नॉर्वेवासी डॉक्टर प्रवीण कुमार झाने किताबों के घटते-बढ़ते बाजार का दिलचस्प आकलन किया है. अलग-अलग स्टेशनों पर किताबों की बिक्री की क्या स्थिति है. बहुत रोचक अंदाज़ में. पढियेगा तो डॉक्टर साहब के आप भी मुरीद हो जायेंगे- मॉडरेटर
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कुछ भी कहो, अब किताबें बिक रही हैं। हिंदुस्तानी साहित्य में पूँजीवाद आ रहा है। खास कर के जब से आई. आई. एम. के ग्रेजुएट 'authorpreneur'यानी व्यवसायिक लेखक बन गए, प्रकाशकों की चाँदी हो गई। अब अमिश जी और चेतन जी सरीखों ने लिखा भी खूब, बेचा भी खूब। पूँजीवाद पर जोर इसलिए दे रहा हूँ, क्यूँकि साहित्य कभी राष्ट्रवादी था। फिर अरसों तक समाजवाद, गाँधीवाद और वामपंथ के कॉकटेल पर मस्त झूमा। और शनै:-शनै: अवसरवादी चाटुकारिता के दलदल में फँसता चला गया।
इसी दौर में रेलवे प्लेटफॉर्म के स्टॉलों से साहित्य गायब होने लगा।
बुक-स्टॉलों से कहीं ज्यादा किताबों की बिक्री प्लेटफॉर्म पर ही होती। लंबे ट्रेन के सफर, और लेट होती ट्रेनें। बिहार से बम्बई के सफर में तो तीन किताबें निपटा जाता। लेकिन कब तक वही 'प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कथाएँ'और स्वेट मॉर्डन के अजीबोगरीब फंडे आजमाता रहता? बिहार से यू.पी., एम.पी., महाराष्ट्र सब छान मारा। हर प्लेटफॉर्म पर ढूँढा। न अज्ञेय, न निर्मल वर्मा, न मन्नू भंडारी। हम छोटे शहर से थे। अब कहाँ पटना में 'राजकमल प्रकाशन'के काउंटर भटकते? अमेजन-फ्लिपकार्ट-क्रेडिट कार्ड तो खैर शब्दकोश से ही बाहर थे। इसी वक्त खूब अंग्रेजी पढ़ा। सतना जंक्शन पर फ्रेडरिक फोरसिथ और जेफ्री आर्चर की पैठ हो गई थी, शरद जोशी और हबीब तनवीर जैसे लोकल सूरमा नदारद। अंग्रेजी में लुत्फ भी उठाने लगा, और आगे इस विषय में तफ्तीश नहीं की कि भला क्यूँ हिंदी किताबों को साँप सूँघ गया? वैसे भी घर के शौकीन बुजुर्ग ये किताबें दर-दर भटक कर ही सही, मँगवा के रखते। देर-सवेर हिंदी पत्रिकायें भी डाक से आती। छुट्टियों में पढ़ लिया करता।
धीरे-धीरे फटर-फटर अंग्रेजियाने वाली लड़कियों पे अंग्रेजी झाड़ने का भी दबाव आया। ये दबाव बढ़ता गया और 'अन्डर प्रेशर'परफॉर्म भी ठीक-ठाक किया। अंग्रेजी किताबों के बाग-बगीचे लग गए। क्लासिक, कन्टेम्पररी, हिस्टोरिकल, रोमांटिक, और थ्रिलर्स। सब। बूकर पुरष्कृत भी। अश्लील गरम-साहित्य भी। इनके तो बाग-बगीचे लग गए, हिंदी के खेत सूख गए। हिन्दी साहित्यकार भी शायद खुद ही अपने आयोजन-विमोचन-टी पार्टी करते। गुपचुप साहित्य अकादमी जीतते। कईयों के नाम तब पता लगे जब हालिया अवार्ड-वापसी का दौर आया।
सोचा इस निगेटिविटी को क्यूँ पालूँ? मैं होता कौन हूँ अांकलन करने वाला? मैं तो कभी 'लिट्-फेस्ट'नहीं गया, पुस्तक मेले को भी अरसा हो गया। पहली जगह इंट्री कठिन है। सबकी समझ और औकात नहीं। दूजी जगह इंट्री इसलिए कठिन है क्यूँकि भेड़ियाधसान भीड़ है। खरीदेंगें कुछ नहीं। मुफत के पुराने त्रैमासिक उठाकर लाएँगें, रद्दी वालों को बेचेंगें। यही हिंदी साहित्य का निगेटिव इकॉनामिक्स यानी घाटे का दौर रहा होगा।
पर नैपथ्य यानी 'बैकग्राउंड'में सत्तापलट शुरू हो रही है।
पत्रकारों ने हिंदी साहित्य पर कब्जा करना प्रारंभ किया, वो तो ठीक था। इंजीनियर, मैनेजर, डॉक्टर भी कूद पड़े। हिंदी के प्रोफेसर साहिबान आज भी लिखते हैं, पर पत्रकारों वाली बहुआयामी पहुँच नहीं। प्रिंट मिडिया, डिजीटल मीडिया, सोशल मिडिया। 'फोर्थ एस्टेट'का ही राज है। अब काशीनाथ सिंह ने मिर्जापुर के गाँव से कलम चलायी, तो चली भी, लेकिन उनकी भी ८० बरख की उमर हो गई। हिन्दी स्पेशलिस्टों का शायद आखिरी दौर है। मसलन कई क्वैक हैं जो खूब लिख रहे हैं और चल भी रहे हैं।
मैं फिर से मुँह उठाकर रेलवे प्लेटफार्म पर जाता हूँ। इस बार दरभंगा से सतना की ट्रेन पकड़ता हूँ, और उसी तफ्तीश में निकलता हूँ, जो कभी अधूरी रह गई। वेंडरों के जवाब कुछ यूँ थे।
दरभंगा जंक्शन:
"कौन नागार्जुन? इसी जिल्ला के? मालूम नहीं सर। किताब तो नहीं है।"
मुजफ्फरपुर जंक्शन:
"अरे नहीं है सर कोठागोई-फोठागोई। कितना बार बोलें? चतुर्भुजस्थान का किस्सा!! ऊ सब किताब चाहिए, तो प्लैटफारम के बाहर ढिबरी जला के बैठल होगा। यहाँ ई सब धंधा नहीं होता है। जाईए।"
हाजीपुर जंक्शन:
"हाँ भई, राजकमले का है। डायमंड पॉकेट बुक्स का नहीं है। रवीश कुमार, एन.डी.टी.वी. बाले लिखे हैं। किताब का साइज छोटा है, फोटू बना है तो पॉकेट-बुक्स हो गया? कमाल करते हैं!"
वाराणसी का जंक्शन:
"रेहन पर रग्घू? वो नहीं है। 'काशी का अस्सी'है पुराने स्टॉक से। राजकमल का डिस्ट्रीब्यूटर हमें का पता भाई? भिजवाएगा तो मिल जाएगा। ये 'वायुपुत्र'किताब ले जाइए। बनारस का ही लइका लिखा है, अब हिंदी में भी है।"
इलाहाबाद जंक्शन:
"है भाई! 'मधुशाला'निकाल के दे दो। नहीं, बाकी तो बच्चन जी का बिकता नहीं है न!"
सतना जंक्शन:
"उपन्यास ही तो है ये! नया-पुराना नहीं मालूम। हाँ, हाँ! फेसबुक पर, ऑनलाइन सब होगा सर। यहाँ नहीं है।"
वेंडर तो कुछ भी बोलते हैं, पर किताबें भी अंग्रेजी से अनुवादित ही दिखती है। 'हाफ गर्लफ्रेंड'हिंदी अनुवाद तो मेरे आँखों के सामने ३ उठ गई। मैनें भी अकड़ कर एक अंग्रेजी किताब उठा ली, यह कह कर कि मैं अनूदित नहीं पढ़ता। असल हिंदी लाओ, तो मोल-भाव भी न करूँ, खरा दाम दूँ।
कहीं-न-कहीं वितरण की समस्या है। प्रकाशक और ऑनलाइन डिस्ट्रीब्यूटर कुकुरमुत्ते की तरह फैल रहे हैं। पर लोकल डिस्ट्रीब्यूटर? कुछ गुम हैं। कुछ सुसुप्त हैं। कुछ भाव नहीं दे रहे। कुछ हिसाब नहीं दे रहे।
पत्रकार लिखें या प्रोफेसर, इंजीनियर लिखें या गृहणी। बस प्लेटफॉर्म तक किताब आ जाए। या अमेजन को कह दो कि मैं यहाँ सतना जंक्शन पर ट्रेन के इंतजार में हूँ, डिलिवर कर दें।
पाठक भी तो घाघ हैं।