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‘बनमाली गो तुमि पर जनमे होइयो राधा’

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गरिमा श्रीवास्तवप्रोफ़ेसर हैं और बहुत अच्छी लेखिका हैं. यह उनके इस यात्रा वृत्तान्त को पढ़ते हुए अहसास होता है. क्रोएशिया का यह यात्रा वृत्तान्त रचनात्मक गद्य का एक शानदार नमूना है. पढियेगा- मॉडरेटर 
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दिल्ली से मास्को की हवाई यात्रा बहुत सुखद नहीं रही है, शेरमेट हवाई अड्डे पर बर्फ की मोटी चादर ने ज्यों दृष्टि बाधित कर दिया है - जहाज के चौड़े पंखों पर जमी बर्फ को लगातार गर्म पानी की बौछारों से पिघलाया जा रहा है। बर्फ की सफेदी और विस्तारभय कारक सा है, ढेर सारे टर्मिनल और उनके बीच की लंबी दूरियाँ जो अपने पैरों ही तय करनी हैं - प्रतीक्षा पंक्तियाँ, संप्रेषण की भाषा रशियन, अब तक की सीखी भाषाएँ दामन छुड़ा असहाय कर गई हैं। कदम-कदम पर कड़ी सुरक्षा जाँच - आपकी मनुष्यता पर विश्वास करने को कोई तैयार नहीं। जाग्रेब के लिए यहीं से दूसरी उड़ान लेनी है, पर अभी तक मालूम नहीं कि पहुँचना किस टर्मिनल पर है, यूरोप जाने का उत्साह मंद हो चला है जबकि यात्रा तो अभी शुरू ही हुई है। टी.एस. इलियट ने कभी पूछा था - डू आई डिस्टर्ब द यूनिवर्स, वही बात खुद से पूछती हूँ - मेरे लिखने न लिखने से क्या फर्क पड़ता है -दुनिया में सैकड़ों लोग अपने अनुभव, सुख-दुख, उपलब्धि संघर्ष, रागद्वेष की गाथाएँ लिखकर चले गए। उन्हें कभी यह मालूम ही नहीं कि उनका लिखा किसने पढ़ा - किसका जीवन उससे बना-बिगड़ा या किसी को जीवन पाथेय मिला। जो भी हो अनुभूतियाँ बाँटने के लिए होती हैं लेकिन उन्हें व्यवस्थित और तरतीबवार ढंग से रख पाना संभव होता है क्या? क्योंकि तरतीब तो उनके आने में भी नहीं होती।
पिछले डेढ़ महीने से यहाँ हूँ। दक्षिण मध्य यूरोप के एड्रियाट्रिक समुद्र के किनारे छोटे से शहर जाग्रेब में। परिचित मित्रों में से कुछ क्रोएशिया को एशिया समझते हैं। उनका कहना है कि इतनी ठंड में यूरोप जाने की जरूरत भी क्या है? कैसे बताऊँ कि अपने ही कदमों से दुनिया को नाप लेने की तमन्ना मुझे यहाँ ले आई है। बचपन में चार साल बड़ी बहन को स्कूल-ड्रेस, जूते बस्ते समेत स्कूल जाता देख मेरा मन मचल जाता, माँ ने ढाई साल के उम्र में स्कूल भेजना शुरू कर दिया था। समय के पहले, पाँव में पहने कद से बड़े जूतों ने स्कूल के बंद अनुशासन के बीच खड़ा कर दिया - बचपन का खेल हो ही नहीं पाया। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, जाग्रेब विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग खोलना चाहता था। मुझे वही अवसर मिला है कि मैं दो वर्षों तक यूरोप में रह सकूँ। छात्र उत्साहित हैं - अतिथि गृह से विश्वविद्यालय सिर्फ दो किलोमीटर पर है इसलिए पैदल चलना अच्छा लगता है। यातायात और संचार सुविधा काबिले तारीफ है, समूचा क्रोएशिया आंतरिक तौर पर आठ राष्ट्रीय राजमार्गों से संबद्ध है। विश्वविद्यालय इवाना येलाचीचा में है और भारतीय दूतावास कुलमरेस्का पर। गनीमत है कि दूतावास बार-बार जाने की जरूरत नहीं पड़ती। राजदूत प्रदीप कुमार विनम्र और अनुशासन प्रिय हैं जो अक्सर भारत के दौरे पर रहते हैं और द्वितीय सचिव दूतावास की व्यवस्था देखते हैं। कर्मचारी और अधिकारी शालीन हैं - श्रीमती पासी हैं, आर्यन हैं, जिनसे हिंदी में बात करने का सुख है। तीन मंजिला सफेद इमारत, साफ सुथरी सजी-सँवरी लेकिन जिंदगी ज्यों धड़कना भूल गई हो यहाँ, इसलिए इंडोलॅाजी विभाग के मुखिया प्रो. येरिच मिस्लाव से अनुरोध किया है कि वे मेरी व्यवस्था विश्वविद्यालय के नजदीक ही करें। सिएत्ना सेस्ता (फूलों की गली) की पाँचवीं मंजिल पर एलविरा मेस्त्रोविच के फ्लैट में मुझे ठहरने को कहा गया है - फ्लैट सुंदर और सुख-सुविधा वाला है। यह पर्याप्त है मेरे लिए। भारत से लाई सभी चीजें जमा ली गई हैं। लैपटॉप को विशेष जगह दी गई है क्योंकि आने वाले दिनों में वही एकमात्र दोस्त बचा रहने वाला है। अक्सर तापमान शून्य से चार-छह डिग्री कम रहता है। धूप कभी-कभी निकलती है वो भी थोड़ी देर के लिए। धूप में भी कँपा देने वाली ठंड होती है। रविवार का दिन है, घड़ी को मैंने भारतीय समय पर ही रहने दिया है। भारतीय समय से साढ़े चार घंटे पीछे - नाश्ता लिया है। दलिया और फ्रूट कर्ड, थोड़ा सोने को जी चाहा है। नींद में अपने देश में हूँ कभी भाई-बहनों के साथ, कभी शांतिनिकेतन में मंजू दी के साथ। रतन पल्ली वाले घर में चैताली दी के साथ साईं बाबा को लेकर उनकी शाश्वत अडिग आस्था का मजाक उड़ाना चल रहा है। दूध के पतीले में अचानक उबाल आने पर वे 'जयसाईं', 'जयसाईं'कहते हुए फूँक मारने लगतीं, मेरे कहने पर कि गैस की नॅाब बंद कीजिए, उसके लिए साईं बाबा अवतार नहीं लेंगे, वे मुझपर नाराज हो जाया करती हैं। दिल्ली में माँ होली पर पुए बना रही हैं। मैदा, घी, चीनी, दूध मेवे के घोल को खूब फेंटकर सधे हाथों से गर्म घी में छोड़ती हैं - छन्न की आवाज के साथ फूल जैसा पुआ आकार लेने लगता है, उसके बाद बारी आती है गर्म मसाले में पके कटहल के सालन की और लिट्टी वह जो दादी बनाती हैं उसका कोई जवाब नहीं। बैंगन के चटखदार चोखे के साथ खूब सत्तू, लहसुन और अजवाइन से भरी-पुरी जवाँ लिट्टी - स्वाद के लिए सुर नर मुनि भी तरसें वैसी लिट्टी। ये सारे व्यंजन अपने रूप-रस गंध के साथ आँखों के आगे परसे चले आ रहे हैं। मंजू दी शांतिनिकेतन में मटर की कचौड़ी बनाती थीं, गांधी पुण्याह पर हरिश्चंद्र जी का बनाया सुगंधित सूजी का हलवा ...जुबाँ पर स्वाद के कण अभी भी बाकी हैं ...जोर की घरघराहट के साथ चौंक कर आँखें खुलती हैं। कमरे में घुप्प अँधेरा कहीं कोई नहीं अपना होना ही शंकालु बना रहा है -
काबे की है हवास कभी कुए बुताँ की है
मुझको खबर नहीं, मेरी मिट्टी कहाँ की है
                          - दाग देहलवी
कहाँ हूँ मैं? मेडिकल की तैयारी कर रही दीदी ने कहीं बत्ती तो नहीं जला दी, वो दिन में सोती है, सारी रात पढ़ती है। मुझे पुकारकर कहती है - सोनी तू सोती ही रहेगी पढ़ेगी कब? उक्की कहाँ है? अमरूद के पेड़ के नीचे सहेली के साथ लकड़ी का स्कूल उल्टा करके गुड़िया का खेल रच रही होगी ...देखो उसने फिर उल्टी चप्पल पहन ली, इतनी छोटी है लेकिन बहुत स्वाभिमानी और स्वतंत्र चेतना, किसी के साथ नहीं सोती ...मम्मी के जाने के बाद बुआ के साथ भी नहीं। चार साल की उम्र में ही उसकी अकेली दुनिया है। चप्पल पहनूँ, उठूँ कि हिंदू कॉलेज के दोस्त बुलाने आए हैं - दो अध्यापकों - डॅा. हरीश नवल और सुरेश ॠतुपर्ण ने अपने घर बुलाया है। खाना पीना, मौज मस्ती करके शाम ढले स्मिता दी के साथ घर लौटती हूँ। लो आज आ गई शामत - डॅा. कृष्णदत्त पालीवाल की क्लास है। उन्होंने दुर्वासा सी भविष्यवाणी कर दी है - तुम सब कहीं नहीं पहुँचोगे ...कहीं नहीं ...कहीं नहीं ...तो पहुँची कहाँ हूँ ...करवट बदलकर, जोर लगाकर उठने की कोशिश में आँखें मुँदी चली जा रही हैं - टोंस वैली से लगातार बंदूक की गोलियाँ दागने की आवाजें आ रही हैं। यह मेरी पहली नौकरी है। भारतीय सैन्य अकादमी में, अफसर बनाने के लिए जेंटिलमैन कैडेट्स को पढ़ाना है। सुबह का सायरन बज रहा है। बैरक से निकलकर आर्मी कैडेट कॅालेज विंग की ओर जाने वाली गीली सड़क पर अँधेरे में चल रही हूँ। सड़क के किनारे लैंप पोस्ट टिमटिमा रहे हैं। बारिश की बूदें पोस्ट पर चिपक सी गई हैं। कैडेट्स समस्वर कदमताल करते हुए सैल्यूट देकर आगे बढ़ जाते हैं। झुंड के झुंड गुजर रहे हैं ...कहाँ हूँ मैं, घंटी की आवाज है। उठकर दरवाजा खोलना पड़ता है मुझे भौंचक देख कर मुस्कुराकर क्रेशो कर्नित्ज हाथ मिलाते हैं। यह दोस्ती की गर्माहट से भरा पुरसुकून स्पर्श है। वे जाग्रेब विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाते हैं - कांट्रेक्ट पर। दरवाजे के खुलने से ठंडी बर्फीली हवा का झोंका भीतर आ गया है, जिसने अवचेतन से चेतन में ला पटका है। क्रेशो मेरी छोटी-मोटी दिक्कतें समझते हैं। लैपटॉप पर स्काइप इन्स्टाल कर रहे हैं और भारत में फोन पर बात करने के लिए व्हॅाइप भी। अभी दिन के सिर्फ तीन बजे हैं लेकिन अँधेरा घिर आया है। कौएनुमा एक बड़ा-सा पक्षी लैंप पोस्ट पर आ बैठा है। ओवरकोट में ढके-लिपटे इक्का-दुक्का लोग सड़क पर दिख रहे हैं। मैं जाग्रेब में हूँ और यहीं रहना है दो साल तक। सोचती हूँ दो साल बहुत लंबा समय है। मौसम हमेशा धुंधलाया-सा रहता है। कैंटीन में शाकाहारी भोजन की दशा ठीक नहीं। यहाँ के लोगों को भारतीय व्यंजन बहुत पसंद हैं। कहते हैं कभी तुर्केबाना येलाचीचा (जाग्रेब का केंद्र) में किसी ने भारतीय रेस्टोरेंट खोला था। किसी वजह से काल कवलित हो गया। वैसे मांसाहारी भोजन के लिए क्रोएशिया पूरे यूरोप में प्रसिद्ध है। ताजा पानी की मछली, गोमांस, सूअर का मांस और मेडीटेरियन ढंग से बनी सब्जियाँ यहाँ की खासियत हैं। ठंडे मौसम में पशु-मांस के बड़े-बड़े टुकड़ों को लोहे के हैंगरों में टाँग दिया जाता है। बंद कमरे में जलती लकड़ियों के धुएँ में वह टँगा मांस पकता है। धुएँ की परत संरक्षक का काम करती है। इसे 'स्मोक्ड मीट'कहा जाता है। इसकी पाक विधि-काफी प्राचीन है और लोकप्रिय भी। जैतून का तेल भी यहाँ काफी प्रयोग होता है।
सिएत्ना-सेस्ता में घरों के दरवाजे काफी चौड़े और मोटे हैं। मुख्य द्वार स्वतः बंद हो जाते हैं। अभ्यास न होने के कारण फ्लैट का दरवाजा बाहर से दो बार लॅाक हो चुका है। सामने के फ्लैट में द्रागित्ज़ा रहती हैं। जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती और मुझे क्रोएशियन। उनका लंबा समय इटली में बीता है। जर्मन और इतावली जानती हैं। वे क्रोएशियन-अंग्रेजी शब्दकोश खरीद लाई हैं। लगभग सत्तर वर्ष की चाक-चौबंद युवा हैं। हाँ युवा ही, क्योंकि जीवन के इस पड़ाव पर ही पहली बार तनावमुक्त, उन्मुक्त जीवन जी रही हैं। सुंदर गोल चेहरा, रोमन नाक और कटे हुए सुनहरे बाल। हमेशा व्यस्त रहती हैं। उन्होंने फ्लैट के सामने फूलों के पौधे लगा रखे हैं। बेटी तान्या और नातिन नादिया सप्ताहांत में आती हैं। पैंतीस वर्षीय बेटा इगोर कलाकार है। जिसे बेरोजगारी के आलम ने उदास और तिक्त बना दिया है। द्रागित्ज़ा के पास फ्लैट की अपनी चाबी है, इगोर की अनियमित दिनचर्या का ज्यादा प्रभाव उनपर नहीं पड़ता। ऐसा वे कहती हैं लेकिन आँखें कुछ और कहती हैं। ये धुर पश्चिम है जहाँ माता-पिता 17 वर्ष की उम्र के बच्चों को मित्र मानते हैं। देख रही हूँ दिनोंदिन यह अंतराल कम ही होता जा रहा है। नादिया के ऊपर इम्तहान पास करने का तनाव इतना है कि सिगरेट के बिना नहीं रह पाती। इम्तहान में फेल होने पर क्या करेगी, वह जानती नहीं। कहती है - "आप क्या सोचती हैं, बड़े लोग ही तनाव ग्रस्त होते हैं। मुझे घर में रहना, पढ़ना, बिल्कुल पसंद नहीं, सोचती हूँ कब बड़ी होकर संगीतकार बनूँ या फिल्म में काम करूँ। उसकी माँ तान्या बेटी के लिए बहुत चिंतित रहती है। वह दुबरावा के सरकारी अस्पताल में रेडियोलॉजी विभाग में तकनीकी सहायक है। दो तलाक हो चुके हैं और 'रिएका'के म्लादेन नामक व्यक्ति से भावात्मक जुड़ाव है। अपने संबंध को लेकर सदैव सशंकित रहती है। नौकरी से छुट्टी मिलते ही 'रिएका'चली जाती है। इधर उसकी बेटी नादिया रात-भर घर से गायब रहने लगी है। तान्या कहती है जो गलतियाँ मैंने कीं, चाहती हूँ मेरी बेटी न करे। तुम्हारा देश अच्छा है जहाँ बच्चों पर अभिभावकों का कठोर नियंत्रण रहता है। वह नादिया को डाँटने-फटकारने से डरती है।
हम समुद्र के किनारे-किनारे लांग ड्राइव पर जा रहे हैं बाईं तरफ ड्राइविंग व्हील अटपटा लगता है। पास में अंतरराष्ट्रीय लाइसेंस भी नहीं है। तान्या लगातार अपनी व्यथा कथा कह रही है। उसे अंग्रेजी में बात करना सुहाता है। कई बार क्रोएशियन शब्दों के अंग्रेजी पर्याय ढूँढ़ने के चक्कर में बातचीत बाधित भी होती है। समुद्र के किनारे-किनारे लैवेंडुला (लैवेंडर) की झाड़ियाँ हैं। पौधे दो से ढाई फुट ऊँचे। लैवेंडर की गंध समुद्र की नमकीन गंध के साथ मिलकर पूरे दक्षिण यूरोप की हवा को नम बनाए रखती है। फ्रांस में तो लैवेंडर को भोजन में भी प्रयुक्त किया जाता है। कीटाणुनाशक सुगंधित लैवेंडर क्रोएशिया और यूरोप के अन्य भागों में निद्राजनित रोगों की औषधि है। वैसे क्रोएशिया पर्यटन और शराब उत्पादन के लिए मशहूर है। तान्या ने यह सूचित करते हुए पीने की इजाजत माँगी है। उसका गला सूख रहा है। लगभग 641.355 वर्ग मील में फैला जाग्रेब क्रोएशिया का सांस्कृतिक-प्रशासनिक केंद्र है जो मूलतः एक रोमन शहर था जो सन 1200 में हंगरी के नियंत्रण में आ गया। सन 1094 में पहली बार पोप ने जाग्रेब में चर्च की स्थापना कर जाग्रेब नाम दिया। जर्मन में इसे 'अग्रम'कहा जाता है।
जाग्रेब और क्रोएशिया का इतिहास युद्ध का इतिहास है, सन 1991 तक संयुक्त युगोस्लाविया का अंग रहा क्रोएशिया अपने भीतर युद्ध की अनगिन कहानियों को लिए मौन है। स्लोवेनिया, हंगरी, सर्बिया, बोस्निया, हर्जेगोविना और मांटेग्रो से इसकी सीमाएँ घिरी हैं। आज के 21,851 वर्गमील में फैले क्रोएशिया ने एक तिहाई भूमि युद्ध में खो दी। 15 फरवरी 1992 को यूरोपीय आर्थिक संगठन और संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इसे लोकतांत्रिक देश के रूप में मान्यता दी। इसके बाद भी तीन वर्ष तक अपनी भूमि वापस पाने के लिए 1 अगस्त 1995 तक उसे सर्बिया से लड़ना पड़ा और यूरोपीय यूनियन की सदस्यता तो उसे अभी हाल में 1 जुलाई 2013 को मिल पाई। इतने लंबे युद्ध के निशान अभी तक धुले-पुछे नहीं हैं। उनकी शिनाख्त के लिए मुझे दूर नहीं जाना पड़ा। इटली और फ्रांस घूमने की इजाजत मिलने पर दूतावास ने मुझको दुशांका सम्राजीदेवा की टूरिस्ट कंपनी का पता दिया।
दुष्का का जीवन क्रोएशियाई सर्ब युद्ध का जीता जागता इतिहास है। कहीं पढ़ा था, युद्ध कहीं भी हो, किसी के बीच हो, मारी तो औरत ही जाती हैं। युद्ध ने दुष्का के जीवन को ही एक युद्ध बना दिया। युद्ध में सर्बों ने क्रोआतियों को मारा उनके घर जला दिए, बदले में क्रोआतियों ने पूरे क्रोएशिया को सर्ब विहीन करने की मुहिम छेड़ दी। लोग भाग गए या मारे गए। दुष्का के माँ-बाप युद्ध के दौरान बेलग्रेड होते हुए अपनी बेटियों के पास पहुँच नहीं पाए। दुष्का को बिना नोटिस दिए नौकरी से निकाल दिया गया। अब वह केवल 'सर्ब'थी मनुष्य नहीं, अड़ोसी-पड़ोसी घृणा से इन दो बहनों को देखते थे। जंग जोरों पर थी, अमेरिका की पौ-बारह थी। ऊपर से युद्ध विराम और भीतर से घातक हथियारों की आपूर्ति - युद्ध विराम होते थे, वायदे किए जाते। जो तुरंत ही तोड़ भी दिए जाते। राजधानी होने के नाते जाग्रेब शहर में पुलिस और कानून व्यवस्था कड़ी थी, लेकिन लोगों के दिल-दिमाग से घृणा और नफरत को निकालना असंभव था। बसों में, ट्रामों में लोग सर्बों को देखते ही वाही-तबाही बकते, थूकते, घृणा प्रदर्शन करते। दुष्का ने कई साल पहले अपनी ट्रैवल एजेंसी का सपना पाला था। युद्ध ने दुनिया बदल दी। कुछ लोग रातों-रात अमीर हो गए और कुछ सड़क पर आ गए युद्ध के थमने और गर्भ ठहरने दोनों की सूचना दुष्का को एक साथ मिली। दौड़ी थी उस दिन वह त्रयेशंवाचकात्रा से यांकोमिर तक, पैदल चलकर गई सेवेस्का तक। कोई डॅाक्टर सर्ब लड़की का केस हाथ में लेने को तैयार नहीं हुआ। क्रोएशियन प्रेमी ने दुष्का को पहचानने से इनकार कर दिया, सर्ब कहकर गाली दी और उससे बात तक न की। दुष्का अविवाहित माँ बनी और पिछले पंद्रह वर्षों में अपने माँ-बाप का सहारा भी।
इवाना, मिरता, वैलेंटीना, बोजैंक अक्सर मिलने जुलने वाले विद्यार्थी हैं। लेकिन सप्ताहांत में जब चारों ओर बर्फीला सन्नाटा पसर जाता है इनमें से कोई फोन नहीं उठाता। बृहस्पतिवार की शाम से 'वीक एंड'की तैयारी शुरू हो जाती है। भारत की अपेक्षा लड़कियाँ यहाँ ज्यादा स्वतंत्र और उन्मुक्त हैं। रोजगार के अवसर सीमित हैं। ये आर्थिक तंगी के दौर का यूरोप है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने पूरे ताम-झाम के साथ मैकडोनॅाल्डस, रीबॅाक, वॅान हुसैन, एडीडास जैसे ब्रांडों में मौजूद हैं। सप्ताह के पाँच दिन यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्र सप्ताहांत में दुकानों के कर्मचारी बन जाते हैं। पचीस, तीस कूना (मुद्रा) प्रति घंटे के हिसाब से उनसे खूब जमकर काम लिया जाता है। मेरी प्रतिभाशाली छात्रा कार्मेन वुग्रिन मैकडोनॅाल्डस में सप्ताहांत और ग्रीष्मावकाश में बर्तन धोती, झाड़ू-पोछा कर खाना पकाती है। मरियाना जिसके घर में अभिभावक के नाम पर सिर्फ एक नाशपाती का पेड़ है। नाक-कान में असंख्य बालियाँ पहने, बालों में बहुरंगी रिबन बाँधे दुब्रोवा और तुर्केबाना येलाचीचा की गलियों में गिटार बजाती है। उसने कई भारतीय गाने सीख रखे हैं। धुन बजाती है, आने-जाने वाले लोग सड़क पर बिछे कपड़े पर कुछ सिक्के डालकर आगे बढ़ जाते हैं। आंद्रियाना और बोजैक तरह-तरह की पोशाकें, नकली नाक लगाकर पर्यटकों को रिझाते हैं। बोजैक तुर्केबाना में मुझे देखकर चौंकता है। फिर लजाकर गलियों में गायब हो जाता है। यहाँ 'क्रेशो'नाम बहुत आम है। जो यहाँ के राजा क्रेशीमीर के नाम का संक्षिप्त रूप है। रोमन नाक नक्श, गोरा रंग, लंबी स्वस्थ कद काठी और सीधी सतर चाल क्रोएशियंस का वैशिष्ट्य है। हम भारत में रहते हुए यूरोप की समृद्धि से कुंठित होते रहते हैं। यहाँ आकर देखती हूँ बाजार है, खरीदार नहीं। बड़ी-बड़ी दुकानें, जिनमें जूते की दुकानें बहुतायत में हैं। वे वीरान हैं - सामान है, सजावट भी ...खरीदने वालों से निहारने वालों की संख्या कई गुना ज्यादा है। आम-आदमी की क्रय-शक्ति कमजोर हो चली है। छात्र-छात्राएँ 'सेल'के मौसम की प्रतीक्षा करते हैं। पुराने कपड़ों को खूब जतन से पहनते हैं। जाग्रेब के बाहरी हिस्से में पूर्व की रेलवे लाइन के किनारे 'सेकेंड हैंड'मार्केट लगता है। जिसे देखकर लाल किले के पीछे का बाजार याद आता है। मृतकों के इस्तेमाल किए हुए कपड़े, बैग, जूते, बेल्ट, चादरें, तकिए सब मिलते हैं। अच्छी-अच्छी कमीजें पाँच कूना में उपलब्ध हैं। देखती हूँ। इस बाजार में खरीदारों की संख्या बहुत बड़ी है। काला, सफेद और सलेटी यहाँ के प्रचलित रंग हैं। विशेषकर सर्दियों में, जो वर्ष के लगभग सात महीने रहती हैं।
यूरोप के आंतरिक भागों में सफर के लिए रेल अपेक्षाकृत सस्ता और सुरक्षित माध्यम है। जाग्रेब स्लोवेनिया से सटा हुआ है। लेकिन वहाँ जाने के लिए शेनजंग वीसा की जरूरत है। मैंने दूतावास में वीसा की अर्जी दे दी है। तान्या के साथ मुझे स्लोवेनिया जाना है, लेकिन उससे भी पहले 'रिएका'शहर जहाँ क्रेशो कर्नित्स और उनकी पत्नी साशा के प्रकाशन गृह से रवींद्रनाथ टैगोर के नाटक 'चित्रा'का क्रोएशियन रूपांतरण छपा है।
हमें कार से दिन भर का सफर करना पड़ा है। समुद्र तट पर धूप खिली हुई है और तट के समांतर चौड़ी सड़क 'रिएका'की ओर जा रही है। साशा और क्रेशो बारी-बारी से कार चला रहे हैं। एक-दो जगह हम पेट्रोल लेने के लिए रुकते हैं। साशा दुबली-पतली है। निरंतर सिगरेट पीने से, उन्हें भूख भी कम लगती है। उनके पास कार में वाइन है, लेकिन मुझे तेज भूख लगी है। पेट्रोल स्टेशन पर ही मैंने सैंडविच खरीदा है। कभी-कभी घर की सूखी रोटी और आलू की भुजिया अपनी साधारणता में भी कितनी असाधारण और दुर्लभ हो जाती है। राजा क्रेशीमिर का किला रास्ते में पड़ा है और किले के भीतर बाजार लगा है। गहने, तस्वीरें, मदर मेरी की मूर्तियाँ, खूब मोटी मुगदरनुमा जंघाओं वाले मध्यकालीन सैनिकों के बुत, किताबें, कैसेट्स, गीत-संगीत और पर्यटक। यहाँ 'बैक वाटर'पोर्ट है जहाँ से 'वेनिस'के लिए नावें चलती हैं। जहाँ कुछ ही घंटों में पहुँचा जा सकता है। दोपहर तीन बजे हम लोग विमोचन स्थल पर पहुँचते हैं। पुस्तक के विमोचन के साथ नाश्ते का भी इंतजाम है। लोग पंक्ति में खड़े होकर प्लेटों में नाश्ता ले रहे हैं। सबकी आँख व्यंजनों पर केंद्रित है। मिलना-जुलना बाद में, पहले पेट-पूजा। नाश्ते का इंतजाम न होता तो इतनी भीड़ जुट पाती यहाँ, पता नहीं। भीड़ में, एक बुजुर्ग ललछौंहें चेहरे और चौड़ी नाक लिए इधर-उधर देख कर जेब में बिस्कुट के टुकड़े छिपाते जा रहे हैं। कोट की जेबें फूलती चली जा रही हैं। मैंने जल्दी से, उधर से नजर हटा ली है। पता नहीं मन करुणा से भर आया है।
'रिएका'या 'रिजेका'क्रोएशिया का तीसरा बड़ा शहर है। समुद्र के किनारे बसा यह शहर बड़े-बड़े पानी के जहाज बनाने के लिए प्रसिद्ध है। अपने भीतर बड़ा दिलचस्प बहुभाषिक इतिहास लिए हुए है। पाँचवीं शताब्दी से ही यहाँ आस्टोगोथ, लोंबार्ड, अवार, फ्रैंक और क्रोआत रहे हैं। इसलिए रिएका में बहुत सी भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के पहले तक यह पूरी तरह इतावली शहर था। गोरिल्ला युद्ध और छापामार झड़पों में बहुत-से नागरिक हताहत हो गए और लगभग 800 लोगों को यातना-शिविरों में बंद कर दिया गया। आज इस शहर में लगभग बयासी प्रतिशत क्रोआत, छह प्रतिशत सर्ब, दो-ढाई प्रतिशत बोस्नियाई और दो प्रतिशत इतावली रहते हैं। 'चित्रा'के विमोचन का कार्यक्रम रिएका के सार्वजनिक पुस्तकालय में है। पुस्तकालय बड़ा और व्यवस्थित है, लेकिन ऊपरी मंजिल पर कई कमरे बंद हैं। जिनमें प्राचीन पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं। पुस्तकालयाध्यक्ष का कहना है कि सरकारी अनुदान इतना कम है कि सभी कमरों का रख-रखाव संभव नहीं। विमोचन कार्यक्रम की भाषा क्रोएशियन है। इतना तय है कि टैगोर यहाँ बहुत लोकप्रिय हैं। मुझे बताया गया है कि सन 1926 में टैगोर जब जाग्रेब आए थे तब उन्होंने 'रिएका'का दौरा भी किया था। दार्शनिक पावाओ वुक पाब्लोविच (1894-1976) ने 'गीतांजलि'का क्रोएशियन में अनुवाद किया था जो जाग्रेब के दैनिक 'भोर का पत्ता'में 1914 की जनवरी में धारावाहिक रूप में छपा था। बाद में पावाओ ने 'चित्रा''मालिनी'और 'राजा'का अनुवाद भी किया। 'चित्रा'का मंचन क्रोएशियन नेशनल थिएटर में 1915 में कई बार हुआ। यहाँ के उदारवादी बौद्धिक प्रथम विश्वयुद्धोत्तर अवसान काल में टैगोर को आध्यात्मिक और शांति के प्रतिनिधि के रूप में देखते थे। विमोचन समारोह में 'चित्रा'के पहले प्रदर्शन में अभिनय करने वाले क्रेशीमिर बारनोविच (1894-1975) का स्मरण किया जा रहा है। टैगोर की लोकप्रियता के जो भी कारण रहे हों। एक बात तो तय है कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उन्हें नोबल मिलना और स्काटलैंड में नोबल के लिए जर्मन राष्ट्रवादी लेखक पीटर रोसेगर का नाम चलना ये दो कारण थे जिन्होंने टैगोर को इस क्षेत्र में लोकप्रियता दिलाई। भले ही टैगोर इस बात से अनभिज्ञ रहे हों, फिर भी यहाँ के लोग बताते हैं कि 'नोबेल'की घोषणा के बाद जर्मन प्रेस ने टैगोर पर हमला बोल दिया था। आज क्रोएशियंस पीटर को भूले से भी याद नहीं करते और उनकी पूरी सहानुभूति के पात्र रवींद्रनाथ टैगोर हैं। ईसाई बौद्धिकों में से बहुत कम ऐसे थे, जो 'गीतांजलि'को केवल एक साहित्यिक कृति के रूप में सराहते थे। वे तो टैगोर के रहस्यवाद से प्रभावित थे। सन 26 में यूरोप की यात्रा के दौरान रवींद्रनाथ टैगोर को क्रोएशियंस ने युद्धोत्तर क्षत-विक्षत मानस को आध्यात्मिक नेतृत्व देने वाले व्यक्ति के रूप में देखा। उनकी कई कृतियों मसलन 'घरे बाइरे'का क्रोआती में अनुवाद इसी दौर में हुआ, क्रोएशियन म्यूजिक कंजरवेटरी के सभागार में उन्होंने दो दिन भाषण दिए, जिनका आशु अनुवाद क्रोआती में किया गया, लेकिन रवींद्रनाथ को यह नागवार गुजरा। ये प्रसंग इसलिए क्योंकि यहाँ मुझे जो बातें कहनी हैं - उनका क्रोआती में सतत अनुवाद होगा। गुरुदेव के रचनाकर्म और क्रोएशिया से उनके संबंधों पर टिप्पणी करते हुए मुझे बार-बार रुकना पड़ रहा है। मेरे वक्तव्य पर श्रोताओं के चेहरे निर्विकार और भावशून्य हैं। आशु अनुवाद की बात पर ही उनकी आँखें झपकती और कभी चौड़ी होती, कभी सिकुड़ती हैं। श्रोता-वक्ता का संबंध उचित संप्रेषण पर टिका होता है। मुझे मालूम ही नहीं चल रहा कि मेरी बात कहाँ और किस सीमा तक संप्रेषित हो रही है। साशा मंच-संचालन कर रही हैं और मुझे बताया जाता है कि श्रोता टैगोर की कविता सुनना चाहते हैं। मालूम नहीं टैगोर के कई गीतों को छोड़कर मुझे 'ध्वनिलो आह्वान'सुनाने की इच्छा ही क्यों हो आई है -
ध्वनिलो आह्वान मधुर गंभीर प्रभात अंबर माझे
दिके दिगंतरे भुवन मंदिरे शांतिसंगीत बाजे
हेरो गो अंतरे अरूपसुंदरे - निखिल संसार परम बंधुरे
ऐशो आनंदित मिलन - अंगने शोभन - मंगल साजे
कलुष - कल्मष विरोध विद्वेष होउक निःशेष
चित्ते होक जोतो विघ्न अपगत नित्य कल्याणकाजे
स्वर तरंगिया गाओ विहंगम, पूर्व पश्चिम बंधु-संगम
मैत्री-बंधन पुण्य मंत्र पवित्र विश्वसमाजे।
ये फरवरी का अंतिम सप्ताह है। धूप खिली हुई है। रात को गिरी बर्फ के फाहे सड़कों के किनारे-किनारे रूई से रखे हुए हैं, हवा में नरमाहट की जगह तुर्शी है, बिल्कुल ठंडी, बर्फीली हवा जो एड्रियाटिक सागर को छूने के पहले पाइनवृक्षों की टहनियों पर जमी बर्फ को थोड़ा हिला भर देती है। सफेदी को झाड़ती नहीं। अंजीर और चेरी वृक्षों की सारी पत्तियाँ झड़ चुकी हैं। असमय ही बुढ़ाए ठूँठों को बर्फ ने नीचे से ऊपर तक ढक लिया है। खिली धूप में 'सिएत्ना सेस्ता'के सामने की सड़क के दोनों किनारों पर खड़े पेड़ बेजान से दिख रहे हैं। जब तक हम बर्फ से रूबरू नहीं होते, वह हमारे भीतर अपनी पूरी सफेद मोहकता के साथ पिघलती है। रग-रेशों में उतर कर रोमैंटिक कल्पना के सहारे, बर्फ के जूते, बड़ी जैकेटें पहने हम उसकी सफेद फिसलन पर उठ-गिर रहे होते हैं और जब वही बर्फ दिन-रात, सुबहो-शाम का हिस्सा बन जाती है, सारे चिड़िया-चुरुंग न जाने कहाँ छिप जाते हैं, तो उसकी मोहकता को सन्नाटे में तब्दील होते कतई देर नहीं लगती। खिड़की के पर्दे हटाते ही दिल बैठ जाता है। इतनी अफाट, निरभ्र सफेद परत-पाँचवीं मंजिल से नीचे देखती हूँ। पार्किंग में खड़ी गाड़ियाँ बर्फ में एकसार हो गई हैं। एक आदमी हाथ में फावड़ा लिए बर्फ हटाने में जुटा है। बर्फ खखोर-खखोर कर सड़क के किनारे डालता है, जहाँ भूमिगत नाली का मुहाना है। बर्फ के थक्के बड़े-बड़े हो जाते हैं। निचली सड़क गीली हो गई है, पर बर्फ पिघलाने भर का ताप सूरज में अभी आया नहीं, और पहर ढलने का समय भी हो गया। 'सिएत्ना सेस्ता'और सभी बहुमंजिली इमारतों के पिछवाड़े कतार में लोहे के पहियेदार कंटेनर रखे हुए हैं। ये कूड़ादान हैं। नगर निगम शहर के रख रखाव के लिए नागरिकों से कर वसूलता है। जिसके निवेश में व्यवस्था और ईमानदारी दोनों है। भारत मे जिसका अभाव सिरे से महसूस किया जाता है। अलस्सुबह बड़े ट्रकों में पिछले दिन का कूड़ा खाली कर दिया जाता है। खाली कंटेनर दिन भर पेट भरने के इंतजार में वहीं खड़े रहते हैं। जिन पर क्रोआती में सूखे और गीले अवशिष्ट पदार्थों के संदर्भ में निर्देश लिखे हुए हैं।
विश्वविद्यालय में सुबह आठ बजे कक्षाएँ शुरू हो जाती हैं। प्रोफेसर येरिच ने मुझसे कहा था कि या तो सुबह आठ बजे कक्षा लूँ या रात के आठ बजे। रात आठ बजे कक्षा पढ़ाने की अवधारणा ही मुझे अजीब-सी लगती है। दिन भर की थकान के बाद अंत में कक्षा पढ़ाना... उफ। मैंने भारत में भी हमेशा सुबह-सुबह ही पढ़ाया। दोपहर होते-होते कक्षा पढ़ाने का उत्साह मंद हो जाया करता है। शांतिनिकेतन में तो सुबह साढ़े छह बजे ही, वैतालिक की प्रार्थना के तुरंत बाद कक्षाएँ शुरू हो जाती थीं। दिन का एक बजा नहीं कि कक्षाएँ समाप्त। आधा दिन अपना था। पुस्तकें पढ़ना, पुस्तकालय जाना, कंकाली तल्ला, अजय नदी का पुल, खोवाई, आमार कुटीर जैसी जगहों पर जाना और शाम ढले लौट आना। उसी अवकाश का सुफल था। भारतीय विश्वविद्यालयों - विशेषकर मानविकी और समाज विज्ञान में शाम पाँच-छह बजे तक पढ़ाई समाप्त हो जाया करती है। सूरज अस्त, अध्यापक मस्त और विद्यार्थी पस्त। अभ्यास ही संस्कार बन जाया करता है। रात देर तक पढ़ना और सुबह उठकर पढ़ाने को तैयार होना, इससे लगता है - एक नया खूबसूरत-सा दिन आप शुरू करने जा रहे हैं। सुबह एक नई ऊर्जा और मुस्तैदी देती है। इसलिए मैंने जाग्रेब में भी सुबह आठ बजे की कक्षाएँ ही चुनी हैं। नब्बे मिनट की एक कक्षा बीच में अवकाश फिर कक्षा। अक्सर दिन के डेढ़ बजे तक मैं अपने आवास पर लौट आती हूँ। शाम में अक्सर पुस्तकालय। आजकल वहीं देर हो जाया करती है। पुस्तकालय खूब व्यवस्थित है। अंग्रेजी, क्रोआती (हर्वास्त्की) और फ्रेंच पुस्तकें - लाल, नीली जिल्द चढ़ी, विपुल, खूबसूरत किताबों का वृहत संसार। तापमान नियंत्रित किया रहता है - 20 से 22 डिग्री से., आरामदेह, पुरसुकून माहौल - लगता है इसके बाद कोई दुनिया नहीं। कई विद्यार्थी 'अर्न व्हाइल लर्न'परियोजना के तहत घंटे के हिसाब से कार्य करते हैं। कैटलॅाग बनाते हैं। किताबें झाड़ते-पोंछते हैं बदले में उनका जेब खर्च निकल आता है। सन 1669 में स्थापित 'स्वेस्लिस्ते उ जाग्रेबु'दक्षिण-मध्य यूरोप के प्राचीनतम विश्वविद्यालय में से एक है। इवाना उलीचीचा के दसवें मार्ग पर यही पुस्तकालय मेरी शरणस्थली है। धूप की हल्की किरणों को, दिन के किसी भी समय घेरकर बादल दिन में अँधेरा कर देते हैं, बर्फीली बारिश बेआवाज टपकती रहती है। सब शांत, पेड़ पौधे स्वच्छ और श्वेत बर्फ की चादर तले दिन और रात का फर्क कहीं गुम हो जाता है। आजकल मैंने 'सिमोन द बोउवार'को नए सिरे से पढ़ना शुरू किया है उसका लिखा घर से दूर होने की बेचैनी को कभी बढ़ाता तो कभी शांत करता है। उनके उपन्यासों और आत्मकथाओं से गुजरना मधुर त्रासदी से गुजरना है। पुस्तकालय की गर्माहट, सिमोन की किताबें इन्हें छोड़कर फ्लैट के सन्नाटे की ओर लौटने का जी नहीं करता, काफी हाउस का अपरिचित शोर समझ में आने लगा है। धुएँ के छल्लों के बीच टेबुल पर सिर झुकाए, चाइना क्रेप की फ्रॅाक पहने सीमोन लिखती दीखने लगी है। मैंने सेर्गेई के कहने से आत्मकथात्मक उपन्यास 'ए वेरी ईज़ी डेथ'का हिंदी अनुवाद शुरू किया है। सीमोन को पढ़ना एक ऐसे अनुभव लोक से होकर गुजरना है। जहाँ से स्त्रीवाद का वैचारिक और राजनीतिक उत्स देखने को मिलता है। जहाँ 'सेकेंड सेक्स'मनुष्य की स्वतंत्रता की, मनुष्य के रूप में स्त्री पराधीनता के कारणों की पड़ताल करता है, वहाँ 'ए वेरी ईज़ी डेथ'प्राइम ऑफ लाइफ, ऑल सेड एंड डन, स्त्रीवाद के व्यावहारिक पक्ष की पड़ताल करती हैं। सीमोन ने सन 1964 में 'ए वेरी ईज़ी डेथ'की रचना की, जिसका प्रकाशन उसकी माँ की मृत्यु के साल भर बाद हुआ था, छह सप्ताह के कालखंड में मरण-शय्या पर मामन और सीमोन के साथ बातचीत में यह आत्मकथ्य गहरा निजत्व दुख, पश्चाताप, पीड़ा के क्षणों का आख्यान है। माँ-बेटी की बदलती भूमिकाएँ, स्त्री की यातना में उसकी निज की भूमिका, पति-पत्नी संबंध, डाक्टर और मरीज का संबंध, अस्पतालों की आंतरिक राजनीति के विविध पड़ावों से गुजरती हैं। मामन पिछले चौबीस वर्षों से विधवा और एकाकी है। सीमोन भी अपने स्वतंत्र लेखन और जीवन में व्यस्त है। मामन को अंत तक मालूम नहीं कि उसे प्राणघातक 'कैंसर'है। वह मरना नहीं चाहती। ठीक होकर 78 वर्ष की अवस्था में, फिर से जीवन नए सिरे से जीना चाहती है। सीमोन को पढ़ने और अनुवाद करने की प्रक्रिया मुझे भीतर से कभी-कभी बहुत अकेला कर देती है। भीतर कभी-कभी घुप्प अँधेरों के साए चहलकदमी करते हैं, कभी सीमोन ही हाथ में कलम पकड़ाकर लिखवाती चलती है। नित्यानंद तिवारी से बात हुई है। अनुवाद के कुछ अंश भेजे थे उन्हें। वे बहुत प्रभावित हैं लेकिन रचनात्मक अवसाद से बचने की सलाह देते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी ने भी अनुवाद का प्रथम प्रारूप पढ़ा है। ए वेरी ईज़ी डेथ उन्हें मर्मस्पर्शी लगा है और सिंधु आंटी तो पढ़कर रो ही दी हैं।
शाम ढले सिएत्ना सेस्ता पहुँचती हूँ, पिछवाड़े का रास्ता छोटा है। शाम का झुटपुटा है, अभी थोड़ी ही देर में गलियों की बत्तियाँ जल जाएँगी। हवा तेज और नम है। आकाश ज्यों झुका चला आ रहा है। लगता है रात में बारिश होगी। बर्फ वाले जूते पहनने के कारण तेज-तेज कदम बढ़ाना संभव नहीं हो पा रहा, ओवर कोट और कई स्वेटरों की तहें शरीर को अतिरिक्त बोझिल बना देती हैं। रास्ते में 'माली दुचान' (छोटी दुकान) पड़ती है। शीशे के दरवाजे बंद हैं। काउंटर पर बैठी लड़की के बाल ललछौहें हैं। शायद 'बरगंडी कलर'से रंगे हैं। लाल नेलपालिश वाली पतली लंबी गोरी उँगलियों में सिगरेट फँसी है। दुकान में कोई ग्राहक नहीं। उसने 'दोबर दान'कहकर चलताऊ मुस्कान फेंकी है। यह छोटी दुकान है जहाँ सब्जियाँ, ब्रेड और वाइन उपलब्ध है। मुझे ब्राउन चाकलेट्स लेनी हैं। कहीं पढ़ा है कि चाकलेट्स मूड बूस्टर का काम करती हैं। इन दिनों अक्सर चाकलेट्स की जरूरत मुझे पड़ती है। लड़की अंग्रेजी नहीं जानती। मैंने प्लास्टिक ट्रे में फ्रूट कर्ड, रेड वाइन और चाकलेट्स रख ली है। उसने कंप्यूटर पर हिसाब करके मुझसे कार्ड ले लिया। सामान लेकर 'ख्वाला' (धन्यवाद) कहना अब सीख लिया है मैंने। इस हफ्ते दुष्का मेरे घर आमंत्रित हैं। वाइन के बिना आमंत्रण वैसा ही, जैसे लवण हीन भोजन। जल्द पैर बढ़ाकर मैं घर के पिछले हिस्से में हूँ, सन्नाटा पसरा है। पड़ोस के फ्लैट की खिड़की के सफेद पर्दों के भीतर से पीली रोशनी छन कर बाहर आ रही है। कूड़ेदानों के पास हल्की खुरखुराहट है। जिज्ञासावस मेरी नजर वहाँ चली गई है। काले बूट और लंबा फ्रॅाकनुमा कोट पहने जो औरत अक्सर उस अपार्टमेंट में अक्सर आती-जाती दीखती है। वो सूखे कूड़ेदान के अंदर लगभग आधी लटकी हुई है। मैं अंजीर वृक्ष की ओट में हूँ। जहाँ लगभग अँधेरा है। जो दिन के उजाले में, ऊँची एड़ी के जूते चटखाती, तिरछा हैट पहने, हाथ में पालतू कुत्ते की चेन पकड़े इठलाती चलती है। वह शाम ढले कूड़ेदान में...? मुझे उत्सुकता है, थोड़ी ही देर में औरत के दस्ताने पहने हाथ बाहर निकलते हैं और नीचे रखे बड़े से पॅालीथीन में इस्तेमाल कर फेंके जूते, पुराने कपड़े, छाते, बर्तन और यूँ ही कई तरह का सामान रख देते हैं। कूड़ेदान में अधलटकी औरत बाहर आ चुकी है। हौले-हौले, बेआवाज, पॅालीथीन बैग की चुरमुराहट को भरसक नियंत्रित करते हुए बैग उठाती है। बड़ा है, शायद भारी भी लेकिन सँभाल लेती है और सधे कदमों से अपने फ्लैट की ओर! यहाँ बुजुर्गों को मामूली सरकारी पेंशन मिलती है। बेरोजगारी भत्ता भी लेकिन टैक्स का दबाव, महँगाई में वह पेंशन कुछ ज्यादा काम नहीं आती। द्रागित्सा से पूछने पर उसने मुस्कुराते हुए बात को टाल दिया, क्रोएशियन बहुत स्वाभिमानी होते हैं। विदेशी के सामने पड़ोसी के बारे में कुछ कहना उन्हें गवारा नहीं। भारत में आबोहवा के कारण घर में कभी कैद होने की नौबत ही नहीं आई। स्वेच्छा से घर में रहना और बाहरी दबाव से घर में कैद रहना दोनों में बहुत अंतर होता है। तब आप भीतर होकर भी बाहर ही होते हैं। कभी ठंडी खिड़की के पल्ले से नाक सटाए बारिश देख रहे होते हैं। कभी बर्फ से जम चुकी सावा नदी की ओर देखते हुए उसमें बहते पानी की कल्पना करते हैं। सावा के पुल पर गाड़ियों की आवाजाही है। लोग पार्क में पालतू कुत्ते और बिल्लियों को घुमाने ले आए हैं। बेंचों पर लोग अकेले दुकेले बैठे हैं। कोने के मैदान में कुत्तों को पालतू बनाने का प्रशिक्षण चल रहा है, कुत्ते अलग-अलग प्रजाति के हैं। जिनकी देख-रेख और सरंजाम काबिले तारीफ है लेकिन लोग इस बात का बहुत खयाल रखते हैं कि उनका पालतू कुत्ता किसी के लिए परेशानी का सबब न बने, शिकायत दर्ज होने पर जुर्माना बहुत कड़ा है। वैसे तो भारत में भी श्वानप्रेमी लोग हैं। हैदराबाद विश्वविद्यालय परिसर में एक प्राध्यापक इतने श्वानप्रेमी हैं कि अपने क्वार्टर के सामने रात में कुत्तों के लिए सामूहिक भोज रख देते हैं। परिसर के सारे आवारा कुत्ते अपने भूले-भटके साथियों को समवेत स्वर में आमंत्रित करने लगते हैं। भोजन कभी पर्याप्त नहीं, वंचित रह गए 'प्रोलेतोरियत'की तरह बुर्जुवाओं की ओर गुर्राते, भूँकते हैं। शक्तिशाली भोजन का बड़ा हिस्सा उदरस्थ कर श्वान सिंह हो जाते हैं और अब मध्यरात्रि तक चलने वाला कर्णभेदी श्वान-संगीत शुरू होता है। यहाँ की 'भौंक'कैंपस के बाहर वालों को भी भौंकने की कला-प्रदर्शन के लिए प्रेरित उत्तेजित करती है। पशुप्रेमी प्राध्यापक 'सर्वेभवंतु सुखिनः'के भाव से आराम फरमाते हैं और पड़ोसी संगीत-सम्मलेन की समाप्ति की प्रतीक्षा क्योंकि श्वानों को प्रताड़ित करना मेनका गांधी की टीम को आमंत्रित करना है। परिसर में श्वान प्रेम 'सुसंस्कृत'होने की पहचान भी है। एक अध्यापिका इतनी श्वान प्रेमी हैं कि कहीं भी रुककर उन्हें पुचकारने लगती हैं। अपरिचयीकरण के दौर में शायद यह व्यावहारिक राजनीति का हिस्सा हो, अपने परिचितों की अनदेखी करने का एक हथियार। उस क्षण हो सकता है कई मनुष्य श्वान रूप धरने को तरस जाते हों, जो भी हो। एक सप्ताह से तबियत नासाज है। दूतावास ने जिस डॅाक्टर के पास भेजा था उसे तगड़ा बिल बनाने के अलावा सिर्फ मुस्कुराना आता है, इसलिए दुबरावा के बड़े अस्पताल जाना पड़ा है। अस्पताल बहुमंजिला, साफ सुथरा, नर्स-डॅाक्टर चाक-चौबंद बाहरी हिस्से में कुछ दुकानें हैं जहाँ खूबसूरत चीजें बिक रही हैं। खुले आसमान के नीचे बेंचें लगी हुई हैं। क्यारियों में पौधे, फूल, लतरें, हवा में लैवेंडर की पत्तियों की गंध फैली हुई है। मैं यहाँ दो दिनों से हूँ। डॅाक्टर मिरनोविच गले-छाती के संक्रमण-विशेषज्ञ हैं। बताते हैं कि टाँसिलों में सूजन के कारण ज्वर आ रहा है।
अस्पताल का काम खत्म हुआ। अस्पताल की यात्रा मेरे लिए 'ए वेरी ईजी डेथ'की यात्रा भी थी, जिसने मुझे सीमोन और उसकी माँ के आपसी संबंधों को नई रोशनी में पहचनवाया। सीमोन के उपन्यास 'शी केम टू स्टे'और 'द मेंडरीन'ने नए दौर के स्त्रीवादी चेहरे को पहचानने में मदद की। उनके आत्मकथात्मक उपन्यासों से होकर गुजरना एक दिलचस्प और ईमानदार अनुभव रहा है। अस्पताल और बीमारी का यह समय मुझे सीमोन के और करीब ले आया है। 'मेमोआयर्स ऑफ अ ड्यूटी फुल डॉटर'में विश्वविद्यालय के पढ़ने के दौरान 'पुरुष की तरह दिमाग'होने की इच्छा व्यक्त करते हुए अपनी तुलना वह सार्त्र से करती हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि स्त्री के लिए पुरुष जैसी सोच होना संभव नहीं। 'प्राइम ऑफ लाइफ'में सीमोन ने होटलों में रहकर लिखने पढ़ने, एक के बाद दूसरा होटल बदलने का जिक्र किया है सोचती हूँ सीमोन अपनी आर्थिक जरूरतें कैसे पूरी करती होगी, यह भी कि होटलों में रहने का अर्थ हुआ कि आप हमेशा मेहमान हैं। बिस्तर, परदे, कुर्सी टेबल कुछ भी आपका अपना नहीं। सीमोन के अनुभव पढ़ते हुए पाठक सीखता है कि कैफेटेरिया में कैसे बैठना चाहिए, लोगों से कैसे मिलना चाहिए, बहसें, पढ़ना-लिखना और सोचने का सलीका भी। सीमोन कहती है कि कैफे में घुसते हुए यदि आप अपने ही दो आत्मीय मित्रों को आपस में बात करते हुए देखें तो उनके निकट बैठकर बातचीत में बाधा न डालें, बेहतर हो चुपचाप वहाँ से हट जाएँ। 'कहवाघर'भी पढ़ने लिखने की जगह हो सकती है। इसे सीमोन साबित करती है और यह भी कि कैसे वह बिना संग साथ की अपेक्षा के सन 1930 के आसपास मार्सिले और रोउन जैसे कस्बों में अध्यापन के वर्षों में लंबी सैरों के लिए निकल जाया करती थी। सोचती हूँ कि आज भी स्त्रियों के लिए उनका अपना 'स्पेस'खोजना मुश्किल होता है। भारतीय माहौल में कोई स्त्री कॅाफी हाउस में बैठकर लिखे, वो भी अकेली तो न जाने कितनी जोड़ी आँखें उसे बरजने को तत्पर हो जाएँगी। अब मेरी तबीयत बेहतर हो चली है। इन दिनों 'फोर्स टू सरकमस्टांसेज'पढ़ रही हूँ जिसमें सीमोन द बोउवार ने युद्धोत्तर पेरिस का चित्रण किया है। जिसमें नए और बेहतर समाज के निर्माण का स्वप्न है। स्वतंत्रता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध है। आत्मकथा के इसी भाग में उन्होंने नेल्सन एल्ग्रेन से अपने संपर्क की चर्चा की है। नेल्सन के साथ फायर प्लेस के समक्ष संभोग और फिर पेरिस और शिकागो में दोनों का अलग-अलग जीवन बिताना भी वर्णित है। भौगोलिक दूरी अपनी सात्यता में कैसे आत्मीय संबंध का अंत कर देती है। यह भी कि लिखने के लिए सीमोन ने पेरिस छोड़ना पसंद नहीं किया इसके साथ ही बोउवार की उत्तर अफ्रीका, अमेरिका की वे लंबी यात्राएँ जो उसने अकेले कीं। सीमोन को यह चिंता भी खाए जा रही थी कि इतने सारे व्यापक जीवनानुभव, जीवन यात्राएँ ये सब उसके साथ ही खत्म हो जाएँगी। 'आल सेड एंड डन'में अपने मित्र सिल्विए वान के साथ आत्मीय संपर्क की चर्चा करते हुए सीमोन का कहना है कि उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उम्र के साठवें वर्ष में उसे कोई सहयोगी और मित्र मिलेगा, लेकिन मिला। इन आत्मकथाओं में दो बातें मेरी समझ में आती हैं - एक तो आत्मनिर्भरता यानी अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठाना, दूसरे अपने को हमेशा बेहतर ढंग से समझने का प्रयास। सीमोन ने सार्त्र के साथ सहजीवन जिया लेकिन विवाह नहीं किया क्योंकि स्वाधीनता के अर्थ दोनों के लिए अलग-अलग थे। सीमोन लिखती है - "अद्भुत थी स्वाधीनता! मैं अपने अतीत से मुक्त हो गई थी और स्वयं में परिपूर्ण और दृढ़ निश्चयी अनुभव करती थी। मैंने अपनी सत्ता एक बार में ही स्थापित कर ली थी, उससे अब कोई मुझे कोई वंचित नहीं कर सकता था, दूसरी ओर सार्त्र एक पुरुष होने के नाते बमुश्किल ही किसी ऐसी स्थिति में पहुँचा था, जिसके बारे में उसने बहुत दिन पहले कल्पना की हो ...वह वयस्कों के उस संसार में प्रविष्ट हो रहा था, जिससे उसे हमेशा से घृणा थी।"
वैसे मैं अब उस खोज में हूँ जिस ओर आंद्रियाना मेस्त्रोविच ने इशारा किया था। लिलियाना के निजी जीवन के बारे में विशेष जानकारी नहीं थी, वैसे भी किसी के निज की तफ्तीश असभ्यता ही मानी जाती है। प्रेमचंद ने भी कहा है कि ऐसा कोई भी प्रश्न जो सामने वाले को असुविधा में डाल दे, नहीं पूछा जाना चाहिए। सीमोन द बोउवार के लेखन के साथ सफर करते-करते युद्धोत्तर यूरोप और उसकी बदली परिस्थितियों के बारे में जानना चाहती हूँ और इसके लिए एक बंद दरवाजा है मेरे सामने लिलियाना का, वह वार-विक्टिम है ऐसी सूचना मरियाना ने भी दी थी। मुझे जो जानना है वह या तो लिली बता सकती है या दुष्का। दुष्का बहुत भावुक है। पता नहीं मेरी बात का क्या अर्थ निकाले। अपने घावों को खुद नखोरना-कुदेरना और बात है और दूसरों के सामने खोलकर रख देना ...लिलियाना को विदेशी पसंद हैं विशेषकर गंदुमी साँवली रंगत। मेरे पास हैदराबाद से लाए हुए कुछ मोती हैं। उन्हें 'गिफ्ट रैपर'में लपेट कर मैंने लिलियाना के घर जाना तय किया है। दुष्का साथ है। लिली खूब स्वस्थ, लंबी चौड़ी, लगभग पचास की उम्र छूती महिला है, जो सिर्फ सफेद टायलेट पेपर खरीदती है - रंगीन टायलेट पेपर के इस्तेमाल से कैंसर हो जाता है। ऐसा विश्वास है उसे। सन की तरह सुनहरे सफेद बाल, मैजेंटा रंग की गहरी लिपस्टिक, कड़कती ठंडी शाम में भी वह गर्दन और वक्ष का ऊपरी भाग खुला रखती है। लोगों को देख ढलके वक्ष को थोड़ा सहारा देकर, ऊपर उठा गर्दन अकड़ा कर चलना उसकी आदत में शुमार है। हाई हील और ऊँची स्कर्ट पहने वह संभ्रांत लोगों के बीच उठती-बैठती है उसके हाव-भाव मेरी अब तक की जानी चीन्ही स्त्रियों से अलग हैं। सन 1992-95 के दौरान क्रोएशिया, बोस्निया-हर्जेगोविना में जो स्त्रियाँ सर्ब सेनाओं के दमन का शिकार हुईं - लिली उनमें से एक हैं। युद्ध के दौरान बलात्कार, यौन हिंसा के हजारों मामले आए, कुछ मामले सरकारी फाईलों में दब गए, कुछ भुला दिए गए और कुछ शिकायतें वापस ले ली गईं। कुछ स्त्रियाँ मार दी गईं। कुछ अवसाद और अन्य रोगों का शिकार हो गईं। हालाँकि जेनेवा कन्वेशन में युद्ध के दौरान यौन हिंसा और सैनिकों द्वारा स्त्रियों के एकल या सामूहिक बलात्कार को मानवता के विरुद्ध जघन्य अपराध माना गया लेकिन पूरे विश्व में युद्ध नीति के तहत स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा एक अलिखित चर्या है। युद्ध काल के बलात्कार सामान्य बलात्कारों से अलग माने जाते रहे हैं। इनमें से बहुत से वाकयों की तहकीकात भी नहीं हो पाती। कई बार शोषिताएँ और घर्षिताएँ सामने भी नहीं आतीं। लिलियाना उन 68 बोल्ड औरतों में से एक है जिसने व्यापक सामूहिक बलात्कार की घटना की न सिर्फ रिपोर्ट दर्ज की, बल्कि वक्त और परिस्थितियों के आगे हार नहीं मानी, मृत्यु और जीवन, मूकता और बोलने में से जीवन का चुनाव किया, चुप नहीं रही। प्रथम और द्वितीय दोनों विश्व युद्धों में कई देशों में सैन्य और अर्ध सैन्य बलों ने सामूहिक बलात्कार की अनगिनत घटनाओं को अंजाम दिया। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वेल्जियम और रशिया औरतों के लिए सामूहिक मरण स्थली बने, वहीं दूसरे विश्व युद्ध के दौरान रूस, जापान, इटली, कोरिया, चीन, फिलिपींस और जर्मनी में बड़े पैमाने पर स्त्रियों को घर्षित किया गया। आपसी छोटी-बड़ी मुठभेड़ों में अफगानिस्तान, अल्जीरिया, अर्जेंटीना, बांग्लादेश, ब्राजील, बोस्निया, कंबोडिया, कांगो, क्रोएशिया साइप्रस, अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, हैती, भारत, इंडोनेशिया, कुवैत, कोलंबो, लाइबेरिया, मोजांबीक, निकारागुआ, पेरू, पाकिस्तान, रवांडा, सर्बिया, सोमालिया, टर्की, युगांडा, वियतनाम और जिंबांबे जैसे देशों की लंबी सूची है - जहाँ यौन हिंसा और स्त्री घर्षण की घटनाएँ हुईं और बड़े-बड़े भाषणों, राजनैतिक समझौतों के बीच प्रतिरोधी आवाजें दब गईं, दबा दी गईं।
अब मुझे लिलियाना का पैर हिलाते हुए कंसर्ट सुनना, अंधाधुंध सिगरेट पीना, एक आँख को हल्का दबाकर हँस देना अटपटा नहीं लगता। स्प्लित के चार सितारा होटल का मालिक आजकल लिली पर दिलोजान से फिदा है। लिली का कहना है इन गर्मियों में वह स्प्लित जाकर पूरे साल का खर्चा निकाल लेगी। वह 'एस्कोर्ट'है। जिसके साथ के लिए व्यापारी, पर्यटक अच्छी रकम खर्च करते हैं। लिली अपने बारे में गंभीरता से बात नहीं करती। उसने यौन हिंसा और सामूहिक बलात्कार झेला है। वह हँसती है जिंदगी पर। उसके साथ ही चवालीस स्त्रियाँ (जो अभी जीवित हैं) सर्ब सैनिकों से कई बार घर्षित हुईं। इनमें से 21 यौन दासियों के रूप में सैन्य शिविरों में रहीं और 18 ऐसी वृद्धाएँ थीं जो किसी न किसी बलात्कार की साक्षी रहीं। इनमें से 29 स्त्रियाँ बलात्कार के कारण गर्भवती हुईं जिनमे से 17 ने शर्म और अपमान से बचने के लिए गर्भपात करा लिया। कुछ ने संतान पैदा करके सरकारी अनाथालय में मुक्ति पाई। लिली का एक मात्र बेटा जो ड्रग के शिकंजे में सरकारी पुनर्वास योजना का मेहमान बना हुआ है, 1996 में ही जन्मा। लिलियाना को सब कुछ याद है ब्यौरेवार, लेकिन याद करना नहीं चाहती। मैं भी उसे ज्यादा परेशान नहीं करती और अपने फ्लैट पर वापस आ जाती हूँ।
नींद नहीं आ रही। क्या हुआ होगा लिलियाना जैसी सैकड़ों लड़कियों का? क्या गुजरी होगी उन पर। मैं घुप्प अँधेरे में हूँ ...कोई चेहरा नहीं, सिर्फ कराहें ...विक्टर फ्रैंकल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 'मैन्स सर्च फ़ॅार मीनिंग'शीर्षक पुस्तक लिखी थी, जिसमें आश्वित्ज़ के यातना शिविर की दैनंदिनी है। फ्रैंकल का कहना है कि जिस रूप में बंदी अपने भविष्य के बारे में सोचता था उसकी उम्र उसी पर निर्भर करती थी। उसने 'लोगो थेरेपी'का सिद्धांत दिया और बताया कि जिनके पास जीने का कोई कारण होता है, वे कैसे भी जी लेते हैं। इन यौन दासियों के पास जीने का क्या कारण होगा। पति, बच्चों, माँ, सास के सामने निर्वस्त्र और बलात्कृत की जाती, महीने दर महीने साल-भर उनके अपमान और यातना की कोई सीमा नहीं। उनके पास जीने का क्या कारण बच रहा होगा? अर्ध निद्रा में मुझे आश्वित्ज़ का यातना शिविर दीख रहा है। बेचैनी, पसीना और घबराहट ...गोद में बच्चा लिए लिलियाना दौड़ रही है। काँटेदार बाड़ के पास सैनिक ही सैनिक गोरे लाल मुँह वाले लंबे चौड़े सैनिक। लिलियाना को नोच रहे हैं। घसीट रहे हैं। उसके मुँह पर थूक रहे हैं। पैरों को फैला रहे हैं। बछड़ा पैदा करती गाय सी डकरा रही है। वह उसके ऊपर एक-एक करके लद गए हैं। लिली ...लिली ...लिलियाना.. अपनी चीख से नींद टूट गई है ...उठकर देखा है फोन पर कुछ संदेश आए हैं। ...पानी पिया है कभी की पढ़ी पंक्ति याद आती है -
तुमि गुछिए किछू कथा बोलते पारो ना
शुधू समय निजेर गल्पो बोले जाए
ठीक ही तो, कहाँ लिख पा रही हूँ खूब व्यवस्था से। लिलियाना जैसी अनेकानेक ने मेरा चैन छीन लिया है। दिन-रात उन्हीं के बारे में सोचती हूँ और ...और जानना चाहती हूँ। जिनकी कथा समय ही लिखेगा लेकिन कब ?
लिलियाना और ईगोर ने मुझे पार्टी में चलने को कहा है। मैं थोड़े पशोपेश में हूँ। शाकाहारी और मदिरा से परहेज करने वाला भारतीय संस्कार चोले में मुँह दबाए हँस रहा है। पिता को मालूम चला और पितातुल्य गुरु नित्यानंद तिवारी, वे तो अविश्वस्त नेत्रों से ताकेंगे भर मुझे। लिली बताती है कि वहाँ कुछ औरतें मिलेंगी मुझे, जो हो सकता है अपने बारे में कुछ बोलें। खैर हम शलाटा जाते हैं जहाँ से 'पॅाट पार्टी'में जाना है। इसके बारे में मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं। लेकिन पहुँचते ही लगा नशीले धुएँ से भरा माहौल दम घोंट देगा। कई लोग जिनमें लड़कियों की संख्या बहुत थी - हशीश, चरस, गांजा, आदि का सेवन कर रहे हैं। बिना पिए ही सिर चकराने लगा। लोग चुप लेटे हैं, कोई छत ताक रहा है कोई दम लगा रही है। हल्का संगीत बज रहा है। ध्यान से सुना श्री श्री रविशंकर की सभाओं में बजने वाला हरे कृष्णा ...राधे राधे यहाँ की हवाओं में झंकृत है। मैं बाहर जाना चाहती हूँ। इस दमघोंटू माहौल में आकर गलती की ...उफ नहीं आना चाहिए था। दीवार से सटकर एक जोड़ा खड़ा है। लड़के ने आगे बढ़कर मुझसे कुछ कहा है और हौले से मेरे बाल छुए हैं 'जेलिम दोटाक्नुटी स्वोजे क्रेन ड्लाके' (मैं तुम्हारे काले बाल छूना चाहता हूँ) सुनते ही मैं दौड़कर बाहर आ गई जैसे नरक कुंड से बचकर लौटी हूँ लिलियाना और ईगोर का कुछ पता नहीं। मैंने तीन ट्रामें बदली हैं और सुरक्षित लौट आने के सुकून ने मुझे गहरी नींद दे दी। अगले रविवार लिलियाना हँसकर कहती है 'नेमोज्ते से प्रेपाला'यानी डरो मत। यहाँ जबरदस्ती कोई कुछ नहीं करेगा, तुम्हारे बाल काले हैं, जो यहाँ वालों के लिए कुतूहल है।
तुर्केबाना येलाचीचा जाते हुए ट्राम लोहे की ईटों की सड़क के बीचोंबीच बने हुए ट्रैक पर मुड़ती है। गोल इमारत के ऊँचे-ऊँचे काँचदार दरवाजे जिनके भीतर भांति-भांति की दुकानें हैं। ऊनी, सूती वस्त्र,जो अधिकतर भारत और चीन के टैग से सुसज्जित हैं। जूते वियतनाम और थाईलैंड के बिक रहे हैं। दुकानदार की शक्ल दुमकटे लोमड़ जैसी है। सपाट चेहरे पर लाल नाक और गहरी कंजी आँखें, व्यवहार में विनम्र दीखता है लेकिन लाल भूरे बालों के भीतर रखे सिर में कुछ ऐसा खदबदा रहा है, जिसे मैं 'रंगभेद'समझती हूँ। साँवली रंगत का मनुष्य उसके बहुत सम्मान का पात्र नहीं। ऐसी गंध मेरी छठी इंद्रिय को मिल रही है। दुकान के बाहर कोने पर एक छह-सात वर्षीय गोरे, चित्तीदार चेहरे वाला लड़का शीशे से अपनी नाक सटाए है। बड़ा सा लबादा पहना हुआ है उसने पैरों में नाप से बड़े जूते। दुकानदार को बाहर आता देख वह खरगोश की तरह फुदक कर गायब हो जाता है। इसके बाद ही जाग्रेब की मशहूर केक की दुकान है। जहाँ क्रोएशियन और जर्मन केक की ढाई-सौ से अधिक किस्में अपने पूरे शबाब के साथ शीशे की पारदर्शी अल्मारियों में भारी जेब के दिलदार खवैयों का इंतजार कर रही हैं। तुर्की की विजिटिंग प्रोफेसर गुलदाने कालीन ने इस दुकान की पेस्ट्री की तारीफ कई बार की है। आज सोचा खा ही लूँ। इन केक्स की खूबी इनकी क्रीम है जो मनुष्य के मेदे और वजन को चुनौती देती है। मनचाहा सजीला सँवरा, क्रीम में लिपटा, बारीक डिजाइन दार केक का रसीला बड़ा-सा टुकड़ा प्लेट में सामने है। कीमत है पचास कूना यानी लगभग पाँच सौ रुपये। अपने यहाँ भी 'बरिस्ता'में लगभग यही दाम है। केक का पहला टुकड़ा काटती हूँ कि दुकान का मैनेजरनुमा आदमी बाहर खड़े बच्चे को दुरदुराता हुआ चिल्लाता है। हाथ में आलू चिप्स का फटा पैकेट लिए बच्चा दुकान के बीचोंबीच आ गया है। कर्मचारी लड़का उसका लबादा खींच कर घसीट रहा है, दुकान में सुरक्षा सायरन बजने लगा। बच्चा कुछ बोल नहीं पा रहा है, मेरे पहुँचते-पहुँचते बच्चा फुटबाल की तरह सड़क पर फेंका जा चुका है। पूछने पर वह दुकान के कूड़ेदान की ओर इशारा करता है। 'जा सम ग्लादना' (मैं भूखा हूँ) कहकर जार जार रो रहा है। अनुमान करती हूँ कि किसी के अधखाए चिप्स उठाकर बच्चा पेट भर रहा होगा और दुकान मालिक ने देख लिया होगा। मुझे अब केक नहीं खाना। शायद कभी नहीं। खून से बच्चे की नाक रंग गई है। केक खरीदती हूँ उसके लिए वह सुबकता हुआ जा रहा है। शायद शरणार्थी है। हाथ की मुट्ठी में दबे केक की सफेद क्रीम लाल हो रही है। उफ मेरे मौला ऐसे न जाने कितने बच्चे दर-ब-दर हो भटक रहे हैं - सम्मानहीन, भोजनहीन, आश्रयहीन, स्वयंसेवी संस्थाएँ हैं, सरकारें हैं, लेकिन हम अपना सुख भोग छोड़कर इनकी तरफ देखते हैं क्या? मन नम है और बाहर बरसात शुरू हो गई है -
पास रहो डर लग रहा है
लग रहा है कि शायद सच नहीं है यह पल
मुझे छुए रहो
जिस तरह श्मशान में देह को छुए रहते हैं
नितांत अपने लोग,
यह लो हाथ
इस हाथ को छुए रहो जब तक पास में हो
अनछुआ मत रखो इसे,
डर लगता है
लगता है कि शायद सच नहीं है यह पल
जैसे झूठ था पिछला लंबा समय जैसे झूठा होगा अगला अनंत
                                (नवनीता देवसेन)
जाग्रेब पुनर्वास केंद्र में औरतें जीवन यापन के लिए छोटे-मोटे काम सीखतीं हैं जिनमें सामान की पैकेजिंग, मुरब्बे, जैम, अचार, मसाले इत्यादि बनाना शामिल है। बोस्निया-हर्जेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ युद्ध में सर्बिया ने नागरिक और सैन्य कैदियों के कुल 480 कैंप बनाए थे। क्रोएशियन और बोस्निया नागरिकों को डराने के लिए उनकी स्त्रियों पर बलात्कार किए गए। आक्रमणकारी छोटे-छोटे समूहों में गाँवों पर हमला करते जिनका पहला निशाना होतीं लड़कियाँ और औरतें। सामूहिक बलात्कार का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता ताकि दूसरे गाँवों को अपने हश्र का अंदाजा हो जाए। 1991-1995 के दौरान सर्ब सैनिकों ने सैन्य कैंपों, होटलों, वेश्यालयों में बड़े पैमाने पर यौन हिंसा के सार्वजनिक प्रदर्शन किए। बोस्निया और हर्जेगोविना पर जब तक सर्बिया का कब्जा रहा। किसी उम्र की स्त्री ऐसी नहीं बची जिसका घर्षण या बलात्कार न किया गया हो। लिली और दुष्का को पर्यटन विभाग में नौकरी मिली और वह जाग्रेब चली आईं। सर्ब होते हुए भी वे दोनों क्रोएशियन नागरिक थीं और उससे भी पहले थी लड़कियाँ - ताजा, जिंदा, टटका स्त्री मांस। लिली उन अभागी लड़कियों में से एक थी, जिन्हें नोचा-खसोटा और पीटकर कैद में रखा गया। कई लड़कियों को अश्लीलता के सार्वजिनक प्रदर्शन के लिए बाध्य किया जाता रहा, यौनांगों को सिगरेट से दागा गया और एक दिन में कई बार बलात्कार किया जाता रहा। इस पुनर्वास केंद्र ने ऐसी स्त्रियों को स्वावलंबी बनने में मदद की थी और यह सिलसिला अब भी जारी है। युद्ध शुरू होते ही परिवार के परिवार गाँवों को छोड़कर भाग जाते, पीछे छूट जाते खेत, ढोर डंगर और पकड़ ली गई औरतें। जिनकी उम्र दस से लेकर साठ-सत्तर वर्ष की हुआ करतीं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के अत्याचारों को युद्ध अपराध की संज्ञा दी गई, युद्ध थमने के बाद भी यौन-हिंसा की शिकार इन औरतों के लिए कोई ठोस सरकारी नीति नहीं बनी। विश्व के कई देशों, मसलन सोवियत यूनियन ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी पर आधिपत्य जमाने के लिए 'बलात्कार'का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। इसी तरह बांग्लादेशी स्त्रियों का पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बड़े पैमाने पर घर्षण किया गया, युगांडा के सिविल वार और ईरान में स्त्रियों से जबरदस्ती यौन संबंध बनाकर अपमानित करने की घटनाओं से हम सब वाकिफ हैं। चीन के नानकिंग में जापानी सेना द्वारा स्त्रियों का सामूहिक यौन-उत्पीड़न, दमन और श्रीलंकाई स्त्रियों के घर्षण के हजारों मामले 'नव साम्राज्यवाद'को फैलाने के लिए जोरदार और कारगर हथियार बने। कई स्त्रीवादियों ने वृत्त चित्रों, फिल्मों द्वारा इस तरह की घटनाओं के खिलाफ जनमत संग्रह के कारगर प्रयास भी किए, लेकिन बोस्निया और हर्जेगोविना की औरतों की बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चर्चा का विषय कभी बनी ही नहीं। क्रोएशिया से सटे बोस्निया जाने का निर्णय मैंने किया है, जिसके लिए भारतीय दूतावास से अनुमति अनिवार्य है।
दूतावास में बोस्निया जाने की अनुमति आसानी से ही मिल गई लेकिन वहाँ के अधिकारी बड़े दबे स्वर में उपहास करते हैं - 'लोग तो पेरिस और इटली, जर्मनी घूमते हैं, मजे करते हैं और आप 'वार विक्टिम'के पीछे पड़ी हैं।'बोस्निया में लूट, भ्रष्टाचार, झूठ, राहजनी सभी कुछ है लेकिन हरियाले खेतों के बीच से जाती सड़क का रास्ता बुरा नहीं। बोजैक बोस्नियाई विद्यार्थी है, जो जाग्रेब में पढ़ता है साथ ही कुछ रोजगार भी उसकी उम्र पचास के ऊपर ही है। उसके सामने ही उसकी आठ वर्षीया बेटी और पत्नी को बार-बार घर्षित किया गया। बच्ची तीन दिन तक रक्त में डूबी रही, सैनिक उससे खेलते रहे। इस बीच कब उसने अंतिम साँस ली, पता नहीं। बोजैक वह जगह दिखाता है जहाँ उसकी पत्नी दिल की बीमारी और अवसाद से मर गई। 'लाइफ मस्ट गो ऑन'कहकर बोजैक फटी आँखों से हँसता है और अगला युद्ध कैंप दिखाने चल पड़ता है। बच्ची को खोकर, बाद के वर्षों में उसकी पत्नी प्रभु ईसू से अपने अनकिए पापों के लिए दिन भर क्षमा माँगा करती। उसका पाप क्या था? इसके उत्तर में बोजैक कहता है - 'औरत होना...'। शांति स्थापित होने के बाद भी जिन्होंने युद्ध को अपनी देहों पर रेंगता, चलता, बहता महसूस किया, एक बार नहीं अनेक बार जिनकी कोखों ने क्रूर सैनिकों के घृणित वीर्य को जबरन वहन किया, वे हमेशा के लिए हृदय और मानसिक रोगों का शिकार हो गईं। रवांडा में तो अकेले 1994 में लगभग 5000 बच्चे युद्ध हिंसा के परिणामस्वरूप जन्मे थे। क्रोएशिया में ऐसे बच्चों की सही संख्या का पता कोई एन.जी.ओ. नहीं लगा सका, क्योंकि अधिसंख्य मामलों मे लोग चुप लगा गए, पड़ोसी नातेदार सब जानकर भी घाव कुरेदने से बचते रहे। युद्ध सबके दिलो-दिमाग में पसर गया। बलात्कार की शिकार या गवाह रही अधिकांश स्त्रियाँ मृत्युबोध से ग्रस्त हैं। वे सामाजिक संबंध भी स्थापित नहीं करना चाहतीं। कई तो बस सालों तक टुकुर-टुकुर ताकती रहीं। कुछ बोल नहीं पातीं। कुछ ने अपना घर बार छोड़ दिया और फिर कभी यौन संबंध स्थापित नहीं कर पाईं। एक मोटे अनुमान के अनुसार बोस्निया में युद्ध के दौरान लगभग पचास हजार लड़कियाँ औरतें बलात्कार का शिकार हुईं और उधर 'इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल फ़ॅार द फार्मर युगोस्लाविया'यौन दासता और बलात्कार को मानवता के प्रति अपराध के रूप में दर्ज कर कागज काले करता रहा।
संयुक्त युगोस्लाविया का विखंडन बोस्निया और हर्जेगोविना, क्रोएशिया, मैसीडोनिया गणतंत्र, स्लोवेनिया जैसे पाँच स्वायत्त देशों में हुआ था, जो बाद में चलकर सर्बिया, मांटेग्रो और कोसोवो में बँटा क्रोएशियाई लोगों के बीच जो युद्ध और झड़पें हुईं उनमें से अधिकतर भूमि अधिग्रहण को लेकर थीं आज भी सात हजार से अधिक क्रोएशियन शरणार्थी बोस्निया और हर्जेगोविना में हैं और इस देश में लगभग 131,600 लोग विस्थापित हैं। क्रोएशिया और बोस्निया की 935 कि.मी. की सीमा साझा है। हमें यहाँ पर धोखाधड़ी से बार-बार क्रोएशियन दूतावास, जो सराजेवा में है - आगाह किया गया है। रास्ते में कई बार पासपोर्ट और वीजा 'चेक'किया गया। मुझे यहाँ के खस्ताहाल संचार साधनों और सड़कों को देखकर भारत के कई छोटे शहरों की याद आती है। पूरे इलाके में बारूदी सुरंगों का खतरा है, इसलिए पुलिस ट्रैफिक को रोककर घंटों पूछताछ करती है। पुराने लोग अंग्रेजी नहीं समझते जबकि नई पीढ़ी अंग्रेजी बोलती और समझती है। युद्ध के दौरान कई बोस्नियाई जर्मनी भाग गए थे, इसलिए इनकी भाषा में जर्मन शब्दों का आधिक्य है। हमें उना नदी में रिवर राफ्टिंग का आमंत्रण है लेकिन मेरा ध्यान कहीं और है।
कल लिली ने 1993 के लास एंजिल्स टाइम्स में प्रकाशित मिरसंडा की आपबीती दी थी। होटल लौट कर मैंने वही टुकड़ा उठाया है - "रोज रात को सफेद चीलें हमें उठाने आतीं और सुबह वापस छोड़ जातीं। कभी-कभी वे बीस की तादाद में आते। वे हमारे साथ सब कुछ करते, जिसे कहा या बताया नहीं जा सकता। मैं उसे याद भी नहीं करना चाहती। हमें उनके लिए खाना पकाना और परोसना पड़ता नंगे होकर। हमारे सामने ही उन्होंने कई लड़कियों का बलात्कार कर हत्या कर दी, जिन्होंने प्रतिरोध किया, उनके स्तन काट कर धर दिए गए।
ये औरतें अलग-अलग शहरों और गाँवों से पकड़ कर लाई गई थीं। हमारी संख्या लगभग 1000 थी। मैंने लगभग चार महीने कैंप में बिताए। एक रात हमारे सर्बियाई पड़ोसी के भाई ने हममें से 12 को भगाने में मदद की। उनमें से दो को सैनिकों ने पकड़ लिया। हमने कई दिन जंगल में छुप कर बिताए अगर पड़ोसी हमें न बचाता तो मैं बच नहीं पाती, शायद अपने को मार लेती, क्योंकि मैं जिस यातना से गुजरी, उतनी यातना तो मृत्यु में भी नहीं होती।
"कभी-कभी मुझे लगता है कि रात के ये दुःस्वप्न मेरा पीछा कभी न छोड़ेगें। हर रात मुझे कैंप के चौकीदार स्टोजान का चेहरा दीखता है। वह उन सबमें सबसे निर्मम था, उसने दस साला बच्ची को भी नहीं बख्शा था। ज्यादातर बच्चियाँ बलात्कार के बाद मर जाती थीं। उन्होंने बहुतों को मार डाला। मैं सब कुछ भूलना चाहती हूँ, नहीं तो मर जाऊँगी।"
पढ़कर मेरा मन घुटन से भर गया है, भूख नींद गायब हो गई है। स्काइप खोलकर देखा है। कोई मित्र-आत्मीय ऑनलाइन नहीं है। इस समय भारत में आधी रात होगी। दिल बहलता नहीं। बाल्कन प्रदेश के पार से आती गुम-सुम बोझिल हवाओं के घोड़ों पर सवार लंबे कद्दावर क्रूर सर्बियाई सैनिक दीखते हैं। हवा में तैरती चीखें और पुकारें हैं। 1992 में फोका की स्कूल जाने वाली लड़की बताती है कि कैसे जोरान वुकोविच नामक आदमी ने उससे जबरदस्ती संसर्ग किया और बाद में दूसरों के आगे परोस दिया। स्कूल में सैनिकों का जत्था घुसा और आठ लड़कियों को चुनकर उनसे निचले कपड़े उतारकर फर्श पर लेटने को कहा। पूरी क्लास के सामने इन आठों का जमकर बलात्कार किया गया। सैनिकों ने बोस्नियाई मुसलमान लड़कियाँ चुनीं, उनके मुँह में जबरन गुप्तांग ठूसे और कहा - "तुम मुसलमान औरतें (गाली देकर) हम तुम्हें दिखाते हैं।"उसके पास कोई शब्द ऐसा नहीं, जो उसकी यातना व्यक्त करने में सक्षम हो - बार-बार यही कहती है 'एक औरत के साथ इससे बदतर कुछ हो ही नहीं सकता'
उसे बाद में पाट्रीजन स्पोर्ट्स हॅाल में, अलग-अलग उम्र की लगभग साठ अन्य स्त्रियों के साथ बंधक बनाकर रखा गया। वे बारी-बारी सर्ब सैनिकों द्वारा ले जाई जातीं और बलात्कार के बाद लुटी-पिटी घायल अवस्था में स्पोर्ट्स हाल में बंद कर दी जातीं। सर्ब सेनाओं ने घरों, दफ्तरों और कई स्कूलों की इमारतों को यातना-शिविरों में बदल डाला था। एक बोस्नियाई स्त्री ने बताया कि पहले दिन हमारे घर पर कब्जा करके परिवार के मर्दों को खूब पीटा गया। मेरी माँ कहीं भाग गई - बाद में भी उसका कुछ पता नहीं चल पाया। वे मुझे नोचने, खसोटने लगे। भय और दर्द से मेरी चेतना लुप्त हो गई ...जब जगी तो मै पूरी तरह नंगी और खून से सनी हुई फर्श पर पड़ी थी ...यही हाल मेरी भाभी का भी था ...मैं जान गई कि मेरा बलात्कार हुआ है ...कोने में मेरी सास बच्चे को गोद में लिए रो रही थी। ...उस दिन से हमें हमारे ही घर में कैद कर दिया गया। यह मेरी जिंदगी का सबसे बुरा वाकया था ...वे हमेशा हमें पंक्तिबद्ध कर सैनिकों के सामने ले जाते और हमें परोस देते। मकान में वापस लाकर भी अश्लील हरकतों के लिए मजबूर करते और हमें रौंदते ...हमारे बच्चों के सामने भी हमें खसोटते। ये सब एक साल तक चला, अधिकतर औरतें या तो मर गईं, पागल हो गईं या वेश्याएँ बन गईं।"
युद्ध के बाद 'डेटन एकार्ड्स'नाम से शांति समझौता हुआ था, जिसके अनुसार यौन-हिंसा पीड़िताओं को घर-वापसी पर मकान और संपत्ति दी जानी थी लेकिन ऐसी बहुत कम औरतें थीं, जो घर वापसी के लिए तैयार थीं अधिकांश ने अपने मकानों में लौटने से इनकार कर दिया क्योंकि वहाँ उनकी यातना और अतीत के नष्ट जीवन के स्मृति चिह्न थे।
अप्रैल 1992 का दिन इतने वर्षों बाद भी हासेसिस नामक मुस्लिम स्कूली छात्रा भूल नहीं पाई है, जब सर्ब सैनिक उसे विजेग्राद के पुलिस स्टेशन के तहखाने में ले गए -"उस कमरे में लकड़ी का बहुत-सा सामान था कुर्सियाँ वगैरह। वहाँ मैंने मिलान ल्युसिक और स्ट्रेजो लूसिक को देखा। मैं मिलान को अच्छी तरह जानती थी। उसने चाकू लहराते हुए कहा - 'अपने कपड़े उतारो - लगा वह मजाक कर रहा है ...लेकिन सच यही था कि इतना पुराना सर्बियाई पड़ोसी कई सैनिकों के साथ मुझे अपमानित करने पर तुला था...l"
स्पाहोटल 'विलिना व्लास', जो आज पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है - विश्वास नहीं होता पर मुझे बताया जाता है कि यहाँ दो सौ औरतों को बंद करके रखा गया था। बूढ़ी बाल्कन स्त्री को तारीख याद नहीं लेकिन वाकया बखूबी याद है - "मैं अपने बेटे को लेकर जंगल में छिप गई थी। मेरा 16 साल का बेटा मेरे साथ था लेकिन बेटी को मैंने घर के तहखाने में छिपा दिया था, क्योंकि सुनने में आया था कि वे लड़कियाँ उठा ले जाते हैं। उन्होंने मुझे पकड़कर धमकाया, बेटे के सामने मेरे कपड़े उतारे और चाकू से बेटे का गला रेत दिया। 'मम्मी'यही अंतिम शब्द था। जो मेरा बेटा बोल पाया। कभी-कभी वे मुझे दो दिन के लिए कैंप ले जाते, फिर होटल वापस छोड़ जाते। मैं गिनती ही भूल गई कि उन्होंने कितनी बार मुझसे बलात्कार किया। होटल के सारे कमरों में ताले लगे रहते, वे खिड़की के रास्ते हमें रोटी फेंकते, जिसे हमें दाँतों से पकड़ना पड़ता, क्योंकि हमारे हाथ तो पीछे बँधे रहते। सिर्फ बलात्कार के वक्त ही हमारे हाथ खोले जाते। हमें समय का ज्ञान भूल गया। हमारी देह को सिगरेट से जलाया जाता, जीभ पर चाकू चलाकर मांस का टुकड़ा काट लिया जाता। हममें से अधिकांश औरतें न बोलती थीं, न रोती थीं। कुछ ने अपनी जान भी ले ली और कई तो दर्द और भूख से मर गईं। कई औरतों का सात से नौ घंटे के बीच नौ बार बलात्कार हुआ। कुछ बलात्कारों की रिकार्डिंग भी की गई, जिनका इस्तेमाल पोर्नोग्राफी के बाजार के लिए किया गया।"
ये बलात्कार किसी सरकार द्वारा नहीं बल्कि व्यक्ति विशेष द्वारा किए गए थे, इसलिए कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों का मानना था कि ये मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है क्योंकि उन्हें लगता था कि सिर्फ सरकारी संगठन ही मानवाधिकारों का उल्लंघन कर सकते हैं, लेकिन बाद में जब बोस्निया सरकार ने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सर्ब सैनिक टुकड़ियों की हिंसा को 'जेनोसाइड'कहा और 1993 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने पहली बार 'अंतरराष्ट्रीय युद्ध अपराध ट्रिब्यूनल'की घोषणा की, तब ऐसे कुछेक मामलों की सुनवाई आरंभ हुई। इन सुनवाइयों में कभी आरोपी की पहचान से इनकार किया गया तो कभी मुद्दई ने आरोप वापस ले लिए। दिलचस्प यह भी था कि ट्रिब्यूनल के पास सुनवाइयों की व्यवस्था के लिए धन का नितांत अभाव था, जिसकी पुष्टि 7 दिसंबर 1994 के न्यूयार्क टाइम्स की रपट करती है। दुखद आश्चर्य था कि ट्रिब्यूनल की 18 सदस्यीय जाँच समिति में मात्र तीन स्त्रियाँ थीं। लंबी प्रक्रिया के बाद बोस्निया में यातना शिविर चलाने और हिंसा के लिए 21 सर्ब सैनिक कमांडो को दोषी पाया गया। न्यायालय ने कहा कि 'ओम्सिका कैंप में स्त्रियों को बंधक बनाया गया, बलात्कृत कर जान से मारा गया। कइयों को बुरी तरह पीटा और अन्य बर्बर ढंग के बर्ताव किए गए।"न्यूयार्क में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून की विशेषज्ञ रोंडा कोंप्लोन का मानना था कि स्त्रियों की अनुमति/सहमति के बिना ऐसे मामलों में उनकी पहचान को सार्वजनिक करना गलत है। बोस्निया की मुस्लिम बहुल आबादी में ऐसी स्त्रियाँ बहुत कम थीं, जो आरोपियों को पहचानने के लिए आगे आईं।
बोस्निया युद्ध हिंसा की शिकार अधिकांश स्त्रियों को न्याय नहीं मिला। कुछ मर-खप गईं और कुछ दूसरी जगहों पर बस गईं। युद्ध में शक्ति प्रदर्शन, लिंग विशेष के प्रति संचित घृणा ही बलात्कार जैसे कृत्यों में परिणत होती है। बलात्कार और यौन हिंसा एक तरह की 'युद्ध रणनीति'है, जिसके लिए कठिनतम और कठोर दंड का प्रावधान जब तक नहीं होता तब तक बलात्कार के शिकार बच्चों, स्त्रियों या अन्य किसी भी व्यक्ति को न्याय नहीं मिल सकता। युद्धकालीन यौन हिंसा की ओर से आँखें मूँदे रखना अधिकांश देशों की अघोषित राष्ट्रीय रणनीति है, लेकिन कागज पर विश्व के तीन चौथाई देशों ने युद्ध के दौरान यौन-हिंसा को खत्म करने के लिए 'डेक्लरेशन ऑफ कमिटमेंट टू सेक्सुअल वायलेंस इन कॅानफ्लिक्ट्स'पर दस्तखत कर रखे हैं।
लौटने के पहले बोस्निया के ल्युकोमीर गाँव की तरफ हम घूमने गए हैं, कहा जाता है कि यह यूरोप में सबसे ऊँचाई पर बसा हुआ गाँव है जहाँ आज भी आदिम सभ्यता सुरक्षित है। बिजली और आधुनिक उपकरणों के बिना जीवन-यापन आराम से हो रहा है। इसमें मेरे लिए आश्चर्य वाली कोई बात नहीं क्योंकि भारत में आज भी कई गाँव बिजली जैसी सुविधा से वंचित हैं। लिलियाना मुझे घुमाने में थक गई है, मेकअप की गहरी परत के भीतर छिपा विषाद उसके चेहरे पर दिख रहा है। पूरे रास्ते उसने मेरा कंधा पकड़ रखा है। शायद सब कुछ कह देने के बाद मनुष्य कमजोर हो जाता है। रवींद्रनाथ ने अंतिम यूरोप यात्रा से लौटकर शांतिनिकेतन में कहा था - 'आमि ओई खाने कंठ ता हारिए ऐशेछी' - आज समझ पाई हूँ कि रवि बाबू यूरोप जाकर अपना गान भूल क्यों गए होंगे। क्रोएशियन हाइकू कवि और पेशे से डॅाक्टर तोमिस्लाव मारेतिच जाग्रेब आए हैं। उन्हें मैंने बोस्निया यात्रा-वृतांत के कुछ टुकड़े सुनाए हैं। बड़ी देर चुप रहने के बाद इटली से मिहिनो का भेजा स्कॅार्फ मुझे देते हुए दोस्ताना पेशकश करते हैं - "नेमोज्ते पिसाती ओवो। ने ओब्जाविती ओवो" (कृपया मत लिखो इसे। प्रकाशित मत करो) मैंने मुस्कराकर क्रोएशियन ढंग से सिर हिला दिया है। छपाने न छपाने के द्वंद्व में तीन वर्ष गुजर गए हैं। सन 2010-2011 की प्रवास दैनंदिनी अब मुक्त हुई है। स्वच्छंद उड़ान के लिए। मित्र की बात न रख सकी, इसका अफसोस है। डायरी के पन्ने सुधारते-सुधारते हर सुबह गुरुदेव गुनगुना जाते हैं -
'अंध जने देहो आलो
मृत जने देहो प्राण
तुमि करुणामृत सिंधु
करो करुणादान
जे तोमाए डाके नहीं
तारे तुमि डाको, डाको...'
(दृष्टिहीन को प्रकाश दो, मृत देह को दो प्राण, तुम करुणा अमृत के सागर हो करो करुणा का दान। जिसने तुम्हें पुकारा नहीं उसे भी तुम पुकारो - 'गीतवितान')
टेलीविजन पर बीबीसी वर्ल्ड चल रहा है। युद्ध के दौरान यौन हिंसा के विवरण जुटाने और जाँच करने के बारे में विलियम हेग और एंजेलिना जॅाली द्वारा शुरू किए गए अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल का प्रारूप प्रसारित हो रहा है -
"हम सभी देशों से अपील करेंगे कि वे बलात्कार और यौन-हिंसा संबंधी अपने कानूनों को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप बनाएँ। हम सभी सैनिकों और शांति रक्षकों के उचित प्रशिक्षण की माँग करेंगे ताकि वे युद्ध क्षेत्र में यौन-हिंसा को समझ और रोक सकें। शरणार्थी कैंपों में रोशनी के प्रबंध से लेकर जलावन एकत्र करने बाहर जाने वाली महिलाओं के साथ रक्षाकर्मी के जाने जैसे साधारण उपायों के जरिए हमले की संख्या में भारी कमी लाई जा सकती है और हम चाहते हैं कि ये आधारभूत सुरक्षा उपाय सार्वभौम हों।"

( * 'बनमाली गो तुमि पर जनमे होइयो राधा ' - ओ कृष्ण तुम अगले जन्म में राधा बनना - बाउल गीत की पंक्ति)

( क्रोएशिया प्रवास के दौरान ( 2010-2011 : दो अकादमिक सत्र) तक जाग्रेब वि.वि. के दर्शन विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर प्रतिनियुक्ति के दौरान लिखा गया यात्रा वृत्तांत)

मैं भारतीय हूँ, और मैं रेफूजी नहीं

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दिल्ली के इरविन हॉस्पिटल से पढाई करने के बाद प्रवीण कुमार झाअमेरिका में चिकित्सक बने. आजकल नॉर्वे में हैं. वहीं से उन्होंने एक मार्मिक पत्र भेजा है. आप सब भी पढ़ें- मॉडरेटर 
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बड़ा अजीब देश है। जिसे देखो कान में हेडफोन लगाये कहीँ भाग रहा है? किस से भाग रहा है? और भाग कर जाएगा कहाँ? खेलने का शौक मुझे भी है। फुटबॉल। पर १५ मिनट में हाँफ जाता हूँ. स्ट्राइकर से डिफेंडर और फिर गोलकीपर बन चैन की सांस लेता हूँ। अब तो सिगरेट भी नहीं पीता, पर भागा नहीं जाता। और भाग कर होगा भी क्या? लड़की पटाने की उमर निकल गई, और भागने वालों से कौन सी पट गई?

दोस्त ने कहा, "बेटा ये नॉर्वे है. यहाँ खेलना तो पड़ेगा। ये लाइफलाइन है विदेश की। कोई चंदू सेठ की चाय टपड़ी यहाँ न मिलेगी कि घंटों बतियाते रहो"

"हैं कितने हम? आधे तो निकाले गए नौकरियों से. देश में धक्के खा रहे हैं"

"हम चार हो गए, और बाकी रेफूजी"

"हाँ, रेफूजी तो हैं ही बेकार'एनीटाइम रेडी'. साले ये बस सीरिया पे बम क्यूँ गिराते हैं? भारत पे गिरायें तो पूरा गाँव उठा लाऊँ और यूरोप में पटक दूँ"

जैसे ही हम मैदान पहुँचे, गेंद लेकर दौड़ने लगे, एक-एक कर रेफूजी की फौज आ गई। कोई सोमाली हब्शी तो कोई अरबी चिकना। हड्डियाँ बाहर लेकिन गजब की स्फूर्ति। गेंद लेकर ऐसे भागते जैसे जीतने वाले को आज भरपेट भोजन मिलेगा। हमने तो मेडिकल-इंजीनियरींग की दौड़ में सेहत का कबाड़ा कर लिया। इनके देश के'डार्क फ्यूचर'ने इनकी जिंदगी संवार दी। खूब फुटबॉल खेलते हैं और फोकट का खाते हैं।

अब कल ही की बात है। कोई बीमारी नहीं और खामख्वाह समय बरबाद करने आ गया अस्पताल में सीरिया वाला।

अंग्रेजी-नॉर्स्क कुछ न समझे। बस मरीजों की तरह सामने लेट गया। एक भद्र नौर्स्क महिला पीछे से आई जिन्होनें कुछ अरबी भाषा कोर्स कर उसका जिम्मा लिया था।'एडोप्ट'किया था। इस ३५ बरस की महिला का वो अधेड़ दत्तक पुत्र था। वो बस एक का जिम्मा लेने में सक्षम थी। रेफूजी की पत्नी यहाँ से २०० मील दूर दूसरे कस्बे में और बच्चे कुछ ५०० मील पश्चिमी नॉर्वे के'फोस्टर होम'में हैं। सब अलग-अलग परिवारों के दत्तक पुत्र-पुत्रियाँ हैं। अब कोई धन्ना सेठ मिले तो सबको एक साथ ला पाए। मंदी का समय है। आशा न के बराबर।

बाकियों ने बताया, ये मरीज हर रोज अलग-अलग विभागों में जाता है। कभी पीठ का दर्द, कभी बवासीर, कभी दिमागी बीमारी का बहाना करता है।दरअसल ये हस्पताल उसका पूरा दिन निकाल देती है। स्वास्थ्य मुफ्त है। कभी रक्त जाँच की पंक्ति में, कभी एक्स-रे, कभी एम.आर.आई.। ये भी हो सकता है, वो महिला इसे यहाँ छोड़ काम पर जाती हो। घर पर छोड़ना भी तो खतरे से खाली नहीं। नेकी कर, दरिया में डाल। गजब विरोधाभास है। है न?

शीत के बर्फीले समय में एक दिन हस्पताल से धमाका सुना। दिल दहल गया।

और दो शरणार्थियों को शरण!! सब आतंकवादी हैं ये।

बाहर जाकर देखा तो एक घर से पानी का फव्वारा बह रहा था। कुछ सोमाली लड़के थे। सरकार के पैसे खा गए। बिजली बिल भरा नहीं। बर्फ में ठंड से ठिठुरते बाहर खड़े थे। पानी की पाइपों में बर्फ जम जाने से सारे पाइप विस्फोट कर चुके थे। हद है! मैनें दो-चार गालियाँ दी तो यूरोपी साथी नाराज हो गए। जैसे सबको बचपन से समाजवाद फ्लेवर की आईसक्रीम खिलाई गई हो। एल.टी.टी.. के भगोड़े हों, या अफगानी-इराकी। सबको शरण दी नॉर्वे ने। कहते हैं प्रभाकरन को तो ओस्लो में कोठी दे रखी थी। ये देश नहीं शांति का ठेका है. तभी तो नोबेल बँटता है यहाँ।

भारतवर्ष को देखो। सदियों से शांतिदूत रहा है। गांधी का देश। पर गुनाहगारों को रातों-रात फांसी पर लटका दे। और वो भी बिना बिरयानी खिलाए। अजी क्यूँ खिलायें बिरयानी इन रक्तरंजकों को? बड़े आये अाखिरी इच्छा वाले? पता भी है तब क्या भाव था प्याज का? आखिरी इच्छा फिल्मी रस्म है असल नहीं।

नॉर्वे को पता नहीं कब अकल आयेगी? विश्व के सबसे बड़े सामूहिक हत्यारों में है एंड्र्यू ब्रेविक। उसके कारावास में लैपटॉप-टी.वी. सब व्यवस्था है। कुछ रोक-टोक की थी तो उसने मानवाधिकार का मुकदमा ठोक दिया और जीत भी गया। समझ नहीं आता राम-राज्य है या रावण-राज्य। अब लंका वालों को शरण दें तो मामला साफ ही है।

जब कुछ समय गुजरा तो लगा, देश शातिर है। गूगल कर लो। विश्व का सबसे समृद्ध देश है ये। अरब की तेल-टंकियों के लिये इतनी लड़ाईयाँ हुई, और नॉर्वे चुपचाप तेल बेचकर राजा बनता रहा। आज'ब्रेक्जिट'की चर्चा हो रही है। यूरोप का सबसे समृद्ध देश और विश्व का सबसे शांतिप्रिय देश कभी यूनियन में रहा ही नहीं। ताज्जुब नहीं होता? दरअसल कई चीजें समझनी आसान नहीं।

इन रेफूजीयों को एक अलग पासपोर्ट मिलता है। रेफूजी पासपोर्ट. चूँकि उनके देश में उनकी जान पर खतरा है, वो वहाँ कभी नहीं जा सकते। और मसलन बाकी देशों के वो रेफूजी नहीं, वो कहीं और भी नहीं जा सकते। क्या समझे? वो अब जीवन भर नॉर्वे से बाहर नहीं निकल सकते। भला ५० लाख जनसंख्या वाला देश इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था संभालेगा कैसे? चलिये संभाल तो लेगा, पर घर का झाड़ू-पोछा कौन करेगा?

विश्व के हर हवाई-अड्डे शीतकाल में विमान समय पर उतार नहीं पाते। चाहे पेरिस हो, दिल्ली या, न्यूयॉर्क. हर जगह'delayed'। आप समय पर पहुँचना भूल जाते हैं। पर विश्व के सबसे ठंडे प्रदेशों में एक ओस्लो का हवाईअड्डा कभी प्रभावित नहीं होता। बर्फ की मोटी परतें मिनटों में साफ. ये जादू करता कौन है?

रेफूजी!!

मेरे नॉरवेजियन मित्र हैं, दो अल्बानिया के नौकर पाल रखे हैं। मुझे लकड़ियाँ काट कर पहुँचा देते हैं। कसम से गाँव के बिल्टू की याद आ जाती है। ये सामंतवादी समाजवाद का मॉडल बिल्कुल हिट है। मुझे पता है मेरा ये नजरिया गलत है। बिल्टू कभी मेरी खटिया पर बैठने की हिम्मत नहीं करता। ये मजदूर तो जीन्स-जैकेट में होते हैं और साथ बैठ व्हीस्की भी पीते हैं। तो समाजवाद हुआ या नहीं? बताइए?

बिहार की उस लड़की को नकल करने के जुर्म में ब्रेविक से बेहतर सजा मिली या बुरी? उसका भी मानवाधिकार है क्या? और वो तो बिरयानी भी नहीं मांग रही? आप कितनों को जानते हैं जो नकल कर नंबर लाए? आपने छोटी-मोटी नकल नहीं करी या कभी कर नहीं पाए? या फिर पैसे नहीं थे की पर्चा खरीद सकें? या थे, लेकिन ऐन वक्त पर आपका ज़मीर आ गया? जेल वो नॉर्वे में कभी नहीं जा पाती, क्यूँकि यहाँ वैसी परिक्षाएँ ही नहीं होती। कोई टॉपर ही नहीं होता, और अगर होता भी है तो कोई जानता नहीं। और जानता भी तो भाव नहीं देता। डॉक्टर से ज्यादा बढ़ई, और उस से भी ज्यादा नाई कमाता है। पिरामिड उल्टा कर दो, सब अपना रस्ता चुन लेंगें।

खैर, शाम हुई। सब थके-मांदे बार पहुँचे। यहाँ सूर्य भी तो रात के १२ बजे तक बिल्कुल सर पर संवार होते हैं। अर्धरात्रि का सूर्य। शाम भी बनावटी बार के अंधेरे से होती है। जब मित्र को थोड़ी चढ़ी, सामने खड़े यूरोपी को देख मुस्कुराया। उसने भी शराब का गिलास उठा कर अभिवादन किया तो मित्र भड़क गया। जोर-जोर से चिल्लाने लगा।

"मैं भारतीय हूँ, और मैं रेफूजी नहीं। मुझे ऐसे मत घूरो। मैं रेफूजी नहीं।"


कभी-कभी लगता है सबको'इमेज'की पड़ी है बस। वो क्या हैं और क्या नहीं?

विवेक निराला की कविताएं

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कल विवेक निरालाका जन्मदिन था. विवेक की कविताओं की चर्चा नहीं होती है. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की चर्चा बहुत होती है. उनके नाम के साथ ऐसे कवि का नाम जुड़ा है जिनकी कभी हमने पूजा की  है. लेकिन विवेक की कविताओं की  रेंज बहुत बहुत है, उनकी संवेदना बहुत गहरी है. उनको जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ विवेक की कुछ पसंदीदा कविताएं- प्रभात रंजन
==================================== 

बाबा और तानपूरा
****************
(निराला जी के पुत्र रामकृष्ण त्रिपाठी के लिए)

हमारे घर के एक कोने में
खड़ा रहता था बाबा का तानपूरा
एक कोने में
बाबा पड़े रहते थे।

तानपूरा जैसे बाबा
बाबा पूरे तानपूरा।

बुढ़ाते गए बाबा
बूढा होता गया तानपूरा
झूलती गयी बाबा की खाल
ढीले पड़ते गए तानपूरे के तार।

तानपूरे वाले बाबा
बाबा वाला तानपूरा

असाध्य नहीं था
इनमें से कोई भी
हमारी पीढ़ी में ही
कोई साधक नहीं हुआ।

नागरिकता
*********
(मक़बूल फ़िदा हुसैन के लिए)

दीवार पर एक आकृति जैसी थी
उसमें कुछ रँग जैसे थे
कुछ रँग उसमें नहीं थे।

उसमें कुछ था और
कुछ नहीं था
बिल्कुल उसके सर्जक की तरह।

उस पर जो तितली बैठी थी
वह भी कुछ अधूरी-सी थी।
तितली का कोई रंग न था वहाँ
वह भी दीवार जैसी थी
और दीवार अपनी ज़गह पर नहीं थी।

इस तरह एक कलाकृति
अपने चित्रकार के साथ अपने होने
और न होने के मध्य
अपने लिए एक देश ढूंढ़ रही थी।

सांगीतिक
********
एक लम्बे आलाप में
कुछ ही स्वर थे
कुछ ही स्वर विलाप में भी थे
कुछ जन में
कुछ गवैये के मन में।

गायन एकल था
मगर रूदन सामूहिक था
आँखों की अपनी जुगलबंदी थी
खयाल कुछ द्रुत था कुछ विलंबित।

एक विचार था और वह
अपने निरर्थक होते जाने को ध्रुपद शैली में विस्तारित कर रहा था।
पूरी हवा में एक
अनसुना-सा तराना अपने पीछे
एक मुकम्मल अफ़साना छिपाए हुए था।

इस आलाप और विलाप के
बीचोबीच एक प्रलाप था।

मैं और तुम
*********
मैं जो एक
टूटा हुआ तारा
मैं जो एक
बुझा हुआ दीप।

तुम्हारे सीने पर
रखा एक भारी पत्थर
तुम्हारी आत्मा के सलिल में
जमी हुयी काई।

मैं जो तुम्हारा
खण्डित वैभव
तुम्हारा भग्न ऐश्वर्य।

तुम जो मुझसे निस्संग
मेरी आख़िरी हार हो
तुम जो
मेरा नष्ट हो चुका संसार हो।

हत्या
*****
एक नायक की हत्या थी यह
जो खुद भी हत्यारा था।

हत्यारे ही नायक थे इस वक़्त
और नायकों के साथ
लोगों की गहरी सहानुभूति थी।

हत्यारों की अंतर्कलह थी
हत्याओं का अन्तहीन सिलसिला
हर हत्यारे की हत्या के बाद
थोड़ी ख़ामोशी
थोड़ी अकुलाहट
थोड़ी अशान्ति

और अन्त में जी उठता था
एक दूसरा हत्यारा
मारे जाने के लिए।
==========
उस स्त्री के भीतर की स्त्री
*********************
उस स्त्री के भीतर
एक घना जंगल था
जिसे काटा
उजाड़ा जाना था।

उस स्त्री के भीतर
एक समूचा पर्वत था
जिसे समतल
कर दिया जाना था।

उस स्त्री के भीतर
एक नदी थी
बाढ़ की अनन्त
संभावनाओं वाली
जिसे बाँध दिया जाना था।

उस स्त्री के भीतर
एक दूसरी देह थी
जिसे यातना देते हुए
क्षत-विक्षत किया जाना था।

किन्तु, उस स्त्री के भीतर
एक और स्त्री थी
जिसका
कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था।
============

भाषा
******
मेरी पीठ पर टिकी
एक नन्हीं सी लड़की
मेरी गर्दन में
अपने हाथ डाले हुए

जितना सीख कर आती है
उतना मुझे सिखाती है।

उतने में ही अपना
सब कुछ कह जाती है।

पासवर्ड
*********
मेरे पिता के पिता के पिता के पास
कोई संपत्ति नहीं थी।
मेरे पिता के पिता को अपने पिता का
वारिस अपने को सिद्ध करने के लिए भी
मुक़द्दमा लड़ना पड़ा था।

मेरे पिता के पिता के पास
एक हारमोनियम था
जिसके स्वर उसकी निजी संपत्ति थे।
मेरे पिता के पास उनकी निजी नौकरी थी
उस नौकरी के निजी सुख-दुःख थे।

मेरी भी निजता अनन्त
अपने निर्णयों के साथ।
इस पूरी निजी परम्परा में मैंने
सामाजिकता का एक लम्बा पासवर्ड डाल रखा है।

कहानियाँ
*********
इन कहानियों में
घटनाएं हैं, चरित्र हैं
और कुछ चित्र हैं।

संवाद कुछ विचित्र हैं
लेखक परस्पर मित्र हैं।

कोई नायक नहीं
कोई इस लायक नहीं।

इन कहानियों में
नालायक देश-काल है
सचमुच, बुरा हाल है।
=========== 


युग्म
*****
एक समय में रहे होंगे
कम से कम-दो
जितने कि आवश्यक हैं सृष्टि के लिए।

दो आवाज़ें भी
रही होंगी कम से कम
एक सन्नाटे की
एक अँधेरे की।

अँधेरा भी दो तरह का
रहा होगा अवश्य
एक भीतर का
दूसरा बाहर का।

जल-थल
सर्दी-गर्मी
दिन-रात
युग्म में ही रहा होगा जीवन
सुख-दुःख से भरा हुआ।

ऋतु चक्र
********
स्वर के झरनों से जैसे
स्वर झर-झर
झर रहे हैं
और पतझर में पत्ते।

बीन-बटोर कर इकठ्ठा
किए मेरे सुख
उड़े जा रहे हैं।

ऋतुचक्र से यह
वसंतागम का समय है
और दुःख की धार में
मैंने अपनी डोंगी
धीरे से छोड़ दी है।

हम ही थे
********

हमारे लिए कुछ भी
न शुभ था, न लाभ।
किसी अपशकुन की तरह
दिक्शूल हम ही थे।

हमारे लिए
न अन्न था
न शब्द
वस्त्रहीन
भयग्रस्त भी हम ही थे।

हमारे पास
न कला थी, न विचार
न सभ्यता, न संस्कृति
न घृणा, न क्रूरता
न उम्मीद, न विश्वास

न एक टुकड़ा ज़मीन
न खाली आकाश।

जैसे हम हैं
वैसे हम ही थे।

प्रतीक
******
भाषा में देश था
देश में धर्म
धर्म में नायक थे
नायकों में राम।

राम में भय था।

भय के पार्टी से लेकर
भेड़िये तक कई प्रतीक थे।

प्रतीकों में प्रेम नहीं था
प्रेम का प्रतीक कोई नहीं था।


संशय में हैं
**********
अपने-अपने खोलों में
जो बँधे हुए हैं
एक निशाने पर
सब के सब सधे हुए हैं।

आत्म है बेचैन
हवा में उमस बहुत है
भाप बना जाता है
सारा क्रोध
शोध है-
समय असंगत
जितने साथी सभी दिवंगत।

ठण्डी देह, ठण्डा माथ
कि अब कोई नहीं है साथ
पुरस्कार-परिष्कार
तिरस्कार-बहिष्कार
उर्फ़ बेकार-बेकार।

फिसल रहे हैं
गर्दनों पर हाथ
है कहाँ अभिव्यक्ति वह उद्दाम
रिरियाना-खिसियाना
हाय-हाय
बस पाना-पाना
सब जुगाड़ का ताना-बाना।

संशय में हैं
जो कुछ
शर्तें बदे हुए हैं।
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सुधांशु फिरदौस की कुछ अप्रकाशित कविताएं

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आजकल कवियों के लिए अभिव्यक्ति के इतने माध्यम हो गए हैं कि मेरे अनेक प्रिय कवि संयम खोकर रोज की वर्जिश की तरह कविता लिख रहे हैं और हास्यास्पद होते जा रहे हैं. ऐसे में सुधांशु फिरदौसका संयम प्रभावित करता है. संयम शब्दों को बरतने का उसका ढंग, मीर की शायरी में उसकी आस्था इस गणितज्ञ को अपनी पीढ़ी का सबसे यूनीक कवि बनाती है और मेरे सबसे प्रिय कवियों में एक. कई बार मुझे उसमें आलोक धन्वा सी ऊंचाई दिखाई देती है. बहरहाल, मैं अतिकथन के लिए बदनाम हूँ इसलिए अब ज्यादा कुछ कहे उसकी कविताएं पढने के लिए आमंत्रित करता हूँ- प्रभात रंजन 
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अगस्त की शामें

सूखी-सूखी ही बीती जा रही है इस बार बरसात
जगह बदलने के लिए तरस गई हैं चींटियां
गुमसुम-गुमसुम रीती जा रही हैं शामें
रोज इकहरी-सी बीती जा रही हैं शामें

पेड़ों से अटकी टूटी बदरंग पतंग गोया मन में अटकीं स्मृतियां
उनका हौसला उन्हें रुला तो सकता है
उड़ा नहीं सकता
उनकी उड़ानों के इतिहास के बोझ से दबी बोझिल शामें

शराब के ठेके के बाहर लगी लंबी कतारों से दूर तन्हा
पूरे दिन की मेहनत के बाद पार्क में कुत्तों-सी हांफतीं
जुकाम से बंद नाक
और किसी के नकार से भरीं निश्छल आंखों में डबडबाईं शामें

मेरे सिर से गिरते बालों
और तुम्हारे चेहरे पर पड़ती झुर्रियों का मर्सिया गातीं
दिनों की मसरूफियत और रातों की बेफिक्री के बीच
गमे-जहां का हिसाब हैं ये शामें
*


 जनराग

गेहूं की हरी-हरी बालियों का विस्तार
सूअर को बांस से लटकाए तेजी से जा रहे हैं दो जन
उनके पीछे-पीछे शरारती बच्चों का हुजूम सूअर को बार-बार कोंच
सुन रहा है उसका घिघियाना
बच्चों के लिए उनके अन्य खेलों की तरह सूअर को कोंचना भी महज एक खेल है
खुश हैं तमाशबीन बूढ़े क्यूंकि उनके मन में बैठा है कि
सूअर जितना घिघियाएगा उतनी ही खुश होंगी ग्राम्य-देवी
बलि में देर हो रही है इसलिए बहुत जल्दी में हैं दोनों जन
उन्हें न बच्चों का शोर अच्छा लग रहा है
न सूअर का घिघियाना और न ही बूढ़ों का मंद-मंद मुस्काना
सारी श्रद्धा और उपासना के बीच
उन्हें बस याद आ रहा है ताड़ के पेड़ से लटकता फेनिल कटिया
और आग की लपटों के बीच
कड़ाही में सूअर के गोश्त को भूना जाना


 विस्मृति

जब तक चिता जलती रही
नदी की गीली रेत को ढूहनुमा शक्ल दे
बनाई हमने कुछ अजीबो-गरीब मूर्तियां
फिर छोड़ आए वहीं रेत पर अपने दो-तीन घंटों की मेहनत

रात को वे आधी-अधूरी मूर्तियां सपने में आईं
और देखते ही देखते उनकी शक्लें मरे हुए लोगों के जैसी हो गईं
अगली सुबह जब हम चिता की राख साफ कर
तुलसी का बिरवा रोपने गए
वे मूर्तियां रेत में मिस्मार हो गई थीं
जैसे मेरी स्मृति में
मरे हुए लोगों के चेहरे



 बिल्लियां

कातिल हैं दिल्ली की सर्दियां
और कुछ ज्यादा ही गोश्तखोर हैं यहां की बिल्लियां
मासूम, डरी-सहमीं
हमारे आस-पास उछलती-कूदती बिल्कुल घरेलू बिल्लियां
चूहे क्या पंजों के नीचे कबूतर तक को दबा जाती हैं
एक विरोधाभास है इनके बूदो-बास में
एक वहशत छुपी है इनकी आंखों में

नाहक दूध पिलाने वाले हलकान हुए जाते हैं
धूप के साथ इस छत से उस छत गर्माहट के लिए छलांग मारतीं
छत की नहीं धूप की वफादार हैं ये बिल्लियां
*


 लिखना चाहता हूं 

लिखना चाहता हूं ऐसी कविता जिसमें हो उसके हाथों की गर्माहट
उसकी छातियों का उभार
उसका गुस्सा
उसके अबोले की तान
खींच ले बिना बोले ही अपनी ओर
जैसे खींच लेती है वह मुझे अपनी ओर
सोख ले सबके दु:खों को
जैसे सोख लेती है वह मेरे दु:खों को

लिखना चाहता हूं ऐसी कविता जिसमें हो अमिया की खटास
लीची की मिठास
अषाढ़ की दोपहर में खेत को लोहियाते हलवाहे की प्यास
जिंदगी की जद्दोजहद में भागते आदमी को मिले कविता
जैसे दिन भर बाजार में भटकने के बाद
शाम को किसी को मिल जाए एक प्लेट चाट

लिखना चाहता हूं ऐसी कविता जिसे अपनी सहजता के साथ
कोई भी कहीं भी पा ले
जैसे तरबूज के खेतों में काम करने वाले मजदूर
खा लेते हैं गमछे में सान के सत्तू
पी लेते हैं ताड़ी नहीं कुछ तो नमक और मिर्च के साथ

सर्दी के दिनों में रेल के सामान्य डिब्बे में सफर करते हुए
जैसे चिपक कर बैठे होते हैं लोग अपने-अपने आकाश में खोए हुए
वैसे ही कविता में आए मेरे अनुभव एक दूसरे से चिपके हुए
अपने अलग-अलग आकाश को खोलते हुए
*


अनुलता राज नायर की कहानी 'केतकी'

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अनुलता राज नायरन्यू एज लेखिका हैं. हो सकता है साहित्यिक हलकों में उनकी कहानियों को लेकर चर्चा न होती हो, लेकिन वह दायरा बहुत सिमटा हुआ, आत्ममुग्ध है. अनुलता लोकप्रिय माध्यमों के लिए लिखती हैं और भाषा का संयम, विषय की सिद्धि यह बताती है कि कहानी विधा में वह हस्तसिद्ध हैं. पढ़िए यह कहानी- मॉडरेटर 
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"केतकी"

उसे ठहराव पसंद नहीं था,ज़रा भी नहीं!
गज़ब की चंचलता थी उसके मन में, उसके मस्तिष्क में, तन में  बल्कि पूरे व्यक्तित्व में ही...
ठहरना उसकी फितरत में नहीं था | अपार ऊर्जा से भरी थी वो
,इतनी ऊर्जा कि किसी इंसान के जिस्म से सम्हाली न जाए | और वो अतिरिक्त ऊर्जा,वो तेज उसके चारों ओर संचारित होता रहता , मानों  चाँद के आस-पास का सा वलय उसके चारों ओर भी हो |
बेहद आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी केतकी | जो देखता
,सिर्फ देखता ही नहीं रह जाता बल्कि उसका ही हो जाता,खिंचा चला आता उसकी ओर, एक अनजाने आकर्षण से |
केतकी के प्रति ये एकतरफा आकर्षण सिर्फ पुरुषों में ही नहीं था बल्कि लड़कियाँ
, औरतें,बच्चे, बूढ़े कोई ऐसा न था जो उसके प्रति खिंचाव महसूस न करता हो , मानों एक चुम्बकीय शक्ति हो उसके भीतर, जिसका विरोध अगर कोई चाहता शायद तब भी न कर पाता |

केतकी गेहुएं रंग की सुगढ़ कद काठी वाली लड़की थी | नैन नक्श एकदम तीखे,तराशे हुए कि जैसे संगतराश ने उसकी मोहब्बत में गिरफ्तार होकर कोई मूरत गढ़ी हो | चेहरा नापा तुला , आँखें बेहद आकर्षक और चंचल,ढेरों सवाल लिए हुए |
सवाल तो हमेशा उसके होंठों पर भी रहते थे,वो जिसके साथ रहती उसी के आगे सवालों के ढेर लगा देती| उसका ज्ञान भी असीमित था इसलिए उसके सवाल भी बहुत बौद्धिक और रोचक होते|
वैसे बेवकूफी भरे सवालों की भी कमी न थी उसके पास,मसलन वो अकसर अपने पुरुष साथियों से पूछ बैठती, कि जब वे जानते हैं कि केतकी उनकी हो नहीं सकती तो वे क्यूँ उस पर अपना वक्त और पैसा बर्बाद करते हैं ? अब भला ऐसे अहमकाना सवाल के बाद किसी कॉफ़ी शॉप में बैठा वो आशिक न जाने कैसे उसकी काफी का बिल अदा कर पाता होगा और हां साथ में चॉकलेट आइसक्रीम का भी तो | मनमौजी सी लड़की थी वो , बेमौसम बरसात की तरह |  

मैं केतकी को स्कूल के समय से जानता था |
वो स्कूल में भी सबकी
हीरोथी,और मेरे बहुत करीब...
वैसे सहपाठी से लेकर टीचर्स
,लैब असिस्टेंट,बस ड्राईवर,चौकीदार सभी उसका नाम जपते थे |
वो थी ही ऐसी....जैसे उसमें कोई जादू हो...करिश्मा........
कभी बस ड्राईवर के साथ ड्राइविंग के गुर सीखती कभी लैब में दो अटपटे केमिकल्स मिला कर धमाका करती और लैब असिस्टेंट के साथ मिलकर खूब हँसती | एक बार मैंने देखा उसने एक बैग भर अपने नए पुराने ढ़ेरों कपड़े उस लैब असिस्टेंट को दे डाले,उसकी बहन के लिए | मेरे पूछने पर बोली अरे सब पुराने फैशन के थे बेमतलब मेरे वार्डरोब की जगह घेरे हुए थे | साथ ही मैं सुन रहा था उसका बडबडाना- “करमजला ग़रीबी का गाना गाते हुए रोतली सूरत बनाये फिरता है,नफरत है मुझे उससे.........नफ़रत है मुझे हर रोतली सूरत से......
मैं हैरान सा उसको ताकता रह जाता | उसका मन पढ़ना असंभव था | कुछ टिकता ही नहीं था बीस सेकेण्ड से ज्यादा
,तो कोई कैसे पढ़े ??
आसमान में उड़ते बादल के जैसी लड़की थी वो ,अपने भीतर ढेर सी नमी समेटे हर पल रंग ढंग बदलती, बेलौस, बेख़ौफ़ उड़ती हुई सी.......

केतकी का जीवन एक खुली किताब था | बिन माँ बाप की लड़की थी वो | रिश्ते के किसी मौसा मौसी ने पाला था जो काफी संपन्न थे | लेकिन वो शायद उनके ज्यादा क़रीब नहीं थी क्यूंकि कभी उनसे या उनके बारे में बात नहीं करती थी |
वैसे उसके बारे में आम बातें सबको पता रहती थीं , इतना बोलती जो थी | जिससे चाहे जब चाहे बात करना उसके स्वभाव में था.....कभी लोगों की सुनती तो कभी अपनी कहती........
मगर मुझे वो सदा रहस्यमयी सी लगती थी | ऐसा लगता था मानो उसकी इस खुली किताब के पन्नों पर काली स्याही के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा हुआ है एक अदृश्य स्याही से
,जो कोई देख नहीं सकता, पढ़ नहीं सकता...
मैं कहता भी उससे कि तुम्हारी तलछटी में जाकर फिर और गहरा खोद कर देखना है मुझे |
जवाब में वो मुस्कुरा देती, फिर हौले से कहती- “मैं नदी हूँ अंश
,सिवा पानी के कुछ नहीं...बहता पानी...साफ़ और पारदर्शी...जो चाहे देख लो...अपना अक्स भी...जितना गहरा खोदोगे उतना ज्यादा पानी पाओगे | और मत भूलना कि मोती सागर में मिलते हैं,  नदियों में नहीं....”
वो बोलती चली जाती...बिना रुके......मैं सुनता रहता उसकी बेसिरपैर बातें बिना कुछ समझे......
“देखना एक दिन मैं भी सागर में मिल जाउंगी और पा जाउंगी एक मोती...जड़ लूंगी उसको अपनी अंगूठी में....”

हाँ ! कितना शौक था उसे अंगूठियों का | हर उँगली में एक अंगूठी....पतली,मोटी,असली,नकली चाहे जैसी.....अंगूठा तक खाली नहीं था उसका.....
सचमुच नदी थी वो...एक पागल नदी |

एक रोज वो बड़ी सी एक सिन्दूरी बिंदी लगा कर आई.......
उसके मासूम से चेहरे के हिसाब से बहुत बड़ी | फिर खुद ही हँस के बोली
,ओल्ड फैशन लगती है न???

मैंने सोचा क्षितिज से उगता सूरज कभी ओल्ड फैशन हो सकता है भला.....बस मुस्कुरा दिया था मैं !

उस दिन मेरे हाथ की रेखाएं देखने लगी......कहती थी, उसको सब आता है |
उसके हिसाब से मेरा प्यार कोई और होगा और ब्याह मैं किसी और से करूँगा.....वाकई उसको सब पता था.....
मैंने कहा लाओ तुम्हारा भी हाथ देखूं.....तो उसने मुट्ठी कस ली....नहीं अंश
,मेरे हाथ में कोई लकीर नहीं है....सब बह गयी पानी में | रेतीले किनारों पर जो धारियाँ देखते हो न ,वही हैं मेरे हाथ की लकीरें.....   

कभी कभी मुझे लगता केतकी एक माया मृग सी है.....जिसको देखो उसका दीवाना हुआ जाता है...भटकता है उसको पाने को...जबकि वास्तव में वो है ही नहीं....वो सिर्फ एक भ्रम है.....
तभी उसकी हँसी मुझे ख्यालों से वापस ले आती......और मैं देखता उसको अपने एकदम करीब जिसे मैं छू सकता था बस ज़रा सा हाथ बढ़ा कर |
 
उसको जब कॉलेज में दाखिला लेना था तब मेरे पीछे चक्कर काटती फिरी कि अंश हम और तुम एक ही साथ पढेंगे |
मैं भी छेड़ता उसको - क्यों भई
,क्या सारी उम्र मेरे पीछे लगी रहोगी ? तुम साथ रहती हो तो कोई दूसरी लड़की मेरे पास नहीं आती कि तुम हो मेरी और तुम मेरी होती नहीं.... 
उस रोज उसने बड़ी संजीदगी से कहा था - अंश मैं तुम्हारी ही हूँ,बस खुद को समझ सकूँ तुम्हारे काबिल, तो तुम्हारे सुपुर्द कर दूँ ख़ुद को , पूरी की पूरी ! अपने पूरे पागलपन के साथ |

उसकी अटपटी बातें मुझे समझ नहीं आतीं मगर वक्त के साथ इतना ज़रूर समझ गया था कि उसके साथ मेरा लगाव मुझे तकलीफ ज़रूर देगा....मगर मुझे मंज़ूर था |

हम कॉलेज साथ जाते,वहाँ ढेरों लड़के उसके आगे पीछे मंडराते और वो किसी से नोट्स बनवाती किसी को बाइक में पेट्रोल भरवाने भेजती...और सबसे कहती तुम्हारी नेकी मुझ पर उधार.....जाने कितने इसी उधारी के पटने के इंतज़ार में फिर रहे थे | मैं उसको समझाता भी कि ये क्या तरीका है,क्यूँ खिलवाड़ करती है सबके दिल के साथ और शायद अपने भी दिल के साथ ?
वो मेरा हाथ अपने सीने पर रख कर कहती देख
,कहीं धडकन है क्या ??पागल मेरे सीने में दिल ही नहीं है....
फिर क्या है
??कभी मैं भी बिफर जाता......
वो बड़ी मासूमियत से कहती किडनी है - एक एक्स्ट्रा !!
भगवान न करे कभी तुम्हें ज़रूरत पड़े तो दे दूँगी...एकदम मुफ्त....
तुमने जो मुझे कल बर्गर खिलाया था न
, वो चुकता समझ लेना....
मैं सर पीट कर रह जाता |

कभी मुझे लगता केतकी मानसिक रूप से कुछ बीमार है | वो नॉर्मल तो कतई नहीं थी |
हालांकि पढ़ने में वो बहुत अच्छी थी और बेहतरीन कलाकार भी थी | पेंटिंग में उसको महारत हासिल थी और गाती भी बड़ा सुराला थी |
उसके कमरे में हमेशा संगीत बजता रहता...सारा दिन और सारी रात भी | कहती थी मुझे सन्नाटे में नींद नहीं आती |
मुझे उसकी पसंद कभी समझ नहीं आई | कभी वो गज़ल सुनती और कहती मैं गुलाम अली साहब पर मर मिटी हूँ अंश
,सच्ची!!!
कभी जिमी हेंड्रिक्स या जिम मॉरिसन को सुन कर कहती
,यार क्या नशा है इनमें ,कभी कोई नशा करके मैं भी देखूँगी | वो कब किस विषय पर बोलने लगे कोई नहीं जानता |
मैं ज़रूर डर जाता उसकी बातें सुन कर | कभी वो सूफी संगीत पर झूमती
,कभी पंडित रविशंकर को सुनते हुए पेंट करती....
अनबुझ पहेली थी केतकी....और जिसे हल करने के लिए तकदीर ने उसे मेरे साथ कर दिया था |

हां उसकी पेंटिंग्स हमेशा एक सी होतीं,वो सिर्फ नदियाँ पेंट करती थी | अलग अलग किस्म की नदियाँ...अलग अलग वक्त के दृश्य...
कहती ये सब मेरे सेल्फ़ पोट्रेट हैं अंश!
अब मैं खुद इतनी सुन्दर हूँ तो कुछ और क्यूँ बनाऊं भला | ठीक है न
?
मैं मुँह ताकता रह जाता उसका...मूर्खों की तरह निरुत्तर खड़ा रहता......
वो उकसाती मुझे...कहो न...कुछ तो कहो..
मैंने भी कह दिया था-
नार्सीसिस्ट कहीं की”....
ठठा कर हँस पडी थी वो....
मुझे लगा सचमुच वो बहुत सुन्दर है
,बहुत सुन्दर नदी | निर्मल,शीतल सी....एक बहुत गहरी और शांत नदी | जिसके भीतर शायद मोती भी मिलते हों !

एक रोज हम शहर के बाहर दूर एक मंदिर गए | उसे भगवान पर कोई विशेष आस्था नहीं थी,बस मंदिर एक नदी के किनारे था सो उसने प्लान बना डाला |
वहाँ सीढ़ियों पर बैठे हम सूर्यास्त देखते रहे | नदी में उसका अक्स बड़ा प्यारा लग रहा था |
वो अचानक बोली
,अंश तुम अगर सूरज होते तो देखो, हर शाम मुझ में ढल जाते...समां जाते मुझ में,   है न ? कहो न???
उसके इस तरह के आकस्मात सवालों की मुझे आदत थी मगर फिर भी मैं विचलित हो जाता |
उस रोज सोचने लगा था कि कहीं इसे भी तो मोहब्बत नहीं हो गयी मुझसे !!!
तभी वो बोली कि मुझे लगता है मुझे किसी सागर नाम के लड़के से इश्क होगा
,क्योंकि नदी अंत में सागर में ही तो जा मिलती है न ! वहीँ तो उसे पनाह मिलती है,मुक्ति मिलती है |

मैं बोल पड़ा
,तुझे कभी इश्क नहीं हो सकता केतकी,किसी से भी नहीं...जब मुझसे नहीं हुआ तो किसी और से क्या होगा?
अच्छा !! वो पास खिसक कर बोली...ऐसा क्या खास है तुममें
?
मैं भी उसके पास खिसका और कहा
क्यूँ लंबा-चौड़ा हूँ,गोरा रंग है,आँखें नीली नहीं तो पनीली तो हैं,बाल घने,  बिखरे ,मुस्कराहट के साथ तेरे पसंदीदा डिम्पल...और क्या चाहिए ?
वो मुस्कुराई और बोली-
नार्सीसिस्ट कहीं के”-
और हम दोनों हँसते रहे देर तक...... सूरज के पूरी तरह ढल जाने तक....उसके पूरी तरह नदी में समा जाने तक.....

जब वो इस तरह हँसती तो मुझे उसकी आँखों में अपने लिए कुछ प्यार सा दिखता....
मुझे लगता भी कि उसे प्रेम है मुझसे
,थोड़ा नहीं बल्कि बेइंतहा.....
जितना कि कोई बिंदास नदी कर सकती है समंदर से......नदी जो बावली होकर बहती है उस समंदर की ओर....उसमें समा जाने को....उसमें समा कर अस्तित्वविहीन हो जाने को.....अपनी मिठास खो कर स्वेच्छा से खारी हो जाने को...अपनी स्वतंत्रता भूल कर ठहर जाने को.....

ऐसे ही ख्यालों ने मुझे उस दिन हिम्मत दी,जब हम कोई फिल्म देख कर लौट रहे थे |
उसने बाइक में मुझे कस कर पकड़ रखा था
,उसका स्पर्श मुझे विचलित कर रहा था |
ऐसा नहीं कि उसने पहले कभी छुआ न हो मुझे | हम सालों से साथ थे और बहुत करीब भी
,सो जाने अनजाने सहज भाव से किया स्पर्श कोई नयी बात न थी |
मगर आज शायद मेरा मन ही मेरे वश में न था....मैंने बाइक उसके घर के सामने रोकी
,उसने मेरा हाथ पकड़ा और बोली अंश शुक्रिया,मेरा दिन खूबसूरत गुज़रा तुम्हारी वजह से | वो जाने को मुडी तो मैंने उसकी ठंडी उंगलियां अपनी उँगलियों के बीच कस लीं |
अरे अब क्या
? वो कुनमुनाई......
जाओ रात हो गयी है सब फ़िक्र करते होंगे घर में |
मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लिया और बिना सोचे कह गया - तुम्हारे दिन
,तुम्हारी रातें,तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी मैं खूबसूरत बना देना चाहता हूँ केतकी |
मैं जीना चाहता हूँ तुम्हारे साथ...तुम्हारा होकर...
मैं प्यार करता हूँ तुमसे बेइन्तहा !!!

अब बारी केतकी की थी | उसने दो पल मेरी आँखों में देखा,वही जाने पहचाने अटपटे भाव,जिन्हें मैं कभी न पढ़ सका था न समझ पाया था......
फिर उसने दूसरे हाथ से अपनी उंगलियाँ छुडाईं और बोली – ज़िन्दगी भर का लॉन्ग टर्म प्लान?
महज एक दिन खूबसूरत गुजरा है जनाब,और ये खूबसूरती और ताजगी सदा रहने वाली नहीं |

चलो जाओ अब !
बाइक आहिस्ता चलाना और घर पहुँच कर मैसेज कर देना |
उसने पलट कर भी नहीं देखा और चली गयी |
मैंने बदहवास सी बाइक दौड़ा दी.....वो रात शायद कुछ ज्यादा ही अँधेरी थी
,या मेरी आँखें ओस से धुंधला गयीं थी.....
न जाने कैसे मेरी बाइक फुटपाथ पर चढ़ गयी |
होश आया तो अस्पताल में था|  सर पर ७ टाँके थे | बस कोई अंदरूनी चोट नहीं थी सो अगली सुबह घर भी आ गया |

दो रोज हुए केतकी का कोई पता नहीं था | न मिलने आई न कोई खबर ली | फोन भी बंद था उसका| तीसरे दिन आई तो मैंने सहज शिकायती लहजे में कहा कि बड़ी जल्दी फुर्सत मिली ?
उसने अपनी जानी पहचानी अदा से जवाब दिया , अरे तुम्हारा सर जिस फुटपाथ पर टकराया था उसकी मरम्मत में ज़रा व्यस्त हो गयी थी |
मैं उसका चेहरा और लाल सूजी हुई आँखें देखता रहा
,सोचता रहा और उसे समझने की नाकाम कोशिशें करता रहा....
जब तक मेरे टाँके नहीं खुले वो रोज मिलने आती रही | खूब बोलती ,बतियाती | कभी फूल लेकर आती कभी आदमकद ग्रीटिंग कार्ड पेंट कर लाती .....
उस रात का ज़िक्र हमने फिर कभी न किया मगर मुझे कुछ दरका सा महसूस होता रहा हमारे बीच | शायद मैंने अपने प्यार का इज़हार करके गलती कर दी थी |

खैर वक्त के साथ सब सामान्य हो जाएगा इस उम्मीद के साथ हम दिन काटने लगे | नौकरी मिलने के साथ ही घर में माँ-पिताजी और तो और केतकी भी मेरी शादी के लिए ज़ोर देने लगे |
मैं शादी की बात से असहज हो रहा था | केतकी के सिवा किसी और की करीबी का ख्याल भी मुझे अनमना कर देता था | मगर न जाने इस लड़की की भी क्या ज़िद्द थी....कसमें चढ़ा चढ़ा कर मुझे मनाती रही....

उसकी करीबी और मेरा न हो जाने का फैसला मुझे बेहद परेशान करता और वो बेख़बर रहती......वो न मेरी होती थी न मेरे दिल से जाती थी.......
आखिर मुझे लगा मेरे दिल को समझाना ही होगा....केतकी का भ्रम अब तोडना ही होगा............उसके मायाजाल से मुझे बाहर आना होगा |  

परिवार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए मैं भी आखिरकार इस रस्मअदायगी के लिए तैयार हो गया....

जिस रात मेरी शादी थी उस रात अचानक फोन की घंटी बजी और उधर से केतकी की आवाज़ सुनाई पड़ी.....
“सुनो आखिरकार मुझे इश्क हो ही गया सागर से......अंश !! तुम सुन रहे हो न
?
हां
,सुन रहा हूँ !
और जानता हूँ , गोवा के समुद्रतट है ही सुन्दर | किसे इश्क न होगा ! – मैंने सपाट स्वर में जवाब दिया|

धत् तेरे की !!! तुम मुझे ज्यादा ही समझने लगे हो अंश,और मुझे ये बात ज़रा पसंद नहीं...
अच्छा किया तुमने शादी कर ली
,मेरा पीछा छोड़ दिया...अब उसको समझो और जानो जो पल्ले बंधी है तुम्हारे...
और फोन रख दिया उसने |

मेरी शादी के बाद ये पहली रात थी और मैं उस पागल केतकी से बात कर रहा था...मगर शायद आखरी बार |
मैंने तय कर लिया था कि अब कभी उससे कोई संवाद न रखूंगा....कभी नहीं |

मगर हर बार की तरह ये फैसला भी उसने ही लिया था |

अगले दिन तड़के गोवा के होटल से फोन आया कि केतकी अपने कमरे में एक नोट छोड़ गयी है कि - जा रही हूँ......
मुझे खोजना मत.....
किसी मछुआरे को या गोताखोर को तंग न करना....
मुझे पूरी तरह डूब जाने दो सागर के प्रेम में....उसकी तलछटी छूने निकली हूँ मैं |

और एक चिट्ठी मेरे नाम भी थी -

अंश तुम्हारा नाम सागर होता या सूरज...मैं कभी तुमसे प्यार न करती |
जानते हो जिस रोज मैं पैदा हुई उसी रोज मेरे माँ बाप दोनों की मौत हुई | माँ डिलिवरी टेबल पर और पापा रोड एक्सीडेंट में | मौसी मौसा ने आसरा दिया तो बेचारे बेऔलाद रह गए |
ये संयोग नहीं है अंश.....ये इशारा था भगवान का |
मैं बहुत अभागी हूँ अंश
,हम अगर एक हुए होते तो तुम कभी खुश न होते....
याद है तुम्हारे एक्सीडेंट वाली रात.....तुमने सिर्फ अपने प्यार का इज़हार किया था...और देखा था नतीजा
??

अंश मैं केतकीहूँ......
मैं शापित हूँ शिवजी के द्वारा |
जानते हो
,केतकी के फूलों को पूजा में चढाना वर्जित है......

सुनो,तुम अगले जन्म में भी अंश ही बनना......और मैं बनूंगी तुम्हारी,सिर्फ तुम्हारी....झरूंगी तुम पर हरसिंगार बन कर...


हर जन्म में केतकी बनूँ ,इतनी भी अभागी नहीं हूँ !!!

लोकनायक जयप्रकाश नारायण की कहानी 'टॉमी पीर'

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लोकनायक जयप्रकाश नारायणने कम से कम दो कहानियां लिखी थी. आजकल जिस तरह का माहौल है उसमें अचानक इस कहानी की याद आ गई- जानकी पुल.
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शहर के बाहर एक मशहूर पीर का मकबरा है. जिस दिन पीर साहब समाधिस्थ हुए थे उस दिन से हर साल मेला लगता. हिंदू-मुसलमान, मर्द-औरत, बच्चे-बूढ़े सभी जाते, मज़ार पर फूल चढ़ाते, माता टेकते, पैसे नज़र करते और फिर मेले का तमाशा देखते. मेले के दिन के अलावा रोज दस-पांच आदमी मज़ार पर जाते ही.
मकबरे तक शहर से जो सड़क जाती थी, उस पर शहर और मकबरे के बीच एक और छोटी-सी कब्र थी. कब्र पर जो पक्का चबूतरा बना था, उसे देखने से मालूम होता मानो किसी बच्चे की यादगार हो. जो लोग पीर साहब की मज़ार पर पूजा करने जाते वे इस छोटी कब्र के पास भी दम रुक जाते, दो-चार फूल वहां भी चढ़ाते और दुआएं मांगते. मशहूर था की वह मज़ार किसी टामी पीर साहब की है, जो बड़े पीर साहब के शागिर्दों में थे, लेकिन ठीक-ठीक पता किसी को न था. यह भी कभी-कभी सुनने में आता था कि पीर साहब की गद्दी पर जो नए पीर जानशीन थे वे लोगों को मना करते थे कि टामी पीर की मज़ार की पूजा न करें, लेकिन वजह पूछने पर चुप रह जाते थे. कुछ भी हो, सिवा उनके थोड़े से शागिर्दों और पास आने-जाने वालों के और कोई उनकी बात सुनता न था, बल्कि यह कहना ठीक होगा कि जानता ही न था. नतीजा यह होता कि मकबरे को जाते समय टामी पीर की कब्र पर फूल चढ़ते ही, चिराग जलते ही, दुआएं मांगी ही जाती.
मैं भी एक रोज सिर के ख्याल से मकबरे की और निकल गया. रास्ते में वह छोटी कब्र भी मिली. लौटते समय दो-चार मुसलमानों का साथ हो गया, जो पीर साहब से दुआएं मांगकर लौट रहे थे. बातचीत होने लगी. पीर साहब का गुणगान हुआ, उनकी दुआओं में जो ताकत थी उसका ज़िक्र हुआ. एक साहब शायर मिजाज़ थे, उन्होंने दो-चार शेर कहे. इतने में वह छोटी मज़ार आ गई. मैंने उसके मुताल्लिक दरयाफ्त किया. पता चला एक टामी पीर साहब थे, उनकी ही मज़ार है. टामी साहब शायद बड़े पीर के मुरीदों में थे.
मुझे टामी नाम खटका, मैंने उनके सम्बन्ध में कई सवाल किये. शायर साहब के अलावा हमारे बाकी सब साथी अनपढ़ गंवार थे. उन्हें ज्यादा पता तो था नहीं. शायर साहब कुछ जानते हों मालूम नहीं, लेकिन उन्होंने कुछ बताया नहीं. फिर भी उनके बोलने की तर्ज़ से मालूम हुआ वह टामी साहब की कोई खास कद्र नहीं करते. उनकी मजार पर वह वह कभी जाते भी नहीं, हालांकि इश्कमिजाजी का मज़ा लेने के लिए वह मकबरे को अक्सर जाते.
टामी नाम के सबब से और शायर साहब के हाव-भाव से टामी साहब का पूरा हुलिया जानने को मैं बेचैन हो पड़ा. दो-चार हफ़्तों की छानबीन के बाद जो कुछ मालूम हुआ, उससे कभी तो हँसने को जी चाहे, कभी रोने को. हमारा अन्धविश्वास भी हमें कहाँ ले जाकर फेंक देता है.
टामी पीर की कब्र के पास ही एक पक्का बंगला था, उजाड़ और बेमरम्मत, छप्पर सड़ कर गिरा जा रहा था. चहारदीवारी की ईंटें तितर-बितर हो रही थीं. मकान की यह हालत इसलिए हो चली थी कि एक तो शहर तनज्जुली पर था, वहां का व्यापार मंदा पड़ गया था और धीरे-धीरे शहर का शहर उजड़ा जा रहा था. वह बंगला भूतों का बसेरा था. किरायेदार तो कोई आता न था, मकानमालिक भी लावारिस मर गया. उसके वंश के और लोग दूसरे शहर में जा बसे. अब गौर से देखने पर मालूम हुआ कि वह कब्र पहले उस बंगले के अहाते में बनी थी. इस वक्त जो ईंट की एक नीची सी चहारदीवारी उसके चारों तरफ खींची थी वह उस बंगले की चहारदीवारी की ईंटों से ही चुनी गई थी. लेकिन सरसरी निगाह से देखने पर यही जान पड़ता था कि बंगले से कब्र का कोई सम्बन्ध नहीं था. 
बंगले और कब्र का इस तरह का ताल्लुक कायम हो गया तब मैंने यह पता लगाने की कोशिश की कि बंगले का पिछला किरायेदार कौन था. मकान मालिक के जो रिश्तेदार दूसरे शहर में चले गए थे, उनसे मिला. वहां सिर्फ इतना ही मालूम हुआ कि ७०-८० वर्ष हो गए, एक गोरा साहब किराये पर उस मकान में रहता और अफीम का व्यापार करता था. बही-खाता देखने पर पता चला कि उसका नाम रॉबिन्सन था. खोज-ढूँढ कर यह भी मालूम हुआ कि साहब अपने मुंशी से हर महीने की आठवीं तारीख को किराया भिजवा दिया करता था. मुंशी जी के दस्तखत कई चिट-पुर्जों पर था, जिनका शोध करने पर पता चला कि उनका नाम था नौरंगीलाल.
अब यह सवाल हुआ कि ये नौरंगीलाल थे कहाँ के और अब इनके घर कोई ज़िंदा है या नहीं? वहां तो और कुछ पता चला नहीं, इसलिए मैं अपने शहर को वापस आ गया. वहां बहुत पूछताछ करने पर अफीम का बूढ़ा दुकानदार मिला, जिसका बाप रॉबिन्सन के साथ कारोबार करता था.
अफीम की खेती बंद हो जाने के सबब से अफीम का व्यापार बहुत मंदा पड़ गया था, लेकिन यह दुकानदार अफीम बेचने का लाइसेंस लेकर एक छोटी सी दुकान लिए बैठा था. नौरंगीलालाल का पता तो उसको न था, लेकिन उसने बताया कि शहर का कोई एक बड़ा रईस हीरालाल है, जिसके बाप-दादों ने अफीम के व्यापार में लाखों रूपए बनाए थे. मैं हीरालाल की गद्दी पर गया. वहां उनके मुनीम से पता चला कि हीरालाल तो नौरंगीलाल का ही पोता है. मुनीम की उम्र कोई सत्तर साल की होगी. मैंने सोचा, नौरंगीलाल के घर का भेद इसे ज्यादा कौन जानता होगा. इधर-उधर की बातें करते-करते रॉबिन्सन के मुताल्लिक बातें होने लगीं- ‘नौरंगीलाल रॉबिन्सन के मुंशी थे और सच पूछिए तो बाबूजी, तो साहब को बूढ़े लाला ने बड़ा उल्लू बनाया था. ऐसे गहरे हाथ मारे कि साहब को पता भी न चला. रुपयों का ढेर उठाकर घर में धर लिया. साहब तो आखिरी दम तक मुंशी जी की ईमानदारी का गुणगान ही करता रहा.’ मैंने साहब के बंगले की बात छेड़ी. बूढ़ा मुनीम मुस्कराया, ‘बाबूजी, भूत-वूत कुछ भी नहीं था वहां. मकानमालिक के पट्टीदारों ने यह सब तमाशा रचा था, ताकि उनकी यह जायदाद खत्म हो जाये. वह बेचारा तो मिट ही गया, ससुरे खुद भी भीख मांगने लगे. दूसरों का जो बुरा करता है, वह कभी सुखी नहीं रह सकता बाबूजी.’
मेरी आँखों में ऐसे कई महानुभावों के चित्र नाच उठे जो दूसरों का खून पीकर मोटे बने हुए थे, लेकिन मुनीम की बातों पर मैं चुप ही रहा, बल्कि सर हिलाकर गंभीरता के साथ अपनी सहमति भी प्रकट की. कुछ देर बाद मैंने टामी पीर का ज़िक्र किया. मुनीमजी खिलखिलाकर हँस पड़े, बोले- ‘आपको नहीं मालूम उस पीर का भेद? आधा शहर तो जानता है.’
मैंने कहा- ‘मैं तो हफ़्तों से इसी छानबीन में लगा हूँ, लेकिन अब तक आपके सिवा मुझे कोई ऐसा न मिला जिसे उसका पता हो.’
बूढ़े ने मुझे अचरज भरी आँखों से देखा. एक ठंढी सांस लेकर बोला- ‘हाँ, अब पुराने लोग हैं ही कहाँ? और यह शहर भी तो उजड़ गया. तो लीजिए, मैं आपके दिल की गुदगुदी मिटाए देता हूँ. टामी पीर रॉबिन्सन साहब का एक प्यारा कुत्ता था. उस वक्त उसे पीरी न मिली थी, सिर्फ एक कुत्ता ही था, लेकिन बहुत अच्छी नस्ल का और सुनते हैं- बड़ा खूबसूरत और बहादुर था. साहब और उसकी मेम उस कुत्ते को जी-जान से प्यार करते. निःसंतान होने के कारण सारा लाड-प्यार उस कुत्ते पर ही न्योछावर कर देते. दुर्भाग्यवश, वह कुत्ता बीमार हुआ और इस दुनिया से चल बसा. साहब और उसकी मेम के शोक का आप अंदाज़ा कर सकते हैं. उन्होंने अपने अहाते के एक कोने में उसे दफनाया और उसकी समाधि का एक अच्छा सा चबूतरा बनवा दिया. सुना है, सुबह को बाग से फूल तोड़कर मियां-बीवी उस कब्र पर रोज रखा करते.’
‘अच्छा यह बात है? तो आज हम और हमारे मुसलमान भाई एक कुत्ते की पूजा कर रहे हैं. मैं तो इसका भंडाफोड किये बगैर न रहूँगा.’ मेरे ये उदगार सुन बूढ़ा मुनीम थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा. फिर धीरे से बोला- ‘जाने दीजिए, बाबूजी, इससे आपको क्या फायदा होगा? जो लोग टामी पीर की कब्र पर आज दुआएं मांगने और श्रद्धा के फूल चढाने जाते हैं, वे थोड़े ही जानते हैं कि वह एक कुत्ते की मज़ार है. उन्हें तो किसी नेक पाक पीर का ही ख्याल रहता होगा. सिजदे और प्रार्थनाओं से उनके दिल का मैल कुछ न कुछ धुलता ही होगा.’


सहसा मैं उस बूढ़े की बात का जवाब नहीं दे सका. कुछ देर चुप बैठा रहा. फिर मुनीम जी को बहुत धन्यवाद देकर कुछ सोचता-सोचता अनमना सा घर लौट आया.  

प्रभात खबर से साभार             

हेमिंग्वे की कहानी 'एक लेखिका लिखती है'

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जुलाई का महीना हेमिंग्वेका महीना है. इसी महीने 21 तारीख को इस बेमिसाल लेखक का जन्म हुआ था और 2 जुलाई को उन्होंने आत्महत्या की थी. न कह कर कहने की अदा के इस लेखक की तरह कहानी लिख पाना आज भी बहुत मुश्किल है. उसकी तकनीक को 'हिडेन फैक्ट'कहा जाता था. इस कहानी में उस तकनीक का कमाल देखिये. लेखक ने जो नहीं लिखा वही इस कहानी में मायने रखता है- मॉडरेटर 
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एक लेखिका लिखती है

अपने शयन कक्ष में मेज़ पर अखबार खोले बैठी वह खिडकी से बाहर बर्फबारी देख रही थी. बर्फ छत पर गिरती थी पिघल जाती थी. उसने बाहर देखना बंद किया और यह खत लिखने बैठ गई. आराम-आराम से जिससे न कुछ काटना पड़े न ही दोबारा लिखना पड़े.
                                                    रोनोके, वर्जीनिया
                                                    फरवरी ६, १९३३
प्रिय डॉक्टर,
क्या मैं पत्र के माध्यम से आपसे कुछ बहुत ज़रूरी मशविरा ले सकती हूँ- मुझे एक फैसला लेना है, पर समझ नही पा रही हूँ किस पर भरोसा करूं, अपने माँ-पापा से पूछने का साहस नहीं कर पायी इसलिए आपको लिख रही हूँ, वह भी इसलिए क्योंकि मैं आपसे मिलने की ज़रूरत नही समझती. क्या तब भी मैं आप पर भरोसा कर सकती हूँ. बात यह है कि मैंने अमेरिकी सेना में काम करनेवाले एक आदमी से १९२९ में शादी की और उसी साल उसे चीन भेज दिया गया- शंघाई- वहाँ वह तीन साल रहा- फिर घर आया- कुछ महीने पहले उसे सेना की सेवा से मुक्त कर दिया गया और वह हेलेना, अरकंसास में अपनी माँ के घर चला गया. फिर उसने मुझे खत लिखकर घर बुलाया, मैं गई, मैंने पाया कि उसे नियमित रूप से सुइयां दी जा रही थीं, स्वाभाविक है कि मैंने पूछा तो पता चला, मैं कैसे कहूँ, उसे सिफलिस हो गया था और उसी का इलाज़ चल रहा है- आप समझ गए न मैं क्या कह रही हूँ- अब आप मुझे बताइए, उसके साथ फिर से रहना क्या सुरक्षित रहेगा. जबसे वह चीन से आया है मैं उसके नज़दीक भी नहीं गई हूँ. वह मुझे भरोसा दिलाता रहता है कि इस डॉक्टर के इलाज़ से वह ठीक हो जाएगा- क्या आपको ऐसा लगता है- मुझे याद है, मेरे पिता कहते थे अगर कोई इस बीमारी की चपेट में आ जाए तो उसे यही कामना करनी चाहिए कि उसकी जल्दी मौत हो जाए- मैं अपने पिता का तो भरोसा करती हूँ लेकिन अपने पति पर सबसे अधिक विश्वास करना चाहती हूँ. प्लीज़, प्लीज़ मुझे बताइए क्या करना चाहिए- जब वह चीन में था उस दौरान हमारी एक बेटी पैदा हुई थी.

धन्यवाद और पूरी तरह आपकी सलाह पर निर्भर, आपकी
और नीचे उसने अपने हस्ताक्षर कर दिए.

हो सकता है वह मुझे इस बारे में कुछ बताए कि क्या करना उचित होगा, उसने अपने आप से कहा. हो सकता है वह मुझे कुछ सुझाए. अखबार में छपी तस्वीर को देखकर तो लगता है कि वह जानकार है. देखने में तो स्मार्ट लगता है. रोज़-रोज़ वह सबको बताता रहता है, क्या करना चाहिए. उसे ज़रूर पता होना चाहिए. मैं वही करना चाहती हूँ जो सही हो. वैसे काफी समय बीत चुका है. समय काफी हो गया है. बहुत समय से यह सब  चल रहा है. हे ईश्वर, बहुत समय हो चुका है. उसे तो वहीं जाना होगा जहाँ वे उसे भेजेंगे, मैं जानती हूँ, लेकिन मैं यह नहीं जानती कि उसने क्या किया कि उसके साथ यह हुआ, मैं तो ईश्वर से यही मनाती हूँ कि उसे यह सब नहीं हुआ होता. मुझे इसकी परवाह नहीं है कि उसने ऐसा क्या किया कि उसे यह बीमारी हुई. बल्कि मैं तो ईश्वर से मनाती हूँ कि उसके साथ यह सब कभी नहीं हुआ होता. ऐसा लगता तो नहीं है कि उसको यह नहीं होना चाहिए था. मुझे समझ नहीं आ रहा है कि क्या करना चाहिए. मैं तो ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि काश उसे किसी तरह की बीमारी नहीं हुई होती.

मुझे नहीं पता क्यों उसे यह बीमारी होनी चाहिए थी.


मूल अंग्रेजी से अनुवाद: प्रभात रंजन   

उपासना झा की कहानी 'ईद मुबारक'

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आज ईद का मुबारक त्यौहार है. सेवैयाँ खाने के इस त्यौहार को मीठी ईद भी कहते हैं. यही दुआ है कि समाज में मीठापन आये, कडवाहट घुल जाए. आज जानकी पुल पर पढ़िए युवा लेखिका उपासना झा की कहानी 'ईद मुबारक'. सबको ईद मुबारक- मॉडरेटर 
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ईद मुबारक
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शाम होने को थी, सबीन के हाथ तेज़ी से चल रहे थे। कपड़ो की तहें लगाती बार-बार घड़ी की तरफ भी देख रही थी। रात के खाने की तैयारी हो चुकी थी, और कल ईद की दावत की भी। बस बाज़ार से कुछ मिठाइयाँ और गिफ्ट्स लाने बाकी थे। उसने सोच रखा था कि इस बार सभी छोटे-बड़ो को तोहफे देगी, उसकी जॉब लगी थी इसी साल, लेकिन उसके अच्छे काम की वजह से उसका प्रमोशन हो गया था। अपने घर के लोगों की मेहनत और छोटे-छोटे त्याग उसके ध्यान में थे। अम्मी के लिए सूट और एक नया चश्मा, छोटी बहन के लिए एक लेटेस्ट फोन, जो वो बहुत दिनों से मांग रही थी। और प्यारे अब्बा के लिए उनकी पसंद की किताबों की सेट, जो महँगी होने की वजह से वो कम ही खरीद पाते थे। इसके अलावा उसने दोस्तों और रिश्ते के भाई-बहनों के लिए कुछ न कुछ जरूर लिया था। इस ईद के लिए उसने बहुत पैसे बचाये थे, न ऑफिस वालों के साथ मूवी जाती न लंच या डिनर पर। कुछ लोग मज़ाक में कंजूस भी कहते लेकिन वो हँस के टाल देती।

सब हिसाब लगाकर उसके पास फिर भी इतने पैसे बच रहे थे कि खुद के लिए नयी स्कूटी ले सके, ऑफिस दूर था और बस से आने जाने में बहुत दिक्कत होती थी। वो और छोटी बहन आयशा बाज़ार की तरफ चले आये। यहाँ की रौनकें देखकर उसका जी खुश हो गया। चारो तरफ रंग-बिरंगी चूड़िया और दुप्पट्टे।  दोनों बहनों ने मेहंदी लगवाई और अम्मी के लिए मेहंदी का कोन ले लिया। वो यूँ भी सिम्पल डिजायन पसंद करती थी।
सबके लिए गिफ्ट्स लेकर घर का रुख किया।
मुहल्ले में बाकी घर तो ख़ुशी से चमक रहे थे बस एक घर में उदासी का अँधेरा पसरा था। सबीन ने आयशा की तरफ देखा तो उसने कुछ जवाब न दिया। उसको वैसे तो पूरे मोहल्ले की खबर रहती थी फिर ऐसी क्या बात थी जो वो बता नहीं रही है।
घर आकर अगले दिन की तैयारियाँ करते करते बहुत देर हो गयी। आयशा तो अम्मी को मेहंदी लगाने का बहाना कर जो बैठी तो सब काम खत्म होने के बाद ही किचन में आयी। सबीन ने मुस्कुराकर छोटी बहन की तरफ देखा जिसने दो साल उसको कोई काम नहीं करने दिया था, जब वो परीक्षा की तैयारी कर रही थी। सबीन को अचानक वो घर ध्यान में आ गया, जहाँ उसने अँधेरा देखा था।
-"छोटी, बता न.. देख आखिरी बार पूछ रही हूँ
-"सबीन बाज़ी, आपको क्या करना है जानकर? छोड़िये न इस बात को
-"छोटी, बताती है कि अब्बू  से पूछ लूँ!
आयशा ने अब्बू के नाम की धमकी सुनते ही कहा
-"आप तो उनकी प्यारी बेटी हो, आपको जरूर बता देंगे लेकिन इतनी रात में उनको परेशान मत करिये। चलिये मैं ही बता देती हूँ।
-"आपको जीशान याद है?
सबीन अपनी पढाई में इतनी मशगूल रही थी कि उसे आस-पड़ोस की कुछ ख़बर ही नहीं रही थी। और उसने भी सब भूलकर बहुत मेहनत की थी और आज सरकारी मुलाजिम थी। मुस्लिम समुदाय से होने के बावजूद उसके अम्मी-अब्बू रौशन ख़्याल थे और तालीम को बेहद जरुरी मानते थे। अपनी प्राइवेट नौकरी की खींचतान और कम सैलरी में भी कभी उनदोनो ने अपनी बच्चियों को अच्छे स्कूल और कॉलेज में पढ़ाया था।
सबीन ने बहुत दिमाग पर जोर डाला तो एक धुंधला सा नक्श उभरा।
-"हाँ, वही न जो कॉलेज की फ़ुटबाल टीम का कैप्टेन था। अच्छा खेलता था। उसे क्या हुआ?
-"बाज़ी! वो 7-8 साल पहले की बात है। आयशा ने हैरत से बहन को देखते हुए कहा।
-"उसके बाद तो तू जानती ही है, पढ़ाई में ही रम गयी थी।
-"बाज़ी, जीशान भी जॉब करने बाहर चला गया था, वहाँ उसकी दोस्ती कुछ गलत लड़को से हो गयी थी। जबतक जीशान को कुछ समझ आया, तबतक बहुत देर हो चुकी थी। उसकी मौत एक बम धमाके में हो गयी अपने साथियों के साथ। उसके पास से बहुत हथियार वगैरह मिले। बार-बार पुलिस यहाँ आती थी। उनके सवालों से और लोगों की चुभती नज़रों से डरकर उसके अब्बा ने ख़ुदकुशी कर ली। अब उसकी अम्मी और बेवा एक बच्चे के साथ उसी घर में रहते हैं। रिश्तेदार भी कन्नी काटने लगे उनसे।
-"उनका घर कैसे चलता है अब? कोई कमाने वाला तो रहा नहीं?
-"पता नहीं ये सब तो। अब बहुत रात हुई सो जाते हैं, कल बहुत काम भी हैं।
सबीन कुछ सोचती सी रही और सो गयी। सुबह उठकर नमाज़ के बाद उसने अम्मी अब्बा को मुबारकबाद दी। उसने एक टोकरी में फल और मिठाइयाँ रखी और पहुँच गयी जीशान के घर। उसके दिमाग में कई सवाल घुमड़ रहे थे। बहुत दरवाज़ा खटखटाने पर किसी के आने की आहट हुई। दरवाज़ा खुलते ही जो शक्ल उसे दिखी उसने सब सोचे समझे जुमले हवा में उड़ा दिए। उस चेहरे पर भूख और लाचारी लिखी थी। अंदर आने का इशारा करती वह परे हो गयी।
एक बूढ़ी औरत भी एक बच्चे को लिए बैठी थी। बच्चा रो रोकर थक गया था और चुपचाप बैठा था। सबीन के मुंह से काफी देर तक कुछ न निकला। वो हड्डी का ढाँचा दिखती औरत निम्बू वाली चाय ले आयी थी। इस बीच जीशान की अम्मी से उसने दुआ सलाम कर ली थी। बच्चे के रोने की आवाज़ फिर आयी, बच्चा उसके हाथ की टोकरी को ललचायी नजरों से देख रहा था। सबीन को शर्मिंदगी का अहसास हुआ। उसने झट वो टोकरी बढ़ा दी।
-"ये क्यों रो रहा है?
-"बाहर जायेगा, दोस्तों के संग।
-"तो जाने दीजिए न!
-"नहीं बीवी, बच्चा है न, दूसरे बच्चों के खिलौने और  नए कपड़े देखकर तरसेगा।
अचानक सबीन पूछ बैठी।
-"घर कैसे चलता है?
-"क्या बताऊँ! बहुत मुश्किल से। जीशान खुद तो मर गया, हम रोज़ मरते हैं। उसके अब्बू शर्म से म गए, हमको भूख और गरीबी मारती है। बर्तन धोती है उसकी बीवी लेकिन वो भी इधर बीमार हो गयी है।
-"सिलना आता है?
-"हाँ बीवीजी।
"-मैं तुम्हें एक नयी मशीन खरीद देती हूँ। तुम सिलाई करो, बच्चे को पढ़ाओ भी।
तीन जोड़ी आँखे उसे लगातार घूर रही थी।प्यार, अविश्वास, स्नेह और कौतुहल से।
सबीन घर आई। अपने एटीएम से पैसे निकालकर कल ही रख चुकी थी। अम्मी अब्बू को अपनी मंशा बतायी। बाजार खुलते ही सबीन अब्बा के साथ जाकर नयी मशीन, कपड़े और राशन का सामान ले आयी और पहंच गयी फिर से वहीँ।
अम्मा अब्बू  की नजरों में प्यार था। और उन दोनों औरतों की
नजर में प्यार और कृतज्ञता। यही उसकी ईद थी। खास और खूबसूरत!




याद आई प्रेम के एक न भूले जाने वाले उपन्यास 'द डेविल इन द फ्लेश'की

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ये जो कम उम्र का लड़का और बड़ी उम्र की लड़की के प्यार का फार्मूला है न वह इसी लेखक के उपन्यास से शुरू हुआ था. महज 20 साल की उम्र में फ्रेंच साहित्य में प्रेम का एक न भूला जाने वाला उपन्यास लिखकर मर जाने वाले इस लेखक का जीवन फ़िल्मी सा लगता है और उनके उपन्यास पर एक मशहूर फिल्म भी बनी थी. उस फ्रेंच लेखक रेमंड रेडिग्वे ने लिखा है कि पहला प्रेम अक्सर साधारणता के आकर्षण से शुरु होता है और हमें असाधारणता की ओर ले जाता है. द डेविल इन द फ्लेशनामक फ्रेंच उपन्यास के लेखक रेमंड रेडिग्वे के अपने जीवन की दास्तान भी कम दिलचस्प नहीं है. 1923 में जब पहली नज़र में प्यार का यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तो उस समय रेमंड केवल 20 साल के थे. जब उपन्यास की चर्चा शुरु हुई तो उसी साल टायफायड बुखार से उनके जीवन का अंत हो गया. 20 साल से भी कम की उम्र में लिखे गए इस उपन्यास की गणना विश्व के सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ प्रेम-उपन्यासों में की जाती है. आज अचानक यह उपन्यास अपने किताबों के बरसों से न देखे गए खजाने से झांकता दिख गया- मॉडरेटर
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उपन्यास की पृष्ठभूमि प्रथम विश्वयुद्ध के आखिरी दिनों की है. उपन्यास का कमसिन कथानायक पेरिस के स्टेशन पर मार्था नाम की स्त्री को रेलगाड़ी से उतारते हुए देखता है और जैसे सूरदास ने लिखा है नैन नैन मिली पड़ी ठगौरीउसी तरह पहली नज़र में ही सोलह साल के उस लड़के को उम्र में अपने से बड़ी महिला से प्यार हो जाता है. मार्था की सगाई हो चुकी है, शादी भी हो जाती है लेकिन उसका फौजी पति विश्वयुद्ध में लड़ने लाम पर चला जाता है. फ्रांको नाम के उस लड़के से दुबारा मिलकर नवविवाहिता मार्था के विरह की अग्नि भी कुछ ठंढी होती है लेकिन दोनों के प्यार की आग भड़क उठती है. उपन्यास में उनके उद्दाम प्रेम की कहानी है. १९ साल की युवती मार्था की नई-नई शादी हुई है और वह अपने नए होने वाले घर को सजाने संवारने के लिए अपने पति के लौटने की प्रतीक्षा कर रही होती है. ऐसे में उसकी मुलाक़ात फ्रांको नाम के लड़के यानी उपन्यास के कथावाचक और नायक से होती है. उसकी आँखों में भी कुछ सपने हैं. दोनों वास्तविकता की शोरोगुल से दूर अपने-अपने सपनों में खोये रहते हैं कि उनकी आपस में मुलाकात हो जाती है और उनके सपनों के पंख लग जाते हैं. दोनों को जिंदगी में पहली बार यह महसूस होता है कि उनको कुछ ऐसा हो गया है जो पहले कभी नहीं हुआ था. यही पहले प्यार का अहसास होता है, न उससे पहले कुछ वैसा अहसास होता है न ही उसके बाद कभी होता है. समाज की नैतिकताओं, मर्यादा आदि से उसका कोई संबंध नहीं होता है.
आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास केवल प्रेम-वर्णनों के लिए ही नहीं जाना जाता है बल्कि स्त्री-पुरुष संबंधों में वर्चस्व, अधिकार, समर्पण जैसे भावों की अपने समय में नई व्याख्या के लिए भी याद किया जाता है. मार्था अपने किशोर प्रेमी के उद्दाम प्रेम के पूरी तरह वश में रहती है. वह अपने नए घर के लिये उसके पसंद के सामान खरीदती रहती है. यहाँ तक कि फ्रांको ही उसे बताता है कि घर में किस तरह का फर्नीचर खरीदना चाहिए, उसे किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए. विवाहिता होने के बावजूद उसे ऐसा महसूस होता है जैसे जीवन में पहली बार उसे किसी ने इस तरह टूटकर सम्पूर्णता में प्यार किया हो. उस सच्चे प्यार की निशानी के तौर पर मार्था के पेट में फ्रांको का बच्चा पलने लगता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि द डेविल इन द फ्लेशने उस दौर प्रेम को नए सन्दर्भ दिए, नए मायने दिए. मार्था के प्यार में फ्रांको १६-१७ की उम्र में सम्पूर्ण पुरुष बन गया और मार्था को पहली बार स्त्रीत्व का सुख मिला. मार्था के प्यार में पड़ने के बाद उपन्यास के किशोर कथानायक को यह बात समझ में आती है कि जीवन के मायने क्या होते हैं, किस तरह संसार केवल भावना के आधार पर संचालित नहीं होता. सांसारिकता तो अक्सर क्रूर बुद्धि का खेल होता है. पुरुष होने का सचमुच क्या अर्थ होता है?

बहरहाल, इस प्रेम-संबंध का वही हश्र होता है जो अक्सर इस तरह के प्रेम-संबंधों का होता है. उपन्यास में एक स्थान पर फ्रांको कहता है जबसे मैं इस बात को लेकर मुतमईन हो गया हूँ कि मैं उससे प्यार नहीं करता मैं उससे और भी अधिक प्यार करने लगा हूँ. प्यार कुछ पाने के लिए नहीं अक्सर कुछ खोने के लिए किया जाता है. सब कुछ खोकर एक कसक के साथ उम्र भर जीने के लिए. फ़्रांस में इस उपन्यास के प्रकाशन के साथ बवाल मच गया. कहा जाने लगा द डेविल इन द फ्लेशजैसा उपन्यास समाज में अनेक तरह की विकृतियों को जन्म देगा, किशोरों को गलत राह पर ले जायेगा. कहा गया कि उपन्यास में एक गौरवशाली युद्ध का मजाक उड़ाया गया है. लेकिन २० साल के किशोर द्वारा लिखे गए इस उपन्यास की साहसिक कथा ने आलोचकों का ध्यान भी अपनी ओर खींचा. एक आलोचक ने तो लिखा कि उपन्यास को पढकर यह कल्पना की जा सकती है कि अगर वयस्क होने के बाद भी यह लेखक लिखता रहता तो उसका लेखक कितना जानदार हुआ होता. खैर, उपन्यास के प्रकाशन के कुछ दिनों बाद ही रेमंड रेडिग्वे का देहांत हो गया. उसकी मृत्यु वैसे तो बीमारी से हुई थी लेकिन यह कहा जाने लगा कि अपनी प्रेमिका का बिछोह नहीं सह पाने के कारण ही उसकी मृत्यु हो गई. रेमंड रेडिग्वे को एक ऐसे लेखक के रूप में याद किया जाने लगा जो प्रेम के लिए न केवल जिया बल्कि उसने प्रेम के लिए अपनी जान भी दे दी. द डेविल इन द फ्लेशपहली नज़र के दुखांत प्रेम का ऐसा उपन्यास है जिसे मार्था और फ्रांको के सच्चे प्रेम के लिए हमेशा याद किया जायेगा.

रस्किन बांड का एक संस्मरण-किस्सा और हिंदी में उनकी नई किताब

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रस्किन बांडऐसे लेखक हैं जिनके पाठक हर उम्र के हैं, हर वर्ग के. मेरी बेटी भी उनकी पाठिका है और मैं भी. बहरहाल, उनकी किताब 'बुक ऑफ़ ह्यूमर'का हिंदी अनुवाद शीघ्र राजपाल एंड सन्ज से प्रकाशित होने वाला है. उसी का एक किस्सा. अनुवाद किया है स्वाति अर्जुनने- मॉडरेटर 
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 नाना जी के बहुतेरे चेहरे
मेरे नाना बहुत ही प्रतिभासंपन्न थे, लेकिन उनकी सबसे असाधारण और कभी-कभी चौंकाने वाली खूबी थी, भेस बदल कर किसी और का रूप धरने कीI यह छद्म भेस कभी किसी फेरी वाले का होता तो कभी किसी बढ़ई का, या फिर धोबी या सब्ज़ी वाले काI कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसके तौर-तरीके को उन्होंने अपने आस-पास देखा हो या फिर जिसकी आदतें या लक्षणों के ऊपर उन्होंने गौर किया होI

उनके रोज़मर्रा के कपड़े किसी भी सामान्य मध्यवर्गीय एंगलो-इंडियन या अंग्रेज़ शख़्स की तरह हुआ करते थे-- जिसमें बुशर्ट, खाक़ी शॉर्ट्स, कभी-कभार पहने जाने वाला सोला-टोपी या सूरज से बचने वाला हेलमेटलेकिन अगर आप उनकी अलमारी की छानबीन करेंगे तो वहाँ आपको तरह-तरह के कपड़ों का संग्रह मिलेगाI इनमें धोती, लुंगी, पायजामा, कसीदेकारी वाली शर्ट, रंगबिरंगी पगड़ियां... आदिI एक दिन वे महाराजा बन जाते तो दूसरे दिन भिखारी, आप विश्वास नहीं करेंगे लेकिन उनके पास भीख माँगने के लिए पीतल की एक कटोरी भी थीI वैसे, उन्होंने इस पीतल की कटोरी का इस्तेमाल सिर्फ़ एक बार ही किया था सिर्फ़ यह जाँचने के लिए कि क्या वे एक झुकी हुई कमर वाले भिखारी के रूप में बाज़ार में घुमते हुए पहचाने जा सकते हैं या नहींI वे पहचाने नहीं गए थे लेकिन उन्होंने यह ज़रूर माना कि भीख़ मांगना कोई आसान काम नहीं हैI

तुम्हें पूरे दिन, हर मौसम में सड़क पर रहना पड़ता है,’ उन्होंने मुझसे उन दिन कहाI ‘आपको हर किसी के साथ विनम्र रहना पड़ता हैकोई भी भिख़ारी अक्ख़ड़ होकर सफल नहीं हो सकता है! आपको हर समय सचेत रहना पड़ता हैI मेरा विश्वास करो, यह बहुत ही मेहनत वाला काम हैI मैं किसी को भी आजीविका चलाने के लिए भीख मांगने का काम करने की सलाह नहीं दूंगाI’

नाना जी को सच दूसरों की ज़िंदगी, उनके काम-काज, उनकी नौकरी और जीवन पद्धति  का अनुभव करना बहुत बहुत पसंद थाI और वे अक्सर अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ ऐसा मज़ाक किया करते थेI

नानी को दुकानदारों और फेरीवालों के साथ मोलभाव करना बहुत पसंद थाI वे हमेशा बड़ी शान से डीगें हाँकती कि वह सब्ज़ी हो, कपड़े हो या बटन... कोई भी चीज़ वह किसी भी दूसरे व्यक्ति से ज्य़ादा सस्ते में खरीद सकती हैं... जब तक कि एक दिन फेरी सब्ज़ीवाला, जो सिर पर एक टोकरी में फल और सब्ज़ियां बेचने आया हुआ था उसने बरामदे में करीब एक घंटे तक नानी से इन फलों और सब्ज़ियों की कीमत को लेकर बहस नहीं की और अंत में उन्हें उनकी ज़रुरत का सामान देकर गयाI

   उसी दिन बाद में नाना ने नानी का सामना करते हुए सवाल किया कि आख़िर उन्होंने उस सब्ज़ीवाले को टमाटर और हरी मिर्च के लिए ज़्यादा पैसे क्यों दिये, ‘वह बाज़ार में दिए जाने वाले कीमत से कहीं ज़्यादा था,’ उन्होंने पूछाI
   
 ‘आपको कैसे पता कि मैंने उसे कितने पैसे दिए?’ नानी ने पूछाI
    
   ‘क्योंकि वह दस रुपय का नोट यहाँ मेरे पास है,’ नाना जी ने नानी को पैसे वापिस देते हुए कहाI ‘मैंने कपड़े बदल कर सब्ज़ी वाले का भेष धरा था और एक घंटे के लिए उसका टोकरा उससे मांग लिया थाI’

  नाना जी ने कभी भी मेकअप का इस्तेमाल नहीं किया करते थे, उनकी त्वचा का रंग भूरा था और सिर्फ़ नकली मूंछ, दाढ़ी और पगड़ी के सहारे वे जो चाहते वह बन जातेI

  एक बार सिर्फ़ मुझे ख़ुश करने के लिए वे तांगा-वाला बन गए थेI तांगे वाला यानी घोड़े या टट्टू द्वारा खीचें जाने वाली एक बग्घी को हाँकने  वालाI यह सवारी मेरे स्कूल के दिनों में काफी आम हुआ करती थी

  नाना जी ने अपने एक नज़दीकी मित्र से तांगा मांगकर मुझे एक पूरे दिन तांगे की मज़ेदार और यादों से भरी सैर करायी थीI तांगे की सैर के दौरान हमलोगों न बक़ायदा रास्ते में सवारियां भी उठाईं और उन्हें उनकी मंज़िल तक भी पहुंचाया, हालांकि इससे जो पैसे हमने कमाय थे वह शाम को तांगे के मालिक को बड़ी ही ईमानदारी से दे दिया गयाI हमारे यात्रियों में से एक हमारे स्थानीय डॉक्टर बिष्ट भी थे, जो नाना जी को नहीं पहचान पाएI लेकिन तांगे में मुझे देखते ही वे पहचान गए, ‘और तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’  उन्होंने पूछाI ‘क्या तुम्हें इस वक्त़ स्कूल में नहीं होना चाहिए?’
  
  ‘मैं नाना जी की मदद कर रहा हूंI’ मैंने छूटते ही कहाI ‘यह मेरे साइंस प्रोजेक्ट का हिस्सा हैI’ डॉ बिष्ट ने फिर से नाना जी को ग़ौर से देखा और हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए; उस दिन उन्होंने हमसे तांगे पर मुफ़्त यात्रा की भी मांग कीI

  एक बार नाना जी, नानी को तांगे पर बिठाकर बैंक ले गए और नानी भी उन्हें पहचान नहीं पायीI वहभी सफेद टट्टू द्वारा खींचे जाने वाले तांगे मेंI नानी सफ़ेद टट्टुओं को लेकर काफी वहमी थी और कोशिश करतीं थी कि उन्हें उनमें सवारी न करना पड़ेI लेकिन नाना जी, तांगे वाले के भेष में नानी को इस बात का यक़ीन दिलाने में क़ामयाब रहे कि उनका यह सफ़ेद घोड़ा, दुनिया के बाक़ी सभी घोड़ों से ज्य़ादा तमीज़दार है; और जैसा कि होना था नाना जी के अनुभवी कलाकारी की बदौलत नानी के मन से सफ़ेद टट्टुओं का डर पूरी तरह से खत्म हो गयाI         

  एक बार सर्दियों में जेमिनी सर्कस वालों ने हमारे छोटे से उत्तर भारतीय कस्बे के पुराने परेड मैदान में टेंट डालाI नाना को सर्कस और सर्कस वाले लोग काफी पसंद थे, वे जल्दी ही उनसे घुलमिल गएI उनकी जल्दी ही सर्कस के मालिक, रिंग मास्टर, शेर पालने वाले, बग्घी चालक, जोकर, करतब दिखाने वालों और कलाबाज़ी दिखाने वाले नटों से दोस्ती हो गईI उन्होंने मुझे बता रखा था कि जब वे छोटे थे तब हमेशा से सर्कस का हिस्सा बनना चाहते थे, एक जानवर प्रशिक्षक या रिंग मास्टर के तौर पर, लेकिन उनके माता-पिता की ज़िद के कारण उन्हें इंजिन ड्राईवर बनना पड़ा थाI
 
  ‘ट्रेन के इंजिन को चलाने में काफी मज़ा आता होगा?’ मैंने कहाI
  ‘हां, लेकिन शेर को पालतू बनाना उससे ज्य़ादा सुरक्षित हैI’ नानाजी ने कहाI

  सर्कस वालों से अपनी दोस्ती का फायदा उठाकर नाना जी अक्सर सर्कस के शो की मुफ़्त पास ले आया करते थेI जिससे वे मुझे, मेरे कज़िन मेलानी और पड़ोस में रहने वाले मेरे छोटे से दोस्त गौतम को सर्कस का शो दिखाने ले जाया करते थेI

 ‘क्या आप हमारे साथ नहीं आ रहे हैं?’ मैंने नाना जी से पूछाI
 ‘मैं वहीं रहूँगा,’ उन्होंने कहाI ‘मैं वहाँ अपने दोस्तों के साथ रहूँगाI देखूं तुम लोग मुझे पहचान पाते हो या नहीं!

  हमलोगों को इस बात का यक़ीन हो गया था कि नाना जी एक बार फिर से अपना रूप बदलने वाले हैं और वे उन दिन के कार्यक्रम में किसी न किसी रूप में हिस्सा ज़रूर लेंगेI इस तरह से मेलानी, गौतम और मेरे लिए उस शाम का सर्कल का शो एक अनुमान लगाने वाली शाम बन गयीI

  उस शाम सर्कस के शो को देखते हुए हम पूरी तरह से सम्मोहित हो गए थे बाघों का ड्रिल वाला करतब करना, खूबसूरत लड़के और लड़कियों का झूलों पर झूलना, बहादुर मोटरसाईकिल सवार का आग के गोले के बीच से कूदना, बाज़ीगरों और मसखरों की कारस्तानियाँयह सब हमें बांधे हुए थाI लेकिन इन सब के बीच हम नाना जी को ढूंढते रहे, कि शायद इन कलाकारों के बीच वे हमें कहीं दिख जाएँI हमलोग ज़्यादा शोर नहीं कर सकते थे क्योंकि हमारी सीट के ठीक पीछे शहर के कुछ बड़े सम्मानित बुज़ुर्ग बैठे हुए थेइनमें मेयर, पगड़ीधारी महाराजा, औपचारिक परिधान में एक अंग्रेज़ जेंटलमैन जिसके कपड़ों में सेना की पहचान लगी हुई थी, मिशनरी की कुछ नन और ग़ौतम की क्लास टीचर! लेकिन फिर भी पूरे शो के दौरान हमारी चटर-पटर चलती रहीI

क्या शेर को नचाने वाले वे शख़्स तुम्हारे नाना जी हैं?’ गौतम ने पूछाI
मुझे नहीं लगता,’ मैंने कहाI ‘उनका शेर के साथ कोई अनुभव
 नहीं रहा हैहाँ, वे बाघों को पालतू बना सकते हैं!लेकिन बाघों का
ध्यान तो कोई दूसरा व्यक्ति रख रहा हैI

हो सकता है कि वे उन नटों में से कोई एक हों?’ मेलानी ने कहाI
लेकिन वे उन नटों से ज्य़ादा लंबे हैं,’ मैंने कहाI

गौतम ने काफी अच्छा अनुमान लगाते हुए कहा: हो सकता है
कि वे उन दाढ़ी वाली महिलाओं में से एक हों!

गौतम के कहने के बाद जब वह दाढ़ी वाली महिला हमारी तरफ वाले रिंग में आयी तो हमने उसे काफी ध्यान से देखाI उसने हमें देखकर मुस्कुराते हुए हाथ भी हिलाया, उसके बाद गौतम ने चिल्लाकर उनसे पूछ भी लिया कि, ‘क्या आप रस्किन के नाना जी हैं?’

नहीं प्यारे बच्चे,’ उस महिला ने खिलखिलाकर हँसते हुए कहाI ‘मैं उनकी गर्लफ्रेंड हूं!फिर वह रिंग के दूसरी तरफ चली गईI

उसके बाद एक नट आया और हमारी तरफ देखते हुए उसने तरह-तरह के मज़ेदार चेहरे बनाएI
क्या आप नाना जी हैं?’ इस बार मेलानी ने पूछाI
लेकिन उसने सिर्फ़ दांत दिखाए, वह पीछे की ओर गया और फिर वहां से आगे चला गयाI
अब मैं नहीं कर सकता,’ मेलानी ने हथियार डालते हुए कहाI ‘या फिर वह  नाचता हुआ भालू नाना जी होI’
वह एक असली भालू है,’ गौतम ने कहाI ‘ज़रा उसके पंजों को तो देखो!
वह भालू सचमुच में असली दिख रहा थाI और शेर भी, हालांकि वह थोड़ा गंदा ज़रूर थाI बाघ बिल्कुल बाघ जैसे ही लग रहे थेI

हमने यह मान लिया था कि नाना जी वहाँ थे ही नहीं और यह सोचते हुए हम घर चले गएI

तो तुम लोगों को सर्कस में मज़ा आया या नहीं?’ उस रात उन्होंने खाने के टेबल पर पूछाI

हां, लेकिन आप वहां नहीं थे,’ मैंने शिकायती लहज़े में कहाI ‘हमने वहां हर किसी को बड़ी ही ध्यान से देखा था, उस दाढ़ी वाली महिला को भी!’  

ओह्हह, मैं पूरे समय वहीं था,’ नाना जी ने कहाI मैं ठीक तुम्हारे पीछे बैठा हुआ थाI लेकिन तुम लोग सर्कस देखने में इतने मगन थे कि तुम्हें वहां बैठे दर्शक नज़र ही नहीं आयेI मैं वह बेहद स्मार्ट सा दिखने वाला, सूट और टाई पहने अंग्रेज जेंटलमैन था, जो महाराजा और नन के बीच में बैठा हुआ थाI मैंने सोचा कि आज मैं बस वही बनकर जाउंगा जो मैं हूं!
  
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हेमिंग्वे की कहानी 'आज शुक्रवार है'

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जुलाई का महीना अर्नेस्ट हेमिंग्वेका महीना है. उस लेखक जो दुनिया के सबसे महान कथा-लेखकों में एक थे. आज उनकी यह कहानी 'आज शुक्रवार है', जो नाटकीय शैली में लिखी गई है और इसमें तीन रोमन सिपाहियों की बातचीत है जो ईसा मसीह को सूली पर लटकाकर लौटे हैं. समकालीन सन्दर्भों में बहुत मौजू. आज'दैनिक हिन्दुस्तान'में प्रकाशित हुई है. अनुवाद मेरा ही है- मॉडरेटर 
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आज शुक्रवार है
अर्नेस्ट हेमिंग्वे
अनुवाद: प्रभात रंजन

रात के ग्यारह बजे हैं और तीन रोमन सिपाही एक शराबखाने में बैठे हुए हैं. दीवार के साथ शराब के पीपे लगे हुए हैं. लकड़ी के काउंटर के पीछे एक हिब्रू शराब विक्रेता बैठा हुआ है. तीनों रोमन सिपाहियों की आँखें हलकी नीली हैं.

पहला रोमन सिपाही: तुमने रेड वाइन ली?

दूसरा रोमन सिपाही: नहीं अभी तक नहीं ली.

पहला सिपाही: एक बार पीकर देखो.

दूसरा सिपाही: ठीक है, जॉर्ज, अब हम रेड वाइन का एक-एक जाम पियेंगे.

हिब्रू शराब विक्रेता- हाँ लीजिये महानुभावों. आप लोगों को अच्छी लगेगी.(वह मिटटी के एक घड़े में पीपे से वाइन उड़ेलता है) यह बढ़िया वाइन है.

पहला सिपाही: थोडा सा यह चखो. (वह तीसरे सिपाही की तरफ घूमता है जो कि एक बैरेल पर झुका हुआ है) क्या हुआ है तुमको?

तीसरा रोमन सिपाही: मेरे पेट में दर्द हो रहा है.

दूसरा सिपाही: तुम पानी पी रहे हो.

पहला सिपाही: जरा यह रेड वाइन चख लो.

तीसरा सिपाही: मैं यह बेकार चीज नहीं पी सकता हूँ. इससे मेरे पेट में दर्द हो जाता है.

पहला सिपाही: तुम यहाँ बहुत देर से हो.

तीसरा सिपाही: उफ़ क्या मुझे यह पता नहीं है?

पहला सिपाही: सुनो, जॉर्ज क्या तुम इस भलेमानुस को कुछ ऐसा नहीं दे सकते जिससे इसका पेट ठीक हो जाए?

हिब्रू शराब विक्रेता: मेरे पास है न.

(तीसरा रोमन सिपाही उस कप को चख लेता है जो शराब विक्रेता ने उसके लिए तैयार की है)

तीसरा सिपाही: अच्छा सुनो, इसमें तुमने क्या मिलाया था, ऊँट की लीद?

शराब विक्रेता: आप पी जाइए लेफ्टिनेंट. इससे आप अच्छे हो जायेंगे.

तीसरा सिपाही: मुझे कुछ ख़ास बुरा नहीं लग सकता.

पहला सिपाही: एक मौका लेकर देखो. एक दिन जॉर्ज ने मुझे ठीक कर दिया था.

शराब विक्रेता: आपकी हालत तब खराब थी, लेफ्टिनेंट. मुझे पता है कि खराब पेट किस चीज से ठीक होता है?

( तीसरा रोमन सिपाही कप को उठाकर पी जाता है)

तीसर रोमन सिपाही: हे प्रभु ईसा मसीह(वह मुँह बनाता है)

दूसरा सिपाही: झूठी चेतावनी! 
पहला सिपाही: ओह, मुझे नहीं पता. आज वह वहां काफी बढ़िया लग रहे थे.

दूसरा सिपाही: वह सलीब से नीचे क्यों नहीं उतरे?

पहला सिपाही: वह सलीब से नीचे नहीं उतरना चाहते थे. यह उसका खेल नहीं है.

दूसरा सिपाही: मुझे एक आदमी ऐसा बताओ जो सलीब से नीचे नहीं उतरना चाहता हो.

पहला सिपाही: ओह, भाड़ में जाओ, तुम इसके बारे में कुछ भी नहीं जानते हो. वहां जॉर्ज है उससे पूछो. जॉर्ज, क्या वह सलीब से नीचे उतरना चाहते थे?

शराब विक्रेता- मैं आपको बताऊँ महानुभावों, मैं वहां था नहीं. इस बात में मैंने दिलचस्पी नहीं ली.

दूसरा सिपाही: सुनो, मैंने काफी देखे हैं- यहाँ भी और कई अन्य स्थानों पर भी. किसी भी वक्त मुझे एक आदमी ऐसा दिखाना जो समय आने पर सलीब से उतरना नहीं चाहता हो, मेरा मतलब है- मैं उसके साथ वहां चढ़ जाऊँगा.

पहला सिपाही: मुझे लगा कि वह वहां आज बहुत बढ़िया लग रहे थे.

तीसरा सिपाही: वह बिलकुल ठीक थे.

दूसरा रोमन सिपाही: तुम लोग समझ नहीं रहे हो कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ. मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि वह सही थे या नहीं. मेरा मतलब है, कि जब समय आता है. जब उन्होंने पहले उनको सलीब में कील से ठोकना शुरू किया तो उनमें से कोई चाहता भी तो रोक नहीं सकता था.

पहला सिपाही: क्या तुमने इसके ऊपर ध्यान नहीं दिया, जॉर्ज?

शराब विक्रेता: नहीं मैंने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, लेफ्टिनेंट.

पहला सिपाही: जिस तरह से उसने किया उससे मैं हैरान था.

तीसरा सिपाही: जो हिस्सा मुझे पसंद नहीं है वह कील ठोकने वाला है. बताऊँ, वह आपको बहुत बुरा लगता है.

दूसरा सिपाही: यह कुछ ऐसा नहीं है जो इतना बुरा है, क्योंकि उन लोगों ने पहले उनको उठाया( वह दोनों हथेलियों को जोड़कर उठाने की मुद्रा बनाता है). जब भार खींचने लगता है. तब वह महसूस होता है.

तीसरा रोमन सिपाही: यह उनमें से कुछ लोगों को बहुत बुरा लगता है.

पहला सिपाही: क्या मैंने उनको देखा नहीं है? मैंने कई सारे देखे हैं. मैं कहता हूँ, वह आज बहुत अच्छे लग रहे थे.

(दूसरा रोमन सिपाही हिब्रू शराब विक्रेता को देखकर मुस्कुराता है)

दूसरा सिपाही: तुम एक आम इसाई हो, बुजुर्ग इंसान.

पहला सिपाही: बिलकुल, बोलते जाओ और उसको बुद्धू बनाते जाओ. लेकिन जब मैं तुमसे कुछ कहता हूँ तो उसको सुनो. वह वहां आज बहुत अच्छे लग रहे थे.  

दूसरा सिपाही: थोड़ी और वाइन पीने के बारे में क्या ख़याल है?

(शराब विक्रेता उम्मीद से देखता है. तीसरा रोमन सिपाही अपने सर को झुकाए बैठा है. उसकी तबियत ठीक नहीं लग रही है.)

तीसरा सिपाही: मुझे और नहीं चाहिए.

दूसरा सिपाही: बस दो के लिए जॉर्ज.

(शराब विक्रेता वाइन का एक घड़ा निकालता है, इस बार घड़ा पिछले वाले घड़े से छोटा है)
वह लकड़ी के काउंटर पर आगे की तरफ झुकता है)

पहला रोमन सिपाही: तुमने उसकी प्रेमिका को देखा?

दूसरा सिपाही: क्या मैं उसके ठीक बगल में खड़ा नहीं था?

पहला सिपाही: वह देखने में अच्छी है.

दूसरा सिपाही: मैं उसके पहले से उसे जानता था(वह शराब विक्रेता को देखकर आँख मार देता है)

पहला सिपाही: मैं उसको शहर में देखा करता था.

दूसरा सिपाही: उसके पास काफी कुछ था. वह उसके लिए भाग्यशाली साबित नहीं हुआ.

पहला सिपाही: ओह, वह खुशकिस्मत नहीं है. लेकिन आज बहुत अच्छे लग रहे थे.

दूसरा सिपाही: उसकी मंडली का क्या हुआ?  

पहला सिपाही: वह सब इधर उधर हो गए. वही औरत उसके साथ रह गई.

दूसरा रोमन सिपाही: वह बकवास लोगों की भीड़ थी. जब उन्होंने उसको ऊपर वहां जाते हुए देखा तो वे कुछ भी नहीं चाहते थे.

पहला सिपाही: लेकिन वह औरत उसके साथ ही रही.

दूसरा सिपाही: बिलकुल वे सही अटके रहे.

पहला रोमन सिपाही: जब मैंने पुराना खंजर उसके अंदर उतारा तब तुमने देखा.

दूसरा रोमन सिपाही: ऐसा करने के लिए किसी दिन तुम मुश्किल में पड़ जाओगे.

पहला सिपाही: कम से कम उनके लिए मैं इतना तो कर सका. मैं तुमको बताऊँ कि वह मुझे आज बहुत अच्छे लग रहे थे.  

हिब्रू शराब-विक्रेता: महानुभावों, आपको बताना चाहता हूँ कि मुझे अब बंद करना है.

पहला रोमन सिपाही: हम एक-एक और पियेंगे.

दूसरा रोमन सिपाही: क्या फायदा? इससे कुछ हो नहीं रहा. आओ, चलते हैं.

पहला सिपाही: बस एक एक और.

दूसरा सिपाही: नहीं, छोडो, चलो. हम चलते हैं. शुभ रात्रि, जॉर्ज. इसको भी बिल में जोड़ लेना. 
शराब विक्रेता: शुभरात्रि, महानुभावों. (वह थोडा दुखी दिखाई दे रहा है). क्या आप थोडा बहुत भी भुगतान नहीं कर सकते, लेफ्टिनेंट?

दूसरा रोमन सिपाही: क्या बकवास है जॉर्ज! बुधवार को भुगतान का दिन होता है.

शराब विक्रेता: ठीक है, लेफ्टिनेंट. शुभरात्रि, महानुभावों.

(तीनों रोमन सिपाही दरवाजे से बाहर निकलकर सड़क पर आ जाते हैं)

(बाहर सड़क पर)

दूसरा रोमन सिपाही: जॉर्ज भी बाकी सब की तरह ही यहूदी है.

पहला रोमन सिपाही: जॉर्ज अच्छा इंसान है.

दूसरा सिपाही: आज की रात तुमको सब अच्छे इंसान लग रहे हैं.

तीसरा रोमन सिपाही: आओ, बैरेक में चलते हैं. मुझे आज की रात बहुत बुरा महसूस हो रहा है.

दूसरा सिपाही: तुम यहाँ बहुत देर रहे.

तीसरा रोमन सिपाही: नहीं, बस यूँही. मुझे खराब महसूस हो रहा है.

दूसरा सिपाही: तुमने यहाँ बहुत अधिक समय बिताया है. बस यही बात है.

पर्दा 

दिव्या विजय की कहानी ‘मन के भीतर एक समंदर रहता है’

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दिव्या विजयड्रैमैटिक्स में स्नातकोत्तर हैं. आठ साल बैंकॉक में बिताकर आई हैं. कुछ नाटकों में अभिनय कर चुकी हैं. आकाशवाणी में रेडियो नाटकों के लिए आवाज देती हैं. यह उनकी दूसरी प्रकाशित कहानी है. काफी अलग तरह की संवेदना और परिवेश की कहानी- मॉडरेटर 
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रेत स्नान करते हुए पसीने से तर लिली मन ही मन गिनती कर रही थी। उसने आँखें मींच रखीं थीं। बंद आँखों में सब छिप जाता है। बंद आँखें दुनिया से कवच मुहैया कराती हैं। इस वक़्त वो रेत से बाहर निकल समंदर में कूद जाने की ख़्वाहिश पलकों के पीछे छिपाये लेटी हुई थी। आधा घंटा पूरा होने को था। रेत में दबे हुए उसका बदन अकड़ गया था और गर्मी असहनीय हो उठी थी। उसने आँख खोल कर देखा। बीच वैसे ही चहक रहा था। झुण्ड में लड़के लड़कियाँ बीच वॉलीबॉल खेल रहे थे। यहाँ बिकिनी में लड़कियाँ कितनी उन्मुक्त और सहज रहती हैं। अपने शरीर को लेकर किसी प्रकार की असहजता किसी में नहीं दिखती। असुविधा तो यहाँ किसी को प्रेम के पब्लिक डिस्प्ले में भी नहीं होती।  साथियों संग धूप सेकते हुए, उनकी मसाज करते हुए हाथ कब अपनी लय छोड़ बैठते ये उनको भी मालूम नहीं चलता होगा। एक गर्भवती स्त्री अपने साथी के साथ वॉक कर रही थी। उसके पेट की धारियाँ स्पष्ट नज़र आ रहीं थीं। लिली मन ही मन अनुमान लगाने लगी कि कितने महीने का गर्भ होगा। दो छोटी लड़कियाँ भागती हुई आयीं और रुक कर उसका पेट छूने की इजाज़त माँगी। ये शुभकामनाएं देने का तरीका था जो उसे बड़ा मज़ेदार लगता था। वो खुद जब प्रेग्नेंट थी तब लोग आकर उसके पेट सहला जाते। बुज़ुर्ग आशीर्वाद देते और बच्चे चूम लेते।
"गर्ल ऑर बॉय?"
"बोथ, ट्विंस।"
"लकी यू आर। ब्लेस यू।"
फिर आगे बढ़ जाते।

लिली ने गर्दन घुमा कर देखा। बीच चेयर्स पर लोग पसरे पड़े थे। बड़ा सा पारंपरिक हैट पहने वेंडर्स नारियल पानी की हाँक लगा रहे थे। अधिकतर लोग बियर के घूँट भर रहे थे और तली हुई मछलियाँ खा रहे थे। वो खुद बेलिनी की दीवानी थी। मगर उसका फ्लूट खाली पड़ा था। उसने अनुमान लगाया अब तक आधा घंटा पूरा हो गया होगा और अपने अटेंडेंट की तरफ देखा। उसने हाथ से पाँच मिनट का इशारा किया। 'ओह, ये आखिर के क्षण कितने बोझिल हो जाते हैं। कभी कभी दीर्घकाल तक जो कठिन नहीं लगता, एक समय उसे निमिष भर भी सहना संभव नहीं होता।'यह ख़्याल आते ही उसकी सारी तवज्जो घुटनों के दर्द की तरफ हो गयी।

घुटनों के दर्द और रक्तसंचार के लिए सैंड थेरेपी डॉक्टर ने अरसे पहले ही बता दी थी। पर वो कभी परिवार के तो कभी काम के बहाने स्थगित करती रही। अब दर्द अधिक हो जाने से उसे टालना उचित नहीं लगा। आरम्भ में सब आते थे। बाद में वो अकेले आने लगी। तत्पश्चात उसे अकेले आना रुचने लगा। एकाकी होने पर वो बेहतर तरीके से चीज़ों को जाँच परख पाती थी। गहनता से उन्हें महसूस कर पाती थी।उसे अच्छी लगती है रोज़ के एकरस जीवन से अलग यहाँ की चहक।
होटल का प्राइवेट बीच होते हुए भी यहाँ वॉटर स्पोर्ट्स के कारण काफी लोगों का जमावड़ा रहता है। रोमांच लोगों के जीवन को गति देता है। तैरना न जानने वाले आशंकित रहते हुए भी ज़ोखिम उठाने का मोह नहीं छोड़ पाते। वो चुप रहकर लोगों को देखती है, बेलिनी पीती है और स्मोक्ड सैल्मन खाती है।

अटेंडेंट उसके ऊपर से रेत हटाने आया तो उसने सुक़ून की साँस की। आधे घंटे भारी रेत के नीचे बेजान पड़े रहने के बाद जब उसके जिस्म ने हरक़त की तो जैसे सघनता तरल हो बह चली।जो रेत काँटों सी चुभ रही थी अब उसकी बीहड़ता समाप्त हो वो फिर निर्दोष दिखने लगी। उसने अंगड़ाई ली। मन प्रफुल्लित हो उठा था। उसे सब कुछ ताज़ा लगा। वह द्रुत गति से दूरी पार करती हुई समंदर में छलांग लगाने को थी कि उसे कोलाहल सुनाई दिया। बनाना बोट पलटने पर जब उस पर सवार लोग समंदर में गिरते तो शोर मचाकर अपना उल्लास ज़ाहिर करते। प्रथम दृष्टया उसे यह वही लगा पर लोगों का तेज़ी से भागना अनहोनी का संकेत दे रहा था। कहीं फिर से कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी। पिछली बार पैराग्लाइडिंग के दौरान एक आदमी बेल्ट खुलने पर सीधे पानी में गिर पड़ा था।

एक लड़के को कुछ लोग उठाये चले आ रहे थे। जहाँ लिली खड़ी थी उसी के निकट ला लिटा दिया। लिली ने देखा चौबीस पच्चीस साल का नौजवान था। बाल आजकल के लड़कों की तरह नए फैशन में कटे थे। गले में महंगे स्पीकर्स टंगे थे और शर्ट की जेब से रे- बेन झांक रहा था।

"पता नहीं कैसे समंदर में बह गया। अचेतावस्था में होगा।ड्रग्स लेकर पड़ा होगा। मछुआरों की नाव वहाँ से गुज़र रही थी। उन्होंने देख लिया।"एक आदमी ने कहा। "क्या इसे अस्पताल ले जाना होगा।"

लिली ने नीचे झुक कर उसकी नब्ज़ देखी। साँस चल रही थी। कॉलेज में सीखा हुआ प्राथमिक उपचार देने का तरीका उसे याद था। उसने कहा "सब ठीक है। अभी होश में आ जायेगा।"

कहकर वो काफ्तान उतार समंदर में कूद गयी। ठंडी लहरों ने जिस्म छुआ तो मिटटी की परतों संग तन की शिथिलता भी ख़त्म हो गयी। समंदर में उसे मैडिटेशन जैसा एहसास आता है। सिर पानी के अंदर करती है तो सारी दुनिया से राब्ता ख़त्म हो जाता है। अलौलिक शांति का अनुभव होता है उसे। बाहर की आवाज़ों के विरुद्ध भीतर की निस्तब्धता उसे लुभाती है। शाम उतरने लगी थी। पानी का रंग बदल रहा था। सूरज पिघल कर समंदर में टपक रहा था। उसने सूरज की परछाई पर एक गोता लगाया और उसे अपने भीतर भर लिया। तैरने का यह वक़्त उसे हमेशा से अच्छा लगता है। दिन भर तप्त रहा समुद्र अब शांत होने लगता है। पानी की ठंडक में हवा की ठंडक घुल जाती है जो देह को अलहदा रोमांच से भर देती है। उसने काफी दूरी तय कर ली तो अचानक पानी में एक जोड़ा क्रीड़ा में रत नज़र आया। जिस तरह वे दोनों एक दूसरे में गहनता से डूबे हुए थे उसे दो योगी साधना में लीन लगे। वो चुपचाप लौट चली। समंदर की चुम्बकीय शक्ति उसे जिस तरह खुद से चिपका कर रखती है उस हिसाब से उसे बाहर नहीं निकलना चाहिए था पर अब वो थकने लगी थी। जहाज़ के मस्तूल दीख पड़ रहे थे। उसे भ्रम हुआ कि वो नज़दीक आ रहा है या दूर जा रहा है। दूर एक लाइटहाउस की बत्ती झपझपाती नज़र आ रही थी। उसने तय किया कभी तैरते हुए वहाँ जायेगी।

वापस किनारे आ उसने काफ्तान पहना। तभी उसे वही लड़का नज़र आया। वो अभी तक वहीं बैठा हुआ था। वो आगे बढ़ने को हुई पर उसकी नज़र दुर्ग पर पड़ी जो उसने रेत से बनाया था। एक एक कार्विंग पर यूँ काम कर रहा था जैसे वह सदा के लिए रहने वाला है। पर जिस चीज़ ने सबसे ज़्यादा उसका ध्यान आकर्षित किया वो था उस किले से झाँकता एक चेहरा। इतनी सी देर में मिटटी से इतना खूबसूरत बुत बना देना। इसके हाथों में हुनर है। वो खुद भी स्कल्पचर की वर्कशॉप चलाती है इसलिए समझ पाती है।

उसके क़दम बढ़ चले लड़के की ओर।
'हाय, आई एम लिली। हाउ आर यू नाउ।"
लड़के ने तिरछी नज़रों से उसे देखा और रूखी आवाज़ में कहा, "आई एम फाइन।"
जिसका अर्थ उसे लगा , "यू मे गो।"
पर वो वहीं बैठ गयी।
"दिस इस ब्यूटीफुल।"
"यस, आई नो। फिर भी शुक्रिया।"
"सैंड के अतिरिक्त कुछ और भी उपयोग में लेते हो।"लिली ने बात शुरू करने की गरज से पूछा।
"नहीं।"अशिष्टता से भरी एक आवाज़ आई।
"जानते हो सैंड आर्ट का इतिहास कहाँ तक जाता है। अटकलें लगायी जाती हैं इजिप्ट के लोग सदियों पहले मिटटी से पिरामिड के  मिनिएचर बनाया करते थे।"
एक खुरदुरी सी दबी हुई आवाज़ आई जिसे लिली भी ठीक से नहीं सुन पायी। कुछ देर उसे काम करते देखती रही। उसकी आँखों में एक विवश भाव था। उसे याद आया कि वो मरते मरते बचा है।

"पानी में कैसे गिर गए थे? लोग कह रहे थे ड्रग्स लिए हुए थे?"

"नहीं, आत्महत्या की कोशिश थी।"वो निर्लिप्त लहज़े में बोला।

लिली चौंक गयी। उसकी बात से नहीं। उसकी आवाज़ की निर्लिप्तता से। खुद के लिए, जीवन के लिए इतना इंडिफ्रेंस। कैसे मुमकिन है।

बेसाख़्ता लड़के का हाथ उसने थाम लिया। लड़के ने चौंक कर उसे देखा। इतनी देर में कितने ही लोग उसके पास से गुज़र गए। कुछ एक ने रुककर हाल पूछा। कुछ कौतूहल दिखा चले गए। पर किसी ने उसे नहीं थामा।

उसने देखा इस स्त्री की आँखें तरल हैं। बॉडी लैंग्वेज बेहद विनम्र।सभ्य और शिष्ट, मध्य वयस् की यह स्त्री उसे सौंदर्य से युक्त लगी। काफ्तान से झाँकता गठीला बदन, नियमित वर्जिश की गवाही दे रहा था।

उसने हाथ वहीं रहने दिया। उसका स्पर्श अच्छा लगा।  अजाना पर एक स्पार्क से भरा। पानी की एक नन्हीं बूँद नाखून पर ठहरी थी। उसने वहीं नज़रें जमा लीं। लिली ने हाथ हटाया तो उसका ध्यान टूटा।

अटेंडेंट सूचना देने आया कि स्पा तैयार है। वो उठने को हुई फिर न जाने क्या सोचकर मना कर दिया।
"मे आई गेट यू टू सम ड्रिंक्स।"
"बेलिनी फॉर मी। और तुम्हारे लिए।"
"स्ट्रॉबेरी शैम्पेन"उसे गुलाबी नाखून पर अटकी सफ़ेद बूँद याद आई।

"मुझे बेलिनी बहुत पसंद है। सबसे पहले यह मैंने वेनिस में चखी थी। इसके नामकरण की कहानी अनोखी है। पंद्रहवी शताब्दी में जिओवानी बेलिनी नाम के एक चित्रकार हुए थे। उन्होंने एक पेंटिंग बनायी जिसमें संत के चोगे का रंग इस पेय के रंग समान था। उन्नीसवीं शताब्दी में वेनिस के मशहूर बार के मालिक ने आडू और वाइन मिलकर इसका अविष्कार किया। इस नए बने पेय को देखते ही जो पहली चीज़ उसके दिमाग में आई वो बेलिनी की पेंटिंग के संत का चोगा था और उसने इसका नाम बेलिनी रख दिया।"वो लिली की आवाज़ विस्मयाभिभूत होकर सुन रहा था। अभी थोड़ी देर पहले यह स्त्री उसमें खीज उत्पन्न कर रही थी। उसे वो रिसर्च याद आई जिसमें बीस सेकंड का स्पर्श किसी व्यक्ति के लिए हमारी अनुभूति बदल देता है। वो अनुमान लगाने लगा कि लगभग कितने समय तक उसने उसका हाथ थामे रखा।

"आओ उधर चलें।"समंदर से कुछ कदम दूर कबाना बेड्स थे। वहीं इशारा करते हुए लिली बोली। "मुझे व्यक्ति के दिमाग की जटिलताएं दिलचस्प लगती हैं। किन बातों का किससे मेल बिठा लेते हैं जबकि दूर दूर तक उनका कोई तारतम्य नहीं।"ज़रा रुककर उसने समंदर को देखा। "जैसे तुम्हें ही लो। तुम्हारे गले में महंगे इअरफोन और चश्मा देख सबने सोचा कि तुम ड्रग्स लेते हो और उसी नशे में बह गए।"

"वो मैंने जानबूझ कर किया था। मैं नहीं चाहता था कोई इसे आत्महत्या समझे।"

लिली हँस पड़ी।
आत्महत्या से पहले इतना आयोजन। फिर भी तुम बच गए।"
"मैं फिर कोशिश करूँगा।"वो यकायक विरक्त होकर बोला।

लिली यह तब्दीली भाँप कर बोली,
"वो छोड़ो। तुम सोचो यह कितनी मज़ेदार बात है। तुम इस संसार को त्यागते वक़्त विषाद से नहीं भर रहे। तुम्हारा चित्त इस बात से आशंकित है कि तुम जो कर रहे हो उसे कोई अनुचित न मान ले। स्वीकृति के प्रति इतना आग्रह क्योंमृत्यु के निश्चय के पश्चात् पीछे वालों के लिए संताप क्यों?"

"वो इसलिए कि शायद यह वजह मेरे पीछे जीने वालों का दुःख कम कर दे। मेरे आत्मघात को वो कभी पचा नहीं पाएंगे।"खिन्नचित हो उसने कहा था।

"उनके लिए इतना रंज है तो यह क़दम उठाना ही नहीं चाहिए। यूँ भी दुःख कभी कम नहीं होते। हम उन्हें नए नए दुःखों से ढाँपते जाते हैं। किसी भी दिन ज़रा हवा लगते ही पुराना दुःख सर उठा लेता है। पर क्या सचमुच मृत्यु चाहने की वजह इतनी बड़ी है कि जीवन का अंत कर देना पड़े।"

"नहीं, वजह कुछ खास नहीं। पर जीवित रहने का भी कोई खास कारण नहीं।"

"आज इस शाम, लहरों को देखते हुए, किसी अजनबी के साथ शराब पीते हुए तुम्हें ज़िंदगी बदमज़ा लगती है?"लिली आवाज़ में चपलता घोलते हुए बोली। वो कुछ क्षण उसे देखता रहा। उसे समझ नहीं आया उसकी आँखें अधिक अथाह हैं अथवा उसका स्वर।

"तुम मुझसे बड़ी हो। इतने सालों से जीते हुए तुम कभी ऊब से नहीं भरी? क्या तुम हर रोज़ मन बहलाव के लिए कोई नयी वजह ढूँढ पाती हो।"

"हर रोज़ नया कारण नहीं मिलता। पुरानी वजह से ही प्रतिदिन कोई नया ख़्याल उपजता है जो बूँद बूँद रिस कर ज़िन्दगी को जीने लायक करता जाता है। जैसे आज तुम्हारा यहाँ होना। मैं लगभग हर महीने यहाँ आती हूँ। दो दिन ठहर कर चली जाती हूँ। कभी कोई वाक़या याद रखने लायक नहीं हुआ। पर आज अलग है। मैं एक ऐसे व्यक्ति के साथ बैठी हूँ  जो शायद इस क्षण होता ही नहीं। पर वो है और मैं उसके साथ हूँ।"

बैरा ड्रिंक्स रिफिल करने आया तो लिली चुप हो गयी। नीला समंदर सलेटी हो चला था। दिन भर की चहल पहल के बाद जैसे समंदर भी थक चला था। एक छोटी नौका परचम लहराते हुए चली आ रही थी। चाँद का सिरा दिखना शुरू हो गया था और ज़रा देर में लहरें उत्ताप से भर उठने वाली थीं। लिली ने उसे देखा। वो उस दुर्ग को निहार रहा था जो उसने बनाया था।
"मैं तुम्हारी जगह होती तो मृत्यु का निर्णय लेने के पश्चात् किसी का मोह नहीं करती।"
उसकी लंबी बरौनियाँ उसके गालों पर छाया कर रही थीं। "मेरा नाम रिचर्ड है।"
लिली ने गौर किया कि खुद के नाम पर वो ज़रा लड़खड़ाया था।

"रिचर्ड"जितना सकपकाया हुआ उसका लहज़ा था उतनी ही मज़बूती से लिली ने उसका नाम पुकारा। रिचर्ड घूँट भरता हुआ रुक गया। उसके साथ ही जैसे सारी सृष्टि थम गयी। पहले किसने उसका नाम ऐसे लिया था जैसे सारी प्रकृति ने उसे पुकारा हो। उसका कोई अस्तित्व है इसका बोध कराने वाला कोई अपरिचित होगा उसने कभी नहीं सोचा था।

लिली ने अपना ग्लास पास की तिपाई पर टिकाया और आसमान की ओर चेहरा कर लेट गयी। उसके बाल रेत को छू रहे थे।
"तुमने कभी किसी से प्रेम नहीं किया?"

"किया तो है मग़र मुझे स्त्रियाँ समझ नहीं आती। वे क्या चाहती हैं और क्या नहीं, समझ से बाहर है।"टहलती हुई दो लड़कियों पर उसकी निगाह ठहर गयी थी। पूरे कपड़े पहने वे दोनों समंदर में कूदने को तैयार थीं।

लिली की नज़र उसकी नज़रों का पीछा करते हुए वहाँ तक पहुँची। वो पलट का लेट गयी, "स्त्रियाँ जंगली जानवर की तरह होती हैं।जैसे वो अपनी इंस्टिंक्ट से नियंत्रित होते हैं उसी तरह स्त्रियाँ भी। वन्य जीवों की खास ज़रूरतें होती हैं। पाबंदियों में वो सर्वाइव नहीं कर पाते। कर भी लेते हैं तो उनकी मौलिकता ख़त्म हो जाती है। स्त्रियों को पालतू बनाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। उनका जंगलीपन समाप्त होते ही वो भिन्न हो जाती हैं। उनका मन मुर्दा हो जाता है।"रिचर्ड को लगा उसने लिली की आँखों में लाल रंग की लपट देखी है। लिली की प्रचंडता उस पर हावी होने लगी थी।

"हाँ, तुम ठीक कहती हो। मैंने अपने आस पास कोई ज़िंदा औरत नहीं देखी। मेरी माँ, बहन, दोस्त कोई भी नहीं। एक लड़की थी पर वो कुछ अरसे बाद बदल गयी। उसमें ऐसा परिवर्तन आया जिसे मैं उस वक़्त चिन्हित नहीं कर सका था।"कहते हुए वो अधलेटा हो गया था।

लिली ने गहरी नज़रों से उसे देखा। पास ही होटल के अटेंडेंट्स बत्तियाँ मद्धम कर रहे थे। हैलोजेन लाइट्स बंद हो चुकी थीं। लॉबी से लेकर समंदर तक गार्डन पाथ बना हुआ था। वहाँ अलग अलग रंगों की गार्डन लाइट्स जल रही थीं। धुंधलाती शाम और गहराती रात में नारियल के बड़े बड़े पेड़ों की छाया सन्नाटे पर कोई अस्पष्ट लकीर खींच रही थी।
"मैं तुम्हें कैसी लगी।"एक फुसफुसाहट उभरी।

रिचर्ड को लगा एक हूक उसे पुकार रही है। एक बनैले जीव का आमंत्रण रात के बियाबान में उसे आवाज़ दे रहा है। उसे सिहरन महसूस हुई। एक चाह ने उसे जकड़ लिया। यह सायास है या अनायास।  रिचर्ड ने लिली की आँखों में देखा। वहाँ कोई सुराग न था। लिली के होठों पर अधखिली मुस्कराहट थी।

"तुममें जीवन बह रहा है। तुम्हें देख तुम्हें प्यार करने का मन करता है।"कहते हुए वो आगे सरक आया।

लिली हँस पड़ी।
"इतना डेस्पेरेट क्यों हो रहे हो? अगर तुम किसी में वाक़ई दिलचस्पी रखते हो तो उसे इतनी जल्दी प्रकट मत करो अन्यथा सब रुख फेर लेंगे। वैसे तुम क्या हर बार इतने ही डेस्पेरेट हो जाते हो?"उसकी आँखों में शरारत नाच रही थी।

"तुम मुझसे सब कुछ क्यों जान लेना चाहती हो।"रिचर्ड के स्वर में रोष था।

"तुमने ज़िन्दगी से क्या सीखा है?"

"मैंने सीखा कि खुद को किसी के सामने ज़ाहिर नहीं करना। इंटेंस क्षणों में जो बातें हम कह देते हैं उन्हीं बातों से हमें हमारे राज़दार ज़ख़्मी करते हैं।"भीगे हुए कपड़ों में लड़कियाँ उसी 'कासल'के पास बैठीं उसमें जोड़ तोड़ कर रही थीं। वो मुस्कुराने लगा। "तुम्हें ज़िन्दगी ने क्या सिखाया?"

"मैंने सीखा कि खुद को कहीं कहीं ज़ाहिर करने में कोई हर्ज़ नहीं। वेंटिलेट करने का कोई रास्ता होना चाहिए। हमें ये सीखना चाहिए कि खुद के हिस्से किसे सौंपे। हमें लोगों को सावधानी से चुनना चाहिए मगर चुनना ज़रूर चाहिए। आओ समंदर में चलें।"

"अभी!"उफनती हुई लहरें देख रिचर्ड ने पूछा।

"मैंने यह भी सीखा कि हर बात पर सवाल उठाना सही नहीं। कुछ लम्हों के साथ बह जाना ठीक होता है।"वो रिचर्ड का हाथ थामे समंदर की ओर चल पड़ी।
"रिचर्ड, तुमने समंदर ही क्यों चुना?"
"मुझे आसान लगा यहाँ।"
"जहाँ आसाइश की तमन्ना होगी वहीं सब कुछ मुश्किल हो जायेगा। ज़िन्दगी चुनो या मौत पक्का इंतज़ाम करना।"

"तुमने ज़िंदगी क्यों चुनी?"
"क्योंकि मौत मुझे खुद चुनेगी एक रोज़। आओ।"

एक क़दम पानी पर रख लिली पीछे मुड़ी। "रिचर्ड तुम्हें तैरना नहीं आता। मेरे साथ क्यों चल रहे हो। मना कर सकते हो। सच, मुझे बुरा नहीं लगेगा।"लिली के स्वर में असमंजस था।

"मैंने ज़िन्दगी चुनने का निर्णय किया है।"रिचर्ड विश्वास से भर कर बोला। लिली ने देखा उसकी आँखें चमक रही थीं। इस बार रिचर्ड ने उसका हाथ कस कर पकड़ लिया।

दोनों हाथ थामे एक एक क़दम पानी में उतरते गए। दूर तक कहीं कोई नहीं था। रिचर्ड ने पीछे मुड़ कर देखा। दोनों लड़कियाँ जा चुकी थीं। 'कासल'पूरा हो चुका था मग़र अब लहरें वहाँ तक पहुँच कर उसे खुरच रही थीं। जब तक वो वापस लौटेंगे लहरें उसे बहा चुकी होंगी।

उसने लिली को देखा। लिली काफ्तान पानी में बहा चुकी थी। रात का संगीत हर ओर बह रहा था। दूर कहीं कोई गिटार पर हिप्पी धुन बजा रहा था। उसे धुन के साथ अपने भीतर उल्लास सुगबुगाता हुआ महसूस हुआ जिसे उसने बरसों से महसूस नहीं किया था। उसे लगा वो धुंध के पार देख सकता है। उसने देखा लिली मुस्कुरा रही थी। एक मन दूसरे मन की व्याख्या स्पर्श से कर रहा था। उसका मन आल्हादित हो उठा।

लिली एक क्षण के लिए ठहरी।
"मेरा हाथ थामे रखना। हम लाइट हाउस तक जायेंगे।"












































पंकज दुबे की अंग्रेजी कहानी उपासना झा का हिंदी अनुवाद- एक आधा इश्क

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पंकज दुबेन्यू एज लेखक हैं, हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखते हैं. वे संभवतः अकेले लेखक हैं जो स्वयं अंग्रेजी-हिंदी में एक साथ उपन्यास लिखते हैं. अब तक दो उपन्यास प्रकाशित हैं- लूजर कहीं का और इश्कियापा. समकालीन लोकप्रिय लेखकों में उनकी कामयाब पहचान है. हाल में ही उनको उन्हें सियोल फाउंडेशन और आर्ट एंड कल्चर (यह एशिया की सबसे प्रतिष्ठित राइटर्स रेजीडेंसी में से एक है) की तरफ से एशिया के तीन लेखकों में चुना गया और सियोल में आयोजित '2016 एशियाई साहित्य और रचनात्मक कार्यशाला'में उन्होंने भाग लिया। यह कहानी मूलतः वहीं एक एशियाई लेखन के अंग्रेजी जर्नल में प्रकाशित हुई थी. इसका बहुत सुन्दर अनुवाद युवा लेखिका उपासना झाने किया है- मॉडरेटर 
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एक आधा इश्क़
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और सब कुछ अधूरा था.
मौसम भी आधा गर्म आधा सर्द.
उसके चेहरे पर एक ज़बरदस्ती की आधी मुस्कान थी.
उसने आधी बाजू की टेरीकॉटन कमीज़ पहनी हुई थी.
सामने वाले बुटीक का शटर आधा ऊपर था.
इकलौती चीज़ जो भरपूर थी, वो थी सिलाई मशीन की आवाज़ जो किसी टूटी हुई सड़क पर चल रही रोड रोलर जैसी थी.
वह श्याम तिवारी था. श्याम अपनी सिलाई की दुकान खुले में सड़क किनारे, गुलमोहर के पेड़ तले लगाता था. गुलमोहर का पेड़ ऐसा लगता था मानो लाल फूलों की चादर ओढ़े हो. श्याम तिवारी अपनी प्यारी सिलाई मशीन को हर रोज़ किसी रोबोट की तरह इंस्टॉल करता था. उसकी ये छोटी सी दुकान यमुना-पार इलाके में समाचार अपार्टमेंट्स के सामने थी. इस कॉम्प्लेक्स में कई तेज़-तर्रार पत्रकार काम करते थे. इस पूरे इलाके में  गजब की ऊर्जा थी. और आखिर क्यों न हो, राजधानी कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 की तैयारियों में जोर-शोर से जुटा हुआ था.

जिस शहर में अंतर्राष्ट्रीय खेलों का आयोजन हो, उसका रंग ही कुछ और होता है. नयी दुल्हन की तरह इसपर भी बहुत ध्यान दिया जाता है. और दिल्ली भी नई दुल्हन की तरह ही सजी हुई थी. नयी चिकनी सड़के, चमचमाते पांच सितारा होटल, साफ़-सफाई, इ-रिक्शा और झुग्गियों को अच्छी तरह से जश्न मनाती दीवारों के पीछे छिपा दिया गया था.
लेकिन इन सब चमक-दमक और रौशनी के बीच, ये मौत जैसी ख़ामोशी क्यों थी? ऐसा क्यों लगता था जैसे शहर ने मॉर्फिन से भीगा हुआ रुमाल सूँघ लिया हो?
लेकिन श्याम नशे में नहीं बल्कि पूरी तरह से जागा हुआ लगता था.
सामने की तरफ एक चौड़ी सड़क गयी थी. उसके दोनों तरफ रिहायशी अपार्टमेंट्स थे और कुछ दुकानें भी थी. सड़क के एक किनारे, एक लेडीज बुटीक था 'नवरंग बुटीक'. एक गंजे और नंगे पुतले को एक भड़काऊ सा सलवार कमीज पहनाया हुआ था और उसके सर पर एक विग थी. पुतला भद्दा लग रहा था। सजा हुआ वह पुतला स्थिर था अपनी जगह. अचानक एक शटर तेज़ शोर के साथ बन्द किया गया और एक बड़ा सा सुनहला ताला इसपर एक पेंडुलम की तरह लटक गया.

श्याम तिवारी की दुकान में सजावट के नाम पर एक खस्ताहाल मशीन, एक एंटीना लगा हुआ रेडियो सेट और कपड़ों का एक कार्टन था। वह चालीस के शुरुवाती सालों में था. आज भी उसने साफ़-सुथरे और साधारण कपड़े पहने हुए थे. वह नवरंग बुटीक की तरफ देख रहा था और खोया हुआ लग रहा था. शटर की आवाज़ से वह चौंक गया. उसके पुराने रेडियो सेट पर आकाशवाणी लगा हुआ था और कोई कानफोड़ू विज्ञापन इतनी कर्कश आवाज़ में बज रहा था कि कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. उसने एंटीना एडजस्ट करने की कोशिश की. उसने एक बड़े साइज़ का ब्लाउज उठा लिया और उसको ठीक करने में लग गया.
समाचार अपार्टमेंट का चौकीदार हाथ में बीड़ी लेकर उधर ही चला आया. श्याम ने उसकी तरफ देखा भी नहीं. वह ब्लाउज के दोनों किनारे खोल रहा था कि और जगह बन सके. उसके कंधे पर हाथ रखते हुए चौकीदार शरारत से मुस्कुराया.
तनेजा मैडम! है ना! अपनी समझदारी दिखाते हुए चौकीदार मुस्कुराते हुए बोला.
श्याम ने चुप रहना ही ठीक समझा. वह अब तक ब्लाउज के दोनों किनारे खोल चुका था।
'मैं ब्लाउज के साईज को देखकर ही समझ गया था'चौकीदार की इस चुहल में श्याम शामिल नहीं हुआ.
अरे ओ उबाऊ आदमी! मेरे साथ 'मुगल-ए-आज़म'देखने चलेगा? रंगीन में आई है. उसने अपने साथ रीगल सिनेमा चलने की बात कही.
श्याम को कोई फर्क नहीं पड़ा. वो बोलता हीं कम नहीं था बल्कि उसके चेहरे पर कोई भाव भी नहीं आते थे. या तो उसे भावों से डर लगता था या भावों को उससे.
चौकीदार अब तक बहुत चिढ़ गया था. उसने जाने से पहले श्याम को उकसाते हुए कहा'
"तनेजा मैडम के पास बहुत ब्लाउज हैं. आज ये ब्लाउज तुमने ठीक नहीं किया तो वो मर नहीं जाएगी'बोलता हुआ वह तेजी से वहां से चला गया.

श्याम तिवारी त्रिलोकपुरी में अकेलेपन का जीवन जी रहा था, उस इलाके में कम आमदनी वाले लोग रहते थे. अपने दोस्तों में वह सिर्फ अपने पडोसी विनय, उसकी पत्नी और उसकी बहन को गिन सकता था. वो भी उसके दोस्त नहीं, बस जान-पहचान वाले थे.
श्याम किसी कैफे में एक आरक्षित टेबल जैसा था, उसके आस-पास कोई नहीं फटकता था. उसने खुद को एक दायरे में बाँध रखा था. उसके दिल के सबसे नजदीक वही पुराने एंटीने वाला रेडियो था, जिससे वो अक्सर चिपका रहता था. उसके बारे में एक बेहद दिलचस्प बात ये भी थी रेडियो की आवाज़ जितनी साफ़ आती उसकी सिलाई की वैसे ही बढ़ती जाती.

आज वही खास 'दिन'था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच राम मंदिर- बाबरी मस्जिद के संवेदनशील मुद्दे पर अपना फैसला सुनाने वाली थी. फैसले में ज़रा से असन्तुलन से देश भर में दंगे भड़कने का डर था उससे खेल की तैयारियां रुक सकती थीं. भारत एक भावुक देश है जहाँ धर्म के नाम पर अक्सर विवाद और झगड़े हो जाते हैं. किसी हिंदी थ्रिलर फ़िल्म की तरह उस शहर का हर काम और कई सारी कड़ियाँ आपस में जुडी हुई थी. एक तरफ तो तैयारियाँ ज़ोरों पर थी दूसरी तरफ उस समय घट रही घटनाओं का भी पूरा असर था. खेल शुरू होने से ठीक एक दिन पहले सब बिगड़ जाने का डर था. ऐसे समय में ये एक अहम और संवेदनशील फैसला था. हजारों लाठियां और मिठाईयां हिन्दू-मुसलमानों ने खरीद रखी थी, जो कोर्ट में भी आमने-सामने थे. ये  दंगा भड़कने और जश्न दोनों ही सूरत में तैयारी पूरी थी.
श्याम तिवारी अपने रेडियो से चिपका हुआ था, और पूरे शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, जैसे फैसला आने के बाद होने वाले दंगों की सम्भावना से सांस रोककर इंतज़ार कर रहा हो. उसका दिल रेडियो की हर बीट और हर सन्नाटे पर रुकने लगता था. ठीक एक बज रहा था. सरकारी ब्रॉडकास्टर, ऑल इंडिया रेडियो ने घोषणा की कि बाबरी मस्जिद को गिरे हुए कि ठीक दो दशक हो गए हैं और अब भी विवाद सुलझा नहीं है। श्याम ने रेडियो की तरफ देखा, उसके दिल ने जैसे धड़कना बन्द कर दिया था.
समाचार वाचक ने लगभग सबसे सन्तोषजनक फैसला पढ़ के सुनाया. एक-तिहाई जमीन मंदिर के लिए जायेगी, एक-तिहाई मस्जिद के लिए एक-तिहाई निर्मोही अखाड़े को (यह एक स्वतंत्र धार्मिक हिन्दू संस्था है). यह एक अच्छा और संतुलित फैसला था. शुक्र है कि इसने सब को अपने हिस्से की ख़ुशी दी थी. और इससे भी अच्छी बात यह थी की अब कॉमनवेल्थ गेम्स के बिगड़ने का कोई डर नहीं था.
तभी अकेले बैठकर अतीत में डूबे श्याम की सोच कार के अचानक ब्रेक लगने की आवाज़ से टूट गयी जो उसकी दुकान के आगे आकर रुकी थी. कार में बस एक ड्राईवर था जो चादर में बंधे हुए कपड़ो की गट्ठर लेकर जल्दी से उतरा.
ड्राईवर ने पूछा "शाम तक ठीक कर सकोगे"?
हमेशा की तरह कम बोलते हुए श्याम ने कहा '6 बजे आओ',
ड्राईवर ने कांच ऊपर चढ़ाई और चला गया.
श्याम ने गट्ठर खोली और ध्यान से एक- एक कपड़े को देखने लगा. उसकी हैरानी तब कोई  सीमा न रही जब उसे एक चटक केसरिया कुर्ती दिखी। हे भगवान! क्या ये वही कुर्ती थी? ये उसी कपड़े के टुकड़े से बनी लग रही थी और उसमें भी वही सुनहली लेस थी. श्याम बेचैन हो उठा.
उसने उसे सीधा किया, उलट पलटकर देखा और ज़ोर से भींच लिया. कपड़ो के ढेर में उस केसरिया सिल्क कुर्ती को देखकर वो स्तब्ध था. आखिर उस चुप से रहने वाले आदमी को भावनाओं से किसने भर दिया- कैसे उस छोटी सी केसरिया कुर्ती ने भावों का ज्वार ला दिया था?
उस सिल्क कुर्ती का एक अतीत था.
श्याम की आँखों से आंसू बहे जा रहे थे. उसके हाथ में रखी कुर्ती उसके आंसुओं सेे भीग गयी थी- वे आंसू जो जाने कब से दबे हुए थे. उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वही केसरिया कुर्ती एक दिन इस तरह से उसके पास लौट आएगी.
उसे 1992 का अयोध्या याद आ गया. उसने ये कुर्ती अपनी बुर्का पहनने वाली जान के लिए बनाई थी. उसने उसका चेहरा कभी नहीं देखा था. वो उसको उसकी खूबसूरत नीली आँखों से पहचानता था. मस्जिद गिराये जाने वाले दिन जिस पल उसने उसे ये कुर्ती दी थी, उसका परिवार और आस-पास की दुनिया उजड़ चुकी थी.उस कुर्ती में एक खूबसूरत इश्क़ छिपा था, और ये एक आधा इश्क़ था.
उस कुर्ती ने श्याम की खोयी हुई उम्मीद एक बार फिर जगा दी थी.


श्याम तिवारी तब अयोध्या के राम मंदिर के पुजारी का बेटा था. श्याम  अपने किस्म का विद्रोही था. उसने दर्ज़ी का पेशा चुना था जो उसके पुजारी पिता को मुसलमानों का पेशा लगता था, और उनको इससे बहुत शर्मिंदगी महसूस होती थी. एक पुजारी का बेटा दर्ज़ी बन गया था.उसने एक गुलमोहर के पेड़ के नीचे अपनी दुकान जमाई थी. अपनी सायकिल बेचकर उसने एक नयी सिलाई मशीन खरीदी थी. उसके पिता उसे दिन-रात इस बात के लिए कोसते रहते थे.
"जिंदगी भर औरतों की छातियाँ नापते रहोगे तुम!"उसके पिता घृणा से चिल्लाये.
"क्यों नहीं? मुझे मंदिर के देवताओं को नहलाने से बेहतर यही लगता है! बागी बेटे ने फट से जवाब दिया.
राम शरण, श्याम के पिता के मुंह से गुस्से से झाग निकल रहा था. उन्होंने बेरहमी से अपने बेटे को बेंत से खूब पीटा. बेचारी माँ रोती-झींकती दया की गुहार करती और बाप-बेटे के बीच शांति की कोशिश करती.
"मैं तुम्हें पैसे दूंगा, एक मिठाई की दुकान खोल लो. प्रसाद के लिए मिठाइयाँ बनाओ. लेकिन तुम हरामखोर, तुम औरतों की छातियाँ और कमर नापना  चाहते हो? उसके पिता चिल्लाते हुए बोले.
श्याम की माँ बीच-बचाव करती हुई बोली"वह जवान हो गया.. उसे इस तरह.."
उनकी बात बीच में ही काटकर पिता बोले "उसका गर्म खून अगर इतना उबल रहा है तो उसको रथ यात्रा में भाग लेना चाहिए", और देश की सेवा करनी चाहिए नाकि औरतों की"
श्याम ने जवाब में पिता को घूरकर देखा.
"मुझे कल सुबह रथ यात्रा के लिए निकलना है"रामशरण फिर चिल्लाये.
रथ यात्रा एक बड़ा जुलूस था जो राष्ट्रिय स्तर के तत्कालीन  बड़े नेता की अगुवाई में चलाया जा रहा था ताकि पार्टी समर्थकों की गोलबंदी हो सके और धार्मिक आधार पर एक बड़ा वोट बैंक तैयार हो सके.
श्याम बहुत मुश्किल से अपनी झुँझलाहट को काबू कर सका. उसके पिता उसकी बगल में बैठ गए और तनाव कम करने के लिए एक हाथ उसके कंधे पर रख दिए. उन्हें महसूस हुआ वह जवान बेटे के साथ कुछ ज्यादा ही सख़्ती से पेश आ रहे थे.
"चलो..जो भी हुआ भूल जाओ"श्याम को शांत कराते हुए बोले.
श्याम ने पिता के हाथ झटक दिए.
राम शरण उठे और एक कपड़े का टुकड़ा उठा लाये.
श्याम की बगल में बैठकर उन्होंने उसके हाथ में वह कपड़ा रख दिया.
"तुम्हें इस केसरिया सिल्क के टुकड़े से देवी सीता के वस्त्र सिलने पड़ेंगे"उसको खुश करने की टोन में बोले
श्याम चुप रहा.
"बस यही करने से तुम्हारे ये मुसलमानों का पेशा चुनने का पाप धुल सकेगा"उन्होंने कहा.
श्याम को सिलाई मशीन के लिए जूनून सा था. उसे धागों से प्यार था. उसे मशीन चलने की आवाज़ प्यारी लगती थी. उसे कपड़े काटना और उनपर जादू करना अच्छा लगता था.
वो एक बेहद ठण्डी जाड़े की सुबह थी. श्याम ने एक मैरून स्वेटर और काला मफ़लर पहना हुआ था. उसने अपनी दुकान सेट कर ली थी. एक लड़की उसकी दुकान में आई, उसने एक काला बुर्का पहना था. उसके साथ उसकी सहेली भी थी.
"मुझे कुछ सिलवाना है", जल्दी में लग रही लड़की ने कहा.
श्याम ने उसकी गहरी नीली आँखों में देखा और उस लड़की को देखते ही उसे प्यार हो गया.
"आप 6 दिसंबर तक मुझे ये देंगे ना, मेरे घर पर शादी है"उसकी गहरी नीली आँखों वाली लड़की ने कहा.
उसकी नीली आँखों ने उसपर मानों जादू कर दिया.  उसने वैसी ही बेबसी महसूस की जैसे वो सागर किनारे खड़ा हो और तट से सुनामी की लहरें टकराने वाली हों.

यही वो दिन था जब अयोध्या के उस मासूम को प्यार हो गया. पुजारी के बेटे को मुस्लिम लड़की से प्यार हो गया. प्यार सीमाओं से परे हैं, जाति, धर्म, सरहद संस्कृति सबसे परे. लेकिन अपने देश में आमतौर पर कोई भी ऐसा प्यार एक बड़ा तूफ़ान ला खड़ा करता है.
अँधेरी रात थी, हमेशा जैसी गहरी अँधेरी. श्याम रात को गुल करता था. उसने अपने दाँतो पर गुल का मन्जन रगड़ा और खुद को आईने में देखा. दाँत साफ़ किये और कुल्ला किया. वह बेचैन लग रहा था.
"श्याम..श्याम.."दूसरे कमरे से उसकी माँ ने उसे पुकारा.
"तुम्हारे पिता बुला रहे थे. तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे. तुमने मेरी जिंदगी नर्क क्यों बना दी है? तुमसे बहुत नाराज़ हैं वो.. तुम्हें मंदिर से जुड़ा कुछ करना चाहिए.. हमारे बाप-दादा सब यही करते आये हैं.. समझे? उसकी माँ ने उसे समझाते हुये कहा.
"अगर आपलोगों ने मुझपर और दवाब डाला तो मैं रेलगाड़ियों में संडास साफ़ करने लगूंगा"श्याम गुस्से में बोला.
ये सुनकर उसकी माँ को भी गुस्सा आ गया. वो उठकर जाने लगी.
श्याम अपनी प्यारी माँ को समझाते हुए बोला "पहले हमने एक काम चुना.. उससे हमें जाति मिली.. लेकिन अब उसका उल्टा हो रहा है.. और कबतक ऐसा होता रहेगा माँ?
माँ खुशामदी लहज़े में कहने लगी"तुम्हारे पिता ने तुम्हें एक केसरिया सिल्क का कपड़ा दिया था, दिया था न! तुमने उससे सीता मैया के कपड़े सिले कि नहीं"?
श्याम ने प्यार से अपनी माँ की तरफ देखा"तुम्हें नीली आँखे अच्छी लगती हैं माँ?"
उनको समझ नहीं आया कि वह क्या बोल रहा है.
श्याम ख्याल में डूबते हुए बोला "नदी जैसी नहीं.. सागर जैसी नीली?
माँ ने उसकी तरफ डर से देखा और बोली "डब्बे में रोटियाँ रखी है. सोने से पहले खा लेना".
श्याम के लिए वो मुश्किल रात थी.
मछली की तरह वो बिछावन में करवटें बदलता रहा. उसकी जेहन में बस वो नीली आँखे ही थी. उसने बल्ब जलाया. गंदे, ढीले तार बल्ब के आसपास लटक रहे थे. वह उठकर अपने बिछावन पर घुटनों के बल बैठ गया. उसने बल्ब को ध्यान से देखा. जल्दी से उतरकर बिछावन के नीचे से एक स्टील का बक्सा निकाला और उसमें से कपड़े निकाल-निकाल कर फेंकता गया जब तक कि वो केसरिया सिल्क का टुकड़ा उसके हाथ में न आ गया.
उसने उस कपड़े को देखा, उसे छुआ.उसने अपनी जिंदगी में इतना अच्छा कपड़ा कभी नहीं देखा था. साटिन की तरह चिकना और वेलवेट की तरह मुलायम .वह बिस्तर पर खड़ा हो गया और कपड़े को बल्ब के ऊपर फ़ैलाने की कोशिश करने लगा.
पूरा कमरा एक केसरिया रौशनी में चमकने लगा.
उसे ये सब अद्भुत लग रहा था. ऐसा लग रहा था कि वह कपड़े और बल्ब से लुका छिपी खेल रहा हो. उसने कपड़े को बल्ब से हटा लिया और चादर की तरह ओढ़ लिया. कभी वो कपड़े को खींचता, कभी चूमता, कभी ज़ोर से गले लगाता...उसने सोने की कोशिश में आँखे बन्द की लेकिन उसे वही नीली आँखे बार बार दिखाई पड़ती थी.
उसने कपड़े के टुकड़े को ऐसे पकड़ा जैसे वह कपड़ा न होकर वो नीली आँखों वाली लड़की ही उसकी बांहो में आ गयी हो. उसने उस कपड़े को चेहरे पर फैलाया और  बत्ती बुझा दी.

अलसुबह. गुलमोहर का पेड़ ख़ूबसूरत और लाल लग रहा था. श्याम अपनी साइकिल पर एक बड़ा सा बक्सा रखकर चला आ रहा था. उसने सिलाई मशीन का खाकी कवर हटाकर ताला खोला. ये सब उसने बहुत तेजी से किया. अपना बक्सा एक तरफ रखकर उसने ऊपर पेड़ की तरफ देखा. बिना फूलों के पेड़ अजीब दिख रहा था. उसने लाल फूलों की कल्पना की और उस नीली आँखों वाली लड़की की भी.
तभी एक अख़बारवाला वहां से गुजरा. श्याम को देखकर वह रुक गया. अखबार वाला हँस के बोला "तो मैं ही अकेला बेवकूफ़ नहीं हूँ मेरे अलावा भी कोई अपना काम इतनी सुबह शुरू कर देता है"
श्याम ने मुस्कुराते हुए उसके बण्डल से एक हिंदी अखबार खींच लिया.
अखबारवाले के पास बहुत खबरें थी.
"माहौल बहुत गरम है भाई. रहेंगे भारत में और मन्दिर की जगह मस्जिद चाहते हैं। क्या हम कभी पाकिस्तान जाकर मंदिर की मांग करते हैं?"
श्याम ने अख़बार वापिस रख दिया.
अखबार वाले को अपनी समझदारी भरे बयान पर श्याम की चुप्पी पसन्द नहीं आई। साइकिल पर बैठकर वह चला गया.
श्याम का दिमाग मशीन की तेजी से चल रहा था. उसने अपने झोले से वही सिल्क का कपड़ा निकाला और नापी वाली बही भी.पन्ने पलट कर उसने वही पन्ना निकाला जिसपर मोटे अक्षरों में लिखा था 6/12/92.

उसने उस पन्ने को चूम लिया और सिलाई शुरू कर दी.उसकी मशीन तेज होती जा रही थी और वह पूरे ध्यान से सिलाई में डूबा हुआ था.
उसने एक सुन्दर कुर्ती सिली और सुनहले लेस से उसको सजाने लगा.
श्याम ने सुन्दर आँखों वाली उस लड़की के लिए कुर्ती सिली जिससे उसे प्यार हो गया था. उसने सीता माँ की जगह अपने प्यार के लिए सिलाई की.

और वो दिन आ ही गया. 6 दिसम्बर 1992
वह एक छोटे बच्चे की तरह उत्साहित था. वह बेचैनी से उस लड़की के आने का इंतज़ार कर रहा था. हर पल उसे सदी के बराबर लग रही थी. उसकी जान  निकली सी जा रही थी. तभी वो आ गयी! उसकी नीली आँखे बुर्के के अंदर से चमक रही थी. वो नीली आँखे उसके नजदीक आई. श्याम ने वो कुर्ती उसे देनी चाही।
"ये मेरी नहीं है"लड़की बोली
"ये आपके लिए ... मैंने सिली है"श्याम ने प्यार से कहा.
"मैं ये कैसे ले सकती हूँ? लड़की ने झिझक से कहा.
"मुझे आपकी नीली आँखों से प्यार हो गया है", श्याम बोला.
लड़की चुप हो गयी.
"अगर आप इसे नहीं लेती हैं, तो मैं समझूँगा कि आप मुझे पसन्द नहीं करती", श्याम ने बेहद नर्म लहज़े में कहा.
लड़की ने उसको देखा. दोनों की आँखे एक पल के लिए मिलीं. इससे पहले श्याम का दिल इस तरह कभी नहीं धड़का था.
"अगर आप नहीं लेना चाहती, तो भी कोई बात नहीं"श्याम बोला.
एक तरफ प्यार परवान चढ़ रहा था, तभी एक तेज़ धमाके की आवाज आई... दंगा शुरू हो गया था..वो दंगा जिसने एक प्रेम कहानी को निगल लिया. श्याम को घबराहट होने लगी. लड़की की दोस्त चीख उठी -"भाग मेहर भाग"
क्योंकि उनके पास उस जगह से भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था. वो एक बार अपनी दोस्त की तरफ मुड़ी फिर भीड़ की आवाज़ की तरफ. श्याम का दिल किसी बुलेट ट्रेन की तेज़ी से धड़क रहा था. वो जाने लगी, फिर मुड़ कर श्याम के पास आई. उसने अपना हाथ आगे किया और जल्दी से उससे कुर्ती छीन ली. श्याम उसकी आँखों में खोया हुआ लग रहा था। उसको उसका प्यार मिल गया था.
आधा इश्क़. एक आधा इश्क़.
सबकुछ पलक झपकते ही बिखर गया. मस्जिद ढहने के साथ ही दंगा शुरू हो गया था. हिन्दू-मुसलमान के बीच की खाई और गहरी हो गयी थी और पूरा अयोध्या जैसे तूफान की चपेट में आ गया था. जंगल के आग की तरह इसने पूरे देश को अपने चपेट में ले लिया था.
आखिरी बार श्याम ने उसे उसी दिन देखा था.
पूरा देश हिन्दू और मुस्लिमों के बीच के धर्मिक उन्माद के ज़हर से गूंज रहा था.
"एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो"हवा में ये नारा गूंज रहा था.
इससे पहले  कि दोनों पास आ पाते, दोनों अलग हो गए थे. हमेशा के लिए.
दंगों ने उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया था. हिन्दू लड़का और मुस्लिम लड़की हमेशा के लिए अलग हो गये थे.
पूरे अयोध्या में खूनखराबा हुआ. पूरा देश तनाव में था.
श्याम अपने घर की तरफ भागा, उसके माँ-बाप का क़त्ल हो गया था. फिर वो उस लड़की के मुहल्ले की तरफ दौड़ता हुआ भागा, वहाँ कोई नहीं था.
अगले दिन, अफवाह उड़ी कि वो नीली आँखों वाली लड़की जलाकर मार दी गयी थी. श्याम अपनी मशीन के साथ अयोध्या छोड़ गया. कभी न वापिस आने के लिए. उन नीली आँखों की यादों से दूर जाने के लिए.
और आज का ये दिन, 18 साल बाद बाबरी मस्जिद पर फैसला आ गया था. अपने प्यार के लिए उसने जो कुर्ती सिली थी वो भी आ गयी थी.
उसका प्यार अब भी ज़िंदा था.वह कहीं आसपास थी. शायद उसी कुर्ती में सांस लेती थी.
आँखों के आँसू और चेहरे की मुस्कुराहट ने वो सब धो दिया था, वो सब जिसने उसे अधूरा कर दिया था.
उसने गुलमोहर के पेड़ की तरफ देखा. उसे एक छोटा सा फूल दिखा, बेमौसम मुस्कुराता हुआ.
एक उम्मीद अब भी ज़िंदा थी.

और एक आधा इश्क़ लिखा जाना भी.

जिसने शायरी के फन में अदब को सम्भाल रक्खा है : राजेश रेड्डी

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सौरव कुमार सिन्हाका एक लेख 'लल्लनटॉप'पर पढ़ा था जौन एलिया की शायरी पर. बहुत मुतास्सिर हुआ था. अब आप हिंदी के शायर राजेश रेड्डीकी शायरी पर उनका यह लेख पढ़िए आप भी मुतास्सिर हो जायेंगे- मॉडरेटर 
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मुशायरे की रवायत सदियों पुरानी है।  पिछले दो दशकों में साहित्य के अलग अलग क्षेत्रो में बदलाव के साथ साथ इसका रूप और रंग भी बदला है।  नए चेहरे, नया प्रारूप और लोगो का इसके प्रति बदलता नजरिया ये तो साबित करता हीं  है कि बदलते वक़्त ने मुशायरो की रूह तो नहीं लेकिन उसका आवरण जरूर बदला है। मौजूदा नस्ल जिनके कंधो पे साहित्य का भविष्य निर्भर है, इस बदलाव की समीक्षा नहीं कर पा रही है, और पुरानी पीढ़ी केवल तंज कस रही है और किसी कीमती चीज को खोने का विलाप कर रही है। उसकी रूचि सामंजस्य बिठाने की और नहीं है।  हालांकि ये बात भी सच है कि चाहे वो गज़ल हो गीत हो या कविता, अपना मंच वे स्वयं बनाती है और वे खुद का निमित्त भी है।  साहित्य का सफर किसी भी पीढ़ी का मोहताज नहीं होता, बदलाव अगर गलत होते है तो साहित्य में इतनी शक्ति होती है कि देर से ही सही लेकिन वो पुराने परिधान में आ जाती हैं। इन सबके बावजूद गजल की रूह जिसको एक शरीर तो चाहिए ही संवाद करने के लिए, थोड़ी परेशान नजर आ रही थी।  अगर हम हिंदी उर्दू गजलों को अलग अलग कर दे तो ये परेशानी हिंदी गजलों में व्यापक रूप से दिखेगी ( लेकिन कोशिश रहेगी बात केवल गजलों की हो और उसमे भी मंचो पे पढ़े जाने वाली गज़ल )  अगर उर्दू वाले हिंदी या अन्य भाषाओं और बोलियों के प्रति थोड़े सख्त हैं तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। पर इतने सख्त पैमाने वाले जानकार भला कितने हैं


मेरे जैसे गज़ल के कद्रदान जिनका ज्ञान ८० के दशक से शुरू होता है , आज २०१६ तक अगर उस बदलते रूप की समीक्षा करने की कोशिश करे तो इस नतीजे पर आसानी से पहुंच जाते है कि मुहशयरे भी "फटाफट "ढाँचे में आ गए है। अगर उस सामंजस्य की बात  की जाए तो मेरी नजर में खुमार बाराबंकवी और मजरूह सुल्तानपुरी के बाद गजल की क्लासिकल रवायत ठहराव पर आ गई है। मुशायरो का तौर अब उस क्लासिकी को अनदेखा कर रहा है।  शोर शराबा ज्यादा है और संजीदा नज्मे और गजले बस पुराने ज़माने की आपबीती सी हो गई है।  मेरे पसंदीदा जॉन कहते थे "दाद--तहसीन का ये शोर है क्यों/ हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं।'लेकिन मंचो से तालियों की चाह ने इस अदबी फन को  अपने सफर से गुमराह कर  दिया है।  

अब बात राजेश रेड्डी साहब की।  जिस अंदाज का जिक्र मैंने ऊपर किया और जिस सामंजस्य की कमी मेरी नजर में इस गिरते स्तर का कारण है वो सारी कमियां कई दशकों से जनाब राजेश रेड्डी साहब मुशायरो के मंचो से दूर करने की कोशिश कर रहे है। मुझे लगता है की खुमार साहब के बाद गजल की वो क्लासिकी रवायत जनाब राजेश रेड्डी ने ही सम्भाल रक्खी है।  आप अगर खालिस गज़ल सुनने के शौक़ीन है तो राजेश रेड्डी उस लिहाज़ से आपके पसंदीदा होने चाहिए।  इन्होने सिर्फ गजलों को अपनी पूरी कारीगरी समर्पित कर दी है।  तरन्नुम में गज़ल पढ़ने का उनका तरीका आपको गज़ल के उसी रूप के नजदीक ले जाएगा जिसके लिए शायद इसका ईजाद किया गया होगा।  कई प्रसिद्ध गज़ल गायकों ने इनकी गजलों को आवाज  दी है लेकिन वो स्वयं जब गज़ल पढ़ते है तो सुनने वालो पर दोगुना जादुई असर होता है।  अगर गज़ल की बारीकियों की बात करे तो हर लफ्ज में नक्काशी।  मिसरों का चयन बहुत ध्यान से करते है जिसके कारण उनकी हर गजल मुकम्मल होती है।  

कुछ और बरतना तो आता नहीं शे'रों में
सदमात बरतता था, सदमात बरतता हूँ

जीने की कोशिशों के नतीज़े में बारहा
महसूस ये हुआ कि मैं कुछ और मर गया

अब मेरा अपने दोस्त से रिश्ता अजीब है
हर पल वो मेरे डर में है, मैं उसके डर में हूँ।

है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमत
खु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे

वो खुशनसीब हैं, सुनकर कहानी परियों की
जो अपनी दर्द भरी दास्तान भूल गए

राजेश रेड्डी, जिनको सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'सम्मान मिल चुका है , उस लहज़े के शायर है जिन्हे सिर्फ महबूबा की जुल्फे या जिंदगी की कश्मकश नजर नहीं आती बल्कि इंसानी वजूद के हर उस मंजर पर वो बखूबी लिखना जानते है जिससे एक आम आदमी बेचैन हो जाता है।  रवायात के दायरे में रह के मौजूदा दौर पे शेर लिखना जिसमे एक छोटे बच्चे का खिलौना भी शामिल है , एक बुढ़िया की लाठी भी, एक परिंदे का दर्द भी और एक मजलूम की चीख भी।  गज़ल  को बहुत गर्व होता होगा ये सोच कर कि सारी बंदिशों के बावजूद एक शायर हर गज़ल में सुर और ताल को भी बखूबी पिरोता है।  घर में मौसिकी का  माहौल पहले से था सो राजेश रेड्डी  को ये आयाम विरासत में मिला।  लेकिन मौसिकी के अलावा उनका तजुर्बा और जिंदगी की समझ उनके अशआर में बेहतरीन ढंग से नजर आता है।  

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
  
तेरी महफ़िल से दिल कुछ और तनहा होके लौटा है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है

गीता हूँ कुरआन हूँ मैं
मुझको पढ़ इंसान हूँ मैं

ज़िन्दा हूँ सच बोल के भी
देख के ख़ुद हैरान हूँ मैं

इतनी मुश्किल दुनिया में
क्यूँ इतना आसान हूँ मैं

मेह्रबाँ जब तक हवायें हैं तभी तक
इस दिए में रोशनी बाक़ी रहेगी

कौन दुनिया में मुकम्मल हो सका है
कुछ न कुछ सब में कमी बाक़ी रहेगी


'दीवाने - ग़ालिब 'को उस्ताद मान कर राजेश रेड्डी ने अपने शायरी के सफर का आगाज़ किया।  लेकिन उनकी शायरी में ग़ालिब से लेकर मजरूह सुल्तानपुरी तक का सफर दिखाई देता है।  एक बात है जो मुझे राजेश रेड्डी जी का मुरीद बनाती है वो है उनका संजीदा मुद्दों पे लफ्जो की नक्काशी , उन्होंने तंज नहीं कसा किसी पे।  संजीदा मुद्दों को उसी संजीदगी से पेश किया और उसी क्रम में गजल की नियमावली का पालन भी किया। 

कोई भी जाना नहीं चाहता क्यूँ दुनिया से
इस सराय में ,मैं हैरान हूँ , ऐसा क्या है

क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकून
नाराज़ है ज़मीं से ख़फा आसमां से हम

ये और बात है कि ज़ुदा है मेरी नमाज़
अल्लाह जानता है कि काफ़िर नहीं हूँ मैं

जितना मैंने लिखा है वो बिलकुल सूरज को दीया दिखाने के बराबर है। अभी इनपर बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है और ये सिलसिला चलता रहेगा जबतक गज़ल के कद्रदान ज़िंदा है।  अंत में राजेश रेड्डी की वो गज़ल जिसको जगजीत सिंह ने गाया भी और राजेश रेड्डी को दुनिया भर में मशहूर किया।  

यहाँहरशख़्सहरपलहादिसाहोनेसेडरताहै
खिलौनाहैजोमिट्टीकाफ़नाहोनेसेडरताहै

मेरेदिलकेकिसीकोनेमेंइकमासूम-साबच्चा
बड़ोंकीदेखकरदुनियाबड़ाहोनेसेडरताहै

बसमेंज़िन्दगीइसकेक़ाबूमौतपरइसका
मगरइन्सानफिरभीकबख़ुदाहोनेसेडरताहै

अज़बयेज़िन्दगीकीक़ैदहै, दुनियाकाहरइन्सां
रिहाईमांगताहैऔररिहाहोनेसेडरताहै


सौम्या बैजल की कहानी 'कॉपी'

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यह कहानियों का लप्रेक काल है. जीवन में-कहानियों में छोटी-छोटी बातों को महत्व देने का दौर.  युवा लेखिका सौम्या बैजलकी इस छोटी कहानी को ही देखिये- मॉडरेटर 
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'बेवकूफोंजैसीबातेंमतकरो. तुमजानतेहोकीमैँउसेभूलचुकीहूँ' , मानसीनेझुंझलाकरवरुणसेकहा.
'ठीकहै, तुमनेकहाऔरमैंनेमानलिया . चलोकोईऔरबातकरतेहैं. कुछगानेलगाऊूँ, पुरानेतुम्हारी
पसंदके?', वरुणनेतुरुंतबातबदलकरकहा. जवाबकाइन्तजारकरतेहुए , वहपलंग  सेउठाऔर
कैफीआज़मीकेकुछगीतसीडीप्लेयरपरचलादिए . मानसीउसेदेखकरमुस्कुराई , औरफिर  साथ
गुनगुनातेहुएकुछलिखने  लगी. वरुणनेअपनीकिताबउठाईऔरमानसीकेसामनेकुर्सीपरबैठगया.
औरकिताबकेपीछेसेचुपचापपलंगपरलेटीहुईमानसीकोएकटकदेखतारहा. उसकेउड़ेउड़ेबाल,
आंखोंकावहखूबसूरतगीलापन, जोबसछलकजानेवालाथा, होंठोंकीवहएकएकसुर्खी , AC की
हवामेंधीरेधीरेखड़ेहोतेउसकेरोंगटे।

उसेमानसीकीहरचीज़सेमोहब्बतथी. उसकीउसछोटी
सीछींकसेभी, जोमानसीकोअभीअभी, ठंडीहवामेँआईथी. शायदवहसचमेंउसेभूलगयीहो, वरुण
नेमनहीमनसोचा, औरकिताबपढ़नेलगा. पलबीतेयाघुंटेयहकहनामुश्किलथा. बहरालजबआंख
खुली, तोसामनेअपनीकॉपीकलमकोहाथमेंपकडेहुएमानसीकोसोतापाया. वरुणधीरेसेउठा, जिस
सेउसकेपैरोंकीआवाज़सेमानसीजागजाए. हलकेहाथसेउसनेउसकेहाथसेकलमछुड़ाईऔर
कॉपीपढ़नेलगा.

'शायदतुम्हारेलिएमैंवहकभीबनपाउंगीजोतुममेरेलिएथेअनिल।
शायदतुम्हेएहसासहोगाकीरोज़रातबेसमयजागकरमैंयहसोचतीथी, कीशायदमेरीनींदमेंसिर्फ
तुम्हारीसोचऔरयादसकतीथी.
कीशायदतुमयहसमझसको, कीमैआजभीउसचांदकोयहसोचकरदेखतीहूूँ, कीशायदउसेतुम
भी, तभी, उतनीहीलालसासेदेखतेहोगे.
कीशायदतुम्हारेहाथभीएकखालीकागज़परवैसेहीदौड़तेहोंगेजैसेमेरे.
कीशायद, शायद, आंखेंतुम्हारीबंदहोगीऔरसोऊंगीमैं.
कीशायदप्यासेतुमहोगेऔरजागूंगीमैं।

वरुणमनहीमनमुस्कुरादियामानसीकोउससेअच्छीतरह, शायदइसवक़्तऔरकोईनहींसमझ
सकताथा.
जोअनिलमानसीकेलिएथा, उससेबसथोड़ासाज़्यादा, मानसीउसकेलिएबनचुकीथी.

उसनेपासपड़ीदोहरउठाईऔरमानसीकोओढ़ादी. औरकलमऔरकॉपीऐसेरखदी, जैसेसोतीहुई
मानसीकेहाथोंसेअगरगिरती , तोवैसीहीलगती. कुछदेरवहमानसीकेशांतचेहरेकोदेखतारहा.

शायदमानसीइसनींदमेंहीसही, वरुणकीबातसुनसके.

--- सौम्याबैजल

इब्ने सफी लोकप्रिय धारा के प्रेमचन्द थे!

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26 जुलाई को इब्ने सफीका का जन्मदिन और पुण्यतिथि दोनों है. वे जासूसी उपन्यास धारा के प्रेमचंद थे. हिंदी-उर्दू में उन्होंने लोकप्रिय साहित्य की इस धारा को मौलिक पहचान दी. आज उनको याद करते हुए 'दैनिक हिंदुस्तान'में लईक रिज़वीका स्मरण-आलेख प्रकाशित हुआ है- मॉडरेटर 
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इब्ने सफी ने कुल 52साल की उम्र पाई, लेकिन ढाई सौ से ज्यादा जासूसी उपन्यास लिख कर वे भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे लोकप्रिय जासूसी उपन्यासकार बन गए। उर्दू और हिंदी पाठकों की कई पीढ़ियों की यादों का वे हिस्सा बने हुए हैं। 26जुलाई को उनका जन्मदिन और पुण्यतिथि दोनों हैं। यहां उन्हें याद कर रहे हैं लईक रिजवी- दैनिक हिन्दुस्तान
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जुलाई 1980की ढलती हुई शाम थी। किसी जरूरी काम से साइकिल दौड़ाए मैं कहीं जा रहा था कि नूरउल्लाह रोड स्थित जासूसी दुनिया के प्रकाशक अब्बास हुसैनी के बंगले में गैरमामूली हलचल ने कदम रोक लिए। अंदर-बाहर बहुत से लोग जमा थे। मैं भी बरबस खिंचा चला गया। पता चला इब्ने सफी नहीं रहे। इब्ने सफी। महान जासूसी उपन्यासकार। अपने चहते रचनाकार की अचानक मौत की खबर ने लोगों को बेचैन कर दिया था। शहर भर में हर गली-नुक्कड़ पर छोटी-बड़ी टोलियों में हर जगह बस इब्ने सफी की मौत की बातें थीं। सबके लिए ये अपना गम था।

उन दिनों मैं सीएवी कॉलेज में 11वीं में पढ़ता था। इब्ने सफी के नाम से परिचित था, लेकिन उन्हें पढ़ा तब तक न था। उस शाम इब्ने सफी के लिए दिखे जबरदस्त क्रेज ने मुझे भी उनका दीवाना बना दिया। उन दिनों आनालाइब्रेरियों में इब्ने सफी के नावल किराए पर मिलते थे। पच्चीस पैसे में शायद दो दिन के लिए। पर मुझे तो कभी भी दो दिन नहीं लगे। कहानी कहने का जादुई अंदाज, बला का थ्रिल और सस्पेंस नावल को बीच में छोड़ने ही नहीं देता।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे इब्ने सफी। अस्ल नाम था असरार अहमद। खेलने-कूदने की उम्र में उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। असरार नारवीनाम से उन्होंने कविताएं लिखीं, कहानियां और हास्य-व्यंग्य भी। असरार, अब्बास हुसैनी की पत्रिका नकहतके नियमित स्तंभकार थे। 1952में जासूसी दुनियाशुरू हुई तो वो यहां आ गए। जासूसी दुनियाके लिए उनका पेन नेम इब्ने सफी तय हुआ और फिर यही नाम-काम ही उनकी पहचान बन गए। इब्ने सफी का पहला नावल दिलेर मुजरिममार्च 1952में आया। तहरीर का ये नया जायका खूब पसंद किया गया और इब्ने सफी का जादू सिर चढ़ कर बोलने लगा। फरीदी (विनोद), हमीद, कासिम जैसे किरदारों को लेकर उन्होंने कालजयी कहानियां रचीं। हर नावल के साथ उनकी साख और डिमांड बढ़ती गई। उर्दू के अलावा उनके नावल हिंदी, बांग्ला और गुजराती में भी छपे और पढ़े गए। अगस्त 1952में वो पाकिस्तान चले गए। 1955में उन्होंने एक नया किरदार गढ़ा, इमरान। इमरान सीरीजका पहला नावल खौफनाक इमारतअगस्त 1955में आया।

इब्ने सफी का रचना काल (1952-1980) सियासी-समाजी नजरिए से उथल-पुथल का जमाना है। विभाजन ने भारतीय उपमहाद्वीप को झंझोड़ डाला था। देश के साथ दिल और सपने भी टूट गए थे। दोनों ही तरफ से लाखों-लाख लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। अपनी जड़ों से कट कर जीने की मजबूरी, तेजी से बदलते वक्त के साथ चलने का दबाव, इस दबाव में बनता-बिगड़ता समाज, उलझनें, अंतद्र्वंद्व, दंगे, अपराध, भ्रष्टाचार, कुर्सी के लिए नित नई चालें और साजिशें। विश्व पटल पर भी बड़ी हलचल थी। विश्वयुद्ध के जख्मों पर साजिशों की खेती होने लगी थी। दोस्ती-दुश्मनी के नए औचित्य और मोर्चे खड़े किए जा रहे थे। बड़ी ताकतों में वचस्र्व की जोर-आजमाइश ने शीत युद्ध की स्थिति पैदा कर दी थी। लोग बेचैन थे। नए सवाल और अंदेशे सिर उठा रहे थे। इब्ने सफी की साहित्यिक चेतना भी इसी सियासी-समाजी सूरतेहाल और लोगों की बेचैनियों से बनने वाले मंजरों को आईना दिखाती है। उन्होंने समय-समाज की हर चाल और आहट को पकड़ने की कोशिश की और जहां भी, जितना भी मौका मिला, पूरी रचनात्मकता के साथ अपने उपन्यासों का हिस्सा बना लिया।

इब्ने सफी से पहले जासूसी साहित्य के नाम पर जो भी लिखा गया, उसका मकसद कहीं न कहीं मनोरंजन था। लेकिन इब्ने सफी ने सामाजिक सरोकार से जोड़ कर जासूसी नावल को नया विजन, नया चेहरा दिया। इब्ने सफी ने व्यक्ति और समाज को एक खास हालात में देखने-समझने की कोशिश है। इनमें जिंदगी के बहुत से रंग अपनी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ नजर आते हैं। ऐसे सच्चे और खरे रंग, जो चेतना को रफ्तार देते हैं। उनके नावलों में समकालीन समाज का चेहरा नजर आता है। आने वाले वक्त की आहट भी सुनाई देती है। जासूसी साहित्य की अपनी सीमाएं हैं और जरूरतें भी, लेकिन इब्ने सफी जुर्म और मुजरिम के चेहरे बेनकाब करने के साथ-साथ तफ्तीश के बहाने हाथ आए समाज के काले-सफेद कोनों को भी उजागर करते चलते हैं:
चाय आने से कब्ल ही डायरेक्टर ने सवाल खींच
मारा था। कर्नल साब! आखिर ये जरायम इतने क्यों बढ़ गए हैं?’
झल्लाहट की बिना परफरीदी बोला। मैं नहीं समझा?’
आबादी बढ़ गई है वसायल महदूद (संसाधन सीमित) हैं और चंद हाथों का उन पर कब्जा है।
झल्लाहट की बात तो रह ही गई!
उसी तरफ आ रहा हूं। दौलतमंदों को और दौलतमंद बनने की आजादी है और अवाम को कनाअत (संतोष) का सबक पढ़ाया जा रहा है।
ऐसी सूरत में इसके अलावा और चारा भी क्या है?’
चारा ही चारा है। अगर खुदगर्जी और जाहपसंदी (सत्ता मोह) से मुंह मोड़ लिया जाए। एक अंदाज की सरमायादारी की बुनियाद डालने की बजाय खुलूसे नीयत से वही किया जाए, जो कहा जा रहा है तो अवाम की झल्लाहट रफा (खत्म) हो जाएगी।
(उपन्यास: जहरीला सय्यारा)

इब्ने सफी का रचना संसार रहस्यमय भी है और रंगारंग भी। शुरुआती कुछ नावलों के प्लाट तो उन्होंने भी आम जुर्म की उलझी हुई गुत्थियों से तैयार किए, लेकिन बाद में इनके विषयों का दायरा और शिल्प की तहदारी बढ़ती गई। ये उपन्यास भाषा, शिल्प और कथानक, सभी स्तर पर अहम और सफल हैं। इनमें बड़ी विविधता है। मुजरिम ही नहीं, इनमें जुर्म की नई शक्लें और नई परतें उजागर हुईं। बेईमानी, भ्रष्टाचार, नाइंसाफी, साम्राज्यवाद, फासीवाद, विघटन, आतंकवाद, बाजार की साजिशें और ज्ञान-विज्ञान के बेजा इस्तेमाल तक, उन्होंने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन के हर स्याह पहलू को सामने रखा है। अपराध के उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली साजिशों को भी आईना दिखाया है। उनके नावल हमें अपने इर्द-गिर्द की उस काली दुनिया से परिचित कराते हैं, जिसके बारे में हम या जानते नहीं या बहुत कम जानते हैं। विसंगतियों पर उन्होंने गहरा कटाक्ष किया है:
ये आदमी के छिछोरेपन की कहानी है... आदमी कितना गिर सकता है, इसका अंदाजा करना बहुत मुश्किल है... दुनिया की बड़ी ताकतें, जो अपने इक्तेदार (सत्ता) के लिए रस्साकशी कर रही हैं, इससे ज्यादा गिर सकती हैं। उनके बुलंद बांग नारे, जो इंसानियत का बोलबाला करने वाले कहलाते हैं, जहरआलूद हैं।
(उपन्यास: वबाई हैजान)

आदमी ने खुद ही अपनी जिंदगी में जहर भरा है और अब खुद ही तिरयाक (इलाज) की तलाश में सरगर्दां है। वो खुदा तक पहुंचने की कोशिश करता है, लेकिन अपने पड़ोसी तक भी उसकी पहुंच नहीं।
(उपन्यास: सैकड़ों हमशक्ल)

इब्ने सफी के उपन्यासों के प्लाट बड़े तहदार हैं। शब्दों से उन्होंने चलते-फिरते चित्र बनाए हैं। लफ्जों की ऐसी तस्वीरें कीं, पढ़ने वाला खुद को उसका हिस्सा समझने लगता है। मनोविज्ञान की समझ ने उन्हें दृष्टि और प्रभावी काट दी। मुजरिम की घिसी-पिटी तलाश की बजाए वो उन सोतों की तरफ भी इशारा करते हैं, जो जुर्म और मुजरिम उगल रहे हैं। इब्ने सफी ने अपने कुछ नावलों में साइंस फिक्शन और साइंस फैंटेसी का भी सहारा लिया है। वो पाठक को एक ऐसी फिजा में ले जाते हैं, जहां कदम-कदम पर उसे अचरज का सामना होता है। पात्र गढ़ने में भी इब्ने सफी ने महारत का सुबूत दिया है। फरीदी, हमीद, इमरान जैसे हीरो ही नहीं, संगही, हम्बग, फिंच, अल्लामा दहशतनाक, डा. नारंग, डा. ड्रेड, जेराल्ड, थ्रेसिया जैसे विलेन भी याद रह जाते हैं। इब्ने सफी जुर्म को ग्लैमराइज नहीं करते। वो जुर्म से नफरत सिखाते हैं। साजिशों से आगाह करते हैं। ये भरोसा भी कि जुर्म और मुजरिम का अंजाम शिकस्त ही है। जीत आखिरकार अम्न और कानून की ही होगी। अफसोस कि उनके नावलों को पापुलर टैग लगा कर साहित्य के मुख्यधारे से अलग कर दिया गया। मगर इब्ने सफी अपनी राह चलते रहे। खुद लिखते हैं:
‘... मैं जो कुछ भी पेश कर रहा हूं, उसे किसी भी किस्म के अदब से कमतर नहीं समझता। हो सकता है कि मेरी किताबें अलमारियों की जीनत न बनती हों, लेकिन तकियों के नीचे जरूर मिलेंगी। हर किताब बार-बार पढ़ी जाती है। मैंने अपने लिए ऐसे मीडियम का इंतखाब (चयन) किया है कि मेरे अफकार (विचार) ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सकें। हर तबके (वर्ग) में पढ़ा जाऊं और मैं इसमें कामयाब हुआ हूं।

इब्ने सफी जानते थे कि फैसला वक्त करेगा। वक्त फैसला कर भी रहा है। उनके रचना संसार के मूल्यांकन के लिए नए सिरे से काम हो रहा है। विश्वविद्यालयों में थीसिस लिखी जा रही हैं। सेमिनार हो रहे हैं। पत्र-पत्रिकाएं विशेषांक निकाल रहे हैं। दूसरी भाषाओं में अनुवाद तो इब्ने सफी की जिंदगी में ही शुरू हो गया था, लेकिन इधर इसमें तेजी आई है। बड़े प्रकाशकों ने हिंदी और अंग्रेजी में उनके उपन्यास छापे। मौत ने उन्हें भले ही हमसे छीन लिया, लेकिन वो जिंदा हैं अपनी रचनाओं में। अपने पात्रों में। अपने लाखों चाहने वालों के दिल में। पाठक के दिल पर इब्ने सफी कल भी राज कर रहे थे और आज भी राज कर रहे हैं।


रजनी मोरवाल की कहानी 'खूबसूरत फूल के लिए'

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रजनी मोरवालके कहानी संग्रह 'कुछ तो बाकी है'के प्रकाशन के बाद से उनकी कहानियों की खूब चर्चा हो रही है. उनकी कहानियां चर्चा के लायक हैं या नहीं आप खुद पढ़कर बताइए- मॉडरेटर
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मुंबई के मौसम का कुछ पता नहीं चलता,बहुत बंकस करता है सब तरफ चिप-चिप,जररा सी झमाझम हुई नहीं की ये इलाका फ़चाफ़च करता है,ली लियांग को बस यही बात परेशान करती है |मुंबई मस्त पण इधर की बारिश पस्त कर देती है"ली लियांग को 'कॅमलिंग'की लाउंज में मच्छरों का आतंक सहना पड़ता है,बूंदें पड़ते ही अक्खा मुंबई मरीन ड्राइव के किनारे भेला हो जाता है...व्होह टेम में मरीन ड्राइव बोले तो सुवर्ग नज़र आता है,कपल्स लोग कईसा फिट होके बैठता है...एकदम मस्त सीन होता है रोमांटिक और चिपका चिपकी वाला |"ली लियांग कुढ़ के रह जाता है,शायद अपने एकाकीपन से या अपने हालातों से पता नहीं पर उसे बहुत गुस्सा आता है इन कपल्स को देख कर |
   कभी-कदार तो ली लियांग को इधर के लोग भी मोइस्ट-मोइस्ट लगते हैं-"मोइस्ट-मोइस्ट ,च्या माईला...बोले तो.....जैसे शरीर से गीले और माइंड से थकेले,सब ओर बोले तो भागम-भाग माइला, "जास्ती टेम किसी के पास नईच"ली लियांग सोचता रहता है-
"मई किधर से आया रे बाबा इस शहर में ?कहने को माँ-बाप नहीं,रहने को छप्पर नहीं,कोई सगाच पण नईच अपुन का इस शहर में,कोई पण नैपाली बुलाता है तो कोई चीनी,बस चेंग हीच अपुन को थोड़ी बहोत चाइनीज़ सिखाया,चाइनीज़ बहोत आस्ता से समझ में आईला अपुन को ....चेंग बोलता है मई चाइनीज़ है तो इसके वास्ते मई भी अपुन को चाइनीज़ समझ के रखा है...फेसकट भी तो अपुन का चाइनीज़ लोगों से मिलता-जुलता है,चेंग तो मेरा बाप के माफक लगता है |उसकी चिंगी-चिंगी आँखें भी तो अपुन के माफक ही है ...रंग भी तो है सेम-टू-सेम ऐसा कि जैसे फटेला दूध ...."और ली लियांग अकेले में खी...खी करके हंसने लगता है |मरीन ड्राइव से वापिस लौटते वक़्त दाहिने हाथ की तरफ 'गेलार्ड'रेस्त्रां पड़ता है उससे ज़रा आगे चलते रहो तो बाएँ हाथ की तरफ पेवमेंट की रेलिंग से सटकर 'केमलिंग'रेस्त्रां है,ली लियांग बरसों से वहीं डटा हुआ है |
  किउ की माँ भी शायद वहाँ आती रही होगी,उसके पिता का पता नहीं कि वह वहाँ आते थे या नहीं पर जब माँ है तो पिता का होना तो निश्चित ही होगा |उसकी माँ कहाँ से आई थी ?यह तो किसी को नहीं पता किन्तु किसी ने बताया था वह अक्सर मरीन ड्राइव पर घूमती दिख जाया करती थी और कइयों ने तो उसकी माँ को अकेले-अकेले मुस्कुराते भी देखा था |वैसे ऐसा व्यहार व्यक्ति तब करता है जब वह प्यार में होता है ...तो क्या किउ की माँ किसी के प्यार में थी ?बहरहाल यह सब जवाब किउ ढूँढे ...हमें क्या ?हम तो सिर्फ किउ को जानते हैं उसके परिवार को नहीं |किउ तो फिलहाल किसी से प्यार नहीं करती क्योंकि वह अक्सर सुबकती रहती है,अगर प्यार में होती तो मुस्कुराती ....खिलखिलाती |शरीर में यह जो एक बेरहम सा अंग है न...पेट जिसे कहते हैं,यह किसी को मुस्कराने नहीं देता वह भी बेवजह तो हरगिज़ भी नहीं |ली लियांग जानता है,वह सुबह से शाम तक रेस्त्रां में खटता है और 'कॅमलिंग'लाउंज में पड़ा रहता है,कहने को चेंग उसका सबकुछ है लेकिन उसके एकाकीपन को कौन झेले ?एकाकीपन तो सबका निजी होता है फिर ये एकाकीपन किउ का हो,ली लियांग का या फिर चेंग का,बहरहाल कोई नहीं मुस्कुराता यानिकी फिलहाल कोई भी किसी के प्यार में नहीं है |
  ट्रे उठाकर पास से गुजरते हुए ली लियांग ने कोने की मेज़ पर बैठी किउ को देखा जो उस वक़्त अकेली ही वहाँ बैठी थी | आमतौर पर व्यवस्थित रहने वाली किउ के काले रेशमी बाल आज बेतरतीब­-से फैले थे | माथे पर ढुलक आई लटें बाँई ओर के गाल पर से होती हुई एक तरफ से होठों को छू रही थी जैसे जानबूझ कर उन्हें इस प्रकार से गिरने के लिए ढीला छोड़ दिया गया हो | ली लियांग को चिढ़-सी हुई | अगर ये लड़की उसकी कौम की न होती तो वह उसे कभी इस रेस्तराँ में घुसने न देता | मगर कैसे ? रेस्तराँ तो चेंग का है वह तो यहाँ वेटर मात्र है | वेटर जो सिर्फ वेट करता है लोगों के बार-बार कन्फ्युज होते मेनू को देखकर अथवा उनके अजीबोगरीब ऑर्डर के इंतज़ार में...कभी-कभी खाना सर्व करने में देरी हो जाए तो उसे बिल  में फेरबदल का वेट करना पड़ता है कई मर्तबा जब सैफ की गलती से मेनू में परिवर्तन हो जाए तो ली लियांग ढीठ बन जाता है और उनकी झिड़कियों का वेट करता है |हाँ,टिप उसे जरूर सुहाती है जब सौंफ और मिश्री की तश्तरी के साथ-साथ वह टिप के पैसे उठाता है न तो बिन खाए भी सौंफ और मिश्री की मिठास उसकी जुबान ना....ना...उसकी जेब में घुल जाती है और वह गदगद हो उठता है |वह इस मुंबई शहर में अपनी एक खोली लेना चाहता है,वैसे उसने एकाध जगह बात भी कर रखी है पर उतने ढेर सारे पैसे जो उसके पास इकट्ठे नहीं हुए ...कभी ना कभी तो होंगे,इसी उम्मीद पर मुंबई की दुनिया कायम है और मुंबई में कदम रखने वाला हर शख्स इसी सपने को साधे अपना दम फुलाए रहता है सो ली लियांग भी क्या अनूठा कर रहा था ? 
  ली लियांग को आज भी याद है बरसों पुरानी वह रात, जब कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए वह इस रेस्तराँ के बाहर आ दुबका था | ड्रैगन का आकार लिए लाल रंग की बड़ी-सीलालटेन के नीचे उसने कुछ गर्मी महसूस की थी वह राहत पाकर वहीं ठिठक गया था | ऊपर देखा तो अंग्रेजी और चाइनीज भाषा में लिखा था 'कॅमलिंग' | मुंबई जैसे महानगर में महीनों भटकते रहने के बाद इस चाइनीज रेस्तराँ को देखकर आज उसे कुछ अपनापन-सा लगा था और वह सीढ़ियों के कोने पर ही दुबक कर सो गया था | अगली सुबह रेस्त्रां का गेट खोलते हुए चेंग ने टोर्च की रोशनी उसके मुँह पर मारी थी "कौन है वहाँ ?"चेंग ने कडकदार आवाज़ में पूछा था डर के मारे उसकी चीनी आँखे और भी मिचमिचा गई थी,उसकी घिग्घी बंध आई थी और वह सिकुड़ कर लाल प्लास्टिक वाले डिवाइडर के पास जा सटा था जैसे वह अदृश्य हो जाना चाहता हो |कई दिनों से भूखे-प्यासे भटकते रहने की वजह से उसकी आंतों में अकुलाने की अजीब-अजीब सी आवाज़ें आ रही थीं और एक आवाज़ उसके दिमाग में भी हथोड़े मार रही थी वह थी भूख....भूख और वह लगभग बेहोश हो चुका था |किन्तु यही कहानी चेंग की अनुपस्थिति में वह अपने नए दोस्तों को नए अंदाज़ में पूरे आत्मविश्वास से सुनाता है "जैसेच चेंग ने फुल्ल बत्ती मारी थी टोरच की मेरे मुंह पे,मैं ज़रा नहीं घबराया था,क्या करता जास्ती-जास्ती चेंग मेरे को भगा देता ...मई बिलकुल खौफ नहीं खाया था उस टेम भी जब मई दस बरस का छोकराइच था ....अब चेंग को मेरे जरूरत थी इस वास्ते व्होह मेरे को उठाके सीने से लगाया,मेरे जैसा वफ़ादार छोकरा उस को किधर से मिलेंगा ?व्होह मेरे को अपने सगा बेटा के माफक प्यार करता है मालूम ?"
  चेंग बड़ा दयालु व्यक्ति है, उसने ली लियांग को घर वापस पहुँचाने का भरसक प्रयत्न किया था | घर के बारे में ली लियांग को कुछ अता-पता ना था |उसे याद था तो जमाने की ठोकरें ,बदन पर चिथड़े और पेट की अग्नि जो जाति,नस्ल,रंग और नाम को जलाकर राख़ कर देती है,एक पेट ही तो था जो पूरी देह में उस वक़्त सर्वोपरि था उसके लिए |जब चाइना टाउन और चाइना गेट से लेकर मुंबई की अन्य चायनीज बस्तियों में भी ली लियांग का कोई रिश्तेदार ना मिला तो चेंग ने उसे अपने ही रेस्त्रां में वेटर रख लिया था | तभी से "कॅमलिंग"ही ली लियांग का पता-ठिकाना बन गया है | चेंग को वह पिता स्वरुप मानता है और "कॅमलिंग"पर अपना अधिकार समझता है इसीलिए जब किउ जैसी लड़कियाँ इन लड़कों के साथ यहाँ आती हैं तो वह  चिढ़ उठता है, खासतौर पर किउ से | हँसती इठलाती किउ की टेबल पर जब कभी वह खाना सर्व करने जाता है तो एक घूरती हुई नज़र उसके साथ बैठे हुए लड़के पर जरूर डालता है | कभी-कभार तो उसका मन करता है कि वह गर्मागर्म खाना इन लड़कों पर गिरा दे या फिर इन लड़कों को जमकर पीट डाले | ली लियांग मन-ही-मन उन्हें बिगड़े शहज़ादे कहता था | अक्सर ये लड़के उसी के हम उम्र होते थे | "इनके पास ऐसा क्या है जो मेरे पास नहीं ?बस पईसा है और प्यार का क्या ?....व्होह तो किधर है ?सब स्याला....पेनचौभ.....बिगड़ैल औलादें हैं,इनपर रईसी का नशा है जो जवानी की पेंट में फूटता है फिर ज़िप से उछलकर बाहर कूदने पर उतारू हो जाता है,पण किउ यह सब क्यों नहीं समझती ?या समझती है तो मुकर क्यों नहीं जाती इस गलीच जीवन से ?किउ कैसे सूरजमुखी-सी पीली पड़ गई है बेचारी |" 
   किउ हमेशा कार से उतरकर कोने वाली मेज़ पर बैठ जाती थी जहाँ अपेक्षाकृत अधिक अँधेरा रहता है | शायद अपने ग्राहकोंके पैरों में पैर डालकर बैठने में उसे हाँ सुविधा होती होगी | मगर जब भी उसका कोई ग्राहक उसे 'किस'करने के लिए आगे बढ़ता है तो किउ 'किस'करने से पहले एक बार वह आस-पास ज़रूरदेख लेती थी,ज़्यादातर तो वह अपनी हथेली आगे बड़ा देती थी और यदि ग्राहक ज्यादा चिपकू निकले तो वह खिसियाकर अपना गाल उसके आगे कर देती थी |ली लियांग ने नोटिस किया था कि किउ  अक्सर अपने होंठ बचा लेती थी | इसी कारण सेली लियांग को लगता था कि शायद किउ इस धँधे में मजबूरी के तहत आ फँसी होगी | "गंदा है पण धंधा है ...क्या करेगी व्होह ?ज्यासती पढेली होती तो किधर क्लार्क लग जाती,पण इस मुलुक का रेशेन कारड़ किधर से लायेंगी बिचारी ?उसका भी केस अपुन के माफक हिच तो है |"
  ली लियांग को ऐसे लड़कों से सबसे ज्यादा चिढ़ तो तब होती है जब वेकिउ के साथ  सिर्फ़ वक़्त गुजारने के लिए हर आधा-आधा घंटे में खाना आर्डर करते रहते हैं फ़िर पूरा का पूरा खाना टेबल पर छोड़कर चले जाते हैं | इतने महँगे खाने को इस तरह बर्बाद होते देखकर वह खीज उठता है | कितने लोगों का पेट भर सकता है इस बचे-खुचे खाने से मगर छोड़े हुए खाने की जगह सिर्फ़ डस्टबिन ही रह जाती है | हाँ, ऐसे लोग टिप तगड़ी छोड़ जाते हैं,जिन्हें वह बुरे वक्तों की अमानत समझकर जेब में ठूँस लेता है |चेंग के पास टिप की एक तगड़ी रकम भी बचत के तौर पर उसने जमा करवा रखीहै |
  उस रोज़ माजरा कुछ अलग ही था | किउ अकेली बैठी थीऔर उसने सिर्फ़ एक कप कॉफी मँगवाईथी |  दो घंटे पहले मँगवाई गई कॉफी भी अब तक पड़ी-पड़ी ठंडी हो चुकी थी | वह न जाने किन ख़्यालों में गुम थी |ली लियांग ने उसकी मेज़ पर जाकर पूछा था- "आपको कुछ ओर मंगता है क्या  मैडम ?"किउ ने अचकचाकर उसे ऐसे देखा था जैसे वह गहरी नींद से जागी हो और इसी हड़बड़ाहट में उसके गालों पर बड़े यत्न से सहेजी गई बालों की लटें हवा से उड़ गई थी,बालों के हटते ही उनके भीतर करीने से छुपाया ज़ख़्म व सूजी आँखें भी ली लियांग को नज़र आ गई थी | घबराहट छिपाने के लिए किउ ठंडी कॉफी ही सिप करने लगी थी | ली लियांग को किउ पर दया आ गई थी और वह पूछ बैठा था "कोई परेशानी है मैडम,कोई लफड़ा हुआ क्या ?"किउ उसकी तरफ देखकर सिसक उठी थी |बिना कोई जवाब दिए और बिल चुकाए बिना ही वह बाहर निकल गई थी |
ली लियांग कप उठाता हुआ गुस्से से बोला था - उंह... 'लेफ्ट ओवर कॉफी'
उसने अपनी जेब से कॉफी के पैसे जमा करवाते हुए चेंग से पुछा था'है कौन यलड़की ? काहे का घमंड है इसकू ?"अमूमन शांत रहने वाला चेंग उस दिन बेचैन हो उठा था,उसकी आधी-सी बंद आँखों में कुछ तरल पदार्थ तैर गया था |चेंग को आमतौर पर रेस्त्रां में और उसके आस-पास के लोगों ने चुप ही देखा है,दारू का नशा उसपर कभी नहीं चढ़ता फिर भी किउ के बारे में सुनकर उसकी आँखों में यह क्या मिचमिचा आया था ?जो हूबहू किउ की पलकों पर तैर आए गीलेपन की तरह ही आद्र था ?उनकी आँखों में दर्द का यह क्या खारापन था जो ली लियांग को भी द्रवित कर गया था ?वह चेंग का खुमार तो हरगिज़ नहीं था शायद अपनी मिट्टी की नमी थी जो किउ के बहाने उसके जेहन से होती हुई उस वक़्त उसकी आँखों में भी उतर रही थी |
चेंग अपने लकड़ी के मग में गर्म वाइन पीता हुआ ढ़ेर सारे ऑप्सन्स देने लगा था -
"हमारी ही तरह अनजान भटक रही होगी इस देश में, कोई छोड़ गया होगा, शायद अनाथ हो या फ़िर किसी नाजायज गली की उपज होगी,तू अपना काम कर |"ली लियांग को चेंग की बात समझ में नहीं आती,"ये क्या हैबिट है यह चेंग की ...एकदम नारियेल,ऊपर से सखत और अंदर से नरम,ऊपर से मूँज के माफक तो अंदर से गिरि के जईसा सॉफ्ट |"
   आमतौर पर किउ से चिढ़ने वाले ली लियांग को उस रोज़ उससे कुछ सहानुभूति क्यों हो रही थी | उसकी निगाहों के समक्ष किउ का उदास चेहरा, सूजे होंठ और बाएं गाल का रिसता हुआ ज़ख़्म तैर रहे थे | किउ की आँखों की नमी देर रात तक उसे परेशान करती रही थी | ली लियांग दुविधा में था, जिस लड़की से हमेशा उसे चिढ़ होती थी उसी पर आज उसे हमदर्दी क्यों उपज रही थी ? वह अपनी व किउ की परिस्थितियों का अवलोकन करने लगा था | किउ भी उसी की तरह इस शहर में अनाथ थी, पेट की अग्नि शांत करने के लिए बिचारी ने अपने दामन को ही आग के हवाले कर दिया था | चूँकि ली लियांग पुरुष था उसके लिए इस महानगर में काम ढूँढना उतना मुश्किल नहीं था किन्तु किउ जैसी अकेली व अनाथ लड़की के लिए अपने-आप को सलामत रखते हुए गुज़ारा करना वाक़ई कठिन रहा होगा | ली लियांग किउ के जीवन से जुड़ी कहानी जानने को बेताब हो गया था किन्तु किउ को तो जैसे उससे कोई लेना-देना ही ना था,वह तो किउ के लिए सिर्फ एक अजनबी था,किउ ने तो अपने इर्द-गिर्द शायद कभी ली लियांग की उपस्थिति भी महसूस नहीं हुई थी | किउ हमेशा एक खोल से लिपटी रहती थी जिसका बाहरी आवरण कौतूहल और परेशानियों की एक अनबूझ पहेली-सा था |उसके भीतर की दुनिया चाहे जितनी विस्तृत थी किन्तु उसके बाहर एक गहरा अचल सन्नाटा पसरा रहता था |

    यूँ तो कॅमलिंग में पूरे स्टाफ के पास सुनने-सुनाने को एक अलग कहानी थी |यहाँ हर कोई व्यक्तिअपने वजूद की तलाश में था | चेंग भी उनमें से एक है, चेंग एक भला आदमी है, न जाने उसकी कौनसी पीढ़ी यहाँ आई थी ? कैसे आई थी ? वह ख़ुद भी नहीं जानता, इसीलिए इस शहर में वह ली लियांग जैसे कितनों का सहारा बना हुआहै या यूँ भी कहा जा सकता है कि उनमें वह अपना सहारा तलाशता था |
   इस वर्ष 'स्प्रिंग फेस्टिवल'फरवरी की अट्ठाईस तारीख को पड़ा है,सब विचारों को परे झटककरली लियांग उस रोज़ जल्दी सोना चाहता था क्योंकि अट्ठाईस फरवरी की सुबह चेंग ने पूरे स्टाफ को समय से पहले रेस्त्रां बुलाया था | 'स्प्रिंग फेस्टिवल'के लिए कॅमलिंग को नए अंदाज़ में सजाना था,बसंत के आगमन पर यह 'स्प्रिंग फेस्टिवल'लुनार महीने के प्रथम दिवस को मनाया जाता है और चाइना में हर वर्ष ये फेस्टिवल किसी ना किसी पशु को समर्पित किया जाता है 2016 'मंकी वर्ष'था तो वर्ष 2017 को 'रूस्टर'यानिकी 'मुर्गे'को समर्पित है सो चेंग ने "कॅमलिंग"को भी मुर्गे की थीम में सजाने का कार्यक्रम बनाया है | चाइना से बक्सा भरकर सामान आया है, जिसमे लाफिंग बुद्धा, ड्रेगन की आकार लिए लाल-लाल लालटेन, फेंगसुई वाले कछुवे, काँच के पिरामिड, काँसे के सिक्के वाले विंड चाईम और बाँसों के आढे-तिरछे और भिन्न-भिन्न प्रकार के पौधे और मुर्गेनुमा लाल रंग के शेंडिलियर | "कॅमलिंग"व पूरा स्टाफ उस दिन लाल रंग में सराबोर रहेगा ...लाल रंग समृद्धि का प्रतीक माना जाता है,सुबह-सुबह रेस्त्रां के प्रवेशद्वार पर बने मंदिर में पूजा होगी,उस दिन चेंग अपने स्टाफ को मिठाइयों के साथ बोनस भी बांटता है |
  एक 'स्प्रिंग फेस्टिवल'ही तो है जब इतने सारे चाइनीज एक साथ देखने को मिलते हैं | पूरे फेस्टिवल के दौरान "कॅमलिंग"ठसाठस भरा रहता है | ली लियांग को हैरत होती है न जाने इतने सारे चाइनीज कहाँ से आ जाते हैं ?कुछ लोग पारंपरिक वेशभूषा में आते हैं तो कुछ मुंबईया अंदाज़ में आधुनिक वस्त्रों में आते हैं | कुछ अपनी बिरादरी के वजूद की बातें करते हैंतोकुछ बुजुर्ग अपनी जड़ों को बचाने की चिंता में लगे रहते हैं |नई पीढ़ी के बच्चे अंग्रेज़ी में संवाद करके अपने आपको मुंबई की मुख्य धारा से जोड़ देते हैं | ली लियांग अपने-आप को इनसे अलग-थलग पाता है क्योंकि वह ना तो चाइनीज़ भाषा जानता था, ना  अंग्रेजी | वह तो हिंदी और मराठी के साथ टूटीफूटी अंग्रेजी से काम चलाता है | इतने सारे चाइनीज़ लोगों को देखकर वह अक्सर अपने माता-पिता की काल्पनिक शक्लें बनाने लगता है | कभी-कभी किसी महिला या पुरुष की शक्ल किउ से मिलती-जुलती हुई लगती है तो वह किउ को उनकी अवैध संतान समझकर उनपर शक करने लगता है |
  पूरे सप्ताह भर कॅमलिंग में लोगों का ताँता लगा रहता है | इस दौरान 'स्टाफ'को तो साँस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती | इन दिनों "कॅमलिंग'के मीनू में अपेक्षाकृत चाइनीज व्यंजन अधिक जुड़ जाते हैं और लज़ीज़ पकवानों से कॅमलिंग महक उठता है | 'स्प्रिंग फेस्टिवल'के हफ्ते भर तक चाइनीज लोग अपने-अपने परिवारों के साथ इन पकवानों का लुफ़्त उठाते हैं |ऐसे में ली लियांग अपने आपको बहुत उदास पाता है,इतने सारे चाइनीज परिवारों को देखकर उसे अपने अकेले होने का अहसास सताने लगता है |कभी-कभी वह इन सभी लोगों को अपना रिश्तेदार समझकर खुश हो जाता है,वह सोचता है रिश्ता खून का ना सही किन्तु शक्ल-सूरत, रहन-सहन, भाषा व संस्कृति के हिसाब से तो वह इनका ही हिस्सा माना जाएगा |
   दिन भर ली लियांग बस चुपचाप खाना सर्व करता रहता है | वहमेज़ साफ करते वक़्त बचे-खुचे खाने को अलग-अलग थैलियों में भरता जाता है, जिसे वह हर शाम कोलाबा के फुटपाथ पर गरीबों में बाँट आता है | चेंग की पहल पर कुछ दिनों से उसने इस बचे-खुचे खाने को गरीबों में बाँटने की शुरूआत की है तभी से उसे इस "लेफ्ट ओवर फ़ूड"से चिढ़ नहीं होती बल्कि उन गरीबों की दुआओं से शांति मिलती है जो हर शाम उसके इंतज़ार में टकटकी लगाए बैठे रहते हैं | उसे अहसास हो चला है कि बचे हुए खाने की जगह सिर्फ़ डस्ट्बिन ही नहीं होती |
   'स्प्रिंग फेस्टिवल'केहफ्ते भर बाद तक भी जब तक किउ उसे कहीं नज़र नहीं आई थी तो ली लियांग को बैचेनी होने लगी थी,उसने किउ के बारे में चेंग से पूछताछ की थी,चेंग ने उसे भारी मन से बताया था कि- "किउ पेट से है,उसे दूसरा महिना चढ़ा है और तो और उसने आत्महत्या की भी कोशिश की थी पर किसी तरह से उसकी मकान मालकिन ने किउ को बचा लियाथा | यह सुनकर ली लियांग तड़पकर रह गया था | उसके दिल में एक हुक-सी उठने लगी थी,किउ के प्रति उसकी नफ़रतें अपनी हदों को तोड़कर बहने लगी थी,उसका मन उस वक़्त अपने पेट से ऊपर उठकर सोच रहा था |उसे अपनी त्वचा के भीतर बहती नाज़ुक-सी नीली नसों में प्रहावित ऊष्मा में कुछ-कुछ महीन-सी झुंझुनाहट महसूस हो रही थी,वही ऊष्मा जिसे शायद लोग प्यार कहते हैं.... कुछ अरसा पूर्व उसे अखबार का एक पुर्जा हाथ लगा था,जिसमें किसी सफ़ेद दाढ़ी वाले व्यक्ति का एक लेख था ...क्या तो नाम था उसका ? ...हाँ,ओशो ...उस पुर्जे में लिखा था कि "व्यक्ति को यदि किसी से प्रेम है ?तो प्रेम में गिरना क्यों ?यह मत कहो कि तुम किसी के प्रेम में गिर गए हो,यह वाक्य ही सरासर गलत है,यदि तुम्हें किसी से प्रेम है तो उसके प्रेम में ऊंचा उठो और उसके साथ ऊपर उठो न कि गिरो" .... इस पुर्जे के बाबत में उसने चेंग से पूछा था,चेंग ने उस समय जो कुछ समझाया था वह फिलवक्त में ली लियांग को पानी की तरह पारदर्शी दिख रहा था |वह आध्यात्मिक हो उठा था,वह सोच रहा था- वह उठ रहा है ऊपर बहुत ऊपर...इस कौम से,अपनी कर्मभूमि से,अपनी जन्मभूमि से और इंसानियत की बांधी हुई तमाम सीमा रेखाओं से ...वह प्रेममय हो रहा था कभी बुदबुदा रहा था तो कभी मुस्कुरा रहा था वैसे ही जैसे किउ की माँ शायद मुस्कुराती होगी...उसे नहीं पता किन्तु लोगों ने बताया था,किउ की माँ किसीके प्यार में थी उस अजनबी पिता के बारे में शायद किउ को भी अंदाजा न था लेकिन ली लियांग जान गया था कि किउ एक दिन जरूर उसके साथ व उसके प्यार में मुस्कुराएगी...."यह ज़िंदगी अइसाइच है पल में नाना पाटेकर तो पल में जॉनी लीवर"वह खी-खी करके खुद ही अपने मुंबइया जोक पर हँस पड़ा था |
 वह किउ को जिंदगी जीने का एक और मौका देना चाहता था, उसके जीवन को सुंदर बना देना चाहता था या यूँ कह सकते हैं कि वह किउ के साथ-साथ अपने जीवन की प्रेम वर्षा में नहाना चाहता था,जीवन में छाए काले बादलों को हटाकर इंद्रधनुषी रंग देखना चाहता था | वह इस "स्प्रिंग फेस्टिवल"को अपने व किउ दोनों के लिए ख़ुशियों का प्रतीक बना देना चाहता था | वह जानता था कि वह एक वेटर है और किसी भी तरह से किउ के लायक नहीं है | उसके पास रहने के लिए सिवाय "केमलिंग"की लाऊंज के कोई और जगह भी नहीं है,वह तो खुद चेंग की दया पर निर्भर है |मगर चेंग ने उस दिन गले मिलकर ली लियांग का हौसला बढ़ाया था,उस वक़्त चेंग उसे सचमुच का सगा बाप लगा था | उसीने बताया था कि चाइना-टाउन कि गली नंबर-दो में किउ एक विधवा चाइनीज़ की पेइंग गेस्ट है |
   ली लियांग जान चुका था कि अब उसे आगे क्या करना है,उस दिन उसने रेस्त्रां से आधी छुट्टी ली थी,और दिनों से अलहदा उस दिन वह दाढ़ी व बाल सँवारने नाई की दुकान पर गया था |नए कपड़ों पर इत्र के छींटे मारता ली लियांग निरंतर मुस्कुरा रहा था | शाम को उसने चेंग के पास बैठकर अपनी टिप से जमा किए पैसों का हिसाब लगाया था फिर डिनर के समय बड़ी चिरौरी करके उसने सैफ से "जिआओज़ी"बनवाया था,एक ऐसा व्यंजन जो पुराने समय को अलविदा व नए समय के स्वागत में बनाया जाता है |ली लियांग ने "जिआओज़ी"को असीम प्यार से निहारा था फिर बड़े जतन से उसे पेक करवाकर सुनहरे शब्दों में उसके ऊपर लिखा था -"किउ-एक खूबसूरत फूल के लिए...।"
***
[ किउ =खूबसूरत फूल, ली लियांग =शक्तिशाली, फेंगसुई =चाइनीज वास्तु-विज्ञान, चेंग =खरा, जिआओज़ी =एक व्यंजन जो पुराने को अलविदा व नए के स्वागत में बनाया जाता है ]
·         रजनी मोरवाल
'बैंक हाउस'
स्टेट बैंक ओफ़िसर्स कॉलोनी,
खातीपुरा रोड,हसनपुरा,
जयपुर-302006
मोब. 9824160612

      

पाठक भी तो घाघ है

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नॉर्वेवासी डॉक्टर प्रवीण कुमार झाने किताबों के घटते-बढ़ते बाजार का दिलचस्प आकलन किया है. अलग-अलग स्टेशनों पर किताबों की बिक्री की क्या स्थिति है. बहुत रोचक अंदाज़ में. पढियेगा तो डॉक्टर साहब के आप भी मुरीद हो जायेंगे- मॉडरेटर 
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कुछ भी कहो, अब किताबें बिक रही हैं। हिंदुस्तानी साहित्य में पूँजीवाद आ रहा है। खास कर के जब से आई. आई. एम. के ग्रेजुएट 'authorpreneur'यानी व्यवसायिक लेखक बन गए, प्रकाशकों की चाँदी हो गई। अब अमिश जी और चेतन जी सरीखों ने लिखा भी खूब, बेचा भी खूब। पूँजीवाद पर जोर इसलिए दे रहा हूँ, क्यूँकि साहित्य कभी राष्ट्रवादी था। फिर अरसों तक समाजवाद, गाँधीवाद और वामपंथ के कॉकटेल पर मस्त झूमा। और शनै:-शनै: अवसरवादी चाटुकारिता के दलदल में फँसता चला गया।

इसी दौर में रेलवे प्लेटफॉर्म के स्टॉलों से साहित्य गायब होने लगा।

बुक-स्टॉलों से कहीं ज्यादा किताबों की बिक्री प्लेटफॉर्म पर ही होती। लंबे ट्रेन के सफर, और लेट होती ट्रेनें। बिहार से बम्बई के सफर में तो तीन किताबें निपटा जाता। लेकिन कब तक वही 'प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कथाएँ'और स्वेट मॉर्डन के अजीबोगरीब फंडे आजमाता रहता? बिहार से यू.पी., एम.पी., महाराष्ट्र सब छान मारा। हर प्लेटफॉर्म पर ढूँढा।  न अज्ञेय, न निर्मल वर्मा, न मन्नू भंडारी। हम छोटे शहर से थे। अब कहाँ पटना में 'राजकमल प्रकाशन'के काउंटर भटकते? अमेजन-फ्लिपकार्ट-क्रेडिट कार्ड तो खैर शब्दकोश से ही बाहर थे। इसी वक्त खूब अंग्रेजी पढ़ा। सतना जंक्शन पर फ्रेडरिक फोरसिथ और जेफ्री आर्चर की पैठ हो गई थी, शरद जोशी और हबीब तनवीर जैसे लोकल सूरमा नदारद। अंग्रेजी में लुत्फ भी उठाने लगा, और आगे इस विषय में तफ्तीश नहीं की कि भला क्यूँ हिंदी किताबों को साँप सूँघ गया? वैसे भी घर के शौकीन बुजुर्ग ये किताबें दर-दर भटक कर ही सही, मँगवा के रखते। देर-सवेर हिंदी पत्रिकायें भी डाक से आती। छुट्टियों में पढ़ लिया करता।

धीरे-धीरे फटर-फटर अंग्रेजियाने वाली लड़कियों पे अंग्रेजी झाड़ने का भी दबाव आया। ये दबाव बढ़ता गया और 'अन्डर प्रेशर'परफॉर्म भी ठीक-ठाक किया। अंग्रेजी किताबों के बाग-बगीचे लग गए। क्लासिक, कन्टेम्पररी, हिस्टोरिकल, रोमांटिक, और थ्रिलर्स। सब। बूकर पुरष्कृत भी। अश्लील गरम-साहित्य भी। इनके तो बाग-बगीचे लग गए, हिंदी के खेत सूख गए। हिन्दी साहित्यकार भी शायद खुद ही अपने आयोजन-विमोचन-टी पार्टी करते। गुपचुप साहित्य अकादमी जीतते। कईयों के नाम तब पता लगे जब हालिया अवार्ड-वापसी का दौर आया।

सोचा इस निगेटिविटी को क्यूँ पालूँ? मैं होता कौन हूँ अांकलन करने वाला? मैं तो कभी 'लिट्-फेस्ट'नहीं गया, पुस्तक मेले को भी अरसा हो गया। पहली जगह इंट्री कठिन है। सबकी समझ और औकात नहीं। दूजी जगह इंट्री इसलिए कठिन है क्यूँकि भेड़ियाधसान भीड़ है। खरीदेंगें कुछ नहीं। मुफत के पुराने त्रैमासिक उठाकर लाएँगें, रद्दी वालों को बेचेंगें। यही हिंदी साहित्य का निगेटिव इकॉनामिक्स यानी घाटे का दौर रहा होगा।

पर नैपथ्य यानी 'बैकग्राउंड'में सत्तापलट शुरू हो रही है।

पत्रकारों ने हिंदी साहित्य पर कब्जा करना प्रारंभ किया, वो तो ठीक था। इंजीनियर, मैनेजर, डॉक्टर भी कूद पड़े। हिंदी के प्रोफेसर साहिबान आज भी लिखते हैं, पर पत्रकारों वाली बहुआयामी पहुँच नहीं। प्रिंट मिडिया, डिजीटल मीडिया, सोशल मिडिया। 'फोर्थ एस्टेट'का ही राज है। अब काशीनाथ सिंह ने मिर्जापुर के गाँव से कलम चलायी, तो चली भी, लेकिन उनकी भी ८० बरख की उमर हो गई। हिन्दी स्पेशलिस्टों का शायद आखिरी दौर है। मसलन कई क्वैक हैं जो खूब लिख रहे हैं और चल भी रहे हैं।

मैं फिर से मुँह उठाकर रेलवे प्लेटफार्म पर जाता हूँ। इस बार दरभंगा से सतना की ट्रेन पकड़ता हूँ, और उसी तफ्तीश में निकलता हूँ, जो कभी अधूरी रह गई। वेंडरों के जवाब कुछ यूँ थे।

दरभंगा जंक्शन:

"कौन नागार्जुन? इसी जिल्ला के? मालूम नहीं सर। किताब तो नहीं है।"

मुजफ्फरपुर जंक्शन:

"अरे नहीं है सर कोठागोई-फोठागोई। कितना बार बोलें? चतुर्भुजस्थान का किस्सा!! ऊ सब किताब चाहिए, तो प्लैटफारम के बाहर ढिबरी जला के बैठल होगा। यहाँ ई सब धंधा नहीं होता है। जाईए।"

हाजीपुर जंक्शन:

"हाँ भई, राजकमले का है। डायमंड पॉकेट बुक्स का नहीं है। रवीश कुमार, एन.डी.टी.वी. बाले लिखे हैं। किताब का साइज छोटा है, फोटू बना है तो पॉकेट-बुक्स हो गया? कमाल करते हैं!"

वाराणसी का जंक्शन:

"रेहन पर रग्घू? वो नहीं है। 'काशी का अस्सी'है पुराने स्टॉक से। राजकमल का डिस्ट्रीब्यूटर हमें का पता भाई? भिजवाएगा तो मिल जाएगा। ये 'वायुपुत्र'किताब ले जाइए। बनारस का ही लइका लिखा है, अब हिंदी में भी है।"

इलाहाबाद जंक्शन:

"है भाई! 'मधुशाला'निकाल के दे दो। नहीं, बाकी तो बच्चन जी का बिकता नहीं है न!"

सतना जंक्शन:

"उपन्यास ही तो है ये! नया-पुराना नहीं मालूम। हाँ, हाँ! फेसबुक पर, ऑनलाइन सब होगा सर। यहाँ नहीं है।"


वेंडर तो कुछ भी बोलते हैं, पर किताबें भी अंग्रेजी से अनुवादित ही दिखती है। 'हाफ गर्लफ्रेंड'हिंदी अनुवाद तो मेरे आँखों के सामने ३ उठ गई। मैनें भी अकड़ कर एक अंग्रेजी किताब उठा ली, यह कह कर कि मैं अनूदित नहीं पढ़ता। असल हिंदी लाओ, तो मोल-भाव भी न करूँ, खरा दाम दूँ।

कहीं-न-कहीं वितरण की समस्या है। प्रकाशक और ऑनलाइन डिस्ट्रीब्यूटर कुकुरमुत्ते की तरह फैल रहे हैं। पर लोकल डिस्ट्रीब्यूटर? कुछ गुम हैं। कुछ सुसुप्त हैं। कुछ भाव नहीं दे रहे। कुछ हिसाब नहीं दे रहे।

पत्रकार लिखें या प्रोफेसर, इंजीनियर लिखें या गृहणी। बस प्लेटफॉर्म तक किताब आ जाए। या अमेजन को कह दो कि मैं यहाँ सतना जंक्शन पर ट्रेन के इंतजार में हूँ, डिलिवर कर दें।


पाठक भी तो घाघ हैं।

शशि कपूर की 'असीम'जीवनी

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इससे पहले राजेश खन्ना की जीवनी पढ़ी थी. यासिर उस्मान की लिखी हुई. आजकल फ़िल्मी कलाकारों की जीवनियों का ऐसा दौर चला हुआ है कि पढ़ते हुए डर लगता है- पता नहीं किताब कैसी निकले? लेकिन शशि कपूरकी जीवनी ‘द हाउसहोल्डर, द स्टार’ पढ़कर सुकून मिला. ऐसा नहीं है कि असीम छाबराकी लिखी इस जीवनी में ऐसी कोई नई बात मिली हो पढने को जो पहले से सार्वजनिक न रही हो लेकिन अपने प्रिय अभिनेता के बारे में एक किताब में उनके जीवन, सिनेमा के बारे में पढने को बहुत कुछ मिला. शशि कपूर अपने जीवन के आखिरी दौर में हैं. दुर्भाग्य से यह पहली किताब है जो उनके वास्तविक मूल्यांकन की कोशिश करती दिखाई देती है, सिनेमा में उनके योगदान को रेखांकित करती है. 

शशि कपूर के जीवन में बहुत कुछ है जो ‘बायोग्राफी पॉइंट ऑफ़ व्यू’ से उनके जीवन को महत्वपूर्ण बनाती है. कपूर भाइयों में वे अकेले थे जिन्होंने लम्बे समय तक अपने पिता के पृथ्वी थियेटर के लिए काम किया- सात साल तक. कपूर भाइयों में वे अकेले थे जिन्होंने ‘धर्मपुत्र’ जैसी सामाजिक संदेश देने वाली फिल्म से नायक के रूप में अपना कैरियर शुरू किया. जिस फिल्म का निर्देशन बी. आर. चोपड़ा ने किया था.  हालाँकि इस तरह की फिल्म से अपना कैरियर शुरू करने के बावजूद वे किसी एक तरह की इमेज में नहीं बंधे. प्रेमी, अपराधी, छलिया, डाकू शशि कपूर ने हर तरह के निर्देशकों के लिए हर तरह की फ़िल्में की. जिसकी वजह से जब उनेक बड़े भाई राज कपूर ने जब उनको अपनी फिल्म ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ के लिए साइन किया तो उनको ‘टैक्सी’ कह दिया था यानी ऐसा कलाकार जो किसी भी तरह की फिल्म कर लेता है, किसी के भी साथ.

बहरहाल, वे हिंदी सिनेमा के अकेले इंटरनेशनल स्टार थे और मर्चेंट-आइवरी प्रोडक्शन्स के लिए उन्होंने ‘हीट एंड डस्ट’ समेत अनेक फिल्मों में काम किया. मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म ‘मुहाफ़िज़’ है, जो अनीता नायर के उपन्यास ‘इन कस्टडी’ के ऊपर बनी थी और जिसमें शशि कपूर ने उर्दू शायर नूर साहब का किरदार निभाया था. शशि कपूर ने ‘जूनून’, ‘कलयुग’ समेत अनेक फिल्मों का निर्माण भी किया और जूनून में फिल्म में प्रेमी का जो किरदार उन्होंने निभाया है वह नहीं भूलने वाला है. इसी किताब से मुझे पता चला कि फिल्म ‘बॉबी’ का दिल्ली-यूपी में वितरण का अधिकार भी उन्होंने खरीदे थे और ‘मेरा नाम जोकर’ के बाद जब राज कपूर के ऊपर से फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स का भरोसा हिल गया था तो सबसे पहले शशि कपूर ने ही कहा था कि यह फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित होगी.

बहरहाल, असीम छाबरा की लिखी इस जीवनी में शशि कपूर के थियेटर जीवन, थियेटर को लेकर उनके प्यार और जेनिफर के साथ उनके प्यार और दीर्घ वैवाहिक जीवन को लेकर विस्तार से लिखा गया है. वही इस किताब की उपलब्धि भी है कि एक इंसान के रूप में शशि कपूर को पहचानने की कोशिश है. उस शशि कपूर को जिसने बी, सी ग्रेड की फ़िल्में धड़ल्ले से की लेकिन जब निर्माता बने तो सोद्देश्य फिल्मों का निर्माण किया. परदे पर चालू. छलिय प्रेमी की भूमिकाएँ निभाने वाला अदाकार पक्का घरेलू इंसान था. किस तरह अपनी पत्नी की मौत एक बाद वह बिखरता चला गया, किताब के आखिरी अध्याय में इस बात को उनके करीबियों के हवाले से बहुत अच्छी तरह दिखाया गया है.

शशि कपूर के जीवन, उनकी कला के अनेक शेड्स थे. किताब में सबको छूने की कोशिश की गई है. यह कोई यादगार जीवनी नहीं है लेकिन एक ऐसे कलाकार को उसका उचित दर्ज़ा दिलाने की कोशिश इसमें बड़ी शिद्दत से दिखाई देती है जिसको अपने जीवन सक्रिय दिनों में कभी वह मुकाम नहीं मिला जिसके वह हकदार थे. 2014 में जब उनको दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला तो वे डिमेंशिया के शिकार हो चुके थे.

अपने छोटे आकार में असीम छाबरा की यह पुस्तक शशि कपूर से प्यार करने के लिए विवश कर देती है. उस शशि कपूर से जो सुन्दरता कि मिसाल थे. एक बार जरूर पढने वाली जीवनी है. शुक्रिया असीम छाबरा मेरे प्यारे अभिनेता के जीवन पर इतने प्यार से लिखने के लिए!

-प्रभात रंजन 

 ‘द हाउसहोल्डर, द स्टार’, लेखक- असीम छाबरा. रूपा पब्लिकेशन्स, 395 रुपये 

मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास 'स्वप्नपाश'का एक अंश

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स्वप्नपाश का एक अंश

हाल में ही मनीषा कुलश्रेष्ठका उपन्यास आया है 'स्वप्नपाश'. मनीषा हर बार एक नया विषय उठाती हैं, नए अंदाज़ में लिखती हैं. ये उपन्यास भी उसका उदाहरण है. बहरहाल, उपन्यास मैंने अभी तक पढ़ा नहीं है. पढने के बाद लिखूंगा उसके ऊपर. फिलहाल इस अंश को पढ़िए और लेखिका को शुभकामनाएं दीजिए- मॉडरेटर 
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मैंने खुद को व्यस्त कर लिया. दिमाग़ से खुरच - खुरच कर रुद्र को निकाल दिया. मैं पान - पराग खाती. वोद्का और ट्कीला शॉट्स लेती थी. उन व्यस्त दिनों में मैं ऎसा नहीं कि अपने अजीब और भयानक ख़्यालों की ज़द में नहीं आई. लेकिन मैं काम कर पा रही थी साथ ही मैं समझ पा रही थी जल्दी ही मैं ध्वस्त होने वाली हूँ, क्रिएटिवली व्यस्त रहना मुझे सहायता कर रहा था. लेकिन मुझे शामें सबसे भयावह लगती हैं आज भी. यही समय है जब मैं अपनी सोच पर अंकुश नहीं लगा पाती, बेतरतीब होती हूँ. ठोकर खाती हूँ. चीजें फैलाती - गिराती हूँ. फिसलने लगती हूँ भीतर बने गड्ढे में. एक शाम मैं अपने ही हाथों से छूट कर गिर गई. मुझे याद है मैं कोलाबा मुंबई में फुटपाथ पर टहल रही थी, हल्की बूंदाबांदी हो रही थी सो मैंने हाथ में छाता ले रखा था. अचानक मुझे विस्मृति का दौरा सा पड़ा, मैं अहसास और समय स्थान से तालमेल गड़बड़ा बैठी.ऐसा लगा कि दिमाग़ का कोई चक्का चलते चलते रुक गया, या उसे घुमाने वाली कोई बेल्ट टूट गई हो.   जिसकी आशंका को डॉक्टर से बताते हुए मैं डर रही थी. मेरे दोस्त मेरी सनकों को एक कलाकाराना नाम देते थे और मैं निश्चिंत थी कि यह ढोंग मुझे नहीं करना पड़ा था और स्वीकृत हो चुका था. भूल जाना, मूडी होना और कभी कभी क्रूर हो जाना और गालियाँ देने तक हर कोई यह बात मान लेता. लेकिन इस बार बात पटरी से उतर गई.
मैंने चाकू से किन्हीं छायाओं पर वार करते हुए खुद को और घर की नौकरानी को घायल कर बैठी. नाना जी घबरा गए. मम्मी पहली फ्लाईट से मुंबई आईं और मुझे जबरदस्ती मेडिकल कॉलेज के साईकियाट्री वार्ड में भेज दिया गया. मेरी इच्छा के ख़िलाफ़! मुझे यही सुनाई दिया कि मैं अपने और औरों के लिए खतरनाक हो रही हूँ. मेरे कॉलेज का आखिरी साल था... मुझे जबरदस्ती दवाएँ खिलाई गईं. मुझे वार्ड में रखा गया.... जाने दो वह नाईटमेयरिशथा....मेरे उन दिमाग़ी उत्पातियों से कहीं बुरे और क्रूर थे डॉक्टर नर्सें और कम्पाउंडर....मैं यह सब नहीं लिख सकती. मेरे हाथ काँपते हैं क्योंकि वह विशुद्ध यातना थी. घर लौट कर भी मेरा अकेले में रहना, मेरी प्रायवेसी छिन गई. नहाने के समय भी मम्मी कमरे में रहती थीं बाथरूम की कुंडी खुलवाकर.
उस ध्वस्त समय में से निकल कर मैं जो 'बची'थी, और परिस्थितियों के घालमेल में जो मैं बन 'चुकी'थी, और वह खुद जो मैं होना चाहती थी, मैं इन सब के बीच की अवस्था में थी। मैंने अब तो यात्रा मानो शुरू की थी, अभी ही तो मुझे इन यात्राओं से लगाव हुआ था। मैंने अब तक सुना था जैसे तेंदुए कभी अपने धब्बे नहीं बदलते, वैसे लोग कभी व्यवहार नहीं बदलते ।  मेरे आस पास के संसार में जो जैसा पैदा हुआ वह वैसा का वैसा ही रहा, लेकिन मैंने ही अपने धब्बों को अचानक बदलते देखा।
अब मैं कॉलेज के आखिरी साल में थी आर्टेमिज़िया मेरा दिमाग़ अपने बस में लेकर समय और ऊर्जा खाने लगी. मैं अगर कुछ गलत करती जो उसे पसंद न होता वह मुझे सज़ा देती. वह सारे समय मुझ पर चिल्लाने लगी थी. ऎसा भी वक्त आया कि मैं आर्टेमिज़िया से अपने झगड़े को वास्तविक मान कर उस से सड़क पर, ट्रेन में, कॉलेज में, लाईब्रेरी में झगड़ती. लोग मुझे टोकते. चौथे साल में मुझे अपना डिग्री कोर्स पूरा करना मुश्किल हो चला था. मैं जानती थी कि केवल यही एक साल बचा था... मैं किसी से कुछ कह नहीं पा रही थी, रुद्र जिसे कह सकती थी जा चुका था.  मुझे स्किज़ोफ्रेनिकका टैग लग गया था. मुझे अपना दिमाग़ अब बिलकुल अपने बस में नहीं लग रहा था. मुझे नहीं पता था कि अब मुझे क्या करना है. आर्टेमिज़िया मुझे रोज़मर्रा के कामों से भी दूर करती जा रही थी. मैं शिद्दत से चाहती थी कि मैं अपना डिग्री कोर्स पूरा कर लूँ और कहीं नौकरी में बिज़ी हो जाऊं. मैंने कोशिश की थी कि सबसे यह बीमारी छिपा लूँ पर अब सब खुल चुका था...पर अब भी कोई समझने को नहीं तैयार था. मेरा क्लासेज़ अटैंड करना भी रोज़ के नाम पर बोझ हो गया था. मम्मी मेरे साथ रह रहीं थी, मैं रोज़ सुबह बहाना बनाती - मेरा शरीर अकड़ रहा है. मुझे पैरालिसिस होने को है. आज बुखार है...आज छुट्टी है मम्मी. मुझे क्लास मॆं कुछ समझ नहीं आता.. मैं ऑबजेक्ट पेंटिंग करते करते कुछ और बनाने लगती. बहुत कुछ अजीब. मेरा सारा समय आर्टेमिज़िया के कमांड सुनने में जाता. मैं ही जानती हूँ वह साल कैसे बीता. पर मम्मी की ज़िद और उनकी सेवा के चलते मेरा ग्रेजुएशन हो गया फाईन आर्ट्स में. लेकिन मेरी सोच बहुत - बहुत बंटी - बंटी हो गई. एक मिनट यह तो दूसरे मिनट यह. दवाएँ बंद कर दी थीं मैंने....मैं बस नींद की गोलियाँ और वोद्का लेती. कभी - कभी कोकीन!
मैडिकल कॉलेज के थेरेपिस्ट ने कभी मुझे खोलने की कोशिश नहीं की. बहुत कुछ पूछा यूँ तो बहुत कुछ पर मैं ही नहीं खुली...तब आर्टेमिज़िया बहुत बुरे मूड में थी. उसने उस डॉक्टर को शक्ल देख कर ही भरोसा करने से मना कर दिया. मत सुन इसकी बात, यह शैतान है.
मत लेना गोलियाँ” “ यह शॉक देगा.मैं अब बिखर जाने की कगार पर थी, मैंने दो - तीन जगह पर नौकरी के लिए एप्लीकेशन भेजीं थीं. आर्टेमिज़िया   ने.... मैं अब यह मान बैठी थी कि मेरे पिछले जन्म के गुनाह थे कि मेरा दिमाग़ इस कदर... मैंने मम्मी से पूछा... क्या तुम ड्रग्स लेती थीं मेरे जन्म से पहले. वे कहतीं - तुम सच में क्रेज़ी हो क्या गुल? मैंने तुम्हारे होने में सबसे ज़्यादा बैलेंस्ड डाईट ली. लगातार नाचती रही..”  मुझे लगता इनके नाचते चले जाने ने, सातवें महीने तक मेरा कबाड़ा किया है. मेरा मन मर जाने को करता था डॉक्टर. मुझे किसी पर विश्वास नहीं होता था. मैं उन पर चिल्लाती, गालियाँ देती. एक दिन वे दुखी होकर वे लंदन चली गईं. वहीं अपने भाई के पास रहने लगीं. मैं जानती थी, मेरी मम्मी शुरु ही से पलायनवादी हैं. वरना उन्होंने पापा की हत्या का केस लड़ा होता.
मम्मी को गए दूसरा महीना हुआ होगा कि मुझे मम्मी को फोन करके वापस बुलवाना पड़ा नाना को पहला हार्टअटैक पड़ा था। मम्मी चाहती थीं कि यह घर बेच कर हम तीनों लंदन चले जाएं। वे नाना को मनाने में सफल हो गईं पर मैं नहीं गई। कितना गर्वीला और निष्ठुर होता है न यौवन।
मैं अब स्वतंत्र थी, आत्मनिर्भर. मुझे अपने लिये ज़रिया - ए - माश खोजना था. उनके जाने से पता नहीं क्या हुआ सब शांत हो गया. मुझे एक प्रायवेट आर्टगैलेरी में नौकरी मिल गई, आर्टेमिज़िया गायब हो गई और मैं सुकून से चित्र बनाने लगी. मेरे वो दिन अपूर्व थे. मेरे शत्रु भाग गए थे. माया-जाल टूट चुका था. मैं थोड़ा - थोड़ा स्वीकृत हो रही थी चित्रों की दुनिया में, सामाजिक तौर पर भी मेरे मित्र बन रहे थे. मेरा मन संतुलन के झूले पर शांति के गीत गा रहा था. मैं पूरी ताकत से बुरी चीजों को एक - एक कर अपने से परे धकेल रही थी. आश्चर्यजनक तौर पर मेरी याद से मेरे डर और पापों की कहानियाँ गायब हो चुकी थीं.
मेरे दूसरे पेंटरों के साथ आरंभिक शोज़ हुए, अच्छे रिव्यूज़ मिले. मैं शांत और खुश थी अपने घर और घर में अपने स्टूडियो के स्वर्ग में.
यह उस साल की गर्मियों के उतरते दिनों की बात है. मुंबई में मेरे चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी हुई थी. एक कला दीर्घा में मेरे चित्र सराहे गए और अगले दिन के टाईम्स में सकारात्मक रिव्यू भी आया था. एक पत्रकार पूछ रहा था कि चित्रों की पहली सीरीज़ के पीछे मेरा प्रस्थान बिंदु क्या था? मैं उसे उत्तर ही नहीं दे पाई, हकलाने लगी क्या कहती? मुझसे कुछ कहा ही नहीं गया. बस यह कहा कि बचपन में कहीं शुरु हुआ था. उस वक्त मैं यह सोचने लगी कि क्या वह प्रस्थान था? या कि पलायन? मुझे अपना बचपन याद आगया, जब मैंने पहली बार मम्मी से कहा था कि -
मम्मी सच...सच में मुनक्यो है..मम्मी से मैंने ज़िद की कि मुझे रंग लाकर दो. मैं बना कर दिखाऊंगी ...ऎसी है मुनक्यो”  ऎसे  तो मैंने पेंटिंग करना शुरु किया. मम्मी ने मुझे अपनी स्टडी का एक कोना दिया. छोटी - छोटी ट्यूबों में भरे जलरंग, रंगीन पेंसिलें, हर तरह के ब्रश एक चौकीनुमा ज़मीन से ज़रा उठी टेबल और एक बंडल ड्रॉईंग के कागज़. मैंने मुनक्यो के चेहरे को बड़े ध्यान से पेंसिल से रचा, गोल - फूले गाल, दबी हुई छोटी नाक और लगभग बड़ी मक्खी जैसी आँख़ें और उसके पंख सी फड़फड़ाती बरौनियाँ. पतले - पतले भिंचे होंठ और बड़ा सा माथा, ढेर सी स्प्रिंगों सरीखे बहुत घुंघराले बाल. पेंसिल स्कैच देख कर मम्मी खुश हुई. जब मैंने रंग भरा और उसके त्वचा के रंग को क्रोमियम हरा रंगा तो मम्मी ने कहा - बकवास!  भयानक!
अपने इन उत्पातियों के चित्र , मैं क्या हर स्किज़ोफ्रेनिक रचता है. क्योंकि कोई मानता नहीं कि उनके साथ कोई है. पेंसिल से नहीं तो कोयले से, नहीं तो खड़िया से. हाँ  मैंने अपने  वार्ड में देखे थे...कई कई...गुमसुम, मिट्टी में उंगलियों को फंसाकर कुछ न कुछ रचतेहम कहाँ ले जाएँ अपने दिमाग़ों के इन उत्पातियों को? इन आवाजों से. इन आदेशों से...पलायन के चार रास्ते थे. आत्महत्या, पेंटिग, डायरी और सेक्स....हम्म.
उन्हीं दिनों एक अच्छे एडवांस के साथ एक आर्ट कलैक्टर ने मेरे साथ कॉन्ट्रेक्ट भी किया. उसका नाम संगीत सालुंखे था. उसने मेरे पहले शो की सफ़लता पर एक छोटी सी पार्टी रखी अपने फ्लैट में. उसमें उसने मुंबई के कलाजगत के लोगों को बुलाया था.
यह मेरी ही बेवकूफ़ी थी कि मैं पार्टी के बाद उसके फ्लैट में रुक गई  थी.  वहाँ  रुकते समय मेरे मन में उसके साथ रुकते हुए अपने जेंडर का ख़्याल भी नहीं आया था. मुझे बस किसी साथ की ज़रूरत थी उस रात. मैं बहुत दिनों से एक दोस्त की तलाश में थी, जिससे बात कर सकूँ.  उस पर कोकीन के नशे ने मुझमें हिम्मत नहीं छोड़ी थी कि मैं कार चला कर घर जा सकूँ.  जब हम बिस्तर पर लेटे तो वह मेरे शरीर पर झूमने लगा. मेरी पीठ से खुद को रगड़ने लगा. मैं उससे कहती रही, मेरा ऎसा कोई मन नहीं है, नहीं, मुझे सेक्स नहीं चाहिए. उसे पता था मैं सच ही में कोई स्पर्श भी नहीं चाहती. लेकिन कुछ देर बाद उसने मुझे पलटा लिया और कर डालाक्योंकि मैं मना करते - करते थक गई थी और वह कोशिश करते करते नहीं थका था. मैं सहज रिश्ते बनाना चाहती हूँ. पता नहीं लोग शरीर क्यों ले आते हैं? ऎसा क्या है इस शरीर में?
बीच रात जब मैं उठ कर उसके फ्लैट से लगी आर्ट गैलेरी में पहुँची. वहाँ मैंने पहली बार छिन्नमस्ता की पेंटिंग देखी. छिन्नमस्ता एक देवी, जो एक संभोगरत युगल पर चढ़ी हुई थी . उसने अपना कटा सिर हाथ में लिया हुआ था.  दो योगिनियाँ उस मस्तक से फूट रही रक्त - धाराओं को अपने खुले मुंह में ले रही थीं. अचानक मुझे एक भीषण संगीत सुनाई पड़ा -  नगाड़ों और टंकारों का. एकाएक बहुत से बैलों की भगदड़ से कमरा भर गया.  मैं  बहुत दिनों तक नाना  के साथ योग, हठयोग  करती रही हूँ अपने दिमाग़ की आवाज़ों से निजात पाने के लिए. अकसर सफल भी हुई हूँ.  नाना के कहने से मैंने अपनी ऊर्जा कुंडिलिनी और चक्रों में भी एकत्र की है. मैंने अपनी आत्मा को नीली रेत घड़ी में सुनहरी रेत सा झरते हुए देखा है. मैंने उस पेंटिंग के आगे बैठ खुद को एकाग्र किया लेकिन मैंने योगिनियों को पेंटिंग से निकलते नाचते पाया. मुझे उस पल लगा कि मैंने अपनी कुंडलिनी इतनी जगा ली है कि मैं उसे बंद नहीं कर पा रही...और ये योगिनियाँ और पिशाच मुझसे घृणित यौन क्रियाएँ कर रहे हैं.
मैं गैलेरी से बाहर निकली और मैंने एकदम नंगे सोए हुए सालुँखे पर अपना पैर रख दिया था, मेरा कटा सिर मेरे हाथ में था और योगिनियाँ और पिशाच उसके आस - पास नाच रहे थे. नगाड़े - दमामे बज रहे थे और मेरे आंसूँ निकल रहे थे. सालुंखे उसी हालत में चीख कर बाथरूम में घुस गया और डर के मारे सुबह तक नहीं निकला.
मैं सुबह उठी और कार चला कर घर आ गई.  जामरुल का पेड़ अपने पत्ते झड़ा झड़ा कर उजड़ा खड़ा मुझे लानतें भेज रहा था. मेरी ज़िंदगी एबनॉर्मल थी. मेरे उस दिन के रूप से सालुंखे शायद बुरी तरह डर गया था...पर वह मेरे चित्र बेचता रहा. मुझ तक मेरे चित्रों की कीमत पहुंचती रही.  आगे उसने मुझसे एक दूरी बरती और मेरे नाम के आगे जीलगाने लगा. अब मेरी स्थिति और अलग स्तर पर पहुँच गई थी. सेक्सुअल भ्रम के अतिरेकों ने मुझे हिला दिया था. मेरे पास कुछ बहाने थे उन भ्रमों के लिएजिन्हें मेरा मन मान लेता लेकिन  दिमाग चीख पड़ता. मैंने बहुत दम लगा कर पान - पराग, कभी - कभी मस्ती में ली जाने वाली कोकीन छोड़ दी थी. सिगरेट मैं नहीं पीती. मैंने मेडिटेशन भी बंद कर दिया. जाग्रत कुंडलिनी की ओर एकाग्रता को चित्रों में झौंक दिया, मेरी पोर्ट्रेट्स वीभत्स तौर पर न्यूड होने लगीं..जिनमें कुछ अजीब प्राणी देह कुतर रहे होते. बिना निपल्स वाले रक्त सनी छातियाँ...और रक्त बहाती योनि..और उस कुंड पर जीभ चलाते छोटे पंख वाले, सूंड - नलिकाओं वाले क्रूर विशाल कीड़े. शिव और शव के सीनों पर नाचती भैरवियाँ.
मैं बहुत परेशान हो रही थी और मैं किसी अपने के साथ शिफ्ट होना चाहती थी. माँ तो नाना को लेकर लंदन चली गई थीमेरी एकमात्र रिश्तेदार चचेरी बहन शिफ़ा ने मुझे कभी भी चले आने और डिनर साथ करने का तो निमंत्रण दिया लेकिन साथ रहने के विषय को वह टाल गई.
मैं अपने अकेलेपन में लगातार चित्र बनाती रही मैं लेकिन वहम होने बंद नहीं हुए बढ़ गए. मेरा उन पर कोई बस नहीं था. मेरे दिमाग़ में कोई रोशनी जलती और कोई रंगमंच जाग्रत होता और उस पर नित नया खेल. देवदूतों की जगह पिशाच ले रहे थे...शुरु में तो मुझे लगा सड़क पर माईक्रोफोन लगे हैं और कुछ घटिया लोग कुफ्र बक रहे हैं. पर घर में? मैं टीवी को देखती वह बंद होता, खिड़कियाँ मूंदती....लेकिन गालियाँ और गंदे कमांड. मैं रो पड़ती सारे देवी - देवताओं को बुला डालती... चुप कराओ इन ...मादर...बहन....के...को!!!!!! मुझे संशय हुए कि मेरी मॉम ने  सायकियाट्री वार्ड’  के उस क्रूर इलाज के दौरान मेरे दिमाग़ में माईक्रोचिप लगवा दिए हैं. ताकि मैं उनके कंट्रोल से न फिसलूँ. उन्होंने मुझे एपल का एक नया फोन भेजा था, मुझे लगा उस माईक्रोचिप को कमांड इस फोन से मिलते होंगे...जो उन्होंने मुझे देने से पहले इसमें फीड किये होंगे. एक रात मैंने उसे तोड़ डाला.
मैं सो नहीं पाती थी क्योंकि पानी गिरने की, झिंगुरों की, चूहों के रेंगने की आवाजें आती रहतीं. मुझे शक होता कि बगल में रहने वाला बुड्ढा सिविल सर्वेंट अपनी कमसिन नौकरानी को फुसला रहा है. मुझे हर कोई मॉलेस्टर दिखता था. मैं पूरी तह फिसल रही थी पैरानॉईक स्किज़ोफ्रेनिया में....और मुझे इस बीमारी का भी नहीं पता था.
सुबह उठ कर यकीनी तौर पर मैं यह मानती कि यह शराब, पान पराग, कोकीन छोड़ने का नतीज़ा है. ये वहम हैं, वहशत नहीं. मैं सामान्य हूं. मैं स्वस्थ हूँ. मैं ज़िंदगी में सीधा चलना चाहती थी, लेकिन कहीं कोई स्टियरिंग गड़बड़ था मेरे जीवन की गाड़ी का. मेरे मन में आया कि इन वहमों और वहशतों को किसी से तो कहूँ? मॉम! वो नहीं समझेंगी....
डॉक्टर मृदुल सक्सेना जब मिले....उससे बहुत पहले मैं आवाजों से घिर चुकी थी. आवाजें जो मुझे स्ट्रिक्ट कमांड करती थीं - ये कर डाल!!! मैं अपने आस - पास के लोगों को देखती और लगता कि उनके चेहरे सांप या गुर्राते हुए दाँत दिखाते बाघ में बदल गए हैं. आर्ट गैलरी की रिसेप्शनिस्ट की लाल लिप्स्टिक से मुझे लगता कि अभी इसने चौकीदार को निगल लिया है. मैं सोना चाहती आवाजें जगातीं. मुझे लगता कि मैं किसी गोले में घूम रही हूँ. मुझे ख़ुदा पर गुस्सा आता, कहीं कोई इबादतगाह दिखता - मैं गालियाँ देती खुदा को, भगवान को, मसीह को... मैं ही क्यों? अस्पताल में सारे टैस्ट जो हो सकते थे हो चुके थे. जब मोटा थैरेपिस्ट बोला कि मुझे पैरानॉईड स्किजोफ्रेनिया है, तो मन किया उसकी गर्दन ही तोड़ दूं. बस कयास लगा रहा है. मुझ पर एंटीसायकोटिक दवाएँ आजमाई जाने लगीं. जाने कितनी दवाएं अदली - बदलीं.अस्पताल के दिनों में मैं ने एक थैरेपिस्ट को कहते सुना था - सायकोसिस ग्रुप की मानसिक बीमारियों की दवाओं के साईड इफेक्टों में एक इफेक्ट सायकोसिसही है. मेरे नित नए होते मतिभ्रम क्या इन दवाओं की वजह से थे? मेरी सायकोसिस कभी जा नहीं सकती यह यकीन मुझे हो गया था. मुझे लगा मेरा शरीर ज़हर का घर बन रहा है, साईड इफेक्ट्स... इस बीच मैंने दो बार आत्महत्या की कोशिश की. मैं इन उत्पातियों से भरे दिमाग़ से निजात चाहती थी. एक रोज़ मेरे  भीतर ही कहीं सोई आर्टेमिज़िया ने लौट कर मुझे हैरान कर दिया ... मैं उस रोज़ आईना देख रही थी कि मैं ने अपने सर पर एक साफ़ासा महसूस किया. मेरी ठोड़ी में गड्ढा गहरा गया. मेरी आवाज़ बदल गई. मैं नंगे पुरुषों के दयनीय चित्र बनाने लगी. मैं खुद अब डर कर आर्टेमिज़िया को खोजने और उसकी हर बात मानने लगी थी. जैसे कि कोई डूबते जहाज से चिपकता हो...कि डूबना तो है ही धीरे धीरे.
डॉ. मृदुल सक्सेना से मिलना मेरे लिए संयोग था. मैं एक पोर्टल स्किज़ोफ्रेनिया बुलेटिनपर अपनी बीमारी की दवाओं के बारे में पढ़ रही थी, वहीं मुझे डॉ. मृदुल का आर्टिकल मिला. क्या टॉक थैरेपी स्किज़ो मरीज़ों को ठीक कर सकती है.इस विषय पर उन्होंने बहुत खोल कर, एक उम्मीद जगाने वाला लेख लिखा था. किन्हीं सी बी टी टैक्नीक्स का ज़िक्र किया था. कॉग्निटिव बिहेवियरल थैरेपी. जिसमें कई मौखिक - लिखित - प्रायोगिक एसाईनमेंट के ज़रिये बीमार दिमाग़ को नए ढंग से वास्तविकता का संज्ञान लेने का निरंतर अभ्यास कराया जाता है. डायरी लिखना भी उनमें से एक था. उसमें उनका ई - मेल पता दर्ज था. मैं ने एक दिन उनको ई-मेल कर दिया.
रात ही से बारिश हो रही थी, सुबह भी गीली - गीली थी. मैं छाता लिए  डॉ मृदुल के क्लीनिक के बाहर खड़ी थी।  मैं अपनी कोई पुरानी रिपोर्ट, कोई पुराना पेपर किसी अस्पताल का अपने साथ नहीं लाई थी। मैं अपने साथ सारी आक्रामकता लाई थी, साथ ही अपना हकलाता हुआ, डरा - डरा अतीत! भरम, आवाज़ें और अपनी गलतियां। इनसे ही इनका अगर वह इलाज कर सकता था तो ठीक था। वरना मुझे सायकोटिक ड्रग्स और वोद्का में कोई फर्क नहीं दिखता था अब।
मेरा सिरफिरापन मेरी अदा नहीं है, यह मुझे बहुत अच्छी तरह समझ आ गया था सो मैं आत्मविश्वास से शून्य थी। मैं उसके क्लीनिक के बाहर बैंच पर बैठ कर अच्छी तरह रो ली थी। सहन में लगी जोगिया बोगेनविलिया की लतर, सुबह हुई बरसात की कुछ बूंदें चुरा कर बैठी थी, जिन्हें उसने मुझ पर बरसा दिया।
मैंने मम्मी को वादा किया था कि मैं उनके बिना आत्मनिर्भर, स्वस्थ और सफल होकर दिखाऊंगी. लेकिन मैं बुरे हाल में थी ये वे जान गईं थीं और मुझे वहाँ बुला लेने पर अड़ी थीं. लेकिन मैंने मम्मी को तैयार कर लिया था कि वे मुझे छ: महीने और देंगी कि मैं अपना ख्याल रखते हुए कुछ महीने यहाँ और बिता लूँ. मेरी किस्मत! मैं सायकियाट्रिस्ट के क्लीनिक के आगे खड़ी थी।  अच्छी तरह से रोकर मुंह पौंछते हुए मैं उठी थी कि  इस विचार ने मुझे फिर रुला दिया। मेरा मुझ पर कोई कंट्रोल नहीं था। फिर भी मुझे पता था इस हालत में भीतर जाना ठीक नहीं, वह तुरंत इंजेक्शन बनाने को कहेगा वह अपने कंपाउंडर को। मैंने टिश्यू से मुंह पौंछा, बॉटल से पानी पिया। लिप ग्लॉस लगाया, आँखों में कोल पेंसिल घुमाई।  मुस्कुराने की प्रेक्टिस की और भीतर आ गई।
रिसेप्शन पर कोई नहीं था, मैं सीधे डॉक्टर के कमरे में। वह कुर्सी पर अपनी देह को तानने की मुद्रा में हाथ उठाए हुए था कि मैं घुसी, उन्होंने जल्दी से हाथ गिराए और चश्मा उठा कर पहना। मेरे अभिवादन का जवाब दे कर इशारा किया बैठने का ----- इस अलसाते जीव के आगे ब्लाह ब्लाह करने से मेरा जीवन बदलने वाला कुछ नहीं था, यह मैं जानती थी । 'कुछ तो राहत'मेरी तलाश थी।
टॉकिंग थैरेपीज़ और सीबीटी के बारे उसके लेख का दावा था कि एक साल में पंद्रह सेशन मुझे बेहतर कर देंगे. आगे खुद अकेले जीने का ढब सिखा देंगे. पहली नज़र में डॉ. मृदुल मुझे खुद बेढब लगा. औसत कद, ढीली - ढाली शर्ट, हल्की सी तोंद और घने बालों का बिखरा गुच्छा. बहुत दिन से मानो हेयरकट लेना भूल गया हो. मेरा मन किया कि इसके बालों में रबरबैंड लगा दूं. फिर बात करूं. मुझे याद है स्कूल के दिनों में पहली बार मैं जब मम्मी के साथ एक डॉक्टर के पास गई तो वे डॉक्टर की शक्ल देख कर मेरा हाथ पकड़ कर लौट आईं और पापा से बोलीं - काउंसलर खुद सायको - सा था!मैं नहीं लौटने वाली. मैं अब और अपने दिमाग़ के उत्पात बर्दाश्त नहीं कर सकती थी. आर्टेमिज़िया फिर - फिर आकर मेरा होना दूभर कर रही थी. मैं जीना चाहती थी और मेरा दिमाग़ मुझे मरने को उकसाता था.
अपने क्लीनिक में बैठा वह मेरी प्रेस्क्रिप्शन देख रहा था. जिसमें केवल मेरा नाम और प्रोफेशन लिखा था. फिर उसने मुझे मेरी कुर्ती से ऊपर इंच इंच निगाह उठा कर देखना शुरु किया. उसकी निगाह ने सत्रह सैकंड लिए मेरे चेहरे तक पहुँचने में. मेरी उंगलियों की अंगूठियों को अजीब तरह से घूरा. बहुत साधारण ढंग से जब उसने पूछा - मैं क्या सहायता कर सकता हूँ तो यकीन मानिए मेरा उसके दावों पर से यकीन उठने लगा. मैं रुआंसू हो गई और बहुत सतही ढंग से बताने लगी कि मैं मानसिक दबाव में हूँ.
उसने मुझे भीतर अपने सायकियाट्रिक - काउच पर अंधेरे में लिटा दिया. फिर बोला - शुरु हो जाईए. मैं असमंजस में - कहाँ से शुरु हो जाईए?, वह बोला - जहाँ से मन दुखता हो. मैं शुरु हुई तो रुकी ही नहीं बताती चली गई. तीन सेशन तो इस मौखिक ऑटोबायग्राफीमें चले गए. फिर उसने अगले सेशन में टॉक थैरेपी और सीबीटी शुरु किया. सबसे पहले उसने मुझे सिखाया कि कैसे मैं अपनी एक साथ आ धमकती सोचों में से सबसे अच्छी वाली कैसे चुनूँ. मैं सोचती थी ये ख़्यालों का हुजूम बस रेले की तरह आता है और मेरा जीना मुश्किल करता है. लेकिन मैंने अभ्यास से सीखना शुरु किया कि - मैं क्या सोचना चाहती हूँ.
मुझे लगा कि वह मुझे ढेर से अजीबो - गरीब दिमाग़ी खेलों - गिनतियों और अभ्यासों में लगाएगा. बहुत से मनोविश्लेषण के सवाल करेगा. लेकिन ऎसा कुछ नहीं करना पड़ा मुझे. मुझे बहुत सहज लगी हर बात. मसलन हर सुनाई और दिखाई देने वाले हैल्युसिनेशन पर डायरी लिखना, वास्तविक - अवास्तविक को पहचानना, अवास्तविक आवाजों से खुद को अलग करना. दिखाई देने वाले भ्रमों पर स्वयं हंसना. अकेले में हवा से बात करने से बचने के लिए इयर फोन पर कोई मनपसंद ऑडियो - बुकसुनना. ये अभ्यास समय ले रहे थे अपना.
कुछ महीने नहीं पूरे एक साल मैं मुंबई में ही रही, धीरे - धीरे आत्मनिर्भर होते हुए. नई टॉकिंग थेरेपीज़ और बहुत धैर्य के साथ मेरा साथ देते डॉक्टर मृदुल के साथ एक साल शांति से बीत गया. बीच - बीच में हालात कई बार बिगड़े मगर हर पेनिक कॉल पर वे तुरंत हाज़िर हुए. मृदुल ने आहिस्ता से नई अमेरिकन दवाएँ बहुत छोटी डोज़ में देना शुरु किया. वे मँहगी थीं पर मम्मी ये खर्च बाख़ुशी उठा रहीं थीं. वही कोरियर से भिजवाती भी थीं.
नवंबर का महीना मुंबई शहर पर शबाब बन कर छाता है, सारे धर्मों के त्यौहारों की शुरुआत, हवा में से नमकीन चिपचिपाहट कम हो जाती है।  कलाएं नींद से सोकर जागती हैं, तरह तरह के थिएटर ग्रुप, आर्ट वर्कशॉप्स, क्लासिकल डांस और बैलेज़ के कार्यक्रम शुरू हो जाते हैं।
मुझ पर मृदुल की थैरेपी और सटीक मॉनिटरिंग के साथ दी जाने वाली अमरीकन दवाएं बिना साइड इफेक्ट मुझ पर असर कर रहीं थीं, मैं जमकर पेंट कर रही थी।  मृदुल और मैं दोस्त बन रहे थे। हम अकसर साथ कई एग्जीबिशन और कार्यक्रमों में जाते।  मेरे शरीर में अनोखे परिवर्तन हो रहे थे। मेरे शरीर में थिरकन रहती। मेरी पूरी देह एक नया आकार ले रही थी। मेरे मन और भावनाओं में एक संतुलित आंदोलन पैदा हो रहा था।
धीरे - धीरे मैं अपने आप से शर्मिंदा होने लगी. मुझमें मृदुल के लिए अहसास जगने लगे थे. जिन्हें मैं दबाना चाहती लेकिन काउंसलिंगके वे पचास मिनट का एकांत और अंधेरा मुझे उकसाते थे. मैं अपने काउंसलिंग - सेशन से हमेशा हताश और उखड़ी हुई लौटती. मैं लौट कर उसे भूल जाना चाहती थी. मैं अपने अहसासों से झगड़ती, लेकिन वे टलते नहीं. मुझे लगने लगा था कि अब उसकी ये थैरेपीज़ मुझ पर उलटा असर न करने लगें. मैं इसे लवया लस्टदोनों नाम देने से खुद को बचाना चाहती थी. एक दोस्त, एक खैरख़्वाह बल्कि थैरेपिस्ट!! मैं ठीक हो रही थी और अधूरा ठीक होकर छूट जाने का अर्थ...आर्टेमिज़िया   और आवाज़ों की वापसी.
जब भी कभी पैनिक अटैक पड़ता मैं मृदुल को अपने पास रोकना चाहती थी। मैं चाहती थी कि वह मन और दिमाग़ के साथ अब इस शरीर की गुत्थियां खोले और निश्चय ही इस बार मैं पूरी स्वस्थ मानसिकता के साथ एक पुरुष के साथ होऊंगी। मैं कल्पना करती और शरीर लहर - लहर हो जाता। हर सुबह मैं तरोताजा उठती। खुशमिजाज़ी, बेफ़िक्री मेरे मिजाज़ में आ गई थी। अंदर से उसे देखते ही तेज़ नशीली इच्छा होती कि उससे लिपट जाऊं।  मैं बहुत बार समझाती मन को, ये पागलपन किसके लिए? एक औसत कद के, साधारण चेहरे पर चश्मा लगाए एक अड़तीस साल के सायकोथैरेपिस्ट के लिए? जो तुम्हारा डॉक्टर है!
उसकी आंखें समुंदर दिखतीं और होंठ क्यूपिड की कमान, हल्की सी तोंद को वह क्यूटू कह कर सहला देना चाहती थी। यकीनन यह असल कैमिकल लोचा था, वरना दुनिया के सारे उसके हमउम्र मर्द मर नहीं गए थे। लेकिन वह परवाह करता था.
उन दिनों की डायरी-थैरेपी का एक पन्ना, जो मैंने उसे देने से पहले अपनी फाईल में से हटा दिया था.
मेरी चाय आजकल उसके क्लीनिक की कॉफ़ी की तरह महकती है. मैं सुबह उठती हूँ, ठंडे - गरम पानी के डिसपेंसर को ऑन करती हूँ. अर्ल ग्रे मेरी पसंदीदा चाय जिसे गर्म पानी मिलते ही संतरों और नींबुओं जैसा महकना चाहिए, वह आजकल तुर्श महकती है. अगर यह किसी के इश्क़ में होना है तो बहुत अजीब है.
वह शहर में नहीं है, अपने माता- पिता के पास आगरा गया है. मैं उसकी ज़रूरत शिद्दत से महसूस कर रही हूँ. मैं उसे फोन मिलाती हूँ. लेकिन कितनी अजीब बात है ना कि मैं उसी को नहीं सुनती. बल्कि मीलों पार से आती उसकी आवाज़ के बैकग्राउंड में क्या - क्या है, वही मुझे सुनाई पड़ता है. मंदिर के घंटे, ऑटो वाले से उसकी बात, मैना की टिटकार, कुछ नहीं तो कोई आकर जब उससे रास्ता पूछने लगता है। वह मुझसे बात रोक कर उसको जो बताता है, वही बस मेरा जहन पकड़ता है- वह तो पीछे वाली रोड है, वापस लौटो....हाँ वहाँ से आठ किलोमीटर होगा।
वह घर से दूर आकर मुझसे बात करता है. मेरी  परवाह और सरोकार की बात. लेकिन कुछ देर बाद मैं वह सब क्यों नहीं सुनती जो वह कह रहा होता है, बल्कि यह कल्पना करती हूं वह किसी नीम तले खड़ा है, छाया ढूंढ कर। कहीं और जाने की कह कर यहाँ आ रुका है, चिलचिलाती धूप मेंबहुत व्यस्त और चलती - जलती हुई सड़क पर। माना शब्द असर करते हैं  पर मेरे जैसों के लिए यह असर कितना बड़ा होता है.  कि भीड़ में एकालाप में व्यस्त एक आदमी, चलती - फिरती क्रूर और स्वार्थी दुनिया में  किसी को बचाता हुआ. किसी को आश्वस्त करता हुआ कि यह शाम नहीं है, सवेरा है। यह धूप नहीं है, छांह हैं। तुम्हारे पैर की चप्पल के नीचे पिघलता कोलतार नहीं है, मेरे  अहसास है।
उसे लौटना है, वह जल्दी - जल्दी बहुत कुछ कहना चाहता हैउसके शब्द चने खाने वाली मछलियों की तरह किलबिल किलबिल करते हैं, कुछ कह पाता है बहुत कुछ रह जाता है। पर वह समझ लेती है, अनकहा ही नहीं अनसोचा, अमूर्त भी जो पीछे आती आवाज़ों की कहानियों में दर्ज़ होता रहा जहन में।
मैंने अपने अहसास खूब छुपा कर रखे. मैंने अपने आपको बीमार ही समझा. लेकिन मुझे अब यह मह्सूस होने लगा था, मृदुल की ज़िंदगी का पानी अब लहर - लहर होने लगा है....औरत हूँ छठी इंद्री..फिर मेरी तो नवीं दसवी इंद्री भी खुली है... हमारी टोक थैरेपी के एकांत के पचास मिनट हम दोनों ही बहुत संजीदा रहते कि कहीं गलतफ़हमी न हो जाए...एक साल बाद पहली बार उसने मेरे दाँए गाल पर हाथ लगा कर पूछा था, “ यह निशान क्या है?” मेरा मन पिघलने को हुआ. पर उसकी ठंडी निगाह ने सब जमा दिया था. मुझे वह अपील कर रहा था फीज़िकली, इमोशनली.... मैं भी उसे अनूठी लगी जब वह मेरी ऎग़्ज़ीबिशन में आया - उसने मुझे, कंधे से पकड़ा और कहा - गुलनाज़ तुम सचमुच इतनी बड़ी पेंटर हो? मुझे यकीन नहीं होता. उसे मुझसे एक आकर्षण ज़रूर था जिससे वह बचता था. वह मेरे लिए अपनी हदों से बाहर उठ कर आता था. मैं जानती थी मैं अपने बिखरे वज़ूद और प्यार की भीषण भूख के साथ आई, मृदुल को लगा कि मैंने उन्हें उनके प्रोफेशनल एथिक्स से हिला दिया. मैं पहले सिंसियर मरीज़ ही थी. मेरी तरफ़ से कोई जाहिराना पहल भी नहीं हुई. हाँ, मेरी हर चीख पर उनका आना, घंटों मेरे साथ रहना... मेरी आत्महत्या की असफल कोशिशों पर उनका मुझे अपने से लिपटा कर समझाना. मुझे पहले भरोसा हुआ प्रेम नहीं. मेरी बेवक्त की फोन कॉल वो घर से बाहर निकल कर उठाते मुझे समझाते घंटों. कई बार दोपहरों में स्लिपर पहन कर ही पैदल बाहर आकर....मैं कभी - कभी हताश होती थी क्योंकि वह विवाहित था और संतुष्ट भी विवाह से. यह गनीमत थी कि मैंने कोई वैडिंग रिंग नहीं पहनी थी अब तक. उसने मुझे अपनी फेवरेट मरीज़के अलावा कुछ नहीं कहा.
मैं इन सैशनों से थोड़ी छुट्टी चाहती थी. ईश्वर ने बहुत खराब तरीक़ा अपनाया. नाना को एक और अटैक के साथ पैरालिसिस हो गया. मम्मी को पहली बार फोन पर फफ़क कर रोते पाया मैंने उन्हें, उनके फोन संतुलित संयमित संक्षिप्त हुआ करते थे। मुझे डर लगा कि मैं नाना को कहीं खो न दूं। पिता की तरह कोई अंतिम छवि ही न रह जाएसो मैं उनके पास लंदन चली गई. मृदुल मुझे एयरपोर्ट पर छोड़ने आए थे, मैंने लाउंज के भीतर के कांच से मुझे देखता हुआ उसका चेहरा देखा, मैं कई घंटों उदास रही. वहाँ पहुंच कर भी ऎसे कई दिन आए जब मुझे लोगों के चेहरे में उसकी छवियाँ दिखतीं. अनजान गलियों में, मैट्रो स्टेशनों पर... किसी पार्क में.
इस बार का अक्टूबर बहुत गर्म और रूखा सा लग रहा है। मैं मुड़ कर देखती हूं तो मुझे उस बरस के उस अक्टूबर के दिनों पर आश्चर्य होता है. उत्साह, जम कर पेंटिंग, मेरे स्वभाव के उलट दोस्तियां, निभाव. इस साल मैंने यात्राएं चुन लीं. मैं कुछ महीने लंदन रही. वहाँ मैंने अपने कई पुराने चित्र इंटरनेट के ज़रिए बेचे. समकालीन पेंटरों के एक समूह से जुड़ी और पेरिस जाकर फ्रांस के कुछेक आर्ट क्यूरेटर्स से मिली. कुछ अच्छा रहा, कुछ बुरा. मम्मी ने मुझे वहाँ के कला -क्षेत्रसे जुड़ने में मदद की.
मम्मी जब भी मेरे साथ बाहर जातीं लोग मुझे उनकी छोटी बहन समझ बैठते। यह बात उन्हें खुश कर जाती, पर मुझे नहीं।  अब्बू के जाने के बाद इनका जिस्म और छरहरा हो गया था । उनके तपे तपे सुनहरे जिस्म पर हर रंग फबता है। नारंगी और  जामुनी ख़ास तौर पर।  उनका टेस्ट भी बहुत उम्दा है। उनका ग्रेस और मैनरिज्म ! अजनबी लोग तक लोग उनकी चाल देखकर ही पूछ बैठते हैं - आर यू अ डांसर? आप नाचती हैं?
 हाँ , कभी - कभी मुझे उनसे जलन होती है, फिर मैं याद दिलाती हूं खुद को, कि वो मेरी मम्मा हैं, तो जलन एक किस्म के अभिमान में बदल जाती है। मैं इस बार मम्मी के करीब आई. जैसे दो सहेलियाँ. उन्होंने अपना अंतरंग मुझ पर खोला. मैंने देखा अब मां बदल रही थीं. मैं सोचती थी कि शायद वे कोई साथ ढूंढ चुकी होंगी पापा को खोकर, लेकिन उनके फ्लर्टी संबंध पापा के रहते ही हुए. जाने क्यों अब वे बहुत सादगी से रहती हैं . डांस सिखाना, मेडिटेशन करना और पापा के नाटकों के अनुवाद करना या उन्हें नाच में ढालना उनकी दिनचर्या बन गया। मुझे उनकी शांति और सादगी से ईर्ष्या होती है।
वे खुद मुझे शादी करने, समय पर मां बनने की सलाह देती हैं. पूछती हैं, - मैंने कोई लड़का ढूँढ रखा है या वे कोशिश करें? मैं क्या उत्तर दूँवे कहीं भीतर जानती हैं कि शादी - प्रेगनेंसी और स्किज़ोफ्रेनिया बहुत घातक मेल है।  मैं मम्मी से कहती हूं - ये ज़िक्र ही बेमानी है।  क्योंकि कोई क्यों शादी करेगा मुझसे अब जब क्लीनिकली यह तय हो चुका है कि मैं.......... !!
मुझे दुख हुआ कि उन्होंने पापा के जाने के बाद नाचना बंद कर दिया था, लेकिन सिखाना ज़ारी रखा था, यहाँ उनकी दर्जनों शिष्याएँ बन गई थीं. लंदन में मां के पुरुष मित्र बने, पर उन्होंने दुबारा शादी करने का एक पल को भी नहीं सोचा, “ नहीं मैं अब वैसा भरोसा नहीं कर सकती किसी पुरुष पर जितना तेरे पापा पर था।उनकी वार्डरोब में सादगी और उदासी साथ रहते थे, जिसे वे मेरे कहने पर भगातीं. वे सुर्ख़ कांजीवरम पहनतीं या कभी कोई लंबी ब्लैक ड्रेस. हम बाहर जाते और दो सहेलियों की तरह खा - पीकर लौटते, खिलखिलाते हुए.
 उसी दौरान मेरे नाना चल बसे. तभी मुझे भीतर से लगातार लगता रहा था कि मुझे लंदन जाना चाहिए, कहीं ऎसा न हो कि...मैं उनसे न मिल पाऊं. मैं, मम्मी और मामा हम तीनों उनके करीब थे जब उन्होंने आँखें मूँदी. माँ को मैंने एक छोटी बच्ची की तरह बिलखते देखा.
उसके ठीक एक महीने बाद मैं लंदन से मुंबई लौट आई. मैं ने दवाएँ तो लंदन में ही लेना बंद कर दिया था. मैं ने वहाँ केवल दो बार उत्पात मचाया, बस्स! वहां मैं निंदासी रहती मगर सो नहीं पाती थीमुझे लगता था, मम्मी मुझे जूस में मिला कर दवा देती रहीं थीं. मैंने एक बार फोन में मृदुल का नंबर देखा था. उन दिनों मुझे लगता था टेम्स उफ़न कर ख़तरनाक तौर पर शहर डुबो रही है। हमारा घर डूब रहा है. मैं आधी रात चिल्ला कर सबको जगा देती.
मुंबई लौट कर घर साफ करना बहुत अजीब लगा. नाना की चीजें, वो तरह - तरह की तितिलियों और शलभों को जड़े कई फ्रेम. उनके पानी में रखे दाँत. उनकी छड़ी. काँच में बंद मोटे भौंरे और रंगीन मकड़ियाँ. मैं बहुत सारी धूल और इन कीट पतंगों के साथ अकेली थी. नौकरानी माया और उसकी बेटी की सहायता से रात आठ बजे तक धूल साफ़ की, खाना खाया हम तीनों ने...फिर मैं अकेली थी. मुझे मन में हल्का - सा धड़का लगा. लेकिन मैंने मन को मजबूत किया और दो वोद्का शॉट्स लगा कर लेट गई और एक मसाला बॉलवुड फिल्म देखने लगी. उस रात वहम तो नहीं हुए, लेकिन आधी रात एक भौंरा भन्न्न्न नन करता हुआ नाना के एक फॉर्मलीन भरे जार में से बाहर निकल आया. वह मेरे कमरे में मंडराने लगा. र्मैंने देखा उस पर इंद्रधनुषी रंगों की कौंध थी. उसके कवच पर सात रंग थिरक रहे थे. वह मेरी बंद मुट्ठी जितना बड़ा था, वह मेरे ऊपर मंडराता रहा, फिर थक कर मेरे तकिये पर बैठा रहा और भन्न भन्न करता रहा. मैं चादर में अंदर बंद डरी बैठी रही. सुबह डोर - बैल बजी तो वह वापस जार में जा घुसा. साठ साल पुराने इस विचित्र घर में मेरी जंगली कल्पनाएँ और वहम खूब पोषण पाते हैं यह मैं जान गई थी. मुझसे पहले मम्मी जान गईं थीं सो वे इस घर को बेचना चाहती थीं. लेकिन सुबह की धूप समंदर की आवाज़ और जामरुल पेड़ की चमकीली पत्तियाँ, नाना की आहटें मैं इन सबके साथ सदियों यूं ही रह सकती हूँ. वहम और मतिभ्रमों को लिए - लिए.
मैंने मृदुल को बताया नहीं कि मैं आ गई हूँ. मैंने उसे सरप्राईज़ दिया. अरे! गुलनाज़! दुनिया के किस हिस्से से उतर कर आ रही हो?” “ देर शाम वह अपने क्लीनिक में काग़ज सहेज रहा था. उठ कर खड़ा हो गया. उसकी आँखें खुशी से भर गईं.
सीधा चांद से उतर करमैंने उसके सामने बैठते हुए कहा.
तभी तो ल्यूनेतिक हुई रहती हो.” “ वह उठ कर मेरे पास आया और मेरे कन्धे दोस्ताना ढंग से दबाए.
तुम चैटिंग में रोमेंन्टिक को क्यूँ गलत स्पैल करते थे? तोतले हो क्या! ल्यूनातिक!हम दोनों जोर से हंसे.
पहली बार उसने मुझे डिनर के लिए बाहर चलने को कहा. पहली बार उसने अपनी पत्नी से मेरे लिए झूठ बोला. मैं वहाँ उससे बातें करती, लंदन, नाना, मम्मी और चित्रों के बारे में बताते हुए अपने दूसरे दिमाग़ से यह सोचती रही कि मेरी पसलियों तक उसकी जडें पहुंच कर उलझ गई हैं, उसके फूल मेरी कॉलर बोन तक उगने लगे हैं। उनकी पंखुरियाँ मैं दिन भर तोड़ती हूँ. बस एक यही बात तय नहीं कर पाती वह मुझे सच में प्यार करताहै या यह महज सहानुभूति है. मुझे लग रहा था कि मेरी तुष्टि नजदीक ही थी और मैं उसे न पाने की चाह में अधीर हो रही थी.
दवाओं की बात हम कल क्लीनिक में करेंगे गुलनाज़, लेकिन तुमने ज़िदंगी को लेकर क्या सोचा है?” कुछ तो भविष्य, पेंटिंग के अलावा.मैं जान रही थी कि वह परिवार बसाने, या किसी से गंभीरता से रिश्ता बनाने की बात कर रहा है. रेस्तराँ की गुनगुनाहट और पीली - झरती हुई रोशनियों में वह यह पूछता हुआ अभिभावकसा दिख रहा था.
ज़िंदगी भर लोगों से दोस्ती करने की कोशिश की मृदुल. हुई नहीं. तो अब खुद से करना सीख रही हूं। यह सबसे कठिन है, आप जानते हो मेरा आंतरिक बहुत जटिल है। अपने से दोस्ती यानि सब कुछ जानना अपने बारे में मूड्स के बारे में। और मैं यह भी जानती हूं कि जो दिखता है मेरा बाहरी सुंदर और खुशनुमा। वह बहुत खुशनुमा नहीं है. तो कैसे किसी को अपने साथ जोड़ कर बरबाद कर दूँ? इस दुनिया में दो लोग बचे हैं जो मेरी आंतरिक जटिलता जानते हैं. तुम और मम्मी. बस! मुझमें ताकत नहीं है किसी और को कनविंस करने की कि मैं क्या और कैसी हूँ. जटिल और फ्रीक!
मैं सहज लोगों से  जलती नहीं हूं पर कई बार मैं उस जगह होना चाहती हूं जहाँ और लोग हैंमैं जितना सुंदर खुद को दिखता हुआ महसूस करती हूं, आत्मविश्वासी, वह ओढ़ती हूँ मैं. मैं जानती हूँ मैं बहुत साधारण हूं . मैं अपने उपलब्धि के बड़े पलों में आत्मविश्वास डिगा कर हकलाने लगती हूं। यारबाश दिखती हूं पर भीतर से अकेली बहुत अकेली हूं। मैं लोगों के मुखौटों से टकरा कर अकसर घायल हो जाती हूं .कहते कहते मेरे काँपते हाथ से चिकन में धंसी चम्मच  मेरे हाथ से छूट गई. मृदुल ने मेरे हाथ पर हाथ रखा.
बहुत अकेले होने पर तो मैं एकदम बिखरी और बेवकूफ़ दिखती हूं। मैं चलते - चलते टकरा जाती हूं, लड़खड़ा भी। मृदुल आप ही हो जो....
इसमें ऎसा क्या है? कई बार पांच सितारा होटल और एयरक्राफ्ट में चढ़ते हुए मुझे खुद लगता है कि दरबान या एयर होस्टेस मुझे भीतर आने से रोक न दें। मृदुल ने माहौल हल्का को कहा. लेकिन मैं प्रलाप में घुस गई थी.
मुझे अकेले छूटने का डर लगता है. कई बार लगता है कि वो वहम भले थे...नयन...”“श्श, मत याद करो.
ये अकेले छूटती मैं कौन हूँ। ये  मेरा अंतस इतना जटिल क्यों है और आजकल मेरी मुठभेड़ इससे क्यूं है?”“गुलनाज़, हम सब जटिल हैं. तुम कुछ और लोगी? स्वीट? मैं तो लूंगा भई वो भी गुलाबजामुन. तुम?”मैंने सर हिला दिया.
मेरा सीटी स्कैन फिर हुआ, कई ब्लड टैस्ट. मैंने एक दिन मृदुल को खाने पर बुलाया. जो कि पूरा हादसा साबित हुआ. वह मैं नहीं बताऊंगी. मृदुल बता सकते हैं अच्छी तरह कि मैंने क्या पागलपन किया था. उसके बाद मैंने दो बार अपने हाथ की कलाई काटने की कोशिश की थी. दोनों बार मृदुल मेरे से नाराज़ हुए. मुझे भी यह नागवार गुज़रने वाली बात थी कि डॉ मृदुल को लगा कि मैं उनके ऊपर अपने आपको थोप रही हूँ. यह मेरे व्यवहार के विरुद्ध है. मुझे दोस्ती की क़द्र थी, पर उन्होंने अपनी उन ज़दों और हदों को भी मुझसे दूर कर दिया.
दूर जाते हुए लोग सबसे ज्यादा आश्वासन क्यों देते रहते हैं? अपनी ठंडी आवाज़ों में बिना आंच फूंके कहते रहते हैं, मैं हूं न, यहीं हूं, रहूंगा और हम जान रहे होते हैं, यह मुड़ने की तैयारी है, मोहलत बीतने की चेतावनी है. ठंडी आवाज़ें डराती हैं कि कोई सांप है कहीं कबर्ड में किसी कुंए से आती आवाजें और उनका गली के मोड़ पर से कहना, बस यूं गया यूं आया.... नींद की दवा के असर में सही सुन पड़ता है .... अब बस गया। जब हम सारी आवाज़ों से खुद को दूर कर लेते हैं. एक आवाज़ के अहसानमंद रह जाते हैं. उसके भुरभुरेपन पर मन टिक तक नहीं पाता झरता सीमेंट बता देता है - रिश्ते का भविष्य.
समय बीतता रहा लेकिन मेरे मन में मृदुल को लेकर गहरा जुड़ाव कम नहीं हुआ. मैं उसे याद कर बेचैन हो जाती थी.  मुझे उसके होने का वह सुकून फिर से चाहिए था. वह नाराज़ और अलग हो चुका था मुझसे... मैं जानती थी मैंने बदतमीज़ियां की थीं...उसका पीछा... एनोनिमस फोन कॉल्स ... मैंने उसके घर का पता किया. पत्नी का और बच्चों का भी. मुझे पता है यह ग़लत है और वह हैप्पीली मैरिडहै...मैं आधी - आधी रात उसे रो - रोकर फोन किए. हार कर डायरी में लिखा और स्कैन करके उसको ई - मेल कर दिया था.
मैं तो यूं ही खा़मोश बैठी थी, अपने वहम और वहशतों की दीवारों पर एन् उस पल जब तुम बगल से गुज़रे, मैं गरिमा की नदी से गिरी. और ज़रा झुकेएनउसपलमें  मैंनेचाहाथाकिसातोंपुलजलादियेजाएं. एकबीमारीका, दूसरा थैरेपी का, तीसरा सहानुभूति का, चौथा दोस्ती का, पाँचवा मूल्यों का, छठा संकोच का और सातवाँ शुचिता का. लेकिन मेरे सुख के निर्वात में ये सात रंग अंगार बन खिले.... आग के रंग पीला, लाल, नारंगी...हरा और नीला, जामुनी और अंतत: मेरा सलेटी!
मुझे ऎसा संकेत मिला कि उसकी पत्नी ने हमारी यानि मेरी एकतरफ़ा रोमेंटिक चैट पढ़ ली थी और वह दबाव में विवश हो गया. जो भी हो. मैं नहीं जानती मृदुल को एक डॉक्टर मित्र की तरह खोने की उदासी ज़्यादा बड़ी है कि उसे न पा सकने की टीस ज़्यादा गहरी. काश मैंने वह दीवार तोड़ी नहीं होती. मृदुल कुछ भी कहे यह इरोटिक ट्रांसफेरेंस नहीं था..नोप! मैं आज भी उस लंबे साथ के बचे टुकड़ों के साथ हूँ... जिस दिन ये भी चुक जाएंगे....
उसकी उपेक्षा ने बहुत कुछ छीन लिया. वही था जिसने मुझे खुद से प्रेम करना सिखाया था, सो अटपटा लगा! मैं लौट आई खुद में। वही नाना का घर, वही एकांत और बाहर निकलने से लगने वाला डर. फिर एक मरीचिका और फिर एक डग! यही जीवन है हिरण का तो यही सही.
पड़ोस में नई रहने आई एक टैरो कार्ड रीडर मेरी दोस्त  बन गई, उसने मेरे लिए प्रेम के बारे में भविष्यवाणी करने वाले कार्ड्स खोले थे. मुझे भविष्यवाणियों से नफ़रत है क्योंकि ये भविष्यवाणियाँ करने वाले वहशती लोग मेरे साथ रहते आए थे. मगर मुझे वे कार्ड पसंद आए और मैंने अपने स्टूडियो की दीवारों पर म्यूराल के रूप में ये कार्ड बनाए - लवर्स, एस ऑफ़ कप्स, टू ऑफ़ कप्स, नाईट ऑफ़ कप्स, एम्परर और एम्प्रेस. मुझे पता था अपने हर रिश्ते का भविष्य - शून्य
डॉ. मृदुल की मुझे बस एक ई - मेल मिली थी. जिसमें उन्होंने बहुत घुमा - फिरा कर अच्छा अच्छा लिखा और मुझे किसी बेहतर सायकियाट्रिस्ट का पता बता दिया था.
प्रिय मिस गुलनाज़ फरीबा,
कैसी हो? जानता हूँ अपसेट होगी. मगर मैंने तुम्हें उस जगह पर ज़रूर पहुँचा दिया है जहाँ से तुम अपने ज़िंदगी के स्टियरिंग को बखूबी संभाल सकती हो. सच कहो कि क्या यही उद्देश्य लेकर तुम मेरे पास नहीं आईं थीं?मैं कैसे कह सकता हूँ कि जो तुम्हारे मेरे बीच घटा वह केवल ट्रांसफेरेंसथा, निश्चित ही हम प्यारे दोस्त बन चुके थे. बल्कि प्यार की कोई गैर दुनियावी भाषा गड़ने लेने दो तो - मैं तुम्हें प्रेम करता था.
- मैं नहीं कहूंगा कि मैं डरपोक था या मुझे इस प्यार को निभाने के लिए अपनी दुनिया छोड़नी थी. तुमने ऎसी कोई डिमांड मुझसे नहीं की.
मैं कहीं नहीं जा रहा हूँ. गुलनाज़ मेरा क्लीनिक वहीं है. हमारे मिलने की जगह भी तुम जानती हो. मेरा फोन नंबर भी. बस मैं यह चाहता हूँ कि जब हम दोस्ताना हो गए हैं तो अब एक आम डॉक्टर की तरह मुझे तुम्हारे इलाज़ करने में दिक्कत आ रही है, क्योंकि मैं तुम्हें लापरवाहियां कर लेने देने लगा हूँ.
मेरा बस इतना कहना है कि अपनी भावनाओं के इस उफान को जो मुझे भी अपनी ज़मीन से बहा लिए जा रहा था, थोड़ा संभालो. यह मेरे एक बैचमेट का नंबर है वह अमरीका में लम्बे समय तक काम कर चुका स्किज़ो स्पैशलिस्ट है. उसके पास बेहतरीन और नए तरीके हैं, कि इस बीमारी  के बचे अंश भी तुम्हारे भीतर से निकाल दे. मैं तुम्हें संसार की सबसे बड़ी चित्रकार के तौर पर देखूँ. तुम मुझे गलत नहीं समझोगी मुझ से छ: महीने दूर रहने का टास्क तुम्हें दे रहा हूँ.प्यारकेसाथ मृदुल.
मुझे नाना जी की बात याद आई -  हम सब मनुष्य है, हम अपने-अपने ईश्वर बनाते हैं भरम के। हम सभी स्किज़ोफ्रेनिक हैं. हम सब अपने दिमागों के अधीन हैं.  हमारे दिमाग ईश्वरों का निर्माण करते हैं फिर हम हम उन्हीं ईश्वरों से संघर्ष करते हैं, ये ईश्वर सामूहिक स्किज़ोफ्रेनिया से ग्रसित समाजों के दिमागों को जकड़े है।!

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