आजकल कवियों के लिए अभिव्यक्ति के इतने माध्यम हो गए हैं कि मेरे अनेक प्रिय कवि संयम खोकर रोज की वर्जिश की तरह कविता लिख रहे हैं और हास्यास्पद होते जा रहे हैं. ऐसे में सुधांशु फिरदौसका संयम प्रभावित करता है. संयम शब्दों को बरतने का उसका ढंग, मीर की शायरी में उसकी आस्था इस गणितज्ञ को अपनी पीढ़ी का सबसे यूनीक कवि बनाती है और मेरे सबसे प्रिय कवियों में एक. कई बार मुझे उसमें आलोक धन्वा सी ऊंचाई दिखाई देती है. बहरहाल, मैं अतिकथन के लिए बदनाम हूँ इसलिए अब ज्यादा कुछ कहे उसकी कविताएं पढने के लिए आमंत्रित करता हूँ- प्रभात रंजन
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अगस्त की शामें
सूखी-सूखी ही बीती जा रही है इस बार बरसात
जगह बदलने के लिए तरस गई हैं चींटियां
गुमसुम-गुमसुम रीती जा रही हैं शामें
रोज इकहरी-सी बीती जा रही हैं शामें
पेड़ों से अटकी टूटी बदरंग पतंग गोया मन में अटकीं स्मृतियां
उनका हौसला उन्हें रुला तो सकता है
उड़ा नहीं सकता
उनकी उड़ानों के इतिहास के बोझ से दबी बोझिल शामें
शराब के ठेके के बाहर लगी लंबी कतारों से दूर तन्हा
पूरे दिन की मेहनत के बाद पार्क में कुत्तों-सी हांफतीं
जुकाम से बंद नाक
और किसी के नकार से भरीं निश्छल आंखों में डबडबाईं शामें
मेरे सिर से गिरते बालों
और तुम्हारे चेहरे पर पड़ती झुर्रियों का मर्सिया गातीं
दिनों की मसरूफियत और रातों की बेफिक्री के बीच
गमे-जहां का हिसाब हैं ये शामें
*
जनराग
गेहूं की हरी-हरी बालियों का विस्तार
सूअर को बांस से लटकाए तेजी से जा रहे हैं दो जन
उनके पीछे-पीछे शरारती बच्चों का हुजूम सूअर को बार-बार कोंच
सुन रहा है उसका घिघियाना
बच्चों के लिए उनके अन्य खेलों की तरह सूअर को कोंचना भी महज एक खेल है
खुश हैं तमाशबीन बूढ़े क्यूंकि उनके मन में बैठा है कि
सूअर जितना घिघियाएगा उतनी ही खुश होंगी ग्राम्य-देवी
बलि में देर हो रही है इसलिए बहुत जल्दी में हैं दोनों जन
उन्हें न बच्चों का शोर अच्छा लग रहा है
न सूअर का घिघियाना और न ही बूढ़ों का मंद-मंद मुस्काना
सारी श्रद्धा और उपासना के बीच
उन्हें बस याद आ रहा है ताड़ के पेड़ से लटकता फेनिल कटिया
और आग की लपटों के बीच
कड़ाही में सूअर के गोश्त को भूना जाना
विस्मृति
जब तक चिता जलती रही
नदी की गीली रेत को ढूहनुमा शक्ल दे
बनाई हमने कुछ अजीबो-गरीब मूर्तियां
फिर छोड़ आए वहीं रेत पर अपने दो-तीन घंटों की मेहनत
रात को वे आधी-अधूरी मूर्तियां सपने में आईं
और देखते ही देखते उनकी शक्लें मरे हुए लोगों के जैसी हो गईं
अगली सुबह जब हम चिता की राख साफ कर
तुलसी का बिरवा रोपने गए
वे मूर्तियां रेत में मिस्मार हो गई थीं
जैसे मेरी स्मृति में
मरे हुए लोगों के चेहरे
बिल्लियां
कातिल हैं दिल्ली की सर्दियां
और कुछ ज्यादा ही गोश्तखोर हैं यहां की बिल्लियां
मासूम, डरी-सहमीं
हमारे आस-पास उछलती-कूदती बिल्कुल घरेलू बिल्लियां
चूहे क्या पंजों के नीचे कबूतर तक को दबा जाती हैं
एक विरोधाभास है इनके बूदो-बास में
एक वहशत छुपी है इनकी आंखों में
नाहक दूध पिलाने वाले हलकान हुए जाते हैं
धूप के साथ इस छत से उस छत गर्माहट के लिए छलांग मारतीं
छत की नहीं धूप की वफादार हैं ये बिल्लियां
*
लिखना चाहता हूं
लिखना चाहता हूं ऐसी कविता जिसमें हो उसके हाथों की गर्माहट
उसकी छातियों का उभार
उसका गुस्सा
उसके अबोले की तान
खींच ले बिना बोले ही अपनी ओर
जैसे खींच लेती है वह मुझे अपनी ओर
सोख ले सबके दु:खों को
जैसे सोख लेती है वह मेरे दु:खों को
लिखना चाहता हूं ऐसी कविता जिसमें हो अमिया की खटास
लीची की मिठास
अषाढ़ की दोपहर में खेत को लोहियाते हलवाहे की प्यास
जिंदगी की जद्दोजहद में भागते आदमी को मिले कविता
जैसे दिन भर बाजार में भटकने के बाद
शाम को किसी को मिल जाए एक प्लेट चाट
लिखना चाहता हूं ऐसी कविता जिसे अपनी सहजता के साथ
कोई भी कहीं भी पा ले
जैसे तरबूज के खेतों में काम करने वाले मजदूर
खा लेते हैं गमछे में सान के सत्तू
पी लेते हैं ताड़ी नहीं कुछ तो नमक और मिर्च के साथ
सर्दी के दिनों में रेल के सामान्य डिब्बे में सफर करते हुए
जैसे चिपक कर बैठे होते हैं लोग अपने-अपने आकाश में खोए हुए
वैसे ही कविता में आए मेरे अनुभव एक दूसरे से चिपके हुए
अपने अलग-अलग आकाश को खोलते हुए
*