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उमेश पन्त का 'इनरलाइन पास'

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मुझे यात्राएं बहुत पसंद है और उनके बारे में पढना. अक्सर सोचता हूँ यात्रा वृत्तान्त लिखूं लेकिन टाल जाता हूँ. अच्छे अच्छे ट्रेवेलौग पढता हूँ और खुश होता रहता हूँ. आजकल उमेश पन्तके यात्रा-वृत्तान्त 'इनरलाइन पास'की सुगबुगाहट है.  उसका एक अंश पढ़िए. अच्छा लगे तो प्रीबुकिंग भी कीजियेगा. आनंददायक लग रहा है- प्रभात रंजन 
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जून का दूसरा पखवाड़ा शुरू होने को था. दिल्ली शहर अभी गर्म था . बस कुछ ही देर पहले ट्रेकिंग के लिए ऑनलाइन ऑर्डर किया रकसेक घर पहुंचा. पैकिंग पूरी हो गई थी . अभी कैमरे की अतिरिक्त बैटरी और मेमोरी कार्ड लेना बाकी था. पूरी तरह तैयार होकर घर से बैगपैक उठाकर मैं महरोली के अपने कमरे से निकल आया. साकेत के सलेक्ट सिटी वॉक से अपनी पहली कमाई से मैंने अपने लिए यह कीमती कैमरा खरीदा था. मेरे साथ ही अगले कुछ दिन इस कैमरे के लिए भी विजुअल ट्रीट की तरह होने वाले थे.
मैं सलेक्ट सिटी वॉक पहुंचा. वहां मैं एक अकेला ही शख्स था जो इतने भारी बैग के साथ मॉल में घूम रहा हो. सब खुद में गुम थे, मुस्कुराते हुए, बतियाते हुए. किसी को एक दूसरे की ज़िंदगी से कोई ख़ास मतलब नहीं था

. दिल्ली जैसे शहरों की यही बात मुझे कभी कभी बहुत अच्छी लगती है. यहां अजनबी होकर भी जिया जा सकता है. पर कभी कभी इसी बात से डर भी लगता है. आप कितना ही वक्त इस शहर के साथ गुजार लें ये आपको उसी अजनबियत के भाव से देखता है. लगातार बदल जाते लोगों की नज़रों से. इस शहर ने जैसे अपनी नज़रें ही बंद कर ली हों. आपकी खुशी में, दुःख में, उत्सवों में, मातमों में, ये हर वक्त एक सा रहता है. एकदम रूखा और उदासीन. इसे न आपकी भावनाओं में दखल देना पसंद है न उनमें शरीक होना. पर फिर भी इससे एक बार बना रिश्ता इतनी आसानी से ख़त्म भी तो नहीं होता. ये शहर एक ऐसे प्रेमी की तरह लगता है  जिससे एकतरफा प्यार करने को आप अभिशप्त हों.

मैं कई बार चाहता हूं कि कोई अजनबी मेरी ओर देखके बस यूं ही मुस्कुरा दे. बेवजह. पर बेवजह कुछ भी करना जैसे भुला देता है ये शहर. आप यहां प्यार भी किसी वजह से करते हैं और नफ़रत तो खैर बेवजह होती भी नहीं. मैं किसी से नफ़रत नहीं कर पाता और किसी बेवजह से प्यार की तलाश में इस शहर से दूर जाना चाहता था. एक महीने के लिए ही सही.

शुक्रगुजार होता हूं कभी कभी कि वो काम करने के मौके मिलते रहे हैं जो अच्छा लगता है. कल का कोई ठीक-ठीक नक्शा ज़हन में अब तक नहीं बनाया है. नक़्शे यूं भी तो ज़िंदगी को सीमाओं में बांध देते हैं. कल क्या होगा ये ज़िंदगी का सबसे रूखा और क्रूर सवाल लगने लगता है कभी-कभी. कहीं मेरी ये यात्रा इसी सवाल से मुंह मोड़कर भागने का एक ज़रिया तो नहीं थी ?

मैं मॉल की तीसरी मंजिल में उस जगह की तरफ बढ़ गया जहां से मैंने करीब दो साल पहले ये कैमरा खरीदा था. वहां जाकर पता चला कि वो शो-रूम  अब बंद हो गया है. पहले फ्लोर पर वापस आकर क्रोमा में जाकर पता किया. बैटरी वहां भी नहीं मिली पर हां मैमोरी कार्ड मुझे वहां मिल गया. समय कम था. मुझे आनंद विहार से बस पकड़नी थी. ये वो दिन थे जब उत्तराखंड जाने वालों की भीड़ भी बहुत होती है. बस में जगह मिलना वैसे ही मुश्किल हो जाता है. कई बार सीज़नमें तो पांच बजे जाने वाली बस के लिए दिन के बारह बजे से लोग नंबर लगा के बैठ जाते हैं. दिवाली, होली पर इन बसों में धक्कमपेल के मंज़र कुछ और ही होते हैं. खुशनसीबी ये थी कि ये इतना पीक सीज़न भी नहीं था.  मैंने स्टेशन के लिए ऑटो किया. पिछले तीन दिनों से रात को नींद नहीं आई थी. शायद ज़िंदगी के पहले उच्च हिमालयी सफ़र का उत्साह नींद पर भारी पड़ गया हो.
उमेश पन्त 

ऑटो से पीछे छूटते शहर को निगाह भर देखा और सोचने लगा कि शहर छूटता नहीं साथ चलता चला जाता है. अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ वो धीरे-धीरे हमारे ही भीतर जमा हो जाता है. और फिर हमारे तौर तरीकों में, हमारी भाषा में, हमारे पहनावे में और यहां तक कि हमारे रंग-रूप, चेहरे मोहरे में वो शहर नुमाया होता चला जाता है. शहर का हम पर लगातार चढ़ता जाता ये रंग वक्त के साथ गहरा, और गहरा होता जाता है. जितना हम शहर में रहते हैं उससे भी ज्यादा शहर हममें रहने लगता है. हम चाहें या ना चाहें.

किताब के बारे में ज़्यादा जानकारी के लिए लिंक
http://umeshpant.com/innerline-pass/

प्रीबुकिंग के लिए लिंक

http://www.amazon.in/Innerline-Pass-Umesh-Pant/dp/9384419567/ref=sr_1_1?ie=UTF8&qid=1479927401&sr=8-1&keywords=inner+line+pass

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