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मीना कुमारी के अदाकारा बनने की कहानी उनकी जुबानी

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अगस्त के महीने में प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारीका जन्म हुआ था. आज यह लेख. प्रस्तुति सैयद एस. तौहीदकी- मॉडरेटर 
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मां ने बच्चे को कहानी सुनाई...इक शहजादा था. उसका लाल घोडा बड़ा तेज़ भागता था. एक दिन वो अपने घोड़े पर खोई हुई परी की तालाश में निकला.. दूसरे दिन बच्चा अपने लकड़ी के घोड़े पर बैठा,सारे घर में टख-टख करता भाग रहा था और चिल्ला रहा था-मां मैं परी को ढूंढने जा रहा हूं.

इस तालाश का एहसास ही फन का पहला एहसास है. इक जानी बूझी सी कहानी में एक अनजानी सी परी,एक अनजाना सा देश और लंबी लंबी, ना खत्म होने वाली तालाश. बच्चा जब शहज़ादे की शख़्सियत में दगड़-दगड़ घोडा दौड़ाने लगता है तो फ़न ए अदाकार(अभिनय कला)जन्म लेती है.

अदाकार न बनता तो लकड़ी के घोड़े पर शहज़ादे की तस्वीर बना देता या परी की कहानी लिखने लगता. मैं अदाकार न बनती तो मुसव्विर(चित्रकार) होती,शायरा होती या कहानियां लिखती. हस्सास(संवेदनशील)थी, इसलिए तलाश यक़ीनी थी. कहानियां सुनकर चुप कैसे रहती? माहौल था, हालात थे, जिन्होंने मुझे अदाकार बना दिया.

फिल्मो में आकर किस्म-किस्म के किरदार अदा किए. हर क़िरदार में दाख़िल होकर एक नए एहसास का तजुर्बा हुआ. ज्यूं -ज्यूं तजुर्बा बढ़ता गया, मोतलआ (रिसर्च) बढ़ता गया. तलाश का एहसास भी शदीद(तेज़) होता गया, लेकिन जिस परी की तलाश में निकली थी, वो जाने कहां खो गई!

हर क़िरदार को अदा करने बाद महसूस हुआ कि यह भी इक कहानी थी, एक ख़्वाब था-और अग़र यह सब ख़्वाब है तो हक़ीक़त क्या है? आंख एक हक़ीक़त को देखती है.ज़ेहन उस हक़ीक़त की छुपी हुई दूसरी हक़ीक़त को तलाश करता है. जब दूसरी हकीकत मिलती है तो पहला सच ख़्वाब हो जाता है. और यूं ही फिर दूसरी, फिर तीसरी.. और ख़्वाब व हक़ीक़त का वो कभी ना खत्म होने वाला सिलसिला शुरू हो जाता है. जिसका कोई आख़िर नहीं, कोई समापन नहीं. हर फ़नकार/आर्टिस्ट यही करता है, मैं भी यही करती हूं.

....ख़्वाब दर ख्वाब छीलती हूं, ख़्वाब पर ख़्वाब बुनती हूं. इन ख़्वाबों को सीने से लगा कर सो जाती हूं, इन ख़्वाबों के गले लग कर रोती हूं, इन ख़्वाबों की परवाज़ से लिपट कर अनजाने आसमानों में सैर करती फिरती हूं. जब कोई हक़ीक़त झटक आंख खोल दिया करती है तो फिर अपने गिर्द(पास) ख़्वाब का हाला (वृत्त) बनाए रखती हूं.

लेकिन ख़्वाब तब्दील होते रहते हैं. इनके साथ मैं भी तब्दील होते रहती हूं. हर फ़िल्म के नए किरदार(रोल) में एक नए ख़्वाब का हाला(कपड़ा) पहन लेती हूं. जब तक वो ख़्वाब वुजूद में रहता है,उसी में जीती हूं. उसी में सांस लेती हूं... ख़्वाब दर ख़्वाब यूं ही सफ़र करती जा रही हूं, जाने वो आखिर कहां ?जहां खुद को पा लूंगी, क्योंकि वही आखिरी हक़ीक़त, वही मेरी खोई हुई परी है. फ़िल्म_अगर कहूं कि मेरा लाल घोड़ा है,तो क्या ग़लत होगा!
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प्रस्तुति passion4pearl@gmail. com

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