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बाबुषा की कविताएं

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इस साल बाबुषाके कविता संग्रह 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट'ने सबका ध्यान खींचा. इस साल की अंतिम कविताएं बाबुषा की. जानकी पुल के पाठकों के लिए ख़ास तौर पर 

1.

भाषा में विष
------------------

जिन की भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुःख था
दुखों के पीछे अपेक्षाएँ थीं
अपेक्षाओं में दौड़ थी
दौड़ने में थकान थी
थकान से हताशा थी
हताशा में भाषा थी

भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुःख था

2.

तमीज़
----------

वहाँ बच्चों का अल्हड़ जंगल है
जिसे वे लोग  बदल देना चाहते हैं एक सुरुचिपूर्ण बाग़ में

ये कुछ ऐसा ही है
कि जैसे किसी बेलौस हँसी को नपी-तुली मुस्कुराहट में तराश दिया जाए
वे लोग मस्तमौला बढ़ती लताओं को कुतरते हैं सावधानी से
मिट्टी का प्रकार तय करते हैं
वे बनाते हैं हरा रंग अपनी कलर प्लेट के अनुकूल
मूसलाधार बरसात को मिलीमीटरों में बाँट कर वॉटर बॉटलों में भर देते हैं
ज़रूरत के हिसाब से ही खर्च करते हैं नमी
कुछ ख़ास पौधे रोपते हैं गमलों में
वे गमलों का आकार तय करते हैं

वे सचमुच बेहद क़ाबिल लोग हैं
जो फूलों को महकने की
चिड़ियों की चहकने की
और सूरज की दहकने की तमीज़ सिखाते हैं

मैं नासमझ उनके सलीकों पर सवाल कर बैठती हूँ
वे लोग मुझे बदतमीज़ घोषित करते हैं

वे मेरी बदतमीज़ियों में मेरे कवि होने की शिनाख़्त करते हैं

3.

हत्या
--------

नेल पेंट छुड़ाने जितना आसान नहीं है
जीवन से दुःख के दाग़ छुड़ा देना
हालाँकि हम एक चमचमाते हुए साफ़ जीवन के साधन ईज़ाद करते रहते हैं

कई बार इन साधनों की  खोज करते हुए हम जीने से बहुत दूर भी निकल जाते हैं
ऐसा नहीं कि हम नहीं जानते
कि हमारे साँस लेने और जीने के बीच सन्यास से मोक्ष तक की दूरी है
पर जब भी हम इस दूरी को पाटने का प्रयास करते हैं
बीच सड़क पर हमारी हत्या कर दी जाती है

हमारी पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट से कभी नहीं पता चल पाता
कि हम चाक़ू पिस्तौल या ज़हरखुरानी से नहीं

जीवन को जीने की चाह से मार दिए गए थे

4.

वो औरत
--------------

[ देवीप्रसाद मिश्र की 'मेज'पढ़ने के बाद. ]

वो औरत
जो आदमियों के बीच बैठी है 'देवी प्रसाद मिश्र'की कविता में
"जिसे ज़रूरत है ढेर सारे प्रेम की
मगर वो नहीं जानती ये बात किससे कहे और किस तरह"
वो औरत
किसी अख़बार में उठ न खड़ी हो जाए कोई मसला बन कर

वो औरत हमेशा उत्तर बन कर मिल जाती है
किताबों या जीवन में
डायनिंग टेबल साफ़ करते हुए पोंछती जाती सारे प्रश्नचिन्ह
दुपट्टे की गाँठ में ऊँच-नीच का हिसाब बाँधे
जल्दी-जल्दी पीती है पानी बेझिझक
वो औरत
खुद किसी ठसके की तरह अटक न जाए समय के गले में

वो औरत दायीं या बायीं नहीं वरन् चौकस करवट में सोती है
ठसाठस भरे हैं स्वप्न उसकी नींद में
जाग की दीवारों पर सिर टकराती उसकी नींद सूजी हुई है
स्लीपिंग पिल्स में बंद गहरी नींद की तह खोलती
वो औरत
कहीं खुल न जाए इतिहास के चौराहे पर पूरी की पूरी

वो औरत
संसार का सबसे बड़ा ख़तरा न बन जाए किसी दिन
हालाँकि तब भी न हो सकेगी ख़तरनाक़
चाह की भूख से छटपटाती
नहीं गटकेगी एक निवाला भी प्यार-व्यार के भंडारे में

वो औरत
जो आदमियों के बीच बैठी है 'देवी प्रसाद मिश्र'की कविता में

5.

प्रेम@3am
------------------

तुम्हारे जूतों की थाप से कुचल जाती है मेरी नींद

अंतरिक्ष की खिड़की से झाँकता होगा कोई सितारा अभी
पृथ्वी का आधा पलंग ढँका है आधा उघाड़
छोटी है सूरज की चादर
पाली बदल-बदल के सोती है दुनिया

यहाँ रात का तीजा पहर है
आधी दुनिया के सोने का समय यह
इसी सोने वाली दुनिया का हिस्सा हूँ अभी
और जाग रही हूँ

मैं जाग रही हूँ
इस तरह इस समय सोने वाली दुनिया में जागते हुए
जागने वाली दुनिया का प्रतिनिधित्व कर रही हूँ
अभी तो महज़ तीन बजे हैं घड़ी में 
अभी हूँ पूरी दुनिया

प्रेम में होता है इतना बल
कि ज़माने भर की घड़ियों को धता बता कर
समय को एक कर दे

तकिये पर बाल चिपका है मेरी पलक से टूट कर
मुट्ठी पर रख फूँक मारने से पहले
चूमती हूँ तुम्हारा माथा हवा में
कई बार एक सादा-सा चुम्बन सुलझा देता है जीवन की कितनी ही गुत्थियाँ
कभी- कभी कोई चुम्बन मस्तिष्क की जटिल कोशिकाओं में उलझ जाता है
कितने ही थरथराते होठों से अपना नाम सुना होगा तुमने
कभी देखा है अपना नाम उल्टी मुट्ठी पर काँपते हुए

रखना ही है तो मुझे हृदय में रखो
अपनी जेब में नहीं
वक़्त बड़ा ही शातिर जेबकतरा है

बिन जूते उतारे
जाने कब से कर रहे हो पृथ्वी की परिक्रमा
कहीं पहुँचते भी नहीं
मैं कंपकंपाती मुट्ठी पर फूँक मार देती हूँ
पता नहीं धरती के किस कोने में  उड़ कर गिरी है मेरी इच्छा
ठीक ही तो है

कि तुम प्रेम में फूँक-फूँक कर कदम रखते हो

6.

एक रात, स्वप्न घड़ी और विदाई
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उस रात मुझे लगा कि जैसे पृथ्वी एक बड़ी-सी घड़ी है, जिसमें तीन किरदार है. तुम, मैं और बची हुई दुनिया.

उस स्वप्न में तुम सेकंड्स वाला काँटा थे जो तेज़ कदम चल कर न केवल अपना चक्कर पूरा करता है बल्कि अपने हर मकाम में बचे रहने की चाह में बार-बार लौटता भी है पल-दर-पल. मगर ठहरता कहीं नहीं. बची हुई दुनिया को मैंने मिनट वाले काँटे के रूप में पाया, जो अपने हिसाब-किताब और जुगाड़ से चलती है. न हद से तेज़ न हद से धीमे. जैसे सौदा-सुलुफ़ के लिए निकली कोई मिडिल क्लास गिरस्थिन औरत मंडी में बार-बार एक ही दुकान के आगे से गुज़र जाती हो. उसकी चाल औसत है, नज़र सब पर है और पूरा बाज़ार ख़रीद लेने की अदम्य इच्छा उसकी मुट्ठी में भिंचे रुपयों से रगड़ खा कर हथेली को पसीने से तर-ब-तर करती हो. तुम उस औरत की हर चाल पर गिर-गिर जाते हो. उसे साठ तरह से निहारते हो. तुम बहुत तेज़ चलते हो, लगभग भागते हुए, बदहवास और बेचैन. तुम कभी उस औरत के पास ठहर जाना चाहते हो तो कभी अपने प्रेम के पास. तुम दौड़ते चलते हो और तुम्हारा संशय तुम्हें कहीं टिकने नहीं देता.

तुम हर जगह हर किसी के पास होना चाहते हो.
टिक टिक लेफ़्ट टिक टिक राईट टिक टिक बैक टिक टिक फ़ॉरवर्ड, टिक टिक अप टिक टिक डाउन...ऑलमोस्ट एवरीव्हेयर.
पल-पल में पलने की बेहिसाब चाह. एक तरह की लस्ट.

मैं इस घड़ी का सबसे छोटा किरदार हूँ. बहुत धीमे सरकने वाला. हर एक मकाम पर जी भर कर ठहरने वाला. एक बार कहीं से गुज़र जाए तो फिर पलट कर न लौटने वाला.

मैं इस घड़ी का योगी काँटा हूँ, जिसने वक़्त को तड़ातड़ काटा नहीं, जिस पर बचे हुए दोनों काँटे बार-बार लौट कर आते रहे. उनकी आमद से मुझे खरोंच लगती थी फिर भी मैंने उन्हें अपने ऊपर से हर बार गुज़र जाने दिया. मैंने हर मकाम को एक फूल की तरह सहेजा, कोमलता से छुआ, आँखें मूँद कर उसकी गंध को अपनी नसों में उतर जाने दिया और जब वो फूल अपनी शाख़ से गिर गया तो मैंने उसे अनंत की नदी में बहा दिया और कहा,

अब मिलना नहीं होगा.
विदा.


-बाबुषा कोहली

पंकज चतुर्वेदी की 15 कविताएं

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अपनी पीढ़ी के जिन कवियों के मैं खुद को निकट पाता रहा हूँ पंकज चतुर्वेदीउनमें सबसे प्रमुख हैं. शोर-शराबे से दूर उनकी कविता में हमारे समय की बहुत सारी अनुगूंजें सुनाई देती है. स्पष्ट वैचारिकता के साथ सघन कविताई का ऐसा ताना-बाना आजकल की कविताओं में वायरल होता जा रहा है. नए साल की शुभकामनाओं के साथ साल की पहली पोस्ट- मॉडरेटर 
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1.
अच्छा 

बेशक यह दावा है व्यवस्था का
कि अच्छा उसके बग़ैर
मुमकिन नहीं

मगर दरअसल
अच्छा कुछ हो
तो यह उसकी चूक है



2.  
साथ


मेरा साथ इसलिए मत देना
कि मैं तुम्हारा सजातीय हूँ
या मित्र हूँ
या इस प्रत्याशा में
कि मैं भी तुम्हारा साथ दूँगा

व्यक्ति का साथ मत देना
सच का देना
क्योंकि फिर मैं तुम्हारा साथ
नहीं भी दे पाया तो
तुम्हें यह रंज नहीं होगा
कि एक निम्न प्रयोजन से
तुम मेरे साथ खड़े रहे थे



3. 
लक्षण


वे जो सही समझकर करते हैं---
दंगों से लेकर हत्या और विध्वंस तक---
गोडसे की तरह रँगे हाथों पकड़ लिये जायँ
तो बात और है
वर्ना आम तौर पर
स्वीकार नहीं करते
कि भले संविधान का उल्लंघन हो
पर उन्होंने उसे
सही जानकर किया है

यानी जो वे करते हैं
उसके लिए ज़िम्मेदार होना
तकलीफ़ उठाना
या सज़ा पाना नहीं
बल्कि उसके ज़रिए
भय और वैमनस्य फैलाकर
हुकूमत चलाना चाहते हैं

ये सारे लक्षण
अपराधियों के हैं
नेताओं के नहीं



 4.
अगर मैंने तुमसे बात की


मेरा मोबाइल बज रहा है 
उसमें तुम्हारा नाम लिखकर आ रहा है
मैं जान गया हूँ कि यह तुम हो
इसलिए उसे उठाऊँगा नहीं

तुम्हें मेरी मित्रता या नहीं तो
मेरे हृदय की कोमलता पर यक़ीन है
यों तुम इस संभावना पर सोचते हो
कि तुम्हारा नम्बर मेरे पास नहीं है

इसलिए तुम मुझे एसएमएस करते हो :
यह मैं हूँ तुम्हारा पुराना दोस्त
एक संकट में पड़ा हूँ
मुझे तुम्हारी मदद की ज़रूरत है

अब तो मैं यह फ़ोन और भी नहीं उठाऊँगा
क्योंकि जान गया हूँ
कि तुम्हें मुझसे महज़ बात नहीं करनी थी
बल्कि मुझे तुम्हारी मदद करनी पड़ सकती है

देखो, सच सिर्फ़ यह नहीं है
कि मैं तुम्हारे लिए मर चुका हूँ
और विज्ञान ने मुझे सुविधा दी है
कि मैं तुमसे वह नफ़रत कर सकूँ
जो पहले नहीं कर सकता था

बल्कि यह भी है
कि मैं अब फ़ासिस्टों की सेवा में लगा हूँ
उसी की बदौलत जीवित और सशक्त हूँ
और अगर मैंने तुमसे बात की
वे मेरी ताक़त छीन लेंगे
मुझे मार देंगे 



5. 
सज्जा-साधन


विवाह में वरमाला के समय
दूल्हे की वेश-भूषा में
सज्जा के अन्य साधनों के अलावा
उसके कंधे से
लटकता था रिवॉल्वर
   
यों वह था रोब ग़ालिब करने के वास्ते
मेहमानों या नव-वधू को
डराने के लिए नहीं

मगर उसके कारण
शादी के बाद होनेवाले
प्यार की प्रकृति से
भय लगता था



 6.
जो संवाद होना चाहिए था


एक दिन सहसा उसे
अपने समीप पाकर
मैं सहम गया
सपने में चलते-चलते जैसे
उसका सौन्दर्य मिले

उसने कुछ मुझसे कहा
जिससे बस यही लगा :
उसे कुछ और कहना था
मैंने भी कुछ कहा
मगर यह जानते हुए :
यह उसका उत्तर नहीं
जो वह मुझसे कहना चाहती थी

फिर दूसरी व्यस्तताएँ थीं
जिनमें खो गया हमारा सान्निध्य

जो संवाद होना चाहिए था
उसके लिए ज़रूरी था अनंत दिक्काल

जबकि उत्सव हमारे मिलने की जगह थी
उत्सव ही बिछुड़ने की वजह



 7.
स्वीकार


उसके स्वीकार से
पहले अचरज हुआ
फिर हर्ष
फिर व्याकुलता

वह थी जीवन के शिल्प को
सबसे बड़ी चुनौती



8. 
अनिच्छा


ठहरा हुआ जल
अधिक ठंडा था
बहते हुए जल से

उसमें उतरने की
इच्छा नहीं होती थी



 9.
शिल्प


वह मेरा भय था
तुमने उसे शिल्प कहा



 10
शिल्प-रहित


तुलसीदास ने जब कहा :
कभी मैं अपनी तरह रह सकूँगा *
तो प्रश्न यही था :
जीवन का शिल्प क्या हो

कविता का शिल्प था
पर उसमें यह तकलीफ़ समाहित थी
कि जीवन का शिल्प नहीं था


* ''कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।"---तुलसीदास



11 
हानि


उत्तेजना में वे 
भाषा के बाहर चले गये
चुनौती थी पतन पर
क्षोभ की अभिव्यक्ति की

मैंने कहा :
आप अपने शिल्प की
हानि क्यों कर रहे हैं ?



12 
हिंसा


साँप और मनुष्य
न जाने कब से
एक-दूसरे से
खिंचे हुए हैं

हिंस्र हैं
मगर इसलिए
कि वे डरे हुए हैं
अपनी हत्या की आशंका से

हिंसा सिर्फ़ भय का आवरण है



13 
मेरा होना


मेरा होना ही गुनाह
तुम्हारी आह का सबब



14. 
चिन्ता


ख़याल रखना था
आत्म-तत्त्व का
अलंकरण का नहीं

मगर मैंने देखा :
लोगों को संज्ञा की
परवाह नहीं थी
और वे विशेषणों की
चिन्ता में पड़े थे



15. 
वर्षा में


वर्षा में भीगे हुए वृक्ष प्रसन्न हैं
शीतल है पवन

घास में मसृण हरीतिमा है
मिट्टी में साँवली नमी

आँगन में फूल खिला है ग़ुलाब का
और तुलसी सुगन्धित

धूप और चाँदनी से अलग
कोमल आभा है दिन की

आसमान बिछुड़ा हुआ समुद्र है
अपने उत्स में मिल जाना चाहता है
छटपटाहट उसकी आक्रामक उदारता है

समूची प्रकृति नहायी हुई खड़ी है
नयी
पावन
सजल
उत्फुल्ल

स्नान के बाद जैसे तुम्हें
पाया हो मैंने




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सम्पर्क- हिन्दी विभाग,
                                                                  डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,
                                                                  सागर (म.प्र.)---470003
                                                       मोबाइल-09425614005 

                                                         ई-मेल- cidrpankaj@gmail.com

तेरे मेरे इश्क़ की वही पुरानी कहानी नहीं है 'बाजीराव मस्तानी'और 'तमाशा'

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ज्योति नंदाने पिछले साल के आखिर में आई दो फिल्मों पर एक पठनीय लेख लिखा है- मॉडरेटर 
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"बाजीराव मस्तानी"दर्शन से पहले "तमाशा"देखी थी। "तमाशा"देखने के बाद इतना कुछ कहने को मन हुआ कि शब्दों की तरतीब ही न बन सकी, सो कुछ नहीं कहा। कभी किसी फिल्म; किसी किताब, किसी कहानी या व्यक्ति से जुड़ाव इस कदर हो जाय कि दूर बैठ के देखना कठिन लगे  तो चुप ही रहना बेहतर । "बाजीराव मस्तानी"देखने के बाद भी कहने का मन हुआ, लेकिन "तमाशा"तो अब भी साथ है । मुझे दोनों फिल्मो में बहुत सी समानताऐं  दिखती है। 
    "बाजीराव मस्तानी"प्रेम कहानी है। "तमाशा"भी प्रेम कहानी है. ऐसा दोनों फिल्मो के निर्देशक कहते है। एक ही कथ्य होते हुए भी बहुत सी असमानताएं भी है. 
    असल में  हर हिंदी फिल्म नायक नायिका की प्रेम कहानी ही है। "वही पुरानी कहानी बार बार कही जाती है।"विमल रॉय, राज कपूर, गुरुदत्त, मनमोहन देसाई,प्रकाश मेहरा, यश चोपड़ा से होते हुए "चली कहानी", चल रही है। बस  कहने का तरीका बदल- बदल जाता है। इसीलिए कभी- कभी दृश्यों में होकर भी कहानी "फ़क़त जुबानी" बचती है। प्रेम कहानी होकर भी "छुटपुट आशिकी में ढली कहानी" बनके रह जाती है जैसे "बाजीराव मस्तानी"। हमेशा की तरह संजय लीला भंसाली की कहानी में कहानी किसी मनोरम फ्रेम  के लुभावने  रंग में घुल कर कहन खो देती है, छुप जाती है मोहक दृश्यों के कोलाज़ में। वो विजुअल मीडियम को भरपूर जीते है।  दर्शक सचमुच कुछ घंटो के लिए अंधेरे यथार्थ से कूद कर परदे के नीले ,पीले,चम्पई, सुरमई  रंगो में डूब जाता है। 
   कभी- कभी कोई इम्तियाज़ अली दावा करता है  "अनगिन साल से वही पुरानी तेरे मेरे इश्क़ की कहानी"है "तमाशा" , उन्ही बने बनाये रास्तों पे चलते जाने का भ्रम देते हुए वो नायक नायिका के छिटपुट आशिकी से बहुत आगे निकल जाता है। उसकी पूरी कहानी प्रेम कविता बनकर दृश्यों में ढली जिंदगी की कविता बन जाती है।  वो "मुहब्बत की मिसालों का सफरनामा" लिखते- लिखते "शुरू तुमसे खत्म तुमपे"कहते- कहते,  तुम और मैं से ऊपर उठ जाता है, उसके किरदार पीठ पे यात्राओ का सामान नहीं ढोते वो दुनिया से मिली या  कहे लाद  दी गयी पहचान को पिट्ठू बैग में ठूंस के घूमते- फिरते है, पैरो में पहन लेते है अपने अस्तित्व की तलाश।  फ़िल्मकार इम्तियाज़ की कहानियो में प्रेम जीवन का मर्म है. जीवन किसी भी हालात में ठहरता नहीं। हमें कई बार रुका सा लगता है। मगर निष्क्रियता भी समय के बाहर नहीं है और समय गतिहीन नहीं होता।  इसी निष्क्रिय सी लगती प्रेम गली में "फिर से उड़ चला मन"को गतिशील  दर्शाने के लिए जो "कभी डाल डाल कभी पात पात"उड़ता है,  वो अपनी चलती फिरती कहानियों  में कभी  ट्रेनों (जब वी मेट )  कभी सड़कों पे ट्रक और मोटरसाईकिल (हाइवे और रॉकस्टार) जैसे साधनो का इस्तेमाल करते है। 

संजय लीला भंसाली की प्रेम कहानी में हमेशा भीड़ मौजूद रहती है उनके प्रेमी सदा से  दुनिया की भीड़ में थोपी गयी पहचान के साथ मिलते है।  "हम दिल दे चुके सनम"हो कि "देवदास"प्रेमियों  का व्यक्तिगत स्पेस कही है ही नहीं। खानदान, परम्परा,की  बनावटी भव्यता में लिप्त।  इम्तियाज़ के नायक नायिका इस बोझ से मुक्त होने की यात्रा में जीते है इसलिए  भीड़ से घिरे  होते हुए भी निर्लिप्त दिखाई  देते है। 
 भंसाली कहीं किसी पेंटिग से प्रेरित फ्रेम में अपनी नायिका चस्पा कर देते है (काशीबाई का अकेले  रोने का दृश्य और बेटे का अचानक प्रवेश। वो फ्रेम राजा रवि वर्मा की पेंटिग से प्रेरित है ) काशीबाई का रुदन मनोरम दृश्य बन जाता है और इच्छा  होती है काश यह फ्रेम यही ठहर जाय, इसके बीच उसके अकेलेपन की पीड़ा दर्शक तक पहुँच ही नहीं पाती। इम्तियाज़ की मीरा का प्रेमी से छूटने का दर्द ख़ामोशी से प्रेषित हो जाता है। अकेलेपन की पीड़ा कहने के लिए खूबसूरत लोकेशन नहीं चाहिए बस अपना स्पेस  ढूढ़ती दो जोड़ी सूनी आँखे काफी है इस पार बैठी सैकड़ों जोड़ी आँखों को नम करने के लिए।  
संजय लीला भंसाली की मस्तानी झिलमिल कास्ट्यूम देख कर  सातवी, आठवी कक्षा की इतिहास की किताब में बंद राजा रानी याद आते है। उनके परिधानों पे आधुनिक  फैशन महारथी अपनी कारीगरी के बेलबूटे मढ़ देते है और मस्तानी को पर्सियन रानी की चलती फिरती तस्वीर में तब्दील कर देते है।
 सौंदर्य की प्रतिमा  मस्तानी के भीतर की प्रेयसी, "मैं दीवानी दीवानी"कहते नही  थकती किन्तु उसकी दीवानगी जैसे थोपी हुयी लगती है। बिल्कुल उसके भारी भरकम परिधानों की भांति जो किसी भी राजकुमारी से उसका मनुष्य होना छीन ले । क्लोज़ आप शॉट में मस्तानी की ग्लिसरीन से गीली आँखों और लांग शॉट में शानदार कास्ट्यूम के सिवा कुछ नहीं दीखता। प्रेम से सराबोर मस्तानी नदारद है। बाजीराव और मस्तानी के कितने ही प्रेम दृश्य  है। वे हर जुल्म सर आँखों पे लिए सहते रहे। मगर "तमाशा"की मीरा और वेद का अलग अलग पहाड़ी पे बैठे होना, वेद का शून्य में ताकना और मीरा का उसे देखना, सब कह गया जो भंसाली की मस्तानी " कुबूल है कुबूल है"करके नहीं कह सकी । 
 भंसाली अपनी  पिछली फिल्मो की तरह कई फ्रेम और कई परिस्थितयो की पुनरावृत्ति करते हैं । मस्तानी और काशीबाई का एक फ्रेम में आना जैसे पारो और चंद्रमुखी की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश । "हम दिल दे चुके सनम"में ऐश्वर्य रॉय का झूले पे लेटे हुए दर्द बयान करता दृश्य काफी चर्चित हुआ। वे बाजीराव का दर्द भी उसी कैमरा एंगिल से वैसे ही झूले पे बयां करने की कोशिश करते है।
   हमेशा की तरह उनके किरदार, अभिनेता अभिनेत्रियों की आँखों से फिसल कर लोकप्रिय, चुटीले संवादों का मोहताज़ होकर रह जाते है। "बाजीराव ने मस्तानी से मुहब्बत की है अय्याशी नहीं"मगर बाजीराव योद्धा तो बन गया, लेकिन जिस मुहब्बत की बात करता है उसे ठीक से नहीं जी पाता, वो योद्धा बन जाता है मगर प्रेमी नहीं। ठीक उसी तरह जैसे मस्तानी  योद्धा पहले थी प्रेमिका बाद में, योद्धा होना क्या यूँ ही आसानी से समाप्त हो जाता है? बॉलीवुडयन "मैं तुलसी तेरे आँगन की"टाइप में आने के लिए भंसाली की हर नायिका आतुर दिखाई देती  है।  
 मीरा के प्रेम की पराकाष्ठा है "माफ़ी मुझे मांगनी  चाहिए क्योंकि मैंने तुम्हारे किसी काम्प्लेक्स को छू दिया होगा जो मुझे नहीं करना चाहिए"ऐसा कहते हुए तमाशा की दीपिका बाजीराव की दीपिका से बहुत आगे निकल जाती है। उसकी भीगी आँखे किरदार में तो हैं ही साथ ही फ्रेम की  कैद से बाहर भी है । वेद के लिए उसकी धड़कन सुनायी देती है।   
इम्तियाज़ अली की प्रेम कहानी सफरनामा है उनके किरदारों का जो दुनिया भर की सड़के नापता है कि खुद तक पहुँच सके।  सेल्फ को छूने के कई और रास्ते भी है.- ज्ञान, भक्ति, दुःख, यातना, जो किसी के लिए "अँधेरे से उजाले का सफरनामा "बन सकता है। हिंदी फिल्मी कथा में इश्क़ सबसे लोकप्रिय राह है। इम्तियाज़ को भी उसे चुनना पड़ता है।  इस सफर में कभी नायक  (हाईवे में रणदीप हुड्डा) तो कभी नायिका (तमाशा में  मीरा तथा रॉकस्टार में  हीर) उनके सहयात्री  होते है।  इश्क़ से रोशन  अंतर्मन  के साथ वो  खुद से रिहाई भी मांगते है। ये रिहाई भी प्रेम के दर पे ही मिलती है। आँखे बंद करके भंसाली की प्रेम कहानी को याद करे तो दिखेंगे ठहरे हुए खूबसूरत फ्रेम में कुछ मनमोहक विज़ुअल्स। उन तस्वीरों में कैद बेजान किरदार। 
इम्तियाज़ की किसी भी कहानी को उठा लीजिये, हर कहानी में जीवन है, गति है, धड़कन है तभी अब तक उनकी फ़िल्मी यात्रा की हर कहानी, प्रेम कहानी है। 

क्या है 'बकर पुराण'?

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इस महीने अजीत भारतीकी किताब आ रही है 'बकर पुराण'. एक नई विधा, नया लेखक. जानते हैं कि है क्या इसमें- मॉडरेटर 
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‘बकर पुराण’ के बारे में
यह एक साहित्य है जिसमें एलीट या सजावटी होने का कोई दवाब नहीं है। न ही हमने कभी नैतिकता की चादर ओढ़ने की कोशिश की है। इस साहित्य का नाम भले ही बकर साहित्यहै पर बकवास कुछ भी नहीं।
बकर साहित्यहिंदी साहित्य की वो विधा है जो सड़क के पास की चाय के दुकानों, गोलगप्पे के ठेलों, स्कूल-कॉलेज के हॉस्टलों से होते हुए बैचलर लौंडों के उस कमरे पर पहुँचता है जहाँ ग़ालिब है, मोमिन है, ट्रॉटॅवस्की है, आँद्रे ब्रेताँ है और कॉस्मोपॉलिटन का पुराना-सा इशू भी। उसी कमरे में कटरीना की तस्वीर भी है और लियोनार्दो के स्फूमेटो अफेक्ट को बताती किताब भी।
उस कमरे में झाड़ू नहीं लगी हो, बर्तन गंदे हों लेकिन चार लौंडे जब साथ बैठकर मदिरा का सेवन कर रहे हों, पाँचवा सिर्फ़ चखना दे रहा हो तो मोदी-ओबामा से लेकर सचिन-गाँगुली, निकॉल्सन-डी नीरो, काफ़्का-कमू, मंटो-प्रसाद, कबीर-नानक तक पर गहन चर्चा हो जाती है।
बकर साहित्य यहाँ साँस लेता है, स्वछंद होकर। यहाँ साहित्यकार नग्न होता है। चाहे वो नशे में हो या होश में, एक-एक बात दुनियावी कपड़ों और रंग-बिरंगे चश्मों के परे करता है। यहाँ आलोचना की जगह है।
अजीत भारती के बारे में
बिहार के बेगूसराय ज़िले के छोटे से गाँव रतनमन बभनगामा में जन्मे अजीत भारती की शुरूआती शिक्षा सैनिक स्कूल तिलैया में हुई। किरोड़ीमल कॉलेज़ (DU) से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातक किया। तदोपरांत पत्रकारिता में स्नातकोत्तर किया।

फिर TOI, ET और IANS में काम किया। फिर सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में दिल्ली के एक कॉलेज़ में पत्रकारिता की शिक्षा भी दी। आजकल शिकागो से संचालित एक न्यूज़ पोर्टल में सहायक संपादक हैं।

हिंदी और देवनागरी लिपि को प्रोत्साहन देने के लिए, अपने मित्र सान्निध्य द्वारा शुरू किए गए फ़ेसबुक पेज़ 'बकर अड्डा'से जुड़े और वहाँ व्यंग्य, संस्मरण, कविता, कहानियाँ लगातार लिखते रहे।
किताब का एक अंश


बैचलर लौंडों का पार्टी प्रीपेरेशन

लड़कों और लड़कियों में पार्टी जाने वक़्त एक ही मेन डिफरेंस होता है। लड़कियाँ अपने सैंतालीस नए टॉप(एक बार पहने या पिछले सप्ताह ख़रीद कर अलमीरा में रखे हुए), सतहत्तर सैंडल (पेयर में, सिंगल में एक सौ चौव्वन), अड़तीस क्लच, बारह सैचल, उन्नीस बाकी हैंडबैग, अनगिनत जींस आदिमें से क्या ट्राय करूँ ये डिसाइड करने में कुछ घंटे लगा देती हैं।

ध्यान रहे अभी सिर्फ़ट्राय करने का वक़्त बताया है। एक्चुअली में वो किसी दुकान जाकर पूरा नया सेट भी ख़रीद सकती हैं।

और लौंडे भी समय उतना ही लेते हैं लेकिन दूसरे कारणों से। पहले सोचते हैं कि पार्टी में जाएँ कि नहीं। ठेल-धकेल के डिसाइड हुआ कि चलना ही है तो फिर गंदे कपड़ों में से कम गंदा कपड़ा निकाल लेगा। अपनी इस अचीवमेंट पर मन-ही-मन एकॉम्प्लिश्ड फ़ील करेगा।

फिर कहीं से पता चला कि ड्रेस कोडहै। फिर बकचोदी करेगा, "साला, घुसने नहीं देगा क्या अगर चप्पल में चले गए तो?"कोई कहेगा कि हाँ भाई, बहुत टाइट टर्म्स होते हैं।

"भक साला! ये कोई बात है! मेरे पास साला उजला जूता है। फ़ॉर्मल पैंट कहाँ से लाएँ?"
"रहुलवा को फ़ोन लगाओ? तेरा वेस्ट कितना है?"
"बत्तीस!"
"आए हाय मेरी जान! बत्तीस है।"
"अबे पूछो ना, जान-वान बाद में करना।

"राहुल? यार वो रजिब्बा के पास पैंट नहीं है। मैनेज हो जाएगा?"
"कमर?"
"अबे बत्तीस है? और यार एक बेल्ट भी..."
"यार, शादी के बाद हमारा कमर बढ़ गया है यार। अजीतवा को पूछो, वो दस साल से बत्तीस पर ही अटका हुआ है।"

अब फ़ोन दूसरे को लगाया जाएगा कि पैंट हो गया है, बेल्ट मिल जाएगा। फिर याद आया कि जूता तो स्पोर्ट्स वाला है। बकचोदी होगी, "यार इसको काला पॉलिश कर लेते हैं। हर चीज माँग के थोड़े ही पहनेंगे। कल पेट्रोल से धो लेंगे। एक बार में धुल जाएगा।"

"मूर्ख हो किया बे? ऐसे थोड़े होता है। चलो एक ख़रीद लेंगे।"तब कोई बोलेगा कि उसके पास एक्स्ट्रा है, काम हो जाएगा।
"चड्डी-गंजी है कि वो भी लाएँ?"
"नहीं बे, चड्डी है। हाँ, अब ये मत बोल देना कि नहा के जाना है! आरन कर लें? या छोड़ो... नीचे क्या है सूट के कौन देखता है!ऐसे ही पहन लेंगे। यार वॉर्म भेस्ट लेना पड़ेगा, ठंड में फट के हाथ में आ जाएगी।"
"अबे मैंचिंग नहीं है यार!"
"मूर्ख हो क्या बे? कॉन्ट्रास्ट है। लेटेस्ट चल रहा है। फ़ैशन फ़ॉलो करने वाली लड़कियों से फ़्रेंडशिप करो फेसबुक पर।"
"यार अजीत, आजकल तुम कुछ कर नहीं रहे, जूता ही पॉलिश कर दो।"
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विवरण :
किताब का नाम :  बकर पुराण (पेपरबैक, बैचलर व्यंग्य)
लेखक : अजीत भारती
पृष्ठ : 176
मूल्य : रु 110
प्रकाशन : हिंद युग्म, दिल्ली

25 जनवरी 2016 से सभी ऑनलाइन स्टोरों पर रिज़ होगी। फिलहाल किताब की प्रीबुकिंग चालू है। 

घुमक्कड़ी का आख्यान 'आजादी मेरा ब्रांड'

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'आज़ादी मेरा ब्रांड'एक हरियाणवी लड़की अनुराधा बेनीवालकी घुमक्कड़ी का ऐसा आख्यान है, जिसमें वह सब तो मिलेगा ही जो पहले से हम किसी भी यात्रा-डायरी या यात्रा-आख्यान से पाते रहे हैं, साथ में इसमें एक लड़की की अपनी उस आंतरिक यात्रा की डायरी भी मिलेगी, जिससे गुजरते हुए वह एक सामान्य लड़की से स्वयं को 'आज़ाद'लड़की महसूस करने लगती है. यूरोप घूमती हुई यह अकेली बैक पैकर लड़की हमें किताब के हर अध्याय में चकित भी करती है, रोमांचित भी. वह पलट-पलट कर भारत की जमीन और भारत की परिस्थितियों से अपने वर्तमान अनुभवों को जोड़ती चलती है. वह हरियाणा के रोहतक जिले के महम खेड़ी गाँव से निकली लड़की है, जिसे आज़ादी मिली नहीं है;बल्कि उसने उसे आगे बढ़ कर एक-एक पग हासिल किया है. हमें उसकी हासिल कर लेने की उपलब्धि अवाक् नहीं करती, बल्कि झिंझोड़ कर जगाती है. उसकी यात्रा कई जगह भावुक करती है तो कई जगह हमें वैचारिक रूप से समृद्ध करती है. यह किताब हमें यूरोप के 10 देशों के बारे में जितना बताती है, उतना ही हमें अपने परिवेश के बारे में बताती है. चाहे हम दिल्ली से हों या हरियाणा से, पुणे से या यूपी-बिहार या किसी भी भारतीय प्रदेश से. विश्व पुस्तक मेले में अनुराधा बेनीवाल की ‘यायावरी आवारगी’ श्रृंखलाकी यह पहली किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ सार्थक (राजकमल प्रकाशन का उपक्रम) से छप कर आ रही है. पेश है, पुस्तक के एक अध्याय का यह अंश:

बर्लिन : एक माफ़ी मांगता शहर

अल्बर्ट मूलर नाम था मेरे होस्ट का। घर में दाखिल हुई तो जगह-जगह विज्ञान से जुड़ी चीजें रखी हुई थीं.बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के पोस्टर टंगे थे.मैगजीन भी साइंस की, और-तो-और जो पेंटिंग्स लगी हुई थीं वे भी सौर मंडल और विज्ञानियों के मतलब की थीं। अल्बर्ट ने बताया कि घर में एक और गेस्ट रुका हुआ है और यह हॉल में फैला सामान उसी का है। यह जान कर मुझे थोड़ी और तसल्ली हुई कि घर में कोई दूसरा भी घुमक्कड़ है। उन्होंने मुझे कॉफ़ी के लिए पूछा और एक धुला तौलिया और साबुन-शैम्पू देकर मुझे बाथरूम दिखाया। उन्होंने बताया कि मुझे बाहर सोफे पर सोना होगा और दूसरे गेस्ट के पास स्लीपिंग बैग है, वह उसमें सो जाएगा। उसी कमरे में उनका बड़ा-सा कंप्यूटर भी रखा था. अल्बर्ट ने कहा कि मैं उसे इस्तेमाल कर सकती हूँ। उन्होंने कॉफ़ी बनाई और इसी बीच मैंने मुँह-हाथ धोकर अपना सामान जचा लिया। कॉफ़ी पीते हुए मैं उनके प्रति एक अजीब आभार-भावसे भर गयी। एक अजनबी को उन्होंने अपने घर में सिर्फ जगह ही नहीं दी थी, उन्होंने दुनिया में अच्छाई पर उसका विश्वास और भी मजबूत किया था। अब मैं जैसे दोस्त के घर पर ही थी। 

जब अल्बर्ट को मैंने बताया कि मैं सिर्फ दो दिन बर्लिन में रुकने वाली हूँ तो वे थोड़े निराश हुए। उनके अनुसार दो दिन में तो मैं बर्लिन का ‘बी’ भी अच्छे से नहीं देख पाउंगी। उन्होंने एक कागज़ पर पेंसिल से जगहों के नाम लिखने शुरू किये और बताया कि इनको देखे बिना शहर आना-न आना एक समान है। मैंने उनको बताया कि मैं ज्यादा चीजों को देखने में विश्वास नहीं रखती.बस, जर्मनी के इतिहास में थोड़ी दिलचस्पी रखती हूँ, और बाकी तो केवल शहर में यों ही चल-फिर कर देखना चाहती हूँ। इस पर भी अल्बर्ट बोले कि दो दिनों में तो वह भी ना हो पायेगा। उन्हें शहर से बेहद प्रेम जान पड़ता है। यों तो मैंने जर्मनी के लोगों की देशभक्ति के बारे में सुना था, लेकिन यह ‘भक्ति’ कम, प्रेम ज्यादा लगता है। उन्होंने अपनी साठ साल की पूरी उम्र बर्लिन में बितायी है. शादी की. बच्चे पैदा किए.डाइवोर्स हुआ. बीवी दूसरे शहर में बस गयी.बच्चे दूसरे शहरों में चले गए, लेकिन वे बर्लिन में बने रहे। बच्चों से उनका लगाव दिखता है. वे बताते हैं कि हर साल वे उनसे मिलने आते हैं, लेकिन इस साल माँ के पास गए हैं। अल्बर्ट बताते हैं कि बर्लिन का बेहद सस्ता होना भी उनके यहाँ बने रहने का एक बड़ा कारण है। उनका फ्लैट दो कमरों का है, लेकिन काफी खुला-खुला है. वे महीने का 350 यूरो किराया देते हैं। इतनी सस्ती जगह इतने बड़े शहर में मिलनी बहुत मुश्किल है। अल्बर्ट बताते हैं कि शहर में क्वालिटी लाइफ बिताना मुश्किल नहीं है। वे ऑफिस के बाद टेनिस खेलते हैं, म्यूजियम जाते हैं, म्यूजिक फेस्टिवल में जाते हैं, साइंस के बड़े फैन हैं तो साइंस फेस्टिवल में जाते हैं। बताते हैं कि सरकार ने हेल्थ बेनिफिट बहुत अच्छे दिए हैं और उनको अपना जीवन बर्लिन में काफी मस्त लगता है। 

उनके फ्रिज में बहुत-सा बीफ बना पड़ा है.वे डिनर में ब्रेड के साथ बीफ खाते हैं। मैं ब्रेड-बटर के साथ चाय पीती हूँ। अभी बीफ खाने जितनी भी अडवेंचरस नहीं हुई हूँ। रात को दूसरा मेहमान नहीं आता है.उसे शायद अपने कुछ दोस्त मिल गए हैं। मैं बड़े-से सोफे पर फैल कर निश्चिन्त सोती हूँ। मुझे यहाँ ब्रस्सल्स वाला भय नहीं है.मैं कुण्डी ढूंढती तक नहीं! 

***

सुबह जब आँख खुली तो अल्बर्ट को ऑफिस के लिए तैयार पाया। वे मुझे जल्दी ना करने को कहते हैं और चाबी का एक गुच्छा पकड़ा देते हैं.गुच्छे में एक चाबी बिल्डिंग के गेट की है और एक फ्लैट की। वे मुझे बताते हैं कि फ्रेश ब्रेड ले आये हैं और कॉफ़ी भी बना दी है. अगर मैं कुछ और भी बनाना चाहूँ तो उनकी रसोई का सामान इस्तेमाल कर सकती हूँ।

अल्बर्ट के ऑफिस जाते ही अब मैं घर में अकेली थी। ब्लैक कॉफ़ी में दूध डालकर पीते हुए मैं उनके घर में यूँ ही फिरती हूँ। उनका घर भी सलीके से जचा है, लेकिन उसमें होकिन के घर जैसी कला नहीं है.यह  घर किसी लड़के का ही हो सकता था। घर में सामान का ढेर है, लेकिन कला के नाम पर सिर्फ साइंस के बड़े-बड़े पोस्टर हैं। बीस-पच्चीस जोड़ी जूते रसोई के सामने वाली अलमारी में रखे हैं। हॉल में टीवी नहीं है.शायद उनके कमरे में होगा। किताबों के नाम पर सिर्फ साइंस मैगजीन्स हैंऔर परफ्यूम की ढेर सारी शीशीयां अलमारी की शेल्फ में/पर रखी हैं। रसोई में मसाले सभी जान पड़ते हैंइंडियन भी, चाइनिज़ भीऔर अफ्रीकन भी। रसोई की अलमारियों में पकाने का सामान कम और मसाले ज्यादा हैं। हल्दी और धनिया पाउडर देख कर मैं बेहद खुश हो जाती हूँ, बड़े दुर्लभ मसाले हैं ये यहाँ के लिए! मुझे ख्याल आता है कि कुछ भारतीय स्वाद का पकाना चाहिए। आज शाम को सामान ले आउंगीप्याज, हरी मिर्च वगैरह। यूरोपियन घरों में प्याज और लहसुन आसानी से नहीं मिलते.हरी मिर्च और धनिया तो बाज़ार में भी आसानी से नहीं मिलते! उनका फ्रिज फ्रोज़न खाने से भरा हैमीट, मछली, सॉसेज़, पालक— सब फ़्रोज़न और कटी सब्जियां भी! एक बड़े-से डोंगे में शायद बीफ रखा है, और तरह-तरह के मीट भी। लगता है, जर्मन लोग मांसाहार बहुत करते हैं। मैं उनकी लाई फ्रेश ब्रेड में बटर और जैम लगा कर कॉफ़ी के साथ खाती हूँ। अब शहर निकलना चाहिए! 

उनके कंप्यूटर की मदद से आज मैंने घूमने वाली जगहों का रास्ता देख लिया था। उनके घर से सिटी सेंटर लगभग डेढ़ घंटे पैदल का रास्ता है. मैं एक ब्रेड पर चीज़ लगा कर पैक कर लेती हूँ और साथ में पानी की बोतल लिए निकल पड़ती हूँ। उन्हीं गलियों से, जिनसे कल आई थी, आज शॉर्ट्स पहन कर  बिना बैक पैक के निकली हूँ तो लोग घूरते मालूम नहीं पड़ते। अब मैं शायद जर्मन लगती हूँ। आप जिस जगह पर हों, अगर उस जगह के लोगों के जैसा दिखने की कोशिश करें या फील करें कि आप उसी जगह के हैं तो थोड़ा-थोड़ा उन्हीं के जैसे दिखने भी लग जाएंगे। कर के देख सकते हैं कभी। मैं जब अकेले कश्मीर घूमने गयी थी तो श्रीनगर की गलियों में हिज़ाब पहन कर घूमती थी। धीरे-धीरे चलती और सहज हिंदी में बात करती. लोकल बसों में घूमती.मुझे कई बार लगता था कि मैं वहीँ की हूँ। 

यह इलाका तो दूर-दूर तक टूरिस्टी नहीं है। यहाँ दुकानों के नाम, मेट्रो स्टेशन के नाम, साइन बोर्ड्— सब जर्मन में हैं। खूब सारे पेड़ हैं.छोटे-छोटे पार्क थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हैं, लेकिन पेड़ों के झुरमुट जगह-जगह हैं। एक बार के लिए रास्ते में लगता है, जैसे मैं जंगल से गुजर रही हूँ। इमारतों के रंग पीले और लाल हैं, उनके झंडे के जैसा। किसी-किसी घर के सामने देश का झंडा लगा है तो कुछ खिड़कियों से भी चिपका हुआ है। मैं जिस रास्ते पर चल रही हूँ, वहां कोई और नहीं दिखता है.खूब चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर गाड़ियाँ बस भाग रही हैं.साइकिल की लेन अलग है, लेकिन कोई साइकिल वाला भी नहीं दीखता है। रास्ते में एक सुन्दर चर्च आता है तो एक-दो फोटो खींच लेती हूँ. कोई खिंचाने वाला आसपास है नहीं तो कैमरा टाइमर पर लगा के खुद की ही फोटो खुद खींचती हूँ। पार्क में कुछ बच्चे शायद फुटबॉल खेल रहे हैं। पार्क के चारों तरफ नेट लगा है तो ज्यादा देख नहीं पाती हूँ। बस, आवाज़ सुनाई देती है। 

थोड़ी दूर और चलती हूँ तो लोगों का एक झुण्ड दिखाई देता है. एक दीवार के साथ खड़े सब फोटो खींचा रहे हैं। यह शायद ‘बर्लिन वॉल’ है। मशहूर बर्लिन की दीवार— जो यों तो ढहा दी गयी है लेकिन कुछ-कुछ जगहों पर यादगार के लिए बची हुई है। जहाँ-जहाँ है, वहाँ-वहाँ उस पर शहीद हुए लोगों की फोटो लगी हुई हैंछोटे बच्चे, जवान लड़के लड़कियांऔर बूढ़े; फोटो में हर तरह के चेहरे हैं। मुझे ज्यादा तो नहीं पता इस दीवार का इतिहास, लेकिन मालूम पड़ता है कि बहुत लोग शहीद हुए इसके चक्कर में। सोचती हूँ, अल्बर्ट से पूछूंगी रात में। 

अभी तक तो धूप थी, लेकिन अब बारिश के आसार दिखते हैं। मैं हमेशा की तरह छाता साथ नहीं लाई हूँ तो तेज-तेज चलना शुरू करती हूँ। मुझे यहाँ से टीवी टावर दिखता है जिसकी सीध में चलने से मैं अलेक्सेंडर प्लाट्ज पहुँच जाउंगी। अलेक्सेंडर प्लाट्ज सिटी सेंटर में एक चौक है, जहाँ से टूरिस्ट-अट्रैक्शन का इलाका शुरू होता है. यहाँ से स्प्री नदी पास में है और उसी के पास सब म्यूजियम। मेरा मन जर्मन हिस्ट्री म्यूजियम देखने का था। जाने क्यों, मुझे हिस्ट्री अच्छी लगती है। जानकारी बिलकुल नहीं है इतिहास की, और मिल जाए तब भी जल्दी ही भूल जाती हूँ;फिर भी जानना दिलचस्प लगता है। अभी पहुंची नहीं हूँ कि बारिश शुरू हो जाती है। मैं एक सुपर मार्केट में घुस जाती हूँ। बाहर ही छाते भी बिक रहे हैं.ये जैसे बस छुपे खड़े थे इंतज़ार मेंकिकब बारिश हो और कब हम छाते बेचने निकलें। अब क्या छाता खरीदूँगी!लिए-लिए फिरूंगी, फिर गुम जाएगा। ,सोचती हूँ बारिश रुकने तक यहीं रुका जाए। सुपर मार्केट में सब चीजों के लेबल जर्मन में हैं। कुछ भी पढ़ कर अगर खरीदना है तो मुश्किल है। मैं कुछ भारतीय सामान ढूंढती हूँ.एक लाइन में इंटरनेशनल फूड लगा है.वहाँ बासमती चावल, दो-तीन दालेंऔर कुछ मसाले रखे हैं. मैं चावल, छोले, दो प्याज, लहसुनऔर अदरक खरीद लेती हूँ। 

अलेक्सेंडर प्लाट्ज पर खूब भीड़ है और हर तरफ लोग फोटो खिचाते दिख पड़ते हैं। यहाँ फ्री वाई-फाई भी है। यहाँ थोड़ी देर आराम किया जा सकता है। कुछ ठेले वाले खाने का सामान बेच रहे हैं। यह हॉट-डॉग जैसे इनका नेशनल डिश लगता है। तभी अल्बर्ट के घर में भी इतने सारे पैकेट्स रखे हैं और यहाँ भी जगह-जगह पर बिकता दिखता है। मैं अभी तक मीट खाने के लिए नहीं ललचती हूँ। खुशबू तो बेहद लुभावनी है, लेकिन मैं अपनी ब्रेड और चीज़ ही खाती हूँ। 

मैं फिर बढ़ती हूँ स्प्री की तरफ। आज किसी म्यूजियम में जाने की इच्छा नहीं होती। बाहर ही इतना कुछ देखने को है कि कहीं अंदर घुसने का मन नहीं करता। यह शहर बड़ा तो है और भीड़ वाला भी, लेकिन यहाँ गुम होना आसान है। गुम होने से मेरा मतलब है कि भीड़ में आप किसी को नहीं दिखेंगे और शहर भी देख लेंगे। यह आपको बिलकुल छोटा-सा महसूस कराता है। मैं यों ही चलते-चलते एक ओपन म्यूजियम पहुँच जाती हूँ। कोई टिकट नहीं है और भीड़ भी बहुत ज्यादा नहीं है। चलो, अब आ गयी हूँ तो यह भी देख लिया जाए। 

यह था ‘टोपॉग्राफी ऑफ़ टेरर’— यहाँ खुले बीहड़-से मैदान में लाइन से फ़ोटो और पोस्टर लगे हैं। यह म्यूजियम देखने का कम और पढ़ने का ज्यादा है। मैं तीन घंटे तक सब पढ़ती रही। पहली बार में मुझे अपने ही पढ़े पर यकीन नहीं आता है। मैं फिर दुबारा पढ़ती हूँ। यह जर्मनी ने अपने बारे में लिखा है? मैं जर्मनी में ही हूँ न? और यह म्यूजियम इन्हीं की जमीन पर बना है? नहीं, नहीं। ये अपनी ही बुराई कैसे कर सकते हैं! सिर्फ बुराई ही नहीं, खुद को गालियां दे रहे हैं!

जर्मनों ने कितने यहूदियों को मारा?  कितने डेथ कैंप लगाये? उन्होंने बच्चे-बूढ़े, यहाँ तक कि पूरे गाँव-के-गाँव खत्म कर दिए! यहूदियों को देश से बाहर निकाल दिया और दूसरे देशो में घुस कर उन्हें मारा! यह सब बातें तो यहाँ दर्ज हैं ही, अपने ही देश के नाज़ी सैनिकों की फोटो लगायी हैं और उन्हें कसाइयों की उपाधी दी है। कैसे-कैसे, किस-किस ने यहूदियों की हत्याओं को अंजाम दिया— यहाँ सबका कच्चा चिट्ठा है। सिर्फ हिटलर को ही हत्यारा नहीं बताया गया है, उसके सैनिक और पूरा देश कैसे उन हत्याओं में शामिल हो गया, यह सब लिखा है यहाँ। और कहीं लुका-छुपा के नहीं, पूरे उजाले में सबके सामने बताया गया है। और सब म्यूजियम की एंट्री फीस है, इसकी तो वह भी नहीं है। सब आओ, सब जानो, सब सीखो!

All residents must be killed; No prisoners are to be taken. 
Warsaw is to be razed to the ground setting a frightening example for all Europe.
[जो भी यहाँ रहता है सबको खत्म कर दो या कैद कर लो. वारसा को इस तरह मिट्टी में मिला दो
कि पूरा यूरोप देखे और डरे.]

-Hitler's order 


बिना किसी लाग-लपेट के, बिना कोई जस्टिफिकेशन दिए, सीधे-सीधे लिखा था कि हमने ये सब किया। हम हत्यारे थे। हिटलर हमारा नेता था और हम सब उसकी सुनते थे। इतना सीधा लिखा है कि पढ़ने वाला बैचैन हो जाए। अपनी बुरी करतूतों को सिर्फ मानना ही नहीं, पूरी दुनिया को बताना! अपनी आने वाली पीढ़ी को बताना कि कहीं कोई भूल ना जाए... कहीं भूल कर भी फिर ऐसी भूल ना हो जाए! अगर ऐसे कोई माफी मांगे तो कोई कैसे ना माफ करे

इसके बाद कुछ और देखना मुमकिन नहीं था। अब घर चला जाए... 

***

अल्बर्ट घर आ चुके थे.मैंने चाय अदरक वाली बनाई और अगले दिन बनाने के लिए छोले भिंगो दिए। डिनर में अभी समय है. बाकी यूरोप में लोग इंग्लैंड के जैसे दिन छिपने से पहले नहीं खाते। सात से आठ के बीच डिनर होता है.कभी-कभार और भी देरी से. खूब ब्रेड और चीज़ खाते हैं ये लोग, और साथ में खूब सारा मीट। सब्जियों में आलू के सिवा ज्यादा कुछ नहीं पता इन्हें, और दालें तो हैं ही नहीं। लेकिन सलाद खूब खाते हैं। कभी कभी ब्रेड की जगह सिर्फ मीट और सलाद खाते हैं। खीरे-टमाटर वाला सलाद नहीं, रंग-बिरंगे पत्तों वाला सलाद। वाइन और बियर भी खूब पीते हैं। मैं सोचती हूँ, ये हमसे सेहत में आगे कैसे हैं? यहाँ उम्रदराज महिलाएं भी एकदम फिट दिखती हैंऔर बूढ़े लोग भी बूढ़े नहीं लगते। शायद प्रदूषण ना होने का असर होगा. इतना चलते हैं, साइकिल चलाते हैं, फिर कुछ कुछ गेम्स भी खेलते हैं। अकेले रहने की वजह से तो उम्र ज्यादा नहीं होती है इनकी? कितनी फालतू की चिंता से बच जाते होंगे ये लोग! बच्चों की चिंता तो ठीक, लेकिन फिर उनके बच्चों की भीया शायद इतना घूमते-फिरते हैं इसलिए जवान रहते हैं! एक जगह जड़ हो जाने से भी शायद बुढ़ापा जल्दी आ जाता है. नई जगह देखने, नए लोगों से मिलने, नई भाषा, नया खाना, नई गलियाँ देख-जी कर भी एक बचपना कायम रहता है.

आज मुझे बहुत सारे सवाल करने थे अल्बर्ट से। पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बारे में पढ़ा कई बार था, लेकिन समझ कभी नहीं आया था. आज तो सब पूछ लेना था मुझे। जर्मनी की संस्कृति, उसका इतिहास, हिटलर, म्यूजियम, वॉल— सबके बारे में जानना था मुझे। और हाँ, मैंने यहाँ तीन-चार दिन ज्यादा रुकने का मन तो पहले ही बना लिया था। यों भी आगे मुझे प्राग जाना था और किसी होस्ट या लिफ्ट का इंतज़ाम अभी तक हुआ नहीं था। मैंने लिखा काफी लोगों को था, लेकिन या तो जवाब ना’ में थाया आया ही नहीं था। 

अल्बर्ट के शब्दों में जर्मन इतिहास यह था :
“उस समय ऑस्ट्रिया और हंगरी एक ही एम्पायर था, जिसका नाम था ऑस्ट्रिच-उंगरी। उसके राजा का क़त्ल हुआ थाऔर हथियार दिए थे रूस ने। ऑस्ट्रिच-उंगरी और जर्मनी ने मिल कर रूस के खिलाफ जंग छेड़ दी। मैदान में रूस के साथ इंग्लैंड और फ्रांस कूद गए। रूस के साथ तो शांति-समझौते की बात हो गई 1917 में, लेकिन फ्रांस और इंग्लैंड के सामने जर्मनी को 1918 में सरेंडर करना पड़ा। जर्मनी की मिटटी-पलीद हो गयी। सरेंडर करने से जर्मन बहुत गुस्से में और दुखी थे। जर्मनों के साथ पोलैंड और चेक-रिपब्लिक में बुरा बर्ताव होने लगा। फिर आया हिटलरसबको बचाने, बदला लेने। 1935 से 1939 में हिटलर ने सेना खड़ी की और 1939 में चेक और ऑस्ट्रिया गया; और उन्हें जर्मनी नाम दे दिया। वहाँ के लोगों ने भी हिटलर का खूब स्वागत किया और खुद को जर्मनी कहने लगे। जाने क्या पागलपन था! हिटलर और और उत्तर पड़ोसी देशों पर कब्ज़ा करता चला गया। पोलैंड पर हिटलर ने कब्ज़ा कर लिया था। अब इंग्लैंड और फ्रांस ने फिर जर्मनी के खिलाफ जंग का ऐलान किया। लेकिन हिटलर कहाँ रुकता था!1941-42 में जर्मनी और उससे मिले देश अपनी ताकत के चरम पर थे। और-तो-और, रूस तक में घुसने लगा था हिटलर। फिर आया अमेरिका, मदद करने रूस, फ्रांस,इंग्लैंड और अलाइड देशों की। इंग्लैंड की एयर फोर्स का कोई मुकाबला न था. 1943 में जर्मनी की हरेक इमारत पर बमबारी की गयी। अब जर्मनी पूरी तरह से पस्त था।  

अल्बर्ट के दादा हिटलर की पलटन में सिपाही थे। वह बताते हैं कि वे उन दिनों का जिक्र नहीं करते। उनके लिए सब इतना काला और सफ़ेद नहीं है। वे समझते हैं कि अगर हिटलर पोलैंड जाने से पहले रुक जाता तो उनके अनुसार हिटलर ने देश का बहुत भला किया था। नयी पीढ़ी वाली हिटलर के प्रति घृणा उनमें नहीं है। उनसे ज्यादा कुछ बुलवाना भी आसान नहीं। पूरी दुनिया उन्हें जज करने बैठी है, और जैसे इतिहास हमेशा जीतने वाला लिखता हैयह इतिहास शायद अमेरीका ने लिखा है।  

सब खत्म हो जाने के बाद जर्मनी को फिर से खड़ा करने में भी मदद अमेरीका ने ही की'मार्शल प्लान'के तहत। और बदले में डेमोक्रेटिक सिस्टम की शर्त रखी। यह अमरीका का क्या सिस्टम है, पता नहीं। यह अच्छा है या बुरा है?या फिर यह बस दादा है, जब मन करे अच्छा, जब मन करे बुरा।“  

विश्व युद्ध के बारे में अल्बर्ट की संक्षेप में बताई बातें, सही या गलत जो भी थीं, लेकिन इससे मुझे हिस्ट्री म्यूजियम देखने की एक वजह और एक दिशा मिल गयी। अब यह कच्चा-पक्का आईडिया लिए हुए कल Deutsches Historical Museum देख कर नए सिरे से सब जानूंगी.   

और फिर ‘गुड नाईट’ हो गया!

***

आज का पूरा दिन बिता हिस्ट्री म्यूजियम में। अब इतिहास तो हम सबने पढ़ा ही है, नहीं तो गूगल सब कुछ बताने के लिए हमेशा तैयार बैठा है। यहाँ मैंने जो देखा, वह यह कि हिटलर को गालियां ही गालियां पड़ी हैं और ठीक भी पड़ी हैं. इरादे चाहे कुछ भी रहे हों, तरीके बेहद घिनौने थे.गुनाह इतने बड़े थे कि शक की कोई गुंजाइश नहीं थी, और ना ही इस शहर ने रखी थी कोई गुंजाईश! जगह-जगह मारे गए यहूदी लोगों की याद में मेमोरियल हैं.मारने वालों के नाम और उनके गुनाहों का लेखा-जोखासब बताते हुए माफी मांगता है यह शहर! आपको देनी है तो दो, यह अपने और अपनों के गुनाह छुपाता नहीं दिखता।

पुस्तक का नाम : आज़ादी मेरा ब्रांड
लेखक : अनुराधा बेनीवाल
प्रकाशक : सार्थक (राजकमल प्रकाशन का उपक्रम)

कीमत : 199 रुपए [पेपरबैक संस्करण]

जयश्री रॉय के उपन्यास 'दर्दजा'का अंश

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कल से शुरू हो रहे विश्व पुस्तक मेले में जानी-मानी लेखिका जयश्री रॉयका उपन्यास 'दर्दजा'जारी हो रहा है. वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हो रहे इस उपन्यास का एक अंश- मॉडरेटर 
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वह एक सांवला सा दिन था.

बारिश के आखिरी दिन जब बादल खुद को समेटने लगे थे और उसके झीने कोनों से आकाश के नीले टुकड़े छोटे-छोटे रुमाल की तरह लहराने लगे थे. खाला मेरे लिये सुबह का नाश्ता लेकर आई थी- शाह यानी चाय के साथ कानजीरो- रोटी और माराक-सब्जी और मांस का शोरबा! मुझे कानजीरो घी और चीनी से खाना पसंद था. मगर गर्भवती होने के बाद से मुझसे यह भी ठीक से खाया नहीं जाता था. मुझे खिलाने के लिये खाला चाय और तिल के तेल के साथ भी इसे भिगोकर लाती थीं जैसे अक़्सर बच्चों को पसंद आता है. आज भी वह मुझे तरह-तरह से फुसला कर खिलाने की क़ोशिश में लगी थी जब पड़ोस के रमजान चाचा का बेटा ख़बर दे गया था कि मक्का में नमाज़ के बाद संग-ए-अस्वत को चूमने की क़ोशिश करते हुये लोगों में अचानक भगदड़ मच जाने की वजह से सैकड़ों लोग पैरों के नीचे कुचल कर मारे गये हैं. ज़हीर के साथ गये लोगों ने सूचना दी थी कि ज़हीर का कुछ पता नहीं चल पा रहा है. वे उसे ढूंढ़ रहे थे. किसी ने कहा था, ज़हीर की लाश उसने देखी है. जाने सच या झूठ! गांव का एक और आदमी सुलेमान इस भगदड़ में कुचलकर मारा गया था. सुनकर घर में लोगों की भीड़ जुड़ गई थी. चारों तरफ कोहराम मच गया था. सब फातिमा बी के कमरे में इकटठा हुये थे. तमाम औरतें छाती पिट-पिटकर रो रही थीं. खाला मुझे भी वही खींच ले गई थी. कमरे में घुसते ही वे भी दहाड़े मारने लगी थीं.

मेरी तो जैसे सोचने-समझने की शक्ति ही चली गई थी. सब एकदम से गडमड हो गया था. तमारोने-धोने के बीच एक ही ख़्याल मुझे बार-बार आ रहा था कि ज़हीर अब कभी वापस नहीं आयेगा... कभी नहीं! क्या वाकई? मुझे यकीन नहीं हो रहा था. मैं अपने उस समय की मन:स्थिति को शब्दों में बयान नहीं कर सकती. एक अजीब-सी सिहरन मेरे पूरे शरीर में दौड़ रही थी, रोआं-रोआं जाग गया था. दिल धड़क रहा था वेग से. भीतर तूफान समेटे मैं बस सूखी आंखों से सबको रोते-चीखते हुये देखे जा रही थी. फातिमा बी भी बिस्तर में पड़ी-पड़ी अपने एक हाथ से सर पीटते हुये मुंह से अजीबो-गरीब आवाज़ निकाल रही थीं. एक समय के बाद खाला ने मुझे घूर कर देखते हुये चिकोटी काटी थी और फिर खुद ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी थी. चिकोटी से मुझे होश आया था और फिर मैं भी आंखों पर हाथ धरकर सिसकने लगी थी. हालांकि मेरी आंखें सूखी थीं और जल रही थीं. जब भी मेरा रोना थमने लगता खाला मुझे फिर से चिकोटी काटतीं और मैं दुबारा रोने लगती. मुझे खुद समझ में नहीं आ रहा था कि मैं वाकई रो रही हूं कि क्या कर रही हूं. अभी भी मेरे दिमाग में वही बात चक्कर काट रही थी- ज़हीर अब कभी नहीं लौटेगा!

जाने कितनी देर बाद ज़हीर की बेटी रज़िया अपने बाप की ख़बर सुनकर ससुराल से भागी-भागी आई थी. उसके आने की ख़बर सुन खाला सहित सभी औरतें रोते-चीखते कमरे से बाहर निकल गई थी- शायद उससे मातमपुर्सी करने. उनके जाते ही कमरे में एकाएक सन्नाटा छा गया था. अब सिर्फ़ मैं और फातिमा बी ही कमरे में रह गये थे. यह अहसास होते ही हम दोनों जाने क्यों एकदम से चुप हो गये थे! फातिमा बी की आंखें रो-रोकर लाल हो रही थीं. मेरी भी आंखें रगड़ने से लाल हो गई थीं. अपनी सुजी हुई लाल आंखों से हम चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे थे और इस बीच कमरे में भी गहरा सन्नाटा पसरा रहा था. क्या था हम दोनों की आंखों में उस समय! एक सच जो अपने होने पर शर्मिंदा है... या शायद शर्मिंदा से भी ज़्यादा डरा हुआ! हम दोनों का चेहरा पारदर्शी हो आया है, इतना कि जैसे कांच! हम आईना बने एक-दूसरे के सामने थे और आंखें चुरा रह थे. गूंगे आईने की तरह हम भी झूठ नहीं बोल पा रहे थे. जुबान झूठ बोल लेती है, ख़ामोशी नहीं. वह बस उजागर हो जाती है! मुझे घबराहट हो रही है. फातिमा बी भी सकते में है जैसे- ऐसा नहीं होता, होना नहीं चाहिये. रवायत नहीं! अभी-अभी हम दोनों की दुनिया लुटी है, अभी-अभी हम बेवा हुई हैं. हमें ग़म में होना है, आंसुओं में होना है... मगर हम दोनों अपने-अपने हिस्से के भयानक सच के साथ स्तब्ध खड़े हैं. रंगे हाथों पकड़े गये हों जैसे! बिना कोई गुनाह किये गुनाहगारों की तरह. संस्कार शायद इसी को कहते हैं, अपने युगों के अनुकूलन से सहज बाहर नहीं आया जाता.

थोड़ी देर बाद सभी औरतें रज़िया को लेकर रोती-पीटती कमरे में लौट आई थीं और उनके आते ही हम एक बार फिर भरभरा कर रो पड़े थे. खाला मुझे इस तरह रोते देख काफी संतुष्ट नज़र आ रही थीं मगर रज़िया की गीली आंखों में मेरे लिये आज भी घृणा की नीली लपटें थीं.

उस दिन रोते-रोते मैं थक गई थी. जब खाला को तसल्ली हो गई थी कि मैं काफी रो चुकी हूं, मेरे गर्भवती होने की दुहाई देकर वह मुझे मेरे कमरे में ले आई थीं. फिर दरवाज़ा बंदकर खाना भी दिया था. खाना देखते ही मैं किसी भुक्खड़ की तरह खाने पर टूट पड़ी थी और देखते ही देखते पूरी थाली साफ कर दी थी. मुझे तो याद ही नहीं था बाररिस-भात में इतना स्वाद होता है! जीरा-कामून, ईलायची- हेयल, लौंग-क़ारानफूल और साहजीरा का स्वाद... अर्से बाद मसाले की गंध से उल्टी नहीं आई थी. मेरे और खाना मांगने पर खाला ने मुझे डपट दिया था और चुपचाप लेट जाने को कहा था. मैं हाथ-पैर फैलाकर लेट गई थी और पलक झपकते ही सो गई थी. बहुत गहरी नींद! ऐसी नींद जिसमें सपने नहीं होते, दरारें नहीं होतीं. होता है तो बस एक सपाट, मुलायम अंधेरा! जाने कितने समय के बाद मैं इस तरह से सोई थी. मृत्यु की तरह सुखद थायह.

देर शाम को खाला ने मुझे उठाया था. ढेर सारे रिश्तेदार आये थे मातमपुर्शी के लिये. औरतों के बीच जाकर खाला ने सबको बताया था मैं सारी दोपहर अपने कमरे में अचेत रही. मुझे बहुत अच्छा लगा था. खाला झूठ उतनी ही सहजता से बोलती थीं जितनी सहजता से सच. एकबार फिर रोना-धोना शुरु हुआ था जो देर रात तक चला था. दूसरे दिन ख़बर मिलने पर मां आई थीं, मगर खाला के लाख आंख गरम करने या चिकोटी काटने के बावजूद आज मेरी आंखों से एक बूंद आंसू नहीं गिरा था. अपने भीतर एक जलती हुई अंगीठी लिये मैं बुत बनी बैठी रही थी. मुझे उनका रोना भी सह नहीं रहा था. जी चाह रहा था या तो सब कुछ तहस-नहस कर दूं या उठकर जंगल में भाग जाऊं! मैं बहुत विवश थी. कुछ भी नहीं कर सकती थी. मेरी आवाज़ नहीं, हाथ-पैर नहीं, औकात नहीं, मगर मैं इतना तो आज कर ही सकती हूं कि ना रोऊं. उनके सामने ना रोना ही मेरा विरोध था. ऐसा करके मुझे बहुत अच्छा लग रहा था. कहीं से खुद को हल्का महसूस कर रही थी. सोचती थी, कहीं कुछ बचा नहीं है. राख हो गई हूं, मगर कोई जीवित चिंगारी है जो हवा पाते ही भड़क उठती है. अपना यूं कहीं से बची रहना, गेहुंवन की तरह ठनक उठना सुखद लगा था. अपमान, प्रताड़ना में निर्विरोध जीते रहना कहीं से बहुत दंश देता था, कसकता रहता था. कुचला हुआ स्वाभिमान किसी केंचुये की देह से कटकर अलग होने के बावजूद देरतक जीवित रह गये हिस्से की तरह छटपटाता रहता था. मेरा रवैया देख मां का चेहरा उतर गया था. खाला ने ही बढ़कर एक बार फिर बात सम्हाली थी - "क्या करें! बच्ची जब से ख़बर सुनी है सदमे में है!"सुनकर मां ने तत्परता से सर हिलाया था. इसके सिवा उनके पास कोई चारा भी क्या था. यह झूठ उन के सांझे का था. इसी में उनकी ख़ैर थी.

दो-तीन दिन इसी तरह बीते थे. घर में ग़मी चल रही थी. इन दिनों मुझे अकेली रहने की दुर्लभ आज़ादी मिल गई थी. खाला की वजह से ही कुछ और ज़्यादा. मुझे अंधेरे कमरे में चुपचाप पड़े रहना अच्छा लगता था. आंखों के आगे नाचती स्याह तितलियां, खिड़की के बाहर दूर तक पसरा धूसर आकाश, हर तरफ बिखरी रेत की अनगढ़ ढूंहें, ताड़ के पेड़ पर चीखते-झगड़ते गिद्ध... इन सबके माने भी अचानक से बदल गये हैं! अब ये इतने बुरे नहीं लगते. डराते भी नहीं पहले की तरह. एक नींद आती है बेहोशी की तरह... मुझे पल में खुद में डूबो लेती है, मै एक काली झील में देर तक डूबती-उतराती रहती, तैरती दूर-दूरतक, लहरों के साथ बहती... बहुत सुखद था सब कुछ! एक श्राप वरदान बन कर फला था- मैं सो सकती थी अंधेरे की गर्म रजाई ओढ़कर सदियों तक... मुझे पता नहीं था, मृत्यु ऐसी आह्लादकारी भी हो सकती है. मैं कुछ सोच नहीं रही थी मगर महसूस कर रही थी. मेरी शिराओं में बसंत उतरा था, मिट्टीमहकी थी ठीक जैसे पहली बारिश के बाद! मैंने गहरी सांस ली थी और एक भी सपना नहीं देखा था- देखने की ज़रुरत नहीं पड़ी थी! बीच रात अपने घुप्प अंधेरे कमरे में उठ बैठती और इस डर से खिड़की की तरफ देखती कि कहीं सुबह तो नहीं हो गई! सूरज तो नहीं उग गया! इस अंधकर के साम्राज्य में मैं सुरक्षित थी, निश्चिंत थी. मैं नहीं चाहती थी कभी भोर आये, रोशनी फैले, दुनिया का चेहरा फिर से मुझे दिखे! सबकुछ सिरे से भूल जाना चाहती थी, खारिज कर देना चाहती थी हमेशा के लिये. मैं अपने अंधकार भरे महाद्वीप के इस अथाह अंधकार से मिल कर एकाकार हो गई थी! सोमालिया-अफ्रिका हो गई थी. सही अर्थ में!

मगर समय थमता नहीं. ना हमेशा के लिये अंधकार ही रहता है. उस दिन सुबह की नर्म धूप में कुछ गौरैया घर के दालान पर चहचहाती हुई दाने चुग रही थीं और मुझे बूराश- दलिया चीनी और मक्खन के साथ नाश्ते में परोसकर खाला अनाज के दाने फर्श पर फैला रही थीं जब यकायक दरवाज़े पर ज़हीर आ खड़ा हुआ था. मैंने और खाला ने उसे एक साथ देखा था. मुझे अपनी आंखों पर यकीन नहीं आया था. जैसे भूत देख लिया हो. ज़हीर का एक हाथ टूटा हुआ था और पट्टेके सहारे कंधे से लटका हुआ था. वह बहुत ख़ुश नज़र आ रहा था. उसके सारे हरे, लाल दांत मसूड़े समेत बाहर निकले हुये थे. उसे देखकर मेरा जी यकायक ज़ोर से मिचलाया था और मैं बूराश की थाली ज़मीन पर फेंककर भीतर की ओर भागी थी.

भीतर आकर मैं सीधे फातिमा बी के कमरे में पहुंची थी और उन पर गिरकर फूट-फूटकर रोने लगी थी. मेरे इस तरह अचानक आ कर रोने से फातिमा बी घबरा गई थी और गोंगिया-गोंगियाकर मुझसे कारण पूछने लगी थी. मगर मुझसे कुछ भी कहा नहीं जा रहा था. बस रोये जा रही थी. थोड़ी देर बाद ज़हीर सारे घर के साथ आकर वहां हाज़िर हुआ था. उसे देखकर फातिमा बी एकदम से चुप हो गई थीं. उनका गोंगियाना बंद हो गया था. इधर मैं बेतरह रोये जा रही थी. ज़हीर हम दोनों को गहरे कौतूहल से देख रहा था. आखिर खाला ने ही आगे बढ़कर फिर से बात सम्हाली थी - "ख़ुशी के आंसू हैं! बेचारी अपनी ख़ुशी सम्हाल नहीं पा रही है! सौहर सलामत घर लौट आया..."मैं वाकई खुद को सम्हाल नहीं पा रही थी. अल्ला ताला ने सब कुछ देकर इस तरह से क्यों वापस ले लिया! मुझे रह-रहकर ज़ोर की उल्टी आने लगी थी.

उस रात एक बार फिर मुझ पर कहर टूटा था. अब चूंकि आम तरीके से जिस्मानी ताल्लुकात मुमकिन नहीं थे और मैं हामीला थी इसलिये ज़हीर ने दूसरी तरह से मेरे साथ होने की क़ोशिश की थी. यह मेरे लिये बेहद कष्टकर था. आते ही कोई बात करने की जहमत उठाये बिना ही उसने मुझे दीवार के सहारे खड़ी कर दिया था. पहले-पहल मैं समझ नहीं पाई थी, मगर जैसे ही मैंने उसका इरादा समझा था, बहुत डर गई थी. मगर हमेशा की तरह उसने मेरे रोने-चिल्लाने की कोई परवाह नहीं की थी. मेरे छटपटाने पर यकायक उसने कई तमाचे ताबड़तोड़ जड़ दिये थे, शायद मेरा प्रतिरोध कम करने के लिये. एक हाथ के बंधे होने की वजह से वह मुझ से हाथापाई करने की हालत में नहीं था. इसके बाद मैं चुपचाप दीवार से लगी सिसकती रह गई थी और वह बलात मुझ में प्रविष्ट कर गया था. मुझे लगा था किसी ने मुझे आरी से चीर दिया है. अन्दर दर्द आग़ की तरह फैला था. मैं एकबार फिर चीखते-चीखते अचेत हो गई थी. सुबह मैंने उठकर खुद को खून से सने बिस्तर पर पाया था. खाला एक कोने में बैठी मुझे चुपचाप देख रही थी- जाने कैसी नज़र से. मैंने सरक कर उनकी गोद में सर छिपाया था और फफक पड़ी थी - "बहुत दुखता है खाला! और बर्दास्त नहीं होता!"खाला ने मुझे रोने दिया था, बिना कुछ कहे और जाने कितनी देर बाद अचानक झल्लाकर कहा था - "सहता नहीं तो मर क्यों नहीं जाती! जान तो छूटे! औरत होकर दुखता है’, ’दुखता हैकी रट!"उनकी बात ने कुछ देर के लिये मुझे सकते में डाल दिया था. खाला ये कैसी बातें कर रही थीं! मेरे चेहरे पर हैरत देखकर ही शायद खाला ने फिर कहा था - "और नहीं तो क्या! औरत होकर जन्म लिया है और दर्द से बचना चाहती है! कैसे सम्भव है? अगर बचना ही चाहती है तो इसका एक ही रास्ता है, मर जा!"सुनकर मैं बिलखी थी - "ऐसा मत कहो खाला! तुम भी ऐसा कहोगी तो मैं कहां जाऊंगी!"इसके बाद हम दोनों देर तक बैठकर बिलखते रहे थे.

दोपहर को हम दोनों की सुजी आंखें देखकर फातिमा बी ने कहा था - "तुम दोनों आज बहुत रोये ना? मुझे साथ नहीं ले सकते थे? साथ रोये तो दुख तो नहीं घटता, मगर सह ज़रुर जाता है. रोने के दुख में एक सुख होता है. मुझे इससे महरुम मत किया करो! बांटने को और है भी क्या हमारे पास!"

इसके बाद ज़हीर का अत्याचार लगातार ज़ारी रहा था. वह जब-तब आकर मुझे भंभोर कर रख देता था. इसी तरह कई महीने बीते थे. इसी बीच मेरा पूरा परिवार मवेशियों के लिये चारागाह की तलाश में डोरा-डंडा उठाकर फिर सबील्ले नदी की ओर चला गया था. जाने से पहले मां भैया को लेकर मिलने आई थी मगर उनसे ज़्यादा बात करने की मुझमें कोई स्पॄहा नहीं जागी थी. उन्हें जाते हुये भी मैं रीती आंखों से देखती रही थी.

चढ़ते हुये महीने के साथ ही मेरी तकलीफें भी लगातार बढ़ती जा रही थीं. मुझे पेशाब का इनफेक्शन लगातार बना रहता. नहीं खा-खाकर मैं काफी कमज़ोर हो गई थी.

एक बार खाला के बहुत कहने-सुनने और मिन्नतों के बाद ज़हीर मुझे पास के कस्बे के एक हेल्थ सेंटर में ले गया था. महिला डॉक्टर ने जांच-पड़ताल के बाद निराशा में सर हिलाया था - "इसके योनि का भीतरी हिस्सा लगभग बंद है. शारीरिक मुआयना संभव नहीं. फिर पेशाब के नमूने से भी कुछ पता नहीं चल सकता. सुन्ना की वजह से हुये भीतरी जख़्मों के कारण इसके पेशाब में मल रिस आता है जिससे ये प्रदूषित हो जाता है. खून की कमी तो इसे है ही, पेट का बच्चा भी लगता है सही ढंग से बढ़ नहीं रहा है. मां और बच्चे- दोनों की हालत अच्छी नहीं!"सुनकर खाला सिर हिलाती रही थी, ज़ाहिर है उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ा था. मैंने सुन कर भी कुछ समझने की क़ोशिश नहीं की थी. अब क्या फर्क पड़ता है! डॉक्टर ने कुछ दवाइयां दी थी. बाहर आकर देखा था, ज़हीर खड़ा-खड़ा जाने क्या चबाते हुये किसी ऊंट की तरह मुंह चला रहा था. मेरा जी एक बार फिर मिचलाया था...

बारिश के बाद फिर रेगिस्तान में धूप का डेरा पड़ा था, रेत का रंग एकदम पीला! आकाश गर्म लोहे-सा दिखता, जैसे कोई धुंआती हुई कड़ाही औंधी पड़ी हो! नीचे बालू की चिलमिलाती आंच और क्षितिज पर पानी की कांपती दीवार-सा हवा का रेला... पेड़ों के पत्ते गिनती के हो चले थे, हरियाली के पैबंद ज़र्द, विरल. सबकी जुबान में प्यास, गले में अनगिन दरार. जिस्म पर पसीना नहीं, बस नमक. हर नमी आकाश से बरसती आग़ की लपलपाती जीभ सोख ले गई थी. पशु-पक्षी रात-दिन धौंक रहे थे. हर पानी का सोता, धारा कीचड़ में तब्दील हो गयी थी. पत्थरों की तरह टुकड़ों में बंटी पड़ी थी. हमारे इलाके के अधिकतर बंजारे अपने मवेशियों के लिये चारा और पानी की तलाश में बड़ी नदियों की तरफ निकल गये थे. वही उनकी आख़िरी उम्मीद थीं!

मौसम की तरह ही मेरी मन:स्थिति हो रही थी- सीझ रही थी आपाद-मस्तक. ऊमस और उसांसों से भरी हुई थी. महसूस होता अन्दर खौल और उबाल के सिवा कुछ नहीं. अपनी देह से ही वितृष्णा हो गई थी. लगता यही सारे दुखों की जड़ में है. यह नहीं होती तो इसे घेर कर रात-दिन चलने वाला नरभक्षियों का महाभोज भी नहीं होता. मैं अपने जिस्म से, इसके नरक से छुट जाना चाहती थी. मेरे लिये इसका एक ही अर्थ रह गया था और वह था दर्द- हर पोर में, रेशे-रेशे में टीसता हुआ, धड़कता हुआ- किसी विषैले फोड़े की तरह जो पक कर नासूर बन गया हो, एकदम लाईलाज! मेरा उठना-बैठना मुहाल हो गया था. कैल्शियम ना क्या की कमी से हड्डियां, जोड़ दुखते रहते, खून में लोहे की भी अत्यधिक कमी थी, इससे कमज़ोरी ऐसी बढ़ गई थी कि बैठ-बैठ कर भी चक्कर आने लगते, उठकर खड़ी होती तो आंखों के आगे अंधेरा छा जाता. उस पर पेशाब का इनफेक्शन- तल पेट में आग़-सी लगी रहती. यही हाल सीने का था, खाना हजम नहीं होता, खटटी और तेजाबी डकारे आती रहतीं. लगता, छाती में मिर्च की धूनी लगी हुई है!

हर पल आतंक में जी रही थी मैं! दिन का आतंक, रात का आतंक... सारा दिन आकाश शीशे-सा पिघलता रहता, गहरी ऊमस और घुटन में मैं पकती रहती, जिस्म का हर जोड़ घाव की तरह दुखता-टीसता और सूरज के डूबते ही रात का काला लबादा ओढ़े किसी प्रेतात्मा की तरह ज़हीर मेरे सीने पर उतर आता! चुंकि अब मैं बच्चे की वजह से पेट के बल बिल्कुल लेट नहीं पाती थी, वह मुझे हमेशा दीवार के सहारे खड़ी करके अत्याचार करता. उसके निर्मम प्रहार से अपने पेट को दीवार से टकराने से बचाने के लिये मुझे अपने हाथों को दीवार से टेक कर रखना पड़ता, कभी-कभी देर तक. अंत में मेरे हाथ शून्य पड़ने लगते, जांघों का भीतरी हिस्सा खून से गीला हो जाता.

एक समय के बाद मैंने समझा था, मेरी चीखें, सिसकियां ज़हीर को एक पाशविक आनन्द से भर देता है. यह उसके लिये उद्दीपन का काम करते हैं. वह और और उत्तेजित हो उठता है. उसके इस स्वभाव को समझते ही मुझ में भी एक ज़िद्द भर गई थी- अपनी तकलीफ से तो मुझे निज़ात नहीं मिल सकती, मगर उसे भी मैं कम से कम अपनी तरफ से ख़ुश होने का मौका देना नहीं चाहती थी. इसलिये लाख दर्द में होने के बावजूद मैं अब रोती नहीं थी. दांत भींचकर चुप पड़ी रहती थी. कमरे के अंधकार में आंसुओं से मेरा चेहरा तर हो जाता, दांत भींच-भींच कर मुंह दुख जाता मगर मैं उफ तक नहीं करती. ज़हीर मुझे पीड़ा पहुंचाने के लिये और निर्मम हो उठता. मैं फिर भी ख़ामोश रहती. मेरे इस व्यवहार से ज़हीर का उत्साह ठंडा पड़ जाता. वह चिढ़ कर कहता- चीखो! चीखती क्यों नहीं? तुम्हें दर्द हो रहा है ना? और अंतत: झल्लाते हुये चला जाता. यही मेरी जीत थी- उसे खुश न होने देना! दर्द से सारी देह लथपथ होती मगर भीतत सुकून का एक नन्हा सोता नि:शब्द बह निकलता... मैं विवश थी मगर अपने तई एकदम से हारी नहीं थी. एक लड़ाई, एक प्रतिरोध, चाहे वह कितना भी कमज़ोर, नगण्य क्यों न हो, मेरी तरफ से ज़ारी था और इसी में मेरा तिल मात्र सुख निहित था. मैंने पीड़ा की अथाह, अंधकार रात से अपनी तसल्ली और सुकून के दो-चार जुगनू चुनना सीख लिया था. वो रास्ता जिसका कोई अगला सिरा नहीं था, बस मोड़ ही मोड़ दिखते थे, उस पर चलने का दु:साहस मैंने किया था. मैं थक गई थी, डरते हुये, रोते हुये, प्रार्थना करते हुये... मेरा झुका हुआ सर मेरी आत्मा पर भारी पड़ रहा था, मैं सीधी खड़ी होकर ज़िन्दगी से आंख मिलाना चाहती थी, एकबार महसूस करना चाहती थी अपने होने को- होने भर के होने को नहीं, सही अर्थ में होने को!


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 जयश्री रॉय

जन्म                :          18मई, हजारीबाग (बिहार)

शिक्षा                :          एम. ए. हिन्दी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवा विश्वविद्यालय

प्रकाशन            :          अनकही, ...तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी, कायांतर (कहानी संग्रह),
                                    औरत जो नदी है, साथ चलते हुये,इक़बाल (उपन्यास),
                        तुम्हारे लिये (कविता संग्रह)

प्रसारण                        :          आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रसारण

सम्मान                        :          युवाकथा सम्मान (सोनभद्र), 2012

संप्रति       :     कुछ वर्षों तक ध्यापन के बाद स्वतंत्र लेखन

संपर्क               :          तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा - 403 517

मो.                   :          09822581137

ई-मेल                         :           jaishreeroy@ymail.com


अमिताभ बच्चन 'वजीर'के ‘त्वमेव माता पिता त्वमेव’ हैं

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आज फिल्म 'वजीर'देखी तो सोचा अपने बचपन के हीरो की इस फिल्म पर कुछ लिखा जाए-मॉडरेटर 
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‘वजीर’ फिल्म में सबसे अच्छी बात यह लगी कि फिल्म की लम्बाई कम है- दो घंटे से भी कम. ज्यादा सोचने का मौका नहीं मिलता. विधु विनोद चोपड़ा की फिल्मों से हमेशा उम्मीद बहुत रहती है. इस फिल्म से उम्मीद इसलिए भी अधिक थी क्योंकि फिल्म अमिताभ बच्चन को लेकर बनाई गई. वे ही फिल्म के ‘त्वमेव माता त्वमेव पिता’ हैं. हालाँकि, इस बात को स्पष्ट कर दूँ कि फिल्म का निर्देशन बिजय नाम्बियान ने किया है. लेकिन कथा विधु विनोद चोपड़ा की है और पटकथा भी विधु विनोद चोपड़ा ने अभिजात जोशी के साथ मिलकर लिखी है. इस फिल्म में कहानी, पटकथा की बड़ी भूमिका है. कहानी आखिरी आठ-दस मिनट में रोल्ड डॉल की कहानी की तरह पलट जाती है या जेफ्री आर्चर की कहानियों की तरह.

बहरहाल, विधु विनोद चोपड़ा ‘मिशन कश्मीर’ के ज़माने से ही अमिताभ बच्चन को लेकर फिल्म बनाना चाहते थे. ‘एकलव्य’ बनाई भी थी, अपने निर्देशन में करीब सात साल बाद उन्होंने कोई फिल्म बनाई थी. ‘वजीर’ इसलिए भी एक ख़ास फिल्म बन जाती है. वे कहानी के केंद्र में हैं, एक शतरंज के खिलाड़ी के रूप में. बाकी सारे पात्र जैसे लगता है कि उनके कारण ही हैं. जिसमें सबसे ख़ास है अमिताभ बच्चन और दानिश अली के रूप में फरहान अख्तर की दोस्ती, जिसमें फरहान उनके सामने अभिनय में कहीं भी सहज नहीं लगे. लेकिन दोनों का अकेलापन, अपनी-अपनी पुत्रियों को खोने की पीड़ा दोनों को एक करती है. हाल के बरसों में अमिताभ बच्चन ने बुढापे के अलग-अलग शेड्स अपने किरदारों में दिखाए हैं, सभी में उनका अकेलापन अलग-अलग रूपों में मुखिरत हुआ है. इस फिल्म में पंडित ओंकारनाथ धर का किरदार ‘शमिताभ’ के अमिताभ सिन्हा के किरदार के अधिक करीब है. हम जैसे लोग जो 70 के दशक के आखिर और 80 के दशक के आरम्भ में जिस ‘यंग्री यंग मैन’ की फिल्मों को देखते हुए तालियाँ बजाते हुए बड़े हुए थे वह अब ट्रेजेडी किंग बन रहा है. हर रोल में वे पहले से अधिक दमदार नजर आते हैं.

फिल्म में मानव कौल कश्मीरी नेता यजाद कुरैशी के किरदार में बहुत बहुत अच्छे लगे हैं. छोटी सी भूमिका में उनकी छाप दिखाई देती है. अदिति राव हैदरी के पास करने के लिए कुछ ख़ास नहीं था. फिल्म के पहले ही सीन में शादी जो हो जाती है. लेकिन कुछ दृश्यों में सुन्दर दिखते हुए और उदास लगते हुए वह अच्छी लगी हैं.

सबसे बड़ी बात यह खटकी कि इसमें कश्मीर घाटी के यजाद कुरैशी को विलेन के रूप में क्यों दिखाया गया? और उसके विरुद्ध को पंडित ओंकारनाथ धर के रूप में क्यों दिखाया गया? यह तो कहीं के नेता की भी कहानी हो सकती थी. कब सन्दर्भ कश्मीर का आता है तो अधिक संवेदनशीलता की मांग करता है. फिल्म की कम अवधि उससे बचकर निकल जाने की सुविधा दे देती है. अवधि का कम होना भी इसकी बहुत सारी कमियों को छोटा बना देता है. लेकिन एक छोटी सी फिल्म में जीवन के फलसफे को बड़ी दार्शनिकता के साथ कहने की एक कोशिश इस फिल्म में है. तमाम विचलनों के बावजूद फिल्म जीवन के सार, उसकी निस्सारता को कह पाने में सफल हो जाती है.
हाँ, यह जरूर है कि इसे मैं दुबारा नहीं देखूंगा. वैसे आजकल दुबारा देखने वाली फ़िल्में बनती ही कितनी हैं. सबसे दुःख नील नितिन मुकेश को देखकर हुआ. एक क्रूर हत्यारे की भूमिका में वे हत्यारे कम संस्कृत नाटक के विदूषकों की तरह अधिक लग रहे थे!


हम अपने बच्चों को कैसी हिंदी पढ़ा रहे हैं?

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अखिलेशदेश के जाने-माने चित्रकार हैं. हिंदी साहित्य की गहरी समझ रखते हैं, लिखते भी हैं. उन्होंने बच्चों को पढ़ाई जाने वाली हिंदी की पाठ्यपुस्तकों का विश्लेषण किया है. यह विश्लेषण हमें गहरे सोचने को विवश करता है कि आखिर हम अपने बच्चों को कैसी हिंदी पढ़ा रहे हैं? एक जरूर पढने लायक लेख- मॉडरेटर 
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कुछ वर्ष पहले मेरे कवि मित्र ओम शर्मा ने बतलाया कि उसके पुस्तकालय में उसके पिता की दूसरी,तीसरी,चौथी और पाँचवीं कक्षा की हिन्दी की पुस्तकें मौजूद हैं। उत्सुकतावश मैं उन पुस्तकों की फ़ोटोकापी ले आया। भोपाल में मैंने आज इन कक्षाओं में चल रही हिन्दी की किताबें खरीदीं और एन.सी.ई.आर.टी. की किताबें भी खरीदीं। इन पुस्तकों के पाठ्यक्रम में परिवर्तन चौंकाने वाले हैं। आज की इन पुस्तकों की छपाई आधुनिक तक्नालाॅजी मौजूद होने के बावजूद भी निकृष्ट और अविचारित है। इन पुस्तकों की प्रस्तुति में लापरवाही और ग़ैरजिम्मेदारी हर पृष्ठ पर बिछी है। निहायत ही खराब काग़ज़ पर छपी इन पुस्तकों में से कुछ में,और जाहिर है कई में,छपाई तिरछी और बेघरबार है। तीन रंगों या चार रंगों में छपी पुस्तकों के चित्रों में रंगों की सिघाई ठीक न होने से उनकी छपाई में हर रंग अपनी जगह से बाहर है। इन किताबों को,जो उसकी अपनी मातृभाषा की किताबें हैं,देखकर ही छात्र के मन में दूसरी कक्षा से ही नफरत पैदा होना शुरू हो जायेगी। वह अपनी मातृभाषा के प्रति ही नहीं,बल्कि सभी चीज़ों से व्यवहार नफरत और एक निश्चित दूरी से अनजाने ही शुरू करेगा। उसके मन में वितृष्णा पैदा होगी। मैं अभी तक इसकी सामग्री पर नहीं गया हूँ। वह तो और डरावना है। अभी इसकी रूपरेखा,प्रस्तुति,छपाई और साज-सज्जा,जो कि बाहरी बातें हैं,उसी पर बात कर रहा हूँ।
दूसरी कक्षा की किताब है,मतलब बच्चों की किताब है,अतः इसके सभी पृष्ठों पर गुब्बारे क्यों छपे होने चाहिए,यह मैं समझ नहीं सका। गुब्बारों के साथ कुछ चिथड़ेनुमा बेमतलब के आकार,गोदा-गादी भी हर पृष्ठ पर है। इस पुस्तक में छपे चित्र,रेखांकन देखकर किसी भी बच्चे के मन में सहज ही आत्महत्या करने का विचार आ सकता है। यदि नहीं आया तो वह अपने जीवन में कभी चित्रों को नहीं देखना चाहेगा। बच्चों के लिए बचकानी पुस्तक बनी हुई है। उसमें बिला वजह आकल्पन किया गया,बिना सोचे बदरंग डाले गये। नीचे न जाने क्यों बहुत सारी गुड़ियाओं के चित्र छपे हैं। दूसरे कवर पर भारत का संविधान किसके लिए छपा है,पता नहीं चलता। दूसरी कक्षा के बच्चे तो अभी वर्णमाला सीख रहे हैं। सोलह लोगों की स्थायी समितिद्वारा अनुमोदित इस पुस्तक का हर अंश भर्त्सना के लायक है। प्रिण्ट लाइन में छपा है,आकल्पन- गणेश ग्राफिक्स ने किया है। ये गणेश ग्राफिक्स,रोशन कम्प्यूटर्स में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। एक संस्था ने ही इसका आकल्पन किया। स्थायी समिति में एक भी चित्रकार नहीं है,जो पुस्तक के आकल्पन आदि पर नज़र रख सके कि वो स्तरीय है या नहीं। पूर्व कुलपतियों और शिक्षाविदों से भरी यह सोलह सदस्य की स्थायी समिति बिल्कुल अन्जान है इस पुस्तक की प्रस्तुति के लचर और स्तरहीन होने से। इस समिति में इन लोगों को यदि बाहरी साज-सज्जा का ज्ञान या व्यावहारिक समझ नहीं है तो अन्दर जो उत्पात हुआ है उसकी खबर कैसे होगी?पुस्तक के पहले ही पृष्ठ पर ‘माहवारीछपी है। इससे पता चलता है कि दूसरी कक्षा के बच्चे को अप्रैल माह में क्या पढ़ना चाहिए,जो वह जुलाई में नहीं पढ़ सकता। हर मास में मासिक मूल्यांकन होगा, यह इस ‘माहवारीका स्थायी ठेका है।
यहाँ मैं रुककर दूसरी कक्षा का जो पाठ्यक्रम 1927में अंग्रेज़ों ने तय किया था,उसका वर्णन करना चाहता हूँ। यह पाँचवाँ संस्करण है।
देखने में पुस्तक निहायत ही साधारण साज-सज्जा के साथ छपी है। सुरुचिपूर्ण काले सफेद कुछ रेखांकन हैं,जो स्तरीय हैं। छियानवें पृष्ठ की यह पुस्तक मोटे हरफों में छपी है। पाठ एक के बाद दूसरा निरन्तर छपे हैं। इसमें कुल ग्यारह कविताएँ हैं,जिसमें एक प्रार्थना है,एक पहेली है,बाकी विभिन्न विषयों पर जिसमें तितली,गिलहरी,सवेरा,बनावटी बाघ, सेम और इमली आदि परिचयात्मक कविताएँ हैं,नशे से नुकसान,गड़रिये का लड़का और भेड़िया,मुन्ना और मिट्ठू,उपदेश आदि कविताएँ नैतिकता की जानकारी देती हुई हैं।
पुस्तक में ज्ञानवर्धक पाठ हैं- हमारा शरीर,हवा,नारियल,रेलगाड़ी, लोहा,नमक आदि और नीति-शिक्षा देते हुए मिहनत का फल,गरीब आदमी और उसकी कुल्हाड़ी,घमण्ड से हानि,मेल से लाभ,आपस की फूट,चार अलाल,किये का फल आदि।
पूरी पुस्तक में रुचि से चुने गये पाठ हैं जिसमें दूसरी कक्षा में पहुँचा बालक जो वर्णमाला सीख चुका है,जिसे वर्णमाला में मात्राएँ लगानी आती हैं,उसके लिए पाठ है। कविताएँ सरल और झटपट याद होने वाली तुकान्त कविताएँ हैं।
अब हम भाषा भारतीकी सामग्री देखते है। माहवारीखत्म होते ही आयुक्त,मध्यप्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र का एक लेख है- पुस्तक के बारे में’,जिसमें इस पुस्तक की उपयोगिता के बारे में सफाई दी गई है और यह भी बताया गया है कि छात्रों,पालकों,शिक्षकों और भाषा विषेषज्ञों द्वारा मिले सुझावों को आधार मानकर पुस्तक को नये कलेवर में रचा गया है। पूरी सफाई हास्यास्पद इसलिए हो जाती है कि पुस्तक आपके हाथ में है और वह कुछ और ही कह रही है। पहला पाठ प्रातःकाल है,जिसका एक निहायत ही गन्दा-सा चित्र छपा है,जिसमें प्रातःकाल का चित्रण है ही नहीं। फिर उस चित्र को देखकर उसमें शिक्षण संकेत पढ़ना है,जैसे उसमें बने कबूतरों को कौव्वों की तरह ढूँढ़ना है। पहला पाठ ही चित्र पहचानने का है और चित्र नदारद हैं। चित्र के नाम पर जो भी छपा है,उससे मातृभाषा कैसे सीखेगा,ये कोई स्थायी समिति नहीं बता सकती। इसके बाद वर्णमाला छपी है और शिक्षण संकेत हैं कि बच्चों को क्रम याद करवायें। वर्णों की पहचान और उच्चारण। फिर मात्रा कौन कहाँ लगती है का पाठ। यानी कुछ भी सुविचारित नहीं है और इसलिए पहले सफाई दी गई है,मानो स्थायी समिति अपराधियों की है। वर्णमाला दूसरी कक्षा में सिखाई जा रही है। 
कुल नौ कविताएँ हैं- आना मेरे गाँव,मेरा घर,मैं गाँधी बन जाऊँ,अगर पेड़ भी चलते होते,ऋतुएँ,गुड़िया,कौन मेरा देश,बाग की सैर आदि। इसमें बहुत ही मज़ेदार यह है कि कई कविताएँ संकलित हैं,उनका कोई लेखक नहीं है और कई पाठ लेखकगण ने लिखे हैं। इस किताब में ऐसा कुछ नहीं है जो बच्चों के लिए प्रेरणादायी हो और उनके मानसिक विकास में सहायक हो सके। बच्चों से ज़्यादा यह पुस्तक शिक्षक के लिए है,जिसे मान लिया गया है कि वह कामचोर और अज्ञानी है,अतः हर जगह निर्देष दिये हुए हैं।
अब एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तक देखी जा सकती है। ‘रिमझिम-2’,इसका नाम ‘रिमझिमपढ़कर ही मुझे पता चला कि किसी अदृष्य,अप्रकाशित डिक्शनरी में मातृभाषा का पर्यायवाची शब्द ‘रिमझिमहै। ‘2तो मैं जानता ही था,दोही है। दूसरी कक्षा के लिए। इसमें और ‘भाषा भारतीमें फ़र्क सिर्फ़ इतना हैजितना भोपाल और दिल्ली में छपी पुस्तकों के बीच हो सकता है। पुस्तक का प्रारम्भ आमुख से होता है,जिसमें यहाँ भी निदेशक सफाई दे रहा है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहरी जीवन से जोड़ा जाना चाहिए और यह उस किताबी ज्ञान के खि़लाफ़ पहल है। यानी स्कूल जेल या सुधारगृह हैं जिसमें बच्चे बाहरी जीवन से कटे रहते हैं। यह आशा भी पहले ही पैरा में है कि ‘ये कदम हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986)में वर्णित बाल केन्द्रित व्यवस्था की दिशा में दूर तक ले जायेंगे।और ये पुस्तक सफलतापूर्वक बच्चों को मातृभाषा से बहुत दूर ले जाती है। प्रयत्नों की सफलता की जिम्मेदारी प्राचार्य और अध्यापक पर डाल दी गई है। इसी में पता चलता है कि पाठ्य-पुस्तक ‘निर्माणसमिति भी है,मानो पाठ्यपुस्तक नहीं कोई बहुमंजिला भवन है,जिसका निर्माण हो रहा है। फिर कई लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए एक ‘निगरानी समितिका पता भी चलता है। इसके तत्काल बाद ‘बड़ों से बातेंकी जा रही हैं,जिसमें सिर्फ़ बकवास की गई है और क्यों की गई है,यह समझ नहीं आता। इसी में बड़ों को बताया गया है कि ‘रिमझिमरंगीन आकर्षक चित्रों से सजी है। चित्र भाषाई कौशल को विकसित करने में सहायक हो सकते हैं,यह बात भी यहाँ पता चलती है। तीन पन्नों की बकवास के बाद आभार का एक पृष्ठ और भी है। फिर बड़े अक्षरों में घोषणा है ‘पाठ्यपुस्तक निर्माण समितिकी।
इसके बाद सबसे मज़ेदार पृष्ठ है,जिसमें बच्चों को बतलाया गया है पुस्तक में इस्तेमाल हुए चित्र संकेत के बारे में। कुछ निहायत ही साधारण किन्तु अत्यन्त ही निकृष्ट चित्र छपे हैं,जो जिस बात के ‘संकेतहैं वह लिखा है। मतलब भाषा नहीं सीखना है,संकेत सीखने से मातृभाषा आ जाती है। इसमें नौ कविताएँ हैं,जिसमें ‘चित्र संकेतके अनुसार तीन सिर्फ़ पढ़ने के लिए हैं,बाकी चार पढ़कर कुछ करने के लिए भी हैं। ऊँट चला,म्याऊँ-म्याऊँ, बहुत हुआ,तितली और कली,टेसू राजा बीच बाजार,सूरज जल्दी आना जी। इसमें प्रार्थना गायब है और साथ ही नीति शिक्षा देने वाली या पहेली पूछती रोचक कविताएँ नहीं हैं। यह किताब भालू ने फुटबाल खेली,अधिक बलवान कौन,दोस्त की मदद,मेरी किताब,बुलबुल,मीठी सारंगी,बस के नीचे बाघ,नटखट चूहा और एक्की-दोक्की जैसे पाठ लिये है,जिसकी सफाई निदेशक महोदय शुरू में दे देते हैं कि यह सब बच्चों को स्कूल के बजाय जीवन से जोड़ने के लिए किया जा रहा है। आत्मग्लानि से भरी ये दोनों समितियाँ या तो स्वनामधन्य विषेषज्ञों की हैं या जुगाड़ू लोगों की हैं,जो आने वाली पीढ़ियों को अपनी मातृभाषा से काटने के लिए बनायी गयी है,जो ग़ैरजिम्मेदार और भारतीय संस्कृति और भारतीय संस्कृति में छिपी वैश्विक समझ और गहराई से नितान्त अपरिचित है। हम आगे देखेंगे कि इन्होंने बुनियादी शिक्षा में ही खोट पैदा कर दी,जो अंग्रेज़ नहीं कर रहे थे। उनके पाठ्यक्रम सुविचारित और भारतीय मानस के अनुरूप थे। उन्होंने अपनी मिशनरी चालाकी ज़रूर बरती है एकाध पाठ में,जहाँ एक हिन्दू और एक मुसलमान विद्यार्थी की तुलना में एक ईसाई विद्यार्थी समाजसेवा का बड़ा काम करता है,जबकि हिन्दू और मुस्लिम विद्यार्थी सिर्फ़ एक व्यक्ति की सहायता करते दिखलाये जाते हैं। किन्तु फिर भी पाठ और कविताओं का एक स्तर है और चुनाव सावधानीपूर्वक किया गया है,जिससे बच्चे का मानसिक विकास हो सके। 
मैं तीसरी और चौथी कक्षाओं के विस्तृत वर्णन में न जाते हुए पाँचवीं कक्षा की पुस्तकों पर सीधा आता हूँ और जहाँ उन्नीस सौ सत्ताईस में गुलामी के दौरान अंग्रेज़ों की देखरेख में पाँचवीं के विद्यार्थी के लिए छपी पुस्तक,हिन्दी भाषा की पुस्तक,जो किसी अंग्रेज़ की मातृभाषा नहीं है,उसके गुलामों की मातृभाषा है,के प्रति भी वे जवाबदार दिखलाई देते हैं। उनमें इस सभ्यता और उसके मानदण्डों के प्रति जागरूकता दीखती है,जबकि आज़ाद हिन्दुस्तान के काले अंग्रेज़अपनी मातृभाषा के प्रति निहायत ही गै़रजवाबदार,ग़ैरजिम्मेदार और लापरवाह दिखते हैं। अपनी आने वाली पीढ़ी के मानसिक विकास को अवरुद्ध कर उसे शंकित,भटका हुआ और भ्रमित कर रहे हैं ताकि वो बड़ा होकर कुछ और बने या न बने, बलात्कारी ज़रूर बन सके। आत्मग्लानि से भरे आत्मतुष्ट ये पाठ्य निर्माण समितिके सदस्य ज़्यादा हास्यास्पद,ज़्यादा ग़ैरजिम्मेदार और ज़्यादा बचकाने हैं। इनकी नज़र में यह देश हिन्दी के लेखकों से खाली हैं।
अब देखते हैं- पाँचवीं का पाठ्यक्रम। इसके पहले एक नज़र डालते हैं तीसरी चौथी के पाठ्यक्रम पर जिसमें हिन्दुस्तानी सभ्यता की विभिन्नताओं को लेकर कई पाठ हैं और भिन्न विषयों पर भी ज़ोर दिया गया है। राजा हरिष्चन्द्र,श्रीकृष्ण और कंस,रामचन्द्र जी,महारानी विक्टोरिया,अकबर बादशाह,श्रवण कुमार,राजा दशरथ,भीष्म प्रतिज्ञा,दिल्ली दरबार,कौरव-पाण्डव,पृथ्वीराज,अकबर-बीरबल,रानी दुर्गावती, महाराणा प्रताप,तुलसीदास,महाराज जार्ज पंचम,कोलम्बस,पन्ना धाय,राजा भोज,नल और दमयन्ती की कथाएँ तो हैं ही,साथ ही ज्ञानवर्धक,नीति शिक्षा पढ़ाने वाले पाठ भी हैं। चौथी कक्षा की कविताओं में मैथिलीशरण गुप्त,तुलसीदास,ब्रजवासीदास और गिरधर कविराज आ चुके हैं। ज्ञानवर्धक पाठ में काँ,घड़ी,सोना,काग़ज़ जैसी वस्तुओं के अलावा होली,दीवाली,पर्वत और मैदान,नर्मदा नदी,ताजमहल,कलकत्ता,दशहरा,सरकस,दिल्ली,जगन्नाथ पुरी की यात्रा,पुतलीघर आदि अनेक विषयों पर सादगी भरे सीधे सारगर्भित पाठ हैं जिनसे जानकारी और ज्ञान दोनों बच्चों को भरपूर मिले। इसका ख्याल रखा गया है। हिन्दी भाषा की ये पुस्तकें जानकारी और ज्ञान के साथ-साथ उसे संस्कारित भी कर रही हैं। इन्हें पढ़कर छात्र अपने देश की परम्पराओं,मिथकों,कहानियों और सांस्कृतिक विभिन्नता से परिचित हों इसका ध्यान रखा गया हैं। उन्हें पता चलता है कि वे एक लम्बी परम्परा के वंशज हैं। दूसरी,तीसरी,चैथी और पाँचवीं कक्षाओं में पढ़ाये जाने वाला पाठ उनके मन-मस्तिष्क को समृद्ध करता है,उन्हें एक विरासत का हिस्सेदार बनाता है। यही समय है जब वह अपने बारे में जानना-समझना शुरू करता है और अपने को एक सन्दर्भ में पहचानना शुरू करता है। यही समय है जब वो देश-दुनिया के सन्दर्भ में खुद को देखता है।
आज की मध्यप्रदेष राज्य षिक्षा केन्द्र और एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों में कोई क्रमबद्धता नहीं दिखलाई देती है। उनका उल्लेख समय और धन की बर्बादी है। इच्छुक पाठक स्वयं खरीद कर पढ़ लें। क्रमवार दूसरी से पाँचवीं कक्षा तक कविताओं का चयन देखना समीचीन होगा,जो बेहद खराब और दिग्भ्रमित है।
पहले की पुस्तकों की कुछ ही कविताओं का उल्लेख किया है। इन कविताओं में एक तरह का क्रम नज़र आता है। दूसरी कक्षा में सवेरा,उसकी कुल्हाड़ी,चूहों की सभा,नशे से नुकसान जैसी सीधी याद होने वाली कविताएँ हैं,जिसमें छंद और तुक मिलाने से कविता में रवानगी है,जैसे-

बड़े चैन से सब रहते थे
मानुष से न कभी लड़ते थे।
पर उन सबमें था जो छोटा
किया काम उसने यह खोटा।।
बच्चों को पढ़ते-पढ़ते याद होने जैसी चाल इसी में नहीं अन्य कविताओं में भी है। कविताएँ नीति शिक्षा देने वाली भी हैं। उपदेशात्मक भी हैं,जैसे-

स्वच्छ रखो सब वस्तुएँ,देह तथा घर-द्वार।
मैलापन सब भाँति के,रोगों का भण्डार।।
फिर जैसे ही तीसरी कक्षा में आते हैं कविताओं का स्तर अब सीधा-सादा उपदेशात्मक नहीं रह गया। वे आसपास की दुनिया,बगीचा,हमारी घड़ी,तोता,फूल और काँटा आदि विषयों पर हैं। वर्षानामक कविता का अंश देखिये-
नहीं लूट अब सनसन चलती
भूमि आग सी अब नहीं जलती
प्यास-प्यासपानी-पानीनर
चिल्लाते अब नहीं कहीं पर।
कविताएँ याद करने के लिए अपनी सीधी-सादी पद्धति से तुकान्त हैं और इस वर्षा कविता में नर से पर की तुक बखूबी मिली है। इसके बाद चैथी कक्षा की कविताओं में एक कदम और आगे बढ़ा लिया गया है। अब कविता ईष्वर की प्रार्थना नहीं है,ईष्वर के उपकारकी भी नहीं है। अब ईष्वर की महिमाकी है। ग्रीष्मकाल,चण्डरव गीदड़,ओले की कहानी,संगति का फल और राम वन गमन जैसे विषय आ गये हैं।

किसी एक वन में रहता था,चण्डरव नामी गीदड़ चंद।
हुआ कृषित भूखों के मारे,भूल गया सारे छल-छन्द।

नाम ककुद्रुम नृप है मेरा,प्रज्ञा आज से तुम मेरी।
ब्रह्मा ने भेजा है मुझको,शिक्षा देकर बहुतेरी।
फिर तुलसी कृत राम वन गमन है।
       अब पाँचवीं कक्षा की बात निराली है। बालक प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने वाला है। अब तक उसे कई तरह की कविताओं का ज्ञान हो चुका हैजिसमें पहेलियाँ भी है।
दूसरी कक्षा में पहली नाम से ही यह है। बड़ी दिलचस्प है।
(1चले रोज,पर हटे न तिल भर।
(2बिना पंखों के उड़ती फिरे।
(3पेट में उँगली सिर में पत्थर।
(4टूटा हाथ देख घर आती।
(5धड़ बिन सिर पर जटा दिखावे।
(6सिर बिन धड़ पर जटा दिखावे।
(7सिर भीतर पसली बाहर।
(8बिन सीखे सब गावे राग।
(9काला है पर कौआ नहीं
       बेढब है पर हौआ नहीं
       करे नाक से अपने काम
       बतलाओ तुम उसका नाम।
       दूसरी कक्षा की पुस्तक छियानवें पृष्ठ की है,तीसरी एक सौ चार,चैथी एक सौ चैरासी,पाँचवीं दो सौ चालीस। दूसरी कक्षा की किताब मोटे हर्फों में छपी है। क्रमशः फोण्ट साइज कम होते गये हैं। पाँचवी की साधारण बारह प्वाइण्ट में छपी पुस्तक अपनी सादगी और सुरुचिपूर्ण छपाई के लिए दर्शनीय है। पुस्तक हाथ में लेते ही विद्यार्थी के मन में उसे संभालने का विचार आ जाता होगा। ओम के पिता गोविन्द राम जी,धूलीलाल जी शर्मा ने सिर्फ़ अपना नाम लिखा है। किताब महँगी भी है। दूसरी कक्षा की किताब का मूल्य पाँच आना है और पाँचवीं का सात आना। निष्चिय ही यह राशि उन्नीस सौ सत्ताइस में मायने रखती थी,जब एक आने का सवा सेर शुद्ध घी मिलता था। क्या ये पुस्तकें मुफ्त वितरित होती थीं?मैं नहीं समझता कि सभी विद्यार्थी पुस्तक खरीदने की सामर्थ्य रखते होंगे?किताब बम्बई में छपी है और किताबों की छपाई सावधानीपूर्वक की गई है। पाठ लगातार छापे गये हैं जिसमें सिर्फ़ पहला पाठ ही नये सफे से शुरू होता है। बीच-बीच में पाठ से सम्बन्धित रेखांकन हैं। वे भी सुरुचिपूर्ण और विषयानुकूल हैं। उनमें सादगी है,साथ ही रेखांकन किसी कुशल चित्रकार से कराये गये हैं। यह साफ़ नज़र आता है।
       मैंने यहाँ चारों कक्षाओं में उस समय पढ़ायी जा रही कविताओं का एक छोटा-सा हिस्सा नमूने के लिए पाठकों के सामने रखा है। पाठक हाँडी में पक रहे चावल की परख एक दाने से कर सकते हैं। कविताओं का रस दूसरी से पाँचवीं तक मौजूद है और उनके चुनाव में एक तरह की बढ़ोत्तरी है। विषय के अनुसार भी और कविता की संरचना के अनुसार भी। पाँचवीं कक्षा में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के गीत संग्रह में रागों का उल्लेख भी दिया गया है। ठुमरी,पूरबी,काफी,बिहाग और कलिंगड़ा राग पर आधारित गीतों में से एक देखिये-
तिनको न कछू कबहूँ बिगरै,गुरु लोगन को कहनो जो करै।
जिनको गुरुपन्थ दिखावत हैं,ते कुपन्थ पैं भूलि न पाँव धरै।
कबीर की साखी देखिये,ढाई अक्षर नहीं है-
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ,पण्डित भया न कोय।
एकै अक्षर प्रेम का,पढ़े सो पण्डित होय।
पाठ के बीच-बीच में भी कुछ कविता, शेर या तुकबन्दियाँ हैं। कोयले की आत्म कहानी पाठ में कोयला कहता है-
       षोक है कि बहू की खोज में आप मुझे तुच्छ जान खो बैठे,नहीं तो आप मुझे ही सम्बोधन करपुकार-पुकार कर कहते-   

गुल्स्तिां में जाकर गुलो-बर्ग देखा,
न तेरी सी रंगत,न तेरी सी बू है
हे अंगारक-राज! जिधर देखता हूँ,उधर तू ही तू है।
इसमें हर पेज़ पर कठिन शब्दों के अर्थ दिये हैं। अंगारक-राज- अग्नि उत्पन्न करने वाला राजा। पिछली किताबों में पाठ के अन्त में कठिन शब्दों के अर्थ है।। ये पुस्तकें अंगरेजों द्वारा अपनी गुलाम जनता की शिक्षा के लिए छपवाई जा रही थीं,जिसमें एक गहरी जिम्मेदारी का अहसास दीखता है। वे अपनी प्रजा के प्रति भले ही कठोर और निर्दयी रहे हों,किन्तु उनकी शिक्षा के लिए किसी तरह की कोताही नहीं की गयी। सभ्यता के अनुसार पाठ्यक्रम में विषय चुने गये। महत्त्वपूर्ण लेखकों के पाठ शामिल किये गये। उनकी कविताएँ,रचनाएँ,जीवनी आदि मौजूद हैं। इन पुस्तकों को पढ़कर लगता है हिन्दी एक समृद्ध भाषा है जिसमें सार्थक रचनाएँ लिखी जा रही हैं।
उन्नीस सौ सत्ताइस में पाँचवीं कक्षा की पुस्तक में शिक्षा विभाग,मध्यप्रदेश अब ज़्यादा संजीदा और मुखर है। बम्बई की प्रेस में छपी यह पुस्तक सूचीपत्र से शुरू होती है। इस पुस्तक में नौ कविताएँ हैं- सती परीक्षा-तुलसीदास, हेमन्त-गिरधर शर्मा,राम लक्ष्मण परशुराम सम्वाद-तुलसीदास,कबीर की साखियाँ और भारतेन्दु हरिष्चन्द्र के गीत संग्रह के अलावा दीन निहोरा,पुनः करो उद्योग,चन्द्र प्रस्ताव लीला,उपदेश के दोहे आदि कविताएँ भी शामिल हैं। सभी कविताओं के सन्दर्भ और जटिलता अब पाँचवीं के विद्यार्थी,जो लगभग बारह-तेरह वर्ष का परिपक्व मस्तिष्क है,के अनुसार है।
अन्य पाठ भी अब ज़्यादा बड़े वितान की कमान सँभाले हैं। लिलिपुट की यात्रा,जबलपुर शहर का वर्णन, जोन आफ आर्क,अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर,राबिन्सन क्रूसो की यात्रा,चीन संग्राम के लिए समुद्र यात्रा,लंका द्वीप,तिब्बत में एक जापानी,कोयले की आत्मकथा,सुनीति कथा,मक्का तीर्थ भाग-एक/भाग-दो,मक्खियों का वर्णन,चींटियों का संसार,स्पार्टा का राजा लियोनीदास। यूरोपीय युद्ध में हिन्दुस्थानी सिपाहियों की वीरता,दक्षिण की चढ़ाई के समय औरंगजेब और उसकी सेना का वर्णन।
यहाँ विषय और ज़्यादा खुले,विस्तृत, जटिल और अधिक विस्तार लिये हैं। अब पाँचवीं के विद्यार्थी के लिए ये ज़रूरी है कि वह देश से बाहर दुनिया को भी जाने,सो अन्य कई विषयों पर रुचिकर पाठ हैं,जो उस वक्त की राजनीति के अनुसार मौजूँ थे और मुझे तो आज भी मौजूँ लगते हैं।
अब इधर आते हैं पहले मध्यप्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र,मुखपृष्ठ पर ही भाषा भारतीके नीचे हिन्दी विशिष्टकोष्ठक में क्यों लिखा है,समझ नहीं आता। क्या इसके पहले की पुस्तकें अंग्रेज़ी में थीं?फिर हम भारत का संविधानभाग 4-क नागरिकों के मूल कर्त्तव्य पढ़ते हैं जिसकी दूसरी कक्षा से अवहेलना हो रही थी। इन मूल कर्तव्यों में (ट) मज़ेदार है,यह कहता है: ‘यदि माता-पिता या संरक्षक हैं,छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने यथाशक्ति,बालक या प्रतिपाल्य को शिक्षा के अवसर प्रदान करें।मुझे यह पढ़ने के बाद लगा या तो संविधान में भाषा की त्रुटि है या यहाँ छपे की प्रूफ रीडिंग नहीं हुई है। कक्षा दूसरी की तरह पहले दो पन्ने किसी बच्चे के काम के नहीं हैं,फिर माहवारी, जो अब दो पन्नों पर फैल गई हैं,से निपटकर संचालक की पुस्तक के बारे में कथनसफाई पढ़ते हैं। अगला पन्ना भाषा न्यूनतम अधिगम स्तर पाठ्यचर्चानामक जटिल-सी किन्तु फिजूल बात न जाने किसको बतला रहा है। छात्रों के लिए यह पन्ना निश्चित ही नहीं है। इसी पेज पर कालखण्ड विभाजन,मूल्यांकन,अंक नामक तीन काॅलम में कुछ जानकारी व्यर्थ में दी गई है,जिसका पढ़ाई में कोई सम्बन्ध नज़र नहीं आता। इसके अंक भी निर्धारित किये गये हैं और ये अंक किन्हें मिलते हैं इसका कोई ज़िक्र नहीं है। नीचे एक टीप भी है शेष कालखण्डों में उपचारात्मक षिक्षणविषय-वस्तु की पुनरावृत्ति एवं मूल्यांकन कराया जाय।कालखण्ड शब्द के गलत हिज्जों के साथ छपी यह सूचना निष्चित ही छात्रों के लिए नहीं है। हम अगला पृष्ठ देखते हैं,इस पर काले अंग्रेज़ों ने क्या गुल खिलाये हैं। अनुक्रमणिका। अगला पृष्ठ छात्रों के लिए था।
इस अनुक्रमणिका से पता चलता हैइस पुस्तक में पाँच कविताएँ हैं,जिसमें से दो वसन्तऔर पन्ना का त्यागजिसका लेखक कोई नहीं है। ये कविताएँ संकलित हैं। संकलन किसका है,यह पता नहीं। माखनलाल चतुर्वेदी,सुभद्राकुमारी चौहान के अलावा एक और ख्यात कवि राजेन्द्र अनुरागी यहाँ हैं,जिन्होंने मध्यप्रदेश का गीत लिखा है। ये गीत मध्यप्रदेश की वैचारिक क्षुद्रता पर लिखा गया अद्भुत गीत है जिसे पढ़कर छात्र सीधे मध्यप्रदेश से टकरा जाता है,यह गीत कहाँ से हैं, अन्त तक पढ़कर पता नहीं चलता। यानी पुष्प की अभिलाषाऔर मेरा नया बचपनदो ही कविताओं के लायक समझा पाठ्यपुस्तक निर्माण समितिके सदस्यों ने इस युवा दहलीज पर पहुँचे छात्र को।
अन्य पाठ में यदि हम भारत के बारे जानकारी दे रहे पाठों या ढूँढे तो हमें उज्जियनीनामक एक डायरी मिलती है। यह डायरी किसी एक व्यक्ति या एक लेखक की नहीं है। इस पाठ से छात्र को पता चलता है डायरी भी सामूहिक लिखने की चीज़ है। इस डायरी को लेखकगण ने लिखा है। यहीं एक और दिव्य दर्शन उसे होता है ‘मैं हूँ नानामक आत्मकथा है। यह शाहरुख खान की फ़िल्म से प्रेरित नहीं है,बल्कि यह दुनिया की पहली आत्मकथा है जिसे कई लेखकों ने लिखा है। यानि आत्मकथा की आत्मा कई लेखकों में रहती है। यह भाषा भारती(हिन्दी विषिष्ट) भाषा के कई आयाम खोलती है। डायरी,आत्मकथा आदि सामूहिक लेखन के उदाहरण यदि हो सकते हैं तो निबन्ध क्यों नहीं संकलित किया जा सकता?निबन्ध ही नहीं व्यंग्य भी संकलित किया गया है। बुद्धि का फलनामक व्यंग्य और पाताल कोटनामक निबन्ध का संकलन पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति के विदुषी सदस्यों ने किया। यहाँ पहली बार नीति के दोहे नाम से,कबीर,रहीम,वृन्द,तुलसी को एक पाठ में निपटा दिया गया। एक चित्रकथा भी है- छत्रपति शिवाजी,जिसे लेखकगण ने लिखा है। एक संस्मरण है- मर कर भी जो अमर हैं,इसे भी लेखकगण ने लिख डाला और तो और मित्र को पत्रनामक पत्र भी लेखकगण ने लिखा। रानी अवन्तीबाई की जीवनी भी लेखकगण के खाते में हैं। एक कहानी है- प्रेमचन्द की ईदगाह और दूसरी उन्नत खेती-उत्तम खेती,रामगोपाल रैकवार की। याने इस पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते छात्र लेखकगण के नाम से परिचित होता है जो इन बेहूदा,जानकारीहीन पाठों के ग़ैरजिम्मेदार लेखक हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस पुस्तक को देखते वक्त ही आपको पता चल जाता है कि इसका स्तर क्या होगा?ये कौन-से लेखकगण है जो पाठ्यपुस्तक लिख रहे हैं। इन पाठों को पढ़कर आप देखें तो उसका स्तर भी पता चलता है। संचालक लिखते हैं- ‘भारतीय संस्कृति और गौरव के साथ-साथ मध्यप्रदेश के सन्दर्भ व साहित्यकारों की कृतियों को समावेशित किया गया है।कौन-से साहित्यकार हैं यहाँ? किन लेखकों को छापा गया है?सिर्फ़ दो कवि?बाकी लेखकों का क्या हुआ?
इसमें जो अन्य पाठ है। ईष्वरचन्द्र विद्यासागर,बाबूजी बारात में,दशहरा (इस लेख के लेखक भी लेखकगण हैं) भारत रत्न: भीमराम अम्बेडकर,पातालकोट। अन्य पाठ का उल्लेख भी कर चुका हूँ और मैं यह समझने में अक्षम हूँ कि किस भारतीय संस्कृति और गौरव का उल्लेख इन पाठों में है। और जो थोड़ा बहुत है वह क्या इतना भर ही गौरव है। गोरे अंग्रेज़ों के समय की पाँचवीं कक्षा की पुस्तक ज़्यादा भारतीय संस्कृति के बारे में थी। तुलसी,कबीर आदि महाकवियों के पूरे पाठ थे। और अन्य सामग्री भी भारत और उसकी तहजीब,तारीख,तवातुर और तबीयत के बारे में थी। बिना किसी दावे,सफाई और आत्मग्लानि के। यहाँ दावा मुखर है। बाकी सिफर। जब जरा एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तक देखें।
यहाँ सिर्फ़ रिमझिम है,रिमझिम-5नहीं। पाँचवीं कक्षा के लिए हिन्दी की पाठ्यपुस्तकमुखपृष्ठ पर छपा है। लिजलिजे और अनुपातहीन रेखांकनों से तथाकथित रूप से सजी पुस्तक में पाँच कविताएँ हैं जिसमें तुलसी,सूर,कबीर,रहीम तो हैं ही नहीं। यहाँ भी अज्ञेय,निराला,महादेवी वर्मा,मैथिलीशरण गुप्त आदि से परहेज ही रखा है। रवीन्द्रनाथ,नागार्जुन,मोहनलाल द्विवेदी,कुँवरनारायण और सुभद्राकुमार चौहान से काम चलाया है। मैं इनकी कविताओं की आलोचना में नहीं जाऊँगा,किन्तु पढ़ने पर साफ पता चलता है कि ये रचनाएँ इन कवियों का श्रेष्ठ नहीं हैं। एक माँ की बेबसी,कुँवरनारायण की कविता पहले समझायी गयी है,मानों भरोसा दिला रहे हों कि यह पढ़ने लायक है। गुरु-चेला कविता तीसरी कक्षा के लायक है। नागार्जुन की कविता बाघ आया उस रातभी कुछ ख़ास नहीं है। एक मज़ेदार तथ्य यह है कि अठारह-बीस लेख,कविता,कहानियों में से नौ का लेखक कोई नहीं है। वे बस हैं। चार के लेखक हिन्दी के नहीं हैं,वे विदेशी भाषाओं के अनुवाद हैं। इसमें से सिर्फ़ एक कहानी हिन्दी के लेखक की है,बाकी पता नहीं। अधिकतर पाठों के प्रति यह भाव है कि इसकी जिम्मेदारी किसी की नहीं है। यानी ये ‘लेखकगणने लिखे हैं या फिर संकलन है। रेखांकन और चित्र उतने ही खराब और अस्पष्ट हैं। इसमें एक ‘नदी का सफरनाम का चित्र है जिसमें एक नदी का सफर बतलाया गया है,जो इतना बचकाना और अस्पष्ट है कि छात्र की क्या मज़ाल कि कुछ समझ जायें। कुल मिलाकर इस पुस्तक का स्तर निम्न है। पाँचवीं में लगभग वयस्क हो गये छात्रों के साथ इस तरह की पढ़ाई एक अत्याचार है,उनके मानसिक स्तर के साथ बलात्कार। उसे यह पता ही नहीं चल पाता कि उसकी मातृभाषा में भी कुछ बड़े कवि पैदा हुए हैं,जो सिर्फ़ हिन्दी के हैं।
हमारे शिक्षाविद यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि बच्चा,बच्चा नहीं है,वह एक चौकन्ना मस्तिष्क है,जो बहुत तेजी से नयी बातों को आत्मसात् करता है। उसे हम क्यों बच्चा समझकर उसके साथ तुतलाने की कोशिश  कर रहे हैं। और उसे क्या दे रहे हैं पढ़ने को?इस पुस्तक को पढ़ने के बाद उसका विश्वास हिन्दी साहित्य और हिन्दी कविता से उठ जाएगा,जिसे वह जीवन भर नहीं पढ़ेगा। पाँचवीं कक्षा के पाठ्यक्रम के लिए निर्माण समिति’को हिन्दी के लेखक नहीं मिले। हमारी संस्कृति के चार बड़े कवि तुलसी, कबीर,रहीम,सूर- उन्हें इस लायक नहीं लगे कि पाठ्यक्रम में शामिल करें-
अति विचित्र रघुपति-चरित,जानहिं परम सुजान।
जे मतिमन्द विमोह वश,हृदय धरहिं कुछ आन।।
उन्नीस सौ सत्ताइस की पाँचवीं कक्षा की पुस्तक से यह तुलसीदास का दोहा शायद ही आज की पाँचवीं कक्षा का विद्यार्थी समझ सकें। इसके लिए वह जिम्मेदार नहीं है। हमारे काले अंगे्रज़,जो अंग्रेज़ पीछे छोड़ गये थे,जिन्हें भारतीयता से नफरत है,जिनके लिए भारतीय संस्कृति ढोंग है,जिन्हें भारतीय कहलाने में शर्म आती है,जो न यहाँ के हैं न वहाँ के,की देन है। ये विषेषज्ञ किसी विषय के नहीं है मुझे सन्देह है कि इन्हें हिन्दी भाषा भी ठीक से आती होगी,नहीं तो यह ‘पाठ्यपुस्तक निर्माण समितिकैसे पुस्तक में छाप सकते?इन सभी लोगों के भीतर गहरी आत्मग्लानि अपनी मातृभाषा से कटे होने की है। वे न ठीक से समझ सकते हैं न समझा सकते हैं। ऐसा लगता है कि ये किसी जुगाड़ या भाई-भतीजावाद से इस जगह तक आ पहुँचे,जहाँ उन्हें नहीं पता है कि भाषा पढ़ाने के लिए प्रारम्भिक स्तर पर किन कठोर और कठिन किन्तु रोचक और क्रमबद्धता से उत्तरोत्तर जटिल होते जाने की ज़रूरत है। इसमें अब चूँकि तकनीकी सुविधाओं में भारी सुधार हो चुका है तो ज़्यादा साफ-सुथरी और अधिक स्पष्ट,आकर्षक छपाई भी की जा सकती है। अब अनेकों तरह से ज़्यादा बेहतर रेखांकन बनाने वाले और चित्र रचने वाले लोग मौजूद हैं तो जानकार विषेषज्ञों की सलाह से आने वाली पीढ़ी को और आसानी से मातृभाषा में मजबूत और स्थायी तौर पर पढ़ाया जा सकता है। ऐसी पुस्तक छापी जा सकती है,जो भीतर और बाहर दोनों अर्थों में भरपूर हो। हमें नकली धर्मनिरपेक्ष होने की ज़रूरत नहीं है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मातृभाषा को रिमझिम कहने की ज़रूरत भी नहीं है। सभी धर्मों के बारे में पढ़ाते हुए बच्चों को भारतीय संस्कृति के पाठ पढ़ाये जाने चाहिए। जो गोरे अंग्रेज़ भी कर रहे थे। इस तरह के अधकचरे पाठ्यक्रम से बच्चा क्या सीख सकता है,इसके परिणाम सामने आने लगे हैं। और दिल्ली ही उसकी प्रयोगशाला बन रही है। वे कौन लोग हैं,जो पूरी पीढ़ी नष्ट करने में लगे हैं?वे किसी भी राजनैतिक विचारधारा के हों,उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे ही आने वाला भविष्य हैं। उन्हें प्रारम्भ में ही मजबूत बनाना होगा। और यह काम सिर्फ़ मातृभाषा ही कर सकती है।
यह मुझे बहुत ज़रूरी लगता है कि मातृभाषा पढ़ाने वाली पुस्तकों को अत्यधिक सावधानी और विषेषज्ञों की देख-रेख में तैयार किया जाना चाहिए। सभी प्रदेशों की राज्य समिति की अलग-अलग पुस्तकें व पाठ्यक्रम होने के बजाय एक पुस्तक व एक पाठ्यक्रम रखना चाहिए। इन पुस्तकों को धर्मनिरपेक्ष होने की ज़रूरत नहीं है,वे धर्मों के बारे में उसी तरह बताये जिस तरह वे किसी देश या वस्तु के बारे में बतला रहे हैं। वे विषेषज्ञ निश्चित रूप से बिना किसी प्रमाण के मूर्खही हैं जिनकी नज़र में तुलसीदास धार्मिक कवि हैं और कबीर अधार्मिक। ऐसे मूर्खों को इस समिति में आने से कैसे बचायें,इस पर भी ध्यान देना होगा। हिन्दुस्तान में अधिकांश ऐसे विद्वान पाठ्यक्रमों के बनाने में लगे हैं जिनके मुँह लाल हैं और वे अपने को शाकाहारी बतलाते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ऐसे लाल विद्वान मूर्खों को पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाली समितियों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। दूसरी तरफ एक अलग किस्म है उचाट मूर्खों की,जिन्हें इतिहास ने सबसे ज़्यादा प्रताड़ित किया है,वे इसे ठीक करने में लगे रहते हैं। इनसे भी बचने की ज़रूरत है।
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अखिलेश का लेख ऐतिहासिक है

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कल स्कूल में पढ़ाई जाने वाली हिंदी पाठ्यपुस्तकों को लेकर वरिष्ठ चित्रकार अखिलेश का एक शोधपरक लेख पोस्ट किया था. उसके ऊपर टिप्पणी के बहाने वरिष्ठ कवि, विद्वान विष्णु खरेका यह लेख है. विष्णु जी ने कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना शैली में यह लेख लिखा है. लेकिन उनका यह कहना बिलकुल सच है कि वर्षों में हिंदी में ऐसी कोई कृति प्रकाशित नहीं हुई है जिसे यादगार कहा जा सके, जिसे पढ़ते हुए यह लगा हो कि कुछ पढ़ा. बहरहाल, विष्णु जी की यह टिप्पणी पढने लायक है. इसमें सभी के लिए कुछ न कुछ है- मॉडरेटर 
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हिंदी में वर्षों में ऐसी कोई साहित्यिक कृति या गैर-साहित्यिक लेख-टिप्पणी आदि प्रकाशित होते हैं जो इतने बेहतरीन होते हैं कि उन्हें बहुत धीरे-धीरे,बीच-बीच में बंद करते हुए,जाँचते हुए पढ़ना पड़ता है कि कहीं ख़त्म न हो जाएँ – कुछ-कुछ पुराने शहद,गुड़,अचार,वाइन,सिंगल मॉल्ट या कोन्याक के आस्वादन की तरह.अखिलेश का यह लेख मुझ पर यही कैफ़ियत तारी करता है.सच तो यह है कि यदि यह किसी अल्पज्ञात जगह प्रकाशित होता तो मैं इसके बारे में लिखता ही नहीं – हिंदी के सूअरों को क्यों बताया जाए कि मोती और मधुपर्क कहाँ मुफ़्त बाँटे जा रहे हैं.हैरत और रोमांच की बात है कि इसे बेपनाह मेहनत और वक्तख़र्ची के साथ किसी शिक्षक या शिक्षा-शोध-शास्त्री ने नहीं,बल्कि एक सक्रिय और प्रसिद्ध चित्रकार ने इतने अरसे में लिखा होगा जिसमें वह लाखों रुपयों की अपनी पेन्टिंग बना लेता.इसे लेख या टिप्पणी कहना भी इसका महत्व कम करना होगा – यह किसी भी शोध-निबंध से लेश-मात्र भी कम नहीं.और विषय भी कितना विरल है – हिंदी की लगभग सौ वर्ष पुरानी स्कूली पाठ्य-पुस्तकों से शुरू कर आज तक की उनकी अभागी बहनों तक आता हुआ.

मैं ख़ुद वर्षों से अपने ( 1946-56 ) और अपने शिक्षक-पिता के शाला-युग ( 1923-34 ) की पाठ्य-पुस्तकें खोजता-सहेजता रहा हूँ.काफ़ी भटका हूँ,अजीबोग़रीब घरों-भंडरियों आदि में तिलचट्टों,कसरों,छिपकलियों से संघर्ष किए हैं,उनमें रहने वाले लोगों का कोप-एवं-उपहासभाजन बना हूँ.स्कूलों में डपटा-दुरदुराया गया हूँ.लेकिन उन ज़मानों की एक भी अनिवार्य या सहायक पाठ्य-पुस्तक मिल जाए तो वह आर्केमेडीज़ का यूरेका क्षण हो जाता है.तेजी ग्रोवर भी इस लम्हे को पहचानती हैं.लेकिन जो यह लेख अखिलेश ने लिखा है,और तेजी बरसों से जो काम कर रही हैं,  उसके आगे Mein Kampf ( मेरी – ग़ैर-हिटलरी – जद्दोजहद ) कुछ भी नहीं है.वाल्टर बेन्यामीन के ऐसे ही एक लेख की याद आती है.

मैं अखिलेश द्वारा परावर्तित धूप नहीं तापना चाहता.लेकिन यही स्मरण करना चाहता हूँ कि 1953 की हमारी एक पाठ्य-पुस्तक में जॉर्ज कीट के चित्र थे,जो आज अश्लील माने जाएँगे.कौन George Keyt ? ‘लेक आइल ऑफ़ इनेसफ्री’ शीर्षक कविता थी.किसकी है यह कविता ? सी.ई.एम.जोड का लेख था.उन दिनों की हिंदी स्कूली टैक्स्ट-बुक्स में ‘चहचहाता चिड़ियाघर’ जैसे साहित्यिक व्यंग छपते थे,जैनेन्द्र की ‘अपना अपना भाग्य’ जैसी कहानियाँ छपती थीं,और जबलपुर में प्राप्त डायनोसॉर के फॉसिलों पर लेख शामिल होते थे.कितना लिखा-कहा जाए ? अखिलेश की सराहना में एक बड़ा लेख लिखा जा सकता है.इसके महत्व को सिर्फ़ कृष्ण कुमार जैसे व्यक्ति समझ सकते हैं.

स्कूल,कॉलेज,विश्वविद्यालय,यूनिवर्सिटी,केंद्रीय हिंदी निदेशालय,केंद्रीय हिंदी संस्थान,विश्व हिंदी सम्मेलन,आकाशवाणी,दूरदर्शन,अख़बारों,हर तरह के मीडिया,विज्ञापनों,होर्डिंगों,मार्ग-चिन्हों,रेल्वे और बस स्टेशनों,वाहनों पर,हर तरह के साइन-बोर्डों और निजी निवासों आदि के नाम-पट्टों पर हिंदी के साथ वर्षों से बलात्कार हो रहा है.’’नवभारत टाइम्स’’ दिल्ली के मेरे पितृतुल्य सहकर्मी वासुदेव झा हिंदी की तुलना वेश्या के गुप्तांगों से करते थे जिनके साथ जो चाहे कुछ भी कर सकता है.मुंबई में ठाकरे परिवार एक बार दहाड़ता है,सही मराठी अगले दिन लागू हो जाती है.हमारे यहाँ रसरंजकों के अश्लील जन्मदिनों पर अप्सराएँ नचाई जा रही हैं,गंधर्व गवाए जा रहे हैं.

अखिलेश का यह लेख ऐतिहासिक है.यह भी एक विडंबना है कि जब ब्लॉगों में भ्रष्ट हिंदी निर्लज्जता से प्रकाशित हो रही है,स्वयं ब्लॉगों के यही नियामक हिंदी को लुग्दी-नगरवधू बनाने के षड्यंत्र में शामिल हों,सही हिंदी न सिर्फ नहीं जानते हों बल्कि उसमें धृष्ट गर्व करते हों,हिंदी-शत्रुओं की दलाली कर रहे हों,अखिलेश का लेख ऐसी-ही ब्लॉग-दुनिया में आने के लिए अभिशप्त है.लेकिन यह युधिष्ठिर और दान्ते की नरक-यात्रा की तरह है.

अखिलेश की यह टिप्पणी प्रत्येक आत्म-सम्मानी हिंदी पत्र-पत्रिका-माध्यम में अनिवार्यतः प्रकाशित होने योग्य है.इसकी लाखों प्रतियाँ हिंदी विश्व में बँटवाई जानी चाहिए.हिंदी जगत अखिलेश के ऋण से उऋण नहीं हो सकता.


अणुशक्ति सिंह की कहानी 'आखिरी बार'

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हिंदी कहानियां बदल रही हैं. समकालीन जीवन की भागमभाग, उसकी जद्दोजहद सब कुछ बदल रही है. रिश्तों में भी वह ठहराव नहीं रह गया है. एक ऐसी कहानी है अणुशक्ति सिंहकी, जिसमें किसी चीज का किसी तरह का लोड नहीं है. बदलते समाज की एक छोटी-सी कहानी-मॉडरेटर 
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"ये तेरा बनना संवारना मुबारक, मुबारक तुझे..."सुबह-सुबह विभु के कमरे से आती हुई नुसरत साहब की मदभरी आवाज़ को सुन कर अंशु को तैयार करती हुई नीलूके हाथ बिलकुल थम से गए... क्या हुआ है, आज इस लड़के ने सुबह सुबह ये गाना क्यों लगा दिया है...
ऐसा नहीं है कि नीलू को ये गीत नहीं पसंद... एक वक़्त था जब इसे सुनते ही वो कहीं खो सी जाती थी...खुद में लजाती हुई, एक सपनीले संसार में चली जाती थी। आज उसी धुन को फिर से सुनकर वो फिर से खो गयी थी... अपने आज में नहीं, 5-6 साल पुराने उन खूबसूरत पलों में जब उसके और आरिफ के दिन-रैन साथ बीता करते थे। खिड़की एक्सटेंशन में R-13 के टॉप फ्लोर वाले उस फ्लैट में सुबह-सुबह जब वो ऑफिस की कैब छूट जाने के डर से ज़ल्दी-ज़ल्दी तैयार हो रही होती तो आरिफ अपनी ब्लैक कॉफ़ी का मग हाथ में लिए हौले से मुस्कुराते हुए, ये गीत गुनगुना देता... और फिर तो नीलू जैसे सब भूल जाती। फिर आरिफ को ही याद दिलाना पड़ता कि ज़ल्दी जाओ नही तो आज फिर ऑटो में डेढ़ सौ रूपये फुकेंगे... उफ़, अगर ऑफिस की कैब नहीं होती तो खिड़की से नोयडा तक का सफ़र सच में कितना मुश्किल था। एक तो सुबह की जाम, टोल का चक्कर और ऊपर से ऑटो वालों के नखरे, इतना सब झेल कर पहुँच भी जाओ तो डेढ़ सौ रुपयों की ऊपर की चपत मन को और दुखी कर जाती थी... इसलिए अच्छा था कि सुबह के रोमांस को शाम तक के लिए पोस्टपोन करके थोडा ज़ल्दी घर से निकला जाये ताकि ऑफिस तक का सफ़र अच्छे से नुसरत साहब को सुनते हुए कट जाए।
नुसरत साहब, उसके और आरिफ - दोनों के फेवरेट... दोनों सिरफिरे, लेकिन दोनों की पसंद साफ़ अलग... एक कश्मीर का केसर तो दूसरी उत्तर भारत की गुलकंद... एक सोच सोच कर चलने वाला, दूजी फटाक से कुछ कर गुजरने वाली... एक को आधी रात को इंडिया गेट की आइसक्रीम पसंद तो दूसरा खुद ही कोल्ड कॉफ़ी बनाकर ले आने वाला... कुछ भी तो नहीं मिलता था उन दोनों में सिवाय नुसरत साहब के नगमों के लिए दीवानगी और लिखने के शौक के।
और इन्हीं दो चीज़ों ने करीब ला दिया था उन्हें...
कॉलेज ख़त्म होने के बाद की पहली नौकरी थी। अभी चार ही दिन हुए थे उसे यहाँ ज्वाइन किये हुए...एक तो दिमाग अब भी कॉलेज के दोस्तों और शरारतों में लगा हुआ था और तिस पर से ऑफिस के ये अजनबी लोग - मन यहाँ लगे भी तो कैसे।
आज थोडा ज़ल्दी आ गयी थी तो सोचा जब तक बॉस नहीं आता है तब तक गाने ही सुन लूं...
बस हैडफ़ोन ऑन किया और खो गयी अपनी दुनिया में।
एक्सक्यूज़ मी...
एक्सक्यूज़ मी...
अचानक से किसी ने उसकी कुर्सी को हिलाया जैसे...
हड़बड़ा कर कानों से हैडफ़ोन निकाल कर जैसे ही उसने नज़र उठाई, सामने एक लड़के को अपनी ओर गुस्से से लगभग घूरता हुआ पाया...
यस... टेल मी...
मोहतरमा, ये बैग आपका है... 
जी...
क्या आप इसको हटाने की कृपा करेंगी?
ये जगह मेरी है... और मुझे अपने वर्क-प्लेस पर कचड़ा बिलकुल पसंद नहीं है।
उसका ये तल्ख़ अंदाज़ देख कर जैसे ही वो उठी, पीछे से निशा की आवाज़ आई...
अबे आरिफ, क्या हुआ, क्यों चिड़-चिड़ कर रहा है सुबह-सुबह।
नई लड़की है, पता नहीं था उसे कि तू यहाँ बैठता है।
मीट हर, शी इस इज़ आवर न्यू कलीग नीलिमा सिंह..
एंड नीलिमा, ही इज़ आरिफ...हमारा टीम मेट... एक वीक की छुट्टी पर था, आज ही आया है... एन्ड यू कैन कॉल हिम अकड़ू आरिफ टू। ऐसा ही है ये...
'हेल्लो नीलिमा' 
सॉरी यार, वो मुझसे मेरा मेस्ड अप वर्क प्लेस नहीं देखा जाता...
शायद पहली मुलाक़ात की अपनी तल्खी को समझते हुए उसने अपनी ओर से ही बातों की शुरुआत की थी।
नो, इट्स ओके... गलती मेरी ही थी।
नीलिमा ने ज़्यादा ध्यान न देते हुए बात को फ़टाफ़ट ख़त्म करना चाहा...
अरे हाँ, मैं बताना भूल गयी। बॉस बता रहे थे कि नीलिमा तुम्हारी ही टीम में होगी आरिफ... निशा ने जैसे बम फोड़ा था उसके लिए।
इस अकड़ू के साथ काम करना होगा... यानी एक और मुसीबत, ओह नो...
उस वक़्त इस चिड़चिड़े आरिफ के साथ काम करने के ख़याल से ही नीलिमा  सहम गई थी. लेकिन कुछ दिन ही स्टोरीज और फीचर्स पर साथ काम करते करते दोनों में दोस्ती सी होने लगी थी... टी ब्रेक में अब आरिफ अपनी ब्लैक कॉफी के साथ उसकी ग्रीन टी भी लेता आता... 
नीलिमा, ये लो अपनी ग्रीन टी... वैसे यार तुम्हारा कोई निक नेम नहीं है। नीलिमा, इतना लंबा नाम...उफ़, ऐसा लगता है जैसे कश्मीर से कन्याकुमारी तक का सफ़र पूरा करके लौटा हूँ।
थैंक यू... ऐसे मत कहो, बहुत सुन्दर नाम है मेरा... हाउएवर यू कैन कॉल मी 'नीलू'। मेरे घर वाले इसी नाम से बुलाते हैं मुझे...
आह! नीलू... दैटस् ब्यूटीफुल...
अच्छा क्या सुन रही हो नीलू? नीलू
कुछ नही, 'सांसो की माला पर'...
यू मीन नुसरत साहब वाला 'सांसों की माला पर'...
ह्म्म्म
तुम सुनती हो उनको?
क्यों, नहीं सुन सकती?
अरे नहीं यार, बिलकुल सुन सकती हो... अच्छा चलो, ये राईट साइड वाला हेडफोन मुझे दो...
ये क्या बदतमीजी है, मैं सुन लूं तो ले लेना तुम...
सच में कितना एटिट्यूड है तुममे...
और तुम्हारा अपने बारे में क्या ख़याल है आरिफ? तुमने तो पहले ही दिन मुझसे इतने बुरे तरीके से बात की थी...
ओह माय गॉड... तुम अभी तक उस बात को दिल से लगा कर बैठी हो...
हाँ और नहीं तो क्या... वैसे छोड़ो अब...
अच्छा सुनो, अगर मैं माफ़ी मांग लू तो चलेगा...
कर दिया माफ, अब जान छोडो मेरी...
ऐसे नही, पहले बोलो कि आज का डिनर तुम मेरे साथ करोगी...
माफ़ी मांग रहे हो या डिनर डेट के लिए पूछ रहे हो?
जो तुम समझो...
जाओ भी...
नहीं, पहले 'हाँ'बोलो...
अच्छा ठीक...
ओके फिर सी यू एट 8 इन सिटी मॉल... तुम पता दे दो तो तुम्हे लेने आ जाऊं...
अच्छा, कौन से उड़न खटोले से आओगे? रहने दो, मैं खुद ही आ जाउंगी...
ओके डन...
बस वो शाम थी और दोस्ती से प्यार तक के सफ़र की शुरुआत भी... धीरे-धीरे प्यार बढ़ा और दीवानापन भी... और दीवानगी में दोनों ने एक दिन साथ रहने का भी फैसला कर लिया।
वक़्त बीता, साथ रहते हुए नीलू ने दूसरी नौकरी तलाश ली थी तो आरिफ नौकरी छोड़ कर फुल टाइम फ्रीलांसिंग में आ गया था...
कितना सही चल रहा था सब कुछ शनिवार की उस शाम तक... फिर मम्मी के उस फोन ने सब बिगाड़ दिया था। पापा लड़का देखने गए हैं...
मगर क्यों?
क्या मगर क्यों... तेरी शादी की उमर हो रही है इसलिए।
वैसे तुझे कोई पसंद है तो बता दे...
हाँ पसंद तो है आरिफ़, लेकिन मम्मी को अभी कैसे बता दूं। मन ही मन नीलू ने सोचा और मम्मी को न नुकुर में जवाब देकर फ़ोन रख दिया...
पूरी रात सो नहीं पायी थी नीलू... बस यही सोचती रही थी कि आरिफ़ अभी शादी के लिए मानेगा या नहीं मानेगा... और अगर उसने मना कर दिया तो...
और अगली सुबह आरिफ़ को लैपटॉप पर कुछ करते देख उससे रहा न गया। पूछ ही बैठी
आरिफ कब तक यूँ ही फ्रीलांसिग करते रहोगे... 
व्हाट डू यू मीन बाय 'कब तक'... कौन सा नकारा हूँ, कमा तो रहा हूँ...
हाँ, कभी लाख, कभी खाक...
हाँ, वैसे ही, लेकिन चल तो रहा है न...
हां, चल इसलिए रहा है क्योकि हम अभी मैरिड नहीं हैं। कल को हमारी शादी होगी, फॅमिली होगी, फिर क्या करोगे तुम...
उसकी छोड़ो...
क्यों छोड़ो, जब भी शादी और फॅमिली की बात करती हूँ, तुम भागने लग जाते हो...
भागूं न तो क्या करूं यार... हो पाएगी हमारी शादी? बता पाओगी, अपने मूछों वाले पापा से तुम कि तुम्हें एक मुसलमान लड़के से शादी करनी है...
हाँ बता दूँगी, पहले तुम तो मान जाओ... सबको मना लो... मेरी फिकर न करो...
पागल हो गयी हो नीलू... कैसे होगी हमारी शादी? पॉसिबल नहीं है यार... खुद ही सोच के देखो...
और चलने दो न जैसा चल रहा है... हो जायेगी भी...
'व्हाट'हो जायेगी यार? आई एम् टर्निंग 25 दिस मंथ... मम्मी बता रही थी कि पापा लड़का ढूंढ रहे हैं...
तो?
तो ये कि वो चाहते हैं कि मैं शादी करके सेटल हो जाऊं...
और तुम क्या चाहती हो?
मैं भी अपनी फॅमिली स्टार्ट करना चाहती हूँ...
किसके साथ?
ऑफ़-कोर्स तुम्हारे...
लेकिन मुझे इसके लिए वक़्त चाहिए
और मेरे पास वक़्त नहीं है...
तो फिर मैं तुरंत-फुरत में कोई फैसला नहीं ले सकता।
ठीक है, मैं मम्मी को कह देती हूँ कि पसंद कर लें कोई भी लड़का वो...
ये क्या बात हुई यार नीलू... इतनी ज़ल्दी कहीं कोई फैसला लेता है...
क्यों नहीं लेता... पिछले 4 साल से हम साथ हैं, और कितना वक़्त चाहिए फैसला लेने के लिए...
लेकिन...
कोई लेकिन नहीं, कल मैं शुभी के साथ शिफ्ट हो रही हूँ और अगले महीने घर जा रही हूँ...
नीलू, बहुत जल्दबाजी कर रही हो... मुझे नहीं तो कम से कम खुद को तो वक़्त दो...
बहुत वक़्त दे ले लिया एक दूसरे को... अब कोई वक़्त नहीं देना...
तुम्हारी इसी जल्दबाजी से मुझे सबसे ज़्यादा चिढ है...कहीं तुम्हे इसकी वजह से पछताना न पड़ जाए...
नहीं पछताना पड़ेगा और गर उसकी नौबत भी आई तो तुमसे न कहूँगी...
आज उससे हुई उस आखिरी बहस को ठीक 4 साल और 8 महीने हो गए थे.... ठीक ही तो कहा था उसने, पछताओगी नीलू...
पछता ही तो रही थी वो उस पागल प्रेमी को छोड़कर... भावहीन पति ने न तो कभी उसके मन की थाह ली थी न ही जीवन की...
आज विभु के कमरे से आती गाने की आवाज़ ने  उसे आरिफ की याद दिला दी थी... यूँ भूली तो उसे वो पल भर के लिए भी नहीं थी लेकिन पता नही क्यों कभी एक मेल तक न कर पायी..
आखिर है कहाँ वो... उसने भी तो कोई खोज-खबर नही ली... वो खोज-खबर लेता भी कैसे... मैंने तो अपना मेल अड्रेस तक बदल लिया था। चलो पुरानी आईडी से एक मेल भेज ही देती हूँ उसको...
ये सोचते हुए नीलू ने जैसे ही अपनी पुरानी आईडी से लॉग इन किया... बहुत सारी पुरानी मेल्स के साथ कुछ नयी मेल में एक ख़त उसका भी था...
उसकी शादी का इनविटेशन कार्ड और साथ में एक चिट्ठी...
हेल्लो नीलू,
कैसी हो? शादी कर रहा हूँ... 17 जुलाई की शादी है... कोई तुम सी ढूँढ रहा था लेकिन मिली नहीं... अल्लाह ने तुम सा एक इक्लौता पीस ही तो बनाया था... वो भी वो चम्पू ले गया। मारना मत, जानता हूँ तुम्हारा पति है...
अच्छा सुनो, रात को लेंस निकाल कर सोती हो न... तुम्हारी आँखों में दर्द हो जाता है लेकिन तुम ठहरी आलसी...
और तुम्हारे सपनो की उड़ान कहाँ तक पहुँची? एक आखिरी बार मेरी बात मान लो ... मुझे भले ही छोड़ कर चली गयी, लेकिन अपने सपनों की डोर मर छोड़ना... लिखना शुरू करो तुम फिर से... जानता हूँ मैं, इसके सहारे जीती हो तुम...
खुश रहना और मुझे दुआएं देना मत भूलना...
आरिफ
17 जुलाई यानी कल ही तुम किसी और के हो गए आरिफ... जिस आरिफ के सहारे ज़िन्दगी जीती आ रही थी, वो भी किसी और का हो गया... क्या करूं आरिफ, कैसे लिखूं मैं, कैसे मानूं तुम्हारी बात 'एक आखिरी बार'... तुम ही तो मेरे शब्दों के भाव थे। जब भाव ही खो गया तो किसके लिए लिखूं...
नीलू मेल का जवाब टाइप कर रही है...लिखना तो बहुत कुछ था... ये भी बताना था कि जुदा वो उससे तब नही हुई थी जब किसी और का हाथ पकड़ कर चली गयी थी, अलग तो आज होना पड़ा है उसे... बहते हुए आंसू ये भी बोल रहे हैं कि दर्द तब नहीं हुआ था उसको...दर्द तो आज हुआ है।
इतना सब कुछ कहना था लेकिन कुछ न कह पायी सिवा एक 'मुबारक'के... 
विभु के कमरे से अब भी नुसरत साहब की आवाज़ आ रही थी '"सांवरे तोरे बिन जिया जाये न, जलूं तेरे प्यार में"


वियना के भीतर वियना की खोज

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हमारे दौर के जाने-माने लेखक ओमा शर्मा की किताब आई है 'अंतरयात्राएं : वाया वियना'. आज इसी यात्रा वृत्तान्त का एक चुनिन्दा अंश- मॉडरेटर
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यूरोपकाविला,5 कपूजिनरबर्ग :
पहले विश्वयुद्ध की घमासान निश्चिंतताओं और धुकधुकी और पागलपन के बीच लिखे अपने नाटक येरेमिहाके स्विट्जरलैंडमें मंचन और चारों तरफ मिले कलात्मक प्रोत्साहन ने स्टीफन स्वाइग को वियनायीलेखक से एक वैश्विक लेखक बना दिया था। युद्ध का वह समय उसके निजी जीवन में रचनात्मकता के प्रति फिर से उठाये नये संकल्पों का समय भी था। कविताओं से लेखकी की शुरुआत करने वाला लेखक नाटकों की दुनिया में भी नाम कमा चुका था और कहानी एवं लघु उपन्यास लिखने के अलावादुनिया में घूम-फिर रहा था। जर्मन प्रान्त में उसकीगिनती पहली पंक्ति के समकालीन लेखकों में थी लेकिन वह मन ही मन संतुष्ट नहीं थाइसका कारण यह था कि उसके दायरे में बाल्जाक, डिकेन्स, दोस्तोवस्की, नीत्शे, टॉल्सटॉय और रोमा रोलां जैसे चमकते सितारे आ चुके थे। उसने अपने आस-पास और वर्तमान पर पुनर्विचार किया और विश्व साहित्य के सर्वश्रेष्ठ वैश्विक जीनियसों को मास्टर बिल्डर्सश्रृंखला के तहत जांचने-परखने का बीड़ाउठा लिया। इसलिए अपनी संगीनी फ़्रेडरिक के साथ वह साल्जबर्ग चला आया जो धरती पर प्रकृति की एक अनुपम उपहार है क्योंकि यहाँ पहाड़, नदी और जंगलों के बीच आबादी बसी हुई है। 5 कपूजिनरबर्ग कायहदायरासाल्जबर्ग काशिखरहै, जिसवजहसेरोलां इसेविलाइनयूरोपकहतेथे।
मैं 5 कपूजिनरबर्ग की तरफ जा रहा हूँ। ल्टर फौक्सयानी चालाक लोमड़ीकैफे  केलगभग सामने के परकोटे के भीतर खुलाएक फाटकहै जिसके ऊपर लिखा है- स्टीफन स्वाइग मार्गयहमुझे उस घर तक ले जाएगा जो इस लेखक के जीवन के सर्वश्रेष्ठ का साक्षी रहा है। घर की तरफ जाती यह सड़क चलने में बहुत मुश्किल पेश करती है क्योंकि चढ़ाई एकदम तल्ख है। यहाँकोईमोटरवाहननहींजासकेगा।कोई सामान्य पर्यटक हरगिज उस तरफ नहीं जाना चाहेगा क्योंकि पचासमीटर का रास्ता लगभग पाँचमंजिलऊंचाई पर पहुँचा देता है। मैं सोचता हूँ, इस घर में वे सब तात्कालीन लेखक-कलाकार अपने मित्र लेखक से मिलने आतेहोंगेतोबेचारोंकोकितनी मक्कत होती होगी!अपने आखिरी छोर पर यह चढ़ाईकिसीहेअरपिनकीतरहदाहिने हाथ को मुड़ जाती है जिस पर दसकदम भरने के बाद बाईं ओर हरे रंग के लोहे के दरवाजे के पास 5 नम्बर लिखा मिलता है। उसी मोड़ पर मेरी नजरें सामनेसेआतेगौरांग युवा पादरी से मिलती हैंजो शिष्टाचारवश मेरी ओर अपनी मुस्कान बिखेरते हैं। सड़क पर लगभग सन्नाटा है, जैसेपहाड़ीसन्नाटाहोताहै। दरवाजा बन्द है। यह एक बड़ा रकबा है जिसकी पाँचफिट ऊंची जालीदार बाउंड्री परड़ेहोकर भीतर झांका जा सकता है। क्या इसमें कोई रहता होगा? मैं मन ही मन प्रार्थना कर रहा हूँ कि कोई रहता हो, जिससे इसके पूर्व नामचीन मालिक के बारे में कुछ झूठ-सच बरामद हो सके। दरवाजेकेऊपरबीवेअरऑफडॉगकीधूसरितपट्टीनेइसकीसंभावनाजगादीहै।मैं दरवाजे को जोर से खटखटाता हूँ। वह खटखटाहट अनसुनी रहती है। कोईभोंकनेकीआवाजभीनहींहुई।दरवाजे के पास से एक पगडंडी दूरअन्दर बने मकान की तरफ जा रही है जिसका एक नक्शा पहले ही मेरे भीतर दर्ज है। करीब आठ हजार वर्ग मीटर में बने इस घर में सिर्फ नौकमरे थे। नीचे एक बड़ी लाइब्रेरी थी, जिसमें बीथोवन की वह मेज थी जिसे उसने उनके चिकित्सक ब्रयूनिंके वारिसों से खरीदा था। कभी यह मकान साल्जबर्ग के आर्चबिशपकी शिकारगाह था। कई सदियों तक साल्जबर्ग के आर्चबिशपको रोमन साम्राज्य के तहत शासकीय सत्ता हासिल थी। यही कारण था कि साल्जबर्ग में बहुत खूबसूरत गिरजेबने हुए हैं। इस मकान के ठीक पीछे कपूजिनरबर्ग की पहाड़ी है जहां यह रास्ता जाता होगा। स्वाइग ने इस मकान को 1917 में युद्ध के दौरान खरीदा था और युद्ध के बाद यहाँ रहना शुरू कियायह एक निपट अकेला मकान है, इसलिए किसी से पूछताछ भी नहीं की जा सकती किक्या यह सिर्फ इस समय खाली पड़ा है यायूँ ही निर्जन रहताहै। यहूदियों को लगातार प्रताड़ित और दुरदुराएजाने केदिनोंमें,सन् 1934 में (जब स्वाइग कोऑस्ट्रियाई सरकार दो मर्तबा अपने देश का राजदूत बनाये जाने की पहल कर चुकी थी और जिसका नाम उनबरसोंनोबल सम्मान का दावेदार था) जब चरमपंथियों के हथियार रखने के बहाने इस मकान की तलाशी ली गयी तब उसने इसे छोड़ने का फैसला कर लिया क्योंकि वह जानता था कि अब यहूदियों के ऑस्ट्रिया में दिन लद गये। न् 1919 से लेकर 1934-35 का वह समय कितना ऊर्जावान रहा होगा-यह इस बात से जाना जा सकता है कि इस दौरान छोटी-मोटी लगभग पचासपुस्तकें स्टीफन स्वाइग और फ़्रेडरिक ने यहाँलिखीं। सबसे पहली पुस्तक जो इस घर में छपकर आई,वह थी दोस्तोवस्की की जीवनी,जो मास्टर बिल्डर्सश्रृंखला के पहले भाग का हिस्सा थी। थ्री मास्टर्सबाल्जाक, डिकन्स और दोस्तोवस्की जैसेतीनउस्तादउपन्यासकरोंको एक खास नजरिये में पिरोते हुए परखती है। इंसानी फितरत के हर बीहड़ और अंधेरे को चोटिल करनेवाले कलाकार दोस्तोवस्की की यह जीवनी पिछले दसबरसों से उसके सोने-जागने का हिस्सा थी। दोस्तोवस्की और स्टीफन स्वाइग का जीवन विपरीत छोरों परअवश्य था, लेकिन स्वाइग की पूरी रचनात्मक सोच को बदलने में दोस्तोवस्की की भूमिका अहम है। दोस्तोवस्की पर लिखी उसकी पांडुलिपिकोई हजार पृष्ठोंमेंपसरीथी, लेकिन बाल्जाक और डिकन्स के साथ उसका जोड़ बैठाते हुए वह सवा सौ पृष्ठों में संक्षिप्त कर दी गयी। कोई दोस्तोवस्की के जीवन के प्रति निरपेक्ष सहानुभूति रखनेवाला और उसके रचना संसार को उसकेजीवन केबीहड़से जोड़कर ही उसकी आत्मा ओर उसकी विराट कला के नजदीक पहुँच सकता है। दोस्तोवस्की समूचे साहित्य कला का जैसे कोई धधकता सूर्य है। उसके जीवन और कृतित्व को लेकर सैकड़ों अध्ययन उपलब्ध हैं, लेकिन स्टीफन स्वाइग की तरह शायद ही किसी में वह गहन बारीकी और तल्खी आई हो। उसका जीवन लगभग भिखारियों की तरह अकिंचित था, फाँसीकेफंदेसेछूटकरआयाथा, बरसोंकैदकाटीथी, उसे मिर्गी के दौरे पड़ते थे, उसके कोई दोस्त नहीं थे, उसके पास जीवनयापन का कोई साधन नहीं था, जूएकालती, विवाह के कुछ समय बाद ही उसकी पत्नी चल बसी। और तो और, वह भाई भी दुनिया छोड़ गया जो उसका ध्यान रखता था। कहानी-उपान्यास लिखकर वह जैसे अपने जीवन की दैनंदिनमुसीबतों औरकर्जोंसे राहत पाता था। लेकिन तकदीर किसी साजिशकी तरह मानो उसे हर इन्तहाईदुख-दर्द में थपेड़ रही थी और वही था जो उनमें पूरी उम्र उनमें डूबा रहने के बाद भी उनका कलागत अर्क निकालता रहा। जीवन और साहित्य के रचाव के दोस्तोवस्की के अपने ही सन्दर्भ हैंवह दुख में डूबा तो है, लेकिन सुख पाने कालालायित नहीं है। इसी घर में होल्डरलि,क्लाइस्ट और नीत्शेकी रचनात्मक जीवनियों को वह शैतान से संघर्षशीर्षक में बांधकर जैसे दोस्तोवस्की के जीवन और रचनाओं से मिले सूत्रों की बिना पर,कम उम्र में फना हो गये इन तीनचयनित कलाकारोंके साथ आजमाइश करता है। जैसे अचेतन में पड़ी मूलभूत इच्छाओं का नैतिकता-समाजिकता या अच्छे-बुरे होने से कोई ताल्लुक नहीं होता, उसी तरह रचनात्मकता के सन्दर्भ में एक रचनाकार के भीतर पैबस्त (सृजनात्मक) ऊर्जा उद्देश्य एवं मूल्य निरपेक्ष होती है। जो ऊर्जा मेहनत-मक्कत और साधनासे रचनात्मक रूप में तब्दील होती है, वह अपने बुनियादी रूप में उसके ठीक विपरीत यानी विध्वंसकारी शक्ल भी ले लेती है। कभी यह विध्वंस  सृजनकर्ताकी तरफ भीइंगित होताहै। यही कारण है कि होल्डरलि,क्लाइस्ट और नीत्शेसमेत कितने ही जीनियस या तो अपनी जान पर खेल गये या फिर मानसिक संतुलन खो बैठे। कितनों में गेटे सा धैर्य-विवेक होता है जो जीनियस से नालबद्ध इस शैतान को इतना देर संभाले रखे! औरपीछे मुड़कर देखें तो इनव्याप्तियोंकोरेखांकितकरनेवालाकौन-साउनसबसेमुक्तथा!संजय भी महाभारत में मारा गया!
एक अनजान औरत का खत, अदृश्य संग्रह, एक स्त्री के जिन्दगी के चौबीस घण्टे, किताबी कीड़ाऔर अमोकजैसी कहानियां भी इन्हीं आज सुनसान पड़े दरो-दीवार के बीच सृजित की गयी थीं, जिन्होंने उसे दुनिया का सबसे ज्यादा अनुदित होने वाला लेखक बना दिया था। डेढ़ दशक का यह बिताया हुआ समय उसके जीवन का स्वर्णकाल था क्योंकि उसकी लिखी हर चीज़ को दुनिया भर में उसे चाहा-सराहा जा रहा था,उसे मन मुताबिक रचने–करने की आज़ादी थी और दर-दर भटकने की बाध्यता अभी नहीं हुई थी। फ़्रेडरिक की लिखी जीवनी के मुताबिक लगभग दो लाख पृष्ठों की पांडुलिपियां इस घर में सृजित हुईं। उसकी रचनाएं रातों-रात आम जनता द्वारा पढ़े जाने के लिए बिक जातीं, रातों-रात उनके तमाम विदेशी भाषाओं में अनुवाद होते क्योंकि इंसानी फितरत और मानवीय चेतना के निकटतम और अनछुए पहलुओं को वे इस तरह रच-मथ रही थीं कि हर किसी को संभावित ही नहीं आपबीती सी लगती थीं। इस घर में टामस मान, रोमा रोलाँ, पॉल वालरी, आर्थर स्निटजलर, तोस्कानिनी और जेम्स ज्वाइस समेत यूरोप के सर्वश्रेष्ठ लेखक-कलाकार मेहमान रहे। मुझे वूडी एलन की फिल्म मिडनाइट इन पेरिसयाद आए जा रही है, जिसमें पेरिस की गलियों में भटकता निवेदक (जिल) रात में सन् 1920 के दौर की सवारी करने लगता है- एक तरफ हैमिंग्वे चले आ रहे हैं,एक कोने में कोई पिकासो को उसकी हालिया पेंटिंग के नुक्स बतला रहा है,कहीं रोदाँ की प्रेमिका पर जिरह हो रही है,कहीं सल्वाडोर डाली उसका सर्रियल पोर्ट्रेट बनाने का न्योता दे रहा है,कहीं बुनएल मयखाने की तरफ बढ़े जा रहे हैं...
काश!ऐसा कुछ यहाँ मुमकिन हो पड़े। फांतासी भी कितनी हसीन चीज़ है! और बौद्धिक फांतासी तो शुभानअल्ला!
इसी घर के सामने उससे मिलने या ऑटोग्राफ लेने आए अनजान पाठकों का मजमा लगा रहता था। लेकिन आज यहाँ का सन्नाटा जैसे किसी शोक में चीख रहा है। तेज चल रही हवा के कारण भीतर लगे बड़े-बड़े पेड़ों की टहनियां सरसरा रही हैं। क्या पेड़ उस समय रहे होंगे?मैं मकान के सामने बाहर की तरफ नजर दौड़ाता हूँ तो सामने के शहर का टॉप-व्यू लुभा रहा है। एक आदिम विंटेज कस्बा। उधर मीराबेल महल है। साथ में गिरजों-गुम्बदों की टोपियां जहां-तहां बिखरी पड़ी हैं, जिनके ऊपर धूप की परत चमक रही है। उधर साल्जाक नदी किसी अल्हड़ पगडंडी सी पसरी पड़ी है जिसके पास घुमक्कड़ों का जमघट है। जाहिर तृप्ति-अतृप्ति के बीच झूलता हुआ मैं कपूजिनरबर्ग गिरजे की चढ़ाई की तरफ बढ़ता हूँ जहां से, शायद, इस घर में झांकने का नजारा मिल सके। किसी कहानी के दंश की तरह मगर यहाँ मेरा मुकाबला गिरजे के इस दरवाजे के पास बने स्वाइग के उस बुत से होता है जो वहाँ सन् 1981 में लगाया गया था। दीवार पर एक कच्ची धातु की पट्टी लगी है जो इस विश्व नागरिक के 1919 से 1934 तक सामने बने घर में रहने की घोषणा कर रही है। एक औचक खुशी मेरी गोद में आन पड़ी है। मैं उसे पहले गौर से और देर तक निहारता हूँ, फिर अपने कैमरे में दर्ज करता हूँ और बाद में लिपटकर चूमता हूँ। गिरजे के भीतर से तभी एक बूढ़े दिखते पादरी अपने कुछ संगी-साथियों के साथ वहाँ से निकलते हैं (सब की वही बादामी पोशाक... एक खास कॉफी का रंग... इसीलिए तो केपिचीनोकहलाता है) तो मैं उनसे उस बुत के बारे में इसरार करता हूँ। मुझे उसमें उलझा देख वे इशारा करके बताते हैं कि ये आदमी पहले वहाँ, वो सामने उधर,रहा करता था। मुझे फ़्रेडरिक की जीवनी का वह प्रसंग याद आ गया जब एक बार घर से बाहर निकलकर उसकी मुलाकात इस मोनस्ट्री के पादरी फादर गालुस से हुई थी, जिन्होंने फ़्रेडरिक को बताया कि उन्होंने येरेमिहापढ़ी है जो उन्हें बहुत अच्छी लगी। मैं उन अनजान फादर से स्वाइग की कोई किताब पढ़ी जाने के बारे में अंग्रेजी में पूछता हूँ तो वे समर्पण भाव से नो इंगलीशयानी अंग्रेजी में खासे तंग हैं की मुद्रा बनाते हुए मांफी माँगते हैं। गिरजे के पास खड़े होकर मैं एक बार फिर पहले 5,कपूजिनरबर्ग के उस दायरे और बाद में नीचे पसरे हुए शहर को देखता हूँ। दोनों तरफ सन्नाटा है। मैं वापस उस ढलान से नीचे उतरने लगता हूँ।
पता नहीं मुझे बीवेयर ऑफ पिटीउपन्यास का अंतिम दृश्य याद आ रहा है। एडिथ  आत्महत्या कर चुकी है। बूढ़ा केकसफीलवा भी दुनिया से जा चुका है। इलोना का विवाह हो गया है। अब वह विशालकाय घर सुनसान और बे-वारिस पड़ा है;जैसे मेरे दाहिने तरफ का यह ऐतिहासिक घर है।
      क्या अचेतन में कभी लेखक अपने भविष्य की हश्र –कथाएं भी रचता है?
      (omasharma40@gmail.com)
*                 *


देवयानी भारद्वाज की चुनिन्दा कविताएं

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इस पुस्तक मेले में एक उल्लेखनीय कविता संग्रह आया है देवयानी भारद्वाजका 'इच्छा नदी के पुल पर'. दखल प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की कुछ चुनिन्दा कविताएं. देवयानी जी की कविताओं की आवाज बिलकुल अलग है, समकालीन कवियों में सबसे ठोस. अस्त्रित्व को लेकर इतनी गहरी चिंता कम ही कवियों में दिखाई देती है- मॉडरेटर 
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इच्छा नदी के पुल पर

इच्छा नदी का पुल 
किसी भी क्षण भरभरा कर ढह जायेगा 
इस पुल मे दरारें पड़ गई हैं बहुत 
और नदी का वेग बहुत तेज है 

सदियों से इस पुल पर खड़ी वह स्त्री 
कई बार कर चुकी है इरादा कि 
पुल के टूटने से पहले ही लगा दे नदी में छलांग 

नियति के हाथों नहीं
खुद अपने हाथों लिखना चाहती है वह 
अपनी दास्तान 

इस स्त्री के पैरों में लोहे के जूते हैं
और जिस जगह वह खड़ी है 
वहां की ज़मीन चुम्बक से बनी है 
स्त्री कई बार झुकी है 
इन जूतों के तस्मे खोलने को 
और पुल की जर्जर दशा देख ठहर जाती है 
सोचती है कुछ 

क्या वह किसी की प्रतीक्षा में है 
या उसे तलाश है 
उस नाव की जिसमें बैठ
वह नदी की सैर को निकले 
और लौटे झोली में भर-भर शंख और सीपियाँ 

नदी किनारे के छिछले पानी में छपछप नहीं करना चाहती वह
आकंठ डूबने के बाद भी  
चाहती है लौटना बार-बार
उसे प्यारा है जीवन का तमाम कारोबार 
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सूखे गुलमोहर के तले

चौके पर चढ़ कर चाय पकाती लड़की ने देखा
उसकी गुड़ि‍या का रिबन चाय की भाप में पिघल रहा है
बरतनों को माँजते हुए देखा उसने
उसकी किताब में लिखी इबारतें घिसती जा रही हैं
चौक बुहारते हुए अक्सर उसके पाँवों में
चुभ जाया करती हैं सपनों की किरचें

किरचों के चुभने से बहते लहू पर
गुड़ि‍या का रिबन बाँध लेती है वह अक्सर
इबारतों को आँगन पर उकेरती और
पोंछ देती है खुद ही रोज़ उन्हें 
सपनों को कभी जूड़े में लपेटना
और कभी साड़ी के पल्लू में बाँध लेना
साध लिया है उसने

साइकिल के पैडल मारते हुए
रोज़ नाप लेती है कोई एक फासला
बिस्तर लगाते हुए लेती है थाह अक्सर
चादर की लंबाई की
देखती है अपने पैरों का पसार और
समेट कर रखती जाती है चादर को

सपनों का राजकुमार नहीं है वह
जो उसके घर के बाहर साइकिल पर लगाता है चक्कर
उसके स्वप्‍न में घर के चारों तरफ दरवाज़े हैं
जिनमें धूप की आवाजाही है
अमलतास के बिछौने पर गुलमोहर झरते हैं वहाँ

जागती है वह
जून के निर्जन में
सूखे गुलमोहर के तले
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क्या तुम्हें याद हैं
बीकानेर की काली-पीली आँधियाँ

उजले सुनहले दिन पर
छाने लगती थी पीली गर्द
देखते ही देखते स्याह हो जाता था
आसमान

लोग घबराकर बन्द कर लेते थे
दरवाज़े खिड़कियाँ
भाग-भाग कर सम्हालते थे
अहाते में छूटा सामान

इतनी दौड़ भाग के बाद भी
कुछ तो छूट ही जाता था 
जिसे अंधड़ के बीत जाने के बाद
अक्सर खोजते रहते थे हम
कई दिनों तक

कई बार इस तरह खोया सामान
मिलता था पड़ौसी के अहाते में
कभी सड़क के उस पार फँसा मिलता था
किसी झाड़ी में
और कुछ बहुत प्यारी चीजें
खो जाती थीं
हमेशा के लिए

मुझे उन आँधियों से डर नहीं लगता था
उन झुलसा देने वाले दिनों में
आँधी के साथ आने वाले
हवा के ठंडे झोंके बहुत सुहाते थे
मैं अक्सर चुपके से खुला छोड़ देती थी
खिड़की के पल्ले को
और उससे मुँह लगा कर बैठी रहती थी आँधी के बीत जाने तक
अक्सर घर के उस हिस्से में
सबसे मोटी जमी होती थी धूल की परत
मैं बुहारती उसे
अक्सर सहती थी माँ की नाराज़गी
लेकिन मुझे ऐसा ही करना अच्छा लगता था

बीते इन बरसों में
कितने ही ऐसे झंझावात गुज़रे
मैं बैठी रही इसी तरह
खिड़की के पल्लों को खुला छोड
ठंडी हवा के मोह में बँधी

अब जब कि बीत गई है आँधी
बुहार रही हूँ घर को
समेट रही हूँ बिखरा सामान
खोज रही हूँ
खो गई कुछ बेहद प्यारी चीज़ों को
यदि तुम्हें भी मिले कोई मेरा प्यारा सामान
तो बताना ज़रूर

मैं मरुस्थल की बेटी हूँ
मुझे आँधियों से प्यार है
मैं अगली बार भी बैठी रहूँगी इसी तरह
ठंडी हवा की आस में
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बदनाम लड़कियाँ

बदनाम लड़कियाँ
देर तक रहती हैं
लोगों की याद में
उनसे भी देर तक
रहते हैं याद उनके किस्से

बरसों बाद
बीच बाजार
दिख जाती है जब
अपनी बेटी का हाथ थामे
अतीत से निकल कर चली आती
ऐसी कोई लड़की

उसके आगे-आगे
चले आते हैं याद में
वे ही किस्से
और
ठिठक जाता है एक हाथ
पुरानी दोस्ती की याद में
उसकी ओर बढ़ने से
ठीक पहले
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सहेलियाँ

अब भी एक-दूसरी के जीवन में
बनी हुई है उनकी जरूरत
बीते समय के पन्नों को पलटते हुए कभी
झाँक जाता है जब
किशोरपने का वह जाना-पहचाना चेहरा
मुस्कान की एक रेखा
देर तक पसरी रहती है होठों पर

अनेक बार
मन ही मन
अनेक लंबे पत्र लिखे उन्होंने
इच्छाओं की उड़ानों में
कई बार हो आती हैं एक-दूसरी के घर

खो जाती हैं
एक-दूसरी के काल्पनिक सुखों के संसार में
सचमुच के मिलने से बचती हैं

एक-दूसरी के सुख के भ्रम में रहना
कहीं थोड़ी सी उम्मीद को बचा लेना भी तो है
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खुद मुख्तार औरत

अपने श्रम के पसीने से
रचती हूँ स्वाभिमान का हर एक क्षण

रोज गढ़ती हूँ एक ख़्वाब
सहेजती हूँ उसे
श्रम से क्लांत हथेलियों के बीच
आपके दिए अपमान के नश्तर
अपने सीने में झेलती हूँ
सह जाती हूँ तिल-तिल
हँसती हूँ खिल-खिल

क्षमा करें श्रीमान
मेरा माथा गर्व से उन्नत है
मुझसे न आवाज नीची रखी जाती है
न निगाहें झुकाना आता है मुझे


जो न देखी जाती हो आपसे यह खुद मुख्तार औरत
तो निगाहें फेर लिया कीजिए

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देह कमबख्त

अहसासों का बस्ता अटारी पर रखा है
अलमारी में बंद पड़ी हैं इच्छाएँ

एक देह है जो बिछी है
घर के दरवाजे से लेकर
रसोई, बैठक और बिस्तर तक
न घिसती है
न चढ़ता है मैल इस पर
सलवटें निकाल देने पर हर बार
पहले सी ही नई नज़र आती है
कमबख्त़  
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उसकी इच्छाओं में बारिश थी 

वहाँ बादल नहीं था 
उसकी इच्छाओं में बारिश थी 
वो सपनों में बादल देखती 
और बारिश का इन्तज़ार करती 

बादल को उसकी इस हरकत पर हँसी आती 
और उसे चिढ़ाने में मज़ा आता 

वो मुँह फेरती और बादल पानी बरसा जाता 
इस तरह बारिश अक्सर 
या तो उसके चले जाने के बाद होती 
या उसके पहुँचने से पहले ही हो जाती 
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संज्ञान

जब आँखे खोलो तो
पी जाओ सारे दृश्य को
जब बंद करो
तो सुदूर अंतस में बसी छवियों
तक जा पहुँचो

कोई ध्वनि न छूटे
और तुम चुन लो
अपनी स्मृतियों में
सँजोना है जिन्हें

जब छुओ
ऐसे
जैसे छुआ न हो
इससे पहले कुछ भी
छुओ इस तरह
चट्टान भी नर्म हो जाए
महफूज हो तुम्हारी हथेली में

जब छुए जाओ
बस मूँद लेना आँखें

हर स्वाद के लिए
तत्‍पर
हर गंध के लिए आतुर
तुम
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यहाँ से देखो

आसमान कितना नीला है
घास कितनी हरी
कितना चटख है फूलों का रंग
कितना साफ दिख रहा है
तालाब का पानी
हवा में घुली है
कैसी भीनी गंध
नहीं, बंद मत करो
खिड़की के पल्ले
यूँ ही रहने दो उन्हें
आधा खुला
झूलता हवा में
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बात

बात जब करते हैं हम
मैं कुछ कहती हूँ
तुम कुछ सुनते हो

तुम कुछ कहते हो
मुझे सुनाई देता है
कुछ और ही

हम हो जाते हैं मौन
तुम कहते हो कुछ
मैं कहती हूँ कुछ
न तुम कुछ सुनते हो
न मैं सुनती हूँ कुछ

यूँ हम करते हैं बात इसके बाद भी
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आवाज़

आवाज़ के पुल पर बैठ
ताकती
तेज नदी की धार को

बाँटती उसे जो बह गया
सहेजती
कितना कुछ जो बचा रहा

जीवन है
तो बातें हैं
आवाज़ की डोर जिसे बाँटे है
सोचो यह डोर भी न हो
कोई ठिकाना है
हवा का कोई झोंका
कब किसे नदी को सौंप दे

आवाज़ का पुल थाम
भर लेते हैं अंजुरी में पानी
छोड देते हैं पानी में दीप

इस पुल से
देर तक नज़र आती है
दूर तक झिलमिलाती रोशनी 
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तुम 

एक तुम वह हो
जो तुम हो
बतियाते हो मुझसे
मुझे सुनते हो
जाने क्या सोचते हो
जाने कैसे रहते हो
क्या  चाहते हो
क्यों चाहते हो
चाहते भी हो या नहीं चाहते हो

एक तुम है
जो मुझमें है
शायद तुमसे मिलता सा
शायद न मिलता हो तुमसे इस तरह
मैं अपने भीतर के इस तुम से बतियाती हूँ
उसकी आवाजें तुम तक जाती हैं

जब तुम कहते हो 
मैं मुझमें बैठे तुम को सुनती हूँ
यह जो तुम बाहर हो मेरे सामने
यह जो मुझमें है
क्या यह भी बतियाते हैं दोनों
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जुगनू

रात के अँधेरों में
हम जुगनू पकड़ते थे
बंद मुट्ठी में हर जुगनू के साथ
हाथ में आ जाता था रात का अँधेरा भी
जुगनू मर्तबान में बंद
लड़ते रहते अँधेरे से
सुबह तक दम तोड़ देते थे
अँधेरा जमा होता गया
काँच की दीवारों पर
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रिक्त स्थानों की पूर्ति करो 

बचपन से सिखाया गया हमें 
रिक्त स्थानों की पूर्ति करना 
भाषा में या गणित में 
विज्ञान और समाज विज्ञान में 
हर विषय में सिखाया गया 
रिक्त स्थानों की पूर्ति करना 
हर सबक के अन्त में सिखाया गया यह 
यहाँ तक कि बाद के सालों में इतिहास और अर्थशास्त्र के पाठ भी 
अछूते नहीं रहे इस अभ्यास से 

घर में भी सिखाया गया बार-बार यही सबक 
भाई जब न जाए लेने सौदा तो 
रिक्त स्थान की पूर्ति करो 
बाजार जाओ 
सौदा लाओ 

काम वाली बाई न आए 
तो झाड़ू लगा कर करो रिक्त स्थान की पूर्ति
माँ को यदि जाना पड़े बाहर गाँव 
तो सम्भालो घर 
खाना बनाओ 
कोशिश करो कि कर सको माँ के रिक्त स्थान की पूर्ति
यथासम्भव 
हालाँकि भरा नहीं जा सकता माँ का खाली स्थान 
किसी भी कारोबार से   
कितनी ही लगन और मेहनत के बाद भी 

कोई सा भी रिक्त स्थान कहाँ भरा जा सकता है 
किसी अन्य के द्वारा 
और स्वयं आप 
जो हमेशा करते रहते हों  
रिक्त स्थानों की पूर्ति
आपका अपना क्या बन पाता है 
कहीं भी 
कोई स्थान 

नौकरी के लिए निकलो 
तो करनी होती है आपको 
किसी अन्य के रिक्त स्थान की पूर्ति  
यह दुनिया
एक बड़ा सा रिक्त स्थान है 
जिसमें आप करते हैं
मनुष्य होने के रिक्त स्थान की पूर्ति 
और हर बार कुछ कमतर ही पाते हैं स्वयं को 
एक मनुष्य के रूप में 
किसी भी रिक्त स्थान के लिए
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यह समय गुमराह करने का समय है
आप तय नहीं कर सकते
कि आपको किसके साथ खड़े होना है
अनुमान करना असम्भव जान पड़ता है
कि आप खड़े हों सूरज की ओर
और शामिल न कर लिया जाए
आपको अँधेरे के हक़ में

रंगों ने बदल ली है
अपनी रंगत इन दिनों
कितना कठिन है यह अनुमान भी कर पाना
कि जिसे आप समझ रहे हैं
मशाल
उसको जलाने के लिए आग
धरती के गर्भ में पैदा हुई थी
या उसे चुराया गया है
सूरज की जलती हुई रोशनी से
यह चिन्गारी किसी चूल्हे की आग से उठाई गई है
या चिता से
या जलती हुई झुग्गियों से
जान नहीं सकते हैं आप
कि यह किसी हवन में आहुति है
या आग में घी डाल रहे हैं आप
यह आग कहीं आपको
गोधरा के स्टेशन पर तो
खड़ा नहीं कर देगी
इसका पता कौन देगा
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फ़ितरत

सड़क पर चले जा रहे हों आप 
और उड़ता हुआ कबूतर कर दे 
पीठ पर बींट तो क्या करेंगे आप 
यही न कि कोई कपड़ा या कागज़ खोज
पोंछ लेंगे उसे 
और चल देंगे अपनी राह 

घर के बाहर खड़ी गाय 
जिसे अभी खाने को रोटी दी आपने 
वह कर जाए घर के आगे गोबर 
या खा जाये वह पौधा 
जिसे आपने बहुत प्यार से लगाया था 
और जिसमें अभी फूल खिलने ही को था 
तब क्या करेंगे सिवाय इसके 
की गोबर को दरवाज़े के आगे से हटाएँगे 
और पौधे की थोड़ी पुख्ता 
करेंगे सुरक्षा 

गली का कुत्ता 
जिसे आप रोज़ दुलारते हैं 
कर ही जाता है कई बार 
बच्चों की गेंद पर पेशाब 
तब कुत्ते को समझाने तो नहीं जाते आप 
समझाते बच्चों को ही हैं 
और गेंद को कर लेते हैं पानी से साफ़ 

आपकी अपनी फ़ितरत है 
और दुनिया की अपनी 
इसमें कैसी शिकायतें 
जिसे जो आता है 
मनुष्य भी वही करता है

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'लो का सांबरी'की कविताएं

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90 के दशक के आरंभिक वर्षों में जिस कविता संग्रह की कविताओं ने बहुत प्रभावित किया था वह संग्रह करीब 20 साल बाद वाणी प्रकाशनसे दुबारा प्रकाशित हुआ है- 'लो का सांबरी'. तेजी ग्रोवरका यह कविता संग्रह कल खरीदा. उसकी कुछ कविताएं. इसी संग्रह की कविता पर उनको भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला था. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन 
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जुदाई गीत-1

मैं ऐसे लिख रही हूँ
जैसे अनाथालय में बहुत साल बाद
अपने अंधे बच्चे से मिल रही हूँ

तुम्हारे जाने के बाद
क्या कद निकल आया है उनका

कितने छोटे पड़ गए हैं शब्द
जो पहनाने लायी हूँ

जुदाई गीत-2

तुम गए बुआई के बाद
और मैं भूल गई गेंहूँ उग रहा है

बैलों को भूख लगती है
तो सांकल खोल देती हूँ

बच्चे आते हैं
भूंजती ही रहती हैं बालियाँ पूरी शाम
मींड-मींड उन्हें फांकते रहेंगे मस्त गाँव के छुट्टन

घोंसले गुनती हुई
दूर-अंदाज
चिड़ियाँ भी इसी जगह उतरती हैं
पीढ़ियों तक उनके अण्डों में
दर्ज रहेगी मेरे खेत की निडरता

अब उत्सवी हो रही हैं बालियाँ
लबालब पके हुए हैं परिंदों के सुर
सुनती हूँ इतना
और याद रहता है

फिर बरसने लगता है आसमान
कीचड़ में घोपते हुए पाँव
मेरे होशगुम भाई भागते हैं

बारिश पर थूकते हुए
अधबनी कुठरियों के अनाजों की ओर
कुरलाते और भागते हैं

अचरज है तुम नहीं हो
तब भी इतना तो जान पाती हूँ

जान पाती हूँ
लेकिन सपना सोख लेता है हर बार
इस बरस
अनाज के साथ
मेरा जानना भी डूब जाता है

लोग आते हैं
दवार को धकियाते पागल फकीरों के हुजूम से
उनकी बाँहें अजाने अनाजों से भरी हैं

वे सीले पूसों को
अफ़सोस की तरह मेरी गोद में डाल देते हैं
मैं देखती हूँ
बावेर से बंधी बालियों में
लेट गए हैं दाने
मिटटी ने उन्हें बीज समझ
एक बार फिर हरिया दिया है

कुवेली बरसात में
दानों का दोहरा फूट कर निकलना
तुम्हारे जाने के बाद का मौसम है

मैं नहीं जानती
बाहर
मेरे भाइयों का रुदन किसलिए है

जुदाई गीत-3

मुझसे अक्सर पूछते हैं हमारे दोस्त
एक हजार एक सौ एक दिन होने को आये

कहो
अब भी तुम्हारी याद आती है मुझे

मैं मानती हूँ
पसीने की बूँद ही को मानती हूँ
जो सरक रहा है इस समय
मेरे कान के पीछे

पता नहीं बाबू
यह उनके सवाल की ऊब है
या मेरा बुखार उतर रहा है

जुदाई गीत-4

तेरे सपने में थोड़े हूँ पगली
मैं तो बैठा हूँ
टाट पर
सजूगर
अचार भरी उंगलियाँ चाटता हुआ

मैं टाट पर थोड़े हूँ
झूलती खाट में
सो रहा हूँ तेरे पास
इतने पास
कि मेरा पेट गुड़गुड़ाया
तो मैंने सोचा मेरा है
भोर तक यहीं हूँ

तू साँस छोड़ेगी
तो भींज उठेगी मेरी कोंपलें
मेरी खुरदुरी उंगलियाँ
नींद की रोई तेरी आँखों पर
काँप-काँप जाएँगी
और तू
झपकी भर नहीं जगेगी रात में

मैं जा रहा हूँ पगली
तेरे खुलने से पहले
उजास में घुल रही है मेरी आँख
छोना मटका तो मान लेना
मैं आया था
घोर अँधेरे तपते तीर की तरह आया था


रात भर प्यासा रहा 

'जनसत्ता'संपादक के नाम श्री अशोक वाजपेयी का पत्र

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'जनसत्ता'में 17 सालों से प्रकाशित होने वाला स्तम्भ 'कभी कभार'बंद हो गया. इससे अधिक समय से जनसत्ता में सिर्फ 'देखी सुनी'स्तम्भ का ही प्रकाशन हुआ है. इस सन्दर्भ में श्री वाजपेयी ने जनसत्ता संपादक को एक पत्र लिखा है, जो हमारे सूत्र से हमें प्राप्त हुआ है. आप भी पढ़िए और देखिये कि किस तरह से जनतांत्रिकता के स्पेस सिमटते जा रहे हैं- मॉडरेटर 
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प्रिय श्री भारद्वाज,
कल मुझे आपके सम्पादकीय सहयोगी डॉ. सूर्यनाथ सिंह का फोन पर यह सन्देश मिला कि आप ‘कभी कभार’ स्तम्भ स्थगित कर रहे हैंऔर इस बारे में मुझसे बात करेंगे. इस बारे में बात करने की कोई ख़ास जरुरत नहीं है. यह आपका सम्पादकीय फैसला है जिसका आपको पूरा अधिकार है. 1997 में तब के संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र मेरे घर आये थे और उन्होंने जनसत्ता में नियमित रूप से लिखने का आग्रह किया था जिस कारण कभी कभार शुरू हुआ. उसके बाद के संपादक श्री ओम थानवी के इसरार पर मैं हाल तक लिखता रहा. इस वर्ष उसके अबाध गति से नियमित चलने के 18 वर्ष हो जाते. हिंदी में शायद ही किसी और स्तम्भ की आयु और निरंतरता इतनी लम्बी रही है. आप तीसरे संपादक हैं. आपने उसे समाप्त करने का फैसला किया है. जाहिर है तीनों ने ही अपने विवेक और स्वभाव के अनुरूप कार्य किया है. आप पर कोई राजनैतिक दबाव पड़ा होगा ऐसी अटकल अभी मैं नहीं लगाता.
अपने फैसले की सूचना सीधे मुझे न देकर आपने अपने सहयोगी का सहारा लिया और अभी पिछले शनिवार को उन्हीं से मुझे यह फोन करवाया कि पिछले रविवार की क़िस्त नहीं मिली है. मैं जयपुर में था और इतनी शाम कुछ नहीं हो सकता था. मैंने चेक किया वह क़िस्त हस्बे-मामूल आपके दफ्तर के चौकीदार को मेरा ड्राइवर देकर आया था और उसकी पावती वहां के रजिस्टर में दर्ज है. सालों से यही प्रथा रही है और इसमें कभी कोई चूक या देर नहीं हुई है. वह क़िस्त नहीं छपी तो वह आपके फैसले का पूर्वरंग ही था: न छपने को लेकर मेरे पास सारे देश से बीसियों फोन आये. आपको यह स्वांग करने की कतई जरुरत नहीं थी. आप कुछ महीनों से संपादक हैं, मैं 75 वर्ष की आयु का हूँ और आपके अखबार का सबसे पुराना- लम्बा 18 साल से अधिक वर्षों से स्तंभकार हूँ. आपको मुझसे सीधे बात कर अपना फैसला बताने का सौजन्य बरतना चाहिए था. आप निश्चिन्त रहें: आपके चाहे अनुसार मैं आपके सम्मान्य अखबार में ‘कभी कभार’ स्तम्भ तत्काल समाप्त कर रहा हूँ. पिछली क़िस्त जो आपके दफ्तर में कहीं पड़ी होगी मुझे वापस कर दें: मेरे पास उसकी प्रति नहीं है और आपके पास वह किसी काम की न होगी. उसको लेकर स्वांग तो हो ही चुका है.
आपसे कभी भेंट नहीं हुई. आपने एक बार फोन पर अलबत्ता कहा था कि ‘आपके शब्द तो मोतियों जैसे टंके होते हैं और उसमें कटौती हम नहीं कर सकते. पर नए ले आउट के कारण जगह कम हो गई है और आप तीन के बजाय ढाई पृष्ठों में ही क़िस्त लिखें. मैंने उसके अनुसार कम लिखना शुरू किया. आपने उसमें, फिर भी, कुछ क़तर-ब्योंत करना शुरू किया. ‘जनसत्ता’ ने साफ़-सुथरी सटीक हिंदी भाषा की एक यशस्वी परम्परा बनाई थी. आपने उससे विरत होकर बाकी हिंदी अखबारों की खिचड़ी हिंदी का प्रयोग बढ़ाना शुरू कर दिया. ‘जनसत्ता’ हिंदी का सबसे बौद्धिक और सांस्कृतिक अखबार था: आपने उसकी इस छवि को भी व्यर्थ मानकर उसका रूप घटाना शुरू किया. लगता है सोचने-समझने वालों में उसकी अपठनीयता दिनोंदिन बढ़ रही है पर हो सकता है मैं यह सब अपनी कुन्दजह्नी, तंगदिली और कमनजरी में सोच-देख रहा हूँ: आपके पास बेहतरी के आंकड़े होंगे.
अंत में, मैं ‘जनसत्ता’ का बहुत आभारी हूँ कि उसने मुझे लगातार हर सप्ताह कुछ लिखने-सोचने-समझने-बूझने की जगह इतने वर्ष दी. इस अनुभव और अभ्यास ने मेरे साहित्यिक और सार्वजनिक जीवन को समृद्ध बनाने में मदद की—सम्प्रेषणीयता और सुथरेपन के कई नए पक्ष मैं समझ-बरत सका. उसमें प्रकाशित सामग्री से अनेक पुस्तकें तैयार हुईं और जो अपने ढंग की अनूठी पुस्तकें मानी जाती हैं.
‘जनसत्ता’ और आपके पथ शुभ हों ऐसी स्वस्तिकामना करता हूँ.
अशोक वाजपेयी


'जुगनी'की कहानी एक किस्म का आत्मअन्वेषण है

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फिल्म 'जुगनी'पर युवा लेखिका अनु सिंह चौधरीजी ने इतना अच्छा लिखा है कि पढने के बाद मैं यह सोच रहा था कि फिल्म अब कहाँ देखी जा सकती है. वह ज़माना तो रहा नहीं जब फ़िल्में सिनेमा हॉल में हफ़्तों टिकी रहती थी. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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एक लड़की टिकट विंडो पर खड़ी होकर जेनरल का टिकट मांगती है - पंजाब जाने की अगली ट्रेन का। पीठ पर बैगपैक, माथे पर झूलते बेतरतीब बाल, लेकिन एक किस्म की बेख़ौफ़ बेपरवाही। ये जुगनी की मुख्य किरदार है, विभावरी। दाएं का हाथ पकड़कर बाएं से पूछती एक लड़की एक लोक गायिका बीबी सरूप की तलाश में एक छोटे से कस्बे की चौखट पर चली आती है, और फिर एक अनजान गांव की ओर मुड़ जाती है। विशाल भारद्वाज की आवाज़ में डुगडुगीडुग गीत क्या शुरु होता है, एक यकीन बंध जाता है। अगले दो घंटे का सफ़र निराश नहीं करेगा।

ये वास्ते रास्ते झल्ले शहरां
रमते जोगी वाला कायदा
आवभगत में मुस्कानें
फ़ुर्सत की मीठी तानें
दाएं का हाथ पकड़ के
बाएं से पूछ के

ऐसी किसी फ़कीरन का एक सफ़र! किसी मलंग मस्ताने का एक सफ़र!

आप जब अपने किसी दोस्त की कोई रची हुई कोई चीज़ देख रहे होते हैं तो निष्पक्ष होकर उसे देख ही नहीं पाते। अपने दोस्तों की रचना में हमें अपनी ज़िन्दगी के अक्स दिखाई देते हैं - हमारी अपनी तकलीफें, अपनी उलझनें, अपने ग़म, अपने इश्क़। या फिर उसकी उलझनें, उसके ग़म, उसके इश्क़। शेफाली भूषण की फ़िल्म जुगनी की यही ख़ासियत है कि इसकी कहानी यूनिवर्सल है। एक न एक बार हम सब ज़रूर विभावरी हुए हैं अपनी ज़िन्दगी में। एक न एक बार ज़रूर मस्ताना-सा इश्क़ किया है हमने। नहीं किया तो ख़ाक जिया फिर।

जुगनी की कहानी है खोज है। एक किस्म का आत्मअन्वेषण। कई परतों में ये आत्मान्वेषण चलता रहता है। बीबी सरूप क्यों किसी पर भरोसा नहीं कर सकती? उसका बेटा मस्ताना फिर कैसे इतनी आसानी से यकीन कर लेता है - कुछ इस तरह कि नहाते हुए अपने आंगन में घुस आई एक अजनबी लड़की के सामने भी वो पहली बार में भी किसी तरह असहज नहीं होता। मस्ताना तरल है। सहज। निश्छल। अगर मस्ताना उत्कल नदी है तो विभावरी ठहरी हुई एक झील। दोनों एक-दूसरे से जुदा भी हैं, एक दूसरे में शामिल भी हैं। इसलिए ज़ुबानों का जुदा होना और सोच में अलग होना बेमानी हो जाता है। नदी और झील जहां मिलते हैं वहां की मिट्टी को उर्वर कर जाते हैं। इस उर्वर मिट्टी में रची-बसी मिट्टी की धुनें विभावरी चुनती है और उसे शोहरत के बाज़ार में ले जाकर जगमग कर देती है। मस्ताना और विभावरी के बीच का रिश्ता फिर भी एक-दूसरे को बांधने के लिए उत्कट नहीं होता। उस रिश्ते का नूर दोनों को अपनी-अपनी दुनिया को रौशन करते रहने का हौसला देता रहता है, और जुगनू की यही ख़ासियत है। ये फ़िल्म वो प्रेम कहानी नहीं जिसके सुखान्त होने की उम्मीद हो, या दुखान्त होने का अफ़सोस हो। मस्ताना और विभावरी जितनी देर साथ होते हैं, एक-दूसरे को रौशन करते रहते हैं। एक-दूसरे के अंधेरे रास्तों में जुगनू की कमज़ोर ही सही, लेकिन थोड़ी सी रौशनी बिखेरते रहते हैं।

विभावरी बेचैन है क्योंकि उसे वो नहीं मिल रहा जिसकी खोज में वो बीबी सरूप के दरवाज़े जा पहुंची है। मस्ताना उसे एक पीर की मज़ार पर ले जाता है। पीर की चौखट पर दुआ रख दी जाती है। सजदे में दीवाने लोग कव्वाली की चादर मज़ार पर बिछाए हैं। मैं नहीं जानती क्लिंटन सेरेजो कौन है। लेकिन जो भी फ़नकार है ये, कमाल है। वरना एक थिएटर हॉल में जमा हुए कुल जमा चार दर्शक एक कव्वाली यूं आगे झुककर इतनी तन्मयता के साथ नहीं सुनते। न सिसकियां भरते हैं, न वाहवाहियां लुटाते हैं, न राहत फतह अली ख़ान के नाम की दुआएं भेजते हैं।

निस दिन निस दिन निस्बत अल्लाह
अल्हड़ मैं पिया मोरा अल्लाह

अगर जुगनी पर भरोसा न भी बन पाए तो भी ये फ़िल्म विशाल भारद्वाज और ए आर रहमान के उस भरोसे के लिए देखी जानी चाहिए जिसके दम पर दो चोटी के मौसिकीकार इस फ़िल्म से जुड़ गए। जुगनी का संगीत उसकी कहानी की तरह ही दिल से बनाया गया है। उतनी ही शिद्दत से जितनी शिद्दत से हम किसी को डूबकर प्यार करते हैं। उसी ही ईमानदारी के साथ, जितनी ईमानदारी से हम बिना किसी अपेक्षा के, अनकंडिशनली प्यार करते हैं किसी को। उतने ही भरोसे के साथ, जिस भरोसे के साथ ख़ुद को सौंप देते हैं अपने महबूब के हाथ। जुगनी फ़िल्म मस्ताना और विभावरी के बीच उस एक सीन के लिए भी देखा जाना चाहिए जिसमें दो दुनिया के दो महबूब अलग-अलग रागों और ज़ुबानों में, लेकिन एक ही सुर में अपने किसी रूठे हुए महबूब को याद करते हुए एक-दूसरे की बांहों में निढाल हो जाते हैं। और फिर बुल्ले शाह हमारी आंखों के कोरों से ढुलक जाते हैं। अपने एक इश्क़ में जाने कितनी मोहब्बतों का ग़म जीते हैं हम, उसका बोझ ढोते हैं!

हट मुल्ला मैनूं रोक न
मैंनूं अपनी तोड़ निभावण दे
अपनी तोड़ निभाके मैनूं
घर कजरा दे जावणं दे
कजरी बनिया इश्क़ नी घट्टदी
मैनूं नच के यार मनावण दे
मैनूं नच के यार मनावण दे 

दो अलग-अलग ग्रहों के जीव अगर इश्क़ में, या फिर जुनून में, एक ही धरातल पर आ बैठें तो क्या होता है? इश्क़ का अंजाम गांठों में बांध दिया गया कोई एक रिश्ता ही क्यों हो? हम क्या ढूंढ रहे होते हैं ताउम्र? ये कैसी प्यास है जो बुझती नहीं, ये कौन-सी खोज है जो कभी पूरी ही नहीं होती? जुगनी फ़िल्म नहीं है, दरअसल वो जगमग रौशनी है जो विभावरी और मस्ताना के साथ-साथ हमारे रास्ते को भी जगमग कर उठती है. जुगनू ऐसे बेमानी सवालों के जवाब ढूंढने की कोई कोशिश नहीं करता। ये फ़िल्म जितना इसके किरदारों का सफ़र है, उतनी ही हमारी भी यात्रा है।

एक फ़िल्म की समीक्षा में हर किरदार और हर सीन पर टीका रचा जा सकता है। लेकिन जुगनी ये डिज़र्व नहीं करती। इस फ़िल्म को एक ही तरह से इज़्जत नवाज़ा जा सकता है - इस फ़िल्म के सफ़र को अपना निजी, बेहद निजी सफ़र बनाकर।

  

'एयरलिफ्ट'को ऐतिहासिक घटना से जुदा कर फिल्म रूप में देखा जाना चाहिए

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प्रसिद्ध लेखिका अनु सिंह चौधरीने 'एयरलिफ्ट'फिल्म पर लिखा है. वह बहुत संतुलित लिखती हैं. फिल्म को हर पहलू से देखते-समझते हुए. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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एयरलिफ्ट देखते हुए मैंने दो काम किए, पहला फ़िल्म के दौरान ही कुवैत इवैकुएशन गूगल किया और दूसरा, अपने फ़ोन में सीवान के उस एक शख़्स का नंबर तलाशने की कोशिश की जिसने एक बार एक स्टोरी के सिलसिले में मुझे खाड़ी युद्ध के दौरान कुवैत से भाग आने की कहानी सुनाई थी। नंबर तो मिला नहीं, लेकिन कुवैत इवैकुएशन पर जितनी जानकारी मिली उसने एयरलिफ्ट देखने के अनुभव को और रोमांचकारी ज़रूर बना दिया।

एयरलिफ्ट को एक ऐतिहासिक घटना से जुदा कर पहले सिर्फ़ और सिर्फ़ एक फ़िल्म के रूप में देखना ज़रूरी है क्योंकि फिक्शन फिक्शन ही होता है - अतिशयोक्ति और ओवरसिम्पलिफिकेशन, दोनों में रंगा हुआ। अक्षय कुमार अपने करियर, और अपनी उम्र के उस मोड़ पर हैं जहां उनसे किसी भी किस्म के किरदार में जान डाल देने की उम्मीद करना बेजां नहीं है। इस लिहाज़ से अक्षय ने यहां भी निराश नहीं किया। लेकिन जिस निमरत ने द लंच बॉक्स में इरफ़ान के साथ कहीं भी स्क्रीन स्पेस शेयर न करने के बावजूद उनके साथ एक ग़ज़ब की केमिस्ट्री दिखाई, या फिर जो निमरत आमिर बशीर के साथ चॉकलेट के एक ऐड में ऐसी ढली ही नज़र आती हैं जैसे कि ये दोनों स्पेस उन्हीं के लिए रचे गए हों, वही निमरत एयरलिफ्ट में उस स्पार्क के बिना दिखाई पड़ती है। ख़ासतौर पर फ़िल्म के शुरुआत में मुझे लगा कि अक्षय और निमरत के बीच के तनाव के अंडरकरेन्ट और उससे उपजनेवाले लम्हों की गुंजाईश को सिर्फ़ एक आइटम सॉन्ग डालने के चक्कर में पूरी तरह बर्बाद कर दिया गया है।

पूरब कोहली, प्रकाश बेलावड़ी, सुरेन्द्र पाल सिंह और क़ैज़ाद कोतवाल (जिनमें से तकरीबन सभी मंझे हुए थिएटर कलाकार भी हैं) अपनी अपनी भूमिकाओं में कमाल हैं। बस इराकी मेजर के तौर पर, बल्कि इराकी मेजर का एक कैरिकेचरनुमा किरदार जितनी बार स्क्रीन पर आता है, उतनी बार ग़ुस्सा आता है। इस लिहाज़ से शायद इसे कास्टिंग डायरेक्टर की सफलता ही मानी जानी चाहिए।

एक थ्रिलर के तौर पर हालांकि ये फ़िल्म फर्स्ट हाफ में निराश नहीं करती। आर्ट डिपार्हटमेंट ने हर बारीक डिटेलिंग पर ग़ौर फरमाया है। एक पीरियड फ़िल्म, वो भी किसी दूसरे देश को बेस बनाकर बनाई गई पीरियड फ़िल्म में, ग़लतियां बड़ी आसानी से हो सकती हैं। हालांकि फिर भी कहीं कहीं पर सेट जमता-सा नहीं लगता, ख़ासतौर पर साउथ ब्लॉक, विदेश मंत्रालय और विदेश मंत्री का दफ्तर तो बिल्कुल नहीं। क्या पता प्रोड्यूसर ने विदेश में शूटिंग करते हुए अपने बजट के बाहर जाकर सारे पैसे खर्च कर दिए हों, और हिंदुस्तान आते ही प्रोडक्शन बजट में कटौती करने का ख़्याल सताने लगा हो!

थ्रिलर का साउंड डिज़ाइन और बैकग्राउंड स्कोर फ़िल्म के संगीत से कहीं ज़्यादा बड़ी भूमिका निभाता है। अमाल मल्लिक और अंकित तिवारी के गानों की इस फ़िल्म में आख़िर क्या ज़रूरत थी, मुझे बिल्कुल समझ नहीं आया। उससे कहीं अच्छा होता अगर ये पूरी एनर्जी अच्छा बैकग्राउंड स्कोर तैयार करने में लगाई गई होती। इस फ़िल्म में अच्छे साउंड डिज़ाइन की कैसी ज़बर्दस्त संभावना थी! और उतने ही शार्पनेस के साथ एडिटिंग का काम होना चाहिए था, जो हुआ नहीं। इंटरवल के बाद फ़िल्म एकदम प्रेडिक्टेबल हो जाती है - इतनी कि थ्रिलर रह नहीं जाती। कम से कम तीन प्लॉट प्वाइंट्स ऐसे हैं जिनके अंजाम का अंदाज़ा लगाना बहुत आसान है।

एयरलिफ्ट के साथ फ़ैन्स दो खेमे में ज़रूर बंट गए हैं - एक खेमा व्हॉट्सएप्प और सोशल मीडिया पर अक्षय कुमार को सबसे बड़ा राष्ट्रप्रेमी बताते हुए उनके औदार्य के गुणगान में लगा है तो दूसरा खेमा अपने राष्ट्रवाद के नाम पर इतिहास की दुहाई देते हुए फ़िल्म की धज्जियां उड़ाने में लगा है। जो भी हो, इसका फ़ायदा फ़िल्म को तो मिला ही है। और हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि फ़िल्म चाहे सत्य घटना पर ही क्यों न आधारित हो, होती फ़िल्म ही है और फ़िल्मकार अपनी रचनात्मक स्वतंत्रता का इस्तेमाल करते हुए वैसी एक कहानी कहता है जिसमें वो ख़ुद यकीन करता है। इस लिहाज़ से मुझे राजा मेनन की ये कोशिश सार्थक लगती है क्योंकि उन्होंने कम से कम एक ऐतिहासिक घटना में एक ऐसे नायक की कल्पना कर ली जिसका हौसला हमें हिम्मत देता है। हमें इस बात का यकीन दिलाता है कि जिस देश, जिस सिस्टम और जिस ब्यूरोक्रैसी की नाकामियों पर हम दिन में कम से कम दस बार छाती पीटकर करुण क्रंदन करते हैं, उसी ब्यूरोक्रैसी का एक छोटा-सा हिस्सा बिना किसी शोहरत की आकांक्षा के अपना काम करता रहता है। अगर फ़िल्म के बेसिक प्रेमाइस पर यकीन करते हुए इस एक कहानी समझकर फ़िल्म देखी जाए तो एक बार को उस अस्थिर सरकार पर भी फ़ख्र होता है जिसने अपनी ओर से मुश्किल में पड़े मुल्कवासियों को वापस अपनी मिट्टी पर लाने के लिए इतनी बड़ी कोशिश की। उन दिनों सोशल मीडिया की ताक़त लोकतंत्र के पास थी भी नहीं, बावजूद उसके।

रंजीत कात्याल का किरदार काल्पनिक हो सकता है, ये तथ्य तो है ही कि एयर इंडिया अपने किस्म के अभूतपूर्व रेस्क्यू ऑपरेशन के ज़रिए वॉर ज़ोन में फंसे एक लाख दस हज़ार हिंदुस्तानियों को वापस ले आया था। मेरी तरह आपको भी ये सवाल ज़रूर परेशान कर सकता है कि डायरेक्टर ने बहुसंख्यकवाद का दामन पकड़कर एक उत्तर भारतीय हिंदू का काल्पनिक किरदार ही क्यों गढ़ा, एक दक्षिण भारतीय कैथोलिक को हीरो बनाने की हिम्मत क्यों नहीं की। लेकिन ये फ़िल्म अक्षय कुमार या किसी एक रंजीत कात्याल के नाम नहीं की जा सकती। ये फ़िल्म कोहली जैसे उन सैंकड़ों गुमनाम लोगों के नाम होनी चाहिए जिनकी वजह से पच्चीस साल पहले का वो इतना बड़ा ऑपरेशन मुमकिन हो सकता होगा। इब्राहिम भले कोई असली किरदार न रहा हो कोई, लेकिन फ़िल्म में इंसानियत को एक किरदार तो मिला है।


और एयरलिफ्ट की इस कहानी पर भरोसा बिना अम्मान एयरपोर्ट में तिरंगा फहराए भी हो सकता था।

साहित्य एक अनवरत यात्रा है- अवधेश प्रीत

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अवधेश प्रीत गंभीर लेखकों में से एक हैं जो अपने समय के जरूरी सवालों में हस्तक्षेप करते हैं और सक्रिय पत्रकारिता करते हुए हस्तक्षेप, नृशंस, हमजमीन, कोहरे में कंदील, और चांद के पार एक चाभी जैसे पांच कहानी संग्रह दिए. इनकी कई कहानियों का उर्दू में अनुवाद ही नहीं हुआ बल्कि कुछ का नाट्य-मंचन भी हुआ है. इनका पहला उपन्यास “अशोक राजपथ” जल्द ही आने वाला है. प्रस्तुत है विभिन्न सम्मानों से सम्मानित कथाकार अवधेश प्रीत से उनकी रचनात्मकता पर सुशील कुमार भारद्वाजसे हुई बातचीत का एक अंश:-
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-अपने साहित्यिक सफर को किस रूप में देखते हैं?
साहित्य एक अनवरत यात्रा है और मेरे लिए इसे मूल्यांकित करने का अवसर नहीं आया है क्योंकि यह अभी जारी है। हां,  इतना कहूंगा कि अब तक देश दुनिया में बहुत हलचल रही,  बदलाव आये। उसके कार्य कारणों की साहित्य ने पड़ताल की। मैंने भी अपने सामर्थ्य भर इस पड़ताल की कोशिश की। अब तक जो लिखा उसकी नोटिस ली गई। सामान्य पाठक से लेकर विद्वान आलोचकों तक ने मेरी
कहानियां पढ़ीं और सराहा। यह मेरे लिखे के प्रति स्वीकार है और यही मेरे श्रम की सार्थकता है। अभी बहुत कुछ लिखना है। बेहतर लिखा जाय यह प्रयास करना है। लिहाजा,  अब तक की यात्रा को मैं सिर्फ प्रस्थान बिन्दु के रूप में देखता हूं।


-आपकी कहानियों में या तो सामाजिक समस्याएं होती हैं या फिर अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत मुख्यपात्र. कोई विशेष कारण?

मेरे लिए लेखन सामाजिक सरोकारों से जुड़ना है। मेरा समाज, उसके यथार्थ , उसके संघर्ष और स्वप्न , मनुष्य की गरिमा और उसकी जटिलताएं , ये सब मेरेलिए , मेरे लेखन की प्रतिबद्धता है। जैसा नामवर सिंह कहते हैं, कहानीकार की सार्थकता इस बात में है कि वह युग के मुख्य सामाजिक अंतर्विरोधों के संदर्भ में अपनी कहानियों की सामग्री चुनता है। इस अर्थ में देखें तो मैं अपनी कथा सामग्री समाज से चुनता हूं , वह चाहे समस्या हो या मनुष्य । कह सकते हैं मेरी कहानी समाज की है , समाज के लिए है।

-आपकी कई कहानियों को पढ़ते समय मेरे जैसे पाठक अपने आंसुओं को रोक नहीं पाते हैं? अपने शिल्प–कला का कुछ रहस्य बताएं?

मेरी कहानियों में कोई कला- शिल्प नहीं है । न ही कोई रहस्य । आपका आॅब्जर्वेशन कितना गहरा है । कितना करीबी है और कहानी में जो कुछ भी है , वह कितना विश्वसनीय है , इन सबके योग से ही कहानी पठनीय और ग्राह्य बनती है । कोई कहानी जब किसी पाठक को अपनी, अपनो की लगने लगे तो जाहिर है , वह संवेदना को छूती है । मेरी कहानियां भावुक नहीं हैं। लेकिन उनमें जो भावनात्मक लगाव है , वह मेरी संवेदना का हिस्सा है , उससे अगर आप जैसा पाठक तादात्म्य महसूस करता है , तो मैं समझता हूं , यह मेरे लिखे की सार्थकता है । अगर एडुआर्डो गालियानो के शब्दों में कहूं तो जब कोई व्यक्ति लिखता है तो उस चीज की भर्त्सना करने के लिए लिखता है, जो कष्ट देती है और उसे साझा करने के लिए जिससे खुशी मिलती है । तो कह सकते हैं , यह रोना और हंसना लेखक और पाठक की साझीदारी है ।

-किस साहित्यकार ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया और लेखन के लिए प्रेरित किया?

यकीनन प्रेमचंद ने ही सबसे ज्यादा प्रभावित किया और कई कारणों ने लिखने के लिए प्रेरित, जैसे विद्रूप, विडंबनाओं के विरुद्ध लड़ने के लिए , प्रतिरोध के लिए मेरे पास लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । मैंने इसी लिए पेशा भी चुना तो पत्रकारिता को चुना । हां , लिखना और अपने लेखन के लिए , प्रेरणा के तत्व भी प्रेमचंद से ही मिले ।

-पत्रकारिता करते हुए लेखन कितना प्रभावित हुआ? कुछ लोगों का मत है कि आपने कम लिखा है?

पत्रकारिता के बारे में एक कहावत का उल्लेख करूं तो जर्नलिज्म इज अ हिस्ट्री इन हरी कहा गया है । इस तरह कह सकते हैं कि पत्रकारिता इतिहास की हलचलों के बीच रहते हुए अपने समय के स्याह- सफेद को करीब से जानने का माध्यम है । व्यवस्था और नागरिक के संबंधों की पड़ताल का अवसर है । इस लिहाज से पत्रकारिता मेरे लेखन में अपने समय की सच्चाइयों को जानने में
सहायक रही है । मेरे लेखन को पत्रकारिता ने इस अर्थ में प्रभावित किया है कि मैं ज्यादा आॅब्जेक्टिव तरीके से चीजों को देख पाया । रही बात कम मात्रा में लिखने की तो मेरी कहानियों के पांच संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और मैं नही समझता कि यह कुछ कम है । मात्रा महत्वपूर्ण नहीं है । क्या लिखा, कितना सार्थक लिखा और किस तरह अपने समय के जरूरी सवालों में हस्तक्षेप किया , यह महत्वपूर्ण है । मैंने ये तमाम कहानियां अपनी सक्रिय पत्रकारिता के दौरान ही लिखी हैं और समझता हूं , यह कुछ कम नहीं है ।

-बिहार में “हिंदुस्तान” जैसे एक प्रतिष्ठित अखबार के लिए लगभग 30 वर्षों तक कार्य करते हुए आपने काफी कुछ उतार–चढाव देखे होंगें. एक साहित्यकार होते हुए कैसा अनुभव रहा?

पत्रकारिता में , उसके स्वरूप में, कार्य प्रणाली में इस दौरान काफी मूलभूत बदलाव आये हैं । पत्रकारिता तकनीक की वजह से ज्यादा तेज और त्वरित हुई है । आज रीयल टाइम रिपोर्टिंग का जमाना है । अभी की खबर अभी । पाठकों के प्रति नजरिया बदला है । मध्य वर्ग, उच्च मध्य वर्ग जो उपभोक्ता है, वही आज पत्रकारिता की चिंता के केंद्र में है । हाशिये के लोग, किसान, मजदूर ये कहीं पीछे छूट गये हैं । मैंने महसूस किया है कि आज पत्रकारिता का मतलब मूल्य नहीं मुनाफा है । पत्रकारिता प्रोडक्ट हो गई है और प्रोडक्ट को बाजार की जरूरत होती है । बाजार में तो बिकाऊ चीजें ही चलती हैं । एक साहित्यकार के रूप में यही कह सकता हूं कि कि इस सबके बावजूद
पत्रकारिता ही आज भी आम आदमी की अंतिम उम्मीद है । इस उम्मीद के हवाले से मेरा अनुभव आश्वस्तकारी रहा है ।

-बदलते दौर में हिंदी साहित्य और बाजारवाद को किस रूप में देखते हैं?

हिन्दी साहित्य का मूल स्वर प्रतिरोध का स्वर है । इसके मद्देनजर कहूं तो बाजारवाद की जो बुराइयां हैं , हिन्दी में उसके खिलाफ काफी लिखा जा रहा है । बाजारवाद से आशय अगर हिन्दी लेखन में बाजार की मांग के मुताबिक लिखे जाने की उभरती प्रवृत्ति से है ,तो मैं कहूंगा कि यह बहुत शुभ नहीं है । इसके तात्कालिक लाभ हो सकते हैं । दूरगामी नहीं । हिन्दी का मिजाज बाजारू नहीं है । हिन्दी का पाठक बाजारोन्मुख लेखन को स्वीकार ही नहीं सकता ।



-आपकी कहानी पाकिस्तान में भी प्रकाशित हुई है?

हां, एक कहानी 'अली मंजिल'पाकिस्तान में छपी है ।

- “चांद के पार एक चाभी” इन दिनों काफी चर्चा में है? आप अपने शब्दों में इस संग्रह के बारे में क्या कहेंगें?

'चांद के पार एक चाभी 'संग्रह को पाठकों द्वारा पसंद किया जा रहा है, यह मेरे लिए संतोष की बात है । इस संग्रह की तमाम कहानियां हमारे समय के जरूरी लेकिन अनदेखी की गई सच्चाइयों को उठाती हैं । कहन के तरीके और पाठकीय अपेक्षाओं के अनुकूल होने की वजह से यह संग्रह लोकप्रिय हो रहा हो , हो सकता है । वैसे अपने संग्रह के बारे में मैं खुद कुछ कहूं , यह नैतिक नहीं है । पाठक ही इसके निर्णायक हैं ।

-आपका पहला उपन्यास “अशोक राजपथ” बाजार में आने से पहले ही लोगों की जुबां पर चढ़ने लगा है. इसके बारे में कुछ बताएं?

हां, मेरा उपन्यास 'अशोक राजपथ 'आनेवाला है । उसके कुछ अंश विभिन्न पत्रिकाओं में छपे हैं । यह उपन्यास पटना की एक मुख्य और प्राचीन सड़क अशोक राजपथ पर केंद्रित है । यह सड़क पुराने पटना और नये पटना को तो जोड़ती ही है, इसी सड़क पर पटना के तमाम शैक्षणिक संस्थान स्थित हैं । इन्हीं संस्थानों से लोग निकलकर सत्ता प्रतिष्ठानो तक पहुंचते हैं । कह सकते हैं , यह उपन्यास शिक्षा और सत्ता की लड़ाई पर केंद्रित है ।


- युवा पीढ़ी के साहित्यकारों के बारे में आपकी क्या राय है?

 मौजूदा पीढ़ी बेहतर लिख रही है । यह पीढी ज्यादा पढी़ - लिखी और दुनियादार है । ज्यादा सजग और समझदार है । बस, जल्दबाजी में कुछ ज्यादा दिखती है । सब कुछ तुरत फुरत पा लेने को आतुर । लेकिन दूसरा और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि नई पीढ़ी का लेखन बहु आयामी और बहुलतावादी है । मैं तो नई पीढ़ी के लेखन से सीखता हूं और लगता है कि अगर आपको अपडेट रहना है तो इन्हें पढ़ना और इनसे सीखना होगा । नई पीढ़ी का लेखन मुझे उत्साह से भरता है । नई रचनाशीलता संभावनाओं से भरी होती है । और संभावनाएं किसे प्रिय नहीं होंगी ?

न खिलाड़ी पैदा करना आसान है, और न स्पोर्ट्स फ़िल्में बनाना!

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'साला खडूस'नहीं देखी है तो प्रसिद्ध लेखिका अनु सिंह चौधरीकी इस रिव्यू को पढ़ लीजिये. इस विस्तृत रिव्यू को पढ़कर लगा कि फिल्म को देखा जा सकता है. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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आर माधवन के लिए हम इतने ही पागल हैं कि रामजी लंदनवाले और १३बी जैसी फ़िल्में भी देख लेंगे। ऐसा कौन सा माधवन फ़ैन होगा जिसको ओ सेक्सी मामा, वोन्ट यू डू द सारेगामा जैसा आइटम नंबर भी मुँहज़ुबानी याद हो? ऐसा कौन-सा माधवन फ़ैन होगा जो महीने में कम से कम एक बार रहना है तेरे दिल में और तनु वेड्स मनु के गाने लूप में ज़रूर ज़रूर ज़रूर सुनता हो? और ऐसा कौन-सा माधवन फ़ैन होगा जिसने माधवन पर लिखे गए एक चैप्टर के लिए रश्मि बंसल की पूरी की पूरी एक किताब का अनुवाद कर डाला हो? लोग रंग दे बसंती और थ्री ईडियट्स में बेशक आमिर खान के लिए चियर कर रहे थे, हमने तो पिच्चर हॉल में मैडी के नाम का झंडा उठा रखा था। हम मैडी के इतने ही बड़े फ़ैन हैं कि मैडी के फर्स्ट होने पर उतना ही जश्न मनाते हैं जितना मैडी के फ़ेल होने पर। इसलिए साला खड़ूस का बॉक्स ऑफिस रिव्यू हमारे लिए बहुत मायने नहीं रखता। और इसी बात पर हम साला खड़ूस पहले ही दिन देख आए - ताकि क्रिटिक्स के रिव्यू का हमारे भीतर के फ़ैन की मोटी चमड़ी पर कोई असर न पड़े।

साला खड़ूस में मैडी ने एक सेकेंड के लिए भी निराश नहीं किया है। कहानी लिनियर है एकदम। हिसार का एक खड़ूस अनकंट्रोलेबल मुँहफट बॉक्सर आदी तोमर असोसिएशन की पॉलिटिक्स का शिकार बनता रहता है। देश के लिए गोल्ड लाने का सपना तब धराशायी हो जाता है जब आदी का कोच ही उसके ग्लव्स को स्पाइक कर देता है। मैच के दौरान ग्लव्स से आंखें पोंछते ही आदी को कुछ दिखाई नहीं देता और वो मैच हार जाता है। उसकी ये खुन्नस बार बार उबाल लेती है। आदी को एक बार फिर पॉलिटिक्स दिल्ली के बॉक्सिंग सर्कल से बाहर निकाल कर चेन्नई फेंक देती है। चेन्नई में आदी क्या ख़ाक टैलेन्ट ट्रेन करेगा। लेकिन वो करता है, वो भी एक टैलेंट ढूंढ कर। एक मछुआरन लड़की मधी को वो अपना स्टूडेंट बनाने लेने के लिए राज़ी तो कर लेता है, लेकिन मधी के भीतर की आज़ाद लड़की का निश्छल खड़सूपन आदी के सारे खड़ूसपन पर भारी पड़ता है। लेकिन साला खड़ूस सिर्फ एक कोच और एक नए टैलेंट के बीच पनपते रिश्ते की कहानी नहीं है। ये फ़िल्म सिबलिंग राइवलरी, खेल में राजनीति, खिलाड़ियों की असली माली और सामाजिक हालत और एक युवा लड़की के जुनून की भी कहानी है। ये और बात है कि कई लेयर्स में चलनेवाली इस फ़िल्म में पूरी तरह से छाता आदी तोमर ही है।

अगर आर माधवन के लिए मेरी दीवानगी और मेरे भीतर की फ़ैन गर्ल को पूरी तरह निकाल भी दिया जाए तो इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि माधवन ने इस रोल में ऐसी जान फूंकी है कि अगली फ़िल्म तक उन्हें आदी तोमर वाले शरीर और मिज़ाज़ से ही याद किया जाएगा। फ़िल्म में माधवन की फ़िज़िकल और इमोशनल - दोनों मेहनत दिखाई देती है। गठा हुए बॉक्सर का शरीर, लंबे बाल, उबल-उबलकर बाहर आता गुस्सा - माधवन के इस वक्त बॉक्सिंग रिंग में उतार दिया जाए तो हम वाकई भूल जाएंगे कि ये आदमी सिर्फ़ और सिर्फ़ एक अभिनेता है। अपने रोल में इस कदर ढल जाने की यही ख़ासियत माधवन को सबसे जुदा बनाती है।

रीतिका सिंह और मुमताज़ सरकार - साला खड़ूस की दोनों लीडिंग लेडीज़ एक्ट्रेस कम और बॉक्सर ज़्यादा हैं। फ़िल्म के विकी पेज के मुताबिक डायरेक्टर सुधा कोन्गरा प्रसाद ने सुपर फ़ाइल लीग के एक विज्ञापन में रीतिका को देखा था, और तभी रीतिका को साइन करने का मन बना लिया था। इस लिहाज़ से दोनों लड़कियां निराश नहीं करतीं। अपनी अपनी भूमिकाओं में ज़ाकिर हुसैन और नासर भी फ़िट बैठते हैं लेकिन एक पूर्व कोच और असोसिएशन की कमिटी मेंबर के रूप में एम के रैना की फ़िल्म में ज़रूरत समझ में नहीं आती। इसी तरह फ़िल्म का म्यूज़िक भी निराश करता है। स्वानंद के बोल हमेशा की तरह हटकर हैं, लेकिन म्यूज़िक में ऐसा कुछ भी नहीं जो एक बार भी अलग से फ़िल्म का साउंडट्रैक सुनने के लिए प्रेरित करे। हालांकि मेलडी की कोई ज़ुबां नहीं होती, लेकिन मुझे लगा कि म्यूज़िक शायद साउथ के दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाया गया है।

क्योंकि फ़िल्म लिखा भी सुधा ने है, इसलिए डायरेक्शन और राइटिंग, दोनों पर बात करना लाज़िमी हो जाता है। साला खड़ूस की सबसे अच्छी बात मुझे ये लगी कि फ़िल्म में कहीं कुछ भी दबा-छुपा या 'subtle'नहीं है। चाहे वो पॉलिटिक्स हो, या कोचों की असली नीयत का बखान, या फिर मधी की गरीबी, या मधी और लक्ष्मी के बीच की कट्टर स्पर्धा - कहीं कुछ भी दर्शकों को समझने के लिए नहीं फ़ुटनोट के तौर पर नहीं छोड़ दिया गया। डायरेक्टर ने पूरी ज़िम्मेदारी के साथ, अपने पूरे रिसर्च के दम-खम पर, जो भी दिखाया है, सच्चाई के बहुत करीब ले जाकर दिखाया है। सुधा ने कहीं भी कुछ भी कैमोफ्लाज करने की कोशिश नहीं की, और इसलिए अपनी कुछ खामियों के बावजूद ये फ़िल्म अच्छी बन जाती है।

सवा सौ करोड़ वाली फ़िल्मों की इंडस्ट्री में हमारे यहाँ स्पोर्ट्स फ़िल्में वैसे ही बनती हैं जैसे हम सवा सौ करोड़ की आबादी के बीच से हम खिलाड़ी पैदा करते हैं। लेकिन न खिलाड़ी पैदा करना आसान है, और न स्पोर्ट्स फ़िल्में बनाना। आसान तो कुछ भी नहीं होता जनाब, लेकिन जुनून, ज़िद, हौसला और प्यार - ये वो चीज़ें होती हैं जो तमाम अड़चनों के बावजूद नामुमकिन को मुमकिन बनाती रहती हैं। किसी भी खिलाड़ी के साथ बैठने पर क़िस्सों और तजुर्बों का अथाह खज़ाना मिलता है। स्पोर्ट्समैन स्पिरिट में ज़िन्दगी जीने के कुछ गहरे राज़ छुपे होते हैं। साला खड़ूस उन्हीं राज़ की बातों का ज़ाहिर करती है हमारे लिए।


और सौ बातों की भई एक बात - अगर आप माधवन के फ़ैन हैं तो ज़ाहिर है, आपको ये फ़िल्म देखनी चाहिए। अगर आप माधवन के फ़ैन नहीं भी हैं तो भी आपको ये फ़िल्म देखनी चाहिए। गारंटी है कि आप हमारे मैडी के मुरीद हो जाएंगे।  

शब्दों के साधक की कृतित्व-कथा 'शब्दवेध'

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संयोग से हिंदी के पहले थिसॉरस ‘समान्तर कोश’ के प्रकाशन का यह 20 वां साल है. हमने अरविन्द कुमार जी को इसी के माध्यम से नए सिरे से जाना था. हाँ, यह जानता था कि वे मेरी प्रिय फिल्म पत्रिका ‘माधुरी’ के संपादक थे. हालाँकि वे जिस दौर में उस पत्रिका के संपादक थे उस दौर में मैंने ठीक से होश नहीं संभाला था. अलबत्ता जब पत्र-पत्रिकाएं पढना शुरू किया तो जिस पत्रिका का नियमित पाठक बना था वह ‘सर्वोत्तम’ था, रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण. बाद में पता चला कि उसके संपादक अरविन्द कुमार जी थे. मुझे अब भी याद है कि सर्फ़ के साथ ‘सर्वोत्तम’ के अंक घर में पहले फ्री आये और बाद में चाचा ने हम बच्चों की उस पत्रिका में रूचि को देखते हुए उसे घर में नियमित मंगवाना शुरू कर दिया था. लेकिन बड़ा हुआ तो ‘समान्तर कोश’ के माध्यम से उनसे एक नया परिचय हुआ.
उन्होंने अपनी कृतित्व-कथा का नाम ‘शब्दवेध’ उचित ही रखा है. हिंदी में कोश निर्माण के काम को जो मुकाम उन्होंने दिया है, वह अपन आप में किसी साधक पुरुष के काम सरीखा लगता है. यह एक ऐसा काम है जिसने उनके बाक़ी सारे कामों को पीछे छोड़ दिया. असल में जिस दौर में हिंदी भाषा में सबसे ज्यादा काम बढ़ रहा है, मीडिया में तथा अन्य क्षेत्रों में हिंदी का विस्तार हो रहा है उस दौर में अगर भाषा के बर्ताव को लेकर अरविन्द जी ने कोश नहीं बनाये होते तो इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि हिंदी में भाषा को लेकर कितनी अराजकता फ़ैल जाती. उन्होंने एक जेनेरेशन को भाषा के संस्कार देने का काम किया. मेरा तो यह मानना है कि पिछले 20 सालों में हिंदी में अगर सबसे उल्लेखनीय कोई काम हुआ है तो वह कोश के क्षेत्र में अरविन्द जी का योगदान है, जिसकी शुरुआत 20 साल पहले ‘समान्तर कोश’ के प्रकाशन के साथ हुई थी.

‘शब्दवेध’ किताब कहने के लिए उनके सम्पूर्ण कैरियर का लेखा-जोखा है जो कि शब्दों की दुनिया में ही बीता है. जीवन के अर्थों से ज्यादा शब्दों के अर्थों की तलाश में. इसीलिए यह किताब मूल रूप से कोशकारिता के उनके अनुभवों को साझा करने की एक विनम्र कोशिश की तरह है.

पुस्तक में एक लेख हरदेव बाहरी के ऊपर भी है, जिन्होंने भाषा को लेकर एक दौर में बड़ा काम किया था. उसके बाद हिंदी भाषा की एकरूपता, उसकी वर्तनी को लेकर सबसे अधिक काम निस्संदेह अरविन्द जी ने किया है. उस भाषा में भाषा को लेकर काम करना जिसके भाषा भाषी अपनी भाषा के प्रयोगों को लेकर जागरूक नहीं रहते. मुझे याद है कि मेरे गुरु मनोहर श्याम जोशी हमेशा कोश देखते रहते थे और हमें इस बात की सलाह भी देते थे कि भाषा के प्रयोगों के मामले में कोश को छोड़कर किसी और का भरोसा नहीं करना चाहिए. जवाब में अहम उनसे कहते थे कि हिंदी के सारे कोश बहुत पुराने हैं जबकि भाषा बहुत आगे बढ़ चुकी है. वे जीवित होते तो अरविन्द कुमार जी के कोशों का हवाल देते हुए कहते कि ये देखो तुम्हारे समय के कोश हैं.

अरविन्द जी माधुरी के संपादक थे और ‘शब्दवेध’ के अंतिम हिस्से में सिनेमा पर लिखे हुए उनके लेख है. देवदास फिल्म पर एक लेख है और गीतकार शैलेन्द्र के ऊपर भी, जो अवश्य पढने लायक टाइप है.
शब्दवेध पर विस्तार से फिर लिखूंगा. यह पहला परिचय है.
पुस्तक: शब्दवेध: शब्दों के संसार में सत्तर साल; लेखक- अरविन्द कुमार; प्रकाशक- अरविन्द लिंग्विस्टिक्स, संपर्क- 9810016568; मूल्य- 799 रुपये


रश्मि भारद्वाज की कहानी 'जलदेवी'

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रश्मि भारद्वाजकी कविताओं से मैं बहुत प्रभावित हुआ था. लेकिन उसकी इस कहानी ने मुझे चौंका दिया. किसी लोककथा की शैली में यह कहानी बढती चलती है, गाँव के जमीन से जुड़ी ठोस कहानी. मुझे गर्व होता है कि मेरी छोटी बहन इतना अच्छा लिख सकती है. ज्यादा लिखना नहीं चाहिए नजर लग जाएगी लेकिन वह लिखती रही तो हिंदी स्त्री-लेखन में एक बड़ा शिफ्ट पैदा कर सकती है. शुभकामनाएं रश्मि- मॉडरेटर 
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 जलदेवी
एक दिन वह अचानक कहाँ से आ गयी किसी को पता नहीं था। तेज़ बारिशों के संग आई थी वह। वह अचानक ऐसे ही प्रगट हो आई थी जैसे कि उस साल आई बाढ़ । अनामंत्रित,अनचाही,अप्रत्याशित। लोग कहते पानी के साथ बह आई है। कहाँ से,क्यों,इसका उत्तर उनके पास नहीं था ना ही कभी उसने कुछ बताया। हर प्रश्न के उत्तर में उसके पास बस उसकी सजीली आँखों का मौन था या फिर थी एक उन्मुक्त हँसी।
हफ़्ते भर की मूसलाधार बारिश ने गाँव के सीमांत पर बहती बागमती नदी का जलस्तर बढ़ा दिया था। तब सरकारी बांध नहीं बना था। गाँव वालों के हाथों बनी टीलेनुमा बांध की क्या मजाल थी जो पानी को रोक पाता। पानी हरहराते हुए गाँव में घुस आया। पूरा गाँव उस उफनते पानी की चपेट में ,ऊपर से गरजती बारिश। गाँव के बड़े-बूड़े चंद्रिका माई की सौगंध उठा कर कहते थे कि बीते बीस- पच्चीस सालों में उन्होंने इतनी भयंकर बारिश और नदी के पानी का ऐसा कहर नहीं देखा था। नदी जो जीवनदायिनी थी,सोने से चमकते अनाज के ढेर और पीने को ठंडा मीठा पानी देती थी ,आज शिव का रौद्र रूप धरे तांडव पर उतरी थी। ढ़ोर -मवेशी,कुत्ते,बिल्ली ,बर्तन- भांडे,कपड़े,फूस के कच्चे पक्के घर और इंसान ,हर ओर सब कुछ बहा चला जा रहा था । शायद यह धरती पर बढ़ रहे पाप का फल है! कलयुग सायद ऐसे ही बह जाएगा और फिर से नयी दुनिया बनेगी,भोला पंडा अपनी माला फेरते कहते ।
गाँव में बहुत कम जगहें थी जो ऊंची जगह पर  थी,जहां जाकर जान बचाई जा सकती थी। एक शिवालय की छत,एक चनरिका माई का टीला जो गाछी के बीचो-बीच बना था ,एक मिथिलेश ठाकुर जी की हवेली और दूसरे उससे सटे ही राम जीवन सिंह जी का पक्का बड़ा घर । उसे हवेली इसलिए नहीं कहा जा सकता था कि बाबू मिथिलेश ठाकुर की विशाल सफ़ेद संगमरमर सी हवेली के सामने वह लाल ईंटों और लाल-लाल खंभों के दलान वाला बड़ा सा मकान घर ही लगता था । अगर ठाकुर की जर्जर लेकिन गर्वोन्नत हवेली अपनी ऊंची नाक लिए बगल में नहीं खड़ी होती तो पहली ही नज़र में रामजीवन सिंह बड़ी हवेली के मालिक कहे जा सकते थे लेकिन ऐसी बांटने वाली सोच कभी उनके मन में नहीं आई थी । मिथिलेश ठाकुर के लिए उनके दिल में बड़े भाई का सम्मान था । सौतेली माँ के प्रकोप से बचने के लिए अपने पुरखों का घर और खेती बारी सब छोडकर अपनी नवब्याहता के साथ इस गाँव में बसने का फैसला रामजीवन सिंह के लिए आसान नहीं होता अगर मिथिलेश जी ने बड़े भाई से भी बढ़कर स्नेह और संबल नहीं दिया होता। रसोई के बर्तन,भांडे जोड़ने से लेकर बच्चों की कलमपकड़ाई तक हर कदम पर मिथिलेश जी का पितृवत स्नेह उनके साथ बना रहा। यही कारण था कि कई मतभेदों के बाद भी उनका सम्मान कभी ठाकुर साहब के लिए कम नहीं हुआ ।

सैकड़ोंबीघे की जमींदारी और बाग बगीचों के स्वामी थे मिथिलेश ठाकुर लेकिन गाँव वालों के बीच लोकप्रियता में रामजीवन सिंह से उन्नीस ही बैठते थे। गाँव में ब्राह्मणों के घर गिने चुने थे और भूमिहारों में थे बस इन दोनों के ही परिवार। बाकी पूरा गाँव इन दोनों के पुरखों द्वारा बसाया हुआ था और अधिकांश ऐसी जातियों के थे जिनके साथ छुआछूत बरतना ऊँची जाति वालों को घुट्टी में सिखाया जाता है। मिथिलेश ठाकुर की पत्नी राजकुमारी देवी छुआछूत की प्रथा को बड़े - बूढ़ों द्वारा दिए गए तिजोरी की चाभी के छल्ले सा ही संजों कर रखती। उनकी सास सुबह उठकर किसी नीची जाति का मुंह भी देख लेती तो दिन भर कोई नया काम शुरू नहीं करती। राजकुमारी देवी का राज आते आते हालात बदलने लगे थे। गांव में ऐसे भी ऊँची जाति के परिवार नाममात्र को थे। ऊपर से दिल्ली कलकत्ते से आये पैसों ने वहां की हवा बदल दी थी। जमींदार न अब उतने जमींदार रह गए थे न उनकी प्रजा उतनी प्रजा। नए आये पैसों ने सत्ता के समीकरणों को बदला तो नहीं था लेकिन रस्सियाँ ढीली जरूर हो गयीं थीं। मसलन घर में बरतन बासन करने को अब जल्दी कोई तैयार नहीं होती। ऊपर से राजकुमारी देवी के नखरे कौन झेले कि सीरा घर ( पूजा घर ) के पास मत जाओ ; चूल्हा मत छुओ । खुल के ना कहने की ताकत अब भी नहीं आई थी लेकिन बहाने नित नए बनाये जाते , 'मलकाइन जी , पेट में पत्थर है , काम नाहीं होत हैं , डागटर बाबू कह रहे पहिले पत्थर निकलवाओ। अब हरिया पइसा भेजे तो आपरेसन करवाएं गरमी के बाद ।'ऐसे ही अनंत बहाने। तंग आकर राजकुमारी देवी ने अपनी बहिन के यहाँ से एक विधवा बंगालिन ब्राह्मणी मंगवाई थी। वह सिलीगुड़ी की थी,  आगे पीछा कोई नहीं। यहाँ रहने को घर , घी चुपड़ी दो वक्त की रोटी और राजकुमारी देवी की उतारी धोती मिल रही थी। औरत को इससे ज़्यादा के इच्छा नहीं पालनी चाहिए। यह बात उसे ज़िन्दगी ने छुटपन में ही सिखा दिया थाइसलिए साल भर से इस हवेली की दुधारू गाय बनी थी। बहुत कुछ चुपचाप पी जाती थी। अपमान , दुःख , भय , असुरक्षा और बहुत कुछ।
 साफ़ सफाई का रोग राजकुमारी देवी में अब अपनी सीमा पार कर गया था। नौकर चाकर दबी जुबान में कहते कि बाल बच्चा हुआ नहीं , यह सब नेम निष्ठाकहीं न कहीं उसी का मलाल है। गोल कमरा बंद कर घन्टो नहातीं। ब्राह्मणी पानी ढोते ढोते हलकान हो जाती। खाने में एक बाल भी निकल आता तो पूरी तरकारी दुबारा बनती।  बाज़ार से आए सिक्के तक धोतीं।
वह तो बहुत बाद में ही जान पायी ब्राह्मणी कि राजकुमारी देवी के सफ़ाई के लिए इस बढ़ती सनक के पीछे उनका और मालिक का दिनों दिन बिगड़ता रिश्ता है। इसी बहाने मलकाइन ख़ुद को भुलाए रखती हैं । ईश्वर जाने कमी किसमें थी  लेकिन मालिक ने दूसरी शादी भी नहीं की। पर जाने क्या बात थी कि मलकाइन से बस खाने पीने की जरूरतों के अलावा कोई बात ही नहीं होती थी!रात को दालान वाले कमरें में मलकाइन पहले दूध का गिलास थमाने तोजाती थीं लेकिन अक्सर हीरोती लौटती और ख़ुद को गोल कमरे में बंद कर लेती। ब्राह्मणी के आ जानेपर धीरे- धीरे उन्होंने यह काम भी बंद कर दिया। खाना परोस पंखा झलती रहतीं फिर ठाकुर साहेब कीछोड़ी हुई थाली में अपना भोजन निकाल लेतीं। ब्राह्मणी को आश्चर्य होता कि तब उन्हें सफाई की बात क्यों नहीं सूझती थी ! जूठी थाली का बचा हुआ भोजन ऐसे ग्रहण करतीं जैसे प्रसाद खा रही हों । फिर खाना खाकर गिलास भर मलाई वाला दूध ब्राह्मणी के हाथों में थमा ख़ामोशी से अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लेती थी।
उस ख़ामोशी का अर्थ क्या था और यह कौन सा अनकहा समझौता था , ये तो ब्राह्मणी को ज़ल्दी ही पता चल गया , जब एक बार पैर दबाते उसके हाथों को ठाकुर ने कस कर पकड़ लिया और ....
अगली सुबह ब्राह्मणी राजकुमारी देवी से नज़रें नहीं मिला पा रही थी लेकिन वो ऐसे बर्ताव करती रहीं जैसे कि सब सामान्य हो और तो और ख़ुद ही मालिक के पसंद की पपीते के कोफ्तेबनाने लगीं। बाकी पर्दे भी हट गए जिस दिन ठाकुर साहेब ने उसे कुछ सफ़ेद गोलियां थमाई और खाने का तरीका समझाया।
प्रजा पऊनी अपनी हद में रहे  राजा की बरक्कत और रुतबा उसी में है । यह सोच ठाकुर साहब के अंदर गहरी थी । उन्हें यह हमेशा याद रहता कि वह जमींदार है। उनका ओहदा अक्सर उनके अंदर के इंसान से टकरा बैठता और जीत अहंकार की ही होती। ठाकुर साहब ठाकुर ज़्यादा रह जाते और इंसान थोड़े से कम हो जाते। उनके अंदर बैठा मर्द एक स्त्री शरीर को भोग तो सकता था,बिना उसके जात या स्तर का विचार किए लेकिन वह उनकी संतान की माँ भी हो सकती है,यह सोच तक गवारा नहीं थी उन्हें। पत्नी पर उन्होने रहम खाया था दूसरी शादी नहीं करके लेकिन संतान नहीं देने के लिए उसे कभी माफ़ भी नहीं कर पाये थे। शरीर की भूख जागती तो यहाँ वहाँ भटकते। हाय रे गृहलक्ष्मी ! पति के एहसान तले दबी उसने वह इंतज़ाम भी घर में ही कर दिया था और सब कुछ चुपचाप ख़ामोशी से पी गयी थी। ये अलग बात है कि यह सब करते हुए कलेजे पर रखे पत्थर ने उन्हे थोड़ा और पत्थर बना दिया था।
जबकि इसके ठीक उलटरामजीवन सिंह और उनकी पत्नी शुभरूपा देवी को जीवन के थपेड़ों ने ऊंच नीच की दीवारों के परे जाकर इंसान के दिलों में झांकना सिखा दिया था।  सौतेली माँ की मार और गालियों ने बचपन में ही रामजीवन सिंह के हृदय और पैरों की जकड़न खोल दी थी। भूखे पेट मार खाकर सुबकते हुए जब घर से भागते तो दिन भर कभी किसी के घर मडुवे की रोटी खाते , कभी कहीं नोनी का साग और ख़ुदिया चावल का भात। न जाति पूछते न भूखे पेट ने कभी यह सोचा। सारे  बेवजह के नियम कायदे भरे पेट वालों की अय्याशी हैं । भूखे पेट तो दिल और दिमाग को सिर्फ एक ही बात सूझती है - रोटी। फिर न जाति मायने रखती है  न नियम कानून , न ईश्वर।
कच्ची उम्र में विवाह के बाद शुभरूपा देवी ने भी बड़े बुरे दिन देखे। कहने को जमींदार घर में ब्याही गयी थी लेकिन सास सामने बैठकर घी-मिठाई खाती और उन्हें  सूखी रोटी भी मुश्किल से नसीब होती। एक दिन रामजीवन सिंह ने तय कर लिया कि बस अब और नहीं। रातों रात सामान समेटा और पत्नी को लिए दादा की बसाई रैय्यत के एक टुकड़े में झोपडी डाल ली।वह दिन और आज़ का दिन। जो अरजा अपनी मेहनत और शुभरूपा देवी के मज़बूत लेकिन स्नेहिल संग साथ की वजह से । पाई पाई जोड़कर खेत –खलिहान ख़रीदा। घरौंदा सजता गया। वह सारा सम्मान मिला जो शायद पिता की छोड़ी हुई जमींदारी संभाल कर नहीं मिलता। जमींदारी के साये से निकालकर उन्होंने आम आदमी की जिंदगी को नज़दीक से देखा। उनका टूटना , बिखरना लेकिन फिर भी हार नहीं माननासीखा। उनकी नयी जमींदारी इस नए गांव के लोगों के दिलों में थी। यही वजह थी कि हारी बीमारी , आपदा , सुख दुःख के सभी पल बांटने गांव वाले भागे जाते थे रामजीवन सिंह की ड्योढ़ी पर। चाहे दुखवा मुसहर कोमाँ के इलाज के लिए पैसे चाहिए या कि शंकरहलवाई को नयी दूकान जमाने की जगह। 

इस बार की भयंकर बाढ़ में गाँव वालों को कोई आसरा याद आया तो वह रामजीवन सिंह का घर ही था। शुभरूपा देवी ने अपने दिल की तरह ही अपने घर का दरवाज़ा भी खोल दिया और पत्तों की तरह बहे जा रहे लोगों को एक ठौर मिली , उम्मीद जगी कि बच गए तो फिर बसा लेंगे उजड़ गया घोंसला। घर के कमरे , आँगन , दालान हर तरफ लोग ही लोग और पोटलियों में सिमट आया उनका अब तक का जोड़ा संसार। 
घर से लगे गलियारे में खपड़े की छत पड़ी थी। वहाँ मवेशियों के चारे रखने की जगह के अलावा दो तीन अतिरिक्त कमरे भी बने हुए थे,जहाँ गाय -भैंसे बाँधी जाती थीं। आज़ वहाँ पचास से भी ज़्यादा लोग अंटे पड़े थे। क्या मुसहर , क्या दुसाध क्या कहार हो कि कुर्मी ! इनके बीच आपस में भी जो रोटी- बेटी की दीवार खड़ी रहती थी , आज़ भहरा गयी थी। घर के पीछे बाड़ी का भी यही हाल था। जो थोड़ी सी भी जगह मिल रही थी लोग बाग वहीँ दुबके पड़ रहे थे। विपत्ति ने इंसान और जानवरों का फ़र्क भी मिटा दिया था।
जीवन कितना कीमती है इसका भान आपदाओं के समय ही होता है जब अपने आँखों के आगे लोग अंतिम साँसें लेते दिखते हैं। जीवन जीने के आदी हो जाते हैं हम । मान लेते हैं कि सब कुछ हमेशा के लिए है । तभी जैसे कोई अज्ञात शक्ति एक गहरे धक्के के साथ मानो नींद से जगातीहै कि कुछ स्थायी नहीं है। उधार पर मिली है ये साँसें जिसे जब चाहे ब्याज के साथ लौटाने की ताकीद कर सकता है ऊपर वाला।
'जाने है भी कि नहीं वह ऊपर वाला !' विधवा रूकिया काकी जिसका एकलौता बेटा दिल्ली कमाने निकल गया था , अंचरा से धार- धार बहते आंसू पोंछते कहती , 'होता तो देखो कभी न डूबने वाला चनरिका माई का टीला अभी दिखाई भी नहीं पड़ता ! वह बूढा बरगद जो विष्णु जी के छतनार शेषनाग सा फन काढ़े माई की रक्षा करता था। गांव की जाने कितनी पीढ़ियों ने वहां झूले डाले थे।  सुहागनों ने लाल चुन्नियां बांधते हुए अपने नयी जीवन की डोर माँ के हाथों थमाई थी , आज़ नाती पोतों वाली हुईं , कितनी तो भरी पूरी जिंदगी देख स्वर्गधाम को पधारी इस बार की बाढ और बारिश ने गांव के उस बूढ़े वामनको कुछ यूँ गिराया जैसे कि भातो दुसाध की महीने भर पहले डाली झोपड़ी बही हो। अपनी इन्हीं अभागल आँखों की देखी बता रही हूँ। वो उधर भतुआ का रात दिन की मेहनत के बाद नयी बहुरिया के लिए डाला छप्पर बहा और तेज़ बिजली चमकी और फिर ऐसी भयंकर आवाज़ , ऐसी....  कि आज़ तक नहीं सुनी। फिर अन्हार छा गया। गांव का सबसे बुजुर्ग जिसने पीढ़ियों को सींचा चला गया था।रुकिया काकी कहती जाती और ज़ार ज़ार रोती। रोते हुए अक्सर हमें बीता बिसरा हुआ सब याद आने लगता है। दुःख आवाज़ दे कर कई और पीड़ा के पलों को बुला लेते हैं और फिर आँखें  अनायास ही झर झर बहना शुरू हो जाती हैं । काकी बूढ़े बरगद के लिए रोती जाती कि अपने बीते दिनों को याद में जब काका बरगद की डार पर सावन में  चुपके से झूले डाल आते थे। शाम को काकी दिशा मैदान के बहाने सखियों संग उस झूले पर पेंग भरती,संजों लाती खुले आसमान के टुकड़े और ताज़ी हवा के झोंकें,या कि रोतींभातो के नए अंखुआए सपनों के बह जाने पर....  यह कौन जाने !
और ऐसे ही जब चारों ओर पानी ही पानी था। रामजीवन सिंह के दरवाजे की लाल और ठाकुर जी के दालान की संगमरमर की सफ़ेद सीढ़ियाँ तक पानी में डूबी थीं। दोनों घर किसी तैरते जहाज़ से दिखते थे और उनके अंदर फंसी थी सैकड़ों जिंदगियाँ। आकाश में बैठे लाखों, नहीं रामपुर वाली दादी तो कहती है कि इंद्रदेव के महाशंखों हाथी लगातार अपने असंख्य सूँड़ों से पानी उलीचे जा रहे थे और बड़ी बूढ़ियों की आँखों से भी रिस रहा था उतना ही पानी। वह उसी पानी में कहीं से बहती चली आई थी। 
वह माने जाने कौन ! जाने कहाँ से आई थी ! पानी  में बह रहे सैकड़ों चीज़ों और मुर्दा जानवरों के साथ बहती हुई लेकिन जिन्दा। गेंहुआ रंग जो भूख , थकन और कीचड़ से सांवला पड़ गया था। रूखे  , जटाओं से केश और चिथड़ी रंग उडी साडी , जो उसके शरीर को ढकने में असमर्थ थी। इतने पानी में भी वह साबूत खड़ी साँसें ले रही थी और ख़ुद को घेरे खड़ी कौतूहल से भरी आँखों को देखकर खिल-खिल हंसे जा रही थी। लोग उसे यूँ हँसता देख हैरान थे या उस भयंकर बारिश में जिन्दा बह आने पर , वो ये तय कर पाने में असमर्थ थे। नाम पूछने पर भी वहीँ हंसी। घर बार , पिता -पति ! उत्तर वही हंसी। शुभरूपा देवी झट से चादर ले आई और उसे ढक दिया। कीचड़ में सनी होने के बाद भी उसकी देह फटे कपड़ों में झांकती लोलुप आँखों को मूक आमन्त्रण दे रही थी। एक जवान गेहुँआ देह अपने पूरे स्त्री सौंदर्य के साथ। शुभरूपा देवी उसे कपड़े से ढांपढूंप कर अंदर लें आयीं। अंदर आते ही वह भहरा कर गिर पड़ी। उसे संभालते ,चौकी पर लिटाते शुभरूपा देवी ने जो देखा तो घोर आश्चर्य में पड़ गईं।  हाथों से उस अनजान और भूख से बेदम हुई लड़की के लिए लाया दूध का गिलास टन्न की आवाज़ के साथ गिर पड़ा । वह पेट से थी। कृशकाय शरीर और अंधेरे की वजह से अब तक कोई यह भांप नहीं पाया था।

पूरे तीन दिन की भयंकर बारिश के बाद भी आकाश थका नहीं था ।  ज्यों राजा इंद्रदेव अपने हाथियों को सुस्ताने का आदेश देना भूल गए थे । लोग अपने अपने दुःख भूल उसे घेरे खड़े थे। वह एक आश्चर्य थी ! अब हँसी रुक गयी थी उसकी। कुछ भी पूछे जाने पर अपनी काली लंबी बरौनियों को तेज़ तेज़ झपका देती थी जैसे कह रही हो कि तुम्हारे सवाल मेरे लिए बेमानी हैं। अनुभवी कल्यानी काकीने आँखों ही आँखों में इशारा दिया कि पूरे पेट से है । बच्चा आने को पूरी तरह तैयार है लेकिन इ तो बतहिया जैसा कुच्छो समझ बूझ ही नहीं रही। बस फिक्क फिक्क हँसे जा रही है,काकी की पेशानी पर चिंता की सघन लकीरें थीं और आँखों में आँसू।
  तब सबने झाँका उन सुंदर लेकिन भावविहीन आँखों मेंजो वाकई खाली थीं बस ढेर सारा पानी था वहाँ जो हँसते हुए भी गिरता और रोते हुए भी । जब इंसान पर सुख दुःख असर करना बंद कर देते हैं तो वह अपने रोने हंसने को भी परिस्थितिओं के नियंत्रण से मुक्त कर देता है। जब चाहे दिल खोलकर हँसता है , जब चाहे उन्मुक्त होकर रोता है। वह भी शायद उसी स्थिति को पा चुकी थी। तो क्या वह वाकई बतही थी !
 गाँव वालों की खुसुर पुसुर को अनसुना करती अब वह बुक्का फाड़े रोए जा रही थी। नदी और स्त्री कभी कभी ही अपनी सीमाएँ तोड़ती है लेकिन जब भी तोड़ती हैं , दुनिया डोल उठती है। आज़ दोनों अपनी सीमाएं भूल चुकी थी। नदी अपने लिए तय किए गए किनारों को छोड़ कहर बरपाने पर आमादा थी और एक अनजान लड़की नौ महीने का पेट लिए  विक्षिप्त अवस्था में शुभरूपा देवी के दरवाज़े ठौर मांगने पहुंची थी।   
शुभरूपा देवी की नींदें उड़ गयी थी उस बच्ची को न अपने शरीर का होश था न अपना ,कैसे संभालेगी अब इसे !  ईश्वर का यह कैसा न्याय है और कौन होगा यह हृदयहीन जो इस फूल सी कोमल लड़की को इस हाल में छोड़ गया ! शुभरूपा देवी सोचती जाती और आँखों से झर झर अश्रू बहते जाते। उसके सिर पर हाथ फेरती और मन ही मन माता को अनगिनत मन्नतें मान डालती । इस अनजान नन्ही से लड़की के लिए उनके दिल में अपार स्नेह उमड़ आया था । लोग अभी अपने दुख से उबर भी नहीं पाये थे लेकिन उस अनाम लड़की का दुख उन्हें खुद से बड़ा लगने लगा था । कोई चाह कर भी उससे नफ़रत या संदेह की दृष्टि से नहीं देख पा रहा था। यह शायद उन साफ़,निष्कलंक दिखती आँखों का असर था कि कोई कुछ भी गलत सोचने को तैयार नहीं था या फिर बुरे हालात जिन्होने लोगों को एक अदृश्य स्नेह की डोर में बांध दिया था। सुख में अक्सर हम ख़ुद को अकेला कर लेते हैं लेकिन हमारा दुख हमें हर किसी के दुख से जोड़ता है। सामान्य दिनों में शायद उस लड़की को दो अच्छे बोल तो क्या माफ़ी भी नहीं मिलनी थी लेकिन चारों ओर हरहराते पानी और दिन रात बहते आकाश ने सबके दिलों की नफ़रत भी ज्यों धो डाली थी। हर सिर प्रार्थना में झुके थे ,हर हाथ जुड़े हुए थे। अब उनकी प्रार्थना में वह भी शामिल थी। 
ऐसी बातों के पंख लगे होते हैं। वो उड़ते - उड़ते हर कान से टकराती जाती हैं। जिसने भी सुना हतप्रभ रह गया। यह हालत और देव का ऐसा विधान ! 
ब्राह्मणी से यह ख़बर सुनकर राजकुमारी देवी ने मुंह बिचकाया , 'और खोलें उस बतहिया के लिए अपने घर के दरवाज़े ! जाने कहाँ का पाप उठा लायी है ! बिना कुल गोत्र जाने , नाम पता जाने घर में पनाह दे दिया इन लोगों ने। ऐसा भी क्या धर्मात्मा बनना ! अब क्या करेगी धर्मपुर वाली इस मुसीबत का !'
ब्राह्मणी ने एक ठंडी सांस भरी और रोटियाँ सेंकने लगी। वह कभी चाह कर भी मलकाइन या ठाकुर साहब से घृणा नहीं कर पायी। जो दूर से देखते हैं वह क्या जाने,ब्राह्मणी रोज़ दो ऐसे लोगों को देख रही थी जो हालात कि कठपुतली  बने ख़ुद को झूठे आडंबर की दीवारों में जकड़े बैठे थे। बाहर से मज़बूत दिखते ये दोनों अंदर से उतने ही खोखले और खाली थे लेकिन उनका अहंकार उन्हें न एक दूसरे का दुख समझने दे रहा था न किसी और का।
बाढ़ आने के बाद ठाकुर जी ने रामजीवन सिंह के घर जाना बहुत कम कर दिया था । ब्राह्मणी भी दूध देने जाती तो चुपचाप पी लेते और उसे जाने का इशारा करते। राजकुमारी देवी से पहले ही संवाद नहीं के बराबर था। दोनों एक घर में रहते हुए भी अपने अपने किनारों में कैद थे और ब्राह्मणी इनके बीच का सेतु बनी एक अनकही व्यवस्था में चुपचाप अपना योगदान दिये जा रही थी। उनका अंदर ही अंदर घुटना देख रही थी । उनकी उस अनकही पीड़ा की साक्षी थी जिसकी निर्माता भी वो दोनों ख़ुद ही थे। वह ख़ुद सताई हुई थी लेकिन उसे ख़ुद से ज़्यादा सताई हुई राजकुमारी देवी लगतीं जो अपने सामने ही अपनी सौत को चुपचाप झेल रहीं थीं । ठाकुर के साथ गुजारी रातों ने ब्राह्मणी को एक ऐसे इंसान से मिलवाया था जो अंदर से बहुत कमजोर है । स्त्री के साथ गुजारे अंतरंग पलों में ही एक पुरुष को समझा जा सकता है ,या तो वह वहशी दरिंदा बन उठता है या फिर एक असहाय शिशु । रात को ब्राह्मणी ठाकुर साहब की माँ की जगह ले लेती थी,उनकी सारी कमजोरियों ,असुरक्षा और अकेलेपन को ख़ुद में समेटती हुई । शोषित ही रक्षक बन जाता । फिर कहाँ बची रहती कोई  नफ़रत,कोई क्षोभ !     
उसके आने के अगले ही रात फिर भयंकर बारिश हुई। उधर आसमान चीख रहा था उधर वह दर्द से छटपटा रही थी। कल्याणी चाची ने जल्दी से गरम पानी लिया और शुभरूपा देवी उसे अपने अंदर वाले कमरे में ले गयी। उधर बच्चे के रोने की आवाज़ घर में गूंजी और जैसे आसमान भी सकते में आ गया। घनघोर बारिश अचानक ही थम आई। उसने अपनी जैसी ही एक कोमल,फूल सी बच्ची को जन्म दिया था। कल्याणी चाची साफ़ सफ़ाई कर बच्ची को शुभरूपा देवी की गोद में दे आई। उसकी माँ तो उसके होने से भी बेसुध चुपचाप पड़ी छत को घूरे जा रही थी।
 भोर की पहली किरण के साथ ही शुभरूपा देवी ने बच्ची की सूरत देखी और ज़ोर से चिहुँक पड़ी जैसे काला लहराता नाग देख लिया हो। गोरा रंग,भूरे घुँघराले बाल और गहरी भूरी आँखें। ओह! एकदम वही चेहरा ,वैसा ही रंग ,वैसे ही केश और वही आँखें ! वह धम्म से खाट पर बैठ गईं। बंद आँखों से पानी झड़ने लगा। हाय ! विधाता,यह क्या दिखा रहे हो !
उसी दिन वह जैसे आई थी वैसे ही अचानक कहीं चली गयी थी। उसे जाते हुए किसी ने नहीं देखा । सब नन्ही बच्ची में मगन थे । वह अचानक ऐसे चली गयी जैसे बच्ची को उसकी सही जगह पहुंचाने भर के लिए आई हो ! जैसे उसके आने का एकमात्र उद्देश्य ही यही था और कुछ न समझना –बूझना भी उसके इसी उद्देश्य का हिस्सा। जैसे वह कभी कुछ भूली ही नहीं हो। नहीं तो यह कैसे याद रखती कि उसे कहाँ जाना है! कहाँ उसे और उसके नवजात को ठौर मिलेगी ! वह साधारण स्त्री नहीं थी । इस भयंकर पानी में जब कोई बाहर कदम तक नहीं निकालने की  हिम्म्त कर सकता था । वह चली गयी थी या डूब गयी थी ! आज़ सालों बाद भी कोई नहीं जान सका उसका सारा सच ।
बच्ची के जन्म और उसकी रहस्यमयी माँ की ख़बर सुन कर राजकुमारी देवी भी ख़ुद को रोक नहीं पायी । उन्हें ड्योढ़ी पर देखते ही घबरा कर शुभरूपा देवी ने बच्ची के मुंह पर कपड़ा डाल दिया लेकिन कुछ सच पर्दे डाल देने से भी नहीं छुपाए जा सकते। राजकुमारी देवी ने बच्ची के चेहरे पर पड़ा कपड़ा  हटाया और अचानक उन्हें लगा कि पृथ्वी डोल रही है ठीक वैसे ही जैसे कि एक बार उनके छुटपन में डोली थी। आँखों के आगे अन्हार छा गया था और कुछ सूझ नहीं रहा था। वह कुछ पल निष्प्राण सी खड़ी रहीं और फिर ढह गयी। शुभरूपा  देवी ने नहीं संभाला होता तो धरती पर जा गिरतीं।
वह नवजात शिशु अगर उनकी कोख से जन्म लेती तो भी शायद ऐसी ही होती । बिलकुल वही केश ,वही रंग ,वही गहरी भूरी आँखें मालिक जैसी । मिथिलेश ठाकुर के जैसी !
आज़ जाने कितने दिनों बाद वह धार-धार रोयीं थी जैसे अब तक जमा मन का सारा ताप बहा देना चाहतीं हों । जैसे कि पत्थर पिघलता हो अंदर कोई और जलधारा फूट फूट निकली जाती हो । मालिक ने यह क्या किया ! यह कैसी सज़ा दी उम्र भर की उन्हे,ख़ुद को और उस अनजान लड़की को । किन पलों ने उन्हें सारी मर्यादाएँ भुलवा दीं और वह अपनी भूख के आगे अपना इंसान होना भी भूल गए!  क्या उनका ख़ुद का अन्तःकरण अब उन्हे माफ़ कर पाएगा ! क्या वह माधोपुर वाली अनाथ श्यामा दुसाधन थी जहां मालिक अक्सर बटेदारी वसूलने जाते थे ।उसके साथ तो बाकायदा प्रेम संबंध ही जी रहे थे मालिक ।  साथ गए अपने पति रामा नाई से सब हाल सुनकर नाईन ने गोर रंगते हुए कई बार दबी ज़ुबान में मालिक की एक रखैल होने का इशारा नहीं दिया था ! राजकुमारी देवी के रोने पीटने और और घर में ही यह ब्राह्मणी वाली व्यवस्था उपलब्ध करवाने के बाद ठाकुर ने माधोपुर जाना साल भर से छोड़ रखा था।  तो क्या वह श्यामा ही थी या कोई और ! अब सारे सवाल माने खो चुके थे । उत्तर मिलते भी तो उनका अर्थ खो चुका था । इस बार की बाढ़ सब कुछ बहा ले जा चुकी थी – उनका झूठा मान सम्मान ,उनके आडंबर ,उनके बड़े जतन से छिपाए गए सच । सब कुछ बह चुका था और ठाकुर परिवार नंगा खड़ा था अपने खोखलेपन के साथ। अपनी नकली मर्यादा और झूठे उसूलों की भहराई हुई दीवार के साथ ।
और फिर उस गाँव ने वो देखा जो कभी किसी ने न देखा था न सोचा था। आने वाली कई पीढ़ियाँ जिसे सुन कर आश्चर्य से आँखें चौड़ी कर लेती हैं । रोती हुई राजकुमारी देवी जाने किस भावावेश में उठीं और बच्ची को छाती से चिपटा लिया । सारा जीवन एक सज़ा की तरह काट चुकी राजकुमारी देवी मन ही मन मिथिलेश ठाकुर की सज़ा तय कर चुकीं थीं । वह जानती थी कि मिथिलेश ठाकुर को उनके इस गुनाह की सज़ा नहीं दी जा सकती थी । जो दे सकती थी ,वह जाने कहाँ जा चुकी थी । शायद रामजीवन सिंह भी बड़े भाई के स्नेहवश कुछ नहीं बोलते लेकिन अपने अन्तःकरण से बढ़कर कोई बड़ी अदालत नहीं होती ।  अपने सामने बड़ी होती बच्ची को देखकर अब ठाकुर साहब हर पल पछतावे की आग में जलेंगे। बच्ची को छाती से चिपटाए उन्हें एक असीम सुख की अनुभूति हो रही थी। वह जिसे पाप की औलाद समझती थीं ,उस बच्ची ने उन्हें आज़ ख़ुद से मिलवाया था । जिसकी माँ को वह बतही समझती थीं ,वह जाते हुए उन्हें आईना दिखा गयी थी कि बतही तो वो ख़ुद भी थीं जो औरत नहीं रहकर एक लाश बन गईं थीं । पुरखों की हवेली में विक्षिप्त घूमतीं,उनके द्वारा छोड़े गए झूठे आडंबर और ओहदे को ढोती हुईं।   
पानी उतरने लगा था । लोग बाग धीरे –धीरे फिर से अपने उजड़े घरौंदे को सजाने के लिए तिनका-तिनका जोड़ने में जुट गए थे । रुकिया काकी चनरिका माई के अस्थान पर अपने बूढ़े,कांपते हाथों से एक बरगद का पौधा रोप आई थी । गाँव मे जलदेवी आई है । वह नहीं रहेगीं लेकिन यह पौधा जल देवी के साथ बड़ा होता आने वाला कल देखेगा ।उसके नन्हें हाथों की छाप पड़ने पर मुस्काएगा और उसके पैरों में बजते नुपूर की झँकार सुनता रोज़ थोड़ा-थोड़ा बड़ा होता जाएगा । रुकिया काकी जानती थी की वह आने वाला कल आज़ से ज़्यादा उजला,ज़्यादा चमकदार होगा क्योंकि रोशनी को रोकने वाली जर्जर दीवारें पानी के साथ ढह गईं थीं। 




   
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