आज मनोहर श्याम जोशी को दुनिया से गए 10 साल हो गए.आज मुझे अचानक याद आया कि जावेद अख्तर ने अपनी किताब ‘तरकश’ जब उनको भेंट की थी तो उस पर लिखा था- ‘to the volcano of writing’.सच में वे लेखन के ज्वालामुखी थे. समय से बहुत आगे रहकर लिखने वाले. उनका उपन्यास ‘हमजाद’ अपने समय में शायद बहुत बोल्ड, और विकृत लगता था आज पढने पर सबसे सहज लगता है. उन्होंने ’21 वीं सदी’ जैसी किताब लिखी जो आज भी हिंदी में सूचना क्रांति और उसके प्रभावों को लेकर लिखी गई एकमात्र मौलिक किताब है. कई सालों से मैं उनकी लिखी किताब ‘आओ क्रिकेट सीखें’ ढूंढ रहा हूँ.
बहरहाल, उन्होंने हम जैसे लेखकों को यह सिखाया कि अपने लेखन के ऊपर विश्वास करके किस तरह हिंदी समाज में अपना मुकाम बनाया जा सकता है. संपादक, मशहूर धारावाहिक लेखक, सिनेमा लेखक होने के बावजूद वे मूलतः एक उपन्यासकार ही थे. उपन्यासों में भी उन्होंने हिंदी के बने-बनाए मानको को तोड़ने की कोशिश की. उस दौर में मूल्यहीनता को रचना के केंद्र में लाए जिस दौर में मूल्यों का जीवन-आचार में बहुत महत्व दिया जाता था. आज के मूल्यहीन, आदर्शहीन होते समाज में सबसे बड़े आदर्श के रूप में जोशी जी का साहित्य ही दिखाई देता है. यह आश्चर्य की बात है कि न तो तब आलोचकों ने उनके लेखन को ख़ास तरजीह दी, न ही आज, जबकि एक बड़ा पाठक वर्ग उनका तब भी था और उनकी मृत्यु के 10 सालों में यह पाठक वर्ग और बढ़ता गया है. सबसे बड़ी बात जो इन दस सालों में हुई है वह यह है कि उनके धारावाहिक लेखन, उनके संपादकी वाला व्यक्तित्व पार्श्व में जाता गया है और उनका उपन्यासकार वाला रूप मुखर होता गया है.
आज जब हिंदी में लेखकों की एक नई पौध सामने आ रही है जिसको अपने लेखन के बल पर पहचान मिल रही है, सम्मान मिल रहा है तो सबसे ज्यादा मनोहर श्याम जोशी जी की याद आती है. उनके जीवन की यह सबसे बड़ी कामना थी कि हिंदी में भी लेखकों की पहचान उनके लेखन के कद से हो न कि उसके सामाजिक पद से. लेखक अपने लेखन के बल पर अपनी आजीविका चला सके, अपने लेखन से समाज में उसकी पूछ हो. हालाँकि अभी मंजिल बहुत दूर दिखाई देती है मगर एक उम्मीद सी बनी है जो मनोहर श्याम जोशी के सपने की याद दिला देती है.
बात volcano of writing से शुरू हुई थी. वे रोज लिखते थे, नियमित लिखते थे, चाहे शाम को अपना सारा लिखा हुआ डस्टबिन में ही क्यों न डालना पड़ जाए. उनका टाइपिस्ट सुबह आ जाता था और दफ्तर की तरह शाम के पांच बजे तक लिखवाते रहते थे, बोलकर. शायद वाचिक परम्परा के वे अंतिम लेखक थे. जीते जी तो उन्होंने अपना साहित्य कम प्रकाशित करवाया लेकिन उनके मरने के बाद उनकी इतनी किताबें प्रकाशित हुई हैं जितनी उनके जीवन काल में नहीं हुई थी. अभी और भी हैं जो छप रही हैं.
उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा मैंने जीवन में यही अपनाई कि अपने लेखन पर सबसे अधिक भरोसा करो- उनके लिखे शानदार धारावाहिक ‘बुनियाद’ के मास्टर हवेलीराम की तरह, जो अपने लेखन से इन्कलाब लाना चाहता था. साहित्य समाज को बदल पाता है या नहीं लेखक के अपने जीवन को रूपांतरित करने की क्षमता जरूर रखता है.
उस महान लेखक की स्मृति को प्रणाम!