26 जुलाई को इब्ने सफीका का जन्मदिन और पुण्यतिथि दोनों है. वे जासूसी उपन्यास धारा के प्रेमचंद थे. हिंदी-उर्दू में उन्होंने लोकप्रिय साहित्य की इस धारा को मौलिक पहचान दी. आज उनको याद करते हुए 'दैनिक हिंदुस्तान'में लईक रिज़वीका स्मरण-आलेख प्रकाशित हुआ है- मॉडरेटर
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इब्ने सफी ने कुल 52साल की उम्र पाई, लेकिन ढाई सौ से ज्यादा जासूसी उपन्यास लिख कर वे भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे लोकप्रिय जासूसी उपन्यासकार बन गए। उर्दू और हिंदी पाठकों की कई पीढ़ियों की यादों का वे हिस्सा बने हुए हैं। 26जुलाई को उनका जन्मदिन और पुण्यतिथि दोनों हैं। यहां उन्हें याद कर रहे हैं लईक रिजवी- दैनिक हिन्दुस्तान
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जुलाई 1980की ढलती हुई शाम थी। किसी जरूरी काम से साइकिल दौड़ाए मैं कहीं जा रहा था कि नूरउल्लाह रोड स्थित जासूसी दुनिया के प्रकाशक अब्बास हुसैनी के बंगले में गैरमामूली हलचल ने कदम रोक लिए। अंदर-बाहर बहुत से लोग जमा थे। मैं भी बरबस खिंचा चला गया। पता चला इब्ने सफी नहीं रहे। इब्ने सफी। महान जासूसी उपन्यासकार। अपने चहते रचनाकार की अचानक मौत की खबर ने लोगों को बेचैन कर दिया था। शहर भर में हर गली-नुक्कड़ पर छोटी-बड़ी टोलियों में हर जगह बस इब्ने सफी की मौत की बातें थीं। सबके लिए ये अपना गम था।
उन दिनों मैं सीएवी कॉलेज में 11वीं में पढ़ता था। इब्ने सफी के नाम से परिचित था, लेकिन उन्हें पढ़ा तब तक न था। उस शाम इब्ने सफी के लिए दिखे जबरदस्त क्रेज ने मुझे भी उनका दीवाना बना दिया। उन दिनों ‘आना’ लाइब्रेरियों में इब्ने सफी के नावल किराए पर मिलते थे। पच्चीस पैसे में शायद दो दिन के लिए। पर मुझे तो कभी भी दो दिन नहीं लगे। कहानी कहने का जादुई अंदाज, बला का थ्रिल और सस्पेंस नावल को बीच में छोड़ने ही नहीं देता।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे इब्ने सफी। अस्ल नाम था असरार अहमद। खेलने-कूदने की उम्र में उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। ‘असरार नारवी’ नाम से उन्होंने कविताएं लिखीं, कहानियां और हास्य-व्यंग्य भी। असरार, अब्बास हुसैनी की पत्रिका ‘नकहत’ के नियमित स्तंभकार थे। 1952में ‘जासूसी दुनिया’ शुरू हुई तो वो यहां आ गए। ‘जासूसी दुनिया’ के लिए उनका पेन नेम इब्ने सफी तय हुआ और फिर यही नाम-काम ही उनकी पहचान बन गए। इब्ने सफी का पहला नावल ‘दिलेर मुजरिम’ मार्च 1952में आया। तहरीर का ये नया जायका खूब पसंद किया गया और इब्ने सफी का जादू सिर चढ़ कर बोलने लगा। फरीदी (विनोद), हमीद, कासिम जैसे किरदारों को लेकर उन्होंने कालजयी कहानियां रचीं। हर नावल के साथ उनकी साख और डिमांड बढ़ती गई। उर्दू के अलावा उनके नावल हिंदी, बांग्ला और गुजराती में भी छपे और पढ़े गए। अगस्त 1952में वो पाकिस्तान चले गए। 1955में उन्होंने एक नया किरदार गढ़ा, इमरान। ‘इमरान सीरीज’ का पहला नावल ‘खौफनाक इमारत’ अगस्त 1955में आया।
इब्ने सफी का रचना काल (1952-1980) सियासी-समाजी नजरिए से उथल-पुथल का जमाना है। विभाजन ने भारतीय उपमहाद्वीप को झंझोड़ डाला था। देश के साथ दिल और सपने भी टूट गए थे। दोनों ही तरफ से लाखों-लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। अपनी जड़ों से कट कर जीने की मजबूरी, तेजी से बदलते वक्त के साथ चलने का दबाव, इस दबाव में बनता-बिगड़ता समाज, उलझनें, अंतद्र्वंद्व, दंगे, अपराध, भ्रष्टाचार, कुर्सी के लिए नित नई चालें और साजिशें। विश्व पटल पर भी बड़ी हलचल थी। विश्वयुद्ध के जख्मों पर साजिशों की खेती होने लगी थी। दोस्ती-दुश्मनी के नए औचित्य और मोर्चे खड़े किए जा रहे थे। बड़ी ताकतों में वचस्र्व की जोर-आजमाइश ने शीत युद्ध की स्थिति पैदा कर दी थी। लोग बेचैन थे। नए सवाल और अंदेशे सिर उठा रहे थे। इब्ने सफी की साहित्यिक चेतना भी इसी सियासी-समाजी सूरतेहाल और लोगों की बेचैनियों से बनने वाले मंजरों को आईना दिखाती है। उन्होंने समय-समाज की हर चाल और आहट को पकड़ने की कोशिश की और जहां भी, जितना भी मौका मिला, पूरी रचनात्मकता के साथ अपने उपन्यासों का हिस्सा बना लिया।
इब्ने सफी से पहले जासूसी साहित्य के नाम पर जो भी लिखा गया, उसका मकसद कहीं न कहीं मनोरंजन था। लेकिन इब्ने सफी ने सामाजिक सरोकार से जोड़ कर जासूसी नावल को नया विजन, नया चेहरा दिया। इब्ने सफी ने व्यक्ति और समाज को एक खास हालात में देखने-समझने की कोशिश है। इनमें जिंदगी के बहुत से रंग अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ नजर आते हैं। ऐसे सच्चे और खरे रंग, जो चेतना को रफ्तार देते हैं। उनके नावलों में समकालीन समाज का चेहरा नजर आता है। आने वाले वक्त की आहट भी सुनाई देती है। जासूसी साहित्य की अपनी सीमाएं हैं और जरूरतें भी, लेकिन इब्ने सफी जुर्म और मुजरिम के चेहरे बेनकाब करने के साथ-साथ तफ्तीश के बहाने हाथ आए समाज के काले-सफेद कोनों को भी उजागर करते चलते हैं:
‘चाय आने से कब्ल ही डायरेक्टर ने सवाल खींच
मारा था। ‘कर्नल साब! आखिर ये जरायम इतने क्यों बढ़ गए हैं?’
‘झल्लाहट की बिना पर’ फरीदी बोला। ‘मैं नहीं समझा?’
‘आबादी बढ़ गई है वसायल महदूद (संसाधन सीमित) हैं और चंद हाथों का उन पर कब्जा है।’
‘झल्लाहट की बात तो रह ही गई!’
‘उसी तरफ आ रहा हूं। दौलतमंदों को और दौलतमंद बनने की आजादी है और अवाम को कनाअत (संतोष) का सबक पढ़ाया जा रहा है।’
‘ऐसी सूरत में इसके अलावा और चारा भी क्या है?’
‘चारा ही चारा है। अगर खुदगर्जी और जाहपसंदी (सत्ता मोह) से मुंह मोड़ लिया जाए। एक अंदाज की सरमायादारी की बुनियाद डालने की बजाय खुलूसे नीयत से वही किया जाए, जो कहा जा रहा है तो अवाम की झल्लाहट रफा (खत्म) हो जाएगी।’
(उपन्यास: जहरीला सय्यारा)
इब्ने सफी का रचना संसार रहस्यमय भी है और रंगारंग भी। शुरुआती कुछ नावलों के प्लाट तो उन्होंने भी आम जुर्म की उलझी हुई गुत्थियों से तैयार किए, लेकिन बाद में इनके विषयों का दायरा और शिल्प की तहदारी बढ़ती गई। ये उपन्यास भाषा, शिल्प और कथानक, सभी स्तर पर अहम और सफल हैं। इनमें बड़ी विविधता है। मुजरिम ही नहीं, इनमें जुर्म की नई शक्लें और नई परतें उजागर हुईं। बेईमानी, भ्रष्टाचार, नाइंसाफी, साम्राज्यवाद, फासीवाद, विघटन, आतंकवाद, बाजार की साजिशें और ज्ञान-विज्ञान के बेजा इस्तेमाल तक, उन्होंने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन के हर स्याह पहलू को सामने रखा है। अपराध के उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली साजिशों को भी आईना दिखाया है। उनके नावल हमें अपने इर्द-गिर्द की उस काली दुनिया से परिचित कराते हैं, जिसके बारे में हम या जानते नहीं या बहुत कम जानते हैं। विसंगतियों पर उन्होंने गहरा कटाक्ष किया है:
‘ये आदमी के छिछोरेपन की कहानी है... आदमी कितना गिर सकता है, इसका अंदाजा करना बहुत मुश्किल है... दुनिया की बड़ी ताकतें, जो अपने इक्तेदार (सत्ता) के लिए रस्साकशी कर रही हैं, इससे ज्यादा गिर सकती हैं। उनके बुलंद बांग नारे, जो इंसानियत का बोलबाला करने वाले कहलाते हैं, जहरआलूद हैं।’
(उपन्यास: वबाई हैजान)
आदमी ने खुद ही अपनी जिंदगी में जहर भरा है और अब खुद ही तिरयाक (इलाज) की तलाश में सरगर्दां है। वो खुदा तक पहुंचने की कोशिश करता है, लेकिन अपने पड़ोसी तक भी उसकी पहुंच नहीं।
(उपन्यास: सैकड़ों हमशक्ल)
इब्ने सफी के उपन्यासों के प्लाट बड़े तहदार हैं। शब्दों से उन्होंने चलते-फिरते चित्र बनाए हैं। लफ्जों की ऐसी तस्वीरें कीं, पढ़ने वाला खुद को उसका हिस्सा समझने लगता है। मनोविज्ञान की समझ ने उन्हें दृष्टि और प्रभावी काट दी। मुजरिम की घिसी-पिटी तलाश की बजाए वो उन सोतों की तरफ भी इशारा करते हैं, जो जुर्म और मुजरिम उगल रहे हैं। इब्ने सफी ने अपने कुछ नावलों में साइंस फिक्शन और साइंस फैंटेसी का भी सहारा लिया है। वो पाठक को एक ऐसी फिजा में ले जाते हैं, जहां कदम-कदम पर उसे अचरज का सामना होता है। पात्र गढ़ने में भी इब्ने सफी ने महारत का सुबूत दिया है। फरीदी, हमीद, इमरान जैसे हीरो ही नहीं, संगही, हम्बग, फिंच, अल्लामा दहशतनाक, डा. नारंग, डा. ड्रेड, जेराल्ड, थ्रेसिया जैसे विलेन भी याद रह जाते हैं। इब्ने सफी जुर्म को ग्लैमराइज नहीं करते। वो जुर्म से नफरत सिखाते हैं। साजिशों से आगाह करते हैं। ये भरोसा भी कि जुर्म और मुजरिम का अंजाम शिकस्त ही है। जीत आखिरकार अम्न और कानून की ही होगी। अफसोस कि उनके नावलों को पापुलर टैग लगा कर साहित्य के मुख्यधारे से अलग कर दिया गया। मगर इब्ने सफी अपनी राह चलते रहे। खुद लिखते हैं:
‘... मैं जो कुछ भी पेश कर रहा हूं, उसे किसी भी किस्म के अदब से कमतर नहीं समझता। हो सकता है कि मेरी किताबें अलमारियों की जीनत न बनती हों, लेकिन तकियों के नीचे जरूर मिलेंगी। हर किताब बार-बार पढ़ी जाती है। मैंने अपने लिए ऐसे मीडियम का इंतखाब (चयन) किया है कि मेरे अफकार (विचार) ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सकें। हर तबके (वर्ग) में पढ़ा जाऊं और मैं इसमें कामयाब हुआ हूं।’
इब्ने सफी जानते थे कि फैसला वक्त करेगा। वक्त फैसला कर भी रहा है। उनके रचना संसार के मूल्यांकन के लिए नए सिरे से काम हो रहा है। विश्वविद्यालयों में थीसिस लिखी जा रही हैं। सेमिनार हो रहे हैं। पत्र-पत्रिकाएं विशेषांक निकाल रहे हैं। दूसरी भाषाओं में अनुवाद तो इब्ने सफी की जिंदगी में ही शुरू हो गया था, लेकिन इधर इसमें तेजी आई है। बड़े प्रकाशकों ने हिंदी और अंग्रेजी में उनके उपन्यास छापे। मौत ने उन्हें भले ही हमसे छीन लिया, लेकिन वो जिंदा हैं अपनी रचनाओं में। अपने पात्रों में। अपने लाखों चाहने वालों के दिल में। पाठक के दिल पर इब्ने सफी कल भी राज कर रहे थे और आज भी राज कर रहे हैं।