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मनीषा पांडे की पांच कविताएं

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कहते हैं कविता अभिव्यक्ति का विशुद्ध रूप होता है- भावना और बुद्धि के सबसे करीब. मनीषा पांडे की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे हम किसी और लेखिका को पढ़ रहे हैं, उस मनीषा पाण्डे को नहीं जिसके लेखन के तेवर से हम सब परिचित रहे हैं. ऐसे समय में जब काल के कलुष में सब कुछ घुलता-मिलता जा रहा है कविताओं का होना ही अपने आप में प्रतिरोध है. सबसे कोमल, सबसे सुन्दर, और कहीं न कहीं सबसे सच्ची अनुभूतियों को बचाने की जिद की तरह इन कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए. आप भी पढ़िए और अपनी राय दीजिए- मॉडरेटर
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1.

चाहती हूं तुम्‍हें देना
सुख का सबसे गहरा चुंबन
संसार के सबसे बीहड़ बियाबान में खिल उठा
एक बैंगनी फूल
प्रेम से काते गए प्रेम के ऊन से बुना
एक सुनहरा मफलर
तुम्‍हारे गले के गिर्द लिपटा
जैसे मैं ही होऊं
तुम्‍हें चूमती हुई
चाहती हूं
बर्फ में धूप बनकर खिल जाऊं
तपन में बनकर बारिश
तुम्‍हारी समूची देह पर बरस पडूं
बालों से टपकूं
जमीन पर गिरकर धरती में समा जाऊं
जिंदगी के हर शोर के बीच
प्रकृति के आदिम राग की तरह
बजती रहूं तुम्‍हारे कानों में
मेरे होने का मतलब हो तुम्‍हारी आंखों में हँसी
शांत, गहरी
ऐसे रहूं तुम्‍हारे भीतर हमेशा
जैसे दरख्‍तों की जड़ों में नमी रहती है
शिराओं में रक्‍त सी बहती रहूं
रहूं भी और दिखूं भी नहीं
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2 .

चीड़ के जंगलों से बहती चली आती
हवा हो तुम
आती
बालों को उड़ाती
दुख से चुभती आंखों पर सुख बनकर बैठ जाती
गालों को दुलार से छूती
बतियाती
पूछती हाल,
कभी न कही गई कहानियां
मन के सबसे अंधेरे कोने
अपने संग बहा ले जाती
सब उदासियों का बोझ
मन इतना हल्‍का
जैसे हवा में उड़ते
रूई के फाहे हों 
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3 .

कहां नहीं हो तुम
मेरे कानों में बजता
धरती का कोई कोई ऐसा राग नहीं
जिसमें तुम बज न रहे हो
कोई ऐसी नदी नहीं
जो तुमसे होकर नहीं गुजरती
ब्रह्मांड के किसी भी कोने में
बारिश की कोई ऐसी बूंद नहीं गिरती
जो तुम्‍हारे बालों को न भिगोए
धरती के आखिरी छोर से बहकर आती है
जो हवा
मुझे छूने
तुमसे ही होकर गुजरती है
फूल कहीं भी खिलें, प्‍यार कहीं भी जन्‍मे
सब में तुम ही होते हो हमेशा
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4.

तुम हो भी और नहीं भी
तुम मैं हो
और मैं तुम
एकाकार ऐसे
जैसे
कुम्‍हार की मिट्टी में ढला हुआ घड़ा
जैसे फूलों में घुले रंग
जैसे शहद में मिठास
जैसे पसीने में नमक
जैसे आंखों में रहते हैं आंसू
और दिल में उदासी
जैसे आत्‍मा के भीतर एक सतानत दिया जलता है
राह दिखाता
तुम वही दिया हो
अंधेरे में टिमटिमाते हुए
दिखा रहे हो आत्‍मा को
रास्‍ता।
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5 .

नहीं,
तुम कोई नहीं
हाड़-मांस का इंसान नहीं
किसी का पति, प्रेमी, बेटा, पिता कुछ भी नहीं
कोई रिश्‍ता नहीं, कोई संबंध, कोई पहचान,
कोई पद-नाम-प्रतिष्‍ठा
कुछ भी नहीं
तुम्‍हारा कोई आकार नहीं
रूप-रंग नहीं
तुम वो नहीं कि जिसे जब चाहें छूकर महसूस कर लें
रख लें अपने घर में अपने कीमती सामानों की तरह
उसे चाहें अपने चाहने के हिसाब से, जैसा हम चाहें
नहीं,
तुम इसमें से कुछ भी नहीं
तुम प्रकृति का आदिम अनहद राग हो
जो कभी कहीं से आया नहीं था
कभी कहीं गया भी नहीं
वो तब से वैसे ही मौजूद है जबसे जीवन
तुम चूम लिए जाने की हड़बड़ी नहीं हो
न पा लिए जाने की बेचैनी
तुम विश्‍वास की तरह रहते हो मन में
जैसे

प्रेम में दुख पाई स्‍त्री की आंखों में आंसू रहते हैं

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