Quantcast
Channel: जानकीपुल
Viewing all articles
Browse latest Browse all 596

क्या हिन्दी में भी कोई ‘चेतन भगत’ आ सकता है?

$
0
0
हाल में ही हिंदी में कुछ किताबें आई तो यह चर्चा शुरू हो गई कि हिंदी में चेतन भगत आने वाला है. लेकिन यह इतना आसान नहीं है. युवा लेखक अनिमेषमुखर्जी ने चेतन भगत के बहाने समकालीन अंग्रेजी लोकप्रिय साहित्य की मार्केटिंग स्ट्रेटेजी को लेकर एक बहुत दिलचस्प लेख लिखा है- मॉडरेटर 
========

"यदिरामकीकक्षामें 40 विद्यार्थीहैं, वह सबकोएक-एकटॉफीबाँटनाचाहताहैऔरदसटॉफीअपनेलिएभीबचानाचाहताहै।रामकोकुलकितनीटॉफीखरीदनीचाहिए?"इसतरहकेकईप्रश्नहमसबनेस्कूलकेशुरुआतीदिनोंमेंहलकियेहोंगे।अबज़राइससवालकोथोड़ाबदलकरदेखतेहैं।"किसीभीअंग्रेज़ीभारतीयलेखककीसफलसेसफलपुस्तककीएकवर्षमेंअधिकतमपांचहज़ारप्रतियांबिकतीहैं, किसीप्रकाशककोएकनएउपन्यासकीकितनीकॉपीछापनीचाहिए? आपकाजवाबक्याहोगा? पांचहज़ार, आठहज़ारअधिकतमदसहज़ारलेकिनअगरइससवालकाजवाबएकलाखहोतोआपक्याकहेंगे?

चेतनभगतआजएकऐसामानकबनचुकेहैंजिसकेज़िक्रकेबिनाहिंदुस्तानमेंलेखकोंकीलोकप्रियताकीचर्चाअधूरीहै।हिंदीकेपॉपुलरलेखकोंकेचेतनभगतबननेकीसंभावनाओंऔरक्षमताओंकीबहसकेबीचआइयेअबतककुछकमदेखेसमझेगएतथ्योंपरफिरसेएकनज़रडालतेहैं।

2004 में जब चेतन भगत की किताब 5 पॉइंट समवन, व्हाट नॉट टू डू इन आईआईटीबाजार में आई थी तो कहा जाता है की देखते ही देखते 5000 प्रतियाँ बिक गयीं और साल भर के में किताब की बिक्री का आंकड़ा एक लाख की संख्या को पार कर गया. इन दावो की पूरी तरह से प्रमाणिकता का कोई सीधा सीधा साक्ष्य तो नही मिला मगर चेतन भगतकी वर्तमान प्रसिद्धि और उनकी बाद में आई किताबों के बिक्री के रेकोर्ड्स को देखते हुए इन्हें सही माना जा सकता है. मगर इस पूरे घटनाक्रम में गौर करने वाले ३ बिंदु हैं.

किताब के लांच से पहले कोई सोशल मीडिया प्रचार अभियान ऑरकुट(तब फेसबुक नही था) पर नही चलाया गया था. किताब ‘इंस्टेंट हिट’ थी यानी पहले महीने में ही किताब ने तत्कालीन अंग्रेजी बेस्ट सेलर का आंकड़ा, ‘5,000’ पार कर लिया था. और तीसरा लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बिंदु, प्रकाशक ने एक अनजान से बैंकर की चलताऊ शैली में लिखी किताब की एक लाख प्रतियां छापी क्यों? (क्योंकि इतनी प्रतियां बेचने के लिए उनका छपना भी ज़रूरी है) जबकि उससे पहले कोई भी अंग्रेजी लेखक इस आंकड़े के दस प्रतिशत पर भी पहुँच जाता था तो उसे निर्विवाद रूप से बेस्ट सेलर मान लिया जाता. इस सवाल का जवाब हमें मिलता है ‘अंकिता मुखर्जी’ के 2010में ओपन मैगज़ीन के लिए लिखे एक लेख ‘वन मिस्टेक ऑफ़ माय लाइफ’ में. अंकिता उस समय रूपा पब्लिकेशन के प्रतिद्वंदी फर्म की एडिटोरियल अस्सिस्टेंट थीं और पांडुलिपियों को छांट कर उनमें से काम की स्क्रिप्ट्स को संपादक के पास पहुँचाना उनकी ज़िम्मेदारी थी. अपने लेख में अंकिता बताती हैं कि कैसे चेतन की भेजी गई स्क्रिप्ट के साथ किसी कवर लैटर की जगह एक सीडी थी जिसमें कितब को हिट करवाने का एक पूरा बिसनेस प्लान था (जो अंकिता के प्रकाशन को समझ नहीं आया और उसके बाद की कहानी का ज़िक्र करना अब ज़रूरी नही है). सरल तरीके से समझा जाए तो फाइव पॉइंट समवन की सफलता के पीछे मार्केटिंग के बड़े चुने हुए निम्नलिखित कारण थे.

सबसे पहली बात जिसने किताब को हिट बनाया वो थी किताब के नाम के साथ जुडी टैग लाइन, “व्हाट नॉट टू डू इन आईआईटी”. इस लाइन ने तीन तरह के लोगों को किताब की तरफ आकर्षित किया पहले वो जो आईआईटी में पढ़ रहे थे या पढ़ चुके थे, दुसरे वो जो आईआईटी की प्रवेश परीक्षा के लिए प्रयासरत थे और तीसरा वर्ग उन युवाओं का था जिन्हें इस जन्म में तो आईआईटी में जाना नसीब नही हुआ लेकिन कैम्पस के अन्दर की जीवनशैली का सम्मोहन उनके दिल में कहीं न कहीं दबा पडा था. इन तीनों के लिए ही नब्बे रूपए की कीमत कोई ज्यादा नही थी और प्रकाशन से पूर्व ही चेतन इस बाद को पक्का कर चुके थे की देश के हर कोने में जहां-जहां इन तीन श्रेणियों के जीव पाए जाते हों वहां-वहां उनकी किताब उपलब्ध हो. किताब लोकार्पण के समय ही गोवाहाटी जैसे सुदूर शहर में अच्छी खासी संख्या में उपलब्ध थी. इसके बाद सबसे अच्छा प्रचार माध्यम ‘वार्ड टू माउथ पब्लिसिटी’ अपनाया गया, बाकी की कहानी हम और आप दोनों ही अच्छे से जानते हैं.

अंत में सवाल आता है कि क्या हिन्दी में भी कोई ‘चेतन भगत’ आ सकता है? इस बात के जवाब के लिए हमें पॉपुलर हिंदी लेखकों और अंग्रेजी बेस्ट सेलर लेखकों के बीच के बुनियादी फर्क को समझना होगा. आज जो भी लेखक या प्रकाशक हिंदी में पॉपुलर लेखन में हाथ आजमा रहे हैं उनका काम करने का तरीका हस्तशिल्प के कारीगरों जैसा है. पहले पूरी मेहनत से वो एक किताब तैयार करते हैं और उसके बाद उसकी बिक्री और मार्केटिंग की कोशिशें करते हैं वहीँ चेतन भगत बनने के लिए किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की तरह पहले से एक बाज़ार को पहचान कर उस हिसाब से उत्पाद(किताब) तैयार करना और उसका प्रचार, उप्लबधता बड़े पैमाने पर सुनिश्चित करना ज़रूरी है. एक और फर्क है जो हिंदी और अंग्रेजी लेखकों की लोकप्रियता के मायनों में अलग करता है. अमिश त्रिपाठी जैसे लेखक को जब कोई प्रकाशक छापने को तैयार नही होता तो वो न सिर्फ अपने दम पर किताब प्रकाशित करवाते हैं अपितु शाहरुख़ खान की ‘रा-वन’ के इंटरवल में उसका एक विडियो सिनेमाघरों में प्रदर्शित करवाते हैं. देश की हर बड़ी पत्रिका में ‘मेलुहा’ के ऊपर एक बड़ा सा आर्टिकल प्रकाशित होता है, जिसके अंत में लिखा होता है कि यह सिर्फ एक कल्पना है जो अमिश त्रिपाठी की किताब पर आधारित है,”हिंदी के कितने लेखक/प्रकाशक यह सब करने में सक्षम हैं यह विचारणीय प्रश्न है.


कुल मिला के यही समझा जा सकता है कि हिंदी और अंग्रेज़ी की किताबों की दुनिया में कई बुनियादी फर्क हैं जिन्हे हाल-फिलहाल में दूर करना मुश्किल है. किंतु हिंदी साहित्य और उसकी आत्मा को बचाए रखते हुए यदि एक लेखक की जीविका के बेहतर करने का कोई उपाय सम्भव है तो उसे अपनाने में भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिये. 

Viewing all articles
Browse latest Browse all 596

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>