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रश्मि भारद्वाज की कुछ कविताएं

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आज कुछ कविताएं रश्मि भारद्वाजकी. रश्मि की कविताओं में एक छोटे शहर की स्त्री का मन बार बार झांकता है. वहां से सपनों, आकांक्षाओं, मुहावरों, बोली-ठोली के बीच मुक्तिकामी स्त्री का मन. उनकी कई कविताओं में नयापन झलकता है. आप खुद पढ़िए- मॉडरेटर 

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1.     चरित्रहीन

बड़ी बेहया होती है वे औरतें
जो लिखी गयी भूमिकाओं में
बड़े शातिराना तरीके से कर देती है तब्दीली
और चुपके से तय कर जाती  हैं सफ़र
शिकार से आखेटक तक का
बड़ी अदा से पीछे करती है
माथों पर लटक आए रेशमी गुच्छे
और मुस्कुरा उठती हैं लिपस्टिक पुते होठों से
सुनकर जहर में भिगोया संबोधन चरित्रहीन

बड़ी भाग्यशीला होती हैं वे औरतें
जो मुक्त हैं खो देने के डर से वो तथाकथित जेवर
जिसके बोझ तले जीती औरतें जानती हैं
कि उसे उठाए चलना कितना बेदम करता जाता है पल-पल उन्हें 
मुक्त ,निर्बंध राग सी किलकती यह औरतें
जान जाती हैं कि समर्पण का गणित है बहुत असंतुलित
और उनका ईश्वर बहुत लचीला है

बड़ी चालाक होती है ये बेहया औरतें
कि जब इनके अंदर रोपा जा रहा होता है बीज़ दंभ का
यह देख लेती हैं शाखाएँ फैलाता एक छतनार वृक्ष
और उसकी सबसे ऊंची शाख पर बैठी छू आती हैं सतरंगा इन्द्रधनुष
उन्हें पता है कि जड़ों पर नहीं है उनका जोर
खाद-पानी मिट्टी पर कब्जा है बीज के मालिक का
शाखाओं तक पहुँचने के हर रास्ते पर है उसका पहरा
लेकिन गीली गुफाओं में फिसलते वह ढीली करता जाता है रस्सियाँ
और खुलने लगते हैं आकाश के वह सारे हिस्से
जो अब तक टुकडों में पहुँचते थे घर की आधी खुली खिडकियों से  

सुनते हैं,ज़िंदगी को लूटने की कला जानती हैं यह आवारा औरतें
इतिहास में लिखवा जाती हैं अपना नाम
मरती नहीं अतृप्त
तिनके भर का ही सही
कर देती हैं सुराख़ उसूलों की लोहे ठुकी दीवारों में 
और उसकी रोशनी में अपना नंगा चेहरा देखते
बुदबुदा उठते हैं लोग चरित्रहीन
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2.     माफ करना मुझे

कच्ची मिट्टी सी होती हैं अच्छी बेटियाँ,
पकाई नहीं जाती आंच पर
गढ़ा जाता है उन्हें ताउम्र ज़रूरत के हिसाब से
फिर एक दिन बिखेर कर
कर दिया जाता है हवाले नए कुम्हार के
कि वह ढाल सके उसे अपने रूप में

मुंह में ज़ुबान नहीं रखती अच्छी पत्नियाँ
उन्हें होना चाहिए मेमनों की तरह
प्यारी, मासूम, निर्दोष, असमर्थ
जो ज़िबह होते हुए भी
समेटे हों आँखों में करुणा, क्षमा और प्रेम

अच्छी माएँ, निर्मित करती हैं परिवार का भविष्य
खींचने के लिए एक चरमराती गाड़ी
वह तैयार करती है बैलों को
खत्म कर देती है कोख में ही
कितनी धड़कनें
एकाध आँसुओं के अर्घ्य से

माफ करना मुझे,
कि मैंने नहीं सुनी तुम्हारी सीख
कि मुझे भी होना था
एक अच्छी बेटी, पत्नी या माँ
कि इन्हीं से बनता है घर

दरअसल मैंने सुन ली थी
उन घरों की नींव में दफन
सिसकियाँ और आहें,
कि मैंने समझ लिया था कि
उन दीवारों मे चुनी जाती हैं कई ज़िंदा ख्वाहिशें
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3.     कुछ दिन

कुछ दिन बड़े कठिन होते हैं
जब मेरी आँखों में तैर जाते हैं कामना के नीले रेशे
लाल रक्त दौड़ता है दिमाग से लेकर
पैरों के अंगूठे तक
एक अनियंत्रित ज्वार
लावे सा पिघल-पिघल कर बहता रहता है
देह के जमे शिलाखंड से
मैं उतार कर अपनी केंचुली
समा देना चाहती है खुद को
सख्त चट्टानों के बीच
इतने करीब कि वह सोख ले मेरा उद्दाम ज्वर
मेरा सारा अवसाद,मेरी सारी लालसा  
और मैं समेट लूँ खुद में उसका सारा पथरीलापन 
ताकि खिल सके नरम फूल और किलकती कोमल दूब
कुछ दिन बड़े कठिन होते हैं
जब भूल कर और सब कुछ
मैं बन जाती हूँ सिर्फ एक औरत
अपनी देह से बंधी
अपनी देह से निकलने को आतुर
चाहना के उस बंद द्वार पर दस्तक देती
जहां मेरे लिए अपनी मर्जी से प्रवेश वर्जित है
.....................................................................................................................................

4.     बिजूका

देह और मन की सीमाओं में
नहीं बंधी होती है गरीब की बेटी
अपने मन की बारहखड़ी पढ़ना उसे आता ही नहीं
और देह उसकी खरीदी जा सकती है
टिकुली ,लाली ,बीस टकिये या एक दोने जलेबियों के बदले भी

गरीब की बेटी नहीं पायी जाती
किसी कविता या कहानी में
जब आप उसे खोज रहें होंगे
किताबों के पन्नों में
वह खड़ी होगी धान के खेत में,टखने भर पानी के बीच
गोबर में सनी बना रही होगी उपले
या किसी अधेड़ मनचले की अश्लील फब्तियों पर
सरेआम उसके श्राद्ध का भात खाने की मुक्त उद्घोषणा करती
खिलखिलाती, अपनी बकरियाँ ले गुजर चुकी होगी वहाँ से

आप चाहें तो बुला सकते हैं उसे चोर या बेहया
कि दिनदहाड़े, ठीक आपकी नाक के नीचे से
उखाड़ ले जाती है आलू या शक्करकंद आपके खेत के
कब बांध लिए उसने गेहूं की बोरी में से चार मुट्ठी अपने आँचल में
देख ही नहीं सकी आपकी राजमहिषी भी

आपकी नजरों में वह हो सकती है दुष्चरित्र भी
कि उसे खूब आता है मालिक के बेटे की नज़रें पढ़ना भी
बीती रात मिली थी उसकी टूटी चूड़ियाँ गन्ने के खेत में
यह बात दीगर है कि ऊँची – ऊँची दीवारों से टकराकर
दम तोड़ देती है आवाज़ें आपके घर की
और बचा सके गरीब की बेटी को
नहीं होती ऐसी कोई चारदीवारी

गरीब की बेटी नहीं बन पाती
कभी एक अच्छी माँ
कि उसका बच्चा कभी दम तोड़ता है गिरकर गड्ढे में
कभी सड़क पर पड़ा मिलता है लहूलुहान
ह्रदयहीन इतनी कि भेज सकती है
अपनी नन्ही सी जान को
किसी भी कारखाने या होटल में
चौबीस घंटे की दिहारी पर

अच्छी पत्नी भी नहीं होती गरीब की बेटी
कि नहीं दबी होती मंगलसूत्र के बोझ से
शुक्र बाज़ार में दस रुपए में
मिल जाता है उसका मंगलसूत्र
उसके बक्से में पड़ी अन्य सभी मालाओं की तरह

आप सिखा सकते हैं उसे मायने
बड़े – बड़े शब्दों के
जिनकी आड़ में चलते हैं आपके खेल सारे
लेकिन नहीं सीखेगी वह
कि उसके शब्दकोश में एक ही पन्ना है
जिस पर लिखा है एक ही शब्द
भूख
और जिसका मतलब आप नहीं जानते

गरीब की बेटी नहीं जीती
बचपन और जवानी
वह जीती है तो सिर्फ बुढ़ापा
जन्म लेती है, बूढ़ी होती है और मर जाती है
इंसान बनने की बात ही कहाँ
वह नहीं बन पाती एक पूरी औरत भी
दरअसल, वह तो आपके खेत में खड़ी एक बिजूका है
जो आजतक यह समझ ही नहीं पायी
कि उसके वहाँ होने का मकसद क्या है
.......................................................................................................................................

5.     मेरा शहर-1

अपने शहर को याद करते अक्सर
मुझे याद आती है वो सुंदर सी लड़की
जो नए खुले पिज्जा कॉर्नर में
काँटे- छुरी से पिज्जा खाने की नाकाम कोशिश कर रही थी
अगले महीने उसे ब्याह कर मुंबई बस जाना था
और वह भावी पति को शिकायत का कोई मौका नहीं देना चाहती थी

अपने शहर को याद करते हुए अक्सर
मुझे याद आती है वह नीरस रातें
जब आठ बजे ही बेचैन कदम सुन सकते थे अपनी आहट काली सड़कों पर
आवारा कुत्तों के बौखलाए हुए शोर के बीच भी
और वो मटमैले से दिन,बेपरवाह धूल में लोटे बच्चे से
जिसे सुबह माँ ने बड़ी जतन से सजाया था  
तंग गलियाँ जहाँ एक अदना सा रिक्शा वाला भी
थोड़ी और रेजगारी मांगता कर देता था रास्ता बंद
वह अनजान आँखें जो आतुर थीं बना लेने को पहचान
निजता के आवरण में हँसी की सेंध लगाती
जहाँ हवा भी कुछ यूँ बहती थी  
जैसे गुनगुना रहीं हों आपका ही नाम 

अपने शहर को याद करते हुए अक्सर याद आती है
गाँव से आई वह लड़की
जिसने जींस-स्कर्ट पहनना तो सीख लिया
लेकिन उतारना भूल गयी थी माथे की बिंदी
वह मीठी सी बोली  
जो अब भी उतरते ही शहर में कस कर गले लगाती है
यूँ मिलती है जैसे अब तक हमने उसे कभी दगा ही नहीं दिया 

इस बड़े शहर में
कभी भीड़ में डूबे रास्ता खोजते
या रोशनी में नहाई रातों में
एक कतरा पहचान का तलाशते
अक्सर पीछे से बोलता है धप्पा
पकड़ लेता है सरेआम
जब हम खेल रहे होते हैं उसकी यादों से आँखमिचौली    
शहरी हो जाने की दौड़ में अकुलाया मेरा कस्बायी शहर
अब तक बचा हुआ है 
सच में बन जाने से एक पूरा शहर  
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6.     मेरा शहर -2

उम्र के इस पड़ाव पर बार बार पीछे लौटता है मन
जैसे कि यह तीस जमा दो की उम्र एक स्थगन बिन्दु हो
और आगे बढ़ते जाने के लिए लाज़िमी हो पीछे मुड कर देख्नना
टटोलना अपना वजूद कुछ बीत गए लम्हों में
जो अब तक बिखरे पड़े हैं कुछ रंगहीन कागजों की सिलवटों में
बहुत कुछ ऐसा जो समा जाता है कुछ इस तरह रक्त मज्जा से
कि लाख चाहें उसे अलग नहीं कर सकते खुद से
गर किया तो हाथ आता है खून से लथपथ अपना ही अंश
कुछ ऐसी ही हो जाती हैं यादें,जो हाथ पकड़ ले जाती हैं बार बार वहीं
जहां जाने के रस्तों पर हम बिठा देते हैं पहरे 

आजकल अक्सर काँधें को हौले थपथपाता जाता एक सोया सा शहर ,कुछ सपनीली सी गलियाँ
और एक लड़की जिसकी आँखों में जाने किन रंगों के रेशे थे 
कुछ स्लेटी,कुछ धूसर ,और जो भी चटकीला था,वह तुम्हारी आँखों का पानी था
एक उनींदी सी नदी कहीं दूर,जो जगाए जाने पर रोती थी बेजार
उस शिवालय की वह सीढ़ियाँ जहाँ आस पास रंगीनी की एक स्याह दुनिया बसी थी
जहाँ नहीं आता था सभ्य समाज दिन के उजालों में
शिव भी शापित थे जहाँ
और वहीं रहता एक कवि अपनी ढेर सारी गायों की कब्रों
और दर्जनों किताबों के साथ,उतना ही शापित ,उतना ही उपेक्षित
जैसे कि उस अंधेरी दुनिया के बाशिंदे
शहर उसे भी इस्तेमाल करने की कला बखूबी जानता था
उसके गीतों को सुनते हुए तुम्हारी आँखों में जो उतर आता था
वहाँ डूब- डूब जाती थी मैं,कभी नहीं उबर पाने के लिए
 तुम्हें बांधती थी वह रहस्यमयी दुनिया या कि मेरा साथ,
जीवन के अनेक अनसुलझे रहस्यों की तरह यह भी रह जाएगा अनुत्तरित
लेकिन जानता था वह कवि जो अब कभी नहीं आएगा लौट कर यह बताने
कि सपने देखना गलत नहीं है
बस नहीं होनी चाहिए आस उसके पूरे होने की 
अब जब कि यह तय है कि नहीं पकड़ सकती बीते दिनों का कोई भी सिरा
नहीं बुन सकती उनसे कोई कविता जिसमें दिखे अक्स तुम्हारा
दिल करता है बार- बार ,रो लूँ मिल कर गले अपने शहर से
वह तो वहीं है अब भी,भले ही ना हो मेरे इंतज़ार में
उसकी नज़रों में अब भी मेरे लिए पहचान बाकी है
वह खुद कितना भी बदल जाये
उसे पहचानती हूँ मैं भी   
…………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

7.     ओ बिदेसिया !

 
ओ बिदेसिया
तुम्हारी गाथा लिखना चाहती थी 
लिखना चाहती थी वह  दर्द 
जो सदियों से झेलते आये हो तुम 
लिखना था कि चंद रोटियों की खातिर 
अपनी मिटटी से दूर होकर कैसे जी पाए तुम 
लिख देना चाहती थी
वह सारी अवहेलनावह सारी घृणा
जो तुम्हारी नियति बन गयी है 

जानती हूँ खून उतर आता होगा तुम्हारी आँखों में भी 
सुनकर अश्लील उपाधियाँ और वो हिंसक रिश्ता 
'भईयाबनाने का
जिसमे प्रेम नहीं नफरत छुपी होती है उनकी 
लेकिन तुम्हारे इस असहाय क्रोध को भी चाहिए कुछ आधार 
मसलन एक छत जो बचा सके मुसीबतों से 
एक भरा हुआ पेट जिसे कल की चिंता न हो 
और शायद तुम्हारे अपने
जो कहीं दूर बस इसी आस में टकटकी लगाये रहते हैं कि
नुक्कड़ की दुकान से आएगा तुम्हारे फ़ोन का बुलावा

जानती हूँ तुम्हे नींद नहीं आती देशी बोतल या गांजे के बिना 
फिर नहीं आते मालिक के सपने 
जो खड़ा  होता है छाती पर अपनी उधार की रकम के लिए 
बबलू भी याद नहीं आता
कैसे गोल गोल आँखें मटकाता था 
बुधना ने बीडी पीना सीख लिया था
यह भी याद नहीं रहता 
न ही याद रहती है मंगली की लौकी की बेल सी चढ़ती उम्र 
और उसके हाथ न पीले कर पाने का मलाल 
रामपुर वाली की मीठी देह -गंध भी तब नहीं सताती तुम्हे 
यह सब कुछ लिखना चाहती हूँ

लेकिन कैसे लिख पाऊँगी तुम्हारी अंतहीन पीड़ा 
मैं भी तो इसी सभ्य समाज का हिस्सा हूँ
जिसकी नज़र में तुम हो जंगली,जाहिल,गंवार 
हम भला कैसे जानेंगे तुम्हारा दर्द !
तुम्हारी सैकड़ों वर्षों की वह त्रासद कथा 
जब भेड़-बकरियों से लादे गए थे तुम जहाजों पर
काले पानी को पार कर कभी नहीं लौटने के लिए 

आज भी ठूंसे जाते हो तुम ट्रेन के डब्बों में 
यहाँ तक की छतों पर भी 
और कभी कभी यूँ ही कहीं लावारिश पड़े मिलते हो बेजान 
ठेले पर लाद कर भेज दिए जाने के लिए मुर्दा घर 

 
सोचो तो जरा  बिदेसिया 
तुम पैदा ही क्यों किये गए?
सिर्फ हम सफेदपोशों के इस्तेमाल के लिए !
ताकि तुम ढो सको हमारा बोझ अपने कन्धों पर 
हमारे  भवन,हमारी  सड़कें,हमारे  कारखाने 
जहाँ मेहनत बोते हो तुम 
और फसल काटते हैं हम   
और तुम्हे मिलते हैं चंद सिक्के और ढेर सारी घृणा 
तुम्हारे पसीने की गंध से उबकाई आती है हमें 
भूल जाते हैं  कि इस पसीने के दम पर ही है
हमारी  दुनिया सुन्दर और आरामदेह  
तुम सब माफ़ कर देते हो बिदेसिया 

पता है मुझे
गालियाँ खाकर, नफरत झेलकर भी 
तुम करोगे हमारा ही सजदा 
क्योंकि भारी है तुम्हारी रोटियां 
किसी भी और भावना पर   
कैसे कह दूं लौट जाओ अपने गाँव 
भले ही भूखे मर जाना

लेकिन कचोटती है तुम्हारी पीड़ा 
हमवतन जो हो तुम मेरे 
अंतर्मन करता है कई प्रश्न 
मैं निरुत्तर हूँ
चाहती हूँ,तुम दो उनका उत्तर  
चाहती हूँ,तुम  कहो कुछ
बताओ कि तुम भी इंसान हो हमारी  तरह 
हम ये भूल चुके है
अब तक अपना पसीना बेचा है न तुमने 
अब अपने आंसूओं की बोली भी लगाओ 
शायद मिल जाएँ कुछ अच्छे खरीददार
………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

8.     गर हो सके तो

हो सके तो लौटा दो मुझे,दिन के वो रुपहले हिस्से
जब थके से कदम सुनना चाहते हैं मेरी आहटें
नन्ही उँगलियों को होता है इंतज़ार मेरी हथेलियों के स्पर्श का
आँखें खोजती है थाली भर गर्माहट स्नेह से पगी हुई
और मैं दूर कहीं धीरे धीरे खो रही होती हूँ वो हरेक पल
जिन्हे खो देने से बड़ी कंगाली और कुछ नहीं हो सकती

हो सके तो लौटा दो मुझे वो तमाम सुबहें 
जिसकी उजास मैंने अपने अंदर नहीं भरी
और रात को खुद में समेटे हुए ही शुरु कर दिये जाने कितने दिन
फिर अगली रात की तैयारी में
ऐसी तमाम शामें भी जाने कहाँ गयीं
जब सड़कों पर रेंगती भीड़ के बीच मैंने नहीं देखी
पश्चिम की लालिमा ,पार्क में खेलते रोशनी से भरे चेहरे
मेरी ही तरह घर लौटते अनगिनत पंछी
और आस पास तैर रही कई निष्प्राण आँखें
जिनमे छुपी थी जाने कितनी कहानियाँ बेचैन सी .
किसी के सुने जाने के इंतज़ार में

हो सके तो मुझे लौटा वो तमाम अजन्मी कविताएं
जिन्हे मैंने  इतनी मोहलत भी नहीं दी कि वो ले पाएँ साँसे
और दे जाएँ बदले में मुझे मुट्ठी भर प्राण वायु
जिसे बटोर लेने से कम हो जाता असर उस हवा का
जिसमें साँसे ले रहे हम सब
कुछ और ही हुए जा रहे हैं 
जीने का भ्रम है बनाए रखा है बस
हर रोज जीना भूलते जा रहे हैं  
………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

9.     प्रेम

सात समंदर पार लाल परी के झोले में रखी
जादुई डिबिया में बंद एक खुशबू सा प्रेम
डिबिया खोलते ही
छू !हाथ कुछ भी नहीं
गायब हो गयी डिबिया भी
और तब होता है एहसास  
यह कुछ और नहीं
है उनींदी आँखों का एक सपना भर

किसी अनाड़ी मछुआरे की तरह प्रतीक्षारत हम    
निहारते हैं अनंत विस्तार 
तन मन के स्पंदन को समेटे
संभावनाओं के नील जल में तलाशते जीवन के टुकड़े
लेकिन शाम तक लौट आते हैं वापस
उठाए खाली टोकरी किस्मत की
प्रेम छिपा होता है कहीं गहरे अतल में       

वह जो एक अंश हम सा विचरता है ब्रह्मांड में
लाख बुलाओ उसे लौट आती है प्रतिध्वनि वापस
हम देते हैं दिलासा 
जो मिला वही प्राप्य था
वही एक आवाज आनी थी हम तक 
आवाजों के सघन जंगल को चीरती
बनकर मनचाही पुकार
जाने क्यों एक दिन फिर
आवाज के तलवों में उग आती हैं नुकीली कीलें
ठक- ठक रौंदी जाती हैं आत्मा
गुजर जाता है कोई बंद किए आँखें 
छोड़ पीछे नीले- स्याह निशान
उसे भी तो बुलाया प्रेम ही हर बार
………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………………

10.अवसाद मुक्ति है

निराशा के वो पल जब आप हो जाना चाहते हैं बिलकुल अकेले
एक सख्त आवरण बुने हुए अपने चारों ओर
बेबस लौट जाती है आपको चीर देने को आतुर नुकीले पंजों वाली हर आवाज़
ऐसे ही किसी समय का होना है,खुद के बेहद करीब हो जाना
मुक्त हो जाना आस पास बुने हर झूठ से 
बेमतलब चले गए हर रास्ते पर बार –बार लौटना
और सोचना कि सबब क्या था यूं चलते चले जाने का  

ऐसे ही किसी बेहद अंधेरे समय में यकीन होता है
कि है मौजूद रोशनी की भी एक साफ,निष्कलंक दुनिया
और जिसतक पहुँचने के रास्ते पर है उन अंधेरों का पहरा
जिसे अब तक जीवन के भ्रम में सहेजे रखा था 
ऐसे ही किसी बेहद अकेले समय में यकीन होता है
कि चाहे कितने ही खतरनाक ऐलानों के साथ बढ़ते रहें दीमकों के झुंड 
सुरक्षित है आपकी आत्मा
वह नहीं कर सकते घुसपैठ वहाँ तक
कि सुखों के नाम पर बुने हर शोर के लिए बंद है रास्ता

और ऐसे ही किसी समय में आप देख पाते है कुछ आँसू
छू पाते हैं हर बाहरी परत हटाकर कुछ मन
उनका दुख जोड़ देता है अपने अंदर का टूटा हुआ कुछ
हर वो चीज जो अब तक अपने वजूद में नहीं थी  
बहुत मजबूती से आकर पकड़ लेती है आपका हाथ 
और ऐसे ही किसी समय में हो जाता है यकीन
नहीं है इतनी पुख्ता कोई भी नफरत
कि वह आपसे छीन ले साथ मिल कर रो पाने का सुख
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