'लप्रेक'एक नई कथा परम्परा की शुरुआत है. लेकिन हर नई शुरुआत को अपनी परम्परा के साथ टकराना पड़ता है, उनके सवालों का सामना करना पड़ता है. आज 'लप्रेक'के बहाने हिंदी परम्परा को लेकर कुछ बहासतलब सवाल उठाये हैं हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक भगवानदास मोरवालने, जिनके उपन्यास 'नरक मसीहा'की आजकल बहुत चर्चा है- मॉडरेटर
=======================
'लप्रेक' आज जैसे ही प्रभात रंजन का 'जानकीपुल'खोला, तोएक बार फिर इस शब्द से सामना हुआ. जबसे इस शब्द से पाला पड़ा है अनेक कूढ़मगज हिंदी के लेखकों की तरह मैं भी इसका अर्थ खोजना लगा हूँl एक बारसोचा कि यह बिहार से आयातित शब्द होगाl फिर सोचा कि हो सकता है यह कोईस्पेनिश, जर्मन, फ्रांस,पुर्तगाल आदि जैसे किसी मुल्क की भाषा से उड़ायागया होl एक बार अनुमान लगाया कि यह लघु प्रेम कविता भी हो सकता हैl
अंतत:मेरे एक निजी शब्दकोश ने मेरी यह समस्या हल कर दी कि इसका अर्थ वहनहीं है जैसा मैं समझ रहा हूँl दरअसल 'लप्रेक'का अर्थ है 'लघु प्रेमकथा'l इसके बाद मैंने अपने कुछ निजी स्रोतों से इसकी अंतर्कथा पता की औरजो पता चला उसे मैं आपसे भी साझा कर रहा हूँl इधर सुना है हिंदीप्रकाशन जगत में एक युगांतकारी क्रांति होने जा रही है l अभी तक हमनेफेसबुकिया कविताओं के बारे में सुना था, पर अब सुनने में आ रहा है किज़ल्द ही कोई फेसबुक फिक्शन शृंखला नामक सपना साकार होने वाला हैl वास्तव में फेसबुक फिक्शन शृंखला नामक इस योजना का ही नाम 'लप्रेक'हैl पिछले कुछ दिनों से जिस तरह इस योजना का प्रचार और प्रसार किया जा रहा है, और इसके नेपथ्य से जो बातें छन-छन कर आ रही हैं, वे बेहद रोमांच पैदाकरने वाली हैंl मसलन, पहली तो यही कि हिंदी के बहुत से मुझ जैसेप्रेमचंदीय जो लेखक इस 'लप्रेक'शब्द के असली अर्थ और परिभाषा को जाननेके लिए हलकान हुए जा रहे थे, जब इसका अर्थ पता चला तो मेरी हालत सचमुचघायल की गति घायल जाने जैसी हो गईl
'लप्रेक'अर्थात लघु प्रेम कथा यानी ऐसी प्रेमकथाएं जो सिर्फ औरसिर्फ फेसबुक पर लिखी गई होंगीl मगर सावधान हे हिंदी लघुकथा लेखक यहयोजना आप जैसे प्रेमचंदीय लेखकों के लिए नहीं, बल्कि उन सेलीब्रेटीज़नुमालेखकों के लिए है जिन्हें इस आधुनिक भारत का युवा जानता तो है मगर उनकी कथा-प्रतिभा से अभी तक परिचित नहीं हैl तो, इस योजना का असली मकसदआधुनिक भारत के इसी युवा वर्ग के उस सेलीब्रेटी साहित्य प्रेम अर्थातउनके भीतर छिपे उस साहित्य अनुराग को जाग्रत करना है जिसको जगाने में कथासम्राट प्रेमचंद,रेणु, राही मासूम रज़ा, श्रीलाल शुक्ल से लेकर मुझ जैसाप्रेमचंदीय लेखकअसफल रहा है,और जिनकी असफलताओं के चलते हमारा यह युवा पाठक आज के हिंदीसाहित्य से विमुख होता जा रहा हैl
फेसबुक फिक्शन शृंखला अर्थात 'लप्रेक'यानी इस लघु प्रेम कथा योजनाकी सबसे महत्वपूर्ण और आकर्षित करने वाली बात यह होगी कि हिंदी के नएबनतेपाठक के भीतर छिपे उसके साहित्यानुराग को जाग्रत या दोहन करने के लिएप्रकाशित की जाने वाली इस प्रथम सौ पृष्ठीय पुस्तक की प्री-बुकिंग कीमतमात्र80/- रुपए रखी गई हैl यानी एक ज़माने में जिस तरह राजन-इकबाल सीरिज़ कीपुस्तकें युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करती थीं , वही काम अब 'लप्रेक'करनेजा रहा हैl पुस्तक की प्री-बुकिंग का एक अर्थ तो साफ़ है कि इसके अंतर्गतजितनी भी बुकिंग होगी वह सार्वजनिक और बेहद पारदर्शी होगीl हो सकता हैइसयोजना के शुरू होने के बाद हिंदी प्रकाशन जगत इस तौहीन से निष्कलंक होजाए , और जिसकी हर छोटे-बड़े लेखक को शिकायत रहती है कि हिंदी का प्रकाशककभी भी उसकी पुस्तक की सही बिक्री नहीं बताताl
वैसे सुनने में यह भी आ रहा है कि इस योजना को 'लौंच'करने की बड़ेजोर-शोर से भव्य तैयारी चल रही हैl इतना ही नहीं, सुना है कि प्रकाश्यपुस्तक और उसके लेखक को इसके प्रकाशक द्वारा इस घटना को हिंदी साहित्यका एक ऐतिहासिक 'इवेंट'बनाने के लिए फ़िल्मी सितारों से लबरेज़ जयपुर मेंचल रहे एक मेले में अपने पराश्रित मध्यवर्गीय पाठकों को परिचित करने केलिए महंगी इवेंट भी रखी हैl मुझे तो इस अप्रतिम इवेंट के बारेमें सुन-सुन कर हिंदी के उन अभागे लेखकों पर तरस आ रहा है, जो अपनी छपीहुई पुस्तक को अपने सीमित संसाधनों और प्रयासों के चलते कभी पटना भागाजा रहा है, तो कभी लखनऊ कभी महाराष्ट्र जा रहा है तो कभी दूसरी जगह तलाशहै और तलाश रहा है अपने उस पाठक को जो प्रेमचंद, रेणु, राही मासूम रज़ा औरश्रीलाल शुक्ल के साहित्य की तरह उसके साहित्य से भी विमुख होता जा रहाहैl
हिंदी जगत की इस ऐतिहासिक घटना से साफ़ है कि हिंदी का वह लेखकजो अपनी कुछ सौ पुस्तकों के बल पर, अपने लेखन को समाज परिवर्तन की ज़मीनतैयार करने वाला औज़ार मानता था, और इतराता फिर रहा था, उसके दिन अब लदनेवाले हैंl सोच रहा हूँ कि जिस फेसबुक पर अपनी वाल को अपने उपन्यास 'नरकमसीहा'के प्रचार में रंगे जा रहा हूँ, उसकी जगह मैं भी लघु प्रेम कथाअर्थात 'लप्रेक'लिखना शुरू कर ,यह जानते हुए कि आज तक मैंने किसी सेप्रेम तो क्या ,प्रेम से देखा तक नहीं l मगर एक दिक्कत भी है कि जब मैंकोई सेलिब्रेटी ही नहीं हूँ तो मेरी इन 'लप्रेक'पर यकीन कौन करेगा? मैं तो अपने पुरखों प्रेमचंद, रेणु, राही मासूम रज़ा यशपाल, जैनेन्द्र, श्रीलाल शुक्ल के साथ-साथ मुझ जैसे लेखकों के बारे में सोच कर परेशानहो रहा हूँ जिन्होंने धूल और धूप में अपने रक्त को सीच-सींच कर समाज केदुखों को अपना दुःख बनायाl