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राकेश श्रीमाल की कविताएँ

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बहुत दिनों से जानकी पुल पर कविताएँ नहीं लगाईं थी. आज एक दुर्लभ कवि राकेश श्रीमालकी कुछ कविताएँ. वे हिंदी कविता की किसी होड़ में नहीं हैं, सफलता के किसी मुहावरे को उन्होंने नहीं अपनाया. बरसों से कविताएँ लिख रहे हैं और अपने मुहावरे में लिख रहे हैं- मॉडरेटर 
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जितना कि

फिर भी
इतनी दूर नहीं रहूँगा मैं
कि तुम्हारा हाथ नहीं पकड़ सकूँ
तुम्हें थोड़ा परेशान न कर सकूँ

जितना कि
यह समय सोच रहा है


मकान
कोई एक मकान है अदृश्य
जिसमें हम दोनों रहते हैं
एक दूसरे के साथ
एक दूसरे से छिपे हुए

मैं सुबह कुछ बोलता हूँ
तुम लंबी प्रतीक्षा के बाद
जवाब देती हो मुझे
बीच रात में जागते हुए

यह हमारा ही मकान है
जिसके भीतर फैले हुए हैं
घने जंगल, पर्वतों की श्रृंखला
समंदर के खारे पानी में
तेज लहरों में बहता पूरा चाँद

यह हमारा ही मकान है
हमारी दूरी जितना बढ़ा

हम मिल नहीं पा रहे हैं
हमारे अपने ही घर में
सिवाय इस सुख के
हम रह रहे हैं
एक ही मकान में


यह सब   
ऐसा करना
थोड़ी नोंक झोंक करना
थोड़ा गुस्सा भी
जरा सा परेशान भी करना

करना ऐसे
तुम्हें पता भी नहीं चले
और हो जाए
यह सब भी


डायरी
यह दोपहर है
या बारिश आने-आने को है
केवल थोड़ी-सी बूंदें
डायरी में चले जाने दो

ए बारिश के देवता
तुम्हें भी सुख मिलेगा
पतझड़ में इन्हें पढ़ते हुए

तुम्हें भी पता चलेगा तब
कितना जरूरी है
मिट्टी और जीवन के साथ
डायरी के लिए तुम्हारा बरसना



चाह
सबकुछ इतना ही सरल हो
जैसे कल रहा
जीवन से युद्ध भी
लोगों का षडयंत्र भी
एक ही टिफीन में तृप्ति भी

हम ऐसे ही रहें
इस जीवन में साथ
सपनों में उड़ते हुए
उम्र को घटाते हुए

सब कुछ इतना ही सरल हो
जैसा हमारा मन चाह रहा है


इस तरह
न मालूम कैसे मिले हम
किस तरह की बातों पर मुस्कुराए
कैसे एकाएक देखने लगे
एक दूसरे को
बात करते-करते...

थमा रहा कितनी देर तक
तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में
कितने पेड़, कितने जंगल
न मालूम कितने लोग
गुजर गए हमारी नजरों से

ना मालूम कैसे
इस तरह मिलते-मिलते
हम मिल जाएं हमेशा के लिए


अधूरा
तुमसे
अब कभी अधूरा नहीं मिलना चाहूँगा

अधूरा ही रह जाता है|
यह सारा जीवन
सारे सपनें
सारी यात्राएं
पूरा अंतर्मन
न जाने कहाँ-कहाँ उलझी भूख और प्यास
फिर हम एक दिन
अचानक
अधूरे ही चले जाते हैं इस जीवन से

तुमसे
अब कभी अधूरा नहीं मिलना चाहूंगा मैं


देखना
किसी ने तो देखा होगा हमें
एक पल
हमें एक दूसरे को देखते हुए

वृक्ष से गिरा कोई पत्ता
सड़क पर जमा हुआ पानी
ठंढी हवाओं के एक झोंके ने

देख लिया होगा
हमारा देखना
बिना यह जाने
हम क्यू
एक दूसरे को देख रहे रहें हैं



अचानक
ऐसे ही
बढ़ जाती है उत्सुकता
दूसरों के लिखे शब्द पढ़ने को

अचानक
ठहर जाता है समय
थोड़े से शब्दों के नीचे

ऐसे ही
कविता में आ जाती है
चुपके से बरसात की बूंदे
फिर टपकने लगती है
पूरी दिनचर्या में



फर्क  
कौन-कौन से होंगे शब्द
जो मुझमें शामिल हो जाएंगे
मुझ की तरह
शब्द की तरह
कैसे फर्क कर पाओगी तुम
यह मैं हूँ
या तुम्हारा प्रेम



दृश्य
जैसे
बांसुरी चाहती है
किसी होंठ का स्पर्श

जैसे
खिड़की चाहती है
कोई उस पर हाथ टिकाए
देखें बाहर का दृश्य

जैसे
हरी दूब
करती है प्रतीक्षा
कोई आए
बैठे उस पर

वैसे ही
रख लेना मुझे
अपने ही साथ
अपनी ही छाया की तरह

ताकि देख न पाए कोई
तुम्हारे साथ
हमेशा मेरा रहना  





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