इधर क्षितिज रायकी कहानियों की शैली ने मुझे बहुत प्रभावित किया है. नीलेश मिश्रा की मंडली के लेखक रहे हैं इसलिए कहानी में संतुलन की कला से अच्छी तरह वाकिफ हैं. दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स के विद्यार्थी हैं इसलिए समकालीन युवाओं के मानस को बढ़िया से समझते हैं. मुख्यधारा, गंभीर-लेखन के कट्टर हिमायतियों से मेरा यह आग्रह है कि वे क्षितिज राय की कहानियां पढ़ें और इसके ऊपर गंभीरता से विचार करें कि क्यों उनकी कहानियां समाज से, पाठकों से कटती जा रही हैं- प्रभात रंजन
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होते होते शाम हो ही गई. तब कॉलेज ख़त्म हो गया. फिर दो–तीन-चार के गुच्छों में दोस्त भी गायब हो गए. बचा रह गया सत्य-निकेतन का बस अड्डा, चंद चुपचाप से खड़े अनजान मुसाफिर और वो एक अकेला लड़का. अकेला लड़का अपने उत्तरी दिल्ली के दडबेनुमा कमरे की ओर लौटने लगा था. आखिरी नवम्बर महीने की निकम्मी धूप आसमान में लिपटी धुंध की चादर में दुबकी हुई थी. मौसम बदलने लगा था. अपने स्वेट शर्ट के हुड को कानों पर चढाते हुए, लड़के ने सालों बाद अपना ठिठुरना महसूस किया. सर्दियां वाकई आ गई थीं – एक गहरी सांस लेते हुए उसने जाड़े की गंध को सूंघने की कोशिश की. उसकी तीव्र मुद्रिका वाली बस के आने में अभी पता नहीं कितना समय बचा हुआ था. लड़के ने इस बीच तीन बार अपनी सफ़ेद कमीज़ पर जमा वो स्याही का दाग देख लिया. वो नीला-नीला था या मटमैला नीला या कुछ और – चूँकि लड़का अकेला था और बस का कोई अता-पता नहीं था, इसलिए उसने रंग पहचानने की कोशिश की. नीला जैसा नीला तो बिलकुल नहीं था उसका रंग, मटमैला नीला क्या होता है, उसने ऐसा रंग देखा ही नहीं था – तो तीन मिनट के बाद दाग अब भी बे-रंग ही था. लड़के को खुद पर बेहद गुस्सा आने लगा – इसलिए कि वो रंग पहचान नहीं पाता था, इसलिए कि तीन बार गहरी सांस लेने के बाद भी वो सर्दियों की बू सूंघ नहीं सका था. लड़का परेशान हो गया. परेशान रहना उसके लिए नया नहीं था लेकिन इस बार उसे लगा कि वो एक बार फिर से फेल हो गया है – सालाना पर्चों के बाद अब जिंदगी में भी.
फिर फ़ोन की घंटी बजी. उसने अपनी स्क्रीन को देखा – उस पर ‘’पप्पा जी कालिंग’’ लिखा हुआ था.
‘’ हेलो, पापा प्रणाम!’’
‘’ खुश रहो...पैसा ट्रान्सफर कर दिए हैं तुमको....रेंट मिला के 10 है...चेक किए हो?’’ पप्पा जी हमेशा काम की बात करते थे.
‘’ कर लेंगे...!’’
‘’पढ़ाई कर रहे हो न जी मन लगा के...?’’
‘’हूँ...!’’
बन के लौटोगे न जी कुछ राजधानी से....कि खाली हवाबाजी देते रहोगे?’
‘’जी...!’’
जी-दांत मत...रिजल्ट दो हमको अब जल्दी...बहुत उम्मीद किए हैं तुमसे!’
‘’जी...!’’
और सब? खाना-पीना? बढ़िया न?
जी.
चलो बुलंद रहो..घर पहुँच गए?..
‘’नहीं...!’’
चलो...टाइम मैनेज करो सही से..और मन लगा के पढो...घर पहुँचो ..फिर कॉल करना!’’
‘’जी.’’
बाप-बेटे का एक और इकतरफा संवाद ख़त्म हो गया था. लड़के के भीतर गुस्से का गुबार सा उठने लगा. और फिर उसने अपनी कलाई घडी पर एक हिकारत भरी नज़र डाली, घडी की सुइयों को टिकटिक करते हुए देखा. घडी में साढ़े पांच बज रहे होंगे, लेकिन लड़के को समय पता नहीं चला. उसने घडी देखी थी, समय नहीं! उस वक़्त वो अपनी कलाई घडी को देखते देखते अपनी कलाई से खोल कर वही बस अड्डे के सामने फ़ेंक देना चाहता था और देखना चाहता था कि डीटीसी की उस बस के विशालकाय चक्कों के नीचे वो घडी आती है कि नहीं. यूँ सोचते सोचते उसने घडी खोली, चुपके से उन पांच अनजान मुसाफिरों की नज़रों से बचते हुए उसने वहीँ सड़क पर घडी फ़ेंक दी, और बस के आने और आ कर उसके चक्कों से घड़ी को रौंद दिए जाने का इंतज़ार करने लगा.
दूर लाल बत्ती के पास से हिचकोले खाते हुए डोलती हुई सी वो लाल सी बस अब पास आने ही वाली थी. लड़के ने सडक पर फेंकी हुई अपनी घडी को देखा, और उसके चक्कों के पोजीशन का अंदाज़ा लगाने लगा. बस पास आने लगी, आते आते और पास आने लगी. घडी सड़क पर जहाँ थी, और बस के चक्के जहाँ थे, उनके बीच अब बस तीस मीटर का फासला था. लड़के को अगले ही पल, पल भर के लगा कि घड़ी फ़ेंक कर उसने गलती कर दी है. अब उसे घडी वापस अपनी कलाई पर चाहिए थी. उसने सड़क पर देखा. जहाँ वो घडी दिखती थी, वहां अब बस खड़ी थी. ये उसकी वाली बस नहीं थी. ये औरों के लिए थी. परेशान धक्कों, आधी-पौनी गालियों और उतरने चढ़ने की आवाजों के बीच उसने बस को जाते सुना. बस चली गई, उसकी घडी अब भी सडक पर बची की बची रह गई. वैसी की वैसी.
उसने कनखियों से उन अनजान मुसाफिरों को देखा. पांच में से घटे चार, अब वहां एक ही मुसाफिर था. लड़के ने देखा, वो लड़की थी, लड़के ने फिर से देखा कि वो देखती है कि नहीं. उसने पाया कि उसके देखने को देखने जैसा ही कुछ कहा जा सकता है. लड़का चुपचाप से नीचे सड़क पर उतरा, दौड़ कर उसने वो घडी उठा ली. एक पल बाद वो घड़ी फिर से उसकी कलाई से लिपटी हुई थी.
घड़ी का रंग काला, उम्र तीन साल और दाम तीन हजार था. घड़ी खरीदने वाला शख्स लड़के के पिता थे, और अवसर था लड़के का इस यूनिवर्सिटी में दाखिला लेना. ये उम्मीदों के ऐवज में दिया गया बापनुमा तोहफा था. फिर लड़के ने एक साल उस घड़ी को घड़ी भर के लिए भी अपनी कलाई से अलग नहीं किया और इसी बीच पहले साल के सालाना पेपर में चार में से तीन पर्चों में गच्चा मार गया था. तब से पता नहीं क्यूँ लड़के को ये कलाई घड़ी, घड़ी कम हथकड़ी सी लगने लगी थी. उसकी टिकटिक करती सुइयों की आवाज़ में उसे अपने पिता की आवाज़ गूंजती हुई सुनी थीं . फेल करने के बाद वाली कई रातें उसने इस घड़ी को एकटक ताकते हुए बितायीं थीं. और चूँकि इस शहर में उसकी रातें अमूमन अकेली होती थीं, तो उसने अपनी घड़ी को कुछ ज्यादा ही गौर से देखा था – इस एक घड़ी में उसे अपना पिता रोज दिखता था और इसकी डायल पर प्रतिबिंबित होता था फेल को पास बना के बोला गया वो झूठ जो उसने अपने घर पर कह रखा था, इस घड़ी में दिखता था वो समय जो बेहद क्रूर था उसके लिए, समय जब दसियों दोस्तों के दरम्यान भी भीतर से वो बिलकुल अकेला था, समय जब वो खुद को किसी काले अदृश्य ब्लैक होल में गुम होता पाता था – नाकामियों और अनिश्चितताओं के ब्लैक होल में. और इसलिए उसे अब इस घडी से नफरत हो चुकी थी.
और इसलिए वो उस घड़ी से निजात पाना चाहता था. लेकिन चूँकि वो अपने पिता से प्यार करता था और उसके भीतर का इंसान अब भी थोडा बहुत जिन्दा था, इसलिए वो अपने पिता को इस तोहफे को अपने हाथों से चूर-चूर नहीं कर सकता था. लिहाज़ा वो उस घड़ी को गुम होते हुए देखना चाहता था, या आज की तरह सड़क पर किसी गाड़ी के चक्के के नीचे आते हुए देखना चाहता था. कुछ भी हो, कैसे भी हो – वो किसी दुर्घटना की ओट में उससे निजात पाना चाहता था.
लेकिन आज एक बार फिर घड़ी को सड़क पर छोड़ने के बाद भी दुर्घटना नहीं हुई थी. ये पिता की दी हुई घडी थी, ऐसे थोड़े न पीछा छूटना था इससे. घड़ी ज्यों की त्यों वहीँ सड़क पर पड़ी रह गयी थी और एक बार फिर वो लड़का चुपके से घड़ी उठाते हुए उस लड़की को देख रहा था. वो नहीं चाहता था कि वो उसे देखे. लेकिन उसने पाया कि वो अब भी उसे देखने जैसा कुछ कर रही थी. इसलिए वो भी उसके देखने को देखने लगा.
लड़के को लगा कि लड़की को उसे ऐसे देखने-देखने जैसा कुछ करते हुए देख उसे अच्छा महसूस करना चाहिए. दोस्त कहते थे कि बड़े बड़े शहरों की ऐसे छोटे छोटे बस अड्डों पर लड़की का लड़के को देखने जैसा कुछ करना शुभ संकेत होता है. उसने अपने दोस्तों को याद किया और चूँकि वो दोस्त थे, और लड़के का ये मानना था कि दोस्ती और भरोसे में जरूर कोई रिश्ता होता है, तो उसने लड़की के यूँ देखने जैसे को शुभ मानते हुए अपने इयरफ़ोन के उलझे हुए तारों को सुलझाने की विफल कोशिशों में से पहली कोशिश शुरू कर दी. आने वाले पांच मिनट में ढेरों गाड़ियां, दो कुत्ते और तीन इंसान उनके सामने से हो कर चले गए थे. इस दौरान लड़के की नज़र हर पन्द्रह सेकंड के बाद बायीं तरफ खड़ी उस लड़की पर जा चुकी थी. इयर फ़ोन के तार अब भी उलझे के उलझे थे.
भीड़ से लकदक करती, किसी मदमस्त हाथी की तरह तीव्र मुद्रिका आ गई. लड़के और लड़की दोनों ने भीड़ को देखा. फिर लड़के ने चोर निगाहों से लड़की को देखने जैसा कुछ करते हुए पाया. उसने देखा कम सोचा ज्यादा था. लड़की ने उतनी देर में पहली बार लड़के को देखा सा था. उसने पाया वो उसे घूर रहा था. लड़की ने उसकी बढ़ी हुई बेतरतीब दाढ़ी और सस्ते जीन्स को देखा. ये उत्साहजनक नहीं था. वो उससे दूर जाना चाहती थी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
बस निकल गयी. ‘’भीड़ बहुत थी – चढ़ नहीं पाते’’, ऐसा दोनों ने सोचा होगा तभी वो अब भी वहां थे.
‘’ मैं उसको पक्का आवारा लगता होऊंगा’’. लड़के ने खड़े खड़े सोचा था.
लड़की के कान अब भी लाल थे. डेढ़ घंटे पहले उसने ‘’ महानगरों में महिलाओं की स्थिति’’ नामक विषय पर इंटर कॉलेज वाद-विवाद प्रतियोगिता जीती थी. तब से ख़ुशी उसके कान पर चढ़ बैठी थी. उडती फिरती बस एक चोरनी जैसी नज़र जा गिरी थी उसके कान पर, वो लाल थे, टमाटर की तरह. इस बार उसने रंग पहचान लिया था. लड़की के कानों में थोड़ी देर पहले उसके मुख से निकली वो बात याद आ रही थी जो उसने डिबेट के दौरान बोली थी – ‘’शहरों की भीड़ में निकली एक अकेली जवान लड़की की कोई जात नहीं होती है,कोई धर्म, कोई नाम नहीं होता- तब वो सिर्फ मादा होती है, जिसपर कसे जाते हैं जहरीले तंज और जिसे काटी जातीं हैं मर्दानी चिकोटियां, बसों और मेट्रो की भीड़ में, जिसके भीतर उबल उबल रह जाती हैं सैकड़ों चीखें और जिसकी आँखों के रस्ते आंसू बन निकल जाता है उसके भीतर लावे की तरह बहता गुस्सा – गुस्सा उस मर्दानी भीड़ के लिए जो ढूंढते फिरते हैं किसी शिकारी की तरह उस एक अकेली लड़की को जिसका नाम नहीं होता, जिसकी जात नहीं होती!’’
लड़की के कान में अब भी बज रही थीं वो तालियाँ जो इसके बाद उसने अपने फनफनाते हुए नथुनों को थामते हुए, अपने चेहरे पर आये गुस्से पर काबू पाते हुए सुना था. ये शाम और उसकी याद इस लड़की के बेहद रोमांटिक थी जिसके घूँट वो थोड़ा थोड़ा कर के पीने वाली थी.
लड़के के कान में ऐसा कुछ भी नहीं गूँज रहा था. ‘’ ओए, आते वक़्त गुप्ता के यहाँ से चार क्लासिक रेगुलर ले अइयो’...(रेगुलर पर जोर डाला था उसने), तीस सेकंड पहले उसके कान में उसके दोस्त की आवाज़ आई थी और अभी इस वक़्त एफ एम पर शीला के चर्चे थे जिसे वो अपने उलझे इयरफ़ोन में सुन रहा था.
लड़की मन ही मन खुश होती रही, बीच बीच में लड़के को खुद को घूरता पा अपने धांसू डायलाग का मानवीकरण होते हुए देख वो खुद पर मुग्ध होती रही और लड़का उसे ये सब करता हुआ देखता सा रहा.
ऐसे में ठीक दस मिनट बाद एक के बाद दूसरे के बाद तीसरी तीव्र मुंद्रिक डोलते हाँफते आ खड़ी हुई. शाम थी, तो जाहिर है भीड़ होगी ही. और दिल्ली की बसों में शाम का सफ़र भीड़ तले करने के अलावा कोई और चारा नहीं होता है – ये बात उन दोनों को तब ही समझ में आई थी.
लड़की एक हाथ में अपनी ट्राफी थामे पिछले दरवाज़े से अन्दर चढ़ने लगी. लड़का इयर फ़ोन के उलझे हुए तारों को किसी गुच्छे की तरह पॉकेट में डालता हुआ, उसके पीछे पीछे हो लिया. गाड़ी सरकते सरकते रुक रही थी, लोग सरकती गाडी में से लुढ़कते हुए चढ़-उतर रहे थे. और यूँ लुढ़कते हुए, अन्दर की तरफ रास्ता बनाते हुए, लड़के ने खुद को ठीक उसके पीछे खड़ा पाया था. सड़कों पर धुआं था, भीतर तमाम किस्म के मरदाना-जनाना पसीने और अभी अभी सम्पादित किये गए भयंकर वायु-विमोचन की दुर्गन्ध – लेकिन इन सब के बीच भी लड़के के नथुनों में लड़की के बदन पर सुबह में छिडके हुए मेंस deo की खुशबू रह रह बस जाती थी. उसने दो तीन लम्बी साँसे खींची और axe चॉकलेट – ओ बेट्टा ये तो मेंज़ deo लगाती है, सोचते हुए इस बार उसने वो सुगंध पहचान ली थी.
‘’साली..भैन की.....धक्का मारियो अपने खसम को जा कर....सही से चल ले...!’’ पीछे से किसी रेले की तरह चली आ रही भीड़ में से किसी जनाना कंठ से फूटी इस आवाज़ को सुन कर लड़का एक दम से पीछे मुड़ा. इस गाली को सुन कर उसे अच्छे ख़राब के पार जैसा कुछ लगा – ये गाली उत्तेजक जैसा कुछ थी. उसने आंटी को अपने पास आते देखा, और देखते रह गया. आंटी ठीक उसके पीछे खड़ी, अब फ़ोन पर कुछ बडबडा रही थी.
‘’ तीन टेम लगा चुकी हूँ हस्पताल के चक्कर....इस उमर में यही बाकी रह गया था...कंजरों..तुम्हारा भी बाप है....देख लोगे तो आँखें नहीं फूट जानी तुम्हारी...मर जाएगा कुछ दिन में...तब तो कन्धा देने आओगे न...भेन के...!’’ उसकी कर्कश जबान से गालियाँ फूटी पड़ी जाती थीं. और लड़का तब तक उसे गौर से देखता रहा जब तक तीन बस स्टॉप के बाद वो गायब नहीं हो गई. उस बस की पिछली सीट से थोडा आगे वाली जगह जहां वो खड़ा था, और जिससे थोडा आगे वो खड़ी थी, अब उनके बीच का फासला बढती हुई भीड़ के साथ कम होता जा रहा था. अब एक दूसरे को चोर नज़रों से देखने-घूरने के लिए उन्हें गरदन हिलाने की भी जरुरत नहीं थी.
लड़के ने अपने और उसकी बीच की दूरी देखी, ये दूरी अब अगल बगल की दूरी थी. ये दूरी धक्कों, खड्डों और झटकों की मोहताज थी – बस के हर झटके के साथ ख़त्म हो सकने वाली दूरी थी, ये ऐसी दूरी थी जिसे लड़की के भाषण वाले बेरहम शिकारी हर एक लगते ब्रेक के साथ पाट सकते थे.
पर लड़का कहीं और गुम था. भागती बस से दबाती भीड़ के पीठ और कन्धों के बीच में से खिड़की के बाहर फिसलते महानगर को देख रहा था. ‘’प्यार के कागज़ पे..दिल की कलम से..पहली बार सलाम लिखा..मैंने ख़त महबूब के नाम लिखा....’’.... ऐसे गाने डीटीसी की बसों में चलते हुए, किसी लाल बत्ती से आगे भागते हुए और भी ज्यादा खूबसूरत सुनाई पड़ने लगते हैं. बस के खम्भे से लटके हुए, भीड़ में पिसते हुए, लड़के ने कई बार ऐसा सोचा था. लेकिन आज....उसे हर कुछ बदला बदला सा नज़र आने लगा था. वो उस लड़की को कतरा कतरा देख रहा था, किश्तों में. और हर एक झलक के साथ गाने के अंतरे के बीच धंसा वो सड़कों को देखता सोच रहा था. वो उसके साथ होती, गर उनकी बात होती और सामने वाली वो दो सीटें खाली होतीं जिनपर वो बैठे होते – तो ये गाना, ये भीड़, ये भागता शहर, उसकी घड़ी की टिकटिक और उसका होना कितना अलग अलग सा होता न! बदरंग सा ये रास्ता, बदमिजाज़ सी ये भीड़ और बेरहम सा ये शहर कितना अलग होता! लड़का शून्य में देखते हुए इस खूबसूरत फंतासी के साथ छेड़खानी कर रहा था और लड़की ने उस पर एक सरसरी निगाह डालते हुए पाया था कि वो शून्य जिसमें वो ताकाझांकी कर रहा था उसकी लाल टॉप पर बना हुआ मिक्की माउस जो उसके वक्ष से थोडा नीचे चस्पा था.
‘वो फिर मुझे देखने जैसा कुछ कर रही है, सोचती भी होगी क्या?’ उसने थोडा थोडा पॉजिटिव होते हुए सोच लिया.
लड़की के भीतर एक हूल सी उठी – परेशानी, थकान और डर मिश्रित हूल, और तब उसने तत्सम और तद्भव में मिली जुली हिंदी में उस लड़के के दो तीन विशेषण सोच लिए – आवारा, निर्लज्ज, बेहया! बड़े बड़े शहरों की भीड़ भरी बसों में ऐसे शिकारी रोज मिल जाते हैं – उसके कान में थोड़ी देर पहले अपने भाषण के दौरान गिराए गए भारीभरकम लफ्ज़ गूँज रहे थे. हर एक लगते ब्रेक के साथ उसके गले के भीतर एक हूंक सी उठती थी, हर एक आने वाले खड्डों में जब बस हिचकोले खाती तो वो अपने कूल्हों पर उसकी फिसलती उंगलिओं के आने के इंतज़ार में थी. कितना सही कहा था उसने! लड़की ने सोचा, और खुद की दाद दी.
वो बेहद पास पास खड़े थे, और लड़की ये मान बैठी थी कि उसकी उंगलियाँ इतनी देर तक उसकी जेब में नहीं रहने वाली हैं.
बस भागती रही, भीड़ चढ़ती उतरती भीड़ बनी रही और ऐसे में लड़की ने लड़के को अपनी जेब से अपना दायाँ हाथ निकालते हुआ देख लिया. उसने पाया कि उसके भीतर कि उसके पेट में कुछ कुछ गोल गोल चक्कर काटने लगा है, उसने पाया कि उसकी पेशानियों पर बल पड़ने लगा है, उसके कदम थक कर पस्त हो गए थे. उसने वहां देखा जहाँ बस के भीतर महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें थी. उसने वहीँ खिड़की के ठीक ऊपर लाल रंग से लिखे ‘’हिलाएं’’ को देखा और ये दुखी मन से ये मान लिया कि किसी भले जमाने में इसका मतलब ‘’ महिलायें’’ ही रहा होगा. सीटों पर चार अधेड़ औरतों, एक जोड़ी जवान जोड़ों और कुछ बेनाम से तशरीफ़ जमे पड़े थे. वो बुत की तरह खिड़की से बाहर देखते दिखाई पड़ रहे थे.
लड़के ने तीन मिनट सोचने के बाद, लड़की के बिलकुल करीब आते हुए, बस के भीतर खम्भे से लटक रहे हैंडल को पकड़ लिया. अब वो उसके गले में पड़ी हुई उस काली सी बद्धी को साफ़ साफ़ देख सकता था. लिहाज़ा पांच सात सेकंड सोचने के बाद वो उसे एक टक देखने लगा. उसे उसके गले की बद्धी देख अच्छा-अच्छा जैसा कुछ लग था. घर पर उसकी छोटी बहन बिलकुल वैसी ही बद्धि पहनती थी, उसने देखते देखते सोचा.
लड़की ने अपने होंठ भींच लिए थे, उसकी छुअन के इंतजार में. ये धक्का या अगला धक्का या उसके बाद वाला धक्का – ये आवारा कभी तो आ गिरेगा मुझपे! गिर के देखे एक बार – आज यहीं इस बस में इसकी अच्छी खासी मरम्मत न करा दी इसकी, तो मैं भी इंटर- कॉलेज हिंदी डिबेट चैंपियन नहीं!’’ लड़की ने अपने भीतर से खोज खाज के जमा की हुई बुलंदी को अपनी कसी हुई मुट्ठियों में भींचते हुए कहा.
ब्रेक लगते रहे, बीच बीच में झटके लगते रहे, लोग लोगों पर लुढ़कते रहे – लेकिन लड़के का एक हाथ अब भी बार हैंडल पर था और दूसरा उसकी जेब में. लड़की इंतज़ार कर्ट रही और हर एक आते बस स्टैंड के बाद राहत की सांस लेती रही. उसका पड़ाव अब बस आने ही वाला था.
फिर एक ब्रेक और लगा. और इस बार उसने अपनी कमर से थोडा नीचे किसी मर्दानी हथेलियों की कुलबुलाहट को महसूस किया था – एक तीखी सी, चिकोटी काटी गई थी. उसने धीमे से अपने दायें देखा, मुंह के भीतर उस लड़के के लिए खांटी देसी गालियों का पिटारा लिए हुए. लेकिन लड़के की हथेलियाँ अब भी उसकी जेबों में थी और सर खिड़की से बाहर कुछ और तलाश रहा था. पीछे खड़ी भीड़ से निकला ये किसी दूसरे मनचले का मनचला हाथ था जिसे मर्दाना मर्दाना से कुछ करने की चूल मची हुई थी. लड़की ने लड़के को देखा, इन सब से बेखबर वो अब भी अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देख रहा था.
लड़की ने फिर पीछे देखा – माचो-भैन्चो करते हुए मर्दों का रेला लगा हुआ था. लड़की ने लड़के के कन्धों को देखा. और तब, उस वक़्त पता नहीं क्यूँ , आधे घंटे पहले आवारा, बहाया और निर्लज्ज से लगने वाले वो लड़का सही सही सा लगने लगा, मनचलों की इस भीड़ में पल भर के लिए किसी दोस्त के जैसा!
विश्वविद्यालय मेट्रो से ठीक पहले वाली लाल-बत्ती के हरी होने में अभी 120 सेकंड का फासला था जब उस लड़की ने उस दूसरी बार अपनी कमर के ठीक नीचे उसी जगह पर उस चिकोटी को महसूस किया था. पीछे खड़े किसी दूसरे मनचले ने एक बेहद छिछोरी सी मुस्कान उसकी तरफ उछाल दी थी. ‘’ आज्जा..बैठ बुलेरो में मेडम..!’’ पीछे से उनमें से कोई कह रहा था. वो सब के सब मुस्कुरा रहे थे और लड़की ने इससे घटिया मुस्कान आज तक नहीं देखी थी. उसने खुद से कुछ भी नहीं पूछा और लड़के की तरफ तीन इंच और सरक गयी थी. तीन इंच तन से, और शायद मन से इससे कहीं ज्यादा.
लड़के ने उसे अपनी तरफ तीन इंच खिसकते हुए ठीक ठीक देखा था. डेढ़ साल में पहली बार उसने खुश होने को जिया था. ‘’पास वो आने लगे जरा जरा..’’ कानों में ऐसा ही कुछ बज रहा था, एफएम पे बजता गाना उसकी रोमांटिक फंतासी का बेक ग्राउंड स्कोर था और ऐसे में धीरे धीरे उसने अपने कानों को गर्म होता पाया.
पीछे वाला वो दूसरा मर्दाना हाथ फिर से हरकत में आने वाला था. और गाडी के ब्रेक लगते ही आ भी गया. लेकिन इस बार उसकी कमर की जगह उसने महसूस किया था एक मजबूत खुरदुरा हाथ जिसने बड़ी मजबूती से उसे थाम कर झटक दिया था.
‘’ यो के कर रहा है...बड़ी गरमी चढ़ी है तेरे को भैन्चो...!’’ लड़की ने पीछे से आती ये आवाज़ सुनी थी जो इस लड़के की ओर ही मुखातिब थी. और फिर बस में एक तगड़े थप्पड़ की गूँज आगे पीछे की दो सीट पर बैठी जनता सुनी थी.
लड़के ने उस मर्दाने शिकारी को जम के जमा दिया था. फिर लड़की ने गाडी को रुकते हुए देखा. तीन गबरू जवान अड़ियल मर्दों को उस लड़के के बाल पकडे हुए उसे गाडी से नीचे उतारते हुए देखा.
फिर पल भर के लिए रुकी हुई सी तीव्र मुद्रिका खिसकने लगी थी और लड़की ने भीड़ को के बीच से रास्ता बनाते हुए, खिडकियों के पार से उसे सड़क पर गिरा हुआ देखा था. गाड़ी बढती चली गयी, वो पिटता चला गया. लड़की ने एक बार फिर अपनी दायीं तरफ देखा था – उस जगह अब कोई और खड़ा था. और तब उसे एहसास हुआ कि उसका होना कितना अलग सा था.
और तब जा कर अचानक से लड़की को ढाई घंटे पहले दिया गया अपना धुआंधार डायलाग बेतुका सा लगने लगा था. उसने अपनी ट्राफी को देखा, उसका रंग फीका पड़ गया था. गाडी और आगे बढ़ी, उसने अपने भीतर झाँका और पाया कि उसके भीतर की वो खुर्राट डिबेटर, उसके भीतर की लड़की से शर्मा रही थी. भीतर की वो डिबेटर पहली नज़र के प्यार जैसे जुमले को सुनते ही आग बबूला हो जाती थी, आज अपने सामने खड़ी लड़की के सामने चुप थी.
गाड़ी ओझल हो गई. लड़का अगले पंद्रह मिनट तक पिटता रहा था. पीसीआर सरकी चली आई थी तभी उस पर खूंखार थप्पड़ों की बरसात बंद हुई थी. लड़का जैसे तैसे अपने बैग को थामे खड़ा हो गया था. उसने पाया कि उसकी नाक के कोरों से गरम गरम सा खून बह रहा था. उसकी कलाई में बंधी वो काली घड़ी चूर चूर हो कर वही जमींदोज थी और तीव्र मुद्रिका तीव्र गति से जा चुकी थी. उसने अपने खून का रंग देखा – वो लाल था. उसने एक लम्बी सी सांस छोड़ी – सर्दियों की बू उसके नाक से होती भीतर तक चली गई. पास में सिगेरेट बेचता वो बूढा उसकी तरफ पानी की बोतल लेकर आ रहा था और तभी उसे याद आया कि उसे चार रेगुलर घर ले के जाना है!
‘’चार रेगुलर देना अंकल!!!’’ उसकी आँख के नीचे लगी चोट अब धीरे धीरे नीले रंग में रंगने लगी थी, कटे होंठ और नाक से खून रिस रहा था. और इन सब के बीच चूर चूर हो चुकी उस कलाई घडी को हाथ में लिए मुस्कुराते हुए उसने सामने आते हैरान से उस बूढ़े से बस इतना ही कहा था. बूढा दूकानदार उसे सिगेरेट थमाते हुए आँख फाड़े देखे जा रहा था और टूटी घड़ी को पॉकेट में रख, इस बात को जानकार कि रंग, बू और छुअन को पहचानना उसे अब भी आता है, लड़का यूँ ही मुस्कुराते हुए एक बार फिर अपने दडबे की तरफ बढ़ चुका था.
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लेखक संपर्क- kroy841@gmail.com