके साथ ऐसा नहीं होता।"शुचि थोड़ी सी सहम कर बोली, “हाँ ये सच हैं। मैं अपने जज्बातों को रोक नहीं पाती और अक्सर बह जाती हूँ।"

सुशील जी बोले, “अब बारी आती है हमारे दोस्त प्रशांत की। कहिये?” प्रशांत जी एकदम तन कर बैठ गये। उनकी पुतलियाँ जोर-जोर से इधर उधर घूमने लगी। अपनी उँगलियाँ चटकाते हुये बोले, “आपकी तरफ देखना है? आँखों में आँखें डाले हुये?” मैंने ना में सर हिलाया औऱ कहा, “आप जल्दी किसी पर भरोसा नहीं करते। बड़ा समय लेते हैं लोगो को परखने में।"प्रशांत जी ने हाँ में सर हिलाया। कहने लगे, "मैं फायदा देखने वाले लोगों से दूर रहता हूँ। कोई मेरा विश्वास तोड़े, मेरा दिल दुखाये मुझे बर्दाश्त नहीं।"


दूसरी बात आप बहुत ज्यादा तनाव नहीं झेल पाते। आप टूट जाते हैं।"प्रशांत जी ने शंका से देखते पूछ बैठे, “आपका मतलब?” मैंने कहा, “उदाहरण के लिये, कोई बड़ा आयोजन हो, मान लीजिये शादी हो। आप कर्मठ तो हैं, पर बहुत सारे काम एक साथ नहीं कर पाते।"प्रशांत जी बोले, "हाँ, मैं दस काम कर रहा हूँ औऱ कोई ग्यारहवाँ काम के लिये कह दे तो मैं झल्ला उठता हूँ।"

तीसरी बात आप पर आपके माता पिता का बहुत प्रभाव है। आप उन दोनों को पूजते हो।"ये सुनते ही सुशील जी, मीनाक्षी जी, यहाँ तक कि शुचि ने भी कहा, “सही ये तो, हम इसकी पुष्टि करते हैं।"


मैंने कहा, “मीनाक्षी जी, मैं आपके इम्तिहान में पास हो गया न?” 

मीनाक्षी ने दिलकश मुस्कान के साथ कहा, “अरे अभी कहाँ, अभी तो आपने मेरे बारे में कुछ बताया ही नहीं?” 

आपके बारे में क्या बताना? सब कुछ तो आपके चेहरे पर लिखा है।"सुशील जी ने कहा, “कुछ ऐसा बताइये जो मैंने आपको इनके बारे में नहीं बताय हो।"

आँखें बंद करने के बाद मैंने कहना शुरू किया, “परंपराओं की प्रति आपका रूझान बड़ा विचित्र है। आप उनका सम्मान करती हैं क्योंकि आपने बचपन से उनको देखा है, लेकिन भीतर ही भीतर आप उनकी भर्तस्ना करती हैं। खास कर तत्वमीमांसा को ले कर...मीनाक्षी जी जो उठ कर किचन में चली गयी थी, वापस बैठक की तरफ आयी औऱ मुझे देख कर बोली- टी एस इलियट ने कहा था कि हर नयी चीज परंपरा बन जाती है, लेकिन मैं हर परंपरा के लिये विद्रोही साबित हुयी हूँ।"

मैंने कहा, “तनिक इधर देखिये।"सुशील जी ने हँस कर कहा, “बहुत देख रहा है ये लड़का। मेरे ही घर में, मेरी ही बीवी को...देखने की चीज है हमारा दिलरूबा...ताली हों...

दूसरी बात आपको नाचने का बेहद शौक है।"ये सुनते ही मीनाक्षी जी चीख पड़ी - हे भगवान !सुशील जी भी चिल्ला पड़े, “अब तुम कल से ही क्लास ज्वाइन कर लो।"मीनाक्षी जी ने कहा, मेरे बाबा नहीं चाहते थे कि मैं नाचूँ। मेरा बहुत बहुत मन है कि मैं नाच सीखूँ।"कह कर मीनाक्षी जी किचन से एक सुंदर से ट्रे में सबके लिये हरी चाय ले आयी।

अब रही तीसरी बात आप मानसिक रूप से अद्भुत दृढ़ हैं। कितनी कठिनाई आये, आप टूँटेगी नहीं। हारेंगी नहीं।"मीनाक्षी जी को जैसे बिच्छू ने काट लिया हो। चेहरा लाल सा हो गया। उनके हँसते-मुस्काराते चेहरे पऱ अचानक दर्द की लकीर खिंच गयी। "क्या मैं जिंदगी भर ऐसी ही लड़ती रहूँगी?” मैंने कहा, “यही आपका भाग्य है।"मीनाक्षी जी ने कहा, “अगर यही भाग्य है तो यही सही। मैं हार नहीं मानती।"


मैंने कहा, “तभी आप जीतती रही हैं हमेशा-हमेशा।"मीनाक्षी जी ने मेरी बात का कोई जबाव नहीं दिया। सुशील जी ने कहा, “चलो बढ़िया है। तुम मेरे दादा जी की तरह भविष्य नहीं बता रहे। अब मेरे बारे बताओ तभी इम्तिहान पूरा होगा।"मीनाक्षी जी ने उनको झिड़का, “हटो जी, ये कोई इम्तिहान थोड़े ही है। ये तो बस खेल है।"

सुशील जी को देख कर मैंने कहा, “आपमें इतना गुस्सा भरा हुआ है कि आप किसी का खून कर देने की क्षमता रखते हैं।"सुशील जी ने विचार कर के कहा, “हाँ ये सच है। मैं मानता हूँ।"

फिर मैंने कहा, “दूसरी बात आपका कोई निरादर कर रहा है, जिसके कारण आपके जीवन में परिवर्तन आयेगा।"ये सुन कर सुशील जी ने गहरी साँस ली, “हो रहा है मेरे साथ! जालिम दुनिया जलील करती रहती है। कभी बताऊँगा। लेकिन ये सच है।

मैंने मीनाक्षी जी से कहा, “मैं इम्तिहान में पास हुआ या नहीं?” सुशील जी ने कहा, “अच्छा बच्चू, हमारे बारे में दो ही बातें बताओगे? एक औऱ बताना पड़ेगा, तब मानेंगे।"


फँस जाने पर मैंने मन ही मन सोचा - कलाकार, चित्रकार, पत्रकार ... क्या क्या हैं सुशील जी? क्यों हैं.... अद्भुत रस के मारे लगते हैं। ये सोचते ही मैंने कहा, “आपको विराट चीजें बहुत पसंद है, जैसे बड़े महल, अट्टालिका...

सुशील जी ने कहा, “महल तो नहीं, बड़ी बड़ी मूर्तियाँ ... जब मैंने इटली में माइकलएंजेलो की डेविड देखी, तो तुम यकीन नहीं करोगे मैं तीन घंटे तक देखता रह गया। इतना ही नहीं, मैं अगले दिन दोबारा उसे देखने गया। देखने के बीस यूरो लगते थे उस समय। बहुत होते हैं बीस यूरो।"

मैं मुस्कुरा उठा। शुचि मुझे प्रशंसा की नजरों से देखने लगी। मीनाक्षी जी दबे पाँव घर से बाहर निकल गयीं। तब मैंने उसकी तरफ अपनी हथेलियाँ बढा दी ताकि वो मेरा हाथ पढ़ कर के कुछ बताये। शुचि ने हथेलियों को देख कर कहना शुरु किया, “आपका स्वास्थ्य ठीक रहेगा। पैसा भी साधारण रहेगा। बुढापा अच्छा बीतेगा। आपने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा छुपा कर दूसरी प्रतिभायें विकसित कर ली हैं। आपको कवि नहीं होना चाहिये था।"

मैंने कहा, “वैसे तो मैं आशिक बनना चाहता हूँ, पर बन नहीं पाया हूँ।"

शुचि ने कहा, “नहीं, नहीं, आप सब के मन की बात जाने लेते हैं। आप की विश्लेषण क्षमता अद्भुत है। ये मत सोचियेगा कि आपको देख कर कह रही हूँ, या आपकी बातें सुन कर ऐसा कह रही हूँ। ये आपके हाथ में लिखा है।"


मैंने धीमे से कहा, “हाथ में सब कुछ लिखा है, पर लिखने वाले ने उसका नाम नहीं लिखा।

जब मीनाक्षी जी अंदर आयी तो मैंने सबों से विदा माँगी। सुशील जी मुझे छोड़ने के लिये बाहर आये। मुखौटे को दिखा कर उन्होंने कहा, “देखो ये मुस्कुराने लगा नमैं कहता था न!

शाम के धुँधलके में मैंने ताजे रंगों को गौर से देखा। किसी ने बड़े ही जतन से रंग भर दिये थे। मैंने पलट कर देखा, मीनाक्षी जी और शुचि जी मुझे देख कर मुस्कुरा रही थीं।


ये थी कल की बात!




बाइयों का ज़माना और हिंदी सिनेमा का आरंभिक दौर

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युवा कवि और संगीत पर लिखने के लिए अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाने वाले लेखक यतीन्द्र मिश्रको संगीत पर लेखन के लिए उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादेमी ने पुरस्कृत किये जाने की घोषणा की है. यतीन्द्र उन लेखकों में हैं जिन्होंने संगीत लेखन एक माध्यम से आम लोगों को संगीत से जोड़ने का काम किया है, उनको संगीत को लेकर लिटरेट करने का काम किया है. उनको बधाई देते हुए पेश है उनका एक लेख जो उनकी पुस्तक 'विस्मय का बखान'से लिया गया है- जानकी पुल 
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हिन्दी फिल्म इतिहास में संगीत का आगमन या फिल्म संगीत का आरम्भ एक महत्त्वपूर्ण घटना रही है। पिछले लगभग सौ सालों में इस बात पर ढेरों बहस-मुबाहिसों और विमर्श के दौर चले कि मूलतः फिल्म संगीत किस ढंग से अपना स्वरूप यहाँ अख्तियार कर सका। बहुत सारी प्रचलित धारणाओं के साथ-साथ, जिस तथ्य की ओर हमारा ध्यान बरबस जाता है, उसमें सर्वाधिक प्रासंगिक वह दौर है, जब भारतीय समाज में बाईयों और तवायफों का दबदबा कायम था। एक प्रकार से यह हिन्दुस्तानी संगीत का वह आरम्भिक दौर है, जब तवायफों का संगीत राजदरबारों, बड़े नवाबी घरानों, महफिलों-मजलिसों एवं कोठों में रचा-बसा था और अपने शिखर पर था। हिन्दी फिल्म संगीत का आरम्भ भी आश्चर्यजनक ढंग से इसी दौर की देन है, जिसे हम सन् 1925से 1945के मध्य बीस वर्षीय लम्बे कालखण्ड में पसरा हुआ देख सकते हैं। इस बात को स्वीकारने में मुझे जरा भी सन्देह नहीं है कि भारतीय फिल्म संगीत, खासकर हिन्दी फिल्म संगीत का आरम्भ मुख्यतः बाईयों, तवायफों, नॉच गर्ल्स और नौटंकी के द्वारा हुआ है। ये स्वतंत्रता आन्दोलन के पूर्व (1925-45) का समय है, जिस समय भारतीय समाज में आमोद-प्रमोद के ढेरों प्रदर्शनकारी अभिव्यक्तियों में इन बाईयों का वर्चस्व रहा।

इस अवधारणा को समझने के जतन में उस समय की प्रमुख बाईयों का वर्गीकरण हम मुख्यतः तीन कोटियों में कर सकते हैं, जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि वह समय सामाजिक-राजनैतिक स्तर पर जिस तरह बन-बिगड़ रहा था, जिनसे गुज़रकर हिन्दी फिल्म संगीत का बिल्कुल आरम्भिक चेहरा विकसित हो सका। इस वर्गीकरण में जो सबसे दिलचस्प तथ्य है, वह यह है कि बाईयों का एक लगभग बड़ा समुदाय ही अस्तित्व में मौजूद न रहा, जिनमें से अधिकांश तवायफें न जाने किन वजहों से बाद के वर्षों में अन्धेरों में चली गयीं। कुछ के हिस्से में जो थोड़ी बहुत रोशनी हाथ आयी भी, वह भी धीरे-धीरे हमारे सांस्कृतिक समाज की विस्मृति का अंग बन गयी। बाईयों के व्यवहार और उनका विभिन्न प्रकार की कलाओं में संलग्न रहने की पड़ताल को परखने से पहले इतिहासकार सलीम किदवई के एक दुर्लभ और इतिइाससम्मत तर्क पर ध्यान देना लाजिमी है- तवायफों, बाईयों व राजदरबारों एवं नवाबों के यहाँ आसरा पाने वाली गायिकाओं के बारे में कुछ भी ढूँढ़ने से पहले हमें इस बात का खासा ध्यान रखना चाहिए कि इनमें से अधिकांश औरतों को अपने इतिहास को दोबारा से गढ़ना पड़ा है। इन औरतों को अपनी जाती जि़न्दगी में इतने झूठ बोलने पड़े हैं कि आसानी से इनकी बातों से यह निकालना बेहद मुश्किल है कि इनकी जि़न्दगी में जो कुछ हुआ और घटा है, वह कितना सही और कितना गलत है।

                किदवई इन अर्थों में इस पूरी परम्परा पर ऐसी पैनी नज़र डालते हैं कि आपको अपने व्यक्तिगत पसन्द की किसी भी बाई या गायिका को जानने समझने के लिए कम से कम एक मज़बूत सिरा पकड़ में आ जाता है। हाँ, यहाँ यह बताना उतना ही प्रासंगिक है कि जब वे इस तरह का सार्वजनिक बयान इन गानेवालियों के बारे में जारी करते हैं, तो उनका इशारा हमें उस परम्परा के प्रति भी मिलता हुआ नज़र आता है, जो बाद में जाकर सिनेमा में पूरी तरह दृश्यगत हो सका।

                सलीम किदवई के बयान को ध्यान में रखते हुए हमें उस समय की बाईयों की पड़ताल में कुछ दुर्लभ तथ्य हाथ आते हैं। मसलन एक कोटि उन बाईयों की है, जो कभी भी फिल्मों में नहीं गयीं; और जिनको कभी भी हिन्दी या किसी अन्य सिनेमा के खाते में डालकर आँका नहीं जा सकता। इसमें मुख्य रूप से जानकीबाई, छप्पनछुरी, मलका जान, अनवरबाई लखनवी, काशीबाई, रसूलनबाई और मलका पुखराज जैसी धुरन्धर तवायफें शामिल रही हैं। दूसरी श्रेणी उन बाईयों की थी, जिन्होंने फिल्मों में कम और महफिलों में बराबर से अपना दबदबा बनाये रखा। मुझे लगता है, इन गायिकाओं को फिल्मी दुनिया का सुनहला पर्दा रास नहीं आया होगा अथवा उन्हें अपना पेशेवर गायिकी का घराना उस समय ज्यादा महफूज़ लगा होगा, जिसके चलते उन लोगों ने अपना परम्परागत गायन समाप्त नहीं किया। उदाहरण के तौर पर जम्मू कश्मीर की कमला झरिया, बंगाल की अंगूरबाला और अनारबाला, गौहर जान, राजकुमारी, सितारा कानपुरी, अमीरजान और अख़्तरीबाई फैजाबादी।

तीसरी कोटि उन बाईयों की थी, जिन्होंने मुख्य रूप से फिल्मों को ही अभिनय व गायिकी के लिये अपना पसन्दीदा क्षेत्र चुना। सन् 1931से 1940के मध्य में प्रचलित इन बाईयों का दबदबा फिल्मी दुनिया में सर्वाधिक था। एक लम्बी फेहरिस्त है ऐसी बाईयों-गायिकाओं की, जो लगातार दस-पन्द्रह वर्षों तक फिल्म और उसके संगीत, दोनों ही परिदृश्यों पर सक्रिय थीं। पर आज लगभग अस्सी वर्ष बीत जाने के बाद इस तथ्य को आँकना कम दिलचस्प नहीं कि धीरे-धीरे वे सब की सब गुमनामी के अन्धेरे में चली गयीं। इनमें प्रमुख तवायफें हैं- जहाँआरा कज्जन, जिल्लू, मुश्तरी, चन्दा, मिस गुलाब, मिस मोती, शान्ताकुमारी, शकीरा, मोहिनी, खुर्शीद, हीरा, फूलकुमारी, पन्नाबाई, मिस अनुसूर्या, बिब्बो, कमलाबाई, मिस शैला, मिस बदामी, तारा, पुष्पा, सुन्दरबाई, बिमला, मिस अनवरी, माधुरी, रामप्यारी, मिस इकबाल, शिरीन बानो, ललिता, रतनबाई, मिस लोबो, लीलादेवी, हमीदा, शाहजादी, कश्मीरा देवी, चम्पा, मिस पर्ल, शिवरानी, पीरजान, राजकुमारी बनारस वाली, राजकुमारी कलकत्तावाली उर्फ उल्लो बाई, चाँदकुमारी, अमीना, खातून, इन्दूबाला, निहारबाला, राधाबाई, सुलताना बानो, मिस शाहजहाँन, श्यामकुमारी, जरीना, मिस गुलजार, प्रेमकुमारी, अरुणा देवी, हुस्नबानो, इन्दूरानी, मणिबाई, जिल्लूबाई, बृजमाला, शकुन्तला, कान्ताबाई, पुतली, दुर्गाबाई, अजूरी एवं दुलारी आदि।

                यह फेहरिस्त देखते हुए सलीम किदवई का बयान याद आता है कि इनमें से अधिकांश औरतों को अपने इतिहास को दोबारा से गढ़ना पड़ा है। हो सकता है कि जाती जि़न्दगी में इन गायिकाओं के कुछ दूसरे प्रचलित नाम रहे होंजिनके अनुसार वे अपने समय की महफिलें लूटती रहीं, मगर हो सकता है जब उन्हें एक ज्यादा बड़ा प्रभावी क्षेत्र फिल्मी पर्दा नज़र आया, तो कुछ असमंजस में अपनी सही पहचान को छुपाने तथा फिल्म के ग्लैमर भरे जीवन को थोड़ी इज्जत से जीने की चाहत के चलते नाम बदल लिया हो। यह अकारण नहीं है कि ऐसी बाईयों तवायफों की लिस्ट में अधिकांश नाम कुछ गढ़े या नकली से लगते हैं मसलन- मिस लोबो, मिस बदामी, मिस पर्ल, मिस शैला, मिस गुलाब, मिस मोती। ठीक इसी तरह कुछ ठेठ पेशेवर नाम, जो अन्य सन्दर्भों से इस बात की भी पुष्टि करते हैं कि बीत चुके इतिहास में फिल्मों के अलावा भी इनका कुछ अतीत रहा होगा, जिसकी निशानदेही कोठों तक अवश्य ही मौजूद रही होगी। मसलन चाँद कुमारी, हुस्नबानो, रतनबाई, हमीदा, जिल्लूबाई, पदमाबाई आदि।

                यह वो समय था, जब अंग्रेजों ने सोशल वैल्यूज़ प्रोग्राम बन्द करा दिये थे। किसी भी प्रकार की कुरीति या सामाजिक समस्या पर फिल्म बनाना उस दौर में जोखिम भरा काम था। हर एक फिल्म सघन सेंसरशिप के द्वारा आँकी जाती थी, जिसका असर यह रहा कि अधिकांश फिल्मवालों ने सेंसर से बचने के लिये पौराणिक, मिथकीय और ऐतिहासिक कथानकों में जाकर पनाह ली। मायामच्छिन्द्र, राजा हरिश्चन्द्र, रामशास्त्री, हनुमान पाताल विजय, बिल्वमंगल, सिंहलद्वीप की सुन्दरी, जादूगर डाकू और पृथ्वी वल्लभ जैसी फ़िल्में इस ख़ास परस्थिति को रेखांकित करती हैं। बाईयों के आगमन से एक अतिरिक्त उत्साह फिल्मवालों को यह भी मिला कि फ़िल्मी पर्दे पर उनकी अदायगी का इस्तेमाल वे लोग बखूबी करने लगे, जिसके पहले संगीत देने के लिये पर्दे के बाहर अलग से साजिन्दों सहित फनकारों को बिठाना पड़ता था।

                इस प्रक्रिया में कुछ तवायफों का जिक्र भी यहाँ फिल्म संगीत में विकास के मद्देनजर अवश्यंभावी लगता है। उस लिहाज से तवायफों की जो समृद्ध परम्परा रही, उसमें गौहरजान का विशेष नाम है। यह जानना दिलचस्प है कि हिन्दी फिल्म के आरम्भिक दौर में गौहर जान नाम से मुख्यतः तीन महत्त्वपूर्ण  गायिकाओं, बाईयों और अभिनेत्रियों की चर्चा आती है। इनमें से एक गौहर जान कर्नाटकी हैं, जो 1925-40के बीच हिन्दी फिल्मों की महत्त्वपूर्ण अभिनेत्री रही हैं। आपके समय में अख़्तरीबाई फैजाबादी यानी बेगम अख़्तर फिल्मों में पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रही थीं। दूसरा नाम अदाकारा गौहर का है। इन्हें गौहर कय्यूम मामाजी वाला भी कहते हैं। लाहौर में जन्मीं मूक फिल्मों की भी ये समर्थ अभिनेत्री रहीं। इन्होंने चन्दूलाल शाह के साथ मिलकर रंजीत मूवीटोन की स्थापना की थी। एक तरह से 1929में स्थापित हुई रंजीत फिल्म कम्पनी, जिसे रंजीत मूवीटोन भी कहते थे में गौहर ही उसकी मुख्य अभिनेत्री हुआ करती थीं। एक दिलचस्प तथ्य गौहर के सन्दर्भ में यह भी है कि उन्हें जामनगर की रियासत द्वारा भी पैसा मिलता था। वे जामनगर राजदरबार में फिल्मों में आने से पूर्व महफिलें करती थीं। यह तथ्य इस बात की ओर भी इशारा करता है कि जो बाईयाँ पेशेवर ढंग से फिल्मी जीवन में उतरने से पूर्व अपना कोठा सजाती रही थीं, उन्होंने एक्टिंग के क्षेत्र में पदार्पण के साथ अपने पुराने अतीत से किनारा कर लिया था। जो लोग अभिनय के क्षेत्र में सीधे नहीं आ सकी थीं, उन्होंने अपनी पेशेवर गायिकी और फिल्म संगीत के बीच एक बेहतरीन सन्तुलन बनाया हुआ था। इनमें हम मलका पुखराज, मिस मेनका, अख़्तरीबाई फैजाबादी, अनीस खातून, कज्जन, कानन देवी और मिस दुलारी जैसी गायिकाओं-बाईयों को याद कर सकते हैं।

                तीसरी गौहर जान शास्त्रीय संगीत की महत्त्वपूर्ण गायिका मानी गयीं, जिनका पूर्व नाम था एंजोलिना एवार्ड। ये कलकत्ता से सम्बन्धित थीं और ठुमरी गायिकी में बेहद नाम कमा चुकी थीं। एक ऐतिहासिक तथ्य इनके सन्दर्भ में यह काबिलेगौर है कि उस्ताद मौजुद्दीन ख़ाँ ने स्वयं बनारस से कलकत्ता जाकर गौहर को ठुमरी सिखायी थी। मूलतः तवायफों की परम्परा में आने वाली गौहर जान 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की सबसे महंगी गायिका थीं, जो महफिलें सजाती थीं। इनके बारे में मशहूर था कि सोने की एक सौ एक गिन्नी लेने के बाद ही वह किसी महफिल में गाने के लिये हामी भरती थीं।

                इसी समय यह याद करना भी फिल्मेतिहास के सन्दर्भ में दिलचस्प है कि फिल्मों में मशहूर कुछ ऐसी भी तवायफें थी, जिन्हें बाद में बहुत याद नहीं रखा गया। इनमें से अधिकांश अपने गाने स्वयं गाती थीं। बिब्बो, खुर्शीद, राधारानी, उमाशशि और अंगूरबाला व अनारबाला को इसी सन्दर्भ में याद कर सकते हैं। इसी तरह सितारा कानपुरी भी थीं, जो कानपुर छोड़कर फिल्मों में गीत आजमाइश के लिये आयीं। इनका 1948में फिल्म पगड़ीमें मुकेश के साथ गाया गीत एक तीर चलाने वाले नेबड़ा मशहूर गीत हुआ था। इसके संगीतकार गुलाम हैदर और गीतकार शकील बदाँयूनी थे। इसी सन्दर्भ में अभिनेत्री निम्मी को भी याद करना चाहिए। निम्मी को फिल्मों में आने से पहले निम्मी आगरेवाली कहा जाता था। उस समय संगीत हल्कों में उनके गाये गाने भी नये ढंग से शुमार हो रहे थे और वे ठुमरी, गजल, गीत और दादरा बहुत करीने से गा लेती थीं। मगर राजकपूर के कहने पर उन्होंने गाना छोड़ दिया और बरसातफिल्म से अपने अभिनय जीवन की शुरुआत निम्मी नाम से की। यह भी जानना प्रासंगिक होगा कि निम्मी की माँ वहीदनबाई अपने समय की महत्त्वपूर्ण तवायफ मानी गयी हैं।

                इनके अलावा चार प्रमुख गायिकाएँ, बाईयाँ ऐसी थीं, जो राजदरबारों में तो मुबारकबादियों के लिये आती-जाती थीं, मगर दूसरी ओर उनके भीतर उसी वक्त अपनी-अपनी बेटियों को हिन्दी फिल्मों में सफल अभिनेत्रियाँ बनाने की पुरजोर कोशिशें भी चल रही थीं। इनमें से अधिकांश संगीत में निपुण महिलाएँ थीं और एक हद तक उनकी गायिकी व हुनर का लोहा उस समय माना जाता था। इनमें नरगिस की माँ जद्दनबाई, शोभा गुर्टू की माँ मेनकाबाई, नसीमबानों की माँ शमशाद बेगम एवं अख़्तरीबाई फैजाबादी की माँ मुश्तरीबाई प्रमुख हैं।

                इनमें नरगिस की माँ जद्दनबाई सर्वाधिक प्रगतिशील औरत साबित हुईं, जिन्होंने बदलते हुए समय को पढ़कर न सिर्फ नरगिस को अपने गाने-बजाने की परम्परा से बहुत मेहनत के साथ अलग किया, बल्कि उन्हें अंग्रेजी तबीयत की शिक्षा दिलवाई। साथ ही नरगिस बेहतर ढंग से तैयार हो सकें इसलिये उन्हें सआदत हसन मंटो, पृथ्वीराज कपूर और महबूब खान जैसे नये सोच के लोगों के साथ उठना बैठना सिखाया। जद्दनबाई उत्तर प्रदेश के चिलबिला जैसे छोटे शहर की तवायफ थीं, मगर अपनी सोच व हुनर के चलते उन्होंने हिन्दी फिल्मों में भी काफी काम किये। नरगिस की पहली फिल्म जिसमें वे एक बाल कलाकार के रूप में बेबी रानी के नाम से पहली बार सिनेमा के पर्दे पर आती हैं, उसे लाहौर के निर्देशक चिमनलाल लाहौर, बी. एस-सी. ने निर्देशित किया था। 1935में प्रदर्शित हुई इस फिल्म का नाम तलाशे-हकथा। यह फिल्म एक और कारण से ऐतिहासिक है कि इस फिल्म में बतौर संगीत निर्देशक जद्दनबाई ने संगीत दिया था। कोठे की शैली का ठेठ बैठकी महफिल गाने वाला दादरा घोर घोर घोर घोर बरसत मिहरवा एवं दिल में जब से किसी का ठिकाना हुआजैसे गीत उन्हीं पर फिल्माये गये थे। उनकी संगीतबद्ध अन्य फिल्मों में 1936में हृदय मन्थनके गीत डमरू हर कर बाजे, सावन के बदरा घिर आये, सूने दिल का कहीं अश्कों से पता मिलता हैऔर हमारी सेजरिया सैंय्या एक बेरी आ जामशहूर हुए। इसके अलावा जीवन स्वप्न 1937, मैडम फैशन 1936, मोती का हार 1937और राजा गोपीचन्द 1935जैसी फिल्मों में संगीत दिया। जद्दनबाई ने अपनी बनाई फिल्म कम्पनी का नाम भी संगीत फिल्म कम्पनी रखा था, जिसके तहत वे स्वयं फिल्म निर्देशन करती थीं।

                एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जद्दनबाई और नरगिस के सन्दर्भ में यह भी मिलता है कि जद्दनबाई की माँ का नाम दिलिपा था और वे पूर्वी उत्तर प्रदेश की महत्त्वपूर्ण तवायफ के रूप में विख्यात थीं। इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने ही तमाम सारी बाईयों से अपनी बेटी जद्दन को संगीत की तालीम दिलवायी थी। यह तथ्य राम औरंगाबादकर की मराठी में लिखी पुस्तक नरगिस के उर्दू तर्जुमे से प्राप्त होती हैं। यह 1960में छपी है और पुस्तक का मूल्य 3रुपये है। इसकी भूमिका में राम औरंगाबादकर ने यह लिखा है कि उन्हें जान से मार डालने की धमकियाँ दी गयीं कि वे नरगिस के पूर्वजों का इस तरह का कोई उल्लेख न करें। यह कुछ-कुछ उसी तरह का अपने इतिहास के साथ छेड़छाड़ का नतीजा है, जिस तरह की बात सलीम किदवई तवायफों की एक पूरी परम्परा के बारे में यह कहकर उठाते हैं कि उन्होंने अपने अतीत को कई बार बदला और नये सिरे से लिखा है।

                जद्दनबाई से अलग, शमशाद बेगम भी अपने समय की महत्त्वपूर्ण गायिका थीं, जो राजदरबारों में महफिलें किया करती थीं। इनका ताल्लुक फिल्म अभिनेत्रियों की उस पीढ़ी से भी है, जिसमें उनकी बेटी नसीम बानो एक बहुत बड़ी अभिनेत्री बनीं और उनकी नातिन सायरा बानो ने भी फिल्म इण्डस्ट्री में अपनी कला का जादू बिखेरा। शमशाद बेगम के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने दिल्ली घराने की गायिकी को बखूबी सीख रखा था।

                इन सबसे अलग बिल्कुल नये सन्दर्भों में सिद्धेश्वरी देवी का नाम आता है, जो स्वयं बनारस की मशहूर गायिका थीं और बड़ी मोतीबाई व रसूलनबाई के बाद ठुमरी की एकमात्र दमदार उपस्थिति थीं। उन्हें सर्वाधिक बढ़ावा ओरछा और बड़ौदा जैसी रियासतों से हासिल था। ओरछा राजदरबार के वंशज महाराज मधुकर शाह जूदेव बताते हैं कि सन् 1935से 40के दौरान सिद्धेश्वरी देवी लगातार ओरछा गाने के लिये बुलायी जाती रहीं और उसके एवज में उन्हें बतौर पारिश्रमिक चाँदी के रुपयों की शक्ल में एक हजार सिक्का तथा ट्रेन का द्वितीय श्रेणी का किराया दिया जाता था। सबसे काबिलेगौर तथ्य यह भी है कि उसी दौरान फिल्मों में प्रयुक्त होने वाले अधिकांश बनारसी कजरी और दादरों को सीधे फिल्मवालों ने अपनी फिल्मों में जस का तस इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। यह तथ्य इस बात की ओर इशारा करता है कि हो सकता है उन दिनों इन बन्दिशों को उन लोगों ने रसूलनबाई, बड़ी मोतीबाई, विद्याधरी और सिद्धेश्वरी देवी से हासिल किया हो। इनको प्राप्त करने के लिये वे लोग कभी-कभार छोटी-मोटी रकम की पेशकश करते रहे हों या ज्यादातर गायिकाओं को किसी फिल्म में गाने का लालच दिया जाता हो। इससे सन्दर्भित दिलचस्प तथ्य यह है कि यदि इनमें से किसी बाई को ऐसा कोई अवसर मिल जाता था, तो उस जमाने की म्यूजिक कम्पनियों के लिये उनका नाम एकाएक कई गुना ज्यादा कीमती हो जाया करता था। इस सन्दर्भ में वे लोग एक हद तक अपने शास्त्रीय गायन को कामर्शियल सेटअप में ले जाने के लालच के चलते अपने कुछ दादरों, कजरियों और बन्दिशों को फिल्मवालों को आसानी से उपलब्ध करा देते थे। इस काम में मेगाफान, कोलम्बिया, डावरकीन, एरोफोन एवं ट्वीन कम्पनी के रेकार्ड सबसे आगे थे। बेगम अख़्तर का भी उस जमाने में इसी कारण जबरदस्त बोलबाला था कि वे एक पेशेवर गायिका होने के साथ-साथ फिल्म स्टार भी थीं। उनके लिये मेगाफोन इस तरह विज्ञापन करता था- मिस अख़्तरीबाई फैजाबाद फिल्म स्टार

                कहने का सार यह है कि बाईयों ने बदलते हुए समय के साथ अपने सम्बन्ध बनाते हुए म्यूजिक कम्पनियों के साथ इस बात के गाहे-बे-गाहे सौदे किये कि वे अपने प्राईवेट एल.पी. बनवाने के चक्कर में उन कम्पनियों को अपनी कुछ पुरानी घरानेदार बन्दिशें सौंप दिया करती थीं। रसूलनबाई, बड़ी मोतीबाई, काशीबाई, अमीरजान से लेकर यह काम सिद्धेश्वरी देवी तक के जमाने में हुआ है, जिसकी पड़ताल उसी जमाने के फिल्मों की गीत लिस्ट को परखकर किया जा सकता है। मसलन, हम कुछ फिल्मों की बन्दिशें यहाँ इसी सन्दर्भ में याद कर सकते हैं- 1935में रिलीज हुई नवजीवन फिल्म का काहे करत मोसे रार सुन्दरवा, काहे करत मोसे रार’, निर्दोष अबला फिल्म का होरी खेलूँ न मैं दईया री, उँगली पकड़ मोरी बईयाँ री’, नीला फिल्म  का, ‘नाही मानत नैना हठीले, कैसे बाँके कटील रसीले’, देवदास फिल्म का नहीं आये घनश्याम घेरि आयी बदरी’, धर्म की देवी फिल्म का मालिनिया लाओ माल आज जगे मोरे भागऔर जवानी का नशा फिल्म का अब सेजिया अकेली दुःख दे राम, सैंय्या गये परदेस (अख़्तरीबाई फैजाबादी)। इसी तरह 1933एवं 1934के भी कुछ गीत ध्यान देने लायक हैं- प्रेम की रागिनी फिल्म का किरपा करो मो पे दीन दयाल, डोलत नैया मोरी मझधार’, मिस 1933फिल्म का मधुकर श्याम हमारे चोर’, कुरुक्षेत्र फिल्म का धड़कन लागी करेजवा हो राम’,  दोरंगी दुनिया फिल्म का बाँसुरी मधुर बजाओ रे कान्हा’, गुण सुन्दरी फिल्म का गगरी छलक न जाये गोरी जमुना के तीर’, नाचवाली फिल्म का झूलना डला दे प्यारी ऋतु बसन्त आयी’, तूफान मेल फिल्म का आली री प्रियतम घर आये

                इसी के साथ यह जानना भी दिलचस्प है कि बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में कोठे और महफिलें वैसी पारम्परिक ढंग की नहीं रह गयीं थीं, जिस तरह वह नवाबी शासनकाल के दौरान या वाजिद अली शाह के समय में होती थीं। बम्बई, कलकत्ते और बनारस के बड़े व्यापारी भी संगीत की महफिलें कराने लगे थे और बाईयों का संगीत मुख्यतः तीन भागों में विभक्त हो गया था। एक तरफ वे बाईयाँ थीं, जिनका काम पारम्परिक दरबारी संगीत और महफिल सजाना रह गया था। साथ ही जिनके यहाँ नवाबों और राजाओं के अलावा पैसेवाले व्यापारी वर्ग के लोग भी शामिल होने लगे थे। कलकत्ता और मुम्बई इसका मुख्य केन्द्र था। दूसरी तरफ वह परिदृश्य था, जिसमें उर्स, दरगाह, मेलों और त्यौहारों में होने वाली संगीत सभाएँ और दंगल में होने वाली बाईयों की भागीदारी प्रमुख थी। इसमें आज भी मिर्जापुर में होने वाला कजरी का दंगल, बनारस में बुढ़वा मंगल और देव दीपावली की महफिलें तथा ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और निजामुद्दीन औलिया के दरगाहों पर होने वाली जियारतें शामिल की जा सकती हैं। तीसरी ओर उन म्यूजिक कम्पनियों का दखल इन औरतों की जिन्दगी में बढ़ने लगा था, जिनके लिये कभी-कभार उनके अनुरोध पर दादरा और कजरी की रिकार्डिंग कराना, एक नयी रवायत की शुरुआत जैसा बनने लगा था।

                बाईयों, कोठों तथा महफिलों से अलग एक धारा ऐसी पेशेवर गायिकाओं की भी थी, जिनका फिल्म संगीत पर गहरा प्रभाव रहा। दिलचस्प तथ्य यह है कि यह गायिकाएँ महफिली संगीत से सर्वथा दूर थीं और ज्यादातर बंगाल की पृष्ठभूमि से निकलकर आयी थीं। इस परम्परा में हम जूथिका राय, कानन देवी एवं पारुल घोष को याद कर सकते हैं।

                हिन्दी फिल्म संगीत के आरम्भिक दौर के बनने की प्रक्रिया के तहत एक खास तथ्य की ओर अलग से इशारा करना चाहता हूँ कि इनमें उन महफिलों की अपनी निजी परम्परा का भी परोक्ष रूप से योगदान रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि हर बाई के कोठे पर परम्परागत रूप से कुछ कायदे निभाये जाते थे। वे तवायफें और बाईयाँ राजदरबारों में या खुद के कोठों पर महफिलों को जिन तरीकों से सजाती थीं, उन्हें बैठकी महफिलतथा खड़ी महफिलकहते थे। बैठकी महफिलका चलन ज्यादा था क्योंकि इसमें ठुमरी, दादरा, सादरा, होली और गज़ल आदि का भावपूर्ण प्रदर्शन गायिका बैठे हुए करती थी। बाईयों का भारी कपड़ा और श्रृंगार आम लोगों के आकर्षण का केन्द्र हुआ करता था, जिसे पेशवाजा कहते हैं। खड़ी महफिलकभी-कभार ही होती थी, जिसमें गानों की अदायगी थोड़े अंग-संचालन के साथ गायिका खड़े हुए करती थी। एक प्रकार से इसे हम मुजरे का प्रकार ही कह सकते हैं। संगतिये गायिका के पीछे-पीछे चलते थे, कभी-कभार तो दौड़ते भी थे। कब समआएगा, कब ठेकालेना है- इसका ख़ास ख़्याल रखते थे। तबलानवाज़ों के तबले उनके कमर में कसे हुए आगे को लटके रहते थे। गायिका घूम-घूमकर महफिल में अपने फन का रंग बिखेरती थी।

                बेगम अख़्तर के यहाँ होने वाली बैठकी महफिल की एक सुन्दर छवि हमें बहुत बाद में जाकर सन् 1958में बनी सत्यजित रे की फिल्म जलसाघरमें जस की तस बेगम पर ही फिल्मायी हुई दिखायी जाती है। वे बैठकी महफिल करती हुईं एक महत्त्वपूर्ण बन्दिश गाती हैं- हे भर-भर आयीं मोरी अँखियाँ पिया बिन/घिर घिर आयी काली बदरिया/धड़कन लागी मोरी छतियाँ पिया बिन

                इस तरह म्यूजिक कम्पनियों से व्यापक लेन-देन और सौहाद्र्रपूर्ण मित्रता के चलते ढेरों ख्याल-ठुमरियाँ, गज़ल-गीत, भजन और नाट्य पद आदि फिल्मों की भी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बन गये। आज हम आसानी से ढेरों ऐसे प्रचलित मशहूर फिल्मी गीतों को जाँच सकते हैं, जो कभी बनारसी कजरी या महफिली मुजरा का अंग होते थे। उदाहरण के तौर पर बनारस में मशहूर राग मिश्र खमाज की ठुमरी ठाढ़े रहियो ओ बाँके श्याम हो’, जिसे सिद्धेश्वरी देवी से लेकर शोभा गुर्टू तक गाती रही हैंपाकीजा फिल्म में बदलकर ठाढ़े रहियो हो बाँके यार होइस्तेमाल हुआ। इसी तरह राग मिश्र गारा की बनारसी ठुमरी मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रेजस का तस मुगले आज़म में प्रयुक्त हुई और बृज की पारम्परिक लोकधुन निबुआ तले डोला रख दे मुसाफिर सावन की आयी बहार रेपर बन्दिनी में अबके बरस भेज भैय्या को बाबुलजैसा हृदयस्पर्शी गीत रचा गया। गंगा जुमना का बेहद मशहूर गीत ढूँढ़ो-ढूँढ़ो रे साजना मोरे कान का बाला’, पूरब अंग के एक दादरा गंगा रेती पर बँगला छवा मोरे राजापर आधारित था।

                फिल्म संगीत पर कोठों के जो अधिकांश शुरूआती प्रभाव लक्षित किये जाते हैं, उनमें महत्त्वपूर्ण भूमिका उनके साजिन्दों की भी होती थी। स्वयं संगीतकार नौशाद ने यह स्वीकारा है कि उनकी फिल्मों के संगीत पर जो असर है वह अवध की तवायफी गज़ल और बन्दिशों का है। उन्होंने लखनऊ और बनारस के अधिकांश कोठों के इर्द-गिर्द बसे हुए पुराने साजिन्दों को पकड़कर अपनी धुनों में वैसा प्रभाव डालने की कोशिश की है, जैसी उन दिनों खड़ी और बैठकी महफिलों में होती थी। लच्छू महराज भी फिल्मों से जुड़े हुए थे और उन्होंने भी अधिकांश जानकारियाँ इसी तरह की फिल्मवालों को उपलब्ध करायीं। अमृतलाल नागर ने अपने ऐतिहासिक कार्य ये कोठेवालियाँमें साजिन्दों की इसी भूमिका पर ढेरों बाते कही हैं।

                अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अम्बालावाली, राजकुमारी, खुर्शीद, सुरैया और नसीम बानो आदि ऐसी महत्त्वपूर्ण गायिकाएँ, अभिनेत्रियाँ एवं तवायफों की परम्परा की प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्रियाँ हुईं, जिन्होंने एक हद तक दरबार संगीत या महफिली संगीत को फिल्मों के रूपहले पर्दे पर जीवन्त किया। इन्हीं लोगों के दौर का प्रभाव बाद तक लक्षित किया जा सकता है। इसी समय तीन-चार महत्त्वपूर्ण बातें हुईं, जिन्होंने आरम्भिक फिल्म परिदृश्य को बदलने के साथ-साथ फिल्म संगीत की दुनिया को भी नये सिरे से गढ़ना शुरू किया। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात 1947में भारत की आजादी से सम्बद्ध है, जब उस दौरान आजादी के कारण उपजा उथल-पुथल भरा समाज सांस्कृतिक रूप से काफी कुछ बदलने लगा।

                1947में भारत-पाक विभाजन के साथ नूरजहाँ, रोशनआरा बेगम और मलका पुखराज जैसी बड़ी गायिकाएँ पाकिस्तान चली गयीं। सुरैया का कॅरियर इस समय शीर्ष पर था और लता मंगेशकर 1949के साथ बरसातऔर महलजैसी फिल्मों से फिल्मी परिदृश्य पर मजबूती के साथ स्थापित हो रही थीं। 1946में सहगल की मृत्यु के साथ सहगल युग का अन्त हो गया था और अब उसकी सिर्फ प्रतिध्वनियाँ बची थीं, जो लता और मुकेश आदि के आरम्भिक गानों में लक्षित की जा सकती हैं। धीरे-धीरे लता मंगेशकर ने जब अपना मुहावरा विकसित किया, तब तक स्त्री गायन का परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका था और 1935से 1945तक की बहुतेरी बाईयों, अभिनेत्रियों का जमाना गुमनामी के अन्धेरे में जा चुका था।

                ऐसे में नौशाद, सी. रामचन्द्र, एस.डी. बर्मन, अनिल विश्वास, सलिल चौधरी और पण्डित रविशंकर की तमाम संगीतबद्ध फिल्मों का नया दौर आया, जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोकधुनें एवं बनारसी महफिल संगीत की धड़कनें अंतर्धारा की तरह बहुत सूक्ष्म ढंग से बहती हुई सुनी जा सकती है। खासकर पचास और साठ के दशक की कुछ बेहद उल्लेखनीय संगीतमय फिल्में, जिनमें हम आज भी फिल्म संगीत का स्वर्णिम दौर सुन सकते हैं। उदाहरण के तौर पर- बसन्त बहार, शबाब, बैजू बावरा, अनारकली, आजाद, उड़न खटोला, अन्दाज, नौबहार, गंगा जमुना, लीडर, झनक झनक पायल बाजे, बहार, मुगले आजम, चित्रलेखा, मदर इण्डिया, फागुन, ममता, बर्मा रोड, मयूरपंख, रानी रूपमती और सेनापति जैसी फिल्में। मगर इस बात से कौन इनकार करेगा कि बसन्त बहार, बैजू बावरा और चित्रलेखा जैसी फिल्मों के उत्कृष्ट संगीत तक पहुँचने में हमें जो समय लगा, उसकी नींव में न जाने कितनी जानी-अनजानी पेशेवर बाईयों, तवायफों की गायिकी का योगदान रहा। साथ ही उनकी शुरुआती दौर की फिल्मों के संगीत का धरातल; जिनमे भूले-बिसरे कुछ फिल्मों के दिलचस्प नाम आज भी याद आ जाते हैं, जैसे, खूनी खंजर, दिल की प्यास, हूरे बगदाद और गुल सनोबर आदि।

लोकनायक बनाम महानायक

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11 को लोकनायक और महानयक दोनों का जन्मदिन पड़ता है. लोकनायक धीरे धीरे दूसरी आजादी के झूठ की तरह हमारी स्मृतियों से मिटते गए लेकिन महानायक का कद बढ़ता गया. बहरहाल, इस विडम्बना पर पत्रकार, कवि अनुराग अन्वेषीने यह व्यंग्य लिखा है. पढियेगा- मॉडरेटर.
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11 अक्टूबर की बिग पार्टी का हैंगओवर उतरा भी नहीं था कि बिग बी को जूनियर बी ने उठा दिया। एक बुड्ढा मिलने आया है आपसे। खुद को सत्तर के दशक का हीरो बता रहा है जूनियर बी ने कहा था। बिग बी चौंके कि अरे, अभी तो रात में मिले थे दिलीप साहेब...फिर इतनी सुबह-सुबह क्यों आए भला। इस सवाल से जूझते हुए बिग बी ने तुरंत जूनियर को झाड़ लगाई, यह कोई तरीका है दिलीप साहेब के लिए ऐसा बोलने का? जूनियर बी ने कहा, अरे पापा। दिलीप अंकल को नहीं पहचानूंगा क्या। ये बुड्ढा अपना नाम जेपी बताता है।

अब चौंकने की बारी बिग बी की थी। दिमाग पर खूब जोर डाला कि ये जेपी कौन है? जब नहीं याद आया तो चल पड़े जलसा के आराध्या हॉल में, जहां जेपी को बैठाया गया था। पहचाना नहीं लेकिन कुशल कलाकार की तरह मुस्कुराते हुए पूछा, अरे आप! कैसे हैं? इतनी सुबह-सुबह इधर आना कैसे हुआ?

जेपी : शुक्र है कि तुमने मुझे पहचान लिया, तुम्हारे बेटे ने तो मुझे पहचाना भी नहीं।

बिग बी : अरे जनाब, ये नई पीढ़ी के बच्चे... खैर जाने दें, उनकी ओर से मैं क्षमाप्रार्थी हूं। और दरअसल क्षमाप्रार्थी तो मुझे ही होना चाहिए न कि इतनी समझ भी मैं उसमें पैदा नहीं कर सका जैसा मेरे पिता ने मेरे भीतर कर दिया था। अरे हां, आप बताएं, इधर कैसे आना हुआ।

जेपी  : जब मैं यहां के लिए चला था तो सोच रहा था कि कोई मुझे घुसने भी देगा भला? वो तो शुक्र है आपके उस बूढ़े गार्ड का। उसने मुझे पहचान लिया। राममेहर... हां यही नाम बताया था उसने। और देखिए उसकी श्रद्धा कि उसने मेरे पांव छुए। बताया कि 74 के छात्र आंदोलन में वह मेरे साथ था, बिहार के किसी छोटे इलाके के छात्रों की अगुवाई करता था।

बिग बी की आंखों में चमक आ गई, यह सोचकर कि बातों ही बातों में मैंने इन्हें पहचान लिया और इन्हें पता भी नहीं चलने दिया कि पहचान नहीं पाया था। उनकी आवाज में और अधिक मिठास घुल चुकी थी। कहा अरे बाबूजी, भला आपको कौन नहीं पहचानेगाआखिर आप लोकनायक रहे हैं।
जेपी  :  यही तो मैं भी पूछने चला आया कि आखिर इस लोकनायक के जन्मदिन को भूल लोग सिर्फ महानायक के जन्मदिन में डूबे क्यों रहे?

बिग बी : मतलब? अरे हांsss, कल आपका भी तो जन्मदिन था।

जेपी : देखो, मुझे घुमा-फिरा कर पूछने की आदत न पहले थी, न अब है। कैसे मैनेज करते हो यह सब कि हर तरफ तुम्हारे ही जयकारे लगते हैं, तुम्हारी ही धूम मची होती है।

बिग बी : देखिए बाबूजी, उम्र में तो आप हमारे बाप लगते हो, मगर नाम हमारा भी है शहंशाह। मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता, पर सच है कि पैसा आज भी फेंकता हूं। बस्स, यहीं चल जाता है हमारा जादू कि सत्तर के दशक का लोकनायक भले लोगों को याद न रहे पर बहत्तर का होकर भी महानायक याद रह जाता है।

जेपी : ...पर वह जो भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकी थी मैंने, जिस सुनहरे देश के सपने देखे थे मैंने, लड़ने का जो तरीका सिखाया था मैंने... संपूर्ण क्रांति...क्या वो सब के सब बेकार थे?

बिग बी :  ऐसे कमजोर न पड़ें बाबूजी। देखिए, आपके आदर्शों को हमने अपने जीवन में उतारा है। आपके खेमे से पैदा हुए नीतीश, लालू, सुशील मोदी... सब के सब तो आपके ही चेले हैं। सबकी मंजिल वही है कांग्रेस की सत्ता उखाड़ फेंकना। हां, यह अलग बात है कि सबके रास्ते अलग-अलग हैं। कोई साथ रहकर जड़ में मट्ठा डालने का काम कर रहा है तो कोई बड़ी मछली का शिकार करने के तरीके से फांस को कभी ढील दे रहा है तो कभी खींच रहा है। सब अपनी बारी का धैर्य से इंतजार कर रहे हैं।

जेपी को गहरे सोच में डूबा देख बिग बी ने कहना जारी रखा और मैं...मैं तो फिल्मों के जरिए आपकी संपूर्ण क्रांति को जगाए रखा हूं। मेरी फिल्मों में आप अपने सातों क्रांति का रस देख सकते हैं।

जेपी के चेहरे पर न हताशा दिख रही थी न क्षोभ। वह तटस्थ भाव से उठे और बाहर की ओर चल दिए। बिग बी ने कुछ कहना चाहा तो उन्होंने इशारे से उन्हें रोक दिया और सिर्फ इतना ही कहा  : मैं जानता हूं कि तुम जहां खड़े होते हो लाइन वहीं से शुरू हो जाती है, पर तुम्हारे पीछे खड़े लोगों को यह सोचने की जरूरत है कि आखिर वह लाइन जाती कहां है? इतना कहकर जेपी तेज कदमों से बाहर की ओर निकल गए।


मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। सपना देख रहा था। मेरी नींद तो टूट गई, पर सच बताना आपकी नींद कब टूटेगी?

लेखक संपर्क: anuraganveshi@gmail.com

सवालों के घेरे में 'दलाल की बीवी'के लेखक रवि बुले

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रवि बुलेके लेखन को मैं गंभीरता से लेता रहा हूँ. हँसते हँसते रुला देने वाली कहानियों का लेखक. पॉपुलर और सीरियस को फेंटने वाला लेखक. लेकिन इधर उन्होंने 'दलाल की बीवी'नामक उपन्यास में 'मंदी के दिनों में लव सेक्स और धोखे की कहानी'क्या लिखी कि सवालों के घेरे में आ गए. यह साहित्य की कौन सी परंपरा है? क्या लेखक ने सीरियस और पॉपुलर को फेंटते फेंटते पॉपुलर के सामने पूरा सरेंडर कर दिया है? क्या यह पतन है? जानकी पुल के सवालों के घेरे में आ गए रवि बुले. पढ़िए उनसे एक रोचक बातचीत. हम सवालों के फेंस लगाते रहे, वे उनके जवाब फेंस तोड़ कर बाहर निकलने को छटपटाते रहे- प्रभात रंजन 
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-हिंदी में गंभीर लेखन की एक ही परंपरा मानी जाती है-प्रेमचंद की परंपरा। आप खुद को किस परंपरा का लेखक मानते हैं?

- क्या आपको लगता है कि ‘दलाल की बीवी’ गंभीर लेखन नहीं है? सवाल यह भी है कि क्या साहित्य की कसौटी सिर्फ तथाकथित गंभीरता को ही माना जाना चाहिए? गंभीरता की आपकी परिभाषा क्या है? वैसे बहुत सारे लेखकों को देखें तो उनकी गंभीरता बीमारी की तरह उनकी रचनाओं में दिखती है। प्रेमचंद की परंपरा को मात्र गंभीर कह कर समेट देना मुझे सही नहीं लगता। वह हिंदी के सबसे ‘पापुलर राइटर’ हैं। कोई शक...? वह हिंदी पाठकों के संसार में सबसे ज्यादा ग्राह्य है। जब आप कहते हैं कि प्रेमचंद की परंपरा ही हिंदी साहित्य में गंभीर मानी जाती है तो लगता है कि हमारे साहित्य में लाइन यहीं से शुरू होती है। उनसे पहले कोई हुआ ही नहीं। कबीर, सूर और तुलसी को कहां खड़ा करेंगे? मुझे लगता है कि कोई भी जब रचना करता है तो वह किसी परंपरा में खड़ा होने के लिए नहीं रचता। वह सिर्फ अपनी बात अपने अंदाज में कहता है। फिर वह दौर या परंपरा की किसी कड़ी में जुड़ जाए तो अच्छी बात।

-आपकी ही पंक्ति उधार लेकर कहूं तो ‘कल हमारे बच्चों के पास कैसी कहानियां होंगी?’

-यह सचमुच एक डराने वाला खयाल है। जिस समय और समाज में हम रह रहे हैं वहां अपराध का डर हर पल है। कोई भी कहीं भी शिकार हो सकता है। एक संस्कृति पनप चुकी है जिसमें सब कुछ संदिग्ध है। किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसे में रची गई कहानियां कैसी हो सकती हैं? कल की क्या कहें, आज ही बच्चों को सुनाने बताने के लिए हमारे पास कौन सी बहुत सुखद बाते हैं? माता-पिता बहुत सारी बातों से बच्चों को बचा कर रखना चाहते हैं, लेकिन नहीं बचा पाते। बच्चों का आज ही संकटग्रस्त नजर आ रहा है। उपन्यास में एक बिल्ली अपने बच्चों को कहानी सुना रही है कि राजा को जब रानी से प्यार नहीं रहा तो उसे संसार की किसी भी चीज से प्यार नहीं रहा। मगर बच्चों के पास उसी राजा की कहानी है कि उसने रानी से बदला लिया। रानी की हत्या की। रानी को भ्रष्ट करने वालों को अपनी तलवार से मौत के घाट उतारा। बच्चों की कहानियों में वक्त के साथ सेंध लग चुकी है।

- क्या आज साहित्यकार को आदर्शों से दूर हो जाना चाहिए?

-कोई भी रचनाकार चाह कर भी आदर्शों को त्याग कर कुछ नहीं रच सकता। आदर्श कमोबेश रचना की नींव में होते हैं। हां, यह जरूर है कि उस नींव पर तैयार होती हुई रचना का डिजाइन कैसा बनता है। बाहर से वह रचना कैसी दिखाई देती है।

- आपने अपने पहले उपन्यास का शीर्षक इतना साहसी चुना मठाधीशों-आलोचकों से डर नहीं लगता है आपको क्या?

-उपन्यास का शीर्षक मुझे ऐसा चाहिए था जो आकर्षक हो। उसे देख कर सामान्य पाठक का मन किताब पढ़ने का हो। अगर यह आपको साहसी लगता है तो इसके लिए धन्यवाद। यह उपन्यास हर पाठक वर्ग के लिए है। मठाधीशों-आलोचकों से आज तक मेरा सामना नहीं हुआ। वैसे यह जानना रुचिकर होगा कि ‘दलाल’ ‘की’ ‘बीवी’ इन तीन शब्दों में ऐसा कौन सा शब्द है जिससे मठाधीश-आलोचक डर जाएं? आप बताएं कि क्या हिंदी में कुछ भी लिखने के लिए मठाधीशों-आलोचकों की अनुमति जरूरी है?

- अपने उपन्यास को हमारे पाठकों के लिए दो वाक्य में परिभाषित कीजिए प्लीज!

-शीर्षक के साथ एक उपवाक्य भी हैः मंदी के दिनों में लव सेक्स और धोखे की कहानी। इस कहानी के केंद्र में वेश्यावृत्ति के धंधे का एक दलाल और उसकी बार डांसर रह चुकी बीवी है। लेकिन उनसे भी बढ़ कर उनके आस-पास का संसार है, जो पल-पल बदल रहा है।

- कहते हैं मुंबई सपनों का शहर है। लेकिन आपने उपन्यास में जिस मुंबई को दिखाया है वह दुस्स्वप्न का शहर है। यथार्थ के कितने करीब है यह उपन्यास?

-मुंबई वह शहर है जिससे आप एक साथ प्यार और नफरत कर सकते हैं। यह संभवतः देश का एकमात्र शहर से जिसे कवियों, लेखकों और कलाकारों ने अपने-अपने ढंग से नाम दिए। किसी के लिए यह सपनों की नगरी है, किसी के लिए मायानगरी। किसी की नजर में हादसों का शहर है तो किसी के लिए कामयाबी की मंजिल। कोई इसे माशूका मानता है तो कोई मां। मराठी के लोकप्रिय कवि नामदेव ढसाल ने तो मुंबई को अपनी प्रिय रांड बताया है! यह महानगर स्वप्न और दुस्वप्न एक साथ है। उपन्यास में भी आप देखेंगे कि यहां सपने देखने वाली आंखें हैं तो दुस्वप्नों में दर्ज हो गए किरदार भी मौजूद हैं। उपन्यास में फंतासी भी यथार्थ ही है।


- मुझे याद आता है कि मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में भी एक मुंबई को दिखाया गया है। उसके 35 साल बाद आपका यह उपन्यास आया है। बीच में समंदर में कितने ही ज्वार-भाटे आए। मुंबई के किन बदलावों को आप देख पाते हैं, महसूस करते हैं?

-बदलाव ही जिंदगी का लक्षण है। मुंबई ही एक ऐसा शहर है जिसके पिछले सौ सालों में बदलने का पूरा रिकॉर्ड आपको साहित्य और सिनेमा में मिल जाएगा। समुंदर में कितने ही ज्वार-भाटे आएं हों यह महानगर पूरी जीवंतता के साथ अडिग है। बीते 35 बरसों में मुंबई का आकार-प्रकार तो बदला ही है, यहां की राजनीति और लोग भी बदले हैं। बीते कुछ बरसों में यहां के लोगों में अनुशासन कुछ कम हुआ है और शहर में गंदगी बढ़ी है। यह बढ़ती आबादी का नतीजा है। ग्लैमर की दुनिया का आकर्षण ज्यों का त्यों है, मगर इस दुनिया में मौके अब पहले की तुलना में काफी बढ़ गए हैं। अपराध बढ़ने के बावजूद कई शहरों के मुकाबले यह सुरक्षित है।

- दलाल का रूपक क्या है?

-उपन्यास का दलाल रूप भी है और रूपक भी। आप पाएंगे कि उपन्यास में उसका कोई नाम नहीं है। एक वक्त था जब दलाल बुरा शब्द था। दलाली बुरा शब्द था। अब नहीं है। दलाल आज ‘मिडिलमैन’ है। ‘ब्रोकर’ है। जो हर ठहरी हुई राह में बीच का रास्ता खोज निकालता है। दलाल अब स्मार्ट आदमी है और दलाली कला है। करियर है। राजनीति और प्रशासन से लेकर शिक्षा और अस्पताल तक की व्यवस्था में दलाल पूरी बेशर्मी के साथ दलाली वसूलते हैं। पूरे विश्व में दलाल अब स्थापित और सम्मानित हैं। कहीं भी जाइए आप इससे बच नहीं सकते। असली व्यक्ति अब दलाल ही है, जो चीजों को नियंत्रित करता है। यह गेमचेंजर है। किंगमेकर भी है।

- आखिरीसवाल यह है कि मुझे यह उपन्यास क्यों पढ़ना चाहिए?

-अपने समय के चाल-चरित्र को देखने-समझने के लिए। अपने आस-पास घट रही कहानियों को अनुभव करने और उनका आनंद लेने के लिए।

'दलाल की बीवी'उपन्यास हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन से प्रकाशित है. 

इस्लाम की पश्चिमी छवि और 'दफ्न होती जिंदगी'

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जिस अखबार, जिस मैगजीन को उठाइए उसमें कुछ चुनिन्दा प्रकाशकों की किताबों के बारे में ही चर्चा होती है। एक तो मीडिया में साहित्य का स्पेस सिमटता जा रहा है, दूसरे उस सिमटते स्पेस में भी चर्चा कुछ ‘ख़ास’ ठप्पों वाली किताबों तक सिमटती जा रही है। नतीजा यह होता है कि हमें बहुत सारी अच्छी या जरूरी किताबों के प्रकाशन का पता ही नहीं चलता। कुछ का पता फेसबुक आदि से चल जाता है, कईयों का वहां भी नहीं। मिसाल के लिए, तुर्की की नायाब किताबों के बारे में मुझे भी पता नहीं चला होता अगर चार किताबों का नायाब तोहफा मुझे यात्रा बुक्स से न मिला होता। ये चारों किताबें तुर्की के लेखकों की हैं, उन लेखकों की जो वहां के लोकप्रिय, चर्चित लेखक हैं।

मैं इन किताबों के ऊपर बारी-बारी से लिखने की कोशिश करूँगा। सबसे पहले आज जिस उपन्यास की चर्चा करने जा रहा हूँ वह है 2011 में तुर्की के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास के रूप में पुरस्कृत उपन्यास ‘दफ्न होती जिंदगी’, लेखक हैं हाकान गुंडे। अंग्रेजी के माध्यम से उसे सहज, सरल भाषा में हम तक पहुंचाने का काम किया है स्पैनिश भाषा की विदुषी, मार्केज़ के उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सौलिट्युड’ के ऊपर शोध करने वाली, शोध के अंतर्गत उसका अनुवाद करने वाली विदुषी मनीषा तनेजाने। तुर्की में दो तरह के उपन्यास खूब लिखे और पढ़े जाते हैं- एक तो वहां अपराध कथाएं खूब लिखी जाती हैं और पढ़ी भी जाती हैं, वैसे उपन्यास जिनको अंग्रेजी में थ्रिलर कहते हैं। दूसरे, वैसे उपन्यास जिनके एक आदर्श मॉडल के रूप में मैं ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ को देखता हूँ। यानी एक ‘उदार’ समाज में कट्टरतावादी इस्लामिक संगठनों के संघर्ष की खूंरेज कहानी। ऐसे कथानक ‘वेस्ट’ के पाठकों को खूब पसंद आते हैं, जो उनके सामने इस्लाम की एक बर्बर छवि पेश करता है। ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के दौर में इस्लाम को कट्टर बताकर, बर्बर बताकर, मध्युगीन सोच का बताकर पश्चिमी समाज अपनी श्रेष्ठता को पेश कर पाता है। ऐसे कथानक को आधार बनाकर लिखे गए उपन्यासों को एक बड़ा पाठक वर्ग मिलता है, ईनाम इकराम मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है।

हाकान गुंडे का यह उपन्यास इसी दूसरे वर्ग का उपन्यास है। एक देरदा है जिसका विवाह 11 साल की उम्र में एक शेख के बेटे से करा दिया जाता है। उपन्यास में जब वह प्रसंग आता है कि गाँव में शेख की गाड़ियों का काफिला जब लड़की पसंद करने के लिए गाँव में आता है तो गाँव का माहौल जिस तरह का दिखाया गया है उससे मुझे बरबस सागर सरहदी की फिल्म ‘बाजार’ की याद आ गई, जिसमें खाड़ी देश का एक पैसे वाला अधेड़ हैदराबाद आता है लड़की पसंद करने ताकि उससे शादी रचाई जा सके। होड़ मच जाती है कि वह मेरी लड़की खरीद ले, वह मेरी लड़की खरीद ले। बहरहाल, देरदा को ब्याह कर लन्दन ले जाया जाता है, वहां पांच साल एक अपार्टमेंट में वह कैदी की तरह पांच साल तक रहती है, जहाँ अपने मर्द की हवस शांत करने एक अलावा उसके पास कोई काम नहीं होता है। एक दिनव अह वहां से भाग निकलती है, हेरोइन की आदी हो जाती है। उसे ऐनी नाम की एक औरत दूसरी जिंदगी देती है। वह पेशे से नर्स होती है, लेकिन देरदा को वह अपनी बेटी की तरह से रखती है। उसकी जिंदगी बदल जाती है। एक दर्द है, कब्रिस्तान में खेलने वाला, ओज्ञुस अतय है। सबके जीवन का अँधेरा पक्ष है, सबके जीवन में उजाला है।

ऐसी कई जिंदगियां हैं, तुर्की के लिए प्यार है, उसके समाज की पेचीदगियां हैं, जीवन के उतार-चढ़ाव हैं, धर्म की बनती-टूटती दीवारों के बीच इंसानियत का उजाला है जो सबको जोड़े रखता है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस्लाम के नाम पर होने वाले अत्याचार को केंद्र बनाकर लिखे गए इस उपन्यास का यूएसपी यही है कि इस्लाम कट्टरता बढाता है, दूरियां पैदा करता है, धर्म के नाम पर इंसानी जिंदगियों को दफ्न कर देता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि हाकान गुंडे ने अपराध कथाओं की गुत्थियों में, पेचीदगियों में, इंसानी रिश्तों के जज्बात का ऐसा रसायन मिलाया है कि आप उपन्यास की रहस्मयी दुनिया में धंसते चले जाते हैं. 

शुक्रिया यात्रा बुक्स, सबसे बढ़कर शुक्रिया मनीषा तनेजा हमारी भाषा में सहज अनुवाद के जरिये यह उपन्यास पहुंचाने के लिए!

पढियेगा तो हो सकता है, बहुत सारे बने बनाए पूर्वग्रह पुख्ता होंगे, लेकिन यकीन मानिए बहुत सारे टूट भी जायेंगे।

- प्रभात रंजन 


उपन्यास- दफ्न होती जिंदगी, लेखक- हाकान गुंडे, प्रकाशक- यात्रा बुक्स, भारतीय अनुवाद परिषद्, मूल्य- 295 रुपये.   
http://www.uread.com/book/dafn-hoti-zindagi-hakan-gunday/9789383125067                 

पड़ोसी की इमारत और कल्लन ख़ालू का दुख

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सदफ नाज़ के व्यंग्य की अपनी ख़ास शैली है. व्यंग्य चाहे सियासी हो, चाहे इस तरह का सामाजिक- उनकी भाषा, उनकी शैली अलग से ही नजर आ जाती है. आप भी पढ़िए और बताइए- मॉडरेटर 
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हमारी मुंह-भोली पड़ोसन पिछले दिनों हमारे घर आईं तो काफी दुखी लग रही थीं। मुंह भी सूजा हुआ था।मालूम हुआ कि बिचारी हल्के डिप्रेशन और मौसमी तबियत की नासाजी से गुजर रही हैं। लेकिन दो समोसे एक पेस्ट्री और चाय के साथ जल्द ही उन्होंने दिल का असली अहवाल सुना डाला। पड़ोसन के दुख और तबियत की नासाजी की वजह उनकी फेवरेटननद का सरप्राईज था। हुआ यूं कि पड़ोसन ने एक फैमिली फंक्शन के लिए लेटेस्ट डिजाइन वाले गोल्ड के नेकलेस और झुमके खरीदे थे। बिचारी मन ही मन खुश थीं कि फंक्शन के दिन पूरा इंप्रेशन जमेगा। कई तो जल-जल मरेंगी। लेकिन उनकी खुशी पर उस वक्त पानी फिर गया जब उन्हें मालूम हुआ कि उनकी फेवरेटननद ने भी उसी फंक्शन के लिए डाइमंड के झुमके और नेकलेस खरीदे हैं। अब बिचारी पड़ोसन का ग़मज़दा होना लाज़िमी है क्योंकि कमबख़्त डायमंडके आगे उनके गोल्ड ज्वेलरी से कौन इंप्रेस होगा?

हमें दुखी करने के लिए हमारी सोसायटी में ऐसे हादसात होते ही रहते हैं। बात ऐसी है कि हम इंसान इतने रहमदिल हैं कि हमेशा ही दूसरों की ख़ातिर ग़मज़दा रहते हैं। हम अपने बैंक बैलेंस-आमदनी और जिंदगी से तब तक खुश नहीं होते जब तक कि यह साबित न हो जाए कि हमारे कलिग-पड़ोसी-रिश्तेदार के मुकाबले हमारा पलड़ा भारी है। ख़ुदा ना ख़ास्ता पड़ला हल्का हो गया तो दिल का दर्द बढ़ जाता है। साइंसदान भी मानते हैं कि ये हम इंसानों की पुश्तैनी(जैविक) आदत है कि हम हर चीज को दूसरों से मुआज़नह (तुलना) करने के बाद ही खुद की हैसियत-पैसे-हालात की सही-सही कीमत आंक पाते हैं। हमारी जुब्बा ख़ाला भी कहती हैं कि  इंसान अजीबुल फितरत (अलग प्रकृति)होता है, इसे अपने दुख और कमियां तो बर्दाश्त होती हैं, लेकिन दूसरों की ख़ूबीयां और खूशी बिलकुल भी नहीं!’

अगर जुब्बा ख़ाला पर आपको शक है तो आप खुद ही इसकी बानगी देखिए कि अक्सर बरसों तक बिना तरक्की के भी खुश-ख़र्गोश के मज़े लूटने वाले लोगों को जैसे ही पता चलता है कि उनके कलिग की तरक्की हुई है;बिचारों की सारी खुशी छू हो जाती है। और दुखी दिल से कैलकुलेशन करने लगते हैं, कि ओ....... फलां तो बॉस का चमचा रहा है, ढिमका ने जरूर तरक्की के लिए कोई जुगत लगाई होगी वगैरह-वगैरह!वैसे इस मामले में हमारी सोसायटी की मोहतरमाओं का हाल तो आप पूछिए ही मत!ये बिचारियां तो अपने नाज़ुक कांधो पर दूसरों के ही दुख उठाए फिरती हैं। इनकी पंसदीदा बीमारियां मसलन हल्का डिप्रेशन, हेडेक, मौसमी तबियत की नासाजी, मूड में फ़्लक्चुएशन और इस किस्म की जितनी भी बीमारियां हैं. अक्सर ननद, भाभी, देवरानी, जिठानी, सास, पड़ोसिन यहां तक कि दिलअज़ीज़सहेलियों के दुख में ही वारिद होती हैं।यूं भी आप माने या ना माने दर्द भरे दिल से हमारा माशरा(समाज) भरा पड़ा है। किसी को इसकी खुशी से दुख है तो किसी को उसकी खुशी से दुख है!

 आप खुद ही देखें कि किसी का बच्चा अगर अपने हालात और सिचुएशन के मुताबिक जिंदगी में ठीक-ठाक जा रहा है, तो उनके मां-बाप इसकी खुशी मनाने की जगह, पड़ोसी-रिश्तेदार के बच्चों की कामयाबी का दुख मनाने में बिज़ी रहते हैं। आप कल्लन खालू का ही किस्सा लें बिचारे खालू ने बड़े चाव से बरसों की जमापुंजी लगा कर शानदार घर तैयार करवाया था। लेकिन उनके पड़ोसी ने उनसे भी ऊंची और शानदार इमारत तैयार करवाई। अब अपने घर की खुशी मनाने की बजाए बिचारे कल्लन खालू सुबह शाम अपनी बॉलकनी में लटके पड़ोसी की इमारत देख-देख चाय के साथ दुख के घूंट पीते रहते हैं। उनकी मिसेज ने इस साखिए को दिल और रेपोटेशन पर इतना ले लिया कि उन्हें मूड डिसआर्डर का मर्ज़ हो गया है। बिचारी दुखी रहती हैं कि निगोड़ी पड़ोसन ने उनके घर में ताक-झांक कर उनके जतन से मंगवाए यूनीक स्वीच बोर्ड और टाईल्स के डिज़ाइन का आइडिया चोरी कर हूबहू अपने घऱ में लगवा लिया है। ख़ाला का बस नही चलता है कि वो अपनी कमबख़्त पड़ोसन पर कॉपीराईट-पेटेंट जैसे जो भी कानून हैं, उनके वाएलेशन का दो-चार मुकदमा ठोंक दें। बिचारी अपने घर की शान और यूनिकनेस ख़त्म होने के ग़म से उबर ही नहीं पा रही हैं। वैसे कहीं आप भी तो उन लोगों में शामिल नहीं जो कलिग के प्रोमोशन देख ट्रेजडी किंग की तरह एक्ट करते हैं और पड़ोसी नए मॉडल की कार खरीदे तो इनकम टैक्स ऑफिसर की तरह रिएक्ट करते हैं ?
खुशबाश!


जिसे दुनिया मनमोहन देसाई कहती थी!

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महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में ड्रामा से अधिक मेलोड्रामा का तत्त्व हावी रहा, मेलोड्रामा बढ़ते ही मनमोहन देसाईकी याद आती है. मुझे याद आता है कमलेश्वर जी कहते थे कि हिंदी का लेखक फ़िल्मी दुनिया में सफल इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि वह अपने फ़िल्मी लेखन को मजबूरी का लेखक मानता है, वह उसमें विश्वास नहीं करता है. जबकि मनमोहन देसाई जब यह दिखाते हैं कि शिर्डी के साईं बाबा की पूजा करने से आँखों की रौशनी वापस आ जाती है, तो लोग उसमें इसलिए विश्वास कर लेते हैं क्योंकि मनमोहन देसाई खुद उसमें विश्वास करते हैं. बहरहाल, आज न मनमोहन देसाई का जन्मदिन है न उनकी पुण्यतिथि. बस, त्रिपुरारि कुमार शर्माका यह लेखा पढ़ा तो साझा करने का मन हुआ- प्रभात रंजन 
किसे ख़बर थी कि हिंदी फ़िल्मों के इतिहास में 70 और 80 के दशक का सबसे चमकता हुआ चेहरा—जो हमेशा परदे के पीछे अपना वक़्त बुनता रहा—इस तरह ज़िंदगी से उकता जाएगा?हज़ारों नामों को ज़िंदगी और हज़ारों ज़िंदगियों को नाम बख़्शने वाला शख़्स—एक दिन ख़ुद गुमनामी के गंदे पानी में गर्क़ हो जाएगा?जिसकी सुलगती हुई साँसें महज मज़ाक बन कर रह जाएंगी और जिसके कारनामे लोगों के ज़ेहन में कतराती हुई कतरनें पैदा करती रहेंगी। वो कहते है न! कि कामयाबी अपना क़ीमत वसूल करती है। सच ही कहते हैं। 1 मार्च 1994 को उसकी ज़िंदगी ने इस बात पर मुहर लगा दी। सिनेमा,जिसे लार्जर देन लाइफ़की वजह से हम अक्सर सफ़ेद झूठभी कहते हैं—का दूसरा पहलू यानि सिनेमा का सियाह सच! जहाँ एक ओर कैमरे के आगे मुस्कुराते हुए चेहरे मैग्नेटिकजान पड़ते हैं,वहीं दूसरी ओर उन्हीं चेहरों का टूटता हुआ क्वाँरापन हमारी नींदें धज्जियाँ करने के लिए काफी होता है। मैं बात कर रहा हूँ उस शख़्स की,जिसे दुनिया मनमोहन देसाई कहती है।
...लेकिन मैं आपको थोड़ा पीछे लिए चलता हूँ। जहाँ से सफ़र की शुरुआत हुई थी।
याद कीजिए...हिंदी सिनेमा का वो दौर जब चारों तरफ राजकपूर का जलवा था। न सिर्फ़ देश में बल्कि विदेशों में भी राजकपूर की फ़िल्में कामयाब थीं। एक दिन महज 21 साल का एक लड़का राजकपूर के ऑफ़िस में आता है और कहता है
“मैं आपको अपनी फ़िल्म में कास्ट करना चाहता हूँ।”
राजकपूर ये सुनकर चौंक जाते हैं। टेबल के दूसरी तरफ वो 21 साल का लड़का अब भी अपनी कुर्सी में बेख़ौफ़ बैठा हुआ है। साथ में बैठा हुआ प्रोड्युसर कहता है
“राज...मत भूलो कि जब तुमने बरसात बनाई थी,तुम 24 साल के थे।”
राजकपूर अपनी कुर्सी से उठ खड़े होते हैं। इधर-उधर टहलने लगते हैं। अचानक खिड़की के पास रुक जाते हैं। बाहर देखने लगते हैं। कुछ देर बाद बस इतना कह पाते हैं
“मैं एक सिड्युल शूट करुंगा,अगर इस लड़के में कोई बात नज़र आई तो ठीक वरना मेरी तरफ से ना।”
ख़ैर,वो दिन भी आया जब शूटिंग हुई और रसेस देखकर राजकपूर बोले—
“ये लड़का बहुत दूर तक जाएगा।”
वो 21 साल का लड़का और कोई नहीं,मनमोहन देसाई था।
फ़िल्म थी—छलिया।
गाना था—डम डम डिगा डिगा मौसम भीगा भीगा।
ये गाना कितना मशहूर है,मुझे कहने की ज़रूरत नहीं। 
मशहूर फ़िल्मकार मनमोहन देसाईजिसकी दिमाग़ी उपज को फ़िल्म समीक्षकों ने महज मसाला फ़िल्मकहकर पुकारा—कहना ग़लत न होगा कि वह समय और समाज की नीली नसों में अपनी रचनात्मकता का लहू भर कर हिंदी फ़िल्मों के दर्शकों को झूमने पर मजबूर कर देता था। वह जानता था कि लोग क्या चाहते हैं?उसे मालूम था कि आम आदमी की मानसिकता किस मुहाने पर आकर नाच उठती है?उसे पता था कि चीज़ों का इस्तेमाल कैसे किया जाता है?चीज़ें,चाहे फिर लोगों की सेंटीमेंटसे ही जुड़ी हुई क्यों न हो?यही वजह है कि उसकी फ़िल्मों के दीवानों में हर वर्ग के लोग शामिल हैं—क्या ख़ास,क्या आम! हिंदी सिनेमा की मुख्यधारा को नई दिशा दिखाने वाले मनमोहन देसाई की सबसे चर्चित फ़िल्म अमर,अकबर,एंथनीकी बात करें,तो बिछड़ने और दोबारा मिलनेके फॉर्मूले पर बनी यह फ़िल्म बेहद कामयाब हुई। यह बात ग़ौर करने जैसी है कि अपने दर्शकों के सामने सिनेमा स्क्रीन पर एक पूरी दुनिया रचने वाले मनमोहन देसाई की फ़िल्म के इस फॉर्मूले से प्रेरित होकर अन्य फ़िल्मकारों ने भी कई फ़िल्में बनाईं।
बताता चलूँ कि 1943 में प्रदर्शित फ़िल्म किस्मत’,जिसमें अशोक कुमार हीरो थे और बाद में राज कपूर स्टारर आवारामें बिछुड़ने-मिलनेके थीम को भूनाने की कोशिश की गई थी। कोशिश तो कामयाब नहीं हुई,मगर मनमोहन देसाई ने इसी थीम का उपयोग अपनी फ़िल्मों के लिए किया। 40 के दशक की अंधी थीम, 70 और 80 के दशक में आँख बनकर उभरी। मनमोहन देसाई ने अपने तीस साल लंबे फिल्मी करियर में 20 फिल्में बनार्ईं, जिनमें से 13 फिल्में सफल रहीं। फ़िल्म समीक्षकों का मानना है कि इतनी सफलता हिंदी फ़िल्मों के किसी दूसरे फ़िल्मकार को नहीं मिली। जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 70 के दशक में मनमोहन देसाई की फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रखा था। फ़िल्मों के लिए सबसे कामयाब साल 1977 रहा। उस साल उनकी चार फिल्में परवरिश’, ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘चाचा भतीजाऔर धरम-वीरप्रदर्शित हुईं और सारी सुपर हिट रहीं। पहली दो फ़िल्मों में अमिताभ बच्चन हीरो थे, जबकि बाद की दो फ़िल्मों में धर्मेद्र ने काम किया था।
मनमोहन देसाई,सच्चे मायनों में अपने समय के सम्पूर्ण और शुद्ध मनोरंजन परोसने वाले ऐसे फ़िल्मकार थे—जिन्होंने व्यावसायिकता को सामाजिकता के साथ घोल दिया--जिनकी फिल्मों में व्यावसायिकता को विस्तार मिला,तो हीरो की इमेजको भी नया आयाम मिला। देसाई अपनी फ़िल्मों को लेकर काफी उत्साहित और सकारात्मक रहते थे। अमिताभ बच्चनने एक दफ़ा अपने ब्लॉग पर लिखा भी था,“मनमोहन देसाई कलाकारों की ओर दर्शकों का ध्यान न होने पर बेहद नाराज हो जाते थे। वे,उस थिएटर में कभी नहीं जाते,जिसमें उनकी फिल्में चल रही हों। ऐसा नहीं था कि वे वहां जाना नहीं चाहते। दरअसल,उनके सहयोगी और स्टाफ वहां नहीं जाने देते। इसकी एक खास वजह थी। उनकी आदत थी कि उनकी फ़िल्मों की स्क्रीनिंग के दौरान कोई बात करे या हॉल के बाहर जाए,तो वे बेहद गुस्से के साथ या तो उसे चुप करा देते या फिर बिठा देते और बाहर नहीं जाने देते।"
कॉमर्शियल सिनेमा को नई रवानी और बुलंदी देने वाले मनमोहन देसाई को फ़िल्मी माहौल विरासत में मिला था। उनका जन्म 26 फरवरी 1936 को गुजरात के वलसाड शहर में हुआ था। पिता किक्कू देसाई फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े थे। वे पारामाउंट स्टूडियो के मालिक भी थे। घर में फिल्मी माहौल रहने के कारण मनमोहन देसाई का रूझान बचपन के दिनों से ही फ़िल्मों में था। बतौर निर्देशक मनमोहन देसाई की पहली फ़िल्म छलिया1960 में रिलीज हुई। यह बात और है कि राजकपूर और नूतन जैसे कलाकारों की मौजूदगी के बावजूद फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर रंग नहीं जमा सकी। हाँ,इतना ज़रूर हुआ कि फ़िल्म के गीत काफी लोकप्रिय हुए। इसके बाद मनमोहन देसाई ने अभिनेता शम्मी कपूर की ब्लफ मास्टरऔर बदतमीजको निर्देशित किया,लेकिन इस बार भी देसाई के हाथों में निराशा ही आई। यह असफलता तो महज भूमिका थी उस फ़िल्मकार के पैदा होने की,जिसे कामयाबी के नए-नए मुकाम हासिल करने थे।
हुआ यूँ कि 1964 में मनमोहन देसाई को फ़िल्म राजकुमारनिर्देशित करने का मौक़ा मिला। हीरो थे—शम्मी कपूर। इस बार मेहनत ने अपना रंग जमा ही लिया और फ़िल्म की सफलता ने देसाई को बतौर निर्देशक एक पहचान दी। फिर मनमोहन देसाईनिर्देशित और 1970 में प्रदर्शित सच्चा झूठाभी करियर के लिए अहम फ़िल्म साबित हुई। इस फ़िल्म के हीरो थे—उस जमाने के सुपर स्टार राजेश खन्ना। सच्चा झूठाबॉक्स आफिस पर सुपरहिट रही। इसी बीच मनमोहन देसाई ने भाई हो तो ऐसा (1972), ‘रामपुर का लक्ष्मण (1972),आ गले लग जा (1973), औररोटीजैसी फिल्मों का निर्देशन भी किया,जिसे दर्शको ने ख़ूब सराहा। 1977 में बनी फ़िल्म अमर अकबर एंथनीमनमोहन देसाई के करियर में न सिर्फ सबसे सफल फिल्म साबित हुई,बल्कि उसने अभिनेता अमिताभ बच्चन को वन मैन इंडस्ट्रीके रूप में भी स्थापित कर दिया।
इसी फ़िल्म के बारे में ज़िक्र करते हुए अमिताभ बच्चन ने एक दफ़ा कहा था कि संयोगों और अतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग़ का फितूर है। आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हँसते हैं। एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढ़ता हुआ दिखाया जाना एक मेडीकल जोकहै। इन सबके बावजूद कुछ है,जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड़ लिया। सारी अतार्किकतायें पीछे छूट गईं और कहानी अपना काम कर गई। एक बात याद दिलाने जैसी है कि मनमोहन देसाई की फ़िल्मों के गाने हमेशा से अच्छे होते हैं। इसी सिलसिले में फ़िल्म अमर अकबर एंथनीके सभी गाने सुपरहिट हुए,लेकिन फिल्म का एक गीत हमको तुमसे हो गया है प्यार...कई मायनों में ख़ास है। एक तो यह कि इस गीत में पहली और आख़िरी दफ़ा लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मुकेश, और किशोर कुमार ने एक साथ गाया था।
कुछ और बातें बताता चलूँ। राजकुमार (1964) और क़िस्मत (1968) की कहानी लिखने वाले मनमोहन देसाई ने 1981 में निर्मित फ़िल्म नसीबजिसके एक गाने जॉन जॉनी जर्नादन...में सितारों का जमघट लगा दिया था। यह अपनी तरह का पहला मौक़ा था,जब एक गाने में फिल्म इंडस्ट्री के कई बड़े कलाकार मौजूद थे। इसी गाने के तर्ज़ पर शाहरुख ख़ान की फ़िल्म ओम शांति ओममें एक गाना फ़िल्माया गया है। मनमोहन देसाई के निर्देशन में बनी फ़िल्म क़िस्मतका एक गाना है—कजरा मोहब्बत वाला,अंखियों में ऐसा डाला,कजरे ने ले ली मेरी जान,हाय! मैं तेरे क़ुर्बान। कहा जाता है कि वे अभिनेता विश्वजीत की सुन्दरता से प्रभावित होकर उन्हें अपनी फ़िल्म के इस गीत में एक महिला किरदार के रूप में पेश किया था और गीत के बोलों को आवाज़ दी थी शमशाद बेगम ने। इस गीत को विश्वजीत के साथ नायिका बबीता के ऊपर फिल्माया गया था। बबीता के लिए आशा भोंसले की आवाज़ का इस्तेमाल किया गया था।
एक और क़िस्सा याद आता है। किसी पत्रिका में पढ़ी थी यह बात। बात 1963 की है। एक दफ़ा मनमोहन देसाई किसी सड़क से गुजर रहे थे। रास्ते में उन्होंने कुछ लोगों को दही-हांडीकरते देखा। सन्योगवश उन्हीं दिनों ब्लफमास्टर’—जिसका स्क्रीनप्ले भी उन्होंने ही लिखा था—की शूटिंग चल रही थी। उन्होंने सोचा कि क्यों न फ़िल्म में इस तरह का कोई गीत डाला जाए?फिर क्या था,सारी कहानी ही बदल गई। बदलाव यह हुआ कि शम्मी कपूर को शायरा बानो के लिए कोई तोहफा खरीदना है। पास पैसे नहीं हैं। किसी से उन्होंने सुना कि ऊपर लटकी मटकी में 100 रुपए का नोट है। जो वहाँ तक पहुंचेगा और मटकी फोड़ लेगा,नोट उसी का। और इस तरह हिंदी फ़िल्मों में पहली बार दही-हांडीदर्शाई गई। इसके बाद तो कई फ़िल्मों में दही-हांडीकी मस्ती दिखाई गई।
याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि 1983 में मनमोहन देसाई निर्देशित फ़िल्म कुलीप्रदर्शित हुई थी,जो हिंदी सिनेमा जगत के इतिहास में अपना नाम दर्ज़ करा गई। शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को लगी चोट और उसके बाद देश के हर एक पूजा स्थलों में अमिताभ के ठीक होने की दुआएँ मांगना एक अजीब-ओ-ग़रीब बात लगती है,मगर सच यही है। पूरी तरह से स्वस्थ होने के बाद अमिताभ ने कुलीकी शूटिग शुरू की और कहने की ज़रूरत नहीं कि फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई। कहा जाता है कि फ़िल्म-निर्माण के पहले फ़िल्म के अंत में अमिताभ बच्चन को मरना था,लेकिन बाद में फिल्म का अंत बदल दिया गया। 1985 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म मर्दजो देसाई के करियर की अंतिम हिट फ़िल्म थी। फ़िल्म का एक डॉयलाग मर्द को दर्द नही होता...उन दिनो सभी दर्शको की ज़ुबान पर चढ़ गया था। 1988 में गंगा जमुना सरस्वतीदेसाई द्वारा निर्देशित आख़िरी फ़िल्म थी,जो कमजोर पटकथा के कारण बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गई। इसके बाद भी उन्होंने ने अपने चहेते अभिनेता अमिताभ बच्चन को लेकर फ़िल्म तूफ़ानका निर्माण किया,लेकिन इस बार भी फ़िल्म तूफ़ानबॉक्स ऑफिस पर कोई तूफ़ाननहीं ला सकी। फिर उसके बाद मनमोहन देसाई ने किसी फ़िल्म का निर्माण या निर्देशन नहीं किया। और इस तरह एक फ़िल्मकार ने अपने करियर का द एंडलिखा।
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सिनेमा में वीर रस क्या होता है?

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युवा लेखकों की एक बात मुझे प्रभावित करती है- वे बड़े फोकस्ड हैं. अपने धुन में काम करते रहते हैं. अब प्रचण्ड प्रवीरको ही लीजिये रस-सिद्धांत के आधार पर विश्व सिनेमा के विश्लेषण में लगे तो लगता है उसे पूरा किये बिना नहीं मानेंगे. आज वीर रस की फिल्मों पर उनके लेख का दूसरा खंड. अंतराल हो गया है, लेकिन पिछले लेखों के लिंक दिए गए हैं- प्रभात रंजन 
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इस लेखमाला में अब तक आपने पढ़ा:
1. हिन्दी फिल्मों का सौंदर्यशास्त्र - http://www.jankipul.com/2014/06/blog-post_7.html
2.भारतीय दृष्टिकोण से विश्व सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र - http://www.jankipul.com/2014/07/blog-post_89.html
3.भयावह फिल्मों का अनूठा संसार - http://www.jankipul.com/2014/08/blog-post_8.html
4.वीभत्स रस और विश्व सिनेमा - http://www.jankipul.com/2014/08/blog-post_20.html
5. विस्मय और चमत्कार : विश्व सिनेमा में अद्भुत रस की फिल्में - http://www.jankipul.com/2014/08/blog-post_29.html
6.  विश्व सिनेमा में वीर रस की फिल्में - (भाग- ) - http://www.jankipul.com/2014/09/blog-post_24.html

भारतीय शास्त्रीय सौंदर्यशास्त्र के दृष्टिकोण से विश्व सिनेमा का परिचय कराती इस लेखमाला की छठी कड़ी में वीर रस की विश्व की महान फिल्में - भाग २ :-
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विश्व सिनेमा में वीर रसकी फिल्में (भाग- २)


(...पिछले अंक से आगे)
शत्रु से लड़ाई को दर्शाती वीर रस की फिल्में
अब चर्चा करते हैं उन फिल्मों का जिसमें उत्साह का साधारण अर्थ लिया जाता है, मतलब शत्रु से युद्ध।  इस अर्थ में वीरता के लिये आवश्यक है कि कोई शत्रु हो। कई परिस्थितियों में यह व्यक्तिगत शत्रु होता है, कई बार जोखिम भरे कामों में हर तरह की बाधा को शत्रु समझा जाता है, बहुधा शत्रु समाज का शत्रु होता है, या उसे समाज का शत्रु की तरह पेश किया जाता है। सेना में परीक्षण के दौरान यह सिखाया जाता है कि जिसपे निशाना चलाया जा रहा है वह शत्रु है। सैनिक का काम शत्रु की पहचान करना नहीं, बल्कि उससे हट कर मात्र शत्रु को समाप्त करना हो जाता है। लेकिन उत्तम कोटि के वीर अपने शत्रु की पात्रता देखते हैं। जितना बड़ा वीर, उतना बड़ा शत्रु। वीरों को अपने बराबर के शत्रु से लड़ना चाहिये. अगर शेर चूहे शिकार करे तो क्या कहा जा सकता है? इसलिये महावीर, महानायक या सुपरहीरो के फिल्मों के कथानक में शत्रु या बाधा या दुर्घटना का अर्थ भी बहुत बड़ा करना पड़ता है। मिसाल के तौर पर Superman (1978) फिल्म में अंत में नायक की असीम क्षमता को दिखाने के लिये वह असंभव कार्य करते, यहाँ तक कि समय का चक्र बदलता नजर आ जाता है। Spiderman(2002, 2004, 2007, 2012, 2014) फिल्मों में हर बार बेहद ताकतवार खलनायक नजर आते हैं। बैटमैन फिल्में Batman Series (The Dark Knight वगैरह) जिनमें बैटमैन केवल अपने बुद्धि और शक्ति से दुश्मनों को पराजित करता है वे परालौकिक न हो कर बैटमैन की तरह ही बुद्धिमान और शक्तिशाली नजर आते हैं।
भारतीय दृष्टिकोण से वीरों के चिंतन पर कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान लिखती हैं कि वीरों का कैसा हो वसंत’ :-

गलबाँहें हों या हो कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण
अब यही समस्या है दुरंत -
वीरों का कैसा हो वसंत

भारत में शूरवीरता का पारंपरिक चित्रण करना हो तो तत्क्षण शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह जैसे नायकों का ध्यान आता है जिनके पास तलवार, कटार, खंजर, ढाल जैसे अस्त्र होंगे, भाला जैसा शस्त्र होगा, और एक मजबूत कद काठी का घोड़ा वाहन होगा। लेकिन अब औद्योगिक क्रांति के बाद घोड़े, तलवार, खंजर पुरानी बातें हो गयीं। यहाँ वीरता का अर्थ एक पुरुष कर एक या दो-तीन लोगों से युद्ध हो जाता है। कभी किसी कथानक में कोई नायक एटम बम ले कर एक साथ सब कुछ समाप्त करने के लिए उद्धत नहीं दिखायी देता, बल्कि ऐसा करने वाला खलनायक दिखलाये जाते हैं। सिनेमा में शूरवीर हमेशा किसी किस्म की बन्दूक ले कर चलेंगे।

वीर रस की फिल्मों में वेस्टर्न फिल्में अक्सर सराही जाती हैं। वेस्टर्न मूवीज उन फिल्मों को कहते हैं जो उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में (पश्चिम में - अत: वेस्ट में) स्थित वहाँ के मूल निवासियों से युद्ध करता निशानेबाज नायक घोड़े पर चलता हो, और बन्दूक से लोगों मुकाबला करता नज़र आता हो। यह फार्मूला बहुत चला और अभी तक चलता ही आ रहा है। लेकिन इसको कला के रूप में स्थापित करने वाले थे महान आयरिश मूल के अमेरिकी निर्देशक जॉन फोर्ड John Ford (1894 – 1973), जिन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया। उनकी फिल्म Stage Coach (1939) को ऑर्सन वेल्स ने Citizen Kane (1940) बनाने से पहले चालीस बार देखी थी। अकिरा कुरोसावा अपनी फिल्मों पर उनकी वेस्टर्न फिल्मों का गहरा प्रभाव मानते थे। सत्यजित राय, फेडेरिको फेलिनी, इंगमार बर्गमन, मार्टिन स्कोरसीज, झों लुक गोडार्ड, अल्फ्रेड हिचकॉक, क्लाइंट ईस्टवुड जैसे निर्देशक उनका लोहा मानते थे। जॉन फोर्ड की The Informer (1935), Stage Coach (1939), The Grapes of Wrath (1940), How Green Was My Valley (1941), The Searchers (1956), The Man Who Shot Liberty Valance  (1962) विश्व सिनेमा में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। वीरता को दर्शाने के लिए उन्होंने नायकों में मति, गर्व, क्रोध जैसे भावों को दर्शाया। कई बार उनका नायक उदार, दयालु, किन्तु जिद्दी और अदम्य शारीरिक क्षमता रखने वाला हुआ करता। जमीन से जुड़ा उनका नायक रेगिस्तान को पार करता, बड़े पहाड़ों पर चढ़ता, बरसती गोलियों से जूझता निर्बल लोगों की रक्षा करता।
ऑस्ट्रिया में जन्मे अमेरिकी फिल्मों के निर्देशक Fred Zinnemann (1907- 1997) की कई फिल्में वीर रस पर आधारित थी। इसमें High Noon (1952) वास्तविक समय सीमा में दिखायी गयी शानदार फिल्म है, जिसमें नायक गैरी कूपर अपनी शादी के दिन ही टाउन मार्शल होने के नाते शहर में आये गुंडों के गिरोह से जान हथेली पर लिए अकेला ही भिड़ जाता है। उनकी From Here to Eternity (1953) में पर्ल हार्बर से ठीक पहले सैनिकों का जीवन दिखाते कर्तव्य प्रतिबद्धता, और फिल्म A Man For All Seasons (1966) में मध्यकालीन इंग्लैंड में एक मंत्री का अपने विचारों और कर्तव्यों से प्रतिबद्धता बहुत सुन्दर रूप से दिखायी गयी हैं। फिल्म The Day of the Jackal (1973) में फ्रांस के राष्ट्रपति के हत्या का षड़यंत्र को विफल करने में लगे नौकरशाह की वीरता का वर्णन है।

अगर हम हिन्दी फिल्मों की तरफ नज़र दौड़ाये तो यहाँ सर्वशक्तिमान, बुद्धिमान, बलवान, निशानेबाज, भरोसेमंद नायकों का दौर अमिताभ बच्चन के उदय के साथ होता है। फिल्म शोले (1975) कई वेस्टर्न फिल्मों जैसे अकिरा कुरोसावा की महान फिल्म Seven Samurai (1954) पर आधारित The Magnificent Seven (1960), इटालियन निर्देशक सेर्जो लिओने Sergio Leone (1929 – 1989) की बिना नाम वाले नायक की तीन फिल्में- For A Few Dollars More (1965) (अकिरा कुरोसावा की  Yojimbo (1961) पर आधारित),  The Good, The Bad and the Ugly (1966), और Once Upon A Time in The West (1968);  Sam Peckinpah (1925 –1984) की The Wild Bunch (1969) और  दो बैंक डकैतों की सच्ची कहानी पर आधारित The Butch Cassidy and Sundance Kid (1969) जैसी बहुचर्चित फिल्मों से प्रेरित थी। क्या किसी प्रबुद्ध दर्शक को इन फिल्मों को नहीं देखना चाहिये, जब कि आज के दौर में ऐसी फिल्में इंटरनेट पर सुलभ हो गयी हैं।


अमेरिकी निर्देशक Sam Peckinpah (1925 –1984) आजीवन वीर और वीभत्स रस से जुड़ी फिल्में बनाते रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध की घटनों पर आधारित Cross of Iron (1977) में वीरता, कर्त्तव्य और पुरस्कार की अच्छी विवेचना की गयी है। उपरोक्त वेस्टर्न फिल्मों में वीरता दर्शाने के लिए बदले की भावना, बदला लेने के लिए हिंसा, निशानेबाजी, सुन्दर स्त्रियों के द्वारा नायक का अभीष्ट होना दिखाया जाता है। यहाँ सुभद्रा कुमारी चौहान में वीरता के मानक को छिन्न-भिन्न करते गलबाँहें, कृपाण, चलचितवन, धनुषबाण, रसविलास, दलितत्राण, सारे चीजें वीरों के वसंत में दिखायी जाती हैं। यह भी स्मरणीय है कि ये कोई जरुरी नहीं है कि वीरता के ऐसे पश्चिमी मानक श्रेष्ठ हों। लेकिन आम दर्शक अक्सर ऐसी गलती कर बैठते हैं।

इस तरह से जॉन फोर्ड से प्रभावित हो कर, वीर रस की महान फिल्म बनाने वालों में सर्वेश्रेष्ठ जापानी निर्देशक अकिरा कुरोसावा को कहा जा सकता है, जिनकी  Seven Samurai (1954),  The Hidden Fortress (1958), Yojimbo (1961), और High and Low (1963) में उत्साह भाव के कई अनछुये एवं शाश्वत आयाम जुड़े हैं। इन फिल्मों पर चर्चा करने से ठीक पहले हमें कायरता और वीरता पर चर्चा करनी चाहिये। आमतौर पर कायर उसे कहा जाता है जो कि ज़ोखिम भरे कामों से डरता हो, जहाँ पर कार्य सिद्धि होनी चाहिये, वहाँ बहाना बना कर कन्नी काट लेता हो। कायरता की परिभाषा ऐसे भी दी जाती है कि यह एक ऐसा भाव है जहाँ पर मानव की आकांक्षा किसी डर से अवरुद्ध हो जाती है जिससे उसके बराबरी के लोग करने का साहस रखते हैं। किसी कमजोर, जीर्ण-शीर्ण, वृद्ध आदमी से शारीरिक वीरता अपेक्षित नहीं होती। यदि हमारे सामने कोई ऐसा लक्ष्य रख दिया जाए जहाँ पर हमारी हार सुनिश्चित हो, तो क्या उसे नकारना कायरता माना जाएगा? उदहारण के तौर पर, अगर हमें किसी पहाड़ से खाई में सकुशल कूदने को कहा जाये, निश्चय ही हमारा डर कायरता में नहीं माना जायेगा। अगर हमारे सुरक्षा का पूरा इंतज़ाम हो, फिर कुछ जोखिम हो, जैसे कि पैराशूट लगा कर ऊँचाई से हवा में कूदना, काफी ऊँचाई से एक रस्सी किसी बाँस के सहारे चलना, ऐसे करतब करने के लिए हमारे कायरता का पैमाना एक वर्ग विशेष से सम्बंधित हो जाएगा, जो ऐसे काम करने में सिद्धहस्त हो। फ्रेंच निर्देशक Henri-Georges Clouzot की The Wages of Fear (1953) में वीरता और कायरता के बहस के दौरान एक पात्र कहता है कि युवा लोग जोखिम उठा लेते हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त अनुभव नहीं होता, और चालीस के उम्र का आदमी बहादुरी का सही मतलब समझता है।

कुरोसावा की फिल्मों में वीरता को हमेशा कायरता के वैषम्य में दिखाया जाता रहा है। फिल्म Seven Samurai (1954) के निर्माण के दौरान कई लोगों को गाँव वालों के विशिष्ट चरित्रों में ढाला गया, इसके बाद शूटिंग शुरू की गयी। फिर सात समुराई योद्धाओं द्वारा कमजोर गाँव वालों को आत्म रक्षा के लिए तैयार करना, फिल्म का बड़ा हिस्सा है। इस फिल्म की शुरुआत में यह डायलॉग है- घाटी के एक छोटे से गाँव में चार समुराई योद्धा की कब्रें हैं। जब जापान महत्वकांक्षी समुराई से टूटा फूटा था, ये कहानी है सात समुराई योद्धाओं की, जिन्होंने अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए नहीं बल्कि गरीब किसानों के रक्षा के लिए युद्ध किया। इनमें तीन जो नहीं मरे, उन्होंने गाँव छोड़ दिया और फिर कभी उनके बारे में कभी सुना नहीं। लेकिन जिस बहादुर और आत्म बलिदान की भावना से उन्होंने लड़ाई लड़ी, वह आज भी बड़े सम्मान के साथ याद की जाती है। वे समुराई थे.दलितत्राण और यश की अनिच्छा, न्याय की प्रति निष्ठा, दया और शौर्य जैसे मूल्यों से सजी यह फिल्म विश्व सिनेमा की व्यवसायिक रूप से सफलतम और आलोचकों द्वारा सर्वाधिक सराही फिल्मों में से एक गिनी जाती है। निर्देशक जौर्ज़ लुकास George Lucas (जन्म 1944) की सफल फिल्म Star Wars Episode IV: A New Hope (1977) कुरोसावा की The Hidden Fortress (1958) से बहुत प्रभावित थी, जिसमें एक सेनापति अपनी राज्य की राजकुमारी की रक्षा में एक गुप्त किले में रह रहा होता है। दो गरीब, लालची और डरपोक किसान सोने की लालच में सेनापति और राजकुमारी को एक पड़ोसी देश तक ले जाने के सफ़र में उनके सहयात्री बन जाते हैं। इस श्वेत श्याम फिल्म में घाटी में छुपा गुप्त किला, एक राज्य का जल में छुपा गुप्त धन, खूबसूरत राजकुमारी की चपलता और न्याय प्रियता, प्रसिद्ध और महान तलवारबाज सेनापति का शौर्य जैसे तत्व इसके कथानक और दृश्य को अनुपम बना देते हैं। इस फिल्म को देख कर हमें अफसोस होता है कि आज तक हिन्दी फिल्म सिनेमा उद्योग चंद्रकांता’, ‘चंद्रकांता संततिऔर भूतनाथजैसे महान रोमांचक कहानियों पर एक भी फिल्म न बना सका। क्या हमारे पास अच्छे संवाद लेखक नहीं हैं, या निर्माताओं के पास पैसे नहीं, या अच्छे निर्देशकों का सर्वथा आभाव है?
कुरोसावा की Yojimbo (1961) में महान अभिनेता तोशिरो मिफ्यून ने एक समुराई का किरदार निभाया है जो एक छोटे से शहर में दो गैंग की लड़ाई के बीच अपने बुद्धि और शौर्य से बदमाशों का अकेले ही खात्मा कर देता है। फिल्म के क्लाइमेक्स में अकेला समुराई बहुत सारे गुंडों पर भारी पड़ता है और सब का वध कर डालता है। इस फिल्म में गुण्डे मंदबुद्धि और कायर दिखाये गये हैं। फिल्म High and Low (1963) एक पुलिस ड्रामा है, जिसमें एक अमीर आदमी के ड्राईवर के बेटे का अपहरण हो जाता है। जबकि अपहरण अमीर आदमी के बेटे का करना होता है, पर अपहरणकर्ता उस अमीर आदमी को फिर भी उतनी ही रकम देने के लिए बाध्य करता है। चूँकि अमीर आदमी के ड्राईवर का एक ही बेटा होता है, अपनी पत्नी के दवाब में आ कर फिरौती चुकता कर के बच्चे को छुड़ा लेता है। इसके बाद पुलिस उस बदमाश का पता लगाती है। यह उदहारण है कि रहस्य-रोमांच की फिल्में कई बार उत्साह और भय भाव के बीच झूलती रहती हैं। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि रस कुछ दृश्यों में कुछ क्षणों में होता है। कोई भी स्थायीभाव हमेशा नहीं रह सकता। 
कुरोसावा की उपरोक्त फिल्में संवाद से ज्यादा कलाकारों के अभिनय, सातिव्क भाव, अंग प्रत्यंग की गतियों से सुशोभित रहीं। इन फिल्मों के दृश्य भी यादगार रहे। कुछ फिल्म विशारद- जैसे कि कुरोसावा, ऑर्सन वेल्स, बर्गमैन, तारकोवस्की, अल्फ्रेड हिचकॉक दृश्यों की परिकल्पना, शूटिंग का कोण, सेट पर कथानक से कहीं ज्यादा ध्यान देते रहे। उनकी तकनीकें कथानक, अभिनय, पार्श्व संगीत पर कई बार हावी पड़ती रही। इसलिए कई बार फिल्म विशारदों की फिल्म कई कई बार देखना भी रुचिकर अनुभव होता है।


सेर्जो लिओने की डॉलर ट्रायोलॉजी से मशहूर हुये क्लाइंट इस्टवुड ने Dirty Harry फिल्म सीरिज  (1971, 1973, 1976, 1983, 1986) में एक इंस्पेक्टर को अपराध से लड़ते हुये दिखाया और बेहद लोकप्रियता पायी। उनकी निर्देशित Unforgiven (1992) औऱ Million Dollar Baby (2004) ने ऑस्कर सम्मान पाया। फिल्म Unforgiven (1992) में एक बूढ़ा निशानेबाज पैसों के लिये कुछ बदमाश लोगों का कत्ल करने निकलता है और इस यात्रा में वीरता के साथ सहृदयता, कर्त्तव्यबोध, समझ, और हत्यारे की नृशंसता का अद्भुत चित्रण है।

नायकों का चरित्र सुदृढ हो यह आवश्यक नहीं। चिड़चिड़ा, रूखा, वक्री स्वाभाव का नायक किसी अपराध में लिप्त या उसको सुलझाता, कत्ल की वारदात, जिसमें अपूर्व खतरनाक सुंदरियों का छल कपट हो, ऐसे फार्मूलों से भरी श्वेत श्याम न्वायर फिल्में (film noir) चालीस औऱ पचास के दशक में काफी चलती थी। फिल्मों के इतिहास के अध्ययन में यह याद रखना चाहिये कि अधिकांश फिल्में काफी लागत से बनती थी। कई अच्छे निर्देशक केवल फिल्में बनाने अमेरिका बस गये (जैसे चार्ली चैप्लिन, अल्फ्रेड हिचकॉक आदि)। अमेरिकी फिल्मों ने दुनिया भर की फिल्मों को प्रभावित किया। कई बार इस वजह से कि फिल्में तकनीक से अलग नहीं रही, और तकनीक को ले कर नवीनतम प्रयोग (जैसे बोलती फिल्में, रंगीन फिल्में, त्रिआयामी फिल्में) हॉलीवुड में होते रहे। फिल्म न्वायर अपनी श्वेत श्याम की सिनेमेटोग्राफी की खूबसूरती के लिये जाना जाता है। इन फिल्मों के नायक की वीरता सफल कम ही रहती है। लेकिन वीर हमेशा अच्छे औऱ विजयी हों, यह किसी भी तरह आवश्यक नहीं।

अमेरिकी निर्देशक John Houston (1906- 1987) की दो फिल्में जिसमें हम्फ्रे बोगार्ट Humphrey Bogart (1899- 1957) ने अभिनय किया - The Maltese Falcon (1941), The Treasure of Sierre Madre (1948) इन दोनों में नायक रूखा और चिड़चिड़ा रहता है। The Treasure of Sierre Madre में नायक पर लालच का बुरा प्रभाव नायक की दुखद मौत के रूप में नजर आता है। हॉलीवुड में कई कम बजट की न्वायर फिल्में बनी, जिनमें Out of Past (1947) उल्लेखनीय है।  Billy Wilder की न्वायर फिल्म Double Indeminity (1944) का हिन्दी संस्करण जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु की जिस्म (2003) के रूप में हिन्दी फिल्म प्रेमियों के सामने आया था। ऑर्सन वेल्स की न्वायर Lady from Shanghai (1947) को स्टूडियो ने निर्ममता से काट-पीट कर दर्शकों के सामने पेश किया। यह फिल्म भले ही पिट गयी, पर इसको देख कर समझा जा सकता है कि जीनियस और साधारण निर्देशक की दृष्टि में कितना फासला हो सकता है। ऑर्सन वेल्स की अभिनीत, कॉरल रीड द्वारा निर्देशित न्वायर फिल्म The Third Man (1949) को दुनिया की महानतम फिल्मों में गिनी जाती है।
 कई फिल्मों में नायक राज्य का प्रतिनिधि होता है या राज्य के विरूद्ध राजनैतिक कारणों से खड़ा होता है। जेम्स बॉण्ड फिल्म सीरिज का नायक इंगलैण्ड की महारानी की सेवा में रत है। स्टैनले क्यूब्रिक की ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित Spartacus (1960) में नायक दासों के अधिकारों के लिये लड़ने को खड़ा होता है। मेल गिब्सन की Braveheart (1995) में नायक स्कॉटलैण्ड की आजादी के लिये लड़ रहा होता है। रिडली स्कॉट की Gladiator (2000) में एक पूर्व सैन्य अधिकारी दुर्भाग्य से बंदी बन जाता है और शेर से युद्ध करता है।
चीनी मार्शल आर्ट फिल्मों में ब्रुस ली की आखिरी फिल्म Enter The Dragon (1973) के पहले ही दृश्य में ब्रुस ली का गुरू उसे वीरता की दार्शनिकता का पाठ पढ़ाता है। हर महान वीर को अपने युद्ध कौशल का प्रयोग नीति और न्याय के लिये करना चाहिये। वैसे उदाहरण जिसमें नायक केवल अपने कौशल से बुद्धिमान पर कमजोर वैज्ञानिक की रक्षा करता है, कथानक की दृष्टि से कमजोर और शाश्वत मानदंडों मे कमजोर आँके जाते हैं। इस फिल्म में बदले की आग में जलता नायक एक हथियार प्रतिबंधित द्वीप में निहत्थे दुश्मनों को धूल चटा देता है। हाल की मार्शल आर्ट फिल्में Crouching Tiger, Hidden Dragon (2000), Hero (2002), और House of Flying Daggers (2004) में तकनीक, दृश्य की भव्यता, वीरता की विडम्बना का सुंदर चित्रण है।  Crouching Tiger, Hidden Dragon में महान योद्धा एक बदमिजाज राजकुमारी को दण्ड के बजाये युद्ध कौशल की शिक्षा देना चाहते हैं। Hero (2002) फिल्म में नायक राजनैतिक एकीकरण के लिये अपने मिशन में हार जान ठीक समझता है।  House of Flying Daggers में नायक प्रेम और कर्त्तव्य में फँस जाता है। युद्ध कौशल की दृष्टि से उत्साह के सुंदर वर्णन के लिये फिल्मों का यह आरूप वीभत्स, भयानक रस को कई बार छूता नजर आता है।
अब  चर्चा करते हैं खलनायकों के महिमा मंडन या उनकी वीरता की। ऐसी एंटी हीरो वाली कई फिल्मों में नायक चोर, लुटेरा, या गुण्डो को सरगना होता है। अमेरिकी निर्देशक Francis Ford Coppola ( 1939) की Godfather फिल्म सीरिज में एक माफिया का सरगना के अहं और गर्व को उत्साह का स्वरूप दिखाया गया है। चोरी करने वाली फिल्में जैसे Ocean's 11 (1960) और The Italian Job (1967, दोबारा बनायी गयी और लोकप्रिय भी हुयी। लेकिन डकैती के सच्चे मामले पर आधारित ऑर्थर पेन की बनायी विख्यात Bonnie & Clyde (1967) में अपने बचाव के लिये कविता लिखती लुटेरी नायिका का अभिव्यक्ति जताना दर्शकों के दिल को छू जाता है। पुलिस ऑफिसर की काम पर बनी विलियम फ्रेडकिन की The French Connection (1971) का पीछा करने वाला दृश्य बहुत ही उत्साहजनक बन पड़ा है।

अगले अंक में चर्चा करते हैं कारूण्य रस की।

महाभूत चन्दन राय की कविताएं

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इधर महाभूत चन्दन रायकी कवितायेँ पढ़ी. पेशे से इंजीनियर चन्दन की कविताओं में समकालीनता का दबाव तो बहुत दिखता है लेकिन उनकी कविताओं में एक नया, अपना मुहावरा गढ़ने की जद्दोजहद भी दिखाई देती है. उम्मीद करता हूँ भविष्य में इनकी और बेहतर कवितायेँ पढने को मिलेंगी. फिलहाल इनकी कुछ कवितायेँ पढ़िए और राय दीजिए- प्रभात रंजन 
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1.
अच्छे दिनों की परिकल्पना

यह चोर उचक्कों हत्यारों लुटेरों ठगों और डकैतों के बीच 
एक सामूहिक चोर समझौता था
बुरे दिनों की असफलताओं से हताश एक आपात आयोजन
जो विकसित करना चाहते थे एक नई अचिह्नित चोर-पद्धति
जिससे दुनिया के उत्साह जिन्दापन और समृद्धता को फिर से लूटा जा सके !

यह पहला नाजियों का समूह चीखा - दोस्तों !
हमने नाजियों के भेष में जर्मनी में हिटलर को स्थापित किया था
हमने एक राष्ट्रिए समाजवादी कामगार सेना की आड़ में
जर्मनी में साम्राज्यवादी सोच को किया था स्थापित
और बेकसूर यहूदियों का गैस चैंबरों में किया था नृशंस नरसंहार
हमने राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों को बरगला युद्ध में झोंक दिया
हम एक सफल तानाशाह थे किन्तु हम अब पहचाने जा चुके है !
यह कहते हुए यह पहला हिटलर के अनुनायियों का समूह निराश होकर बैठ गया !

इसके बाद ही यह दूसरा फासिस्टों का समूह जो मुसोलिनी भक्त था चीखा
मित्रों हम इटली में महान फासीवादी नेता मुसोलिनी के साथ थे
हमने इटली की गरीब बेरोजगार भुखमरी से त्रस्त जनता के बीच
पैदा किया एक खतरनाक मर्दाना राष्ट्रवाद का जहर
उम्मीदों से भरे एक नए इटली के स्वप्नलोक के निर्माण
के लिए युद्ध ही अंतिम विकल्प हैका सुनियोजित भ्रम
हम अपने अवसरवाद को फासीवाद के चरम तक ले गए थे
किन्तु बदलती दुनिया के बदलते विचारों का कत्ल नहीं कर पाये
अंतत हम भी मारे गए.. हमे भी पहचान लिया जाएगा !

यह तीसरा दल क्रूरता और धर्मयुद्धों का प्रतिपक्षी बनकर बोला
हमने ईराक में प्रतिक्रियावादी दुराग्रहों को पुनर्जीवित किया
हमने अनिश्चय और अराजक परिस्थितियां पैदा कर
ईराक पर कायम करवाया था क्रूरता का सद्दाम- राज
हाँ हमने ही रोम में स्थापित की थी सम्राट-पूजा की वृति
हम लीबिया में मुअम्मर अल गद्दाफी के साथ थे !

हम ही इजराइल में है, फलिस्तीन में,सीरिया में भी   
यूक्रेन में, नाइजीरिया में और सोमालिया में भी हम ही हैं
हमने दुनिया में धार्मिक अस्थिरता पैदा कर
विश्व-शांति की परिकल्पना को झोंक दिया धर्मयुद्धों की आग में
हमने पुनर्स्थापित किया है धार्मिक शीतयुद्धों का वातावरण
पर अफ़सोस यह आग भी धीरे-धीरे बुझ रही है
माओ और नक्सली भी लड़ रहे केवल छापामार युद्ध
हम कमजोर हो रहे हैं प्रतिपल  प्रतिदिन..

तभी वह ठगों का एक छोटा समूह आत्मविश्वास भरे स्वर में चिल्लाया -
यह दुनिया प्रतिदिन अपने अस्तित्व के सरक्षण के संघर्ष से गुजर रही है
उसके पास भूख रोटी रोजगार परिवार के संघर्ष और जीवन की प्रतिस्पर्धाएं है
उसके पास लगातार जटिल होते जीवन की कठिनाइयाँ और ऊब है
हम इस स्वप्नरहित हो चुकी नीरस दुनिया को  उम्मीदों भरे रंगीले स्वप्न बेचेंगे
क्योंकि बे-उम्मीद हो चुके लोगों के बीच अच्छे दिनों की परिकल्पना बेचना
भूखे को अन्न के एक दाने के लिए बदहवास कर पाने जितना मारक है
हम दुनिया का विशवास जीतेंगे
क्योंकि विश्वास की लूट दुनिया की सबसे घातक और आसान लूट है !
हम नयी सामाजिक व्यवस्था के प्रारूपों तहत
लोगों के बीच अपने-अपने वर्ग के संघर्ष का स्वार्थ पैदा करेंगे
किसी भी समाज को ख़त्म करने का सबसे कारगर  तरीका है
उसे संवेदनाहीन बना देना
हम इस हद तक अच्छे दिनों की परिकल्पना बांटेंगे !

इधर मेरे कानों में जैसे ही गूंजता है दूरदर्शन पर
बजते एक लोकप्रिय गीत का कर्णप्रिय संगीत
अच्छे दिन आने वाले है”….
मेरा दुःस्वप्न टूटता है !

 2.
मेरी लिखित कवितायेँ दरअसल  मेरी नहीं हैं

मेरी लिखित कवितायेँ दरअसल मेरी नहीं हैं
मै आपके क्लांत काव्यभिषेक का किंचित भी श्रेयधिकारी नहीं
अपने राजमुकुटों को इस कलंक से बचा कर रखिए
मैने अब तक जो भी नाशुक्राना कहा-सुना-लिखा
निस्संदेह सिर्फ कविताओं ने कहा था
कविताओं के शब्द थे,कविताओं ने लिखा था !
मेरी कवितायेँ कविताओं की स्वत: गढ़ी  अमूर्त पांडुलिपियाँ हैं
मै केवल इन अनजानी आत्माओं की हूक का सूत्रधार हूँ

संसार की हर कविता एक अमर कवि होती है
कवितायें दरअसल कालजयी कवियत्रियों की काया है     
मै केवल और केवल उनकी रतजगों का रूपांतरण हूँ
मै एक बिचौलिया भाषा हूँ
उनकी निरावयव लिपियों के सावयव लेखन का लिपिक-दूत
कविता की कलम से पोषित एक अबोध पौधा हूँ
मेरे भीतर बैठी अनगिनत कवितायेँ लिखती है
मै कहाँ कुछ भी लिखता हूँ !

मेरे भीतर आठवीं शताब्दी से समाधि लिए सिद्धो-नाथों 
मेरी आत्मा में वीरता के अभिलेख लिखते हैं
अन्याय के खिलाफ मेरा शब्द-विद्रोह उन्ही की प्रदिक्षणा हैं
एक कुरुक्षेत्र की रणभूमि
मैने तैयार की है अपनी कविताओं में
एक महायुद्ध का शंखनाद बजाती मेरी कविताओं में 
बीसलदेव रासों पृथ्वीराज रासों तीर-कमान लिए खड़े हैं
हम्मीर रासो,परमाल रासो मेरे भीतर गढ़ते हैं
एक मध्यकालीन युग का संती उपसंहार

मेरे भीतर एक भक्तिकाल घुमड़ रहा है बरसने को
और विद्यापति मुझमे कर रहे स्थापित भक्ति और श्रृंगार रस
पदावली, के सुवासित कल्पवृक्ष से झरते
सम्मोहन ने एक पनघट निर्मित किया है मेरे भीतर
के आप घट-घट भर-भर खूब पिए कवितायें
कीर्तिलता,कीर्तिपताका मेरे भीतर के दो राग हैं
मेरे भीतर खालिकबारी ,पहेलियों से रची एक वृहत्तर दुनिया है

मेरे कविताओं में बैठे आदिकवि अमीर खुसरों लिखते है
"ये अंत नहीं आरम्भ है " !
मेरे भीतर खुसरों की कव्वालियाँ रचती हैं
मेरी बेसुरी कठोरता में अपनी सुर-ताल-लयकारियाँ
मेरा गूंगापन उनकी खड़ी बोलियों का शागिर्द है
मुकरियोँ की तहजीभी में
मेरी कविताओं ने जो भी लिखा
वो खुसरों के महा-शिल्प का तरन्नुम दो सुखन है !
मै मीर की अनकही नज्म हूँ..
मेरा कवित्व ग़ालिब का पुनर्लेखन है !

मेरे भीतर कुलबुलाती है
बेनाम कलमों की गुमनामियाँ
मेरा अंतस अमूक रचनाकारों का बेचैन दोहाकोश है
मै कबीर की निर्गुण सधुक्कड़ी हूँ
मेरे भीतर कहीं बैठे कबीर
रात-दिन लिखते हैं अपनी चौपाइयाँ !
मेरे भीतर मिर्जा खां रहीम की भटकती रूह है
मै सूरदास के भ्रमरगीत की चरण धूलि हूँ
गोस्वामी तुलसीदास ने जना है
मेरी कविताओं में रामचरित का संस्कार !
मेरे भीतर कृष्ण-प्रेम में  बावरी मीराबाई
विरह की सारंगी लिए प्रेम के अनंत धुनें गढ़ती है
मेरा अंतरघट जायसी के पद्मावत की प्रेम कहन हैं

मेरे अन्दर की ख़ुशी अपनी अठखेलियाँ लिखती है
मेरा भीतर बरसो से जमा दुःख लिखता है
मेरी नाकामयाबी अपनी कुढन लिखती है
मेरे आंसू लिखते है अपने पश्चाताप
और संताप अपने प्रायश्चित लिखता है
मै मुफलिसों का छटपटाता कथ्य हूँ
मेरे लहू अपने हिस्से की आग लिखता है
कभी-कभी आत्मा लिखती है मेरे भीतर

मै कविता का दत्तक पुत्र हूँ
सारे कवि सहोदर होते हैं
मेरे भीतर बैठे हजार कवि लिखते हैं
पोलिश-रशियन-जर्मन-अरबी
रोमन-आयरिश-ग्रीक-इन्डियन….. अपरिमित !
आपकी प्रशंशा और गालियाँ दोनों शिरोधार्य मुझे
आपके तमाचों और पुरस्कारों का समवेदक हूँ
हाँ ये ये मेरे भीतर का ब्रह्मसत्य है
मेरे भीतर एक महाभूत अपने विद्रोह लिखता है
मै केवल साहित्योंपासन का माध्यम हूँ
मेरी लिखित कवितायेँ दरअसल मेरी नहीं हैं !


3.
अतिरिक्त दुखों का शोर

बाहर बहुत शोर हैं
असहनीय मार-काट के निरंकुश होते कठोर स्वर,
विनाश का अट्टाहास करती क्रूर ध्वनियाँ
विलाप की करुणोत्पादक आवाजें
और अतिरिक्त दुखों के इस विप्लव कोलाहल में
गाड़ियों ,मशीनों, रैलियों, हंगामों, आंदोलनों की घुलती मिलती आवाजें
जैसे मेरे सोचने-समझने की शक्ति झीण कर रही है

मैं सावधानी बरतता हूँ और अपने घर के भीतर आकर दुबक जाता हूँ
की बच सकूँ..
किन्तु ये खौफनाक आर्तनाद बंद किवाड़ों से
बेतरतीब दाखिल होता हुआ मेरे कानों में पारे की तरह ढुलक रहा है !
मैं भरसक अपनी उँगलियों के पोरों को अपने कानों में ठूँसता
हुआ शोर के इस कोहराम को बाहर ठेलने की कोशिश कर रहा हूँ की
तभी अचानक इजराइल की तोपों से दागा बम्ब का एक गोला 
मेरे ह्रदय पर धड़ाम से आकर फट गया है
मैं अपने कंपकपाते हाथों से हाँफते हुए अपनी छाती टटोलता हूँ
और यह जानकर संतुष्ट होता हूँ की
आह ! आखिर बच ही गया..!
मगर कब तक….??

मेरे हाथ जाने किसके खून से लथपथ हैं...
मैं छटपटाते हुए एक अनाम हत्या-बोध की आत्म-घृणा से ग्रस्त
बाथरूम की नलकियों के नीचे रगड़-रगड़ हाथ धोता हूँ
पर कितना जिद्दी है ये रक्त की छूटता ही नहीं..
अवसाद और आशंकाओं का एक  हतप्रभ अश्रु जैसे ही  मेरी आँख से  ढुलकता है
मैं देखता हूँ मलेशिया का लापता विमान मेरी उसी आँख में आकर धँस गया है
और यह आँख पत्थर की हो गयी है !

वेदना की इस अप्रत्याशित गलघोंटू ध्वंस-प्रक्रिया से  गुजरता हुआ
 मैं ये निर्णय लेता की कोई ऐसी मधुर लय छेड़ूँ ,कोई ऐसा सुरीला तान पकडूँ
जैसे कोई ठुमरी कोई  ध्रुपद  भीमपलासी या  राग-मल्हार
कोई ऐसा संगीत की जो  भर दे मुझमे असीम शांति 
इसी उपक्रम में मैं ऑन  करता हूँ  घर में पड़ा पुराना ट्रांजिस्टर

अद्भुत शुभ  संयोग है की बिस्मिल्ला खां शहनाई बजा रहे हैं और
 उनकी शहनाई की मंगलध्वनियों से खुदा की नेमतें मेरे भीतर बरस रही हैं
मेरा रोम-रोम इस दिलनवाज पाकीजगी से भीग रहा है
की अचानक  शहनाई की मीठी धुनें कर्कशतर और तीखी हो गई है
जैसे मुहर्रम की आठवी तारीख को अमीरुद्दीन नौहा बजाते हुए 
पेश कर रहे हों हजरत इमाम हुसैन को अजादारी
और इस गमजदा शोकधुनों में घुलने लगी है
गाजा के बच्चों की दिवगंत किलकारियाँ
मैं घबराकर ट्रांजिस्टर बंद कर देता हूँ !

पुनः मैं देखता हूँ दूरदर्शन पर आता हुआ रंगारंग-कार्यक्रम
अहा कितना सुन्दर और निर्दोष परिदृश्य है की
कत्थक-कवि बिरजू महराज रच रहे लय-ताल-सुर की कविता
दिग दिग थेई ता थेई
पांवों की  थिरकन जैसे पृथ्वी की गति
हाथों की मुद्रा जैसे नव-नव रूप धर रहा समय
नाच रहे बिरजू महाराज  जैसे श्याम मोरी अँखियन में !

यह क्या बिरजू महाराज की लोच काया हो रही परिवर्धित
काल रूप गढ़ रहा महाकाल के भेष में विनाश रूप
नाच रहे हैं मल्लिकार्जुन सृष्टि के संहार का तांडव
प्रलय का संकेत देता शेषनाग फुँकार रहा विष
खुलती है तीसरी आँख जैसे आज फूँक कर रहेंगे महाकाल यह कलयुग
मैं गहन मूक की स्थिति में बदहवास पर मृत्यु से भयभीत नहीं
सोचता हूँ की कैसे हर चीज हो रही क्रूर ,अमानवीय हर परिदृश्य !

तभी गिरता है मेरी गोद में कर्ण का कटा हुआ सर
और मुझसे मेरी जात पूछता है
और प्रकट होता शापित अश्वत्थामा घनघोर अट्टहास करता कहता है
मुक्ति मरणासन्न तुम्हारी
अंत सुनिश्चित है भागो कहाँ भागोगे
मैं बदहवास तभी से भाग रहा हूँ
अथक अनवरत गिरता पड़ता भाग रहा हूँ !
मैं नस्लीय हिंसाओं जेहादों धर्मयुद्धों
दंगो युद्धों सरहदों पर मारी गयी मृत देहों को कुचलता लांघता हुआ
महाद्वीपों महासागरों को पार करता भाग रहा हूँ..
बाहर का शोर मेरे गहरे भीतर तक उतर आया है !

4.
विद्रोह है कि भूमिगत होता ही नहीं है

विद्रोह है की भूमिगत होता ही नहीं है
और घर है की जला जाता है
मैं जितनी देर में तय करता हूँ चूल्हे और मशाल के बीच
अपने भीतर खौलते आग की प्राथिमकताएं
उतनी देर में झुलस जाता है नाइजीरिया
ह्रदय में ज्वालामुखी सा सुलगता है सीरिया
किसी एक नस में टीस मारता है उत्तर प्रदेश
मैं दिल में घाव लिए ईराक की जमीन पर जलता हूँ
मेरे ह्रदय में गहरे तक चाक है जाने कितनी ही गजापट्टियां

मैं एक मध्यवर्गीय आदमी हूँ
मेरे भीतर काबिज है मध्यवर्गीय विद्रोह की प्रवृत्तियाँ
और यही  मध्यवर्गीय प्रवृति तय नहीं कर पाती
की रोटी-रिश्तों और देश में सबसे जरुरी चीज क्या है
मैं रोज लड़ता हूँ अपने भीतर भीतरघात करती
इस मध्यवर्गीय जुर्रत और भगोड़ेपन से

कभी कभी सूझता ही नहीं की
माँ के आँचल के उस फ़टे कोने और
पिता की बल खा चुकी पीठ पर लदे दुखों के बीच
मैं अपने ह्रदय में आहत भारत नाम के घाव का स्थानांतरण कर
कहीं अपनी जिम्मेदारियों की उपेक्षा तो नहीं कर रहा है
और ऐसे कर्म-संकट में मैं किंकर्तव्यविमूढ़ इस अंतर्द्वंद से जूझता हूँ
की वैश्विक जिम्मेदारियां निभाना भी तो एक किस्म की पारिवारिकता है !

ऐसे भयंकर लावाई उहापोह के बीच
मैं अपने रक्त में नामजद रखता हूँ अपने पीडक असंतोष 
मैं कविता में असंतोष लिखकर मशाल चलाता हूँ
मेरी कवितायें मेरे उसी अ-भूमिगत विद्रोह की एफ. आई. आर है !

5.
संवाद का जूता

व्यवस्था परिवर्तन मुर्गे की गर्दन मरोड़ना नहीं है
की आप उतारे अपने पैरों में पहना राष्ट्र-भक्त जूता
और उस लोक-खलनायक के माथे पर
अपने मक्खी-मार प्रतिरोध का टुनटुना चमका दें
यह बेहद सरल है की
आप हर दफे उनके घिनौने चेहरे पर थूक कर ही बताएं
उनके काले कुकर्मों का चिट्ठा

पर यह गूंगा अर्थहीन प्रतिरोध
तुम्हारी बुद्धिहीनता ही प्रदर्शित करेगा
की जब सरेआम लड़ा जा सकता हो विचारों का मल्ल्युद्ध
आप भांजे अपनी विचारहीन लाठियाँ
और चिल्लाएं आपने हक़-ए-फर्ज अदा किया
बदलाव कोई मच्छरमार-संघर्ष नहीं है की
आप चमकाए अपने बंदर-छाप पराक्रम का जूता
और सशब्द अपने मौनस्थलों पर लौट जाएँ

यह तुम्हारी प्रतिद्वंदिता नहीं शौर्यहीनता है
की आप अपने भीतर भरे असंतोष से खुद ही हो जाएँ विष-संक्रमित
और जब बोले तो उगले केवल विष
परिवर्तन रावण-वध के लिए रावण हो जाना नहीं है
हत्या के लिए की  हत्या मनुष्यहीनता है
और हिंसा के लिए की हिंसा विचारहीनता है
बदलाव तो वह राम-वादी संवाद की कला है
जो कुचक्रों में फंसे कितने ही बिभीषणों को कर सकती है मुक्त 

आपके पास भाषा का समार्थ्य है
और विचारों का कौशल है
तो इस दफे मारिये उन्हें
आपकी विचारधारा से मढ़े
संवाद का जूता
क्योंकि दर्ज होता है वही हस्तक्षेप 

जो शालीनता से किया जाए !

'हैदर'नहीं देखा तो देख आइए

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'हैदर'के आये दो हफ्ते हो गए. अभी भी मल्टीप्लेक्स में उसे देखने के लिए लोग जुट रहे हैं. अभी भी लोग उसे देख देख कर उसके ऊपर लिख रहे हैं. युवा फिल्म पत्रकार सैयद एस. तौहीदने देर से ही सही लेकिन 'हैदर'पर सम्यक टिप्पणी की है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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शेक्सपियर की रचनाओं का सिनेमाई रूपांतरण का स्मरण होते ही विशाल भारद्वाज याद आते हैं। गुलजार साहेब याद आते हैंशेक्सपियर को हिन्दी सिनेमा में लाने की पहल याद आती है। शेक्सपियर की रचनाओं पर फिल्में बनाने में विशाल भारद्वाज के अग्रसर गुलजार थे। विशाल की शेक्सपियर कारखाने की ताज़ा फिल्म हैदर आपने देखी होगी। अब तक नहीं देखा

देख आएं, क्योंकि कश्मीर की जमीन से Hamlet  लाने वाले प्रयास पहले नहीं हुए। यहां वो कश्मीर नहीं जो आपने पोपुलर हिंदी फिल्मों में देखा था। आप इसे उनसे जोडकर देख नहीं पाएंगे।  फिल्म में मिशन कश्मीर व हारूद की सदाएं सुनाई पडेगी। रोज़ा का कश्मीर भी। संदेह के आधार पर सेना द्वारा किसी कश्मीरी को नजरबंद की घटना पूछताछ की प्रक्रिया से अधिक हो जाया करती है। नब्बे दशक का कश्मीर आतंकवाद की समस्या से जूझता स्वर्ग था। कश्मीरियों को आज भी बहुत सी समस्याओं का सामना है।  कश्मीर की एक पीडा का इशारा विशाल के गीत गुलों में रंग खिले में प्रकट हुआ । 

कश्मीरी महिलाएं इंतज़ार को जीने को विवश रहती हैं। किसी को अपने पति की वापसी का तो किसी अपने बेटे की वापसी का इंतज़ार। पति का इंतज़ार कर रही गज़ाला मीर खुद के समान औरतों को हाफ विडो कहती हैडिसअपियर्ड लोगों की बीवियां आधी बेवा  कहलाती हैं। हैदर भी तलाश और इंतज़ार के उलझन से गुजर रहा। तलाश पर्सनल दिखाई जरूर पडती हो लेकिन ऐसा नहीं क्योंकि कश्मीरी लोगों के साथ यह गुजरता रहा है। हैदर का संघर्ष व्यक्तिगत बदले की कहानी में बाद में तब्दील होता है।  

डाक्टर साब एवं रूहदार भी एक मायने में तलाश से गुजर रहे लोग हैं। बेहतर कश्मीर की तलाश कहना शायद गलत नहीं । फिल्म में कहानी से सीधे तौर से ताल्लुक नहीं रखने वाले दृश्यों में भी तलाश के पहलू। कब्र खोद कर सो जाने पर सीन ही नहीं पूरा गाना ……सो जाओ है। क्षणभंगूर जीवन को कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में दिखाने के क्या मायने?  हैदर  होने या न होने की उलझन से संघर्ष करते कश्मीरी युवक का रूपक सा है । दरअसल उसके और उसके परिवार के साथ जो हुआपिता कानून के हत्थे हुएघर गोले से उडा दिया गया। नब्बे दशक के कश्मीर को लेकर जबकी बातें ध्यान से जा रहीविशाल हैदर लेकर आएं हैं।

कश्मीर की रूह को महसूस कराने की कोशिश में विशाल ने Hamlet को एक दिलचस्प रूप दिया। गजाला मीर अपने पति का इंतज़ार कर रही एवं नहीं भी कर रही। एक संवाद में हैदर उनके दो चेहरों की बात भी करता है। मां बेटे का रिश्ता एक दो जगह अजीब लगा बाकी सब संतुलित ही था। गजाला मीर के दिल में खुर्रम के लिए इत्तेफाक मुहब्बत की हद का नहीं था। खुर्रम की आरोपित मुहब्बत की राह में खडी इंतज़ार करती अकेली महिला। खुर्रम भाई के प्रति ईमानदार होने का नाटक कर भावुक धोखा देने वाला था। भाई हिलाल मीर की गतिविधियों की जानकारी आर्मी को किसने दी ? डाक्टर हिलाल मीर ने जख्मी इंतेहापसंदो का इलाज करने का जोखिम भरा कदम उठाया था। 

कश्मीर में आतंकवाद के साया होने का डर नब्बे के दशक में चरम पर था। घरों की तलाशी व पहचान पुख्ता करने का काम हमेशा किया जाता रहा। पडोस में पाकिस्तान होने कारण लोगों की पह्चान आज भी की जाती है। डाक्टर साब इसमें पकडे जाने बाद कानून के हत्थे चले गए। इंसानियत व जिंदगी की तरफ होने के जुर्म के फलस्वरुप। डॉक्टर हिलाल ने इसका जिक्र पत्नी गजाला सेवो ज़िन्दगी की तरफकहकर किया भी है । पेशा निभाने की अहद ने उन्हें इंतेहापसंदों के तरफ का बना दिया। हैदर में पिता के साथ हुए सुलुक की तह तक जाने की तडप हम हैं कि नहीं  में महसूस होती है।  वो भी इंतेहापसंद इसलिए करार दिया गया क्योंकि उसमें ज्यादतियों का पर्दाफाश कर असली गुनाहगारों तक पहुंचने का पागलपन था। वो पिता की वापसी की उम्मीद लगाए रहता गर रूहदार उसे सच से वाकिफ नहीं करते। रुहदार डाक्टर साब के साथ गुजरे की हकीकत बताकर उसे उनकी कब्र तक पहुंचा देता है। अब एक बेटे को अपने पिता का बदला लेना था। हैदर के सपनों में आए पिता की बातें भी इसकी तस्दीक कर रही थी कि इंतक़ाम लेना है । लेकिन वो इंतक़ाम तक पहुंचकर भी बाप के मुजरिम को जीने की सजा देता है । गज़ालादादा की विरासत से मिली इंसानियतइंतकाम से सिर्फ इंतकाम जन्म लेता है…. बदले की भावना से आरोपित हैदर में भी माफी को जन्म देती है।

संवादों के मामले में इरफान खान के रुहदार सबसे किस्मत वाले रहे। कहानी में दाखिल होने अंदाज भी रूहदार से बेहतर किसी का नहीं। कवि का एक कोना हैदर में भी जिंदा था लेकिन उन्हें रूहदार समान रूह को स्पर्श करने वाले संवाद नहीं दिए गए। काश फैज की शायरी को हैदर की जुबान मिली होती । फिल्म में एक गीत गुलों में रंग भरे अजीम शायर को याद करने का दिलचस्प तरीका था। लेकिन शाहिद कपूर को खिलने का अवसर कम मिले। विशाल ने बहुआयामी किरदारों के साथ कहानी को रचा फिर भी विस्तार बाकी रहा। विशाल डूब गए होत तो समुद्र में और भी मोती मिलते।  बसारत पीर व विशाल ने हैदर की बहुआयामी शख्सियत को गंभीरता से नहीं लिया। धमाकेदार आगाज के हिसाब से रूहदार को भी विस्तार मिलना चाहिए था। गर किरदारों का सलीके से विस्तार किया गया होता फिल्म व्यक्तिगत कहानी से ऊपर उठ जाती । हैदर की कहानी निजी से अधिक होकर भी कश्मीरियों के साथ खडी होने के लिए विस्तार पा नहीं सकी। कश्मीरी  इतिहास व परिवेश से अलग Hamlet फिर से रूपांतरित हो सकती है। कश्मीर से लेकिन हैदर को अलग नहीं किया जा सकता। कश्मीर से अलग हैदर की कल्पना नहीं की जा सकती? कश्मीरी परिवेश वेशभूषा एवं किरदारों को लेकर एक अरसे से फिल्म नहीं आई थी। विशाल ने उसके लिए पर्याप्त हिम्मत जुटाई होगी।  फिल्म युवा हैदर की कहानी व कश्मीर की दो सामनांतर कहानियों को लेकर चली दर्शक किसी भी नजरिए से आज़ाद थे । व्यक्तिगत नजरिए वालों को उसमें केवल Hamlet दिखाई दिया । कश्मीर देखने गए लोगों को रूहदार व हैदर तथा कश्मीरियत का इतिहास व वर्त्तमान दिखा। नजरियों को मिलाकर भी देखा जा सकता है।  हर हाल में मुंह मोडना बहुत मुश्किल होगा। एक बार फिर से सिनेमा में कश्मीर शबाब के साथ जिंदा हुआ ।

संपर्क: passion4pearl@gmail.com


कविता भाषा में अपने होने की जद्दोजहद की पहचान है!

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सविता सिंहकी कविताओं का हिंदी में अपना अलग मुकाम है. उनकी कविताओं में गहरी बौद्धिकता को अलग से लक्षित किया जा सकती है. अपनी कविताओं को लेकर, अपने कविता कर्म को लेकर, स्त्री कविता को लेकर उनका यह जरूरी लेख पढ़ा तो मन हुआ कि साझा किया जाए आपसे- प्रभात रंजन 
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हम जिस समय में अब रहते हैं, वह कतई वह नहीं, जिसमें हम रहते थे, या वे लोग जिन्हें हम प्रेम करते थे या फिर जिनसे हमारे मतभेद होते थे। वह एक वर्तुल समय था जिसमें समय के एक छोर का दूसरे छोर से रिश्ता था। हमारे अनुभवों में भी चीजें तब वैसे ही अवस्थित थीं- भूत, वर्तमान और भविष्य एक दूसरे को छूते हुए, एक दूसरे का विस्तार थे जैसे।

अब हमारा समय एक खंडित समय है। हमारे अनुभव में भिन्नता का अब एक मानीखेज दखल है। एक स्त्री अब यह पूछती हुई नहीं हिचकिचाती- मैं किसकी औरत हूं?’ यह मेरी एक कविता का शीर्षक भी है जो मेरे पहले संग्रह अपने जैसा जीवन’  में  आत्मा सरीखी कविता की तरह संग्रहित है। यह समय को खंडित करती हुई कविता है। हमारा भारतीय समय जिसका अर्थ यहां इतिहास और परंपरा से है, उसे भी मरोड़ती हुई कविता! पितृसत्तात्मक समय से मुठभेड़ है उस कविता में। इस प्रक्रिया के दौरान एक नई स्त्री समय के एक खंड को लेकर उदित होती है। यह स्त्री लिखती है, उसका शब्दों के साथ बिलकुल ही नया रिश्ता है। यह अपने इतिहास में अपने को खोजने बिलकुल नई जगह जाती है। इससे वह चाहती है कि उसका होना और लिखना तय हो।

अक्सर अपने होने, जैसी हूं, वैसी होने पर सोचती हूं। मेरा खयाल है कि सारे प्रबुद्धजन ऐसा सोचते हैं। सबके अपने ढंग भी होंगे, अपने अनुभवों की झीनी चादर को वे भी परखते होंगे। उन इलाकों में जाते होंगे जहां वे भटके होंगे, जैसे मैं अपने होने में अपने कवि होने को लेकर अक्सर ऐसी स्थिति में रहती हूं। विस्मित भी होती हूं। सुबह-सुबह कमरे में आई धूप को लेकर जैसे हर बार विस्मय होता है, या फिर किसी चिड़िया को अपनी डाल पर चिंतामग्न बैठे देख जीवन  को लेकर होता है, वैसी ही इन सबके बारे में व्यापक ढंग से सोचते हुए लिखने से होता है।

प्रत्यक्षतः लिखना तो एक कर्म है, लेकिन वह अपने होने कीजमीन से ही निःसृत होता है- यह बात लिखने और सोचने दोनों को ही और गाढ़ा कर देता  है। उस हद तक कविता भी इसी गंभीरता से रचे जाने को विवश करती है। बल्कि एक कविता जो मेरे तीसरे कविता संग्रह स्वप्न समयमें अभी कहां हूंशीर्षक से छपी है, वह इस स्थिति को कुछ हद तक उजागर करती हैः अभी जहां हूं/ स्वप्न और यथार्थ का इलाका/ जहां अपना होना ही विचलित करता है/ जहां मेरे साथ सिर्फ एक किताब है जीवन की/ और उसमें कुछ बाद के पन्ने/ थोड़ी हवा भी है उड़ाती-पड़ाती इनको/ एक साथ जैसे हों कई-कई जीवन फड़फड़ाते।अपने स्त्री होने और कविता लिखने की बात तो जैसे और भी जटिल ढंग से प्रस्तुत होती रहती है। कविता किस हद तक मुझे स्त्री बनाती है, किस हद तक बन चुकी स्त्री को बदलती है- ये सवाल सदा मुझे घेरे रहते हैं। इनका समाधान अपनी कविताओं में ही ढूंढने की कोशिश करती हूं। ढेर सारी कविताएं मैने अपनी कविताओं से बातचीत करती हुए लिखी हैं।

अपने जैसा जीवनमें शायद यह आंतरिक विचलन कम है। लेकिन नींद थी और रात थीसे लेकर स्वप्न समयतक आते-आते कविता मेरी वासना बन चुकी थी। और हिंदी भाषा को भी वैसी ही देह में घुमड़ती अपनी ही वासनाजैसी गुप्त अनुभूति में बदल चुकी थी। नतीजतन, मैने अपनी भाषा पर भी कविताएं लिखीं- शायद मैं एक स्त्री भाषा की खोज में रहने लगी थी। जो मुझे कहनाथा, वह मेरे होने से ही जुड़ा था जिसके लिए एक अलग किस्म की जमीन चाहिए थी। हिंदी मेरी भाषाजो स्वप्न समयके बाद संवेदमें छपी, आधुनिक हिंदी भाषा के आसपास देखती-सी कविता है। क्योंकि उसने कई और भाषाओं को खुद में कई धाराओं की तरह प्रवहमान पाया। उर्दू मेरी भाषाकविता शायद यहीं से  उपजी, जिसे आने वाले संग्रह में जगह मिलेगी। भाषाएं कविता की जमीन ही नहीं, आत्मा होती हैं। जिनकी खोज मनुष्य हमेशा से करता आया है- अपने होने के सवाल से जूझता हुआ। स्त्री भाषा को कविता विशेष रूप से उपयुक्त बनाती है अपने नैसर्गिक वासना के कारण। इसलिए उसकी कविता अपने ढंग की होती है- अनुभवों के संसार में एक बयार-सी, स्त्री भाषा उसकी कविता को स्त्री कविता तो बनाती ही है, उसके अपने होनेके रहस्य को भी धीरे से  उसे समझा देती है। कवितास्त्री की संपत्ति के रूप में कभी संचित नहीं होती, न उसकी कलम वह औजार बनती है जिससे सिर्फ शक्ति अर्जित की जाए- वह इस लैंगिक औजार को बदल देती है सृजन के वैसे उपकरण में जिससे उसकी अपनी दुनिया अनगिनत रूप ग्रहण करने लगती है। स्याही के साथ एक बहता हुआ संसार बनने लगता है। वह इसे अपने हर महीने बहने वाले खून की तरह लेती है, जिसमें प्रजनन की अपार संभावना होती है।

हम जानते हैं कि कभी एक मनुष्य दूसरे की तरह नहीं होता, जिसे वह पैदा करती है। इतनी भिन्नता वह बार-बार सृजित करती है कि यदि इसी पर गौर करें, तो यह दुनिया बदलती-सी लगने लगती। अपने होनेमें कुछ भी नहीं, उस जैसा इस पृथ्वी पर, इसलिए यह सवाल महत्व का है उसके लिए- कविता का महत्व क्या है। वह क्यों लिखती है और उसे अपने होने का आभास इस कर्म से क्यों होता है। इस विषय पर विचार करती हुई फ्रेंच नारीवादी चिंतकों ने बहुत ही मौलिक काम किया है। मैं जुलिया क्रिस्टेवा तथा हेलेने सिक्सूस के लेखन को बहुत रुचि से पढ़ती हूं। मुझे लगता है कि उन्होंने एक नई दुनिया बनाई है, जिसमें लिखना होने का पर्याय बन चुका है, जिसमें टेक्स्ट ही पूरी दुनिया है और जिसमें दो ही चीजें बची रहगई हैं - एक तो टेक्स्ट, दूसरा पाठक। अपने पुराने रूपों में न तो स्त्री बची है और न ही पुरुष।  बल्कि उनकी लैंगिकता की शिनाख्त अब मुश्किल ही है। वे दोनों ही आपसी द्वंद्वों से उबर चुके हैं। सिक्सूस के यहां यह द्वंद्व स्त्री के भीतर ही समाप्त होता है। जब वह यह महसूस करती है कि जो पुरुष उसके भीतर है, उसे आत्मसात् करना ज्यादा आसान है, बनिस्बत उसके जिसे समाज गढ़ता है। जिस तरह से पुरुषार्थ (मैस्कुलिनिटी) की रचना होती है पितृसत्तामक समाजों में, वह उसे खून-खून किए रहता है। और उसे इस कदर स्त्री विरोधी बना दिया जाता है कि वह हमेशा स्त्री के दमन की सरंचनाओं को तैयार करने में ही लगा रहता है। जिस कारण स्त्री का उसके साथ तारतम्य बैठाना दूभर हो जाता है। स्त्री पुरुष दोनों के भीतर पुरुष और स्त्री अपने आदिम रूपों में विद्यमान रहते हैं। हम सभी लोग द्विलैंगिक अस्मिताओं वाले हैं और हमारे बीच निर्विवाद रूप से आनंद की एक गहरी नदी है, जिसमें अपनी भाषा की नाव के जरिए हम उतर सकते हैं। आनंद का यह द्रव्य स्त्री के लिए अपार संभावनाएं संजोए हुए है जिसमें वह अपने कितने ही रूप पा सकती है या सहजता से उन्हें त्याग सकती है। स्त्री कविता इसी संभावना को पाने का नाम है। स्त्री के होने का अर्थ वह नदी होना है जो अप्रतिम ढंग से आईने की तरह उसके अनगिनत रूप दिखा सके.   स्त्री का अपने इन अनगिनत रूपोंको पाना, भाषा में जाना और भटकना और इसके आलोक में कविता कोगढ़ना ही कवि कर्म है। इस अर्थ में स्त्री होना, ‘कवि होनाया फिर एक टेक्स्टहोना आपस में मिले-जुले मसले हैं जिन्हें समझना आनंद की अवस्था में जाना है। स्त्री होना और कविता होना किस पल एक-सा अनुभव हो जाए इसका इंतजार हर स्त्री कवि को करना ही होगा, ताकि वह अपने समय को गहनता से जी सके। स्त्री होना एक गहन अनुभव है और स्त्री कविहोना गहनतम। स्त्री कविता को पढ़ने में इसलिए जल्दबाजी नहीं बरतनी चाहिए।


इस समय में, यानी स्त्री समय में भाषा हमेशा धीरज और उदारता चाहती है क्योंकि कुछ बहुत सुन्दर रचा जाना है. भाषा में स्त्री और कविता दोनों अपने को बदलते हुए नए ढंग से पा सकते हैं. यहं पुरुष से कोई अपेक्षा नहीं, शब्दों से है. 
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