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अमेजन क्रांति के दौर में हिदी किताबें और पाठक

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परसों बिहार के कटिहार से संजय जी का फोन आया था. फोन उठाते ही उन्होंने कहा कि वे करीब एक साल से जानकी पुल समय मिलने पर जरूर पढ़ते हैं. छौ ईंच स्क्रीन वाला मोबाइल फोन ले लिए हैं.

‘ई लप्रेक क्या है?’ उन्होंने छूटते ही पूछा. कहा कि आप जानकी पुल पर उसके बारे में कई बार लिख चुके हैं. मैंने बताया. तो बोले कैसा किताब है? मैंने कहा, 99 रुपये की किताब है. बोले अमेजन पर मिल जायेगा. मैंने कहा, हाँ.

फिर उन्होंने पूछा कि ई नरक मसीहा कैसा किताब है? आप उसके बारे में में भी लिखे थे. मैंने कहा कि एनजीओ कल्चर पर है. बोले, बड़ा चोर होता एनजीओ वाला सब. 10 रुपैया का भूजा खिलाकर 100 रुपये का बिल बनाता है. हम तो अक्सर देखते हैं.

बताया कि 2001 बैच के बीपीएससी के अफसर हैं. कटिहार में मनरेगा की योजनाओं के देखभाल की जिम्मेदारी है. बोले, मत पूछिए, इ अफसर, नेता सब मिलकर एनजीओ खोल लेता है, फिर सरकारी कोष को लूटने का तरीका निकालने में लगा रहता है सब. इहाँ मुफस्सिल में न लाइन रहता है कि टीवी देखें, न कोई उठने बैठने का जगह है. अब अमेजन से किताब मंगा लेते हैं. इ सुविधा यहाँ मिल गया है. दोसरा छौ ईंच का फोन है जिआओमि का. दू-दू दिन बैटरी चल जाता है. इसी पर अखबार पढ़ लेते हैं, आपका जानकी पुल भी. इसी से अमेजन पर किताब का ऑर्डर कर देते हैं.

यह हिंदी पाठकों की बदलती दुनिया है. अमेजन अब वहां भी किताबें पहुंचा रहा है जहाँ न सड़क पहुँच पाई है, न बिजली है, लेकिन राहत की बात है कि वहां उनको अपनी भाषा में घर बैठे किताबें मिल रही हैं. जानकी पुल का अनुभव बताता है कि आज भी हिंदी के पाठक कटिहार, सीतामढ़ी, दरभंगा, चुरू, बीकानेर, जालंधर जैसे शहरों में है. दुर्भाग्य, से आज हिंदी प्रकाशन के जितने प्रयोग हो रहे हैं वे उनको ध्यान में रखकर नहीं हो रहे हैं. ऐसा नहीं है कि बदलाव नहीं हो रहा है. बदलाव हो रहा है. हो ये रहा है कि हिंदी को अपमार्केट बनाया जा रहा है, दिल्ली, मुम्बई के बड़े बड़े संस्थानों में पढने वाले लोग हिंदी में लिख रहे हैं. वे अंग्रेजीदां समाज में हिंदी पाठकों की तलाश में जो लिख रहे हैं दुर्भाग्य से वह न तो साहित्य है न ही हिंदी के साधारण पाठकों की पसंद का है. एक तरफ इस बात का रोना रोया जा रहा है कि हिंदी में पाठक नहीं बढ़ रहे हैं जबकि दूसरी तरफ यह सच्चाई भी है कि हिंदी के आम पाठकों को ध्यान में रखकर किताबें न लिखी जा रही हैं न छापी.

आंकड़े यह बताते हैं कि हिंदी प्रदेशों में पाठक सबसे अधिक बढ़े हैं. वहां अखबारों की बिक्री बढी है. उनके पसंद के अखबार तो छप रहे हैं लेकिन उनके पसंद की किताबें नहीं. हिंदी में नए बनते पाठकों की असीम संख्या को ध्यान में रखकर आज भी बहुत कम छप रहा है. अकारण नहीं है कि अंग्रेजी के युवा पाठकों के पसंदीदा लेखक चेतन भगत, रविन्दर सिंह हिंदी के युवा पाठकों की भी पहली पसंद बन चुके हैं. मैंने रविन्दर सिंह के उपन्यासों के अनुवाद किये हैं. अभी हाल में ही मिलने पर उसने मुझे बताया कि वह अपने गृह राज्य उड़ीसा में जब अपने घर-परिवार या पुराने जानने वालों को अपनी किताब भेंट करता है तो अपने मूल अंग्रेजी उपन्यासों को नहीं बल्कि मेरे द्वारा अनुवाद किये गए हिंदी अनुवादों को भेंट करता है. कारन उसने यह बताया कि उनको अंग्रेजी अच्छी नहीं आती है. और अंग्रेजी के अलावा मेरे उपन्यास हिंदी में ही हैं. हिंदी, यू नो, सब समझ लेते हैं.

तो भाई साहब, एक अंग्रेजी का लेखक इस बात को समझ लेता है कि हिंदी सब समझ लेते हैं लेकिन आप प्रकाशक यह क्यों नहीं समझ पाते कि नए बनते पाठकों के लिए मूल भाषा में लिखी गई किताबें छापने की जरूरत है. ऐसी किताबें जिनमें उनका जीवन हो, सीधी सरल भाषा में थोड़ा बहुत जीवन दर्शन हो, जिसे संजय जी कटिहार में अमेजन से मंगाकर पढ़ सकें.


क्या धीरे धीरे घटित हो रही अमेजन क्रांति के इस दौर में प्रकाशक हिंदी के नए बनते पाठकों की भी सुध लेंगे? यह सवाल है जो मुझे पिछले कई दिनों से परेशान कर रहा है- बतौर लेखक भी, बतौर पाठक भी. 

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