श्रीकांत वर्मा की कविता पुस्तक 'मगध'पर यह लेख आशुतोष भारद्वाजने लिखा है. आजकल कविता का इतना सूक्ष्म विश्लेषण विरल होता जा रहा है. लेकिन ख़ुशी होती है कि समकालीन लेखकों में भी इस तरह का धैर्य और तैयारी दिखाई देती है- मॉडरेटर
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जब हम किसी चीज को देखते हैं तो वह भी हमें देखती है. इस दुतरफा देखे जाने से ही दृश्य निर्मित होता है, जिसके संघटक द्रष्टा और दृष्टव्य दोनों होते हैं. इसी तरह जब हम किसी कविता का पाठ करते हैं, तो कविता भी हमारा पाठ करती है, हमें पढ़ती-टटोलती है. वह इस पाठ की महज दर्शक नहीं, सहभागी है. वह हमारे द्वारा खुद को पढ़े जाते हुए देखती है, हमारे बोध और संवेदना की उँगलियां अपनी काया पर उतरते महसूस करती है. हमारे स्पर्श से उसके रंग परिवर्तित व परावर्तित होते हैं, हमें आलोकित करते हैं.
दर्शन की भाषा में कहें तो जब ज्ञाता ज्ञेय के संपर्क में आता है, तब ज्ञाता में ज्ञान का गुण उत्पन्न होता है, यह ज्ञान ज्ञेय को आलोकित करता है. लेकिन यदि ज्ञेय असम्यक/अस्थिर है, तो ज्ञान भी स्थिर नहीं होगा. अगर मगध ज्ञेय है, पाठक ज्ञाता तो इनके संपर्क से उपजने वाले बोध की प्रकृति एवं प्रवृत्ति कैसी होगी?
उज्जयिनी जाने को इच्छुक यात्रियों से निवेदन है:/यह रास्ता उज्जयिनी को नहीं जाता/और यह कि यही रास्ता उज्जयिनी को जाता है/ मैं कल तक रास्ता दिखा रहा था/यह कहकर कि/ सावधान! यह रास्ता उज्जयिनी को जाता है/ मैं आज भी रास्ता दिखा रहा हूँ/यह कहकर कि/ सावधान! यह रास्ता उज्जयिनी को नहीं जाता
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जिन्हें उज्जयिनी जाना है, कहाँ जाएँ/ वे उज्जयिनी जाएँ/ और कहें/ यह उज्जयिनी नहीं/ क्योंकि हम/ उन रास्तों से नहीं आये/जो उज्जयिनी जाते हैं/ या उज्जयिनी नहीं जाते.
एक ही रास्ते को उज्जयिनी और उसके विलोम दोनों का रास्ता बतलाने वाली यह कविता किस तरह हमारे बोध को स्पर्श करती है? यह आख्यायक कौन है, और पृथ्वी पर इसकी अवस्थिति कहाँ है? अभी हमने कहा कि अगर पाठक कविता को देखता है, तो कविता भी पाठक को दृश्य करती है. यह कविता और इसका आख्यायक किस जगह से हमें देख रहे हैं? क्या हम इसे देख पा रहे हैं? क्योंकि हम शायद ऐसे किसी रास्ते को नहीं जानते, जो किसी गन्तव्य और उसके विलोम दोनों को ही एक साथ जाता हो, और नहीं भी जाता हो।
पाठक को मगध की धरती भयानक रूप से अस्थिर दिखलाई देती है. इसकी बुनियाद सिर्फ डगमगाती ही नहीं, खुद अपने को ही ध्वस्त करती चलती है. ऊपर रखी गयी ईंट नीचे वाली को चकनाचूर कर नयी नींव बनाती है. पहली नजर में यह कवि का खेल भी प्रतीत हो सकता है, कि मगध सिर्फ शब्द-कौतुक, मकड़-जाल है. उज्जयिनी जाने वाला और उज्जयिनी नहीं जाने वाला रास्ता शायद उसी तरह से एक समान है जिस तरह कोई सीढ़ी ऊपर से नीचे जाती है, और नीचे से भी ऊपर भी, और इस तरह उसमें कोई अंतर्विरोध या अंतर्विरोधाभास नहीं होता, न ही वह अपने को खंडित करती या नकारती है.
इस दृष्टि से मगध कोरे कौतुक में भी निगमित हो सकती है. लेकिन नहीं. क्योंकि मगध जिस स्वरुप में जिन अनेक प्रश्नों को पाठक के सामने ले आती है, उनमें से दो दर्शन के बुनियादी प्रश्न है. पहला कि इन कविताओं में ज्ञान किस तरह हम तक संप्रेषित होता है, एवं उसका स्वरुप क्या है? दूसरा जिस तत्व के ज्ञान की ओर यह कविता ले जाती है उसका स्वरुप क्या है?
मगध दर्शन के इन दोनों प्रश्नों का भाषा से अन्वेषण करती है, मिथक से उन्हें आलोकित करती है. वह ऐसी भाषा का संधान करती है जिसका विलोम उससे अभिन्न है, साथ ही वह अपनी अस्थिर काव्य-धरती मृत्यु-कामना की आंच में सुलगते मिथक से निर्मित करती है.
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मगध प्रचलित अर्थ में अम्बिगुअस या अनेकार्थी नहीं है. यहाँ अर्थ एक ही है, सिर्फ अनेक रूपों में खुद को उद्घाटित करता है. जो कन्नौज के विषय में कुछ नहीं जानते, वे भी कन्नौज जाते हैं, जो कन्नौज के विषय में सब कुछ जानते हैं, वे भी कन्नौज जाते हैं. जिन्हें प्रेम है कन्नौज से, वे भी कन्नौज जाते हैं, जिन्हें द्वेष है कन्नौज से, वे भी कन्नौज जाते हैं.
कन्नौज या उज्जयिनी सिर्फ कौतुक भरे वाक्य-प्रयोग नहीं हैं. यह कविता की काया में माया का संधान है. प्रपंच का गल्प है.
माया, जो न सत है, न असत. जिसका अस्तित्व उसके अनास्तित्व जितना ही सत्य है. दर्शन में कहा जाता है कि माया ब्रह्म से अभिन्न, अपृथक है, अनन्या है. यह ब्रह्म पर आश्रित है, ब्रह्म ही इसका विषय है. उसी तरह उज्जयिनी जाने या न जाने के दो रास्ते एकदूसरे से अपृथक, अनन्य हैं. पहला रास्ता अपने अस्तित्व और अनास्तित्व दोनों के लिए दूसरे पर आश्रित है. उज्जयिनी जाने वाला रास्ता उज्जयिनी न जाने वाले रास्ते का अनिवार्य विषय है, पूरक भी है, और विलोम व शत्रु भी है.
जो कविता खुद अपना विषय भी हो, पूरक, विलोम और शत्रु भी, वह न सिर्फ आत्म-रत है, बल्कि आत्म-हन्ता भी. वह कविता अपने को जन्म देगी, खुद अपनी ही काया से सम्भोग करेगी, अपनी ही लपट में भस्म हो जाएगी, फिर अपनी ही राख से पुनर्जीवित होगी. इस मायालोक को उपलब्ध करने के लिए यह अपना विशिष्ट व्याकरण रचती है जिसमें मथुरा के न रहने पर मथुरा विलापती है --- मथुरा, मथुरा. इस व्याकरण को उलटबांसी या इस जैसे अन्य युग्मों अथवा युक्तियों से नहीं चिन्हित किया जा सकता.
दर्शन की शब्दावली में कहें तो मगध परतः प्रमान्य नहीं, स्वत प्रमान्य है. भले ही मगध अपनी परंपरा से एक गहन संवाद में रत है, उनके चिन्ह इसकी काया पर सुलगते हैं, लेकिन उन सभी पुलों को जला कर राख कर आई है जिन पर चल यह कवि की नोटबुक पर अवतरित हुई है.
लेकिन चूँकि मगध दर्शन की पोथी नहीं है, अपनी रूह में प्रपंच का गल्प है, तो इसका गल्पकार, आख्यायक कौन है? उज्जयिनी के रास्ते को बतलाने वाला उद्घोषक कौन है? यह कौन आख्यायक है जिससे अगर पूछा जाये कि क्या इससे कुछ फर्क पड़ेगा अगर मैं कहूँ कि मैं मगध का नहीं, अवन्ती का हूँ, तो वह तपाक से जवाब देता है --- मगध के माने नहीं जाओगे, अवन्ती में पहचाने नहीं जाओगे.
ऊपरी तौर पर यह भले लगे कि यह आख्यायक एक ध्वस्त हुई सभ्यता का अंतिम पुरुष है जो ढहते राज और राजनीति के प्रतीक, अवन्ती, उज्जयिनी और कौशाम्बी के विनाश की दुखद कथा कह रहा है. पिकासो की गुएर्निका और तैयब मेहता की त्रिपिटक के बिम्ब भी मगध के शब्दों के बीच उमड़ते हैं. लेकिन मगध विलाप या हाहाकार नहीं है. अगर यह कोरा शोकगीत होता तो मगध इतनी बड़ी कविता न होती. आख्यायक गिरती लाशों और ढहते खंडहरों का साक्षी है, उनकी कथा सुना रहा है. लेकिन उसकी वक्रोक्ति और चुप अट्टाहास भय और विभीषिका को कामना व वासना में परिवर्तित और परावर्तित कर देती है.
इस तरह मगध मृत्यु के मुहाने से झांकते इस आख्यायक का छलावे भरा बुलावा है. सम्मोहक पुकार जो कहती है कि मृत्यु फरेब, छल, प्रेम और पराजय जैसे न मालूम कितने रंगों में अपने को उद्घाटित करती है. मृत्यु सिर्फ एक रास्ते से नहीं आती. अगर फरेब विनाश का द्वार खोलता है, तो सौंदर्य भी विध्वंस को उकसाता है. बुद्धकालीन गणिका के ठनकते हुए स्तन हों या विचारों की कमी महसूस करता कोसल, मृत्यु सबसे बड़ा, शायद अंतिम सम्मोहन है, सबको अपनी तरफ खींचती है. यह जानते हुए भी कि इस रास्ते पर सिर्फ विनाश होगा, मनुष्य उसकी तरफ खिंचता चला जाता है,नोट्स फ्रॉम द अंडरग्राउंड पर लिखते हुये जिसे ओरहान पामुक ने जॉय्ज अव डिग्रेडेशन कहा है.
राज्य और राजनीति को भले ही विध्वंस से भय हो, उनकी सारी हरकतें विनाश से बचने के लिए केन्द्रित हों, कला और प्रेम को विनाश या विध्वंस की परवाह नहीं. कला और प्रेम उस व्योम में निवास करते हैं जहाँ मनुष्य अपनी कामनाओं और वासनाओं में भस्म हो चुकने के बाद अपनी ही राख से अपनी रूह का श्रृंगार करता है.
साहित्य में कई ऐसे भस्माकुल किरदार मिलेंगे, जो स्वेच्छा से उस नियति को चुनते हैं जो विध्वंस की राह पर जाती है. क्या हस्तिनापुर की रक्षा का प्रण लिए महारथी भीष्म को नहीं मालूम रहा होगा कि जिस राज्य के लिए उन्होंने जीवन कुर्बान किया, वह आखिर उनकी उसी क़ुरबानी की गिरफ्त में फंस नष्ट हो जायेगा? और खुद भीष्म? अनुशाषन की मशाल लिये जीते इस नायक की प्रतिज्ञा का अंत बाणों की सेज पर ही होना था. क्या द्रोण को नहीं पूर्वामान रहा होगा कि जिन धनुर्धारियों के धनुर्कौशल की रक्षा के लिये वह किसी निर्दोष का अंगूठा छीन रहे हैं, वे महारथी इसी धनुष की प्रत्यंचा पर अपने ही कुल को नष्ट करने का बाण तान देंगे? महाभारत का संग्राम गुरु द्रोण की अपने शिष्यों के प्रति वासना का अनिवार्य प्रतिफल ही तो है। जिस क्षण कुरू वंश ने एक अदम्य प्रतिभाशाली बालक से उसका धनुष छीन लिया था, उस राजकुल ने उसी क्षण अपनी नियति इसी धनुष के बाणों से लिख दी थी।
मगध बतलाती है कि विनाश अवश्यम्भावी है, मनुष्य अनिवार्यतः विनाशगामी है. भले ही अपने प्रण पर कुर्बान हुए भीष्म हों या मगध के सेनानायक, कुछ जीवाणु मनुष्य के भीतर चुपचाप सोये रहते हैं, जिनसे वह खुद को बेखबर रखे आता है, जो धीरे धीरे उसे कुतरते, अंततः उसे ध्वस्त करते हैं.
लेकिन मगध विनाश की शोक गाथा नहीं, विनाश की अदम्य वासना है. मगध मानव सभ्यता के किसी सुदूर या सुनहरे अतीत के प्रति नास्टैल्जिया से ग्रस्त नहीं है. इसे मालूम है कि मनुष्य का उस दिन ही विध्वंस तय हो गया था जब उसने ईश्वर का घर त्याग दिया था, कामना की राह पर चल पड़ा था. कामना और शून्य के दरमियाँ मगध कामना को चुनती है.
इसीलिए मगध मृत्यु की असंभव चाहना की गिरफ्त में है. यह बतलाना चाहती है कि कामना की अनिवार्य परिणति मृत्यु ही है. रास्ता भले उज्जयिनी का हो, अवन्ती या कौशाम्बी का, हरेक रास्ता विध्वंस का ही मार्ग है. लेकिन यह कोरी, ठंडी मौत नहीं, प्रेम और कामना से सिक्त मृत्यु है. वसंतसेना, आम्रपाली और गणिका का अंत उनकी हसरत का ही परिणाम है.
चाहता तो बच सकता था, मगर कैसे बच सकता था, जो रचेगा, कैसे बचेगा.
यह न तो शहादत है, न उत्सर्ग, न आत्मपीडन, न सजा. यह अर्जित अंत है. प्रेम की उपलब्धि है.
कवि के जीवनीकार के लिये शायद यह तथ्य उल्लेखनीय हो सकता है कि इस अंत को अर्जित करती मगध की अधिकांश कवितायेँ कवि के अंतिम वर्षों में लिखी गयी हैं.
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मगध इस विध्वंस को मिथक की धरती पर हासिल करती है. मिथक पृथ्वी के गर्भ में सोया एक बीज है जो अपने पुनर्जन्म के लिए प्रतीक्षारत है. चूँकि किसी मिथक के पहले जन्म को चिन्हित कर पाना कि यह पहली मर्तबा कब अवतरित हुआ लगभग असंभव है, मिथक का सदा पुनर्जन्म ही होता है. यह हर उस क्षण नया जन्म लेता है जब कोई इस बीज की किसी स्वरुप में प्राण प्रतिष्ठा करता है. अवन्ती, हस्तिनापुर, कौशाम्बी और उज्जयिनी सरीखे मगध के मिथक हमारी सामूहिक चेतना और स्मृति में अंकित हैं. लेकिन यह संज्ञाएँ किसी भीषण विस्फोट की तरह मगध की सतह पर फूटती हैं, अपने नये अर्थ हासिल करती हैं। मगध के पृष्ठों पर उज्जयिनि और कौशाम्बी का मिथक वहीं नहीं जैसा हम अब तक जानते आये थे। मगध इन मिथकों को मृत्यु की आकांक्षा से आवेशित करती है. मगध की काशी सनातन ज्ञान की नगरी नहीं है, यह गंगा के किनारे सिमटे ब्रह्मा के दशाश्वमेध की विराट गाथा नहीं है। इस काशी में जिस रास्ते जाता है शव, उसी रास्ते आता है शव. इस कविता का डोम शवों के अम्बार को देख हताश मणिकर्णिका को दिलासा देता है कि दुःख तुम्हे शोभा नहीं देता मणिकर्णिका, ऐसे भी शमसान हैं, जहाँ एक भी शव नहीं आता, आता भी है, तो गंगा में नहलाया नहीं जाता.
यह किस किस्म का दिलासा है, जो मणिकर्णिका को शवों के पहाड़ पर गर्वित होने को कह रहा है. क्या इस दिलासे में भी कहीं छलावा छुपा है? छल, जो मगध का एक प्रमुख गुण है. क्या डोम मणिकर्णिका के साथ भी छल कर रहा है?
मगध का आख्यायक इतालो कैल्विनो की इनविजिबल सिटीज के नायक मार्को पोलो की तरह है जो कुबलाई खान को प्रतापी बादशाह और उनके राज्य की कहानियां सुनाता है, जो उपरी तौर पर शौर्य गाथा प्रतीत होती हैं लेकिन अंततः उन राजाओं की पतन गाथा हैं. महाभारत का संजय जो धृतराष्ट्र को प्रतिपल घटित होते पतन की जीवंत गाथा सुनाने आया है। पतन जो इतना बारीक है, इतने धीमे से आता है कि महल की बुर्जियों पर लगी दीमक और शहतीरों पर मंडराते चमगादड़ को भी आहट नहीं होती.
ऊपर हमने पूछा था कि मगध किस तरह हमें देखती है. मगध कुछ इस तरह हमें अपनी निगाह में बांधती है कि जो जीवित है उसे अपनी साँसों पर शुबहा और मृत होने का गुमान होने लगता है, और जो मृत है वह अपनी आकाँक्षाओं की राख को टटोलने लगता है. यह वह काव्य-भूमि है जहाँ जब जीवित प्रश्नाकुल नहीं होते तो मुर्दे हस्तक्षेप करते हैं, जहाँ प्रत्येक जीवित इंसान अगले ही क्षण मृतक मान लिये जाने की मंडराती संभावना के साथ जीता है क्योंकि मगध उसे आश्वस्त करती है कि जिसका रोहिताश्व/मारा गया हो/ शायद कोई उसे विश्वास नहीं दिला सकता कि तुम/रोहिताश्व नहीं हो.
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मगध आसन्न मृत्यु का आलाप है, तो एक मायावी प्रेम की पुकार भी है. एक ऐसा प्रेम जो अबोध-अदृश्य है, सिर्फ किसी तिलिस्म के संकेत-रूपक सी उसकी छाया शब्दों के बीच कौंधती-फिसलती है.
कला शायद प्रेम का अंतिम स्वप्न है. प्रेम शायद कला का आखिरी ख्वाब है. कला के पास मनुष्य मृत्यु से उबरने जाता है, तो मृत्यु में डूब जाने को भी. उसी तरह प्रेम मनुष्य को मृत्यु से परे ले जाता है, तो मनुष्य को अपनी लपट में स्वाहा भी करता है. मगध इसी अंतिम प्रेम की कविता है. प्रेम और मृत्यु को एक साथ अपने में समाहित करती है, लेकिन आगाह भी कर देती है कि मुक्ति शायद न प्रेम में है न मृत्यु में. क्योंकि यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता कि मैं घर आ पहुंचा. सवाल यह है इसके बाद कहाँ जाना है