आज हिंदी दिवसहै. यह दिवस क्या हिंदी का स्यापा दिवस होता है? हर साल सरकारी टाइप संस्थाओं में हिंदी के विकास का संकल्प ऐसे लिया जाता है जैसे 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने देश के विकास का संकल्प लिया था. सरकारी स्यापे से अलग हिंदी 'नई वाली'हो चुकी है जबकि राजभाषा वाले भी भी पुरानी हिंदी के विकास में लगे हैं. हिंदी दिवस पर कुछ अलग टाइप-सा. लिखा है युवा लेखिका अणुशक्ति सिंहने- मॉडरेटर
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खटाक... कमरे का दरवाजा हौले से खोलने की कोशिश हुई थी,लेकिन बात बनी नहीं। हमेशा की तरह उसने यहाँ भी जल्दबाजी दिखाई और आवाज़ कर बैठी। वह बाहर निकलना चाहती थी। शहर भर की रौनक देखना चाहती थी। अरे,कल का दिन उसका होने वाला है। किसी ने उसे बताया था कि पिछले 15 दिन से लोग उसके नाम पर ढोल पीट रहे थे। सच्ची मे नसीब वाली है... इतना प्यार,वो भी आज के जमाने मे। खुशी से उसकी 36” इंच वाली फ़िगर 2 इंच ज़्यादा चौड़ी हो गयी थी। सुना था कि उसके नाम पर जलसे वलसे भी होने वाले हैं। भैया,अब तो बाहर निकलना बनता है। आखिर देखा तो जाये,लोग उसे कितना प्यार करते हैं... हाँ तो वो बाहर निकली। हौले से पाँव बढ़ाए और बिना किसी की नज़र मे आए,सीधा बाउंड्री के पार। निकलने के साथ ही दिल टोटे-टोटे करने लगा। देखो ज़रा,इस शहर मे उसके नाम पर पोस्टर,बैनर छप रहे हैं। भई,सच मे उसके दिन फिरने लगे हैं। थोड़ा आगे बढ़ी तो देखा,एक जगह कुछ नई उम्र के लड़के-लड़की कुछ सजावट कर रहे हैं। इधर जाना ठीक नहीं होगा। ये नई उम्र वाले उसको पहचानते भी नहीं होंगे। कहीं और चला जाये। तभी अचानक से एक पोस्टर उड़ा और उसके पास आ गिरा। अरे,ये तो कुछ जाना पहचाना लग रहा है। ओहहो... इस पर तो उसी का नाम लिखा है। माने कि ये आजकल के लड़के-लड़की भी उसको पहचानते हैं। सही मे,भगवान जब भी देता है छ्प्पर फाड़ कर देता है। इन बच्चों से तो उसे ज़रूर मिलना चाहिए। बस क्या था,तीन छलांग लगाई और पहुँच गयी उनके पास। यहाँ तो कोई बड़ा कार्यक्रम हो रहा था। हर तरफ उसका नाम छपा था। लेकिन इन लोगों ने शायद गलती से थोड़ी मिस्टेक कर दी थी। हिज्जे तो सही लगाया था,बस नाम के आगे दो पुच्छले लगा दिये थे। अरे उसे अब तक अपना नाम सिर्फ‘हिन्दी’पता था। कभी-कभार कुछ शौकीन लोग उसे हिंदुस्तानी बुला लिया करते थे। ये ‘न्यू टाइप हिन्दी’किसने बुलाना शुरू कर दिया था उसे?कोई बात नहीं... नए बच्चे हैं। मालूम नहीं होगा। अभी जाकर बताती हूँ। सुधार लेंगे...
हैलो,हाय गाय्ज़...
हाय... या...
वेल,माईसेल्फ़ हिन्दी... एक्चुअल्ली,आप लोगों ने ये मेरा नाम थोड़ा गलत लिख दिया है। माइ नेम इज़ ओन्ली हिन्दी। नॉट ‘न्यू टाइप हिन्दी’...
इक्सक्यूज मी... हू आर यू?
बोला तो अभी ‘हिन्दी’
मैडम,ये हिन्दी क्या बला है?वी नो ओन्ली ‘न्यू टाइप हिन्दी’
अरे,मैं उसी न्यू टाइप हिन्दी की हिन्दी हूँ...
देखिये मैडम,आपको कोई गलतफहमी हुई है। हिन्दी विंदी बहुत पुराना कान्सैप्ट है। हम नए लोग हैं... वी टॉक ओन्ली अबाउट ट्रैंडी थिंग।
वाट द हेल?नाम भी मेरा... दिन भी मेरा। लेकिन शिगूफ़ा न्यू टाइप हिन्दी के नाम का। ये क्या नया चल रहा है मार्केट मे। लगता है वो सच मे आउटडेटेड हो गयी है। यहाँसे निकलने मे ही भलाई है। वैसे रही तो वो सब दिन की चोर है। पहले शब्द हड़पती थी अब इधर-उधर नज़रें मार लेती है। हाँ,तो जाते जाते उसने देखा कि ‘न्यू टाइप हिन्दी’मे सच मे उसका डब्बा गुल है। इधर तो अङ्ग्रेज़ी बहन ने घुसपैठ मार रखा है। ठीक ही है... आजकल उसकी बहन काफी हॉट लगती है। भला हो उसका जिसने उसकी बहन के बहाने उसके नाम को भी थोड़ी इज्ज़त दे दी।
बड़ी एकसाइटेड होकर निकली थी। पहला ही धक्का दिल के हज़ार टुकड़े कर गया। कोई नहीं,इधर न सही। इस शहर मे उसके दीवाने बहुत हैं। कोई तो उसको याद कर ही रहा होगा। वो थी ही बेवकूफ़ जो नए बच्चों के बीच आई। इनका कोई भरोसा नहीं। पुराने मुरीद ही अक्सर वफा फरमाते हैं। हाँ तो मोहतरमा,आगे बढ़ीं,गाना गाते हुए,‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले’। दो चार गली पार करते ही एक और जलसा केंद्र दिख गया। यहाँ भी उसके नाम पर उत्सव होना था। पूरी सजावट हो चुकी थी। इसलिए शायद आस-पास कोई नज़र नहीं आ रहा था। बस एक बूढ़ा चौकीदार खर्राटे भर रहा था। इस बार वह फिर से अजीब टाइप नहीं फील करना चाह रही थी। पक्की तौर पर अपना नाम देखा। यहाँ कोई न्यू टाइप या ओल्ड टाइप नहीं लगा था उसके नाम के आगे या पीछे। यानी यह सचमुच उसके हॅप्पी बर्थडे के लिए था। इस बार वाला एकसाइटमेंट जस्टिफाइड था। भई,इनलोगों को तो ध्न्यवाद बोलना ज़रूरी है। चौकीदार को जगाकर उससे बात करना मुफीद रहेगा।
भैया चौकीदार,मैं हिन्दी... आपसे बात करना चाहती हूँ। आपको धन्यवाद कहना है।
आधी रात मे,कोई औरत...
चौकीदार ‘आल इज़ वेल’कहता हुआ हड़बड़ा कर उठ बैठा।
जी मैडम... कहिए क्या बात। इतनी रात को काहे उठाया?
अरे भैया,नाराज़ क्यों होते हैं। मैं हिन्दी हूँ। आपको बस ‘धन्यवाद’कहना था। ये आपलोग जो मेरे नाम पर उत्सव कर रहे हैं,उससे मेरा रोम-रोम खिल उठा है।
मैडम,जाइए... आधी रात मे मर्दों की नींद खराब करना अच्छी औरतों के लच्छन नहीं हैं। और आप हैं कौन?आपके नाम पर जलसा क्यों होगा?
अध्यक्ष साहेब के पास ऊपर से आर्डर आया था। सुना है कोई राष्ट्र भाषा है। उसका जन्मदिन है कल। इसलिए ये जलसा हो रहा है। साल मे एक बार ई जलसा हो जाता है तो पूरी समिति का बारह महीने का खर्चा चलता रहता है। बाकी किसको फुर्सत है। हमारे साहब तो धुआँ भी अङ्ग्रेज़ी में छोडते हैं।
हिन्दी को अब जवाब नहीं सूझ रहा था। जिस दिल के वहाँ हज़ार टुकड़े हुए थे,वो यहाँ मिक्सी मे पिस गया था। खैर,ग़म तो कम करना था। और टूटे दिल की दवा तो बस मधुशाला है। मेल कराती मधुशाला... हिन्दी अब फ्लैशबैक मे चली गयी थी। एक ज़माना था जब उसके पास आशिक़ों का जमावड़ा हुआ करता था। उसकी बात करने वाले करने वाले कवि और लेखक आशिक। अब तो स्याले सारे फर्जी हैं। कवि भी कविता कम मैनेजमेंट ज़्यादा करते हैं। पोइट्रि,नॉवेल मैनेजमेंट... यू नो। ;)
अरे रात के 12 बज गए हैं। ये कमबख्त मधुशाला भी आजकल दो घंटे पहले बंद हो जाती है। चलो हिन्दी,वापस चला जाये... बैक्ग्राउण्ड मे गाना बज रहा है ‘जब दिल ही टूट गया जीकर क्या करेंगे...’