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रश्मिरेखा की कविताएं

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रश्मिरेखा उन कवयित्रियों में हैं जो चुपचाप लिखने में यकीन रखती हैं. प्रचार प्रसार से दूर रहने वाली मुजफ्फरपुर की इस वरिष्ठ कवयित्री की कुछ कविताएं आज आपके लिए- मॉडरेटर 
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1.
चाभी                                        
उसे विरासत में नहीं मिला था
चाभियों का गुच्छा
हर जगह ईजाद करनी थी अपनी एक चाभी
पिछली शताब्दी के कपाट बंद किये बिना ही
जब लोग खोलने में लगे थे
नयी शताब्दी का ताला
उसे ऐसा कई दरवाज़ा नहीं खोलना था
जिसे फिर से बंद नहीं किया जा सके
वह अलीबाबा नहीं था
और न देखा था उसने चालीस चोरों को
कि कह सके खुल जा सिम सिम

मुश्किलें कब आसान होती हैं
आसान नहीं है आसान को आसान कहना
हाशिये पर बैठे को आख़िरकर
आता है काम अपना साहस ही

एक छोटी सी चाभी उड़ा ले जाती है
अंतरिक्ष में यान
एक छोटे सी चाभी खोल देती है
स्मृतियों की तिजोरी
एक दिन यूँही पड़ी मिल गई
उसे कुछ चाभियाँ
जिनसे खोले जा सकते थे
जादुई ताले करिश्माई रास्तों के
वहाँ पास की चीज़े दूर की नजर आती थी
और दूर की बहुत पास
खिलौनों को नचानेवाली चाभी
दिमागों में भी भरी जा रही थी
एक चुप्पी के ताले में दफ़न किया जा रहा था
इतिहास

सहम कर उसने ताक़ पर रख दीचाभियाँ
ताक शायद होता ही है कुछ रखकर
भूल जाने के लिए

2.
सीढियाँ
                        --------------------
सीढियों पर चढ़ते हुए
हमने कब जाना
सीढियाँ सिर्फ चढ़ने के लिए नहीं
उतरने के लिए भी होती हैं

इतनी जद्दोजहद के बाद
चढ़ सके जितनी
हर बार उससे कही ज्यादा उतरनी पड़ी सीढियाँ

बचपन की यादों में
शामिल है साँप-सीढ़ी का खेल

फासले तय करेंगे हौसले एक दिन
बस इसी इंतजार में
बिछी रहती हैं सीढियाँ
पांवो के नीचे सख्त ज़मीन की तरह

सीढियों से उतरते हुए
हमने कब जाना
कि सीढियों पर चढ़ने से
कहीं ज्यादा मुश्किल था
खुद को सीढियों में तब्दील होते देखना

और यह कि जो बनाते है सीढियाँ
वे क्या कभी चढ़ पाते है सीढियाँ
सीढियों पर चढ़ते
सीढियों से उतरते
हम कभी समझ पाते है
सीढियों का दुःख
बांस की लम्बी सीढियों पर चढ़ इमारत बनाते लोग
बटन दबाते ही दौड़ती सीढियों से आते- जाते लोग

समय बनाता है सीढियाँ
या सीढियों से बनता है समय
अपने समय की सीढियों से फिसलते हुए
कभी क्या जान पाए हम


3.
कटोरी
                                                 
कटोरी भर चीज़े बचाने की कोशिश में
जुटी रही तमाम उम्र
अब इसका क्या किया जाय
कटोरी का काम  रहा
भर-भर कर खाली हो जाना
चमचमाती थाल में परोसती रही व्यंजन
बची चीज़ो को सँभालती रही हिफाजत से
करती रही जतन से व्रत अनुष्ठान
सजाती रही रंगोली
बनाती रही अल्पना
हर सुबह शाम आँगन में धुलती रही कटोरियाँ

ज़रूरत के हिसाब से ढक्कन बनने को तैयार
कटोरियो में बचा होता है इतना साहस
कि खिला सके साँप को भी दूध के साथ धान  का लावा

इतिहास  में अपनी जगह बनाती
एक कटोरी सुजाता के खीर की भी है
जिसके बिना सिद्धार्थ को कहाँ मिल पाती है सिद्धि

बार-बार मांजी जाती है ये दूसरों के लिए
परिजनों के लिए मांगती है मन्नतें
सोने-चांदी की बनी होती है
कौओं के लिए दूध-भात की कटोरी
जिन्हें कभी खुद नहीं मिल पाती दूध से भरी कटोरी
वे भी बुलाती रहती है चंदा मामा ओको

"राणाजी म्हाने बदनामी लगे मीठी
कोई निंदो,कोई विन्दो,मै चलूँगी चाल अपूठी'
कहने वाली मीरा को दिया राणा ने कटोरी भर विष

उन्हें कभी ज़रूरत नहीं पड़ती
शायद इसीलिये इतिहास में
कहीं नहीं है भीख की कटोरी

कटोरियों की हिकमत में
शामिल है जीने की जिद
तमाम जिल्ल्ल्तो के बीच भी
वे बना ही लेती है आखिर अपनी जगह

4.
चश्मा
                                            
चश्मे के पास थी वह खास रोशनी
जो मेरी आँखों की गुम हो गई थी
और आ गया वह सारी किताबों के बीच
सारी लिखाबत के बीच तीसरा बनकर

किसी चश्माघर से निकलकर
अनचाहे मेहमान सा धमक कर
सीधे चढ़ गया मेरी नाक पर
जिस पर कभी मैंने मख्खी भी नहीं बैठने दी
बहुत अटपटा लगा उसका इस तरह आना
जिसका जाना कभी मुमकिन ही न हो
फिर उसके रख-रखाव की फ़िक्र
इतनी हिफाज़त तो मैंने
कभी अपनी आँखों की भी नहीं की

शीशे की चहारदीवारी में बंद आँखों
देखा करती है अपनी छिन गई आजादी
दूसरे की बढ़ती दखलअंदाजी
उसकी गैरहाजिरी में नामुमकिन होती गई
शब्दों की दुनिया से मुलाक़ात
कितना मुश्किल है किसी खास चश्मे से
चीज़ो को पहचानने की आदत डालना
भले ही वह चश्मा अपना हो

क्या कभी मुमकिन है
अपनी नजर को अपने ही चश्मे से देखना
                ===========

5.
झोला
                                
नहीं जानती किन छोटी-मोटी जरूरतों के तहत
आविष्कार हुआ होगा झोले का
पहिये के बाद सृष्टि का सबसे बड़ा आविष्कार

समय की फिसलन से कुछ चीज़े बचा लेने की
इच्छाओं ने मिल -जुल कर रची होगी शक्ल झोले की
पर इससे पहले बनी होगी गठरियाँ
कुछ सौगात अपनों के लिए 
बांध लेने की ख्वाहिश में

उम्र के बहाव में पीछा करते एहसास
मुश्किलें आसन करने के कुछ आसान नुस्ख़े
अपनों के लिए बचाने की खातिर ही
बनी होगी तह-दर-तह
चेहरे पर झुर्रियों की झोली
जिसे बाँट देना चाहता होगा हर शख्स
जाने से पहले
कि बची रह सके उसके छाप और परछाईं

कुछ लेने के लिए भी तो चाहिए झोले
घर में एक के बाद एक आते है दूसरे नए-नए झोले
कभी-कभी सिर्फ़ अपने लिए बनते है ये
दिल की भीतरी तहों में
हर झोले में होते है चीज़ो के अलग महीन अर्थ
लिपि बनने को आतुर रेखाऍ
शिल्प में ढलने को मचलती आकृतियाँ
जागते हुए सपने देखने की कला

दरअसल इसी में फंसा होता है हमारा चेहरा

6.
रोशनदान

कमरे में स्याह अँधेरा था
मैं खोज रही थी सूई
ऑखों ने दे दिया था जबाव
आस-पास नहीं थी कोई माचिस की तीली
नहीं था रोशनी का कोई दूसरा हिसाब-किताब
कि तभी चमका
ईशान-कोण में धूप का चकत्ता
मैंने जाना उसी दिन रोशनदान का मतलब
अँधेरे में रोशनी की सेंध लगाने की बेचैनी

7.
काली लड़की
                                   
एक काली लड़की अक्सर सोचती है
अपनी कजरारी ऑखें
स्याह घने बाल
सुरमई आकाश
फिर
अपने जामुनी रंग के बारे में
क्या लड़की होने की पीड़ा कम थी
जो काले रंग का भी शाप मिला
इस रंग की दमक में क्या है
जिसकी रोशनाई में स्याह हो जाते हैं
बनते हुए वे ख़्वाब
जो घटकर मिलते है किसी लडकी को
इस दुनिया में

हमेशा की तरह लौट गए वे लोग
पसर गई उदासी
माँ के आख़िरी हिस्से तक
रह गई वह शिलालेख सी
अपने अनंत सपनों से दूर भागती

अवहेलना का संगीत सुनती
उपहास के कई दृश्यों में शामिल
कोकिल आत्मा अनुभव करती है 
उसका तो कोइ समाज नहीं है
यहाँ कृष्ण को भी नहीं चाहिए
भावी संतति अपने जैसी
और प्रेम भी अर्पित है
श्वेत राधिका को ही
यहाँ नहीं है सम्भावना कभी जन्म लेने की
कोई  किंग लूथर या नेल्सन मंडेला की

जीवन में अपने रंग भरने से निर्वासित
महज कालेपन की सजा काटती
उस लडकी की गहरी दुखती है आत्मा
कि रंग-भेद का विरोधी
अश्वेतों का अपना
उसका अपना देश भारत ही है
उसके लिए बीता हुआ दक्षिण अफ्रीका

8.
लालटेन
                                 
मेरी यादोँ के धुंध के पार पिता की बैठक में
रखी वह लालटेन है
जो देर तक जलती रहती थी
जब तक बचा रहता था उसमे तेल
उन दिनों इतना महँगा नहीं हुआ था किरासन
ईराक में बचे थे बेबीलोन सभ्यता के अवशेष

इमरजेंसी लाईट में जब मैं अपनी बैठक में
जोड़ रही हूँ बातों के सूत्र फिर से
मुझे याद आ रही है उस लालटेन की

इन दिनों रोशनी के आतंक में
अक्सर तिरोहित हो जाती है
शब्दों की रोशनी
जिसे हम साफ़-साफ़ देखते है
उसे क्या कभी देख पाए साफ़-साफ़
मद्धिम रोशनी मे केवल चीज़े ही नहीं दिखतीं
उसमे डूबता-उपराता अपना चेहरा भी
कई बार हम भी एक दृश्य हो जाते हैं
दृश्यों के आर-पार
अपनी ही नजर में

लालटेन की रोशनी में हम शुरू हुए
पल-पुस कर न जाने कब कैसे चले आये
टहलते-दौड़ते नियाँन लाईट के युग में 



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