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मैं भारतीय हूँ, और मैं रेफूजी नहीं

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दिल्ली के इरविन हॉस्पिटल से पढाई करने के बाद प्रवीण कुमार झाअमेरिका में चिकित्सक बने. आजकल नॉर्वे में हैं. वहीं से उन्होंने एक मार्मिक पत्र भेजा है. आप सब भी पढ़ें- मॉडरेटर 
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बड़ा अजीब देश है। जिसे देखो कान में हेडफोन लगाये कहीँ भाग रहा है? किस से भाग रहा है? और भाग कर जाएगा कहाँ? खेलने का शौक मुझे भी है। फुटबॉल। पर १५ मिनट में हाँफ जाता हूँ. स्ट्राइकर से डिफेंडर और फिर गोलकीपर बन चैन की सांस लेता हूँ। अब तो सिगरेट भी नहीं पीता, पर भागा नहीं जाता। और भाग कर होगा भी क्या? लड़की पटाने की उमर निकल गई, और भागने वालों से कौन सी पट गई?

दोस्त ने कहा, "बेटा ये नॉर्वे है. यहाँ खेलना तो पड़ेगा। ये लाइफलाइन है विदेश की। कोई चंदू सेठ की चाय टपड़ी यहाँ न मिलेगी कि घंटों बतियाते रहो"

"हैं कितने हम? आधे तो निकाले गए नौकरियों से. देश में धक्के खा रहे हैं"

"हम चार हो गए, और बाकी रेफूजी"

"हाँ, रेफूजी तो हैं ही बेकार'एनीटाइम रेडी'. साले ये बस सीरिया पे बम क्यूँ गिराते हैं? भारत पे गिरायें तो पूरा गाँव उठा लाऊँ और यूरोप में पटक दूँ"

जैसे ही हम मैदान पहुँचे, गेंद लेकर दौड़ने लगे, एक-एक कर रेफूजी की फौज आ गई। कोई सोमाली हब्शी तो कोई अरबी चिकना। हड्डियाँ बाहर लेकिन गजब की स्फूर्ति। गेंद लेकर ऐसे भागते जैसे जीतने वाले को आज भरपेट भोजन मिलेगा। हमने तो मेडिकल-इंजीनियरींग की दौड़ में सेहत का कबाड़ा कर लिया। इनके देश के'डार्क फ्यूचर'ने इनकी जिंदगी संवार दी। खूब फुटबॉल खेलते हैं और फोकट का खाते हैं।

अब कल ही की बात है। कोई बीमारी नहीं और खामख्वाह समय बरबाद करने आ गया अस्पताल में सीरिया वाला।

अंग्रेजी-नॉर्स्क कुछ न समझे। बस मरीजों की तरह सामने लेट गया। एक भद्र नौर्स्क महिला पीछे से आई जिन्होनें कुछ अरबी भाषा कोर्स कर उसका जिम्मा लिया था।'एडोप्ट'किया था। इस ३५ बरस की महिला का वो अधेड़ दत्तक पुत्र था। वो बस एक का जिम्मा लेने में सक्षम थी। रेफूजी की पत्नी यहाँ से २०० मील दूर दूसरे कस्बे में और बच्चे कुछ ५०० मील पश्चिमी नॉर्वे के'फोस्टर होम'में हैं। सब अलग-अलग परिवारों के दत्तक पुत्र-पुत्रियाँ हैं। अब कोई धन्ना सेठ मिले तो सबको एक साथ ला पाए। मंदी का समय है। आशा न के बराबर।

बाकियों ने बताया, ये मरीज हर रोज अलग-अलग विभागों में जाता है। कभी पीठ का दर्द, कभी बवासीर, कभी दिमागी बीमारी का बहाना करता है।दरअसल ये हस्पताल उसका पूरा दिन निकाल देती है। स्वास्थ्य मुफ्त है। कभी रक्त जाँच की पंक्ति में, कभी एक्स-रे, कभी एम.आर.आई.। ये भी हो सकता है, वो महिला इसे यहाँ छोड़ काम पर जाती हो। घर पर छोड़ना भी तो खतरे से खाली नहीं। नेकी कर, दरिया में डाल। गजब विरोधाभास है। है न?

शीत के बर्फीले समय में एक दिन हस्पताल से धमाका सुना। दिल दहल गया।

और दो शरणार्थियों को शरण!! सब आतंकवादी हैं ये।

बाहर जाकर देखा तो एक घर से पानी का फव्वारा बह रहा था। कुछ सोमाली लड़के थे। सरकार के पैसे खा गए। बिजली बिल भरा नहीं। बर्फ में ठंड से ठिठुरते बाहर खड़े थे। पानी की पाइपों में बर्फ जम जाने से सारे पाइप विस्फोट कर चुके थे। हद है! मैनें दो-चार गालियाँ दी तो यूरोपी साथी नाराज हो गए। जैसे सबको बचपन से समाजवाद फ्लेवर की आईसक्रीम खिलाई गई हो। एल.टी.टी.. के भगोड़े हों, या अफगानी-इराकी। सबको शरण दी नॉर्वे ने। कहते हैं प्रभाकरन को तो ओस्लो में कोठी दे रखी थी। ये देश नहीं शांति का ठेका है. तभी तो नोबेल बँटता है यहाँ।

भारतवर्ष को देखो। सदियों से शांतिदूत रहा है। गांधी का देश। पर गुनाहगारों को रातों-रात फांसी पर लटका दे। और वो भी बिना बिरयानी खिलाए। अजी क्यूँ खिलायें बिरयानी इन रक्तरंजकों को? बड़े आये अाखिरी इच्छा वाले? पता भी है तब क्या भाव था प्याज का? आखिरी इच्छा फिल्मी रस्म है असल नहीं।

नॉर्वे को पता नहीं कब अकल आयेगी? विश्व के सबसे बड़े सामूहिक हत्यारों में है एंड्र्यू ब्रेविक। उसके कारावास में लैपटॉप-टी.वी. सब व्यवस्था है। कुछ रोक-टोक की थी तो उसने मानवाधिकार का मुकदमा ठोक दिया और जीत भी गया। समझ नहीं आता राम-राज्य है या रावण-राज्य। अब लंका वालों को शरण दें तो मामला साफ ही है।

जब कुछ समय गुजरा तो लगा, देश शातिर है। गूगल कर लो। विश्व का सबसे समृद्ध देश है ये। अरब की तेल-टंकियों के लिये इतनी लड़ाईयाँ हुई, और नॉर्वे चुपचाप तेल बेचकर राजा बनता रहा। आज'ब्रेक्जिट'की चर्चा हो रही है। यूरोप का सबसे समृद्ध देश और विश्व का सबसे शांतिप्रिय देश कभी यूनियन में रहा ही नहीं। ताज्जुब नहीं होता? दरअसल कई चीजें समझनी आसान नहीं।

इन रेफूजीयों को एक अलग पासपोर्ट मिलता है। रेफूजी पासपोर्ट. चूँकि उनके देश में उनकी जान पर खतरा है, वो वहाँ कभी नहीं जा सकते। और मसलन बाकी देशों के वो रेफूजी नहीं, वो कहीं और भी नहीं जा सकते। क्या समझे? वो अब जीवन भर नॉर्वे से बाहर नहीं निकल सकते। भला ५० लाख जनसंख्या वाला देश इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था संभालेगा कैसे? चलिये संभाल तो लेगा, पर घर का झाड़ू-पोछा कौन करेगा?

विश्व के हर हवाई-अड्डे शीतकाल में विमान समय पर उतार नहीं पाते। चाहे पेरिस हो, दिल्ली या, न्यूयॉर्क. हर जगह'delayed'। आप समय पर पहुँचना भूल जाते हैं। पर विश्व के सबसे ठंडे प्रदेशों में एक ओस्लो का हवाईअड्डा कभी प्रभावित नहीं होता। बर्फ की मोटी परतें मिनटों में साफ. ये जादू करता कौन है?

रेफूजी!!

मेरे नॉरवेजियन मित्र हैं, दो अल्बानिया के नौकर पाल रखे हैं। मुझे लकड़ियाँ काट कर पहुँचा देते हैं। कसम से गाँव के बिल्टू की याद आ जाती है। ये सामंतवादी समाजवाद का मॉडल बिल्कुल हिट है। मुझे पता है मेरा ये नजरिया गलत है। बिल्टू कभी मेरी खटिया पर बैठने की हिम्मत नहीं करता। ये मजदूर तो जीन्स-जैकेट में होते हैं और साथ बैठ व्हीस्की भी पीते हैं। तो समाजवाद हुआ या नहीं? बताइए?

बिहार की उस लड़की को नकल करने के जुर्म में ब्रेविक से बेहतर सजा मिली या बुरी? उसका भी मानवाधिकार है क्या? और वो तो बिरयानी भी नहीं मांग रही? आप कितनों को जानते हैं जो नकल कर नंबर लाए? आपने छोटी-मोटी नकल नहीं करी या कभी कर नहीं पाए? या फिर पैसे नहीं थे की पर्चा खरीद सकें? या थे, लेकिन ऐन वक्त पर आपका ज़मीर आ गया? जेल वो नॉर्वे में कभी नहीं जा पाती, क्यूँकि यहाँ वैसी परिक्षाएँ ही नहीं होती। कोई टॉपर ही नहीं होता, और अगर होता भी है तो कोई जानता नहीं। और जानता भी तो भाव नहीं देता। डॉक्टर से ज्यादा बढ़ई, और उस से भी ज्यादा नाई कमाता है। पिरामिड उल्टा कर दो, सब अपना रस्ता चुन लेंगें।

खैर, शाम हुई। सब थके-मांदे बार पहुँचे। यहाँ सूर्य भी तो रात के १२ बजे तक बिल्कुल सर पर संवार होते हैं। अर्धरात्रि का सूर्य। शाम भी बनावटी बार के अंधेरे से होती है। जब मित्र को थोड़ी चढ़ी, सामने खड़े यूरोपी को देख मुस्कुराया। उसने भी शराब का गिलास उठा कर अभिवादन किया तो मित्र भड़क गया। जोर-जोर से चिल्लाने लगा।

"मैं भारतीय हूँ, और मैं रेफूजी नहीं। मुझे ऐसे मत घूरो। मैं रेफूजी नहीं।"


कभी-कभी लगता है सबको'इमेज'की पड़ी है बस। वो क्या हैं और क्या नहीं?

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