Quantcast
Channel: जानकीपुल
Viewing all articles
Browse latest Browse all 596

उमाशंकर चौधरी की कविताएं

$
0
0
उमा शंकर चैधरी की कविताएंः-

उमाशंकर चौधरीकी कविताओं का अपना स्वर है जो समकालीन कविता में उनको सबसे अलग बनाता है- उनकी कविताओं का राजनीतिक मुहावरा नितांत मौलिक है- उनका नया कविता संग्रह आया है भारतीय ज्ञानपीठ से- चूँकि सवाल कभी ख़त्म नहीं होते- उसी संग्रह से कुछ कविताएं- मॉडरेटर 
-------------------------------------------------------------------------------------------------

फिक्र हैं कि उड़ती ही नहीं

वे दिन भी कितने अच्छे थे मेरे दोस्त
जब हमें कोई गम नहीं था
कोई चिंता नहीं थी
हम तब घंटों मुजफ्फरपुर के अघोरिया चौक
और कल्याणी चौक में किया करते थे बतकथनी

वो जवाहर टाकीज और अमर टाकीज में
हमारा सिनेमा दर सिनेमा देखना

माधुरी दीक्षित का बहुत ही नखरे के साथ
पूछा गया वह सवाल
हमारे लिए तब लाख टके का सवाल था
कि चोली के पीछे क्या है
जूही चावला का वह घूंघट की आड़ में अपना मुखड़ा छिपाना
तुम्हें आज भी याद होगा वह दिन मेरे दोस्त जब
तब की सनसनीखेज नायिका दिव्या भारती की मौत की खबर
आई थी हमारे पास अचानक और
तब लगा था हमें जैसे
हमारे शरीर का कोई अंग ही कट गया हो

वो रात के घुप्प अंधेरे को
सिगरेट के गोल-गोल छल्ले में उड़ा देना
तब भूखी रातें और सुन्न पड़े सपनों का
हमें कोई इल्म ही कहां था
न ही काई पड़ चुके तालाब के जल में छपाक से
किसी पत्थर के गिरने की आवाज के प्रति
हमारा कोई मोह ही था

उस ढलवां रास्ते पर चलते हुए बेफिक्र
हमने कब चिंता की थी मेरे दोस्त
कि इस रास्ते की कोई मंजिल नहीं थी
कोई प्रकाश नहीं था
हमने आमगोला के उस धीरे-धीरे सूखते पोखर में
तड़पने वाली मछलियों की तड़प की कोई बेचैन सी आवाज
कब सुनी थी
हीरो और एटलस साइकिल के हैंडिल को संभालते हुए मदमस्त
हमने तब रेलवे लाइन के ट्रैक के दोनों ओर
ढेर सारे टनटनी के पौधों के बढते झाड़-झंखाड़ की
कोई चिंता कब की थी

कब की थी फिक्र तब नई नई उस अर्थव्यवस्था की
उस नए लचीलेपन की
नए व्यापारियों की
पैसों के अथाह सागर की
कब हमने देखना चाहा था उसी अघोरिया चैक पर बाट जोहते बैठे
ढेर सारे मजदूरों की कातर आंखों की लालसाओं को

सिगरेट के छल्ले से रात के घुप्प अंधेरे को उड़ा देने वाले हम
तब कब हमने सोचा था कि
उस छल्ले में रात का घुप्प अंधेरा ही नहीं
हमारा अपना भविष्य भी उड़ता जा रहा है

मुजफफरपुर की सड़कों-गलियों और चौक चौराहों पर
यूं अलहदा घूमते हुए
कब हमने सोचा था कि आगे हमारी जिंदगी में
अंधकार का कोई कतरा भी है

आज जब वर्षों बाद फेसबुक पर तुम्हारा वही चेहरा झांकता है
तब वे सारी बातें इस लम्बे दरम्यां को लांघकर
आ जाती हैं मेरे पास
तब सोचता हूं क्या वह वाकई अच्छा नहीं था
कि हमें कोई फिक्र नहीं थी
वह मौजमस्ती,वह बेफिक्री
वह निश्चिंतता और सिगरेट का वह धुंआ

आज जब चाहता हूं सोचना
चिंता करना
और कुछ आवाजों को इकट्ठा कर शोर मचाना
तब सबसे ज्यादा हमारी आवाज को ही
कर दिया जाता है दरकिनार

जिन-जिन जगहों पर हो सकती है हमारी आवाज की
थोड़ी भी गुंजाइश
उन-उन जगहों पर बैठा दिये गए हैं
उनके अपने नुमांइदे जो हमसे पूछते हैं सबसे पहले
हमारा नाम,हमारी पहचान
और हमारा रंग

मेरे दोस्त तब हम गलत थे या सही,पता नहीं
पर वे दिन कट गए बेफिक्र,निश्चिंत
लेकिन ये दिन बहुत बड़े हैं
जबकि इन दिनों में मैं चाहता हूं कुछ सोचना,कुछ करना
तब ये दिन हो गए हैं बहुत कठिन
और सच कहूं तो अब सिगरेट के धुंए के किसी छल्ले से
ये फिक्र उड़ती ही नहीं।




हमारे समय में रंग


आजकल कुछ रंग हो गए हैं बेहद मनमौजी
बेहद बड़बोले,बिगड़ैल
वे निकल आए हैं बैनीआहपिनाला के दायरे से आगे बहुत आगे
वे निकल आए हैं सड़क पर यहां-वहां हर तरफ-हर तरफ
मन में सोचता हूं रंगों के बारे में
तो सबसे पहले दिखता है रक्त का ही रंग
और सोचता हूं कि सचमुच रक्त का भी अपना एक रंग होता है

बेटी निकालती थी रंगों के बक्सों से रंग
तो लगता था बाहर आसमान इन्द्रधनुषी होता जा रहा है
परन्तु उसी इन्द्रधनुष से कुछ रंग निकल कर आ गए हैं अब सड़क पर
बेखौफ

रंगों के इतिहास को देखें तो
राजा रवि वर्मा से लेकर हुसैन तक
किसी ने कभी सोचा नहीं होगा कि
उनकी कूची से फिराये गए इतने रंगों में से
किन्हीं खास रंगों की हो जाएगी इतनी अहमियत
कब सोचा था वाॅन गाॅग ने उस जूते की तस्वीर बनाते वक्त
कि एक दिन ऐसा भी आयेगा
जब एक रंग बन बैठेगा इस प्रकृति का नियामक
नहीं तो क्या गॉग उस जूते की तस्वीर में भरता कभी काला रंग

अब उसी रंग को देखकर चिड़िया
अपने पंखों को फड़फड़ाना बन्द कर देती है
बन्द कर देते हैं कुछ खास लोग मुस्कराना
और बन्द कर देती है उनकी पत्नियां अपनी रसोई में
बरतन की कोई आवाज,कोई खनक
बन्द कर देते हैं उनके बच्चे
अपनी मां की गोद में दुबके दूध पीने की चुपुर-चुपुर की
मद्धिम आवाज़

यह रंग अब रंग नहीं हमारे देश का वर्तमान है
वर्तमान है,भविष्य है
यहां तक कि इस देश का अर्थतंत्र है
अर्थतंत्र ही नहीं,सूचनातंत्र है
यहीं से बनता है वर्तमान यहीं से बनता है इतिहास
यहीं से बनती है आदमी की जमीन
और यहीं से बनता है उनका आसमान

टेलीविजन पर बढ गयी है अब कुछ खास रंगों की मात्रा
चुभने लगा है आंखों को टेलीविजन पर यह रंग
दिखलाने जाता हूं मैकेनिक के पास कि क्यूं बढ गई है
इस टेलीविजन सेट में कुछ खास रंगों की मात्रा
मैकेनिक देखता है उस टेलीविजन सेट को
और समझने की करता है कोशिश
वह जूझता है टेलीविजन के उस रंग से
और कहता है अब किसी भी टेलीविजन सेट में ऐसा कोई बटन नहीं
कि कर सके नियंत्रित इन रंगों के बड़बोलेपन को
ये हो गए हैं बिगड़ैल
मैकेनिक देखता है उन रंगों के सैलाब को
टेलीविजन सेट पर गौर से
और गिऱ पड़ता है पछाड़ खाकर वहीं बेसुध

उस दिन तो हद ही हो गई
जब मेरी चार साल की बेटी ने खोला अपना रंगों का पिटारा
और रोती हुई दौड़ती आई मेरे पास
कि पापा-पापा मेरे रंग के बक्से में न तो लाल रंग है
और न ही है नारंगी
पता नहीं कहां गायब हो गए हैं मेरे बक्से से ये रंग
पूछती है मेरी बेटी और मैं निरुत्तर हो जाता हूं।



डर

चार साल की बेटी को
तमाम वर्दीधारियों के बीच सिखलाया जाता है स्कूल में
कि आग लगे तो भागना है किस तरफ
किस तरफ छिप जाना है उसे
किस तरफ है वह खास दरवाजा जिसके बाहर
बचा सकती है वह अपनी जान

बेटी को दी जाती है ढेर सारी नसीहतें
कि कैसे नहीं मिलना चाहिए उसे
किसी अनचीन्ही मिट्टी और पानी से
नहीं करनी है उसे दोस्ती किसी अंजान आदमी,बच्चे या स्त्री से
कैसे नहीं पहुंचनी चाहिए उस तक
कोई अंजान चाॅकलेट-टाॅफी,कोई लोभ
कोई खुशबू या कोई अपिरिचित हवा
कैसे वह नहीं बताये किसी भी अंजान आदमी को
अपने स्कूल के बारे में कुछ भी
यहां तक कि अपने स्कूल के सैक्शन
अपने स्कूल बैग का रंग
अपने स्कूल के नोटिस बोर्ड पर चिपकायी गई खास हिदायतें
अपने सबसे प्यारे दोस्त का नाम
या फिर यहां तक कि अपने सबसे जिगरी दोस्त की
नाक सुड़कने की खास आदत

चार साल की बेटी को उन वर्दीधारियों की कदमताल के बीच
दी जाती है नसीहत
कि कैसे कोई हमला कर दे स्कूल के भीतर
तब छिप जाना है उसे
उस डेस्क के नीचे जिस पर हर दिन लंच के समय
निकाल कर खाती है वह
अपने मां के हाथ का दिया हुआ स्वादिष्ट भोजन

स्कूल में चार साल की बेटी
उन वर्दीधारियों के बीच कदमताल मिला कर
अपने आप को बनाने की करती है कोशिश
मजबूत और हिम्मती

चार साल की बेटी
लौटती है स्कूल से और छिप जाती है
अपनी मां की गोद में दुबककर
चार साल की बेटी के चेहरे का रंग जर्द पड़ चुका है।



शब्द


हम बचपन में खूब करते थे बदमाशियां
और दादी खीझकर हुड़कती थी हमें
यह कहते हुए कि कलमचक्यों नहीं बैठ सकते तुम लोग

कलमच बैठने का मतलब होता है शांत बैठना
यह हमने हमेशा जाना
दादी के चेहरे के खीझने को देखकर ही
दादी के मुंह से सुनने में बहुत अच्छा लगता था
हमें यह शब्द
और कई बार तो हम करते थे ढेर सारी बदमाशियां
सिर्फ सुनने के लिए खीझ में निकला हुआ
उनके मुंह से यह शब्द

बड़े होने पर विभिन्न शब्दकोशों में बहुत ढूंढा
इस कलमच शब्द का ठीक-ठीक अर्थ
पूछा कई दोस्तों-परिचितों,भाषाविदों से इस शब्द का
ठीक-ठीक भावार्थ
लेकिन हम इस शब्द के भाव को जानते हुए भी
नहीं ढूंढ पाए
शब्दों के किसी भी ठिकाने पर 
जहां से कि बनती और विकसित होती है भाषा
इस शब्द की कोई सही जगह

इस तरह दादी के इस दुनिया से चले जाने से
चली गई हमारी भाषा
हमारी संस्कृति
और हमारे हृद्य से एक इतना प्यारा शब्द।


पागल

वह पागल सड़क पर लिखता चला जा रहा है
ढेर सारे शब्द ऐसे जैसे उसने लिख दिये हों
संविधान के कुछ अनुच्छेद
या उस अनुच्छेद में न हो सकने वाले संशोधन
पागल सड़क पर लिख रहा है शब्द
ऐसे जैसे उसने लिख दिये हों
लोकतंत्र की छाती पर कुछ अनसुलझे से प्रश्न

वह क्या लिख रहा है उस सड़क पर
हम बूझ नहीं पाते हैं
लेकिन ऐसा जरूर लगता है कि वह ऐसा जरूर कुछ है
जो वह नहीं लिख पाया था तब जब वह था ठीक होशो-हवास में
और ऐसा भी जरूर लिख रहा है
जो वास्तव में हमें लिख देना चाहिए था बहुत पहले
वह खड़ा होता है उत्तर की ओर
और पूरब की ओर और पश्चिम की ओर
और मुंह करके बुदबुदाता है कुछ खास
तब हम देखते हैं जिस उत्तर या जिस पश्चिम की ओर मुंह करके
बुदबुदा रहा है वह वास्तव में उस ओर ही हमें
दिखने लगते हैं ढेर सारे फड़फड़ाते कबूतर
और उधर ही दिन ढलने लगता है

यहां सब शांत है
परन्तु वह पागल बुदबुदा रहा है
यहां सब शांत है
परन्तु वह पागल जमीन पर लिखे जा रहा है शब्द पर शब्द
वह पागल क्या लिख रहा है
यह पूछना चाहते हैं उस सड़क पर चलने वाले राहगीर 
वह पागल क्या लिख रहा है यह जानना चाहते हैं
पेड़-पौधे,पशु-पक्षी
और यहां तक कि यह बर्फीली हवा
वह पागल क्या लिख रहा है यह पूछना चाहता है
वह पांच साल का बच्चा भी
जिसने सीखा है अभी अभी इन अक्षरों का ज्ञान

वह पागल जो लिख रहा है
वह कोई मोहनजुदाड़ो या चनदूदड़ो की लिपि नहीं है
जिसे नहीं पढ़ा जा सकता है
वह पागल क्या लिख रहा है
वह उसकी लिपि को देखकर नहीं
उसकी आंखों को देखकर समझा जा सकता है

वह पागल वास्तव में जो लिख रहा है
वह हम सब लिखना चाहते हैं
लेकिन एक अर्जी की तरह
एक प्रार्थना की तरह
वह पागल नहीं लिख सकता था अपनी बातों को एक अर्जी की तरह
न ही वह गा सकता था इसे प्रार्थना की तरह
इसलिए वह इस लोकतंत्र में हाशिये पर है।








छोटी बातों पर प्रधानमंत्री

मैं कई बार सोचता हूं कि
कितना अच्छा होता कि हमारे प्रधानमंत्री
कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर हमसे रू-ब-रू होते
हम साथ बैठते और वे हमसे और हम उनसे पूछते
घर का हाल
उनकी तबीयत
उनके सुख ही नहीं उनके मन के भीतर बैठे
उनके दुख का भी हाल

हम यूं ही साथ बैठते
और यूं ही करते हंसी ठट्ठा
बांटते आपस मे छोटी-छोटी खुशियां
वह हमसे पूछते कि बिटिया सुबह इस कड़ाके की ठंड में
स्कूल जाते वक्त क्या जग जाती है नींद से
आठ महीने की छोटी बिटिया ने क्या निकाल लिये
कोंपल जैसे अपने दांत
हम उनसे पूछते कि इस बात में कितनी सच्चाई है कि
वे जो खाना खाते हैं तो क्या वाकई वे चखे जाते हैं
कई लोगों द्वारा कई कई बार

वे चाहते तो हमें दिखाते अपनी कुर्सी,अपना बिस्तर
और अपनी वह कलम जिससे उन्होंने किए हैं दस्तखत
कई कई जरूरी कागजातों पर
अपने घर पर खुश होकर हम दिखाते उन्हें अपनी गुल्लक
अपनी हवा, अपना पानी
और अपनी पत्नी के चेहरे की हल्की सी मुस्कान

प्रधानमंत्री इस देश के सबसे व्यस्ततम नागरिक हैं
इसे स्वीकार करने में हमें कोई संदेह नहीं है
परन्तु सोचने को यह सोचा जा सकता है कि
कितना अच्छा होता अगर
प्रधानमंत्री कभी चुपके से आ जाते
मेरी बिटिया के तीसरे जन्मदिन पर
और मेरी बिटिया से तोतली आवाज में कहते
हमें भी तो अपनी लेलगाड़ी दिथाओ
या कभी शरीक ही हो जाते हमारी बहन की शादी में बिन बताए

हमारे लोकतंत्र का मुखिया
यूं हमारी छोटी-छोटी खुशियों में शरीक हो जाएं
इस लोकतंत्र में ऐसा सोच लेना भर भी कितना सुखद है
लेकिन इसे आप तब ज्यादा महसूस करेंगे
जब आप इसे एक ख्वाब का बिम्ब देंगे

मैं अखबारों में,टीवी पर रोज देखता हूं
कई-कई ऐसी खबरें कि कोई जूझ रहा है
अपने ही वजूद से,कि कैसे कोई गिरता ही चला जा रहा है
अपने बच्चों के पेट को पालने के लिए
अब मैं अपने गांव की मनिया की ही क्या सुनाउं
कैसी नरकंकाल सी हो गई है भूख से
अपने पति और अपने बच्चों के मरने के बाद 
मैं कई बार सोचता हूं न सही मनिया
किसी के साथ तो कभी अचानक से आकर खड़े हो जाएं प्रधानमंत्री

कितना अजीब लगेगा उस दिन
जब न्याय के लिए दर-दर भटकती उस लडकी के साथ
प्रधानमंत्री अपनी आवाज मिला दें और कहें
तुम्हारी आवाज दूर तलक पहुंचनी ही चाहिए
तभी बचेगा साबुत यह लोकतंत्र

कितना अजीब लगेगा जब अपने पूरे कार्यकाल में
प्रधानमंत्री कम से कम एक बार इस बात को भूलकर
निर्णय ले लें कि इस निर्णय से
कितना फर्क पड़ता है उनके वोट बैंक पर
कम से कम एक बार कह दें
कि यह कुर्सी सिर्फ इसलिए नहीं है कि हम बने रहें सौदागर
कम से कम एक बार कह दें
कि बिग एप्पल के सामने ठेला लगाए बैठी
उस उदास औरत की उदासी का हक उसे मिलना ही चाहिए
कम से कम एक बार कह दें
कि अगर इस बार खेत में प्याज की पैदावार ज्यादा हुई
तो हम उसे सड़ने नहीं देंगे खेत में
और दबने नहीं देंगे किसानों के ख्वाबों को मिट्टी के बहुत नीचे

कितना अजीब लगेगा
कितना अजीब लगेगा यह सब
लेकिन मैं जानता हूं यह सब कविता में ही संभव है
मैं यह भी जानता हूं कि आप पढेंगे इस कविता को
और कहेंगे पता नहीं क्या क्या लिखते हैं
आज के कवि अपनी कविता में
आप कहेंगे ऐसा कुछ क्या

इसका एक पंसगा भी नहीं होने वाला अब इस देश में

Viewing all articles
Browse latest Browse all 596

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>