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संजय चतुर्वेदी की चुनिन्दा कविताएं

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आज संजय चतुर्वेदीकी कवितायेँ. 90 के दशक में इनकी कविताओं ने कविता की भाषा बदली थी, संवेदना का विस्तार किया था. मुझे याद है 'इण्डिया टुडे'के साहित्य वार्षिकांक में इनकी एक कविता छपी थी जिसमें एक पंक्ति थी 'इण्डिया में एक सेंटर है जो इन्टरनेशनल है'. बहुत चर्चा हुई थी. हमारे आग्रह पर उन्होंने अपनी पसंद की कुछ चुनिन्दा कविताएं जानकी पुल के लिए दी. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
=============

।। संकेत ।।

जंगल में रात को जो आवाज़ें आती हैं
उनमें शायद ही कोई आवाज़ आह्लाद की या ख़ुशी की होती हो
विकराल आवाजें भी कराहट और अवसाद से भरी होती हैं
जिन्हें मारा जाना है
या जिन्हें मारना है
दोनों ही दुःख में डूबे हुए हैं
और मैथुन की इच्छा से निकाली गई आवाज़ें भी
जिन्हें प्रेम से भरा होना था
दुखद संकेत बनके गूंजती हैं रात के गूढ़ आवरण में

लेकिन इनमें सर्वाधिक रहस्यमय होती हैं कीड़ों और मैढकों की आवाज़ें
जो घबराहट में भेजे गए रेडिओ संकेत जैसी लगती हैं
पटाक्षेप से पहले
ज़ुरूरी काम कर लिए जाने की हड़बड़ी में
प्रणय संकेत और आर्तनाद में अंतर नहीं रह जाता
जीवन कालिक है
और निरन्तर भी
और इसमें एक सनातन असुरक्षा छिपी है
जब एक ही आवाज़
प्रेमियों और भक्षकों को एक साथ पास बुलाती है
मारे जाने की कीमत पर भी
कीड़े संकेत देते रहते हैं

और ध्वनियों संकेतों का वह सर्वाधिक प्राचीन और विपुल आयतन
जो समुद्रों के गर्भ में छिपा है
जिसका एक हिस्सा प्रतिदिन शून्य में निकल जाता है
जिसमें संसार की लिपियों के रहस्य छिपे हैं
अन्य नीहारिकाओं को पानी की खोज में भेजे गए
मछलियों और शैवालों के संकेत
और उनके चुम्बकीय आकारों का विवरण छिपा है
और यह भी
कि कोटि कल्पों से
किसी दूरस्थ जीवन के लिए
कीड़ों-मकोड़ों के विपुल संसार की सनसनाहट
संकेत बनकर शून्य में फैल रही है
प्रेमियों और भक्षकों को
अपने होने की सूचना देती हुई
और यह भी
कि जीवन दुखी है
और जो जलमग्न है
वह भी जल रहा है ।

(विपाशा 1999)




।। एक लाख लोग ग़लत नहीं हो सकते ।।

इस अख़बार की एक लाख प्रतियां बिकती हैं
एक लाख लोगों के घर में खाने को नहीं है
एक लाख लोगों के पास घर नहीं हैं

एक लाख लोग
सुकरात से प्रभावित थे
एक लाख लोग
रात को मुर्ग़ा खाते हैं
एक लाख लोगों की
किसी ने सुनी नहीं
एक लाख लोग
किसी से कुछ कहना ही नहीं चाहते थे

भूकम्पों के इतिहास में
एक लाख लोग दब गए
नागासाकी के विस्फोट में
एक लाख लोग ख़त्म हो गए
एक लाख लोग
क्रान्ति में हुतात्मा हुए
एक लाख लोग
साम्यवादी चीन से भागे
एक लाख लोगों को लगा था
यह लड़ाई तो अंतिम लड़ाई है

एक लाख लोग
खोज और अन्वेषण में लापता हो गए
एक लाख लोगों को
ईश्वर के दर्शन हुए
एक लाख लोग
मार्लिन मुनरो से शादी करना चाहते थे
स्तालिन के निर्माण में
एक लाख लोग काम आए
निक्सन के बाज़ार में
एक लाख लोग ख़र्च हुए
एक लाख लोगों के नाम की सूची इसलिए खो गयी
कि उनके कोई राजनीतिक विचार नहीं थे

एक लाख लोग बाबरी मस्जिद को
बर्बर आक्रमण का प्रतीक मानते थे
एक लाख लोग
उसे गिराए जाने को ऐसा मानते हैं
एक लाख लोग
जातिगत आरक्षण को प्रगतिशीलता मानते हैं
एक लाख लोग
उसे समाप्त करने को ऐसा मानेंगे

एक लाख लोगों ने
अमेज़न के जंगल काटे
एक लाख लोग
उनसे पहले वहां रहते थे
एक लाख लोग ज़िन्दा हैं
और अपने खोजे जाने का इंतज़ार कर रहे हैं

एक लाख लोग
पोलियो से लंगड़ाते हैं
एक लाख लोगों की
दाढ़ी में तिनका
एक लाख लोग बुधवार को पैदा हुए
और उनके बाएं गाल पर तिल था

एक लाख लोगों ने
गणतंत्र दिवस की परेड देखी
एक लाख लोग
बिना कारण बीस साल से जेल में हैं
एक लाख लोग
अपनी बीवी-बच्चों से दूर हैं
एक लाख लोग
इस महीने रिटायर हो जाएंगे
एक लाख लोगों का
दुनिया में कोई नहीं
एक लाख लोगों ने
अपनी आंखों के सामने अपने सपने तोड़ दिए

एक लाख लोग
ज़मीन पर अपना हक़ चाहते थे
एक लाख लोग
समुद्रों के रास्ते से पहुंचे
एक लाख लोगों ने
एक लाख लोगों पर हमला किया
एक लाख लोगों ने
एक लाख लोगों को मारा ।

(जनसत्ता 1991)



एक ठुल्ले की कविता

।। वे साधारण सिपाही जो कानून और व्यवस्था में काम आए ।।

शायद कुछ सपनों के लिए
शायद कुछ मूल्यों के लिए
कुछ- कुछ देश
कुछ- कुछ संसार
लेकिन ज़्यादातर अपने अभागे परिवारों के भरणपोषण के लिए
हमने दूर-दराज़ रात-बिरात
बिना किसी व्यक्तिगत प्रयोजन के
अनजानी जगहों पर अपनी जानें लगाई
जानें गंवाई

हम कानून और व्यवस्था की रक्षा में काम आए
लेकिन हमारे बलिदान को आंकना
और उस बलिदान के सारे पहलुओं को समझना
एक आस्थाहीन और अराजक कर देने वाला अनुभव रहेगा

जो अपने कारनामों के दम पर
इस मुल्क की सड़कों पर चलने का हक़ भी खो चुके थे
हमें उनकी सुरक्षा में अपनी तमाम नींदें
और तमाम ज़िन्दगी ख़राब करनी पड़ी
उन्माद और साम्प्रदायिकता का ज़हर और कहर
सबसे पहले और सबसे लम्बे समय तक हम पर गिरा
हम उन इलाकों की हिफाज़त में ख़र्च हुए
जहां हमारे बच्चों का भविष्य चुराकर
काला धन इकठ्ठा करने वालों के बदआमोज़ लड़के-लड़कियां
शिकार करें और हनीमून मनाएं
या उन विवादास्पद संस्थाओं की सुरक्षा में
जहां अन्तर्राष्ट्रीय सरमाए के कलादलाल
हमारी कीमत पर अपनी कमाऊ क्रांतियां सिद्ध करें

हमें बंधक बनाया गया
या शायद हम जब तक जिये बंधक बनकर ही जिये
लेकिन हमारे सगे-संबंधी इतने साधन सम्पन्न नहीं थे
कि राजधानी में दबाव डाल सकते
और उन्होंने हमारे बदले किसी को रिहा कर देने के लिए
छातियां नहीं पीटीं

जो क्रन्तिकारी थे
उन्होंने हमें बेमौत मारने वालों के लिए छातियां पीटीं
जो बुद्धिजीवी और पत्रकार थे
उन्होंने क्रान्तिकारियों के लिए छातियां पीटीं
हम साधारण परिवारों से आए मनुष्य ही थे आख़िरकार
लेकिन ह्यूमैनिटीज़ के प्रोफ़ेसर और विद्यार्थी
जो शाहज़ादों की शान में पेश-पेश थे
हमें दबी ज़ुबान व्यवस्था का कुत्ता बोलते थे
व्यवस्था दबी ज़ुबान बोलती थी
बेमौत मरने के लिए
हमें तनख़्वाह मिलती तो है
हम इस यातना को सहते हुए
चुपचाप मरे
लेकिन हमारे बीवी-बच्चे जो आज भी बदहाल हैं
हवाई जहाज़ पर उड़ने वाले नहीं थे
इसलिए न उन्हें पचास हज़ार डॉलर मिले
न फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन के मौसेरे पुरस्कार
ये चीज़ें समाज के लिए नहीं
समाजकर्मीओं के लिए बनी थीं

हम भी समाज का हिस्सा थे
हमें माना नहीं गया
हम भी समाजकर्मी थे
हमारी सुनी नहीं गई

और यह हम तमाम गीतों और प्रार्थनाओं के बीच कह रहे हैं
कि हमारे अपने अफसरों नें
जिन्हें ख़ुद एक सिपाही होना था
हमें अपने घर झाड़ुओं की तरह इस्तेमाल किया
और यह भी हम तमाम गीतों और प्रार्थनाओं के बीच कह रहे हैं
कि कोई उल्लू का पट्ठा इतना अच्छा होगा
जो हमें बताए
कि अपने बीवी-बच्चों के साथ
जिस तरह की ज़िन्दगी जिए हम
वह क्या किसी आन्दोलन या सम्मेलन में
कभी कोई महत्वपूर्ण एजेंडा रही ?

(जनसत्ता 2000)



।। देख तेरे स्कूल की हालत ।।

वह जो दूसरी लाइन में दाएं से तीसरा बैठा है
वह साम्प्रदायिक है
और सबसे पीछे बाएं से सातवां फ़ाशिस्ट
बाक़ी हमारी क्लास में तो सभी धर्मनिरपेक्ष और जनवादी हैं
हां, नीचे ग्राउंड फ़्लोर पर पेड़ के सामने जो कमरा पड़ता है
उसके ज़्यादातर लड़के सरस्वती को गालियां देने का विरोध करते हैं

नाम सुनने में साम्प्रदायिक लगता है इस स्कूल का
लेकिन इमारत देखने में धर्मनिरपेक्ष है
इसके ज़्यादातर मास्टर राष्ट्रवादी हैं
लेकिन हमारा मिशन अंतर्राष्ट्रीय है
एक साईकिल पर भी आता है धोती-कुर्ता पहनकर
आप समझ ही गए
वह आतंकवादी है

इसके कुएं में जातिवाद की पुड़िया छोड़ी जाती है रोज़
लेकिन इसकी टॉयलेट से प्रगतिशीलता की बू आती है
और झंडे के लिए जो डंडा लगा है बीच मैदान में
वह भगवान की तरफ़ इशारा करता है ।

(दिनमान 1990)



।। धन्यवाद ज्ञापन ।।

सबसे पहले हम मुख्य अतिथि के आभारी हैं
जो न आते तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता
फिर उन सभी गणमान्य उल्लू के पट्ठों के
जो अपनी हरक़तों की वजह से इस काबिल हुए
फिर अलग अलग साइज़ और डिज़ाइन वाले विद्वानों के
जो मारे तनाव के शान्त बैठे हैं
हम सभी अफ़सरों के आभारी हैं
और उनके चापलूसों के भी
सभी प्रोफ़ेसरों के
और उनके चापलूसों के भी
हम जलेबी के आभारी हैं
और उसके उद्गम के भी
हम अमीबा के आभारी हैं
वाइरस के, बैक्टीरिया के
साढ़े दस प्रतिशत ब्राह्मणों के हम बहुत आभारी हैं
पौने साठ प्रतिशत दलितों के
दो सौ प्रतिशत से भी ज़्यादा पिछड़ों के
धरती, जल, अग्नि और वायु के
पत्थरों, वनस्पतियों, पशु, पक्षियों के
उनके अपने-अपने प्रतिशत के हिसाब से
हम मुसलमानों के भी उनके प्रतिशत के हिसाब से आभारी हैं
सामाजिक न्याय की बात करने वाले
सभी बलात्कारियों और व्यभिचारियों के तो
हम तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं
हम हर प्रकार के पिछड़ेपन के आभारी हैं
हर प्रकार के ओछेपन के
जो चुस्त मूर्खता और सत्ता के संयोग से पैदा होती है
उस टोपीदार मुस्कुराहट पर तो हम कुर्बान जाते हैं
हम शैतान की आंख के आभारी हैं
और उसके शातिर इशारों के भी
दारू पीकर गलियां बकते पत्रकारों
और सभी परजीवियों-बुद्धिजीवियों के भी हम बहुत आभारी हैं
हम धर्मनिरपेक्षता के शुरू से ही आभारी रहे हैं
और साम्प्रदायिकता के भी
हम हर तरह की बयानबाज़ी के आभारी हैं
हम हर उस मौक़े के आभारी हैं
जब मक्कार आवाज़ें आती हैं - साथी हाथ बढ़ाना
जिसने हमें आज़ादी दिलाई
या फिर ग़ुलाम बना के छोड़ दिया
उस पार्टी के तो हम पीढ़ियों से आभारी रहे हैं
फिर अभी तो पार्टी शुरू हुई है
या हो ही नहीं पा रही
हम सभी तमाशों के आभारी हैं
सभी गोष्ठियों और उन में भाग लेने वाले जोकरों के भी
सभी सूरमाओं के
जो भोपाल से बाहर भी सब जगह मिलने लगे हैं
हम सभी प्रकार की भर्तस्नाओं के आभारी हैं
सभी प्रकार के खंडनों के
जिन्होंने समय-समय पर हमारी संस्कृति के पेट में गुदगुदी मचाई है
उन तमाम सीत्कारों फूत्कारों और हुंकारों के भी हम आभारी हैं
जैसा की हम पहले ही कह चुके हैं
पिछड़े बने रहने की कभी न ख़त्म होने वाली होड़ के तो हम
जितना आभारी हों उतना कम है
और कोई छूट तो नहीं गया
हां, इससे पहले की हम भूल जाएं
सभी लोग ध्यान से सुनें
हम जासूस गोपीचंद के भी बहुत ज़्यादा आभारी हैं
प्रेमचन्द और मोहनदास करमचन्द का नाम हम जानबूझ कर छोड़ रहे हैं
हम उन सबके आभारी हैं
जिनका हमें नहीं होना चाहिए
और अगर आप सोचते हैं
की इससे भी ज़्यादा अहसानमंद होना चाहिए हमें
तो हमारे पास अब कुछ बचा नहीं है
और अब हमें सोने दो चमगादड़ो
सवेरे काम पर जाना है ।

(दिनमान 1990)





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