साल के आखिरी कुछ दिन बचे हैं. मैं कुछ नहीं कर रहा. कविताएं पढ़ रहा हूँ. जो अच्छी लगती हैं आपसे साझा करता हूँ. आज रामजी तिवारीकी कविताएं. उनकी कविताओं से हम सब परिचित रहे हैं. देखिये इस प्रतिबद्ध कवि की नई कविताएं कैसी बन पड़ी हैं- प्रभात रंजन
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एक ......
मुकाबला
चींटी भी कर देती है
अपनी जमीन पर
हाथी की धुलाई,
जंगल का राजा
दरिया में घड़ियाल के सामने
दरिया-दिली दिखाने में ही
समझता है अपनी भलाई |
क्रिकेट का भगवान
शतरंज की विसात पर
दस कदम में है बिखर जाता,
तरणताल में उतरने पर
मैराथन धावक का भी
पानी है उतर जाता |
जिनकी उँगलियों में होते हैं
चित्रों के जादू
वे किसी बाक्सिंग रिंग में
उसे नही आजमाते,
जिनके कंठ से
फूटती है स्वर-लहरियां
वे उसे गाली बकने में
नहीं गँवाते |
फिर क्यों मुब्तिला हैं सारे लोग
किसी माफिया बिल्डर या ठेकेदार से
रहते हैं सुबहो-शाम
उससे मुकाबले के लिए तैयार से |
अपनी जमीन से अलग
क्या वे जीत पायेंगे
अपने जिले का ताज भी,
यहाँ तक कि वार्ड या गाँव में
कोई खिताब भी |
हां ....! चलता रहे जीवन
उतने धन की तो
सबको होती है दरकार,
मगर तब तो चुननी ही चाहिए
अपनी जमीन
जब मुकाबले के लिए हों हम तैयार |
कि जिसमें हम कुछ ख़ास हैं
कि जिसमें हमें विश्वास है |
अब ख़ुदा के लिए
मत बोलिएगा
संतों वाली भाषा,
कि मैं तो
किसी मुकाबले में ही नहीं हूँ
या कि जीवन तो है
बस एक तमाशा |
दो .....
मोल-भाव
कहाँ है बचकर निकलना
कहाँ करना है मोलभाव,
जीवन की विसात पर
सोच समझकर धरना है पाँव |
कितना बचेगा
रिक्शेवाले की पीठ पर
उभरी नसों को थोड़ा कम आँककर,
ठेले वाले के पसीने में
अपने उभरे अक्स को
थोड़ा कम झांककर |
कितना बचेगा
पांच लौकी और दस किलो तरोई लेकर
सड़क के किनारे बैठने वाले से भाव तुड़ाकर ,
छाया के लिए दिन में तीन बार
जगह बदलने वाले मोची से
पालिश में दो-चार रूपया छुड़ाकर |
कितना बचेगा
प्रेस करने वाले से
पचास पैसा प्रति कपड़ा कम कराकर,
और चौका-बर्तन करने वाली की पगार से
पचास रूपया महीना कम कराकर |
उन सबसे
जो सब्जी में नमक भर कमाते हैं,
और उसी में
अपने परिवार की गाड़ी चलाते हैं |
नहीं-नहीं
मैं अफरात के नहीं लुटाता हूँ,
वरन मैं तो
बचाने का हर नुश्खा जुटाता हूँ |
मसलन धनतेरस में
यदि मैं तनिष्क वाले से बच गया,
पिज्जा और मैकडोनाल्ड की जगह
सप्ताहांत घर में ही जँच गया |
मैं यदि बच गया नवरात्र में
पुजारियों के जाल से,
बारह महीने में
चौबीस भखौतियों के भौंजाल से |
शहर के हर कार्नर वाले प्लाट पर
लार टपकाने से,
और एक दूसरे को कुचलकर
बेतरह भाग रहे जमाने से |
तो खुला रख सकता हूँ
दस-बीस जरुरत वाले
हाथों के सामने
आजीवन अपना हाथ,
और हिसाब लगाने पर पाउँगा
कि अंततः फायदे ने ही
दिया है मेरा साथ ... |
तीन .....
घालमेल
गड़बड़ा गया है गणित
मुनिया का,
मचा है जब से घालमेल
संख्याओं की इस दुनिया का |
प्राथमिक कक्षाओं में
शून्यों को बढ़ाते-बढ़ाते
तब सबकी सांस फूलती थी,
जब इकाई के कान में फूंकी आवाज
महाशंख बनकर निकलती थी |
चकरा जाता था माथा
इतने शून्य क्या करेंगे
एक साथ जुटकर,
कहीं लाया तो नहीं गया इन्हें
यहाँ वहाँ से लूटकर |
ओह .....!
किस मनहूस वक्त में
आया था यह ख़याल,
करोड़ों के जीवन से निकलकर
इकठ्ठा हो गए चंद खातों में
बारम्बार मथता है यह सवाल,
और जिन्हें पुकारते हैं ऐसे
जैसे रच रहे हों
नया एक जवाल |
अब देखिये न मैनेजमेंट यह
शून्यों के वजन से
चरमराती संख्याओं को छिपाने का,
अरब और ख़रब के भारीपन को
हजार और लाख़ में बांटकर
हल्का दिखाने का |
एक अरब की जगह
आजकल सौ करोड़ कहा जाता है,
माथा चकरा जाए
जब दस हजार लाख की मथनी से
उसे महा जाता है |
क्योंकि दस हज़ार लाख़ से
पता ही नहीं चलता
अरब कितना होता है भारी,
कोई जान नहीं पाता
एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रुपये में
एक नील छिहत्तर ख़रब का
तिलिस्म है तारी |
बोझ किसी का भी हो
एक सीमा के बाद
उसे लादने वाली रीढ़
टूट ही जाती है,
और बिना रीढ़ वाले
सिर्फ रेंग ही सकते हैं
पैरों की चाल तो छूट ही जाती है |
फिर कौन चाहता है सीखना
संख्याओं की इस नयी इबारत को,
साबित करता आया है इतिहास
बारम्बार बेमानी
जिस गगनचुम्बी इमारत को |
चार ....
सबसे सुन्दर दृश्य
कुचल दिए जाते हैं
बाएं चलने वाले जिस दौर में,
बचा लिए जाते हैं
बीचो-बीच चलने वाले
उसी ठौर में |
अपनों के बीच
जहाँ डरी-सहमी घुटती है मुनिया,
वहां किसी अजनबी पर
कर लेती है भरोसा यह दुनिया |
जिसमें सामान्य रास्ते
मांगते हैं जीवन की कुर्बानी,
उसमें दुर्गम रास्तो से
मंजिल पर पहुँचने की
अनगिनत है कहानी |
जहाँ जीवन और साँसों के बीच
खड़ा हो जाता है अपना ही परिवार,
वहां अजनबी के साथ भागकर
जीवन बचाने के किस्से हैं बेशुमार |
जहाँ रिसते भर रहते हैं
पवित्र रिश्ते सारे,
वहां कोई पराया आकर
लगा जाता है
घावों पर मरहम हमारे |
अफ़सोस ....!
कि जो दुनिया को बनाने के
सबसे सुन्दर दृश्य हैं,
समाज की नजर में
वे त्याज्य हैं, अश्पृश्य हैं
पांच ....
औरतें
हम पुरुषों को
स्त्रियाँ ही देती हैं आकार,
उन्हीं की नज़रों में चढ़कर
हम पैदा होते हैं
आदमी के रूप में पहली बार |
हमारे भीतर उतरकर
साफ़ करती हैं वे जालों को,
जहाँ से हम अब तक चलते रहें हैं
पशुओं जैसी चालों को |
‘हम आदमी हैं’ वाला सम्मान
हमने तब सुना था,
जब स्कूल में शाम ढलने पर
उस अनबोली सहपाठिन ने
घर छोड़ने के लिए
तमाम परिचितों के बीच से
हमें चुना था |
जब ट्रेन की सहयात्री साथिन ने
देखा था मुझमें अपना भाई,
और बस की अनजानी साथिन ने
बगल की सीट पर आराम से यात्रा कर
दी थी मुझे बधाई |
जब मेरी भार्या
मेरे हर उठे हुए हाथ पर मुस्कुराती है,
यह सिजदा या आमंत्रण में होगा
सोचकर शर्माती है |
सच मानिए
मैं इसलिये नहीं पखारता
विदा होती बहन के पैरों को
कि बचा रहे मेरा वैभव,
वरन इसलिए कि उसे छूकर
मैं पवित्र करता हूँ अपना गौरव |
फिर वे कौन हैं
जो आदमी बनने के लिए
स्त्रियों से दूर भागा करते हैं,
क्या वे अपने भीतर की पशुता से
इतना डरते हैं ...?
उन्हें बताईये कि
सफाई पसंद होती हैं औरतें
रखतीं चौकस हमेशा नजरें,
कौन जानता है
भला उनसे बेहतर
गंदगी के होते कितने खतरे |
तभी तो लगाता हूँ
उनसे मैं गुहार,
कि आओ मेरी साथिनों
मुझे आदमी बनाओ
तुमसे है मनुहार |
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परिचय और संपर्क
नाम – रामजी तिवारी
वर्ष 1971 में बलिया, उ.प्र. में जन्म
“आस्कर अवार्ड्स – यह कठपुतली कौन नचावे”शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानियां, कवितायें और संस्मरण प्रकाशित
‘सिताब-दियारा’ नामक ब्लाग का सम्पादन/संचालन
सम्प्रति - भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत
मो.न. – 09450546312