आज मौलश्री कुलकर्णी की कविताएं. पेशे से इंजीनियर मौलश्री नाटकों में भाग लेती रही हैं, 8 वीं क्लास से कविताएं लिख रही हैं लेकिन उनको खुद ही टुच्ची समझती रहीं. गहरी उद्दाम भावनाओं की अभिव्यक्ति है उनकी कविताओं में. हर तरह की कवितायेँ लिखती हैं, क्रिकेट से लेकर, समाज पर. लेकिन फिलहाल प्रेम कविताएं- मॉडरेटर
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1.
1 थोड़ा कहूँ बहुत समझना....
थोड़ा कहूँ बहुत समझना....
मेरी हर बात पे हँस लेना,
मेरी लिखावट पे चिढ़ जाना,
मगर कसम हैं तुमको,
मेरी चिट्ठी पढ़ने के बाद
उसके चारों कोनो को मिलाकर
अच्छे से तह लगाना
और अपने टेढ़े मेढ़े हो चुके
चार साल पुराने पर्स मे
जिसपे मैंने लाल रंग के स्केच पेन से
दो फूल बनाए थे, संभाल कर रख लेना,
मुझे एक बार याद कर लेना,
थोड़ा कहूँ बहुत समझना....
तुम झल्लाओगे,
मेरे अनपढ़ किस्सों पर,
मेरी शब्दों की नासमझी पर,
मेरी भाषा की ढीली पकड़ पर,
मेरी बेवकूफी पर, मेरे गंवार होने पर,
झल्ला लेना...
लेकिन कसम है तुमको....
हर सुबह उठकर मेरी चिट्ठी को,
अपने टेढ़े मेढ़े, चार साल पुराने,
दो लाल फूलों वाले पर्स से निकाल कर
बस देख लेना,
चाहे उसकी तहों को खोल कर,
चारों कोनो को अलग कर,
मत पढ़ना.....बस देख लेना....
मुझे याद कर लेना....
थोड़ा कहूँ बहुत समझना.....
2.
2नज़्म
आज फिर कोई एक नज़्म कहो,
मैं तुमको पढूँ, तुम मुझमे लिखो.....
अपनी न सही उधार ही ले लो,
मीर, ग़ालिब, साहिर या गुलज़ार,
किसी की भी, किसी की तो,
आज फिर कोई एक नज़्म कहो....
अपनी अंगुलियों से मेरी हथेलियों पर
कोई बेवजह सा उन्वान लिख दो
फिर अपने माथे पर पड़ी बलों में पिरोकर मुझको
आज कोई एक मिसरा पूरा कर दो...
पैरों की फटी एड़ियों में जो छुपाये रखे हैं
राज़ सारे,
आज किसी एक को तो आज़ाद कर दो
और रगड़ कर उन सारे बेहिसाब ज़ख्मों को
आज एक नज़्म कोई आबाद कर दो....
अपनी ना सही उधार ही ले लो,
मैं तुमको पढूँ तुम मुझमे लिखो....
आज फिर से कोई एक नज़्म कह दो.....
3.
3 भ्रम
आओ मेरे सब भ्रम तोड़ दो
क्योंकि इन ज़ंजीरों को मैंने ही
अब तक जकड़े रखा है,
और मैं फड़फड़ाती हूँ अपने पर,
इन भ्रम की ज़ंजीरों को और अधिक कसने के लिए,
जैसे चिड़ियाघर मे हुक्कू बंदर पिंजरे मे रहकर भी,
उछलता है, मटकता है, करतब भी दिखाता है,
ताकि उसका मालिक रहने दे उसे,
उसी पिंजरे मे,
मिलता रहे उसे, एक ठिकाना, पेट भर खाना
और बना ही रहे वो हमेशा सबके,
आकर्षण का केंद्र.....
वो तो बंदर है, कम दिमाग वाला,
फिर भी जानता है अहमियत बंधे रहने की ज़ंजीरों मे,
टिके रहने की उसी पिंजरे मे सालों साल.....
मैंने तो अपने भ्रम भी खुद ही बनाए हैं,
क्योंकि मैं तो इंसान हूँ, उससे दस गुना विकसित,
सौ गुना समझदार, हज़ार गुना उलझा हुआ.....
क्योंकि इतना आसान नहीं होता ना,
अपने मन को खुला छोड़ पाना,
मन तो हमेशा बंधना चाहता है,
किसी नाम से, किसी घटना से, किसी याद से,
और जोड़ता ही जाता है एक के ऊपर एक,
हर बार नया भ्रम,
हर नाम, हर घटना, हर याद से.....
जैसे इस क्षण मुझे भ्रम है कि तुम मेरे हो,
और तुम आओगे मेरे सारे पुराने,
घिसे-पिटे, दक़ियानूसी भ्रम, अपने सामीप्य से तोड़ने,
और मिलकर बनाओगे मेरे साथ,
हमारे साथ-साथ होने का भ्रम....
पर सुनो, तुम ऐसा करो,
तुम मत आओ इस बार,
मत उलझो मेरे ताने-बानों में, मत फँसो मेरी ज़ंजीरों में,
मत बनो कठपुतली मेरे सपनों की,
और तोड़ दो मेरे हर भ्रम की बुनियाद को,
हमेशा हमेशा के लिए.....
4.
4सोना....
सोना... सबसे पहले सबसे ज़रूरी बात...
मुझे बेइंतेहा इश्क़ है तुमसे... हमेशा था, हमेशा रहेगा...
ये कहना सबसे ज़रूरी इसलिए है क्योंकि,
इसके बाद की हर बात बस इसी एक बात से सुलझती है....
सोना, मैं बहुत याद करती हूँ तुमको,
जब हम दोनों एक दूसरे से लिपट कर रात भर,
चाँद को देखा करते हैं,
तुम अपनी उँगलियों से मेरे बदन पर नक्काशियाँ उकेरते रहते हो,
मेरे बदन के सारे छोटे छोटे फ़्रेकल्स, तुम गिन गिन कर चूमा करते हो...
मैं बहुत याद करती हूँ तुमको,
जब नाइट लैम्प बुझाने आए तुम मेरी अधखुली किताब बंद कर किनारे रख देते हो
मेरी अधमुँदी आँखों पर अपने दुलार का बोसा छोड़ जाते हो...
मैं बहुत याद करती हूँ तुमको,
जब तुम मेरे गुस्से मे भी मुझे हँसा देते हो, गुदगुदाते हो
उठा तो नहीं पाते मुझे गोद मे लेकिन फिर भी,
कोशिशें बेइंतेहा बार बार करते हो....
मैं तुम्हें हर पल बेहद चाहती हूँ अनहद याद करती हूँ,
मगर सोना,
मैं अब खुद को तुमसे वापस चाहती हूँ...
तुम्हारी आँखों, तुम्हारी यादों, तुम्हारी साँसों से बंधकर,
मैंने ये पूरी उम्र तन्हा गुज़ारी है....
मुझे नहीं चाहिए वापस हमारे प्यार के वो लम्हे,
हमारी उम्र के वो हिस्से,
वो पल….
उन्हें वहीं पर ठहरा रहने दो...
मैं जाना चाहती हूँ....
सोना, मुझे बेइंतेहा मोहब्बत है तुमसे लेकिन तुम्हारी हर निशानी यहीं इसी घर मे छोड़ कर,
बस तुम्हारी दो जोड़ी यादें भर लिए,
मैं अब यहाँ से जाना चाहती हूँ.....
5
5. तुम्हें याद है ना....
तुम्हें याद है ना,
पिछली बार जब एक तारा टूटा था,
और हमारे कुछ मांगने से पहले ही
मोतियों की प्लेट जैसे उस आसमान मे
ओझल हो गया था,
और कितना हँसे थे हम छत की मुँडेर पर बैठे,
मैंने गली के नुक्कड़ वाली शालू के नाम पर तुम्हें
कितना चिढ़ाया था....
तुम्हें याद है ना....
जब तुमने मुझे अपनी पहली कविता सुनाई थी,
आज कह रही हूँ तुमसे
मुझे एक भी शब्द समझ नहीं आया था,
मैं तो बस तुमको सुन रही थी अपनी आँखों से,
तुम्हारा प्यारा सा चेहरा,
जिस पर कविता के साथ अनगिनत भाव आ जा रहे थे,
मैं तो उन धडकनों को पढ़ रही थी,
जो मेरे मन मे सरगम बजा रही थीं,
तुम्हें याद है ना....
एक हलवाई था सड़क के उस पार,
जहां हमने मुफ्त की जलेबिया पच्चीसों बार खाई थीं,
फिर एक बार उसने बदले मे तुम्हारी साइकिल रखवा ली थी,
और तुम्हें मनाने को, तुम्हारे लाल लाल हो चुके
उस चेहरे का रंग बदलने को,
मैंने तुमको पाँच रुपये की खिलौने वाली कार दिलाई थी...
अब तो शायद याद भी ना हो तुम्हें ये सब,
बस आज जलेबियाँ खा रही हूँ, एक कविता पढ़ते पढ़ते,
अभी शालू आई थी कुछ देर पहले,
और बरसों के बाद आज फिर
एक टूटता तारा देखा है.....
6
6. कभी प्यार नहीं हो सकता.........
ये जो तप तप कर मेरी देह पर चढ़ रहा है,
ये बुखार नहीं हो सकता,
मुझे यकीन है मुझे तुमसे,
कभी प्यार नहीं हो सकता....
जब भी दिख जाओ कहीं तुम,
एक बंद पड़े कमरे मे सीलन लग जाती है,
अपने ही जिस्म से मुझे बदबू आती है
तुम्हें महसूस कर के,
जैसे मेरे भीतर किसी शौचालय मे,
एक साथ फैल गए हों
पेशाब और टट्टी, हजारों लोगो के,
एक काला सा सन्नाटा पसर जाता है,
जहां जलने लगती हूँ मैं तेज़ाब की गंध से,
एक आधे भरे शराब के गिलास मे,
तैरती, डूबती, एक मक्खी जैसा महसूस करती हूँ मैं,
और उस गिलास के शीशे
अंदर धँसते जाते हैं.....मेरी पसलियों, मेरी आँखों, मेरे गुर्दों मे,
लेकिन जानते हो??
ये गंध, ये सन्नाटे, ये जख्म,
आज बस मेरे लिए हैं.....
तुम अधजली एक सिगरेट रख दो मेरे पैरों के पास,
ओढ़ लूँ आज उसे मैं और दिखावा करूँ
गहरी नींद का उसके धुएँ से लिपटकर,
उड़ेल दो ये शराब मेरे तकिये पर,
और बहने दो इसका नशा आज
मेरे सपनों मे.....
आओ, मेरे घर के सब आईने तोड़ दो,
फिर एक शीशे के टुकड़े को डुबो कर अपने खून मे,
रच डालो एक महाकाव्य,
मेरे बदन पर....
ये कपड़े का चिथड़ा जो मुझसे लिपटा है,
रक्त और स्वेद से झीना होने लगे,
मैं उस पल मे जलने लगूँ, तड़पूँ, मरने लगूँ,
फिर अचानक उसी पल मे मुस्कुराऊँ,
मेरी देह अब तुम्हारे बदन को तपाने लगे,
तुम्हारे मन को जलाए, तुम्हारी रूह को झुलसा दे,
तब मैं बोलूँ तुमसे,
तुम्हारी साँसों से छूटकर, आँखों मे आँखें डाले,
मुझे सुलगा दे ऐसा कोई अंगार नहीं हो सकता,
मुझे यकीन है मुझे तुमसे
कभी प्यार नहीं हो सकता......
-मौलश्री कुलकर्णी