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अमृत रंजन की ताज़ा कविताएं

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स्कूल बॉय अमृत रंजनहिंदी का शायद सबसे कम उम्र का कवि है और वह अपनी इस जिम्मेदारी को समझता भी है. उसकी कविताओं में लगातार दार्शनिकता बढ़ रही है. जीवन-जगत को लेकर जो प्रश्नाकुलता थी उसकी जगह एक तरह का ठहराव दिखाई देने लगा है. पहल बार उसकी कवितायेँ मुझे बहुत मैच्योर लगीं. आप भी पढ़कर बताइयेगा- प्रभात रंजन 
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1.
शाम

दिन ख़त्म हो रहा था
आख़िरकार।
धीमी सी रौशनी देते हुए
कह रहा था
बहुत काम किया तुमने,
जाओ घर जाओ।

अपनी धीमी मुस्कुराहट
देते हमें अलविदा कहता है।
धीरे-धीरे रात छिपे
हुए आकर शाम को
धक्का देते हुए
ज़ोर से ठहाका लगाती है।
रात अपना चादर ओढ़े
सो जाती है।

(३ दिसंबर २०१५)
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2.
खुशी का ज़ीना

हताश में एक आदमी नीचे बैठ गया,
उस समय उसके दिमाग में कुछ नहीं आया,
बस खुशी के ज़ीने ने उसे घेर लिया।
दिन रात वह सोचता रहता था
खुशी के बारे में
कुछ भी कर सकता था वह अपनी
खुशी के लिए,
एक तिनके भर खुशी
उसकी जिन्दगी का मकसद बन गई।

उसने एक दिन दुख को मरते देखा,
हालात में पड़ गया वह।
जो दुख उसे अभी भी
हताशा से तड़पा रहा था
उसके सामने,
उसके पैरों पर
उससे मदद माँग रहा था।

उसने अपने दिल से सोचा
मन से नहीं।
उसने दुख की जान बचाई,
यह करने से उसके दिल को शांति मिली,
दुख का हाथ उसके कंधे पर था,
दोनों एक साथ चले
अहसास को दोनों में से कोई नहीं जानता था,
साथ चलने को जानते थे।
(04-10-2014)

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3.
ज़िन्दा-मुरदा


आज मुझे जीने का मन था,
लेकिन इस कमबख्त ने
मेरी बात टाल दी।
मेरी ज़िन्दगी की चलाकर
मुझे ज़िन्दा मार देता।
मैं बस अपनी बातों को
किसी को बोलना चाहता
लेकिन इस कमबख्त मन ने
मेरी बात टाल दी।
मैंने मन से साँस लेने की इजाज़त माँगी
लेकिन इस कमबख्त मन ने
मेरी बात टाल दी।
आख़िर में मैंने मरने की इजाज़त माँगी
लेकिन इस कमबख्त मन ने
मेरी बात टाल दी।
(५ जून २०१४)

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4.
मौत

मौत ज़िन्दगी का तोहफा है।
मौत ज़िन्दगी के बड़े से दिन में
रात की नींद होती है।
और इतने बड़े दिन के बाद,
इतनी ठोकरें खाने के बाद,
इतने काँटें चुभने के बाद
इतना सब कुछ पाने के बाद,
इतना सब कुछ खोने के बाद,
इतनी लड़ाइयाँ लड़ने के बाद,
इतने धागे सिलने के बाद,
सुबह वापस कौन उठना चाहेगा?

(५ फ़रवरी २०१६)


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'मेकिंग ए मर्डरर'के बहाने कुछ सवाल

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'मेकिंग अ मर्डरर'डॉक्युमेंट्री सीरिज देखकर युवा पत्रकार-लेखक अमित मिश्र ने यह लेख लिखा है. अमेरिकी न्याय-व्यवस्था के ऊपर कई सवाल उठाता हुआ. अमित जी फिल्मों की गहरी समझ रखते हैं और एक पेशेवर की तरह समस्या की नब्ज पर उंगली रखना जानते हैं, किसी किस्सागो की तरह नैरेटिव लिखना जानते हैं. एक अलग-सा लेख- मॉडरेटर 
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हां, हम हत्यारे बनाते हैं...

मेरे हिसाब से सिनेमा वह है जो देखे जाने के बाद लंबे वक्त तक नींद में पीछा करे और मानसिक जड़ता से झकझोर कर उठा दे। एक ऐसे ही सिनेमैटिक अनुभव से पिछले तकरीबन 72घंटे से उबरने की कोशिश कर रहा हूं और नीचे लिखा सब कुछ उस कोशिश का ही हिस्सा है।



अपनी बात कहने से पहले आपसे एक सवाल पूछता हूं। क्या कभी आप पर ऐसा गलत इल्जाम लगा है, जिसकी सफाई देने में आपको एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा हो तब जाकर आप खुद को साफसुथरा साबित कर पाए हों। मेरे हिसाब से हर इंसान की जिंदगी में कभी न कभी ऐसा वक्त आता है। खुद को सही न साबित कर पाने की छटपटाहट चंद घंटों को ही बरसों के इंतजार में तब्दील कर देती है। जरा सोच कर देखिए कि अगर जिंदगी के 18साल एक ऐसे जुर्म के लिए जेल में बिताने पड़ें जो आपने किया ही नहीं। आप सफाई देते रहें लेकिन पुलिस-कानून इसे अनसुना कर दे। उस पर मुश्किल यह कि इल्जाम रेप जैसे अपराध का हो।

'Making a Murderer'एक ऐसे ही इंसान स्टीव एवरी की कहानी है, जिस पर 1985में रेप का इल्जाम साबित होता है और इसके लिए उसे 30साल की सजा सुनाई जाती है। वह बेगुनाही की गुहार लगाता रहता है, लेकिन कोई उसकी नहीं सुनता। ये सब देखना तब और भी दिलचस्प हो जाता है जब दुनियाभर को अपने जस्टिस सिस्टम की दुहाई देने वाले अमेरिका के जस्टिस सिस्टम की हस्यास्पद सचाई से सामना होता है। अमेरिकी के विंस्कॉसिन नाम के स्टेट में मेडिसन शहर के स्टीव एवरी का ट्रायल, अमेरिकी जस्टिस सिस्टम की बखिया उधेड़ता नजर आता है। इस ट्रायल में वह सबकुछ है जो 90के दशक की हिंदी फिल्मों में होता है, मिसाल के तौर पर भ्रष्ट पुलिस, जजों की मिलीभगत और सरकारी गुंडा-गर्दी। भला हो उसी अमेरिका के साइंटिस्टों का जिन्होंने डीएनए मैचिंग का टेस्ट इजाद कर दिया वरना शायद स्टीव इस अपराध की सजा अब भी काट रहा होता। इस टेस्ट के सहारे स्टीव आधी से ज्यादा सजा काटने के बाद अपनी बेगुनाही साबित कर पाते हैं। 18साल की पीड़ा के बाद स्टीव एवरी खुली हवा में सांस लेने के लिए बाहर आ जाते हैं। उनके साथ तस्वीर खिंचाने वालों में सबसे पहले लोकल नेता और हर सुखद अंत वाली कहानी में अपना हीरो ढूंढ निकालने वाले अमेरिकी, उसे सिर-आखों पर बिठा लेते हैं। स्टीव बाहर आने के बाद अपनी पीड़ा के लिए उस पुलिस डिपार्टमेंट पर हर्जाने का केस करता है जिसने उसे गलत तरीके से फंसाया था। इस मुहिल में राजनेता, सोशल वर्कर और आमलोग सब स्टीव के साथ हैं। बाजी पलट चुकी है। पुलिस महकमा ऊपर से नीचे तक हिल जाता है। हड़कंप का ऐसा माहौल बनता है कि आनन-फानन में तरह-तरह की रिपोर्टें और कमीशन दिखाई-सुनाई देने लगते हैं। सबकुछ काफी भारतीय सा लगने लगता है। अमेरिकी कानून के हिसाब से हर्जाने की लाखों डॉलर की रकम इस केस से जुड़े पुलिस अधिकारियों से वसूलने का आदेश जारी होने का माहौल बनने लगता है। करीने से बनाई इस डॉक्युमेंट्री में अब तक सब कुछ खुशगवार नजर आता है। लेकिन जल्दी ही स्टीव को उसके घर के पास ही हुई एक लड़की की हत्या के इल्जाम में गिरफ्तार कर लिया जाता है। पुलिस महकमा इतनी फुर्ती से काम करता है कि यह एक ओपन एंड शट केस सा नजर आता है। हर सबूत और परिस्थिति चीख-चीख कर जुर्म में स्टीव के शामिल होने की गुहार लगाते नजर आते हैं। सही मायने में यहीं से Making a Murderer यानी एक हत्यारे के निर्माण की शुरुआत होती है। जैसे ही एवरी पर हत्या में शामिल होने की खबर आती ही कैसे एक तथाकथित प्रोग्रेसिव और लिबरल अमेरिकी समाज अपने हीरो से किनारा करने लगता है यह देखना कलेजे को चीरने वाला है। मीडिया की गैरजिम्मेदार और बेहुदा रिपोर्टिंग सिर्फ हमारी ही बपौती नहीं है, अमेरिकी इस मामले में हमारा बढ़ा भाई है। बड़ी खूबसूरती से एक पुलिस अधिकारी जो स्टीव को 18साल पहले एक इंस्पेक्टर की हैसियत से गिरफ्तार कर चुका है, अब पुलिस महकमे के प्रमुख की तरह उसे कोर्ट के सामने ले जाने के लिए सबूत जुटाने शुरू करता है। पुलिस कुछ भी साबित होने से पहले ही प्रेस कॉन्फ्रेंस करके स्टीव को गुनहगार साबित कर देती है। खबरों का भूखा मीडिया भी टीआरपी की दौड़ में कहानी को सनसनीखेज बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ प्राइम टाइम पर दौड़ाने लगता है। यह प्रेस कॉन्फ्रेंस मुझे अनायास उस प्रेस कॉन्फ्रेंस की याद दिला गई जब जाने-माने आरुषि मर्डर के चंद दिनों बाद ही यूपी पुलिस ने न सिर्फ आरुषी के माता-पिता को गुनहगार करार दे दिया था बल्कि आरुषि के कैरक्टर पर भी सवाल उठा दिए थे। यह डॉक्युमेंट्री दिमाग में एक बात बिठा कर जाती है कि ज्यूरिसपुडेंस (न्यायशास्त्र) की एक सीमा है। फिर वह चाहें अमेरिका में प्रैक्टिस किया जा रहा हो या भारत में। 
 
अमित मिश्र
डॉक्टुमेंट्री में स्टीव के शॉट्स शायद 25फीसदी हिस्से में ही दिखाए गए हैं लेकिन जेल से उसकी अलग-अलग मौकों पर की गई टोलिफोनिक बातचीत की कमेंट्री मन को झकझोर कर रख देती है। उसकी अपनी मां, बहन, प्रेमिका और फिल्ममेकर से फोन पर की गई बातचीत एक पीड़ित इंसान की मनोदशा का ऐसा बेमिसाल खाका खींचती है कि पीड़ा का पिघला शीशा आत्मा के भीतर उतरता महसूस होता है। यह डॉक्युमेंट्री शायद इसलिए और बेहतर बन पड़ी है कि इसकी राइटर-डायरेक्टर दो महिलाएं लॉरा और मोरिया हैं। डॉक्युमेंट्री में स्टीव की मां, बहन, पत्नी, गर्लफ्रैंड्स और मौत की शिकार लड़की के किरदार और कैरक्टर्स को जिस बखूबी से महिला डायरेक्टरों ने उभार है, शायद ही कोई उभार पाता। यह डॉक्युमेंट्री इस लिहाज से भी देखने लायक है कि कैसे एक हर समाज सही ट्रायल से पहले ही मीडिया रिपोर्टों और पूर्वाग्रहों के आधार पर किसी बेगुनाह को सूली पर चढ़ाने को तैयार हो जाता है। यह अनुभव रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है।

नेटफ्लिक्स ने इस डॉक्युमेंट्री को प्रॉड्यूस किया है। इसे बनने में तकरीबन 10साल का वक्त लगा है। 10एपिसोड की इस डॉक्युमेंट्री को इंडिया में भी नेटफ्लिक्स पर देखा जा सकता है।

आपके मन में एक सवाल तो रह ही गया होगा। आखिर स्टीव का हुआ क्या? बेहतर होगा इसके जवाब के लिए यह बेहतरीन डॉक्युमेंट्री देखें। बस इतना ही कह सकता हूं कि अभी स्टीव की कहानी खत्म नहीं हुई है।

डॉक्युमेंट्री में स्टीव का केस लड़ने वाले वकील की चंद लाइनों से बात खत्म करता हूं।


हमारा इस पर तो कंट्रोल है कि हम कोई अपराध न करें लेकिन इस पर नहीं कि कोई हम पर अपराध करने का इल्जाम लगाए। अगर कभी ऐसा होता है तो बस मैं इतना ही कहूंगा 'Best Of Luck.'

गीताश्री की नायिकाएं बोल्ड हैं क्रूर नहीं

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गीताश्रीकी कहानियों को पढ़े बिना समकालीन स्त्री विमर्श को समझना बहुत मुश्किल है. प्रचार-प्रसार, नारेबाजी से डोर उनकी कहानियां अपनी जमीन पर बहुत मजबूती से खड़ी दिखाई देती हैं. हाल में ही सामायिक प्रकाशन से उनका संग्रह आया है 'स्वप्न, साजिश और स्त्री'. उसकी कहानियों पर कलावंतीका यह लेख- मॉडरेटर 
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यह नैतिकताओं का संक्रांतिकाल है। गीताश्री की कहानी की नायिकाएँ इस बात को बखूबी सिद्ध करती हैं। वे तेज हैं, समझदार हैंपढ़ी लिखी हैं और बेहद संवेदनशील भी हैं। उनकी बोल्डनेस में भी एक मासूमियत है। वे बस उतनी ही शातिर हैं, जितने में अपनी मासूमियत की रक्षा कर सकें। वे बोल्ड हैं पर क्रूर नहीं हैं। सबसे बड़ी बात कि वे अपनी भावनाओं के प्रति ईमानदार हैं और बहुत साफ ढंग से सोचती हैं। गीताश्री ने अपनी भूमिका में ही लिखा है –"जो रचेगा, वही बचेगा। एक और जहां है उसी जहां की तलाश में मेरी आग चटक रही है। देर हो चुकी है ।जहां ढेर सारे मठ- महंत पहले से पालथी मारे बैठे हैं। वहाँ मैं अब बहुत देर से प्रवेश कर रही हूँ। इस रचनात्मक यात्रा में क्या कभी देर हो सकती है।जब उठ चलो तब ही यात्रा शुरू हो गई ।"

वे लिखती हैं "मूल्यों के बीच पिसती हुई स्त्रियाँ खुद कहानी बनती जा रही हैं।मुक्ति के लिए छटपटाती हुई स्त्रियॉं का विलाप शायद मुझे ज्यादा साफ सुनाई देता है। वर्जनाओं के प्रति उनके नफरत का अहसास मुझे ज्यादा होता है।"गीताश्री ने स्त्री विमर्श के नाम पर सिर्फ स्त्रियॉं के गुण गायें हैं ऐसा नहीं हैं। उनकी कहानियों में कमजोर और मजबूत दोनों ही तरह के पुरुष और स्त्री  पात्र मिलते हैं जो आपकी चेतना पर बहुत सारे सवाल छोड़ जाते हैं।

"प्रार्थना के बाहर"संग्रह की पहली कहानी है। "बुरी लड़की को सब मिल गया , अच्छी ऐसे ही रह गई।"रचना को लगा जिंदगी उसके हाथ से फिसल गई है। यह अकेले रचना की छटपटाहट नहीं है ।बहुत सी रचनाएँ हैं पूरे हिंदुस्तान में। पर सोचिए संपन्नता के कितने भी ऊंचे पायदान पर पहुंचा आदमी देर सबेर खुद से मुखातिब होता ही है। बहुत आज़ाद समझे जाने वाले देशों में भी औरतें सुरक्षित नहीं  और औरतें सुरक्षित नहीं तो आपके बच्चे भी सुरक्षित  नहीं। क्या पुरुषों के बराबर बैठकर शराब पी लेने की आज़ादी ही स्त्री की वास्तविक आज़ादी है। गर्भपात अब वैधानिक है तो क्या मूँगफली खाने सा सुलभ हो। जीवन रचने की जो दुर्लभता स्त्री को मिली है वह पुरुष के पास कहाँ । इसलिए स्त्री के लिए शरीर मात्र आनंद की वस्तु हो भी नहीं सकती। प्रकृति ने माँ को बच्चे का सर्वाधिकार दिया है। बहुत झमेलों में उलझी जिंदगी में भी रचना ने चिड़िया सा मन बचाए रखा , क्या यह उसकी उपलब्धि नहीं ? किसी समारोह में पुरस्कार देते प्रार्थना ने क्या उस अजनमें बच्चे को नहीं याद किया होगा । किसी प्रकार का कोई अपराधबोध नहीं होना क्या रचना की उपलब्धि नहीं? आप जिन संस्कारों को छोडते हैं उसके बाद आप कितनी ग्लानि महसूस करते हैं या गौरान्वित होते हैं यह आप पर है।

एक अन्य  कहानी है गोरिल्ला प्यार । अर्पिता, विशवास करती है और विशवास चाहती है । पर इंद्रजीत पुरुष है। उसे कमाने वाली , आत्मनिर्भर और बौद्धिक लड़की से प्रेम करने का शौक तो है पर बाहर जाती स्त्री के पल पल कि खबर भी उसे चाहिए। इधर अर्पिता बेहद स्वाभिमानी स्वावलंबी लड़की है। "अनुभूति को भी क्या कभी गिना जाता है ।क्या अश्रु और स्वेद की गणना मुमकिन है।"अर्पिता का कहना है कि "जिंदगी हमें  एक ही बार मिलती है। हम उसे दूसरों के हिसाब से जीने में खर्च कर देते हैं।... मेरे इस जीने के तरीके में स्पसटता रहेगी। "परंतु सहेली कि बात ही सच निकली "सोच लेना अर्पिता ... हर रिश्ता कुछ वक़्त के बाद एकनिषठता कि मांग करने लगता है।"अर्पिता का दिल यहाँ टूटा कि "नेह में पगी हुई देह वार दी ।वह बता नहीं पायी इंद्र को, कि कैसे उसने बॉस के प्रेम प्रस्ताव को खारिज करके हमेशा के लिए दफ्तर में अपने लिए एक शक्तिशाली दुश्मन पैदा कर लिया।"उसके बाद ऐसा सलूक। अर्पिता इंद्रजीत से आहत अपमानित होकर फेस्बूक पर मित्र तलाशती है। उसे लोगों का व्यवहार देखकर निराशा होती है ।"मछ्ली कि तरह फंसनेवाली औरत चाहिए …. शेरदिल औरत नहीं....."। इसी इमोशनल ट्रोमा में उस रात वह आकाश से गोरिल्ला प्यार कर बैठती है। सुबह जब इंद्रजीत का फोन आता है तब वह कहती है-"इट इज टू लेट इन्द्र।"अर्पिता क्या सिर्फ देह की प्यास में आकाश तक पहुँच गई या अपने को पूरी तरह टूटने से बचाने के लिए। पुरुष समाज को यह सोचना होगा।

"दो पन्ने वाली औरत"कैरिएर बनाने की होड में लगी औरतों की आपसी प्रतिस्पर्धा की कहानी है। आसावरी और रंजना दोनों अपने अपने तरीकों से संपादक को प्रभावित करने की चेष्टा में है। जब योग्यता देह है तो हर लड़की थोड़े दिन बाद अयोग्य हो जाएगी। सत्ता जिसके पास होगी ऐसी लड़कियां भी उसके पास होंगी ।क्या थोड़ी बड़ी गाड़ी, ज्यादा बड़ा मकान यही उपलब्धि है जीवन की । अपनी नज़रों में न गिरनेवाला कोई काम न करना क्या कोई उपलब्धि नहीं? आसावरी अपनी बौद्धिकता को, ज्ञान को मांजेगी। ऊपर उठेगी, यह आत्मविसवास उसमें क्यों नहीं दिखता ? बल्कि कभी रंजनाओं की कहानी भी लेखिका को  लिखनी चाहिए  कि वे बहुत सारे सम्बन्धों और समझौतों से गुजरने के बाद मिली उपलब्धियों के साथ अपने जीवन में कितनी मजबूत और संतुष्ट हैं? "मेरी प्रतिभा को रोज रोज परीक्षाओं से गुजरना होगा?"हर उस लड़की का द्वंद है जो खुद को बचाए भी रखना चाहती है। मूल्यों का महत्व है उसके लिए।

अपने परिवार से मिले संस्कारों से मिले को ना छोड़ पाने वाली लड़कियों की यह सोच बहुत स्वभाविक है।पर उन्हें यह भी समझना होगा की आखिर कितने समझौते करेंगें आप । सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। यदि इतने ओछे समझौते कर ही धन कमाना है तो फिर इतनी पढ़ाई लिखाई क्यों? शुरू  में समझौते कर आगे बढ़नेवाली लड़कियां थोड़े दिन बाद बाज़ार से बाहर हो जाती हैं। ज्ञान और मस्तिस्क को लगातार अपडेट करती स्त्रियाँ ही इस गलाकट प्रतियोगिता में स्वयं को टिकाये रख सकेंगी।

"दो लफ्जों कि एक कहानी"एक बेहद सुंदर प्रेम कहानी है। पूरी कहानी एक सुंदर सी लयबद्ध  कविता है। डेविड का स्वयं का चरित्र एक मजबूत पुरुष चरित्र है। वान्या और पैरीन दोनों ही उसे बहुत प्यार करती हैं। प्रेम क्या सिर्फ सुख भरे पलों को जीने का नाम है ? या उसकी अपनी कोई प्रतिबद्धता भी है। दुख भरे पलों को साथ जीना भी तो प्रेम है। जो आपसे प्रेम करेगा वह आपको किसी तकलीफ में कैसे छोडकर जा सकता है। पैरीं का यह कहना कि उसे जिंदा रखना मेरी पहली प्राथमिकता है। उसके चरित्र की उदादत्ता को दिखाता है।

"अंधेरे में किसी दोस्त के साथ चलना, रोशनी में अकेले चलने से कहीं बेहतर है।"  वह इस यात्रा में वान्या का भी साथ चाहती है भले ही वह साथ मानसिक साहचर्य या संबल कि तरह ही क्यों ना हो। 

"रुकी हुई पृथ्वी"एक साधन सम्पन्न रचनात्मक स्त्री के दिनचर्या से ऊब की कहानी है।"कई बार लगता है कि कामनाएँ भी बेताल कि तरह डाल पर लटक गई हैं।"उसके जीवन में शांतनु हवा के एक ताज़े झोंके की तरह है। उसकी बात सुनने और समझने वाला। घर में पति है पर उसे नेहा की बात सुनने का धीरज नहीं। "वह क्यों नहीं सोचता कि उसे कोई साथी चाहिए जो उससे खूब बातें करें ...प्रोत्साहित करे ... हौसला बँधाये ... उसकी उपलब्धियों पर उसके इतना ही खुश हो ....।"वह अपनी भावनाएं बताती है पर शांतनु डर गया ... एक प्रेम से भरी हुई स्त्री के आवेग से ....।पर अंतत नेहा फैसला करती है कि वह जीवन को बहुत कंप्लीकटेड नहीं बनाएगी...। यहाँ शांतनु की भी तारीफ करनी होगी कि उसने आम पुरुषों कि तरह उसकी ऊब को अपने पक्ष में भुनाने कि कोशिश नहीं की।

"सोनमछरी"की नायिका रूमपा शंकर से बहुत प्यार करती है। पर परिस्थितिवश जब उसे अमित का सहारा लेना पड़ता है तो वह शंकर के लौटने पर भी अमित को छोड़ने को तैयार नहीं होती। गीताश्री की नायिकाएँ साहसी हैं और अपने किए का समूचा दायित्व वे स्वयं लेने को तैयार दिखती हैं। चाहे वह मान सम्मान हो या घोर लांछना। वे प्रेम भी अपनी शर्तों पर करती हैं।

"चौपाल "के बीजू साहब एक अलग ही किस्म के चरित्र हैं॰ शिवांगी के खामोश प्रेमी। जिन्हें बस शिवांगी को देख लेना ही काफी है। उनके चले जाने के बाद शिवांगी उन्हे खोजती फिरती है। धन्यवाद कहने का मौका भी ना मिल सका । पर ऐसे पात्र क्या जीवन भर भुलाए जा सकते हैं?

"ताप"कहानी पाठकों को थोड़े असमंजस में डालती हैं। ऐसा व्यावहारिक रूप से संभव है क्या?"बह गई बैगिन नदी "का असगर जब यह कहता है कि "मैं ... सरजी , पहले तो मैं पैसा ही लेता था लेकिन हमारी अम्मी हराम का पैसा घर लाने को मना करती है।"तो लगता कि यह पृथ्वी अबतक नष्ट नहीं हुई, क्योकि आदमी का जमीर कभी ना कभी जग जाता है।

इन कहानियों का एक कमजोर पक्ष, दूसरे पक्ष यानि रंजना, इंद्रजीत की भावनाओं का पूरी तरह नहीं खुल पाना है।

लेखिका से यह आशा की जा सकती है कि कभी हम उनकी ऐसी कहानियाँ भी पढ़ पाएंगे  जो इन पात्रों के तरफ से लिखी गई होगी , उनकी मनोदशा को दर्शाती हुई।  इसके अलावा लबरी ,फ्री बर्ड , उर्फ देवीजी, एक रात जिंदगी भी अच्छी कहानियाँ हैं।

ये कहानियाँ पितृसत्तातमक समाज की जड़ों पर प्रहार करती हैं और पाठकों को मजबूर करती हैं कि वे भी स्त्रियॉं को मनुष्य की तरह देखना सीखेँ। उनका धीरज अब जबाब देने को है।
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कलावंती, आवास स0टी 32बी , नॉर्थ रेल्वे कॉलोनी , रांची 834001, झारखंड. मो 9771484961


वंदना राग की कहानी 'स्टेला नौरिस और अपूर्व चौधुरी अभिनीत क्रिसमस कैरोल'

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समकालीन स्त्री कथाकारों में वंदना रागसबसे अंडररेटेड लेखिका हैं. जबकि उनकी उनकी कहानियों की भाषा, कथ्य, इंटेंसिटी, शैली सब न सिर्फ अपने समकालीन कथाकारों से भिन्न है बल्कि उन्होंने हिंदी में स्त्री-लेखन को सर्वथा नई जमीन दी है. उनमें वह 'तथाकथित'बोल्डनेस नहीं है दुर्भाग्य से जिसे हिंदी में स्त्री लेखन के मूल्य की तरह स्थापित करने की कोशिश की गई. जो लेखिकाएं उस सांचे में फिट नहीं हुईं उनको परे कर दिया गया. लेकिन वंदना जी ने उस चालू मुहावरे से हमेशा अपनी कहानियों को बचाया है. फिर भी उनकी कहानियों में जीवन की उष्मा है, परिवेश और कहन की जीवन्तता है. उदहारण के लिए उनकी प्रस्तुत कहानी, जो मुझे बहुत पसंद भी है. संभवतः समकालीन हिंदी कहानी की कुछ बेजोड़ कहानियों में एक. मेरी पीढ़ी के लेखकों के पास ऐसी कहानियां बहुत कम हैं. यह लिखते हुए मैं यह नहीं भूल रहा हूँ कि मैं भी उसी पीढ़ी का लेखक हूँ- प्रभात रंजन  
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'आजकल क्या लिख रही हो?'स्टेला ने मुझसे पूछा था।

'एक कोशिश कर रही हूँ... देखोऽऽ कब सफल हो पाती हूँ।'

जरूर, मेरा फ्रस्ट्रेशन फोन के पार उस तक पहुँचा होगा, तभी वह एकदम से आश्वस्त करती हुई अपनी खुशनुमा हँसी के साथ बोली थी, 'शुरू कर दिया है, तो पूरा भी कर लोगी... वैसे है क्या?'स्टेला दूसरों को उन्मुक्त करने की काबिलियत रखती है। मैं भी उस जादुई असर में आ, अपनी हिचक छोड़, उसे अपने महामहत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के बारे में बताने लगती हूँ।

'एक नाटक पर काम रही हूँ, जिसमें क्राइम और मोरालिटी की नई परिभाषाएँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ।

'अच्छाऽऽ'वह खासी उत्तेजना से कहती है।

'लगता है, इस बार मॉर्डन क्लासिक जैसा कुछ रच दोगी तुम।'

'न-न, मॉर्डन से कुछ आगे के समय की बात करना चाहती हूँ। क्लासिक होगा कि नहीं वह तो समय ही बताएगा, लेकिन इस बार मेरा इरादा बहुत सारी अकल्पनीय डिबेट्स को जायज ठहराने का है।'

'अरेऽऽ, क्या यह संभव है?'वह गहरे आश्चर्य में डूब गई थी।

'हाँ।'

'वेलकम टू द वर्ल्ड ऑफ पोस्ट मॉडर्निज्म बेबी...।'

यह मैं जोर से नहीं कहती। मन ही मन में मथती हूँ। जानती हूँ उसे, इस तरह की बातें कम ही समझ में आती हैं, फिर उसे उलझाने से क्या फायदा?

दरअसल स्टेला नौरिस बरसों-बरस से एक-सी रही है। हद दर्जे की शौकीन, खूब हँसनेवाली, मीठा बोलनेवाली और तुनकमिजाज। लेकिन एक घटना समान उसमें पहला बदलाव मुझे तब महसूस होता है, जब वह अपने चालीसवें जन्मदिन के सेलिब्रेशन के वक्त घर में जुटे फूलवालों, रंगीन बल्लियोंवालों और अन्य साज-सज्जावालों से कहती है, 'यह सब मत करो, प्लीज कीप इट सिंपल।'

मैं देखती हूँ, उसी दिन के बाद से वह यह जुमला लगातार दुहराती है। बताती नहीं, कहाँ से उठाया है, लेकिन मेरा अनुमान है, दीपक चोपड़ा या रौंडा बर्न जैसे किसी लेखक की प्रेरणादायी किताब ही इसका स्रोत है। आजकल वह अलग-अलग किस्म की किताबें खरीदती रहती है। पढ़ती कितनों को है, यह ठीक-ठीक पता नहीं, लेकिन तरह-तरह की चर्चाएँ खूब करने लगी है। कभी उपभोक्तावादी कल्चर से अलग जाने की बात करती है, कभी दुनियादारी की चालाकियाँ उसे नागवार लगने लगती हैं कभी कुछ तो कभी कुछ। और तो और चर्चाओं तक ही उसका सिलसिला ठहरता नहीं, वह अलग, मौकों पर अक्सर रूप भी अलग दिखलाती रहती है। जब अपने पति स्टीव नौरिस के अगल-बगल होती है तो उसकी पतली नाक ग्रेशियन आभिजात्य का ढिंढोरा पीटने लगती है। और जब अपने घर में काम करनेवाली औरतों को सिस्टर कह कर पुकारती है, तो उसके चेहरे पर सिस्टरहुड की ऐसी सर्वहारा चमक फैल जाती है कि मैं उससे पूछने पर मजबूर हो जाती हूँ, 'तुम हर मौके पर इतली अलग-सी क्यों हो जाती हो?'

'मेरी मर्जी।'वह छोटा-सा जवाब दे, कुछ भी नामाकूल-सा करने लगती है। मुझे अटपटा-सा लगता है। लगता है कछ भ्रमित-सी तो नहीं हो रही ये, कितनी आसानी से 'मेरी मर्जी'कह कर आगामी सवालों के घेरे से निकल जाना चाह रही है। मेरी मध्यमवर्गीय चेतना में 'मेरी मर्जी'कुछ ज्यादा ही किस्म के स्वतंत्रता बोध को जगाता है, और यह डरावनी बात लगने लगती है। मैं यह भी जानती हूँ कि इस तरह का 'डर'पॉलिटिकली इनकरेक्ट भाव है और स्टेला का मेरी वर्गीय चेतना से कोई वास्ता नहीं, फिर भी मित्र होने के नाते मैं उसे टोक देती हूँ

'स्टेला, क्या तुम खुदगर्ज किस्म की नहीं होती जा रही हो?'

'हाँऽऽ।'वह प्यार से कहती है और अपने भरे-भरे लेकिन रूखे हो चुके होठों को गीला करने के उद्देश्य से उनपे जीभ फिराती है। मैं देख कर सन्न रह जाती हूँ कि ऐसा करते वक्त वह सेक्सी कम जरूरतमंद ज्यादा लगती है।

अब जैसे मैं स्टेला को बरसों से देख रही हूँ, ठीक वैसे ही उसके पति स्टीव नौरिस को भी उससे ज्यादा बरसों से देख रही हूँ। वह दिल्ली शहर का नामी-गिरामी आदमी है। पक्का, सफल बिजनेसमेन। कनाट प्लेस में गाड़ियों का बड़ा शो-रूम है उसका। चर्च में लोग अक्सर बातें करते हैं कि नौरिस प्रधानमंत्री का करीबी है। यह दीगर बात है कि प्रधानमंत्री हर पाँच-दस साल में बदल जाता है, लेकिन नौरिस का रिश्ता प्रधानमंत्री से बदस्तूर रहता है। जाहिर है प्रधानमंत्री टाइप के लोगों को हमेशा से नौरिस जैसे लोगों की जरूरत बनी रहती है। लोग तो यहाँ तक कयास लगा चुके हैं कि नौरिस को जल्द राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जाएगा। वैसे भी नौरिस लोग खानदानी अमीर-उमरा रहे हैं। पीढ़ियों से सत्ता से उनका रिश्ता कायम रहा है। दे डिजर्व इट!

सच तो यह है कि स्टीव मेरे पसंदीदा लोगों में से हैं। हमेशा मस्त रहता है। अपने खानदान के पुरखों की बड़ी शानदार कहानियाँ हैं उसके पास। खालिस अंग्रेजों का वंशज है वह। उन्नीस सौ सैंतालीस के बाद जो कुछ अंग्रेज रह गए भारत में, उन्हीं में से एक उसके खानदान के लोग थे। उसके कई रिश्तेदार उसके बाद आस्ट्रेलिया चले गए। उनमें कोई मिक्सिंग नहीं हुई। वे कभी-कभी इंडिया आते हैं तो आस्ट्रेलियन ही कहलाते हैं। यहाँ जो उसके खानदान की शाखा रह गई, पता नहीं उसमें स्थानीय लोगों की आमद हुई या नहीं, इस बाबत ठोस जानकारी नहीं है हमारे पास लेकिन सुखद तरीके से स्टीव का डीएनए तो पूरा विदेशी ही जान पड़ता है। उसका लंबा कद, उसका गठीला शरीर, उसकी गोराई, उसके बालों का भूरा रंग और उसकी भूरे कंचे जैसी आँखें जो बेहद खूबसूरत हैं। कई बार महफिलों में बैठे-बैठे स्टीव हमें सुदूर अतीत की सैर करवाता है। और स्टीव और मैं वहाँ की शानो-शौकत से रूबरू हो बेहद तरोताजा और आत्मविश्वासी महसूस करते हैं। मैं, क्योंकि नौस्टैल्जिया मेरी कमजोरी है, (वही चिरपरिचित मध्यमवर्गीय लोलुपता का बोध) और वह, क्योंकि शासक वर्ग से ताल्लुक रखना अपने आप में बड़ी अनुभूति है। अलबत्ता स्टेला को अतीत में जाना बिल्कुल नहीं पसंद और तो और मुझे लगता है, उसे भविष्य के बारे में सोचना भी पसंद नहीं। थोड़ी अजीब ही है वह और-और अजीब बनती जा रही है। स्टीव इन विषयों पर उसकी विरक्ति पर उसका चिबुक उठा कर कहता है।

'भोंदू।'

स्टेला इस पर आँखें बंद कर लेती है। मैंने गौर किया है कि यह सिर्फ एक बार की बात नहीं। स्टेला स्टीव के किसी भी प्रकार के उकसाने का जवाब यों ही देती है। पूरी तरह भोंदूपने को जीते हुए, मानो कोई बहुत छोटा बच्चा छुप्पम-छुपाई का खेल खेल रहा हो और छुपने के बजाए अपनी आँखें बंद कर लेता हो, यह सोचते हुए कि अब जो वह नहीं देख पा रहा है, तो शर्तिया खुद ही छुप गया होगा। एक दम चिढ़ानेवाली हरकत है यह। पता नहीं स्टीव उसकी इस हरकत पर चिढ़ता क्यों नहीं। उल्टे उसे और दुलराने लगता है।

'स्टेला अपने आप से ही छिपती हो क्या?'मैं कुरेदती हूँ।

'क्या बकवास करती हो, लेखक हो तो क्या हर बात में पेंच ढूँढ़ोगी? समटाइम्स कीप इट सिंपल।'

फिर उसका वही तकिया कलाम। वह चिड़चिड़ा कर भी यही बोलती है, और यह बोल वो न सिर्फ सबको लाजवाब कर देती है बल्कि अब तो लगने लगा है कि हमारी जुबान को भी इस जुमले की लत लग ही जाएगी। खैर! यह सब भविष्य की बातें हैं और भविष्य के बारे में कौन-कब ठीक-ठीक जान पाया है।

सोचते-सोचते यकायक स्टीव की मस्ती की बात याद आती है। सुबह की संडे सर्विस के बाद हम चर्च से निकले तो स्टीव ने अपनी लेटेस्ट चकाचक सफेद ऑडी में हमें बिठाया और फर्राटे से गाड़ी दौड़ा दी, लुटियन्स की दिल्ली और आभिजात्यों की दिल्ली से अलग दिशा में, 'कहाँ जा रहे हो?'स्टेला अस्थिर होने लगी।

'सदर... चलो आज तुम्हें वह जगह दिखा ही दूँ जहाँ मेरे पुरखे रहा करते थे। कितनी बार सोचा...।'

इसके बाद उसने गाड़ी एक गली के मुहाने पर पार्क कर दी। और हम गली में पैदल चल पड़े। बारिशों के दिन थे। चारों ओर गंदगी, गड्ढों और बदबू का साम्राज्य फैला था। इसके बावजूद स्टीव का उछाह देखने लायक था। झक सफेद टाई सूट पहने वह चल नहीं - दौड़ रहा था। ऐसा लगता था मानो सदर की इस गली में दफन पुरखों की हड्डियों की मिट्टी से उसे साँसें मिल रही हों। और वह अपने अतीत के गौरव की गंध से उन्मत्त हो रहा हो। उसके वजूद से ऐसी अथाह मस्ती टपक रही थी।

स्टेला उससे ठीक उलट नाक और मुँह बिचकाती अपनी साड़ी दो इंच पिंडलियों से ऊपर उठाए, धीरे-धीरे चल रही थी।

'ये देखो,'स्टीव एक भद्दी कंक्रीट की दो-मंजिला दुकान के निचले-पीछे के हिस्से को दिखाते हुए बोला, 'यही वह कोठी थी, जिसमें मेरे परदादा और दादा रहते थे।'

स्टेला ने अवमानना से नाक सिकोड़ी। मैंने अपनी निराशा पर काबू पाते हुए, 'अभी भी उत्साहित हूँ'वाला चेहरा ओढ़ लिया।

'मेरे परदादा, अलबर्ट नौरिस फर्ग्यूसन। पूरी दिल्ली में बड़ा नाम था उनका। जिधर निकल जाते थे, लोग सर झुका लेते थे। इतना रुतबा था उनका हुँह।'

स्टीव की बातों और सामने खड़ी इमारत में कोई मेल नहीं दिख रहा था, फिर भी मैं लगातार उसकी बातें सुने जा रही थे, लेकिन स्टेला अवज्ञा की हद तक निस्संग बनी हुई थी और स्टीव उस पर ध्यान दिए बिना उजबक-सी रौ में बोले जा रहा था।

'ये जो खिड़की है न, उससे अंदर झाँको, फायर प्लेस दिखेगा देखो... देखो वह पत्थर का है, और बरामदे के ये पिलर्स कितने मजबूत और गोल है, और देखो वहीं फायर प्लेस के ऊपर एक नक्काशीदार लोहे का कुंदा है, वह भी सन 1900के आसपास का है।'

'क्या टँगता था उसमें?'

हैरतवाली बात थी, स्टेला पूरी तरह दृश्य से कटी हुई नहीं थी क्या? उसने ये सवाल किया तो कैसे? उसके यों सवाल करने पर स्टीव ठिठक गया था। कुंदे की ओर इशारा करती उसकी उँगली कुछ देर हवा में प्रलंबित रह गई थी। फिर धीरे से सिर झुकाते हुए उसने उद्घाटित किया था, 'बंदूक टँगती थी वहाँ।'

'क्यों?'स्टेला बाज नहीं आ रही थी, इसके बावजूद स्टीव ने बहुत लाड़ से स्टेला के कान खींचते हुए कहा था, 'बताया था न, मेरे परदादा पुलिस की नौकरी में थे।'

'हाँऽऽ 'बहुत नाटकीय अंदाज में अपनी घनी पलकों को ऊपर-नीचे करती बोली स्टेला, 'याद आ गया, जेल के दारोगा थे न?'

इसके बाद न जाने क्यों, स्टीव वहाँ ठहर नहीं पाया और उल्टे कदमों से गाड़ी की ओर भागने लगा, मानों किसी पीछे लगे भूत से अपना पीछा छुड़ा रहा हो। स्टेला वैसी ही बनी रही और इत्मीनान से स्टीव के पीछे चल पड़ी।

दोनों के बीच यह कैसा वार्तालाप हुआ, मैं बिल्कुल समझ नहीं पाई और छुट्टी के दिन के खाली बाजार की गली नापते हुए उस भारी सवाल के नीचे दब-सी गई कि, स्टीव ने मुझे यह क्यों नहीं बताया था कि उसके परदादा अंग्रेजों के जमाने के दारोगा जेलर थे? फिर मुझे याद आया, स्टीव ने तो कभी बताया ही नहीं कि उनकी रैंक क्या थी। वह तो मेरी कल्पना का ही खेल था कि मैं उन्हें बहुत ऊँचे रैंक का समझती रही। फिर बाद में मैंने सोचा, रैंक-वैंक से क्या होता है, आखिर अंग्रेज तो अंग्रेज ही था न, और वही होना उसका रुतबा था।

जब तक मैं गाड़ी तक पहुँची, देखा स्टेला गाड़ी की अगली सीट पर बैठी हुई कुछ बड़बड़ाती जा रही है। उसके ठीक पीछे बैठते हुए मैंने सुना।

'चारों ओर कितने मीठे-मीठे झूठ है। सब उसे ही सच मान जीए जाते है।'

जब मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखालाई तो वह चुप हो गई। मैं गाड़ी के बाहर नजर दौड़ाने लगी, और सोचने लगी किस तरह के झूठ की बात कह रही थी वह। हमारे ठीक सामने स्टीव खड़ा था और एक पच्चीस-छब्बीस साल के युवक से बात कर रहा था। युवक के गले में प्रोफेशनल फोटोग्राफरवाला कैमरा लटका हुआ था, लेकिन शक्ल से वह कोई रिसर्च स्कालरनुमा लगा रहा था। दुबला-पतला, आकर्षक-से व्यक्तित्व का था। स्टीव उससे बात करता हुआ, अपना विजिटिंग कार्ड पकड़ा रहा था। युवक विजिटिंग कार्ड को हाथ में थामे, उस पर टंकित गुरूर को तसल्ली से जज्ब कर रहा था। कार्ड को हाथ में थामे-थामे ही उसने एक बार गाड़ी के अंदर नजर दौड़ाई थी। उसी क्षण स्टेला की नजरें उससे मिली थीं। मैंने पीछे से उचक कर उस नजर को पकड़ा था और मैं असमंजस से भर गई थी। दोनों की नजरों का भाव एक था। तहरीर स्क्वायर पर सत्ता के खिलाफ नारे लगाते लोगो का भाव था वह, जो दो अनजान लोगों के बीच भी समान हो सकता था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था, कि स्टेला बिना जाने उस युवक को ऐसी साझेदारी से देख सकती है, लेकिन इससे पहले कि मैं उससे पूछती, 'स्टेला तुम उसे जानती हो क्या', वह निहायत सपाट स्वरों से पूछ बैठी थी, 'कौन था वह?'

यह सुन मुझे राहत महसूस हुई थी और स्टीव ने गाड़ी में बैठ रफ्तार बढ़ाते हुए कहा था, 'फोटो जर्नलिस्ट है दिल्ली के कोलोनियल मॉन्यूमेंट्स पर किताब तैयार कर रहा है। रिसर्च के दौरान सदर में बची-खुची कोठियों के हिस्सों को ढूँढ़, अपने कैमरे में कैद कर रहा है। मेरे बारे में भी जानता था। मैने उसे घर बुलाया है, कल। बहुत कुछ बताना है उसे।'

'लेकिन कल तो हमें मानेसर जाना है। भूल गए, फार्म हाउसवाली पार्टी का इंतजाम देखने। और चर्च से बच्चे भी आनेवाले हैं, कैरोल की प्रैक्टिस शुरू करवानी है उन्हें।'

'कोई बात नहीं सब हो जाएगा, मै ऑफिस से टाइम निकाल किसी भी समय इंतजाम देख आऊँगा और उसके आने तक आ जाऊँगा, तुम बच्चों को कैरोल्स सिखाना।'

'क्रिसमस एक महीना दूर था और नौरिस परिवार की चर्च में संलग्नता और उनकी दी हुई पार्टीज का दिल्ली शहर को इंतजार था। पेज थ्री के कई दिन उन पार्टीज के बदौलत छपने थे। इन दिनों स्टेला बहुत मसरूफ हो जाती थी, और उसके पर्सनल टच की वजह से ही क्रिसमस इतना शनदार हो जाता था, लेकिन स्टीव तो स्टीव था, वह अगर एक बार कुछ कह देता था तो वह बात पत्थर की लकीर हो जाती थी, उसे काटा नहीं जा सकता था। इसीलिए स्टीव ने जो ''कहा तो ''ही रहा और स्टेला मानेसर नहीं गई। उस दिन स्टेला के घर बच्चे आए, स्टेला ने उनके लिए कुछ खास कैरोल्स चुने, फिर उसने 'गिफ्ट आफ मैजाई'की तर्ज के एक छोटे से नाटक का आइडिया बच्चों को दिया, जिसमें तीन गड़ेरिए आज के जमाने के गिफ्ट जैसे मोबाइल, प्लेस्टेशन, नोटबुक ले कर चर्च में खड़े रहेंगे और दूसरे बच्चों का स्वागत करेंगे, यह आइडिया बच्चों को बहुत पसंद आया और वे हल्ला मचाते हुए वापस लौटे।

'बच्चों का जाना और उसका आना एक साथ हुआ। साँस भी नहीं ली थी कि हाजिर - मेरा नाम अपूर्व चौधुरी है।'पहले उसने युवक के आने पर झल्लाहट प्रकट की, शिकायत की 'स्टीव भी मानेसर से नहीं लौटा'फिर युवक की मिमिक्री लगातार करती रही और फिर खुद ही तंजिया हँसी रुक कर फिर हँसती रही बोली, 'टिपिकल इंटलेक्चुअल बंगाली हैऽऽऽ स्ट्रेट फ्रॉम कोलकाता, समझीऽऽ...।'और फिर इस बयान के बाद वह और जोर से इतरा-इतरा कर हँसने लगी और उसके बाद उसकी अपेक्षा भरी हँसी खिंचती चली गई। इतनी की मुझे खटक गई, 'बहुत हँस रही हो उस पर, तुम खुद क्या हो? हाँ टिपिकल... क्या? अपने बारे में भी बताओ जरा...।'

'मैं?'वह कुछ पलों के लिए ठक से रह गई। फिर एक अपरिचित शर्मसार-सी टोन में कुछ बुदबुदाई।

'क्या? मैं नहीं सुन पाई?'

'मैंऽऽमैं... 'कैबरे डांसर'...'वह कानफोड़ू वॉल्यूम में चीखी और फोन बंद कर दिया।

अब ठक से रह जाने की बारी मेरी थी। ये क्या बोल रही थी वह? एकदम अनाप-शनाप। बहुत हर्ट हो गई शायद...। मैं सारी रात ग्लानि से भरी सोचती रहीं, और अगले दिन पहली फुर्सत में उसे मनाने पहुँची।

मेरे सामने गजब का नजारा था। स्टेला ने हरा शरारा पहन रखा था, और कुछ लाउड मेकउप भी कर रखा था। मुझे देखते ही उसने झटके से नाचना शुरू कर दिया।

पूरी तरह आमंत्रित करनेवाले अंदाज में। सारी अदाओं के साथ।

मैं ग्लानि से मरने लगी। 'अरे बाबा, आई एम सॉरी, मैं तो यों ही... प्लीज गुस्सा थूक दो।'उसके सामने बैठ मैं, बार-बार माफी माँगने लगी।

'इसमें सॉरी की क्या बात है? तुमने ठीक ही सवाल किया', कुर्सी पर अपना पूरा बोझ डालते हुए वह बोली।

'अपूर्व चौधरी बहुत अच्छा आदमी है, मुझे उसका मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। बस उम्र में मुझसे बहुत छोटा है, क्या करूँ?'

यह बताते वक्त उसकी आवाज रुँआसी हो गई थी, ठीक उस बच्चे सामान, जिसे अपना पसंदीदा खिलौना किसी दुकान के शोकेस में दिख जाता है, लकिन वह उसे खरीद नहीं पाता है। मुझे उसका पूरा व्यवहार बहुत अजीबोगरीब लगा। लेकिन उसने मुझे ज्यादा सोचने नहीं दिया। खट् से सिचुऐशन पलट दी और हौज खास विलेज ले जा कर मेरी ढेर सारी शॅापिंग करा डाली।

जिस दिन स्टीव ने अपूर्व से कहा, 'अरे कभी-कभी स्टेला को भी अपने साथ घुमाने ले जाया करो। हो सकता है, तुम्हारे साथ घूमने पर इसे भी ओल्ड कॉलोनियल मोन्यूमेंटस में इंटिरेस्ट पैदा हो जाय, उसी दिन मैंने सोचा था, स्टीव गलती कर रहा है। अरे, साझेदारी और एकात्मकता कोई उम्र देख कर थोड़ी पैदा होती है? लेकिन स्टीव तो स्टीव था, अपनी बात को कहता ही नहीं था, चाहता था, सभी उससे सहमति भी प्रकट करें, इसीलिए जोर-जोर से अपूर्व की पीठ ठोक ऐलान कर रहा था, 'यू आर ए ब्राइट यंग किड... अच्छे बच्चे हो तुम...। है न... है न?'जब तक हमने सिर हिला कर अपनी रजामंदी नहीं दिखला दी, वह हमारी ओर देखता रहा था।

बच्चे और बड़े की बारीक अंतःरेखा को कभी पकड़ ही नहीं पाया स्टीव, लिहाजा जो बच्चे थे वे बड़े हो गए और बड़े बच्चे।

स्टेला ने भी स्वीकार किया था, जिंदगी बहुत तेज रफ्तार से बदलने लगी थी उन दिनों और दुख और सुख के सारे संदर्भो में वे दिन अविस्मरणीय हो गए थे। सारी बातें जायज और सही लगने लगी थीं।

इसी बीच न जाने कैसे, उसने मुझसे एक दिन पूछा था।

'नाटक पर काम हो रहा है या नहीं?'

'नहींऽऽ'मेरा फ्रस्ट्रेशन बढ़ता जा रहा था। मुझे नई बातें सूझ ही नहीं रहीं थी। सब कुछ पेचीदा होता जा रहा था।

'कोई बात नहीं, ज्यादा टेंशन मत करो देखना अपने आप सब कुछ साफ होता चला जाएगा, और एक बात याद रखना, कीप इट सिंपल।'

इसके बाद चर्च के कई कार्यक्रमों में अपूर्व भी हमारे साथ शामिल हुआ। फिर पार्टीज की प्लानिंग में भी वह स्टेला की मदद करने लगा। एक दो मॉन्यूमेन्ट्स भी स्टेला ने उसके साथ देखे, कई बार रात को ड्रिंक्स पर भी अपूर्व हमारे साथ बैठा। स्टीव और स्टेला दोनों का ही वह अजीज हो चुका था, इसीलिए हर वक्त मौजूद रहता था, लेकिन मेरे मन में पता नहीं क्यों, उसे ले कर बहुत आश्वस्ति बन नहीं पा रही थी।

और अब उस दिन का क्या कहूँ, जिस दिन मेरी शंका अपने समूल-डरावने रूप में मेरे सामने उपस्थित हो गईं। उस दिन तो लगा था, अब इस छोटी-सी सृष्टि पर कोई नहीं बचेगा यदि सबको नहीं तो ज्यादा लोगों को मरना ही होगा। लेकिन आश्चर्य सभी बच गए और तभी कहानी आगे बढ़ी।

क्रिसमस पार्टी के पहले दौर की कोई पार्टी थी, स्टेला और स्टीव के ग्रेटर कैलाशवाले घर पर। बातों-बातें में अपूर्व ने कहा, 'दिल्ली है ही ऐसी, मुझ बंगाली को भी जकड़ लिया है।'लोग मुस्करा दिए। तवज्जो सुरूर को था, बात को नहीं, लेकिन स्टेला बेतहाशा हँसती रही थी, मानो वही दिल्ली हो।

'क्या इमारतें हैं, यहाँ सर,'स्टीव को संबोधित करता हुआ वह स्टेला को देखता रहा था। स्टेला फिर हँस पड़ी थी।

'सरऽऽ सर, वो अपने परदादावाली, कहानी फिर सुनाइए न... वो शिकार का उनका जुनून...।'अपूर्व मोहब्बत से बार-बार इसरार कर रहा था।

माहौल में नशा बढ़ता जा रहा था। स्टीव अब अपूर्व की बातों को ठीक से सुन भी नहीं पा रहा था। उसकी आँखें मुँदने लगी थीं। इसी बीच मैंने देखा स्टेला धीरे-धीरे डगमगाती हुई आई और अपूर्व की कुर्सी के हत्थे पर बैठ गई। इतनी आकर्षक और छरहरी फिगरवाली दीख रही थी वह अपनी गुलाबी ड्रेस में, जिस पर दिल की जगह एक छोटी एंजेल बनी हुई थी। अपूर्व, स्टेला को यूँ देख, एक पल को हैरान हुआ था फिर सहज हो मुस्करा दिया था। उसी दम एक जहरीली फुफकार गूँजी थी सभा में। गुलाबी ड्रेस की ऐंजल कह रही थी, 'कितनी बार सुनोगे वही कहानियाँ? स्टीव के परदादा दारोगा जेलर थे, उनको शिकार का जुनून था सुना तो है तुमने। सचमुच जुनून था उन्हें... ही किल्ड पीपल। यह सुना है? नहीं न? तो सुनो। नेटिव्स पसंद नहीं थे उन्हें। इसीलिए 'धायँ', उन्हीं का शिकार कर लेते थे वो, समझेऽऽऽ?'

यह सुन अपूर्व का चेहरा तेज हवा के उत्पात से कँपकँपाती चिमनी की लौ जैसा हुआ और फिर उत्पात के गुजर जाने के बाद का-सा, खूब रौशन और साफ। चारों और शोर-नशे और मुगलई खानों की तीखी गंधों के बीच 'ऐंजल'की अवाज का सबब ठीक उन लोगों तक ही पहुँचा, जहाँ उसे पहुँचना चाहिए था और मैंने डर और राहत से सोचा, कोई बात नहीं, चलो सृष्टि बच गई।

स्टीव मेरा फेवरेट है। उसके खानदानी गौरव की धज्जियाँ उड़ा दी थीं स्टेला ने। कैसा कहर बरपाया था? लेकिन नहीं, नहीं... नहीं, मैं इस सच को स्वीकारने से इनकार करती हूँ स्वीकार करना तो दूर की बात है, मैंने तो कुछ सुना ही नहीं और चूँकि मैं यह मानती हूँ कि सच कितना भी जरूरी हो लेकिन अगर वह किसी की स्थापित प्रतिष्ठा पर प्रहार करता है, उसके स्तर को मटियामेट करता है, तो मुझे सच के बजाए झूठ ही पसंद। स्टेला कुछ भी कह ले, झूठ के खिलाफ कैसे भी खड़ी हो जाय, मैं, झूठ के पक्ष में ही रहूँगी। स्टीव के झूठ के पक्ष में। अच्छा हुआ, वह कुछ नहीं सुन पाया। मैं पुरानीवाली शान के साथ ही उसके साथ बनी रह रहूँगी।

इस उद्घाटन के बाद अपूर्व ने स्टेला का हाथ पकड़ा और दोनों, मेरे ठीक सामने लगे बार पे खड़े हो बातें करने लगे। उस बहके और बेहोश पल में भी दोनों की आँखों में उठनेवाली चिंगारी पूरी तरह बाहोश थी। अपूर्व चौधुरी और स्टेला नौरिस सच के पाश में एक हो चुके थे।

उस दिन के बाद से स्टेला मुझसे मिलने से बचने लगी। जब मिलती भी तो शौपिंग और शौपिंग की बातें करती थी। अपूर्व की बात करने का मौका ही नहीं आता था। क्रिसमस को बरमुश्किल सात दिन बचे थे। कैरोल गानेवाली टोलियाँ घर-घर जा रही थीं। और गाने गा कर, गिफ्ट दे कर फिर और जोश से सड़कों पर भी निकल रही थीं। 'पास्टर'को जब मौका मिलता, तब वे गरीब घरों में जा कर लोगों को आशीर्वाद दे रहे थे। इन मौकों पर मेरी याददाश्त में पहली बार स्टेला मौजूद हुई थी। सीमापुरी, गीता कालोनी, आजाद कालोनी जैसे स्लम उसने पहली बार कैरोल गायकों की टोलियों के साथ देखे। उसके साथ बिला नागा अपूर्व बना रहा था। पता नहीं अपनी इस तरह की आवाजाही की बातें स्टेला ने स्टीव को बताईं कि नहीं, लेकिन मेरे सुनने में स्टीव की ओर से कोई आपत्ति नहीं आई।

एक दिन दोपहर को स्टेला बिना सूचना दिए मेरे घर पहुँच गई। उसका चेहरा उत्तेजित लेकिन कुम्हलाया हुआ था। मेरे पलंग पर वह चारों खाने चित्त-सी लेट गई और बैग से टिश्यू निकाल अपनी आँखें पोंछने लगी। आँखों के चारों ओर काजल गीला हो छितरा गया था। हालाँकि आजकल हम दोनों के बीच एक रूखी-सी चुप्पी खिंचने लगी थी जिसकी वजह से मैं उसे ले कर कभी सहज नहीं हो पाती थी, फिर भी मैंने अधिकार से चिंता प्रकट की -

'क्या हुआ?'

'कहता है, बहुत हौसलामंद है वह। मैंने कहा बच्चे हो, मेरे बेटे की उम्र से थोड़े ही बड़े... तो बेहद नाराज हो गया, कहने लगा बेटे की उम्र के पास का होना और बेटा होने में फर्क समझती हैं? दो पीढ़ियों के मूल्यों के बीच फँसी औरत हैं आप। जो चाहती थीं कभी कर पाईं? न इधर की रहीं, न उधर की।'

'तुम उससे दूर रहो। भगाओ उसको। है क्या वह... हुँह... एक अदना-सा फोटोग्राफर? तुम उसकी बातों की जद में बेवजह आती जा रही हो। अब एक अजनबी, एक बच्चा तुम्हें डॉमिनेट करेगा?'आज उसके यों खुल कर भाव प्रदर्शित करने से मैं भी, इतने दिनों से भीतर बैठी नागवारी को बहने दे रही थी। स्टीव का खयाल रह-रह कर जो आता था, मेरा गुस्सा बढ़ता जाता था। मेरे बात करते-करते ही मैंने देखा, वह चुप हो गई थी और चुप्पी के बाद संग्रहित ताकत का तेज उसके माथे पर चमकने लगा था। तन कर बैठती हुई बोली थी।

'नहीं-नहीं, तुम गलत समझ रही हो। मैं तो जीवन भर बहुत कारणों और लोगों से डॉमिनेटेड रही हूँ। वह तो इन चीजों से मुझे फ्री कर रहा है। आज की लाइव दुनिया से मेरा इंट्रोडक्शन करवा रहा है। जाने दो... तुम नहीं समझोगी,'बोल वह मेरे घर से बिजली की तरह लापता हो गई थी।

यह तोहद थी! इस भोंदूपने पर, सिर पकड़ कर परास्त हो जाने के अलावा मेरे पास कोई चारा न था।

बाईस दिसंबर की रात उसने मुझे फोन कर निमंत्रण दिया था।

'आओगी? जनपथ पर कॉफी, ढेर सारी जिप्सी स्कर्ट्स की खरीदारी और कनाट प्लेस की भीड़ से अलग, सेंट्रल पार्क में घास पर लेटे चाँद उगने का इंतजार करेंगे। जानती हो ऐसी ठंड में घास पर लेटना कितना मजेदार होता है, अपूर्व के साथ कई बार इस तरह इंतजार किया है मैंने।'

'क्या कर रही हो स्टेला? इस तरह कनाट प्लेस के आसपास घूमती रहती हो अपूर्व के साथ? स्टीव के शो रूम के स्टाफ ने देख लिया तो क्या होगा?'

'क्या होगा?'उसका चिरपरिचित भोंदूपन पुख्ता होने लगा।

'लोग तरह-तरह की बातें करेंगे, इतना भी समझ में नहीं आता तुम्हें?'

'हँह! परवाह किसे है? और ये स्टेटस वगैरह की बातों का कोई मतलब होता नहीं है। अच्छा...'उसने गहरे निःश्वास से कहा, 'आना जरूर आज तुम्हें कुछ बातें बतानी हैं। तुम्हारे आने से पहले अपूर्व को रवाना कर दूँगी।'मुझे लगा, यह अच्छा ही रहेगा। आज उसे इस तरह के संबंधों की परिणति के बारे में, और सामाजिक प्रतिष्ठा (फिर वही मेरा मध्यमवर्गीय आग्रह) के बारे में भी चार बातें समझा ही दूँगी।

ठंडी घास, कड़ाके की सर्दी के बीच, स्टेला और मैं उग आए चाँद को निहार रहे थे, जब मैंने उससे सवाल किया था, 'तुम दोनो के बीच आखिर है कैसा रिश्ता?'

वह खुशी से भर, तत्परता से बोली थी,

'अपूर्व कहता है, इट्स नॉट ए चीप-ब्रीफ अफेयर फॉर हिम।'

'गलत कहता है वह, बरगला रहा है तुम्हें, उसके लिए यह अफेयर ही है और तुम्हारे लिए एक एडवेंचर... समझीं।'मेरा गुस्सा उसे तेजी से जला गया।

'हाँ?'वह उत्तेजित हो एकदम से खड़ी हो गई थी।

'एडवेंचर बहुत हो चुका मेरे जीवन में। जानती क्या हो तुम हाँ? लेखक हो तो बड़ी-बड़ी बातें बनाती रहती हो।'फिर वह तेज-तेज चलने लगी और बड़बड़ाने लगी। बिल्कुल विक्षिप्तों की तरह। मुझे दौड़ कर उससे कदम मिलाना पड़ा।

'उस दिन उस दिन...ऽऽ फोन पर मैंने तुमसे ठीक कहा था, लेकिन तुम्हारे अंदर न जाने कैसी जिदें और कुंठाएँ हैं कि तुम लोगों के सचों को स्वीकार करने से कतराती हो। मैं शादी से पहले एक स्टेज डांसर ही थी। बचपन के मेरे शहर बेतिया से एक डांसर निकली थी, जो हिंदी फिल्मों में बहुत मशहूर हुई। जानती हो उसका नाम...? हेलन! ऐसा लोग कहते थे। जाने अफवाह थी या सच। लेकिन मैंने उसे अपने भविष्य का सच बनाया। स्टीव ने मुझे...।'इसके बाद वह चुप हो कर, पार्क के कोने में बैठ गई थी, मानो उसका काम खत्म हो गया है, और वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई है। मैं भी उसके इस खुलासे से सन्न हो उसके पास बैठ गई थी। मुझे याद आने लगी थी, चर्च और स्टीव के परिचित लोगों की खुसपुस जो आज से बीस-बाईस साल पहले हुआ करती थीं।

'पता नही, कहाँ फँस गया स्टीव।'

'कोई चीप-सी डांसर है, जिसे उठा लाया है।'

'न-न शादी की है, हमने अटेंड की है, प्राइवेट सेरेमोनी में, घर पर। '

'न-न..., बहुत अच्छी है। वेरी अट्रेक्टिव एंड सोफिस्टिकेटेड, फादर-मदर भी नहीं हैं लड़की के।'

यह सब याद करते हुए, मुझे फिर लगा कि आज दुबारा स्टेला ने मेरे सामने चुनौती रखी थी कि मैं अपने भ्रमों से मुक्त हो, सच को सच की तरह स्वीकार करूँ और सहज बनी रहूँ। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती स्टेला। मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकती, इसीलिए मैं आज भी इनकार करती हूँ कि स्टेला मैंने तुम्हारे बारे में कुछ नया जाना है। ऐसा कुछ नया जो इतने दिनों से बनी तुम्हारी इमेज को खंडित करता है। इसीलिए - ऐसा ही हो, कि स्मृति ने आज किसी नई बात को दर्ज नहीं किया है। सनद रहे - स्टेला और स्टीव की उलझी हुई कोई भी बैक स्टोरी नहीं है।

'कीप इट सिंपल, जस्ट कीप इट सिंपल।'

क्रिसमस की पूर्व संध्यावाली पार्टी में मानेसरवाले फार्म हाउस पर भव्य इंतजाम था। चारों ओर क्रिसमसी गाने बज रहे थे। खूब सारी झक-झक करती हुई बत्तियों के बीच आत्मविश्वास से भरा अपूर्व चौधुरी मंच पर चढ़ा और अपने बोल्ड समय का ऐलान करते हुए बोला, 'यह इक्कीसवीं सदी का क्रिसमस है स्टीव सर, आप मुझे इजाजत दें तो मैं आपसे एक सीक्रेट शेयर करना चाहता हूँ। बचपन से हिंदी फिल्मों की डांसर हेलन, मेरी फेवरिट रही है। क्यों न आज की पार्टी उसी के नाम हो जाय। क्यों न आज हम उसी के गानों पर डांस करें?'

चारों और तालियाँ और सीटियाँ बजने लगीं। स्टीव चिल्लाया,

'वाई नॉट?'और जब स्टीव के बगल में बैठी स्टेला का हाथ माँगते हुए, अपूर्व ने इजाजत माँगी, 'क्या मैं मैम के साथ डांस कर सकता हूँ?'तो स्टीव ने बड़ा-सा ठहाका लगाया। अलबत्ता स्टेला की आँखों में एक नन्हा जिद्दी आँसू देर तक अटका रह गया।

कई बातें जो स्टेला ने मुझे बाद में बताईं, उनमें से एक अहम बात यह भी थी कि मेरे अलावा सिर्फ अपूर्व चौधुरी ही वह शख्स था, जिससे उसने 'बड़ी हो कर हेलन जैसी बनना चाहती हूँ'वाली ख्वाहिश बाँटी थी। अपूर्व ने उसकी ख्वाहिश का सम्मान किया था। 'वह बहुत बड़ी सोचवाला, छोटी उम्र का आदमी है,'उसने दाँत पीसते हुए कहा था और मेरी और उलाहना भरी नजरों से देखा था।

उन्ही दिनों मुझे असम जाना पड़ा, एक लंबे दौरे पर। लौट के आने के बाद पता चला स्टीव और स्टेला अपने बेटे से मिलने और यूरोप घूमने जा रहे हैं। जब स्टेला मुझसे मिली तो, शहर के नामी-गिरामी लोगों के बारे में ढेर-सारी बातें सुनाने लगी। अपूर्व चौधुरी की एक बात न की। मेरे अंदर शंका के बादल घुमड़ने लगे। हिम्मत कर मैंने पूछ ही डाला, 'और अपूर्व का क्या हाल है?'

'बिल्कुल ठीक।'वह थोड़ी लापरवाही से बोली और हँसने लगी, एक गीली-गीली-सी हँसी।

'गया था, कोलकाता, अपनी किताब के पब्लिशर से मिलने। आएगा परसोंवाली पार्टी में। वहीं मानेसर।'

'फिर पार्टी है?'

'हाँऽऽ'धीरे-धीरे निस्तेज-सी होती जा रही वह बोली, 'लोग थकते कहाँ हैं पार्टियों से, स्टीव के ऊपर दबाव बनाया 'पोस्ट क्रिसमस पार्टी'करो तुम लोग, अब महीने भर की रौनक समेटे तो यूरोप चले जाओगे। भरपाई करो उसकी।'

'हूँऽऽ', मैने उसे उकसाने की गरज से कहा, 'तुम भी तो नहीं थकतीं, इतनी सारी चीजें, एक साथ सँभालती रहती हो।'

', तुम फिर गलत हो, तुम देख ही नहीं पा रही हो, मैं कितना थक रही हूँ।'

जी किया कह दूँ 'कीप इट सिंपल बेबी'दे मारूँ उसी का मंत्र उसके मुँह पर, लेकिन फिर जाने दिया, उसकी अंदरुनी सेहत बहुत माफिक नही लगी मुझे।

मानेसर की पोस्ट-क्रिसमस पार्टी खास रेट्रो थीम पर रखी गई थी। सब साठ-सत्तर के दशक की हिंदी फिल्मों से इंस्पायर्ड कपड़े पहन कर आए थे। फिजा में टि्व्स्ट, रॉक ऐंड रोल, सांबा का डांस म्यूजिक गूँज रहा था। कुछ नही तो दो सौ गेस्ट थे, जिनके बीच से मैने अपूर्व चौधुरी को मुश्किल से तलाशा। वह एक कोने में ठीक डीजे के मंच के साथ बैठा था और सिगरेट फूँकता हुआ, धुएँ के छल्ले बना रहा था। वह किसी सोच में डूबा हुआ भी लग रहा था। किसी से बातचीत भी नहीं कर रहा था। स्टेला बहुत देर तक उसके पास नहीं फटकी, और एक बार जो गई भी तो दोनों के बीच, नजरों के अलावा कोई आदान-प्रदान नही हुआ। इसके बाद, अपूर्व अपनी टेबल पर शराब के गिलासों का अंबार लगाने लगा। पहली बार मुझे उसकी मनःस्थिति पर चिंता होने लगी। सोचा, स्टेला को बुला कर आगाह कर दूँ, कहीं कोई अप्रिय सीन न हो जाय, लेकिन इसका मौका ही नहीं मिला, क्योंकि उस दिन स्टीव नौरिस पर भी कोई रेट्रो भूत सवार हो गया था। वह बहुत पीने के बाद मंच पर गिरता पड़ता चढ़ गया था, और म्यूजिक बंद करवा कर, माइक में चीखने लगा था, 'साइलेंस... साइलेंस।'

लोग इस अचानक की घोषणा से चकित हो, अपनी-अपनी जगहों पर जम गए। जब स्टीव को पूरी चुप्पी का एहसास हो गया तो वह फिर माइक से चिल्लाया 'स्टेला नौरिस, क्या तुम अब भी स्टीव नौरिस को प्यार करती हो?'

इस अप्रत्याशित सवाल से चारों ओर की हवा भारी हो गई। दबाव की भाषा तनाव भरी थी। लगा शिराएँ फट जाएँगी, धमनियों का खून चारों ओर फैल जाएगा और जो कुछ लोग डूब गए तोऽऽ...। सवाल सुन स्टेला सन्न रह गई। उसने मंच से अपना चेहरा हटा कर, मंच के कोने में रखी इकलौती कुर्सी, और टेबल पर रखे तमाम गिलासों के बीच से अपूर्व चौधुरी की आँखों को खोजा, उसने वहाँ पर भी वही सवाल पाया जो स्टीव ने अभी-अभी उसकी ओर उछाला था। जवाब जान कर, उसका दिल बहुत जोर का दुखने लगा था। उसने बिना समय गॅँवाए, दौड़ कर, स्टेज पर चढ़ कर, स्टीव से माइक छीना और चिल्ला कर कहाँ, 'हाँऽऽ हाँऽऽ हाँऽऽ।'

लोगों ने इस लाउड शो ऑफ इमोशन पर जोरदार तालिंयाँ बजाईं। कुछ लोगों ने आँखों की कोरों से पानी भी पोंछा, और स्टेला और स्टीव ने लोगों के जाने के बाद भी नाचना नहीं बंद किया।

इसके कुछ ही दिनों बाद स्टीव और स्टेला यूरोप चले गए। फेस बुक अपडेट्स से पता चलता रहा, परिवार बहुत मजे कर रहा है।

स्टेला जब लौट कर आई, तब दिल्ली अपने सबसे खूबसूरत पड़ाव पर थी चारों ओर फूल ही फूल, हल्की-फुल्की सहलाती ठंडक और गुनगुनाती धूप। मेरे मन में भी अनोखी उमंग थी। जिंदगी की सच्चाई पर फिर फिर विश्वास करने का मन करने लगा था। जी चाह रहा था, स्टेला से जल्द से जल्द मिलूँ और अपनी बातें शेयर करूँ। इसीलिए उसके आने के अगले ही दिन, मैं उसके घर पहुँच गई। देखा, वह लॉन में बैठी हुई थी और घर के अंदर से किसी अंग्रेजी गाने की आवाज आ रही थी। गौर किया तो समझ में आया, हमारे कॉलेज के जमाने के एक गाने का नया संस्करण था।

LAST CHRISTMAS, I GAVE YOU MY HEART,

BUT THE VERY NEXT DAY

YOU GAVE IT AWAY.

फिर उसे पास से देख तो धक्का लगा। वह एकदम बेजान और मुरझाई हुई लग रही थी। उसके कपड़े बेतरतीब थे, बाल फैले हुए। आज तक जो अपनी उम्र से दस साल कम लगती रही आज अपनी उम्र का ऐलान कर रही थी।

'क्या हुआ?'

'कुछ नहीं।'

'कैसी हो ?'

'मस्त।'

इसके बाद हमारे बीच एक बेरहम-सी चुप्पी पसर गई। कॉफी के दूसरे दौर के बाद उसी ने चुप्पी को भंग किया।

'अपूर्व चौधुरी और मेरे बीच कुछ नहीं रहा।'

'समझती हूँ।'

इसपे उसने मुझे जिबह हो रहे जानवर की आँखों से देखा। मैं उसके इस दुख से भीतर तक थर्रा गई। क्या हुआ था ऐसा... कुछ बताती भी नहीं थी।

फिर उसका मूड अचानक पलट गया।

नाटकीय हँसी हँसते हुए बोली, 'तुम्हारे नाटक में इंटरल्यूड की जगह है? वैसे इंटरल्यूड का वजन होता कितना है? फिल अप द ब्लैंक्स जैसा क्या? हाऽ हाऽऽ बताओ न?'

मैंने उसकी विक्षिप्तता से हुज्जत करने की जरूरत नहीं समझी। चुपचाप उसका हाथ पकड़, उसे बेडरूम में ले गई। वह एक उदास छोटे बच्चे की तरह मेरी बात मान गई। वहाँ पलंग पर हम दोनों सिरहाने से पीठ लगा बैठ गए। मानों अब यही अगला कदम होना था, फिर अगला घटित होगा और उसके बाद फिर अगला। सचमुच उसके बाद वह हलक में फँसी जान को धीरे-धीरे आजाद करने के वास्ते सिसकने लगी। उसके बाद ही, मैंने उसे, मरने के पहले जिंदगी का राज बताना शुरू किया था। इस उम्मीद के साथ कि अब तक जो वह मरने की तैयारी कर रही है, उसे एक सिरे से यदि खारिज नहीं भी कर पाए तो किसी अघोषित अनजान समय के लिए स्थगित तो जरूर ही कर देगी।

'स्टेला, मुझे अंदाजा नहीं था तुम्हारे साथ क्या हुआ लेकिन इस बीच मेरे अंदर भी बहुत कुछ बदला है। तुमने कहा था न, कई बार बहुत सोचना नही पड़ता, चीजें अपने आप सुलट जाती हैं। ऐसा ही होता है स्टेला, मैं मानने लगी हूँ समय बड़ा जालिम हो गया है, झूठ और सच का भ्रम बहुत ज्यादा है। लेकिन जानती हो, फिर भी मैं अब मानने लगी हूँ कि दुनिया अभी भी धोखों की बदौलत नहीं विश्वास के बल पर चल रही है। जानती हूँ, तुम्हारा मन नहीं, लेकिन फिर भी तुम्हारे लिए एक गिफ्ट लाई हूँ। खोलोगी?'प्लीज...।'

वह, एकटक मेरी ओर देख रही थी, और इस बार खुली आँखों से अपने भोंदूपने का इजहार कर रही थी। मै समझ रही थी, स्टीव इस पर क्यों मरता है, और अपूर्व चौधुरी ने इसमें क्या पाया होगा।

धीरे से मैने गिफ्ट उसके हाथों में धकेल दिया। उसने यंत्रचालित-सी हो, उसका रैपर खोला। अंदर से एक किताब निकली। मैंने अपनी नजरें नीचे कर रखी हैं। उसी किताब पर, जो मैं उसके लिए लाई हूँ। मैं इस वक्त उसका चेहरा देख उसके आश्चर्य की पवित्रता को नष्ट नही करना चाहती हूँ। मैं सुनती हूँ, उसके गले से एक घुटी हुई चीख निकलती है। वह अब जरूर देख रही है। किताब का कवर सीपिया रंग में रँगा है। शीर्षक बोल्ड अक्षरों में है।

COLONIAL MONUMENTS OF OLD DELHI

लेखक - अपूर्व चौधरी

वह निस्संदेह अब एक के बाद एक बड़े एहतियात से पन्ने पलट रही है।

किताब में एक पन्ना समर्पण के लिए सुरक्षित है। समर्पण किताबों का स्थायी भाव है।

पन्ने के बीचो-बीच लिखा है,

'कुछ चीजें चिरकालिक होती हैं।'

'यह किताब - हेलन के लिए।'


स्टेला की उँगलियाँ वहाँ ठहर कर, फिर उठ जाती हैं। वह किताब के अन्य पन्नों को नहीं पलटती। धीरे से किताब बंद कर देती है और किताब को एक बार अपनी छाती से चिपका लेती है, फिर दुबारा किताब अपनी गोद में रख, धीरे-धीरे बड़ी मुलायमियत से 'अपूर्व चौधुरी'के नाम पर उँगलियाँ फिराने लगती है, बार-बार, मानो किसी कोमल निष्पाप मेमने की देह सहला रही हो।

मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी 'रक्स की घाटी और शबे फितना'

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समकालीन हिंदी-लेखिकाओं में मनीषा कुलश्रेष्ठको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अलग-अलग परिवेश को लेकर, स्त्री-मन के रहस्यों को लेकर उन्होंने कई यादगार कहानियां लिखी हैं. उमें स्त्री-लेखन का पारंपरिक 'क्लीशे'भी कभी-कभी दिख जाता है तो कई बार वह उस चौखटे को तोड़कर बाहर भी निकल आती हैं. जो लोग यह समझते हैं कि स्त्री-लेखन देह और गेह तक ही सिमटा हुआ है उनको मनीषा जी की यह नई कहानी पढनी चाहिए जिसमें स्वात घाटी के मौसम हैं और वहां के परिवेश का तनाव. निश्चय ही वे अपने लेखन से हिंदी में स्त्री-लेखन के एक ध्रुवांत की तरह हैं. कल हमने दूसरे ध्रुवांत की लेखिका की कहानी पढ़ी थी. ये सब हिंदी स्त्री-लेखन के अमिट रंग हैं- मॉडरेटर =================================================================== 

वे तीनों रात भर हल्के हरे पत्तों के बीच अपने सफेद चेहरे और गुलाबी से बैंगनी पड़े होंठ छिपाए रहीं, बैंगनों और शलगमों के इस खेत में वे तीनों अविचल खेत का ही हिस्सा लग रही थीं, उनके गहरे सलेटी लबादे उनके जिस्म पर मटमैली, बारूदी चाँदनी की तरह लिपटे थे, सबसे छोटी ग़ज़ाला केचेहरे पर बन्धा स्कार्फ खुल कर उड़ा जा रहा था, उसे अपने दिल की धड़कनें तक अज़ाब महसूस हो रही थीं, मानो कि सीने में फूटते कोई छोटे - छोटे विस्फोट,अनवरत !

खेत की पानी भरी नालियाँ तक सहम गईं थीं. बहना बन्द कर चुकी थीं या कि सहम कर चुपचाप बह रही थीं. मौसम तक के लिए चौकन्नेपन का यह अभ्यास नया था, चचा और चचाज़ाद भाई और पिता के नए रवैय्ये...और राजनैतिक समीकरण...मौसमी थे कि स्थायी?  इनमें से कोई समझ नहीं पा रहा था.

खुदा जाने. अब्बू को क्या हुआ. नक़ाब के हिमायती...वो कब से हुए?गीले लबादे को निचोड़ते हुए एक गुलाबी से बैंगनी पड़ा होंठ खुला.
कभी तो चुप रहा करो, मुश्किल वक्त है, ग़ुज़ार जाओ.
दो सहमे गदराए बैंगनी होंठ हरी लताओं में हिलते हुए फुसफुसाए. आकाश में पीले सितारों के कुछ झुण्ड अजीब तरीक़े के आकार में बन बिगड़ रहे थे.
देख हिरण..कमसिन ग़जाला ने बहनों को बहलाने की नाक़मयाब – सी कोशिश की .
और अब देखो ज़रा ?” लुबना ने गहरी आँखों से आकाश में देखा.
बिच्छू..!ग़जाला सिहर गई.
जाने दे, इन सितारों का क्या है ये तो खेल - खेल में खंजर बन जाते हैं कभी सलीब...डर मत, घर चल, सुबह होने को है देख, वो भोर का तारा, इसे ही अंजुम कहते हैं.गुलवाशा ने कहा.
चलें?”
चले गए होंगे वो लोग?”
डर मत...सब ठीक कर लिया होगा अब्बू ने.

एक भारी और उदास मर्दाना आवाज़ और कुछ पतली खिली कमसिन आवाज़ों का कोरस बादलों से खाली रात में पहाड़ से टकरा कर एक तिलिस्म बुन रहा था. नीचे घास पर सफेद नन्हे फूल और आकाश में तारे  खिल रहे थे.
ऎसे मुश्किल वक़्त में महफिल? किस की शामत आई है?
लुबना, तू हमेशा ग़लत ही सोचेगी, लगता यह कोई मजहबी मजलिस है.गुलावाशा ने आश्वस्त किया और मन ही मन महफिल की सलामती की दुआ की.

उस हरे – जामुनी खेत के साथ बकरियों का एक बाड़ा था, जिसके तीन तरफ कच्चे मकानों की दीवारें और सामने की ओर आड़ी-तिरछी लकड़ियों और काँटेदार झाड़ियों का ऊँचा-नीचा जंगल था। जंगल के रास्ते से बाहर आकर वे शहर के सबसे अँधियारे कोने पर खड़ी थीं. गली दर गली वे दोनों संगीत गलीके मुहाने पर पहुँची,  वहाँ सन्नाटा ओढ़े, संजीदा खड़ी उनकी सँकरे गलियारों वाली हवेली थी,  हवेली की नीचे की मंज़िल पर कोई नहीं था, महज कुछ नौकर और बूढ़ी मामा देर रात के उन अनचाहे मेहमानों की रसोई निपटा करके ज़रा सोए ही थे.  दूसरी मंजिल पर भी अब्बू के कमरे में चाय की प्यालियाँ तकरीबन दस – बारह प्यालियाँ रखी थीं. तीसरी मंजिल पर मरहूम दादी अम्मां के कमरे में अब्बू - अम्मी नमाज़ से उठ कर बैठे ही थे, जब वे तीनों वहाँ पहुँची तो, अब्बू बड़बड़ा रहे थे.
बीबी, ज़िन्दगी का हर उजाला छिनता जा रहा है, मगर मुझे फिर भी अँधेरे से प्यार नहीं हो पाता, न जाने क्यूं?”
अँधेरे से किसे प्यार हो सकता है जी, ऎसी अजीब बातें क्यों? “
हो जाता है, देखो न ज़्यादातर चले गए, रक़्स की ये घाटी छोड़ कर अपने गीत और फन छोड़ कर. हमारे खुद अपने सगे ये हवेली छोड़ गए. जो बचे उन्होंने अपने इस पेशे को खुद ही छोड़ दिया. ये बर्बादी इतनी आहिस्ता से होती है कि हमें इसकी आदत पड़ जाती है. इस घाटी की असल रूह तो यहीं भटकती है, शलगम के खेतों में. ........अहा...देखा, ये देखो आ गईं मेरी रूह की तीन परियाँ..अब्बू ने तीनों को अपने चौड़े सीने में भर लिया, तीन फाख़्ताओं की तरह.अब्बू के बदलते सुर को तीनों पहचान गईं, और उस बेसाख़्ता प्यार पर उदासीन रहीं. अपने लबादे उतार कर खूंटियों पर टाँगने लगीं, लुबना ने अपनी साटिन की सफेद सलवार पर से घास के हरेपन को झाड़ते हुए पूछा,
वो लोग चले गए अब्बू?”
..........” 
अबके बार क्या फरमान छोड़ा?’’ 
 वही कि....बता तो चुके हैं. बार बार क्या बताना, इस बार तो वो बस भूखे थे, ढंग का खाना खाना चाहते थे.
फिर भी, कुछ तो कहा ही होगा.
हाँ कहा तो है,  कि वे इस शर्त पर हमारी हवेली नहीं जला रहे कि हमारा परिवार और हमारे लोग जो कभी बेहूदा फिल्मी गाना – बजाना नहीं करते, न हमारी लड़कियाँ नए चलन के कपडे पहन कर नाचती हैं, मगर जो हमारी हवेली और गली का पारम्परिक नाचना-गानाऔर बजाना है, अब वह भी बंद कर दें. ग़ज़ाला का स्कूल भी बन्द हो रहा है, टीचरों को भगा दिया जाएगा. हरे शाक की टोकरी सँभालती अम्मी बोलीं.
स्कूल भी?टीचर भी!!!

तभी बूढ़ी मामा फिर्दौस का पोता सुहैल भीतर आया हाँफता हुआ...और वह जो बोल रहा था उसका मतलब जो भी हो, सबके कानों तक बस यही पहुँचा.
टूटे रबाब, सारंगियाँ, ज़मीन पर लिथड़ते साफ़े..झुके मर्दाना सिर  हेयरपिंस, जूड़ा पिन और टूटे बाल...टूटे गजरे....नुचे और नीले पड़े जनाना जिस्म. अभी जहाँ शादी का जश्न था, संगीत गली की नर्तकियाँ समूह में अपने गोरे रंग और दहकते अनार गालों के साथ, दो लम्बी चोटियाँ आगे डाले, सुर्ख लबादे और स्कार्फ मे सर बाँधे, चाँदी के झाले लटकाए नाच रही थीं..कि अभी जैसे किसी नरभक्षियों के समूह ने तबाही मचा दी हो.
ओह! जिसका डर था, वही हुआ लुबना.
हाँ....मुझे डर नहीं इस होनी का यकीन था.
क्या नई बात? जब फरमान है तो क्यों चोरी से नाचना गाना? शहला की चौक में औंधी पड़ी लाश सब भूल क्यों गईं? और उस घर के मर्द? मुझे तो नाच गाना शुरु से ही पसन्द नहीं.माँ के साथ जहेज़ में आई , मामा फिर्दोस अब्बू के लिहाज़ में दुप्पट्टे की आड़ करके बोली   

फिर्दोस नन्ना, न आपको न आपकी प्यारी ‘बिटिया’ हमारी मम्मी को  नाच – गाना आता भी तो नहीं...ग़जाला चहकी.
आने को इसमें कौनसा...ख़ास...है? यह भी कोई कशीदाकारी कि नक्काशी का काम है?मामा फिर्दोस बुरी तरह कुढ़ गई. 

सही कहती है फिर्दोस, यह नाच – गाना जब जान की अज़ाब बन गया है तो बन्द क्यों न हो ही जाए पूरी तरहा...यूँ भी हमारा तो हमारे मज़हबी कानून में यकीन रहा हैमैदान के इलाके से ब्याह कर लाई गईं, ‘अम्मी’ ने भी उन्हीं लोगों की तरह फरमान सुना दिया.

बीबी, तुमने साबित कर दिया न....कि ये बर्बादी इतनी आहिस्ता से होती है कि हमें इसकी आदत पड़ जाती है. तुम जब हमारे साथ आईं थीं तो हैरां थीं कि हम वादी के लोग बाकि ज़मीन के लोगों से ज़्यादा खुले दिमाग़ और ज़िन्दादिल हैं, हमारी औरतें, घुटन में नहीं रहतीं, न नक़ाब पहनती हैं. तुम ही थीं जो फिदा हुई थीं, हमारे गीतों पर और कहा करती थीं कि इन गीतों में दर्दमन्दी है, मगर इन पर नाचती हुई औरतें, मस्ती में नाचती हैं कि ये गीत जश्न के गीत हों. आज तुम इस कला को मज़हबी जंजीर में बाँधने लगीं...  है ना अजीब बात! अब्बू की इस जहन कुरेद देने वाली बात पर अम्मी आह भर कर चुप हो गईं.

''चलो! नीचे चलें.''वह बेइरादा उठ खड़े हुए। अम्मी और अब्बू दोनों सीढ़ियाँ उतरने लगे। पीछे पीछे वे तीनों. उतरते-उतरते पहले मोड़ पे अब्बू ठिठके और अँधेरे जीने से बाहर उस रोशनदान में देखने लगे जिसमें से नजर आने वाला रोशनदान और उससे परे फैले हुए दरख्त एक विचित्र दुनिया-सी लगते थे।
अब्बू की दहशतजदा आँखें जीने के अँधेरे में कुछ और ज्यादा दहशतजदा लग रही थीं। माँ डर गईं जब पिता ने हार कर कहा तुम ठीक ही समझती हो इस सियासत को बीबी, अब रक्स – घाटी की इस संगीत गली में बची हुई औरतों को समझाना तुम्हारा काम...देखो दुबारा संगीत गली से प्रायवेट शादी ब्याहों में कोई न जाए तो बेहतर. बस कुछ दिन की बात...फिर वही दिन लौटेंगे.
''तुम तो ख्वाब की सी बातें कर रहे हो,''  अब्बू के पीछे आती अम्मी ने हताश हो कर कहा।


वक्त की मनहूस चाल के चलते वैसे ही इस हवेली के रंगीन काँच की खिड़कियों वाले हॉल, जालों से भर गए थे. चचा की सारंगी और उनके नवजवान बेटों के नाज़ुक गलों की अनुपस्थिति से हवेली मनहूस हो गई. शाम से ही रेवन कव्वों का शोर इसे मनहूस बना देता था. फिर रात के ढलते सन्नाटे में गोलियाँ चलने की फट फट आवाज़ आती थी. मरते हुए गले उस ऊपर आसमान में बैठे किसी काल्पनिक खुदा और जन्नत का नाम लेते और न जाने किस भाषा में गोली मारने वाले कोई लोग शोर उठाते उसी क्रूर मालिक के नाम का. एक दिन फिर ऎसा हुआ, ग़जाला ने खुद सुना...बस उस रात के बाद अब्बू लौटे ही नहीं...


ग़जाला ने उन दिनों स्कूल की कॉपी में जो लिखा, वही बस बच रहा.....
1.
ये आवाज़ें पेट में बवंडर उठाती हैं और दिमाग में ख़ला जम कर बैठ जाती...जिस्म मर जाता है. पूरे वज़ूद में हवेली का सा सन्नाटा पसर जाता. तब इस हवेली के भरे पूरे जवान दिन याद आते. बचपन के दिन जब नींद ही अब्बू और उनके भाईयों के रबाब और दिलरुबा की जुगलबन्दी से खुला करती थी...जब दूधिया मकई के खेतों और जलते पलाशों का मौसम हमारे लिए हुआ करता था....हम बच्चे स्कूल जाते और स्कूल से लगे धान के खेतों में उड़ते  ड्रेगन फ्लाई की पूँछ में धागा बाँध कर हैलीकॉप्टर बनाते थे, अब धुँआ उगलते हैलीकॉप्टर रॉकेट लाँचर के साथ वादी के स्कूलों को तबाह करने आते हैं.
बीते हफ्ते मसहबाको उन लोगों ने मार के कब्रिस्तान में फेंक दिया, वह अपनी स्कूल ड्रेस पहने थी. ....बेवकूफ थी क्या? स्कूल तो कबके बन्द हुए थे, स्कूल टीचर कब की मैदान की तरफ चली गई, इमारत उधड़ी पड़ी है. मेरा टीचर बनने का ख्वाब भी.......

अब्बू तो कहते थे कि सरकार सिनेमाघर बचाये न बचाए हमारे स्कूल बचाएगी, अब्बू मर गए, अब किस से ज़िरह करूँ?

2.
मेरी दोनों बड़ी बहनें बहुत अलग थीं, गुलवाशा जैतूनी और लुबना खुबानी की रंगत की थीं, उनकी तीखी नाक और बड़ी आँखें उन्हें बेइन्तहाँ खूबसूरत बनाती थी, मैं ही घर भर में अलग थी, सादा और पढ़ाकू जिसका ताना अब्बू अकसर अम्मी को अकसर दिया करते...
गुलवाशा की... यह जैतूनी रंगत ही उसका ख़ासमखास लिबास थी, और जिस्म की लचक उसका बेशकीमती गहना...अंग अंग में कम्पन भरा था, संजीदगी ऎसी कि मैदानी इलाकों की ख़ानदानी औरतें पानी भरें. माथे पर मोती जड़ी लैस का दुपट्टा बाँध, लम्बा घेरदार रंगीन धागों से कढ़ा लाल कुर्ता और शरारा पहन वह घूमती, मर्द तो मर्द औरतों की आह निकल जाती, लय और ताल का ऎसा जादुई मेल कि बस...उस पर आँखों और मुस्कान का विलास ...दाँत हल्का सा खुलते कि सोने जड़ी कील चमक जाती. भोली आँखों की दुधारी कटार ....बिना मेकअप की गज़ब रूहानी सुन्दरता. लोगों के कलेजे हुमक जाते, जब अब्बू रबाब बजाते और वह हल्का सा उछ्ल कर हाथ आसमान की तरफ उठाती और फूल बरसाती अदा में ज़मीन तक लाती झुक जाती. उठते हुए कनखियों से दिया गया वो आमंत्रण.... मर्द अपने सीने मलते रह जाते.....जानते थे यह अँखड़ियों का विलास नाच तक सीमित है...हाथ भी थामने की इज़ाज़त नहीं.

उसका नाम गुलवाशा यूँ ही नहीं था, फूलों के मौसम में हुई थीवह, इसी उल्लास भरी वादी में
गुलवाशा को अपनी उम्र तक नहीं पता था, कोई पूछता तो वह कहती शायद सतरा या अठरामगर ज़िन्दगी को उसने जड़ों से फुनगियों तक खूब पहचान लिया था. मरने से पहले वह बताती थी, तुम तो बच्ची थीं गोद की, सच पूछो तो हुलसता है मन जब हवेली में अपने अब्बू और उनके भाईयों, अम्मी और चचियों और ढेर सारे भाई - बहनों के साथ बिताए बचपन की याद का पिटारा खोलती हूँ तो, मन कहता है, ज़रा सहेज कर. यादें पुरानी, काली सफेद फोटुओं की तरह होती हैं नाज़ुक- भुरभुरी, धुँधली! हाय! वो दावतें और संगीत की महफिलें, मोहब्ब्त और दर्द के गीतों की तड़प, खिले – खिले चेहरे, जंगली फूलों  के इत्र और लोबानों की महक.

अब्बू जब जवान हुआ करते थे, बहुत रंगीन टोपी पहनते थे, और लम्बा फालसई कढ़ा हुआ लाबादा पहनते और कान में सोने की मुरकियाँ. क्या तो रबाब बजाते और क्या दिलरुबा...सुर उनके दास.
माँ से पूछना कभी, अब्बा के लिए घर – बाहर की कितनी औरतों से लड़ीं थीं वो, उनकी उमर बढ़ती जाती मगर अब्बू की दीवानियाँ कम न होतीं. हर उम्र की...वो चीखतीं ऎसा क्या है तुममें?”
अब्बू मुस्काते तो वह मन मसोस कर चुप रह जाती. घर भर की औरतें, उनका स्वभाव जान उन्हें चिढ़ातीं. कोई चची कहती,
आप को उम्र कभी आएगी कि मिस्त्र से कोई लेप लेते आए हो गए साल. 
कोई पड़ोसन छूकर बात कर लेती,
उमराव, कल हमारी महफिल में आकर दिलरुबा बजा जाईए, किसी रसूख़दार की बेटी की मँगनी है. 
सच्ची गुलवाशा?
अह! मत पूछ कि उजड़ ही गया उस दिन चाचा – चाचियों, बुआओं से भरा घर, और एक दिन जब हम सब सोकर उठे तो दोनों चाचा अपने परिवार समेत ज़रूरत भर का सामान ट्रक में लाद चुके थे. भाई बहन..सर झुकाए अपनी निशानियाँ हमारी मुट्ठियों में थमा रहे थे, बहती आँखों को छिपाते हुए. सब जानते थे, लौटना मुश्किल है मैदानों से.
3.
एक घड़ी वह भी तो आनी थी हम तीन बहनों के जीते – जी. अब्बू को एक बार मजबूरन एक बहुत करीबी के घर महफिल रखनी पड़ गई, सादगी भरे नाच और रबाब की कुछ बंदिशों और अब्बू के गीतों के साथ वह महफिल तो निपट गई, मगर उस महफिल में कुछ बातों पर गौर किया गया, हालात से निपटने और ईंट का जवाब न सही भाटे से मगर विरोध से देने का फैसला हुआ.

तीन रोज़ बाद ही, एक रात हवेली के नीचे बड़े गेट के बाहर कुछ नारे गूँजे और कुछ  विरोध की भी आवाजें उठीं, उधर से कुछ बेसुरी धार्मिक व्याख्याओं से भरी पंक्तियाँ गूँजी. आकाश का मुँह किये कुछ बन्दूकें गरजीं. तब हम बहनें नीचे भागीं
अब्बू को कुछ लोग एक ट्रॉली में बिठाए लिए जा रहे थे  इस बेदर्द और विश्वास से खाली वाक्य के साथ - कुछ दिन बाद लौट आएगा..अम्मी अपने सीने को हाथ से मार मार कर ज़ख्मी किए ले रही थी और अब्बू सिर झुकाए बैठे थे, उन्होंने हम तीनों को आँखों में ऎसी तमाम दुआएँ भर कर देखा कि ...मुझे एक पल को धड़का हुआ कि क्या ये अलविदा है?

अब्बू के रहते अम्मी खानदान रिश्तेदारी में भले नाची, मगर नाच को पेशा नहीं किया, जब साल बीत चला और अब्बू नहीं लौटे तो, गुलवाशा और लुबना प्रायवेट वेडिंग पार्टियों में नाचने लगी. अब्बू के एक दोस्त ने भाई की तरह माँ को सहारा दिया...वो सारंगी बजाते थे, उनके भाई वॉयलिन. गुलवाशा ने उनका साथ कर लिया.
मुझे याद है एक बार एक आदमी, अपने अंग्रेज़ दोस्तों को लाया था एक शादी में... जेनीफर लोपेज़....गुलवाशा को देख के चहका था. जब वो नाची तो अंग्रेज़ के होशगुम, उसका साथी घायल. उस अंग्रेज़ की बीवी पूछ बैठी आप क्या करते हो जो इतने लचीले और पतले हो? क्या डायटिंग करते हो?” जब डायटिंग का मतलब अम्मी को समझ आया तो वो खूब हँसी, उनदिनों खाने को तो पूरा होता नहीं था पूरे कुनबे को, तो वो हँसती नहीं तो क्या करती? वादी में खाना सोने के मोल बिक रहा था. इंतहां जो न कराए....एक रात अब्बू के दोस्त और उनके भाई हम चार औरतों को सोता छोड़ निकल गए. तब गुलवाशा उम्मीद से थी....


4.
और अब कोई उम्मीद नहीं बाकी.....

एक दिन यूँ हुआ ‘एफ एम’ पर तीन चोरी से नाच देखने वालों और दो साज़िन्दों को सरेशाम चौक में कोड़े मारने का ऎलान हुआ और शहर के सब वाशिन्दों को तमाशा देखने बुलाया गया.
उस तारीख को आधी रात बरबाद और टूटी हवेली का ख़ारा कुआँगूँज गया और एक जामुनी किरण पानी में से निकली और अँधेरे में लहर बनाती सारी हवेली में फैल गयी, जैसे किसी ने रात में आतिशबाज़ी चलायी हो। चमकते हुए पानी पे एक अक्स औंधा तैर रहा था।
'गुलवाशा!

शोरे शुदबाजखुबाबे अदम चश्म कुशुदेम,
दी देम के बाकीस्त शबे फितना गुनुदेम।
(दुनिया के शोर ने मुझे जन्नत के ख़्वाब से जगा दिया और मैं इस दुनिया में आ गया लेकिन यहां का हँगामा देखकर मैंने फिर आँखें बन्द कर लीं और मौत की पनाह ली।)

अब भी लुबना कहती है - "मेरा दिल कहता है कि बेहतर समय आएगा और मैं उम्मीद करती हूँ कि तब तक मैं तो जीवित रहूँगी."

काश, लुबना का कहा सच हो, मुझे याद है वो पुराने दिन जब हमारे गाँव बहुत से रिश्तेदार आते थे गर्मियों में, वादी के मौसम का लुत्फ लेते और लौट जाते. संगीत गली की नर्तकियों का नाच देखते और मगन होते...गुनगुनाते लौटते..
आज एक सपना देखा, एक बहुत बड़ी पतंग
, बैंगनी और पीली, ऊँची उड़ती उड़ती कट गई. उसकी डोर धूप में झिलमिला रही थी, वह गिरी मुँडेर से आँगन में, आँगन से ....... मैंने हाथ बढ़ाया मगर हाथ में से निकलती चली गयी। लुबना !

उस रात उसने नाच का रियाज़ नहीं किया, और उस रात मैं ने सब्र किया.. उसी रात अम्मी की धाय जिसे अम्मी और बाकि हम सब भी ‘मामा फिर्दोस’ कहते आए थे. अचानक दिल के दौरे से चल बसी थी.

ग़ज़ाला की स्कूल की कॉपी एक दिन अम्मी ने चूल्हे में बाल दी, अब बच रहे कुछ अक्स, जहन में बनते बिगड़ते.

अक्तूबर की एक ठण्डी. एक अँधेरी, रुआँसू गली. कभी यहाँ हमेशा बत्तियाँ जगमगाती रहती थीं और हर घर से संगीत सुनाई देता था, लेकिन पिछले दिनों कुछ दिनों से यह अंधेरे में है और बिलकुल ठप्प पड़ी है। इस पतली गली में बने एक संकरे से घर का जँग लगा लोहे का दरवाज़ा कोई लगातार खटखटा रहा है. 
कौन है?”
 ” मैं हूँ ...हमारे यहाँ शादी है.
ऎसे मुश्किल वक्त में शादी! कौन दीवाना हुआ है. अम्मी की अधेड़ आवाज़ खरखराई.
अरे नजूमियों के हिसाब से शादी के लिए यही वक्त सही है...
तो बोर्ड देखो न....
कौन सा?”
दरवाजे के बगल में...अन्दर की आवाज़ कराहने लगी.
 गेट के बाँई तरफ लगे एक बोर्ड पर लगा है.  आगंतुक हकबकाया सा बोर्ड पढ़ता है.-- आज से नाचना-गाना बंद. 30 सितम्बर....
ऎसा क्यों? अचानक...अभी तो गुलवाशा नाची थी. हमारे मोहल्ले की शादी में.गरदन और हाथ एक साथ हिलाता है...
गुलवाशा? उसे गुजरे तो महीना हुआ.एक पड़ोसी आगंतुक के पास आता है और बताता है .
अच्छा! फिर महीना दो महीना ही हुआ होगा, उस बात को भी...जब गुलवाशा आई थी मोहल्ले में....कोई और घर नहीं हैं जहाँ कोई और हो....जो हमारे शादी में रौनक कर दे, हमारी भतीजी का होने वाला दूल्हा लन्दन का है और उसने ही डिमांड रखी है कि वो रक्स घाटी की महफिल देखना चाहेगा,...

पड़ोसी बताता है, इस गली में अंदर रहने वाली लड़कियों को कुछ विद्रोहियों का पत्र मिला था, जिसमें उन्हें धमकी दी गई है कि अगर वे चाहती हैं कि उनका घर न जलाया जाए तो वे नाचना-गाना बंद कर दें. आजकल संगीत गली सुनसान है, गली के आस पास के लोग बताते हैं सबसे ज़्यादा क़हर यहीं बरसा है, दर्जनों परिवार दूसरे शहरों में जा बसे लेकिन जिनके पास जीने का दूसरा कोई विकल्प न था, वे यहीं रह गए हैं.

अगंतुक ने देखा गली में कई पोस्टर चिपके हैं,नर्तकियों और गायकों को संबोधित, यह वाहियात पेशा छोड़ देने की धमकी भरे शब्दों के साथ, नहीं मानने पर बम - हमलों का सामने करने की बात भी लिखी थी. मैदान, घाटी में हर कोई जानता है, इस इलाके और इस गली को. यह गली अपनी गोरी-ख़ूबसूरत नृत्यांगनाओं और बहुत ही सुरीले वादकों और गायकों के लिए बहुत प्रसिद्ध है, आस पास के मैदानी शहरों, कस्बों में शादी या अन्य निजी पार्टियों में इनकी महफिलों की बहुत माँग रहती है.

आगंतुक काँप गया. उसने पूछा कि हुआ क्या था आखिर ?
इन्हीं बरसातों के बाद ही तो में सामने वाले ही दरवाज़े से गुलवाशा और उसके शौहर को खींच कर निकाला था,  एन इबादतगाह के सामने चौक पर दोनों को कोड़ों से पीटा गया था. शौहर अगले दिन अपने भाई से साथ गुल हो गया और गुलवाशा अपनी पुरानी हवेली के ख़ारे कुएँ में कूद गई.



स्कूल – अस्पतालों के ध्वस्त होने के बाद, चौराहों पर कई - कई मौतों और कोड़ों की मार के बाद, ‘संगीत गली’ की जगह आजकल ‘खरासियों की गली’ की अचानक बहुत पूछ हो गई. वैसे इस गली में तरह-तरह के लोग बसते थे। सामूहिक पलायन के चलते गधागाड़ियों और खच्चर गाड़ियों और मिनी ट्र्कों की यह सराय बन गई थी. शाम के समय कोई-न कोई परिवार इस गली अपना घर गृहस्थी का सारा सामान ढुलवाता जरूर मिल जाता था. 

सुहैल सामान खच्चर पर लदवाए गली में चढान में ऊपर की तरफ बढ़ा, आगे एक छोटे खुले अहाते में एक लकड़ी का मोटा लट्ठा पड़ा था, वह उस पर से कूद कर एक संकरे दरवाज़े को धकेलता हुआ संगीत गली की संकरी हवेली के पिछवाड़े नौकरों की रिहाईश वाली एक कोठरी में घुसा... अन्दर अँधेरा था, वह अँधेरे से कुछ पूछ कर प्रतीक्षा में शांत हो गया.
माफ करें, ऎसा होना था, और हममें से कोई कुछ न कर सका. अब कारवाँ बढ़ा लेने के सिवा चारा ही क्या?
भीतर के कमरे में किसी  की बूढ़ी सिसकियों से घर की अँधेरे से ढकी दीवारें थरथराती रहीं. मगर दो जवान जिस्मों परछाईयाँ थीं, एक चूल्हे की तरफ झुकी उससे बतियाती और दूसरी जो अँधेरे को ओढ़ कर कोने में अवसन्न बैठी थी, उसकी तरफ से कोई संकेत ना था कि उसने कुछ सुना भी या नहीं. सुहैल को पता था कि उसने उसे सुन लिया है, उसका मन उसके लिए भी दया से भर गया.
वह आहिस्ता से सरकता हुआ कोने में बने और लगभग बुझने को तैयार चूल्हे के पास गया, चीड़ की लकड़ी का एक सूखा टुकड़ा डाल कर फूँकने लगा. अंगारे धधकने लगे और स्फुलिंग उड़ने लगे, आग जली और कमरा उजास और गरमाहट से भर गया.
लुबना, तुम इस वाहियात शहर से बाहर मैदान में क्यों नहीं चली गईं? उन दूसरी नाचने वाली लड़कियों की तरह?तुम तो बहुत, बहुत् बेहतर थीं उनसे.बहुत ही बेतुका सवाल था, दोनों जानती थीं.
मगर तुमने भी तो वादा किया था.....”  वो पीली और दुबली हो गई थी, मगर अब भी उसकी आवाज़ मीठी और नखरा बचकाना था.

सुहैल ने पहली गौर किया कि दीवार से जो छाया सटी खड़ी थी. वह ग़जाला थी. उसके गंदुमी चेहरे पर चूल्हे की आग हिलती डुलती छाया और प्रकाश का खेल खेल रही थी. वह थोड़ी चिढी हुई सी लगी, और यह चिढ़ गुस्से की थी या नफरत की इसका वह अन्दाज़ लगाता रहा.
सुनो ग़ज़ाला, चाहो तो तुम भी निकल सकती हो, मेरे साथ ही रह सकती हो, अगर तुम मुझसे नफरत नहीं करती तो. ” 
ग़ज़ाला होंठ चबाती रही.

देखो, अगर जिस भी कारण तुम मुझसे नाराज़ हो तो.....कोई बात नहीं. न सही मैं... शहर चली चलोगी तोवहाँ इतने सारे पढ़े लिखे मर्दों में से कोई तुम्हें नाचते देख, फिदा होगा ही. और तुमसे शादी कर लेगा. तुम्हारी किस्मत बदल जाएगी,...?

मुझे नहीं जाना तुम्हारे साथ और न ही किसी शहरी मर्द की मेहर चाहिए.लुबना ने  राहत महसूस की. सुहैल ने भी कि आखिरकार इसने बात तो की.
तुम जानती हो, मुझे भी दो - दो औरतों की दरकार नहीं. जानती हो न! उसने कोई उत्तर नहीं दिया. 
तुम तो जानती हो लुबना,जानती हो न?”
हाँ... लुबना ने मिमिया कर कहा.
मेरी ग़लती नहीं थी. बिना पैसा बनाए मैं अच्छा शौहर कैसे बन सकता था. इसीलिए उनसे जा मिला...अब तुम्हारे साथ हूँ फिर से.
हमारा ही क्या गुनाह था, तुम गुलवाशा और उसके शौहर को  फँसा कर चले गए थे. ग़जाला चीखी.
यह झूठ है, मैंने ऎसा कुछ भी नहीं किया.
हाँ हाँ, जो हुआ सो हुआ, पर मुझे अब कुछ गिला नहीं रहा ....लुबना ने बात टाल कर , एक लकड़ी का टुकड़ा चूल्हे में सरका दिया, और उसे कुछ खाने को दिया, मुरब्बे में फफूँद की महक थी और रोटी जली हुई थी. डर, गरीबी और भूख ने बाहर भीतर सब ध्वस्त कर दिया था, उसने पहला गस्सा तोड़ा और निगल लिया....
दो साल बहुत होते हैं. हमने इंतज़ार किया बेहतर वक्त का. मगर वह नहीं आएगा, हमें एक मौका और दे रहा है ख़ुदा. चली चलो...सब जवान लोग यहाँ से जा रहे हैं. 
लुबना पीछे के कमरे की तरफ लपकी ....
''पागल हो? पीछे मुड़ कर मत देखो!''उसने लुबना को और ग़जाला को खबरदार किया।
''क्यों?''
''उधर एक बूढ़ी जादूगरनी रहती है, उसके पास एक आईना है। जिसे वह आईना दिखाती है , वह यहीं रुक जाता है.सुहैल हँसा, अपने मज़ाक पर और लुबना काँप गई, उसने भीतर की दीवारों के पार एक बुढ़िया को राख के ढेर में बदलते देखा...मगर ग़जाला ने पीछे मुड़ कर देख लिया, और अम्मी के पास  
रुक गई.


ग़ज़ाला ने एक ख़त में लुबना को लिखा, वह ख़त बिना पते के कहीं न पहुँच सका.

हम सब जो रह गए थे, किसी न किसी तरह चुपचाप कमाने लगे.  मैं कम्प्यूटर सीखने लगी हूँ, एक खाली बैठे पढ़े – लिखे टीचर से. हम दोनों कभी कभी मोहल्ले के बच्चों को एक एक – दो दो करके पढ़ाते हैं. अपने  मोहल्ले के बगल वाले इलाकॆ में कल रात से फायरिंग हो रही है. मैं और मेरे जैसे और लड़के लडकियाँ दर्द से लदे हैं, पीठ दुख गई है झुके झुके. विस्फोट से हवेली की बची – खुची दीवारें धसक गईं, छत सड़क पर आ लेटी है. वजह इस फायरिंग की गोलियों के शोर में हम अपने गीत भूल गए हैं, रबाब की धुनें और ताल भूल गए हैं. इस गाँव के मर्द जो रबाब बजा कर अपनी बहनों को नाचता देख खुश होते थे, वे गुनगुनाने पर ऎसे घूरते हैं जैसे वे कोई गुनाह कर रही हों.

अम्मा पगलाई सी छाती धुनती हैं, जब लोगों को अपने खच्चरों पर सामान लादे, बिना मुड़े मैदानी शहर की तरफ जाते देखती है. मुझसे कहती हैं, मैं बस करूँ, स्कार्फ से मुँह ढक लूँ. किसी भले, अमीर अधेड़ से शादी कर लूँ, लड़कियों को किताब पढ़ाना और खुद कंप्यूटर पढ़ना बन्द कर दूँ?
क्या तुम्हें अब भी मानना चाहिए इस कानून को जो ईश्वर के नाम से हर धर्म में औरतों के लिए अलग से बनाया जाता रहा है.मेरा कम्प्यूटर टीचर मुझसे पूछता है.

हाँ क्यों नहीं, मेरा भी एतकाद है, इस ईश्वर में और उसके बनाए कानून में, अम्मी और गुलवाशा की तरह ही, लेकिन क्या करूँ कि पिछले कई दिनों से मेरे कान रोते बच्चों और माँओं की कराहों को सुन रहे हैं. मैं अपने घर, तबके और आने वाले वक्त में अमन की पूरी तबाही देख पा रही हूँ.

तुमने कभी सोचा है? स्कूल जाती लड़कियों को कोई कैसे जला सकता है?नाचना – गाना धर्म के खिलाफ कैसे हो सकता है?वह फिर पूछता है. मैं क्या जवाब दूँ? औरतों और बच्चियों को फुसफुसा कर पढ़ाते हुए मैं थक गई हूँ...उन्हें क्या - क्या नहीं समझाती, यह मजहबी कानून और इसका सही मतलब मगर सुनने वालियों के कान बहरे हैं और आँखें उजाड़, ज़बानें उमेठ दी गई हैं....मेरी हिम्मत टूट रही है अब.

 मुझे उम्मीद है – क्या तुम्हें है कि एक दिन ये कान देखेंगें और आँखें सुनेंगी. ज़बानों की उमेंठनें खुल जाएंगी. कहते हुए, कभी कभी मेरा टीचर अपनी बैसाखी खिड़की से टिका कर, मुझे थाम कर मेरा माथा चूमता है. उस रात मैं सपना देखती हूँ, न केवल हम तीनों बहनों के होंठ, न केवल संगीत गली की हर लड़की बल्कि रक्स की घाटी की हर औरत के होंठ बैंगनी से फिर गुलाबी हो गए हैं और सेब के पेड़ों के बीच, हरे कच पत्तों में झुण्ड – के झुण्ड अब्बा की कोई रोमांटिक बंदिश गुनगुना रहे हैं. टहनियाँ रबाब की तरह बज रही हैं.


मनीषा कुलश्रेष्ठ 

गीताश्री की कहानी 'लकीरें'

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गीताश्रीवय से वरिष्ठ हैं लेकिन उन्होंने कहानियां लिखना बहुत देर से शुरू किया. शुरू में ही कुछ ऐसी कहानियां लिख दीं कि 'बोल्डनेस'का विशेषण चिपक गया उनकी कहानियों के साथ. जबकि उनकी ज्यादातर कहानियां स्त्रियों के सशक्तिकरण की हैं, ग्रामीण, कस्बाई स्त्रियों के धाकड़ व्यक्तित्व की हैं, उनकी भाषा में लोक की शक्ति है और परिवेश की जीवन्तता. उनकी यह कहानी 'लकीरें'बड़ी मार्मिक है. शायद इतनी करुणा किसी लेखिका में किसी पुरुष के प्रति न हो. वह भी चोर के प्रति. एक बार पढने पर न भूलने वाली कहानी है- मॉडरेटर 
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तगड़ी कोठी लग रही है, मालदार आसामी होगा. उसने कोठी की दीवारें अंधेरे में टटोली..तर्जनी ऊंगली से ठकठक किया। ओह...ये खोखली है। उसका काम आसान हो गया। दीवारे जहां खोखली हों तो सेंध लगाना कितना आसान हो जाता है, ये कोई ऱघु से पूछे। उस दीवार के उसने प्यार से सहलाया, उसे अपनी आत्मीयता दी और झोले से जली लकड़ी का नुकीला कोयला निकाला और उस जगह पर गोल घेरा बना दिया। अब ये जगह उसकी हो गई थी, जहां वह अपनी राह बनाने वाला था, जो उसे उसकी मंजिल तक ले जाएगी। कम मेहनत में भुरभुरी दीवारें झरने लगीं। उसने बिल्डर को धन्यवाद दिया मन ही मन जिसने घटिया मेटेरिय़ल लगा कर कोठी मालिक को अच्छी चपत लगाई होगी। कई दिन से रघु इस कोठी के चक्कर लगा रहा था। आगे पीछे चारो तरफ घूम घूम कर देखा भाला। कूड़ा बीनने के बहाने दीवारों को ठकठका कर देखा भी। कहीं कहीं खोखली लगीं थी। वह दीवारों के खोखलेपन से ज्यादा धूर्त बिल्डर की बेइमानी पर मुस्कुराया था। किसी के सगे नहीं होती ये बिल्डर की जात। अपना घर भी बनाएंगे तो रेत ज्यादा मिलाएंगे। इससे अच्छे हम चोर भले जो अपने घर में तो चोरी चोरी या ताला तोड़ कर नहीं घुसते। कोठी के दोनों तरफ जमीने खाली पड़ी थी। पीछे के हिस्से में छोटा सा पार्क था जहां मुहल्ले के बच्चे खेला करते हैं। रात होते कोठी के चारों तरफ सन्नाटा हो जाता है। अंदर से एक हल्की लाइट जलती रहती है। रात को भी उसने कई चक्कर लगाए। दिन में कुछ लोग आते जाते दिखते थे। और कोठियो की तरह इस कोठी में रौनकें नहीं दिखतीं थी। उसने कई बार महसूस किया कि कोठी की दीवारों पर बोगनबेलियां नहीं, उदासी की लताएं चढी हुई हैं। कभी कभी गाने की धीमी आवाज आती। जैसे कोई विलाप सुर में कर रहा हो जैसे। पिछले कुछ दिनों से वह इस कोठी को ठीक से परख रहा था। आखिर मोटा माल हाथ लगने की उम्मीद जो थी। वह फेल नहीं होना चाहता था। एक बार हाथ साफ करके कुछ दिन मस्ती में बिताना चाहता था। उसे इस रोमांच को जिए लगभग एक साल हो गया था। गांव, कस्बों में अब भी बदस्तूर उसका धंधा ठीक ठाक चल रहा था। लेकिन महानगर से सटे उपनगर में जब से वह मजदूरी के लिए आया है, असली काम ही भूल गया है। उसे लगने लगा था कि धीरे धीरे वह बदल रहा है और अपना असली कर्म, पुश्तैनी कर्म भूल रहा है। उसके पुरखे उसे कभी माफ नहीं करेंगे। इतनी मेहनत से बाप ने सीखाया। बाबू हमेशा साथ में रखते थे ताकि सावधानी, सुरक्षा और सेंध लगाना सीख जाए। पिता की कुशलता उसे विरासत में मिली थी। वह ताला तोड़ना भी सीख गया था और खोलना भी। उसे अपनी कला पर नाज था। जरा-सी मेहनत, सारा माल अपना। सांप की तरह रेंग कर अंदर जाओ और जो हाथ लगे, समेट लो।
दीवार मे छोटा सुराख करते ही रेत भरभरा कर गिरने लगी। ईंट के टुकड़े भी साथ साथ टूटे। एक घंटे की अथक परिश्रम और चौर्यकला से उसने इतनी सुराख बना ली कि रेंग कर अंदर जा सके। अपने दुबले होने का यही फायदा तो था। सूराख से पहले हाथ अंदर डाला..चारो तरफ खंगाला। हाथ किसी ठोस चीज से टकराई। झट से हाथ खींचा। पता नहीं क्या हो। उसने पोटली से चुंबक लगी छड़ी निकाली। उसको सूराख के अंदर फिराया। बाहर खींचा तो कुछ भी नहीं।
इसका मतलब कोई चाकू छूरी नहीं है...वह बुदबुदाया। उसने राहत की सांस ली।
उसने पहली छोटी चाइनीज टार्च निकाली। सूराख के अंदर माथा घुसेड़ते हुए टार्च जलाया। सामने कोई खुली जगह थी। वहां छोटी छोटी चीनी मिट्टी की मूर्तियां रखीं थीं। वहीं टकराई थी हाथों से। वह सूराख से पूरा अंदर घुस चुका था, अपनी पोटली समेत। अपनी देह से सबसे पहले धूल मिट्टी झाड़ा। एक कोना तलाशा जहां छिपा जा सके। वह एक बड़ी सी उजड़ी सी गोदरेज की अलमारी के पीछे दुबक गया। जीरो वाट के बल्ब वहां जल रहे थे। बाहर से कोठी जितनी अंधेरी दिखती है, अंदर इतना अंधेरा नहीं था। रोशनियां थीं, मरियल और उतरे चेहरे जैसी। अब तक उसने कस्बो में इतनी चोरियां की, बहुत रोमांच झेला। लुकाछिप का खेल खेला। मस्ती की, किसी को दवाई सुंघाई तो किसी का मुंह बंद किया। किसी के हाथ पांव बांध दिए। किसी को खबर न हुई और आराम से माल समेट कर चंपत हो गया। किसी महानगर की यह पहली सेंध थी। इसलिए उसको ज्यादा कुछ समझ में नहीं आ रहा था। छोटा चोर अचानक बड़ी बड़ी चीजों के बीच में खुद को पाकर थोड़ा अचकचाया हुआ था। यहां तो नजारा ही भव्य था. भले रौनक गायब थी। कस्बो में चीजें इतनी पास पास होती हैं कि कई बार अंधेरे मे वह लड़खड़ा जाता था। एक बार तो वह एक बूढे के ऊपर गिरा और बुढ्डा भूत भूत कह कर ऐसा भागा कि चोर हड़बड़ा कर खुद ही भूत भूत कर बाहर भाग निकला। उस दिन घर पर जम कर ठुकाई हुई। कमबख्त..संभल कर पैर नहीं रख सकता। कभी अनाज की टोकरी में पैर रखा तो कभी सिर पर आटे का कनस्तर गिरा। क्या क्या न सहे हमने जुलुम...। सोचते सोचते मुस्कुराने लगा। आज देखते हैं, यहां क्या होता है।
उसे याद आया, सुबह ही उसके साथी रमेश ने कहा था कि दीवार में सेंध वेंध का चक्कर छोड़, ताला तोड़ और सीधा घुस जा..। साथ में तमंचा लेकर चलेंगे। किसी ने ज्यादा ऐश तैश दिखाया तो गला रेत देंगे साले का...। बापू ने कहा था, बालकनी देखना, कई बार लोग बंद करना भूल जाते हैं। उसे आसानी से खोल लेगा। उधर से भी घर में प्रवेश कर सकता है। या चाहे तो छत से चला जा।
सेंध पुराने जमाने की बात हो गई है। कब तक हम चोर ऐसे मुंह छिपा कर अपना काम करते रहेंगे। हमारा जासूसी तंतर ठीक होना चाहिए। दिन दहाड़े जाओ और माल उड़ा दो
रमेश अपने पेशे को लेकर ज्यादा स्वाभिमानी हो उठा था।
उसी ने रघु को बताया कि उसके एक दोस्त ने अपार्टमेंट में रहने वाले एक मकान मालिक से कमीशन वाली दोस्ती गांठ रखी है। अंदर के घरो में ही दिन दहाड़े ताला तोड़ कर गहने, पैसे, लैपटाप उड़ा लाता है। गेट से बाहर जाने का कोई चक्कर नहीं, अंदर का माल अंदर...।
सुन कर रघु हैरान रह गया था। ये तो चोरी ना हुई, मेहनत की कमाई न हुई रमेश...ये तो लूटपाट है..फिर क्या फर्क है हममें और राहजनी करने वालो में...
चुप्प कर..बहुत सवाल उठाने लगा है तू...जा अभी जा..काम पर जा रहा है..पर बता देता हूं, शहर में ताला तोड़ कर घुसना ठीक होवे हैं...घर खाली मिलता है।
घर खाली मिला तो क्या बाबू...कलाकारी तो तब है ना जब सब सोते रहे और हम उनकी आंख से काजल चुरा लाएं। क्यों रमेश...?”
सोचते सोचते अचानक उसकी नजर सामने कमरे की अधखुले दरवाजे पर पड़ी। हल्का अंधेरा और हल्की रौशनी एक साथ छन छन कर बाहर आ रही थी। दबे पांव घिसटता हुआ वह दरवाजे तक पहुंचा। दरवाजे से झांका। दरवाजा खुला देख कर वह खुश हो गया। सारा माल इसी कमरे में होना चाहिए। कमरों में गहने और पैसे रखने की बस दो तीन ठिकाने ही होते हैं। एक बार कमरे में पहुंच गए तो माल उड़ाना मुश्किल नहीं। वह शुभ घड़ी पास आ गई थी। वह खुश था कि कल रमेश और बापू के सामने अपनी उपलब्धियों के बारे में कैसे बखान करेगा। महानगर की पहली चोरी कितनी सफल रही।
धड़कते दिल से अपना सिर थोड़ा अंदर करके देखना चाहा...
अंदर एक अकेली स्त्री सोई हुई है...सिरहाने लैंप रखा है..जल रहा है...वह सोई हुई है..या आंखें बंद...नहीं मालूम। ठीक से उसेनिहारता है...उम्र का अंदाजा नहीं होता उसे.अधेड़, दुबली पतली औरत, चुस्त नाइटी में। मन हुआ, खाली कोठी है, उसे दबोच ले..मुंह दबा देगा..टेप चिपका देगा...पूरा घर खाली..ऐसे भी किसी को पता भी नहीं चलेगा...वह मनमानी करके निकल लेगा..। उम्र ज्यादा हुई तो क्या हुआ। कौन सा उसे घर बसाना है। नहीं नहीं..ये ठीक नहीं है...एक सचेत मन ने उसे दुत्कारा। तेरे खानदान में सारे नीच कर्म हुए हैं, जबरदस्ती वाला काम नहीं हुआ रे रघुआ...
क्यों...माई नहीं चीखती थी क्या, आधी रात को...
माई तो बाबू की पत्नी थी न रे..बाबू का हक जो बनता था..
चाहे माई का मन हो न हो..ये कौन सा हक है जी..
नहीं रे..तू ऐसा नहीं कर सकता...तू तो अपने खानदान में सबसे समझदार माना जाता है रे..नाक मत कटा रे..अपना काम कर और निकल यहां से...
नहीं..मुझे मत रोको..बस एक बार...कौन देख रहा है..चिल्लाएगी तो मुंह पर टेप...
सोचते ही शरीर में कुछ हरकत हुई..नसें तड़कने लगीं..आंखों में बनैले हिंस्त्र पशु जैसी चमक उतर आई।
धीमे धीमे बेड तक पहुंचा। माल-वाल तो बाद में लूटी जाएगी। पहले जोर आजमाइश हो जाए।
लैंप की रोशनी में  उसने देखा...स्त्री के दोनों आंखों के नीचे से पानी की एक लकीर नीचे तक गई है...सूखी हुई...हाथ छाती पर क्रास करके धरे हुए। सीधा मुंह...और मुंह देख कर वह कांप उठा।  
उसे गांव की चौरस नहीं की याद आई..दो दिशाओं में बंट कर जब सूखती थी तो ऐसी ही दिखती थी।
लकीर सी..मटमैली..चौरस नदी। वह तब नदी के पास जाने से बचता था। अनजाना सा भय होता और वह भाग खड़ा होता।

मां कहती थी...औरत और नदी...दोनों दुख विपत्ति पड़ने पर सूख जाते। दोनों का पानी सूख जाता है और बस लकीर बच जाती है। उसे याद आया...माई के चेहरे पर झुर्रियों के बीच एक स्थायी लकीर बनी हुई थी। रघु वहां से लड़खड़ाते कदमों से उठा, अपनी पोटली पीछे टांगी। उसी छेद से रेंगता हुआ बाहर निकला, नीम अंधेरे में वह और औजारो से भरी हुई उसकी पोटली दोनों खो गए।  

अनु सिंह चौधरी की कहानी 'नीला स्कार्फ'

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स्त्री-लेखन की चर्चा में उन लेखिकाओं की चर्चा भी होनी चाहिए जिन्होंने स्त्री-लेखन के दशकों पुराने 'क्लीशे'को तोड़ा और स्त्री-लेखन की सर्वथा नई जमीन तैयार की. इस चर्चा में अनु सिंह चौधरीऔर उनकी कहानी 'नीला स्कार्फ'की चर्चा के बिना यह चर्चा अधूरी ही मानी जायेगी. अनु जी की कहानियों में स्त्री होने का वह लोड नहीं है जिसको आम तौर पर स्त्री-लेखन का प्रस्थान बिंदु माना जाता रहा है. समाज और मान्यताएं इतनी बदल गई हैं, उनकी कहानियों को पढ़कर समझ में आता है. और भाषा भी जीवन के अधिक करीब आ गई है. 'नीला स्कार्फ'अनु जी की सिग्नेचर कहानी की तरह है. बहुत कुछ कहकर भी कुछ न कहने की सर्वथा नई शैली की कहानी- मॉडरेटर 
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शांभवी चुपचाप अपना सामान  ठीक करती रही। बिस्तर पर एक जंबो साइज़ सूटकेस पड़ा था और रंग-बिरंगे तह किए कपड़े बिस्तर पर समेट लिए जाने के मकसद बिखरे पड़े थे। तीन महीने की पैकिंग तो बहुत ज़्यादा नहीं होती, लेकिन विदेश प्रवास का हर लम्हा अच्छी तैयारी माँगता है - मौसम और कल्चर के अनुकूल।
वैसे भी शांभवी को सब कुछ क़ायदे से करने का ऑब्सेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर है। कपड़े क़ायदे से तह करती है, पहनती है, वापस रखती है। जो मूर्त है और नज़र आता है, सब सलीके में बंधा हुआ है – जैसे फ्रिज में डाले जा रहे डिब्बे, फल, सब्ज़ी, बर्तन... रसोई की दराज़ें... लिविंग रूम के कुशन्स... गुलदानों में लगे फूल... अमितेश के साथ सात सालों की गृहस्थी।
जो अमूर्त है और दिखाई नहीं देता, सब बेसलीका है – जैसे रिश्ते, मन, सुख, दुख, शिकायतें...
और सलीके से तह किए रखे कपड़ों के बीच एक बेसलीका-सा सिल्क का नीले रंग का स्कार्फ फ़र्श पर लोट-पोट कर किस अमूर्त बेरुख़ी के ख़िलाफ़ अपनी शिकायत दर्ज करा रहा था? शांभवी की नज़र उस स्कार्फ पर पड़ी तो उसने बस यूँ ही उठाकर मुचड़ी हुई अवस्था में ही अपने हैंडबैग में ठूँस लिया।
ये कमबख़्त स्कार्फ भी न... बेवजह न जाने क्या याद दिला गया था शांभवी को!याद बेरहम कसाई है। बेवजह वक्त-बेवक्त दिल को, लम्हों को, तजुर्बों को चीरने-फाड़ने की बुरी आदत है उसको। कैसी ज़िद्दी होती है यादें कि हमारी पकड़ से कभी इधर, कभी उधर, कभी यहाँ, कभी वहाँ फिसलती रहती हैं और हमारे ही वजूद पर लिसलिसी-सी पड़ी रहती हैं। न पोंछना आसान, न धोना।
इस बार नीले स्कार्फ की डोर यादों के जिस वृक्ष से जा उलझी थी, उस वृक्ष पर लटकी हुई थी एक तारीख़ – २६ दिसंबर की।
शांभवी को अमितेश की उँगलियों में फँसी हुई अपनी एक मुट्ठी में उतर आई पसीने की नरमी की याद सिहरा गई थी अचानक। नीले स्कार्फ ने याद दिलाया कि कैसे सात साल पहले उस बुधवार को अपनी एक हथेली से अमितेश को थामे, दूसरी हथेली में कोल्ड कॉफी के खाली ग्लास में पाइप से बुलबुलों की बुड़-बुड़ भरते जनपथ के चक्कर काटते रहे थे दोनों। कोई और ख़ास वजह नहीं, लेकिन शांभवी को याद है कि २६ दिसंबर वाला वो बुधवार उसकी शादी के बाद के पहले महीने के पाँचवें दिन आया था।
शांभवी को एक और ऑब्सेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर है – तारीखें याद रखने का। चीज़ें, बातें, चेहरे, घटनाएँ - सबको तारीख़ों की गाँठ में बाँधकर मन में रख लिया करती है। इसलिए तारीखें भूल नहीं पाती। इसलिए उसे अच्छी तरह याद है कि नीले रंग का ये सिल्क का स्कार्फ उसने २६ दिसंबर को अमितेश के साथ जनपथ धाँगने के क्रम में खरीदा था।
ये नीला स्कार्फ सिर्फ एक एक्सेसरी हो सकता था, ज़रूरत नहीं। पता नहीं क्यों खरीद लिया था ये नीला स्कार्फ उसने?
पता नहीं क्यों शादी कर ली थी उसने? और ज़ेहन में पता नहीं क्यों ये ख़्याल अचानक आ गया था। लेकिन ज़ेहन में आए ख़्याल अक्सर बेसिर-पैर के ही होते हैं। 
ख़्याल को झटककर, नीले स्कार्फ की याद से जी छुड़ाकर शांभवी वापस अपने काम में लगी ही थी कि बिस्तर के पायताने पड़े लाल जैकेट ने कुछ और याद दिला दिया... नए साल पर १२ जनवरी को मॉल में अमितेश के साथ हुई पहली तकरार...  
बड़ी बेतुकी बात पर लड़े थे दोनों। जैकेट को लेकर। छोटा हैबड़ा हैमैटिरियल अच्छा नहीं है। बड़ा महँगा है। इस लंबी-चौड़ी बहस में पूरे पैंतालीस मिनट निकल गए थे जिसके बाद अमितेश की ज़िद पर शांभवी ने जैकेट खरीदकर सुलह कर ली थी। ये और बात है कि सिर्फ तीन बार पहना था उसने इस जैकेट को। शांभवी को लाल रंग से मितली आती है।
ये सारी बातें उसे आज ही क्यों याद आ रही हैं? इन सारी बातों को वो अपने साथ फ्लाईट पर बिठाकर नहीं ले जाना चाहती, इसलिए शांभवी ने लाल वाला जैकेट वापस हैंगर में टांगकर अलमारी में लटका दिया था।  
इतनी ही देर में ये भी याद आ गया था कि जिस दिन ये जैकेट लिया था, उसी दिन दोनों ने घर के लिए पर्दे भी ऑर्डर किए थे। आसमानी रंग के पर्दों पर सुनहरे रंग की छींट। ‘जैसे शांत-से आसमान से हर वक़्त गुज़रती रहती हो धूप की सुनहरी लकीरें’, अमितेश ने कहा था पर्दे लगाने के बाद। ड्राईंग रूम में अब भी वही पर्दे लटक रहे थे, हालाँकि शांभवी ने अपने कमरे में सफेद रंग की चिक डाल दी थी और अमितेश के कमरे में ब्लाइंड्स लग गए थे।
सिर्फ पर्दों का रंग-रूप ही नहीं बदला था, रिश्तों की सूरत-सीरत भी बदल गई थी। हालांकि दोनों के घर के ऊपर का आसामान तमाम मटमैली अंदरूनी आँधियों के बावजूद बाहर से शांत और साफ़-सुथरा ही दिखता था। बादलों के बीच से धूप भी अपने वक़्त पर निकल आया करती थी। लेकिन आसमान बँट गया था। कमरे अलग हो गए थे। धूप को देखने-समझने के दोनों के टाईम-ज़ोन्स अलग हो गए थे, इतने अलग कि कई बार एक ही कमरे में होते हुए भी दोनों एक जगह, एक स्पेस में नहीं होते थे।
"कब तक लौटोगी?"बहुत देर तक बीन बैग पर ख़ामोश बैठे उसे पैकिंग करते देखते हुए अमितेश ने पूछा था। जब बात करने को कोई बात न हो तो सवाल काम आते हैं।
उसी कमरे में बैठा था अमितेश, इस उम्मीद में कि जाने की तैयारी करते हुए शांभवी कुछ कहेगी – कोई चाहत, कोई शिकायत। कोई आदेश, कोई निर्देश। लेकिन जब ख़ामोशी आदत में शुमार हो जाए जो सामने वाले की उपस्थिति को नज़रअंदाज़ कर देना भी फितरत बन जाती है।    
"जानते तो हो"शांभवी ने छोटा-सा जवाब दे दिया। बिना सिर उठाए, बिना अमितेश के चेहरे, उसकी आँखों की ओर देखे। बात करने को कोई बात न हो तो सवालों का कोई मुकम्मल जवाब भी नहीं मिलता।
अमितेश चुप हो गया और सिर पीछे की ओर टिकाए वहीं बीन बैग पर बैठे-बैठे शांभवी के कमरे में बिखरी हुई आवाज़ों से मन बहलाता रहा। लेकिन कपड़े तह करने और सूटकेस में रखने के क्रम में आवाज़ भी भला कितनी निकल सकती है? थककर वो अपने कमरे में चला गया। अपने कमरे में, जिसे वो अब भी टीवी वाला कमरा कहता है। कई महीनों से उस कमरे में अकेले रहते, उसी में सोते-जागते हुए भी।
एक घर में दो लोग साथ-साथ रहते हुए अकेले रहते हों तो भी एक-दूसरी की मौजूदगी की आदत नहीं जाती। किसी का साथ हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत होता है, चाहे वो भ्रम के रूप में ही क्यों न बना रहे। भ्रम में जीना और फिर भी रूमानी ख़्वाहिशों-ख़्यालों को बिस्तरा-ओढ़ना बनाकर हर रात सो जाना ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सच होता है। ज़िन्दगी का बेशक न होता हो, शादियों का तो होता है। जो साथ है, उसके बिछड़ जाने का डर और जो बिछड़ गया है उसके एक दिन लौट आने की उम्मीद – शादियाँ इसी भरोसे पर चलती रहती हैं।
तीन महीने के लिए जा रही थी शांभवी, सिर्फ तीन महीने के लिए... इस बिछड़ने को बिछड़ना थोड़े कहते हैं, अमितेश ने अपने-आप को समझाया। लेकिन ऐसा क्यों लग रहा था कि शांभवी लौटेगी नहीं अब?इस तरह चले जाने और फिर एक दिन किसी तरह लौट आने से तो उसका बिछड़ जाना ही बेहतर हो शायद। सोचते-सोचते बहुत उदास हो गया था अमितेश। रास्तों के बीहड़ में खो गए रिश्ते ढूंढकर, उसे खींचकर ले भी आएँ तो उनसे जुड़ी तकलीफ़देह यादों का किया जाए?
शांभवी के कमरे की हालत ने भी बेसाख़्ता उदासी से भर दिया था उसको। मेहंदी का उतरता रंग,गहरा होता दिन, पहाड़ों से उतरती धूप, खत्म होती नज़्म, खाली होता कॉफी का प्याला, तेज़ी से कम होती छुट्टियाँ, मंज़िल की तरफ पहुँचती रेल, किसी छोटे-से क्रश की ख़त्म होती हुई पुरज़ोर कशिश और लंबे सफ़र की तैयारी करता कोई बेहद अज़ीज... इनमें से एक भी सूरत दिल डुबो देने के लिए बहुत है!
शांभवी ने एक लिस्ट फ्रिज पर चिपका दी। बाई, खाना बनानेवाली, बढ़ई, धोबी, प्लंबर, चौकीदार, अस्पताल, किराने की दुकान, यहाँ तक कि होम डिलीवरी के लिए रेस्टुरेंट्स के नंबर भी। एक घर को चलाने के लिए कितने काम करने पड़ते हैं, पिछले कई सालों में ये ख्याल तक न आया था अमितेश को। उसे तो एक महीने पहले बाई का नाम मालूम चला था वो भी इसलिए क्योंकि शांभवी ने नोट लिख छोड़ा था मेज़ पर, प्लीज़ टेल कांता टू कम ऐट थ्री टुडे।एक कर्ट-सा, बेहद औपचारिक-सा नोट। शांभवी की फॉर्मल हैंडराइटिंग की तरह। शांभवी के उस औपचारिक, लेकिन बेहद सौम्य और शांत बर्ताव की तरह जिसके साथ जीने की आदत हो गई थी अमितेश को।
वॉशिंग मशीन चलाते हुए, धोबी को इस्तरी के लिए कपड़े देते हुए, कूड़ा बाहर निकालते हुए, ब्लू पॉटरी वाली दो प्लेटों में खाना लगाते हुए, अपने कमरे की सफाई करते हुए, होली-दीवाली पर पर्दे साफ करवाते हुए शांभवी ऐसी ही रहने लगी थी पता नहीं कब से। ऐसी ही फॉर्मल। कर्ट। औपचारिक। ख़ामोश। अमितेश मानना नहीं चाहता था ख़ुद से लेकिन, इन्डिफरेंट भी। एकदम उदासीन। बेरुख़ी की हद तक।
फिर भी घर चल रहा था... अमितेश के ये न जानते हुए भी कि धोबी इस्तरी के कितने पैसे लेता है। बाई की तनख़्वाह क्या है और दस किलो आटा मँगाना हो तो किसको फोन करना होता है। तीन महीनों के लिए ये सब करना पड़ेगा अमितेश को।
तीन महीने में जाने क्या-क्या करना पड़ेगा! तीन महीने में जिंदगी भर के लिए ख़ुद को शांभवी के बिना जीने के लिए तैयार करना पड़ा तो?यदि शांभवी लौटकर न आई तो?
गाड़ी एयरपोर्ट के बाहर एक तेज़ स्क्रीच के साथ रुकी थी। घर में पसरी खामोशी गाड़ी में भी लदकर आई थी साथ और ब्रेक की आवाज़ ने तोड़ी थी वो ख़ामोशी। उसके बाद गाड़ी के गेट की आवाज़ों ने, फिर बूट से खींचे गए सूटकेस की आवाज़ ने बहुत सारी हलचल पैदा कर दी थी अचानक।
शांभवी शायद कुछ नहीं सोच रही थी लेकिन अमितेश के मन का द्वंद्व पूरे रास्ते नज़र आया था। घर से एयरपोर्ट पहुँचने में वो तीन बार गलत रास्तों पर मुड़ा था।उसका वश चलता तो वो गाड़ी घर की ओर मोड़ लेता। लेकिन उसका वश चलता कब है, ख़ासकर शांभवी पर!
शांभवी तेज़ी से बूट से सूटकेस निकालकर उसे खींचते हुए ट्रॉली की ओर बढ़ गई थी। कोई जल्दी नहीं थी। डिपार्चर में वक़्त था अभी। लेकिन ट्रॉली में सामान डालकर वो अमितेश से बिना कुछ कहे प्रवेश गेट की ओर मुड़ गई। अमितेश ने भी रोकने की कोई कोशिश नहीं की। शांभवी को तब तक जाते हुए देखता रहा जब तक उसके गले में पड़े स्कार्फ का गहरा मखमली नीलापन भीड़ के कई रंगों में गुम नहीं हो गया। अमितेश का मन अचानक उसके घर की तरह खाली हो गया था।
चेक-इन के लिए लंबी कतार थी भीतर। अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर तो यूँ भी हज़ार झमेले होते हैं। कस्टम क्लियरेंस और अपना सामान चेक-इन करके बोर्डिंग पास लेने के बाद शांभवी लैपटॉप खोलकर एक कोने में बैठ गई।
डिपार्चर में अभी भी समय था। इतनी देर में कई काम हो सकते थे। ई-मेल के जवाब लिखे जा सकते थे, जी-टॉक पर दोस्तों से बात हो सकती थी, फेसबुक पर दूसरों के स्टेटस मैसेज पर कमेंट किए जाने जैसे बेतुके लेकिन अतिआवश्यक काम निपटाए जा सकते थे, कुछ दिलचस्प ट्वीट के ज़रिए आभासी दुनिया के दोस्तों से बातचीत का कोई तार पकड़ा जा सकता था।
लेकिन शांभवी ने इतने सालों में जब ये सब कभी किया नहीं तो अब पौने दो घंटे में क्या करती? यूँ ही बंद रहने की आदत घर से बाहर पता नहीं कब फ़ितरत बन गई थी उसकी। इसलिए बिना कुछ किए बेमन से ऑफिस के कुछ ई-मेल्स पढ़ती रही, निर्विकार भाव से उनका जवाब देती रही। इधर-उधर सर्फिंग करती रही। फिर पता नहीं कब और क्यों उसने फोटोज़ नाम के एक फोल्डर पर क्लिक कर दिया।
जब हम ट्रांज़िट में होते हैं तो अपनी यादों के सबसे क़रीब होते हैं शायद। या होना चाहते हैं। नॉस्टैलजिया सबसे शुद्ध रूप में घर से बाहर किसी सफ़र के दौरान ही घर करता है।
एक सफ़र से जुड़ती शांभवी की पिछली कई जीवन-यात्राओं की यादें, सब-की-सब यादें इन फोल्डरों में बंद थीं। शादी के पहले की, शादी की, हनीमून की, दोस्तोंकी, परिवार की और उन तारीख़ों की, जिन्हें साल-दर-साल अपनी याद में दर्ज करती गई थी शांभवी।
शादी के सात साल, सात साल की तारीखें और वो एक तारीख़ जिसने सबकुछ यूँ बदला कि जैसे यही तय था। ये टूटन, ये बिखरन... और बिखरे हुए में जीते चले जाना उस अधूरेपन के साथ, जिसकी कमी अब अमितेश को खल रही थी।
तेरह फरवरी। याद है तारीख शांभवी को। इसलिए याद है कि तीन फरवरी की डेट उसने मिस कर दी थी। कुछ दिनों के इंतज़ार के बाद होश आया तो सेल्फ-टेस्टिंग प्रेग्नेंसी किट ने उस डर पर मुहर लगा दी, जिस डर ने पूरी रात अमितेश को जगाए रखा था।
वी कान्ट। हम इतनी जल्दी नहीं कर सकते शांभू।कमरे में चहल-कदमी करते अमितेश ने बेचैन होकर कहा था। कितना कुछ करना है अभी। यू हैव अ करियर। मुझे अपना काम सेटल करना है। हम तैयार नहीं हैं। वी जस्ट कान्ट।अमितेश बोलता रहा था और शांभवी सुनती रही थी। सुन्न बनी हुई। उसका दिमाग़ नहीं चल रहा था। फिर भी आदतन जिरह की एक कोशिश की थी उसने।
"तैयार क्यों नहीं हैं? तुम 32 साल के हो, मैं 27 की। सही उम्र भी है, फिर क्यों?"शांभवी ने पूछा तो, लेकिन उसकी आवाज़ में हार मान लेने जैसी उदासी थी।
"शादी को तीन महीने भी नहीं हुए। मैं तैयार नहीं और इसके आगे हम कोई बहस नहीं कर सकते।"अमितेश ने अपनी बात कहकर बहस ख़त्म होने का ऐलान करने का सिग्नल देकर कमरे से बाहर निकल जाना उचित समझा। उसके बाद दोनों में कोई बात नहीं हुई, ऐसे कि जैसे ये शांभवी का अकेले का किया-धरा था, ऐसे कि जैसे वही एक ज़िम्मेदार थी और फ़ैसला उसी को लेना था।
फिर दो हफ्ते के लिए अमितेश बाहर चला गया,  शांभवी को दुविधा की हालत में अकेले छोड़कर। अपनी इस हालत का सोचकर खुश हो या रोए, बच्चे के इंतज़ार की तैयारी करे या उसके विदा हो जाने की दुआ माँगे, ये भी नहीं तय कर पाई थी अकेले शांभवी। वे दो हफ्ते जाने कैसे गुज़रे थे...
शांभवी ने अपनी सास को फोन पर खुशखबरी दे दी थी, ये सोचकर कि वो अमितेश को समझा पाने में कामयाब होंगी शायद। अपने चार हफ्ते के गर्भ की घोषणा उसने हर मुमिकन जगह पर दे दी  शायद सबको पता चल जाए तो अमितेश कुछ न कर सके। बेवकूफ़ थी शांभवी। फ़ैसले दुनिया भर में घोषणाएँ करके नहीं, ख़ामोशी से, अकेले लिए जाते हैं।
वैसे भी अमितेश के वापस लौट आने के बाद कोई तरीका काम नहीं आया। वो अपनी ज़िद पर कायम था। दो हफ्ते तक जो उसे बधाई दे रहे थे, उसे ख़्याल रखने की सलाह दे रहे थे, अमितेश के आते ही उन सब लोगों ने अपना पाला बदल लिया था।
माँ ने फोन पर शांभवी को समझाया, "जब प्लानिंग नहीं थी तो तुम्हें ख्याल रखना चाहिए था। तु्म्हें उसके साथ जिंदगी गुज़ारनी है। जिस बच्चे की ज़रूरत वो समझता नहीं, उसे लाकर क्या करोगी? मैं तुम्हें तसल्ली ही दे सकती हूँ बस।"
किसी की दी हुई तसल्ली की ज़रूरत नहीं थी उसे। जो सास उसकी प्रेगनेंसी पर उछल रही थीं और मन्नतें माँग रहीं थीं, उन्होंने भी बात करना बंद कर दिया। शांभवी और किसी से क्या बात करती? तीन महीने में ही शादी में पड़ने वाली दरारों को किसके सामने ज़ाहिर करती? उसकी बात भला सुनता कौन?
दो चेक-अप और एक अल्ट्रासाउंड के लिए अकेली गई थी वो। अल्ट्रासाउंड की टेबल पर उसकी आँखों के कोनों से बरसते आँसू से सोनोलॉजिस्ट ने जाने क्या मतलब निकाला होगा? वो उठी तो सोनोलॉजिस्ट ने पूछ ही लिया, "आप शादी-शुदा तो हैं?"
"काश नहीं होती!"ये कहकर शांभवी कमरे से निकल गई थी।
अमितेश शांभवी को लेकर डॉक्टर के पास तो गयालेकिन अबॉर्शन की जानकारी लेने के लिए। डॉ सचदेवा उसके दोस्त की बुआ थींइसलिए कोई खतरा नहीं होगा, ऐसा कहा था उसने। डॉ सचदेवा ने दोनों को समझाने की बहुत कोशिश की। लेकिन चेक-अप के दौरान शांभवी की तरल आँखों ने सबकुछ ज़ाहिर कर दिया। अमितेश ने अबॉर्शन के लिए अगली सुबह की डेट ले ली थी।
उस रात शांभवी की आँखों ने विद्रोह कर दिया था। आँसू का एक क़तरा भी बाहर न निकलाऔर मन था कि ज़ार-ज़ार रो रहा था। इतनी बेबस क्यों थी वो? इस बच्चे को उसके पति ने ही लावारिस करार दिया था और खुद उसके बगल में पीठ फेरे चैन की नींद ले रहा था।शादी जैसे एक तजुर्बे में जाने कैसे-कैसे तजुर्बे होते हैं!
शांभवी अगली सुबह भी शांत ही रही। अमितेश गाड़ी में इधर-उधर की बातें करता रहा। अपने घर के नए फर्नीचर और दीवारों के रंग की योजनाएँ बनाता रहा। अपने नए प्रोजेक्ट की बातें करता रहा। उसके नॉर्मल हो जाने का यही तरीका था शायद। मुमकिन है कि अमितेश भी उतनी ही मुश्किल में हो और इस तरह की बातें उसके भीतर के अव्यक्त दुख को छुपाए रखने की एक नाकाम कोशिश हों। लेकिन दुख भी तो साझा होना चाहिए। जब हम दुख बाँटना बंद कर देते हैं एक-दूसरे से, तो ख़ुद को बाँटना बंद कर देते हैं अचानक।
इसलिए शांभवी वो एकालाप चुपचाप सुनती रही। वैसे भी ये अमितेश की योजनाएँ थीं। इसमें साझा कुछ भी नहीं था। जो साझा था, आज खो जाना था। साझी रात। साझा प्यार। साझा जीवन। साझा दुख।
शांभवी सुबह सात बजे डॉक्टर से मिली, अबॉर्शन के लिए।
"तुम सात हफ्ते प्रेगनेन्ट हो शांभवी।"
"जानती हूँ। और ये भी जानती हूँ कि इस वक्त तक बच्चे का दिल भी बनने लगा होगा, दिमाग भी। जानती हूँ कि उसकी पलकें बनने लगी होंगी, दोनों कुहनियों में अबतक मोड़ भी आ गया होगा शायद।"जो शांभवी पूरे रास्ते कुछ नहीं बोली थी, उसने अचानक डॉक्टर के सामने जाने कैसे इतना कुछ कह दिया था!
डॉ सचदेवा एक ठहरे हुए पल में बहुत ठहरी हुई निगाहों से शांभवी को देखती रहीं। "अब भी वक्त है, सोच लो"डॉक्टर ने भी कुछ सोचकर कहा था।
शांभवी ने कुछ कहा नहीं, बस कुर्सी के पीछे की दीवार पर सिर टिकाकर आँखें मूँद ली थीं।
डॉक्टर सचदेवा ने नर्स को बुलाकर एमटीपी के पहले की कार्रवाई पूरी करने की हिदायत दे दी। कपड़े बदलने के बाद शांभवी को स्ट्रेचर पर लिटाकर ऑपरेशन थिएटर पहुँचा दिया गया। उसने आखिरी बार अपने पेट पर हाथ रखकर अपने अजन्मे बच्चे से माफी माँग ली। उसे विदा करते हुए कहा कि वो हर उस सज़ा के लिए तैयार है जो उसके लिए मुकर्रर की जाए। उसने आखिरी बार आँखें बंद करते हुए आँसुओं को पीछे धकेल दिया। तब तक जनरल अनीस्थिसिया असर करने लगा था और शांभवी किसी गहरी अंधेरी खाई में गिरने लगी थी।
अबॉर्शन के बाद जब होश आया तो वो रिकवरी रूम में थी। अमितेश के हाथ में दो पैकेट थे। एक में सैनिटरी नैपकिन और दूसरे में जूस और बिस्किट। शांभवी चाहते हुए भी मुँह न फेर सकी।
उसके बाद की घटनाएँ फास्ट-फॉरवर्ड मोड में चलती रहीं। उसे याद नहीं कि कितने दिन कमज़ोरी रही, ये भी याद नहीं कि कितने दिनों तक ब्लीडिंग हुई थी उसे। ये याद है कि उसी हालत में उसे अमितेश ने घर भेज दिया था,माँ के पास।
"इस हालत में कौन ख्याल रखेगा तुम्हारा? घर छोटा है। किसी और को नहीं बुला सकते। मैं ट्रैवेल कर रहा हूँ, कैसे रहोगी अकेले? इसीलिए तो कहता था, बच्चे के लिए सही वक्त नहीं है ये।"
शांभवी अकेले सबके सवालों के जबाव देती रहीअकेले दर्द बर्दाश्त करती रहीअकेले अपने ज़ख्मों को भरने की कोशिश करती रही। ये दर्द वक्त के साथ कम हो जाता शायद, अगर अमितेश ने साथ मिलकर बाँटा होता। लेकिन उसने भी शांभवी को उसके गिल्ट, उसकी तकलीफ़ के साथ अकेला छोड़ दिया था। शायद इसलिए भी शांभवी अमितेश को माफ न कर सकी। लेकिन अपने फ़ैसले ख़ुद न ले पाने के लिए वो ख़ुद को भी नहीं माफ कर सकी थी। दूसरों को माफ करना आसान होता है। अपनों को, और ख़ुद को माफ़ करना सबसे मुश्किल।  
और फिर जाने कब और कैसे रोज़-रोज़ के झगड़े आम हो गए। जिस शख़्स पर भरोसा करके उसके साथ जिंदगी गुज़ारने की कसमें खाईं थीं, उसी शख्स के साथ घर और कभी-कभार बिस्तर बाँटने के काम ने एक औपचारिक रूप अख़्तियार कर लिया।
जिंदगी यूँ ही चलती रही। जो दर्द किसी सूरत में कम न हो सका, उस दर्द को काम और ढेर सारे काम के समंदर में डुबो दिया शांभवी ने। शादी से बाहर जाने का न कोई रास्ता था, न ऐसी कोई प्रेरणा थी जिसकी वजह से वो कोई फ़ैसला लेती। जो वक़्त कट रहा था, उस वक़्त को बस कटते रहने दिया था उसने।
उधर रिश्तों में आ रही दरारों से बेपरवाह अमितेश एक के बाद एक ज़िन्दगी की सीढ़ियाँ चढ़ता रहा। वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगाके दुनिया के सबसे बेकार फ़लसफ़े पर यकीन करो तो सब ठीक, और बिना यकीन किए इसी उम्मीद में जिंदगी गुज़ार दो तो सब बर्बाद।
लेकिन अमितेश को यकीन था कि सब ठीक हो ही जाएगा एक दिन। इसलिए अपनी तरफ से सबकुछ नॉर्मल मानकर उसने भी खुद को पूरी तरह काम में झोंक दिया। बिज़नेस में इतनी जल्दी इस मुकाम तक पहुँचने की उम्मीद उसने खुद भी न की थी। तीन सालों में ही ई-कॉमर्स की उसकी हर कोशिश, हर वेंचर कामयाब रहा। लोन चुकता हो गया, जिंदगी सँवर गई। कम से कम बैंक बैलेंस और गाड़ी के बढ़ते आकार से तो इसी बात का गुमान होता था।
एक दिन गुरूर में अमितेश ने शांभवी को वो कह दिया जिससे दूरी घटी नहीं, इतनी चौड़ी हो गई कि पाटना मुश्किल।
अब हम बच्चा प्लान कर सकते हैं शांभवी। बल्कि मैं तो कहूँगा कि तुम नौकरी छोड़ दो और आने वाले बच्चे की तैयारी में लग जाओ।अमितेश ने बाई के हाथ की बनाई थाई करी में ब्राउन राइस मिलाते हुए कहा था।
शांभवी ने कुछ कहा नहीं, अपनी प्लेट लेकर बेडरूम में चली गई थी।
जब हम एक-दूसरे से कम बोल रहे होते हैं तो अक्सर ग़लत वक़्त पर ग़लत बातें ही बोला करते हैं। शांभवी के ब्राउन राइस में आँखों का नमकीन पानी मिलता रहा। वो चुपचाप खाना खाती रही। उस रात की सुपुर्दगी एक उम्मीद ही थी बस कि सब ठीक ही हो जाएगा एक दिन। किसी भी तरह के यकीन से खाली हो चुकी एक उम्मीद।
उम्मीद का रंग अगले महीने की प्रेगनेंसी किट पर एक लकीर के रूप में नज़र आया था। लेकिन इस बार शांभवी ने न जाने क्यों न अमितेश से कुछ कहा न किसी और से। उसी तरह दफ्तर जाती रही। कभी सोलह घंटे, कभी अठारह घंटे काम करती रही। यूँ कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं और यूँ कि जैसे एक अंदेशा भी हो कुछ होने का।
फिर एक दिन रात को वो हुआ जिसका शांभवी को उसी दिन अंदेशा हो गया था जब वो ऑपरेशन थिएटर की टेबल पर अकेली जूझ रही थी, चार साल पहले। नींद में ही उसे ब्लीडिंग शुरू हो गई। अमितेश परेशान हो गया। अगली सुबह दोनों डॉ सचदेवा के घर पहुँचे तो उन्होंने उन्हें तुरंत अस्पताल जाने की सलाह दी।
एक के बाद एक दो अल्ट्रासाउंड के बाद जाकर परेशानी का सबब समझ में आया। सोनोलॉजिस्ट ने अमितेश को बुलाकर मॉनिटर पर शांभवी के गर्भ की स्थिति दिखाई।
एम्ब्रायो फैलोपियन ट्यूब में रह गया था। सात हफ्ते का गर्भ था इसे। आप लोगों ने गायनोकॉलोजिस्ट को नहीं दिखाया था? आपको मालूम है, ट्यूब में रप्चर आ गया है?कुछ घंटों की भी देरी हुई होती तो मैं नहीं कह सकती कि क्या हो जाता। हाउ कुड यू बी सो रेकलेस?”
हमें इस प्रेगनेंसी के बारे में नहीं मालूम था डॉक्टर।अमितेश ने करीब-करीब शर्मिंदा होते हुए कहा। सोनोलॉजिस्ट ने एक गहरी नज़र से अमितेश को देखा, कहा कुछ नहीं।
ब्लड टेस्ट और बाकी जाँच के बाद आधे घंटे के भीतर ही शांभवी को वापस ऑपरेशन थिएटर में पहुँचा दिया गया। ऑपरेशन करके ज़हर फैलाते भ्रूण और शांभवी के फैलोपियन ट्यूब, दोनों को काटकर निकाल दिया गया।
शांभवी एक बार फिर रिकवरी रूम में थी, एक बार फिर अमितेश हाथ में जूस और सैनिटरी नैपकिन्स लिए सामने खड़ा था।
मैंने डॉक्टर से बात की है शांभू। कोई परेशानी नहीं होगी। तुम माँ बन सकती हो। ट्यूब के निकाल दिए जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तुम चिंता तो नहीं कर रही?”
इस बार शांभवी ने मुँह फेर लिया था। उसकी आँखों से बरसते आँसू प्रायश्चित के थे। उसे पहली बार ही लड़ना चाहिए था, ज़िद करनी चाहिए थी, बच्चे को बचाए रखना चाहिए था। उसे पहली बार ही फ़ैसला लेना चाहिए था।
घर आकर दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ती चली गईं। शांभवी किसी से मिलने के लिए तैयार नहीं थी, न गायनोकॉलोजिस्ट से, न किसी साइकॉलोजिस्ट से। बल्कि जितनी बार अमितेश डॉक्टर से मिलने को कहता, शांभवी धीरे से कहती, हमें डॉक्टर की नहीं, मैरिज काउंसिलर की ज़रूरत है या फिर वकील की।
अमितेश ने अब कुछ भी कहना छोड़ दिया। जाने गलती किसकी थी, और सज़ा की मियाद कितनी लंबी होनी थी। अमितेश ने भी तो बेहतरी का ख़्बाब ही देखा होगा... लेकिन जब दो लोग एक ही फ़ैसले के दो धुरों पर होते हैं तो उन्हें जोड़ने का कोई रास्ता नहीं होता। वे किसी तरह समानान्तर ही चल सकते हैं बस।
वक़्त कटता रहा, वैसे ही जैसे पहले भी कट रहा था। दोनों ने एक ही घर में अलग-अलग कमरों में अपनी दुनिया बसा ली। जो साझा था, वो ईएमआई के रूपों में चुकता रहा।
फिर एक दिन शांभवी ने तीन महीने के लिए फेलोशिप की अर्ज़ी दे दी और विदेश जाने को तैयार हो गई। फ़ासले कम करने की बेमतलब की कोशिश से अच्छा था दूर चले जाना। कुछ ही दिनों के लिए सही। दूर रहकर शायद बेहतर तरीके से सोचा जा सकता था, फ़ैसले लिए जा सकते थे।
शांभवी का सेल फोन बजा तो होश आया उसको। बोर्डिंग का वक़्त हो चला था। उसने कुछ घंटियों के बाद फोन उठा लिया।
"चेक-इन कर गई हो?"
"हूँ।"
"नाराज़ होकर जा रही हो?"
शांभवी ने बिना जवाब दिए फोन रख दिया।
यहाँ के बाद डाटा कार्ड की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, इसलिए आख़िरी बार पता नहीं क्यों उसने ई-मेल खोल लिया। 
इन्बॉक्स में अमितेश का नाम देखकर अजीब-सी सिहरन हुई थी उसको। शादी से पहले अमितेश के मेल का वो कैसे घड़ी-घड़ी इंतज़ार करती थी! किसी असाइनमेंट के लिए छह महीने के लिए बैंगलोर में था अमितेश। ऑफिस से चैट नहीं हो सकता था, इसलिए दोनों एक-दूसरे को ई-मेल भेजते। हर पाँच मिनट में एक मेल आता था तब। शांभवी किसी मीटिंग में होती तो भी उसका ध्यान लैपटॉप पर ही होता। दोनों की दीवानगी का ये आलम आठ मार्च से सोलह अगस्त तक चला था। शांभवी वो तारीख़ें भी नहीं भूली थी। सोलह अगस्त को सगाई के बाद खाना खाते हुए उसने हँसकर अमितेश से कहा भी, "शादी के लिए हाँ तो मैंने तुम्हारे मेल पढ़-पढ़कर कर दिया। जितने दिलचस्प इंसान तुम हो नहीं, उतने दिलचस्प तुम्हारे मेल हुआ करते हैं।"
फ्लर्ट करने के लिए भी अमितेश ई-मेल लिखता था। प्रोपोज़ भी ई-मेल पर किया था। शादी की प्लानिंग भी ई-मेल पर हुई थी और इस बार सफाई देने के लिए, अपनी बात कहने के लिए अमितेश ने ई-मेल का ही सहारा लिया था। बहुत देर तक शांभवी स्क्रीन को घूरती रही। जी में आया कि बिना पढ़े मेल डिलीट कर दे। आखिर इस सफाई का क्या फायदा था?
लेकिन आखिरकार उसने ई-मेल खोल ही लिया। मेल के साथ अटैचमेंट्स भी थे जिन्हें डाउनलोड होने के लिए डालकर शांभवी मेल पढ़ने लगी।
"शांभू,
जानता हूँ बहुत नाराज़ होकर जा रही हो। ये भी जानता हूँ कि इतनी नाराज़ क्यों हो। इसे कोई सफाई मत समझना, लेकिन तुम्हारे लिए कुछ पेपर्स भेज रहा हूँ अटैच करके, देख लेना। मेरे बैंक स्टेटमेंट हैं और एक एग्रीमेंट की कॉपी है जो मैंने कल ही साईन की।
तुमसे मिलने के बाद लगा कि तुम्हारे लिए बेहतर जिंदगी का इंतज़ाम कर सकूँ, इसके लिए कुछ खतरे उठाने होंगे। इसलिए नौकरी छोड़ी और कंपनी शुरू कर दी। तुम्हें किराए के घर में नहीं रखना चाहता था, इसलिए लोन लेकर और सारी बचत तोड़कर घर ले लिया। जानता हूँ कि शादी के बाद तुम्हें वो कुछ भी नहीं दे सका जिसके सपने हमने बुने थे। लेकिन मैं इन सबके लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा था शांभवी। तुमसे ये सब तब नहीं बाँटना चाहता था, तुम परेशान हो जाती। तुम यूँ भी बहुत परेशान थी। भले मुझे बच्चे के न आने के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दो, लेकिन अपनी खस्ताहाली में एक बच्चा लाकर मैं बोझ और नहीं बढ़ा सकता था। तुमपर तो बिल्कुल नहीं।
कुछ चीज़ों पर हमारा बस नहीं होता, कई बार अपनी भावनाओं, अपनी प्रतिक्रियाओं पर भी नहीं। कुछ मैं विवेकहीन हुआ, कुछ तुम्हारा व्यवहार दिल दुखाने वाला रहा। लेकिन प्यार तो हम अब भी एक-दूसरे से करते हैं। वर्ना तुम मेरी सुविधा की सोचकर मेरे लिए फ्रिज पर नंबर न छोड़ जाती।
फेलोशिप पूरी कर आओ, दुनिया घूम लो। तबतक मैं अपने घर में बच्चे के लिए हर तैयारी कर लूँगा। लौट आना। जल्दी।"
मेल के साथ तीन अटैचमेंट थे- एक बैंक स्टेटमेंटकिसी प्रोजेक्ट का एग्रीमेंट और एक गानाजिसे शांभवी सुन पाती, उससे पहले उसे फ्लाईट डिपार्चर का अनाउसमेंट सुनाई दे गया।
शांभवी ने अपना लैपटॉप बंद कर दिया। सिर्फ एक ही ख़्याल आाया था उसको, बच्चे को दोनों ने मिलकर बचाया होता और हर हाल में पाल-पोसकर बड़ा किया होता तो आज की तारीख़ को वो छः साल का होता। अब शांभवी किसी को दोषी नहीं ठहराएगी, सिवाय खुद के।
अपनी किस्मत भी अपनी, अपने फ़ैसले भी अपने।

शांभवी अपना हैंडबैग लेकर बोर्डिंग के लिए बढ़ गई। पीछे कुर्सी पर छूट गए नीले स्कार्फ ने भी अपनी किस्मत और शांभवी के फ़ैसले से समझौता कर लिया। 

हिमालय को लेकर हिमालयी चिंता का दस्तावेज़

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बचपन में रामधारी सिंह दिनकर की कविता पढ़ी थी ‘मेरे नगपति मेरे विशाल/ साकार दिव्य गौरव विराट’. हिमालय पर थी. बचपन से हिमालय की मन में एक छवि रही है कि वह हमारा रक्षक है. वही हिमालय बार-बार कहर बनकर टूट रहा है अपने बच्चों पर. अभी हाल में एक पुस्तक पढ़ी ‘हिमालय का कब्रिस्तान’, जिसके लेखक हैं लक्ष्मी प्रसाद पंत. प्रकाशक है वाणी प्रकाशन. पढ़ते हुए बर्फीली चोटियों के हिमालय, यति जैसे न जाने कितने रहस्यों को समेट कर रखने वाले हिमालय, शिव के वास स्थल कैलाश पर्वत के हिमालय की छवि बदलने लगती है. उसकी वास्तविकता का सामना होने लगता है. बचपन से जो मन में उसकी जो 'साकार दिव्य विराट'छवि थी कहीं न कहीं वह दरकने लगती है.

हाल में हिमालयी क्षेत्रों में कई बड़े हादसे हुए- केदारनाथ, कश्मीर, काठमांडू में. कितने लोग मरे इसकी ठीक-ठीक गणना भी नहीं की जा सकती. लेखक ने बड़े दर्द के साथ याद करते हुए लिखा है कि मेरे लिए हिमालय आना न जाने क्यों हर बार दुखद ही रहा. वही हिमालय जहाँ सैलानी छुट्टियाँ मनाने जाते हैं, भक्त मन्नतें मांगने जाते हैं, मुरादें पूरी करने के लिए दुर्गम रास्तों को पार करके जाते हैं. वही हिमालय बार-बार दुस्वप्न की तरह से प्रतीत होने लगा है, कुदरत के कहर के कारण जाना जाने लगा है.

एक पत्रकार के रूप में लेखक लक्ष्मी प्रसाद पन्त को हिमालय के इन दुर्गम इलाकों में आपदाओं की रिपोर्टिंग के लिए जाना पड़ा. वह गए तो थे एक सजग पत्रकार के रूप में लेकिन इन आपदाओं ने उनके अंदर के संवेदनशील लेखक को जगा दिया. उन्होंने बड़ी संवेदना के साथ इस पुस्तक में बार-बार आने वाली इन आपदाओं के कारणों की पड़ताल की है, सरकार द्वारा बरती जा रही ढिलाई और सुस्ती की तरफ इशारा किया है और यह समझने का प्रयास भी किया है कि आगे इससे बचने के लिए क्या किया जा सकता है.

सरकारें आपदा प्रबंधन के लिए तैयार नहीं रहती हैं जिनके कारण बड़े पैमाने पर जानें जाती हैं. लेखक ने लोमहर्षक तरीके से वर्णन किया है कि किस तरह से केदारनाथ में, काठमांडू में सरकारें समय पर राहत प्रबंधन का काम नहीं कर पाई. किस तरह लाखों लोगों को भगवान् के भरोसे छोड़ दिया जाता है? किस तरह से सरकारें संवेदनहीन हो गई हैं, जिनका ध्यान मृतकों के आंकड़ों को छिपाने पर अधिक रहता है, मुआवजे देने में आनाकानी करने पर रहता है, सरकारी माल के लूटपाट पर रहता है? सबसे अफ़सोस की बात है कि सरकारें बार-बार आने वाली आपदाओं के बावजूद चेत नहीं रही है, वह ऐसे ठोस उपाय नहीं कर पा रही है जिससे कि जब ऐसी आपदाएं आयें तो हम सचेत रहें और जिससे कि उसके नुक्सान को कम किया का सके. 

लेखक ने बड़ी पीड़ा के साथ इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि विकास और पर्यावरण के के बीच के संतुलन को हम भूल गए हैं. लेखक की यह पंक्ति विचारणीय है कि प्रकृति को हमने परखनली शिशु बना दिया है. जबकि जरूरत हिमालय को नष्ट होने से बचाने की है. उस हिमालय को जो देश की जरुरत का 60 फीसद जल देता है, जो मानसून की लाइफलाइन है. भारत में हिमालयी टूरिज्म से होने वाली आय 700 करोड़ रुपये से अधिक है. लेखक की यह चिंता वाजिब लगती है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित किया जाना चाहिए नहीं तो तबाही के सिवा कुछ नहीं बचेगा. हिमालय बार-बार चीख-चीख कर इस बात की चेतावनी दे रहा है.

लक्ष्मी प्रसाद पंत की यह किताब महज आंकड़ों की बाजीगरी नहीं है बल्कि उनके भीतर जो कवियोचित संवेदना है वह इस किताब को मार्मिक बनाती है. हिंदी में इस तरह की किताबें कम लिखी जाती हैं. इसे लिखकर लक्ष्मी पंत ने यह सिद्ध किया है कि वे सच्चे अर्थों में हिमालय पुत्र हैं, जिनके भीतर अपने पुरखों की धरती को बचाने की गहरी चिंता और संवेदना है. हम सबको यह पुस्तक जरूर पढनी चाहिए, जो सैलानी की तरह हिमालय के क्षेत्रों में जाते हैं और वहां गन्दगी फैलाकर चले आते हैं. हिमलाय को बचान हम सबकी चिंता में शामिल होना चाहिए, उस हिमलाय को जिसे देवताओं की भूमि के रूप में देखा जाता रहा है. 
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समीक्षित पुस्तक: हिमालय का कब्रिस्तान; लेखक- लक्ष्मी प्रसाद पन्त, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन. 

'रिमझिम'की समीक्षा की समीक्षा

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कुछ दिनों पहले जाने-माने चित्रकार और लेखक अखिलेशने स्कूलों में पढ़ाई जा रही हिंदी को लेकर एक सुदीर्घ और सुचिंतित लेख लिखा था. उसका जवाब शिक्षाविद रविकांतने दिया है. यह बहस जारी रहेगी- मॉडरेटर 
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अखिलेश जी ने बहुत लंबा लेख लिखा है -''हम अपने बच्‍चों को कैसी हिंदी पढ़ा रहे हैं ?''  जिसमें उन्‍होंने 1927 में अंग्रेजों के जमाने में छपी भाषा की किताबों मध्‍यप्रदेश की सरकारी पाठ्यपुस्‍तकों - 'भाषा भारती'तथा राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद द्वारा बनाई गई भाषा की पाठ्यपुस्‍तकों - 'रिमझिम'का तुलनात्‍मक अध्‍ययन किया है।
इस बात में कोई शक नहीं कि शिक्षा के विद्यार्थी न होने के बावजूद अखिलेश ने इन किताबों पर काफी लंबा लेख लिखा है। यह भी खुशी की बात है कि शिक्षा से जुड़े व्‍यक्‍तियों के अलावा दूसरे भी शिक्षा से जुड़ी एक अहम इकाई पाठ्यपुस्‍तकों से न सिर्फ चिंतित हों बल्कि उस चिंता की वजह से जुड़े अपने सवालों को भी दूसरों के सामने रखें।
अखिलेश जी के लेख का अधिकांश हिस्‍सा भाषा-भारती व अंग्रेजों के जमाने की पाठ्यपुस्‍तकों की समीक्षा पर केन्द्रित है। उन्‍होंने लेख के बहुत ही थोड़े हिस्‍से में रिमझिम की समीक्षा की है। अखिलेश जी ने कक्षा 2 की रिमझिम पर दो अनुच्‍छेद तथा कक्षा4 की रिमझिम पर एक अनुच्‍छेद लिखा है। मैं भाषा-भारती  व अंग्रेजों के जमाने की पाठ्यपुस्‍तकों पर फिलहाल कोई टिप्‍पणी नहीं करते हुए इस आलेख को सिर्फ कक्षा 2 की रिमझिम की उनकी समीक्षा पर ही केन्‍द्रि‍त रखूंगा।( अगर मुमकिन हुआ तो इस लेख में पाठ्यपुस्‍तकों से जुड़े लेखक के नजरिए में मौजूद गहरी समस्‍याओं पर अलग से लेख लिखूंगा।)
पाठकों को उकसाने के लिए पहले ही मैं रिमझिम की अखिलेश द्वारा की गई समीक्षा के बारे में अपनी राय बता देता हूं। मेरे विचार से अखिलेश जी द्वारा की गई रिमझिम की समीक्षा का स्‍तर बहुत ही चिंतनीय है व उनकी गंभीरता व विश्‍लेषण क्षमता पर एक नहीं कई सवाल खड़े करती है।(बाकी दोनों पाठ्यपुस्‍तकों की समीक्षा के बारे में आप खुद अनुमान लगा लें व उसकी जांच के लिए की गई समीक्षा को किताबों के साथ मिला कर देख लें।)मैंने ये दोनों बातें जानबूझ कर इसलिए कही है क्‍योंकि इस लेख पर टिप्‍पणी करने वाले एक लेखक ओमा शर्मा इस समीक्षा को सुचिंतित बताते हैं व दूसरे लेखक सारंग उपाध्‍याय लेखक अखिलेश की गंभीरता व विश्‍लेषण क्षमता की तारीफ करते हैं। और इसे विष्‍णु खरे अपनी अलग से लिखी टीप में कई बातों के साथ साथ इस पर शोध निबंध का तमगा लगा देते हैं। वैसे यह जुदा मसला है कि उनकी यह टिप्‍पणी इस लेख के शोध निबंध होने के बारे में कम, शोध निबंध के बारे में उनकी समझ पर ज्‍यादा बड़ा सवालिया निशान खड़ा कर देती है।
संदर्भ के लिए मैं अखिलेश के लेख का रिमझि‍म 2 से जु़ड़ा हिस्‍सा यहां रख रहा हूं।
अब एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तक देखी जा सकती है। रिमझिम-2’, इसका नाम रिमझिमपढ़कर ही मुझे पता चला कि किसी अदृष्य, अप्रकाशित डिक्शनरी में मातृभाषा का पर्यायवाची शब्द रिमझिमहै। 2तो मैं जानता ही था, ‘दोही है। दूसरी कक्षा के लिए। इसमें और भाषा भारतीमें फ़र्क सिर्फ़ इतना है जितना भोपाल और दिल्ली में छपी पुस्तकों के बीच हो सकता है। पुस्तक का प्रारम्भ आमुख से होता है, जिसमें यहाँ भी निदेशक सफाई दे रहा है कि बच्चों के स्कूली जीवन को बाहरी जीवन से जोड़ा जाना चाहिए और यह उस किताबी ज्ञान के खि़लाफ़ पहल है। यानी स्कूल जेल या सुधारगृह हैं जिसमें बच्चे बाहरी जीवन से कटे रहते हैं। यह आशा भी पहले ही पैरा में है कि ये कदम हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में वर्णित बाल केन्द्रित व्यवस्था की दिशा में दूर तक ले जायेंगे।और ये पुस्तक सफलतापूर्वक बच्चों को मातृभाषा से बहुत दूर ले जाती है। प्रयत्नों की सफलता की जिम्मेदारी प्राचार्य और अध्यापक पर डाल दी गई है। इसी में पता चलता है कि पाठ्य-पुस्तक निर्माणसमिति भी है, मानो पाठ्यपुस्तक नहीं कोई बहुमंजिला भवन है, जिसका निर्माण हो रहा है। फिर कई लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए एक निगरानी समितिका पता भी चलता है। इसके तत्काल बाद बड़ों से बातेंकी जा रही हैं, जिसमें सिर्फ़ बकवास की गई है और क्यों की गई है, यह समझ नहीं आता। इसी में बड़ों को बताया गया है कि रिमझिमरंगीन आकर्षक चित्रों से सजी है। चित्र भाषाई कौशल को विकसित करने में सहायक हो सकते हैं, यह बात भी यहाँ पता चलती है। तीन पन्नों की बकवास के बाद आभार का एक पृष्ठ और भी है। फिर बड़े अक्षरों में घोषणा है पाठ्यपुस्तक निर्माण समितिकी।
इसके बाद सबसे मज़ेदार पृष्ठ है, जिसमें बच्चों को बतलाया गया है पुस्तक में इस्तेमाल हुए चित्र संकेत के बारे में। कुछ निहायत ही साधारण किन्तु अत्यन्त ही निकृष्ट चित्र छपे हैं, जो जिस बात के संकेतहैं वह लिखा है। मतलब भाषा नहीं सीखना है, संकेत सीखने से मातृभाषा आ जाती है। इसमें नौ कविताएँ हैं, जिसमें चित्र संकेतके अनुसार तीन सिर्फ़ पढ़ने के लिए हैं, बाकी चार पढ़कर कुछ करने के लिए भी हैं। ऊँट चला, म्याऊँ-म्याऊँ, बहुत हुआ, तितली और कली, टेसू राजा बीच बाजार, सूरज जल्दी आना जी। इसमें प्रार्थना गायब है और साथ ही नीति शिक्षा देने वाली या पहेली पूछती रोचक कविताएँ नहीं हैं। यह किताब भालू ने फुटबाल खेली, अधिक बलवान कौन, दोस्त की मदद, मेरी किताब,बुलबुल, मीठी सारंगी, बस के नीचे बाघ, नटखट चूहा और एक्की-दोक्की जैसे पाठ लिये है, जिसकी सफाई निदेशक महोदय शुरू में दे देते हैं कि यह सब बच्चों को स्कूल के बजाय जीवन से जोड़ने के लिए किया जा रहा है। आत्मग्लानि से भरी ये दोनों समितियाँ या तो स्वनामधन्य विषेषज्ञों की हैं या जुगाड़ू लोगों की हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को अपनी मातृभाषा से काटने के लिए बनायी गयी है, जो ग़ैरजिम्मेदार और भारतीय संस्कृति और भारतीय संस्कृति में छिपी वैश्विक समझ और गहराई से नितान्त अपरिचित है। हम आगे देखेंगे कि इन्होंने बुनियादी शिक्षा में ही खोट पैदा कर दी, जो अंग्रेज़ नहीं कर रहे थे। उनके पाठ्यक्रम सुविचारित और भारतीय मानस के अनुरूप थे। उन्होंने अपनी मिशनरी चालाकी ज़रूर बरती है एकाध पाठ में, जहाँ एक हिन्दू और एक मुसलमान विद्यार्थी की तुलना में एक ईसाई विद्यार्थी समाजसेवा का बड़ा काम करता है, जबकि हिन्दू और मुस्लिम विद्यार्थी सिर्फ़ एक व्यक्ति की सहायता करते दिखलाये जाते हैं। किन्तु फिर भी पाठ और कविताओं का एक स्तर है और चुनाव सावधानीपूर्वक किया गया है, जिससे बच्चे का मानसिक विकास हो सके।(इन्‍हीं में से कुछ का दोहरान आगे भी लेख में किया गया है, यहां उनका जिक्र नहीं किया जा रहा।)

लेखक की गंभीरता का अंदाजा लेख की शुरूआत में चौथी पंक्‍त‍ि(जो कि उपरोकत संदर्भ से पहले लेख में आता है) से ही होना शुरू हो जाता है। जब लेखक पाठ्यपुस्‍तकों को खरीदने की बात करते हैं व उसके बाद वे पाठ्यपुस्‍तकों की खराब छपाई की समीक्षा करने लगते हैं। आप सोचते रह जाते हैं कि वे खरीदी हुई पाठ्यपुस्‍तकों में से किनकी बात कर रहे हैं। अगर आपके पास इनमें से किसी एक जगह की किताबें हो तभी आप यह अनुमान लगा सकते हैं कि बिना नाम लिए ये बातें भारत भारती के लिए कही जा रही है। खैर यह छोटी सी समस्‍या लेख की शुरूआत में एक दो पं‍क्‍तियां जोड़ कर आसानी से हल की जा सकती थी।
रिमझिम की समीक्षा की शुरूआत ही लेखक इस तंज के साथ करते हैं कि मुझे पाठ्यपुस्‍तक का नाम पढ़ कर पता चला कि किसी अदृश्‍य अप्रकाशित डिक्‍शनरी में मातृभाषा का पर्यायवाची 'रिमझिम'है।  यानी लेखक को भाषा की पाठ्यपुस्‍तकों का नाम रिमझिम रखे जाने पर सख्‍त एतराज है। उन्‍होंने बताया तो नहीं कि इनका नाम क्‍या हो लेकिन यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी राय में इन पाठ्यपुस्‍तकों का नाम या तो मातृभाषा या भाषा या इनके अंदर काम ली गई भाषा - हिंदी होना चाहिए था। लेकिन इन्‍हीं लेखक को भाषा भारतीके नाम पर ऐतराज नहीं होता और न ही वे इस नाम पर अपने अदृश्‍य अप्रकाशित शब्‍दकोष को खोलने की जहमत उठाते है जिसमें मातृभाषा का पर्यायवाची भाषा भारतीदिया गया हो। थोड़ा दिमाग पर जोर डाल कर सोचिए कि भारती शब्‍द किस भाषा का पर्यायवाची है। वैसे भी मातृभाषा का पर्यायवाची न तो भाषा होता है न ही हिंदी। वैसे अगर हिंदी की किताब का नाम हिंदी रखना जरूरी माना जाए तो इस तर्क से तो हर कहानी की किताब का नाम कहानी, कविता का किताब का नाम कविता, हर चित्र का नाम चित्र और आदमी का नाम आदमी व औरत का नाम औरत ही रखा जाना चाहिए।
अगर लेखक ने समीक्षा के लिए थोड़ी सी मेहनत की होती और रिमझिम पर काम करने में मदद के लिए बनाई गई शिक्षक संदर्शिका - कैसे पढ़ाएं रिमझि‍म को उलटा पुलटा होता तो उन्‍होंने कम से कम इन पाठ्यपुस्‍तकों का नाम रिमझिम रखे जाने के तर्क को पढ़ा होता और उस कारण से असहमत होने पर उसकी आलोचना की होती। मैं आपकी मदद के लिए उस तर्क को नीचे ज्‍यों का त्‍यों रख रहा हूं,
पुस्‍तक को जब अंतिम रूप दिया जा रहा था तभी विचार आया कि क्‍यों न पुस्‍तक का नाम रिमझिम रखा जाए। रिमझिम शब्‍द ध्‍वन्‍यात्‍मक है, इसमें संगीतात्‍मक झलकती है, रिमझिम शब्‍द बच्‍चों के लिए सार्थक है और बच्‍चों के लिए रिमझिम शब्‍द को उच्‍चरित करना भी आसान है। रिमझिम फुहार में भीगना तथा बारिश की रिमझिम बूंदों को नन्‍हीं मुट्ठि‍यों में भरने की कोशिश बच्‍चों को पुलक से भर देती है। इन सब बातों को सोचते हुए यही लगा कि पुस्‍तक का नाम रिमझिम रखना ही बेहतर होगा।”(पृ. 5, कैसे पढ़ाएं रिमझिम- शिक्षक संदर्शिका)
इसके बाद लेखक फिर से बिना कोई सबूत दिए यह दावा करते हैं कि रिमझिम व भाषा भारती में इतना ही फर्क है जितना दिल्‍ली व भोपाल में। गोया पाठ्यपुस्‍तकें न हुई कोई फलाना ढिकाना शहर हो गई। वैसे भी इस बात का यह कोई मतलब नहीं निकलता क्‍योंकि लेखक आपको दिल्‍ली व भोपाल में कोई फर्क नहीं बताता। अब जो इन दोनों शहरों के मिजाज में फर्क को नहीं जानता वह इससे क्‍या समझेगा। और जो जानता है उसकी भी गारंटी कि वह दोनों में उसी फर्क की कल्‍पना करेगा जो लेखक के दिमाग में उपजी है। फिर लेखक अपना चाबुक आमुख पर चलाने लगते हैं। इसमें वे निदेशक द्वारा राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या के संदर्भ से कुछ प्रमुख सिद्धांतों को याद दिलाए जाने को 'सफाई'देना करार देते हैं।। एक राष्‍ट्रीय स्‍तर के दस्‍तावेज का संदर्भ अध्‍यापकों को याद दिलाना सफाई देना कब से होने लगा। ये तो ऐसा हो गया कि कोई व्‍यक्‍ति लोकतंत्र पर चल रही बहस में संविधान व अंबेडकर का जिक्र करे तो आप यह कहने लगें कि लो ये तो सफाई दे रहा है। क्‍या किसी बात को कहते वक्‍त किसी दस्‍तावेज का संदर्भ देने व किसी बात की सफाई देने में कोई फर्क नहीं होता ।
पाठ्यपुस्‍तक के आमुख में निदेशक ने कहा है कि 'राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा(2005) यह सुझाती है कि बच्‍चों के स्‍कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ा जाना चाहिए।'इस बात से लेखक एक ऐसा नतीजा निकाल लेते हैं जो इससे निकाला ही नहीं जा सकता। वे कहते हैं कि यानी स्‍कूल जेल या सुधारगृह हैं, जिसमें बच्‍चे बाहरी जीवन से कटे रहते हैं। वैसे कइयों ने स्‍कूलों को जेल की उपमा दी है और उसके कारण भी दिए हैं। वैसे भी अपनी ढांचागत संरचना में आज के स्‍कूल कई मायनों में जेल से कम नहीं ज्‍यादा ही नजर आते हैं। लेकिन निदेशक ने तो जिस बात का संदर्भ दिया है उसमें तो कहीं भी इस बात की झलक नजर नहीं आती। क्‍या लेखक को स्‍कूली जीवन को बाहरी जीवन से जोड़ने से ऐतराज है। वैसे जिस जगह उन्‍होंने इस संदर्भ में जेल का जिक्र किया है उससे उन्‍हें स्‍कूली जीवन को बाहरी जीवन से काट कर रखने का समर्थक माना जाना चाहिए। लेकिन ऐसा क्‍यों चाहते हैं इसके बारे में कुछ नहीं कहते।  फिर लेखक निदेशक की यह आशा, कि ये कदम (यानी किताबों को बनाने का) हमें राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में वर्णित बाल केन्‍द्रि‍त व्‍यवस्‍था की दिशा में दूर तक ले जाएगा, की खिल्‍ली उड़ाते हुए कहते हैं कि ये पुस्‍तकें सफलतापूर्वक बच्‍चों को मातृभाषा से बहुत दूर तक ले जाती है। हो सकता है कि लेखक की राय एकदम ठीक हो। लेकिन हमें कैसे पता चले कि लेखक इस नतीजे तक कैसे पहुंचे।  अब तक उन्‍होंने रिमझिम के बारे में ऐसी कोई बात नहीं बताई है जिससे हमें कई तो छोड़ि‍ए एक भी ऐसा सबूत मिले जिससे यह पता चलता हो कि ये किताबें बच्‍चों को उनकी मातृभाषा से सफलता पूर्वक दूर तक ले जाती है। रिमझि‍म का 'गंभीर विश्‍लेषण'करते हुए उन्‍होंने किया सिर्फ यह है कि साहित्‍य की एक विधा-कविता का इस्‍तेमाल करते हुए वाक्‍यों की तुक मिला दी है और बाल-केन्‍द्रि‍त की जगह मातृभाषा लिख दिया है। क्‍या तुकबंदी करना व वाक्‍यों में हेर फेर कर देना समीक्षा हुआ करता है? वैसे मेरा मानना यह है कि लेखक को पाठ्यपुस्‍तक, पाठ्यक्रम  व पाठ्यचर्या  के बीच के संबंधों के बारे में स्‍पष्‍टता नहीं है, इसीलिए वे पाठ्यचर्या के संदर्भ को  सफाई देना कहने में तनिक भी संकोच नहीं करते। जिस किसी की इनके आपसी संबंधों को जानने समझने में रूचि हो वे राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के साथ बनाया गया फोकस समूह का पर्चे क्रमांक 2.3 पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्‍तकें को देख सकते हैं। यह भी रा.शै.अनु.प्र.प की वेबसाइट पर मौजूद है। या आप चाहें तो नीचे दिए लिंक पर चटका लगा कर उसे हासिल कर सकते हैं।
अगली टिप्‍पणी में लेखक यह कहते हैं कि पुस्‍तक की सफलता की जिम्‍मेदारी अध्‍यापक व प्राचार्य पर डाल दी गई है, तो इस भाषा से साफ जाहिर होता है कि लेखक को इससे भी एतराज है क्‍योंकि यह भाषा आमुख की नहीं है। यह सही है कि आमुख में खास तौर पर अध्‍यापक व प्राचार्य का ही जिक्र किया गया है व बाकी के शिक्षा विभाग या शोध व प्रशिक्षण विभागों का जिक्र नहीं किया गया है। लेकिन यहां पर लेखक से यह तो पूछा ही जा सकता है कि किसी पाठ्यपुस्‍तक को ठीक से इस्‍तेमाल करने की प्राथमिक जिम्‍मेदारी कक्षा व स्‍कूल में मौजूद अध्‍यापक व प्राचार्य की नहीं होगी तो किसकी होगी ?
फिर लेखक बाकी के अनुच्‍छेद में अपना ध्‍यान पाठ्यपुस्‍तक निर्माण समिति की खिल्‍ली उड़ाने में लगाते हैं। यह समझना मुश्किल है कि वे पाठ्यपुस्‍तकों की समीक्षा कर रहे हैं या पाठ्यप़ुस्‍तक बनाने वालों से अपना कोई अनदेखा अनजाना हिसाब किताब चुकता कर रहे हैं। यह तो खैर लेखक महोदय ही बता सकते हैं। सबसे पहले लेखक 'निर्माण'शब्‍द की खिल्‍ली उड़ाते हुए कहते हैं कि क्‍या पाठ्यपुस्‍तक नहीं बहुमंजिला भवन बनाया जा रहा है। गुस्‍से में वे यह भूल जाते हैं कि जो बात वे खिल्‍ली उड़ाने के लिए कह रहे हैं वह दरअसल में हकीकत है। स्‍कूली व्‍यवस्‍था को बहुत से व्‍यक्‍ति पिरामिड की उपमा देते रहे हैं जिसमें पहली मंजिल पर सबसे ज्‍यादा और आखिरी मंजिल पर सबसे कम कमरे यानी कक्षाएं इसलिए होती है ताकि बच्‍चों की छंटनी होती जाए और आखिर में सबसे ऊपरी मंजिल पर सबसे कम बच्‍चे पहुंचे। पाठ्यपुस्‍तकों पर आधारित परीक्षा में पास फेल करने का तामझाम भी बच्‍चों द्वारा सीखी हुई चीजों का आकलन करने के लिए नहीं बल्कि उनकी छंटनी के लिए किया जाता है ताकि उतने ही बच्‍चे आगे पहुंचे जितने स्‍कूल, कक्षा कक्ष या अध्‍यापकों की संख्‍या है। छंटनी के असली मकसद को पास फेल की दरी के नीचे छिपा कर उसका जिम्‍मा भी बच्‍चों के सिर डाल दिया जाता है। हरेक अगली कक्षाओं की किताबें पिछली कक्षाओं से मुश्किल हुआ करती है। इसी तरह एक मंजिल पर कई कमरों की तरह किसी एक कक्षा की पाठ्यपुस्‍तक भी कई पाठों से मिल कर बनती है। फर्क सिर्फ इतना है कि इमारत के सारे कमरे आपको बनाने पड़ते हैं लेकिन पाठ्यपुस्‍तकों में बने बनाए कमरों की तरह कविता/क‍हानी/निबंध/नाटक आदि पहले ही किन्‍हीं दूसरे व्‍यक्‍तियों द्वारा लिखे जा चुके होते है जो उन्‍हें गढ़ने में हुनरमंद भी होते हैं। पाठ्यपुस्‍तक बनाने वाले भले ही खुद उन्‍हें ना गढ़ें लेकिन उन्‍हें अपनी समझ के आधार पहले से गढ़े हुई चीजों में से चुनना होता है। तब चुनने वालों की समझ में नुक्‍स हो तब घटिया और उनकी समझ दुरस्‍त हो तो बढ़ि‍या किताबें गढ़ी या बनाई जाती हैं। इसीलिए किताबें लिखी जाती है जैसे अनुराग पाठक ने व्‍हाट्स एप पर क्रांति नामक किताब लिखी है, बनाई या गढ़ी नहीं। हर पाठ के आखिर में दिए जाने वाले अभ्‍यास यानी हरेक पाठ का एक हिस्‍सा पाठ्यपुस्‍तक बनाने वालों को गढ़ना पड़ता है।
फिर अगले वाक्‍य में साहित्‍य में गहरी रूचि रखने वाले लेखक एक फतवा जारी कर देते हैं कि इन किताबों में 'बड़ों से बातें'के नाम पर तीन पन्‍नों की बकवास की गई है। इसके सबूत के तौर पर पहली बात वे यह बताते हैं कि उसमें बड़ों को यह बताया गया है कि ये किताबें आकर्षक चित्रों से सजी है और चित्र भाषाई कौशलों को विकसित करने में सहायक हो सकते हैं। बेशक आमुख में बकवास की गई हो सकती है लेकिन यह साबित करने की जिम्‍मेदारी उस बात को बकवास कहने वाले की होती है। मुझे अफसोस है कि ये बातें क्‍योंकर बकवास है, इसका विश्लेषण लेखक ने अपने लेख में कहीं नहीं किया। बेहतर होता कि वे अपने चित्रकार होने की काबिलियत का इस्‍तेमाल करते हुए पाठकों के सामने यह बात रखते कि इन किताबों के आमुख में जो दावा किया गया है वो फिजूल क्‍यों है। क्‍यों  किताब के चित्र आ‍कर्षक नहीं है। कुछ चित्रों को सामने रख कर यह बात हमें समझाते कि कौनसे चित्र बेहतर हैं और कौनसे खराब और क्‍यों। इसके साथ ही उनके बेहतर या खराब होने की कुछ कसौटियां भी सामने रखते।
आप इस बात पर भी हैरान हो सकते हैं कि एक चित्रकार को इस बात में क्‍या बकवास नजर आई कि चित्र भाषाई कौशलों को विकसित करने में सहायक हो सकते हैं। पूरी दुनिया में, अनपढ़ रह गए या रख दिए गए समाजों में नहीं, पढ़े लिखे समाजों में नवागंतुक पाठकों के लिए चित्रों से भरी हुई न सिर्फ पाठ्यपुस्‍तकें बनाई जाती है बल्कि कहानियों की किताबें भी तैयार की या लिखी जाती है। और अच्‍छी चित्र-किताबों के लेखकों की किताबों अपने प्रकाशन से छापने के लिए प्रकाशक छह माह से साल भर तक लाइन लगा कर इंतजार भी करते हैं। पढ़ना सिखाने की शुरूआत करने के लिए चित्र किताबों से कहानियां सुनाना, उनके चित्रों पर बच्‍चों के साथ बात करना, पढ़ना सिखाने के सबसे असदार तरीकों में से एक माना जाता है। चित्रों पर बात करने से बच्‍चों के भाषाई कौशलों को विकसित तो होते ही हैं इसके साथ ही बच्‍चे यह भी सीखते हैं कि चित्रों के साथ लिखी लिपि निरर्थक प्रतीकों/वर्णों का समूह मात्र नहीं है बल्‍कि उनका चित्रों के साथ एक सार्थक संबंध होता है। वे यह भी सीखते हैं कि इन अबूझ निशानों का मतलब बूझने में इसके साथ बने चित्र बहुत मददगार होते हैं। ये चित्र  लिपि को पहचानने व पढ़ने की जद्दोजहद से जूझते वक्‍त उनके बहुत काम आते हैं।
आप भी उन पन्‍नों पर दी गई 'बकवास'थोड़ा आनंद ले पाएं इसलिए मैं वहां से दो तीन 'बकवास'बातें यहां दे रहा हूं.
यह किताब केवल पाठ्यपुस्‍तक ही नहीं बच्‍चों के साथ मिल कर कविता गाने, कहानी सुनने-सुनाने, भाषा के रोचक खेल खेलनेका एक जरिया भी है। किताब में इस बात के संकेत भी मिलते हैं कि बच्‍चों से बातचीत करने के लिए , उन्‍हें स्‍वयं सोचकर कुछ कहने, पढ़ने-लिखने के लिए, बेझिढक होकर अभिव्‍यक्‍त करने का आत्‍मविश्‍वास पैदा करने के लिए घर व स्‍कूल में कितने ही अवसर ढ़ूंढ़े जा सकते हैं।
श्रवण व पठन कौशल के विकास में कविता आश्‍चर्यजनक योगदान करती है। यह जरूरी है कि बच्‍चों के लिए चुनी गई कविताएं मजेदार हों, लय व संगीत प्रधान हो , उनकी जिंदगी के अलग-अलग पहलुओं को छूती हों, रचनाओं की भाषा बनावटी न हो, बल्कि बच्‍चों की अपनी भाषा से मिलती-जुलती हो।
सांस्‍कृतिक विविधताओं को भी पुस्‍तक में स्‍थान दिया गया है। किताब में वरली(महाराष्‍ट्र) मधुबनी(बिहार) तथा गोंडी(मध्‍यप्रदेश) शैली के चित्र दिए गए हैं ताकि बचचे बचपन से ही विभिन्‍न लोकशैलियों से परिचित हो सकें। हमारा देश लोककथा व लोकगीतों से समृद्ध है। इस किताब में दोस्‍त की मदद(मलयालम लोककथा) तथा टेसू राजा बीच बाजार(लोकगीत) दिए गए हैं। विभिन्‍न वाद्य यंत्रों की जानकारी भी दी गई है।
रिमझिम पर लिखे पहले अनुच्‍छेद के आखिर तक आते आते लेखक की आंखे गुस्‍से में इतनी लाल हो जाती है कि उन्‍हें एक ही फोंट साइज में तैयार किए गए पन्‍नों में से पाठ्युपुस्‍तक निर्माण समिति वाले पन्‍ने के फोंट बड़े नजर आने लगते हैं। आप चाहें तो राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद् की वेबसाइट से रिमझिम -2 को डाउनलोड करके देख लें कि आमुख से लेकर निर्माण समिति के नामों वाले पन्‍ने तब अक्षरों का आकार एक ही है या आखिर में व्‍यक्‍तियों के नामों के आते ही बढ़ा दिया गया है, जैसा कि लेखक ने अपनी समीक्षा में कहा है। आपकी सुविधा के लिए डाउनलोड को लिंक साथ में दे रहा हूं. http://www.ncert.nic.in/NCERTS/textbook/textbook.htm?bhhn1=0-15
अब हम दूसरे अनुच्‍छेद पर आते हैं। लेखक अपनी बात की शुरूआत करते हुए 'चित्र संकेत'वाले पन्‍ने के चित्रों की आलोचना करते हुए चित्रों व उनकी छपाई को निकृष्‍ट बताते हैं। लेखक पूरी किताब के चित्रों के बारे में चुप्‍पी साध कर सिर्फ चित्र संकेतों के चित्रों के बारे में टिप्‍पणी करते हैं। क्‍या यह माना जाए कि बाकी चित्र अच्‍छे हैं व सिर्फ इसी पन्‍ने के चित्रों की छपाई खराब है। मैं अपने काम के सिलसिले में रिमझिम की अलग अलग वक्‍त पर छपी कई किताबें देख चुका हूं। अभी तक मैंने ऐसी कोई किताब नहीं देखी जिसमें चित्र संकेत की छपाई तो निकृष्‍ट हो व बाकी पूरी किताब में चित्रों की  छपाई औसत या उत्‍कृष्‍ट हो। हां कभी कभी ऐसी किताब जरूर मिली जिसकी पूरी की छपाई अच्‍छी नहीं थी। एक चित्रकार समीक्षक से यह उम्‍मीद करना क्‍या ज्‍यादती मानी जाएगी कि वे किताबों के चित्रों की नुमाइंदगी करने वाले एक दो चित्र चुनें व उनकी खामियां बताएं और उन्‍हें बेहतर करने के एक दो सुझाव भी दें।
फिर लेखक इस पन्‍ने से अपना असली ऐतराज कुछ इस तरह से जाहिर करते हैं कि, इसका मतलब भाषा नहीं सीखना है, संकेत सीखने से मातृभाषा आ जाती है। आप एकाएक चौंक जाते हैं क्‍या पूरी किताब चित्र संकेतों से भरी पड़ी है और वही सिखाए जा रहे हैं व भाषा नहीं सिखाई जा रही।  आप पहले डाउनलोड की गई किताब का एक पाठ देख कर ही इस नतीजे तक पहुंच सकते हैं कि लेखक का नतीजा सिरे से ही गलत है। एक ऐसे बच्‍चे के लिए, जिसे सरकारी स्‍कूल(सरकारी स्‍कूलों का हमारे यहां के लागों ने क्‍या हाल कर रखा है आप जानते ही हैं, नहीं जानते तो सिर्फ इस सवाल का खुद से जवाब दे दीजिए कि आप में से कितनों के बच्‍चे खास नहीं आम सरकारी स्‍कूल में जाते हैं) में आए अभी जुम्‍मा जुम्‍मा एक साल हुआ है, बनाई गई पाठ्यपुस्‍तक में दिए गए अभ्‍यासों पर किस तरह से काम करना है, यह समझना आसान करने के लिए कुछ चित्र संकेत बनाए गए हैं, ताकि बच्‍चा अगर लिखी हुई बात पढ़ कर न समझ पाए तो अपने आप काम करते वक्‍त वह संकेतों की मदद से अंदाजा लगा सके कि उसे उस अभ्‍यास के साथ क्‍या करना है। यह पन्‍ना उन संकेतों को मतलब समझना सिखाने के लिए बनाया गया है। आप एक बार फिर से हैरान ही हो सकते हैं कि ऐसे पन्‍ने के आधार पर लेखक कैसे यह सामान्‍यीकरण कर लेते हैं कि इन संकेतों को सीखना ही भाषा सीखना है। लेखक को यह बात समझने में क्‍या मुश्किल है कि भाषा सीखने के लिए पूरी किताब बनाई गई है और यह पन्‍ना उस किताब को इस्‍तेमाल करने का एक औजार को समझने के लिए बनाया गया है। क्‍या किताब को समझने के लिए गढ़े गए औजार के आधार पर पूरी किताब के विषयवस्‍तु के बारे निर्णय सुना देना सही तरीका है।  वैसे लेखक चित्र संकेत वाले पन्‍ने के आधार पर पूरी किताब के बारे में इस पूरी तरह से बेबुनियाद नतीजे तक क्‍यों पहुंचे होंगे, इस बारे में मेरा एक ख्‍याल है जिसे मैं आगे जाहिर करूंगा।
फिर लेखक कविताओं की सूची देते हैं और अपना एतराज जताते हैं कि इसमें से प्रार्थना गायब है और नीति शिक्षा वाली तथा पहेली वाली रोचक कविताएं नहीं है। वैसे अंग्रेजों के जमाने की किताबों की तारीफ की एक वजह उनमें प्रार्थना का होना है। मेरा सुझाव है कि लेखक को कृष्‍ण कुमार की बहुचर्चित व बहुपठित किताब 'राज, समाज व शिक्षा'(ये किताब उन्‍होंने निदेशक बनने से बरसों पहले लिखी थी) में ''प्रार्थना: एक शैली''(पृ. 103-123) नामक अध्‍याय में किया गया प्रार्थनाओं का विश्‍लेषण पढ़ना चाहिए जो कि भारतीय स्‍कूलों में करवाई जाने वाली व किताबों में आई हुई प्रार्थनाओं पर आधारित है। फिर खुद से यह सवाल भी करना चाहिए कि सभी धर्मों, जातियों, संप्रदायों की जनता के करों से चलने वाले तथा धर्मनिरपेक्ष/पंथनिरपेक्ष संविधान के तहत चलने वाले सरकारी स्‍कूलों की पाठ्यपुस्‍तकों व स्‍कूलों की सभा में एक खास धर्म के खास संप्रदाय की प्रार्थना ही क्‍यों करवाई जानी चाहिए। अगर प्रार्थना शामिल करनी ही हो तो सिखों, पारसियों, जैनियों, बौद्धों, आदिवासियों, दलितों आदि की प्रार्थनाएं क्‍यों नहीं करवाई जानी चाहिए। फिर रोज कितना समय और हर कक्षा की हर विषय की किताबों में कितने पन्‍ने इस पर लगाए जाने चाहिए। उन्‍हें यह भी पूछना चाहिए कि सरकारें स्‍कूली पाठ्यपुस्‍तकें बनवा रही है कि धार्मिक किताबें या धार्मिक कथाओं के अंशों से भरी स्‍कूली पाठ्यपुस्‍तकें।
इसके बाद लेखक कहानियों के पाठों के नामों की सूची भर बना देते हैं। बगैर किसी पाठ का उदाहरण दिए व उससे जुड़ी कोई वजह बताए, वे इस सूची की खिल्‍ली उड़ाने के लिए फिर से आमुख में दिए गए राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के चार केन्‍द्रीय सिद्धांतों में से एक पर फिर से सफाई का तमगा चस्‍पा कर देते हैं।
लेखक समीक्षा को जो दूसरा अनुच्‍छेद लिखते हैं उसमें सिर्फ कहानी/कविता के नामों व संख्‍याओं का जिक्र करते हैं लेकिन किसी भी कविता या कहानी का यह विश्‍लेषण करके पाठकों के सामने नहीं रखते कि फलां कहानी/कविता  क्‍यों घटिया/औसत/बेहतरीन है। उन्‍हें अंग्रेजों के जमाने की किताबों की समीक्षा करते वक्‍त उनकी कक्षा 2 से 5 तक की किताबों में रस का आस्‍वाद मिलता है लेकिन रिमझिम की कविता/कहानियों में रस मिलता है या वे रसहीन लगती है, इस पर उदाहरण के साथ टिप्‍पणी करने की जहमत लेखक नहीं करते हैं।
लेखक ने यह कोशिश क्‍यों नहीं की ये तो वे जानें मैं कोशिश करता हूं कि रिमझिम दो में आई किसी एक कविता तथा उससे जुड़े किसी एक अभ्‍यास को आपके सामने रखूं ताकि आप यह अंदाजा लगा सके कि वे कविताएं कैसी हैं और अभ्‍यास किस मकसद से गढ़े गए हैं।
किताब की शुरूआत  किसी प्रार्थना से नहीं बल्कि ''ऊँट चला''कविता से की गई है जो कि मशहूर बाल कवि प्रयाग शुक्‍ल द्वारा रचित है। 
अब आप इस लेख में पहले दी गई बड़ों से की गई 'बकवास'में कविताओं के बारे में की गई बात को इस कविता से जोड़ कर देखिए। उसमें दी गई हर बात आप इस कविता में महसूस कर सकते हैं। चाहे वह लय व संगीत की बात हो, चाहे मजेदार होने की बात हो, चाहे वह सहज भाषा की बात हो या चाहे वह बच्‍चे की जिंदगी के पहलुओं से छूने की बात हो।
इसी कविता से जुड़े अभ्‍यास को देखें। पहला अभ्‍यास है- झटपट पढ़ कर मजा लो। इसमें ऊँट से जुड़ी एक दूसरी कविता की कुछ पंक्‍तियां दी गई हैं जो इस प्रकार हैं,
कुछ ऊँट ऊँचा
कुछ पूँछ ऊँची
कुछ ऊँचे ऊँट की
पीठ ऊँची
फिर बच्‍चों से कहा गया है कि, इसे जल्‍दी जल्‍दी बोल कर देखो। जीभ लड़खड़ा गई न! कैसी लगी कविता ? अब इस कविता को अपने मन से नाम दो। ऊपर दी गई जगह में लिख भी दो।
आप देख सकते हैं कि पहला ही सवाल कविता में आए शब्‍दों के अर्थों को पूछने या उसमें दी गई जानकारी की जांच करने के बजाय उसी पात्र से जुड़ी किसी दूसरी कविता का आनंद उठाने से संबंधित है। चार वाक्‍यों व बारह शब्‍दों की छोटी सी कविता में छह बार ऊँ ऊँ की आवाज बोलना मजेदार होता है या नहीं। यानी पुस्‍तक निर्माता यह चाहते हैं कि बच्‍चे अभ्‍यास की शुरूआत भी किसी कविता के साथ मौखिक भाषाई खिलदंड़ेपन का मजा लेने के साथ करें।  फिर बच्‍चों से इस कविता के बारे में उनकी राय पूछी गई है जो बेशक वे मौखिक तौर पर अपनी कक्षा में जाहिर करेंगे,यह उम्‍मीद रखी गई होगी। फिर बच्‍चों से इस कविता को अपने मन से नाम देने के लिए कहा गया है। इन कामों से बहुत साफ हो जाता है कि पुस्‍तक निर्माताओं की निगाह में बच्‍चों की राय की बहुत अहमियत है फिर वे यह भी चाहते हैं कि बच्‍चे खुद सोच विचार कर इस कविता को कोई नाम दें। फिर अंत में बच्‍चों से कविता का नाम लिखने के लिए कहा गया है। आप देख सकते हैं कि पहला अभ्‍यास चाहता है कि बच्‍चे मौखि‍क भाषा का आस्‍वाद लें, अपनी राय जाहिर करें, खुद सोच कर उसका नाम रखें व उसे लिखें भी। यानी यह अभ्‍यास मौखि‍क व लिखित भाषा के साथ साथ अपनी राय जाहिर करना व अपने दिमाग से सोचना सीखें। आपने ध्‍यान दिया ही होगा कि इस अभ्‍यास के दो मकसद भाषाई क्षमताओं के विकास से और बाकी दो शिक्षा उसे कैसा इंसान बनाना चाहती है इससे ताल्‍लुक रखते हैं।
वैसे मेरा यह सुझाव है कि अगर आप रिमझिम की ताकत महसूस करना चाहते हैं तो आप इसमें दी गई कविता व कहानियों को बच्‍चों की तरह जोर जोर से बोल कर पढ़ने की कोशिश करके देखिए। इसके अभ्‍यासों को करके देखिए। और अगर आपके पास वक्‍त और आसपास बच्‍चे हैं तो उनके साथ मिल कर इन किताबों के साथ खेल कर काम करके देखिए और फिर अपनी राय बनाइए।
इसके बाद लेखक निर्माण समिति के सदस्‍यों को आत्‍मग्‍लानि से भरे, स्‍वनामधन्‍य व जुगाड़ू के तमगे से नवाज देते हैं। हमें नहीं पता कि लेखक ने बहुमूल्‍य जानकारी कहां से जुटाई। क्‍योंकि लेखक को फतवा जारी करने के आदत जो है, उसके लिए सबूत जुटाने की जहमत उठाने की नहीं। रा.शै.अनु.प्र.प. के निदेशक कृष्‍ण कुमार, जो कि निर्माण समिति के सदस्‍य भी थे, और जिनकी छाप आप सभी किताबों पर देख सकते हैं, को स्‍वनामधन्‍य व जुगाड़ू व्‍यक्‍ति शिक्षा के क्षेत्र में कोई अनपढ़ व्‍यक्‍ति ही कह सकता है। इसी तरह से प्राइमरी पाठ्यपुस्‍तक निर्माण सलाहकार समिति की अध्‍यक्षा अनीता रामपाल का भी शिक्षा में गहरा व लंबा अनुभव है। इसी तरह से मुख्‍य सलाहकार मुकुल प्रि‍यदर्शिनी का भी भाषा में गहरा अनुभव है। इन तीनों के बारे में तो मैं थोड़ा बहुत जानता हूं इसलिए जिक्र कर रहा हूं। बाकी के बारे में आप खुद तलाश कर सकते हैं। लेकिन मेरा एक मत यह भी है कि पुस्‍तक निर्माता समिति की  काबिलियत बारे में अनुमान लगाने का एक सबसे बेहतर तरीका उनके द्वारा बनाई गई किताबों की गहरी छानबीन करना होना चाहिए। क्‍योंकि हम उस समिति के बारे में बात इन किताबों के संदर्भ में ही तो कर रहे हैं।
फिर लेखक पुस्‍तक निर्माण समिति पर मातृभाषा से काटने का आरोप लगाते हैं और उन्‍हें गैर जिम्‍मेदार व भारतीय संस्‍कृति व उसमें छिपी वैश्विक समझ व गहराई से नितांत अपरिचित करार देते हैं। आप अपने दांतों तले अंगुली दबा कर उसे चबा भी सकते हैं कि हाल ही में भारतीय संस्‍कृति के एक प्रतीक चूड़ी के बहाने भारतीय समाज में औरतों की स्थिति का गहरे विश्‍लेषण को सामने रखने वाली किताब 'चूड़ी बाजार में लड़की'के लेखक कृष्‍णकुमार के बारे में यह राय आखिरकार बनी कैसे होगी।  इसी तरह अनीता रामपाल कई कामों के साथ बहुत पहले गणि‍त की एक किताब - जिंदगी का हिसाब नामक एक बहुत ही सुंदर किताब का रूपांतरण कर चुकी हैं, जिसमें देश के अलग अलग संस्‍कृतियों पाई जाने वाली गणित की पहेलियों, गणना के तौर तरीकों को भी शामिल किया गया है । फिर लेखक इस बात का दावा करते हैं कि इस समिति ने बुनियादी शिक्षा में खोट पैदा कर दी है जिसे वे लेख में आगे कहीं दिखाएंगे। मैं फिलहाल उस हिस्‍से में नहीं जा रहा। वहां पर लेखक यह भी दिखाते हैं कि अंग्रेजों के जमाने के पाठ्यक्रम सुविचारित व भारतीय मानस के अनुरूप थे। 
अब मैं अपने उस अनुमान को जाहिर करूंगा जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है। आपको भी हैरानी हुई होगी कि लेखक पाठ्यपुस्‍तक को समझने के औजार के आधार पर पूरी किताब के बारे में एक बेबुनियाद नतीजा कैसे निकाल सकते हैं।  मेरा अनुमान यह है कि साहित्‍य में गहरी रूचि रखने की वजह से लेखक साहित्‍य में ब्‍लर्ब देख कर लिखी जाने वाली समीक्षा के हुनर से न सिर्फ परिचित हैं बल्कि संभवत: उसमें खुद का भी कुछ दखल रखते हैं। सो उन्‍होंने पाठ्यपुस्‍तक के चित्र संकेत व अनुक्रम तक के पन्‍नों को पढ़ा क्‍योंकि पाठ्यपुस्‍तक में ब्‍लर्ब तो होता नहीं तथा पाठ्यपुस्‍तक के बाकी पन्‍नों को फुरफुरी लगा कर देखा और समीक्षा लिख दी। कुछ नतीजेनुमा चाबुक पहले से तय किए जिन्‍हें बात बेबात फटकारना था, सो कुछ बातें उठाई और बिना सोचे समझे चाबुक फटकार दिए। एक पन्‍ने के आधार पर पूरी किताब के बारे में गलत नतीजा निकालने वाली बात का पहले जिक्र कर दिया गया है। इसी तरह बिना कहानी या कविता के विषयवस्‍तु पर बात किए बिना उनकी समीक्षा भी आप देख चुके हैं। लेखक ने किताब को गंभीरता से देखा ही नहीं यह उनकी आखिरी टिप्‍पणी से एकदम शीशे की तरह साफ हो जाता है जब आप यह पाते हैं कि आखिर उदाहरण में दिया गया पाठ तो रिमझिम-2 में है ही नहीं।  आप पूरी मेहनत करके, एक बार नहीं सौ बार फुरफुरी लगा कर नहीं, उसका एक एक पन्‍ना पलट कर भी उस पाठ को रिमझिम -2 में नहीं खोज पाएंगे जिसमें हिंदू व मुसलमान विद्यार्थी की तुलना में एक ईसाई विद्यार्थी समाज सेवा का एक बड़ा काम करता है, जबकि हिंदू और मुस्लिम विद्यार्थी सिर्फ एक व्‍यक्‍ति की मदद करते दिखलाए जाते हैं। अभी मैं इस वक्‍तव्‍य में छुपे सांप्रदायिक पूर्वाग्रह पर टिप्‍पणी नहीं कर रहा, वह तो आपको वैसे भी नजर आ गया होगा।
चूंकि लेखक किताब के अंदर घुसे ही नहीं इसलिए उन्‍हें पता ही नहीं चलता कि कहानियों/कविताओं की खूबियां/खामियां क्‍या हैं, क्‍या वे बच्‍चों के समझ में आने लायक हैं, क्‍या वे बच्‍चों की जुबां पर आसानी से चढ़ पाने के काबिल हैं, क्‍या वे बच्‍चों की कल्‍पना की उड़ान भरने में मददगार हो सकती हैं, आदि। इसी तरह उन्‍हें यह भी खबर नहीं होती कि इन किताबों के अभ्‍यासों को किन क्षमताओं के विकास के लिए गढ़ा गया हैक्‍या वे रोचक हैं, क्‍या लेखक जिस बात का कई बार मजाक उड़ा चुके, ये अभ्‍यास उस मकसद को- यानी स्‍कूली जीवन को बाहरी जीवन से जोड़ने के काबि‍ल हैं, क्‍या ये अभ्‍यास बच्‍चों को आसपास के पर्यावरण को समझने में मदद करते हैं, क्‍या ये अभ्‍यास भाषाई खिलंदड़ेपन को बढ़ावा देते हैं, क्‍या ये अभ्‍यास बच्‍चों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी बातों को किताबों में दर्ज करने की आजादी देते हैं, क्‍या ये अभ्‍यास बच्‍चों को अपनी भाषा में अपने मन की बात लिखने का मौका मुहैया करवाते हैं, ये और ऐसे ही कई दूसरे सवाल लेखक के सामने तब उठते जब वे किताब के अंदर दाखिल होते।
मुझे यह लगता है कि दूसरे अनुच्‍छेद के अंत तक आते आते व पाठ्यपुस्‍तक निर्माताओं पर आत्‍मग्‍लानि की तोहमत मढ़ते हुए लेखक को खुद भी थोड़ी बहुत आत्‍मग्‍लानि होने लगी  और बिना कोई सबूत दिए उन्‍होंने लीपा पोती के अंदाज में आखि‍र में दो लाइनें पाठ्यपुस्‍तकों की तारीफ में इस तरह कह दी जैसे किसी ने उनका हाथ पकड़ रखा हो और कलम बड़ी मुश्किल से चल रही हो।  उन्‍होंने लिखा कि, किंतु फिर भी(एक ही अर्थ वाले दो वाक्‍यांश भी उनकी इसी आत्‍मग्‍लानि  की तरफ इशारा करते हैं) इन किताबों में पाठ व कविताओं का एक स्‍तर है और चुनाव सावधानी पूर्वक किया गया है, जिससे बच्‍चे का मानसिक विकास हो सके। इस लीपापोती के चक्‍कर में लेखक यह भूल जाते हैं कि इन्‍हीं किताबों के निर्माताओं को स्‍वनामधन्‍य, जुगाड़ू, गैर जिम्‍मेदार,भारतीय संस्‍कृति से अपरिचित होने के तमगे से नवाज चुके हैं। आपने कभी सुना है कि गैर जिम्‍मेदार व जुगाड़ू लोग सावधानीपूर्वक स्‍तरीय कहानियों को चुनाव करने की काबिलियत रखते हैं व मेहनत भी करते हैं। अब या तो आखि‍र में दो पंक्‍त‍ियों में कही गई लीपा पोती वाली बातें सच है या इससे पहले दोनों अनुच्‍छेदों में कही गई बाकी बातें, आप समझदार हैं, सो खुद ही फैसला कर लें। 



अंकिता आनंद की बाल कविताएं

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इस कविता आच्छादित समय में ध्यान आया कि बाल कविताओं की विधा में किसी तरह का नवोन्मेष नहीं दिखाई देता है. बाल कविताएं अखबारों और पत्रिकाओं में फिलर की तरह बनकर रह गई हैं. ऐसे में अंकिता आनंदकी इन कविताओं ने चौंका दिया. अंकिता जी की इन कविताओं में बाल कविता को एक नया मुहावरा देने की कोशिश दिखाई देती है- मॉडरेटर  
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1.
गुठलियों के दाम 

घर-बाहर मुझे सब कहते हैं, 'कुछ ऐसा करो कि नाम हो.' 
पर नाम तो मेरा पहले से है,
लिखने-कहने-सुनने में है.  
तो क्यों ना चुनूँ कोई ऐसा काम, जिसे करना ही इनाम हो?


2.
जाड़े का पिटारा  

चटाई पे टाँगे पसार धूप खाता गरम गेहूँ
नानी के साथ घिसे काले तिल की खुशबू

संक्रान्ति वाला कोंहड़ा
बोरसी के पास वाला मोढ़ा.

मुँह से निकलने वाला कुहासा
बस थोड़ी देर में रजाई समेटने का झाँसा

शाम का शटर जल्दी गिराने वाली गली
बालू पे भुनती, बबल रैप सी पटपटाती मूँगफली

नहाने के पहले सरसों का तेल,
शरद विशेषांक वाला स्वेटर बेमेल. 



 3.
क्या ही अच्छा हो 

जो नाच कहूँ हर बात,
तो यारों क्या ही अच्छा हो.  

छुट्टी जोहे हमारी बाट,
तो सोचो क्या ही अच्छा हो.  

बकरों साथ पढ़ें हम बच्चे,
तो क्या ही अच्छा हो.  

हम घास चरें वो पर्चे,
तो क्या ही अच्छा हो


4.
मुँह मीठा 

खाने के बाद करना है कुल्ला,
बात सही है, पता है मुझको.  
पर मेरा उड़नखटोला चले तो
कभी ना धोऊँ मुँह रस्गुल्ला.  




 5.
उधार 

क्या एक दिमाग उधार मिलेगा?
अपने से तो भर पाई!
गणित की परीक्षा में ये कहेगा,
'सुनाऊँ कविता जो याद आई?'


6.
गुड़िया 

मेरी एक गुड़िया थी.
वो मेरी हर बात मानती थी.

मैं मम्मी की गुड़िया थी.
मम्मी कहतीं, "बात मान लेतू मेरी गुड़िया है ना."

मैं गुड़िया थोड़े ही ना हूँ.

मैंने अपनी गुड़िया से कह दिया,
उसे मेरे साथ खेलने की ज़रूरत नहीं.
वो जो चाहे कर सकती है.

अब वो दिन भर खिड़की पर बैठ मुस्कुराते हुए आसमान देखती है.
अब वो किसी की गुड़िया नहीं




7.
गोल घर 

चकरघिन्नी चकरी चकरम,
गोले कितने भी लगा लो, वहीं पहुँचते हम.

डगमग ख़ुद को पाकर भी कहाँ मैं डरती हूँ,
झटपट जाकर पहले तो कुर्सी पकड़ती हूँ.

माँ-पा के कमरे में भले कुर्सी नहीं, बस खाट,
पर बहस से जो सर घूमे, तो क्यों न सँभलते पकड़ के हाथ?


8.
क्या? क्यों? कब? कैसे?

खाते वक्त बात नहीं करते
तो सर ने खाते वक्त क्यों कहा 
कि खाते वक्त बात नहीं करते?

"मुँह बंद करके खाना खाओ."
मुँह बंद कर लेंगे,
तो खाना कैसे खाऐंगे?

"प्रार्थना के समय सब आँखें मूँद कर रखते हैं."
फिर मैम ने प्रार्थना के समय
मुझे आँखें खोलते हुए कब देख लिया?

पापा पूछते हैं कि मैं हमेशा फोन में क्या देखता रहता हूँ.
मैं देखता रहता हूँ 
कि पापा हमेशा फोन में क्या देखते रहते हैं.










मगर जनता नहीं डरती मियाँ आँखें दिखाने से

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युवा शायर त्रिपुरारि कुमार शर्माकी इन दो गज़लों की भूमिका में कुछ नहीं लिखना. ये आज के युवा आक्रोश का बयान हैं- मॉडरेटर 
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1.
हुकूमत जुर्म ही करती रही है इक ज़माने से
मगर जनता नहीं डरती मियाँ आँखें दिखाने से

अगर हक़ है तो बढ़ के छीन लो तुम माँगते क्यूँ हो
यहाँ कुछ भी नहीं मिलता फ़क़त आँसू बहाने से

सियासत आग में घी डालने का काम करती है
नहीं थकते हैं उसके हाथ लाखों घर जलाने से

सियाही रूह के दामन पे जो इक बार लग जाए
वो हरगिज़ मिट नहीं सकता है जिस्मों के नहाने से

न जाने बद्दुआ किसकी लगी मासूम होंठों को
झुलस जाते हैं अक्सर होंठ हँसने मुस्कुराने से

2.

ख़ून फूलों से बहे गंध की लज़्ज़त टूटे
अब तो बस इतनी दुआ है कि क़यामत टूटे

वक़्त की कोख से निकलेंगे कई अच्छे दिन
शर्त ये है कि सर-ए-आम हुकूमत टूटे

सरहदें ख़त्म हो सकती हैं यक़ीनन लेकिन
उससे पहले ये कमीनी सी सियासत टूटे

शर्म इतनी भी नहीं है कि वो शर्मिंदा हो
फिर तो ये ठीक है उस पर कोई वहशत टूटे

खौल उट्ठे हैं नए  ख़्वाब मिरी आँखों में
अब ये लाज़िम है मिरी नींद की आदत टूटे


इन लव विद 'आज़ादी मेरा ब्रांड'

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व्यक्तिगत मतभेदों, वैचारिक विरोधों का असर अच्छी पुस्तकों पर नहीं पड़ना चाहिए, जानकी पुल ने सदा इस मानक का पालन किया है. अनुराधा सरोजकी किताब 'आजादी मेरा ब्रांड'ऐसी ही एक किताब है जिसको पढ़ते ही उसके ऊपर कुछ लिखने का मन होने लगता है. मन मेरा भी हुआ लेकिन मैं एक पुरुष हूँ, शायद उस 'आजादी'को नहीं समझ पाता. इसलिए मैंने दो लेखिकाओं से अलग-अलग समय पर उसके ऊपर लिखने का आग्रह किया. दोनों नहीं लिख पाई. बहरहाल, जिनसे आग्रह नहीं किया था उन्होंने लिखा. आज युवा लेखिका अणुशक्ति सिंहकी यह छोटी सी आत्मीय समीक्षा. इस किताब पर आगे भी कुछ लेखिकाओं के लेख आएंगे. यह मेरी कोशिश है. यह किताब है ही ऐसी. फिलहाल अणुशक्ति जी की यह टिप्पणी- मॉडरेटर 
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किताबों की समीक्षा कैसे करते हैं, ये कला मुझे नहीं आती लेकिन मन था कि 'आज़ादी मेरा ब्रांड'पर कुछ लिखूँ।
पुस्तक मेले में लांच सेरेमनी देखकर आई थी इस किताब की लेकिन तब पता नहीं क्यों खरीदा नहीं। शायद तब इतना प्रॉमिसिंग नहीं लगा था जितना कि कुछ रिव्यु को पढ़ने के बाद लगा।
ईमानदारी से अगर सच क़ुबूल करूँ तो पहले-पहल अनु की किताब एक अकेली महिला यात्री का यात्रा-वृत्तांत नज़र आया था जिसमें मेरी कोई ख़ास रूचि नहीं थी।
वुमन सोलो ट्रेवलर के तौर पर अनु कोई अजायब चीज़ नहीं थी मेरे लिए... मेरी सखी भी एकल महिला यात्री है और मुझे विश्वास था कि कोई और उससे अच्छा नहीं लिख सकता शायद इसलिए भी किताब हाथ में लेने के बाद भी खरीदी नहीं थी। लेकिन भला हो एक दोस्त का जिसने इसे कम से कम एक बार पढ़ने की सलाह दी।
अच्छा लगा जैसी शुरुआत हुई थी... आज़ादी की वो नयी परिभाषा भी अच्छी लगी। या यूँ कहिये कि अच्छा लगा रमोना के बहाने उन मानदंडों का टूटना जिसमें बंधी रहकर एक लड़की अपनी आज़ादी को भी आज़ाद होकर नहीं जी पाती। गन्दी लड़की और अच्छी  लड़की की लड़ाई में किसी का खुलकर गन्दी लड़की के समर्थन में आगे आ जाना किसी  भी दूसरी क्रान्ति से कम क्रांतिकारी नहीं है।
मुझे रमोना अच्छी लगी - 'अनुराधा की रमोना।'और उस रमोना के साथ अपनी आज़ादी को पहचानने वाली अनु और भी शानदार लगी... उसके हर ख़याल उसकी स्वतंत्रता की गवाही दे रहे थे। अखिल के खयालों से निकलकर राजस्थान घूम आना, अंग्रेजी वाली कूलनेस को पीछे छोड़ आना और वियना की जगह 'इंसब्रुक'जाना। वो परंपरा से चिढ़ती नहीं है लेकिन खुद को इसके हवाले भी नहीं करती है, आज़ादी का इससे सही मतलब और क्या हो सकता है।

अनुराधा को लड़की होना अच्छा लगता है। वो सुमन की समस्याओं में खुद दुखी हो जाती है... उसे हुक्म चलाने वाले मर्द और रसोई में व्यस्त औरतों का कांसेप्ट कम समझ में आता है। वो लड़कियों से खुल कर दोस्ती करती है लेकिन इसी ज़िन्दादिली से लड़कों से बातें भी करती है। उनसे घुलती मिलती है... धर्म पर चर्चा करती है, विक्टर के प्रस्ताव को बिना गाली दिए हुए सहजता से अस्वीकार कर देती है, अक्षय के छिछोरेपन पर चिढ़ती भी है लेकिन पुरुषों से नफरत नहीं करती। वो तो बस एक ऐसे समाज की परिकल्पना करती है जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों ही हों, बराबर के पलड़े में, बिना एक दूसरे से नफरत किये हुए।

'आज़ादी मेरा ब्रांड'न सिर्फ इसकी लेखिका के जीवंत अनुभवो बल्कि इसके शिल्प की वजह से भी एक बेहतरीन किताब है। इसके हर पन्ने को पढ़ते वक़्त ऐसा लगता है जैसे शब्द एक सुन्दर सा चित्र गढ़ रहे हों... लेखिका ने संभवतः हर चैप्टर के लिए फील्ड नोट्स इकट्ठा किये हैं। कुछ वैसे ही फील्ड नोट्स जैसे रेणु लिया करते थे और फिर उसको एक खूबसूरत किताब की शक्ल दे दिया करते थे।

अब चूँकि समीक्षा मुझे आती नहीं इसलिए अंतिम पंक्ति क्या हो इसका भी भान नहीं है... इसलिए बस इतना कहूँगी कि इन लव विद 'आज़ादी मेरा ब्रांड.'

आ रही हूँ अनु मैं भी अपना बैकपैक लेकर...

ऋत्विक घटक का सिनेमा सदा प्रासंगिक रहेगा

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40 साल पहले इसी महीने जीनियस फिल्मकार ऋत्विक घटकका देहांत हुआ था. आज उनकी शख्सियत को, उनके सिनेमा को याद करते हुए एक सुन्दर लेख सैयद एस. तौहीदने लिखा है- मॉडरेटर 
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सात फरवरी 1976 कलकत्ता की सुबह को ऋत्विक घटक की असामयिक मौत ने झकझोर दिया था.पूरे शहर ने एक दुखद ख़बर के साथ आंखे खोलीं.जिस किसी ने ख़बर सुनी वो विश्वास नहीं कर सका कि ऋत्विक बाबू अब नहीं रहे.अंतिम यात्रा मे  लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा.कलकत्ता की सड़कों पर लोगों का एक हुजूम था.50 वर्षीय घटक का अंतिम अरण्य प्रेसीडेंसी अस्पताल से दोपहर में निकला. चाहने वाले उनके शव के आगे पीछे चलते रहे..उन फिल्मों के मशहूर गाने लोगों की जुबां यूं ही बरबस आ रहे थे. ऋत्विक घटक की अंतिम यात्रा एक मायने मे अद्वितीय शख्सियत की अद्वितीय यात्रा थी..अंतिम संस्कार केउडताला घाट पर होना था.

पहली फिल्म नागरिक(1952) निर्माण के 65 बरस बीत जाने बाद.आज जब मुड़कर देखें तो यही समझ आएगा कि ऋत्विक घटक अपने युग के सबसे वंचित फिल्मकार थे.आपकी दक्षता को हमेशा कम कर आंकने का बडा जुर्म लोगों से हुआ.भारतीय सिनेमा मे जीते जी ऋत्विक बाबू को अपना उचित सम्मान समय से नहीं मिला. आप आत्मघात के स्तर तक अविचल,सनकी एवं आवेगशील शख्स थे. सिनेमा के लिहाज़ से ऋत्विक अराजक थे.फ़िर भी भारतीय सिनेमा के इतिहास में आप जैसा सच्चा साधक कोई दूसरा नहीं था .फिल्म निर्माण के आधिकारिक व्याकरण से परे होकर भी आपने महानता को पाया.इसलिए ही शायद कल की तरह आप आज भी प्रासंगिक हैं..हमेशा रहेंगे.

घटक ने अपने जीवन काल में कुल आठ फीचर फिल्में एवम दस डॉक्युमेंटरी बनाई.इनमें से तीन फिल्में आप के निधन के पश्चात रिलीज़ हो सकीं.इन फिल्मों को अपने दिन के उजाले की जुस्तजू में बरसों इंतजार करना पड़ा.इन बदनसीब फिल्मों में 'नागरिक'भी रही,यह फिल्म हालांकि 'पाथेर पंचाली'से तीन साल पहले बन चुकी थी.लेकिन रिलीज़ हुई बरसों बाद.नागरिक के समय पर रिलीज़ ना होने से सत्यजीत राय की फिल्म को नाम करने का अवसर पहले मिला. साठ दशक में बनी सुवर्णरेखा (1962)को भी दिन का उजाला देखने के लिए तीन साल इंतज़ार देखना पड़ा.पाथेर पंचाली ने भारतीय सिनेमा में क्रांतिकारी युग का आगाज किया. नागरिक में नौकरी के लिए संघर्ष करते युवक की कहानी थी.रोज़गार के लिए जूझते इस युवक का क्रमिक विघटन दिल पर अमिट प्रभाव छोड़ता है.अफसोस 'नागरिक'समय पर रिलीज़ नही हो सकी,नतीजतन घटक का सपना टूट -छूट गया. विडम्बना,देरी के कारण आप भारतीय सिनेमा में समानांतर धारा के पथप्रदर्शक होते- होते रह गए. लुप्त से हो चुके  फिल्म प्रिंट को तलाश कर आखिरकार सत्तर दशक में रिलीज़ किया गया. लेकिन इस दिन को देखने के लिए घटक बाकी नहीं थे.

जो कुछ भी जिंदगी मिली उसमें दुख सालता रहा कि अपना फन दुनिया को दिखा नहीं सके. शराब की लत ने ऋत्विक की जिंदगी को नरक बना दिया था,आप पीड़ादायक अंत की ओर अग्रसर थे. बुर्जुआ समीक्षकों ने आपको हमेशा नज़रअंदाज़ किया.फिल्म उद्योग से आपको खास सहयोग नहीं मिला,आपकी काबिलियत को हमेशा कमतर देख कर आंका गया.आपके प्रयासों को मिटाने की कोशिश हुई..ऋत्विक की फिल्में कभी समय पर रिलीज़ नहीं हो सकीं. घटक ने बहुत कष्ट उठाए.अपने काम को लोगों तक नहीं पहुंचा सकने का ग़म आपको हमेशा सालता रहा.समय पर  फिल्में  रिलीज़ नहीं होने के अतिरिक्त आपके द्वारा शुरू किए गए बहुत से प्रोजेक्टस जिंदगी रहते पूरे नहीं हो सके,पर्याप्त धन नहीं होने कारण यह काफी समय के लिए अधूरे पड़े रहें .आप ने हमेशा अपने शर्तो पर काम किया, इसलिए ज्यादातर निर्माताओं से नहीं बनी. बाज़ार की मांग व चाहत के अनुरूप खुद को ढालने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे.ऋत्विक के अनूठे अभिमानी एवम अति स्पष्टवादी व्यक्तित्व ने उन्हें हाशिए पर डाल दिया था.आप ने लोगों से किनारा कर लिया,क्योंकि आदर्शों का कभी मिलान नहीं हो सका.

सत्यजीत राय एवम मृणाल सेन से ऋत्विक एक मायने में इसलिए अलग कहलाए क्योंकि आपने मेलोड्रमा का बड़ा प्रभावपूर्ण इस्तेमाल किया.यह ट्रीटमेंट रंगमंच से प्रेरित था. याद करें 'मेघे ढाका तारा'का उपांत्य दृश्य-नीता अपने भाई से कह रही : दादा मैं जीना चाहती हूं..घटक की मेलोड्रमा निर्मित करने की महान क्षमता को दिखाता है.हालांकि आपने अभिनेत्री को आंसू निकालने से मना कर केवल जोर से चीखने दिया.चीख नीता की अपार पीड़ा को सशक्त रुप से व्यक्त कर सकी.मेघे ढाका तारा अन्तर्गत एक गाने की शूटिंग करने में खासी दिक्कत आई क्योंकि उनके पास पार्श्व तकनीक हेतु मशीन नहीं थी.गाने में पार्श्व एफेक्ट देने के लिए अभिनेता को थोड़ी दूरी पर गा रहे गायक के होठों से अपनी मुख मूवमेंट मिलाने को कहा गया.इस किस्म के समाधान निकालने में घटक को दक्षता हासिल रही. पूरे सिने काल में आपको हमेशा प्रायोजकों एवं उपकरणों एवं अन्य सहयोग की कमी रही.फ़िर भी सिनेमा के प्यार के लिए संघर्ष जारी रखा.

आज ऋत्विक घटक विश्व सिनेमा के एक प्रतिष्टित नाम हैं. दुनिया भर के फिल्म समारोहों में आपकी फिल्मों का प्रदर्शन होता रहा है. आपकी फिल्मों को उस युग का साक्षी मानकर पठन-पाठन भी चला.घटक दा की पुत्री समहीता के शब्दों में..काफी नुकसान सहन करने बाद भी बाबा ज्यादातर आशावादी रहे.निधन के कुछ दिन पहले ही उन्होंने मुझसे विश्वास जताया कि उनकी फिल्में एक दिन ज़रूर उजाले को देखेंगी.पिता की अनूठी शख्सियत से समहीता बहुत प्रभावित रहीं.आपने उन पर किताब भी लिखी.

फिल्मों में जिंदगी बनाने की ऋत्विक को कोई चाह नहीं थी..उन्होंने स्वयं इसे स्वीकारा भी कि बाबा उन्हे आयकर अधिकारी बनाने चाहते थे.आपको आयकर विभाग मे नौकरी मिल भी गई.लेकिन ना जाने क्यों पद से इस्तीफा देकर राजनीति का रुख कर लिया.कम्यूनिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया से जुड़ गए.पार्टी की सेवा मे  सांस्कृतिक पाठ लिखने का महत्वपूर्ण काम किया. पार्टी के सांस्कृतिक फ्रंट का उद्देश्य कला एवं रंगमंच के जरिए लोगों को संगठित करना था.प्रतिवेदन को लिख कर आपने सन 1954 में पार्टी समक्ष प्रस्तुत किया,लेकिन पार्टी इससे सहमत नही हुई.राजनीति से मोहभंग होने बाद आप लेखन की तरफ़ अग्रसर हुए.कविताएं एवं कहानियां लिखी, भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा ) के सम्पर्क में आए.इप्टा में आने पर फिल्मों से सम्पर्क बढा.

ऋत्विक के लिए सिनेमा व्यक्तित्व का विस्तार था.ढाका में जन्मे घटक को युवास्था में ही कलकत्ता पलायन करना पड़ा.अपने घर से बेघर किए जाने का ग़म उन्हें सालता रहा.मुहाजिर होने का ग़म आपको सालता रहा, हर बांग्ला बंधु जिसे बंगाल के अकाल (1942) में अपना वतन छोड़ना पडा,वो हर कोई जिसने बंगाल विभाजन का दंश झेला फ़िर आज़ादी(1971) के लिए संघर्ष किया आपके दिल के बहुत करीब था. ऋत्विक घटक ने अपनी फिल्मों में इन लोगों की व्यथा को प्रमुखता से स्थान दिया. शरणार्थियों अथवा मुहाजिरो के जीवन अनुभवों पर आपने तीन फिल्मों की कड़ी (त्रयी) बनाई,इनमें मेघे ढाका तारा एवम सुवर्णरेखा के अतिरिक्त 'कोमल गांधार'तीसरी फिल्म थी. बरसों बाद बांग्लादेश वापसी पर आपने 'टिटास एक्टी नदीर नाम'का निर्माण किया.

जीते जी ऋत्विक को अपनी काबिलियत का प्रमाण भारतीय फिल्म एवम टेलीविजन संस्था (पुणे)के विद्यार्थियों से मिला.आपने पांच सालों तक वहां निर्देशन पढाया.निर्देशन अन्तर्गत छात्रों को क्या पढ़ना चाहिए? यह भी आपने तय किया.आप इस संस्था से बहुत गहरे भाव से जुड़े रहे. छात्र आपको काफी पसंद करते थे,हालांकि आपका जीने का तरीका बहुत ठीक नहीं था .ज्ञान के मामले फ़िर भी उन जैसा शिक्षक मिलना मुश्किल था. पढाने का अंदाज़ लीक से हटकर हुआ करता..लाइटिंग पर लेक्चर को वो क्लासरूम से आगे वास्तविक अनुभवों तक ले गए. कुमार शाहनी,जॉन अब्राहम एवम मणि कॉल सरीखे कल की हस्तियां आपके विद्यार्थी थे. पुणे फिल्म संस्थान में ज्यादातर समय छात्र आपको घेरे ही रहते. ऋत्विक क्लासरूम में पढाने के बजाए एक पेड़ की छाया में पढाया करते थे.फिल्म दिखाए जाने बाद विद्यार्थियों साथ उनपर खुला विचार -विमर्श करते.युवा शक्ति अर्थात एफ़टीटीआई की नयी पीढी ने देश को ऋत्विक की वास्तविक दक्षता का एहसास कराया.

आप हालांकि आजीवन यथार्थवादी फिल्में करते रहे,फ़िर भी 'मधुमती'के रुप में बदलाव आया.फिल्म की पटकथा को विमल राय के सहयोग से लिखा था.मधुमती पुनर्जन्म के लोकप्रिय सब्जेक्ट पर बनाई गई. आप मधुमती की सफलता को लेकर थोड़े कम आश्वस्त रहे,इसके विपरीत फिल्म ने काफी नाम कमाया.हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'मुसाफ़िर 'की कथा भी घटक ने लिखी थी.कुछ  समय के लिए आपने फिल्मिस्तान स्टूडियो में भी सेवाएं दी.लेकिन बम्बई का जादू ऋत्विक को बांध नहीं सका.कलकता आपको अधिक भाया,यहां रहकर आपने सिनेमा को एक से बढ़कर एक महान फिल्में दीं..आपका सिनेमा एवम शख्सियत नदी की तरह रहें, सेवा  सापेक्ष जीने खातिर जीने का दूसरा नाम ऋत्विक घटक था.

पतनशील पत्नियों के नोट्स

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नीलिमा चौहानने हाल के वर्षों में स्त्री-अधिकारों, स्त्री शक्ति से जुड़े विषयों को लेकर बहुत मुखर होकर लिखा है और अपनी एक बड़ी पहचान बनाई है. उनके लेखन में किसी तरह का ढोंग नहीं दिखता बल्कि एक तरह की गहरी व्यंग्यात्मकता है जो हम लोगों को बहुत प्रभावित करती है. पतनशील पत्नियों के नोट्स उनकी एक ऐसी ही सीरिज है. आप भी पढ़िए, पढ़कर राय दीजिए- मॉडरेटर 
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वाइव्स आर मेड इन हैवेन

मैं तो एक बनी बनाई औरत थी । औरत क्या बीवी थी । और तुम जब अपने लड़कपन में जमाने भर के चस्खे ले रहे थे लफंगई ,गुंडई ,तफरी कर रहे थे तब मैं घास थोड़े न छील रही थी ।
तुम बेहथियार जंग में उतरे हो और मैं न जाने कबसे अपनी काबिलियत तराश रही थी । मुझे तुम्हें लड़के से पति बनाना पड़ता है । यह ट्रांस्फार्मेशन कितनी जल्द हो कितना पक्का और कितना ऑथेंटिक दिखाई दे - सबमें मेरी काबिलियत का इम्तिहान होता है । जिसे दुनिया जीतने की पड़ी हो उसे अपने घरौंदे की फिक्र में न डाल सकूं तो कैसे चलेगा । एक आवारा फिरने वाले वक्त बेवक्त की पहचान न रखने वाले , बेतरतीब शख्स को तरतीब में लाना होता है ।
अगर लड़के के लड़कपन को शौहरपन में बदला न जाए तो कोई शादी न चले । यानि शादी भी चलाई जाती है । और ये उसका जिम्मा होता है जिसमें शादी के बाहर सोचने की हिमाकत नहीं होती । जाहिर है ये हिमाकत मैं नहीं कर सकती इसलिए यह जिम्मा मैं उठाती हूं । है तो शादी बस रस्म भर ही । पर अजब रस्म है । लड़की को बीवी बनाने के लिए यह काफी है पर लड़के में शौहर होने की तहजीब और आदत एक रस्म के हो जाने से नहीं आ जाती । उसे आए वक्त जमाना क्या कहेगा के डर में या दूसरे पतियों को देखो , अपने पिता से सीखो , मेरी सहेली का पति तो ..,  ..बच्चे क्या सीखेंगे

यानि किसी न किसी डर दबाव दौड़ समझौते दुहाई लालच देना होता है ।

अजी क्या खुल्लमखुल्ला थोड़े ही न । पैंतरा ऎसा हो कि हर हालात में शौहर मेरे चाहे को ही चाहत मानने के लिए मजबूर हो जाए और बस इसलिए मजबूर हो जाए कि उस वक्त उससे बेहतर उससे लाजमी कोई सूरत उसे दिखाई न दे ..


 मेरी दुश्मन मेरी दोस्त



मेरी सास मेरी दुश्मन नंबर वन औरत है ।
इसलिए है क्योंकि अपने बेटे को एक गिलास पानी भी खुद पी लेने का सलीका नहीं सिखाया उस स्त्री ने ।
पर ठंडे दिमाग से सोचने पर लगता है कि चलो अच्छा ही किया । वो मेरे शौक पालता है , दिनभर खटकर नोट कमाकर लाता है , मेरे बच्चों के लिए एक शक्तिशाली पिता बनने की जी तोड़ कोशिश में लगा रहता है । ऎसे में दिन भर घर में पड़े पडे महरियों पर हुकुम बजाती बीवी पर प्यार उमड़ाने के लिए उसे भी तो कुछ कारण चाहिए । वो सलीके सीख जाएगा तो मेरे लिए कोई काम कैसे बच रहेगा ।
मेरी सास ने शायद औरत होकर औरत का दर्द समझकर ही अपने बेटे यानि मेरे होने वाले पति को औरत के हाथ के सलीके की ऎसी जबरदस्त आदत डलवाई होगी ।
इस एक हुनर से मेरे सौ ऎब छिप जाते हैं और अपने सौ हुनर के बावजूद अपने एक ऎब की वजह से मेरा पति मेरा ही रहता है ।
इसलिए ही कहा जाता होगा कि एक औरत ही औरत के दर्द को समझ सकती है ।

सास को सलाम ।


हाउ टु सॉल्व ए डिफिकल्ट पज़ल कॉल्ड हस्बेंड

शायद यह बात हम भी जानती हैं  एक अमीर घरेलू खातूनों  की ज़िंदगी  सोने के हसीन पिंजड़े में फुदकती मैना की सी होता है ।  
पति की कमाई हुई बेशुमार दौलत के समंदर की जलपरी हैं हम ।    जब कभी  आंख में आंसू और और दिल में दर्द उठने को हुआ  पति की ताज़ी कमाई की चमक दिखाई दे जाती है । जब भी लगने लगता है कि दौलत के इस समंदर में कोई कहां है अपना वैसे ही तमाम नौकरों मातहतों  को काबू करने की तलब उठ जाती है और क्या कहूं कि उनको फटकार -   पुचकार कर ऎसा रूहानी सुकून मिलता है  कि  किस्मत वालों को ही नसीब होता है ऎसी सल्तनत ।
  अजी क्या कहा आज़ादी ?
हां आज़ादी है न  मेहनत  से आजादी , गरीबी से आज़ादी  , बेहिसाब आराम करने की , बेशुमार खर्च करने की आज़ादी । और घुटन कैसी ? दिनभर सजी धजी सहेलियां , रसीली बातें , खट्टी मीठी चुगलियां , पति से बात मनवाने के नए नुस्खे ,
 पति का प्यार ? जी वो मेरे खर्चने की ताकत से ज़्यादा कमाने का हौसला रखेगा तबतक तो मेरे दिल से उतर नहीं सकेगा । और वो मुझे अपने दिल से उतार दे ऎसी नौबत न आने देने के लिए मेरे पास एक अदद ज़बान , हुस्न और दुनियादारी के खौफ की चाबी है ही न ।
  वो दिन भर दुनिया से निपटता है पर मेरे तो सिलेबस में बस एक ही चेप्टर है  -
- हाउ टु सॉल्व ए डिफिकल्ट पज़ल कॉल्ड हस्बेंड "।
सच बहना ।


मुझे किसी पुरुष को जिगरी  दोस्त बनाना है

सरेआम पीठ पर धौल जमाकर  मिलना है और घंटों बातों करनी हैं । पेट पकड़कर बीच गली ठहाके लगाने हैं ।  कंधे पर सर रखकर बॉस की , घरवालों की ज्यादती का रोना रोना हैं । किसी शनिवार देर रात तक बेवजह टहलाव करते हुए गुनगुनाते हुए घर लौटना है । सीटी बजाकर फोन खड़काकर जब तब उसे घर से बुलाकर नुक्कड़ पर खोमचे वाले के समोसे खाने खाने हैं । जब कभी गप करने पर आएं तो घड़ी  का मुंह दीवाल की ओर कर देना है और जमकर  देश ,समाज , राजनीति से लेकर  शरीर और बिस्तर की , जज़्बे और जुनून की सपनों की , धोखों की बातें  करते हुए   जी भर सिगरेट फूंकना है ।

जिंदगी का फर्स्ट हॉफ पापा की मजबूरियों , मां की भावनाओं के लिए नाम कर दिया था । अब यह दूसरा हाफ पति के नाम है । पति की कितनी सहेलियां  हैं पर मेरा कोई दोस्त नहीं की कुंठा को बराबरी में तब्दील करने की कई बार कोशिश की है । पर  किसी भी पुरुष के दोस्त बनने की संभावनाओं से ही "कुछ तो गड़बड़ है 'के भाव वाली नज़रों का सामना करना होता है और दोस्ती की पींगें ज़रा भी बढ़ने पर घर -पति -बाल-बच्चों के प्रति जिम्मेदारियां नहीं निभाने का कलंक इंतज़ार कर रहा होता है ।

स्कूल के  दोस्त स्कूल में कॉळेज के कॉलेज में , दफ्तर के दफ्तर में छोड़ती आई हूं क्योंकि वो पुरुष थे ।  इतनी सहेलियां हैं  । गहनों कपडों,, सास , पति ,फिल्मों की बातें करो । मना किसने किया है राजनीति की देश की समस्याओं की बातें भी करो । किट्टी पार्टी करो । एक दूसरे के बच्चों के मुंडन जन्मदिन पर आओ जाओ । फोनों पर सूट का डिज़ाइन और चाइनीज़ फूड की रैसिपी शेयर करो । चांदनी चौक धूमो । फिल्म देख आओ । सब ऎलाउड तो है किसने रोका । यह हैरत तक कि बात नहीं है कि  जो एलाउड है है वह भी पता है और जो एलाउड नहीं है वह भी किसी को बताने दोहराने की ज़रूरत नहीं पड़ती । सब खुद ब खुद पता है ।

ये सीमाएं जिनमें कितनी सेफ्टी है ।  इसलिए यह सीमाएं नहीं है । पुरुष दोस्त बनाने में तीन रिस्क हैं । जमाने का तो है ही ।  दोस्त से भी है और खुद के बारे में भी निन्यांवे प्रतिशत ही तो श्योरिटी । बाकी का एक परसेंट ? वह कितना खतरनाक है । इस दोस्ती में लगातार ध्यान , सीमा , लोगों का पर्सेप्शन सब मैटर करता है । इतना मैटर करता है कि खुद को अपराधबोध् से भरने से बचाने में अच्छी खासी ताकत लग सकती है । इतनी ताकत कि कई बार लगे सब ठीक हैं मैं अकेली गलत हूं ।
 ठहाके , बेफिक्री , गप्पें तकरीरें , गलबहियां दोस्ती के मर्दाना तरीके हैं । औरतों के लिए दोस्ती के इस मतलब को खुद भी  समझ कर रहना होता है और दुनिया को भी समझाना होता है । जबकि यह दोनों ही काम  झक्क भरे हैं ।
यह समझाना दूसरों के लिए "हम सब समझते हैं "ही होकर रह जाता है । इतनी ताकत मुझमें नहीं कि जब सब  सब समझ रहें हों तो उनको वह समझाना चाहूं जो मैं महसूस करती हूं । मुझे बताना पड़ेगा कि मैं इश्कबाजी नहीं कर रही । मैं आवारा नहीं ।  मुझे  सेफ्टी और सर्टिफिकेट चाहिए  इसी स्ट्रक्चर में रहने के लिए । दोस्ती के लिए स्पेस तलाशते और उसके भाव को डिफेंड करते हुए अपना कितना भेजा खपाउं ?

वैसे भी मैंने आसपास कोई यारबाज़  औरत नहीं देखी अबतक । सब घरबारी , सभ्य , सहेलियों वाली , जिम्मेदार शरीफ औरतें हैं ।  एक मैं ही किसी पुरुष से गहरा यारान बनाने की कोशिश में अपना आगा पीछ क्यों बिगाडूं ।
हैलो-  हाय , काम की बात और बाय तक ही ठीक है ।


अधखिंची हैंडब्रेक 

मेरे हाथ से लगी गाड़ी की हैंडब्रेक लगी न लगी बराबर ही होती है । अक्सर यह बात इसलिए छिपी रह जाती है कि गाड़ी जहां पार्क की वहां की ज़मीन समतल निकली वरना एक दो बार गाड़ी धीमे धीमे बहते हुए 'जीले अपनी ज़िंदगी सिमरन 'वाली अंतर्चेतना से काम लेती पाए गई है और अक्सर किसी भलेमानस के द्वारा पहिए के नीचे लगाए गए पत्थर की बदौलत गाड़ी की और न जाने किस किस की जान बची है ।

कल गाड़ी जहां पार्क की पता नहीं था कि वहां की जमीन ऎसी ढलुवां निकलेगी । और हुआ वही जो हो सकता था । मेरे गाड़ी से उतरते ही अधलगी हैंडब्रेक से तुरंत रिवोल्ट करते हुए गाड़ी आगे को बहते हुए एक स्टॆशनरी दुपहिया को गिराकर शांत हुई । जूस की दूकान की भीड़ के कानों और आंखों को भिडंत के नाद् से उम्मीद जगी कि अब कहासुनी होगी और हमें काटो तो खून नहीं पर ।

मुझे लगा गाड़ी का मालिक इनमें से न हो बाकी तो संभाल लेंग़े पर उसी पल जूस पीते हुए गाड़ीवाला युवक अवतरित हो ही गया और मुझे लाड भरे शब्द सुनाई दिए "ओहोहोहो मैम कोई बात नहीं "और दिखाई दिया मेरे घबरा गए चेहरे को तसल्ली देता निहारता और गाडियों की गुत्थमगुत्थी को भी छुड़ाता एक शांत और प्यार भारा चेहरा । लगा यकीनन इन जनाब की कल्पना में दोनों गाड़ियां नहीं भिड़ीं बल्कि गाड़ियों के मालिक लतावेष्टित आलिंगन में बंधे हैं । उसकी कल्पना की कल्पना करते हुए मेरे मन ने शायद कहा कि अब जाने भी दीजिए "इतनी भी खूबसूरत नहीं हूं मैं "और उनका धराशायी हो गया बैग उनको थमाते हुए न अपना लजाना छिपा सकी न अपनी घबराहट । नज़रें मिलाई थीं 'आए एम वेरी वेरी सॉरी 'कहने के लिए पर जनाब की आंखों में बिल्कुल अनेक्स्पेक्टिड सा जवाब तैर रहा था "इट्स माय प्लैज़र '। मैंने पूछा कहीं लगी तो नहीं तो जवाब में बस चमकती हुई आंखें देखीं और धड़कता हुआ दिल ही सुनाई दिया कि 'लगी तो ज़रूर है '। दिल तो मेरा भी धड़क रहा था कि जाने आज क्या क्या होता होता रह गया पर छिपाने का हुनर मेरे पास उसके मुकाबले ज़्यादा था ।

घर जाकर बढ़ी हुई धड़कनों की कहानी कहते ही यही सुनने को मिलेगा कि'तुम भी न कितनी केयरलेस हो यार चलो अब एक सिपलार टेन ले लो वरना हांफती फिरोगी '। पर मैं कहूंगी कि 'दिल का तेजी से धड़कना हर बार किसी बीमारी का ही नतीजा हो ज़रूरी नहीं जानू '। और ज़रूर कहूंगी कि 'आप जो इतनी बेरहमी से कसी हुई हेंडब्रेक लगा देते हो कि मुझे अक्सर बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है और आखिरकार बगल से गुजरते किसी भलेमानस को बुलवाकर नीचे करवानी पड़ती है 'वगैरह वगैरह ... ।

 खैर क्या बताना है क्या नहीं बताना यह तो अब घर जाकर ही ऑन द स्पॉट डिसाइड किया जाएगा । अभी रास्ते भर अपने दिल की चहक को तो सुन लूं  

आकांक्षा पारे की कहानी 'सखि साजन'

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समकालीन लेखिकाओं की सीरिज में आज आकांक्षा पारेकी कहानी. उनकी कहानियां स्त्री लेखन के क्लीशे से पूरी तरह से मुक्त है. उनकी कहानियों में एक अन्तर्निहित व्यंग्यात्मकता है जो उनको अपनी पीढ़ी में सबसे अलग बनाती है. आप भी पढ़िए उनकी एक प्रतिनिधि कहानी- मॉडरेटर 
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‘यह कहानी उतनी ही सच्ची जितने प्रेम में रतजगे। उतनी ही झूठी जितने प्रेम के कस्मे-वादे।

उसकी डायरी का यह पहला वाक्य था। लिखावट खूबसूरत थी। इस वाक्य के बाद पूरा पन्ना लगभग कोरा था। कहीं-कहीं फूल-पत्ती और सितारे बनाए थे उसने। एक झोंपड़ीनुमा घर, घर से निकलता रास्ता, पहाड़, ऊगता सूरज और हां एक पेड़ और उस पर बैठी चिड़िया भी। पूरी डायरी में कभी नीली तो कभी हरी स्याही से उसने छोटी-छोटी इबारतें, शायरी लिख रखी थीं। बीच-बीच में वही फूल-पत्ती, मांडने, आड़ी-तिरछी लकीरों से गुदी सी थी वह डायरी। इन सबके बीच ही सुंदर लिखावट में दर्ज था उसका दर्द। दर्द जो मेरे अपने ने ही उसे दिया था। वह दर्द जिसकी मैं कल्पना नहीं कर सकती थी और जिसने दिया था वह चैन से थी। किसी भी बात के से बेखबर। मैं अब तक बेतरतीबी से उस डायरी को पढ़ रही थी। कभी आगे का हिस्सा तो कभी अचानक आखिरी पन्ना। कभी बीच का कोई हिस्सा। आधा वक्त तो उसकी अनूठी-अनगढ़ चित्रकारी पर नजर जमाए ही बीत जाता था। फिर ध्यान आता, मुझे तो डायरी पढ़ना है। उसके दर्द का साझीदार होना है। बहुत पहले कहीं पढ़ा था, ऐसी बेतरतीब चित्रकारी के बारे में। ऐसी चित्रकारी व्यक्ति के मनोभाव दिखाती है। कोई यूं ही नहीं कागज पर गोदता रहता है। उथल-पुथल होती है मन में जो रोशनाई के सहारे कागज पर निकल आती है। जब मन में दुविधा हो तब ही ऐसे चित्र निकलते हैं मन से बाहर। प्रदीप ने कहा था एक बार। कुछ लोगों में आदत होती है। कहीं भी कागज-कलम मिला नहीं कि लगे गोदने। आजकल के लोग जिसे गोदना नहीं डूडल कहना पसंद करते हैं। स्कूली बच्चों की कॉपी जैसी दिखती उस डायरी में बने चित्रों को मैं भी समझने की कोशिश कर रही थी। प्रदीप पढ़ते थे डूडल के मनोभावों को। बहुत रुचि थी प्रदीप की ऐसी बातों में। अकसर कहा करते थे, आदमी पूरी तरह खुल जाता है कुसुम। यदि कोई पांच तरह के डूडल मेरे सामने बना दे न तो मैं फौरन बता सकता हूं कि क्या चल रहा है सामने वाले के मन में। उसकी कौन सी इच्छाएं दबी हैं मन में। मैंने याद करने की कोशिश की। जितना प्रदीप से जानती-सुनती आई थी। सितारे बनाने का मतलब होता है, आशा। खुद के जीवन से ऐसी आशा जो पूरी होना थोड़ी मुश्किल हो। हां मुश्किल आशाएं ही तो पाल रखी थी उसने अपने मासूम मन में। मैंने पढ़ना शुरु किया, “सलेटी रंग के आसमान के एक टुकड़े ने मेरी बालकनी से झांका और मुझे बताया कि उसके आने का वक्त हो गया है। मैंने सोचा खुद व्यवस्थित कर लूं। थोड़ा कमरा संवार लूं। वैसे इसका उलट भी हो सकता था। मैं थोड़ा संवर लेती और कमरा थोड़ा व्यवस्थित कर लेती। पर मुझे संवरने का शौक कभी रहा नहीं। तब भी नहीं जब संवरने की उम्र रहती है। आइने के सामने खड़ा होना अच्छा लगता है। पर पता नहीं उसमें क्या है। उसके आने से पहले मुझे व्यवस्थित हो जाना अच्छा लगता है। चाहे मैं दफ्तर से कितनी भी थक कर आऊं। चाहे मेरा मन कितना भी अलसाने का करे, मैं उसके आने से पहले मुंह-हाथ धो लेती हूं। चेहरे पर थोड़ी रौनक ले आती हूं और इंतजार करती हूं कि वह चहकती सी कमरे में दाखिल होगी और पूरा कमरा उसकी चहचहाट से भर जाएगा। पहले मुझे बड़ा अजीब लगता था उसका साथ। कितना बोलती है। एक मिनट चुप नहीं रहती। पिछले चार साल से मैं इसी कमरे में हूं। लेकिन इससे पहले कभी इतनी रौनक नहीं रही। अब तो जब देखो कोई न कोई उससे मिलने आता रहता है। कमरा हमेशा भरा-भरा सा रहता है। मुझे जबर्दस्ती बातचीत में घसीट लेती है वह। क्यों सोनाली तुम्हारे यहां ऐसा होता है क्या, क्यों सोनाली तुम कभी वहां गई हो क्या, क्यों सोनाली तुम्हें यह पसंद है क्या। जब भी कमरे में रहती है, सोनाली, सोनाली करती रहती है। उससे पहले तो मुझे पता ही नहीं था कि घर किसे कहते हैं और घर का प्यार क्या होता है। वह मेरा बहुत खयाल रखती है। मुझे बहुत अच्छा लगता है।’
ओह तो उसका नाम सोनाली था। कितना आश्चर्य है, मैंने उसके सैकड़ों संगी-साथियों के नाम सुने हैं लेकिन यह नाम कभी नहीं सुना। क्या बच्चे इतना कुछ छुपाते हैं अपने मां-बाप से। खासकर मां से। मांएं तो दोस्त होती हैं न। दोस्त? मैंने खुद से प्रश्न किया। दोस्ती तो सिर्फ किताबों में ही दिखाते हैं बच्चों और मां की। अखबार के फीचर पन्नों तक ही सिमटी हुई है यह दोस्ती। पता नहीं कुछ माएं होती होंगी इतनी भाग्यशाली कि उनके बच्चे उनके दोस्त रहते होंगे। लेकिन यह बात तो दोस्तों को बताने लायक भी नहीं है। क्या कोई अपने किसी दोस्त को बता सकता है, कि उसने...कि वह...। आगे मैं सोच ही नहीं पाई। शायद सोचने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। खुद को नए जमाने की मानती आई हूं। पर यह नयापन मेरे गले में फंस गया था। न रुलाई फूटती थी न आवाज। यह बेवफाई थी, अपराध था, किसी का शोषण था, किसी की मजबूरी का फायदा था, क्या था आखिर यह। अगर मैं यह तय भी कर लेती तो क्या फर्क पड़ना था। इसकी सुनवाई तो अब कहीं नहीं हो सकती थी।
मेरा मन घबरा रहा था। मैंने आहिस्ता से डायरी बंद की और बालकनी में चली आई। इस अनजान महानगर में बालकनी का यह कोना ही मेरा अपना था। जहां नजर जाती थी बस ऊंची-ऊंची इमारतें ही दिखाई देती थीं। तीसरी मंजिल के इस फ्लैट में पांच कमरों के इस मकान में हम तीन लोग रहते हैं। मकान मैंने इसलिए कहा कि घर बनने के लिए इसे लंबा रास्ता तय करना है। जब मैं बालकनी से झांकती तो लगता, सीमेंट के पेड़ ऊग आए हैं। ऊंची इमारतों की छोटी-छोटी खिड़कियां दिखतीं और रात होते ही सफेद पीली रोशनी से रौशन हो जातीं। देर रात तक कुछ खिड़कियां रोशन रहतीं और अंधेरे में इन्हीं रोशन खिड़कियों के सहारे कई बार मेरी रात कट जाती। यदि कभी वह मुझे जागते हुए पाती तो प्रेम से पूछने के बजाय हमेशा डपट देती, “सो जाओ वरना बीमार पड़ जाओगी। फिर मुझे आफिस से छुट्टी ले कर तुम्हारी देखभाल करनी पड़ेगी।” नींद नहीं आती क्या करूं। अब यह जवाब देकर भी मैं थक गई थी। तुम्हारी चिंता सताती है यह तो मैं बोलना ही भूल गई थी। ऐसा बोल कर मैं और चार बातें सुनना नहीं चाहती थी। मैं जानती थी ऐसा कहने पर वह बिफर पड़ेगी और किसी भी बात का चीख कर ही जवाब देगी। मैं कई बार उसकी चिल्लाहट या बौखलाहट में अपनी गुम हो गई बेटी खोजना चाहती थी। लेकिन मैं जितना इसका प्रयास करती उतता ही खुद को असहाय मानने लगी थी। सच तो कहती है वह। मैं उसकी मदद के लिए यहां हूं। यदि बीमार पड़ गई तो वह अपने डॉक्टर के पास दौड़ेगी या मेरे।
यह सब मैं तब सोचती थी जब तक मैंने वह डायरी नहीं पढ़ी थी। उस डायरी के बाद मेरा भी मन करने लगा था उस पर चीखूं, चिल्लाऊं। झिंझोड़ कर पूछूं, क्या कमी थी हमारे पालन-पोषण में कि तुमने इतनी बड़ी हरकत की। अपराध उसका था, पर घुट मैं रही थी। शायद उसे अंदाजा भी नहीं था कि उसने एक जीवन ले लिया है। मैं उससे झगड़ना नहीं चाहती थी, बहुत मुश्किल से वह एक जीवन देने के काबिल बनी थी। नए जीवन की राह में जरा भी तनाव परेशानी खड़ा कर सकता है, उसके डॉक्टर ने चेतावनी की तरह यह बात मुझसे कही थी। बहुत सावधानी रखना थी उसे भी। मुझे भी खुशी थी पांच कमरों का वह मकान घर बनने जा रहा था। शादी के दस साल बाद उसके शरीर का आकार बढ़ रहा था। उसका हर दिन बढ़ता आकार मुझमें भी नई उम्मीद जगा देता था। बहुत दिनों बाद आज वह दफ्तर गई थी। उसके जाते ही मैंने अलमारी से हल्की जामुनी रंग की वह डायरी निकाल ली। अभी कितना कुछ बाकी था। कितना कुछ था जो मुझे जानना था और समझने की कोशिश करनी थी। उसने लिखा था, “लाल रंग से अक्षर सुंदर आते हैं। पर बेला कहती है, दुश्मनों के लिए लाल रंग इस्तेमाल किया जाता है। मैं तो दोस्त के लिए लिख रही हूं। बल्कि दोस्त से बढ़ कर है वह। वह मुझे अच्छी लगती है। मैं उसकी तरह होना चाहती हूं। उतनी ही जिंदादिल, उतनी ही हंसमुख। वह कैसे बातों-बातों में दूसरों को अपना बना लेती है। वह मुझे काली स्याही से भी नहीं लिखने देती। कहती है, काली स्याही से लिखने पर जीवन में संघर्ष बढ़ जाता है। वैसे ही क्या कम संघर्ष है तुम्हारे जीवन में। वह पहली लड़की है जिसे मैंने बताया है कि मेरे पापा हमारे साथ नहीं रहते। हमारे यानी ममा के साथ। स्कूल में मैं सब को यही बताती हूं कि पापा गल्फ में जॉब करते हैं और छुट्टियों में आते हैं। वैसे मेरी क्लास की लड़कियां इतनी भी बेवकूफ नहींथीं।फिर भी कोई सीधे-सीधे मुझ से नहीं पूछता, कौन सीछुट्टियोंमें आते हैं? कब होती हैं तुम्हारे पापा की छुट्टियां? बेला ने कितनी आसानी से कहा था मुझे, झूठ बोलने की क्या जरूरत है। जो सच है वह बोलो। कहो पापा ने दूसरी शादी कर ली और तुम्हारी ममा से तलाक ले लिया। इसमें छुपाने वाली बात क्या है। तुम्हारी ममी तो अलग नहीं हुई न उनसे। वह गए तुम लोगों को छोड़ कर। मैं कैसे कहूं बेला से, इतनी हिम्मत न मेरी ममा में है न मुझमे। तभी तो उन्होंने मुझे हॉस्टलभेज दियाथा पढ़ने। और देखो मैं नौकरी कर रही हूं तब भी हॉस्टल में ही हूं।वह खुद दूसरे शहर चली गई जॉब करने। हमारा कोई घर भी नहीं है। जब मिलना होता है मैं नानी के यहां जाती हूं, ममा वही आती हैं मुझसे मिलने। कभी उस शहर में नहीं बुलातीं जहां नौकरी करती हैं। मुझे ऐसा लगता है उन्होंने बताया ही नहीं होगा किसी को कि उनकी एक बेटी भी है। मैं बेला से कहना चाहती हूं। बेला मैं तुम्हारी तरह होना चाहती हूं। इतनी साफगोई से सब स्वीकार करने वाली, इतनी साफगोई से सब कहने वाली।”
किसी भी मां को गर्व होना चाहिए अपने बच्चे की तारीफ सुन कर। शायद पढ़ कर भी। सोनाली बेला से इतना प्रभावित थी। उसके हर शब्द में यह झलक रहा था। लेकिन मेरा ध्यान उन रेखाओं की तरफ है, जिनसे जोड़ कर उसने एक झोंपड़ी बना दी। रास्ता भी बनाया लेकिन एक दरवाजा है उस रास्ते पर जो बंद है। प्रदीप कहता था, जो लोग रास्ते पर गेट बना देते हैं वे अपने जीवन में किसी को आसानी से अंदर नहीं आने देते। उनके मन में एक परिवार की हसरत तो होती है लेकिन वे इतने सावधान होते हैं कि कम ही लोग उनके करीब पहुंच पाते हैं। वे अपने स्वभाव और इच्छा में तालमेल नहीं बैठा पाते और अकेले रह जाते हैं। सोनाली क्या ऐसे ही किसी तालमेल की वजह से...। मैं हमेशा सोचना वहीं क्यों रोक देती हूं जहां बेला कहीं भी उससे जुड़ रही होती है। उसकी डायरी में फूल हैं, फूल के गुच्छे भी। एक फूल पर उसने तितली भी बनाई है। यह तब की बात है जब बेला को उसके साथ रहते हुए साल भर हो गया था। फूल और उस पर तितली बनाना तो प्रेम और खुद को किसी को समर्पित कर देने का संकेत है। तो क्या समर्पण भले ही अप्राकृतिक हो भावनाएं एक सी होती हैं। क्या प्रेम देह-देह का फर्क नहीं जानता। एक पुरुष और स्त्री देह के अंतर को मन नहीं पहचानता। जरूर ऐसा होता नहीं होगा। तभी तो प्रेम के इतने चिन्ह उसने अंकित कर रखे हैं। कुछ दिन तो जरूर दोनों के बीच उल्लास के बीते होंगे। उसने सितारे बनाएं हैं खूब सारे। कोमल पत्तियां बनाई हैं। खूबसूरत अल्पना बनाई है। सभी तो नए जीवन के शुरुआत के संकेत हैं। वह जब मुझे चूमती है तो लगता है मैं हवा में उड़ रही हूं। उसके कोमल हाथ जब मेरे शरीर को छूते हैं तो...मुझे यह पढ़न ही लिजलिजा अनुभव दे जाता है। उबकाई आती है। आगे पढ़ने का मन नहीं करता। यकीन नहीं होता मेरी बेटी ने किसी लड़की के साथ...  और फिर आराम से उसे छोड़ कर चली आई। वह उसकी याद का नरक भोगती रही और मेरी बेटी आराम से शादी कर अपनी नौकरी में व्यस्त हो गई। अखबारों में कभी सतरंगी मुखौटे पहने लोगों को देख कर मैंने उससे पूछा था, यह किस बात का प्रदर्शन है बेटा। बड़े अजीब से लग रहे हैं। तुम नहीं समझोगी मां। बस ऐसे ही। अब याद करती हूं तो लगता है उसकी आवाज किसी खोह से आती हुई लगी थी। फिर भी पता नहीं कैसे मैंने दोबारा पूछ लिय़ा था। जो लड़के-लड़के, लड़कियां-लड़कियां शादी कर लेती हैं न ये सब वो लोग हैं। शादी जितने आश्चर्य से मैंने पूछा था उतनी ही सहजता से उसने कहा था, हां तो क्या। शहरों में सब चलता है। बहुत सी लड़कियों को लगता है वो अपनी सहेली के साथ ही रह सकती हैं। होती हैं कुछ पगली टाइप की। मैं कुछ और पूछती उससे पहले ही वह उठ कर दूसरे कमरे में चली गई थी। मुझे पता ही नहीं चला कि वह अतीत का सामना करना नहीं चाहती थी या पुरानी बातें उसके भी जख्म हरे कर रही थी। फटी पुरानी वह डायरी मेरे गद्दे के नीचे कसमसा रही थी। उसका रोना, बेला से साथ रहने की गुहार, उसे न भूल पाने की विनती। सब साफ-साफ मुझे दिखाई पड़ रहा था। मैंने बेला का चेहरा याद करने की कोशिश की जब वहशादी के लिए अपना वर्किंग वुमन हॉस्टल छोड़ कर लौटी थी। मुझे याद ही नहीं पड़ता कि उसके चेहरे पर मैंने कोई बैचेनी या शिकन पढ़ी थी। वह  जहां नौकरी करती थी वहीं विनीत से  उसकी दोस्ती  हुई थी और शादी। कुछ भी असामान्य नहीं था उसके जीवन में। डायरी के आखिरी पन्नों पर कुछ नहीं लिखा था। बस खूब सारी आंखें बनी हुई थीं। खूब सारी। इंतजार का प्रतीक पता नहीं कितनी जोड़ी आंखें। कहीं कोई चेहरा नहीं। बस आंखें बड़ी-बड़ी कजरारी सी लेकिन उदास।

लगता था उसके शब्द चुक गए हैं। उसकी इच्छा खत्म हो गई है। उसने अपने मन को मार लिया है। कोई चित्र नहीं, कोई गोदना नहीं। बस दो पंक्तियां लिखी थीं लाल स्याही से, भूले हैं रफ्ता-रफ्ता मुद्दतों में उन्हें हम। किस्तों में खुदकुशी का मजा हमसे पूछिए। 

सौम्या बैजल की कविताएं

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हिंदी के मठाधीश कविता की विविधता को सेंसर करते रहे, उसकी आवाजों को एकायामी बनाने की जिद करते रहे. लेकिन आज अच्छी बात यह है कि हिंदी कविता की हर आवाज सक्रिय है, दबावों से मुक्त है. ऐसी ही एक आवाज सौम्या बैजलकी भी है, जो हिंदी कविता की विशाल दुनिया में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत है. उनकी कुछ नई कवितायेँ- मॉडरेटर 
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छूटे शहर

छोटी गलियों के वह छूटे शहर,
असली आवाज़ें, अब बस वहीँ पड़ती हैं कानों में,
टूटी हुई सड़क पर चलते हुए जहाँ तलुए घिस जाते थे
क़दमों की निशाँ शायद वहीँ मिलेंगे अफ़्सानो में।

हर कोई जहाँ मामा-मासी बन जाता था,
रिश्ते बात बात पर बन जाते थे,
चाय की चुस्कियों के साथ जब पुराने क़िस्से सुनते थे,
शायद भूली हुई पहचान फिर मिल जाए ठहाकों में।

जहाँ दिल जितना बड़ा होता था,
उतनी बड़ी बन जाती थी जेबें,
जहाँ दूर तलक तक फैलती थीं,
छौंक लगाने की तरकीबें।

जब तरकारी चखाना तो बहाने होते थे,
एक दूसरे से मिलने को
जब घड़ियाँ देखा करते थे
एक दूसरे की आवाज़ सुनने को।

जब आँखें होती थी किताबों में,
पर कान होते थे कहीं और,
जब चाचा की चप्पल कंकड़ पर पड़ने की आवाज़
लाती थी मुँह में पानी बार बार.

अब कान तरसते हैं,
कुछ अपना सा सुनने को,
बड़ी बड़ी गलियों में,
खो गए प्यार के वह रिश्ते क्यों?

भीड़ में चलते हैं,
पर खबर नहीं कौन चलता है साथ में,
रोज़ चेहरे बदल जाते हैं,
या मिल जाते हैं ख़ाक में।

छोटी छोटी उन गलियों में
हाथ पकड़कर चलते थे हम साथ में
आज अपनी ही दोनों हथेलियों को पकड़कर
देखते दूसरो को डर से।

इन बड़े बड़े शहरों में,
बुत रह गए हैं हम
न कोई नाम है
न कहीं हम।

चलो लौट चलें उन गलियों में
जहाँ कभी गिरे थे हम
हातों के सहारे
कभी उठे थे हम।

यहाँ गिरे तो देखेंगे नहीं,
उठेंगे तो बढेंगे नहीं
झुकेंगे तो चलेंगे नहीं
मिलेंगे तो पहचानेंगे नहीं।

यहां मरें तो मिलेंगे नहीं
बोले तो जियेंगे नहीं
नींद से जागेंगे नहीं
चैन से सोयेंगे नहीं.

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वक़्त वक़्त की बात है

वक़्त वक़्त की बात है,
खामोशियों के दौर चले हैं
जहाँ अब लव्ज़ भी चुप चाप
सन्नाटों में जिया करते हैं.

जब तसवीरें कुछ कहती थी
जब लफ्ज मायने रखते थे
जब एक साथ कुछ करने के
दौर चला करते थे

वक़्त वक़्त की बात है
की जिन्हे सज़ा मिलनी थी
वह आज सज़ा देते हैं
जिन्हे शब्द लिखने थे
वह अब कफ़न ओढ़ा करते हैं

अब मुँह से निकलने वाले हर शब्द को
सामने वाला टटोलता है
समझने के लिए नहीं
जवाब देने के लिए सुनता है

वक़्त वक़्त की बात है
कलम को अब डराते हैं
आवाज़ें अवाम को जगा देंगी
इस डर से उन्हें दबाते हैं

दौड़ते हैं सब एक मंज़िल की ओर
जिसको कभी देखा नहीं
एक जैसे बन जाने के लिए
ख़ुशी से दफ़न करते हैं आपने वजूद कहीं.

वक़्त वक़्त की बात है,
खामोशियों के ही दौर चले हैं
जहाँ अब लफ्ज भी चुपचाप
सन्नाटों में जिया करते हैं.

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ख्वाब और ख्याल

रहने दो कुछ ख्यालों को
दबे हुए पलकों के बीच
कई बार वैसे भी
तकिये के ज़रिए, ख्वाबों में आया करते हैं

सोने दो कहीं
उन भूले हुए ख्वाबों को
क्योंकि जब जाग उठते हैं ख्वाब वही
कुछ भी और देखने नहीं देते आँखों को

कुछ ख्वाब सोना दूभर कर देते हैं
यथार्थ से कोसो दूर ले जाते हैं
दूर से खुद को देखो तो
यथार्थ के सच भी सपने ही नज़र आते हैं

आज फिर नींद चल दी है दूर कहीं
थक गयी है जागती आखों के ख्वाबों से
जब सहारा लेना ही नहीं उसका,
क्यों ले चले वह आपको गुलज़ारों में?

रूठते जाते हैं सब
चले जाते हैं सब
जब तक आँखें मल कर जागेंगे
छोड़ चुके होंगे उम्मीद सब

जब ख्वाब हदें तोड़ दें
जब जूनून सिर्फ शब्द न हो
जब नींद सिर्फ तब खुले
जब ख्वाबों को पूरा करना हो

समझ लो की तभी बस
जीने की सबब मिल गया है
जिसकी तलाश में कई लोगों का
वक़्त से साथ छूट गया है

ज़िद करो, लड़ो, जीतो तुम
ख्वाब को न निराश करो तुम
मौत की दहलीज़ पर पलट कर जब देखो
ज़िन्दगी को मुस्कुराते देखो तुम

जियो उस ख्वाब को,
जिसने तुम्हे चुना है
मिलो अपने आप से
जिसे अपने लिए खुद तुमने चुना है

चुनो उस ख्वाब को
जिसने तुम्हे चुना है
अपनी बनाओ उस ज़िन्दगी को

जिसको तुमने चुना है

पटना फिल्म फेस्टिवल 2016 : एक नई पटकथा लिखने की कोशिश

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अभी कुछ दिन पहले ही पटना फिल्म फेस्टिवलसंपन्न हुआ. उसकी बेबाक समीक्षा की है सुशील कुमार भारद्वाज ने- मॉडरेटर 
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जहां एक तरफ बिहार विधान सभा चुनाव के बाद से राज्य की छवि अप्रत्याशित रूप से राजनीतिक-हत्या, अपहरण, रंगदारी और बलात्कार के कारण धूमिल हों रही है वहीं दूसरी ओर राज्य के सबसे युवा उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव उन फिल्मकारों पर अपनी भड़ास निकाल रहे थे जिन्होंने बिहार के नकारात्मक छवि को अपने फिल्मों के माध्यम से प्रस्तुत किया. इतना ही नहीं, नए वर्ष में लिखेंगें नई कहानी के तर्ज पर राजधानी (पटना) में प्रेममयी वसंत ऋतु के गुनगुने धूप-छांव में राजनीतिक एवं गैर- राजनीतिक शोरशराबे से दूर कला, संस्कृति एवं युवा विभाग की ओर से पहली बार आयोजित सात दिवसीय पटना फिल्म फेस्टिवलमें उन्होंने आश्वासन भी दिया कि बिहार की धरती पर बिहारी कलाकारों के साथ बिहारी संस्कृति पर फिल्म बनाने वालों को वे हर संभव सहायता भी उपलब्ध कराएंगें. गाँधी मैदान स्थित श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में आयोजित इस उद्घाटन समारोह के साक्षी रहे फिल्म फिल्म निर्देशक नितिन कक्कड़,अभिनेत्री दिव्या दत्ता, कुमुद मिश्र, शेखर सुमन, कला, संस्कृति विभाग के प्रधान सचिव विवेक कुमार सिंह, विभाग के निदेशक सत्यप्रकाश मिश्र, और केन्द्रीय फिल्म महोत्सव निदेशालय के निदेशक सी सेंथिल राजन. मोना सिनेमा में राम सिंह चार्ली फिल्म के प्रदर्शन से पूर्व आगंतुकों ने स्थानीय कलाकारों द्वारा बिहार गीत एवं बिहार गौरव गीत का भी लुफ्त उठाया.
  
पटना की धरती पर फिल्म समारोह का यह सिलसिला हाल के वर्षों में वर्ष 2006में काफी उत्साहउमंग के साथ शुरू हुआ था जिसमें बिहार के फ़िल्मकार प्रकाश झा समेत बॉलीवुड के कई सितारे शरीक हुए थे. जिसकी चर्चा काफी दिनों तक चली थी. 11- 18फरवरी 2006, फरवरी 2007, 5-12अप्रैल 2008के बाद फिल्म महोत्सव का यह सिलसिला बंद हो गया था. पिछले वर्ष 2015में एक निजी प्रयास से चार दिवसीय अन्तराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का आयोजन किया गया था. और इस बार कला, संस्कृति एवं युवा विभाग ने खुद अपनी रूचि दिखलाई और यह प्रचार- प्रसार किया गया था कि इस बार दर्शक फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन, प्रियंका चोपड़ा, विद्या बालन आदि जैसी महान हस्तियों से मिल सकेंगें. लेकिन समारोह के अंत अंत तक दर्शकों को नितिन कक्कड़, बुद्धदेव दासगुप्ता और इम्तियाज अली, अभय सिन्हा, मोनालिसा, सिद्धार्थ सिवा, महेश अने, अविनाश दास, पंकज त्रिपाठी, पंकज केशरी जैसे फिल्कारों से ही संतोष करना पड़ा. खास बात ये रही कि अधिकांश आगंतुक फ़िल्मकार किसी ना किसी रूप में बिहारी ही थे जो अपनी पहचान राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन लंबे अरसे बाद शुरू हुए इस फिल्म समारोह की सबसे अच्छी बात यह रही कि भारतीय पैनोरमा की आठ भाषाओं की स्तरीय एवं क्लासिकल फिल्मों को देखने के लिए किसी को न तो रुपए खर्च करने पड़े न ही किसी पास का इंतज़ार. दर्शक सिर्फ अपने एक पहचान पत्र के सहारे पटना के गाँधी मैदान स्थित मोना एवं एलिफिस्टन सिनेमा में पहुँच, पहले आओ पहले पाओं की तर्ज पर 19  फरवरी से 25फरवरी तक साठ के दशक से अब तक बनी 28चुनिन्दा सामाजिक फिल्मों का आनंद सुबह दस बजे से चार शो में लेते रहे. इनमें 14फ़िल्में हिन्दी, पांच बांग्ला, भोजपुरी, मराठी और अंग्रेजी की दो दो और संस्कृत, मलयालम एवं कोंकणी की एक एक थी. समारोह की शुरुआत मोना सिनेमा हॉल में रामसिंह चार्ली से हुई तो समापन बजरंगी भाईजान के प्रदर्शन के साथ. दिखाई गई अन्य फीचर एवं डाकुमेंटरी फिल्मों में द कौफिन मेकर, दो बीघा जमीन, चाइनीज विस्पर्स, सिनेमावाला, नाचोम-इया- कुम्पसर, पान सिंह तोमर, डैडी ग्रैंड पा एंड माई लेडी, मसान, प्रियमानस, कागज के फूल, आंखों देखी, कामाक्षी, तिनकहों, देवदास, सीक एंड हाइड, उत्ताल, जल, नाटोकेर मोटो, काबुलीवाला, गूंगा पहलवान, अनवर का अजब किस्सा, कत्यार कलजात घुसाली, लिसेन अमाया, मेघे ढाका तारा, ऐन, हम बाहुबली, प्रमुख रही. संस्कृत, मराठी, कोंकणी, मलयालम आदि अन्य भाषाओं की फिल्मों के दर्शक अपेक्षाकृत कुछ कम रहे, लेकिन पान सिंह तोमर दो बीघा जमीन, कागज के फूल, देवदास, बजरंगी भाईजान, आदि फिल्मों को देखने के लिए अपार भीड़ ही नहीं जुटी बल्कि बजरंगी भाईजान के लिए हंगामा भी हुआ और भीड़ को नियंत्रित करने के लिए ताबडतोड लाठी चार्ज भी. हॉल के अंदर का नज़ारा यह था कि युवा तो युवा लगभग सत्तर की उम्र पार कर चुके महिला पुरुष भी नजर आ रहे थे.

पटना फिल्म फेस्टिवल की सबसे अनोखी बात रही फ्रेजर रोड स्थित बहुद्देशीय सांस्कृतिक परिसर में रोजाना साढ़े बारह बजे से ढाई बजे तक आयोजित फिल्म प्रदर्शनी एवं कार्यशाला. भारतीय नृत्यकला मंदिर की आर्ट गैलरी में 16फरवरी को फिल्म अभिलेखागार पुणे की ओर से पोस्टर प्रदर्शनी लगाई गई जिसमे 1940 -1980  के बीच की चर्चित फिल्मों औरत, भूमिका, भुवन सोम समेत 74फिल्मों के पोस्टरों को  शामिल किया गया. दरअसल संवाद कार्यक्रम का उद्देश्य था फ़िल्मकार, रंगकर्मी एवं अन्य फिल्म प्रेमी अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, छायाकार आदि के अनुभवों को न सिर्फ सुने बल्कि फिल्म निर्माण से जुड़ी जानकारी ले सकें. साक्षात् रूप में वे उनसे अपने प्रश्न कर सकें. जहां आमंत्रित फिल्मकारों ने अपने फ़िल्मी सफर के बारे में खूब बातें की वहीं इम्तियाज अली और नितिन कक्कड़ ने विशेष रूप से फिल्म निर्माण से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें भी बताई. इस कार्यक्रम की सफलता को आप इससे भी आंक सकते हैं कि अधिकांश दिन आगे की कुर्सियों को छोड़ न सिर्फ हॉल में पीछे की कुर्सियां खाली रही बल्कि भीड़ बनकर जुटे कुछ फिल्म मर्मज्ञों (आयोजन-सहयोगी) को छोड़ किसी के पास कोई सार्थक प्रश्न नहीं थे. हां, सिनेमा के क्षेत्र में अपने जीवन की शुरुआत करने के इच्छुक कुछ लोग सीधे रूप से निर्मातानिर्देशक से मिल अपनी बातें रखीं और संभावनाओं के रास्ते भी तलाशे. 

इस फिल्म समारोह के बहाने न सिर्फ बिहार से जुड़े फिल्मकारों ने अपनी समस्याओं से विभाग से अवगत कराया बल्कि सुविधा मिलने की स्थिति में यहीं फिल्म निर्माण करने की भी बात कही. जहां शेखर सुमन ने उद्घाटन सत्र में जेपी (लोकनायक जय प्रकाश नारायण) पर फिल्म बनाने की बात कही वहीं भोजपुरी सिनेमा के निर्माता अभय सिन्हा ने बाबू वीर कुंवर सिंह पर फिल्म बनाने की बात कही. जहां फिल्मकारों ने वर्षों से विभाग में लटकी अपनी मांगों एवं योजनाओं का स्मरण कराया वहीं विभाग की ओर से बताया गया कि फिल्मसिटी के निर्माण के लिए राजगीर में 20एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया गया है. फिल्म नीति तैयार कर ली गई है जो कि एक दो महीने में सार्वजनिक हों जाएगी वहीं बहुत जल्द फिल्म सेंसर बोर्ड की शाखा पटना में खुलने की भी खुशखबरी दी. जिसपर फिल्मकारों ने भी भरपूर सहयोग करने की बात कही.
  
सिनेमा हॉल में भीड़ तो खूब जुटी लेकिन इसके सफल आयोजन पर अंगुली भी कम नहीं उठे. जहां आयोजकों में समन्वय की कमी की वजह से मीडिया वालों के समक्ष उन्हें खेद व्यक्त करने के सिवा कुछ नहीं सूझ रहा रहा था, वहीं कुछ लोग कह रहे थे कि सत्ताधारी दल के आपसी उठापटक की वजह से, सरकार की ओर से जिस उदासीनता को बरक़रार रखा गया उसी उदासीनता का परिचय देते हुए बॉलीवुड के श्रेष्ठ कलाकारों ने भी समारोह से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझी. समझदार लोग कहते नज़र आए अनियंत्रित भीड़ तो एक मदारी भी जुटा लेता है लेकिन सरकारी खर्चे का सार्थक सदुपयोग होना भी लाजिमी है. वहीं चर्चा, सिनेमा का स्तर राष्ट्रीय बनाने के चक्कर में क्षेत्रीय सिनेमा की उपेक्षा की भी रही. यूँ तो कोई भी आयोजन बगैर त्रुटि के विरले ही सफल हो पाता है फिर भी जल्द ही एक और आयोजन एवं एक नई उम्मीद के साथ फिर मिलने के वादे के साथ पटना फिल्म फेस्टिवल का समापन हों गया.


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भावना शेखर की कविताएं

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भावना शेखरहिंदी कविता में पटना की आवाज हैं. केंद्र में परिधि की आवाज. कविता के उन मुहावरों से मुक्त जिनके जैसा लिखने को ही कविता मानने की जिद दशकों तक हिंदी के आलोचकों ने ठान रखी थी. हिंदी कविता में अब बड़े-बड़े विचारों की जगह छोटे-छोटी चिंताएं सामें आ रही हैं. जीवन को करीबी नजर से देखने की एक कोशिश की तरह भावना शेखर की इन कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए- मॉडरेटर 
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1.
शोर

सुबह उठते ही
सुनती हूँ देखती हूँ शोर
छोटे छोटे शोर
मीठे मीठे शोर
मंदिर की घंटी घोंसलों में हलचल
पत्तो की सरसर पंछी का कलरव
सुबह उठते ही
सुनती हूँ देखती हूँ शोर
बड़े बड़े शोर
तीखे कर्कश शोर
शोर की इक भीड़ शोर का बवंडर
कानो के पास शोर का समन्दर

सुबह होते ही बजा दिया हो
ग्रामोफोन जैसे किसी ने
एक ही धुन एक ही सुर ताल
शोर की ही सरगम शोर का भूचाल

एक उदासी एक खिन्नता झल्लाहट
शाम के संग संग बढ़ती उकताहट
रात किन्तु सखी मेरी बड़ी ही सयानी
जब भी आती
सोख लेती काले ब्लॉटिंग पेपर सी
देह में लथपथ शोर को
सफा कर देती आँखों को
कानो की कोर को

भेज देती चुपके से
चैन को सुकून को
खिड़की के रस्ते
थपथपाते पपोटों को दोनो बारी बारी
सहलाते थकन को दोनों बारी बारी
जड़ देते ताला मुंदी हुई पलको पर

उतरती हैं पुतलियाँ
मन की फिर सीढियाँ
खुलता है ज्यूँ ही
कपाट मेरे अंतस का
खुल जाता बांध जैसे
शोर की नदी का
बड़े बड़े शार्क और व्हेल मुँह फाड़े हैं
ध्यान से देखा
उनके माथे पर चिपकी है
इबारत जानी पहचानी
दिनभर के अपशब्दों उलाहनों विवादों की

काश दिन भर के सारे शोर
अन्तस की मेमरी में सेव न हो पाते
रीसाइकल बिन की तरह पुनर्जीवित न हो पाते
कर पाती  काश उन्हें
सदा के लिए डिलीट
सदा के लिए विदा।

फरमान

क़ुदरत ने किया है सख्त फैसला
जारी हो चुका है फ़रमान
गुलमोहर नहीं खिलाएगा फूल 
बरगद- नीम नहीं बाँटेंगे छाया
मुफ़्त राहगीरों में

मुफ्तखोरों को सबक़ सिखाना ज़रूरी है
अब सूरज ठिठुराएगा
चाँद भी तरसाएगा
दरिया सिकुड़ेंगे
समन्दर फुफकारेगा
बादलों की हड़ताल होगी
हवा भी धरने पे

करना है सन्न
मतलबपरस्ती को
बदनीयती को
ज़रूरी होता है पागलों को
शॉक ट्रीटमेंट देना  

3.
गुमशुदा लम्हे

आज धूल झाड़कर खड़े हो गए 
गुमशुदा से वो लम्हे
जिन्हे बंद कर आई थी बरसों पहले
किसी राज़दार दस्तावेज़ की तरह
वक़्त की सलेटी संदूकची में

मेरे गुनाह मेरी हिमाकतें 
मेरे ऐब और नाशुक्री
सब बंधे थे
एक ही गिरह में कसकर

न जाने कब
कोई मासूम लम्हा
शरीर बच्चे सा
खोल गया बंद किताब के पन्ने

अब स्याह हर्फों में
घूरते हैं मुझे
वही गुमशुदा लम्हे
ऐतबार और बन्दगी के
मुखौटे के पार
जिसे पहनकर स्वांग रचाया किया
उम्र भर

4.
पानी

खिड़की के बाहर पटवन में लगा था
खालिस मज़दूर
हाथ में थामे मोटा सा मटियाला पाइप
जिसके मुहाने पर चेप रखी थी ऊँगली
जैसे मुँह पर ऊँगली धरे
खड़ा हो शरारती बच्चा

पर फूट रही है धार फव्वारा बनकर
घूम रही ऊपर नीचे दाएँ बाएँ
नई बनीं ईंटों की दीवार पर
नहला रही गुदगुदा रही
ज़िद्दी ईंटों को
जो नही देतीं
कोई प्रतिक्रिया कोई नज़राना 

न हँसतीं न खेलतीं
बावजूद निखर जाने के
सूरज के लाल फर्श सी
सुर्ख दमकती ईंटें
धुली धुली ईंटें
अहसान फरामोश ईंटें

फव्वारा है बेफिक्र बेपरवाह
उनकी ज़िद्दी ख़ामोशी से
खुद ही बिखेर रहा खिलखिलाहटें
हज़ारहा बूंदों की शक्ल में
और भी अलमस्त विस्तरित होकर

बेग़ैरतों मग़रूरों के साथ भी
जीया जा सकता है
रहा जा सकता है खुश
बस पानी की ठंडक औ रवानी से
बाबस्ता होना पड़ता है 


हिसाब

मुझे मांगने हैं
कुछ कतरे आँसू
बचपन की आँखों से
जो सहमे सहमे ढूंढ रहे हैं
खिलखिलाहटें और एक रैनबसेरा

मुझे मांगने हैं
चंद मटियाले मोती
खेतों से
जो थिरकते हैं
उसकी मेंड़ पर
चूते हैं मिट्टी में टप टप
सुबह से शाम तलक 
उगाते है सोना

थोड़ी सी थकन, थोड़ी सी गाँठें
उन बाँहों और हाथों से
घंटों कुदाल थामे
जो तोड़ रहे पुरज़ोर कोशिश से
हाशियों को  
बाँध रहे हैं नदियों को
रौंद रहे परबत को

थोड़ी सी बेचैनी और तपन चुरानी है
उस फटी चादर के सुराखों से
जिसमें करवटें बदलती हैं
रात रात भर अधूरी ख्वाहिशें
और भूखे जिस्म

मुझे मलना है सुर्ख रंग अपने गालों पर
उम्मीद और हौंसलों का
भरना है आँखों में
जुगनू का  दिपदिपाता नूर

बदले में दे दूंगी
थोड़ा चैन थोड़ी नींद
उन आँखों को
जो बरसों से तकती हैं राह
परदेस गए बेटे की

बदले में दे दूंगी
थोड़ी चुहल थोड़ी शोखियां
और हरी हरी चूड़ियाँ
दास आँखों, सूनी कलाइयों को

मिट्टी के घरौंदे , चीनी के खिलौने
कुछ कंडीलें और पतंगें
रख छोड़ी हैं उन के लिए
जो भूल गए हैं किलकना,
कूदना, कंकरियां उछालना

ज़िंदगी का जितना बकाया है
जल्द से जल्द चुकाना है
कुछ देना है कुछ लेना है
कहीं देर न हो जाए
किसी का क़र्ज़ मेरे सर न रह  जाए


जूते

बार बार खुल जाते है
मेरे जूतों के फीते आजकल
दो चार कदम चलता हूँ
रुकता हूँ झुकता हूँ
फिर बांधता हूँ गिरह
पीठ पर चुपके से
धौल जमाते बच्चे की मानिंद
चौंकाते हैं
खुल खुल जाते हैं
मेरे जूते के फीते 

मेरे जूते मेरे पंख हैं
सरपट उड़ाए लिए जाते हैं
रूखी पथरीली कंकरीली राहों पर
मुझे गड्ढों खड्डों का भय नही
गर बंधे हैं ये पांवों में
मुझे दे रखी है भरपूर आज़ादी इन जूतों ने
यहां वहां आवाजाही की
मेरे तलवों का कवच हैं
ये जूते 
जानता हूँ मुझे ढोने वाले मेरे पैर
इनके संरक्षण में मरेंगे नहीं
सच कहूँ तो
मेरी दीर्घायु का साधन हैं
मेरे जूते

झाड़ता हूँ चमकाता हूँ इन्हे
हर उड़ान से पहले
फिर लौटकर रख देता हूँ
घर के बाहर रखे रैक के
नीचे वाले खाने में

निष्कासित निर्वासित
तड़ीपार अपराधी की तरह
हाशिए पर
पड़े रहते हैं बेज़ुबान
न कोई प्रतिरोध न प्रतिकार
इंसानी फितरत का शिकार
जो न पैरों की कदर करते
न जूतों की

आज अनुप्राणित हो गए लगते हैं
मांग रहे हैं अधिकार
जाना चाहते हैं धरने पर
तभी तो खुल रहे हैं बार बार
मेरे जूते के फीते









कृष्ण कुमार का लेख 'विश्वविद्यालय का बीहड़'

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इन दिनों विश्वविद्यालयों की स्वायत्तात का मुद्दा जेरे-बहस है. इसको लेकर एक विचारणीय लेख कृष्ण कुमारका पढ़ा 'रविवार डाइजेस्ट'नामक पत्रिका में. आपके लिए प्रस्तुत है- मॉडरेटर.
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रोहितबेमुलाकीआत्महत्याएकप्रश्नभीरुसमाजमेंबहसऔरविवादकाविषयबनजाए, यहआश्चर्यकीबातनहींहै।यदिसहभावजैसीकोईचीजहमारेसमाजमेंआंशिकमात्रामेंभीहोतीतोबहसकीजगहहमपश्चात्तापकरतेऔरसोचतेकिहमारेबेहतरविश्वविद्यालयभीइतनेखोखलेक्यांहैं।क्यानहींहैहैदराबादकेंद्रीयविश्वविद्यालयकेपास? बड़ा-सापरिसरअच्छीइमारतें, कमछात्रसंख्या, अच्छापुस्तकालय, कालिजोंकेझंझटसेमुक्ति, केंद्रकाउदारवित्त-सबकुछहोतेहुएभीविश्वविद्यालयवीराना - साहै।कुछमहीनेपहलेमैंउसछोटी-सीझीलकीसुंदरतादेखनेकाकौतूहललिएगेस्टहाउससेसौकदमपीछेगया।झीलकेइर्द-गिर्दकीचट्टानोंपरबैठनासंभवथाक्योंकिइनपरशराबकीटूटीहुूईबोतलेंकाकांचबिखराथा।युवाओंकीबस्तीमेंयहदृश्यएकबीहड़अन्तसकासंकेतदेताथा।किसीकिसीसूरतमेंऐसाअन्तसदेशकेहरविश्वविद्यालयऔरकालिजकेभीतरछिपामिलजाएगा।हैदराबादमेंवहयकायकबाहरगयाहै।उसेयथाशीघ्रवापसभीतरघकेलनेऔररोहितप्रसंगकोभुलादेनेहरसंभवकोशिशहोरहीहै।
 इसबीचजातिकेआधारपरभेदभावकीचर्चाशुरूहोगईहै।यहचर्चाकिस-किसनीतिकोछूसकेगीयाकुछदिनोंमेंशांतहोजाएगी, कहनाकठिनहै।कुछसमयपहलेजबकिविश्वविद्यालयअनुदानआयोगकेपैसेसेअनुसूचितजातियोंकेछात्रोंकेलिएपृथकहॉस्टलकईपरिसरोंमेंबनाएगएथेतोकिसीनेनहींपूछाथाकिक्याऐसाअलगावशिक्षानीतिकाअंगहै।आजहोरहीचर्चामेंछात्रसंगठनोंकेबीचअलगावभीशमिलहो, तभीचर्चाएकबृहत्तरपरिप्रेक्ष्यपासकेगी।आखिरयहचर्चाएकऐसीव्यवस्थापरहैजोभारतकीसामाजिकताकाआधारहै।भेदभावउसकाढांचागतस्वभावहै।
जातिपरआधारितसमाजव्यवस्थाकोशिक्षाकिसहदतकप्रभावितकरपाएगीयहप्रश्नदोकारणोंसेवाजिबठहरताहै।पहलाकारणहैकिजातिएकपुरानीव्यवस्थाहैऔरउसकीजड़ोंकेआगोशसेसामाजिकतीनचीजोंपरजातिकीपकड़देशकेकिसीभीहिस्सेमेंदेखीजासकतीहै।येहैंशादी, पेशाऔरभोजन।इतनेबुनियादीपक्षोंकोसमेटनेवालीसंस्थाकेएककमजोरशिक्षाव्यवस्थाकितनाप्रभावितकरसकतीहै? इसशंकाकोछोड़भीदेंतोदूसरीशंकाकाकारणकममजबूतनहींहै।प्राचीनभारतकीशिक्षाकागुणगानकियाजाताहै, वहजातिकीव्यवस्थाऔरवर्णकीअवधारणाकेप्रतिविद्यार्थियोंकेमनमेंकोईखलबलीमचातीहो, इसकेप्रमाणढूंढनाकठिनहोगा।जातिहीक्यों, स्त्रीकेसीमाबद्धजीवनपरसवालउठानाप्राचीनकालकीशिक्षासिखातीहो, ऐसासंकेतयासबूतढूंढनाभीमुश्किलहोगा।शिक्षाकाकामज्ञानदेनाहैयाचेतनाजगाना, यहप्रश्नआधुनिककालकेशिक्षा-दर्शनमेंहीकुछहैसियतपासकाहै, वरनाशिक्षाकी
सामान्यभूमिकाज्ञानऔरव्यक्तित्वकेनिखारकेसंदर्भमेंहीदेखीजानेकीपरम्परारहीहै।चैतन्यलागसदाअपवादरहे।
फिरभीआजकेआमशिक्षितलोगोंमेंयहधारणाकाफीलोकप्रियहैकिशिक्षाकेप्रसारसेजातिअपनेआपकमजोरपड़तीजाएगी।ऐसाहीएकअन्यभ्रमशब्दकोलेकरहै।गांवऔरशहरकोएक-दूसरेकाविलोमबताकरकहाजाताहैकिजातिकीबाततोअबमुख्यत: गांवोंमेंबचीहै, शहरीकरणउसेबहुतकमजोरकरदेताहै।यदियहबातसचहोतीतोबंगलौरकेबादभारतकादूसरासाइबरसिटीकहलानेवालेहैदराबादमेंरोहितबेमुलाकोआत्म्हत्याकरनापड़ती।परइसप्रसंगपरआनेसेपहलेएकऔरशहरकाजायजालें।उपनिवेशकालमेंजोशहरआधुनिकउच्चशिक्षाऔरनईप्रशासनव्यवस्थाकेकेंद्रबने, उनमेंइलाहाबादकानामविशेषमहत्वरखताहै।बीसवींसदीकीशुरुआतमेंकलकत्ताकेबादअंग्रेजीमेंसाक्षरलोगोंकीसबसेबड़ीआबादीइलाहाबादमेंरहतीथी।वहांसेनाकीछावनीथी, हाईकोर्टथा, एकसमृद्धपुस्तकालयथाऔरएकसम्मानितविश्वविद्यालयथाजिसकीजरूरतोंकेबलपरमुद्रणऔरप्रकाशनकाव्यवसायफलफूलरहाथा।सरस्वतीऔरबालसखाजैसीपत्रिकाएंवहींनिकलीं, महादेवीऔरनिरालाकीआवाजवहींउठी।इसशहरकाविश्वविद्यालयसवासौसालबादभीजातिवादसेग्रस्तहो, यहबातशिक्षाऔरजातिकेरिश्तेकोलेकरकौतूहलजगातीहै।इसविश्वविद्यालयमेंशिक्षकोंकेसंगठनजातिपरआधारितहै।नियुक्तियांजातिकाध्यानरखेबगैरनहींकीजातीहैं, जोकुलपतिजातीयसमीकरणोंकोसंभालनहींपाते, वेयातोअसफलरहतेहैंयाभागखड़ेहोतेहैं।

इलाहाबादकीयहकहानीबतातीहैकिशिक्षाअपनेआपमेंजातिकीकाटनहींहै।जातिएकबड़ीसामाजिकसंस्थाहैऔरवहअर्थव्यवस्थाएवंराजनीतिकोआधुनिकबनानेवालेतत्वोंकोइत्मीनानसेपचासकीहै।फिरभीयहप्रश्नपूछनेलायकठहरताहैकिक्याशिक्षासेइतनीभीअपेक्षानहींकीजासकतीकिवहजातीयभेदभावकोदूरकरनेमेंमददगारहो।ऊंच-नीचपरआधारितजातिव्यवस्थाकाएकबड़ापक्षउनजातियोंसेभेदभावऔरछूआछुतबरतनेकाहैजोवर्णकीअवधारणाऔरश्रेणियोंकेबाहररखीगईं।आजकीशब्दावलीमेंइन्हेंअनुसूचितजातियोंअथवादलितकीसंज्ञादीजातीहै।इनजातियोंकाउत्पीडऩसवर्णजातियोंकेलिएजीवनकीसामान्यताकाहिस्साहै, इसलिएवहअनुभूतिसेओझलरहताहै।जबएकसवर्णमध्यमवर्गीयगृहिणीअपनेघरकासंडासपखारनेवालीमहिलाकोएकअलगप्यालेमेंचायदेतीहैजोसिर्फउसीकेइस्तेमालकेलियेनियतहै, तोइसव्यवस्थामेंसवर्णगृहिणीकोकुछभीअस्वाभाविकनहींलगता।इसीप्रकारस्कूलमेंभोजनबांटेजातेसमयअनुसूचितजातिकेबच्चोंकोअलगपंक्तिबनानेकेलिएकहनेवालेशिक्षककोइसमेंकुछभीअसामान्यनहींलगता।
जाति-व्यवस्थामेंपेशेकासंबंधजन्मसेथा।यहसंबंधपहलेकेमुकाबलेकुछपारम्परिकपेशोंकोलेकरभलेथोड़ाकमहुआहो, सफाईसेजुड़ेकामोंकेसंदर्भमेंमजबूतबनारहाहै।सफाईकर्मचारीनगरपालिकाकाहोयापांचसिताराहोटलका, वहदलितजातिकाहीहोगा, ऐसीअनिवार्यताहमदेशकेकिसीभीभागमेंदेखसकतेहैं।इसकेविपरितभोजनपकानेकेकाममेंसवर्ण, मुख्यत: ब्राह्मण, हीमिलतेहैं।इसपरिदृश्यमेंशिक्षाकीसक्रियताबहुतकममात्रामेंदिखाईदेतीहै।जातिकेबारेमेंज्ञानकभीविश्लेषणकाविषयनहींबनायाजाता।विश्वविद्यालयस्तरपरभीसमाजशास्त्रकोछोड़करकोईअच्छाविभागइसकाउल्लेखनहींकरता।एनसीईआरटीकीबारहवींकक्षाकीपुस्तक'सामाजिकऔरराजनैतिकजीवनÓ एकअपवादहैक्योंकिउसमेंदलितजातियोंकेसाथहोनेवालेनियमितभेदभावकाविश्लेषणकरनेकीकोशिशकीगईहै।ओमप्रकाशवाल्मीकिकीआत्मकथासेलिएगएअंशकीमददसेपरानुभूतिजगानेकाप्रयासशुरूकीकक्षाकेस्तरपरकियागयाहै।

हैदराबादकेकेंद्रीयविश्वविद्यालयकेकुलपतिनेयदिऐसीसामग्रीपढ़ीहोतीतोशायदवेरोहितवेमुलाकेउसपत्रसेविचलितहोजातेजोउसनेआत्महत्यासेएकमाहपहलेउन्हेंलिखाथा।परबड़ाप्रश्नकिसीएककुलपतिकीनिष्ठुरताकानहींहै, भारतकीउच्चशिक्षाकेबीहड़काहै।विश्वविद्यालयकाकामहैकिवहांविचारकीआजादीऔरउड़ानसदासंभवरहे।यहबुनियादीशर्तअबहमारेकिसीविश्वविद्यालयकेबसकीबातनहींरही।धर्म, जाति, विकासऔरराष्ट्रवादकीसंकीर्णतमधारणाएंहमारेकालिजोंऔरविश्वविद्यालयोंकेमाहौलमेंएकअर्सेसेफलती-फूलतीरहीहैं।इनकेसाएमेंहिंसाआएदिनफूटपड़तीहैऔरउसकाडरसदैवबनारहताहै।ऐसीपरिस्थितियोंमेंविचारकीस्वतंत्रताकैसेसंभवहै।रोहितबेमुलाजिससंगठनकासदस्यथा, वहआंबेडकरकीवैचारिकपरम्पराकाअनुयायीहै।आंबेडकरऔरलोहियानेजातिव्यवस्थाऔरकईअन्यबुनियादीमहत्वकेसामाजिकसरोकारोंपरजिसप्रखरतासेप्रश्नकिए, वैसीप्रखरताआजविश्वविद्यालयोंकेपरिसरोंमेंदुर्लभऔरअसुरक्षितहोचुकीहै।इसपरिस्थितिमेंरोहितवेमुलाकीनिराशासमझमेंआतीहै।कोईसाथी, कोईशिक्षकइसनिराशाकेअंधेरेमेंउसकेसाथनहींरहसका, यहविश्वविद्यालयकीसंस्थाईविफलताकाप्रमाणहै।

प्रकृति करगेती की कहानी 'प्यार का आकार'

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बहुत सहज कहानी है, बिना किसी अतिरिक्त कथन के. हाँ, आप चाहें तो उसकी ओवररीडिंग कर सकते हैं. कहानी में यह स्पेस है- प्रकृति करगेतीकी यह कहानी पढ़ते हुए सबसे पहले यही बात ध्यान में आई. प्रकृति की कवितायेँ पहले जानकी पुल पर आ चुकी हैं, उनको 'हंस'पत्रिका का कहानी पुरस्कार मिल चुका है. समकालीन जीवन-स्थितियों, संबंधों को लेकर एक अच्छी कहानी- मॉडरेटर 
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नए  दफ़्तर की नयी खुशबू थी. पुराना दफ़्तर इतना पुराना हो चुका था कि आँखें बंद करके भी वहां घूमा जा सकता था. नपे-तुले कदम. सामने बैठे वहीँ पुराने लोग. आसपास से गुज़रो तो अगले कदम पे किसी को देखकर मुस्कुराना है, और दस क़दमों बाद फ़िर से किसी और को देखकर मुस्कुराना है, और पाँच क़दमों बाद जैसे कोई बैठा ही नहीं, ये जताना है. पुराने दफ़्तर ऐसे ही पुराने होते जाते हैं- कदम दर कदम. ढ़ेरों क़दमों से अप्रेयसल तक की दूरी नापी जाती है. अप्रेयसल के उस पन्ने से जहाज़ बना, फ़िर दूसरे दफ़्तर की ओर फ़ेंक देते हैं.  निशाना और हवा की दिशा अनुकूल रही तो, अगले जहाज़ पर ख़ुद सवार हो पुराने हुए दफ़्तर से रवाना हो जाते हैं. ये सोचकर कि नया आसमान ढूढेंगे. पर ये भूल जाते हैं कि दफ्तरों का आसमान 70बाय 120इंच के क्यूबिकल से बड़ा नहीं होता. कभी हुआ ही नहीं.

पर वो ये सब बातें भूलकर नए दफ़्तर की नयी खुश्बू को अन्दर समेटने लगी. नए दफ़्तर के नए लोग, नए चेहरे! पर ज़्यादा देर देखने तक उनमें भी एक पुरानापन धीरे-धीरे झलकने लगा. उसने पुराने से बचते हुए,  अपनी आँखें किसी से नहीं मिलाई, ये सोचकर कि पुराना तो थोड़ी देर से आना चाहिए. अभी तो नयी बिल्डिंग, नयी लिफ्ट, नयी दरो-दीवार, नए केबिन, नयी कुर्सियां, नए कंप्यूटर, यहीं देखकर खुश होने का वक़्त था. वो खुश भी हुयी. अमृता की ये तीसरी या चौथी नौकरी थी. अच्छे से अब याद नहीं रहा था, क्यूंकि नए से पुराने तक का सफ़र हमेशा ही एक जैसा रहा था.

अमृता जब अपनी नयी जगह पर बैठी तो नौकरी की नीरसता का पहला कोंपल फूटा. उसके सामने रखी गयी मशीन वाली कॉफ़ी. वो  कॉफ़ी रखने वाले को देखकर थोड़ा मुस्कुराई. और जब वो चला गया, तब थोड़ी देर कॉफ़ी के कप को देखकर नाक चढ़ाई. उसका ध्यान एक आदमी ने ये कहते हुए तोड़ा  आज पहला दिन है मैडम, इसलिए आप तक आई है कॉफ़ी. कल से आपको ही जाना पड़ेगा लेने.अमृता आगे कुछ और कह पाती इससे पहले ही आदमी ने कह डाला हेल्लो! मैं आशीष. आपके बगल के क्यूबिकल में बैठता हूँ. और आप ?” अमृता ने कहा मैं अमृता.और वो थोड़ा मुस्कुरा दी. आशीष मुस्कुराते हुए अपनी जगह वापस चला गया.

अगला दिन थोड़ा कम नया था. एक दिन बीत चुका था. अमृता को असल में पुराने से डर नहीं लगता था. पर पुराना होने के एहसास से डर लगता था. सुबह जल्दी आकर उसने अपने काम निबटाने शुरू किये, फ़िर ध्यान आया कि उसे उस दिन से कॉफ़ी  ख़ुद ही लानी थी. वो कॉफ़ी लेने गयी. पिछले दफ़्तर में उसने अपने लिए एक कप रखा था, जिसे वो अपने साथ लाना भूल गयी थी. वो एक तरह से जानबूझकर ही भूली थी, क्यूंकि जब-जब वो कप लेकर कॉफ़ी लेने जाए करती, तो बाकी भी कतार में होते, लगभग एक सा ही कप लिए हुए. उसे लगता कि वो हिल्टर के कंसंट्रेशन कैंप की एक यहूदी है, जिन्हें सुविधा के नामपर बस एक कप ही नसीब था. अब नए दफ़्तर के नए कप ज़रूर थे सामने, पर वो भी एक जैसे- जिनपर कंपनी का नाम गुदा हुआ था. और उस ख़ाली कप को भी हैंडल से पकड़कर कॉफ़ी लेने के लिए कतार में लगना था. अमृता का पुरानेपन का एहसास कुछ इंच और बढ़ गया.

उस बीच उसकी नज़र गयी कॉफ़ी मशीन पर. बड़ी पुरानी मशीन थी. पर काम करने में दुरुस्त ही जान पड़ती थी. पहले कप में थोड़ी सी कॉफ़ी, फ़िर दूध, और फ़िर स्टीम, सब कुछ बराबर मात्रा और समय पर आया, दूसरे कप में भी, तीसरे कप में भी. चौथा कप अमृता का था. अमृता कॉफ़ी मशीन के आगे आई. कॉफ़ी मशीन से श्याआआअयेकी आवाज़ आई, जो पहलों में नहीं आई थी. अमृता ने थोड़ा रुककर कैपुचिनोका बटन दबाया. फ़िर से वो ही- कॉफ़ी, दूध और फ़िर स्टीम. अमृता ने चीनी अच्छे से घोलने के लिए स्टरर लिया, पर जब वो  स्टरर को कॉफ़ी में डुबाने ही वाली थी, उसका दिल धक् सा रह गया. उसे ऐसा लगा जैसे कॉफ़ी में दिल बना हुआ हो. वो थोड़ी देर देखती रही. आकार तो दिल सा ही था. पर फ़िर ये  सोचकर मुस्कुराने लगी कि स्टीम के बाद तो बहुत से आकार संभव थे. आज स्टीम ने दिल ही बना दिया.

फ़िर वो सोचने लगी दिल के आकार के बारे में. इंसान ने जो दिल का आकार बनाया है, वो भी असल दिल सा कहाँ होता है! और यहीं सोचते हुए उसने कॉफ़ी में चीनी मिलाते हुए स्टरर से कॉफ़ी पर उभरे दिल के आकार को भेद दिया. दिल का उभरा हुआ आकार बिखर गया. और कॉफ़ी में मिलकर ग़ायब हो गया. अमृता ने कॉफ़ी का घूँट लिया, तो कुछ नया स्वाद लगा. कल वाली से बेहतर, जिसमें दिल का आकार भी नहीं आया था. वो अपने ही ख़याल में मुस्कुरा दी कि वाह! आज दिल भी चख़ लिया.”  और फ़िर सकपकाते हुए आसपास देखा कि उसे किसी ने मुस्कुराते हुए तो नहीं देख लिया. उसे बचपन में जब भी उसकी माँ अकेले में मुस्कुराते देखा करती तो टोकती थी कि यूँ अकेले अकेले मुस्कुरायेगी, तो लोग पागल कहेंगे.ऐसा नहीं था कि उसका कोई काल्पनिक दोस्त हो जिससे वो बतियाती थी, पर वो कुछ कुछ सोचते हुए अकसर अकेले में मुस्कुराती थी. हर बार टोक लगने से भी उसकी आदत नहीं गयी. बल्कि एक नयी आदत लग गयी-मुस्कुराते ही सचेत हो जाने की, जैसे वो उस वक़्त हो गयी थी. उसने सोचा कि आज कुछ नया हुआ था . और पूरा दिन उस नए में बिताया जा सकता था. काम करना ज़रा आसान हो गया था.

अगला दिन पिछले की तरह ही शुरू हुआ. बस पिछले दिन से थोड़ा और पुराना था. उसके नयेपन में बस इतना हुआ कि अमृता जब कॉफ़ी लेने गयी, तब कतार नहीं थी. फ़िर से कप उसी तरह भरा- कॉफ़ी, दूध और उसके बाद स्टीम. और हाँ, कल ही तरह ही दिल का आकार, और वो भी बिलकुल पिछले दिन जैसा. उसने इस बार बिना हैरान हुए इस बात को अपना लिया. सोचा कि अगर दूसरी बार ऐसा हुआ है तो, ये मशीनों की कोई तकनीकी उपलब्धि होगी, जो पिछले दफ्तरों की कॉफ़ी मशीनों में नहीं थी. और यहीं सोचकर उसने फ़िर से स्टरर से दिल के आकार को भेदते हुए, कॉफ़ी में चीनी मिलायी.

इसी बीच आशीष भी कॉफ़ी लेने आ गया था. दोनों एक दूसरे को देखकर औपचारिता में मुस्कुराए. जब अमृता कॉफ़ी लेकर सामने की बेंच पर बैठी तो आशीष भी साथ आकर बैठ गया. आशीष ने चीनी नहीं ली थी. अमृता इससे पहले कुछ कहती, उसकी नज़र आशीष के कॉफ़ी कप पर गयी. उसका दिल फ़िर से धक् सा रह गया. आशीष की कॉफ़ी में दिल नहीं बना था. अमृता ने सोचा, मिलाते हुए दिल का आकार बिखर गया होगा. पर आशीष ने न चीनी ली थी, और न ही स्टरर. इस बात की हैरानी को मशीन की तकनिकी उपलब्धि में ख़राबी समझ कर किनारे कर दिया गया.

अब ऐसा रोज़ होने लगा था . पर बात की पुष्टि अभी भी नहीं हुयी. वो पूछे भी तो किससे? और क्या? कि क्या तुम्हारी कॉफ़ी में भी दिल का आकार क्यूँ नहीं बनता है, और मेरी में बनता है? वो अपनी कॉफ़ी लेने से पहले दूसरों की कॉफ़ी कप में झांकती. किसी की भी कॉफ़ी में दिल का आकार, या दिल जैसा कुछ भी नहीं होता. बाकियों में रहता था बस ढेर सारा झाग. पर उसकी में बहुत ही सुन्दर सा दिल का आकार- एक प्यार का आकार.  पर उसे उस आकार को किसी को भी दिखाने की हिम्मत नहीं हुई. उसकी माँ की टोक हमेशा उसके साथ रहती थी “....लोग पागल समझेंगे!बचपन से लेकर आजतक उसने इस टोक को सहेज के रखा था. वो टोक बहुत कारगर भी थी. पागल समझे जाने के डर ने उसे एक समझदार इंसान बनाया था. हर बात कहने से पहले, दस बार सोचती. हर काम करने से पहले हज़ार बार. उसकी ज़िन्दगी इसी कारण बहुत संतुलित थी. पर ये दिल के आकार वाली बात संतुलन तो थोड़ा डगमगा रही थी. ये बात किसी और को बताने की ज़रूरत उसे नहीं लगी. ऑफिस में रोज़गार होता, कामों में घिरी रहती. और घर ख़ाली. न ही उसकी शादी हुयी थी, और न ही उसे किसी से प्यार.

पर न चाहते हुए भी, उसे इस प्यार के आकार से थोड़ा डर लगने लगा था. घरवालों और दोस्तों के अलावा, किसी और का प्यार उसके पास भी नहीं फटका था. पर वो प्यार का आकार रोज़ उसकी कॉफ़ी में मिलता. अब तो कॉफ़ी घूँट लगाती तो, अजीब सा एहसास होता. और सोचकर थोड़ा घबरा जाती. पर वो घबराना अलग था. वो मुस्कुराकर घबराती. घबराती ये सोचकर कि प्यार का आकार कॉफ़ी के साथ मिलकर उसके गले से होता हुआ उसके शरीर में मिल रहा होता. और वो ही बिखरा हुआ प्यार का आकर, खून में मिलकर उसके दिल तक भी पहुँचता. वो दिल, जो उसका था. वो दिल, जो असल था, धड़कता था, और प्यार के आकार से बिलकुल भी मेल नहीं खाता था. और ऐसे ही बहुत से ख़यालों के बीच, उसकी घबराहट में मुस्कराहट की मिलावट होती.

और इस बीच अमृता का नया दफ़्तर पुराना होना भूल गया. अमृता ख़ुद भी भूल गयी थी कि पुराना होना बचा था. वो जितना मन लगाकर  काम करती, उतना ही मन लगाकर वो कॉफ़ी पीती. या वो ये सोचना भूल जाती कि हो उसका उल्टा रहा था. वो जितना मन लगाकर कॉफ़ी पीती, उतना मन लगाकर काम करती. कॉफ़ी में अलग सी लज्ज़त थी. काम में नहीं थी. लज्ज़त का ढोंग था, कॉफ़ी के बहाने.

वो अक्सर कॉफ़ी मशीन के बारे में सोचती, जो मूक थी. वो कॉफ़ी मशीन के अलावा कुछ और नहीं थी. पर उसकी अपनी एक भाषा थी. इंसानों से अलग. वो भाषा जो कॉफ़ी निकलने पे आती, दूध निकलने पे आती. और भाषा दूध और कॉफ़ी  की मात्र पर निर्भर रहती. साथ में स्टीम की भाषा भी थी , जो कॉफ़ी को स्टीम देने वाले पर निर्भर थी. और एक भाषा थी उसके मौन की, जो कॉफ़ी के दानों का कचरा हटाने का संकेत होती. बटन दबते, पर कोई आवाज़ नहीं आती. बस उसकी छोटी सी स्क्रीन पर लिखा होता बिन फुल”. ये सब संकेत और भाषाएं बाकी सभी कॉफ़ी मशीनों में थे. पर अमृता सोचती, कि ये प्यार का आकार बनाने की भाषा उस मशीन में कहाँ से आई होगी ! और ऐसी भाषा जो सिर्फ़ उसे ही समझ में आती, जैसे कोई भूत हो, जो सिर्फ़ उसे ही दिखता हो.  पर वो पागल नहीं थी. 32साल तक बिलकुल साधारण ज़िन्दगी जी चुका इंसान पागल नहीं हो सकता था. वो भी नहीं थी. पर दिल का आकार भी सच्चा था. उसने जो दिल के बारे में 32सालों में नहीं सोचा था, वो तब सोचने लगी. और वो सोच एक ही तरफ़ ले जाती थी- किसी से दिल लगाने की दिशा में.

आशीष, जिसके साथ वो रोज़ कॉफ़ी पीती, खाना खाती, उसके पास भी दिल था, बिलकुल वैसा जैसा उसके भी दिल का आकार था. वो दोनों कब साथ में धड़के, उन्हें भी नहीं मालूम था. सब कुछ वैसे ही हुआ, जैसे किसी भी घिसीपिटी प्रेम-कहानियों में मुनासिब था. घिसापिटा यूँ तो अमृता को रास न आता, पर इस बार कॉफ़ी के घूंटों में वो सब कुछ निगले जा रही थी. और एक दिन ऐसा भी आया कि वो आशीष से प्यार कर बैठी.

प्यार कर बैठने का ख़ुमार, कई दिन उसके साथ रहा. वो प्यार जिससे प्यार की परिभाषालिखी गयी थी. पर प्यार कर बैठने के कुछ दिनों बाद प्यार हाथों से छूटता जाता था. ये बात प्यार की परिभाषामें सोच समझकर नहीं लिखी गयी थी, या मिटा दी गयी थी, जैसे कोई गैरज़रूरी जानकारी जिसे अक्सर परिभाषाओं से दूर रखा जाता है. ये परिभाषा के संक्षिप्त होने का रिवाज है, जिसे प्यार के विस्तार पर भी लागू होना पड़ता है.

पर गनीमत थी कि कॉफ़ी में अभी भी दिल का आकार रोज़ सुबह बना मिलता था. आशीष भी मिलता था. कॉफ़ी पीना और मिलन यूँ ही निभाया जा रहा था. पर एक रोज़, कॉफ़ी मशीन ने दिल तो बनाया, पर चीनी की चार चमच्चों बाद भी कॉफ़ी कड़वी ही रही. चीनी घुलना भूल गयी थी. या अपनी घुलने की सीमा के ठीक उपर आ खड़ी हुई थी. और अमृता अपने मिठास चखने की सीमा पर. इसलिए कई दिनों तक कड़वी कॉफ़ी का ही दौर चला. जब ज़्यादा झेला नहीं गया, तो अमृता ने कॉफ़ी पीना बंद कर दिया. वैसे तो कैपुचिनो के अलावा भी कई विकल्प थे, जैसे की चाय! पर अमृता को पता था कि चाय में झाग नहीं होता, स्टीम नहीं दी जाती, तो आकार बानने की गुंजाईश भी नहीं थी.


अब वो उस दफ़्तर में कई सालों से है. कई पुराने चेहरे जा चुकें हैं. कई नए आ चुकें हैं. कॉफ़ी मशीन वाली जगह पर उसे छोड़कर अब भी कई लोग मिलते हैं, बैठते हैं. उसी जगह पर बहुत सी मुस्कुराहटों और घबराहाटों की मिलावट अब भी हुआ करती है. जानबूझकर. मशीन की कॉफ़ी के उमड़ने पर, अन्दर भी बहुत कुछ उमड़-घुमड़ रहा होता है. प्यार की परिभाषा अब भी संक्षिप्त है. और प्यार का आकर अब भी असल दिल से बिलकुल मेल नहीं खाता.
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