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स्त्री-लेखन में नयापन नहीं है?

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आज 'प्रभात खबर'में मेरा एक छोटा-सा लेख आया है. उसका थोड़ा सा बदला हुआ रूप- प्रभात रंजन 
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अभी हाल में एक वरिष्ठ आलोचक महोदय से बात हो रही थी तो कहने लगे कि स्त्री लेखन में कोई नयापन नहीं दिखाई दे रहा है. इस समय हिंदी में युवा लेखकों-लेखिकाओं की बड़ी अच्छी जमात है. नई-नई विधाओं में, समकालीन जीवन-स्थितियों को लेकर लेखन हो रहा है. नए-नए प्रयोग हो रहे हैं. लेकिन उनका यह सवाल फिर भी अटक गया कि आखिर आलोचक महोदय किस नयेपन की बात कर थे? नयापन भले नया होता है लेकिन वह सबके लिए अपने-अपने पुराने पैमाने का होता है.

सोचते-सोचते एक बात यह सूझी कि 70-80 के दशक में मृदुला गर्ग का उपन्यास ‘चित्त्कोबरा’ अपनी बोल्डनेस के कारण बेहद चर्चा में रही. उसको लेकर उस दौर में काफी विवाद हुआ था. लेकिन आज ‘चित्तकोबरा’ वैसा बोल्ड नहीं लगता. आज का समाज अधिक सहज हो चुका है, उन जीवन स्थितियों के लिए उसके अंदर जगह बन चुकी है. उसके बाद भी स्त्री विमर्श को लेकर बड़ी-बड़ी सैद्धांतिक बहसों का दौर रहा. जिसने निस्संदेह समाज में स्त्रियों को लेकर नजरिया बदला, विचार के क्षेत्र में स्त्रियों की धमक बढ़ी, उनकी अलग पहचान को लेकर संवेदनशीलता बढ़ी. 90 के दशक और उसके बाद के कुछ वर्ष स्त्री मुक्ति से स्त्री विमर्श की दिशा में उठे मजबूत कदम थे. इसने विचारों के क्षेत्र में, समाज में महिलाओं को लेकर होने वाली चर्चाओं को आमूलचूल बदल दिया. जिस दौर में इतने बदलाव आ रहे हों उस दौर में यह कहना कि स्त्री लेखन में नयापन नहीं दिखाई दे रहा है. वाकई बड़ा सोचने वाला सवाल है.

जबकि यही वह दौर है जिसमें सोशल मीडिया के माध्यम से, वेबसाइट्स, ब्लोग्स के माध्यम से लेखिकाओं की रचनाएँ पहले से अधिक प्रकाशित हो रही हैं. नई-नई तरह की कविताएं सामने आ रही हैं. जिन रचनाओं को लेकर पहले ‘बोल्ड’ होने का विवाद चला करता था वैसी रचनाओं के ऊपर आजकल बहसें होने लगी हैं. यह बदलाव क्या कम बड़ा बदलाव है? तब भी नयापन?

यह एक बड़ा सवाल सच में मुझे भी लगता है कि शोषण और सशक्तिकरण के दायरों से बाहर आकर स्त्री विमर्श में नहीं देखा जाता है, वही हाल रचनात्मक लेखन का है. समाज में महिलाओं की स्थिति पहले से बहुत बेहतर हुई है, शिक्षा, सम्मान में काफी वृद्धि हुई है. लेकिन इस एंगल से अमाज को देखे जाने की आदत विमर्श में नहीं आ पाई है. आज बहुत कम लेखिकाएं हैं जो समाज में स्त्रियों की बदलती जीवन स्थितियों को लेकर रचना कर रही है.


अभी हाल में ही लेखिका मनीषा पाण्डे से बात हो रही थी. उन्होंने एक बड़ी अर्थपूर्ण बात कही कि स्त्री अधिकारों को लेकर होने वाली बात यह नहीं होनी चाहिए कि उसकी पुरुषों से तुलना होने लगे. बल्कि स्त्री विमर्श में स्त्री को स्त्री जैसा रहते हुए, उसके अपने रूप में रहते हुए जीने की आजादी मिले. मुझे लगता है कि यह आज की युवा सोच है जिससे भविष्य में स्त्री विमर्श की नई राह निकलेगी. जिससे विमर्श और रचनाओं में वह समकालीनता भी आ जाएगी जो जीवन के अधिक करीब होगी. आलोचक महोदय को जिसमें नयापन भी दिखेगा.  

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