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असाधारण खिलाड़ी को महानायक बनाने वाली फिल्म

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धोनी अकेले क्रिकेट खिलाड़ी हैं जो बायोपिक के साथ खेल से विदाई लेंगे। उनका जीवन, उनका कैरियर किसी पुरा-नायक जैसा बनाता है उनको। नीरज पांडे ने उनके ऊपर कमाल की फिल्म बनाई है- ms dhoni-untold story, जिसे सुशांत सिंह राजपूत ने अपने अभिनय से यादगार बना दिया है। इस फिल्म पर सैयद एस॰ तौहीद का लेख- मॉडरेटर
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एम.एस धौनी रिलीज़ हुई..आपने देखी क्या ?नहीं  देखा तो देख आएं. क्रिकेट को फ़ौलो करते हैं तो मिस नहीं करना चाहेंगे .जिंदगी के नजरिए के लिए भी मिस नहीं ही की जानी चाहिए.नीरज पांडे की 'ms dhoni-untold story'अपने किस्म की फिल्म बन उभरी है. खेल खेल में जीवन-यात्रा तय कर जाना शायद इसे ही कहते हैं.महेंद्र सिंह धौनी की  जीवन-यात्रा से गुजरते हुए एक सरल किंतु व्यापक व्यक्तित्व से परिचय होता है.धौनी के इतिहास की  पर्याप्त व्याख्या मिलती है. धौनी के जीवन पर बनी यह बॉयोपिक वर्ल्‍ड कप पर आकर समाप्‍त हो जाती है. रांची में मेकॉन कर्मचारी पान सिंह धौनी (अनुपम खेर ) के परिवार में एक लड़का पैदा होता है. बचपन से उसका मन खेल में लगता है.लेकिन मध्य वर्ग का होने की वजह से पढाई का दबाव है. मध्य वर्ग की परिवार की चिंताएं हैं,जहां करिअर की सुरक्षा सरकारी नौकरियों में समझी जाती हैं. पढाई को लेकर एक प्रचलित कहावत को टूटते देखना सुखद अनुभव था. हम 'महीकी शुरूआती रुचि फुटबॉल से भी परिचित होते हैं. स्‍पोर्ट्स टीचर को लगता है कि लड़का अच्‍छा विकेट कीपर बन सकता है.फुटबॉल खेलने वाले को क्रिकेट खेलने के लिए राजी कर लेते हैं.धौनी की किस्मत उनका इंतज़ार कर रही थी. धौनी का सफर आरंभ होता है.

बायॉपिक में फिल्मकार के समक्ष हिस्सों को चुनने व छोड़ने की चुनौती रहती है.नीरज पांडेय के लिए चुनौती रही होगी कि वे धौनी की जीवन यात्रा में किन  हिस्‍सों को हिस्‍सा लें और क्‍या छोड़ दें.फिल्म में स्पोर्ट्सपर्सन एवम छोटे शहर के जुनूनी युवा की कथा का सुंदर सामंजस्य किया गया है.कथा को संघर्षयात्रा का टच मिले इसलिए यह क्रिकेटर से अधिक छोटे शहर के सफ़ल युवक धौनी की कहानी में ढल गई. फिल्‍म ने धौनी के व्‍यक्तित्‍व के उजले पक्षों से उनकी उपलब्धियों को निखारने का अच्छा काम किया है.सहायक किरदार एवं अनछुए प्रसंग इसे अंजाम दे गए.उनके व्यक्तित्व निर्माण में माहौल का भी अच्छा चित्रण हुआ.धौनी के किरदार में प्रेम का सम्वेदनशील पहलू देखना अप्रतिम अनुभव था.हालांकि कुछेक प्रसंग थोडे अधूरे रह गए.धौनी-प्रियंका का लव एंगल कसक छोड़ जाता है. फिल्म महज़ क्रिकेट के शौकीन दर्शकों के लिए नहीं. जो लोग धौनी को फोलो नहीं करते उन्हें भी यह फिल्म देखनी चाहिए. आपको धौनी में छोटे शहर का युवा नायक नज़र आएगा जो अपनी मेहनत व जिद से सपनों को हासिल करता है. क्रिकेट के फोलो करने वालों को यह फिल्‍म अच्‍छी लगेगी,क्‍योंकि इसमें धौनी के खेल एवं संघर्षयात्रा का सुंदर समागम हुआ है. यह फिल्म छोटे शहर के नायकों की कहानी है. धौनी की प्रेरक गाथा युवाओं में जीवन हेतु अदम्य साहस का संचार करने में सफल है. इस फिल्‍म में हम किशोर व आत्‍मविश्‍वास के धनी धौनी को देखते हैं. उनकी जीवन यात्रा कहीं न कहीं हर सफ़ल युवक की कहानी दिखाई पड़ती है.छोटे शहरों के बड़े नायकों का जादू हमें भीतर से खुश करता है.फिल्‍म अपने उद्देश्‍य में सफल रही है.यह बात आखिर में रियल धौनी के हैण्ड वेव पर बजी तालियों से पता चलेगी. फ़िल्म का असली मज़ा सिनेमाहॉल में फील होता है.

एम एस धौनी सामयिक फैसलों के विजय की बात करती है. जिंदगी अहम व पेंचिदा फैसले चलते-फिरते लिए जाते हैं. छोटे क्षणों के फैसलो का असर जिंदगी रहते ख़त्म नहीं होता. हमारे आज व कल को इतिहास के मामूली से दिखाई देने वाले पल दरअसल तय करते हैं. विडम्बना देखें कि इन्हें डिसकस करने का समय  भी हमारे पास नहीं होता.

प्रशंसा करनी होगी अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की जिन्होंने एम एस धौनी के बॉडी लैंग्‍वेज,खेल शैली और एटीट्यूड को समुचित मात्रा में समझा व अपनाया. सुशांत में धौनी की  मेनरिज्म बारीकियां देखते ही बनती हैं.उन्‍होंने धौनी के रूप में खुद को ढाला और आखिर तक वही बने रहे.धौनी की भावात्मक प्रतिक्रियाएं ज़रूर कुछ अलग होंगी, लेकिन फिल्‍म देखते हुए हमें उनकी परवाह कम रहती है. क्योंकि तब तक सुशांत-धौनी के फर्क मिट चुके होते हैं. धौनी के पिता पान सिंह धौनी के किरदार में अनुपम खेर ने न्याय किया है. धौनी के जीवन में आए साथी,परिवार,कोच व मार्गदर्शकों की भूमिकाओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया गया. व्यक्तित्व के स्तरों को बताने के लिए यह आवश्यक था. 

धौनी के आसपास दोस्तों की बड़ी अच्छी जमात थी.क्रिक्रेट के मैदान से लेकर स्पोर्ट्स कोटे में नौकरी मिलने तक वो थोड़ा किस्मत वाले लगे. दोस्त की भूमिका में संतोष  (क्रांति प्रकाश झा) अच्‍छे लगते हैं.युवराज सिंह का किरदार खूब तालियां बटोरता है.क्या खूब कास्टिंग है. बहन के किरदार में भूमिका भूमिका चावला को देखना सुखद था. दिशा पटानी की मिलियन डॉलर स्माइल फिल्म को प्रेम पथ पर ले जाती है. उनकी व पत्‍नी की भूमिकाएं कहानी को जज्बात से जोड़ जाती हैं.जिसका बेहतरीन साथ गाने एवं संगीत ने दिया है.प्रियंका की मौत की ख़बर पर सुशांत की प्रतिक्रिया कहानी को भावनात्मक चरम बिंदु देती है.

फिल्मकार चूंकि बॉयोपिक बना रहे थे इसलिए भाषा-परिवेश का पुट देना ज़रूरी था.नीरज इसे बिहार-झारखंड अनुरूप रखने में सफल रहे हैं. फिल्म को स्थानीयता देने के लिए यह लाजिमी था. इलाके की ज़बान की बारीकियों को डायलॉगस एवं....कपार पर मत चढ़ने देना,दुबरा गए हो ,सिंघाडा जलेबी ..जैसे स्थानीय शब्द व पदो के इस्तेमाल में महसूस किया जा सकता है. बिहार- झारखंड के दर्शक फिल्म में खासा अपनापन पाएंगे.कुछ पलों के लिए ही सही उन्हें'एम एस धौनी'को सेलेब्रेट करने दें..महिया मार रहा..क्या खूब खेल रहा.





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