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'उसने कहा था'की सूबेदारनी और मैत्रयी पुष्पा की कलम

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'उसने कहा था'कहानी अगले साल सौ साल की हो जाएगी. इस सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए कल हमने युवा लेखक मनोज कुमार पाण्डे का लेख प्रस्तुत किया था. आज प्रसिद्ध लेखिका मैत्रेयी पुष्पाका यह लेख. जो यह सवाल उठाता है कि क्या यह कहानी महज लहना सिंह की है, सूबेदारनी का पक्ष भी तो आना चाहिए. पढ़िए एक दिलचस्प लेख- मॉडरेटर
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मुझे पहचाना?’
नहीं।
तेरी कुड़माई हो गई?’
धत्।
कल ही हो गई।
देखते नहीं यह रेशमी बूटों वाला शालू. अमृतसर में।

यह संवाद! लहनासिंह, तुमने जीवन साथ बिताने का खूबसूरत सपना देखा था न? और मेरे पिछले वाक्य पर कितना छोटा मुंह हो गया था तुम्हारा! क्यों न होता, उस छोटी सी उम्र में उस क्षण तुम्हें समझ नहीं आ रहा कि दिन की सुनहरी भोर में यकायक अंधेरा कैसे फट पड़ा। मेरी सहज मुद्रा हवा में भले ही लहरा रही थी, मगर दिल पर कुछ भारी-भारी सा लदा हुआ था। शायद इसलिए कि मैं हर रात तुम्हारे सुबह मिलने की आहट ओढ़-बिछाकर सोती थी। मेरा हर सपना लहनासिंह के आसपास होता था। अबोध आंखों के तितली जैसे रंगीन और कोमल सपनों को लेकर ही दुनिया को पहचान रही थी मैं। सारे मासूम विवरणों को अपनी झोली में समेटकर भरने के बाद समझ में यही आया था कि हम एक-दूसरे के इतने निकट आते जा रहे हैं कि इन नजदीकियों को अब तक पहचानते नहीं थे। इतना इल्म कहां था कि आपस के शरारत भरे संवाद और छेड़छाड़ की नन्ही-छोटी मुद्राएं आगे चलकर किस घाट लगेंगी।

मैं आठ साल की थी और तुम बारह साल के।

अब तो पूरे पच्चीस वर्ष का अंतराल है। इस अंतराल का एक-एक दिन, एक-एक महीना और एक-एक साल मैंने यही सोचकर बिताया कि मैं तुम्हें भूल रही हूं, भूलती जा रही हूं और जब जिंदगी का अंजुरी-अंजुरी पानी उलीच दिया, प्रेम से लबरेज रहने वाली लड़की निखालिस गृहस्थिन सूबेदारनी हो गई तो लगा कि मैं तुम्हें भूल चुकी हूं। अब मेरे घर में खालीपन भर गया है। वहां सूखा व्यापी है और वहां गृहस्थ प्रेम के सिवा किसी भी प्रेम के लिए बंजर है। यहां सेना के जवान और मेरे पति सूबेदार की दुनिया है। दुश्मन, जंग और हार-जीत की बातें हैं, इसलिए भी यहां मोहब्बत के लिए जगह कहां?

बंदूकें, रायफलें और तोपें!
परेड, अभ्यास और कैंप!!

सैनिकों के बूटों से धरती हिलती, कमांडर का हुक्म दिशाओं में गूंजता, सीमा पर लड़ने की शपथ कलेजा हिला देती और मैं अपने आसपास चलते-फिरते जवानों के चेहरों पर तुम्हारा चेहरा लगा-लगाकर देखती रहती, एकदम बेसुध, बेखबर। क्या मुझे मालूम था कि तुम सेना में भर्ती हुए होगे? नहीं, मैं तो कुछ भी नहीं जानती थी और कल्पना के सिवा तुम्हारे चेहरे का रूप-रंग भी मेरे पास नहीं था। अगर कुछ था तो वह शरारत भरा चेहरा जो बारह साल के लड़के के रूप में कहता थाµ ”तेरी कुड़माई हो गई?” बस यही स्वर, यही वाक्य अभ्यास के वास्ते परेड करते जवानों के साथ फौजी माहौल में मेरे सपनों के घुंघरू बांधकर नाचने लगता। जबकि मुझे मालूम था कि अब किसी दिन भी लहनासिंह से मेरी मुलाकात होने वाली नहीं। मगर मैं नहीं, मेरी आकांक्षाएं अपनी उम्मीद तोड़ नहीं पाती थीं।

मैं सुहागिन औरत, जिसकी जिंदगी का सर्वस्व सूबेदार, बार-बार उन कुंआरी यादों को अतीत में धकेलने की कोशिश करती रही। मगर मेरी कोशिशें नाकाम भी तो होती रहती थीं और लहनासिंह की याद मुझे अपने ही भीतर गुनहगार बना जाती। मेरे जमाने की औरतें कहा करती थीं- प्यार का बिरवा कभी मत लगाओ, लग भी जाए तो उसे सींचो नहीं क्योंकि वह हरा-भरा होकर जहरीली पत्तियां गिराने लगता है। मैं अपने दाम्पत्य की खैरियत मनाते हुए अपने दिल को रेगिस्तान की तरह वीरान करने में जुट गई। लहनासिंह के लिए सूबेदारनी की आंखें अब अंधी थीं। मगर वे दो आंखें किसकी थीं, जो अपने बाल मित्रा को अपलक देखती रहतीं और कोमल, मासूम और निश्छल अहसास से भर उठतीं। क्या वह उस भोली-सी छोटी लड़की का प्यार मैं अब तक अपने कलेजे से लगाए फिर रही थी? अपने ही प्यार में अभिभूत थी? मैंने मान लिया था कि तुम, तुम नहीं, मेरे अपने प्यार की भावना हो।

इसलिए ही!

जब तुम सामने पड़े तो मैं चौंकी नहीं, अपनी भावना से मिलान करने लगी और मेरी अंतरंग चेतना जो मोहब्बत से बनी थी, तुम्हें पहचानने लगी। मैंने कहा था न, मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया।
लहनासिंह, तुम मुझे नहीं पहचाने, इस पर मैं विश्वास नहीं कर पा रही थी। तुम्हारी सूरत अब बालक की नहीं, एक जवान की थी, जैसी कि सिख जवान की होती है। मेरा चेहरा भी बदल गया है, आखिर पच्चीस साल का फासला एक लंबी अवधि है। मगर मेरा और तुम्हारा वही क्या था, जो अब तक नहीं बदला। एक-दूसरे से लगाव, जुड़ाव, जिसे मोहब्बत कहते हैं। शायद तुम्हारे पास भी वही रह गई और मैं भी अपने शालू के छोर में वही बांध लाई नहीं तो मैं यहां-वहां तुम्हें सब की निगाह बचाकर क्यों खोजती और तुम विदा होते समय मेरे साथ-साथ रोते क्यों?


लहनासिंह, तुम्हारे लिए मैं वही छोटी लड़की हूं न जो दूध-दही की दुकान से लेकर सब्जी मंडी तक राह चलते तुम्हें कहीं भी मिल जाती थी और उसे देखते ही तुम्हारी कोमल आंखें चमक उठती थीं। वह तुम्हारे दिल में आज भी रहती है?

देखते नहीं यह रेशमी बूटों वाला शालूµअमृतसर में।यह एक वाक्य ऐसी कटार था, जिसने हमारे साथ चलने वाले रास्ते काट दिए। हमारा मिलन कट-फट गया। भोली शरारतें उदास हो गईं। तुम्हारे प्यार का हक उखड़ गया, मेरी चाहत का तो किला ही ढह गया। फिर भी खंडहर के रूप में मुझे कोई नहीं देख पाया। अमृतसर शहर में क्या है, क्या नहीं, मैंने नहीं देखा। हां, यहां एक पथरीला बंगला है, जिसकी दीवारों से टकरा-टकराकर मैंने अपनी भावनाओं को लहूलुहान करते हुए दांपत्य का संतोष हासिल किया है। कोई गजब तो नहीं हुआ, ऐसा तो होता ही रहता है। कोई औरत अपने प्यार की बरबादी पर रो ही कहां पाती है? वह तो उसे छिपाकर सुहाग भरी जिंदगी हासिल करते हुए अपनी जीत का परचम लहराती रहती है, भले उसके हाथ कांपते रहें और पांव थरथराएं।

बच्चों की दोस्ती, दो पल का खेल। खेल के बाद अपने-अपने रास्तेयह व्यावहारिक बात मैंने दिल में बसा ली थी, लेकिन जब-जब अमृतसर में सुबह होती, घर हिलता नजर आता। हवाएं नहीं, आंधियां महसूस होतीं। याद आता कि लहना घर की सीध में चला जा रहा था, रास्ते में एक लड़के को मोरी में धकेल दिया। एक छावड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई। एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहाकर आती वैष्णवी से टकरा गया, अंधे की उपाधि पाई। लहना के भीतर ऐसी टूटन-फूटन हुई जैसे हंसने वाले लड़के के दिमाग में बारूद भर गया हो।

समझने के लिए अब क्या रह गया था? अजब-सी, मोहब्बत से भरी आंखें और शरारत भरी भोली अदाएं जलजला क्यों बनने लगीं, अमृतसर ने ऐसा जहरीला डंक मारा कि तुम तुम न रहे।
लहना, मेरी कुड़माई नहीं होनी चाहिए थी क्या?

नहीं तो क्यों नहीं? इसलिए कि पिछले एक महीने से मैं तुमसे बराबर मिल रही थी और तुम मुझे लेकर अबूझ सपने पाल रहे थे। उन सपनों की मनमोहक छवियां एक लड़की की तरह तुम्हारी गली में आवाजाही कर रही थीं।

मगर मेरा क्या हाल था, तुम्हें शायद मालूम ही नहीं क्योंकि अमृतसर के शालू की बात सुनकर तुमने जो आक्रामकता दिखाई, उसी शालू को ओढ़कर मैं चुपचाप विदा हो गई। मेरी जैसी लड़कियों की जिंदगी, ऐसे ही शालुओं के हवाले हो जाती है, बेआवाज। मगर गौर से कोई देखे तो दिखाई देगा कि एक दर्दनाक तकलीफ चुपके-चुपके बढ़ती है और उमंग तथा उम्मीदों को उजाड़ती चली जाती है। आज तक यह अहसास जिंदा है कि कोई मेरी गर्दन में रेशमी शालू का फंदा कसकर अमृतसर की ओर खींच रहा है। उस समय तो मैं रोती रही थी, जैसे छोटी लड़की अपना खिलौना टूटने पर रोती है।

मगर लहना, न तुम खिलौना थे, न मैं खेलनहार।

मैं कहां गई, तुम कहां रहे, यह भी कोई पहेली नहीं, रिवाज का एक हिस्सा है। पति की घर-गृहस्थी संभालना हर लड़की का धर्म माना गया। लड़के संभालते हैं बाहर का मैदान, जहां तुम पहुंचे। खोज-खबर लेना भी गुनाह फिर सुबह-दोपहर-शाम और रात का हिसाब कौन करे? हां, याद करते हुए लगा कि मेरे चेहरे पर उजली-सी मुस्कान खेल गई है, जिसमें सुबह और दही की रंगत मिली हुई है। और जब कभी तुमको याद करते हुए आंखें भीग उठी हैं, मैंने किसी को खबर नहीं होने दी जैसे रात छिटके हुए तारों की रोशनी को उजागर नहीं होने देती।

इस लुका-छिपी का हासिल क्या रहा, पता है? एक डर, एक भय, एक आशंका और अपराध-बोध। पच्चीस साल बाद वह बारह वर्ष का लड़का आज दाढ़ी-मूँछों वाले सरदार के रूप में पगड़ी बांधे खड़ा था।

लहना? लहना! यह लहनासिंह है!!

मैंने तुम्हें पहचान लिया। यकायक मैं उसी लगाव भरी दुनिया में लौट आई, जिसे छोड़ने-त्यागने की कवायद करते हुए मैंने अपने प्राणों को क्रूर तकलीफ में डालने का अभ्यास साध लिया था। मेरी अब तक की तपस्या भंग होने लगी। मेरे पतिव्रत धर्म का तम्बू बिखरने को हो आया। तेरी कुड़माई हो गई?’ का मीठा सवाल दाम्पत्य में जहर बोने वाला था। भरी दोपहरी में भोर की रेशमी कोमल हवा कहां से आई? सूनी राह पर चलते हुए छूटा-बिछुड़ा पुराना राहगीर। मैं किस ओर दौड़ने लगी? कि दिल बेपनाह धड़क रहा है और कोई भूला हुआ विश्वास धीरज देने लगा है कि तेरी अब तक की तलाश पूरी हुई। यह भ्रम है, जानबूझकर सोचा, मगर नहीं, कोई कहीं छुट जाता है तो भी क्या संबंध टूट जाता है?

मगर यह तो अजनबी की तरह खड़ा है, मेरी पहचान को चुनौती देता हुआ। और यादें हैं कि दौड़ती हुई चली आ रही हैं। बचपन के दिन साथ-साथ भाग रहे हैं। प्यार के धागे में पिरोए नन्हे-मुन्ने सपने। सपनों ने मुझे हर हालत में अपने नजदीक अपने आगोश में समेटकर रखा।

लहनासिंह, सच बताना, तुझे मैं क्या सूबेदारनी लगी? क्यों नहीं लगी हूंगी, जब तूने जमादार रैंक के सिपाही की तरह मेरी ड्योढ़ी पर मत्था टेकनाकिया तो मैं अचकचाई तक नहीं। मैंने पिछले समय को अपनी आंखों पर आने नहीं दिया और तुझे ऐसे देखा जैसे जमादार रैंक के दूसरे सैनिक होते हैं। यह एक मजबूर पतिव्रता का आचरण था। परिचय से जान-पहचान तक जाना भी अपराध लग रहा था। जान-पहचान कहीं दोस्ती न लगने लगे। दोस्ती घनिष्ठता की बू न देने लगे। देखा, विवाहित स्त्रियां अपने दिल के साथ कितनी सख्त कार्रवाइयां करती हैं। और छूट भी ऐसी देती हैं कि कयामत हो जाए! हम वही हैं जो पच्चीस साल पहले थे। लहना की आंखों में पिछला समय तैर गया। होंठों पर नजरों से होती हुई मुस्कराहट झिलमिलाने लगी। या मेरे दरवाजे पर सितारे जगमगाए हैं! जिस प्यार को सीने से लगाए रही, आपातकाल में नजदीक आ गया। मैं वहां खड़ी-खड़ी, सब को भूल गई। यह बिछुड़ने का अपना ताव था और अपनी चमक।

दूसरे ही क्षण मैं होश में आई, यह मानकर कि बिछुड़ना, तकलीफ सहना, त्याग करना प्रेम की संपदा है और मैं इससे भरी-पूरी हूं। मैं अपनी दुनिया में लौटी, लहना पास ही था लेकिन मेरी इस दुनिया से बहुत दूर। क्या हुआ जो मेरी भावनाएं दुःख में बदल रही हैं और लहना की आंखें छलछला आई हैं। ये भी तो वक्त के ऐसे विलक्षण लमहे हैं, जिनकी कल्पना तक मेरे पास न थी। अमृतसर में यह पथरीला बंगला गुलशन जैसा क्यों होने लगा? मैंने तो मान लिया था कि सामाजिक विधि-नियमों का हम जैसी औरतों को श्राप लगा होता है कि लहना जैसों से लगाव-जुड़ाव शिला हो जाए। और यह विधि नहीं विधाता का करिश्मा है कि शिलाओं के नीचे से जलधारा फूट पड़ी।

धारा पुरुष वर्चस्व, धर्म वर्चस्व और भय के वर्चस्व के आसपास अपने जल को टकरा रही है। प्रेम की अनुभूति और विवाह संस्कार का भी आमना-सामना है। कौन जीते, कौन हारे का द्वंद्व था और मेरे हृदय के ताप का असर आसपास हो रहा था, स्थिति खुद ब खुद बनने लगी, क्योंकि लहना अकल्पनीय देव की तरह मेरे सामने उपस्थित था। कल्पित भी नहीं, साक्षात् खड़ा था। मेरे भीतर हूक उठने लगी, जो अपने हृदय के गहरेपन को बड़ी शिद्दत से महसूस करके उठी थी।
मगर यकायक क्या हुआ?

भय के वर्चस्व ने मुझे दबोच लिया, जो पुरुष और धर्म के वर्चस्व से पैदा हुआ था। सूबेदार, मेरे पति की गृहस्थी का सुखमय संसार तबाह हो जाएगा। लहनासिंह शांत परिवार के लिए असगुन की तरह है। पतिव्रत धर्म का बेरहम चाबुक मेरे मन पर पड़ा और रेशे-रेशे उधेड़ने लगा। अचानक यह कैसा दर्द उमड़ा कि मैं अपनेपन में झुकती-सिकुड़ती चली गई। बार-बार अब यही लग रहा था कि जो भी हो, गृहस्थ को संभालती हुई एक औरत दुखी या उपेक्षित रहती हुई भी सम्मानित गृहिणी के रूप में जरूर रह सकती है। इस बात को साबित करने का उपाय एक ही है, अपनी भावनाओं, आशा-आकांक्षाओं और सपनों को भूल जाना। वर्जना का इतिहास यों ही तो अपना प्रभुत्व नहीं बनाए हुए। वर्जनाओं को गले लगाकर लक्ष्मी जैसी औरत की पदवी मिलती है। यानी कि स्त्री की सामाजिक विजय।

हमारा प्रेम और प्रथम विश्वयुद्ध, लगता है कि एक ही धरातल पर घटित हो रहे थे और दोनों के संयोग से एक प्रेम कहानी (उसने कहा था) का जन्म होना था। यह प्रेमकथा ऐसे ही अमर होनी थी जैसे प्यार का प्रतीक ताजमहल।

मेरे लिए प्रेमिका होना ऐसा ही घिनौना घाव है, जिसे ढके रहना ही लाजिमी है। लहनासिंह का प्रेम ही मेरे लिए गौरव है। मुझे प्यार के लिए असाधारण योग्यता या अदम्य लालसा दिखाने का अधिकार ही नहीं दिया गया, यह बात कहने की नहीं है, महसूस करने की है, जो प्रेम करने वाली स्त्रिायां महसूस कर सकती हैं। हम तो अपने प्रेमियों के त्याग-बलिदान और स्थापित सौगातों पर निछावर ही रहे।

अपने उत्कट प्रेम को मैं इस तरह चित्रित करने के लिए तैयार थी या नहीं, मुझसे किसी ने नहीं पूछा। हां, कोई पूछता भी क्यों, मैं ही यू टर्न ले गई। आज उसी दहशतजदा व्यवहार पर मैं कटी मछली-सी तड़पती हूं और मेरे नीचे सूखे रेत के सिवा कुछ नहीं। प्यार जो लहना के लिए मेरे दिल में आवाजाही करता था, आज अपनी मूक उपस्थिति में बिलबिलाता है। प्यार की राह में मैं अपना गुनाह नहीं मिटा सकती। बस आंसू बहा सकती हूं और आंसू सूखते नहीं, क्योंकि इनमें लहना का खून मिला हुआ है। खून सूखा भी तो अपने निशान गाढ़े कर गया।

मैं आखिर क्या रही, एक अमरबेल सरीखी, जिसका जीवन तभी पनपता है जब अपने आधार का ही भक्षण करे। मैं भी तो जीती-जागती रही और अपने गृहस्थ में फलती-फूलती भी। लहनासिंह प्रेम की पराकाष्ठा में खत्म हो गया। तेरे में यह बहादुरी बचपन से थी लहना, शायद इसलिए कि तेरे लिए बहादुरी का सबक बचपन का सबक था, जैसे मेरे लिए कमजोर बने रहने का पाठ बचपन से था। तभी तो जब तांगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था और मैं घिर गई थी। डर के मारे मेरे प्राण निकल रहे थे, उस दिन लहना ने मेरे प्राण बचाए थे और खुद घोड़े की टांगों तले चला गया था। मुझे उठाकर तख्त पर खड़ा कर दिया था। यह तेरे प्रेम की पहली बहादुरी थी और तेरे पुरुष होने का पहला संस्कार क्योंकि तेरे सामने मोहब्बत को छिपाने की मजबूरी नहीं थी। मजबूरी क्यों होती, कलुषित तो लड़की का प्यार ही माना जाता है।

बस, मैं न तुझे भूल पाई, न अपनी भावना जता पाई। न तब, न अब। हर समय अच्छे-बुरे चरित्रा का पेंडुलम लटकता रहा और मैं खुद को बुरी लड़कीहोने से बचाती हुई अच्छाई को साधती रही, शील को धारण करके यहां तक का सफर तय करती रही। क्या फर्क पड़ता है कि तब अबोध लड़की थी और आज ब्याहता औरत। लड़की को पिता की इज्जत रखनी थी, अपना प्रेम नहीं। आज मुझे पति और उसके खानदान की आबरू के लिए अपनी यादों, भावनाओं और संवेदनाओं का खात्मा करना है।  एक वाक्य में कहें तो मेरी जिंदगी पति की जिंदगी के कारण है। पति के सामने मेरे माता-पिता और बहन-भाइयों का भी कोई महत्त्व नहीं।

फिर लहना को मैं किस कोने रखती? क्या बताती उसके बारे में? परिचय में उसके लिए संबोधन क्या होता? इसलिए ही मेरी कथा मेरे प्रेम के साथ लुकाछिपी खेलती रही। सिद्ध करती रही कि सूबेदारनी का प्रेम होता तो नाजायज होता। अगर मैं लहना की प्रेमिका के रूप में खुलेआम प्रस्तुत होती हूं तो मैं प्रेमिका नहीं, बदचलन मानी जाऊंगी क्योंकि मुझे मोहब्बत करने का अधिकार नहीं।
मैं और लहना कतई बख्शे नहीं जाते। हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल और लैला-मजनूं की दास्तान उन सजाओं की मिसालें हैं, जो प्रेमियों को दी गईं। हमने विरासत में दहशत ही पाई है, दादी-नानियों की जिंदा कहानियां हमारे सामने रही हैं। क्या इसलिए ही सुनाई-पढ़ाई जाती हैं कि हम मोहब्बत से दूर ही रहें। क्या इसलिए कि मोहब्बत में बराबरी का जज्बा होता है जबकि औरत के लिए बराबरी निषिद्ध है। मैं सूबेदार की पत्नी होने के नाते साहस कैसे करती कि कहती, मैं अपने बाल सखा के पराक्रम से अभिभूत हूं, उसकी मोहब्बत भरी भावना के लिए आश्वस्त एक गर्वीली प्रेयसी! मैं गौरवान्वित हूं। फिर सूबेदार का क्या होता, जो मेरा पति मेरे मालिक के रूप में था? लहना, यहां मेरा प्यार और मेरा भय जुड़वां की तरह मेरे मन में उथल-पुथल मचाते रहे।

तुमने भी यही सोचा होगा लहना कि सूबेदारनी अब छोटी बच्ची नहीं जो धत्कहकर शरारतपूर्ण हंसी के साथ भाग जाएगी। वह अनुभवों की आंच में तपी हुई परिपक्व औरत है, तभी तो मेरी ड्योढ़ी पर मत्था टेकना करके मुझे आदर दिया था। मैं फिर कैसे कहती कि जो जिंदगी के सचों को तपाकर कुंदन की तरह मन में बसाए हुए है, उसकी चाहत भी कुंदन हो गई है, जो न गल सकती है, न पिघल सकती है। समझ लो कि चाहत के सिवा मेरी भावना कुछ हो भी नहीं सकती। बिकने के लिए उसका मोल भी कहां होता है? मेरा प्यार लहना के सिवा किसी के काम का ही कहां था।

उधर युद्ध, इधर मोहब्बत। उधर दुश्मन, इधर मीत। यह जंग मोहब्बत और नफरत के बीच चल रही थी। यह मारकाट दिलों में हो रही थी या मैदान में? मेरे सामने दोनों मंजर थे। यहां कौन दोस्त था, कौन दुश्मन? मैं किसकी तरफ से लडूं? मैं प्यार निभाऊं या वफादारी? आत्मा की आवाज सुनूं या संस्कारों के नियमों पर चलूं?

लहनासिंह जंग के मैदान में उतरने जा रहा है। पति और बेटा भी युद्ध में शरीक होने के लिए रवाना हो रहे हैं। लहना को कैसे विदा करूं? एक बार सीने से लगाकर रुखसत करूं और सलामती की दुआ के साथ नजरें मिलाऊं। वह मासूम धड़कन आज भी मेरे सीने में जिंदा है जो लहनासिंह की छाती में धड़कती है। मैं आगे बढ़ रही थी।

मगर मुझे मैंने ही बीच में रोक लिया। एक पत्नी ने प्रेमिका के पांवों में जकड़न पैदा कर दी। प्रेम की आग क्या जली, दहशत का धुआं साथ-साथ फैलने लगा। पतिव्रत की तपस्या खंडित हो जाएगी। सूबेदारनी अनैतिक, चरित्राहीन और कुलटा कहलाएगी। मेरी कथा की त्रासदी तो देखो, लहनासिंह शादीशुदा था या अविवाहित, बेशिकन चेहरा लिए प्रेम से लबरेज मेरे सामने खड़ा था। अपनी साफ-शफ्फाक नजर से कह रहा थाµ प्यार में सब कुछ जायज है जैसे कि युद्ध में सब कुछ जायज। मैं न प्यार में हारना चाहता हूं, न जंग में।

मगर मैं हारने लगी लहना! प्रेमकथा में स्त्री को हारना होता है क्योंकि उसे अपने शील में जीतने की आदत पड़ी होती है। आज अपने प्रेम की ही सौगंध खाकर कहती हूं कि मैं अपने पति से अर्ज करना चाहती थी- सूबेदार, जंग के मैदान में लड़ाकू जवानों को हुक्म देने वाले तुम हो। यह लहनासिंह, तुम्हारा जमादार सिपाही ही नहीं, मेरी चाहत का अबूझ और जरूरी हिस्सा है, इसे महफूज रखते हुए मुझे लौटाना। तुम्हारी सेवा अगर मैंने की है, समर्पण किया है तो वह एक पत्नी का धर्म था, मगर यह मेरा प्यार है, जिसे न सेवा चाहिए, न समर्पण, बस मोहब्बत की दरकार है। इसने मुझे बचपन में अपनी जान पर खेलकर बचाया था और शादी के बाद यह तुम्हारे और मेरे रिश्ते को बचाता रहा है, इस घर और गृहस्थ के लिए।

मैं ऐसा कुछ भी तो नहीं कह पाई। मेरी मोहब्बत की दास्तान अनकही ही रह गई जबकि यह सारा किस्सा मेरे इर्द-गिर्द ही बुना जा रहा था। आखिर मेरी दृढ़ता क्यों कांप उठी? क्या उस दिन मैंने उस मासूम लड़की का खात्मा कर डाला, जिसे बरसों पखेरू की तरह दिल में पालती रही?
अपनी निष्पाप प्रेम भावना को रौंदते हुए मैं अपने लेखक के जरिये यह कहने के लिए मजबूर हुई, वह भी एकांत में!

मैंने तेरे आते ही तुझे पहचान लिया था। एक काम कहती हूं। मेरे तो भाग ही फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, आज नमक हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं सूबेदार के साथ ही चली जाती। एक बेटा है, फौज में भरती हुए इसे एक बरस ही हुआ। अब दोनों जाते हैं, मेरे भाग। जैसे बचपन में मुझे बचाया था, ऐसे ही दोनों को बचाना। यही मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आंचल पसारती हूं।कहते-कहते सूबेदारनी फूट-फूटकर रो पड़ी।

कौन मानेगा कि मैं वही छोटी बच्ची हूं, जो लहना की आंखों के प्रेम को समझ गई थी? यहां तो मैं बेहद दुनियादार औरत के रूप में प्रस्तुत हूं, जो लहनासिंह के प्यार को बेरहमी से इस्तेमाल करने पर आमादा है। मेरी आत्मा का बध कर डाला लहना, उस आत्मा का जो किसी की मोहब्बत से अब तक लबरेज रही। लगता है कि लहना को देखते ही मुझे अपने पति और बेटे के बचाव की ढाल मिल गई और मैंने अपना स्वार्थ तुरंत उसके सामने रख दिया। जैसे यही मेरा कर्तव्य था, जिसे निभाना लाजिमी था। इस लाजिम नियम के तहत मैं तुम्हारे सामने गिड़गिड़ाने लगी। पल्ला पसारने लगी। मेरी दयनीय दशा का यह भयानक रूप प्यार के लिए है या प्यार के खिलाफ? क्या मैं संवेदना के लिए जानी जाने वाली औरत जाति के लिए कलंक नहीं हूं? मेरा रूप प्रेमिका नहीं, गुलाम का है, जिसे रोटी, कपड़ा और सिर पर छत के लिए किसी के हाथों बिकना है। बिना सोचे-समझे वैवाहिक जीवन की गुलाम होते जाने की स्त्री की नियति है।

लहनासिंह, तू जीता-जागता पराक्रम चरम साहसिक चुनाव में अपनी मर्जी का मालिक, तभी तो तेरी गहन भावना उदात्त प्रेम और व्यापक संदेश की वाहक बनी।

मैं निखालिस पति परायणा सूबेदारनी, अपनी सारी इंद्रियों पर पति का कब्जा मानने वाली, रिवाजों का दलदल पार नहीं कर सकी। कितनी जद्दोजहद थी, कितनी कशमकश, मगर हर बार रिश्ते का गलत नतीजा आकर राह रोक लेता। आखिर में उसी पायदान पर उतर आई जहां औरत अपने प्रेम की हत्या कर देती है और अपनी मोहब्बत की कातिल औरत ही आदरणीय मानी जाती है। मुझे मेरा लेखक जरा सा भी साहस नहीं दे पाया कि मैं पूज्य ग्रंथों की सीखों से मुठभेड़ कर पाती। बस, पवित्रता, श्रेष्ठता और महानता के लबादे ऐसे रहे कि वैज्ञानिक तथ्य भी ओझल हो गए। तभी तो मैं डरों और सावधानियों से घिरी तुम्हारा बलिदान मांगने लगी। मुझे कहानी की नायिका बनाते हुए समय का दबाव मेरा लेखक भी झेल रहा होगा कि सामाजिक व्यवहार में प्रेम के मूल स्रोतों से उपजे किसी स्वतंत्रा संबंध की स्वीकृति नहीं हुआ करती। बस, इसलिए ही मेरे गले से प्रेम की पुकार गायब कर दी। शास्त्रों की विलक्षण और अद्वितीय नियमावली पर आंच नहीं आई। जो बातें मुझे उपदेशों के रूप में प्रदान की गईं, हर स्त्री के लिए वही तो शिक्षा है।

हां, यह मेरी अनधिकारिक चेष्टा है कि कहीं गहरे प्यार की हूक उठती है कि शिकायत जमाती है, मेरे प्यार का खात्मा करते हुए यह प्रेमकथा क्यों लिखी गई? लहना के लिए मेरे दिल में कोमल खजाना था और उसे मैंने विवाह के बाद भी अमूल्य और गोपनीय संपत्ति की तरह संजोकर, सहेजकर बचाए रखा था। आज दुनिया के सारे कहानीकार सुनें कि स्त्रियों के हृदय में प्रेम का सरोवर होता है, उसमें यादों के कमल खिलते हैं, जिनकी सुगंध से वे भीतर ही भीतर मतवाली रहती हैं। तभी तो बिना इच्छा से वैवाहिक बंधन में बांधे गए पति को भी दुलराती रहती हैं। फिर कैसे मान लिया कि मैं अपने प्रेम का ऐसा क्रूर हश्र करती? और ऐसा करके लेखक ने आखिर क्या सिद्ध करना चाहा? प्रेम की आग दोनों ओर बराबर लगी होती है जिसमें आपसी ताप बराबर रहता है, फिर वह मेरे ही हाथों नष्ट क्यों होता? यह मेरे प्रति इंसाफ नहीं, लदा हुआ फैसला है। फैसला यह कि मेरे प्यार का इजहार नहीं होना चाहिए था।

आज लगभग एक शताब्दी बाद भी सूबेदारनी ज्यों की त्यों खड़ी है। यह कैसी कथा है कि प्रेमिका अपने प्रेमी के प्राण मांग रही है, पति और पुत्र के लिए! इन थोपे हुए संस्कारों का न्याय कौन करेगा? पौराणिक आदिमताओं के किलों में हमारे लिए हमारे चरित्र के खिलाफ, स्वभाव के खिलाफ कारनामे हैं। इनसे बचना कितना मुश्किल है, मगर फिर भी मेरे जैसा कृत्य किसी पे्रम करने वाली ने नहीं किया। ऐसा करके आखिर मैं समाज में सती, देवी, लक्ष्मी कहलाकर क्या करूंगी? अच्छा होता कि अपने पति को भी ऐसे ही जाने देती जंग में जैसे लहनासिंह गया था। हां, मैं तो ऐसे ही जाने देती। जो युद्ध में घटित होता, सो होता। पाखंड की जिंदगी जीना तो मौत से बदतर है।

लहना, यह तेरी प्रेमकथा मेरी गद्दारी की कहानी है। मैंने प्रेम निभाया नहीं, उसको भुना लिया। जबकि अपने प्यार को जीवित रखने के लिए ही मैं पूरी बात न कहकर केवल इतना कहकर रह गई! मैं इसे जानती हूं। मैं इतनी ही चौकन्नी थी, जैसे शेर के सामने खरगोश होता है। मैं यह भी समझ रही थी कि सूबेदार अपनी मर्दानगी की शान में पत्नी की लहनासिंह से घनिष्ठता बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। मगर मैं इतना क्यों डर रही थी? अपने शांत जीवन को बरकरार रखने के लिए, सुहागिन की तरह सम्मानित जिंदगी गुजारने के लिए या पति को ठेस न देने के लिए? सवाल बहुत हैं, मगर मेरे भीतर यह आवाज भी उठती है कि मेरी नियति यही नहीं थी। हम स्त्रिायों के हिस्से में प्यार क्यों नहीं आना चाहिए? अपने प्रेम के लिए उसे मवेशी की तरह मूक क्यों रहना चाहिए? हद तो तब हुई जब मैं प्यार के इजहार में पशु या पक्षी की तरह अपनी नजरें भी नहीं मिला पाई जबकि अकुंठ प्रेम की पुकार हृदय से बार-बार उठ रही थी। औरत के कान-पूंछ पशु की भांति होते तो प्यार में इन अवयवों की हरकत पर भी स्त्री के लिए निषेध होता। इसी निषेध के तहत मैं अपने उद्गार दबा गई और साबित कर दिया कि औरत सुरक्षाविहीन होने के डर से कैसा कायर जीवन गुजारती है। यदि ऐसा नहीं करती तो प्रत्यक्ष रूप से पति को ही चुनौती देती। बदचलन और कुलटा सूबेदार की पत्नी कहलाती। सूबेदार के घर की मर्यादा जाती। मैं घर की आबरू ढोने के चलते अपनी मोहब्बत में गुनहगार क्यों बनी? बनना जरूरी था क्योंकि मेरा वजूद सिर्फ पतिव्रत धर्म निभाने के लिए या जहां सपनेहु आन पुरुष मन नाहि की लक्ष्मण रेखा खिंची हुई है विवाहिता के लिए। लेकिन वह क्या था- मैं तेरे को आते ही पहचान गई। क्यों उसकी छवि मैं पच्चीस साल की लंबी अवधि में भूली नहीं। उसका चेहरा-मोहरा बदल गया, कद-काठी वही नहीं थी, पहनावा भी फर्क था, फिर किस तरह पहचान गई? मेरे लेखक ने मेरी बात दबाकर स्त्री सुलभ गरिमा की रस्सियों से बांध दिया, वरन् लहना और मैंने इतने दिनों बाद भी एक-दूसरे को मोहब्बत भरी आंखों से देखा था।
तभी तो लहनासिंह पर इतना भरोसा कर बैठी। कोई भी सोच सकता है कि बचपन में सिर्फ एक महीने का गली चलते मेल-मिलाप मुझे इतना भरोसा क्यों दे गया जितना कि मैं अपने पति पर पच्चीस साल में नहीं कर पाई। कहूं कि लहना से प्रेम था और पति से दहशत बनी रही। एक में बराबरी थी, दूसरे में सेविका का भाव। सब कुछ जानते-समझते हुए भी पारंपरिक और सामाजिक ढर्रे अपना करिश्मा दिखा रहे थे, मेरी भावनाओं का क्षरण होते हुए मैं ही देख रही थी कि प्रगाढ़ता से पैदा होने वाली दृढ़ता क्षीण रूप में प्रस्तुत हुई। मेरे स्त्री-संस्कार मुझे गलत दिशा में घेर ले गए। पतियों की दुनिया में प्रेम के लिए कट्टरपन की कहानियां मुझे डराने लगी होंगी, माना तो यही जाएगा क्योंकि कुंआरी लड़की की कोमल भावनाओं को उसके विवाहित होने पर पति की कचहरी में उन्हें अपराध सिद्ध किया जाता है।

यह निजाम कब बदलेगा? औरत कब भयमुक्त होगी? अपने प्रेम की स्वीकृत सूबेदारनियां लहना¯सहों की तरह कब सार्वजनिक करेंगी? शायद तब, जब औरत के कुंवारे प्रेम को, उसकी दोस्ती को, उसकी कोमल भावनाओं को मालिकरूपी पुरुष अपने शिकंजे से मुक्त करेगा या यह मुक्ति स्त्री स्वयं अर्जित करेगी। अभी तक भी यानी कि सौ वर्ष बाद भी चलन यही है कि जब भी सदाबहार रूढि़यों के लिए औरत के व्यवहार में कोताही होती है, उसके लिए नतीजे भयानक होते हैं।

तारीखें बदलती हैं, दिन, महीने और सालें बदलते हैं, रिवाजें नहीं बदलतीं। कैसे बदलें, ये रिवाजें पुरुष व्यवस्था के पक्ष में खड़ी हैं और स्त्रियां इनमें हस्तक्षेप करने का साहस नहीं करतीं, क्योंकि ये धर्मशास्त्र की दुहाई देती हुई काबिज हैं। सूबेदारनी के रूप में मैं क्या, आज की आधुनिक से आधुनिक स्त्री यदि विवाह संस्था की मुलाजिम है तो वह पति और प्रेमी के लिए प्राणदान के चुनाव पर अपना मत पति के ही पक्ष में देने को बेहतर मानेगी और देगी भी। वह आतंकित रहती है कि उससे सामाजिक मान्यता न छिन जाए और जान रही होती है कि पति ही वह वैध पुरुष है जो इस मान्यता का लाइसेंस देता है। सुहाग के पक्ष में खड़ी होने वाली परंपरा को औरतें आज तक निभा रही हैं और करवाचैथ के व्रत को शीश झुका रही हैं, वरन् वैज्ञानिक सच्चाइयां भी आज खुल चुकी हैं।

लहनासिंह, तेरे से मेरा ब्याह हो जाता तो तू नहीं मरता क्योंकि फिर मेरा प्यार नहीं, स्वामिभक्ति तेरे साथ होती। और मेरा सारा समर्पण दुनिया को तेरे लिए मेरे प्यार के रूप में दिखता। मैं भी सामाजिक नैतिकता के खिलाफ जाने के भय से मुक्त रहती। वह अलग बात है कि पहले मुझे प्रेमी को पति बनाने वाली जंग लड़नी पड़ती। क्या कुंवारी लड़कियां अपनी प्रेम भावनाओं को दबाकर इसलिए ही प्रेमी की पत्नी के रूप को स्वीकार करने के लिए विवश नहीं होतीं कि ताउम्र का साथ केवल पति के साथ ही मिल सकता है। जो ऐसा नहीं कर पातीं, पति से ही प्रेम करने का अभिनय करती रहती हैं।

मेरा प्रेम चुपचाप तड़पता रहा क्योंकि पतिव्रत के आग्रह ने ऐसा कोड़ा चलाया कि पति और बेटे के जंगी हथियार तेरी पीठ पर लाद दिए। अपने प्रेम की डोर तेरे प्रेम की डोर से काट डाली। मोहब्बत को जुर्म की तरह छिपाती रही। तेरी मुजरिम हुई मैं। दहशतों ने कैसे-कैसे नतीजे दिखाए हैं, कथा, कहानियों और इतिहास के पन्नों पर प्रेमियों को सूली चढ़ाए जाने के अनेक परपीड़क दृश्य दिखाई देते हैं। और प्रेमिकाएं गूंगी गुडि़या की तरह गुमसुम तस्वीरों में कैद रहती हैं।
मगर मेरा सारा भेद खुल गया।

मर्म तेरे से ही खुला! उसने कहा था! उसने कहा था।

उसने कहा था कहते हुए प्राण-विसर्जन किया और एक अविस्मरणीय दृश्य पेश कर दिया। लहना, तू प्रेमियों का सिरमौर प्रेमी। उसने कहा था केवल तेरी प्रेम कथा है। तेरी ओर से मोहब्बत के बुलंद मकबरे में तेरी ही सदा गूंजती है- उसने कहा था।

यहां मैं कौन थी? पतिपरायणा सतियों जैसी एक सती। क्या सचमुच मैंने सती पद पाने के लिए तेरी-मेरी मोहब्बत को दिल में छिपाकर रखा था? क्या तेरे को पहचान लेने का जोखिम सती पद पाने के लिए ही उठाया था? मैं नहीं डरी थी लहना, यह कहो कि यहां हर पायदान पर औरत को डराकर रखने का चलन है, चाहे वह जीती-जागती दुनिया में रहे या कथा-कहानियों में मिले। यह तो सब जानते हैं कि प्यार दो लोगों के बीच होता है। मगर स्त्री और पुरुष का प्रेम है तो स्त्री को प्रेम के रास्ते पर अपनी सक्रियता में चलाए जाने पर कोताही क्यों बरती जाती है? तू जंग में जाता या किसी मंदिर में, तेरा जाना देशप्रेम या देवप्रेम के लिए होता, लिखा यही जाता कि सूबेदारनी की मोहब्बत में समर्पित हुआ।

तेरा बलिदान हुआ और मेरा प्यार आज तक लहूलुहान अवस्था में पड़ा है, तिरस्कृत, बहिष्कृत के रूप में प्यार की दुनिया में कलंकित। सच में विवाहिताएं प्रेम के साथ नाइंसाफी करती हैं, नहीं तो मैंने क्यों कहा था तुझसे ऐसा कुछ जो तेरे ही इम्तहान और तेरे ही प्राणांत का कारण बना। नहीं, लहना! नहीं, मेरा आशय यह नहीं था कि मैं तेरे खून से अपनी गृहस्थी सींचूं।


मेरे लेखक ने सुहाग का संस्कार इतना ही खूंखार और दरिंदगी भरा बना दिया, जितना की मनुस्मृति ने बनाकर दिया। क्या इसीलिए ही मुझे अपने बसे हुए घर पर लहना के खून के ताजे धब्बे आज भी नजर आते हैं? या मैंने ही दहशत और कायरता द्वारा कमाई हुई मर्यादा की दागदार चादर ओढ़ ली है, इस प्रेमकथा ने मुझे पतिव्रत कथा की यही सौगात बख्शी है। क्या मैं यह कहूं कि उन प्रेमिकाओं को सावधान रहना चाहिए, जिनसे प्रेम के लिए साहस का बल छीनने के पवित्रा उपाय किए जाते हैं? मोहब्बत के लिए हिम्मत इतनी ही जरूरी है, जितनी कि जिंदगी के लिए सांसें। साहस होता तो प्रेम की उत्कृष्ट कथा उसने कहा था में सूबेदारनी का प्रेम लज्जित न होता। यहां मैं एक पत्नी और मां के सिवा कुछ भी तो नहीं रहने दी गई, फिर कहानी की नायिका यानी लहनासिंह की प्रेमिका का मुकुट मेरे माथे पर क्यों सजाया गया?

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