अखिलेशदेश के जाने-माने चित्रकार हैं. हिंदी साहित्य की गहरी समझ रखते हैं, लिखते भी हैं. उन्होंने बच्चों को पढ़ाई जाने वाली हिंदी की पाठ्यपुस्तकों का विश्लेषण किया है. यह विश्लेषण हमें गहरे सोचने को विवश करता है कि आखिर हम अपने बच्चों को कैसी हिंदी पढ़ा रहे हैं? एक जरूर पढने लायक लेख- मॉडरेटर
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कुछ वर्ष पहले मेरे कवि मित्र ओम शर्मा ने बतलाया कि उसके पुस्तकालय में उसके पिता की दूसरी,तीसरी,चौथी और पाँचवीं कक्षा की हिन्दी की पुस्तकें मौजूद हैं। उत्सुकतावश मैं उन पुस्तकों की फ़ोटोकापी ले आया। भोपाल में मैंने आज इन कक्षाओं में चल रही हिन्दी की किताबें खरीदीं और एन.सी.ई.आर.टी. की किताबें भी खरीदीं। इन पुस्तकों के पाठ्यक्रम में परिवर्तन चौंकाने वाले हैं। आज की इन पुस्तकों की छपाई आधुनिक तक्नालाॅजी मौजूद होने के बावजूद भी निकृष्ट और अविचारित है। इन पुस्तकों की प्रस्तुति में लापरवाही और ग़ैरजिम्मेदारी हर पृष्ठ पर बिछी है। निहायत ही खराब काग़ज़ पर छपी इन पुस्तकों में से कुछ में,और जाहिर है कई में,छपाई तिरछी और बेघरबार है। तीन रंगों या चार रंगों में छपी पुस्तकों के चित्रों में रंगों की सिघाई ठीक न होने से उनकी छपाई में हर रंग अपनी जगह से बाहर है। इन किताबों को,जो उसकी अपनी मातृभाषा की किताबें हैं,देखकर ही छात्र के मन में दूसरी कक्षा से ही नफरत पैदा होना शुरू हो जायेगी। वह अपनी मातृभाषा के प्रति ही नहीं,बल्कि सभी चीज़ों से व्यवहार नफरत और एक निश्चित दूरी से अनजाने ही शुरू करेगा। उसके मन में वितृष्णा पैदा होगी। मैं अभी तक इसकी सामग्री पर नहीं गया हूँ। वह तो और डरावना है। अभी इसकी रूपरेखा,प्रस्तुति,छपाई और साज-सज्जा,जो कि बाहरी बातें हैं,उसी पर बात कर रहा हूँ।
दूसरी कक्षा की किताब है,मतलब बच्चों की किताब है,अतः इसके सभी पृष्ठों पर गुब्बारे क्यों छपे होने चाहिए,यह मैं समझ नहीं सका। गुब्बारों के साथ कुछ चिथड़ेनुमा बेमतलब के आकार,गोदा-गादी भी हर पृष्ठ पर है। इस पुस्तक में छपे चित्र,रेखांकन देखकर किसी भी बच्चे के मन में सहज ही आत्महत्या करने का विचार आ सकता है। यदि नहीं आया तो वह अपने जीवन में कभी चित्रों को नहीं देखना चाहेगा। बच्चों के लिए बचकानी पुस्तक बनी हुई है। उसमें बिला वजह आकल्पन किया गया,बिना सोचे बदरंग डाले गये। नीचे न जाने क्यों बहुत सारी गुड़ियाओं के चित्र छपे हैं। दूसरे कवर पर भारत का संविधान किसके लिए छपा है,पता नहीं चलता। दूसरी कक्षा के बच्चे तो अभी वर्णमाला सीख रहे हैं। सोलह लोगों की ‘स्थायी समिति’द्वारा अनुमोदित इस पुस्तक का हर अंश भर्त्सना के लायक है। प्रिण्ट लाइन में छपा है,आकल्पन- गणेश ग्राफिक्स ने किया है। ये गणेश ग्राफिक्स,रोशन कम्प्यूटर्स में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। एक संस्था ने ही इसका आकल्पन किया। स्थायी समिति में एक भी चित्रकार नहीं है,जो पुस्तक के आकल्पन आदि पर नज़र रख सके कि वो स्तरीय है या नहीं। पूर्व कुलपतियों और शिक्षाविदों से भरी यह सोलह सदस्य की स्थायी समिति बिल्कुल अन्जान है इस पुस्तक की प्रस्तुति के लचर और स्तरहीन होने से। इस समिति में इन लोगों को यदि बाहरी साज-सज्जा का ज्ञान या व्यावहारिक समझ नहीं है तो अन्दर जो उत्पात हुआ है उसकी खबर कैसे होगी?पुस्तक के पहले ही पृष्ठ पर ‘माहवारी’छपी है। इससे पता चलता है कि दूसरी कक्षा के बच्चे को अप्रैल माह में क्या पढ़ना चाहिए,जो वह जुलाई में नहीं पढ़ सकता। हर मास में मासिक मूल्यांकन होगा, यह इस ‘माहवारी’का स्थायी ठेका है।
यहाँ मैं रुककर दूसरी कक्षा का जो पाठ्यक्रम 1927में अंग्रेज़ों ने तय किया था,उसका वर्णन करना चाहता हूँ। यह पाँचवाँ संस्करण है।
देखने में पुस्तक निहायत ही साधारण साज-सज्जा के साथ छपी है। सुरुचिपूर्ण काले सफेद कुछ रेखांकन हैं,जो स्तरीय हैं। छियानवें पृष्ठ की यह पुस्तक मोटे हरफों में छपी है। पाठ एक के बाद दूसरा निरन्तर छपे हैं। इसमें कुल ग्यारह कविताएँ हैं,जिसमें एक प्रार्थना है,एक पहेली है,बाकी विभिन्न विषयों पर जिसमें तितली,गिलहरी,सवेरा,बनावटी बाघ, सेम और इमली आदि परिचयात्मक कविताएँ हैं,नशे से नुकसान,गड़रिये का लड़का और भेड़िया,मुन्ना और मिट्ठू,उपदेश आदि कविताएँ नैतिकता की जानकारी देती हुई हैं।
पुस्तक में ज्ञानवर्धक पाठ हैं- हमारा शरीर,हवा,नारियल,रेलगाड़ी, लोहा,नमक आदि और नीति-शिक्षा देते हुए मिहनत का फल,गरीब आदमी और उसकी कुल्हाड़ी,घमण्ड से हानि,मेल से लाभ,आपस की फूट,चार अलाल,किये का फल आदि।
पूरी पुस्तक में रुचि से चुने गये पाठ हैं जिसमें दूसरी कक्षा में पहुँचा बालक जो वर्णमाला सीख चुका है,जिसे वर्णमाला में मात्राएँ लगानी आती हैं,उसके लिए पाठ है। कविताएँ सरल और झटपट याद होने वाली तुकान्त कविताएँ हैं।
अब हम ‘भाषा भारती’की सामग्री देखते है। ‘माहवारी’खत्म होते ही आयुक्त,मध्यप्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र का एक लेख है- ‘पुस्तक के बारे में’,जिसमें इस पुस्तक की उपयोगिता के बारे में सफाई दी गई है और यह भी बताया गया है कि छात्रों,पालकों,शिक्षकों और भाषा विषेषज्ञों द्वारा मिले सुझावों को आधार मानकर पुस्तक को नये कलेवर में रचा गया है। पूरी सफाई हास्यास्पद इसलिए हो जाती है कि पुस्तक आपके हाथ में है और वह कुछ और ही कह रही है। पहला पाठ प्रातःकाल है,जिसका एक निहायत ही गन्दा-सा चित्र छपा है,जिसमें प्रातःकाल का चित्रण है ही नहीं। फिर उस चित्र को देखकर उसमें शिक्षण संकेत पढ़ना है,जैसे उसमें बने कबूतरों को कौव्वों की तरह ढूँढ़ना है। पहला पाठ ही चित्र पहचानने का है और चित्र नदारद हैं। चित्र के नाम पर जो भी छपा है,उससे मातृभाषा कैसे सीखेगा,ये कोई स्थायी समिति नहीं बता सकती। इसके बाद वर्णमाला छपी है और शिक्षण संकेत हैं कि बच्चों को क्रम याद करवायें। वर्णों की पहचान और उच्चारण। फिर मात्रा कौन कहाँ लगती है का पाठ। यानी कुछ भी सुविचारित नहीं है और इसलिए पहले सफाई दी गई है,मानो स्थायी समिति अपराधियों की है। वर्णमाला दूसरी कक्षा में सिखाई जा रही है।
कुल नौ कविताएँ हैं- आना मेरे गाँव,मेरा घर,मैं गाँधी बन जाऊँ,अगर पेड़ भी चलते होते,ऋतुएँ,गुड़िया,कौन मेरा देश,बाग की सैर आदि। इसमें बहुत ही मज़ेदार यह है कि कई कविताएँ संकलित हैं,उनका कोई लेखक नहीं है और कई पाठ लेखकगण ने लिखे हैं। इस किताब में ऐसा कुछ नहीं है जो बच्चों के लिए प्रेरणादायी हो और उनके मानसिक विकास में सहायक हो सके। बच्चों से ज़्यादा यह पुस्तक शिक्षक के लिए है,जिसे मान लिया गया है कि वह कामचोर और अज्ञानी है,अतः हर जगह निर्देष दिये हुए हैं।
अब एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तक देखी जा सकती है। ‘रिमझिम-2’,इसका नाम ‘रिमझिम’पढ़कर ही मुझे पता चला कि किसी अदृष्य,अप्रकाशित डिक्शनरी में मातृभाषा का पर्यायवाची शब्द ‘रिमझिम’है। ‘2’तो मैं जानता ही था,‘दो’ही है। दूसरी कक्षा के लिए। इसमें और ‘भाषा भारती’में फ़र्क सिर्फ़ इतना हैजितना भोपाल और दिल्ली में छपी पुस्तकों के बीच हो सकता है। पुस्तक का प्रारम्भ आमुख से होता है,जिसमें यहाँ भी निदेशक सफाई दे रहा है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहरी जीवन से जोड़ा जाना चाहिए और यह उस किताबी ज्ञान के खि़लाफ़ पहल है। यानी स्कूल जेल या सुधारगृह हैं जिसमें बच्चे बाहरी जीवन से कटे रहते हैं। यह आशा भी पहले ही पैरा में है कि ‘ये कदम हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986)में वर्णित बाल केन्द्रित व्यवस्था की दिशा में दूर तक ले जायेंगे।’और ये पुस्तक सफलतापूर्वक बच्चों को मातृभाषा से बहुत दूर ले जाती है। प्रयत्नों की सफलता की जिम्मेदारी प्राचार्य और अध्यापक पर डाल दी गई है। इसी में पता चलता है कि पाठ्य-पुस्तक ‘निर्माण’समिति भी है,मानो पाठ्यपुस्तक नहीं कोई बहुमंजिला भवन है,जिसका निर्माण हो रहा है। फिर कई लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए एक ‘निगरानी समिति’का पता भी चलता है। इसके तत्काल बाद ‘बड़ों से बातें’की जा रही हैं,जिसमें सिर्फ़ बकवास की गई है और क्यों की गई है,यह समझ नहीं आता। इसी में बड़ों को बताया गया है कि ‘रिमझिम’रंगीन आकर्षक चित्रों से सजी है। चित्र भाषाई कौशल को विकसित करने में सहायक हो सकते हैं,यह बात भी यहाँ पता चलती है। तीन पन्नों की बकवास के बाद आभार का एक पृष्ठ और भी है। फिर बड़े अक्षरों में घोषणा है ‘पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति’की।
इसके बाद सबसे मज़ेदार पृष्ठ है,जिसमें बच्चों को बतलाया गया है पुस्तक में इस्तेमाल हुए चित्र संकेत के बारे में। कुछ निहायत ही साधारण किन्तु अत्यन्त ही निकृष्ट चित्र छपे हैं,जो जिस बात के ‘संकेत’हैं वह लिखा है। मतलब भाषा नहीं सीखना है,संकेत सीखने से मातृभाषा आ जाती है। इसमें नौ कविताएँ हैं,जिसमें ‘चित्र संकेत’के अनुसार तीन सिर्फ़ पढ़ने के लिए हैं,बाकी चार पढ़कर कुछ करने के लिए भी हैं। ऊँट चला,म्याऊँ-म्याऊँ, बहुत हुआ,तितली और कली,टेसू राजा बीच बाजार,सूरज जल्दी आना जी। इसमें प्रार्थना गायब है और साथ ही नीति शिक्षा देने वाली या पहेली पूछती रोचक कविताएँ नहीं हैं। यह किताब भालू ने फुटबाल खेली,अधिक बलवान कौन,दोस्त की मदद,मेरी किताब,बुलबुल,मीठी सारंगी,बस के नीचे बाघ,नटखट चूहा और एक्की-दोक्की जैसे पाठ लिये है,जिसकी सफाई निदेशक महोदय शुरू में दे देते हैं कि यह सब बच्चों को स्कूल के बजाय जीवन से जोड़ने के लिए किया जा रहा है। आत्मग्लानि से भरी ये दोनों समितियाँ या तो स्वनामधन्य विषेषज्ञों की हैं या जुगाड़ू लोगों की हैं,जो आने वाली पीढ़ियों को अपनी मातृभाषा से काटने के लिए बनायी गयी है,जो ग़ैरजिम्मेदार और भारतीय संस्कृति और भारतीय संस्कृति में छिपी वैश्विक समझ और गहराई से नितान्त अपरिचित है। हम आगे देखेंगे कि इन्होंने बुनियादी शिक्षा में ही खोट पैदा कर दी,जो अंग्रेज़ नहीं कर रहे थे। उनके पाठ्यक्रम सुविचारित और भारतीय मानस के अनुरूप थे। उन्होंने अपनी मिशनरी चालाकी ज़रूर बरती है एकाध पाठ में,जहाँ एक हिन्दू और एक मुसलमान विद्यार्थी की तुलना में एक ईसाई विद्यार्थी समाजसेवा का बड़ा काम करता है,जबकि हिन्दू और मुस्लिम विद्यार्थी सिर्फ़ एक व्यक्ति की सहायता करते दिखलाये जाते हैं। किन्तु फिर भी पाठ और कविताओं का एक स्तर है और चुनाव सावधानीपूर्वक किया गया है,जिससे बच्चे का मानसिक विकास हो सके।
मैं तीसरी और चौथी कक्षाओं के विस्तृत वर्णन में न जाते हुए पाँचवीं कक्षा की पुस्तकों पर सीधा आता हूँ और जहाँ उन्नीस सौ सत्ताईस में गुलामी के दौरान अंग्रेज़ों की देखरेख में पाँचवीं के विद्यार्थी के लिए छपी पुस्तक,हिन्दी भाषा की पुस्तक,जो किसी अंग्रेज़ की मातृभाषा नहीं है,उसके गुलामों की मातृभाषा है,के प्रति भी वे जवाबदार दिखलाई देते हैं। उनमें इस सभ्यता और उसके मानदण्डों के प्रति जागरूकता दीखती है,जबकि आज़ाद हिन्दुस्तान के ‘काले अंग्रेज़’अपनी मातृभाषा के प्रति निहायत ही गै़रजवाबदार,ग़ैरजिम्मेदार और लापरवाह दिखते हैं। अपनी आने वाली पीढ़ी के मानसिक विकास को अवरुद्ध कर उसे शंकित,भटका हुआ और भ्रमित कर रहे हैं ताकि वो बड़ा होकर कुछ और बने या न बने, बलात्कारी ज़रूर बन सके। आत्मग्लानि से भरे आत्मतुष्ट ये पाठ्य ‘निर्माण समिति’के सदस्य ज़्यादा हास्यास्पद,ज़्यादा ग़ैरजिम्मेदार और ज़्यादा बचकाने हैं। इनकी नज़र में यह देश हिन्दी के लेखकों से खाली हैं।
अब देखते हैं- पाँचवीं का पाठ्यक्रम। इसके पहले एक नज़र डालते हैं तीसरी चौथी के पाठ्यक्रम पर जिसमें हिन्दुस्तानी सभ्यता की विभिन्नताओं को लेकर कई पाठ हैं और भिन्न विषयों पर भी ज़ोर दिया गया है। राजा हरिष्चन्द्र,श्रीकृष्ण और कंस,रामचन्द्र जी,महारानी विक्टोरिया,अकबर बादशाह,श्रवण कुमार,राजा दशरथ,भीष्म प्रतिज्ञा,दिल्ली दरबार,कौरव-पाण्डव,पृथ्वीराज,अकबर-बीरबल,रानी दुर्गावती, महाराणा प्रताप,तुलसीदास,महाराज जार्ज पंचम,कोलम्बस,पन्ना धाय,राजा भोज,नल और दमयन्ती की कथाएँ तो हैं ही,साथ ही ज्ञानवर्धक,नीति शिक्षा पढ़ाने वाले पाठ भी हैं। चौथी कक्षा की कविताओं में मैथिलीशरण गुप्त,तुलसीदास,ब्रजवासीदास और गिरधर कविराज आ चुके हैं। ज्ञानवर्धक पाठ में काँ,घड़ी,सोना,काग़ज़ जैसी वस्तुओं के अलावा होली,दीवाली,पर्वत और मैदान,नर्मदा नदी,ताजमहल,कलकत्ता,दशहरा,सरकस,दिल्ली,जगन्नाथ पुरी की यात्रा,पुतलीघर आदि अनेक विषयों पर सादगी भरे सीधे सारगर्भित पाठ हैं जिनसे जानकारी और ज्ञान दोनों बच्चों को भरपूर मिले। इसका ख्याल रखा गया है। हिन्दी भाषा की ये पुस्तकें जानकारी और ज्ञान के साथ-साथ उसे संस्कारित भी कर रही हैं। इन्हें पढ़कर छात्र अपने देश की परम्पराओं,मिथकों,कहानियों और सांस्कृतिक विभिन्नता से परिचित हों इसका ध्यान रखा गया हैं। उन्हें पता चलता है कि वे एक लम्बी परम्परा के वंशज हैं। दूसरी,तीसरी,चैथी और पाँचवीं कक्षाओं में पढ़ाये जाने वाला पाठ उनके मन-मस्तिष्क को समृद्ध करता है,उन्हें एक विरासत का हिस्सेदार बनाता है। यही समय है जब वह अपने बारे में जानना-समझना शुरू करता है और अपने को एक सन्दर्भ में पहचानना शुरू करता है। यही समय है जब वो देश-दुनिया के सन्दर्भ में खुद को देखता है।
आज की मध्यप्रदेष राज्य षिक्षा केन्द्र और एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों में कोई क्रमबद्धता नहीं दिखलाई देती है। उनका उल्लेख समय और धन की बर्बादी है। इच्छुक पाठक स्वयं खरीद कर पढ़ लें। क्रमवार दूसरी से पाँचवीं कक्षा तक कविताओं का चयन देखना समीचीन होगा,जो बेहद खराब और दिग्भ्रमित है।
पहले की पुस्तकों की कुछ ही कविताओं का उल्लेख किया है। इन कविताओं में एक तरह का क्रम नज़र आता है। दूसरी कक्षा में सवेरा,उसकी कुल्हाड़ी,चूहों की सभा,नशे से नुकसान जैसी सीधी याद होने वाली कविताएँ हैं,जिसमें छंद और तुक मिलाने से कविता में रवानगी है,जैसे-
बड़े चैन से सब रहते थे
मानुष से न कभी लड़ते थे।
पर उन सबमें था जो छोटा
किया काम उसने यह खोटा।।
बच्चों को पढ़ते-पढ़ते याद होने जैसी चाल इसी में नहीं अन्य कविताओं में भी है। कविताएँ नीति शिक्षा देने वाली भी हैं। उपदेशात्मक भी हैं,जैसे-
स्वच्छ रखो सब वस्तुएँ,देह तथा घर-द्वार।
मैलापन सब भाँति के,रोगों का भण्डार।।
फिर जैसे ही तीसरी कक्षा में आते हैं कविताओं का स्तर अब सीधा-सादा उपदेशात्मक नहीं रह गया। वे आसपास की दुनिया,बगीचा,हमारी घड़ी,तोता,फूल और काँटा आदि विषयों पर हैं। ‘वर्षा’नामक कविता का अंश देखिये-
नहीं लूट अब सनसन चलती
भूमि आग सी अब नहीं जलती
प्यास-प्यास’’पानी-पानी’नर
चिल्लाते अब नहीं कहीं पर।
कविताएँ याद करने के लिए अपनी सीधी-सादी पद्धति से तुकान्त हैं और इस वर्षा कविता में नर से पर की तुक बखूबी मिली है। इसके बाद चैथी कक्षा की कविताओं में एक कदम और आगे बढ़ा लिया गया है। अब कविता ईष्वर की प्रार्थना नहीं है,‘ईष्वर के उपकार’की भी नहीं है। अब ‘ईष्वर की महिमा’की है। ग्रीष्मकाल,चण्डरव गीदड़,ओले की कहानी,संगति का फल और राम वन गमन जैसे विषय आ गये हैं।
किसी एक वन में रहता था,चण्डरव नामी गीदड़ चंद।
हुआ कृषित भूखों के मारे,भूल गया सारे छल-छन्द।
नाम ककुद्रुम नृप है मेरा,प्रज्ञा आज से तुम मेरी।
ब्रह्मा ने भेजा है मुझको,शिक्षा देकर बहुतेरी।
फिर तुलसी कृत राम वन गमन है।
अब पाँचवीं कक्षा की बात निराली है। बालक प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करने वाला है। अब तक उसे कई तरह की कविताओं का ज्ञान हो चुका हैजिसमें पहेलियाँ भी है।
दूसरी कक्षा में पहली नाम से ही यह है। बड़ी दिलचस्प है।
(1चले रोज,पर हटे न तिल भर।
(2बिना पंखों के उड़ती फिरे।
(3पेट में उँगली सिर में पत्थर।
(4टूटा हाथ देख घर आती।
(5धड़ बिन सिर पर जटा दिखावे।
(6सिर बिन धड़ पर जटा दिखावे।
(7सिर भीतर पसली बाहर।
(8बिन सीखे सब गावे राग।
(9काला है पर कौआ नहीं
बेढब है पर हौआ नहीं
करे नाक से अपने काम
बतलाओ तुम उसका नाम।
दूसरी कक्षा की पुस्तक छियानवें पृष्ठ की है,तीसरी एक सौ चार,चैथी एक सौ चैरासी,पाँचवीं दो सौ चालीस। दूसरी कक्षा की किताब मोटे हर्फों में छपी है। क्रमशः फोण्ट साइज कम होते गये हैं। पाँचवी की साधारण बारह प्वाइण्ट में छपी पुस्तक अपनी सादगी और सुरुचिपूर्ण छपाई के लिए दर्शनीय है। पुस्तक हाथ में लेते ही विद्यार्थी के मन में उसे संभालने का विचार आ जाता होगा। ओम के पिता गोविन्द राम जी,धूलीलाल जी शर्मा ने सिर्फ़ अपना नाम लिखा है। किताब महँगी भी है। दूसरी कक्षा की किताब का मूल्य पाँच आना है और पाँचवीं का सात आना। निष्चिय ही यह राशि उन्नीस सौ सत्ताइस में मायने रखती थी,जब एक आने का सवा सेर शुद्ध घी मिलता था। क्या ये पुस्तकें मुफ्त वितरित होती थीं?मैं नहीं समझता कि सभी विद्यार्थी पुस्तक खरीदने की सामर्थ्य रखते होंगे?किताब बम्बई में छपी है और किताबों की छपाई सावधानीपूर्वक की गई है। पाठ लगातार छापे गये हैं जिसमें सिर्फ़ पहला पाठ ही नये सफे से शुरू होता है। बीच-बीच में पाठ से सम्बन्धित रेखांकन हैं। वे भी सुरुचिपूर्ण और विषयानुकूल हैं। उनमें सादगी है,साथ ही रेखांकन किसी कुशल चित्रकार से कराये गये हैं। यह साफ़ नज़र आता है।
मैंने यहाँ चारों कक्षाओं में उस समय पढ़ायी जा रही कविताओं का एक छोटा-सा हिस्सा नमूने के लिए पाठकों के सामने रखा है। पाठक हाँडी में पक रहे चावल की परख एक दाने से कर सकते हैं। कविताओं का रस दूसरी से पाँचवीं तक मौजूद है और उनके चुनाव में एक तरह की बढ़ोत्तरी है। विषय के अनुसार भी और कविता की संरचना के अनुसार भी। पाँचवीं कक्षा में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के गीत संग्रह में रागों का उल्लेख भी दिया गया है। ठुमरी,पूरबी,काफी,बिहाग और कलिंगड़ा राग पर आधारित गीतों में से एक देखिये-
तिनको न कछू कबहूँ बिगरै,गुरु लोगन को कहनो जो करै।
जिनको गुरुपन्थ दिखावत हैं,ते कुपन्थ पैं भूलि न पाँव धरै।
कबीर की साखी देखिये,ढाई अक्षर नहीं है-
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ,पण्डित भया न कोय।
एकै अक्षर प्रेम का,पढ़े सो पण्डित होय।
पाठ के बीच-बीच में भी कुछ कविता, शेर या तुकबन्दियाँ हैं। कोयले की आत्म कहानी पाठ में कोयला कहता है-
षोक है कि बहू की खोज में आप मुझे तुच्छ जान खो बैठे,नहीं तो आप मुझे ही सम्बोधन करपुकार-पुकार कर कहते-
गुल्स्तिां में जाकर गुलो-बर्ग देखा,
न तेरी सी रंगत,न तेरी सी बू है
हे अंगारक-राज! जिधर देखता हूँ,उधर तू ही तू है।
इसमें हर पेज़ पर कठिन शब्दों के अर्थ दिये हैं। अंगारक-राज- अग्नि उत्पन्न करने वाला राजा। पिछली किताबों में पाठ के अन्त में कठिन शब्दों के अर्थ है।। ये पुस्तकें अंगरेजों द्वारा अपनी गुलाम जनता की शिक्षा के लिए छपवाई जा रही थीं,जिसमें एक गहरी जिम्मेदारी का अहसास दीखता है। वे अपनी प्रजा के प्रति भले ही कठोर और निर्दयी रहे हों,किन्तु उनकी शिक्षा के लिए किसी तरह की कोताही नहीं की गयी। सभ्यता के अनुसार पाठ्यक्रम में विषय चुने गये। महत्त्वपूर्ण लेखकों के पाठ शामिल किये गये। उनकी कविताएँ,रचनाएँ,जीवनी आदि मौजूद हैं। इन पुस्तकों को पढ़कर लगता है हिन्दी एक समृद्ध भाषा है जिसमें सार्थक रचनाएँ लिखी जा रही हैं।
उन्नीस सौ सत्ताइस में पाँचवीं कक्षा की पुस्तक में शिक्षा विभाग,मध्यप्रदेश अब ज़्यादा संजीदा और मुखर है। बम्बई की प्रेस में छपी यह पुस्तक सूचीपत्र से शुरू होती है। इस पुस्तक में नौ कविताएँ हैं- सती परीक्षा-तुलसीदास, हेमन्त-गिरधर शर्मा,राम लक्ष्मण परशुराम सम्वाद-तुलसीदास,कबीर की साखियाँ और भारतेन्दु हरिष्चन्द्र के गीत संग्रह के अलावा दीन निहोरा,पुनः करो उद्योग,चन्द्र प्रस्ताव लीला,उपदेश के दोहे आदि कविताएँ भी शामिल हैं। सभी कविताओं के सन्दर्भ और जटिलता अब पाँचवीं के विद्यार्थी,जो लगभग बारह-तेरह वर्ष का परिपक्व मस्तिष्क है,के अनुसार है।
अन्य पाठ भी अब ज़्यादा बड़े वितान की कमान सँभाले हैं। लिलिपुट की यात्रा,जबलपुर शहर का वर्णन, जोन आफ आर्क,अमृतसर का स्वर्ण मन्दिर,राबिन्सन क्रूसो की यात्रा,चीन संग्राम के लिए समुद्र यात्रा,लंका द्वीप,तिब्बत में एक जापानी,कोयले की आत्मकथा,सुनीति कथा,मक्का तीर्थ भाग-एक/भाग-दो,मक्खियों का वर्णन,चींटियों का संसार,स्पार्टा का राजा लियोनीदास। यूरोपीय युद्ध में हिन्दुस्थानी सिपाहियों की वीरता,दक्षिण की चढ़ाई के समय औरंगजेब और उसकी सेना का वर्णन।
यहाँ विषय और ज़्यादा खुले,विस्तृत, जटिल और अधिक विस्तार लिये हैं। अब पाँचवीं के विद्यार्थी के लिए ये ज़रूरी है कि वह देश से बाहर दुनिया को भी जाने,सो अन्य कई विषयों पर रुचिकर पाठ हैं,जो उस वक्त की राजनीति के अनुसार मौजूँ थे और मुझे तो आज भी मौजूँ लगते हैं।
अब इधर आते हैं पहले मध्यप्रदेश राज्य शिक्षा केन्द्र,मुखपृष्ठ पर ही ‘भाषा भारती’के नीचे ‘हिन्दी विशिष्ट’कोष्ठक में क्यों लिखा है,समझ नहीं आता। क्या इसके पहले की पुस्तकें अंग्रेज़ी में थीं?फिर हम ‘भारत का संविधान’भाग 4-क नागरिकों के मूल कर्त्तव्य पढ़ते हैं जिसकी दूसरी कक्षा से अवहेलना हो रही थी। इन मूल कर्तव्यों में (ट) मज़ेदार है,यह कहता है: ‘यदि माता-पिता या संरक्षक हैं,छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने यथाशक्ति,बालक या प्रतिपाल्य को शिक्षा के अवसर प्रदान करें।’मुझे यह पढ़ने के बाद लगा या तो संविधान में भाषा की त्रुटि है या यहाँ छपे की प्रूफ रीडिंग नहीं हुई है। कक्षा दूसरी की तरह पहले दो पन्ने किसी बच्चे के काम के नहीं हैं,फिर ‘माहवारी’, जो अब दो पन्नों पर फैल गई हैं,से निपटकर संचालक की ‘पुस्तक के बारे में कथन’सफाई पढ़ते हैं। अगला पन्ना ‘भाषा न्यूनतम अधिगम स्तर पाठ्यचर्चा’नामक जटिल-सी किन्तु फिजूल बात न जाने किसको बतला रहा है। छात्रों के लिए यह पन्ना निश्चित ही नहीं है। इसी पेज पर कालखण्ड विभाजन,मूल्यांकन,अंक नामक तीन काॅलम में कुछ जानकारी व्यर्थ में दी गई है,जिसका पढ़ाई में कोई सम्बन्ध नज़र नहीं आता। इसके अंक भी निर्धारित किये गये हैं और ये अंक किन्हें मिलते हैं इसका कोई ज़िक्र नहीं है। नीचे एक टीप भी है ‘शेष कालखण्डों में उपचारात्मक षिक्षणविषय-वस्तु की पुनरावृत्ति एवं मूल्यांकन कराया जाय।’कालखण्ड शब्द के गलत हिज्जों के साथ छपी यह सूचना निष्चित ही छात्रों के लिए नहीं है। हम अगला पृष्ठ देखते हैं,इस पर काले अंग्रेज़ों ने क्या गुल खिलाये हैं। अनुक्रमणिका। अगला पृष्ठ छात्रों के लिए था।
इस अनुक्रमणिका से पता चलता हैइस पुस्तक में पाँच कविताएँ हैं,जिसमें से दो ‘वसन्त’और ‘पन्ना का त्याग’जिसका लेखक कोई नहीं है। ये कविताएँ संकलित हैं। संकलन किसका है,यह पता नहीं। माखनलाल चतुर्वेदी,सुभद्राकुमारी चौहान के अलावा एक और ख्यात कवि राजेन्द्र अनुरागी यहाँ हैं,जिन्होंने मध्यप्रदेश का गीत लिखा है। ये गीत मध्यप्रदेश की वैचारिक क्षुद्रता पर लिखा गया अद्भुत गीत है जिसे पढ़कर छात्र सीधे मध्यप्रदेश से टकरा जाता है,यह गीत कहाँ से हैं, अन्त तक पढ़कर पता नहीं चलता। यानी ‘पुष्प की अभिलाषा’और ‘मेरा नया बचपन’ दो ही कविताओं के लायक समझा पाठ्यपुस्तक ‘निर्माण समिति’के सदस्यों ने इस युवा दहलीज पर पहुँचे छात्र को।
अन्य पाठ में यदि हम भारत के बारे जानकारी दे रहे पाठों या ढूँढे तो हमें ‘उज्जियनी’नामक एक डायरी मिलती है। यह डायरी किसी एक व्यक्ति या एक लेखक की नहीं है। इस पाठ से छात्र को पता चलता है डायरी भी सामूहिक लिखने की चीज़ है। इस डायरी को लेखकगण ने लिखा है। यहीं एक और दिव्य दर्शन उसे होता है ‘मैं हूँ ना’नामक आत्मकथा है। यह शाहरुख खान की फ़िल्म से प्रेरित नहीं है,बल्कि यह दुनिया की पहली आत्मकथा है जिसे कई लेखकों ने लिखा है। यानि आत्मकथा की आत्मा कई लेखकों में रहती है। यह ‘भाषा भारती’(हिन्दी विषिष्ट) भाषा के कई आयाम खोलती है। डायरी,आत्मकथा आदि सामूहिक लेखन के उदाहरण यदि हो सकते हैं तो निबन्ध क्यों नहीं संकलित किया जा सकता?निबन्ध ही नहीं व्यंग्य भी संकलित किया गया है। ‘बुद्धि का फल’नामक व्यंग्य और ‘पाताल कोट’नामक निबन्ध का संकलन पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति के विदुषी सदस्यों ने किया। यहाँ पहली बार नीति के दोहे नाम से,कबीर,रहीम,वृन्द,तुलसी को एक पाठ में निपटा दिया गया। एक चित्रकथा भी है- छत्रपति शिवाजी,जिसे लेखकगण ने लिखा है। एक संस्मरण है- ‘मर कर भी जो अमर हैं’,इसे भी लेखकगण ने लिख डाला और तो और ‘मित्र को पत्र’नामक पत्र भी लेखकगण ने लिखा। रानी अवन्तीबाई की जीवनी भी लेखकगण के खाते में हैं। एक कहानी है- प्रेमचन्द की ईदगाह और दूसरी उन्नत खेती-उत्तम खेती,रामगोपाल रैकवार की। याने इस पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते छात्र लेखकगण के नाम से परिचित होता है जो इन बेहूदा,जानकारीहीन पाठों के ग़ैरजिम्मेदार लेखक हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस पुस्तक को देखते वक्त ही आपको पता चल जाता है कि इसका स्तर क्या होगा?ये कौन-से लेखकगण है जो पाठ्यपुस्तक लिख रहे हैं। इन पाठों को पढ़कर आप देखें तो उसका स्तर भी पता चलता है। संचालक लिखते हैं- ‘भारतीय संस्कृति और गौरव के साथ-साथ मध्यप्रदेश के सन्दर्भ व साहित्यकारों की कृतियों को समावेशित किया गया है।‘कौन-से साहित्यकार हैं यहाँ? किन लेखकों को छापा गया है?सिर्फ़ दो कवि?बाकी लेखकों का क्या हुआ?
इसमें जो अन्य पाठ है। ईष्वरचन्द्र विद्यासागर,बाबूजी बारात में,दशहरा (इस लेख के लेखक भी लेखकगण हैं) भारत रत्न: भीमराम अम्बेडकर,पातालकोट। अन्य पाठ का उल्लेख भी कर चुका हूँ और मैं यह समझने में अक्षम हूँ कि किस भारतीय संस्कृति और गौरव का उल्लेख इन पाठों में है। और जो थोड़ा बहुत है वह क्या इतना भर ही गौरव है। गोरे अंग्रेज़ों के समय की पाँचवीं कक्षा की पुस्तक ज़्यादा भारतीय संस्कृति के बारे में थी। तुलसी,कबीर आदि महाकवियों के पूरे पाठ थे। और अन्य सामग्री भी भारत और उसकी तहजीब,तारीख,तवातुर और तबीयत के बारे में थी। बिना किसी दावे,सफाई और आत्मग्लानि के। यहाँ दावा मुखर है। बाकी सिफर। जब जरा एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तक देखें।
यहाँ सिर्फ़ रिमझिम है,रिमझिम-5नहीं। ‘पाँचवीं कक्षा के लिए हिन्दी की पाठ्यपुस्तक’मुखपृष्ठ पर छपा है। लिजलिजे और अनुपातहीन रेखांकनों से तथाकथित रूप से सजी पुस्तक में पाँच कविताएँ हैं जिसमें तुलसी,सूर,कबीर,रहीम तो हैं ही नहीं। यहाँ भी अज्ञेय,निराला,महादेवी वर्मा,मैथिलीशरण गुप्त आदि से परहेज ही रखा है। रवीन्द्रनाथ,नागार्जुन,मोहनलाल द्विवेदी,कुँवरनारायण और सुभद्राकुमार चौहान से काम चलाया है। मैं इनकी कविताओं की आलोचना में नहीं जाऊँगा,किन्तु पढ़ने पर साफ पता चलता है कि ये रचनाएँ इन कवियों का श्रेष्ठ नहीं हैं। ‘एक माँ की बेबसी’,कुँवरनारायण की कविता पहले समझायी गयी है,मानों भरोसा दिला रहे हों कि यह पढ़ने लायक है। गुरु-चेला कविता तीसरी कक्षा के लायक है। नागार्जुन की कविता ‘बाघ आया उस रात’भी कुछ ख़ास नहीं है। एक मज़ेदार तथ्य यह है कि अठारह-बीस लेख,कविता,कहानियों में से नौ का लेखक कोई नहीं है। वे बस हैं। चार के लेखक हिन्दी के नहीं हैं,वे विदेशी भाषाओं के अनुवाद हैं। इसमें से सिर्फ़ एक कहानी हिन्दी के लेखक की है,बाकी पता नहीं। अधिकतर पाठों के प्रति यह भाव है कि इसकी जिम्मेदारी किसी की नहीं है। यानी ये ‘लेखकगण’ने लिखे हैं या फिर संकलन है। रेखांकन और चित्र उतने ही खराब और अस्पष्ट हैं। इसमें एक ‘नदी का सफर’नाम का चित्र है जिसमें एक नदी का सफर बतलाया गया है,जो इतना बचकाना और अस्पष्ट है कि छात्र की क्या मज़ाल कि कुछ समझ जायें। कुल मिलाकर इस पुस्तक का स्तर निम्न है। पाँचवीं में लगभग वयस्क हो गये छात्रों के साथ इस तरह की पढ़ाई एक अत्याचार है,उनके मानसिक स्तर के साथ बलात्कार। उसे यह पता ही नहीं चल पाता कि उसकी मातृभाषा में भी कुछ बड़े कवि पैदा हुए हैं,जो सिर्फ़ हिन्दी के हैं।
हमारे शिक्षाविद यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि बच्चा,बच्चा नहीं है,वह एक चौकन्ना मस्तिष्क है,जो बहुत तेजी से नयी बातों को आत्मसात् करता है। उसे हम क्यों बच्चा समझकर उसके साथ तुतलाने की कोशिश कर रहे हैं। और उसे क्या दे रहे हैं पढ़ने को?इस पुस्तक को पढ़ने के बाद उसका विश्वास हिन्दी साहित्य और हिन्दी कविता से उठ जाएगा,जिसे वह जीवन भर नहीं पढ़ेगा। पाँचवीं कक्षा के पाठ्यक्रम के लिए ‘निर्माण समिति’को हिन्दी के लेखक नहीं मिले। हमारी संस्कृति के चार बड़े कवि तुलसी, कबीर,रहीम,सूर- उन्हें इस लायक नहीं लगे कि पाठ्यक्रम में शामिल करें-
अति विचित्र रघुपति-चरित,जानहिं परम सुजान।
जे मतिमन्द विमोह वश,हृदय धरहिं कुछ आन।।
उन्नीस सौ सत्ताइस की पाँचवीं कक्षा की पुस्तक से यह तुलसीदास का दोहा शायद ही आज की पाँचवीं कक्षा का विद्यार्थी समझ सकें। इसके लिए वह जिम्मेदार नहीं है। हमारे ‘काले अंगे्रज़’,जो अंग्रेज़ पीछे छोड़ गये थे,जिन्हें भारतीयता से नफरत है,जिनके लिए भारतीय संस्कृति ढोंग है,जिन्हें भारतीय कहलाने में शर्म आती है,जो न यहाँ के हैं न वहाँ के,की देन है। ये विषेषज्ञ किसी विषय के नहीं है मुझे सन्देह है कि इन्हें हिन्दी भाषा भी ठीक से आती होगी,नहीं तो यह ‘पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति’कैसे पुस्तक में छाप सकते?इन सभी लोगों के भीतर गहरी आत्मग्लानि अपनी मातृभाषा से कटे होने की है। वे न ठीक से समझ सकते हैं न समझा सकते हैं। ऐसा लगता है कि ये किसी जुगाड़ या भाई-भतीजावाद से इस जगह तक आ पहुँचे,जहाँ उन्हें नहीं पता है कि भाषा पढ़ाने के लिए प्रारम्भिक स्तर पर किन कठोर और कठिन किन्तु रोचक और क्रमबद्धता से उत्तरोत्तर जटिल होते जाने की ज़रूरत है। इसमें अब चूँकि तकनीकी सुविधाओं में भारी सुधार हो चुका है तो ज़्यादा साफ-सुथरी और अधिक स्पष्ट,आकर्षक छपाई भी की जा सकती है। अब अनेकों तरह से ज़्यादा बेहतर रेखांकन बनाने वाले और चित्र रचने वाले लोग मौजूद हैं तो जानकार विषेषज्ञों की सलाह से आने वाली पीढ़ी को और आसानी से मातृभाषा में मजबूत और स्थायी तौर पर पढ़ाया जा सकता है। ऐसी पुस्तक छापी जा सकती है,जो भीतर और बाहर दोनों अर्थों में भरपूर हो। हमें नकली धर्मनिरपेक्ष होने की ज़रूरत नहीं है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मातृभाषा को रिमझिम कहने की ज़रूरत भी नहीं है। सभी धर्मों के बारे में पढ़ाते हुए बच्चों को भारतीय संस्कृति के पाठ पढ़ाये जाने चाहिए। जो गोरे अंग्रेज़ भी कर रहे थे। इस तरह के अधकचरे पाठ्यक्रम से बच्चा क्या सीख सकता है,इसके परिणाम सामने आने लगे हैं। और दिल्ली ही उसकी प्रयोगशाला बन रही है। वे कौन लोग हैं,जो पूरी पीढ़ी नष्ट करने में लगे हैं?वे किसी भी राजनैतिक विचारधारा के हों,उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे ही आने वाला भविष्य हैं। उन्हें प्रारम्भ में ही मजबूत बनाना होगा। और यह काम सिर्फ़ मातृभाषा ही कर सकती है।
यह मुझे बहुत ज़रूरी लगता है कि मातृभाषा पढ़ाने वाली पुस्तकों को अत्यधिक सावधानी और विषेषज्ञों की देख-रेख में तैयार किया जाना चाहिए। सभी प्रदेशों की राज्य समिति की अलग-अलग पुस्तकें व पाठ्यक्रम होने के बजाय एक पुस्तक व एक पाठ्यक्रम रखना चाहिए। इन पुस्तकों को धर्मनिरपेक्ष होने की ज़रूरत नहीं है,वे धर्मों के बारे में उसी तरह बताये जिस तरह वे किसी देश या वस्तु के बारे में बतला रहे हैं। वे विषेषज्ञ निश्चित रूप से बिना किसी प्रमाण के ‘मूर्ख’ही हैं जिनकी नज़र में तुलसीदास धार्मिक कवि हैं और कबीर अधार्मिक। ऐसे मूर्खों को इस समिति में आने से कैसे बचायें,इस पर भी ध्यान देना होगा। हिन्दुस्तान में अधिकांश ऐसे विद्वान पाठ्यक्रमों के बनाने में लगे हैं जिनके मुँह लाल हैं और वे अपने को शाकाहारी बतलाते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ऐसे लाल विद्वान मूर्खों को पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाली समितियों में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। दूसरी तरफ एक अलग किस्म है उचाट मूर्खों की,जिन्हें इतिहास ने सबसे ज़्यादा प्रताड़ित किया है,वे इसे ठीक करने में लगे रहते हैं। इनसे भी बचने की ज़रूरत है।
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