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मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है

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आज हिंदी के दुःख को उर्दू ने कम कर दिया- कल साहित्य अकादेमी पुरस्कार की घोषणा के बाद किसी मित्र ने कहा. मेरे जैसे हजारों-हजार हिंदी वाले हैं जो मुनव्वर राना को अपने अधिक करीब पाते हैं. हिंदी उर्दू का यही रिश्ता है. हिंदी के अकादेमी पुरस्कार पर फिर चर्चा करेंगे. फिलहाल, मुनव्वर राना की शायरी पर पढ़िए प्रसिद्ध पत्रकार, कवि, लेखक प्रियदर्शनका यह मौजू लेख- प्रभात रंजन 
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लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है / मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं और हिंदी मुस्कुराती है, ये मुनव्वर राना हैं- समकालीन उर्दू गज़ल की वह शख़्सियत जिनका जादू हिंदी पाठकों के सिर चढ़कर बोलता है। हिंदी में उनकी किताबें छापने वाले वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी बताते हैं कि मुनव्वर राना के संग्रह मांकी एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। यही नहीं, हाल में आई उनकी सात किताबों के संस्करण 15 दिन में ख़त्म हो गए। जिस दौर में हिंदी कविता की किताबें 500 और 700 से ज्यादा नहीं बिकतीं, उस दौर में आख़िर मुनव्वर राना की ग़ज़लों में ऐसा क्या है कि वह हिंदी के पाठकों को इस क़दर दीवाना बना रही है? इस सवाल का जवाब उनकी शायरी से गुज़रते हुए बड़ी आसानी से मिल जाता है। उसमें ज़ुबान की सादगी और कशिश इतनी गहरी है कि लगता ही नहीं कि मुनव्वर राना ग़ज़ल कह रहे हैं- वे बस बात कहते-कहते हमारी-आपकी रगों के भीतर का कोई खोया हुआ सोता छू लेते हैं। उनकी शायरी में देसी मुहावरों का जो ठाठ है, बिल्कुल अलग ढंग से खुलता है। मसलन, बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है /न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है।...वो दुश्मन ही सही, आवाज़ दे उसको मोहब्बत से, सलीके से बिठाकर देख, हड़्डी बैठ जाती है।

बरसों पहले हिंदी के मशहूर कवि और ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार ने अपनी इतनी ही मशहूर किताब साये की धूपकी भूमिका में लिखा था कि हिंदी और उर्दू जब अपने-अपने सिंहासनों से उतर कर आम आदमी की ज़ुबान में बात करती हैं तो वे हिंदुस्तानी बन जाती हैं। दरअसल राना की ताकत यही है- वे अपनी भाषा के जल से जैसे हिंदुस्तान के आम जन के पांव पखारते हैं। फिर यह सादगी भाषा की ही नहीं, कथ्य की भी है। उनको पढ़ते हुए छूटते नाते-रिश्ते, टूटती बिरादरियां और घर-परिवार याद आते हैं। मां की उपस्थिति उनकी शायरी में बहुत बड़ी है- अभिधा में भी और व्यंजना में भी- जन्म देने वाली मां भी और प्रतीकात्मक मां भी- लबों पे उसके कभी बददुआ नहीं होती/  बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती।

ऐसी मिसालें अनगिनत हैं। लगता है मुनव्वर राना को उद्धृत करते चले जाएं- घर, परिवार, सियासत, दुख-दर्द का बयान इतना सादा, इतना मार्मिक, इतना आत्मीय कि हर ग़ज़ल अपनी ही कहानी लगती है, हर बयान अपना ही बयान लगता है- बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है /बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है /….यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता /मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी मां सजदे में रहती है।../अमीरी रेशमो किमखाब में नंगी नज़र आई /गरीबी शान से इक टाट के परदे में रहती है।

दरअसल इस सादगी के बीच मुनव्वर एक समाजवादी मुहावरा भी ले आते हैं- राजनीतिक अर्थों में नहीं, मानवीय अर्थों में ही। उनकी ग़ज़लों में गरीबी का अभिमान दिखता है, फ़कीरी की इज़्ज़त दिखती है, ईमान और सादगी के आगे सिजदा दिखता है। हालांकि जब इस मुहावरे को वे सियासत तक ले जाते हैं तो सादाबयानी सपाटबयानी में भी बदल जाती है- मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है / सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है। 

दरअसल यहां समझ में आता है कि मुनव्वर राना ठेठ सियासी मसलों के शायर नहीं हैं, जब वे इन मसलों को उठाते हैं तो जज़्बाती तकरीरों में उलझे दिखाई पड़ते हैं, मां के धागे से मुल्क के मुहावरे तक पहुंचते हैं और देशभक्ति के खेल में भी कहीं-कहीं फंसते हैं। लेकिन उनका इक़बाल कहीं ज़्यादा बड़ा है। वे सियासी सरहदों के आरपार जाकर इंसानी बेदखली की वह कविता रचते हैं जिसकी गूंज बहुत बड़ी है। भारत छोड़कर पाकिस्तान गए लोगों पर केंद्रित उनकी किताब मुहाजिरनामाइस लिहाज से एक अनूठी किताब है। कहने को यह किताब उन बेदखल लोगों पर है जो अपनी जड़ों से कट कर पाकिस्तान गए और वहां से हिंदुस्तान को याद करते हैं, लेकिन असल में इसकी जद में वह पूरी तहजीब चली आती है जो इन दिनों अपने भूगोल और इतिहास दोनों से उखड़ी हुई है। यह पूरी किताब एक ही लय में- एक ही बहर पर- लिखा गया महाकाव्य है जिसमें बिछड़ने की, जड़ों से उखड़ने की कसक अपने बहुत गहरे अर्थों में अभिव्यक्त हुई है। किताब जहां से शुरू होती है, वहां मुनव्वर कहते हैं, मुहाजिर हैं, मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं /तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।आगे कई शेर ऐसे हैं जो दिल को छू लेते हैं, कहानी के ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है /कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं..../ जवानी से बुढ़ापे तक जिसे संभाला था मां ने /वो फुंकनी छोड़ आए हैं, वो चिमटा छोड़ आए हैं /किसी की आरजू के पांव में ज़ंजीर डाली थी /किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं।यह पूरी किताब अलग से पढ़ने और लिखे जाने लायक है।

बहरहाल, सादगी कविता का इकलौता मोल नहीं होती। उर्दू के ही सबसे बड़े शायर मिर्ज़ा गालिब कहीं से सादाबयानी के शायर नहीं हैं, उनमें अपनी तरह का विडंबना बोध है- ईमां मुझे रोके हैं, खैंचे है मुझे कुफ़्रवाली कशमकश, जो शायरी को अलग ऊंचाई देती है। इक़बाल भी बहुत बड़े शायर हैं- लेकिन उनकी भाषा और उनके विषय में अपनी तरह की जटिलता है। बेशक, मीर और फ़िराक देशज ठाठ के शायर हैं, लेकिन उनकी शायरी मायनी के स्तर पर बहुत तहदार है। लेकिन उर्दू में सादगी की एक बड़ी परंपरा रही है जो कई समकालीन शायरों तक दिखती है। फ़ैज़ की ज़्यादातर ग़ज़लें बड़ी सादा जुबान में कही गई हैं। निदा फ़ाज़ली, अहमद फ़राज़, बशीर बद्र अपने ढंग से सादाज़ुबान शायर हैं और बेहद लोकप्रिय भी। लेकिन मुनव्वर राना इस सादगी को कुछ और साधते हैं। उनकी परंपरा कुछ हद तक नासिर काज़मी की पहली बारिशसे जुड़ती दिखती है। लेकिन नासिर की फिक्रें और भी हैं, उनके फन दूसरी तरह के भी हैं। एक स्तर पर मुनव्वर अदम गोंडवी के भी क़रीब दिखते हैं, ख़ासकर जब वो राजनीतिक शायरी कर रहे होते हैं। लेकिन अदम में जो तीखापन है, उसको कहीं-कहीं छूते हुए भी मुनव्वर उससे अलग, उससे बाहर हो जाते हैं।


उर्दू की इस परंपरा को पढ़ते हुए मुझे हिंदी के वे कई कवि याद आते हैं जो अपने शिल्प में कहीं ज़्यादा चौकस, अपने कथ्य में कहीं ज़्यादा गहन और अपनी दृष्टि में कहीं ज़्यादा वैश्विक हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, वे अपने समाज के कवि नहीं हो पाए हैं। अक्सर यह सवाल मेरे भीतर सिर उठाता है कि क्या यह कहीं शिल्प की सीमा है जो हिंदी कवि को उसके पाठक से दूर करती है? आखिर इसी भाषा में रचते हुए नागार्जुन जनकवि होते हैं, भवानी प्रसाद मिश्र दूर-दूर तक सुने जाते हैं, दुष्यंत भरपूर उद्धृत किए जाते हैं और हरिवंश राय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर तक खूब पढ़े जाते हैं। अचानक ये सारे उदाहरण छंदोबद्ध कविता के पक्ष में जाते दिखते हैं, लेकिन मेरी मुराद यह नहीं है। मेरा कहना बस इतना है कि हिंदी कविता को अपना एक मुहावरा बनाना होगा जो उसके पाठकों तक उसे ले जाए। ये एक बड़ी चुनौती है कि हिंदी कविता की अपनी उत्कृष्टता और बहुपरतीयता को बचाए रखते हुए यह काम कैसे किया जाए।  

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