दो दिनों से कविता-शविता को लेकर अभूतपूर्व बहस छिड़ी हुई. इस कविता के मौसम में आज कुछ सरप्राइज कवितायेँ जे सुशीलकी. जे सुशील को हम घुमक्कड़ के रूप में जानते हैं, एक पत्रकार के रूप में जानते हैं. उनकी कविता के बारे में नहीं. कविता-शविता के बहस के बीच समय निकालिए और आज सरप्राइज़ कवितायेँ पढ़िए- मॉडरेटर
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आदिवासी
पार्ट वन
किसी ने कहा
कविता है
मैंने मान लिया....
किसी ने कहा
गद्य है
मैंने मान लिया.
मैं सबकी बात मान लेता हूं...
मैं आदिवासी हूं.
फिर किसी ने कहा
निबंध है
मैंने वो भी मान लिया....
फिर आवाज़ आई...
ये तुम्हारी कुंठा है.
मैंने नज़रें झुकाए हुए देखा
ज़मीन नहीं बोली थी
ऊपर आसमान नहीं बोला था
सामने खड़ा इंसान बोल रहा था
जिसने मुझसे मेरी ज़मीन और जंगल छीने थे
बस एक बांसुरी बची थी
और एक तान बांसुरी की
मेरा तन चाहा
मान लूं..
मन रहा बस चुप...
आत्मा ने कहा
विरोध कर
परमात्मा ने कहा
मार और मैंने
दूसरे हाथ में थमी कुल्हाड़ी चला ही दी
अगले ही पल
गद्य पद्य कविता निबंध और कुंठा
सब कुछ जल जंगल और ज़मीन के साथ
छटपटाने लगे थे.
पार्ट 2
महुआ टपका था तो नींद खुली थी.रात बीती नहीं थी और सुबह हुई नहीं थी. सिंगा बोंगा की आंखें चमक रही थीं...शुक्र तारे के साथ.
नशा अभी उतरा नहीं था..और महुआ था कि फिर टपकने लगा
हाथों की ऊंगलिया अभी भी उसके जूड़े में फंसी थीं
जिसका नशा महुए सा बिल्कुल नहीं था
चुनना भी था ज़रुरी वर्ना दिन नहीं होगा
मुर्गे ने बांग दे दी थी और बुढ़िया खुद ही टोकरी टटोलने लगी थी
फिर जूड़े में हरकत हुई...फिर साड़ी का लाल किनारा हिला
और नशा हिरन बन कर उठ गया
महुआ चुन लेने..
साथ में उठी चार खाने की धोती
एक बांसुरी
और एक जिजीविषा भी जीने की
फंदा खोलने को
एक और शिकार पाने को
एक और दिन जीने को
एक और तान बनाने को
दिन निकल आया था
चावल चढ़ चुका था और
खोड़िया कट चुका था क्योंकि
खोड़िया के मांस का पीठा बनेगा
और हंडिया के साथ होगा उत्सव
टुसु के नाच में फिर मगन होंगे
दो काले बदन
फिर कभी न अलग होने को
साथ में महुआ चुनने को
साथ में शिकार करने को
और बनाने को बांसुरी की एक नई
तान...बस नौ महीने में...
पार्ट 3- ग्लैडसन डुंगडुंग
वो कोई सात फुट का
लंबा तगड़ा जवान नहीं था
न ही उसकी नाक नुकीली थी
और रंग तो बस रंग था
ऐसा कि सब उसमें समा जाए
अंधेरे में चमकते थे
बस उसके दांत
झक सफेद
और चम चम करती थी उसकी चमड़ी
कभी पसीने से तो
कभी सरसों के तेल से
फूलती नसों में वो
जब दो अंगुलियों से तीर साधता तो
आंखों में खौफ नहीं एक शांति आकर बैठ जाती थी
उसकी चुप्पी ही उसके बोल होते थे
और हंसता था बस
मुर्गे का चाकू बांधने में
हंडिया पीकर जब मुस्कुराता तो
तो झिमिया पिघल पिघल जाती थी
और लाइजो बिफर बिफर जाती थी
वो अलग था सबसे
सामन बैठा था आज
गले और सर में
मफलर बांधे...
ढीले से हरे कोट में
नीचे पतलून....जेब में कलम
मैं उसे पहचान नहीं पाया था एकबारगी
अब वो मेरी बोली बोलने लगा था
और बातूनी भी लगने लगा था
मैं डुंगडुंग को खोज रहा था और
वो ग्लैडसन हो गया था.
फिर मैंने पूछ ही लिया डुंगडुंग कहां है
ग्लैडसन ने जवाब दिया था
बंदूकों के बीच फंसा डुंगडुंग कब का मर गया
बंदूकें ....किसकी बंदूकें....डुंगडुंग तो तीर चलाता था
सरकार की बंदूकें....नक्सलियों की बंदूकें
डुंगडुंग तीर चलाना चाहता था
लेकिन सरकार चाहती थी
वो कुदाल चलाए
नक्सल चाहते थे
वो बंदूक चलाए
इसी उधेड़बुन में
इस जाल धुन में
डुंगडुंग ने कसम खाई..मार डाला खुद को
पहन लिया उसने कोट. सीख ली अंग्रेज़ी और
निकल पड़ा शहर ये बताने
कि अगर बंदूकें न रुकीं तो
सारे डुंगडुंग मारे जाएंगे
और बचे रहेंगे बस ग्लैडसन
पार्ट 4
जोबला के जंगल में
हम बेर चुनते थे
सुख-दुख बुनते थे
बकरियों को चराते हुए
गुफाओं में लोमड़ियों को डराते हुए
कभी भेड़ियों से डरते हुए
पेड़ पर चढ़ जाया करते थे.
वहीं हमने देखा था एक कारखाना
देखी थी
सीमेंट के चूरे से बनी बेलन जैसी
आकृतियां
पूछा था घर में आकर उनके बारे में तो
जवाब में कान उमेठ दिया गया था
मां ने
और ताकीद मिली थी
अगली बार जंगल गए तो टांगें तोड़ दूंगी
आंडी कनखियों से मुस्कुराया था और
तय हो गया था कि कल फिर है जंगल जाना
सीमेंट के बेलनों के रहस्य का पता लगाना
बेर के कांटों में, बकरियों की पांतों में
केंदू के बीजों में और पुटुस के फूलों के
रहस्य में, सीमेंट के वो बेलन छूट गए थे
छूट तो जंगल भी गया था
छूट आंडी भी गया था,उन्हीं जंगलों में
मुस्कुराता, हंसता और कभी कभी
आवाज़ देता अपने घुंघराले बालों से
उसकी कनखियों की हंसी आज भी
झिंझोड़ देती है
उसकी मासूमियत आज भी जोड़ देती है
जब भी लौटता हूं
जोबला के जंगल में
सीमेंट के बेलन का रहस्य मुझसे पहले
आंडी ने बूझा था
अठारह की उमर में जब उसने
बाप की जगह पर कारखाने के गेट को थामा था
खदान के अंदर वही सीमेंट की बेलननुमा आकृतियां थीं
धमाके के लिए बारुद के ऊपर लगाई जातीं
वो आकृतियां जिनसे हम कभी खेले थे
आज आंडी की ज़िंदगी से खेल रही थीं
आंडी ने ये सब खांसते खांसते बताया था
वो आंडी, जिससे फुटबॉल में कोई बॉल छीन नहीं पाता था
आंडी, जिसके गठीले बदन के ज़ोर पर मैंने बहुत धौंस जमाई थी
आंडी, जिसकी हर उस लड़के से लड़ाई थी जिससे मेरी लड़ाई थी
आंडी, जिसकी तरफ मैंने दोस्ती का पहला हाथ बढ़ाया था
आंडी, आंखों से नहीं दिल से दोस्ती को टटोलता था.
आंडी, जिसकी बांहों में फौलाद और आंखों में दिल बसता था
आंडी, जो मुझ पर चुपचाप जान छि़ड़कता था
आंडी जो अब खदान का गुलाम था
आंडी जो अब मेरा दोस्त नहीं
मेरी रिपोर्ट की एक बाइट बन चुका था
आंडी जो खांस रहा था
अपने दुधमुंहे बच्चे के साथ खेलता
एक बार फिर कनखियों से मुस्कुरा रहा था
मानो कह रहा हो
चलो सीमेंट की आकृतियों का रहस्य अब तुम भी जान गए.
पार्ट 5
बुलडोजर के घर्र घर्र करते चक्कों पर
मैंने सबसे पहले उसके हाथ देखे थे
चक्कों पर पानी डालती
लोहे के चक्कों को पोंछती
पसीना पसलियों से चू कर
कमर पर अटक आया था
चमकती हुई कमर पर नज़र ठहरी ही थी
कि उसने कहा था
साइड हो जाओ बाबू, चोट लग जाएगी
वो आगे बढ़ी और हमारी नज़र
कमर के नीचे पड़ी
हम उसी पल जवान हो गए थे
लौटते हुए उसने फिर घूरा था
सफेद दांत चमकाए थे और पूछा था
क्या देखते हो
पूछने में वो झुकी थी और
हमने उसी क्षण स्वर्ग देख लिया था
फिर मंडराते रहे न जाने कितने दिन
अलकतरे के धुएं में उसके पीछे पीछे
आज हफ्ते का दिन था
ठेकेदार बैठ गया था और
मैनेजर हिसाब कर रहा था
महुआ भी थी कतार में
और हम वहीं कहीं खड़े थे उसके इंतज़ार में
बारी आई....महुआ ने हाथ बढ़ाया था
मैनेजर ने पैसे देते हुए उसके हाथ को दबाया था
और मेरा कलेजा हलक में आया था
महुआ चौंकी नहीं थी
उसे पता था आज डबल मेहनत होगी
दिन के बाद रात की
तभी कुछ आमदनी बढ़ेगी
हंडिए की कटोरी लेते हुए उसने मुझे बुलाया था
कटोरी बढ़ाते हुए बोली थी
रोते क्यों हो
क्या फर्क पड़ता है...आज ये है कल कोई और होगा
हमारी तो यही ज़िंदगी है
तू अपनी महुआ कहीं और खोज लेना
बबुआ बहुत पढ़ाई करना
और इस रेज़ा को भी कभी कभी याद कर लेना.
प्यार से उसने गाल थपथपाए थे
तब हम समझ नहीं पाए थे
कहां से समझ पाते
हम थे कॉलोनी के बाबू और वो थी
जंगल की बेल
हम मिल नहीं पाए थे
हम बड़े होते चले गए वो बूढ़ी होती चली गई
फिर कहीं किसी दिन किसी ठेकेदार की बांहों में
देसी दारु के नशे में उसने दम तोड़ दिया था
ख़बर छपी थी किसी अख़बार के आखिरी पन्ने पर
बुलडोज़र के नीचे आकर रेज़ा ने दम तोड़ा
हम अब भी पढ़ाई करते हैं..हर लड़की में महुआ को खोजते हैं
और कभी कभी कविताओं में रेजा को याद करते हैं.