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सुरेन्द्र मोहन पाठक की 'कलम-मसि'यात्रा और लोकप्रिय बनाम गंभीर की बहस

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23 जुलाई को पटना में हिंदी की दुनिया में बदलाव के एक नए दौर की शुरुआत का दिन था. निर्विदाद रूप से हिंदी के सबसे लोकप्रिय अपराध-कथा लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक पटना आये, यहाँ के पाठकों से संवाद किया. लेखक कम आये लेकिन पाठक जी जैसे लेखक लगभग साठ साल से अगर लिखते हुए अपने लेखन के दम पर अपनी विधा के शीर्ष लेखक के रूप में स्थापित हैं तो अपने पाठकों की बदौलत ही न. ‘कलम’ पटना बिहार की राजधानी पटना में एक नए तरह की शुरुआत है. लेकिन ‘कलम’ पटना और हिंदी के सुदूर क्षेत्रों तक हिंदी क्षेत्रों में हिंदी के साहित्यिक आयोजन के लिए स्थापित संस्था ‘मसि’ के लिए गया में आराधना प्रधान ने लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक को संवाद के लिए बुलाकर हिंदी में ‘लोकप्रिय’ लेखन की बदलती भूमिका की तरफ बिहार के सुधीजनों का ध्यान दिलाने का काम किया है. अगले दिन यानी 24 जुलाई को गया में जब 'मसि-कलम'आयोजन हुआ तो यह बात और उभर कर आई कि अब लोकप्रिय बनाम गंभीर से ऊपर उठकर देखने-समझने का समय आ गया है. 

पटना के कार्यक्रम में जाने माने फिल्म समीक्षक लेखक विनोद अनुपम के साथ सुरेन्द्र मोहन पाठक की बहस हो गई जिससे गंभीर बनाम लोकप्रिय की बहस फिर से शुरू हो गई जो आरम्भ से ही हिंदी में किसी न किसी रूप में मौजूद रही है. सुरेन्द्र मोहन पाठक ने श्रीलाल शुक्ल के बारे में यह कहा कि रागदरबारी जैसी कृति लिखने के बाद श्रीलाल शुक्ल ने लोकप्रिय शैली में आदमी का ज़हर’ नामक उपन्यास क्यों लिखा? उनको नहीं लिखना चाहिए था क्योंकि उनको लोकप्रिय शैली का लेखन करना नहीं आता था. असल में जनवाद, आम जन की बात करने वाले तथाकथित गंभीर लेखक लोकप्रिय साहित्य का ज़िक्र आते ही सामंती होने लगते हैं, ऐसा लगने लगता है जैसे वे ज्ञान के हाथी पर सवार हों. इसलिए हिंदी के गंभीर लेखक यह मानकर चलते हैं कि अगर श्रीलाल शुक्ल ने ‘आदमी का ज़हर’ जैसा उपन्यास लिखा तो वे उस विधा का परिष्कार करना चाहते थे जबकि सुरेन्द्र मोहन पाठक और उनके जैसे अन्य लेखक लिखें तो वह पतनशील लेखन है.

हिंदी में जासूसी धारा के साहित्य को पतनशीलता के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा है. गोया जो गंभीर साहित्य है वह अपने पाठकों में उच्च संस्कार भर देता है जबकि लोकप्रिय साहित्य मूल्यहीनता के संस्कार पैदा करता है. जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी समाज पर साहित्य का कोई प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं देता है. न वह गंभीर लेखकों की पूजा करता है न ही वह अपने लोकप्रिय लेखकों को हिकारत से देखता है.

सुरेन्द्र मोहन पाठक तकरीबन साठ साल से लिख रहे हैं और तकरीबन 300 उपन्यास लिखने के बाद भी न उनकी ऊर्जा कम हुई है न ही नए नए आइडियाज़ को लेकर लिखने का उत्साह. एक सवाल के जवाब में उन्होंने बड़ी अच्छी बात कही कि उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश यही है कि जिंदगी के आखिर तक वे लिखते रहें. हर लेखक की यही ख्वाहिश होती है. अब समय आ गया है कि लेखक और लेखक के बीच के इस विभेद से अलग हटकर साहित्य को उसकी सम्पूर्णता में देखा जाए. असल में लोकप्रिय साहित्य गंभीर साहित्य का हमजाद है. दोनों की विरासत साझी रही है, पाठक साझे रहे हैं और हिंदी में बड़े पाठक वर्ग के निर्माण में उनकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है.

खुद को नायक मानने के लिए सुरेन्द्र मोहन पाठक को खलनायक के रूप में देखा जाना उचित नहीं है. जिस लेखक की हिंदी में सबसे अधिक व्याप्ति हो वह हमारे खारिज किये जाने से खारिज नहीं हो जाता.

‘कलम-मसि’ यात्रा हो सकता है आने वाले समय में लोकप्रिय लेखन के मूल्यांकन की नई ज़मीन तैयार करे. 
-प्रभात रंजन 

सुरेन्द्र मोहन पाठक क्यों हिंदी लोकप्रिय लेखन के शिखर हैं?

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जब मैं यह कहता हूँ कि सुरेन्द्र मोहन पाठक हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखक हैं तो उसका मतलब यह लिखना नहीं होता है कि वे हिंदी के सबसे अच्छे लेखक हैं, सबसे बड़े लेखक हैं? लेकिन यह जरूर होता है कि हिंदी में जो लोकप्रिय लेखन की धारा है वे संभवतः उसके सर्वकालिक सबसे बड़े लेखक हैं. यह कहने के के कई कारण हैं हैं, कई तर्क हैं. हम बरसों लुगदी लेखक कहकर सभी लोकप्रिय लेखकों को एक कैटेगरी में रखते आये हैं, सबको खारिज करते आये हैं. लेकिन जब से हिंदी में गद्य लेखन की परम्परा है तब से कुछ लेखक दूसरे कुछ लेखकों को कमतर बताते आये हैं ताकि खुद को या कुछ अन्य लेखकों को बेहतर कह सकें. बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में सबसे लोकप्रिय लेखक पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ को उनकी कहानी ‘चॉकलेट’ के आधार पर घासलेटी साहित्य लेखक कहा गया.

हिंदी में लोकप्रिय लेखन की धारा में दो तरह के उपन्यास मूल रूप से लिखे गया- जासूसी और रोमांटिक. कुशवाहा कान्त, गुलशन नंदा, ओम प्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत, रानू, वेद प्रकाश कम्बोज, वेद प्रकाश शर्मा के साथ सुरेन्द्र मोहन पाठक को इसके अग्रगण्य लेखकों में माना जाता है. लेकिन पाठक जी ही शिखर लेखक हैं. इसका एक बड़ा कारण है उनकी निरंतरता. उनकी पहली कहानी 1959 में प्रकाशित हुई थी. आज 57 साल बाद तकरीबन 300 उपन्यासों को लिखने के बाद भी वे निरंतर नए-नए आइडियाज़ पर काम कर रहे हैं. यह सक्रियता सिर्फ कारोबार के कारण नहीं है बल्कि अपने अपने पाठकों के प्रति वह प्यार है जो उनको निरंतर सक्रिय बनाए हुए है. पटना ‘कलम’ के आयोजन में उन्होंने कहा था कि उनकी सबसे बड़ी खवाहिश यही है है वे जीवन के आखिर तक लिखते ही रहें. लोकप्रिय लेखन की धारा में इतना लम्बा करियर किसी और लेखक का नहीं हुआ. मेरे अपने विचार से और अपनी पसंद से गुलशन नंदा हिंदी लोकप्रिय लेखन के शिखर हो सकते थे लेकिन वे इस दुनिया से जल्दी चले गए. इसी तरह मेरे प्रिय ओमप्रकाश शर्मा भी जल्दी चले गए. बहरहाल, लगातार 60 साल तक लिखने वाला इस विधा में दूसरा कोई लेखक नहीं हुआ.

आज अगर साहित्यिक आयोजनों में, लिटरेचर फेस्टिवल्स में लोकप्रिय लेखक के बतौर अगर सुरेन्द्र मोहन पाठक पहली पसंद हैं तो इसके पीछे यही कारण है कि उनकी व्याप्ति बड़ी है. वे अकेले लेखक हैं जिनके प्रशंसक पुरानी और नई दोनों तरह की पीढ़ी में हैं और लगातार बढ़ रहे हैं. आज ऐप बेस्ड बाज़ार में डेलीहंट ऐप पर उनकी सबसे अधिक किताबें मौजूद हैं. इस ऐप से अधिकतर युवा अपने एंड्राएड फोन में किताब डाउनलोड करके पढ़ते हैं. यह बात कम लोग ही जानते हैं कि इस ऐप से भी सबसे अधिक उनकी किताब ही पढ़ी जा रही है. पिछले एक साल में उनकी सिर्फ डेलीहंट से 40 लाख की रोयल्टी मिली है जो अपने आप में यह बताती है कि उनकी लोकप्रियता कितनी है.  

सुरेन्द्र मोहन की व्याप्ति का एक बड़ा कारण यह भी है कि उन्होंने लगातार नए नए आइडियाज़ को लेकर रिसर्च किया है, उनको आधार बनाकर लेखन किया है और उनके उपन्यासों में कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो अश्लीलता का पुट न के बराबर होता है. इस मायने में उनकी तुलना सिर्फ इब्ने सफी से की जा सकती है जिन्होंने उर्दू में अश्लीलता बिना मनोरंजन को ध्येय बनाकर ही जासूसी लेखन शुरू किया.

सुरेन्द्र मोहन पहले लेखक हैं जिन्होंने हिंदी की लोकप्रिय धारा के लेखन को ‘लुगदी’ के विशेषण से मुक्त करवाया. उनके उपन्यास हार्पर कॉलिन्स जैसा अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशक छापता है. यह नसीब किसी और पौकेट बुक लेखक को नसीब नहीं हुआ.

इन्हीं कारणों से वे हिंदी में लोकप्रिय लेखन के शिखर की तरह लगते हैं. सबसे अच्छे नहीं, सबसे कामयाब नहीं, लेकिन शिखर लेखक. सुरेन्द्र मोहन पाठक एक फिनोमिना हैं, जिनके मुक़ाबिल कोई और लेखक नहीं लगता है.


वे पतनशील मानी जाने वाली विधा के एक अमर लेखक हैं! 

नामवर सिंह का सम्मान हिंदी का सम्मान है!

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मुझे याद आ रहा है कि एक बार ‘कथादेश’ पत्रिका के एक कार्यक्रम में उत्तर-आधुनिक विद्वान सुधीश पचौरी ने नामवर सिंह को हिंदी का अमिताभ बच्चन कहा था. आज नामवर सिंह के 90वें जन्मदिन के दिन यह कथन याद आ रहा है तो यह भी याद आ गया कि चाहे अमिताभ बच्चन हों या नामवर जी दोनों को उनका उचित सम्मान भगवा शासन काल में ही मिला. जबकि दोनों का भगवाधारियों से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं था.

जिस तरह से जगदीश्वर चतुर्वेदी और कुछ अन्य विद्वान् इस बात का स्यापा कर रहे हैं कि भाजपा शासनकाल में किसी संस्था द्वारा नामवर सिंह का जन्मदिन क्यों मनाया जा रहा है. वे शायद यह जानना भी नहीं चाहते कि इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र हिंदी के विद्वानों का सम्मान करती रही है. उसकी एक राष्ट्रीय व्याख्यानमाला आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के नाम पर हर साल आयोजित की जाती है. अगर वह संस्था नामवर जी का जन्मदिन मना रही है तो इसके ऊपर आपत्ति क्यों होनी चाहिए? नामवर जी हिंदी की सबसे बुलंद इमारत हैं क्या उनके जन्मदिन को कम से कम हिंदी सेवी संस्थाओं को उत्सव की तरह नहीं मनाया जाना चाहिए?

न जाने कितनी संस्थाएं नामवर जी ने बनाई, कितनी संस्थाओं में उन्होंने कितने लोगों को पहुंचाया- आज किसी को नामवर जी की याद आती है? भगवा का डर दिखाकर सेक्युलर सेक्युलर का खेल खेलने वाले कुछ तथाकथित सेक्यूलरवादियों से वे बहुत बड़े हैं. वे कभी इस नेता या कभी उस नेता से सेक्युलर राजनीति में अपना हिस्सा मांगने के लिए नहीं जाते. उनके दीर्घ जीवन में ऐसा कोई उदहारण नहीं मिलता.

क्या यह बड़ी बात नहीं है कि नामवर जी रचनात्मक लेखक नहीं हैं, वे एक अध्यापक-आलोचक रहे लेकिन हिंदी समाज में सभी धडों में जैसी व्याप्ति उनकी रही वैसी शायद ही किसी की रही. मुझे याद आता है जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पढने आया था. पहली छुट्टी में जब मैं घर गया तो मेरे एक चाचा ने, जो रेलवे में स्टेशन मास्टर थे, मुझसे पूछा कि जेएनयू में नाम लिखाया कि नहीं. मैंने कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में. उन्होंने थोड़ा दुखी होते हुए कहा था दिल्ली में हिंदी पढने गए हो तो नामवर सिंह से पढना चाहिए था.

नामवर सिंह होना इतना आसान नहीं होता. पिछले 30 सालों में मैंने बहुत विद्वानों को नामवर सिंह होने की कोशिश करते देखा. कई लोगों ने सत्ता उनसे अधिक हासिल कर ली लेकिन वह व्याप्ति कहाँ से लाते? मोदी के खिलाफ दो कविता लिखकर सेक्युलर होने के इस दौर में नामवर सिंह का महत्व समझ में आता है. यह विडंबना भी कि हिंदी में आपका व्यक्तित्व कितना भी बड़ा क्यों न हो? आपने कितने भी बड़े बड़े काम क्यों न किये हों? आपने कितने ही लोगों का ‘कल्याण’ क्यों न किया हो? जब तक आप सत्ता में रहते हैं तभी तक आपकी पूछ रहती है. नामवर सिंह इसके अपवाद हैं. वे हिंदी की सबसे बड़ी सत्ता हैं. आज भी उनके सर्टिफिकेट के लिए सब लालायित रहते हैं. नामवर जी का जन्मदिन एक विराट साहित्यिक उपस्थिति का उत्सव है. उनके होने में हमारा होना है.

जैसे सुपरस्टार तो बहुत हुए लेकिन कोई दूसरा अमिताभ बच्चन नहीं हो सकता उसी तरह बहुत से सत्ताधारी वाजपेयी, पुरुषोत्तम, पचौरी हुए लेकिन इनमें से कोई भी नामवर जी की परछाईं तक भी नहीं पहुँच सका, नहीं पहुँच सकते.

इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र की यह पहल ऐतिहासिक है कि उसने हिंदी के सबसे बड़े आइकन के 90 साल के होने को उत्सव की तरह मनाने का निर्णय लिया है. क्या हमें अपनी भाषा के सबसे बड़े पोस्टर बॉय का जन्मदिन राष्ट्रीय उत्सव की तरह नहीं मनाना चाहिए? या उनको ढेलमरवा गोसाईं की तरह पत्थर मारने चाहिए!

नामवर के होने में हमारा होना है! उनका सम्मान हमारा सम्मान है. कुछ कद. कुछ व्यक्तित्व राजनीति से ऊपर होते हैं, होने चाहिए. कृपया उनको अपनी अवसरवादी राजनीति के नजरिए से नहीं देखिये!  


मध्यवर्ग का क्या है? सोते में posture बदलता है, जागते में पंथ!

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नॉर्वेवासी डॉक्टर-लेखक प्रवीण कुमार झाको जितना पढता हूँ उनका मुरीद होता जाता हूँ. जैसे उनकी यह चिट्ठी ही पढ़ लीजिये. क्या सेन्स ऑफ़ ऑब्जर्वेशन है- मॉडरेटर 
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हर व्यक्ति एक खास आकार में सोता है।

ग्राम-दलित ताड़ी-देशी में धुत्त, एक ताबूत में लाश की तरह अपने आपको सिकोड़ लेते हैं। सर के नीचे गठरीनुमा गमछा और टागें फौजियों की तरह सीधी। कभी-कभी यीशू की तरह टखने के ऊपर टखना, और हाथ मुड़कर छाती पर। निश्चल-निरीह। अब कोई सामंत आये और पिछवाड़े पर लात मार उठाए या शहर के फुटपाथ पर कोई चुपके से कुचल जाये।

इन्ही दलितों में कुछ अब pugilistic यानी मुक्केबाज-मुद्रा में सोने लग गए हैं। दोनों मुट्ठियाँ कसी हुई छाती से आगे की तरफ। कमर से टाँगे थोड़ी मुड़ी हुई, और चेहरे पर एक अजीब सी शिकन। हवाई-चप्पल सर के पास या कभी गमछे के नीचे। कुत्ते जैसी श्वान-निद्रा। कि कुछ आहट हो, झट चप्पल उठाएँ और लपक कर भाग लें।

सर्वहारा वर्ग थोड़ा 'सीजनल'है।

ठंड में रफू किये कंबलों में ''आकार में सिकुड़े, और भीषण गर्मियों में 'H'आकार में दोनों हाथ-पैर चित्तंग पसारे। ठंड में हाथ कंबल को यूँ भींच कर रखते हैं, जैसे कब कोई खींच ले! वहीं गर्मी में बनियान तोंद से ऊपर, पसीने से तरबतर, हाथ में हथकंघा, और टाँगों पर मच्छरों की टी-पार्टी! पुरूष हो या स्त्री। सब के सब चित्तंग। असल में मुद्रा कोई भी हो, ये वर्ग सो नहीं पाता।

आप वर्ग बदलना चाहते हैं, सोने की मुद्रा आज ही बदल लें। 'सोने की मुद्रा'मतलब sleeping posture.

चेहरे पर हल्की मुस्की लाएँ। स्लीपिंग-गाउन डालें और दोनों टाँगों के बीच तकिया घुसेड़ लें। सिरहाने पर आधी-खुली किताब। कुछ इत्र की खुशबू। और स्प्रिंग-बेड पर वजनानुसार गड्ढा, जिसमें आप हल्का-हल्का उछलते रहें। अलार्म लगाकर हल्की भक्क खोलें, और पूरा उठने के लिये ग्रीन-लीफ चाय या प्रेम-चुंबन में चयन कर लें।

मुझे पता है, आप में से कई बीच का रस्ता निकालेंगें। गद्देदार बिस्तर में आपकी कमर मुड़ जाती है। वर्ग-हॉपिंग में आपको spondylosis जो हो गया है। मटमैले पायजामें में सोएँगें, और पेट पर खुजली करते आधी नींद में उठेंगें। बच्चे स्कूल को तैयार हो रहे हैं, बाथरूम से पानी बहने की आवाजें आ रही है, गाड़ियों की चिल्ल-पों हो रही है। आप अखबार उठाते हैं। कहना मुश्किल है, किचन में चाय ज्यादा खौल रहा है या सोफे पर अखबार पढ़ते आपका खून?


मध्यवर्ग का क्या है? सोते हर दिन posture बदलता है, जागते हर दिन पंथ।

प्रेमचन्द के नाम शहरी बाबू की पाती

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धर्मग्रंथों के बाद हिंदी में सबसे अधिक उनकी रचनाएँ पढ़ी गईं और धार्मिक कथा-लेखकों-कवियों के बाद वे हिंदी समाज के सबसे अधिक समादृत लेखक हैं. मुझे उनके लेखन से अधिक उनका लेखकीय व्यक्तित्व प्रभावित करता है, प्रेरित करता है. वे कुछ और नहीं थे लेखक थे, प्रेमचंद लेखन  के माध्यम से कुछ और हासिल नहीं करना चाहते थे लेखन को ही जीना चाहते थे. प्रेमचंदने सिर्फ 56 साल का जीवन जिया लेकिन लेखन, संपादन के क्षेत्र में वे जो रच गए हिंदी आज तक उस हद से बाहर नहीं निकल पाया है. वे साधारण के सबसे असाधारण लेखक थे. आज प्रेमचंद की जयंती पर नॉर्वेवासी डॉक्टर-लेखक प्रवीण कुमार झाने उनको अपने निराले अंदाज़ में याद किया है- मॉडरेटर 
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कब शहरी बाबू बन गया, खबर ही न हुई। सालों बाद जब हवेली के बाहर स्कोर्पियो लगाई, आँखें रामधन मल्लाह को ढूँढ रही थी। अब तो वो आँवला का पेड़ भी नहीं रहा जिसके नीचे हम गुल्ली-डंडा का खेल खेलते। एक दिन हल्कू बढ़ई ने चौखट की बची-खुची लकड़ी से अंग्रेजी 'बैट'भी बना डाला, और हम क्रिकेट खेलने लगे। खेलने क्या लगे, हम बस गेंद फेंकते और रामधन बैट घुमाकर छक्के-चौके मारता। बभनटोली के सारे लड़कों के छक्के छुड़ा दिये थे इस मल्लाह ने।

कहते हैं मियाँदाद के छक्के के बाद चेतन चौहान कभी ठीक से खेल नहीं पाए। मैं भी कभी ढंग से क्रिकेट नहीं खेल पाया।

"कहाँ है आजकल ये रामधन मल्लाह?"

"जब से दारूबंदी हुई, पड़ा रहता है ताड़ीखाने में।"

"कल भेजना। कहना डॉक्टर साब क्रिकेट खेलेंगे।"

आपने प्रेमचंद पढ़ा हो या न पढ़ा हो, खेल का हश्र आपको पता ही होगा। रामधन गेंद डालता रहा, और मैं डिविलर्स की तरह चहु-दिशा में छक्के मारता रहा। शौकिया समाजवादी हूँ। पैरों के नीचे गर्दन दबाने का शौक नहीं। रामधन है कि खामख्वाह सहला रहा था। मेरा मन बहला रहा था। मैनें भी खुश हो कर १०० रूपये पकड़ा दिये। खबर मिली अगले दिन जुए में हार गया।

रामधन तो खोटा सिक्का निकला। यादवों का वर्चस्व आया, तो फगुनी यादव की भैंस पर इनवेस्टमेंट की सोची। दूध के कारोबार में सुना था खरा नफा है। पर भैंस बँधेगी कहाँ, और हिसाब कौन रखेगा? दद्दा अड़ गए, ब्राह्मनों के बथान में गाय जितनी बाँधनी है बाँध लो, भैंस न बँधेगी। दखिनटोली श्राद्ध में अभी-अभी गोदान हुआ है, गाय तैयार है। फगुनी को कह दो, गाभिन कराकर दूध का धंधा कर ले। बड़ी मिन्नतें करी, पर फगुनी का गाय में कोई इंटरेस्ट नहीं। गोबर ज्यादा दे, दूध रत्ती भर नहीं। बड़ी मगजमारी है।

"कहो तो गोदान की गाय ठुकरा दी फगुनी ने! पंचायत लगा कर हुक्का-पानी बंद करा दूँ?"दद्दा भड़के।

"अरे क्या बंद कराओगे? फगुनी का बेटा गाँव की चमकी को भगा ले गया शहर, तब तो कुछ न कर पाये! हाथ पर हाथ धरे रह गए।"

"हाँ जी। छोड़ो, कौन बेइज्जती कराए? यादवों का ही तो राज है।"

प्रेमचंद के 'फौलोवर'लोगों! होरी भी कैपिटलिस्ट और मॉडर्न बन गया। गाय और भैंस में फर्क समझने लगा। कौन गोबर ज्यादा देती है, और कौन दूध? ऊपर से भैंस की कोई 'सर्वेलेंस'भी नहीं। जहाँ मरे, वहीं त्याग दो।

फगुनी यादव और उसके बेटे से मुझे कोई शिकायत नहीं। मेहनत की कमाते हैं, और आज भी 'मॉडेस्ट'सलाम ठोकते हैं। चमकी को भगा तो ले गया, पर रानी बना कर रखता है।

दूबे जी के बेटे को देखो, पूरा डुप्लीकेट। झूठे तगमे दिखा कर सिंह जी की बेटी फांस लाया। अपूर्व सुंदरी और पिता की अकूत संपत्ति की इकलौती वारिस। हाकिम बोल कर फाँसा, और है बैंक में किरानी। प्रेमचंदजी की कसम, अब गबन न करे तो क्या करे भला? मासिक वेतन से क्या होगा? आप ही न कहते थे, वो तो पूरनमासी की चाँद की तरह घटता जाता है। खूब लूट-पाट मचाई, विजिलेंस दरोगा पकड़ कर ले गया। सिंह जी की बेटी सिंहनी बन गई थी।

"मेरे पिता के चार पेट्रोल पंप हैं शहर में। बड़े-बड़े हाकिम सलाम ठोकते हैं। तुम्हें क्या पड़ी गबन करने की?"

"तुम्हें सुख देना चाहता..."दूबे बुदबुदाया।

"अरे भाड़ में जाए ऐसा सुख!"

अब बड़े घर की बेटी की बात ही कुछ और है। बाप से फोन घुमवाया। दूबे बाहर। अब तो बड़ा बाबू बन गया है, पे कमीशन के एरियर से सुना है, बड़ा बंगला बनवा लिया।

सारांश ये है, जो मिले उसी में खुश रहो। मेरे बाबू जी कहते हैं, ज्यादा फुर-फाँय मत करो। हम भी पिछले मैरेज-एनिवर्सरी में चिमटा गिफ्ट कर आए। मुँह फुलाए बैठे हैं।







सुश्री श्री श्री की कविताएं

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कुछ कवियों, कुछ कविताओं को पढना आध्यात्मिक सुकून देता है. सुश्री श्री श्रीका नाम छद्म है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है. कविताओं में ताजगी है. रूह तक उतर जाने वाली. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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1

बचपन में हर एक चीज को पाना बहुत कठिन था मेरे लिए।

जबकि सिलाइयाँ चलाते हुए
मेरी उम्र की ईर्ष्या से मैं हार जाती थी।
अपनी छोटी चाहतों में मैं अक्सर खाली रहती थी।
मेरे गायन-वादन सुगंधहीन और आहत थे।

यहाँ तक कि मेरा पसंदीदा
सफेद फूल वाला पौधा भी
मुझे दुःख में ताकता था।
सफ़ेद से नाता था तो वो केवल तारें थे
जो ठीक मेरे सर के ऊपर उगते थे हर रात।

एक सुराही जो रहस्यमय हो जाती थी रात को।

मेरी फुसफुसाहट के मोरपंखी रंग
उसके मुंह से उसके पेट में चले जाते थे।

माँ कहती ये सुराही रात में ही खाली कैसे हो जाती है?
मेरा अवचेतन अपने मुँह को दबाकर
हँसने की दुविधा को
पूरी कोशिश से रोकता था।
मैं कहना चाहती थी जो काम तुम नहीं करती
वो सुराही करती है मेरे लिए।

स्वप्न जो स्वप्न में भी एक स्वप्न था।

मेरे बचपन में भटकता था वो स्वप्न अक्सर।
खिड़की से झांकता
छिपकली की पूंछ से बंधा
उस दीवार पर मेरे साथ तब तक चलता
जब तक मैं ऊंचाई का अंदाज़ा नहीं लगा लेती थी।
मुझे नहीं पता था कि मृत्यु ऐसे ही मोड़ पर किसी जोकर की तरह मुग्ध करती है हमें।

बेहोशी से पहले।

मेरी कल्पनाएं भयभीत होकर निढाल होना चाहती थीं।
मुझे घर के सब रंग पता थे।
फिर भी
मैं उन्हें किसी और रंग में रंगना चाहती थी।
किसी ऐसे रंग में जिसमें पिता के दुष्चरित्र होने की जंगली खुम्ब सी गंध न हो।
न हो उसमें माँ की वहशी नफरत पिता के लिए।

सारे तारे जब सो जाते तो जागता था एक साँप और परियाँ।

तीन पहर मेरी कल्पनाओं के और चौथा पहर
मेरी अस्तव्यस्त नींद का।
जागने और सोने के बीच का
वो असहाय और बेचैन पल
जब मुझे दिखायीं देती थीं
आसमान में उड़ती परियाँ
और छत पर बेसुध पड़ा एक बांस का डंडा
जो हर रात
एक साँप में तब्दील हो जाया करता था।

डर ज़रूरी था मेरी नींद के लिए।

डर बहुत ही आसानी से चले आने वाला
एक शब्द था मेरी स्मृतियों के लिए।

स्मृतियां, जिनमें भूखे कुत्ते
अपनी काली आत्मा के लाल होंठो से
नई कच्ची छातियाँ चूसते थे।

स्मृतियां,जिनमें ज़िस्म पर चलते
लिसलिसे केंचुएं थे।
जिन्हें भीड़ में सरक कर नितम्ब छूना
किसी हसीन दुनिया में स्खलन करने सा लगता।

अनजानी ग्लानियों के पार जाने का कोई पुल नहीं होता।

होता है तो केवल वो क्षण जिसे जीते हुए
हमें याद आते रहें पिछले पाप।
पापों से गुज़रना सरल है
लेकिन सरल नहीं है उनको सहेज कर रखना।

दो दुनिया चलती रही मेरे साथ।

दो आसमान और दो सितारे भी।
अब तक कितने ही बिम्ब और उपमाएं
चली आईं कविता में।
लेकिन मैं सोचती हूँ
कितनी बड़ी कीमत चुकाई है मेरी स्मृतियों ने बचपन खोने में।

हम अक्सर चूक जाते हैं
उस अपरिहार्य पल को चूमने से।
जिसके आँसू पर हम बेरहमी से रख देते हैं अपने जूते।



 2

प्रेम की भी चेतना होती है।

और तब-तब परिष्कृत होती है
जबजब वो निर्दोष होती जाती है।
हर क्रिया के बाद ।
यह भी तब जब प्रेम के आकाश पर
हमारी रुह छील चुकी होती है खुद को भी।

तुम्हारे लिये।
तुम्हारे ही शब्दों की धरती पर कदम रखती हूँ हमेशा।

चिन्ह मात्र का भेद नहीं।
खुलती हैं बेड़ियाँ अभद्रता की।
शिष्टाचार में जागती है आत्मा।

जब छूते हैं तुम्हारे पाँव
मेरे रोम-रोम का आह्वान।
मेरे इष्ट।

और तब भी
जब मेरा प्रेमी चूमता है
प्रार्थना में उठी मेरी हथेलियों को।

पीडा उठती है प्रसव की।
जानती हूँ,यह मध्यस्थता है देह और आत्मा की।

हज़ारों तारे टूटते हैं एक साथ
जब-जब जन्मती है कृतज्ञता।
मेरे प्रेमी और इष्ट के बेपनाह प्रेम से।

यह जागृति एक नशा है प्रेत छायाओं का।
जिन्हें यथार्थ के हाथ
स्वप्न के श्रद्धालुओं से ले आते हैं
स्पर्श की रोशनी में।

और समय ने यहां भेजा तुम्हें आज
मुझे संबंध बताने को।
ईश्वर और मोमबत्तियों का।


3

एक सितारा
जब अपने अंतिम समय में होता है
तो वह किसी ऐसी लड़की की तलाश करता है
जो तिरस्कृत हो
अपने कुओं से
पीढ़ियों पुरानी चक्की से
साबुत बाल्टी और साबुन से।

जिसने हुनर गढ़ लिया हो
फर्श साफ़ करने का
हिजाब ओढ़ने का।
जिसके पास इतना भी अकेलापन न हो
कि वह कर सके हस्तमैथुन
बिफर सके खुद पर।
सहला सके अपनी मादकता।

जिसके हिस्से आये वो आखिरी रोटी
जो थकान से टेढ़ी-मेढ़ी हो।
जिसके पास फन वाला एक साँप हो।
जो मुँह अँधेरे
नहाती हो नग्न तालाब पर जाकर।
लपेटती हो साँप को अपनी कमर के इर्द-गिर्द।

कत्थई रंग में दिखती हो जिसकी जाँघें
भरी और गूदेदार।
अजंता-एलोरा की कामुक प्रतिमा सी।

जिसकी देह से फूटे
अनार या अंगूर की खमीरी गंध।
जो बन रही हो धुंआ
धीरे-धीरे।



4

उम्र से ऊबे लड़के
नहीं जान पाते अपना आकर्षण।
न देख पाते अपनी प्रेयसी को
उनके प्रेम में डूबी घुटनों तक।
वे नहीं जान पाते कि उनकी उम्र का भरना
पिता बनना है उनके लिए।

अलसभोर में अंगड़ाई लेते शहतूती लड़के
जब देखते हैं अपने जीवन का
प्रथम जज़्बाती स्वप्न।
तो नही देख पाते खुद को
उस अग्नि में तपता
जिसमें से उनके साथ लौटता है
जीवन के उल्लास का आनंद
उनकी छाती के बालों के साथ उगता।

प्रेम,स्वप्न और लॉटरी से हारे कुछ लड़के।
रेल की पटरियों पर सुनते हैं
एक गरीब सी धुन।
और मान लेते हैं उसे
अपनी आत्मा की आवाज़।
पटरी पर रख सिक्के को चपटा कर
उनसे दुआ मांगने की नेक सलाह पर
अमल करते हैं गैंदे के फूलों से पूज कर उन्हें।
जब वो सोते हैं
रात के दूसरे पहर की पक्की नींद में
तो कसम से,शुदाई लगते हैं।

खुद के चारों ओर कांच की दीवार बनाये लड़के
नहीं जानते कि सबसे सरल है
उनके भीतर देखना।
कि मन टटोलने के लिए
ज़रूरी पारदर्शिता तो खुद ही बनाई है उन्होंने।

उपेक्षा की तलवार पर छलनी हुए लड़के।
खुल कर हँसना छोड़ जब कोशिश करते हैं
शून्य में देखने की।
तो उनके धैर्य में होती है
एक संतुलित क्रांति।

लड़के फिर भी कभी अकेले नहीं होते।
और जो होते हैं
वे जानते हैं सपनों को जीना।
उनके पूरे होने की अनिवार्यता में
वे कभी मरते नहीं।
न पहनते हैं दस्ताने किसी सपने को मारने के लिए।


5

वे अटल सूर्य थे।
जो बिना सोचे तुम्हारे रेखा-चित्र में
कुछ सफेद घोड़े
और उपनिषदों की शांति उतार देते थे।

तुम्हारी आँखों में स्वप्न की दीप्तियाँ थीं
लेकिन यह भी सत्य था
कि अपना कोई अर्थ नहीं था उनका।
वे मेरी असहाय पीड़ा थीं।
मैं जानती थी, कोई नश्वरता है।
जो एक नग्न सत्य बन
तुम्हारा फलीभूत वनैलापन पीती है।

लेकिन मैं यह नही जानती थी
कि काल परिवर्तन के साथ
तुम एक स्मृति में बदल जाओगे
और मैं वहीं थमी रह जाऊंगी।


6

मेरे बिंदुओं को
ठीक उसी नक्श पर छूती है ये लाल रेखा
जहाँ मेरा एक सपना जन्मा था।

और ये काली रेखा
उस अतीत की चश्मदीद गवाह है
जो मेरी डायरी के पन्नों पर
अपना सामान बांधे बैठी है।

पीली रेखा की तीखी मुस्कान तो देखिये ज़रा
यह शरारती है।
कही से भी मुझे उकेर देती है
एक बेतुकी बाँसुरी ने
कितना बिगाड़ा है मेरा मिज़ाज।
कहीं से उगती है ऊब स्याह सी
कहीं से बजता है जलतरंग का चिथड़ा।

मेरी जबान नमक का पैबंद है।
जिसे फ्रीडा के तीर लगे
स्वप्नीले  पोर्ट्रेट ने एक भद्दे मज़ाक में
उस रंग में घोल दिया था
जिससे उसके खून को रिसते हुए दिखाना था।

देह नहाती है पानी से तो आत्मा भीगती है
और अगर आत्मा नहाती है पानी से
तो देह के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।

केवल एक स्वप्न बदल सकता है
सारी हक़ीक़त को।
मगर उस स्वप्न की तीन तहों में जाने का साहस
वो ही कर पाते हैं
जो नाकारा होते हैं।
और साइकेट्रिस्ट खोज निकालते हैं
एक जादुई नाम का कोई सिंड्रोम।


7

नृत्य की कोई भाषा नहीं होती।
नृत्य एक निर्णय होता है
स्वयं के पुनरुद्धार का।
विस्मृति की भीड़ को
पूजने मात्र का एक तरीका।

या केवल एक रस्म भर।
जिसे निभाने पर भर जाती हैं
आस-पास की अस्वीकृतियाँ
हमारी स्वीकृत सत्ता से।
हमारे अपरिचित ईश्वर से।
जो तभी गढ़ता है
जब हम थाप देते हैं हृदय की ज़मीन पर।
और तब तक देते हैं
जब तक तलुवे रक्तिम नहीं हो जाते।

जब तक यह निर्णायक उत्सव चलता है
तब तक हम नकारे जाते रहते हैं।
हमारी प्रजातियां कोसी जाती रहती हैं।
हमारे द्वंद्व आधी लड़ाई के बाद
हारे हुए माने जाते रहते हैं।
धार्मिक सत्य हमारी आत्मा को
परम गति से लहूलुहान करते जाते हैं।

जीवन एक निष्फल,अप्रीतिकर चीत्कार में
अपनी बौद्धिक पूर्णता के बावजूद
मृत बिल्ली समान लिथड़ा रहता है
अपनी खूनी आँतों में
ईश्वर की प्रार्थना में आँखे बंद किये।

हम जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं
नृत्य की आखिरी थाप तक।
एक ज़रूरी शर्त को पूरा करते हुए।

अपने उस हिस्से को दोबारा रचते हुए।
जो सदा अधूरा रहना चाहता है।


 8

जिस समय मैं जन्म ले रही थी
ठीक उसी समय मृत्यु मेरे पास खड़ी थी।

जिस समय मैं हँस रही थी
ठीक उसी समय कोई वेदना मेरे ज़िस्म पर लहर बना रही थी।

एक क्षण आँखें खुलती हैं।
धूप,मौसम और अस्तित्व की मुद्राएं देखती हैं।
और दूसरे क्षण अपने भीतर की गुफा में गुदे भित्तिचित्र देखने लगती हैं।

मेरी आँखें
उन स्तूपों पर लिखे चिन्ह
आसानी से पढ़ लेती हैं
जिन्हें भार रहित होकर मैं देख सकती हूँ
अपने किसी भी जन्म से।

उन संस्कृत शब्दों के उच्चारण में
मेरी आत्मा झीनी हो जाती है
जिन्हें मेरे पुरखों ने सिंध नदी के किनारे उच्चारित किया होगा।

जन्म और मृत्यु की स्मृतियों के मध्य
एक युद्ध लगातार मुझे थकाता रहता है।
और एक पारदर्शी बूढ़ी स्त्री
हर रात
मेरी खिड़की पर एक दिया जला जाती है।

9

तुम इतने बोधगम्य हो
जैसे समाधिस्थ बुद्ध के पास पड़ा एक कामनाहीन पत्ता।

मैं तुम्हारे प्रेम में
अपनी सब कोमल कवितायें
वो विनम्र पत्ते बना दूँगी जो अपने पतन को पूर्व से जानते हैं।

मैं ख़ुद को क्षमा कर दूँगी।

शुभम श्री की भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त कविता "पोएट्री मैनेजमेंट"

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शुभम श्रीकी कविता पर पहली बार बहस नहीं हो रही है. उसकी कविता 'बुखार, ब्रेक अप आई लव यू'को लेकर भी लम्बी बहस चली थी. जो कवि कविता के प्रचलित शिल्प में तोड़फोड़ करता है उसकी कविताओं को लेकर बहस होती ही है. हिंदी में तो निराला की कविताओं को भी देर से स्वीकृति मिल पाई थी. शुभम की इस कविता का नैरेटिव आख्यांनपरक है और उत्तर-आधुनिक शिल्प पैरोडी का बेहतरीन इस्तेमाल कविता में दिखाई देता है. कविता की जड़ता को तोड़ने की एक काव्यात्मक कोशिश के विरोध की नहीं उसको समझने की कोशिश की जानी चाहिए. जानकी पुल की ओर से इस कवयित्री को बधाई- मॉडरेटर 
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कविता लिखना बोगस काम है !
अरे फ़ालतू है !
एकदम
बेधन्धा का धन्धा !
पार्ट टाइम !
साला कुछ जुगाड़ लगता एमबीए-सेमबीए टाइप
मज्जा आ जाता गुरु !
माने इधर कविता लिखी उधर सेंसेक्स गिरा
कवि ढिमकाना जी ने लिखी पूँजीवाद विरोधी कविता
सेंसेक्स लुढ़का
चैनल पर चर्चा
यह अमेरिकी साम्राज्यवाद के गिरने का नमूना है
क्या अमेरिका कर पाएगा वेनेजुएला से प्रेरित हो रहे कवियों पर काबू?
वित्त मन्त्री का बयान
छोटे निवेशक भरोसा रखें
आरबीआई फटाक रेपो रेट बढ़ा देगी
मीडिया में हलचल
समकालीन कविता पर संग्रह छप रहा है
आपको क्या लगता है आम आदमी कैसे सामना करेगा इस संग्रह का ?
अपने जवाब हमें एसएमएस करें
अबे, सीपीओ (चीफ़ पोएट्री ऑफ़िसर) की तो शान पट्टी हो जाएगी !
हर प्रोग्राम में ऐड आएगा
रिलायंस डिजिटल पोएट्री
लाइफ़ बनाए पोएटिक
टाटा कविता
हर शब्द सिर्फ़ आपके लिए
लोग ड्राइँग रूम में कविता टाँगेंगे
अरे वाह बहुत शानदार है
किसी साहित्य अकादमी वाले की लगती है
नहीं जी, इम्पोर्टेड है
असली तो करोड़ों डॉलर की थी
हमने डुप्लीकेट ले ली
बच्चे निबन्ध लिखेंगे
मैं बड़ी होकर एमपीए करना चाहती हूँ
एलआईसी पोएट्री इंश्योरेंस
आपका सपना हमारा भी है
डीयू पोएट्री ऑनर्स, आसमान पर कटऑफ़
पैट (पोएट्री एप्टीट्यूड टैस्ट)
की परीक्षाओं में फिर लड़कियाँ अव्वल
पैट आरक्षण में धाँधली के ख़िलाफ़ विद्यार्थियों ने फूँका वीसी का पुतला
देश में आठ नए भारतीय काव्य संस्थानों पर मुहर
तीन साल की उम्र में तीन हज़ार कविताएँ याद
भारत का नन्हा अजूबा
ईरान के रुख़ से चिन्तित अमेरिका
फ़ारसी कविता की परम्परा से किया परास्त
ये है ऑल इण्डिया रेडियो
अब आप सुनें सीमा आनन्द से हिन्दी में समाचार
नमस्कार
आज प्रधानमन्त्री तीन दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय काव्य सम्मेलन के लिए रवाना हो गए
इसमें देश के सभी कविता गुटों के प्रतिनिधि शामिल हैं
विदेश मन्त्री ने स्पष्ट किया है कि भारत किसी क़ीमत पर काव्य नीति नहीं बदलेगा
भारत पाकिस्तान काव्य वार्ता आज फिर विफल हो गई
पाकिस्तान का कहना है कि इक़बाल, मण्टो और फ़ैज़ से भारत अपना दावा वापस ले
चीन ने आज फिर नए काव्यालंकारों का परीक्षण किया
सूत्रों का कहना है कि यह अलंकार फिलहाल दुनिया के सबसे शक्तिशाली
काव्य संकलन पैदा करेंगे
भारत के प्रमुख काव्य निर्माता आशिक़ आवारा जी काआज तड़के निधन हो गया
उनकी असमय मृत्यु पर राष्ट्रपति ने शोक ज़ाहिर किया है
उत्तर प्रदेश में फिर दलित कवियों पर हमला
उधर खेलों में भारत ने लगातार तीसरी बार
कविता अंत्याक्षरी का स्वर्ण पदक जीत लिया है
भारत ने सीधे सेटों में ‍‍६-५, ६-४, ७-२ से यह मैच जीता
समाचार समाप्त हुए
आ गया आज का हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, प्रभात ख़बर
युवाओं पर चढ़ा पोएट हेयरस्टाइल का बुखार
कवियित्रियों से सीखें हृस्व दीर्घ के राज़
३० वर्षीय एमपीए युवक के लिए घरेलू, कान्वेण्ट एजुकेटेड, संस्कारी वधू चाहिए
२५ वर्षीय एमपीए गोरी, स्लिम, लम्बी कन्या के लिए योग्य वर सम्पर्क करें
गुरु मज़ा आ रहा है
सुनाते रहो
अपन तो हीरो हो जाएँगे
जहाँ निकलेंगे वहीं ऑटोग्राफ़
जुल्म हो जाएगा गुरु
चुप बे
थर्ड डिविज़न एम० ए०
एमपीए की फ़ीस कौन देगा?
प्रूफ़ कर बैठ के

ख़ाली पीली बकवास करता है

कविता पर बहस के बीच कुछ सरप्राइज़ कविताएं

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 दो दिनों से कविता-शविता को लेकर अभूतपूर्व बहस छिड़ी हुई. इस कविता के मौसम में आज कुछ सरप्राइज कवितायेँ जे सुशीलकी. जे सुशील को हम घुमक्कड़ के रूप में जानते हैं, एक पत्रकार के रूप में जानते हैं. उनकी कविता के बारे में नहीं. कविता-शविता के बहस के बीच समय निकालिए और आज सरप्राइज़ कवितायेँ पढ़िए- मॉडरेटर
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आदिवासी


पार्ट वन

किसी ने कहा
कविता है
मैंने मान लिया....
किसी ने कहा
गद्य है
मैंने मान लिया.
मैं सबकी बात मान लेता हूं...
मैं आदिवासी हूं.

फिर किसी ने कहा
निबंध है
मैंने वो भी मान लिया....
फिर आवाज़ आई...
ये तुम्हारी कुंठा है.
मैंने नज़रें झुकाए हुए देखा
ज़मीन नहीं बोली थी
ऊपर आसमान नहीं बोला था
सामने खड़ा इंसान बोल रहा था
जिसने मुझसे मेरी ज़मीन और जंगल छीने थे
बस एक बांसुरी बची थी
और एक तान बांसुरी की
मेरा तन चाहा
मान लूं..

मन रहा बस चुप...
आत्मा ने कहा
विरोध कर
परमात्मा ने कहा
मार और मैंने
दूसरे हाथ में थमी कुल्हाड़ी चला ही दी
अगले ही पल
गद्य पद्य कविता निबंध और कुंठा
सब कुछ जल जंगल और ज़मीन के साथ
छटपटाने लगे थे.




पार्ट 2

महुआ टपका था तो नींद खुली थी.रात बीती नहीं थी और सुबह हुई नहीं थी. सिंगा बोंगा की आंखें चमक रही थीं...शुक्र तारे के साथ.

नशा अभी उतरा नहीं था..और महुआ था कि फिर टपकने लगा
हाथों की ऊंगलिया अभी भी उसके जूड़े में फंसी थीं
जिसका नशा महुए सा बिल्कुल नहीं था

चुनना भी था ज़रुरी वर्ना दिन नहीं होगा
मुर्गे ने बांग दे दी थी और बुढ़िया खुद ही टोकरी टटोलने लगी थी
फिर जूड़े में हरकत हुई...फिर साड़ी का लाल किनारा हिला
और नशा हिरन बन कर उठ गया
महुआ चुन लेने..

साथ में उठी चार खाने की धोती
एक बांसुरी
और एक जिजीविषा भी जीने की
फंदा खोलने को
एक और शिकार पाने को
एक और दिन जीने को
एक और तान बनाने को

दिन निकल आया था
चावल चढ़ चुका था और
खोड़िया कट चुका था क्योंकि
खोड़िया के मांस का पीठा बनेगा
और हंडिया के साथ होगा उत्सव
टुसु के नाच में फिर मगन होंगे
दो काले बदन
फिर कभी न अलग होने को
साथ में महुआ चुनने को
साथ में शिकार करने को
और बनाने को बांसुरी की एक नई
तान...बस नौ महीने में...



पार्ट 3- ग्लैडसन डुंगडुंग

वो कोई सात फुट का
लंबा तगड़ा जवान नहीं था
न ही उसकी नाक नुकीली थी
और रंग तो बस रंग था
ऐसा कि सब उसमें समा जाए
अंधेरे में चमकते थे
बस उसके दांत
झक सफेद
और चम चम करती थी उसकी चमड़ी
कभी पसीने से तो
कभी सरसों के तेल से
फूलती नसों में वो
जब दो अंगुलियों से तीर साधता तो
आंखों में खौफ नहीं एक शांति आकर बैठ जाती थी
उसकी चुप्पी ही उसके बोल होते थे
और हंसता था बस
मुर्गे का चाकू बांधने में
हंडिया पीकर जब मुस्कुराता तो
तो झिमिया पिघल पिघल जाती थी
और लाइजो बिफर बिफर जाती थी

वो अलग था सबसे
सामन बैठा था आज
गले और सर में
मफलर बांधे...
ढीले से हरे कोट में
नीचे पतलून....जेब में कलम
मैं उसे पहचान नहीं पाया था एकबारगी
अब वो मेरी बोली बोलने लगा था
और बातूनी भी लगने लगा था
मैं डुंगडुंग को खोज रहा था और
वो ग्लैडसन हो गया था.

फिर मैंने पूछ ही लिया डुंगडुंग कहां है
ग्लैडसन ने जवाब दिया था
बंदूकों के बीच फंसा डुंगडुंग कब का मर गया
बंदूकें ....किसकी बंदूकें....डुंगडुंग तो तीर चलाता था
सरकार की बंदूकें....नक्सलियों की बंदूकें
डुंगडुंग तीर चलाना चाहता था
लेकिन सरकार चाहती थी
वो कुदाल चलाए
नक्सल चाहते थे
वो बंदूक चलाए
इसी उधेड़बुन में
इस जाल धुन में
डुंगडुंग ने कसम खाई..मार डाला खुद को
पहन लिया उसने कोट. सीख ली अंग्रेज़ी और
निकल पड़ा शहर ये बताने
कि अगर बंदूकें न रुकीं तो
सारे डुंगडुंग मारे जाएंगे
और बचे रहेंगे बस ग्लैडसन



पार्ट 4

जोबला के जंगल में
हम बेर चुनते थे
सुख-दुख बुनते थे
बकरियों को चराते हुए
गुफाओं में लोमड़ियों को डराते हुए
कभी भेड़ियों से डरते हुए
पेड़ पर चढ़ जाया करते थे.

वहीं हमने देखा था एक कारखाना
देखी थी
सीमेंट के चूरे से बनी बेलन जैसी
आकृतियां
पूछा था घर में आकर उनके बारे में तो
जवाब में कान उमेठ दिया गया था
मां ने
और ताकीद मिली थी
अगली बार जंगल गए तो टांगें तोड़ दूंगी

आंडी कनखियों से मुस्कुराया था और
तय हो गया था कि कल फिर है जंगल जाना
सीमेंट के बेलनों के रहस्य का पता लगाना

बेर के कांटों में, बकरियों की पांतों में
केंदू के बीजों में और पुटुस के फूलों के
रहस्य में, सीमेंट के वो बेलन छूट गए थे

छूट तो जंगल भी गया था
छूट आंडी भी गया था,उन्हीं जंगलों में
मुस्कुराता, हंसता और कभी कभी
आवाज़ देता अपने घुंघराले बालों से
उसकी कनखियों की हंसी आज भी
झिंझोड़ देती है
उसकी मासूमियत आज भी जोड़ देती है
जब भी लौटता हूं
जोबला के जंगल में
सीमेंट के बेलन का रहस्य मुझसे पहले
आंडी ने बूझा था
अठारह की उमर में जब उसने
बाप की जगह पर कारखाने के गेट को थामा था
खदान के अंदर वही सीमेंट की बेलननुमा आकृतियां थीं
धमाके के लिए बारुद के ऊपर लगाई जातीं
वो आकृतियां जिनसे हम कभी खेले थे
आज आंडी की ज़िंदगी से खेल रही थीं

आंडी ने ये सब खांसते खांसते बताया था
वो आंडी, जिससे फुटबॉल में कोई बॉल छीन नहीं पाता था
आंडी, जिसके गठीले बदन के ज़ोर पर मैंने बहुत धौंस जमाई थी
आंडी, जिसकी हर उस लड़के से लड़ाई थी जिससे मेरी लड़ाई थी
आंडी, जिसकी तरफ मैंने दोस्ती का पहला हाथ बढ़ाया था
आंडी, आंखों से नहीं दिल से दोस्ती को टटोलता था.
आंडी, जिसकी बांहों में फौलाद और आंखों में दिल बसता था
आंडी, जो मुझ पर चुपचाप जान छि़ड़कता था
आंडी जो अब खदान का गुलाम था
आंडी जो अब मेरा दोस्त नहीं
मेरी रिपोर्ट की एक बाइट बन चुका था
आंडी जो खांस रहा था
अपने दुधमुंहे बच्चे के साथ खेलता
एक बार फिर कनखियों से मुस्कुरा रहा था
मानो कह रहा हो
चलो सीमेंट की आकृतियों का रहस्य अब तुम भी जान गए.



पार्ट 5


बुलडोजर के घर्र घर्र करते चक्कों पर
मैंने सबसे पहले उसके हाथ देखे थे
चक्कों पर पानी डालती
लोहे के चक्कों को पोंछती
पसीना पसलियों से चू कर
कमर पर अटक आया था
चमकती हुई कमर पर नज़र ठहरी ही थी
कि उसने कहा था
साइड हो जाओ बाबू, चोट लग जाएगी
वो आगे बढ़ी और हमारी नज़र
कमर के नीचे पड़ी
हम उसी पल जवान हो गए थे
लौटते हुए उसने फिर घूरा था
सफेद दांत चमकाए थे और पूछा था
क्या देखते हो
पूछने में वो झुकी थी और
हमने उसी क्षण स्वर्ग देख लिया था
फिर मंडराते रहे न जाने कितने दिन
अलकतरे के धुएं में उसके पीछे पीछे

आज हफ्ते का दिन था
ठेकेदार बैठ गया था और
मैनेजर हिसाब कर रहा था
महुआ भी थी कतार में
और हम वहीं कहीं खड़े थे उसके इंतज़ार में
बारी आई....महुआ ने हाथ बढ़ाया था
मैनेजर ने पैसे देते हुए उसके हाथ को दबाया था
और मेरा कलेजा हलक में आया था

महुआ चौंकी नहीं थी
उसे पता था आज डबल मेहनत होगी
दिन के बाद रात की
तभी कुछ आमदनी बढ़ेगी
हंडिए की कटोरी लेते हुए उसने मुझे बुलाया था
कटोरी बढ़ाते हुए बोली थी
रोते क्यों हो
क्या फर्क पड़ता है...आज ये है कल कोई और होगा
हमारी तो यही ज़िंदगी है
तू अपनी महुआ कहीं और खोज लेना
बबुआ बहुत पढ़ाई करना
और इस रेज़ा को भी कभी कभी याद कर लेना.
प्यार से उसने गाल थपथपाए थे
तब हम समझ नहीं पाए थे
कहां से समझ पाते
हम थे कॉलोनी के बाबू और वो थी
जंगल की बेल
हम मिल नहीं पाए थे
हम बड़े होते चले गए वो बूढ़ी होती चली गई
फिर कहीं किसी दिन किसी ठेकेदार की बांहों में
देसी दारु के नशे में उसने दम तोड़ दिया था
ख़बर छपी थी किसी अख़बार के आखिरी पन्ने पर
बुलडोज़र के नीचे आकर रेज़ा ने दम तोड़ा
हम अब भी पढ़ाई करते हैं..हर लड़की में महुआ को खोजते हैं

और कभी कभी कविताओं में रेजा को याद करते हैं.

कोई हिप्पी, कोई साधु। कोई नेता, कोई अभिनेता। अजीब मिक्स है!

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पेशे से डॉक्टर प्रवीण कुमार झामूलतः व्यंग्यकार हैं. आज उनका यह व्यंग्य लेख यमलोक में 'बलात्कारी विभाग'को खुलने को लेकर है. एक चुभता हुआ व्यंग्य- मॉडरेटर 
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यमलोक में आज रौनक है। ब्रह्मा जी अभी-अभी 'बलात्कारी-विभाग'का रिबन काट कर गए हैं। यमदूत छक कर छोले-भटूरे खा रहे हैं।
सुबह से भीड़ भी लगी है। बलात्कारियों की लंबी कतार है। कोई किशोर, कोई अधेड़। कोई सूट-बूट में, कोई मटमैली लुंगी में। कोई हिप्पी, कोई साधु। कोई नेता, कोई अभिनेता। अजीब मिक्स है।

यमराज ने अपनी 'ब्लड-प्रेशर'की गोली खाई, और मेज जमा कर बैठ गए।

"धनवंतरी जी कहते हैं तनाव में न रहूँ, तो गोली नहीं खानी पड़ेगी। आज से वो क्या कहते हैं 'स्ट्रेस-फ्री'जिंदगी जीऊँगा। बुलाओ कौन है पहला!"यमराज ने आदेश दिया।
"सर! आई वाज् द सी. ई..."पहला कैंडीडेट बोला।
"भाई! हिंदी, तेलुगु, तमिल सब बोल-समझ लेता हूँ। ये अंग्रेजी में थोड़ा कमजोर हूँ।"यमराज मुस्कुराकर बोले।
"सर! मुझे गलती से यहाँ भेजा है। मैनें बस कुछ सेक्सुअल..सॉरी..यौन शोषन किया है। बलात्कार नहीं।"
"मतलब?"
"बस यूँ ही कुछ छेड़-खानी, मजाक। यू नो!"
"यमदूतों! इसे सुमड़ी में ले जाकर खूब गुदगुदी लगाओ। छेड़खानी वाले हटाओ, कोई बलात्कारी बुलाओ।"

"सर! ये गैंग-रेप का सरगना है। मन तो करता है चमड़ी उधेड़ दूँ।"यमदूत अगले को लाते दहाड़ा।
"सरकार। माफ कर दो, गलती हो गई। शराब के नशे में था।"
"ओह! ये तो शराब की गलती है। कोई 'प्योर बलात्कारी'नहीं है क्या? इसे शराब की टैंक में डुबाओ, और अगला बुलाओ!"

"सर! ये 'मैराइटल रेप'वाला है।"
"अब ये क्या बला है भाई?"
"शादी-शुदा जब पत्नी से जबरदस्ती करे।"यमदूत ने एक्सप्लेन किया।
"ये कैसा बलात्कार है? मतलब लॉजिक क्या है? क्यूँ करा?"
"वही तो सर! मुझे खामख्वाह फँसा रहे हैं।"
"इसे वटवृक्ष पर उल्टा लटका दो, और कोई पकिया बलात्कारी भेजो भाई!"यमराज बिल्कुल 'इरीटेटेड'हो गए थे।

कई आये-गए। सब के बहाने थे। मजबूरियाँ थी। यमराज को जिस बलात्कारी की तलाश थी, ढूँढे न मिला। सब नकली। स्यूडो-बलात्कारी।

यमराज ने सबको कॉन्फ्रेंस हॉल बुलाया, और माइक लगाकर शुरू हो गए।
"आप सब सो-कॉल्ड बलात्कारियों का यमलोक में स्वागत है। वेल्कम ऑल!"
तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा हॉल गूँज गया।
"मुझे आप से मिलकर बड़ी खुशी हुई। आर्यावर्त में आज भी नैतिक मूल्य बाकी हैं। ये तो बस स्त्री-आकर्षण है, या मय के प्याले जो आपको लड़खड़ा देते हैं। ओय सी.ई.ओ., तू तो अमरीका-यूरोप भी घूमा होगा। तंग कपड़ों में गोरी लड़कियाँ दौड़ती देखी होगी? वहाँ छेड़खानी की हिम्मत न बनी या वहाँ के कानून से डर गया? या इस बात से कि वो तगड़ी गोरी उठाकर धोबिया-पाट दे देगी? राष्ट्रपति तक को कटघरे में ला देते हैं, तू किस खेत की मूली है? ऑफिस-शोषण इज नो जोक! छेड़खानी माइ फुट!और आई कैन स्पीक इंग्लिस बट् आई डॉन्ट!"
यमराज ने एक गिलास पानी गले में उतारा और फिर शुरू हुए।
"तुमलोग मानव ही रहे या कुछ 'म्यूटेशन'हो गया? अजीब सा नशा है। बच्चे के खिलौने से देवियों की मूर्तियों तक में शरीर देखते हो। फूहड़ हँसी हँसते हो, भेंगी नजर रखते हो। बस में, ट्रेन में, गलियों में, और कुछ तो घरों में। मैराइटल रेप! क्या भड़ांस है ये? सच बताऊँ? नपुंसकता की पराकाष्ठा है, और कुछ नहीं। पत्नी से प्रेम न कर सके, तो डुप्लीकेट पौरूष?"
होंठ फड़क रहे थे यमराज के। उनके सेक्रेटरी ने धनवंतरी को कॉल लगाया, पर यमराज कहाँ रूकने वाले।
"पता है, वहाँ आधे जेल काटकर आये हो। कानून है वहाँ। सजा मिल चुकी है। पर चेहरे की मुस्की गायब नहीं हुई। आज भी कोई शिकार ढूँढ रही है तुम्हारी आँखें। कोई गिला नहीं तुम्हें। कितनी सजा दूँ? कितनी बार मृत्यु? क्या कानून बनाऊँ? तुम्ही बताओ, मेरे बाप।"

यमराज गिर पड़े। महीने भर से आई.सी.यू. में हैं। त्रिलोक में शोक है। सब इन रेपिस्ट की वजह से।
यमराज इज क्रिटिकल।



मीना कुमारी के अदाकारा बनने की कहानी उनकी जुबानी

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अगस्त के महीने में प्रसिद्ध अभिनेत्री मीना कुमारीका जन्म हुआ था. आज यह लेख. प्रस्तुति सैयद एस. तौहीदकी- मॉडरेटर 
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मां ने बच्चे को कहानी सुनाई...इक शहजादा था. उसका लाल घोडा बड़ा तेज़ भागता था. एक दिन वो अपने घोड़े पर खोई हुई परी की तालाश में निकला.. दूसरे दिन बच्चा अपने लकड़ी के घोड़े पर बैठा,सारे घर में टख-टख करता भाग रहा था और चिल्ला रहा था-मां मैं परी को ढूंढने जा रहा हूं.

इस तालाश का एहसास ही फन का पहला एहसास है. इक जानी बूझी सी कहानी में एक अनजानी सी परी,एक अनजाना सा देश और लंबी लंबी, ना खत्म होने वाली तालाश. बच्चा जब शहज़ादे की शख़्सियत में दगड़-दगड़ घोडा दौड़ाने लगता है तो फ़न ए अदाकार(अभिनय कला)जन्म लेती है.

अदाकार न बनता तो लकड़ी के घोड़े पर शहज़ादे की तस्वीर बना देता या परी की कहानी लिखने लगता. मैं अदाकार न बनती तो मुसव्विर(चित्रकार) होती,शायरा होती या कहानियां लिखती. हस्सास(संवेदनशील)थी, इसलिए तलाश यक़ीनी थी. कहानियां सुनकर चुप कैसे रहती? माहौल था, हालात थे, जिन्होंने मुझे अदाकार बना दिया.

फिल्मो में आकर किस्म-किस्म के किरदार अदा किए. हर क़िरदार में दाख़िल होकर एक नए एहसास का तजुर्बा हुआ. ज्यूं -ज्यूं तजुर्बा बढ़ता गया, मोतलआ (रिसर्च) बढ़ता गया. तलाश का एहसास भी शदीद(तेज़) होता गया, लेकिन जिस परी की तलाश में निकली थी, वो जाने कहां खो गई!

हर क़िरदार को अदा करने बाद महसूस हुआ कि यह भी इक कहानी थी, एक ख़्वाब था-और अग़र यह सब ख़्वाब है तो हक़ीक़त क्या है? आंख एक हक़ीक़त को देखती है.ज़ेहन उस हक़ीक़त की छुपी हुई दूसरी हक़ीक़त को तलाश करता है. जब दूसरी हकीकत मिलती है तो पहला सच ख़्वाब हो जाता है. और यूं ही फिर दूसरी, फिर तीसरी.. और ख़्वाब व हक़ीक़त का वो कभी ना खत्म होने वाला सिलसिला शुरू हो जाता है. जिसका कोई आख़िर नहीं, कोई समापन नहीं. हर फ़नकार/आर्टिस्ट यही करता है, मैं भी यही करती हूं.

....ख़्वाब दर ख्वाब छीलती हूं, ख़्वाब पर ख़्वाब बुनती हूं. इन ख़्वाबों को सीने से लगा कर सो जाती हूं, इन ख़्वाबों के गले लग कर रोती हूं, इन ख़्वाबों की परवाज़ से लिपट कर अनजाने आसमानों में सैर करती फिरती हूं. जब कोई हक़ीक़त झटक आंख खोल दिया करती है तो फिर अपने गिर्द(पास) ख़्वाब का हाला (वृत्त) बनाए रखती हूं.

लेकिन ख़्वाब तब्दील होते रहते हैं. इनके साथ मैं भी तब्दील होते रहती हूं. हर फ़िल्म के नए किरदार(रोल) में एक नए ख़्वाब का हाला(कपड़ा) पहन लेती हूं. जब तक वो ख़्वाब वुजूद में रहता है,उसी में जीती हूं. उसी में सांस लेती हूं... ख़्वाब दर ख़्वाब यूं ही सफ़र करती जा रही हूं, जाने वो आखिर कहां ?जहां खुद को पा लूंगी, क्योंकि वही आखिरी हक़ीक़त, वही मेरी खोई हुई परी है. फ़िल्म_अगर कहूं कि मेरा लाल घोड़ा है,तो क्या ग़लत होगा!
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प्रस्तुति passion4pearl@gmail. com

दिव्य प्रकाश दुबे के उपन्यास 'मुसाफिर कैफे'का अंश

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युवा लेखक दिव्य प्रकाश दुबेका उपन्यास आने वाला है- मुसाफिर कैफे. इस प्रयोगधर्मी लेखक के उपन्यास का एक अंश लेखक के अपने वक्तव्य के साथ- मॉडरेटर 
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मुसाफ़िरCafe को पढ़ने से पहले बस एक बात जान लेना जरूरी है कि इस कहानी के कुछ किरदारों के नाम धर्मवीर भारती जी की किताबगुनाहों के देवताके नाम पर जान-बूझकर रखे गए हैं। इस कोशिश को कहीं से भी ये न समझा जाए कि मैंने धर्मवीर भारती की किताब से आगे की कोई कहानी कहने की कोशिश की है। धर्मवीर भारती के सुधा-चंदर को मुसाफ़िरCafe के सुधा-चंदर से जोड़कर न पढ़ा जाए। भारती जी जिंदा होते तो मैं उनसे जरूर मिलकर उनके गले लगता, उनके पैर छूता। उनके किरदारों के नाम उधार ले लेना मेरे लिए ऐसा ही है जैसे मैंने उनके पैर छू लिए। मुझे धर्मवीर भारती जी को रेस्पेक्ट देने का यही तरीका ठीक लगा।
कहानी लिखने की सबसे बड़ी कीमत लेखक यही चुकाता है कि कहानी लिखते-लिखते एक दिन वो खुद कहानी हो जाता है। पता नहीं इससे पहले किसी ने कहा है या नहीं लेकिन सबकुछ साफ-साफ लिखना लेखक का काम थोड़े न है! थोड़ा बहुत तो पढ़ने वाले को भी किताब पढ़ते हुए साथ में लिखना चाहिए। ऐसा नहीं होता तो हम किताब में अंडरलाइन नहीं करते। किताब की अंडरलाइन अक्सर वो फुल स्टॉप होता है जो लिखने वाले ने पढ़ने वाले के लिए छोड़ दिया होता है। अंडरलाइन करते ही किताब पूरी हो जाती है। 
मुसाफ़िरCafe की कहानी मेरे लिए वैसे ही है जैसे मैंने कोई सपना टुकड़ों-टुकड़ों में कई रातों तक देखा हो। एक दिन सारे अधूरे सपनों के टुकड़ों ने जुड़कर कोई शक्ल बना ली हो। उन टुकड़ों को मैंने वैसे ही पूरा किया है जैसे आसमान देखते हुए हम तारों से बनी हुई शक्लें पूरी करते हैं। हम शक्लों में खाली जगह अपने हिसाब से भरते हैं इसलिए दुनिया में किन्हीं भी दो लोगों को कभी एक-सा आसमान नहीं दिखता। हम सबको अपना-अपना आसमान दिखता है। 
बस, ये आखिरी बात बोलकर आपके और कहानी के बीच में नहीं आऊँगा। कहानियाँ कोई भी झूठ नहीं होतीं। या तो वो हो चुकी होती हैं या वो हो रही होती हैं या फिर वो होने वाली होती हैं।
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क से कहानी
हम पहले कभी मिले हैं?”
सुधा ने बच्चों जैसी शरारती मुस्कुराहट के साथ कहा, “शायद!”
शायद! कहाँ?” मैंने पूछा।
सुधा बोली, “हो सकता है कि किसी किताब में मिले हों
लोग कॉलेज में, ट्रेन में, फ्लाइट में, बस में, लिफ्ट में, होटल में, कैफे में तमाम जगहों पर कहीं भी मिल सकते हैं लेकिन किताब में कोई कैसे मिल सकता है?” मैंने पूछा। 
इस बार मेरी बात काटते हुए सुधा बोली, “दो मिनट के लिए मान लीजिए। हम किसी ऐसी किताब के किरदार हों जो अभी लिखी ही नहीं गई हो तो?”
ये सुनकर मैंने चाय के कप से एक लंबी चुस्की ली और कहा, “मजाक अच्छा कर लेती हैं आप!”

ब से बेटा शादी कर ले

चंदर के मोबाइल पर पापा के नंबर से एक SMS आया जिसमें एक मोबाइल नंबर लिखा हुआ था। अभी वो नंबर पढ़ ही रहा था कि इतने में उसके पापा के फोन से मम्मी का फोन आया। कॉल में अपना और चंदर का हालचाल लेने और देने के अलावा बस इतना बताया गया कि संडे 12बजे कॉफी हाउस में एक लड़की से मिलने जाना है। ये भी बताया गया कि लड़की वहाँ अकेले आएगी। हालाँकि, लड़की के अकेले आने वाली बात इतनी बार झूठ निकल चुकी है कि चंदर ने ये मानना ही छोड़ दिया है कि कोई लड़की शादी के लिए मिलने अकेले आ सकती है। लड़की के साथ उसकी कोई ऐसी क्लोज फ्रेंड आई हुई होती है जिसका जन्म केवल और केवल आपकी शादी के लिए आपका वायवा लेने के लिए होता है। खैर, चंदर मन मारकर कॉफी हाउस टाइम से पंद्रह मिनट पहले ही पहुँच गया। वहाँ देखा तो एक टेबल पर एक लड़का और लड़की साथ बैठे हुए थे। उसने घड़ी देखी और सोचा कि 15मिनट देख ले फिर 12बजे फोन कर लेगा। अब जब चंदर अपना मोबाइल बाहर निकालकर बार-बार उसको अनलॉक और लॉक कर रहा था उसी दौरान उस कैफे में बैठी लड़की की आवाज तेज होने लगी। चंदर को जो कुछ सुनाई पड़ा वो कुछ ऐसा था-
अच्छा, तो शादी के बाद अगर तुम्हें 2साल के लिए अमेरिका जाना पड़ेगा तो मैं यहाँ अपना कैरियर छोड़ के तुम्हारे साथ चलूँ! तुम सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स को क्या लगता है कि अमेरिका जाना कैरियर है! नहीं, तुम लोग समझते क्या हो? तुम लोगों को शादी के बाद जब लड़की से केवल बच्चे पलवाने हैं तो वर्किंग वुमेन चाहिए ही क्यूँ, नहीं बताओ? ...ब्ला ब्ला ब्ला।
चंदर को उस लड़की की बात सुनकर मजा आने लगा। वो कम-से-कम 20मिनट नॉन स्टॉप बोली होगी। इस बीच में बंदा बस हम्मबोलकर उठकर जा चुका था। इसी बीच चंदर की घड़ी पर नजर गई 12.15बज चुके थे। चंदर ने सोचा फोन मिलाकर बता दे कि वो पहुँच चुका है। चंदर ने फोन मिलाया और उधर की आवाज सुने बिना ही बोल दिया,
हैलो, बस इतना बताना था कि मैं कैफे पहुँच गया हूँ। आप आराम से आ जाइए।
मैं भी कैफे में हूँ।
अच्छा, मैं तो कैफे में 20मिनट से हूँ!
मैं भी।

ए से एक दिन की बात
चंदर को समझ में आ चुका था कि ये वही लड़की है जिससे वो शादी के लिए मिलने आया है। चंदर पलटकर उसकी टेबल तक गया। इससे पहले वो कुछ समझाती या बोलती चंदर ने कहा,
पता नहीं आपको सुनकर कैसा लगेगा लेकिन मैं भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर हूँ।
हा हा हा। सॉरी, आपको वेट करना पड़ा, I’m सुधा।
अरे कोई बात नहीं। बहुत अच्छा बोलीं आप। I’m चंदर।
आप बातें सुन रहे थे?”
सुन नहीं रहा था, सुनाई पड़ रही थीं।
मैं बहुत जोर से बोल रही थी क्या?”
हाँ, और क्या!
पता नहीं कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं, खैर!
आप बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ?”
हाँ पूछिए।
मेरे बाद भी कोई मिलने आ रहा है तो आप बता दीजिए। मैं उस हिसाब से टाइम एडजस्ट कर लूँगा।
अरे नहीं नहीं, एक दिन में दो लड़के काफी हैं।
क्या करती हैं आप?”
मैं लॉयर हूँ, फैमिली कोर्ट में प्रैक्टिस करती हूँ। आप कह सकते हो डिवोर्स एक्सपेर्ट हूँ।
“Wow! मैं आज पहली बार किसी लड़की लॉयर से मिल रहा हूँ। सही में डिवोर्स करवाती हो क्या?”
सही बताऊँ तो डिवोर्स कोर्ट में आने से पहले ही हो चुका होता है। हम तो बस सरकारी स्टैम्प लगाने में और हिसाब-किताब करने में मदद करते हैं।
क्यूँ करते हैं लोग डिवोर्स?”
कोई एक वजह थोड़े है!
फिर भी सबसे ज्यादा किस वजह से होता है?”
क्यूँकि लोगों को पता नहीं होता कि उन्हें लाइफ से चाहिए क्या।
तुम्हें पता है, तुम्हें लाइफ से चाहिए क्या?”
थोड़ा-बहुत शायद और तुम्हें?”
मुझे नहीं पता क्या चाहिए।
छोड़ो, कहाँ डिवोर्स की बातें करने लगे हम!
तो रोज कोर्ट में इतने डिवोर्स देखकर भी शादी करना चाहती हो?”
सच बताऊँ तो मैं शादी करना ही नहीं चाहती। घर वाले परेशान न करें इसलिए मिलने आ जाती हूँ और कोई-न-कोई बहाना बना के लड़के रिजेक्ट कर देती हूँ।
सॉफ्टवेयर इंजीनियर को तो बिना मिले ही रिजेक्ट कर दिया करो। मिलने का कोई टंटा ही नहीं।
हाँ, अगली बार से यही करूँगी।
अच्छा, तुम्हें रिजेक्ट करना ही है तो एक हेल्प कर दो। तुम अपने घरवालों को पहले ही बोल दो कि मैं पसंद नहीं आया। फालतू ही मेरे घरवाले पीछे पड़े रहेंगे।
ठीक है डन। शादी नहीं करनी तुम्हें?”
नहीं।
क्यूँ, प्यार-व्यार वाला चक्कर है?”
हाँ, शायद.. नहीं.. शायद... पता नहीं यार... और तुम्हारा?”
था चक्कर, अब नहीं है। मैं शादी-वादी में बिलिव नहीं करती।
फिर अपने घरवालों को समझा दो न, कितने सॉफ्टवेयर वाले लड़कों की बैंड बजाओगी!
हाँ, सही कह रहे हो। घरवालों को यही समझाऊँगी।
तुम तो आज समझा दोगी, मुझे पता नहीं कितने संडे खराब करने पड़ेंगे। कोई फुलप्रूफ तरीका बता दो।
मुझे पता होता कोई तरीका तो आज उस इडियट से मिलने थोड़े आती!
जाने के बाद मुझे भी इडियट बोलोगी तुम!
हाँ शायद, कोई दिक्कत है?”
नहीं, कोई दिक्कत नहीं है। चलो मैं चलता हूँ। Good. Keep in touch, nice meeting with you.”
“No point saying keep in touch, we hardly know each other.”
मेरे बारे में जानने लायक बस इतना है कि मुझे अपना काम बिल्कुल भी पसंद नहीं है। 2-3साल अमेरिका में रहकर नौकरी कर चुका लेकिन कभी वहाँ मन नहीं लगा। अब अक्सर दो-तीन साल के लिए अमेरिका जाने के मौके आते हैं तो हर बार मना कर देता हूँ, पता नहीं क्यों। क्रिकेट मैच के अलावा टीवी बिल्कुल भी नहीं देखता। हर वीकेंड अकेले मूवी देखता हूँ, थिएटर देखना पसंद है। किताबें खरीदता ज्यादा हूँ पढ़ता कम। सुबह का अखबार बिना चाय के नहीं पढ़ पाता, आगे लाइफ में क्या करना है ज्यादा आइडिया नहीं है। अब मैंने इतना मुँह खोल ही दिया है तो तुम भी अपने बारे में कुछ बता ही दो।
“PG में रहती हूँ। वहाँ रहने वाली मोस्टली लड़कियों से मेरी नहीं पटती। अपना काम बहुत पसंद है मुझे। इंडिया की टॉप लॉयर बनना चाहती हूँ। मूवी केवल हॉल में देखना पसंद है टीवी पे नहीं। वीकेंड पे शौकिया थिएटर करती हूँ। बचपन से ही थोड़ा-सा एक्टिंग-वेक्टिंग का कीड़ा है और हाँ, सबसे important, वर्जिन नहीं हूँ, और तुम?”
मैं क्या?”
वर्जिन हो तुम?”
अरे छोड़ो, ये बताओ एक बज गए, कहीं लंच-वंच कर लें या तुम्हें कहीं निकलना है?”
मुझे साउथ इंडियन पसंद है, वो खाएँ?”
मुझे साउथ इंडियन उतना पसंद नहीं है लेकिन चलो कौन-सा तुम्हारे साथ उम्रभर खाना है!
अरे नहीं पसंद तो कुछ और खा लेते हैं।
अरे नहीं, चलेगा यार। एक ही दिन की तो बात है!
ये चंदर और सुधा की पहली मुलाकात थी। पहली हर चीज की बात हमेशा कुछ अलग होती है क्यूँकि पहला न हो तो दूसरा नहीं होता, दूसरा न हो तो तीसरा, इसीलिए पहला कदम ही जिंदगी भर रास्ते में मिलने वाली मंजिलें तय कर दिया करता है। पहली बार के बाद हम बस अपने आप को दोहराते हैं और हर बार दोहरने में बस वो पहली बार ढूँढ़ते हैं।



बेशर्म समय की शर्म का व्यंग्यकार मनोहर श्याम जोशी

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आज हिंदी के विलक्षण लेखक मनोहर श्याम जोशी की जयंती है. इस मौके पर राजकमल प्रकाशन से उनका प्रतिनिधि व्यंग्यप्रकाशित हुआ है. जिसका संपादन आदरणीय भगवती जोशी जी के साथ मैंने किया है. आज उनको याद करते हुए उस पुस्तक की भूमिका-प्रभात रंजन 
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व्यंग्य मनोहर श्याम जोशी के लेखन का स्थायी भाव है. 1980 के दशक में अधुनिकोत्तर उपन्यास लेखक के रूप में चर्चित होने से पहले वे एक व्यंग्यकार के रूप में हिंदी भाषी समाज में घर कर चुके थे. ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित होने वाले व्यंग्य स्तम्भ ‘नेताजी कहिन’ के माध्यम से उन्होंने हिंदी में व्यंग्य की एक नई शैली विकसित की जिसमें बालमुकुन्द गुप्त से लेकर हरिशंकर परसाई तक के व्यंग्य लेखन का निचोड़ दिखाई देता है. बालमुकुन्द गुप्त की तरह भाषा का खेल और परसाई जी की तरह व्यंग्य के माध्यम से गहरी राजनीतिक टिप्पणियों के कौशल के संतुलन के माध्यम से उन्होंने जिस व्यंग्य विधा का विकास किया वह अपने आप में हिंदी के लिए एकदम नई चीज थी.

अगर मनोहर श्याम जोशी ने उपन्यास न भी लिखे होते तो भी एक व्यंग्यकार के रूप में हिंदी में उनका आला मुकाम रहा होता. लेकिन उन्होंने अस्सी के दशक में अपने उपन्यासों के माध्यम से व्यंग्य विधा का पुनाविष्कार किया. असल में मनोहर श्याम जोशी हिंदी की वाचिक परंपरा के संभवतः आखिरी बड़े लेखक थे. इसलिए बातचीत के माध्यम से किस तरह सहजता में व्यंग्य के मारक प्रसंग पैदा होते हैं यह उनके लेखन में समझ में आता है.

इसी तरह उनके कुछ व्यंग्य वे हैं जो उन्होंने ‘राजधानी के मसीहाई सलीब पर कुछ चेहरे’ श्रृंखला के अंतर्गत ‘सारिका’ पत्रिका के लिए लिखे थे. आज कल आप व्यंग्य भाव से किसी लेखक के व्यक्तित्व, उनके लेखन का विश्लेषण कर दीजिए तो कोर्ट कचहरी की नौबत आ सकती है. लेकिन अगर आप उनके व्यंग्य लेख ‘एक अपना ही अजनबी’ को पढ़ें तो पाएंगे कि कवि-लेखन-विचारक अज्ञेय के व्यक्तित्व का ऐसा गहरा विश्लेषण शायद ही कहीं मिले, सो भी विनोद भाव से लिखा गया.  

‘जिस देश में जीनियस बसते हैं’ पुस्तक में यह कोशिश की गई है कि अलग-अलग विधाओं में लिखे उनके व्यंग्यों का एक प्रतिनिधि रूप देने का प्रयास किया गया है. जोशी जी फिल्म और टीवी जगत में भी बतौर लेखक अपनी धाक रखते थे. इस संकलन में एक लेख है ‘इस्टोरी से स्क्रीन तक’ जिसमें व्यंग्य भाव से उन्होंने बड़ी सहजता से एक फिल्म निर्देशक के ‘स्टोरी सेशन’ का वर्णन किया है. उनका लिखा और प्रकाश झा निर्देशित टेलिविजन धारावाहिक ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ ने भारतीय समाज को महज एक नया मुहावरा ही नहीं दिया, जिसका की राजनीतिक सन्दर्भों में हाल के वर्षों में खूब इस्तेमाल हुआ है, बल्कि व्यंग्य-विधा को मनोरंजन-माध्यम में ठोस नैरेटिव-आधार भी दिया. उसी तरह, उनका व्यंग्य-स्तम्भ ‘नेताजी कहिन’ जब टेलिविजन के परदे पर ‘कक्काजी कहिन’ के रूप में आया तो ओम पुरी ने उनके व्यंग्यबोध को जीवंत कर दिया. पुस्तक में इनके अंशों को शामिल करने का यही उद्देश्य है कि उनके व्यंग्य-लेखन के उस रेंज से पाठकों का परिचय करवाया जा सके जिसने उनको अपने दौर में इस विधा के एक ऐसे व्यंग्यकार के रूप में स्थापित किया जिनके व्यंग्य-लेखों, व्यंग्य-कथा-प्रसंगों में गहरी राजनीतिक निराशा होती थी और एक गहरा विडंबनाबोध. शायद व्यंग्य गहरे अर्थों में यही काम करता है- वह अपन समय के विद्रूप को इस तरह मुखर करता है कि वह आने वाले समय के लिए सन्दर्भ बिंदु बन जाता है.

मनोहर श्याम जोशी एक बौद्धिक व्यंग्यकार थे, जिनके व्यंग्य में आपको फूहड़ता या वह ‘लाउड’ छिछलापन नहीं मिलेगा जो समकालीन व्यंग्य लेखन की विशेषता मानी जाती है. इस अर्थ में देखे तो वे व्यंग्य की की एक समृद्ध परम्परा के सशक्त हस्ताक्षर की तरह लगते हैं तो कई बार अपने फन में अकेले भी, जिसकी नक़ल करना आसान नहीं है. ‘जिस देश में जीनियस बसते हैं’ पुस्तक के आलेखों में उनकी यह खासियत उभर कर आती है. इसमें उनके उपन्यासों के अंश हैं, उनके संस्मरण के हिस्से हैं और उनके स्वतंत्र व्यंग्य-लेख भी जो उनके व्यंग्य के रेंज को भी दिखाते हैं.


अपने आखिरी दिनों के एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि हमारा समाज विद्रूप के मामले में अधिक आगे है, ऐसे में व्यंग्य-विधा उससे बहुत पीछे दिखाई देती है. अपनी आखिरी बातचीत में उन्होंने बीबीसी से यह कहा था कि हम एक बेशर्म समय में रहते हैं. सच में, व्यंग्य हमारे भीतर की शर्म को जाग्रत करने की एक सशक्त विधा रही है, पुस्तक के लेखों में यह बात उभरती हुई दिखाई देती है. आशा है पुस्तक के व्यंग्य-आलेखों को पढ़ते हुए महज मनोहर श्याम जोशी के व्यंग्य की रेंज का परिचय नहीं मिलता है बल्कि हिंदी व्यंग्य की सीमा और विस्तार का भी. 

प्रीतपाल कौर की कहानी 'एक औरत'

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प्रीतपाल कौरएक जानी मानी पत्रकार रही हैं. विनोद दुआ की न्यूज पत्रिका 'परख'में थीं, बाद में लम्बे समय तक एनडीटीवी में रहीं. उनकी एक छोटी सी कहानी- मॉडरेटर  
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कमरेमेंबंददरवाज़ोंकेभीतरीपल्लोंपरजड़ेशीशोंसेछनकरआतीरोशनीबाहरधकलतेबादामीरंगकेपरदे, नीमअँधेरेमेंसुगबुगातीसीलगतीआरामकुर्सी, कोनेमेंराखीड्रेसिंगटेबल, बाथरूमकेदरवाजेकेपासरखानारंगीरंगकापाँवपोश.... सबपरसन्नाटातैररहाथा. कुछपलपहलेकाहवामेंतैररहाउन्मादउच्चाटनीरवताकोफैलातेहुएनिचेष्टपड़ेशरीरोंपरहावीहोनेलगा. किनारेपडीगुडी-मुडीबदनसेखिसकगयीसफ़ेदचादरकोपुनःखींचकरउसनेउसपरओढादिया. इसीप्रयासमेंउसकेखुदभीकाफीशरीरढकगया.

चादरकेस्पर्शकाएहसासहोतेहीधीरेसेबंदआँखेंखोलकरउसनेछतकीतरफदेखाऔरफिरउसेदेखतीहुयीहलकीमुस्कराहटकेसाथउठनेकेलिएकोहनीपरशरीरटिकायाहीथाकिउसनेउसकीकोहनीकोहलकेसेखिसकादिया. धम्मसेवहफिरबिस्तरपरगिरपड़ी.

"क्याकरतेहो?"उसकेस्वरमेंझुंझलाहटसेअधिकप्रसन्नताथी.

"वहीजोकरनाचाहिए.", उसकीबांहचादरकेऊपरसेउसकीछातीकोघेरतीहुयीउसकेएपीठतकजापहुँची. थोड़ीदेरपहलेजोचादरओढाईथी, उसेपरेसरकतेहुएउसकीपीठपरअपनीहथेलीफैलाकरररखतेहुएमाथेपरगिरआयेउसकेबालों  कोचूमलिया.

झुरझुराकरउसनेभीचादरमेंक़ैदअपनीबाहोंकोबाहरनिकलाऔरदोनोंहाथोंसेउसकीगर्दनकोपीछे  सेथामकरहोठोंऔरजीभसेउसकेभीतरकीटोहलेनेलगी. चारआँखेंएकदुसरेमेंउलझकरचुपचापअपने -अपनेअस्तित्वकीगवाहीदेरहीथीं.

चारहाथदोजिस्मोंकोअलग-अलगकोणसेफिरनापनेलगे. जानेकितनेहजारोंसालोंसेयहीहोताआयाहै. इसीतरहसबउलझजाताहै. ज़िन्दगीसाँसेंलेनेलगतीहै. दर-विवादपीछेछूटनेलगतेहैं. इसीतरहहरबारकोईकंधाहोठोंकीनर्मगर्माहटसेपिघलनेलगताहै. संभावनाओंकाएकपुलदोआत्माओंकेबीचकुछथामनेकीकोशिशकरताहैऔरफिरधराशायीहोजाताहै. सादियोंसेचलारहाएकरिश्ताफिरअपनीगांठेंखोलदेताहै.

मरदऔरऔरतकेबीचसबकुछवैसाहीपडारहजाताहै. मर्दअपनीमर्दानगीमेंजकड़ाऔरतकीजिस्मानीखूबसूरतीसेबार-बारखुदकोपराजितकरनेकीकोशिशकरताहै. औरतअपनेवजूदसेबाहरनिकलतीभीहैतोमर्दकीजेबेंटटोलनेलगतीहै. दुनियाकीसारीखूबसूरतऔरतेंआखिरअमीरऔरताक़तवरमर्दोंकेसाथयूँहीतोनहींहोतीं.

इसबारचादरवैसीहीगुडी-मुडीबहुतदेरतकपडीरही. इसबारजबउसनेकोहनीपरशरीरटिकायातोउसतरफतकियेपरउसकीगहरीसाँसेंबंदआँखोंकोइत्मीनानसेसहलारहीथीं.

थोड़ीदेरबादजबगीलेबालोंसेपानीटपकातीबड़ेसेसफ़ेदतौलियेमेंलिपटीवहबाहरआयीतोशायदकमरेमेंउसकीउपस्थितिकेएहसासनेउसेनींदमेंसहलादिया. कुनमुनाकरउसनेकरवटबदलीतोउसकेबदनकाउघड़ापणवहझेलनहींपाईगुलाबेगालोंकीदहकमेंसिमटतेहुएउसनेगुडी-मुडीचादरउसेगर्दनतकओढादी.

चादरकेस्पर्शनेयाशायदउसकीमहकनेउसेचेतायातोवहअधखुलीआँखोंसेबोला,"तुमभीसोलोथोडीदेर."थकानउसकेएकएकशब्दसेटपकरहीथी.

"नहीं, तुम्हेंभूखलगीहोगी. देखूंक्याहैफ्रिजमें."

वहीऔरतकीशाश्वतचिंता!

"बेटा, खाले."या"भैया, देखोमैंनेक्याबनायाहै?"

वहीएकबातजानेकितनेढंगसेकितनेघरोंमें, कितनेबंदकमरोंमेंयूँहीअनंतबारप्रतिध्वनितहोतीयहाँभीगूंजगयी.

हल्कीसीकुनमुनाहटकेबीचफिरएकबारकरवटबदलतेहुएवहबोला,"अभीनहीं, अभीभूखनहींहै."

हमेशाकीतरहवहीभ्रम, वहीदिलासाकिमैंतोसिर्फप्यारकाभूखाहूँ. प्यारकेबादरोटीकाऔरफिरप्यारका........ औरयूँएकछोरसेदूसरेछोरकीओरभागताकबसमझपताहैअपनीभूखको.....? याफिरकिभूखाहैभी?

सरतकियापरटिकायेउसेदेखतेफिरगहरीनींदमेंखोगयातोवहहलकेहाथसेउसकेबालसहलाकरड्रेसिंगटेबलकीतरफचलीआयी. हलकेहरेरंगकीशिफौनकीसाड़ीपहने, कंधेतकगीलेबालछितराएआरामकुर्सीपरबैठीइंतज़ारकरनेलगी.

कभीसमझनहींपातीकिसचीज़काइंतजारहैउसे. बसयूँहीलगताहैकिकिसीदिनभयंकरउठापटकहोजायेगीयापुरानीकथाओंकीतरहआसमानफटपडेगा, बाढ़जायेगीयाफिरधीमेधीमेकुछभीहोतेहुएसालदरसालगुज़रजायेंगे. कुछहोगाज़रूर, यहीइंतजारजिंदाबनायेरखताहै.

अभीजैसेथोड़ीदेरबादयहउठेगा, उसेजीतेरहनेकाएहसासदिलाएगाऔरचलाजाएगा. दुनियामेंजाकरज़िन्दगीबटोरनेकेलिए. अपनेहिस्सेकीज़िन्दगीजबचुकनेलगेगीतबफिरकिसीदिनअपनेभीतररखाउसकाहिस्साउसेदेनेआयेगा. फिरचलाजाएगा. टुकड़ा-टुकड़ाज़िन्दगीजीते, खुलेसिरोंसेइधर-उधरअपनाएहसासछोड़तेयेबुढाजायेंगें. फिरइनकेबच्चेपूरी-पूरीज़िंदगीजीनेकीदमतोड़तीकोशिशमेंथककरइसीतरहटुकड़ा-टुकड़ाज़िंदगीजीनेलगेंगें.....


बच्चे...... शब्दउठातोदेरतकगूंजतारहा. सपनोंकाकोईसिरानहींहोता. कोईभीसपनानींदमेंडूबेबेखबरआदमीकोफुसलाकरअपनेपीछेलगालेताहै. औरजबउसकीदौड़भरपूरयौवनपरआतीहै, तोपरछाईंयोंकेढेरकेकिसीकोनेपरचुपचापखुदभीपरछाईबनकरखड़ाहोजाताहै. पागलबनापीछेदौड़ताआदमीअपनेसिरकेबालनोचताअपनेसपनेकोइनठंडीपडीपरछाईयों  केढेरमेंढूँढनेलगताहै. शायदकिसीएकाधमेंकुछजानबचीहोतोउठपड़ेऔरवहउसीकेपीछेदौड़पड़े.

इसवक़्तजोमर्दगहरीसाँसेंलेताउसकेबनायेखानेकेइंतजारमेंसोरहाहै, उसकेबच्चोंकेबापनहींहै. साधारणसाकारणहै; वहउसकापतिनहींहै. इसकेसाथजोकियावहव्यभिचारहै..... लेकिनदेहतोतबफुन्कारतीहैजबपतिबलात्कारकरताहै. देहसेलेकरमनतक........


परशायदयहदूसराआदमीहै, सिर्फइसलिएकिजबयहआयातोपहलाआदमीथा. लेकिनखुदकभीपहलीऔरतकहाँहोसकी? खुदसिर्फऔरतथी..... पहलीयादूसरीयातीसरी....... इससबकेबीचसिर्फएकऔरत......

सारीपढाईलिखाईऔरसपनेपरछाईयाबनाकरपिछवाड़ेकीज़मीनपरबोयेतोजोउगा, उन्हेंतोअपनानामभीनहींदेपाई. दोबिरवेफूटे. ज़राधुपसहनेलायकहुएकिखनकतेसिक्कोंकेबलपरखुलेआसमानमेंकुलांचेभरनेकासपनासीखनेबोर्डिंगभेजदिएगए. हाथोंमेंरहगयाकभीकभीआबादहोनेवालासभ्यदेह-व्यापार..... इसीकेबदलेथींसारीसुविधाएँऔरतरतीबसेसजेसाफ़सुथरेकमरे, कुछमेंपीछेछूटचुकेखिलौने..... औरइनसबकेबीचमेंपड़ाकहींपीछेछूटचुकेप्रेमकालौटताएहसास....

व्यभिचार...... नहीं! मनगर्दनहिलादेताहै. साफ़नकारदेताहै. जानताहैअपनीवकालतकरना. यहतोसिर्फएकसंयोगहै. यहीआदमीपहलेमिलतातोयहीपतिभीहोता. सारीपरछइयांसचमुचकेजीतेजागतेसपनेहोतीं, घरकेसामनेकेबाग़मेंशानसेसिरउठायेखड़ेरहते, फलतेफूलते......


क्यारियों  मेंएककालासांपरेंगगया. अगरयेपहलाहोतातोक्याकोईऔरदूसराहोता? नहींजानपाईकभी. मनकीठिठकनझुंझलानेलगी. साहसछूटनेलगातोघबराकररसोईंमेंचलीआयी.

आजसरीखेदिनसंजोनेपड़तेहैं. सरेबंदोबस्तदुरुस्तकरनेपड़तेहैं. साहसबटोरकरखूबसूरतीसेबोलेगएझूठ, घरकेबाहरलगाटाला, आंसरिंगमशीनपरलगाफ़ोन, गाँवगयानौकर....

राइसकुकरमेंपानीऔरचावलडाले. कलकाबनाचिकनओवनमेंरखा. टेबललगाहीरहीथीकिखटर-पटरबेडरूमतकपहुँचगयी.

उसीगुडी-मुडीचादरकोलूंगीकीतरहलपेटताबालोंमेंहाथफिरताथकानसेबोझिलचेहरा, मगरविशवासछलकतीआँखें...... सुबहहीलगातारपांचघंटेड्राइवकरकेआयाथा. परसोंसुबहतकहरहालमेंघरपहुँचजानाहै. खालीघरमेंमाँज्यादादिनबहारजानेकीइजाज़तनहींदेती. शादी.... ? एकभरपूरअट्टहासउठताहै, होठोंतकआते-आतेहल्कीसीमुस्कराहटबनजाताहै.

इसीकीछाँवमेंखानामेज़परलगतेउसेदेखताहै. एकनज़रउसकीतरफडालतीसोचतीसीउसकीआँखेंभीमुस्कुराउठतीहैं. दुनियामेंकितनीऔरतेंहैं.... सिर्फयहीक्यूँ..... ? लेकिनसिर्फयहीएकतोहै. सारेप्रयासकरचुका. एकहज़ारकिलोमीटरदूरबोर्डिंगमेंभरपूरज़िंदगीजीतेदोनन्हेंइंसानोंकेमनकाभावकायमरहे, जबतककिवेइसकेढेहजानेकेधचकेकोसहनेलायकहोजाएँ. लेकिनकबहोंगें?

शुरूकीउतावलीअबएकनर्मधडकताइंतजारबनगयीहै. ठहाकेकेसाथकभी-कभीकहदेताहै-"ज़िंदगीजितनेरंगदिखाए, सरआँखोंपर....... "लेकिनकबतक........

कभीखुदभीघबराजातीहै. कबतक..... ? कबतकवहीइंतजारकरपायेगी? किसीदिनढेहपड़े. ऐसेहीफिरफ़ोनकरदेतीहै. ऐसेहीफिरसारेबंदोबस्तहोतेहैं. ऐसेहीफिरनौकरचिकनबनाकरगाँवचलाजाताहै...

बाहरतालालगजाताहै. पांचघंटेलगातारड्राइवकरकेवहआताहै. संभावनाओंकेपुलफिरएकबारबनते-बनतेकुछथामनेलगतेहैं, औरफिरएकबारसबबिखरजाताहै..... लेकिनकबतक... ? औरवहफिरसेऔरतबनजातीहै... सिर्फएकऔरत.


प्रितपालकौर

पूर्वप्रकाशित'हंस'दिसंबर1998.






हंसदा सोवेंद्र शेखर की कहानी 'नवंबर प्रवास का महीना है'

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आजकल आदिवासी जीवन को लेकर लेखन की चर्चा है. ऐसे में याद आया साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार 2015 से सम्मानित हंसदा सोवेंद्र शेखरकी अंग्रेजी किताब 'आदिवासी विल नॉट डांस', जिसका हिंदी अनुवाद राजपाल एंड सन्ज प्रकाशन से शीघ्र प्रकाशित होने वाला है. अनुवाद हिंदी की युवा कवयित्री रश्मि भारद्वाज ने किया है. 
हंसदा सोवेन्द्र शेखर झारखंड सरकार में मेडिकल ऑफिसर हैं। अंग्रेज़ी में लिखने वाले हंसदा उर्वर और खनिज संपदा से युक्त आंतरिक क्षेत्र और लगातार विस्तार ले रहे झारखंड के मलिन शहरों पर आधारित अपनी कहानियों में मिट्टी और रक्त के बने जीवंत पात्र गढ़ते हैं , उनके पात्र उस धरती की तरह ही होते हैं,जहां वे जन्म लेते हैं, रहते हैं, और जिसपर कई बार वे खून भी जरूर बहाते हैं।
आदिवासी नहीं नाचेंगे एक परिपक्व, आवेगपूर्ण और अत्यंत राजनैतिक कहानियों की किताब है, जो जीवन के तत्वों से परिपूर्ण है। यह हंसदा सोवेन्द्र शेखर को एक बहुत ही महत्वपूर्ण समकालीन लेखक के रूप में स्थापित करती है- मॉडरेटर 
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 नवंबर के आते ही, संथाल पुरुष, स्त्रियाँ, और बच्चे पहाड़ों के अपने गाँवों और संथाल परगना के दूरस्थ इलाकों से निकलकर जिला मुख्यालय के स्टेशन पहुँचते हैं। ये संथाल- पूरा गाँव, पूरी बिरादरी- एक लंबा, सर्पीला जुलूस निकालते हैं, जब वे अपने जमीन, अपने खेतों को छोडकर पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में स्थित नमल और वहाँ के धान के खेतों में पहुँचने के लिए ट्रेन लेने आते हैं।
बाईस साल की तालामाई किस्कू उन 43 लोगों के समूह का हिस्सा है जो आज रात यात्रा करने वाले हैं। उसके साथ, उसके माता-पिता और दो बहनों में से एक बहन है। उसका लगभग पूरा गाँव- उसके तीन भाइयों और एक जीजा सहित सहित सब बहुत पहले ही बर्धमान के लिए निकल गए हैं।
तालामाई तीन लड़कियों और तीन लड़कों वाले परिवार की दूसरी लड़की है। उसका नाम कल्पना की कमी को दर्शाता है। वह बीच की लड़की है ताला मतलब बीच और माई मतलब लड़की। तालामई का परिवार ईसाई है। कोई भी यह उम्मीद करेगा कि तालामाई के माता-पिता इतने पढे लिखे होंगे कि अपनी बेटी के लिए बढ़िया, रचनात्मक नाम सोच सकते होंगे। फिर भी मिशनरियों द्वारा शिक्षा दिये जाने के वायदों के बाद भी, तालामाई के माता-पिता कभी स्कूल के अंदर जाकर देख तक नहीं जा सके, और ना ही उसने देखा। वे या तो कोयला बटोरते थे, या बर्धमान के खेतों में काम करते थे।
तालामाई अपने समूह से अलग हो गयी। वह एक आदमी की ओर आकर्षित हुई है। वह जवान, गोरा, डीकू रेलवे सुरक्षा बल का जवान है। अपने हाथ में एक ब्रेड पकौड़ा लिए, वह उसे अपने पीछे आने का इशारा करता है, और कोने में जाकर गुम हो जाता है।
तालामाई द्वंद में है कि उसे जाना चाहिये कि नहीं, और फिर वह जाने का निर्णय करती है। आख़िरकार वह भोजन का आमंत्रण दे रहा और वह भूखी है। अभी रात के साढ़े दस हो रहे हैं और ट्रेन को आने में अभी भी दो घंटे हैं।
क्या तुम भूखी हो?’ जवान तालामाई को कोने में बुलाता है। तुम्हें खाना चाहिये?’ वह पुलिस क्वार्टर के सामने खड़ा है।
हाँ,’ तालामाई ने उत्तर दिया।
तुम्हें पैसे चाहिये?’
हाँ
क्या तुम मेरा कुछ काम करोगी?’
तालामाई जानती है कि वह किस काम के बारे में बात कर रहा है। उसने यह काम कोयला रोड पर कई बार किया है, जहां कई संथाल स्त्रियाँ और लड़कियाँ ट्रक से कोयला चुराती हैं। वह बहुत औरतों को जानती है, जो यह काम ट्रक ड्राईवर और अन्य आदमियों के साथ करती हैं। और वह जानती है कि नमल के रास्ते में, संथाल औरतें यह काम भोजन और पैसों के लिए रेलवे स्टेशन पर भी करेंगी।
हाँ,’ तालामाई कहती है, और अंधेरे में पुलिसवाले के पीछे चलती पुलिसवालों के कमरे के पीछे की पक्की जगह पर आती है।
काम बहुत समय नहीं लेता। पुलिसवाला तैयार है। वह जमीन पर एक गमछा बिछाता है और अपनी पतलून उतार देता है। उसके पास कॉन्डोम पहनने का समय भी है। तालामाई को भी अपने सारे कपड़े नहीं उतारने हैं। वह बस अपनी लुंगी और पेटिकोटउतारती है वह दस्तूर जानती है। पुलिसवाला उसके नितंब दबोचता है, उन्हें उठा कर, तालामाई को अपने हिसाब से जमाते हुये, उसके अंदर प्रवेश करता है। अपना सारा भार उसपर डालते हुये वह शरीर हिलाने लगता, उसके मुँह से घुरघुराने की ध्वनि निकल रही है। तालामाई चुपचाप लेटी रहकर, हल्के प्रकाश में पुलिसवाले के चेहरे की बदलती मुखाकृति देखती रहती है। कभी उसका मुँह ऐंठ जाता है, कभी वह मुस्कुरा देता है। एक बार वह कहता है, ‘साली, तुम संथाल औरतें सिर्फ़ इस काम के लिये ही बनी हो। तुम अच्छी हो!
तालामाई कुछ नहीं कहती है, कुछ नहीं करती है। एक समय तो वह उसके ब्लाउज़ के अंदर से उसके वक्षों को निचोड़ता है। वह उन्हें काटता है और उसके निपल्स को चूसता है। इससे दर्द होता है।
चिल्लाओ मत,’ आदमी हांफता है। एक शब्द भी मत कहो। इससे तकलीफ़ नहीं होगी
तालामाई इस बात का ध्यान रखती है कि वह चीखे या झिझके भी नहीं। वह नियम जानती है। उसे कुछ नहीं करना है, सिर्फ़ अपने पैर फ़ैलाने है और चुपचाप लेटना है। वह जानती है कि सबकुछ आदमी के द्वारा ही किया जाता है। वह सिर्फ़ लेटती है, निष्क्रिय, भावशून्य,अपलक। बिलकुल उस पत्थर की जमीन की तरह ठंडी ,जिसे वह गमछे के पतले कपड़े के अंदर महसूस कर पा रही है; एक निरपेक्ष मिट्टी के कटोरे की तरह जिसपर काले बादल ख़ुद को खाली कर जाते हैं।
दस मिनट से भी कम समय में काम ख़त्म हो गया।
पुलिसवाले ने ख़ुद को खींचा और तालामाई को उठने में मदद की। उसने इस्तेमाल किया हुआ कॉन्डोम फेंक कर अपने कपड़े पहन लिये। फिर उसने तालामाई को दो ठंडे ब्रेड पकौड़े और पचास रूपये का नोट थमाया और चला गया। तालमाई ने अपना पेटिकोट और लुंगी बांधी, पचास रूपये का नोट ब्लाउज़ में खोंसा, दोनों ब्रेड पकौड़े खाये और अपने समूह में वापस लौट गयी।





दो नम्मर से साहित्य अकादमी रह गया था!

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नॉर्वे प्रवासी डॉक्टर प्रवीण कुमार झाके व्यंग्य कुछ दिन न पढ़ें तो कुछ कुछ होने लगता है. यह ताज़ा है. पढियेगा- मॉडरेटर 
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जब हिंदी लिखने की सोची तो कवि कक्का का ख्याल आया। इलाके के इकलौते 'सर्टिफाइड'कवि। बाबा नागार्जुन के साथ उठना-बैठना था। कहते हैं दो नम्मर से साहित्य अकादमी रह गया था।

दलान पर पहुँचा तो कवि कक्का पान लगा रहे थे। पहचानते तो रोम-रोम तक थे, पर हर बार ऐसे मिलते जैसे कभी मिले ही न हों। किताबें धूल फाँकती है। दलान में कभी कविता सुनने को जमघट लगती थी। अब नजर पड़ते ही लोग साइकल की गति बढ़ाकर भाग लेते हैं। पर बुढ़ऊ की अकड़ न गई। स्वयं को कवि-सम्राट समझते हैं।

"बनना क्या चाहते हो? कवि या लेखक?"

"जी, लेखक।"

"फिर ठीक है। कवि बनना सबके बस का नहीं।"

"और भी कुछ करते हो?"

"डॉक्टर हूँ।"

"फिर शायद बच जाओगे।"

"किससे?"

"कंगाली से भी। और राजनीति से भी। हाहाहा!"

खामख्वाह कवि कक्का को वाचाल कहते। ये तो बड़े 'टू-द-प्वांइट'व्यक्ति निकले।

पर पान मुँह में डालते ही रंगत बदल गई।

"हमें तो बाबा का वामपंथ ले डूबा। न खांग्रेसियों ने मेडल दिया, न दक्खिनपंथियों ने। बंगाली-मलयाली कवि होता तो आज ये दिन न देखना पड़ता। महाश्वेता काकी कहती भी थी कि उनके साथ लग लूँ। पर ये आदिवासी-जंगल और मोटे-मोटे मच्छर। कवि कल्पना करे कि मलेरिया से जूझे? वैसे तुम किस पंथ से हो?"

"जी, सोचा नहीं है।"

"साहित्य से जुड़ गए और पंथ से जुड़े ही नहीं? तो फिर लिखोगे क्या? चुन्नू-मुन्नू थे दो भाई। रसगुल्ले पर हुई लड़ाई?"

"कौन सा ठीक रहेगा?"

"पुरस्कार जीतने हैं तो हवा के रूख के साथ चलो। लोकप्रिय होना है तो विपरीत।"

"आपका तात्पर्य?"

"राष्ट्रवाद का समय है। दिनकर बन जाओ। जयशंकर प्रसाद सा तेज लाओ। वीर रस में सराबोर होकर खूनी हस्ताक्षर करो। ज्ञानपीठ, पद्म विभूषन नहीं तो कमसे कम साहित्य अकादमी लपेट कर ले आओगे। और लोकप्रिय बनना है तो ठीक विपरीत। हरियाणा रोडवेज की बस पकड़ लो या खुद को चार थप्पड़ मार लो। आध पाव कसैली फांक जाओ और कड़वापन उड़ेल दो। देश को नंगा कर दो, या हजार तो देवी-देवता है। एकदम मारो फूलगेंदवा 'बिलो-द-बेल्ट'!"

"अरे, आपकी भाषा को क्या हो गया?"
"बस! सब यहीं कहें, और तुम हो गए दो मिनट में पोपुलर! क्या समझे?"

"समझ गया कक्का। मुझे तो धन प्रिय है, लोकप्रिय बनना चाहूँगा।"

"वो ऐ...न...होगा।"कक्का का गला पान से बरसाती मेढक की तरह फूल गया था।

पीक थूँकते हुए बोले, "धन प्रिय है तो उसकी विधा अलग है। पाठक जी की 'प्रेम, परिणय, प्रपंच'वाली।"

"जी। ये कौन सा पंथ है?"

"प्रेम, परिणय, प्रपंच मतलब तुम्हारी भाषा में 'लव, सेक्स और धोखा'।"

"ये मुझसे नहीं होगा कक्का। साहित्य में भी तो रॉयल्टी मिलती होगी?"

"तुम्हारे बाबूजी तो बैंक में ही हैं। वहीं जमा कराता हूँ कभी सालाना पाँच सौ, कभी आठ सौ के चेक। पुस्तक मेले में खड़ा करवा देते हैं, कहीं मुख्य अतिथि बनवा देते हैं। कहीं फोकट की समीक्षा, कहीं बेतुकी कविता की तारीफ। रॉयल्टी और रियैलिटी में बहुत फर्क है।"

बुढ़ऊ को पता ही नहीं, दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। अमेजन और फेसबुक के सहारे ही हजारों किताबें उठ जाती है। कोई दूबे है तो कोई चौधरी। सब बेस्ट-सेलर हैं। क्रेडिट-कार्ड टिपटिपाओ, किताब उठाओ। एक कविता गढ़ता है, उस से लम्बी कविता कमेंट में आ जाती है। साहित्य कुतुरमुत्ते की तरह फैल रहा है, और कवि कक्का आज भी रेगिस्तान के कैक्टस बने बैठे हैं।

"कक्का! ऑनलाइन है साहित्य अब। जानकीपुल सुना है आपने?"

"आशावादी हूँ। 'लेफ्ट'से 'राइट'होने की भी जुगत में हूँ। वैसे ये जानकीपुल किस पंथ का है?"

"पता नहीं। ये तो साहित्य-ब्लॉग है।"

"पीछे कौन है? कोई नेता वगैरा?"

"हिंदी से जुड़े लोग लिखते-पढ़ते हैं। नेता और पंथ का आइडिया नहीं।"

"ये क्या हो गया है साहित्य को? पंथहीन साहित्य मतलब बिन पेंदी का लोटा। मतलब लोग डरकर आवाज बदल कर बात कर रहे हैंहैं वामपंथी, लेकिन न्यूट्रल बने बैठे हैं? कविता क्या लिखेंगें, घास? जो लिखो, निर्भय निर्विकार लिखो। बाबा तो सीधा 'इंदुजी'कहकर क्या प्रहार करते थे! प्रोटौकोल और नियम की बिसात पर कविता बनी है कभी?...."

कक्का बड़बड़ाते रहे। बुढ़हु सठिया गए हैं।

भई मैं तो प्रेम-प्रपंच में ऐसी वीर-रस की दही बनाऊँगा कि हवा की रूख ही बदल जाए। बी.एम.डब्ल्यू. में बैठ साहित्य अकादमी जाऊँगा। हिंदी को 'हॉट'बनाऊँगा। कक्का करे 'लेफ्ट-राइट', मैं तो पूँजीवाद की बंसी बजाऊँगा।



आप भाग्यशाली हैं कि आप के पास अपना कहने के लिए एक देश है

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कथाकार मनोज कुमार पाण्डेबहुत तार्किक ढंग से वैचारिक लेख लिखते हैं. आज़ादी को याद करने के मौसम में उनका यह लेख पढियेगा- मॉडरेटर 
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आज के लगभग सत्तर साल पहले हमें वह आजादी मिली जिसे आज हम पाठ्य पुस्तकों में आजादी के नाम से पढ़ते जानते हैं। तब से इस मसले पर एक बहस रही है कि यह आजादी किसको मिली? यह आजादी हमें किससे मिली यानी कि वह क्या चीज थी जिसकी गुलामी से हम आजाद होना चाहते थे? यह दोनों सवाल बहुत महत्वपूर्ण हैं। और अगर हम आसान वाले जवाब पर टिक न करके थोड़ा भीतर धँसे और इस सवाल की तह में जाएँ तो हमें इन सवालों के वास्तविक जवाब मिल सकते हैं। जाहिर है कि ऐसा करते हुए हम सत्तर साल की उपलब्धियों को नकार नहीं रहे हैं। वे हैं और हमारी वर्तमान सरकार के बार बार नकारने के बावजूद बहुत बड़ी हैं। हमने अनेक दिशाओं में बहुत तरक्की की है। अनेक मामलों में हम आत्मनिर्भर हुए हैं। हम में से एक बड़ी जनसंख्या पहले की तुलना में बेहतर खा पी रही है। हम पहले के तुलना में बढ़िया कपड़े पहन रहे हैं। पर जब हम यह सब कहते हैं तो हमें दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए। एक तो यह कि आज जो देश हम बना रहे हैं उसका सपना किन आँखों में बसता और फलता फूलता है? दूसरा गांधी की वह बात कि इस देश का चमक दमक से दूर पंक्ति में सबसे पीछे खड़े अपने नागरिक के साथ किस तरह का रिश्ता बनता है।

      आज हम जिस इंडिया दैट इज भारतमें रहते हैं उसमें एक साथ बहुत से भारत रहते हैं। एक ही देश में विकसित देश, विकासशील देश, निर्धन देश और भुखमरी से मरता देश सभी शामिल हैं। जब हम हम देश के विकास की बात करते हैं या बड़े गर्व से साइंस और तकनीकि की बात करते हैं या राकेट छोड़ने और चाँद पर या मंगल पर जाने की बात करते हैं तो सवाल यह है कि हम उस समय किस देश की बात कर रहे होते हैं और क्या इसी एक देश के भीतर बसे दूसरे देशों पर भी इन उपलब्धियों का कोई असर पड़ता है? क्या यह देश अपने सभी नागरिकों या रहवासियों के लिए एक ही है या कि यह सबसे अलग अलग बर्ताव करता है? इस पर सोचना इस लिए भी जरूरी है इस छोटी सी बात का ध्यान न रखने की वजह से बहुत सारे लोग हमें देश के दुश्मन लगने लगते हैं और उनके खिलाफ सेना, पुलिस से लेकर तमाम कार्पोरेटी गुंडों तक का बर्ताव हमें सही लगने लगता है। क्या देश के संसाधन, न्याय, अवसर आदि के लिहाज से सभी लोग सचमुच बराबर हैं या संविधान से इतर कोई और व्यवस्था काम कर रही है?

      आप अपनी आँखों को खोलकर देखेंगे तो पाएँगे कि देश की बहुसंख्या की संवैधानिक जिम्मेवारी सिर्फ वोट देने तक सिमट गई है। याकि समेट दी गई है। वह जनता जिससे सचमुच का देश खड़ा होता और जगमगाता वह किसी धीमी गति की टार्चर फिल्म की तरह एक भयावह टार्चर से गुजर रही है और दूसरी तरफ हत्यारे, माफिया, पूँजीपशु और उनके दलाल, धर्म के धंधेबाज, भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे नेता और नौकरशाह और उनके लगुए भगुए अपराधी उस पर राज कर रहे हैं। तमाम ऊपरी अंतर्विरोधों के बावजूद इनका गठजोड़ इतना तगड़ा है कि ये राष्ट्र के पर्याय बन बैठे हैं और इनके खिलाफ कुछ भी बोलना राष्ट्रद्रोही होना है। तो सवाल यह है कि आजादी का जो सपना हमने देखा, जिसे हमने अपनी आँखों में बसाया... उसका क्या हुआ? और यह भी कि कोई सपना क्या आँखों में बसा लेने भर से पूरा हो जाता है या उसके लिए कुछ करना भी पड़ता है? सवाल यह है कि क्या हमने उस सपने को पूरा करने के लिए या वास्तविक बनाने के लिए ईमानदार कोशिशें की या कि यह काम हमने बस कुछ लोगों के लिए छोड़ दिया जो दावा कर रहे थे कि वे हमारे लिए चाँद सितारे तोड़ लाएँगे।

      एक और चीज है बाजारवाद जो आजादी के नारे के साथ यहाँ आ चुका है बल्कि यह ऊपर के गठजोड़ की नियामक शक्ति बन चुका है। यह ग्लोबल दैत्य है। यह दुनिया भर के लोगों को आजाद करने का दम भरता है। इसी के इशारे पर अरब से लैटिन अमेरिका तक, वियतनाम से अफगानिस्तान तक करोड़ों लोग आजाद कर दिए गए। भाषाएँ और संस्कृतियाँ आजाद हो गईं। खानपान आजाद हो गया। यह आजादी की ब्रांडिंग और पैकेजिंग का मदमस्त कारोबार है। इस कारोबार ने हमको नागरिक की बजाय उपभोक्ता बना दिया है। आज जब हम लोगों के वर्ग बाँटते हैं तो इसका एक महत्वपूर्ण शिरा उनकी क्रय शक्ति और एक उपभोक्ता के रूप में बाजार से बनने वाले संबंध से भी जुड़ता है। और वहीं से मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग के लिए आजादी का एक नया मतलब प्रकट होता है। यह मतलब है असीमित उपभोग की आजादी। मनचाहे ब्रांड का सामान घर लाने और उसे कभी भी बदल देने की आजादी। इस आजादी के बरक्स एक साधारण किसान या मजदूर की आजादी का क्या मतलब बनता है यह बताने की जरूरत नहीं हैं। यह स्थित बहुत पुरानी है कि कुछ व्यक्ति उपभोग करते रहे हैं और कुछ उनके उपभोग का सामान बनते रहे हैं पर यह आज के समय जैसे तीखे औए अश्लील रूप में पहले कभी प्रकट नहीं हुई थी।

      यह अश्लीलता मीडिया के माध्यम से घरों की आंतरिक साज-सज्जा का हिस्सा बन गई है। मीडिया ने कुछ ऐसा जादू किया कि लोगों में सही गलत का भेद खत्म हो गया। देखते देखते सारे अखबार और न्यूज चैनल, मनोरंजन के चैनल, सिनेमा सब पर कार्पोरेट पूँजी के दानव कुंडली मारकर बैठ गए हैं। पिछला चुनाव मीडिया पर पकड़ का ही सबूत है। यही नहीं अब तो छवि निर्माण के लिए मीडिया की तमाम सहायक एजेंसियाँ हैं। चुनाव मैनेजर हैं। एक वोट देने की आजादी थी वह भी पिछले दरवाजे से छीन ली। अब टीवी और अखबार और इंटरनेट सब मिलकर तय करेंगे कि आप किसे वोट देंगे। वे मत निर्माण करेंगे। आप गए ठेंगे से। वे तमाम चीजों को कुछ इस तरह से पेश करेंगे कि आप के लिए काले और सफेद में भेद करना मुश्किल हो जाएगा। तब वे बताएँगे कि देखो यह है काला और यह है सफेद और आप मान लेंगे। यह खेल एक गजब की खेल भावना के साथ शुरू हो चुका है।

      एक पूँजी का महादैत्य अरबों खरबों अपने लिए एक महल बनवाने में उड़ा देता है। आप याद रखिए कि वह कोई मध्यकाल का ऐयाश तानाशाह नहीं है। संविधान के पन्नों पर वह भी उतना ही हक रखता है जितना कि कोई एक साधारण मजदूर...। पर क्या सच? यह स्वाधीन भारत के भीतर का एक अश्लील भारत है। ऊपर का उदाहरण कोई इकलौता उदाहरण नहीं हैं। हमारी चुनी हुई सरकारें तक जितना पैसा किसी योजना में खर्च करती हैं उससे अधिक पैसा दिखावे और विज्ञापनों में उड़ा देती हैं और हमें यह अश्लील नहीं लगता। अब तो वामपंथी सरकारें भी इस भेड़चाल में उसी तरह से शामिल हो रही हैं। कभी लोकतांत्रिक भारत की व्यथा कथा को अपनी कविताओं की विषयवस्तु बनाने वाले हिंदी के अद्भुत कवि रघुवीर सहाय ने अपनी कविता अधिनायकमें सवाल पूछा था कि - राष्ट्रगीत में भला कौन वह / भारत-भाग्य-विधाता है / फटा सुथन्ना पहने जिसका / गुन हरचरना गाता है। आगे जो कुछ भी है वह इसी हरचरना की तरफ से आजादी या स्वाधीनता के मतलब की तलाश है। ऐसा नहीं है कि हरचरनों के पास कोई आजादी ही नहीं है। उनके पास भी तरह तरह की आजादियाँ हैं। यहाँ उन्हीं आजादियों पर एक आजाद नजर डाली जा रही है।
  
इस बार गर्मियों में घर जाते हुए जब इलाहाबाद उतरा तो स्टेशन के बाहर निकलते ही कई रिक्शेवालों ने घेर लिया। यह एक आम दृश्य है। पर उसी भीड़ में एक अस्थिपंजर सा बूढ़ा था, कम से कम सत्तर साल का यानी लगभग आजाद भारत की उम्र का। वह पैर छूने लगा कि मैं उसके रिक्शे पर बैठूँ। मैं बैठ गया। मैंने उससे बातचीत करने की कोशिश की पर रिक्शा चलाते हुए उसकी साँस इस तरह फूल रही थी कि बातचीत करना उसके लिए संभव नहीं था। उस पर मुझे एक मध्यवर्गीय दया आ रही थी पर उसके लिए मेरी उस दया का कोई मोल नहीं था। मोल था तो उस पैसे का जो मैं थोड़ी देर बाद चुकाने वाला था। सवाल यह है कि उसने श्रम किया मैंने उस श्रम की कीमत चुकाई पर बीच में वह दयनीयता कहाँ से आई जो उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन गई थी। वह पैर छूते हुए, हाथ जोड़ते हुए कुछ इस तरह से अपने रिक्शे में बैठने के लिए अनुरोध कर रहा था जैसे भीख माँग रहा हो। एक आजाद और लोकतांत्रिक देश का श्रम करता हुआ सत्तर साला नागरिक एक फटेहाल जर्जर भिखारी बूढ़े में कैसे बदल गया। सवाल यह है कि उसके लिए इस स्वतंत्रता या स्वाधीनता का क्या मतलब है?

            यह एक उदाहरण भर है। इस तरह के दूसरे बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं। तमाम छोटे बड़े शहरों के लेबर चौराहों का दृश्य इससे बहुत अलग नहीं बनता। यह बेकारी के बरक्स रोजी की एक दयनीय तलाश ही है। इलाहाबाद, बनारस, पटना, दिल्ली या कोटा जैसे शहरों में अपने अपने कमरों में बंद सिविल, इंजीनियरिंग, मेडिकल, कामर्स या तरह तरह की दूसरी परीक्षाओं की तैयारियाँ करते हुए, दुनियावी यथार्थ से कटे पर सब कुछ रट्टा मारकर घोटकर पी जाने को आतुर युवाओं के लिए स्वाधीनता का क्या मतलब है? यह सवाल तब भी उतना ही मानीखेज है जब उनमें से कुछ युवा अपना इच्छित पा जाते हैं? क्या उन्हें अपनी युवावस्था के वे उर्वर साल कभी याद आते होंगे जो उनकी स्वाधीनता को अर्थ दे सकते थे? क्या वे कभी जान पाएँगे कि स्वाधीनता दरअसल अपने लिए एक सही रंग की तलाश है और वही रंग उन्होंने हमेशा के लिए खो दिया है। बहुत पहले धूमिल ने अपनी कविता बीस साल बादमे अपने आप से एक सवाल पूछा था कि बीस साल बाद / मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूँ / जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है? / और बिना किसी उत्तर के चुपचाप / आगे बढ़ जाता हूँ...। इसी कविता में आगे वह पंक्तियाँ भी थीं कि... बीस साल बाद और इस शरीर में / सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए / अपने-आप से सवाल करता हूँ - क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है / जिन्हें एक पहिया ढोता है / या इसका कोई खास मतलब होता है?’

      मेरे देश के करोड़ों लोग इसी आजादी का अपना अर्थ तलाश रहे हैं और उनकी तलाश है कि खत्म होने का नाम नहीं लेती। जब मैं यह लिख रहा हूँ तो मेरे सामने आज सुबह की एक खबर है जिसमें नट जाति के एक शहीद को गाँव के सवर्णों द्वारा गाँव में कहीं भी न दफनाए जाने देने की बात है। और इस सब के बरक्स फेसबुक से लेकर गली मुहल्लों तक का यह हल्ला कि अब जाति कहाँ बची है। बल्कि अब तो यह क्रम पलट गया है और अब तो सवर्ण जातियाँ ही उत्पीड़ित हैं। आरक्षण को लेकर हमलावर सवर्णों की संख्या दिन पर दिन बढ़ रही है पर उसी अनुपात में जाति व्यवस्था पर हमला करने वाले सवर्ण दूर दूर तक नहीं दिखाई देते। एकदम यही पैटर्न स्त्री और पुरुष को लेकर भी देखा जा सकता है। कुछ उदाहरणों का सहारा लेकर बहुतेरे यह कहते पाए जाते हैं कि अब पुरुष ही उत्पीड़ित हैं। और वे आसानी से उन तमाम तथ्यों को भूल जाते हैं कि अभी भी स्त्री यौन आधारित हिंसा और पूर्वाग्रहों की भयानक शिकार है। इस वजह से भी और समाज में भरे तमाम पूर्वाग्रहों की वजह से भी उसके आगे बढ़ने के अवसर बेहद कम हैं। वह इस सदियों पुराने भेदभाव का सामना पल प्रतिपल करते हुए आगे बढ़ रही है। पर उसके लिए स्वाधीनता का क्या वही मतलब है जो एक पुरुष के लिए है? अभी भी बहुतेरे पुरुष सगर्व यह कहते हुए मिल जाते हैं कि भई हमने तो उन्हें पूरी आजादी दे रखी है? आपको क्या लगता है कि सचमुच उनके घरों में आजादी जैसी कोई चीज रहती होगी? आजादी का इस तरह का कोई लेन देन संभव है क्या?

यहीं पर हम अली सरदार जाफरी की वह मशहूर कविता कौन आजाद हुआभी याद करते चल सकते हैं जिसमें वह कहते हैं कि - कौन आजाद हुआ? / खंजर आजाद है सीने मे उतरने के लिए / वर्दी आजाद है बेगुनाहों पर जुल्मो सितम के लिए / मौत आजाद है लाशों पर गुजरने के लिए...आजाद भारत में जितनी तेजी से आंतरिक उपनिवेश फैले हैं और उनका विरोध करने पर जिस तरह का दमनचक्र चलाया गया है वह उपलब्धि भी आजाद भारत के ही खाते में जानी चाहिए। तमाम देशी विदेशी कंपनियों की बेलगाम लूट का विरोध करना देशद्रोही और नक्सली होना है। वैसे लोगों के लिए आजादी या स्वाधीनता जैसे शब्दों का मतलब क्या वही है जो उन तमाम कंपनियों में रोजी कमा रहे भारतीय नागरिकों के लिए है? स्वाधीन भारत के लगभग सत्तर सालों में सेना, पुलिस या नौकरशाहों के चरित्र में किस तरह के बदलाव आए हैं? और उनका आजादी के उस महान सपने से कोई रिश्ता नाता बनता है क्या जिसको लेकर लाखों लोग उपनिवेशवाद की लूट के खिलाफ अपने आपको कुर्बान कर देने के लिए सड़कों पर उतर आए थे? एक छोटा सा ही सही पर सवाल तो यह भी है कि अगर व्यवस्था में बैठे कुछ लोगों की आँखों में एक सचमुच की आजादी का सपना बसता भी है तो आजाद भारत की समूची व्यवस्था उनके साथ क्या सलूक करती है।

हमारी सरकारों ने हमको विकसित और स्मार्ट बनाने के लिए कमर कस ली है। स्पेशल इकोनामिक जोन, स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, बिजनेस हब जैसी योजनाएँ किन लोगों का सपना हैं? गुड़गाँव, नोएडा, गाजियाबाद जैसे शहरों में जिस तरह से अपराध का ग्राफ बढ़ा है उसके पीछे आजादी की कौन सी परियोजना काम कर रही है यह समझना कठिन है क्या? शहरों में जिस अनुपात में तरह तरह के नशेड़ी और भिखमंगे बढ़ रहे हैं उनके लिए आजादी का कोई मतलब कभी बनता था क्या याकि वे अपनी जीन में ही भिखारीपन और नशेड़ीपन लेकर पैदा हुए थे? उन लाखों बच्चों की आँखों में कौन सी आजादी का सपना लहलहाता होगा जो सड़कों पर तरह तरह के शोषण और हिंसा का शिकार बनते हुए भटकते रहते हैं। कभी उनके लिए भी कोई स्मार्ट सिटी या स्मार्ट स्कूल आदि बनेंगे क्या? यहीं पर सवाल यह भी है कि क्या इरोम शर्मिला और सोनी शोरी जैसी स्त्रियों का भारत माता से कोई रिश्ता बनता है या नहीं? अगर बनता है तो उन आँखों के सपने हममें से ज्यादातर की आँखों से क्यों नहीं जुड़ते? उनके ऊपर की गई हिंसा पर हमारी आँखों में कोई कड़वाहट क्यों नहीं भरती?

किसान स्वाधीन हैं कि वह माटी के मोल अपनी फसलें बेचें या उन्हें खेतों में ही जला दें और भूखों मरें। मजदूर स्वाधीन हैं कि वह बहुत ही कम मजदूरी पर अपना श्रम बेचें या कि भीख माँगें। वैसे जो स्वाधीनता उनको हासिल है उसमें श्रम करने और भीख माँगने में कोई बहुत ज्यादा अंतर बचा भी नहीं है। आदिवासी स्वाधीन हैं कि वह तमाम अंबानियों, अडानियों और वेदांता आदि के जमीन और जंगल खाली कर देने के विनम्र अनुरोध को मान लें और शहरों के स्लम में मर खप जाएँ। इतना ही नहीं उन्हें तो आजादी का दूसरा भी विकल्प हासिल है। स्थानीय दलाल गुंडों और पुलिस, पीएसी के लिए अपनी औरतें परोसें अन्यथा नक्सली होने के आरोप में मारे जाएँ। शहर जाने पर स्थानीय प्रशासन और गुंडों को कुछ घूस वूस देकर स्लम में रहने की पूरी आजादी है उन्हें। इस बात की भी आजादी है कि वे शहरों के सभी अपराधों को अपने सर मत्थे लें और जब कभी शहरों पर सौंदर्यीकरण आदि का भूत सवार हो तो दो चार लाठी खाकर नए स्लम तलाशें।

हिंदी के चर्चित कवि संजय चतुर्वेदी की एक कविता है सभी लोग और बाकी लोग’, जिसमें वह लिखते हैं कि - सभी लोग बराबर हैं / सभी लोग स्वतंत्र हैं / सभी लोग हैं न्याय के हकदार / सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं / बाकी लोग अपने घर जाएँ / सभी लोगों को आजादी है / दिन में, रात में आगे बढ़ने की / ऐश में रहने की / तैश में आने की / सभी लोग रहते हैं सभी जगह / सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं / सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ / सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं / बाकी लोग दुखी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएँ / ये देश सभी लोगों के लिए है / ये दुनिया सभी लोगों के लिए है / हम क्या करें अगर बाकी लोग हैं सभी लोगों से ज्यादा / बाकी लोग अपने घर जाएँ।यहाँ मुद्दा यह है कि सभी लोगों की आँखों में तो एक जैसे सपने हैं पर बाकी लोगों के सपने इतने अलग अलग और एक दूसरे से अपरिचित क्यों हैं? बाकी लोग अभी भी जाति, धर्म और तरह तरह के ऊँच नीच और अंधविश्वासों में खोए हैं और सभी लोग इस काम में उनकी अथाह मदद कर रहे हैं।

शिक्षा एक अलग चीज है। आपको पूरी आजादी है कि सरकारी शिक्षा हासिल करें ठीक उसी तरह जैसे कि सरकार बहादुर को यह आजादी है कि वे सरकारी शिक्षण संस्थानों को भ्रष्ट और नाकारा बनाते जाएँ। यह भी सरकार बहादुर की उदारता है कि अगर आप सरकारी संस्थानों में न पढ़ना चाहें तो कहीं पर लाखों-करोड़ों की डकैती डालें और निजी संस्थानों में क्वालिटी एडुकेशनहासिल करें। आपको आजादी है कि अपनी मातृभाषाओं को भूल जाएँ और अँग्रेजी सीखें। यह भी आजादी है कि अगर अँग्रेजी न सीख पाएँ तो सरकार बहादुर का मुँह भकर भकर ताकें और नौकरी चाकरी न मिलने पर शिकायत न करें। पर नहीं, सरकार बहादुर आपके लिए बहुत फिक्रमंद हैं। आपके सामने एक मौका और है। जमीन बेचें या अपने आपको... बड़ी बड़ी नोटों से दो चार अटैचियाँ भरें और सरकार बहादुर के चरणों में समर्पित कर दें और चाकरी पाएँ। यह भी नहीं कर सकते तो आप किसी काम के नहीं हैं। तब किसी तरह की आजादी का सपना आपकी आँखों का कीचड़ है। तब आप भीख माँगें, अपनी दलाली करें या भूखों मरें। सरकार बहादुर कब तक आपकी चिंता में अपना खून जलाएगी? उसे और भी काम हैं।  

आपको आजादी है कि आप अपने देश के अल्पसंख्यकों से घृणा करें और बदले में उनकी भी घृणा पाएँ। ऐसे मामलों में कई बार सभी लोग और बाकी लोग का मामला जानबूझकर बदल दिया जाता है। आपको पूरी आजादी है कि आप इस बदलाव के पीछे की सियासत को न समझें और मरें और मारें। आप को आजादी है कि ऐसे समय में अपना भूखा-नंगा होना भूल जाएँ। आजादी है कि इस बहाने अपनी दीनता और कुंठा बाहर निकाल फेकें बल्कि उसे चाकू बनाकर अपने पड़ोसी के भीतर उतार दें। आप निश्चिंत रहें कि आप का बाल बाँका नहीं होगा और अगर हो भी गया तो वैसे ही कौन से आपके बाल सुरक्षित हैं। अगर आप अल्पसंख्यक हैं तो आपको पूरी आजादी है कि मारे जाएँ और अपने ही और भीतर घुसते चले जाएँ। बाकी इस बात की तो सभी को पूरी आजादी है कि अपने अपने बाबाओं और बाबियों की चरण रज धो-धोके पिएँ। वे कुछ भी करें उन्हें विरोधियों की साजिश मानें। उन्हें सर पर बैठाओ भले ही वे तुम्हारे ऊपर मल-मूत्र का ही विसर्जन करें। उन्हें प्रसाद मानने की पूरी आजादी है आपको।

आपको पूरी आजादी है कि बरगद में सूती धागा बाँधें। पीपल पर के पहलवान को लँगोट चढ़ाएँ। भूतों से मुक्ति पाने के लिए ओझाओं और मजारों के चक्कर काटें। पूरी आजादी है कि आप मानें कि यह दुनिया शेषनाग के फन पर टिकी है और जन्नत में हूरें या अप्सराएँ मिलती हैं। आप देखेंगे कि आपकी व्यवस्था कितनी उदार है कि ऐसा करने से आपको एक बार भी नहीं रोकेगी। उसे आपकी आजादी का पूरा पूरा खयाल है। आपको आजादी है हजारों साल पहले के समय में वापस लौटने की। आपको पूरी आजादी है एक दिशाहीन बर्बर पागल जानवर में बदल जाने की, बस सरकार बहादुर की इतनी ही गुजारिश है कि आप उसके काम आते रहें। आपको पूरी आजादी है कि कोई कलबुर्गी, कोई पानसरे अगर आपके एक घिनौने मनुष्य होने पर सवाल उठाए तो सरकार बहादुर की तरफ से उसे फाड़ खाएँ। आपको पूरी आजादी है बल्कि सरकार बहादुर का पूरा समर्थन है इस मसले पर। और आप जानते हैं कि इस आजादी का आप पूरा फायदा उठाते हैं।

आप भाग्यशाली हैं कि आप के पास अपना कहने के लिए एक देश है। आप और भाग्यशाली हैं कि आपको भारत जैसा देश मिला है। इतना खूबसूरत, इतना विविधता से भरा, इतनी भाषाएँ, इतनी संस्कृतियाँ। आपको आजादी है कि आप देश से प्रेम करें और इसकी विविधता से घृणा। आपको आजादी है कि अपने धर्म से प्रेम और संस्कृति से प्रेम करें और पड़ोसी की धर्म और संस्कृति पर लानत भेजें। इस मसले पर भी आपको सरकार बहादुर की तरफ से पूरी आजादी है। आपको आजादी है कि आप सेना में भर्ती होकर देश के भीतर या बाहर के अपने जैसे लोगों से लड़ते हुए जान दे दें। आपको यह भी आजादी है कि सेना में भर्ती के लिए आयोजित होने वाली दौड़ में उत्तीर्ण होने के लिए किसी उत्तेजक दवा का सहारा लेकर दौड़ते डौड़ते अपनी जान दे दें। आपको किसी भी तरह से मरने की पूरी आजादी है। सीमा पर मरें या देश के भीतर मरें। अपने गले में फाँसी का फंदा डालकर मरें या सल्फास खाकर मरें। पड़ोसी के हाथों मरें या किसी हत्यारे के हाथों। कुछ भी न हो तो भूख से ही मर जाएँ। इतनी असीमित आजादी आपको इतिहास में पहले कभी हासिल थी क्या

रविवार डाइजेस्ट के स्वाधीनता अंक से साभार 

 फोन : 08275409685
ई-मेल : chanduksaath@gmail.com




पति, पत्नी और वो का मुकदमा और 'रुस्तम'

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नानावती के प्रसिद्ध मुकदमे को लेकर फिल्म आई है'रुस्तम'. पति, पत्नी और वो की इस कहानी को देखने का नजरिया भी समय के साथ बदलता जा रहा है और इसकी व्याख्या भी. 'रुस्तम'की एक आलोचनात्मक समीक्षा लेखिका दिव्या विजय ने लिखी है- मॉडरेटर.
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सीपिया शेड की यह फ़िल्म बाहर से आकर्षक लगती है।  पर मनोरंजक होने का प्रयत्न करते हुए यह सतही हो उठती है। रुस्तम देखने के बाद सोच में पड़ जाया जाए यह ऐसा सिनमा क़तई नहीं है। यह एक सनसनीख़ेज़ घटना को भौंडेपन की चाशनी में लपेटने की कोशिश भर है.

सन १९५९ के चर्चित नानावटी केस पर बनी यह फ़िल्म उस केस का पोस्टमार्टम करती प्रतीत होती है। उस दौरान अपनी पत्नी सिल्विया का सम्बंध अपने ही मित्र प्रेम आहूजा से होने के कारण नौसेना के अफ़सर कमांडर के.एम. नानावटी ने, अपने मित्र की हत्या उसके सीने में तीन गोलियाँ उतार, कर दी थी. तत्पश्चात उन्होंने अपने जुर्म का इकबाल किया था जिसके एवज़ में उन पर मुक़दमा चलाया गया. इस ट्रायल कोर्ट के ज्यूरी मेंबर्स ने उन्हें सहानुभूतिवश निर्दोष क़रार दिया. मुक़दमा हाई कोर्ट में स्थानांतरित हुआ जहाँ उन्हें उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गयी. इसके खिलाफ नानावटी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की मग़र सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का फ़ैसला बरक़रार रखा. अंत में नानावटी की क्षमादान याचिका तत्कालीन गवर्नर तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित के पास पहुँची जिसे पब्लिक ओपिनियन को मद्देनज़र रखते हुए स्वीकार कर लिया गया.  पब्लिक ओपिनियन बनाने में बड़ा हाथ तब के समाचार पत्र  ब्लिट्ज का भी था. अभूतपूर्व मीडिया कवरेज के परिणामस्वरूप इस केस का निर्णय बदल गया.

यह सारा प्रकरण न सिर्फ अपनी विषयवस्तु के कारण बल्कि विस्तृत मीडिया कवरेज, सिंधीपारसी समुदाय की भागीदारी के कारण आम लोगों की दिलचस्पी बटोरने में सक्षम रहा था.


फ़िक्शन होने का दावा करने वाले चलचित्र इतिहास की घटनाओं को उठाते हैं और उनमें मनमाने घटक जोड़ते घटाते  हैं। सिनमा एक उदार माध्यम है और इस तरह के प्रयोगों के लिए कोई रोक नहीं होनी चाहिए। लेकिन अगर यही घटक सारहीन न होकर सार सहित हों तो अधिक अपील करेंगे।

मसलन, कोर्ट में गवाही देने आयी घरेलू हेल्पर जब चीख़ कर दलील देती है कि बाहर काम पर गए आदमी की बीवी के साथ अगर कोई चक्कर चलायेगा तो  उसका हश्र यही होना चाहिए तो कोर्टरूम तालियों से गूँज उठता है। उसके बाद उसका जज से प्रश्न कि अगर आपकी बीवी के साथ इस वक़ील का चक्कर होगा तो आप क्या करेंगे। जैसे महज़ अपनी स्त्री के किसी के साथ विवाहेत्तर सम्बन्ध होने मात्र से आप उस पुरुष का क़त्ल करने के अधिकारी हो जाते है और उसका क़त्ल कर देना हर तरह से जायज़ हो जाता है. यह दीगर बात है कि उसे अदालत की अवमानना के लिए सज़ा सुना दी जाती है। पर यह सब मज़ाक़ अधिक प्रतीत होता है।

अख़बार बेचने वाले लड़के द्वारा बोला गया यह संवाद, "घर जाओ आपकी बीवी अकेली है"औरत को पूरी तरह ऑब्जेक्ट के रूप में स्थापित करता है जिस पर निरंतर नज़र रखना आवश्यक है। ज्यों ही बीवी को अकेला छोड़ा त्यों आपके हाथ से गयी।

सन १९५९ में इस केस के प्रति आम जनता का रूख यही था कि नानावटी मध्यम वर्ग से संबद्ध,अपनी बीवी से बेहद प्रेम  करने वाला और उसके द्वारा छला गया व्यक्ति है। परंतु फिर भी, इस तरह के चालू संवाद भले ही आगे की पंक्ति के दर्शकों को सीटियाँ बजाने का या पुरुष दर्शकों को ताली पीट हँसने का मौक़ा दे मगर लगते यह कुत्सित ही हैं। इस तरह के संवादों से बचा जा सकता था।

आज़ादी के बारह वर्ष बाद के समाज का चित्रण देखते हुए एक बात तो समझ आती है, कि समाज चाहे तब का हो या अब का, स्त्रियों के प्रति लोगों की मानसिकता में अधिक परिवर्तन नहीं है।

नायिका के विवाहेत्तर सम्बन्ध को तर्कसंगत क़रार देने या नायिका की इनोसेन्स साबित करने के लिए निर्देशक द्वारा एक बचकानी दलील फ़िल्म में दी गयी है। पति के जाने से आहत हुई  पत्नी, पति को आहत करने के लिए किसी और आदमी से सम्बन्ध बनाती है। क्यों नहीं फ़िल्म बोल्ड्ली यह दिखा पाती कि औरत अकेला महसूस कर सकती है। और उसी अकेलेपन में या दूसरी ज़रूरतों के कारण वो किसी पुरुष की ओर आकर्षित हो सकती है।फ़िल्म यह भी नहीं दिखा पाती कि सिन्थिया का प्रेमी अपनी प्रेमिका को मात्र दैहिक संतुष्टि के लिए इस्तेमाल कर रहा है। फ़िल्म इसमें देशभक्ति, देश के प्रति ग़द्दारी, ब्लैकमेलिंग, प्रेमिका के पति से बदले आदि का घालमेल करते हुए एक नाजायज़ सम्बन्ध को अलग ही जामा पहनाने की कोशिश करती है। इक्कीसवीं सदी में भी इस तरह के स्पष्टीकरण की आवश्यकता क्यों पड़ती है? क्या अब भी दर्शक इतने परिपक्व नहीं हैं कि अडल्ट्री को सीधे स्वीकार सकें।

इसके अतिरिक्त नायिका कुछ गीतों को छोड़ सिर्फ आँसुओं का अंतहीन स्रोत प्रतीत होती है. उसका दुःख और पश्चाताप समझ आता है परन्तु दुःख सिर्फ आंसुओं से सम्प्रेषित नहीं होता.

बुरे किरदार को अच्छे किरदारों से अलग करने का सबसे आसान तरीक़ा है कि उनके हाथों में सिगरेट या सिगार पकड़ा दिया जाये। और इस पुरानी मान्यता का प्रयोग निर्देशक ने लगभग हर फ़्रेम में किया है। चाहे वो सिन्थिया का प्रेमी विक्रम हो या गहरी लाल लिप्स्टिक लगाए विक्रम की बहन हो। इसी तरह देशभक्ति को कैश करने का सबसे आसान उपाय मेडल और यूनीफ़ॉर्म दिखाना है जिसे नायक पूरी फ़िल्म के दौरान पहने रहता है। अभिनेताओं के चरित्रांकन में कुछ मौलिकता निश्चित रूप से लायी जानी चाहिए थी।

और  इन सबके बीच तमाचे जैसी वो तख़्तियाँ लगती हैं जो अदालत के बाहर लड़कियाँ लिए खड़ी होती हैं जिन पर लिखा होता है, "रुस्तम, आई वांट टू मैरी यू.", "रुस्तम आई वांट योर बेबी।"
निर्देशक इन तख़्तियाँ से क्या साबित करना चाहता है! पुरुष अपने रक़ीब का क़त्ल कर इतना बड़ा हीरो हो जाता है कि लड़कियाँ यह जानते हुए भी कि वो शादीशुदा है उस से शादी रचाने को और उसके बच्चे की माँ बनने को आतुर हो जाती हैं।

किसी भी कला को सम्पूर्णता से खारिज नहीं किया जा सकता. लिहाज़ा कुछ अच्छी बातें यहाँ भी हैं जैसे रंग, कॉस्ट्यूम्स, मेकअप, सेट्स  आदि आपको एक बार तो बॉम्बे ले जाकर रेट्रो फील दे ही देंगे.


कुल मिलाकर  यह एक लचर कथानक वाली फ़िल्म है जिसमें देशभक्ति के एलिमेंट को बैसाखी के रूप में इस्तेमाल किया गया है।

अंग्रेजी बोलना गौरव हरियाणवी बोलना कलंक! है न शोभा जी?

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रियो ओलम्पिक और उसको लेकर खिलाड़ियों के ऊपर आने वाली ऊलजुलूल प्रतिक्रियाओं के बहाने जाने-माने पत्रकार, लेखकरंजन कुमार सिंहका एक चुभता हुआ, झकझोर देने वाला लेख- मॉडरेटर 
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मैं भारत का एक अदना सा नागरिक, रंजन कुमार सिंह, अपनी और से और अपनी औकात से बाहर जाकर पूरे देश और उसकी जनता की और से रियो ओलंपिक में शामिल अपने सभी खिलाड़ियों से क्षमा मांगता हूं कि हमने समय रहते उनपर ध्यान नहीं दिया, बल्कि उन्हें नजरअंदाज ही किया। वह चाहे दीपा करमाकर हो या फिर पी.वी. सिन्धु, विकास कृष्ण हो या फिर साक्षी मलिक, हमारे ये तमाम साथी जब अपनी तपस्या में लगे भारत को ओलंपिक पदक दिलाने का मंसूबा संजो रहे थे, तब हमारा पूरा ध्यान विश्व क्रिकेट और ट्वेंटी-ट्वेंटी पर था। हमारी हालात उस पिता के समान है जो साल भर तो अपनी बेटी की पढ़ाई-लिखाई से बेखबर रहता है और फिर यह आशा करता है कि वह अच्छे नंबरों से पास हो। शर्मसार होकर ही सही, पर मुझे यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि अब से पहले मैंने दीपा करमाकर का नाम तक नहीं सुना था। मैंने ही क्यों, देश के खेल अम्बैस्डर सलमान खान तक ने उनका नाम कहां सुन रखा था? और ना ही प्रेस के लोग उसका सही नाम जानते थे। यदि भारतीय प्रेस ने अपनी जिम्मदारी का निर्वाह करते हुए हमें उनके तप और तपस्या का बोध कराया होता तो भी कोई बात होती। लेकिन प्रेस को तो सलमान खान और शाहरुख खान की यारी-दुश्मनी से ही फुर्सत नहीं होती और होती भी है तो फिर उसके ध्यान में धोनी और विराट समाये रहते हैं। और नहीं तो उसकी नजर विराट और अनुष्का से ही नहीं हट पाती।

ओलंपिक में भारत का झंडा लेकर जानेवालों के प्रति हमारे मन में कितना सम्मान है, यह तो शोभा डे ने ही अपनी ट्वीट से साफ कर दिया था। जिनसे हम कोई आशा रखते हैं, उनके प्रति हमारे मन में अगर सम्मान ही न हो या फिर हमें उनकी कोई चिन्ता ही न हो तो फिर इस तरह की आशा-आकांक्षा का कोई मतलब नहीं होता। सालो-साल हमारे खेल संगठन अन्तरकलह का शिकार बने रहते हैं और फिर कहीं कोई राज्यवर्धन सिंह राठौर या साइना नेहवाल सामने आए नहीं कि वह अपनी ढपली बजाने में लग जाते हैं। पी0टी0 उषा के पैरों में जूते हैं कि नहीं, दीपा करमाकर को वाल्ट मयस्सर है भी या नहीं, नरसिंह यादव की खुराक में अवांछित तत्व कहां से आ रहे हैं, कब, किसने इनकी चिन्ता की? दीपा ने जो किया, वह उसकी और उसके कोच बिस्वेश्वर नन्दी की मेहनत और उसके माता-पिता के प्रोत्साहन का सुफल है। साक्षी ने जो कुछ किया, वह उसकी अपनी लगन और उसके परिवार के बढ़ावे का नतीजा है। सिद्धु या फिर श्रीकान्त के करिश्मे के पीछे वे खुद है, या फिर उनके कोच गोपीचन्द। हम उनके लिए करते ही क्या हैं? आस्ट्रेलिया या अमेरिका अपने खिलाड़ियों को किसी सिने अभिनेता से कम महत्व नहीं देता। जबकि हम शायद अब भी उसी मानसिकता के शिकार है कि खेलोगे-कूदोगे होगे खराब। इस मानसिकता को अगर कहीं चुनौती मिलती भी है तो केवल क्रिकेट से।

विकास कृष्ण ने उज्बेकिस्तान के बेक्तमीर मेलिकुझेव के हाथों अपनी हार के लिए देश से माफी मांगी है कि वह हमारी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सका। इससे पहले दीपा करमाकर ने भी ट्वीट कर देश से माफी मांगी थी कि उसने हमें निराश किया। क्या वाकई इनमें से किसी ने भी हमे निराश किया? सच तो यह है कि हम ही उन्हें आज तक निराश करते रहे हैं। जब कोई राज्यवर्धन राठौर या योगेश्वर दत्त मेडल जीतकर लाता है तो हमारा सीना गर्व से फूल उठता है और नहीं तो हमें उन्हें अपना कहने में भी लज्जा आती है मानो कि वे कोई गली के आवारा कुत्ते हों। है ना शोभा जी? अंग्रेजी में लटर-पटर करने से आप देश की गौरव और हरियाणवी में बोलने से वे देश का कलंक नहीं हो जाते मैडम। आप जैसे लोगों को ख्याति इतनी आसानी से मिल गई है कि आप इन खिलाड़ियों की उपलब्धियों के पीछे की तप-तपस्या को समझ ही नहीं सकते। और मैं आपको सही-सही कहूं, जब आप जैसे लोग इस बात को समझ लेगें तो फिर हम जैसे लोगों को अपने खिलाड़ियों से मापी मांगने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।


 www.ranjanksingh.com

ओलम्पिक के नाम डॉक्टर की चिट्ठी

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आज व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झा की चिट्ठी ओलम्पिक के नाम- मॉडरेटर 
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हम किस मिट्टी के बने हैं? किस चक्की का आटा खाते हैं? या सवाल यूँ तो वाहियात है, पर हमारी बनावट से जुड़ा है। उत्तर-पूर्व के लोग अक्सर फिट-फाट होते हैं, 'V'आकार के शरीर वाले। बंगाल-उड़ीसा तक आते-आते पुरुष सिकुड़ जाते हैं, ऐनक आ जाती है और महिलायें गोल-मटोल होनी शुरू हो जाती है। तेलंगाना से तमिलनाडु तक आते-आते गोलाई-चौड़ाई बढ़नी शुरू हो जाती है। केरल का भी वही हिसाब-किताब है, पर कुछ सिकुड़न वापस शुरू होती है। कर्नाटक-महाराष्ट्र-विदर्भ तक आकर सिकुड़ कर हाड़-माँस हो जाते हैं। गुजरात में थोड़ा संतुलन दिखता है तो राजस्थान सिकुड़ जाता है। पंजाब-हरियाणा में शरीर फिर से खिल उठता है, और उत्तरांचल-हिमाचल-कश्मीर तक हम पुन: 'V'आकार और सधे शरीर में वापस। काऊ-बेल्ट और केंद्रीय भारत का कोई हिसाब-किताब नहीं। मोटे, पतले, चौड़े, सिकुड़े सब मिल जायेंगें।

अपवाद रहेंगें। कोई स्टीरियोटाइप तो है नहीं। पर आटे का कुछ तो असर होगा? गढ़वाली या मणिपुरी को भिड़ा दो बिहारी से पहाड़ चढ़ने में!  वो तो शुक्र है कि देश में हर छोटे-बड़े पहाड़ के ऊपर एक मंदिर जरूर है। श्रद्धा के बहाने पूरे देश की फिटनेस हो जाती है। ७०-८० बरख वाले भी बदरीनाथ खींच देते हैं। वरना दलान की गप्प से पोकोमोन तक हर वर्ग उलझा पड़ा है। स्वास्थ्य का कबाड़ा और चिकित्सकों की चाँदी।

दरअसल आटे से ही ओलंपिक खेला जाता है। हरियाणा और उत्तर-पूर्व से ही सूरमा निकलते हैं। स्वर्ण-तालिका देख लें। खाते-पीते विकसित देश ऊपर नजर आयेंगें, फिर विकासशील और अंत में अविकसित। अफ्रीकी को जब ब्रिटेन वाले अपनी चक्की का आटा खिलाते हैं, दे गोल्ड पर गोल्ड मारता है।

वैसे उनके अपने टोटके हैं, अलग-अलग चक्कियाँ हैं। मुक्केबाजी और दौड़ में अश्वेत आये तो कॉकेशियन मूल पर भारी पड़े। जब श्वेतों के खेल में वेस्ट-इंडीज के सूरमा उतरे थे, पानी माँगने का मौका न देते थे। क्लाइव लॉयड ने पुंगी बजा दी थी। तैराकी और जिमनास्टिक में हाल तक उल्टा हिसाब-किताब था। अश्वेत शायद पहले उतने लचीले न रहे हों। अब मामला बदल रहा है। वो जमाना गया जब कैशियस क्ले को ओलंपिक स्वर्ण ओहायो नदी में बहानी पड़ी, धर्म बदलना पड़ा क्यूँकि एक रेस्तराँ से निकाल दिये गये। क्यूँकि वहाँ बस श्वेत खाते थे। अब सब एकहि चक्की का खाते हैं। अश्वेत लॉन-टेनिस और तैराकी में धूम मचा रहे हैं।

शोभा जी कुछ भी कहें, चक्की बदलने में हर्ज क्या है? भद्र-मानुष कान में रविंद्र-संगीत लगाकर भी तो दौड़ सकते हैं। गालिब-गुलजार नहीं, पर 'ऐकला चोलो रे'और बाऊल सुनकर दौड़नें में क्या खूब लुत्फ आयेगा? सामंतवाद तो फुस्स हो गया, अब बिहार-यू.पी. में भी एक ही चक्की, एक ही आटा। मेरे यूरोपी मित्र पत्थरों पर साइकल दौड़ाकर 'माउंटेन-बाइकिंग'करते हैं। हमने तो बरसाती नालों और कंकड़ों पर ऐटलस की सेकंड-हैंड साइकल भी खूब दौड़ाई, और देर पहुँचने पर मास्साब'कान भी ऐंठते। मास्साब'के डर से दौड़ाओ या पड़ोसी मुहल्ले की पम्मी के घर चक्कर लगाओ पर साइकल चलाओ जरूर! कसम से एक दिन गोल्ड लेकर आओगे।

रही बात मानसिकता और सरकारी प्रयासों की। मसलन दोनों ही बदल रहे हैं, शनै:-शनै:। हँसने वाले तो हमारे मंगल-ग्रह पर पहुँचने पर विदेशी अखबार में कार्टून छापते हैं। हम इस लीग में नहीं हैं, उस लीग में नहीं हैं। अजी हम जिस लीग में हैं, वहाँ आप शायद कभी नहीं पहुँच सकते। इंदिरा जी फिर से आकर सबका बंध्याकरण कर दें, तो भी अगले २०-३० सालों तक हम अरब से ऊपर ही होंगें। दहाई भी फिट-फाट हो गए, तो सोना-चाँदी-काँसा गिनते रहो बस। और इंदिरा जी का आना तो वैसे भी हाइपोथेटिकल है। मतलब ये नहीं कि ताबड़-तोड़ बच्चे पैदा करें, बस चक्की बदल लें।


दक्षिण कोरियाई फ़िल्म निर्देशक किम की-डुक की पंचतत्वीय अक्षुण्ण गाथा

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कुछ दिन पहले हम ने श्री श्रीकी कविताएं पढ़ी थीं. आज उन्होंने प्रसिद्ध कोरियन फिल्म निर्देशक किम की डुक की पांच फिल्मों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है. पढियेगा- मॉडरेटर 
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सिनेमाई सौंदर्य को कठोर धरातल पर एक महीन दार्शनिक विद्वता के साथ समानांतर ले चलते हुए उस बोध पर ले आने का कायांतरण किम की डुक की सृजनात्मक दृष्टि का मूल विस्तारण है। दक्षिण कोरियाई फ़िल्म निर्देशक किम की-डुक की सिनेमाई शैली अपने आप में मार्मिकता के साथ जीवन की विशालकाय अंतर्मुखी संवेदना और भटकते हुए मानव की सापेक्ष वेदना है। यह भटकाव चेतना के स्तर पर भी है और मानसिक स्तर पर भी। मनुष्य एक रूप में कितना तत्व-बोध से भावांजित है और कितना सहृदय है ,अपने भावों को व्यक्त करने में यह सिनेमा स्क्रीन पर चित्रित करना किम की डुक की एक अनोखी, परिपूर्ण और किंचित अर्जित तथा व्यापक, धार्मिक और अस्तित्व स्वीकार्य क्षति की परिणति है। जहाँ हम तर्क तलाशते हैं लेकिन हमारे हाथ आता है स्वयं को मुक्त करता पूर्ण और तकलीफदेय यथार्थ। किम अपने सिनेमा में बौद्धिक चेतना को बुद्ध के स्तर तक ले जाते हुए जैसे जीवन और ईश्वर का तिरस्कार करने की उपासना को खंडित कर देते हैं। स्वयं को खंड-खंड करते हुए भी वो अपने किरदारों को किसी अविश्वसनीय तरीके से जाने कैसे बचा लेते हैं कि अंत में केवल और केवल करुणा का भाव आँखों में तैरने लगता है और दृश्य देखने वाले को अपने में समाहित कर लेता है।

इस पंचतत्वीय गाथा में किम की-डुक की पांच सिनेमाई कृतियों को एक अधीर आधार पर सौन्दर्यबोधि विश्लेषण में मिले-जुले भूदृश्य, रंग और आवाज़ को अपनी कल्पना और भावभीनी आत्मपरक ठंडी हवा का झौंका दे रही हूँ। इन कृतियों को मैंने जो आधार दिए हैं उनकी विषयवस्तु पर रैंडमली और क्षणिक आवेग में इन्हें अपने कैनवेस पर उतार रही हूँ।

ये आधार हैं  -

किम का अपना जीवन जिसे मैंने देखा नहीं पर एक पछुआ हवा की तरह महसूस कर सकती हूँ और जिसके लिए बेशक मेरे पास शब्द नहीं पर महसूसना भी तो कम बात नहीं।

जिस अवश्यम्भावी प्रायश्चित को किम अपने सिनेमा में दिखाते हैं वह कोमल, कठोर और जड़ मगर उच्च भाव की भूमि वे कहाँ से पाते हैं? एक साथ कोमल भी और कठोर भी, जड़ भी उच्च भी यही विरोधाभास किम को एक अनुशासित और उदास वैभव से युक्त कलाकार बनाता है।

किम की फिल्मों में ख़ामोशी एक शब्दहीन कविता की तरह हर जगह है। अमूर्त आनंद की तरह जो आत्मा में प्रवेश करने का रास्ता बिना किसी सिद्धांत के,बिना किसी उत्तेजना के बना लेती है। यानी किम अपने किरदारों को एक अनोखी भाषा से भर देते हैं। यह ध्यान की उच्च अवस्था को परिलक्षित करता है।

किम का सिनेमा अपने गरिमामय संगीत का एक अविरल झरना है जिसके पास लय, गति और शांतिपूर्ण वेदना है। उनकी फिल्मों का संगीत पाश की कविता 'मैं अब विदा लेता हूँ ',आंद्रेई तारकोवस्की के अनोखे  स्वप्नों की कृति 'द मिरर'और बुद्ध की देशनाओं का परस्पर सम्मिलित सम्मिश्रण सा प्रतीत होता है। जिसे सुनते हुए या तो आँखे बहेंगी या अपने भीतर झुक जाएंगी।

जहाँ पश्चाताप एक अवश्यम्भावी तत्व है, किम के सिनेमा में वहीं पीड़ा का ऐसा दिल दहला देने वाला, आत्मा की सारी शक्ति को जीर्ण-शीर्ण कर देने वाला रुदन है जो कोई आश्वासन नहीं देता उन दृश्यों को देखने वालों को। यह जीवन के निरर्थक-बोध पर तेज़ और तीखी रोशनी से प्रहार करता है। यह रुदन तब तक आत्मा की तोड़-फोड़ करता है जब तक एक करूण पुकार प्रायश्चित के रूप में बाहर नहीं आ जाती।

Pietà (2012)

किम जैसे कला की किरण पर जीवन की आकस्मिक मुस्कुराहट देख चुके। जैसे टूटे तारों में बिखरी और अर्थहीन उत्कृष्टा का पूर्वानुमान लगा चुके। यहाँ सबसे पहले ज़िक्र करना चाहूंगी Pietà का। एक व्यथित संहारक, पैशाचिक रूह का अति निकटतम चेहरा जिसे वस्तु और लोग अलग-अलग मंतव्यों से केवल भोग की चीज़ लगती हैं।जिसके भीतर एक भुतहा अकेलापन है जो निरंतर अग्नि की तरह जल रहा है। यह पैशाचिक हैवानियत क़र्ज़ लिए लोगों को या तो अपाहिज बना देता है या अंतिम विकल्प के तौर पर मृत्यु को अपनाने को मजबूर करता है। पर दृश्य में जो नहीं दिखाई देता किम उस पर लगातार नज़र रखे हैं। इसके लिए किम उसके जीवन में एक आवरण ओढ़े प्रेम को भेजते हैं,उसकी माँ के रूप में। अब जो इंसान बेहताशा नफरत से भरा है, चाकू की तेज़ धार से इंसान और जानवर को एक समान मौत के अंजाम पर पंहुचा सकता है वही इंसान इस माँ नाम के प्रेम से द्रवित होने लगता है। लेकिन यह केवल किम की अदा है अपने किरदार को एक जाल में फसाने  की। उसे उस समतल भूमि पर लाने की जहाँ से वो खुद चोटिल हो।जहाँ से वह जीवन की योजनाओं को टूटते हुए महसूस करे। जहाँ से अपनी आत्मा में थकान महसूस करे। और अंतिम परिणति के रूप में अपने होने को धिक्कारते हुए खुद को कड़ी से कड़ी सजा दे। Pietà का अंतिम दृश्य कभी न भूलने वाला है । आत्मा के कोष को चिथड़े-चिथड़े कर देने वाला अति मार्मिक पर स्थूल नही बल्कि वह सूक्ष्म दृश्य है जिसकी तुलना केवल सूखे रेगिस्तानी आकाश तले लेटी किसी कब्र की बेचैनी से की जा सकती है।

Spring, Summer, Fall, Winter... and Spring (2003)

किम की एक्सट्रीम आत्म-साक्षात्कार करती हुई कृतित्व को मैं नाम दूंगी उनकी बहुत ही सधी हुई आत्मवार्तालाप करती हुई पहेली नुमा भूल-भुलैया सी फ़िल्म 'Spring Summer Fall Winter and Spring'का .
किम की सिनेमैटिक दुनिया अतीत,वर्तमान और भविष्य के बीच से गुज़रती एक लकीर है जिसमें हम हो तो सकते हैं लेकिन उस लकीर पर बैलेन्स कैसे बनाना है उसका रास्ता चुनते हुए, यह  आसन  नहीं । किम आपकी आँखों में आँखें डालकर आपको चोट पहुँचाते हैं, मनुष्यता की इच्छित ग़लतियों और छुपी गहरी बातों को बाहर आने देते हैं। उनसे क्षमा का रास्ता भी बताते हैं और आपको अपने जीवन और फ़ैसलों के साथ एक आस्थानुमा तिनका भी पकड़ा जाते हैं।
ज़िंदगी को देखने की सारी क़वायद हमारे भीतर इस तरह होती है कि हम परित्याग, देवदूतों की स्तुतियाँ और विश्वास जो किम के ज़ोन में कड़े अनुशासन में दिखाई देता है, को एक पश्चाताप के रूप में ग्रहण करने लायक हो जाते हैं। आप रोना चाहेंगे तो किम यही चाहते है क्यूँकि किम की डुक का सिनेमा इसी मोटिव को लेकर चलता है।
इस फ़िल्म में एक दृश्य है जहाँ एक बच्चा अनजाने में जीवों को कष्ट पहुँचाता है लेकिन फिर उसे आत्मदोहन की कड़ी प्रक्रिया से भी गुज़रना पड़ता है।किम इस ख़ूबसूरत फ़िल्म में मनुष्यता का एक वृहद विश्लेषण करते हैं क्यूँकि इस चीर-फाड़ में वे इंसानो को पाप और पुण्य के मध्य उलझा हुआ देख पाते हैं।

Moebius ( 2013 )

किम की-डुक के ज़ोन में जाना हो तो पहले तैयार होना होगा सारे नियमों से ऊपर होकर।
हम यह नही सोच सकते कि किम कोई असाधारण बात कह जाने वाले हैं फ़िल्म में बल्कि Moebius रूह को हिला कर रख देगी। यह इस हद दर्जे की वीभत्सता लिए  हुए  असाधारणता है मानवीय संवेदनाओं  के  आयाम की । हालाँकि इस वीभत्सकारी घटनापूर्ण त्रासदी में वही चिरपरिचित करुणा और क्षमा और ख़ुद को दिया दंड पश्चात्ताप रूप में फ़िल्म देखने वालों को अपनी नज़र में गिरने से बचा लेता है।
एक अति विस्मयकारी अनुभूति जो सहसा उपजने लगती है जब दृश्य दर दृश्य फ़िल्म की कहानी यह सोचने को बाध्य कर देती है कि आखिर किस तरह देह की मिचलाहट रिश्तों को जटिल और जीवन को पशु समान बना देती है . एक ऐसा रिश्ता जिसका आधार केवल और केवल मानवीयता की गुथी हुई सर्वोत्तम आभा है वो देह की पाश्विकता के समक्ष अपने सजे हुए मस्तक का अभिशाप बन जाता है। इस दैहिक खाई में गिर कर माँ-पुत्र का रिश्ता बस बचते बचते ही बच पाता है। लेकिन इसकी घृणित चोट किसी प्रेत-छाया की तरह दर्शक के मन में सुबकती रहती है।
Moebius देह, रिश्तों और नए खुलते वीभत्स  सत्यों की एक ऐसी गाथा है जिसे अनुभूति के स्तर पर एक मौन के रूप में रखना भी किसी दुस्वप्न से कम नहीं क्योंकि जब भी इस  तरफ दृष्टि जायेगी तब-तब आत्मा बुरी तरह से छलनी होगी।

3-Iron ( 2004)
किम की-डुक की फिल्मों की एक और विशेषता है  कि वे अपने किरदारों को संवादों से दूर रखते हैं।इस दृष्टि से कलाकारों का काम किसी भी तरह से भ्रमित नहीं कर सकता। '3-Iron'में किम प्रेम की नाज़ुक सुगंध को हृदय की पहचान बताते हुए  और किसी संताप और दैवीय उपस्थिति के साथ उसे नायिका के जीवन में पहुँचाते  हैं। एक दृश्य में जब नायक के हाथ में एक आँख उग आती है और वह उससे दुनिया देख रहा है तो दर्शक किसी स्वप्निल सत्य की तरह उसकी ऊष्मा से खुद को सम्मोहित किये बिना रह ही नहीं पाता। थ्री आयरन एक साउंड वेव की तरह देर तक मीठा और अचंभित अहसास देती रहती है। यह किम जैसे दुर्लभ फिल्मकार का ही करिश्मा है  जो अनुपस्थित में  उपस्थित और उपस्थित में  अनुपस्थित की दर्शन-प्रणाली को तर्कसंगत रूप में अनुभव करवाती है। यह ऐंद्रिकता का भावबोध अपने चरम पर लिए सारतत्व में रूपांतरित हो जाती है और कुछ चीज़े दिखाई नहीं देती केवल महसूस होती हैं, थ्री आयरन इस शाश्वत तरंग को उत्पन्न करती हुई एक खूबसूरत और कोमल सिनेमाई कृति है।

Samaritan Girl ( 2004)

एक उम्र ऐसी होती है जब कोई भी युवा अपनी दैहिक और मानसिक ज़रुरत,अनजानी तृष्णाओं और दिवास्वप्नों को परित्यक्त निद्रा में देखता है।उसे नहीं पता होता कि उसे इस विशाल धुंध से कैसे बचना है। उसे नहीं पता होता उसके किस कृत्य से उसकी आत्मा पर तमाम ज़िन्दगी के लिए दाग लगने वाला है। उसे यह भी नहीं पता होता कि उसके आस-पास छाया कोहरा अंत में राख बन जाएगा। किम की दृष्टि यहाँ आधुनिक  समय की समस्या से  बहुत पीड़ा से सामना करती दिखती है। एक पिता की भूमिका में एक इंसान अपनी जवान होती बेटी को कदम-कदम पर जीवन के रहस्य समझाना चाहता है।उसे मासूमियत के लिहाफ में संरक्षित करना चाहता है लेकिन युवा होती बेटी के समक्ष वह बेशर्त हार जाता है।
अपराधबोध बनी बनाई सारी आस्थाओं को, प्यार को तोड़ कर विध्वंसक बन जाता है। हिंसा,आत्मग्लानि, ख़ुद से किया छल और फिर उनके प्रायश्चित का बोध...सब ऐसे घुल-मिल जाता है कि इंसान ख़ुद के साथ-साथ दूसरों को भी अपनी हिंसा का शिकार बनाने लगता है लेकिन विध्वन्सकारी आत्मग्लानि के साथ।
एक ऐसा पल जब वह हाथ खड़े कर देता है कि हमारे पास इससे ज़्यादा करने को कुछ नहीं। यह घोर निराशा के साथ जन्मी आसक्ति और निर्णायक स्थिति है। शायद यही अंतिम भाव  बचता है मनुष्य के पास।
विस्थापना के बीज कोई नहीं बो सकता।
श्री श्री 



किम एक अनोखे फिल्मकार हैं।दर्द को दर्द की तरह दिखा सकते हैं, प्रेम को प्रेम की तरह।घृणित और वीभत्स  एक्ट को भी उनके सिनेमा में उसी फ्रीक्वेंसी पर महसूस कर सकते हैं।लेकिन झेल पाते हैं या नहीं यह किम की-डुक की शर्त नहीं बल्कि हमारी अपनी है।
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