आज मराठी के प्रसिद्ध लेखकभालचंद्र नेमाड़ेको ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है. उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'हिन्दू'का एक अंश, जो संयोग से किसान-खेती-बाड़ी करने वालों की दुर्दशा को लेकर है- मॉडरेटर
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हरिजन की लाश किसान के खेत मेंरहस्यमय मृत्यु या कत्ल?
खबर पढ़कर सुनाई जाती है। आगे चलकर इस खबर को जातीय, वर्गीय, व्यावसायिक राजनीति से जोड़ा जाता है या यों कहें कि उन्हें उस पर लादा जाता है। अखबार को लेकर पहले से ही डरे-सहमे हमारे देहात के लोग यह सोचकर अचानक बिगड़ जाते हैं कि दुनिया की नजरें हम पर टिकी हुई हैं। लेकिन कुछ किसान इस एहसास से सजग भी हो जाते हैं कि चलो, पहली बार ही सही, इसी बहाने विशाल सामाजिक अखबार हमारे क्षुद्र जीवन को स्पर्श तो कर रहे हैं।
शुरू में डींगमारे देशमुख कहता है, आजकल कानून भी किसान के खिलाफ बन रहे हैं। कानून ही ऐसे बनाए गए हैं कि किसान न कुछ बोए, न फसल ही ले पाए। अजी, कल ऐसा भी कानून बनेगा कि महार-मातंग लोग कुर्मियों की गाँड मारें। सफेदपोश लोग शहरों में बैठकर ऐसे ही खेती के खिलाफ धंधे करेंगे। हमारे इलाके के कुर्मी ही साले गाँडू हैं। दूसरी तरफ के लोग नहीं सहेंगे ये।...मतलब?...अरे ये हरिजन बस इतना ही पुलिस चौकी पर जाकर बोल दें न कि अमुक आदमी ने हमें हमारी जाति का नाम लेकर गालियाँ दीं, तब भी पुलिस को शिकायत दर्ज करनी ही पड़ती है और आपको पकड़कर ले जाना ही पड़ता है जेल में। क्यों पाहुने जी, क्या आपके यहाँ मुगलई में ऐसा ही चलता है?
मोरगाँव में मेहमान बनकर आया मराठवाड़ा का एक बचकाना बूढ़ा हँसते हुए बोला, हमारे यहाँ? एक दफे चोर मिल जाए न, तो पीट-पीटकर वहीं गाड़ देते हैं साले मादरचोद को। कानून और पुलिस, हॅ हॅऽ, अब देखो, हमारे चार लड़के हैं, तगड़े, एक-एक ऐसा है कि दस पर भारी पड़े। बचपन से ही खेत में पलकर बड़े हुए, बीवी-बच्चे भी जल्दी ही हुए। हमारे कुओं में पानी भी खूब लबालब। सब्जियाँ, खीरा, गन्ना—खूब दबाकर सब्जी-तरकारी उगाते हैं साथ में। कुत्ते हैं चौकन्ने। मेंड़ पर जरा-सी भी खसखस सुनाई दी, तो एक-एक लड़का दौड़ता है मेंड़ पर लाठी लेकर। दीवार पर ही गँड़ासे, तलवारें टँगी रहती हैं। कोई चोर दिखाई दे, तो समझो हो गया उसका राम नाम सत्य। फिर साल-दो-साल हमारे खेत में कदम रखने की हिम्मत नहीं होती किसी की। काहे की पुलिस और काहे का कानून जी—
हम मेहनती लोग ऐसे झंझट क्यों पालें? ऐसा भी कहीं होता है? क्या कानून केवल किसानों के लिए है? चोरों के लिए नहीं?
परसों हमारे गाँव के छोटे-छोटे बच्चे लाठी-लाठी खेल रहे थे—मतलब हरेक के हाथ में लाठी। ठीक उसी समय हमारे अटाले से अनाज चुराकर खलिहान की ओर से चोर दौड़ते हुए आए। पकड़ो, पकड़ो का शोर हुआ और बच्चों ने देखते-ही-देखते चोरों को लंबा कर दिया। हॉ हॉ हॉ। नहीं-नहीं करते-करते पानी माँगने लगे। कुर्मी की मेहनत का क्या कोई मोल नहीं? अजी, पानी को प्यास लगती है और रोटी को भूख, फिर भी किसान सोचता है, इतनी पाँत पूरी करेंगे, इतना गट्ठर बाँधेंगे। फिर? अजी गर्मी में भी दो पल खाली नहीं बैठ सकते। खाद डालो, खलिहान ठीक करो, मवेशियों का गोठ बनाओ, बाड़ लगाओ, टट्टी थापो, छप्पर छवाओ, खत्ता खोदो, पोतो, बीज चुनकर फटककर रखो, बुआई की तैयारी करो, हल-अकरी का पसारा—बहनचोद बढ़ई दस चक्कर मरवाता है। लुहार कहता है, समय नहीं है। जोतना, हेंगा चलाना, कटिया की जड़ें चुनना, कुंदा खोदना, ग्वार उखाड़ना, मेंड बनाना—धूप तो और भी तेज होती जाती है। किससे कहें भई?
एक-दो बूढ़े बोले, चाहे जो हो। हम तो बली के वंशज हैं। इस तरह किसी को मारना ठीक नहीं। कुर्मी को चाहिए कि चोर को केवल टोके। चोरी करते हुए रँगे हाथ पकड़ा जाए तो भी चोर को मारना नहीं चाहिए। गरीब लोग होते हैं। भूख ने पेट में उछल-कूद मचाई, चुराया और खा लिया। चोरी-चकारी तो लगी ही रहती है। हमारा वारकरी धर्म—पंछी, चूहे, सूअर, हिरन, गीदड़, चिड़िया फसल खाते हैं या नहीं? ये धरती माँ का कर्ज होता है बच्चो, सभी का हिस्सा होता है उसमें—
अगर ऐसा है दादाजी, तो खेती को खैराती धंधा घोषित कीजिए न। इंग्लैंड-अमेरिका का किसान भी क्या इसी तरह खेती करता है? या केवल हिंदू किसान ही संसार-भर का देनदार है? उसका अपना कोई हक नहीं?
अजी कैसी बातें कहते हो जी? क्या कुर्मी का जनम केवल फसल उगाने के लिए ही हुआ है? हमारे खलिहान में कोठरी का छप्पर खोलकर तैयार चने के बोरे लेकर भाग गए चोर बीते साल। हम बाहर खटिया डालकर सोए थे। क्या रखवाली करेंगे?
अजी, सिर पर चढ़ा रखा है सरकार ने इन लोगों को। अंधाधुंध कर्ज दिया इन्हें भैंस पालने के लिए। लेकिन चारा?—इधर हमारी फसलें हैं न खेतों में खड़ी। इन्हीं के लिए तो बुआई करते हैं हम—रात-बेरात भरी फसल में भैंस को घुसा देते हैं—क्या हम फसल में खटिया डालकर सोएँ? क्या ये लिखेंगे अखबारवाले—क्या रात-भर उन्हें यूँ खेत के अनाज की रखवाली करनी पड़ती है? उनके दफ्तर के सामने चौकीदार होता है। क्या वे लोग चोरों को नहीं पीटते? वहाँ सामाजिक न्याय लागू नहीं होता? माँ के जने। पुलिस, बंदूक, मशीनगन होती हैं उनकी रखवाली के लिए। और हम एक रखिया रखते हैं तो हरिजनों पर अत्याचार? क्या ये न्याय है? वाह भई वाह। मतलब ये शहरों में आराम से नौकरियाँ करेंगे और इधर बारह महीने कड़ी मेहनत में फसल उगानेवालों को ही धमकियाँ? यहाँ मामूली पुलिस कंपलेन करना चाहे तो भी है कहाँ पुलिस की चौकी? रात का अपराध क्या वे सुबह दर्ज करेंगे? हँसते हैं वे भी।
बिलकुल सच है, मादरचोद संपादक श्रम की प्रतिष्ठा को खाक जानता है। किसान को हर चीज की रखवाली खुद करनी पड़ती है, मादरजात। अनाज, धान तो छोड़ ही दो, खेत की बाड़, यहाँ तक कि मिट्टी की भी रखवाली करनी पड़ती है, दिन-रात। हमारा पसारा ऐसा खुले में। मादरचोद चोर कब और कहाँ नहीं होते? है कहीं किसान के लिए गोदाम या भंडार, मुआवजा या बीमा? शहर में तो मोटर-गाड़ियों तक का भी बीमा होता है। किसान के यहाँ काम के लिए आदमी पूरे नहीं पड़ते, तो चोरों का और मजदूरों का कौन देखे—
उसमें भी बुआई और रोपाई की आपाधापी—घर के बूढ़े-जवान, बाल-बच्चे, औरतें सभी बावलों की तरह भागादौड़ी करते रहते हैं। अजी, कभी-कभी सारा पेट बाहर आने को होता है। उस पर बरसात का सनकीपन, दौंगड़ा, अतिवृष्टि, फसल ही बह जाती है और गला सूखने तक चिल्लाना तो है ही, धत् तेरी—चिड़ियाँ, खेत में खड़ी फसल से अनाज चुगनेवाली जंगली चिड़ियाँ, सातभाई, तोता, जंगली सूअर, हिरन, आवारा पशु, भैंसे, साँड़, गधे, बकरियाँ और उचक्के—अरे ओ कुर्मी, एक ही तो भुट्टा लिया है, किस्मत चुरा ली क्या तेरी, खाने दे न भुक्खड़ऽ, पेट के लिए ही खा रहा हूँ—ऊपर से ऐसी बातें।
अजी, किसान की सबसे बड़ी बैरी ये खेती है। वही उसका पूरा फोता निचोड़ डालती है। दूसरा बैरी है व्यापारी—जैसे ही फसल खलिहान में आई, वो साला दाम गिरा देगा मादरचोद, तीसरी बैरी है सरकार—पटवारी, मामलेदार, बैंकवाले, जोनल अफसर—एक खरीद-बिक्री में सौ-दो-सौ रुपए काट लेते हैं। जिस तरह अमरबेल जिंदा पेड़ को खा जाती है, वैसे ही ये किसान को खाते हैं।
अरे पिछले जनम में जरूर कुछ पाप किया होगा, तभी तो इस जनम में हम किसान बने हैं। वो शिवलीलामृत भी बदलना पड़ेगा भाई—एक बार शिवशंभू पार्वती के साथ एकांत में क्रीड़ा कर रहे थे और एक गंधर्व गलती से उनके कमरे में घुस आया। उसे शाप दिया शंभू ने—जा, तू महाराष्ट्र में किसान बनेगा। हॉ हॉ हॉ।
अरे इसकी बजाय चिरागवाले राक्षस की कहानी सुना न—रगड़ने पर वो खड़ा होकर बोलेगा, काम दो, नहीं तो खाऊँगा तुम्हें।...उससे कहना ये ले खेती कर—साला, कभी काम खत्म नहीं होगा।
सच कहूँ तो इन मजदूरों की मस्ती बहुत बढ़ गई है। काम ही नहीं करते हैं साले। पहले व्हलर लोग ढोलक, नगाड़े लेकर भलरी68गाते-नाचते-सींग बजाते खेत में कटाई के लिए आते थे। अब? अब तो चिरौरी करनी पड़ती है, साला। एक दिन पहले शाम को बोमट्या मेरे घर दस-बारह आदमी लेकर आया, बोला, देवराम जीजा, विट्ठल भाई तो सवा तीन रुपए मजदूरी दे रहा है। हम ठहरे गरीब लोग, जिधर चार पैसे ज्यादा मिलेंगे, उधर जाएँगे। फिर मेरा तो वही हाल हुआ न कि वक्त पड़े बाँका और क्या। हाँ भाई, हाँ भाई करते-करते दाढ़ी छू-छूकर सवा तीन रुपए दिहाड़ी के लिए राजी हुआ। मंदिर में विट्ठल भाई से पूछा तो वो बोला, हैं, मैंने कब सवा तीन रुपए दिहाड़ी कबूली? मैं तो ढाई ही देता हूँ। तड़के बोमट्या से बोला, वाह भाई बोमटू, अच्छा फाँस लिया तूने साले बदमाश। मजदूर भी पक्के दो नंबरवाले हो गए हैं साथियो। किसान भूखों भी मरने लगे तब भी ये कहते रहेंगे : मालिक, नहीं होगा। और बढ़ाइए मजूरी। मजदूर मतलब जवार पर पड़नेवाला गोसाई रोग।
मुंबई मंत्रालय में बड़े पद से अवकाश ग्रहण कर जज्बात की खातिर इधर अपने बचपन के गाँव रहने आए यमाजी चौधरी बाबूसाहब इतनी देर से खामोश बैठे सुन रहे थे। इन्हें जब कुत्ते ने काट लिया था, तब पैंतीस किलोमीटर दूर जिला सिविल अस्पताल तक में इन्हें रेबीज की दवा नहीं मिली थी, फिर भी वे बच गए थे। पर इन देहातों से उनका काफी मोहभंग हो गया था। इसके अलावा यहाँ गाँव में नौकर-चाकर नहीं मिलते, बर्तन माँजने के लिए, रसोई बनाने के लिए दाई नहीं मिलती—यहाँ ऐसे कामों को अप्रतिष्ठा का लक्षण माना जाता है। शुद्ध हवा छोड़कर यहाँ कुछ नहीं है। इस केले-गन्ने की खेती के कारण पानी भी सूखता जा रहा है। इस पर यकीन करनेवाले बाबूसाहेब मंत्रालय के फाइलाना अंदाज में बोले, देवराम जीजा, खेती अगर आज भी बेच दी न आपने, और यह रकम बैंक खाते में जमा कर दी न, तब भी एक लाख रुपए पर हर साल पंद्रह हजार रुपए ब्याज खा सकते हैं आप, घर बैठे—बिना कुछ किए। मैं यही तो करता हूँ। आराम से बारह ज्योतिर्लिंग, अष्टविनायक69, चारों धाम—सारी यात्राएँ हो गईं। खेती करता रहता तो साल में चार दिन भी गाँव से बाहर नहीं निकल पाता। बैल और सालदार, उनका सानी-पानी और अनाज, खेत और खलिहान, सुखाओ और जमा करो साला, रोज कुछ-न-कुछ जारी। हिसाब लगाओ तो जरा और देखो, मजदूरी को घटाकर खेती से कितनी आमदनी होती है? घाटा ही दिखाई देगा।
उसमें घर की औरतों की चौबीसों घंटों की मेहनत और बच्चों के काम भी जोड़ दो तो घाटा ही घाटा, जीजा केवल घाटा। बाबूसाहेब मंत्रालय में इतने बड़े-बड़े मंत्रियों की फाइलें बदलवाकर निर्णय बदलवाते थे, उनकी बात सही है। धूप हो, बरखा हो, जाड़ा हो, सभी दौड़ते रहते हैं, साला। हमारे भोले मास्टर का छोटा लड़का बस आवारागर्दी करता घूमता है जलगाँव में। स्टेशन के सामने अखबार बेचता है, जुआ खेलता है, सिनेमा के टिकटों का ब्लैक करता है, लेकिन खेती का नाम नहीं लेता। क्यों? कहता है, बड़ा भाई खेती कर रहा है, उसकी हालत देखो न। भाई-भावज भिनभिना जाते हैं काम से।
तो यह कहो न कि मजदूर की स्त्री ज्यादा सुख से रहती है। किसान की स्त्री के लिए चौबीसों घंटे घर-बार, खेत-सगवारा, आने-जानेवाले मेहमान, फिर दूध-दही-मवेशी, बाल-बच्चे—तरस जाती है धरती से पीठ टेकने के लिए। दोपहर में एक मिनट भर आराम नहीं मिलता। इसीलिए लड़कियों के बाप आजकल किसान से नहीं ब्याह रहे हैं अपनी लड़कियों को—कहते हैं, इसकी बजाय पान के ठेलेवाला अच्छा। स्त्री को कुछ और न सही, सुख तो मिलता है। अरे वह बहरा पाटील, उसका लड़का चपरासी क्या बन गया बैंक में, लड्डू बाँट रहा था उस रोज। मैंने पूछा, क्यों रे बहरे, कहीं सोने का कलसा मिल गया क्या? बोला, अरे कलसे की क्या बात करते हो भाऊ, नौकरी मिल गई है, नौकरी—सोने की मुर्गी। हर महीने सोने का अंडा देती है। आगे उसके मरने पर उसकी बीवी को मरते दम तक पेंशन। चिंता नहीं। सत्तर-अस्सी साल तक घर में हर महीने पैसा आएगा। सही है न बाबूसाहब?
बिलकुल सही। तुका म्हणे मुक्ति परिणली नोकरी। आता दिवस चारी खेळीमेळी॥
एक बात और कहता हूँ, सुनिए। दूसरे धंधों में हर नए साल की शुरुआत नई बही, नए पन्ने से होती है। मास्टर, प्राध्यापक, बैंक के अफसर तो मार्च महीना आते ही स्लेट पोंछ डालते हैं। यहाँ किसान के ढोर-डंगर, चारा, खेत, पौनी—कुछ भी पोंछा नहीं जा सकता। एक साल भी खेती डूब जाती है न, तो उससे उबरने के लिए अगले दस साल भी कम पड़ते हैं। खराब अनाज घर में खाओ, अच्छा अनाज बेच दो, फिर भी बकाया रह जाता है। मौज-मस्ती की बात तो छोड़ ही दो, लड़के-लड़कियों को पढ़ाने तक के लिए कभी पैसा नहीं बचता है। ऊपर से—जल्दी से शादी कर डालो—लेंहड़ा। इसीलिए कहता हूँ, ये कुर्मीगीरी की दीवार गिरा दो और बाहरी खुली दुनिया में निकल भागो।
पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है