लोग यह कहते हैं कि हिंदी की लिखत-पढ़त की दुनिया में दशकों से कुछ नहीं बदला- न भाषा बदली, न मुहावरा बदला, न वह संवेदना, जो आजादी के पहले से इसकी रूह से चिपक गई थी. गाँव बनाम शहर. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता याद है- ‘यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी जो मेरे गाँव को जाती थी...’ जब गाँव से नया नया दिल्ली आया था, तब हिन्दू कॉलेज होस्टल में इस कविता को पढ़ते हुए इसकी उच्छल भावुकता से मैं भी खूब प्रभावित होता था. अब पढता हूँ तो हँसी आती है. कविता यह कहती है गाँव मतलब कच्ची सड़क, अंधरे में डूबे घर, दूखा-रुखा जीवन. बहरहाल, लिखने कुछ चला कुछ लिखने लगा. लेकिन यह सब लिख रहा हूँ रवीश कुमार की किताब ‘रवीशपन्ती’ को पढ़ते हुए.
जो लोग यह कहते हैं कि न भाषा बदली, न संवेदना, न चीजों को देखने का नजरिया तो मैं उनको कहता हूँ लेखक रवीश कुमार को पढ़िए. सरोकार सिर्फ किसी लाल झंडे वाली पार्टी की सदस्यता लेने से नहीं आती है, न ही बचपन या जवानी में छूट चुके उस गाँव को मन में संजोये रखने से जहाँ से भौतिक दुनिया में हमारा नाता छूट चुका होता है लेकिन हम यह चाहते हैं कि वह वैसा का वैसा बना रहे जैसा कि हमारे मन में है.
‘रवीशपन्ती’ एक किताब मात्र नहीं है. यह हिंदी के बदलते मुहावरे, ‘किसान-मजदूर चेतना’ की झूठी संवेदना के बरक्स गांवों के बदलते जीवन के ‘पैराडोक्स’ को करीब से समझने की एक जरूरी और गंभीर कोशिश है. गाँव को नए सिरे से समझने की एक कोशिश जिसकी शुरुआत नीलेश मिसरा के अखबार ‘गाँव कनेक्शन’ के साथ हुई थी. हमारे मन का गाँव अब बहुत बदल गया है. किताब के पहले ही लेख में आमिर खान की फिल्म ‘तलाश’ का हवाला देते हुए रवीश कहते हैं कि गाँव वही होता है जहाँ भैंस होती है, बैलगाड़ी चलती है. लेखक लिखता है कि इसके बाद जोर की हँसी छूटती है. मैं हिंदी का लेखक हूँ, और जब भगवान दास मोरवाल टाइप लेखकों को, जो एक बड़े संस्थान में बड़े अफसर हैं, यह लिखते कहते सुनता-पढता हूँ कि हम गाँव के लोग हैं तो सच बताऊँ मेरी भी हँसी छूटने लगती है. हिंदी वालों ने गाँव का एक ‘क्लीशे’ बना दिया है. यह किताब इसी तरह के क्लीशे से मुक्त करवाने की कोशिश करती है, अपनी आँखों से देखे हुए को दिखाते हुए, अपनी समझ से समझाते हुए.
दिल से कहता हूँ रेणु के बाद गाँवों के इतने जीवंत वर्णन पहली बार पढ़ रहा हूँ. हालाँकि इसमें न रेणु के जमाने का वह गाँव है, न ही वह गँवई भोलापन जो राज कपूर की फिल्मों में स्थायी भाव की तरह से मौजूद रहता था. लेकिन जीवन्तता वही है और भाषा का खुलापन वही. ‘रवीशपंती’ भाषा की मुक्ति का भी पाठ है. मेरा तो मानना है कि हिंदी भाषा दो तरह की है एक रवीश कुमार के पहले की भाषा दूसरी रवीश कुमार के बाद की भाषा!
आपके लिए किताब की भूमिका से भाषा की एक बानगी- ‘गाँव क्या है। इसकी परिभाषा अनेक विद्वानों ने दी है। एकाध मैं भी दे चलता हूँ। गाँव एक होनेवाला शहर है जिसके लोगों को शहर बसाने के लिए खदेड़ा जानेवाला है। गाँव एक गैराज है जहाँ सरकार की योजनाएँ खड़ी की जाती हैं। दर, दीवार पर पीले रंग की सर्वशिक्षा अभियान की पार्किंग आपने देखी होगी! खाद से लेकर नसबन्दी तक, पैदाइश से लेकर शादी तक बालिका विवाह योजना से लेकर साइकिल की बँटाई का एलान प्लान। योजनाएँ कागजों में ही बने-बने सड़ जाती हैं, पर लागू नहीं होतीं। गाँव में निराशा न फैले इसलिए मुख्यमंत्री की हँसते हुए फोटू लगा दी जाती है। जब वो खुश है तो आप क्यों नहीं भाई। कुल मिलाकर गाँव एक विकासशील अवधारणा है। गाँवों ने बड़ी-बड़ी योजनाओं को निगलकर बता दिया है कि उन्हें विकसित करना इतना आसान नहीं। कभी किसी गाँव ने मना नहीं किया होगा कि भाई हमें ये योजना नहीं चाहिए। ये सब ले लेते हैं। इन्हें पता है लागू तो होंगी नहीं कम-से-कम लागत तो पचा ही सकते हैं।‘
अब नाइन बुक्स इंप्रिंट के बारे में. नाइन बुक्स बदलते भारत के साहित्य के नवरस को बटोरने की कोशिश है। नाइन बुक्स इंप्रिंट वाणी प्रकाशन और कंटेंट प्रोजेक्ट का एक साझा प्रयास है, जो उभरते भारत को नये, चमकते साहित्य और किस्सागो देगा। वाणी प्रकाशन पिछले 50 वर्षों से भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन गृह रहा है और नाइन बुक्स इंप्रिंट के तहत कंटेंट प्रोजेक्ट साउथ एशिया की पहली लेखकों की कम्पनी है, जो भारत में उर्वर साहित्य को नया आयाम देने की पहली लेखकों की कम्पनी है। यह मौलिक सृजन यात्रा आने वाले वर्षों में हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह एक नया आयाम जोड़ेगी।
कहानी कला को नया आयाम देने के लिए नीलेश मिसरा ने किस्सागो युवा लेखकों की कहानी बनाने, कहने-सुनने की मंडली तैयार की है। देश भर में दूरदराज बैठे मंडली के सदस्य अपनी-अपनी कहानी नीलेश जी के नेतृत्व में युवा रचनाकारों के बीच चर्चा कर हिन्दी कहानी के इतिहास में एक नया आयाम रच रहे हैं। पाठकों से सीधे कहानी कहने, गढ़ने के इन लेखकों के अपने रिश्ते हैं। ऐसी ही सरस लोकप्रिय कहानियों की दूसरी कड़ी हैं रवीश कुमार की ‘रवीशपन्ती’।
17 की शाम से यह पुस्तक वाणी प्रकाशन वेबसाइट पर प्री-आर्डर के लिए उपलब्ध होगी और 22 दिसम्बर 2014 से फ्लिपकार्ट, अमज़ोन व इंफीबीम आदि ऑनलाइन बुकस्टोर पर उपलब्ध हो जाएगी।
मैं 17 की शाम को ही इसे प्री-ऑर्डर में बुक करता हूँ. आप अपनी जानें! उससे पहले कल यानी 17 दिसंबर को ही दोपहर 2 बजे मिलते हैं कनाट प्लेस में ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर में जहाँ इस किताब का लोकार्पण है.
जय गाँव! जय रवीशपन्ती!
प्रभात रंजन