कुछ महीने पहले बिहार के सिवान में 'कथा शिविर'का आयोजन किया गया था. जिसमें कई पीढ़ियों के लेखकों ने हिस्सा लिया. लेखक-लेखिकाओं ने वहां के जीवन को करीब से देखा और बाद में अपने लेखन में याद किया. यहाँ प्रसिद्ध लेखिका वंदना रागका रागपूर्ण स्मरण, जिसमें हर्ष भी है विषाद भी, छूट जाने का दर्द भी है, फिर से पहुँच जाने की हुमक भी. वंदना राग मूल रूप से सिवान की हैं इसलिए इस गद्य में याददहानी का लुत्फ़ है. एक अवश्य पठनीय टाइप गद्य. इस तरह के आयोजन होने चाहिए और इस तरह का लेखन भी सामने आना चाहिए- मॉडरेटर
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कहते हैं, दुनिया गोल है और ‘एलिस इन वंडरलैंड’, एक प्रचलित गल्प है। पहले वाली बात के बरअक्स इतने तर्क गढ़ लिए गए हैं, कि स्वीकार करना ही पड़ा है। दूसरी वाली बात को छोड़ दिया गया हस्बे-मौका के भरोसे मानो या ना मानो की तर्ज पर। वैसे सवाल जे़हन से जुड़ा है-‘एलिस इन वंडरलैंड’ कभी बड़ी हुई है क्या? उसे कैसे मालूम दुनिया गोल है?
बचपन में नक्शे पर उकेरे, एक गरीब प्रदेश की राजधानी में रहने का मौका मिला था उससे भी पहले लेकिन, कंठस्थ था प्रदेश और राजधानी का नाम। प्रदेश था बिहार और उसकी राजधानी पटना।
ऐसा नहीं था कि जानकारियां वहीं तक महदूद रह गई थीं। मौका मिला था नातेदारी बदौलत, उसी प्रदेश के नक्शे में उकेरे गए एक अत्यंत छोटे जिले से पहचान करने का भी, जहां की मिट्टी में कुछ परिचित गंधें थीं।
‘हम यहीं के हैं’, पापा ने बताया था, उसी मिट्टी की गंध में सराबोर।
‘इस जगह का नाम?’
‘सिवान’, पापा ने कहा था, और एक भूगोल खण्ड कहीं धीरे लेकिन मजबूत ढंग से धंस गया था, दिलोदिमाग के किसी कोने में।
‘आना जाना लगा रहना चाहिए’ गांव वाले कहा करते थे, मेरे बचपन में। खूब याद है मुझे। बहुत छोटी थी तब और अच्छा लगता था, जाने पर गांव के ज्यादा लोगों का जुटना, अपने इर्द गिर्द और छू कर देखना कि हम शहरी लोग असल हैं, या मिथकीय। बाद में कभी थोड़े बड़े होने पर, एक गांव के लड़के ने शहरी बेहतर वाले मिथक और दंभ को चूर-चूर कर दिया था, अंग्रेजी की स्पेलिंग में हरा कर। भुराभुरा कर टूटा था, भ्रम कि शहरी हूं, अंग्रेजी माध्यम से पढ़ती हूं तो बेहतर ही जानती हूं, गांव के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से। गांव ने बार-बार चकित किया मुझे अपने बड़े होते जाने के सालों में। अलबत्ता यह दीगर बात थी, कि उसी बड़े होने के सालों में गांव के अनुभव स्मृतियों के कोष में स्थान पाते चले गए, और उस छूटी हुई दुनिया से बावस्ता होने की कभी सोच पैदा ही नहीं की।
जब परिवर्तन से, रंजन जी ने बुलावा भेजा, तो एक क्षण जैसे नास्टैलजिया और हिचक से भर हां बोली थी। मन में यह तो आता ही था कि अपने गांव तो नहीं, लेकिन सिवान जिले के किसी गांव में रहूंगी और शायद कुछ छूट गई चीजों से रूबरू होंगी। आधुनिक भारत के इतिहास के कई प्रतीक पुरुषों से अंटा पड़ा है, यह क्षेत्र। स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का गांव जीरादेई लोकप्रिय ठग, जिसे कुछ लोग राबिनहुड का भारतीय संस्करण भी कहते रहे हैं, ‘नटवरलाल’ का गांव, रूइयां वंगार भी है यहां। स्वतंत्रता सेनानी मजहरूल हक का गांव भी, इसी जिले में हैं। इन मशहूर नामों के अलावा भी कई ऐसे नाम होंगे, जिनकी जानकारी नहीं और जानकारी लेने का मन हो आया।
आधुनिक भारत के इतिहास के अलावा, कुछ गांवों के पौराणिक इतिहास भी होंगे। क्या नरेंद्रपुर के पास भी कुछ आख्यान होंगे? इतिहास की इबारतें हमेशा हांट करती हैं मुझे हमेशा लगता है, देश के इतिहास में इन छोटे भू खण्डों का इतिहास कितना शामिल हुआ है। इसकी कितनी उपलब्ध जानकारियां हैं, हमारे पास। भारत के इतिहास के नैरेटिव में सिवान जिले के इतिहास का कितना देय रहा है? कैसा देय रहा है। और आज भी कहीं कोई बैठा हुआ दूर या पास, लगातार निर्मित होते जा रहे इतिहास को दर्ज कर रहा है या नहीं।
इन्हीं सवालों को मन में समेटे नरेंद्रपुर गांव में स्थित ‘परिर्वतन’ पहुंची। परिवर्तन का विशाल कामप्लैक्स दिखलाई पड़ा। एकदम अचंभित करता हुआ। गांव के चकित कर देने की परिस्थिति फिर हाजिर थी। एक ठेठ गांव में, ये कैसी संस्था खड़ी है। कौतुक भरा था, सब कुछ परखने के अंदाज में मेरे।
साथ में आईं, उषाकिरण खान जी और नीलमप्रभा जी को जरूर, हंसी आई होगी मेरे इस तरह ठक हो जाने पर। ‘एलिस’ फिर नए वंडरलैंड में प्रवेश कर रही थी। और ये एक छूट गए भू-खण्ड से नया संबंध स्थापित करने की ऐतिहासिक घटना थी। हर कोण पर एक नया निर्मित होता इतिहास था, कुछ सक्रिय लोग थे, कुछ कर गुजरने के स्पेस्स थे। समझा फिर चोला उतारना होगा यहां, नजरिया बदलव होगा, एक क्षण एक बाहरी की तरह कैसे रह पाऊंगी यहां? यहीं का होकर, रहना होगा। धंसना होगा उसी मिट्टी में तब जाकर शिविर की थीम को साकार कर पाऊंगी। वहीं से मेरी नई यात्रा शुरू हो गई।
नवनीत नीरव, अभिषेक पाण्डेय और श्रद्धा थवैत, से मिलने, उन नए विंडोज, से परिचित होने जैसा था, जिन पर उत्तजेना से भरा नया साफ्टवेयर होता है। हिंदी कथा लेखन के लिए, नई सौगात। गांव भ्रमण में देखी नई सरसों की फसल जैसे खूबसूरत पीले फूले, चारों ओर एक हरे और पीले के नीच की जमीन, उर्वर नई संभावनाओं से भरी हुई। सरसों के उन खेतों में, एक नए तरह के एस्थेटिक्स का भी दर्शन था। उनका साथ ‘‘साथ फूलों का।’’ विद्या बिन्दु सिंह जब देर शाम, परिवर्तन परिसर में स्थित घास के नरम गलीचे पर दूर से आती दिखलाई पड़ीं, तो मन में चांद का बिंब उभर आया। बजुद सुंदर हैं वे। यह दर्ज करते हुए, उनकी प्यारी सी मुस्कुराहट भी याद आ रही है। और उनका बहुत प्यार से धीमे-धीमे बोलना भी।
बाद में राजेन्द्र उपाध्याय जी और नीहारिका जी से भी परिचय हुआ। सबसे अन्त में आए आरिफ। आरिफ मेरे दोस्त, बरसों पुराने। कुछ यादें साझा करते वक्त, याद आया दोस्ती की नींव में हमारी कहानियां, जो एक ही साथ छपीं थी, वागर्थ में, और कैसे फोन घुमा कर मैंने उन्हें बधाई दी थी। वह एक पुरानी पहचान की कड़ी थी। कथा शिविर में कुछ नई कड़ियां जुड़ी। पहचान कब आत्मीयता में बदल जाती है, किसे कब पता चला है। कथा शिविर ने यह अवसर मुहैय्या कराया और हम सब चल पड़े हैं, अपनी आत्मीय यात्राओं में। कुछ सुंदर रास्तों पर, कुछ और सुंदर रास्तों की यात्राएं करने।
कुल जमा दो कहानियां हैं मेरी थाती। सिवान की थाती। पात्रों की तलाश, यूंही तो नहीं हो जाती? भटकना पड़ता है। मन से। तन से। विरासत में मिलीं यायावरी, बड़ी काम आई। दिल्ली में हिंदी पट्टी को ले चल रहे विमर्शों में भारी तोड़-फोड़ लगने लगी। इतिहास गवाह है, हारना ही होता है, खुद को कुछ जीतने के लिए। सो फिर हारा खुद को। बचपन की तरह किसी होड़ के तहत नहीं। एक लगातार विनीत होते जाते लेखक की तरह। किस बात पर रिक्लेम करूं अपनी विरासत को? मेरी किताबों के परिचय में यह लिखा जाता है कि ‘मूलतः सिवान की है’, इसका वास्तविक अर्थ है क्या आखिर? क्या किया है, मैंने इस क्षेत्र के लिए। कुछ जमा दो कहानियां हैं, मेरी थाती। सिवान की भाती। उन्हीं में से एक का पाठ करती हूं। एक गुजरती शाम के दरम्यान। शाम का धुंधलका गहराने को है। मैं एक खूबसूरत काटेज की सीढ़ियों पर बैठी हूं। खुले आंगन के ऊपर से चिड़िया चहचहाते हुए, उड़ रहीं हैं अपने ठिकानों पर, मैं भी अपनी कहानी की मार्फत अपने ठिकाने पर लौट रही हूं। सीवान की मिट्टी की ही कहानी है, जिसका पाठ मैं करती हूं। पता नहीं, कितना संप्रेषित कर पाती हूं, एक बीत गई दुनिया के प्रति, लेकिन कोशिश करती हूं। हर बार की तरह इस बार भी कोशिश करती हूं। लेकिन कहानी का पाठ करते वक्त थोड़ी उत्तेजना से भरी हुई जरूर थी। पाठ के बाद लगा निचुड़ गया, अंदर का मलाल। बहुत कुछ दर्ज नहीं कर पाने का मलाल। फिर नया मलाल पलने लगा।
बहुत ही आत्मीय माहौल में, परिवर्तन के कुछ लोग आशुतोष जी के निर्देश में बेसिक वाद्य यंत्रों के साथ गीत प्रस्तुत करते हैं। वे गीत, देश और समाज में न्यायप्रियता और समान अधिकारों की बात करते हैं। मैं सोचती हूं कि भारतीय सामाजिक संरचना का परिामिड ऊपर से विचार थोपता है और एक सरकारी टेक्स्टुअल विचार बरस दर बरस पनपता जाता है, फैलाया जाता है, थोपा जाता है राज्य के एजेण्ट्स के द्वारा। पिरामिड के निचले हिस्से पर बसे देश के ज्यादा लोग, उससे बेहतर बात कहते हैं। वे उस तथाकथित मेनस्ट्रीम से बेहतर सामाजिक संरचना और तालमेल की बात करते हैं।
रात को इस क्षेत्र के ऐतिहासिक व्यक्तित्व, भिखारी ठाकुर द्वारा लिखित ‘बेटी बेचवा’ नाटक का मंचन होता है। परिवर्तन में एक खुला मंच हैं, और एक बड़ा खुला ऑडिटोरियम। नाटक शुरू होने के पहले लोग आकर अपना स्थान ग्रहण करने लगते है। किस गांव से आए हैं लोग पूछती हूं। अगल-बगल के कई गांवों से, जवाब कोई देता है। सब मनोयोग से नाटक देखते हैं। राजेन्द्र उपाध्याय जी की आंखों में आंसू आए, ऐसा उन्होंने बाद में बताया। अभिनय इतना शानदार था। कच्चे कलाकारों को, तराशा कर आशुतोष जी ने एक मिसाल कायम की, न सिर्फ अभिनय के क्षेत्र में बल्कि प्रोडक्शन के क्षेत्र में भी, दिल्ली से गए, रूरल थियेटर में स्नातक, रोहन की मदद से भी।
महिला सामख्या में आई ग्रामीण महिलाएं और, पंचायत जागरूकता अभियान में आई ग्रामीण महिलाओं में कोई विशेष अंतर नहीं था। वे रूढ़ परिस्थितियों से निकल कर, अपने लिए नए रास्ते तलाशने आई थीं।
धीरे-धीरे खुलने लगे थे, हम सबके मन के किवाड़। हम नई जानकारियों से लैस हो रहे थे। वे महिलाएं जानती नहीं थी कि वे बिना शोरगुल के महानगरों में चलने वाले स्त्री विमर्श में महत्वपूर्ण इबारतें दर्ज कर रही थीं। पितृसत्ता के खिलाफ उनकी लड़ाई, शहरी महिलाओं के बरक्स अधिक दुष्कर थी। अर्द्धशिक्षित महिलाओं का घर से बाहर निकलना कई तरह के आरोपों प्रत्यारोपों का जवाब देना क्या आसान बात रही होगी। मैं एक युवा लड़की से पूछती हूं, शाम को देर हो जाती है, काम से लौटने पर तो डर नहीं लगता? कुछ लोग कहते हैं क्या? यह बहुत आत्मविश्वास से बताती है, क्या करूंगी तानों से उदास होकर, या तो काम करूं या लोगों ताने सुन काम बंद कर दूं। मुझे उसका हौसला बहुत प्रभावित करता है। महसूस करती हूं, ‘परिवर्तन’ पर एक भरोसा सा है, आसपास के गांव में। मैं सोचती हूं, कितनी मेहनत लगी होगी यह भरोसा पाने में? अभिजात के अपने पर्दे और कानून हैं, उनका खामोश उत्पीड़न और कामगार महिला का अपना उत्पीड़न, भगनीवाद में साझा लेकिन अपने-अपने शोषित नैरेटिव में अलग इसी खूब स्पष्ट छवियां यहां देखने को मिलती हैं।
इलाहाबाद से आए चद्रशेखर प्राण जब पंचायती राज के पक्ष में अपना वक्तव्य दे रहे थे, तो महिलाएं बेबाक हो सवाल पूछ रही थीं ‘तीसरी सरकार’ जैसा लफ्ज़, सशक्तिकरण की दिशा में बड़ी पहल है, चंद्रशेखर प्राण समझा रहे थे, और महिलाएं कई बार कोरसबद्ध होकर कह रही थीं, उन्हें निर्णय लेने में शामिल होना है। वे बहुत सारे अधिकारों से हमेशा वंचित रही हैं, लेकिन अब रहना नहीं चाहती हैं।
मुझे याद आया पिछली बार जब सिवान गई थी तो लड़कियों की बड़ी तादाद को साईकल पर हाई स्कूल जाते देख ऐसा ही लगा था। उत्साहित, उर्जावान और आशावादी। ‘इतनी लड़कियां क्या अब अपने गांवों से दूर पढ़ने जाने लगी हैं? एक स्कूल के मास्टर साहब से रूक कर पूछा था। ‘हां’ उन्होंने खुश होकर बताया था, मानों मैं क्या उन्नीसवीं सदी में रहती हूं।
उस वक्त नहीं बता पाई थीं, मास्टर साहब से कि, मां ने कैसे बताया था, हाई स्कूल तो दूर की बात है पांचवीं के बाद बिरले ही लड़कियां पढ़ पाती थी, इसी सिवान जिले में। और यह उन्नीसवीं नहीं बीसवीं सर्दी की बात है। उस पीढ़ी की माएं जीती है अभी भी इन पिछड़े इलाकों की कथा कहने।
परिवर्तन कैम्पस में स्त्री सशक्तिकरण के और, अद्भुत दृश्य दिखलाई पड़ते हैं, जिनमें गांव की लड़कियों का फुटबाल जैसे खेल में भागीदारी करना और प्रशिक्षण पाना भी है। जिस स्वस्थ उन्मुक्त सांस की कामना में सारा स्त्री जगत संघर्ष कर रहा है उसके मूल में स्त्री देह के शर्म से मुक्ति भी है। जब लड़कियां खेल रही होती हैं, तो वे सिर्फ एक खिलाड़ी होती हैं, वे बेलौस सिर्फ खिलाड़ी होकर खेल रही थी। मन को बेतरह छू गई यह बात।
क्या मुक्तिकामी स्त्री के पक्ष में एक खामोश क्रांति इन्हीं इलाकों से होकर स्थायित्व प्राप्त करेगी? ‘प्रतिमा’ की याद आती है जो ‘बेटी बेचवा’ वाहक में नायिका की भूमिका में थी, और नाटक के प्रति, गांव वालों में विश्वास जगाने का प्रतीक अनजाने में ही बन बैठी है। बचपन में एक बार देखा था, गांव में कोई नाटक, चौथी या पांचवीं क्लास की गर्मियों की छुट्टी में गई थी जब। स्त्री पात्रों को पुरुष ही निभाते थे तब। आज लड़कियां न सिर्फ थियेटर कर रही हैं, बल्कि उसे ग्रामीण समाज में एक सम्मानीय स्थान भी दिलवाने की कोशिश में लगी हैं। स्त्रियों का विविधआयामी होना, उनकी प्रतिभाओं को उभारना, उन्हें आर्थिक रूप से सबल बनाने का अभियान भी दिखलाई पड़ता है, परिवर्तन में।
रूईयां बंगार जाना और ‘नटवरलाल’ के दूर दराज के वंशजों से मिलना, उनका आतिथ्य पाना और अनेक कहानियां सुनना भी अनूठा अनुभव था। नटवरलाल पर विकिपीडीया का पेज है। कुछ तस्वीरें भी है, नेट पर। मन में एक छवि इन सब की मिला जुलाकर बनती है। एक दंत कथा की तरह उसे सत्तर के दशक में पोसा गया था। हमारे बचपन में जब स्कूल के रिपोर्ट कार्ड पर कम नंबर आने पर हम खुद ही मां-बाप के दस्तखत उतारने लगते थे तो कुछ दोस्त नटवरलाल का हवाला देते थे। बचपन में, धारा के विरुद्ध इस तरह के किरदारों का होना, बहुत उत्साह से भर देता था। सन् 60के सोशलिस्ट दौर के आदर्शवादी समाज की परिकल्पना के विरुद्ध सत्तर के दशक में, हमारे बचपन का राबिनहुड ही था नटवरलाल। उसी के समकक्ष सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन का आगमन भी सिनेमाई इतिहास के लिए एक बड़ी घटना थी। ‘एंगी यंग मैन’ ने भी हमारे बचपन पर गहरा असर किया था। ठीक उसी तरह दुस्साहस से भरा था नटवरलाल, जो क्राईम को भी दिलचस्प बना देता था। आज याद नहीं पड़ता लेकिन एक बागी समझ उसे कभी तो सेलीब्रेट किया ही होगा हमने। आज सब कुछ को विवेक सम्मत हो आंकने लगे हैं हम। आज गांव में नटवरलाल के बारे में एक चुप्पी सी पसरी थी। कुछ लोग जो बताते भी थे, वह एक सम्माननीय या जानकारी के अभाव वाली फीकी मुस्कान के साथ, कि शर्मसार है कि, गांव इसीलिए मशहूर हुआ और शर्मसार होना भी नहीं चाहते वे। इसी बर्ताव पर मुझे याद आने लगे, इतिहास में दर्ज वे उदाहरण जिनकी गति कमोबेश ऐसी ही हुई। जर्मनी में हिटलर सोवियत रूस में लेनिन। दो विपरीत विचारधारा के लोग, लगभग एक सी गति को प्राप्त हुए, जब समय उनके पक्ष में न रहा तो। तो क्या, लोगों, स्थापत्य, विचारधारा की तरह हमारी स्मृतियों की भी शेल्फ लाईफ होती है? समयनुसार हम उन्हें, अपनी कूचियों से रंगते रहते हैं, कभी अपने समय के पक्ष में कभी विपक्ष में। काश कुछ और जान पाते हम। नटवरलाल के बारे में जो ठोस होता।
जीरादेई गांव में जब एक पुराने जर्जर, काई से रंगे, ब्लैक एंड व्हाईट फोटो के अक्स समान मकान का दीदार होता है, मन में कुछ कचोट सा जाता है। गांव के किसी बड़े आदमी का मकान था जरूर, गांव वाले बताते हैं। बड़े आदमी के जाने के बाद आदमी के बारे में भी विस्मृत हो जाती हैं चीजें। बस, एक चूना मिट्टी सुरखी का जर्जर स्ट्रक्चर कुछ कहता हुआ सा रह जाता है। अधूरी कहानियां फिर भी हर ओर बिखरी होती हैं। इस गांव में भी वही आलम था। कुछ लोगों की बात छोड़ दें तो आम लोगों का इतिहास दर्ज न कर पाने की विवशता से खत्म हो जाता है। वह वाचिक इतिहास भी जो इस देश की परंपरा में रचा बसा था और आज लोगों की जुबां पर बसता था। राजेंद्र बाबू की जीवित देखने वाले कम बचे हैं गांव में। जो हैं, वे उम्रदराज हैं, और उस वक्त बच्चे थे। उनकी स्मृति, में राष्ट्रपति बनने के बाद राजेन्द्र बाद का गांव आना, एक परिघटना थी, जिसे देखने को पूरा गांव जुटा था। ‘भूले नहीं थे, बचपने के मित्रों को वे, अपनी सरकारी गाड़ी में बिठा कर ले गए गांव के मित्र को अपने घर।’ ‘गांव वाले जब बार-बार उन्हें देखना चाह रहे थे तो खुशदिली से कहा था उन्होंने, हम बदले नहीं है, वही हड्डी वही मज्जा है।’ लेकिन इस सादगी पर ही तो लोग कुर्बान जाते थे। याद आता है। पापा और मां कैसे बताते थे, जब कभी नेहरू जी इलाहाबाद गए थे, प्रधानमंत्री होने के बाद तो मां घंटों सिविल लाईंस की अपनी बाल्कनी में खड़ी बाट जोहती रही थी, नेहरू जी के काफिले की, जब की उसके पहले भी कभी किसी स्वतंत्रता पूर्व की मीटिंग में देख चुकी थी उन्हें।’
जिस जमाने में बड़ी लड़ाई लड़ लोग सरकार हुए थे, उसमें सच की छवियां ज्यादा दीं। ग्लैमर का आर्विभाव कम। विश्व में एक ओर हिप्पी मूवमेंट, की अनुगूंजें थीं, दूसरी ओर ब्लैक राईटॅस की पुकार मच रही थी, उसी बात हमारा देश एक लंबी लड़ाई लड़ सुस्ता रहा था। सादगी भरे यूटोपिया की कल्पनाकर रहा था।
गांधी का ग्राम स्वराज का स्वप्न जो बिसरा दिया गया था, क्या पुनर्जीवित हो पाएगा? लौट-लौट कर परिवर्तन याद आता है। ग्रामीण औरतों का सरकार में भागीदारी करने का स्वप्न और उनकी आशा याद आती है। खादी याद आती है। परिवर्तन में पहल भी हो रही है, कि खादी को एक विचार और रोजगार के रूप में पुर्नजीवित कैसे किया जाए। आदर्श ग्राम की कल्पना, और उसका व्यहवार क्या एकमत हो, क्या प्रदेश में और देश में अपनी अनूठी पहचान बना पाएंगे?
गांव के सामाजिक समीकरण पर कथा शिविर में आए हम सब खूब बातें करते हैं। गांव के मुखिया के घर के बाहर एक पक्का कुआं है, जो सीमेंट कंक्रीट से छवा दिया गया है। उस पर एक आदमी बैठा है। श्रद्धा और मैं उससे बात करते हैं। वह दिल्ली में रहता है। छुट्टी पर आया है। वह खुश दिखता है।
‘दिल्ली में पैसा है। गांव में कुछ भी नहीं।’ वह मुस्कुराकर कहता है। मुखिया जी भी वही बातें कहते हैं। ‘अब बचा कौन गांव में?’ कथा शिविर में आए हम सब, अपने जगहों में रहते हुए यह सच जानते हैं। लेकिन वही एक उदास बुजुर्ग की आवाज में हमें कहीं भीतर से विचलित कर देता है। मुखिया जी की आवाज कुछ देर को उदास हो फिर वापस टनकदार हो जाती है। वे आज के समय को लेकर बहुत परेशान नहीं। समय के अनुसार बदलाव भी जरूरी है। एक शब्द बार-बार कौंधता है दिमाग में, रीइन्वेंट करना होगा हमें, और पुनः परिभाषित भी गांव की जरूरतों और उसके बरक्स समाधानों को। उषा जी, बहुत सारे सवाल पूछती हैं, मुखिया जी से उनका यह Matriarchalसाथ, हमारे मन को भी खोलता है। वे हमें अदृश्य धागों से जोड़े रखती है। रंजन जी, सबको समय पर उपस्थित होने का निर्देश भी बड़े प्यार से देते हैं। हम मुस्तैद, मुखिया जी की कहानी सुनते हैं। नरेंद्रपुर के शक्ति सिंह की कथा। राजपूत बहुल, पराक्रमी शूरवीरों की कथा। जिन्होंने आकर नरीनपुर गांव बसाया। जो परिष्कृत हो नरेंद्रपुर हो गया।
मुखिया जी के घर के सामने एक मजार है। श्रद्धा और मैं वहां तक जाते हैं। कोई खिदमतगार नहीं है वहां। लेकिन बेहद साफ सुथरा स्थान है। जैसे रोज सफाई होती हो उस जगह। ‘कौन देखभाल करता है इसकी?’ ‘कोई भी कर देता है।’ ‘हिंदू की मुसलमान?’ गांव के हिसाब से यह एक अहमकाना सवाल है। ‘सब मुरीद हैं, बाबा के कोई फर्क थोड़े ही है।’ ‘लोक कथाओं के नायक, गांव के रक्षक हैं, बाबा।’ सियासती आग की चिंगारियां यहां मौजूद नहीं हैं। सर्वधर्म समभाव है। मन में राहत के बादल घुमड़ते हैं। मन के अंदर एक मीठा एहसास सा जगता है।
इसी वाकए से जुड़ी एक शाम याद आती है। जिसमें फाग सुनाया गया था। बीच में बैठे एक गायक का नाम राशिद है। वे झूम झूम कर कृष्ण के फाग गीत का रहे हैं। ठोल की थाप और चेहरों पर उग आती उमंग देखते ही बनती है। बचपन का एक दृश्य फिर कौंधता है, इंदौर में होली मना रहे हैं पापा और सिवान से लोग आकर फाग गा रहे हैं। पापा की गोदी में बैठी मैं, नारियल के टुकड़े और बादाम कुतर रही हूं। वहां भी कोई रासिद मियां की तरह ही अनवर मियां थे, कव्वालों की तरह काली टोपी लगाए। और झूम झूम कर फाग गाते। कुछ कड़ियां कैसे जुड़ती हैं। कुछ विरासतें कैसे यकबयक उद्घाटित हो जाती हैं। इसी सिलसिले से जुड़ा दूसरा वाकया फिर याद आता है। रूईयां बंगार के मुखिया जी के घर के सामने वाले घर में मुझे कुछ सजी सलोनी औरतें दीख गईं थीं। वे भी मुसलमान ही थीं। मैं उनके घर के अंदर गई थी। एक चमकीले डोरों से बुनी चारपाई पर बिठाया था मुझे। वे औरतें कितनी जल्दी घुल मिल गई थी। बोलने बतियाने लगी थीं अपने सुख दुख। तभी आरिफ मुझे ढूंढते हुए आ गए थे। मैं जाने लगी तो वे बड़े प्यार और इसरार से मुझे कहने लगी थी ‘रात भर रूकती हमारे यहां, रात भर बात करते हम तो मजा आता न।’
सदियों की बातें नहीं कर पाने का दुख है मुझे। स्त्रियों की सदियों पुरानी बातें साझा नहीं कर पाने का दुख। आरिफ दंग हैं वे कहते हैं ‘यहां धार्मिक आधार पर मोहल्ले नहीं बंटे हैं।’ ‘जी।’ हम आश्वस्त होते हैं। दुनिया बदल गई है यह सच है। फांकें बन चुकी है, यह भी सच है। लेकिन शुक्र है कि इस देश के कुछ हिस्सों में खुदा और भगवान अभी-भी अगल बगल बैठ रोटी खाते हैं।
जब इसी सौहार्द के बरअक्स में हम दूसरी बड़ी सामाजिक विषमता पर बात करते हैं, तो थोड़े निराश होते हैं। हमें, गांव में आज भी दलितों की गैरमौजूदगी और पुरुषों का गांव से पलायन मथता है। क्या आजादी के इतने वर्षों बाद भी, हम अपने समाज को पुर्वाग्रहों से मुक्त नहीं कर पाएं हैं? परिवर्तन को देख मन में हल्की सी उम्मीद तो कौंधी है कि हम शायद हम एक समग्र संभावनाओं, समान अधिकारों वाला, समतावादी समाज बनाने का स्वप्न पैदा करें तो शायद संभव भी कर दिखाएं।
इन्हीं बातचीत और चर्चाओं के बीच हम अपने अनुभव साझा करते हैं। हम अपने पात्रों को मन में स्टोर भी करते हैं। सबका बारी-बारी से कहानी पाठ होता। सबकी अलग आस्वादों वाली सुंदर कहानियां साझा होती हैं। अभिषेक की कहानी यदि सबको रूला देती है, तो रंजन जी की कहानी समाज का क्रूर कलेवर दिखा हमें झकझोर देती हैं। हम सब करूणा और क्रूरता के घाल मेल से बने इंसान हैं।
एक रात खाने पर से लौटते हुए, खूब साफ आसमान की ओर इशार कर विद्या बिन्दु जी ने कहा था, ‘वंदना तारों के विवाह की कहानी जानती हो?’
‘न।’ नहीं जानती थी मैं।
विद्या जी के पास लोक कथा का अथाह भंडार हैं। वे मुझे सुनाने लगी। मैं मुग्ध भाव से सुन रही थी। चांद शफ्फाक हो हमें तक रहा था। तारे चंचल हो रहे थे। रात कितनी सुहानी हो गई थी। गांव की रातें भी भिन्न होती है, दिल्ली की इन रातों से।
नीलमप्रभा जी के स्वरचित गीतों ने कथा शिविर के अनुशासन को इतना रसरंजित किया कि दीवानों की तरह हम उनसे हर वक्त गीतों की फरमाईश करते रहे। उनके आवाज की पहाड़ों पर होती इको वाली क्वालिटी ने बहुत मुत्तासिर किया। मन भरता ही नहीं था। उनके गीतों से। शिविर में, जीवन के इन खूबसूरता रसों का अनऔपचारिक लुल्फ उठाया।
शिविर के अंतिम दिन, सबने एक दूसरे से हमेशा संपर्क में रहने के वादे किए। आज सोचती हूं, तो लगा रहा है सत्तर प्रतिशत सब निभा भी रहे हैं। यह सुखद है।
संसार यूंही विस्तार पाता है। हम एक दूसरे से विचारों की अदला-बदली कर ही संपृक्त होते हैं। बेहद अमीर।
बातों को कायदे से यहीं खत्म हो जाना था, क्योंकि शिविर की अंतिम सभा हो चुकी थी लेकिन, बातों में कुछ हर्फ और जोड़ने होंगे मुझे क्योंकि मैं, परिवर्तन में सबके चले जाने के बाद कुछ घंटे और रूकी थी।
उन घंटों का उपयोग मैंने स्वतंत्रता सेनानी मजहरूल हक के पुश्तैनी घर जाकर और कुछ गांव दूर पर बसी दलित बस्ती के लोगों से बातचीत करने में बिताया।
मजहरूल हक के पड़पोते ने बहुत दिलचस्प वाकया सुनाया कि कैसे उनके पड़दादा उत्तरप्रदेश से यहां आए, जगह अच्छी लगी और यही बस गए। इसी तरह तो गांव और घर बनते और उजड़ते हैं। एक दिन किसी शोषण से त्रस्त, किसी साहसिक यात्रा पर जाने को उत्सुक या मन के किसी आग्रह से प्रेरित हो, लोग चल देते हैं, नई रिहाईशों की ओर। सभ्यता की यह कहानी बरस दर बरस यूंही चलती रही है। दिवंगत मजहरूल हक के पुश्तैनी घर के पास ही उनकी मजार है। चारों और फूलों का बागीचा है। वहां गुल नहीं रजनीगंधा खिला है और महक रहा है। मैं एक स्टेम मांग लेती हूं। मुझे रजनीगंधा, देख उसी नाम की फिल्म की याद आती है, अच्छा सा लगता है।
वह अच्छा सा लगना स्थाई भाव बन देर तक टिक नहीं पाता है। दलित बस्ती में जाने का रास्ता परिवर्तन में काम कर रही एक दीदी के घर की ओर से खुलता है। उनके घर जाने से, दलित बस्ती का सूरते हाल बेबाक ढंग से खुल जाता है। मेरे लिए एक कुर्सी मंगाई जाती है, और सामने सड़क पर बैठ जाती है, दलित बस्ती की कितनी ही सारी स्त्रियां। मैं पुरुषों को ढूंढने की नाकाम कोशिश करती हूं। मैं पक्के मकानों को ढूंढने की नाकाम कोशिश करती हूं। शायद ही किसी घर के किसी कमरे की छत पक्की मिले। सारी स्त्रियां यूं बैठ जाती हैं, जैसे झुण्ड में, उदास चिड़िया, अपने दुखों के कलरव में डूबी। उनके दुखों की कहानियों में पतियों के पलायन और कुछ न कर पाने की तीखी तासीर है। एक युवा स्?ाी दूर बनी रही है, जब बाकी स्त्रियां उसे नजदीक आने को कहती हैं, तो वह नाराज आवाज में जिरह करती है।
‘‘आप हमारी कहानी लिख कर हमारा दुख दूर कर देंगी क्या?’’
सवाल देर तक चुभा रहता है। आज भी लिखते वक्त फांस सी गड़ रही है। एक लेखक के औजार और दायित्व क्या हैं आखिर? एक वक्त था, जब वह समाज का Opnion Maker हुआ करता था। आज क्या वह यह कर पा रहा है। समाज में चेतना पैदा करना, मजलूमों, शोषितों की आवाज सही जगह पहुंचाना हो पा रहा है क्या? क्या टेलिविजन चैनल्स की तरह ‘सिर्फ हंगामा करना हमारा मकसद हो गया है?’ ‘सूरत बदलनी चाहिए’ से हमारा कोई सराकार नहीं? इस कथा शिविर के बाद ऐसे सवालों से भी मैं दो चार हो रही हूं, आज तक।
जो खत्म होने के बाद की कहानी होती है, जिसे Post Scriptकहते हैं, वह क्या कहानी की पूरक होती है बस? या वह किसी परोक्ष कहानी की तरह, कहानी की रीढ़ होती है। वह आधार जिस पर कहानी टिकी खड़ी होती है? न चाहते हुए भी, उसे हम एक बैक स्टोरी कहते हैं।
इस समूचे शिविर में जिस एक किरदार की अहम भूमिका रही है, और जिसका जिक्र अभी तक नहीं कर पाई हूं, वह है, परिवर्तन समूह के संस्थापक संजीव जी। जिनके विचारों ने हम सबको बहुत मुत्तासिर किया। जिनसे मिलकर लगा, अगर मन में करने का जज्बा हो, तो हासिल भी किया जा सकता है।
आज, दर्ज करते वक्त सब कुछ रेलगाड़ी में बैठ भागते दृश्यों को देखने सरीखा एहसास हो रहा है। संजीव जी की खामोश मौजूदगी, व्यवस्था आयोजन से लेकर कहानी पाठ तक में उनकी धीरज से भरी हिस्सेदारी, परिवर्तन को लेकर उनका अथक उत्साह और प्रयास, ग्रामीण लोगों से उनका आत्मीय संवाद, और कुछ कर गुजरने का जुनून। सब कुछ प्रभावित करता है और समुचित ढंग से प्रेरित भी।
गांधी के स्वराज्य की कल्पना में गांव थे। गांधी जी जानते थे, जिस देश की सत्तर प्रतिशत जनता अभी भी गांव में वास करती है, उस देश का विकास गांवों के रास्ते से होकर निकलेगा उस कल्पना को साकार करने के रास्ते में हम भटक गए कहीं बीच सफर में। ग्लोबलाईजेशन की आंधी ने हमें भावों में एकात्म करने के बाजाए, सांस्कृतिक रूपों से एक रंग में समेट लेने की कोशिश की है।
परिवर्तन की मार्फत, इन चीजों के पुर्नजीवित होने का सपना फिर बुलंद होता लग रहा है। लोक के गीत, संगीत, आचार व्यवहार की सृजनशीलता को, साहित्य से जोड़ने का प्रयास कितना अद्भुत हो सकता है। इसका उदाहरण शिविर में शामिल लेखक, लाईव देख कर आ रहे हैं।
साहित्य की अनुगूंज, खास तौर से हिंदी साहित्य की धमक से आज हमारे महानगर नहीं आलोड़ित होते हैं। हिंदी साहित्य का भविष्य भी कहीं इंडिया से भारत की ओर चल पड़ा है। यह लौट कर जमीन तलाशने वाली प्रक्रिया है।
उषा जी ने और नीलमप्रभा जी ने अंतिम सत्र में कहा था, संजीव जी भी हमारी कहानियों के पात्र हो सकते हैं। जो लोग परिवर्तन लाने के प्रयास में एकजुट हो सचमुच काम कर रहे हैं। वे सब हमारी कथाओं के पात्र हो सकते हैं।
जिस तरह पात्र हो सकते हैं, बदलते गांव, दलित बस्ती की स्त्रियां, रासिद मियां, चंदा बीबी, मुखिया जी, नटवरलाल, राजेंद्र प्रसाद, मजहरूल हक, मिट्टी, सरसों के खेत और विषमताओं के सामाजिक स्वर। शिविर के बहाने हम इस क्षेत्र और उसके सामाजिक संदर्भ के अल्प ज्ञानी तो हुए ही हैं हम छू कर निकले है उस क्षेत्र को। छू कर निकलना भी ज्ञान अर्जित करने की बड़ी प्रक्रिया के शिशु कदम ही है। किसी भी पहल के लिए उन शिशु कदमों से चलना शुरू करना होता है। एक मुक्कमल पहल तो हुई ही है। बहुत सारी स्मृतियों के साथ हम कथा शिविर से वापस लौटे हैं।
मन में, कई तरह के भाव उछल कूद मचाते हैं। वहीं, नरेंद्रपुर से कुछ ही दूरी पर शायद 10-15किलोमीटर पर मेरा गांव मधवापुर है। उन गांवों की फेहरिस्त में शामिल, जो सिवान जिले के हैं। कुछ बातें बिसरा गई थी जीवन की। उन्हें वापस जगा दिया इस शिविर ने। मुझे बचपन में मधवापुर में गुजारी कुछ छुट्टियां याद आईं। उसी धूल-मिट्टी में दफन कुछ विरासत की टीसों ने डसा। कुछ दुख हुआ। जानती हूं नास्टैलजिया हमेशा अच्छी बात नहीं, लेकिन इस वक्त जरूरी लगता है। कुछ बातें चोट करती हैं, तभी उनकी सच्चाईयों से आप रूबरू होते हैं। इसीलिए अच्छा हुआ कि कुछ दुख हुआ। कुछ और सोचने पर विवश हुई। लौटने के बाद खूब सोचकर मन में एक तैयारी की। छूट गए अपने उस लोक से फिर से संबंध स्थापित करने का मन बनाया। गांव ने फिर से चकित कर दिया मुझे। अपने डायनेमिक्स से। परिवर्तन ने और भी ज्यादा चकित किया है। इस आशा के संचार को खिलने देना है।
अब अंत में कुछ ऐसे सच है, जिन्हें झुठलाया नहीं जा सकता। जैसे-दुनिया वाकई गोल है। जीवन का सत परिवर्तन है। और ‘एलिस’ का बड़ा होना अभी बाकी है।