युवा लेखक यतीन्द्र मिश्र इन दिनों लता मंगेशकर पर अपनी किताब को अंतिम रूप देने में लगे हैं. इस पुस्तक में लता जी के साथ संगीत को लेकर उनकी बातचीत भी है, जो उनके ग्लैमर से प्रभावित हुए बिना शुद्ध संगीत को लेकर है. एक छोटा सा अंश आज लता मंगेशकर के जन्मदिन पर- मॉडरेटर
======
======
======
यतीन्द्र मिश्रः आप जब फिल्म इंडस्ट्री में आयी ही थीं,उस समय बहुत सारे लोग,बहुत सारी आवाज़ें सक्रिय थीं। मसलन- सुरैया,राजकुमारी,जोहराबाई अम्बालावाली,अमीरबाई कर्नाटकी,कानन देवी,पारुल घोष और शमशाद बेग़म जैसी नामचीन आवाज़ें। उस ज़माने में,इन गायिकाओं की गायिकी को ध्यान में रखते हुए क्या आपने यह तय कर रखा था कि मुझे इन लोगों की तरह तो कतई नहीं गाना है। मतलब यह कि पिछले समयों में जो चालीस का महत्त्वपूर्ण दशक रहा,उसमें जिस तरह यह गायिकाएँ अपना गायन सिनेमा के लिये करती रहीं,वैसा आपने न करने की कोई बात मन में रखी थी,एक विभाजन रेखा उन गायिकाओं की कला से सम्बद्ध मन में गहराई से आकार ले रही थी अथवा यह सहज ढंग से ही लता मंगेशकर द्वारा गायिकी का तरीका एकाएक बदलने का मामला था?
लता मंगेशकरः देखिए,एक तो बहुत सारे लोग अभी भी ठीक से जानते नहीं हैं कि उस दौर में गायिकी की जो स्टाईल थी,वह किस हद तक एक ही ढर्रे पर कायम थी। इस बात को जब मैं बहुत गौर से देखती हूँ,तो इन सारे लोगों के बीच में मुझे नूरज़हाँ अकेली खड़ी दिखाई पड़ती हैं। मैंने उनको बहुत सुना था और अपने लिये यह पाया कि अगर फ़िल्मों के लिये गाना है,तो वह कैसा गाना होना चाहिए। नूरज़हाँ को पहली दफ़ा सुनकर ही मैं यह समझ सकी कि अगर सैड सांग है,तो वह कैसे गाया जाये और वह खुशी का गीत है,तो उसे कैसे गाना चाहिए। यह एक बात उनके गायन से,उस दौर के बारे में मेरी समझ में आती है। मैं आपको इसे अपने ढंग से अगर बताऊँ, तो मेरे लिये गीत ऐसा होना चाहिए,जिसमें मैं पूरी तरह खो जाऊँ,ख़ुद को पूरी तरह मिटाकर भूल सकूँ। गीत के जो बोल हैं,उसकी जो धुन है,अगर वह दुःख के लिये बनाई गयी है,तो मैं यह कोशिश करती हूँ कि उसका प्रभाव इतना दुःख भरा निकले कि लोगों को हिचकी नहीं सुनाई दे,पर लगे कि वाकई कोई रो रहा है। यह कोशिश मैं ज्यादा से ज्यादा करती रही हूँ,ताकि फ़िल्म में जो सिचुएशन काम कर रही है,वह आसान हो जाये। गाते हुए गीत की शक्ल उभरनी चाहिए। यह नहीं हो सकता कि सैड सांग के समय कोई यह महसूस करे कि इसमें तो ग़म की बात ही नहीं दिखाई दे रही।
यतीन्द्र मिश्रः इस लिहाज़ से आपका यह कहना है कि जो भी मनोदशाएँ जीवन में व्याप्त हैं,उसके अनुसार गाया जाना चाहिए और आपके दिमाग़ में इस तरह के अनुसरण के लिये आदर्श नूरजहाँ जी का रहा है।
लता मंगेशकरः आदर्श का मतलब बस इतना ही नहीं। मैंने गानों के बोलों के साथ ये सब भी समझने की कोशिश की है कि एक गाना कैसा होना चाहिए,क्या होना चाहिए,किस तरह बयाँ होना चाहिए। नूरज़हाँ जी की स्टाईल को पसन्द करते हुए भी मैंने उनको फौलो नहीं किया,बल्कि यह सीखा- किस तरह गाने को बरता जाता है,जिसकी तमीज़ मैं ख़ुद के गायन में पैदा कर सकूँ।
यतीन्द्र मिश्रः यह तो ठीक बात है,लेकिन जैसे कलाओं की दुनिया में होता रहा है कि कोई बड़ा से बड़ा फ़नकार,कलाकार किसी दूसरे कलाकार के काम को आदर्श की तरह देखता है या कि उसे बिल्कुल किताब की तरह पढ़ता है। ऐसे में उस जमाने में क्या आपको सबसे नेचुरल नूरज़हाँ जी की आवाज़ ही लगती थी?
लता मंगेशकरः आवाज़ से ज़्यादा उनका एक्प्रेशन। वो उस ज़माने में एकदम नयी बात थी कि गाना ऐसा भी गाया जाता है। सैड सांग या लव सांग ऐसे भी गाया जाता है। नूरज़हाँ जी से अलग सहगल साहब एक अलग ही मुकाम पर मौजूद थे। हालाँकि सहगल साहब मर्द थे और उनकी स्केल या उनके सिगिंग टेम्परामेण्ट को पकड़ पाना मामूली बात नहीं है। उनके गाने में मुझे एक ही बात मिलती थी और वह हर तरह से परफेक्शन का मामला था। जैसे,उन्होंने ‘दुःख के अब दिन बीतत नाहीं’ (देवदास) गाया है। वह कितना अच्छा और कमाल का गाया है। फ़िल्म में उनका किरदार बहुत दुःखी है और शराब पीकर बैठा हुआ है। वह गा रहा है और बहुत उदास है। अब यह जो उन्होंने एक्सप्रेशन दिया था,वह मुझे गहरे आश्चर्य में डालता है। मुझे बचपन से ऐसा लगता था कि यह गाना उन्होंने कैसे गाया होगा?गाते वक्त तो आदमी सिर्फ़ गाता है और रोता नहीं है। गाते हुए आप रो नहीं सकते या बहुत रो रहे हों,तो सुर में गा नहीं पायेंगे। तो उन्होंने कैसे रोने का आभास दिलाते हुए यह गीत गा दिया,वह कमाल की बात लगती है। ऐसे तमाम सिचुएशन जो हमें दिये जाते हैं,उसके लिये सहगल साहब की तरह गा पाना या कि नूरज़हाँ की तरह उस बात को एक्सप्रेस कर ले जाना मुझे हमेशा ही चुनौती भरा और सीखने वाला लगता रहा है। इसीलिये बिल्कुल शुरुआत से ही,जिसका जिक्र आप कर रहे हैं,मैं हमेशा दर्द के,प्रेम के या खुशियों के गीत को उन्हीं लोगों को ध्यान में रखकर सोचकर गाने की कोशिश करती थी।
यतीन्द्र मिश्रः किन लोगों की आवाज़ ऐसी थी,जो आपको बहुत प्रभावित नहीं करती थी। या इसे इस तरह कहें कि बेहद नाटकीय ढंग की कुछ ऐसी आवाज़ें,जो फ़िल्म के सिचुएशन के साथ मौलिक ढंग के एक्सप्रेशन नहीं दे पाती थीं?
लता मंगेशकरः मैंने इस तरह का अन्दाज़ा नहीं लगाया है,इसलिए कुछ कहना ठीक नहीं होगा। अलबत्ता यह जरूर है कि हमसे पहले गायन के क्षेत्र में सिनेमा की दुनिया में सक्रिय आवाज़ों से लगभग एक तरह का ही काम लिया जाता था। जैसे-जैसे संगीत के क्षेत्र में बदलाव आना शुरु हुआ,नये संगीतकार कुछ पश्चिम से प्रभाव लेकर,तो कुछ भारतीय लोक संगीत की धुनों को पकड़कर गीत रचने में आगे बढ़े,तो उसी के मुताबिक फ़िल्म की सिचुएशन रखने का और गानों को रेकार्ड करने का रिवाज़ प्रचलित हुआ। मेरे आने से पहले जो लोग थे,उनमें से किसी की आवाज़ तो ऐसी नहीं लगी,जो बहुत ख़राब या रिजेक्ट करने के लायक हो। कुछ लोगों का अन्दाज़ मुझे बहुत भाता था,जिनको सुनना तो मुझको पसन्द था ही,वे अलग से मौलिक आवाज़ें भी जान पड़ती थीं।लगभग एक ढर्रे पर विकसित गायिकी को थोड़ी देर के लिए अगर नज़र-अन्दाज़ कर दें,तो भी वहाँ पर तमाम लोग बढ़िया गा रहे थे। जैसे,जोहराबाई अम्बालावाली, अमीरबाई कर्नाटकी,पारुल घोष,सुरैया और राजकुमारी जी जैसी गायिकाएँ।
यतीन्द्र मिश्रः आपकी संगीत-यात्रा का जो पूरा बाना है,उस संस्कृति में जो चीज़ अलग से रेखांकित किये जाने योग्य है,उसमें यह बात प्रमुखता से उभरती है कि आपने कभी अश्लील या गलत आशयों को सन्दर्भित गाने नहीं गाये। बहुत हद तक आपने मर्यादा का पुनर्वास किया उस फ़िल्म इण्ड्रस्टी में,जहाँ कुछ भी चलता था,बस उसके होने की शर्त केवल लोकप्रियता या बाज़ार से निर्धारित होती थी। ऐसे में वह कौन सी बात है,जो आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित करती थी?
लता मंगेशकरः जहाँ तक मेरा सवाल है,मैंने हमेशा अपनी शर्तों पर इस इण्डस्ट्री में काम किया है। मुझे शुरु से ही जो संस्कार मिले थे,उसमें एक बात पहले से ही तय हो चुकी थी,कि मैं जो भी करूँगी,उसका स्वरूप और सीमाएँ क्या होंगी। जहाँ तक फ़िल्मी गीतों का मामला है,तो वह किसी भी कलाकार से ज्यादा उसके निर्देशक,संगीतकार व गीतकार पर निर्भर करता है कि वे लोग फ़िल्म की सिचुएशन के हिसाब से हमसे क्या गवाना चाहते हैं। मैंने इस माध्यम के इस सीमित दायरे को बहुत पहले ही समझ लिया था और मुझे कहीं यह लगने लगा था कि जब इस इण्डस्ट्री में मुझे लगातार रहना और काम करना है,तो कुछ चीज़ें अगर शुरु से ही साफ कर ली जायें,तो आसानी रहेगी। इसमें यह अश्लीलता वाला भी मामला था,जिसके खिलाफ मैं डटी रही और अपनी पसन्द के कुछ बेहतर शब्दावली के गीत गा सकी।
यतीन्द्र मिश्रः कई बार आपको ऐसा नहीं लगता कि जो गीत आप बहुत पहले गा चुकीं,आज उसको कुछ दूसरे ढंग से गाना पसन्द करेंगी। बहुत सारे ऐसे गीत हैं,जो बहुत मकबूल हुए,सुपरहिट रहे और आज भी बेहद पसन्द किये जाते हैं। एक कलाकार की हैसियत से जो आपने लगातार ग्रो किया है,आपको कभी लगा हो कि मुझे यह पिछला गाना तो ऐसे गाना चाहिए था,जबकि मैंने उसे तो बिल्कुल दूसरी तरह से गा दिया है।
लता मंगेशकरः नहीं,मुझे नहीं लगता है। मेरे मन में यह बात कभी आती ही नहीं। कमी ज़रूर ही दिख जाती है,मगर उसे फिर से गाने या सुनने का मन तो नहीं होता। मुझे ऐसा लगता है कि जो उस समय हो गया,वो हो गया। यह इसलिये भी क्योंकि फ़िल्म म्यूजिक में गुंजाइश नहीं होती है कुछ और करने की,तो जो हो जाये,वो अच्छा है। कभी-कभी बहुत अच्छा हो जाता है,तो अकसर ठीक ही रहता है। जो थोड़ा-बहुत ठीक हुआ है,वह वैसे ही सही लगता है। यह बात और है कि अगर कोई गाना बिल्कुल ठीक नहीं हुआ है,तो अलग बात है। हालाँकि मेरे मामले में ऐसी स्थिति शायद नहीं ही आई है.... और अगर आई हो,या दूसरों को ऐसा लगता है,तो हो भी सकता है क्योंकि कई बार गाने बनाने वाले भी कोई हल्का गाना बना डालते हैं। इस मामले में सिर्फ़ पार्श्वगायक या गायिका ही नहीं,संगीतकार और गीतकार भी जिम्मेदार हैं। इसी तरह मैं यह भी देखती हूँ कि कोई गाना जो हमने गाया हो,अगर वह नहीं चला,तो इसका मतलब है कि उसमें कोई न कोई कमी ज़रूर रही होगी। फिर यह भी देखने में आया है कि गाना बहुत अच्छा था,मगर न जाने किस कारण वो सुना नहीं गया या ऐसे ही बिसरा दिया गया। मुझे हँसी आती है यह देखकर,कि अधिकांश रेकार्ड कम्पनियाँ हम सभी के कुछ गानों को जब ‘भूले-बिसरे गीतों’के लेबल से प्रसारित करती हैं,उनमें भी अधिकांश गाने सभी को याद होते हैं या कि अपने जमाने में सुपरहिट रहे होते हैं।
यतीन्द्र मिश्रः मुझे तो आपके सन्दर्भ में यह भी लगता है कि अकसर फ़िल्म नहीं चली है,मगर गाने चले हैं। यह तो मैंने कई बार पाया है और मेरे ख्याल से बहुतेरे संगीतप्रेमी इस बात से सहमत होंगे कि फ़िल्म पिट गयी,मगर गाने सुपरहिट हुए। मिसाल के तौर पर एक फ़िल्म है ‘शंकर हुसैन’। शायद ही इस फ़िल्म को बहुत से लोगों ने देखा हो या इसके बारे में सुना हो... लेकिन इसके दोनों गाने,जो आपकी आवाज़ में हैं और जिसे ख़य्याम साहब ने संगीतबद्ध किया- ‘आप यूँ फासलों से गुजरते रहे’व ‘अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं’शायद ही किसी संगीतप्रेमी और आपके प्रशंसकों की निग़ाह से अछूते रहे होंगे। ऐसे में आप क्या सोचती हैं?
लता मंगेशकरः ठीक बात है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे भी अपने ये दोनों गाने बेहद पसन्द हैं। ख़य्याम साहब की धुनों और ज़ाँनिसार अख़्तर और कैफ भोपाली की दिलकश शायरी के कारण भी। आपने जो बात कही है वह बेहद सही है फ़िल्म इण्डस्ट्री के बारे में। हिन्दी सिनेमा में हमने यह बहुत नज़दीक से देखा है कि अच्छे संगीत के बगैर कोई फ़िल्म ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाती। कई बार ‘बी’और ‘सी’ग्रेड की फ़िल्में दर्शकों द्वारा आसानी से भुला दी जाती हैं,मगर उनके संगीत का रेकार्ड वर्षों बाद तक वैसे ही बिकता रहता है। मैंने ऐसी बहुत सारी फ़िल्मों में गाया है,जिनमें ज्यादातर धार्मिक और स्टण्ट फ़िल्में शामिल हैं। उनके गाने बहुत चले,मगर फ़िल्म के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। मेरे ख्याल से यह मेरा तज़ुर्बा ही नहीं है,बल्कि इसे मुकेश जी,रफ़ी साहब,किशोर दा और आशा भी महसूस करते होंगे। मेरे लिये बस इतना ज़रूरी है कि मैं जो गीत गाऊँ,वह अच्छे हों और बहुत दिनों तक याद किये जाएँ। फ़िल्म कैसी है और कैसी बननी चाहिए,यह मेरे अधिकार क्षेत्र का मामला नहीं है।
यतीन्द्र मिश्रः आपने कई बार यह स्वीकारा है कि ‘चाचा जिन्दाबाद’का गीत ‘बैरन नींद न आये’ही अकेला ऐसा गीत है,जो आपको गायिकी के लिहाज़ से बिल्कुल शुद्ध व सही लगता है। इसके पीछे कोई ख़ास वज़ह या तर्क?
लता मंगेशकरः नहीं,ऐसी कोई वज़ह नहीं है,जो मैं आपको दे सकूँ। अपने गाये हुए गानों में मुझे यह सुनकर लगा कि मैंने इसे बिल्कुल ठीक ढंग से अंजाम दिया है। मसलन कई बार मुझे अपने गीतों को सुनकर यह लगा,कि इसमें मैं थोड़ी बेहतर तान ले पाती तो अच्छा होता या सुर को थोड़ा और नीचे से उठाया होता,तो ठीक रहता। यह गीत मुझे इस तरह की दिक्कतों से दूर लगता है इसलिए मैंने ऐसा कहा था। आपको एक सच्ची बात बताऊँ,जब भी किसी फ़िल्म में मेरा सेमी-क्लासिकल गाना आता है,तो मुझे अच्छा ही लगता है। मतलब कोई अगर उसको तरीके से रखे,ढंग से बनाये,तो वो मुझे अच्छा लगेगा। मदन भैया ने तो इतने सारे अच्छे गीत बनाये हैं,कि उनको गिनाना आसान नहीं। मैं इस बारे में यह भी कहना चाहूँगी कि गाने का मूड और रेकार्डिंग का मूड भी कई बार गानों को बड़ा और बेहतरीन बना देता है।
यतीन्द्र मिश्रः शुद्ध रागदारी के सन्दर्भ में यदि हम संगीतकारों की बात करें,तो आप किनको शुरुआती पायदान पर रखती हैं। विशेषकर पहली,दूसरी और तीसरी सीढ़ी पर...।
लता मंगेशकरः अनिल विश्वास,एस.डी. बर्मन,मदन मोहन,नौशाद साहब ये सब लोग... और किसी हद तक ख़य्याम साहब को रखना चाहूँगी,जो रागदारी को गम्भीरता से बरतते हैं।
यतीन्द्र मिश्रः मुझे लगता है कि एक नाम,रोशन साहब का भी इसमें होना चाहिए।
लता मंगेशकरः हाँ! रोशनलाल को मैं भूल गयी। वे बेहद अच्छे संगीतकार थे,उनकी रागदारी पर पकड़ इसलिए भी दिखाई देती है कि उन्होंने मैहर के विख्यात बीनकर उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ साहब से भी सीखा हुआ था। वे इतनी बढ़िया दिलरुबा बजाते थे,जिसका जवाब नहीं। हालाँकि उन्हें सारंगी और हारमोनियम का भी बख़ूबी ज्ञान था। वे अकेले ऐसे संगीतकार हैं,जिन्होंने मुझसे रागों की बन्दिशों को भी जस का तस गवाया। जैसे यमन की बन्दिश ‘सखी ए री आली पिया बिन’को ‘राग-रंग’में और गौड़ मल्हार की बन्दिश ‘गरजत बरसत भीजत अइलो’ को ‘मल्हार’में। इसी तरह ‘चित्रलेखा’का गीत ‘ए री जाने न दूँगी’को साहिर साहब से लिखवाकर गवाया था,जो राग कामोद की बन्दिश को आधार बनाकर लिखी गयी और उसी राग में कम्पोज़ भी हुई।
यतीन्द्र मिश्रः रोशन साहब ने और भी बहुत सुन्दर गाने आपके लिये बनाये हैं।
लता मंगेशकरः जी। बेहद सुन्दर गाने। ख़ासकर- ‘नौबहार’,‘ममता’,‘ताजमहल’,‘जिन्दगी और हम’,‘बहू बेग़म’,‘चित्रलेखा’,‘राग-रंग’,‘टकसाल’,‘आरती’,‘मल्हार’और ‘अनोखी रात’के गाने।
यतीन्द्र मिश्रः मुझे लगता है कि वे बड़े मुकम्मल संगीतकार रहे हैं,जिनका एक बड़ा पक्ष ग़ज़ल कम्पोजीशन को भी जाता है। हमारे यहाँ ग़ज़ल बनाने के लिए नौशाद साहब और मदन मोहन जी को ही अधिक श्रेय दिया जाता है,जबकि यदि गम्भीरता से आकलन किया जाये,तो रोशन साहब और ख़य्याम भी उसी श्रेणी में खड़े नज़र आयेंगे। रोशन की संगीतबद्ध फ़िल्मों,विशेषकर- बरसात की रात,ताजमहल,बहू बेग़म,दिल ही तो है,ममता और बाबर आदि में उनकी ग़ज़लों का मेयार देखने लायक है। आपका इस बारे में क्या सोचना है।
लता मंगेशकरः बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। उनकी ग़ज़लें उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं,जितनी कि मदन भैया या नौशाद साहब की। इनमें उन कव्वालियों को भी जोड़ना चाहिए,जो उनको अलग से एक बड़े संगीतकार का दर्जा देती हैं। बरसात की रात,ताजमहल,बहू बेग़म और दिल ही तो है की उनकी कम्पोज़ की हुई कव्वालियों को भुलाना मुश्किल है। यह एक संयोग ही है कि इन सारी फ़िल्मों में मैंने उनके लिये गाया है,पर एक भी कव्वाली में मैं मौजूद नहीं हूँ।
यतीन्द्र मिश्र : अगर हम समय के चक्र (टाईम मशीन) को घुमाकर सन् 1949-50में ले जायें,तो आपके फ़िल्मों से सम्बन्धित सांगीतिक जीवन की शुरुआत में खेमचन्द प्रकाश,शंकर-जयकिशन,हुस्नलाल-भगतराम जैसे म्यूजिक डायरेक्टर आते हैं और आपको एक मजबूत ज़मीन बनाने के लिए,‘आयेगा आने वाला’ (महल),‘हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का’ (बरसात) और ‘चले जाना नहीं नैन मिला के’ (बड़ी बहन) जैसे गाने मिलते हैं। इससे एक नये युग का सूत्रापात होता है,जो कहीं आपके कद को बड़ा बनाने में मददगार रहता है। मैं यह जानना चाहता हूँ कि यदि उस जमाने में ए.आर. रहमान आये होते,जतिन-ललित आये होते,शंकर-एहसान लाय होते,तो ये सारे गाने कैसे बनते?उस समय ‘आयेगा आने वाला’की आमद कैसी होती?
लता मंगेशकरः (हँसते हुए) बड़ा मजेदार प्रश्न है आपका। कहना मुश्किल है इस पर क्या बोलूँ?समझ में नहीं आ रहा है कि वाकई अगर ऐसा हुआ होता,तो ये गाने कैसे बनते। यह विचार और कल्पना तो सुनने में अच्छी लगती है,पर मैं पूरी तरह इसका आकलन नहीं कर सकती कि ‘आयेगा आने वाला’को ए.आर. रहमान ने बनाया होता या ‘हवा में उड़ता जाए’को जतिन-ललित ने,तो कैसा प्रभाव पैदा होता। ... मगर मैं इतना ज़रूर जानती हूँ कि कुछ बहुत बढ़िया होता या बिल्कुल दूसरे अन्दाज़ में सामने आता,जिसकी शायद धुनें और तर्ज़ भी अलग होते। मैं आपसे प्रश्न करती हूँ कि जो मेरे गाने रहमान ने बनाये,या जतिन-ललित के लिये मैंने ‘मेरे ख़्वाबों में जो आए’(दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे) गाया है,उसे श्याम सुन्दर जी,नौशाद साहब या अनिल विश्वास ने रचा होता,तो आपके लिहाज़ से वह किस तरह बनता?यह वाकई बहुत रोचक और सोचने वाली बात है कि समय के हेर-फेर से हमारे गीतों का स्वभाव कैसा होता?इतना ज़रूर मैं कहना चाहूँगी कि पुराने समयों में,जब मैनें ‘महल’,‘बड़ी बहन’,‘‘बरसात’,‘तराना’, ‘बाज़ार’और ‘संगदिल’जैसी फ़िल्मों के लिये पार्श्वगायन किया था,उस समय तकनीकी रूप से सिनेमा में बहुत तरक्की नहीं हुई थी। ‘आयेगा आने वाला’में मुझे कमरे से निकलकर दबे पाँव रेकार्डिंग वाले कमरे तक आना पड़ता था और उसी अनुपात में रेकार्डिंग के माइक पर स्वर का उतार-चढ़ाव कैद किया जाता था। बहुत सारे ऐसे गाने मुझे याद हैं,जिसमें कुछ विशेष प्रभावों को देने के लिये अनिल विश्वास,श्याम सुन्दर,सज्जाद हुसैन,सलिल चौधरी और सी.रामचन्द्र ने कुछ नये तरीके और अजीबोगरीब टोटके आजमाये थे,जिनसे गीतों में वह प्रभाव पैदा हो सका। आज,जो स्थिति है और जिस तरह हमारी तकनीकी विकसित हो चुकी है,उसमें अगर इन लोगों को काम करने का मौका मिलता,तब तो कमाल ही हो गया होता। न जाने कितना और अधिक एडवांस किस्म का ये लोग संगीत रच पाते, आप सोच सकते हैं। ठीक उसी तरह,जैसा सुन्दर और स्तरीय संगीत आज के संगीतकार बना रहे हैं। रहमान,जतिन-ललित और तमाम अन्य लोग,अगर पीछे जाकर काम करते,तो कितनी मुश्किलें आतीं और कितना संघर्ष करते हुए वे सब अपना गाना बनाते,इसका अन्दाज़ा भी लगाया जा सकता है। मेरे लिये भी यह कम चुनौती की बात नहीं कि मैं अनिल विश्वास की धुनों जैसा काम रहमान के साथ कर रही होती,और उसी तरह इन नये लोगों की धुनों पर नौशाद साहब के लिये रेकार्ड करती,तो कैसा होता?
'नया ज्ञानोदय'में पूर्व प्रकाशित