अफवाहों का दौर चल रहा है, ऐसे समय में संदेह, जासूसी का भय बढ़ जाता है. जानकी पुल के मेल में अनाम पते से एक जबरदस्त जासूसी उपन्यास आया है. गुप्तचर्या की परम्परा भारत में अति प्राचीन काल से चली आ रही है. गुप्तचरों के अध्यक्ष के रूप में वरुण की चर्चा ऋग्वेद में बार-बार आयी है. रामायण काल में राम की सेना की गुप्तचर-व्यस्था का प्रमुख हनुमान को बनाया गया था. हनुमान ने विभीषण का राम के प्रति झुकाव (भक्ति) जानकर उन्हें राम के पक्ष में करने का सफल प्रयास किया था. रावण को मार पाना जब राम के लिए मुश्किल हो हो रहा था तो विभीषण द्वारा दी गयी सूचना कि रावण की नाभि में अमृत है के आधार पर ही रावण का अंत संभव हो पाया. बाद के इतिहास में चाणक्य सबसे महान कूटनीतिज्ञ हुए जिन्होंने गुप्तचर-प्रणाली को विशिष्ट और वैज्ञानिक रूप प्रदान किया जो कमोबेश आज भी मान्य है. अपनी इसी गुप्तचर-प्रणाली का प्रयोग कर चाणक्य ने निहत्थे, बिना कोई युद्ध किये, नंदवंश का नाश कर दिया और नवयुवक चन्द्रगुप्त को मगध का सम्राट बना दिया. चाणक्य की इस उपलब्धि को आधार बना कर चौथी शताब्दी के संस्कृत महान नाटककार विशाखदत्त ने ‘मुद्राराक्षस’ नाटक की रचना की. अभी हाल में, इस क्षेत्र के एक विशिष्ट व्यक्तित्व (जिन्होंने किन्हीं कारणों से अभी अपना नाम गुप्त रखने का निवेदन किया है) ने इसी कथा को आधार बनाकर एक ऐतिहासिक जासूसी उपन्यास की रचना-प्रक्रिया प्रारंभ की है. इस अनाम लेखक के अनाम उपन्यास का एक अंश -
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पाटलिपुत्र नगर में नगरवधुओं के मोहल्ले की मुख्य गणिका मोहिनी के यहाँ कात्यायन का गोपनीय रूप से आना-जाना था. वर्षों पहले, उसने सौदामिनी नाम की एक छोटी-सी सुन्दर अनाथ बालिका को गुप्त रूप से मोहिनी के यहाँ रखा था. मोहिनी की मदद से सौदामिनी को विषकन्या के रूप में विकसित करने के लिए कात्यायन ने बचपन से ही उसे विष की थोड़ी-थोड़ी मात्रा का सेवन करवाया था. यही नहीं, सौदामिनी को विषैले वृक्ष तथा विषैले प्राणियों के संपर्क का अभ्यास भी करवाया जाता था. इसके लिए कुछ अत्यंत भयंकर विष वाले साँपों को पाला गया था जिनसे नियमित रूप से उसे डंसवाया जाता था. इन प्रयासों से सौदामिनी इतनी विषैली हो गयी कि उसकी सांस भी विषाक्त हो गयी. इसके अलावा अभियान के दौरान उसे अपने मुंह में विष रखने का भी प्रशिक्षण दिया गया था जिससे उसका चुम्बन लेते ही कोई भी अपनी जान से हाथ धो बैठे. उसे नृत्य-संगीतसहित कई ललित कलाओं की शिक्षा दी गयी थी एवं सब प्रकार की छल विधियाँ सिखाई गयी थी. प्राकृतिक सौन्दर्य तो सौदामिनी का एक प्रबल अस्त्र था ही जिसके बल पर वह किसी भी पुरुष को आकृष्ट करने में समर्थ थी.
विषकन्या अभियान पर कात्यायन काफी धन गुप्तराजकोष से खर्च करता था. विषकन्या का प्रयोग वह गुप्त परन्तु प्राणघातक अस्त्र के रूप में किसी प्रबल शत्रु को समाप्त करने में करता था. लेकिन, वह जानता था कि जब कोई विषकन्या किसी प्रभावशाली व्यक्ति को अपने विष के प्रभाव मारती थी, तो उसका स्वयं का जीवन भी खतरे में पड़ जाता था क्योंकि मृतक के सेवक एवं अनुयायी उस विषकन्या को जान से मार डालते थे, बर्शते वह चुपके से भाग न जाय और गुमनामी का जीवन जीने लगे. चूँकि एक विषकन्या का प्रयोग सिर्फ एक बार ही किया जा सकता था, इसलिए कात्यायन ने कई विषकन्यायें तैयार कराई थी. इनमे सौदामिनी सबसे सुन्दर और घातक थी.
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रूपजीवा बाजार की मुख्य संरक्षिका मोहिनी का अपना वेश्यालय भी बहुत विस्तीर्ण था. उसके भव्य भवन में विशाल नृत्यागार के अतिरिक्त दर्जनों छोटे कमरे थे जहाँ नर्तकियां अलग-अलग पुरुषों को उनकी मर्जी के मुताबिक मनोरंजन करती थीं. उन कमरों से परे एक गुप्त कक्ष
था जिसमें केवल कात्यायन, मोहिनी और सौदामिनी मिलते थे. इसी कमरे में कात्यायन सौदामिनी को गम्भीर भाव से समझा रहा था कि लक्ष्य बहुत संवेदनशील है जिसके लिए अधिकतम सतर्कता और गोपनीयता की आवश्यकता है.
यह पूरी योजना मोहिनी, सौदिमिनी और कात्यायन के अतिरिक्त अन्य किसी को न पता थी. मोहिनी को सिर्फ इतना ही पता था कि किसी के विरुद्ध विषकन्या का प्रयोग होना है. सौदिमिनी को मात्र इतना ही पता था कि उसके वृद्ध पालक अमोलक जब नियत समय पर चार कहारों की पालकी लेकर गुप्त रूप से आयेंगे तो उसे सोलहो श्रृंगार से सज कर उसे पालकी में बैठ कर चल देना है. लक्ष्य और उसके स्थान एवं समय के सम्बन्ध में अभी किसी को जानकारी न दी गयी. यह परम गुप्त अभियान संपूर्णतः सिर्फ कात्यायन को पता था. यहाँ तक कि उसके अन्तरंग सलाहकार सर्वेश्वर को भी इसकी जानकारी न थी.
शीघ्र ही, एक रात प्रथम प्रहर में कात्यायन ने अमोलक को लक्ष्य के सम्बन्ध में सारा विवरण बताकर तुरंत प्रस्थान करने का आदेश दिया. तत्क्षण, सौदामिनी की पालकी अमोलक की अगुआई में अपने अभियान पर चल पड़ी.
अमोलक को विवरण दिए जाते समय सर्वेश्वर को मामले की भनक मिल गयी. अब उसे चाणक्य को तुरंत यह सूचना देकर सतर्क करना था कि यह अभियान चन्द्रगुप्त के विरुद्ध लक्षित था. लेकिन, समय बहुत कम था. स्थिति विकट थी. भावी सम्राट के जीवन-मरण का प्रश्न था.
सर्वेश्वर ने तुरंत अपने शिष्य जनेश्वर को इस कार्य में लगाया कि वह चाणक्य को विषकन्या अभियान के प्रति शीघ्र सतर्क करे. साथ ही, बड़ी गोपनीयता बरतनी थी ताकि अभियान में शामिल लोग सशंकित होकर भाग खड़े न हों.
रात्रि के सुनसान समय में जब तक जनेश्वर चल पाता, तब तक पालकी गणिकाओं के मोहल्ले से निकल प्रमुख पण्यों (बाज़ारों) से गुजरती हुई श्रेष्ठियों (सेठों) के मोहल्ले की ओर बड़ी तेजी से बढ़ रही थी. इधर, जनेश्वर पूरी ताकत से दौड़ लगा रहा था, ताकि पालकी के पहुँचने से पहले वह चाणक्य के पास पहुँच जाय.
पालकी श्रेष्ठियों के मुहल्ले से होकर कायस्थों के मुहल्ले पहुँच गयी जहाँ से होकर उसे सीधे राजपथ और जनपथ वाले पुष्पवेणी चौराहे पहुँचना था. वहां जाकर तय होना था कि पालकी राजपथ से जाएगी या जनपथ से. पालकी को पुष्पवेणी चौराहे पर पहुँचने से पहले ही जनेश्वर दौड़ता हुआ वहां पहुँच कर एक ओर छुप गया.
चौराहे पर एक क्षण रुक कर अमोलक कुछ सोचने लगा. उसे लगा कि आजकल चल रही राजनीतिक उठापटक के कारण राजधानी भी सुरक्षित न थी. ऐसी हालत में उसे भय लग रहा था कि स्वर्णाभूषणों से लड़ी-फंदी सौदामिनी को जनपथ से ले जाना सुरक्षित न है, यद्यपि जनपथ राजपथ की अपेक्षा छोटा और शीध्र पहुँचाने वाला रास्ता था. उसने कहारों को राजपथ से चलने का निर्देश दिया. जनेश्वर जनपथ पर तेजी से दौड़ पड़ा. जब तक पालकी नगर का सिंहद्वार पार करती, जनेश्वर पुरु के शिविर के निकट पहुँच गया.
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मगध का सम्राज्य सहज ही बिना किसी रक्तपात के जीत लेने के उपलक्ष्य में उस रात एक भव्य रंगारंग कार्यक्रम पुरु के शिविर में आयोजित था. सुन्दर नर्तकियों का मोहक नृत्य चल रहा था. गणमान्य लोगों में से एक ओर युवा विजेता चन्द्रगुप्त और सर्वदा सजग निगाहों वाले चाणक्य विराजमान थे. दूसरी तरफ, राजा पुरु अपने छोटे भाई अमर, युवा पुत्र मलय और जनजातीय क्षत्रपों के साथ बड़ी शान से बैठे थे. उनकी बगल में ही कौलूता के राजा चित्रवर्मन, मलयांचल के राजा सिंहनाद, कश्मीर के राजा पुष्कराक्ष, सिन्धुप्रदेश के राजा सिन्धुसेन और यवन राजा मेघानक बैठे हुए थे.
रात्रि लगभग दो प्रहर बीत चुकी थी. सुरा के सेवन से पुरु और उसके साथी मदहोश थे. कई नर्तकियों ने बारी-बारी से नृत्य किया. उनकी घुंघरुओं की खनक, नृत्य की मोहक भंगिमाओं और सुमधुर स्वर ने दर्शकों का मन मोह लिया. कुछ नर्तकियों ने तो इतना उत्तेजक नृत्य किया कि पूरा वातावरण कामुकता से सराबोर हो उठा.
पालकी बड़ी तेजी से राजा पुरु के शिविर की ओर बढ़ रही थी. जनेश्वर वहां पहुँच तो पहले ही चुका था, किन्तु चाणक्य से संपर्क करने में उसे कठिनाई दिख रही थी. चन्द्रगुप्त के साथ चाणक्य गीत-संगीत के कार्यक्रम के मध्य बैठा था जहाँ पहुँच कर गुप्त रूप से उसे सूचित करने का उपाय और औचित्य जनेश्वर को सूझ न रहा था. इधर समय तेजी से भाग रहा था और पालकी पुरु के शिविर में पहुँचने ही वाली थी.
अचानक शिविर के पास “हू लू लू ... हू लू लू ....हू लू लू....” का विचित्र किन्तु तीव्र स्वर उठने लगा. यह स्वर जनेश्वर ही अपने होठों को दोनों हाथों से आड़ करके निकाल रहा था. चाणक्य से संपर्क एवं संवाद के लिए जनेश्वर का यह गुप्त संकेत था. यह स्वर सुनते ही चाणक्य चौकन्ना हो गया और लघुशंका के बहाने संगीत-सभा से तुरन्त बाहर निकल आया और स्वर की दिशा आंकते हुए जनेश्वर से आ मिला. जनेश्वर संक्षेप में पूरी बात चाणक्य को जल्दी से बता कर अँधेरे में गायब हो गया.
चाणक्य ज्यों ही संगीत-सभा में वापस लौटा, सजी-धजी पालकी को चार बलिष्ठ कहारों ने कार्यक्रम-स्थल पर लाकर धीरे से उतारा. वहां उपस्थित सभी लोग जिज्ञासा और आश्चर्य से पालकी की ओर देखने लगे. उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब पालकी के सुनहरे झिलमिलाते पर्दों को हटाते हुए एक सर्वांग सुंदरी निकल कर सलज्ज भाव से खड़ी हो गयी. पालकी के साथ चलने वाला वृद्ध अमोलक शीघ्रता से आगे आकर निवेदन किया कि पाटलिपुत्र की प्रजा अपने नए युवा सम्राट चन्द्रगुप्त के लिए नगर की अनिंद्य सुंदरी सौदामिनी को प्रस्तुत करके अभिनन्दन करती है. अपना निवेदन समाप्त कर अमोलक युवा विजेता चन्द्रगुप्त की ओर देखने लगा.
सतर्क चाणक्य ने शीघ्रता से खड़े होकर गंभीर स्वर में घोषणा की, “पाटलिपुत्र के नागरिकों को मालूम होना चाहिए कि विजेता एक नहीं, दो हैं. चूँकि महाराज पुरु वरिष्ठ हैं इसलिए किसी भी उपहार पर पहला हक़ उनका है.”
इस बीच, उस सुंदरी को एकटक निहारता चन्द्रगुप्त उसके कटाक्ष से लगातार घायल हो रहा था और उसके उपभोग के सपनों में खोया हुआ था. लेकिन, चाणक्य की घोषणा ने उसके सपनों को चकनाचूर कर दिया. इससे आहत चन्द्रगुप्त चाणक्य की ओर अभी निराशाभरी निगाहों से देख ही रहा था कि मदिरा के नशे में झूमते हुए पुरु ने आगे बढ़ कर सौदामिनी का हाथ पकड़ लिया और खींचते हुए अपने शयनकक्ष की ओर चल पड़ा.
प्रातः पुरु अपने शयनकक्ष में मृत पाया गया. शिविर में शोक की लहर दौड़ गयी. भारी शोरगुल के बीच सुंदरी सौदामिनी और बूढ़ा संरक्षक अमोलक की खोजबीन शुरू हुई, लेकिन दोनों फरार थे. उनका कहीं अता-पता न था.
इधर, चन्द्रगुप्त बहुत क्रुद्ध था. एक तो, अपनी हत्या के षड्यंत्र से और दूसरे, अपने मित्र पुरु के मारे जाने जाने से वह बहुत क्षुब्ध था. चाणक्य को यद्यपि सारे षड्यंत्र के बारे में पहले ही जनेश्वर ने बता दिया था, फिर भी दिखावे के तौर पर उसने शीघ्र एक तात्कालिक अन्वेषण किया और कात्यायन को इस षड्यंत्र के लिए उत्तरदायी घोषित किया. चन्द्रगुप्त ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि कात्यायन जहाँ कहीं भी मिले उसे तत्काल बंदी बना लिया जाय.
अपने षड्यंत्र का भांडा फूट जाने और चन्द्रगुप्त की घोषणा से डर कर कात्यायन अज्ञात स्थान में जा छुपा. उसने अपनी पत्नी और पुत्र को पाटलिपुत्र में ही कहीं छुपा दिया. अज्ञातवास के बावजूद कात्यायन सर्वेश्वर और मगध साम्राज्य के पदाधिकारियों और राजकर्मचारियों के संपर्क में था. उसे अभी विश्वास था कि अपनी बुद्धिबल और गुप्तचरी से चाणक्य को परास्त कर देगा और किसी अन्य व्यक्ति को मगध का सम्राट बनाकर स्वयं महामात्य के पद पर लौट आएगा. इस आत्म-विश्वास के चलते वह अज्ञातवास में रहकर भी चन्द्रगुप्त को मारकर चाणक्य को परास्त कर देने के अभियान में लग गया.
पुरु के निधन से चाणक्य बड़ा पुलकित था. उसे बड़ी ख़ुशी हो रही थी कि साम्राज्य का आधे का हिस्सेदार बड़ी आसानी से रास्ते से हट गया. किन्तु, चन्द्रगुप्त के पूर्ण सम्राट बनने में उसे अभी भी बाधा दिख रही थी. पुरु का उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई अमर और पुत्र मलय अभी जीवित थे. इनके निराकरण के लिए वह अपनी अगली गुप्त योजना पर काम करने लगा.
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