कुछ कवियों, कुछ कविताओं को पढना आध्यात्मिक सुकून देता है. सुश्री श्री श्रीका नाम छद्म है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है. कविताओं में ताजगी है. रूह तक उतर जाने वाली. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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1
बचपन में हर एक चीज को पाना बहुत कठिन था मेरे लिए।
जबकि सिलाइयाँ चलाते हुए
मेरी उम्र की ईर्ष्या से मैं हार जाती थी।
अपनी छोटी चाहतों में मैं अक्सर खाली रहती थी।
मेरे गायन-वादन सुगंधहीन और आहत थे।
यहाँ तक कि मेरा पसंदीदा
सफेद फूल वाला पौधा भी
मुझे दुःख में ताकता था।
सफ़ेद से नाता था तो वो केवल तारें थे
जो ठीक मेरे सर के ऊपर उगते थे हर रात।
एक सुराही जो रहस्यमय हो जाती थी रात को।
मेरी फुसफुसाहट के मोरपंखी रंग
उसके मुंह से उसके पेट में चले जाते थे।
माँ कहती ये सुराही रात में ही खाली कैसे हो जाती है?
मेरा अवचेतन अपने मुँह को दबाकर
हँसने की दुविधा को
पूरी कोशिश से रोकता था।
मैं कहना चाहती थी जो काम तुम नहीं करती
वो सुराही करती है मेरे लिए।
स्वप्न जो स्वप्न में भी एक स्वप्न था।
मेरे बचपन में भटकता था वो स्वप्न अक्सर।
खिड़की से झांकता
छिपकली की पूंछ से बंधा
उस दीवार पर मेरे साथ तब तक चलता
जब तक मैं ऊंचाई का अंदाज़ा नहीं लगा लेती थी।
मुझे नहीं पता था कि मृत्यु ऐसे ही मोड़ पर किसी जोकर की तरह मुग्ध करती है हमें।
बेहोशी से पहले।
मेरी कल्पनाएं भयभीत होकर निढाल होना चाहती थीं।
मुझे घर के सब रंग पता थे।
फिर भी
मैं उन्हें किसी और रंग में रंगना चाहती थी।
किसी ऐसे रंग में जिसमें पिता के दुष्चरित्र होने की जंगली खुम्ब सी गंध न हो।
न हो उसमें माँ की वहशी नफरत पिता के लिए।
सारे तारे जब सो जाते तो जागता था एक साँप और परियाँ।
तीन पहर मेरी कल्पनाओं के और चौथा पहर
मेरी अस्तव्यस्त नींद का।
जागने और सोने के बीच का
वो असहाय और बेचैन पल
जब मुझे दिखायीं देती थीं
आसमान में उड़ती परियाँ
और छत पर बेसुध पड़ा एक बांस का डंडा
जो हर रात
एक साँप में तब्दील हो जाया करता था।
डर ज़रूरी था मेरी नींद के लिए।
डर बहुत ही आसानी से चले आने वाला
एक शब्द था मेरी स्मृतियों के लिए।
स्मृतियां, जिनमें भूखे कुत्ते
अपनी काली आत्मा के लाल होंठो से
नई कच्ची छातियाँ चूसते थे।
स्मृतियां,जिनमें ज़िस्म पर चलते
लिसलिसे केंचुएं थे।
जिन्हें भीड़ में सरक कर नितम्ब छूना
किसी हसीन दुनिया में स्खलन करने सा लगता।
अनजानी ग्लानियों के पार जाने का कोई पुल नहीं होता।
होता है तो केवल वो क्षण जिसे जीते हुए
हमें याद आते रहें पिछले पाप।
पापों से गुज़रना सरल है
लेकिन सरल नहीं है उनको सहेज कर रखना।
दो दुनिया चलती रही मेरे साथ।
दो आसमान और दो सितारे भी।
अब तक कितने ही बिम्ब और उपमाएं
चली आईं कविता में।
लेकिन मैं सोचती हूँ
कितनी बड़ी कीमत चुकाई है मेरी स्मृतियों ने बचपन खोने में।
हम अक्सर चूक जाते हैं
उस अपरिहार्य पल को चूमने से।
जिसके आँसू पर हम बेरहमी से रख देते हैं अपने जूते।
2
प्रेम की भी चेतना होती है।
और तब-तब परिष्कृत होती है
जब—जब वो निर्दोष होती जाती है।
हर क्रिया के बाद ।
यह भी तब जब प्रेम के आकाश पर
हमारी रुह छील चुकी होती है खुद को भी।
तुम्हारे लिये।
तुम्हारे ही शब्दों की धरती पर कदम रखती हूँ हमेशा।
चिन्ह मात्र का भेद नहीं।
खुलती हैं बेड़ियाँ अभद्रता की।
शिष्टाचार में जागती है आत्मा।
जब छूते हैं तुम्हारे पाँव
मेरे रोम-रोम का आह्वान।
मेरे इष्ट।
और तब भी
जब मेरा प्रेमी चूमता है
प्रार्थना में उठी मेरी हथेलियों को।
पीडा उठती है प्रसव की।
जानती हूँ,यह मध्यस्थता है देह और आत्मा की।
हज़ारों तारे टूटते हैं एक साथ
जब-जब जन्मती है कृतज्ञता।
मेरे प्रेमी और इष्ट के बेपनाह प्रेम से।
यह जागृति एक नशा है प्रेत छायाओं का।
जिन्हें यथार्थ के हाथ
स्वप्न के श्रद्धालुओं से ले आते हैं
स्पर्श की रोशनी में।
और समय ने यहां भेजा तुम्हें आज
मुझे संबंध बताने को।
ईश्वर और मोमबत्तियों का।
3
एक सितारा
जब अपने अंतिम समय में होता है
तो वह किसी ऐसी लड़की की तलाश करता है
जो तिरस्कृत हो
अपने कुओं से
पीढ़ियों पुरानी चक्की से
साबुत बाल्टी और साबुन से।
जिसने हुनर गढ़ लिया हो
फर्श साफ़ करने का
हिजाब ओढ़ने का।
जिसके पास इतना भी अकेलापन न हो
कि वह कर सके हस्तमैथुन
बिफर सके खुद पर।
सहला सके अपनी मादकता।
जिसके हिस्से आये वो आखिरी रोटी
जो थकान से टेढ़ी-मेढ़ी हो।
जिसके पास फन वाला एक साँप हो।
जो मुँह अँधेरे
नहाती हो नग्न तालाब पर जाकर।
लपेटती हो साँप को अपनी कमर के इर्द-गिर्द।
कत्थई रंग में दिखती हो जिसकी जाँघें
भरी और गूदेदार।
अजंता-एलोरा की कामुक प्रतिमा सी।
जिसकी देह से फूटे
अनार या अंगूर की खमीरी गंध।
जो बन रही हो धुंआ
धीरे-धीरे।
4
उम्र से ऊबे लड़के
नहीं जान पाते अपना आकर्षण।
न देख पाते अपनी प्रेयसी को
उनके प्रेम में डूबी घुटनों तक।
वे नहीं जान पाते कि उनकी उम्र का भरना
पिता बनना है उनके लिए।
अलसभोर में अंगड़ाई लेते शहतूती लड़के
जब देखते हैं अपने जीवन का
प्रथम जज़्बाती स्वप्न।
तो नही देख पाते खुद को
उस अग्नि में तपता
जिसमें से उनके साथ लौटता है
जीवन के उल्लास का आनंद
उनकी छाती के बालों के साथ उगता।
प्रेम,स्वप्न और लॉटरी से हारे कुछ लड़के।
रेल की पटरियों पर सुनते हैं
एक गरीब सी धुन।
और मान लेते हैं उसे
अपनी आत्मा की आवाज़।
पटरी पर रख सिक्के को चपटा कर
उनसे दुआ मांगने की नेक सलाह पर
अमल करते हैं गैंदे के फूलों से पूज कर उन्हें।
जब वो सोते हैं
रात के दूसरे पहर की पक्की नींद में
तो कसम से,शुदाई लगते हैं।
खुद के चारों ओर कांच की दीवार बनाये लड़के
नहीं जानते कि सबसे सरल है
उनके भीतर देखना।
कि मन टटोलने के लिए
ज़रूरी पारदर्शिता तो खुद ही बनाई है उन्होंने।
उपेक्षा की तलवार पर छलनी हुए लड़के।
खुल कर हँसना छोड़ जब कोशिश करते हैं
शून्य में देखने की।
तो उनके धैर्य में होती है
एक संतुलित क्रांति।
लड़के फिर भी कभी अकेले नहीं होते।
और जो होते हैं
वे जानते हैं सपनों को जीना।
उनके पूरे होने की अनिवार्यता में
वे कभी मरते नहीं।
न पहनते हैं दस्ताने किसी सपने को मारने के लिए।
5
वे अटल सूर्य थे।
जो बिना सोचे तुम्हारे रेखा-चित्र में
कुछ सफेद घोड़े
और उपनिषदों की शांति उतार देते थे।
तुम्हारी आँखों में स्वप्न की दीप्तियाँ थीं
लेकिन यह भी सत्य था
कि अपना कोई अर्थ नहीं था उनका।
वे मेरी असहाय पीड़ा थीं।
मैं जानती थी, कोई नश्वरता है।
जो एक नग्न सत्य बन
तुम्हारा फलीभूत वनैलापन पीती है।
लेकिन मैं यह नही जानती थी
कि काल परिवर्तन के साथ
तुम एक स्मृति में बदल जाओगे
और मैं वहीं थमी रह जाऊंगी।
6
मेरे बिंदुओं को
ठीक उसी नक्श पर छूती है ये लाल रेखा
जहाँ मेरा एक सपना जन्मा था।
और ये काली रेखा
उस अतीत की चश्मदीद गवाह है
जो मेरी डायरी के पन्नों पर
अपना सामान बांधे बैठी है।
पीली रेखा की तीखी मुस्कान तो देखिये ज़रा
यह शरारती है।
कही से भी मुझे उकेर देती है
एक बेतुकी बाँसुरी ने
कितना बिगाड़ा है मेरा मिज़ाज।
कहीं से उगती है ऊब स्याह सी
कहीं से बजता है जलतरंग का चिथड़ा।
मेरी जबान नमक का पैबंद है।
जिसे फ्रीडा के तीर लगे
स्वप्नीले पोर्ट्रेट ने एक भद्दे मज़ाक में
उस रंग में घोल दिया था
जिससे उसके खून को रिसते हुए दिखाना था।
देह नहाती है पानी से तो आत्मा भीगती है
और अगर आत्मा नहाती है पानी से
तो देह के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।
केवल एक स्वप्न बदल सकता है
सारी हक़ीक़त को।
मगर उस स्वप्न की तीन तहों में जाने का साहस
वो ही कर पाते हैं
जो नाकारा होते हैं।
और साइकेट्रिस्ट खोज निकालते हैं
एक जादुई नाम का कोई सिंड्रोम।
7
नृत्य की कोई भाषा नहीं होती।
नृत्य एक निर्णय होता है
स्वयं के पुनरुद्धार का।
विस्मृति की भीड़ को
पूजने मात्र का एक तरीका।
या केवल एक रस्म भर।
जिसे निभाने पर भर जाती हैं
आस-पास की अस्वीकृतियाँ
हमारी स्वीकृत सत्ता से।
हमारे अपरिचित ईश्वर से।
जो तभी गढ़ता है
जब हम थाप देते हैं हृदय की ज़मीन पर।
और तब तक देते हैं
जब तक तलुवे रक्तिम नहीं हो जाते।
जब तक यह निर्णायक उत्सव चलता है
तब तक हम नकारे जाते रहते हैं।
हमारी प्रजातियां कोसी जाती रहती हैं।
हमारे द्वंद्व आधी लड़ाई के बाद
हारे हुए माने जाते रहते हैं।
धार्मिक सत्य हमारी आत्मा को
परम गति से लहूलुहान करते जाते हैं।
जीवन एक निष्फल,अप्रीतिकर चीत्कार में
अपनी बौद्धिक पूर्णता के बावजूद
मृत बिल्ली समान लिथड़ा रहता है
अपनी खूनी आँतों में
ईश्वर की प्रार्थना में आँखे बंद किये।
हम जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं
नृत्य की आखिरी थाप तक।
एक ज़रूरी शर्त को पूरा करते हुए।
अपने उस हिस्से को दोबारा रचते हुए।
जो सदा अधूरा रहना चाहता है।
8
जिस समय मैं जन्म ले रही थी
ठीक उसी समय मृत्यु मेरे पास खड़ी थी।
जिस समय मैं हँस रही थी
ठीक उसी समय कोई वेदना मेरे ज़िस्म पर लहर बना रही थी।
एक क्षण आँखें खुलती हैं।
धूप,मौसम और अस्तित्व की मुद्राएं देखती हैं।
और दूसरे क्षण अपने भीतर की गुफा में गुदे भित्तिचित्र देखने लगती हैं।
मेरी आँखें
उन स्तूपों पर लिखे चिन्ह
आसानी से पढ़ लेती हैं
जिन्हें भार रहित होकर मैं देख सकती हूँ
अपने किसी भी जन्म से।
उन संस्कृत शब्दों के उच्चारण में
मेरी आत्मा झीनी हो जाती है
जिन्हें मेरे पुरखों ने सिंध नदी के किनारे उच्चारित किया होगा।
जन्म और मृत्यु की स्मृतियों के मध्य
एक युद्ध लगातार मुझे थकाता रहता है।
और एक पारदर्शी बूढ़ी स्त्री
हर रात
मेरी खिड़की पर एक दिया जला जाती है।
9
तुम इतने बोधगम्य हो
जैसे समाधिस्थ बुद्ध के पास पड़ा एक कामनाहीन पत्ता।
मैं तुम्हारे प्रेम में
अपनी सब कोमल कवितायें
वो विनम्र पत्ते बना दूँगी जो अपने पतन को पूर्व से जानते हैं।
मैं ख़ुद को क्षमा कर दूँगी।