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अकथ का आश्चर्यलोक : ‘अँधेरे में’

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मुक्तिबोधआधुनिक हिंदी कविता के गुरु हैं. आज उनकी कविता 'अँधेरे में'पर लिखा यह आत्मीय लेख पढ़ते हैं. लिखा है विदुषी कवयित्रीसविता सिंहने- मॉडरेटर.
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जब मैं कविता लिखने लगी अँधेरा मेरे लिए रहस्य नहीं रह गया। अकसर रात में ही लिखती। रात अपने कई रूपों का दर्शन कराती।कितना कुछ मैंने जाना अपने बारे में उसी संगत में! अँधेरा मेरी कविता का मुख्य रंग जैसे बनता गया। हम एक दूसरे के लिए पारदर्शी होतेगये... एक दूसरे का हिस्सा। मेरी देह ज्यों पिघलती गयी उसमें, उस जैसी होती गयी। एक दिन फिर मैंने मुक्तिबोध की कविता अँधेरे मेंपढ़ी;  अकथ का आश्चर्यलोक होती हुई भी वह मेरे लिए बहुत जानी पहचानी ज़मीन लगीकाली, जिस पर मैं चलती हुई खुद तक पहुँची।उसके बाद इस सहज यात्रा के बारे में कभी खुद से भी जि़क्र नहीं किया। वह एक ऐसी यात्रा थी जो घटित होकर मेरी स्मृति में काली मिट्टीबन जा बैठी।

बहुत कुछ और पढ़ती रही, यात्रा करती रही। कविता मुझे विवश करती रही कि मैं और गहरे किसी काले जल में उतरूँ जो शायद यहसंसार ही है। लेकिन जब-तब किसी दीवार से कोई पलस्तर झड़ता, मैं आकृतियाँ खोजतीं। झड़े पलस्तर वाली दीवार से सहानुभूति होती, सीमेंट की पपड़ियों को हाथों में भर लेती जैसे अँधेरे मेंकविता मेरे हाथों में आ गयी हो। कुछ इस तरह ये कविता मेरे साथ रहने लगी।जुलूसों में मशाल लिये दस्तों को मैंने शायद कभी नहीं देखा, मगर दिन में निकलने वाले जुलूसों में ज़रूर शामिल हुई और भीतर ही भीतरमुक्तिबोध की तरह ही मुझे भी लगता यह मशालें जलने वाली हैं। जादुई यथार्थ यूँ मेरे ठोस यथार्थ पर उतरता गया और भीतर की संवेदनाऔर उकमीद की तरह बना रहा। गुंटर ग्रास का पहला उपन्यास टीन ड्रमजो 1958में प्रकाशित हुआ था, बचपन में पढ़ा था। यह उपन्यासहमारे समवय मित्रों में बहुत लोकप्रिय था। उसको पढ़ने के बाद महीनों आश्चर्य से भरी रही। फिर एक दिन बोर्खेज़ की एक कहानी पढ़ीजिसमें एक पादरी के जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित होती हैं, जिसमें वह एक बहुत बड़े पद पर पहुँच जाता है। परन्तु बीच मेंही कहीं आकर घटनाएँ उलझ जाती हैं और वह पादरी को पसन्द नहीं। अचानक कहानी में एक मोड़ पैदा होता है जिसमें बोर्खेज़ अपनीकहानी के इस पात्र से कहते हैं, ‘चलो इस कहानी को बदल देते हैं कयोंकि यह सब कुछ तो अभी कल्पना में ही चल रहा है। इसे बदलनालेखक की नियति है।इससे यह भी पता चला कि यथार्थ में दरअसल यह सब कुछ भी घटित नहीं हुआ। फिर भी इसकी प्रतीति यथार्थकी तरह ही थी। मेरे लिए यह बहुत बड़ा झटका था जिससे मैं शायद आज भी नहीं उबरी। यथार्थ सी दिखती कल्पना, यथार्थ ही है;  औरकल्पना भी यथार्थ। इन्हीं दोनों के बीच एक कवि या लेखक आनन्द से रह सकता है, या फिर मानीखेज़ ढंग से। यह एक नयी जगह थीहमारे लिए। मुझे नहीं मालूम मुक्तिबोध ने बोर्खेज़ को पढ़ा था या नहीं, लेकिन अँधेरे मेंकविता भारतीय जादुई यथार्थवाद का एक अप्रतिमनमूना तो है ही। इसमें जितना दिखता है उससे कहीं अधिक घटित होता है। और वे तमाम चेहरे जिन्हें हम पहचानते हैं जब वे अत्याचारीया अत्याचार करने की क्षमता रखने वाले लोगों के रूपों में दिखते हैं तब यह कविता इतिहास, संस्कृति और भारतीय आधुनिकता में व्याप्तखतरों और शंकाओं को यथार्थत: हमारे समक्ष रख देती है। ये चेहरे उजाले में भी अपने सच्चे रूपों में नहीं दिखते जिन्हें यह कविता दिखा देतीहै।

अपनी अभिव्यकित को तलाशता कवि मुक्तिबोध हम सबों को आज भी अँधेरी डगर पर चलता हुआ मिल सकता है, या मिलता है जबहम चाँद, तीर और अनश्वर स्त्री’, या फिर सपनें और तितलियाँजैसी कविताएँ अपनी सफेदी ओढ़े अँधेरे की आत्मा तलाशती उसी डगरपर निकलती हैं। मुक्तिबोध मिलते हैं अपनी अभिव्यकित से मिलते हुए। गौरतलब है कि जब स्वप्न दु:स्वप्न बनते हैं, हमारी यात्रा हमारीअपनी ही होती है अँधेरे मेंमिथक कल्पना के ही पुष्प-फल होते हैं और इनकी जगह जादुई यथार्थ में कुछ इस तरह है जैसे इनके बिना अँधेरे के अरण्य अपूर्ण होतेहों।


एम.ए. के दिनों में मार्केज़ को पढ़ा— ‘एकान्त के सौ वर्ष। मुझे लगने लगा एक लेखक के लिए कुछ भी मिथ्या नहीं, मिथक भी नहींसब सच है अपने कई-कई रूपों में, मिथ्या भी उसका एक रूप ही है। बहुत बाद में रॉय भास्कर के साथ काम करते हुए मिथ्या का दर्शन मेंगौरवपूर्ण स्थान समझ में आया। दरअसल यह संसार एक जादुई यथार्थ ही हैएक नींद जिसमें हम चलते रहते हैं, ‘नींद उचटी कि गायबहुआ स्वप्न सा चलता यह यथार्थ’ ;  वैसे यह जानना कितना दिलचस्प होगा/किसकी नींद है यह जिसका स्वप्न है यह यथार्थ’, (स्वप्नसमय)ऐसी पंक्तियाँ इसी समझ के तहत तो मेरे पास आयीं होंगी। यह बात अलग है कि इस संसार में हमारा हाथ किसी पत्थर के नीचेज़रूर उलटा पड़ा हुआ है जिसको सीधा करने का यत्न ही यह जीवन है। और पत्थर की आत्मीयता के लिए तड़पना हमारा सबसे मार्मिकप्रयास इस जीवन को जीने का। मुक्तिबोध की कविता, ‘अँधेरे में’, हमें उस पत्थर तक ले जाती है जिसके नीचे हमारे हाथ दबे हुए हैं।

'नया ज्ञानोदय'से साभार 

लेखिका संपर्क- savita.singh6@gmail.com




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