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संजय चतुर्वेदी की चुनिन्दा कविताएं

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आज संजय चतुर्वेदीकी कवितायेँ. 90 के दशक में इनकी कविताओं ने कविता की भाषा बदली थी, संवेदना का विस्तार किया था. मुझे याद है 'इण्डिया टुडे'के साहित्य वार्षिकांक में इनकी एक कविता छपी थी जिसमें एक पंक्ति थी 'इण्डिया में एक सेंटर है जो इन्टरनेशनल है'. बहुत चर्चा हुई थी. हमारे आग्रह पर उन्होंने अपनी पसंद की कुछ चुनिन्दा कविताएं जानकी पुल के लिए दी. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
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।। संकेत ।।

जंगल में रात को जो आवाज़ें आती हैं
उनमें शायद ही कोई आवाज़ आह्लाद की या ख़ुशी की होती हो
विकराल आवाजें भी कराहट और अवसाद से भरी होती हैं
जिन्हें मारा जाना है
या जिन्हें मारना है
दोनों ही दुःख में डूबे हुए हैं
और मैथुन की इच्छा से निकाली गई आवाज़ें भी
जिन्हें प्रेम से भरा होना था
दुखद संकेत बनके गूंजती हैं रात के गूढ़ आवरण में

लेकिन इनमें सर्वाधिक रहस्यमय होती हैं कीड़ों और मैढकों की आवाज़ें
जो घबराहट में भेजे गए रेडिओ संकेत जैसी लगती हैं
पटाक्षेप से पहले
ज़ुरूरी काम कर लिए जाने की हड़बड़ी में
प्रणय संकेत और आर्तनाद में अंतर नहीं रह जाता
जीवन कालिक है
और निरन्तर भी
और इसमें एक सनातन असुरक्षा छिपी है
जब एक ही आवाज़
प्रेमियों और भक्षकों को एक साथ पास बुलाती है
मारे जाने की कीमत पर भी
कीड़े संकेत देते रहते हैं

और ध्वनियों संकेतों का वह सर्वाधिक प्राचीन और विपुल आयतन
जो समुद्रों के गर्भ में छिपा है
जिसका एक हिस्सा प्रतिदिन शून्य में निकल जाता है
जिसमें संसार की लिपियों के रहस्य छिपे हैं
अन्य नीहारिकाओं को पानी की खोज में भेजे गए
मछलियों और शैवालों के संकेत
और उनके चुम्बकीय आकारों का विवरण छिपा है
और यह भी
कि कोटि कल्पों से
किसी दूरस्थ जीवन के लिए
कीड़ों-मकोड़ों के विपुल संसार की सनसनाहट
संकेत बनकर शून्य में फैल रही है
प्रेमियों और भक्षकों को
अपने होने की सूचना देती हुई
और यह भी
कि जीवन दुखी है
और जो जलमग्न है
वह भी जल रहा है ।

(विपाशा 1999)




।। एक लाख लोग ग़लत नहीं हो सकते ।।

इस अख़बार की एक लाख प्रतियां बिकती हैं
एक लाख लोगों के घर में खाने को नहीं है
एक लाख लोगों के पास घर नहीं हैं

एक लाख लोग
सुकरात से प्रभावित थे
एक लाख लोग
रात को मुर्ग़ा खाते हैं
एक लाख लोगों की
किसी ने सुनी नहीं
एक लाख लोग
किसी से कुछ कहना ही नहीं चाहते थे

भूकम्पों के इतिहास में
एक लाख लोग दब गए
नागासाकी के विस्फोट में
एक लाख लोग ख़त्म हो गए
एक लाख लोग
क्रान्ति में हुतात्मा हुए
एक लाख लोग
साम्यवादी चीन से भागे
एक लाख लोगों को लगा था
यह लड़ाई तो अंतिम लड़ाई है

एक लाख लोग
खोज और अन्वेषण में लापता हो गए
एक लाख लोगों को
ईश्वर के दर्शन हुए
एक लाख लोग
मार्लिन मुनरो से शादी करना चाहते थे
स्तालिन के निर्माण में
एक लाख लोग काम आए
निक्सन के बाज़ार में
एक लाख लोग ख़र्च हुए
एक लाख लोगों के नाम की सूची इसलिए खो गयी
कि उनके कोई राजनीतिक विचार नहीं थे

एक लाख लोग बाबरी मस्जिद को
बर्बर आक्रमण का प्रतीक मानते थे
एक लाख लोग
उसे गिराए जाने को ऐसा मानते हैं
एक लाख लोग
जातिगत आरक्षण को प्रगतिशीलता मानते हैं
एक लाख लोग
उसे समाप्त करने को ऐसा मानेंगे

एक लाख लोगों ने
अमेज़न के जंगल काटे
एक लाख लोग
उनसे पहले वहां रहते थे
एक लाख लोग ज़िन्दा हैं
और अपने खोजे जाने का इंतज़ार कर रहे हैं

एक लाख लोग
पोलियो से लंगड़ाते हैं
एक लाख लोगों की
दाढ़ी में तिनका
एक लाख लोग बुधवार को पैदा हुए
और उनके बाएं गाल पर तिल था

एक लाख लोगों ने
गणतंत्र दिवस की परेड देखी
एक लाख लोग
बिना कारण बीस साल से जेल में हैं
एक लाख लोग
अपनी बीवी-बच्चों से दूर हैं
एक लाख लोग
इस महीने रिटायर हो जाएंगे
एक लाख लोगों का
दुनिया में कोई नहीं
एक लाख लोगों ने
अपनी आंखों के सामने अपने सपने तोड़ दिए

एक लाख लोग
ज़मीन पर अपना हक़ चाहते थे
एक लाख लोग
समुद्रों के रास्ते से पहुंचे
एक लाख लोगों ने
एक लाख लोगों पर हमला किया
एक लाख लोगों ने
एक लाख लोगों को मारा ।

(जनसत्ता 1991)



एक ठुल्ले की कविता

।। वे साधारण सिपाही जो कानून और व्यवस्था में काम आए ।।

शायद कुछ सपनों के लिए
शायद कुछ मूल्यों के लिए
कुछ- कुछ देश
कुछ- कुछ संसार
लेकिन ज़्यादातर अपने अभागे परिवारों के भरणपोषण के लिए
हमने दूर-दराज़ रात-बिरात
बिना किसी व्यक्तिगत प्रयोजन के
अनजानी जगहों पर अपनी जानें लगाई
जानें गंवाई

हम कानून और व्यवस्था की रक्षा में काम आए
लेकिन हमारे बलिदान को आंकना
और उस बलिदान के सारे पहलुओं को समझना
एक आस्थाहीन और अराजक कर देने वाला अनुभव रहेगा

जो अपने कारनामों के दम पर
इस मुल्क की सड़कों पर चलने का हक़ भी खो चुके थे
हमें उनकी सुरक्षा में अपनी तमाम नींदें
और तमाम ज़िन्दगी ख़राब करनी पड़ी
उन्माद और साम्प्रदायिकता का ज़हर और कहर
सबसे पहले और सबसे लम्बे समय तक हम पर गिरा
हम उन इलाकों की हिफाज़त में ख़र्च हुए
जहां हमारे बच्चों का भविष्य चुराकर
काला धन इकठ्ठा करने वालों के बदआमोज़ लड़के-लड़कियां
शिकार करें और हनीमून मनाएं
या उन विवादास्पद संस्थाओं की सुरक्षा में
जहां अन्तर्राष्ट्रीय सरमाए के कलादलाल
हमारी कीमत पर अपनी कमाऊ क्रांतियां सिद्ध करें

हमें बंधक बनाया गया
या शायद हम जब तक जिये बंधक बनकर ही जिये
लेकिन हमारे सगे-संबंधी इतने साधन सम्पन्न नहीं थे
कि राजधानी में दबाव डाल सकते
और उन्होंने हमारे बदले किसी को रिहा कर देने के लिए
छातियां नहीं पीटीं

जो क्रन्तिकारी थे
उन्होंने हमें बेमौत मारने वालों के लिए छातियां पीटीं
जो बुद्धिजीवी और पत्रकार थे
उन्होंने क्रान्तिकारियों के लिए छातियां पीटीं
हम साधारण परिवारों से आए मनुष्य ही थे आख़िरकार
लेकिन ह्यूमैनिटीज़ के प्रोफ़ेसर और विद्यार्थी
जो शाहज़ादों की शान में पेश-पेश थे
हमें दबी ज़ुबान व्यवस्था का कुत्ता बोलते थे
व्यवस्था दबी ज़ुबान बोलती थी
बेमौत मरने के लिए
हमें तनख़्वाह मिलती तो है
हम इस यातना को सहते हुए
चुपचाप मरे
लेकिन हमारे बीवी-बच्चे जो आज भी बदहाल हैं
हवाई जहाज़ पर उड़ने वाले नहीं थे
इसलिए न उन्हें पचास हज़ार डॉलर मिले
न फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन के मौसेरे पुरस्कार
ये चीज़ें समाज के लिए नहीं
समाजकर्मीओं के लिए बनी थीं

हम भी समाज का हिस्सा थे
हमें माना नहीं गया
हम भी समाजकर्मी थे
हमारी सुनी नहीं गई

और यह हम तमाम गीतों और प्रार्थनाओं के बीच कह रहे हैं
कि हमारे अपने अफसरों नें
जिन्हें ख़ुद एक सिपाही होना था
हमें अपने घर झाड़ुओं की तरह इस्तेमाल किया
और यह भी हम तमाम गीतों और प्रार्थनाओं के बीच कह रहे हैं
कि कोई उल्लू का पट्ठा इतना अच्छा होगा
जो हमें बताए
कि अपने बीवी-बच्चों के साथ
जिस तरह की ज़िन्दगी जिए हम
वह क्या किसी आन्दोलन या सम्मेलन में
कभी कोई महत्वपूर्ण एजेंडा रही ?

(जनसत्ता 2000)



।। देख तेरे स्कूल की हालत ।।

वह जो दूसरी लाइन में दाएं से तीसरा बैठा है
वह साम्प्रदायिक है
और सबसे पीछे बाएं से सातवां फ़ाशिस्ट
बाक़ी हमारी क्लास में तो सभी धर्मनिरपेक्ष और जनवादी हैं
हां, नीचे ग्राउंड फ़्लोर पर पेड़ के सामने जो कमरा पड़ता है
उसके ज़्यादातर लड़के सरस्वती को गालियां देने का विरोध करते हैं

नाम सुनने में साम्प्रदायिक लगता है इस स्कूल का
लेकिन इमारत देखने में धर्मनिरपेक्ष है
इसके ज़्यादातर मास्टर राष्ट्रवादी हैं
लेकिन हमारा मिशन अंतर्राष्ट्रीय है
एक साईकिल पर भी आता है धोती-कुर्ता पहनकर
आप समझ ही गए
वह आतंकवादी है

इसके कुएं में जातिवाद की पुड़िया छोड़ी जाती है रोज़
लेकिन इसकी टॉयलेट से प्रगतिशीलता की बू आती है
और झंडे के लिए जो डंडा लगा है बीच मैदान में
वह भगवान की तरफ़ इशारा करता है ।

(दिनमान 1990)



।। धन्यवाद ज्ञापन ।।

सबसे पहले हम मुख्य अतिथि के आभारी हैं
जो न आते तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता
फिर उन सभी गणमान्य उल्लू के पट्ठों के
जो अपनी हरक़तों की वजह से इस काबिल हुए
फिर अलग अलग साइज़ और डिज़ाइन वाले विद्वानों के
जो मारे तनाव के शान्त बैठे हैं
हम सभी अफ़सरों के आभारी हैं
और उनके चापलूसों के भी
सभी प्रोफ़ेसरों के
और उनके चापलूसों के भी
हम जलेबी के आभारी हैं
और उसके उद्गम के भी
हम अमीबा के आभारी हैं
वाइरस के, बैक्टीरिया के
साढ़े दस प्रतिशत ब्राह्मणों के हम बहुत आभारी हैं
पौने साठ प्रतिशत दलितों के
दो सौ प्रतिशत से भी ज़्यादा पिछड़ों के
धरती, जल, अग्नि और वायु के
पत्थरों, वनस्पतियों, पशु, पक्षियों के
उनके अपने-अपने प्रतिशत के हिसाब से
हम मुसलमानों के भी उनके प्रतिशत के हिसाब से आभारी हैं
सामाजिक न्याय की बात करने वाले
सभी बलात्कारियों और व्यभिचारियों के तो
हम तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं
हम हर प्रकार के पिछड़ेपन के आभारी हैं
हर प्रकार के ओछेपन के
जो चुस्त मूर्खता और सत्ता के संयोग से पैदा होती है
उस टोपीदार मुस्कुराहट पर तो हम कुर्बान जाते हैं
हम शैतान की आंख के आभारी हैं
और उसके शातिर इशारों के भी
दारू पीकर गलियां बकते पत्रकारों
और सभी परजीवियों-बुद्धिजीवियों के भी हम बहुत आभारी हैं
हम धर्मनिरपेक्षता के शुरू से ही आभारी रहे हैं
और साम्प्रदायिकता के भी
हम हर तरह की बयानबाज़ी के आभारी हैं
हम हर उस मौक़े के आभारी हैं
जब मक्कार आवाज़ें आती हैं - साथी हाथ बढ़ाना
जिसने हमें आज़ादी दिलाई
या फिर ग़ुलाम बना के छोड़ दिया
उस पार्टी के तो हम पीढ़ियों से आभारी रहे हैं
फिर अभी तो पार्टी शुरू हुई है
या हो ही नहीं पा रही
हम सभी तमाशों के आभारी हैं
सभी गोष्ठियों और उन में भाग लेने वाले जोकरों के भी
सभी सूरमाओं के
जो भोपाल से बाहर भी सब जगह मिलने लगे हैं
हम सभी प्रकार की भर्तस्नाओं के आभारी हैं
सभी प्रकार के खंडनों के
जिन्होंने समय-समय पर हमारी संस्कृति के पेट में गुदगुदी मचाई है
उन तमाम सीत्कारों फूत्कारों और हुंकारों के भी हम आभारी हैं
जैसा की हम पहले ही कह चुके हैं
पिछड़े बने रहने की कभी न ख़त्म होने वाली होड़ के तो हम
जितना आभारी हों उतना कम है
और कोई छूट तो नहीं गया
हां, इससे पहले की हम भूल जाएं
सभी लोग ध्यान से सुनें
हम जासूस गोपीचंद के भी बहुत ज़्यादा आभारी हैं
प्रेमचन्द और मोहनदास करमचन्द का नाम हम जानबूझ कर छोड़ रहे हैं
हम उन सबके आभारी हैं
जिनका हमें नहीं होना चाहिए
और अगर आप सोचते हैं
की इससे भी ज़्यादा अहसानमंद होना चाहिए हमें
तो हमारे पास अब कुछ बचा नहीं है
और अब हमें सोने दो चमगादड़ो
सवेरे काम पर जाना है ।

(दिनमान 1990)





‘दिल्ली में पैसा है। गांव में कुछ भी नहीं’

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कुछ महीने पहले बिहार के सिवान में 'कथा शिविर'का आयोजन किया गया था. जिसमें कई पीढ़ियों के लेखकों ने हिस्सा लिया. लेखक-लेखिकाओं ने वहां के जीवन को करीब से देखा और बाद में अपने लेखन में याद किया. यहाँ प्रसिद्ध लेखिका वंदना रागका रागपूर्ण स्मरण, जिसमें हर्ष भी है विषाद भी, छूट जाने का दर्द भी है, फिर से पहुँच जाने की हुमक भी. वंदना राग मूल रूप से सिवान की हैं इसलिए इस गद्य में याददहानी का लुत्फ़ है. एक अवश्य पठनीय टाइप गद्य. इस तरह के आयोजन होने चाहिए और इस तरह का लेखन भी सामने आना चाहिए- मॉडरेटर 
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कहते हैं, दुनिया गोल है और एलिस इन वंडरलैंड’, एक प्रचलित गल्प है। पहले वाली बात के बरअक्स इतने तर्क गढ़ लिए गए हैं, कि स्वीकार करना ही पड़ा है। दूसरी वाली बात को छोड़ दिया गया हस्बे-मौका के भरोसे मानो या ना मानो की तर्ज पर। वैसे सवाल जे़हन से जुड़ा है-एलिस इन वंडरलैंडकभी बड़ी हुई है क्या? उसे कैसे मालूम दुनिया गोल है?
बचपन में नक्शे पर उकेरे, एक गरीब प्रदेश की राजधानी में रहने का मौका मिला था उससे भी पहले लेकिन, कंठस्थ था प्रदेश और राजधानी का नाम। प्रदेश था बिहार और उसकी राजधानी पटना।
ऐसा नहीं था कि जानकारियां वहीं तक महदूद रह गई थीं। मौका मिला था नातेदारी बदौलत, उसी प्रदेश के नक्शे में उकेरे गए एक अत्यंत छोटे जिले से पहचान करने का भी, जहां की मिट्टी में कुछ परिचित गंधें थीं।
हम यहीं के हैं’, पापा ने बताया था, उसी मिट्टी की गंध में सराबोर।
इस जगह का नाम?’
सिवान’, पापा ने कहा था, और एक भूगोल खण्ड कहीं धीरे लेकिन मजबूत ढंग से धंस गया था, दिलोदिमाग के किसी कोने में।
आना जाना लगा रहना चाहिएगांव वाले कहा करते थे, मेरे बचपन में। खूब याद है मुझे। बहुत छोटी थी तब और अच्छा लगता था, जाने पर गांव के ज्यादा लोगों का जुटना, अपने इर्द गिर्द और छू कर देखना कि हम शहरी लोग असल हैं, या मिथकीय। बाद में कभी थोड़े बड़े होने पर, एक गांव के लड़के ने शहरी बेहतर वाले मिथक और दंभ को चूर-चूर कर दिया था, अंग्रेजी की स्पेलिंग में हरा कर। भुराभुरा कर टूटा था, भ्रम कि शहरी हूं, अंग्रेजी माध्यम से पढ़ती हूं तो बेहतर ही जानती हूं, गांव के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों से। गांव ने बार-बार चकित किया मुझे अपने बड़े होते जाने के सालों में। अलबत्ता यह दीगर बात थी, कि उसी बड़े होने के सालों में गांव के अनुभव स्मृतियों के कोष में स्थान पाते चले गए, और उस छूटी हुई दुनिया से बावस्ता होने की कभी सोच पैदा ही नहीं की।
जब परिवर्तन से, रंजन जी ने बुलावा भेजा, तो एक क्षण जैसे नास्टैलजिया और हिचक से भर हां बोली थी। मन में यह तो आता ही था कि अपने गांव तो नहीं, लेकिन सिवान जिले के किसी गांव में रहूंगी और शायद कुछ छूट गई चीजों से रूबरू होंगी। आधुनिक भारत के इतिहास के कई प्रतीक पुरुषों से अंटा पड़ा है, यह क्षेत्र। स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का गांव जीरादेई लोकप्रिय ठग, जिसे कुछ लोग राबिनहुड का भारतीय संस्करण भी कहते रहे हैं, ‘नटवरलालका गांव, रूइयां वंगार भी है यहां। स्वतंत्रता सेनानी मजहरूल हक का गांव भी, इसी जिले में हैं। इन मशहूर नामों के अलावा भी कई ऐसे नाम होंगे, जिनकी जानकारी नहीं और जानकारी लेने का मन हो आया।
आधुनिक भारत के इतिहास के अलावा, कुछ गांवों के पौराणिक इतिहास भी होंगे। क्या नरेंद्रपुर के पास भी कुछ आख्यान होंगे? इतिहास की इबारतें हमेशा हांट करती हैं मुझे हमेशा लगता है, देश के इतिहास में इन छोटे भू खण्डों का इतिहास कितना शामिल हुआ है। इसकी कितनी उपलब्ध जानकारियां हैं, हमारे पास। भारत के इतिहास के  नैरेटिव में सिवान जिले के इतिहास का कितना देय रहा है? कैसा देय रहा है। और आज भी कहीं कोई बैठा हुआ दूर या पास, लगातार निर्मित होते जा रहे इतिहास को दर्ज कर रहा है या नहीं।
इन्हीं सवालों को मन में समेटे नरेंद्रपुर गांव में स्थित परिर्वतनपहुंची। परिवर्तन का विशाल कामप्लैक्स दिखलाई पड़ा। एकदम अचंभित करता हुआ। गांव के चकित कर देने की परिस्थिति फिर हाजिर थी। एक ठेठ गांव में, ये कैसी संस्था खड़ी है। कौतुक भरा था, सब कुछ परखने के अंदाज में मेरे।
साथ में आईं, उषाकिरण खान जी और नीलमप्रभा जी को जरूर, हंसी आई होगी मेरे इस तरह ठक हो जाने पर। एलिसफिर नए वंडरलैंड में प्रवेश कर रही थी। और ये एक छूट गए भू-खण्ड से नया संबंध स्थापित करने की ऐतिहासिक घटना थी। हर कोण पर एक नया निर्मित होता इतिहास था, कुछ सक्रिय लोग थे, कुछ कर गुजरने के स्पेस्स थे। समझा फिर चोला उतारना होगा यहां, नजरिया बदलव होगा, एक क्षण एक बाहरी की तरह कैसे रह पाऊंगी यहां? यहीं का होकर, रहना होगा। धंसना होगा उसी मिट्टी में तब जाकर शिविर की थीम को साकार कर पाऊंगी। वहीं से मेरी नई यात्रा शुरू हो गई।
नवनीत नीरव, अभिषेक पाण्डेय और श्रद्धा थवैत, से मिलने, उन नए विंडोज, से परिचित होने जैसा था, जिन पर उत्तजेना से भरा नया साफ्टवेयर होता है। हिंदी कथा लेखन के लिए, नई सौगात। गांव भ्रमण में देखी नई सरसों की फसल जैसे खूबसूरत पीले फूले, चारों ओर एक हरे और पीले के नीच की जमीन, उर्वर नई संभावनाओं से भरी हुई। सरसों के उन खेतों में, एक नए तरह के एस्थेटिक्स का भी दर्शन था। उनका साथ ‘‘साथ फूलों का।’’ विद्या बिन्दु सिंह जब देर शाम, परिवर्तन परिसर में स्थित घास के नरम गलीचे पर दूर से आती दिखलाई पड़ीं, तो मन में चांद का बिंब उभर आया। बजुद सुंदर हैं वे। यह दर्ज करते हुए, उनकी प्यारी सी मुस्कुराहट भी याद आ रही है। और उनका बहुत प्यार से धीमे-धीमे बोलना भी।
बाद में राजेन्द्र उपाध्याय जी और नीहारिका जी से भी परिचय हुआ। सबसे अन्त में आए आरिफ। आरिफ मेरे दोस्त, बरसों पुराने। कुछ यादें साझा करते वक्त, याद आया दोस्ती की नींव में हमारी कहानियां, जो एक ही साथ छपीं थी, वागर्थ में, और कैसे फोन घुमा कर मैंने उन्हें बधाई दी थी। वह एक पुरानी पहचान की कड़ी थी। कथा शिविर में कुछ नई कड़ियां जुड़ी। पहचान कब आत्मीयता में बदल जाती है, किसे कब पता चला है। कथा शिविर ने यह अवसर मुहैय्या कराया और हम सब चल पड़े हैं, अपनी आत्मीय यात्राओं में। कुछ सुंदर रास्तों पर, कुछ और सुंदर रास्तों की यात्राएं करने।
कुल जमा दो कहानियां हैं मेरी थाती। सिवान की थाती। पात्रों की तलाश, यूंही तो नहीं हो जाती? भटकना पड़ता है। मन से। तन से। विरासत में मिलीं यायावरी, बड़ी काम आई। दिल्ली में हिंदी पट्टी को ले चल रहे विमर्शों में भारी तोड़-फोड़ लगने लगी। इतिहास गवाह है, हारना ही होता है, खुद को कुछ जीतने के लिए। सो फिर हारा खुद को। बचपन की तरह किसी होड़ के तहत नहीं। एक लगातार विनीत होते जाते लेखक की तरह। किस बात पर रिक्लेम करूं अपनी विरासत को? मेरी किताबों के परिचय में यह लिखा जाता है कि मूलतः सिवान की है’, इसका वास्तविक अर्थ है क्या आखिर? क्या किया है, मैंने इस क्षेत्र के लिए। कुछ जमा दो कहानियां हैं, मेरी थाती। सिवान की भाती। उन्हीं में से एक का पाठ करती हूं। एक गुजरती शाम के दरम्यान। शाम का धुंधलका गहराने को है। मैं एक खूबसूरत काटेज की सीढ़ियों पर बैठी हूं। खुले आंगन के ऊपर से चिड़िया चहचहाते हुए, उड़ रहीं हैं अपने ठिकानों पर, मैं भी अपनी कहानी की मार्फत अपने ठिकाने पर लौट रही हूं। सीवान की मिट्टी की ही कहानी है, जिसका पाठ मैं करती हूं। पता नहीं, कितना संप्रेषित कर पाती हूं, एक बीत गई दुनिया के प्रति, लेकिन कोशिश करती हूं। हर बार की तरह इस बार भी कोशिश करती हूं। लेकिन कहानी का पाठ करते वक्त थोड़ी उत्तेजना से भरी हुई जरूर थी। पाठ के बाद लगा निचुड़ गया, अंदर का मलाल। बहुत कुछ दर्ज नहीं कर पाने का मलाल। फिर नया मलाल पलने लगा।
बहुत ही आत्मीय माहौल में, परिवर्तन के कुछ लोग आशुतोष जी के निर्देश में बेसिक वाद्य यंत्रों के साथ गीत प्रस्तुत करते हैं। वे गीत, देश और समाज में न्यायप्रियता और समान अधिकारों की बात करते हैं। मैं सोचती हूं कि भारतीय सामाजिक संरचना का परिामिड ऊपर से विचार थोपता है और एक सरकारी टेक्स्टुअल विचार बरस दर बरस पनपता जाता है, फैलाया जाता है, थोपा जाता है राज्य के एजेण्ट्स के द्वारा। पिरामिड के निचले हिस्से पर बसे देश के ज्यादा लोग, उससे बेहतर बात कहते हैं। वे उस तथाकथित मेनस्ट्रीम से बेहतर सामाजिक संरचना और तालमेल की बात करते हैं।
रात को इस क्षेत्र के ऐतिहासिक व्यक्तित्व, भिखारी ठाकुर द्वारा लिखित बेटी बेचवानाटक का मंचन होता है। परिवर्तन में एक खुला मंच हैं, और एक बड़ा खुला ऑडिटोरियम। नाटक शुरू होने के पहले लोग आकर अपना स्थान ग्रहण करने लगते है। किस गांव से आए हैं लोग पूछती हूं। अगल-बगल के कई गांवों से, जवाब कोई देता है। सब मनोयोग से नाटक देखते हैं। राजेन्द्र उपाध्याय जी की आंखों में आंसू आए, ऐसा उन्होंने बाद में बताया। अभिनय इतना शानदार था। कच्चे कलाकारों को, तराशा कर आशुतोष जी ने एक मिसाल कायम की, न सिर्फ अभिनय के क्षेत्र में बल्कि प्रोडक्शन के क्षेत्र में भी, दिल्ली से गए, रूरल थियेटर में स्नातक, रोहन की मदद से भी।
महिला सामख्या में आई ग्रामीण महिलाएं और, पंचायत जागरूकता अभियान में आई ग्रामीण महिलाओं में कोई विशेष अंतर नहीं था। वे रूढ़ परिस्थितियों से निकल कर, अपने लिए नए रास्ते तलाशने आई थीं।
धीरे-धीरे खुलने लगे थे, हम सबके मन के किवाड़। हम नई जानकारियों से लैस हो रहे थे। वे महिलाएं जानती नहीं थी कि वे बिना शोरगुल के महानगरों में चलने वाले स्त्री विमर्श में महत्वपूर्ण इबारतें दर्ज कर रही थीं। पितृसत्ता के खिलाफ उनकी लड़ाई, शहरी महिलाओं के बरक्स अधिक दुष्कर थी। अर्द्धशिक्षित महिलाओं का घर से बाहर निकलना कई तरह के आरोपों प्रत्यारोपों का जवाब देना क्या आसान बात रही होगी। मैं एक युवा लड़की से पूछती हूं, शाम को देर हो जाती है, काम से लौटने पर तो डर नहीं लगता? कुछ लोग कहते हैं क्या? यह बहुत आत्मविश्वास से बताती है, क्या करूंगी तानों से उदास होकर, या तो काम करूं या लोगों ताने सुन काम बंद कर दूं। मुझे उसका हौसला बहुत प्रभावित करता है। महसूस करती हूं, ‘परिवर्तनपर एक भरोसा सा है, आसपास के गांव में। मैं सोचती हूं, कितनी मेहनत लगी होगी यह भरोसा पाने में? अभिजात के अपने पर्दे और कानून हैं, उनका खामोश उत्पीड़न और कामगार महिला का अपना उत्पीड़न, भगनीवाद में साझा लेकिन अपने-अपने शोषित नैरेटिव में अलग इसी खूब स्पष्ट छवियां यहां देखने को मिलती हैं।
इलाहाबाद से आए चद्रशेखर प्राण जब पंचायती राज के पक्ष में अपना वक्तव्य दे रहे थे, तो महिलाएं बेबाक हो सवाल पूछ रही थीं तीसरी सरकारजैसा लफ्ज़, सशक्तिकरण की दिशा में बड़ी पहल है, चंद्रशेखर प्राण समझा रहे थे, और महिलाएं कई बार कोरसबद्ध होकर कह रही थीं, उन्हें निर्णय लेने में शामिल होना है। वे बहुत सारे अधिकारों से हमेशा वंचित रही हैं, लेकिन अब रहना नहीं चाहती हैं।
मुझे याद आया पिछली बार जब सिवान गई थी तो लड़कियों की बड़ी तादाद को साईकल पर हाई स्कूल जाते देख ऐसा ही लगा था। उत्साहित, उर्जावान और आशावादी। इतनी लड़कियां क्या अब अपने गांवों से दूर पढ़ने जाने लगी हैं? एक स्कूल के मास्टर साहब से रूक कर पूछा था। हांउन्होंने खुश होकर बताया था, मानों मैं क्या उन्नीसवीं सदी में रहती हूं।
उस वक्त नहीं बता पाई थीं, मास्टर साहब से कि, मां ने कैसे बताया था, हाई स्कूल तो दूर की बात है पांचवीं के बाद बिरले ही लड़कियां पढ़ पाती थी, इसी सिवान जिले में। और यह उन्नीसवीं नहीं बीसवीं सर्दी की बात है। उस पीढ़ी की माएं जीती है अभी भी इन पिछड़े इलाकों की कथा कहने।
परिवर्तन कैम्पस में स्त्री सशक्तिकरण के और, अद्भुत दृश्य दिखलाई पड़ते हैं, जिनमें गांव की लड़कियों का फुटबाल जैसे खेल में भागीदारी करना और प्रशिक्षण पाना भी है। जिस स्वस्थ उन्मुक्त सांस की कामना में सारा स्त्री जगत संघर्ष कर रहा है उसके मूल में स्त्री देह के शर्म से मुक्ति भी है। जब लड़कियां खेल रही होती हैं, तो वे सिर्फ एक खिलाड़ी होती हैं, वे बेलौस सिर्फ खिलाड़ी होकर खेल रही थी। मन को बेतरह छू गई यह बात।
क्या मुक्तिकामी स्त्री के पक्ष में एक खामोश क्रांति इन्हीं इलाकों से होकर स्थायित्व प्राप्त करेगी? ‘प्रतिमाकी याद आती है जो बेटी बेचवावाहक में नायिका की भूमिका में थी, और नाटक के प्रति, गांव वालों में विश्वास जगाने का प्रतीक अनजाने में ही बन बैठी है। बचपन में एक बार देखा था, गांव में कोई नाटक, चौथी या पांचवीं क्लास की गर्मियों की छुट्टी में गई थी जब। स्त्री पात्रों को पुरुष ही निभाते थे तब। आज लड़कियां न सिर्फ थियेटर कर रही हैं, बल्कि उसे ग्रामीण समाज में एक सम्मानीय स्थान भी दिलवाने की कोशिश में लगी हैं। स्त्रियों का विविधआयामी होना, उनकी प्रतिभाओं को उभारना, उन्हें आर्थिक रूप से सबल बनाने का अभियान भी दिखलाई पड़ता है, परिवर्तन में।
रूईयां बंगार जाना और नटवरलालके दूर दराज के वंशजों से मिलना, उनका आतिथ्य पाना और अनेक कहानियां सुनना भी अनूठा अनुभव था। नटवरलाल पर विकिपीडीया का पेज है। कुछ तस्वीरें भी है, नेट पर। मन में एक छवि इन सब की मिला जुलाकर बनती है। एक दंत कथा की तरह उसे सत्तर के दशक में पोसा गया था। हमारे बचपन में जब स्कूल के रिपोर्ट कार्ड पर कम नंबर आने पर हम खुद ही मां-बाप के दस्तखत उतारने लगते थे तो कुछ दोस्त नटवरलाल का हवाला देते थे। बचपन में, धारा के विरुद्ध इस तरह के किरदारों का होना, बहुत उत्साह से भर देता था। सन् 60के सोशलिस्ट दौर के आदर्शवादी समाज की परिकल्पना के विरुद्ध सत्तर के दशक में, हमारे बचपन का राबिनहुड ही था नटवरलाल। उसी के समकक्ष सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन का आगमन भी सिनेमाई इतिहास के लिए एक बड़ी घटना थी। एंगी यंग मैनने भी हमारे बचपन पर गहरा असर किया था। ठीक उसी तरह दुस्साहस से भरा था नटवरलाल, जो क्राईम को भी दिलचस्प बना देता था। आज याद नहीं पड़ता लेकिन एक बागी समझ उसे कभी तो सेलीब्रेट किया ही होगा हमने। आज सब कुछ को विवेक सम्मत हो आंकने लगे हैं हम। आज गांव में नटवरलाल के बारे में एक चुप्पी सी पसरी थी। कुछ लोग जो बताते भी थे, वह एक सम्माननीय या जानकारी के अभाव वाली फीकी मुस्कान के साथ, कि शर्मसार है कि, गांव इसीलिए मशहूर हुआ और शर्मसार होना भी नहीं चाहते वे। इसी बर्ताव पर मुझे याद आने लगे, इतिहास में दर्ज वे उदाहरण जिनकी गति कमोबेश ऐसी ही हुई। जर्मनी में हिटलर सोवियत रूस में लेनिन। दो विपरीत विचारधारा के लोग, लगभग एक सी गति को प्राप्त हुए, जब समय उनके पक्ष में न रहा तो। तो क्या, लोगों, स्थापत्य, विचारधारा की तरह हमारी स्मृतियों की भी शेल्फ लाईफ होती है? समयनुसार हम उन्हें, अपनी कूचियों से रंगते रहते हैं, कभी अपने समय के पक्ष में कभी विपक्ष में। काश कुछ और जान पाते हम। नटवरलाल के बारे में जो ठोस होता।
जीरादेई गांव में जब एक पुराने जर्जर, काई से रंगे, ब्लैक एंड व्हाईट फोटो के अक्स समान मकान का दीदार होता है, मन में कुछ कचोट सा जाता है। गांव के किसी बड़े आदमी का मकान था जरूर, गांव वाले बताते हैं। बड़े आदमी के जाने के बाद आदमी के बारे में भी विस्मृत हो जाती हैं चीजें। बस, एक चूना मिट्टी सुरखी का जर्जर स्ट्रक्चर कुछ कहता हुआ सा रह जाता है। अधूरी कहानियां फिर भी हर ओर बिखरी होती हैं। इस गांव में भी वही आलम था। कुछ लोगों की बात छोड़ दें तो आम लोगों का इतिहास दर्ज न कर पाने की विवशता से खत्म हो जाता है। वह वाचिक इतिहास भी जो इस देश की परंपरा में रचा बसा था और आज लोगों की जुबां पर बसता था। राजेंद्र बाबू की जीवित देखने वाले कम बचे हैं गांव में। जो हैं, वे उम्रदराज हैं, और उस वक्त बच्चे थे। उनकी स्मृति, में राष्ट्रपति बनने के बाद राजेन्द्र बाद का गांव आना, एक परिघटना थी, जिसे देखने को पूरा गांव जुटा था। भूले नहीं थे, बचपने के मित्रों को वे, अपनी सरकारी गाड़ी में बिठा कर ले गए गांव के मित्र को अपने घर।’ ‘गांव वाले जब बार-बार उन्हें देखना चाह रहे थे तो खुशदिली से कहा था उन्होंने, हम बदले नहीं है, वही हड्डी वही मज्जा है।लेकिन इस सादगी पर ही तो लोग कुर्बान जाते थे। याद आता है। पापा और मां कैसे बताते थे, जब कभी नेहरू जी इलाहाबाद गए थे, प्रधानमंत्री होने के बाद तो मां घंटों सिविल लाईंस की अपनी बाल्कनी में खड़ी बाट जोहती रही थी, नेहरू जी के काफिले की, जब की उसके पहले भी कभी किसी स्वतंत्रता पूर्व की मीटिंग में देख चुकी थी उन्हें।
जिस जमाने में बड़ी लड़ाई लड़ लोग सरकार हुए थे, उसमें सच की छवियां ज्यादा दीं। ग्लैमर का आर्विभाव कम। विश्व में एक ओर हिप्पी मूवमेंट, की अनुगूंजें थीं, दूसरी ओर ब्लैक राईटॅस की पुकार मच रही थी, उसी बात हमारा देश एक लंबी लड़ाई लड़ सुस्ता रहा था। सादगी भरे यूटोपिया की कल्पनाकर रहा था।
गांधी का ग्राम स्वराज का स्वप्न जो बिसरा दिया गया था, क्या पुनर्जीवित हो पाएगा? लौट-लौट कर परिवर्तन याद आता है। ग्रामीण औरतों का सरकार में भागीदारी करने का स्वप्न और उनकी आशा याद आती है। खादी याद आती है। परिवर्तन में पहल भी हो रही है, कि खादी को एक विचार और रोजगार के रूप में पुर्नजीवित कैसे किया जाए। आदर्श ग्राम की कल्पना, और उसका व्यहवार क्या एकमत हो, क्या प्रदेश में और देश में अपनी अनूठी पहचान बना पाएंगे?
गांव के सामाजिक समीकरण पर कथा शिविर में आए हम सब खूब बातें करते हैं। गांव के मुखिया के घर के बाहर एक पक्का कुआं है, जो सीमेंट कंक्रीट से छवा दिया गया है। उस पर एक आदमी बैठा है। श्रद्धा और मैं उससे बात करते हैं। वह दिल्ली में रहता है। छुट्टी पर आया है। वह खुश दिखता है।
दिल्ली में पैसा है। गांव में कुछ भी नहीं।वह मुस्कुराकर कहता है। मुखिया जी भी वही बातें कहते हैं। अब बचा कौन गांव में?’ कथा शिविर में आए हम सब, अपने जगहों में रहते हुए यह सच जानते हैं। लेकिन वही एक उदास बुजुर्ग की आवाज में हमें कहीं भीतर से विचलित कर देता है। मुखिया जी की आवाज कुछ देर को उदास हो फिर वापस टनकदार हो जाती है। वे आज के समय को लेकर बहुत परेशान नहीं। समय के अनुसार बदलाव भी जरूरी है। एक शब्द बार-बार कौंधता है दिमाग में, रीइन्वेंट करना होगा हमें, और पुनः परिभाषित भी गांव की जरूरतों और उसके बरक्स समाधानों को। उषा जी, बहुत सारे सवाल पूछती हैं, मुखिया जी से उनका यह Matriarchalसाथ, हमारे मन को भी खोलता है। वे हमें अदृश्य धागों से जोड़े रखती है। रंजन जी, सबको समय पर उपस्थित होने का निर्देश भी बड़े प्यार से देते हैं। हम मुस्तैद, मुखिया जी की कहानी सुनते हैं। नरेंद्रपुर के शक्ति सिंह की कथा। राजपूत बहुल, पराक्रमी शूरवीरों की कथा। जिन्होंने आकर नरीनपुर गांव बसाया। जो परिष्कृत हो नरेंद्रपुर हो गया।
मुखिया जी के घर के सामने एक मजार है। श्रद्धा और मैं वहां तक जाते हैं। कोई खिदमतगार नहीं है वहां। लेकिन बेहद साफ सुथरा स्थान है। जैसे रोज सफाई होती हो उस जगह। कौन देखभाल करता है इसकी?’ ‘कोई भी कर देता है।’ ‘हिंदू की मुसलमान?’ गांव के हिसाब से यह एक अहमकाना सवाल है। सब मुरीद हैं, बाबा के कोई फर्क थोड़े ही है।’ ‘लोक कथाओं के नायक, गांव के रक्षक हैं, बाबा।सियासती आग की चिंगारियां यहां मौजूद नहीं हैं। सर्वधर्म समभाव है। मन में राहत के बादल घुमड़ते हैं। मन के अंदर एक मीठा एहसास सा जगता है।
इसी वाकए से जुड़ी एक शाम याद आती है। जिसमें फाग सुनाया गया था। बीच में बैठे एक गायक का नाम राशिद है। वे झूम झूम कर कृष्ण के फाग गीत का रहे हैं। ठोल की थाप और चेहरों पर उग आती उमंग देखते ही बनती है। बचपन का एक दृश्य फिर कौंधता है, इंदौर में होली मना रहे हैं पापा और सिवान से लोग आकर फाग गा रहे हैं। पापा की गोदी में बैठी मैं, नारियल के टुकड़े और बादाम कुतर रही हूं। वहां भी कोई रासिद मियां की तरह ही अनवर मियां थे, कव्वालों की तरह काली टोपी लगाए। और झूम झूम कर फाग गाते। कुछ कड़ियां कैसे जुड़ती हैं। कुछ विरासतें कैसे यकबयक उद्घाटित हो जाती हैं। इसी सिलसिले से जुड़ा दूसरा वाकया फिर याद आता है। रूईयां बंगार के मुखिया जी के घर के सामने वाले घर में मुझे कुछ सजी सलोनी औरतें दीख गईं थीं। वे भी मुसलमान ही थीं। मैं उनके घर के अंदर गई थी। एक चमकीले डोरों से बुनी चारपाई पर बिठाया था मुझे। वे औरतें कितनी जल्दी घुल मिल गई थी। बोलने बतियाने लगी थीं अपने सुख दुख। तभी आरिफ मुझे ढूंढते हुए आ गए थे। मैं जाने लगी तो वे बड़े प्यार और इसरार से मुझे कहने लगी थी रात भर रूकती हमारे यहां, रात भर बात करते हम तो मजा आता न।
सदियों की बातें नहीं कर पाने का दुख है मुझे। स्त्रियों की सदियों पुरानी बातें साझा नहीं कर पाने का दुख। आरिफ दंग हैं वे कहते हैं यहां धार्मिक आधार पर मोहल्ले नहीं बंटे हैं।’ ‘जी।हम आश्वस्त होते हैं। दुनिया बदल गई है यह सच है। फांकें बन चुकी है, यह भी सच है। लेकिन शुक्र है कि इस देश के कुछ हिस्सों में खुदा और भगवान अभी-भी अगल बगल बैठ रोटी खाते हैं।
जब इसी सौहार्द के बरअक्स में हम दूसरी बड़ी सामाजिक विषमता पर बात करते हैं, तो थोड़े निराश होते हैं। हमें, गांव में आज भी दलितों की गैरमौजूदगी और पुरुषों का गांव से पलायन मथता है। क्या आजादी के इतने वर्षों बाद भी, हम अपने समाज को पुर्वाग्रहों से मुक्त नहीं कर पाएं हैं? परिवर्तन को देख मन में हल्की सी उम्मीद तो कौंधी है कि हम शायद हम एक समग्र संभावनाओं, समान अधिकारों वाला, समतावादी समाज बनाने का स्वप्न पैदा करें तो शायद संभव भी कर दिखाएं।
इन्हीं बातचीत और चर्चाओं के बीच हम अपने अनुभव साझा करते हैं। हम अपने पात्रों को मन में स्टोर भी करते हैं। सबका बारी-बारी से कहानी पाठ होता। सबकी अलग आस्वादों वाली सुंदर कहानियां साझा होती हैं। अभिषेक की कहानी यदि सबको रूला देती है, तो रंजन जी की कहानी समाज का क्रूर कलेवर दिखा हमें झकझोर देती हैं। हम सब करूणा और क्रूरता के घाल मेल से बने इंसान हैं।
एक रात खाने पर से लौटते हुए, खूब साफ आसमान की ओर इशार कर विद्या बिन्दु जी ने कहा था, ‘वंदना तारों के विवाह की कहानी जानती हो?’
न।नहीं जानती थी मैं।
विद्या जी के पास लोक कथा का अथाह भंडार हैं। वे मुझे सुनाने लगी। मैं मुग्ध भाव से सुन रही थी। चांद शफ्फाक हो हमें तक रहा था। तारे चंचल हो रहे थे। रात कितनी सुहानी हो गई थी। गांव की रातें भी भिन्न होती है, दिल्ली की इन रातों से।
नीलमप्रभा जी के स्वरचित गीतों ने कथा शिविर के अनुशासन को इतना रसरंजित किया कि दीवानों की तरह हम उनसे हर वक्त गीतों की फरमाईश करते रहे। उनके आवाज की पहाड़ों पर होती इको वाली क्वालिटी ने बहुत मुत्तासिर किया। मन भरता ही नहीं था। उनके गीतों से। शिविर में, जीवन के इन खूबसूरता रसों का अनऔपचारिक लुल्फ उठाया।
शिविर के अंतिम दिन, सबने एक दूसरे से हमेशा संपर्क में रहने के वादे किए। आज सोचती हूं, तो लगा रहा है सत्तर प्रतिशत सब निभा भी रहे हैं। यह सुखद है।
संसार यूंही विस्तार पाता है। हम एक दूसरे से विचारों की अदला-बदली कर ही संपृक्त होते हैं। बेहद अमीर।
बातों को कायदे से यहीं खत्म हो जाना था, क्योंकि शिविर की अंतिम सभा हो चुकी थी लेकिन, बातों में कुछ हर्फ और जोड़ने होंगे मुझे क्योंकि मैं, परिवर्तन में सबके चले जाने के बाद कुछ घंटे और रूकी थी।
उन घंटों का उपयोग मैंने स्वतंत्रता सेनानी मजहरूल हक के पुश्तैनी घर जाकर और कुछ गांव दूर पर बसी दलित बस्ती के लोगों से बातचीत करने में बिताया।
मजहरूल हक के पड़पोते ने बहुत दिलचस्प वाकया सुनाया कि कैसे उनके पड़दादा उत्तरप्रदेश से यहां आए, जगह अच्छी लगी और यही बस गए। इसी तरह तो गांव और घर बनते और उजड़ते हैं। एक दिन किसी शोषण से त्रस्त, किसी साहसिक यात्रा पर जाने को उत्सुक या मन के किसी आग्रह से प्रेरित हो, लोग चल देते हैं, नई रिहाईशों की ओर। सभ्यता की यह कहानी बरस दर बरस यूंही चलती रही है। दिवंगत मजहरूल हक के पुश्तैनी घर के पास ही उनकी मजार है। चारों और फूलों का बागीचा है। वहां गुल नहीं रजनीगंधा खिला है और महक रहा है। मैं एक स्टेम मांग लेती हूं। मुझे रजनीगंधा, देख उसी नाम की फिल्म की याद आती है, अच्छा सा लगता है।
वह अच्छा सा लगना स्थाई भाव बन देर तक टिक नहीं पाता है। दलित बस्ती में जाने का रास्ता परिवर्तन में काम कर रही एक दीदी के घर की ओर से खुलता है। उनके घर जाने से, दलित बस्ती का सूरते हाल बेबाक ढंग से खुल जाता है। मेरे लिए एक कुर्सी मंगाई जाती है, और सामने सड़क पर बैठ जाती है, दलित बस्ती की कितनी ही सारी स्त्रियां। मैं पुरुषों को ढूंढने की नाकाम कोशिश करती हूं। मैं पक्के मकानों को ढूंढने की नाकाम कोशिश करती हूं। शायद ही किसी घर के किसी कमरे की छत पक्की मिले। सारी स्त्रियां यूं बैठ जाती हैं, जैसे झुण्ड में, उदास चिड़िया, अपने दुखों के कलरव में डूबी। उनके दुखों की कहानियों में पतियों के पलायन और कुछ न कर पाने की तीखी तासीर है। एक युवा स्?ाी दूर बनी रही है, जब बाकी स्त्रियां उसे नजदीक आने को कहती हैं, तो वह नाराज आवाज में जिरह करती है।
‘‘आप हमारी कहानी लिख कर हमारा दुख दूर कर देंगी क्या?’’
सवाल देर तक चुभा रहता है। आज भी लिखते वक्त फांस सी गड़ रही है। एक लेखक के औजार और दायित्व क्या हैं आखिर? एक वक्त था, जब वह समाज का Opnion Maker हुआ करता था। आज क्या वह यह कर पा रहा है। समाज में चेतना पैदा करना, मजलूमों, शोषितों की आवाज सही जगह पहुंचाना हो पा रहा है क्या? क्या टेलिविजन चैनल्स की तरह सिर्फ हंगामा करना हमारा मकसद हो गया है?’ ‘सूरत बदलनी चाहिएसे हमारा कोई सराकार नहीं? इस कथा शिविर के बाद ऐसे सवालों से भी मैं दो चार हो रही हूं, आज तक।
जो खत्म होने के बाद की कहानी होती है, जिसे Post Scriptकहते हैं, वह क्या कहानी की पूरक होती है बस? या वह किसी परोक्ष कहानी की तरह, कहानी की रीढ़ होती है। वह आधार जिस पर कहानी टिकी खड़ी होती है? न चाहते हुए भी, उसे हम एक बैक स्टोरी कहते हैं।
इस समूचे शिविर में जिस एक किरदार की अहम भूमिका रही है, और जिसका जिक्र अभी तक नहीं कर पाई हूं, वह है, परिवर्तन समूह के संस्थापक संजीव जी। जिनके विचारों ने हम सबको बहुत मुत्तासिर किया। जिनसे मिलकर लगा, अगर मन में करने का जज्बा हो, तो हासिल भी किया जा सकता है।
आज, दर्ज करते वक्त सब कुछ रेलगाड़ी में बैठ भागते दृश्यों को देखने सरीखा एहसास हो रहा है। संजीव जी की खामोश मौजूदगी, व्यवस्था आयोजन से लेकर कहानी पाठ तक में उनकी धीरज से भरी हिस्सेदारी, परिवर्तन को लेकर उनका अथक उत्साह और प्रयास, ग्रामीण लोगों से उनका आत्मीय संवाद, और कुछ कर गुजरने का जुनून। सब कुछ प्रभावित करता है और समुचित ढंग से प्रेरित भी।
गांधी के स्वराज्य की कल्पना में गांव थे। गांधी जी जानते थे, जिस देश की सत्तर प्रतिशत जनता अभी भी गांव में वास करती है, उस देश का विकास गांवों के रास्ते से होकर निकलेगा उस कल्पना को साकार करने के रास्ते में हम भटक गए कहीं बीच सफर में। ग्लोबलाईजेशन की आंधी ने हमें भावों में एकात्म करने के बाजाए, सांस्कृतिक रूपों से एक रंग में समेट लेने की कोशिश की है।
परिवर्तन की मार्फत, इन चीजों के पुर्नजीवित होने का सपना फिर बुलंद होता लग रहा है। लोक के गीत, संगीत, आचार व्यवहार की सृजनशीलता को, साहित्य से जोड़ने का प्रयास कितना अद्भुत हो सकता है। इसका उदाहरण शिविर में शामिल लेखक, लाईव देख कर आ रहे हैं।
साहित्य की अनुगूंज, खास तौर से हिंदी साहित्य की धमक से आज हमारे महानगर नहीं आलोड़ित होते हैं। हिंदी साहित्य का भविष्य भी कहीं इंडिया से भारत की ओर चल पड़ा है। यह लौट कर जमीन तलाशने वाली प्रक्रिया है।
उषा जी ने और नीलमप्रभा जी ने अंतिम सत्र में कहा था, संजीव जी भी हमारी कहानियों के पात्र हो सकते हैं। जो लोग परिवर्तन लाने के प्रयास में एकजुट हो सचमुच काम कर रहे हैं। वे सब हमारी कथाओं के पात्र हो सकते हैं।
जिस तरह पात्र हो सकते हैं, बदलते गांव, दलित बस्ती की स्त्रियां, रासिद मियां, चंदा बीबी, मुखिया जी, नटवरलाल, राजेंद्र प्रसाद, मजहरूल हक, मिट्टी, सरसों के खेत और विषमताओं के सामाजिक स्वर। शिविर के बहाने हम इस क्षेत्र और उसके सामाजिक संदर्भ के अल्प ज्ञानी तो हुए ही हैं हम छू कर निकले है उस क्षेत्र को। छू कर निकलना भी ज्ञान अर्जित करने की बड़ी प्रक्रिया के शिशु कदम ही है। किसी भी पहल के लिए उन शिशु कदमों से चलना शुरू करना होता है। एक मुक्कमल पहल तो हुई ही है। बहुत सारी स्मृतियों के साथ हम कथा शिविर से वापस लौटे हैं।
मन में, कई तरह के भाव उछल कूद मचाते हैं। वहीं, नरेंद्रपुर से कुछ ही दूरी पर शायद 10-15किलोमीटर पर मेरा गांव मधवापुर है। उन गांवों की फेहरिस्त में शामिल, जो सिवान जिले के हैं। कुछ बातें बिसरा गई थी जीवन की। उन्हें वापस जगा दिया इस शिविर ने। मुझे बचपन में मधवापुर में गुजारी कुछ छुट्टियां याद आईं। उसी धूल-मिट्टी में दफन कुछ विरासत की टीसों ने डसा। कुछ दुख हुआ। जानती हूं नास्टैलजिया हमेशा अच्छी बात नहीं, लेकिन इस वक्त जरूरी लगता है। कुछ बातें चोट करती हैं, तभी उनकी सच्चाईयों से आप रूबरू होते हैं। इसीलिए अच्छा हुआ कि कुछ दुख हुआ। कुछ और सोचने पर विवश हुई। लौटने के बाद खूब सोचकर मन में एक तैयारी की। छूट गए अपने उस लोक से फिर से संबंध स्थापित करने का मन बनाया। गांव ने फिर से चकित कर दिया मुझे। अपने डायनेमिक्स से। परिवर्तन ने और भी ज्यादा चकित किया है। इस आशा के संचार को खिलने देना है।
अब अंत में कुछ ऐसे सच है, जिन्हें झुठलाया नहीं जा सकता। जैसे-दुनिया वाकई गोल है। जीवन का सत परिवर्तन है। और एलिसका बड़ा होना अभी बाकी है।

जोगेंद्र पॉल का उपन्यास अंग्रेजी में

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जोगेंद्र पॉल  उर्दू के जाने माने लेखक  थे. . हाल में ही उनका  देहांत  हुआI उनके उपन्यास ''नादीद ''का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ है'ब्लाइंड'नाम से. अनुवाद सुकृता  पॉल कुमार और हिना नंदराजोग ने किया है. अनुवाद  की समीक्षा सरिता  शर्मा ने की है - मॉडरेटर 
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 जोगेंद्रपॉलउर्दू के बहुचर्चित कथाकारहैं जिन्होंने अपने उपन्यासों,कहानियों औरलघुकथासंग्रहों से उर्दूसाहित्यकोसमृद्धकियाहैउनकीअधिकांश पुस्तकों के अनुवादहिंदी औरअंग्रेजीमेंकिये गयेहैंउन्हेंसार्कलाइफटाइमअवार्ड, इकबालसम्मान, उर्दूअकादमीपुरस्कार, अखिलभारतीयबहादुरशाहजफरपुरस्कार, शिरोमणिपुरस्कारतथागालिबपुरस्कारसेसम्मानितकियागयाहै जोगेंद्रपॉलअपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हैं-‘पता नहीं किसी ने सचमुच कभी हथेली पर पहाड़ उठाया था कि नहीं, किन्तु सृजनाकार को इसके बगैर कोई चारा ही नहीं कि अपनी हथेली पर दो जहान का फैलाव पैदा कर पाये। किसी कुशल और फौरी अनुभव में भाषाई बहुतात से घुटन का वातावरण पैदा होने लगता है। कलाकारों का यह इसरार बड़ा अर्थपूर्ण है कि बोलो मत, दिखाओ।
 
जोगेंद्रपॉलकेउर्दूमेंलिखेगएउपन्यासनादीद’काअंग्रेजीअनुवादब्लाइंड सुकृतापॉलकुमारऔरहिनानंदराजोगनेकियाहैउपन्यासलिखनेकाविचारलेखककेमनमेंतबउपजाजबवहनैरोबीमेंअंधगृहमेंगयेथे- ‘अफ्रीकीचेहरोंकीदृष्टिहीनआँखेंमेरेदिलमेंउतरगयींउपन्यास के अंत में तीन अध्यायों में उपन्यास के बारे में सुकृता पॉल कुमार के नोट्स, उनका जोगेन्दर पॉल के साथ साक्षात्कार और जोगेन्दर पॉल द्वारा स्वयं के लिए लिखा मृत्युलेख है।अनुवादकोंकेलिएजादुईयथार्थवाद और अमूर्त प्रसंगों वालीखूबसूरतीसेलिखीकिताबको अनुवाद करना चुनौतीपूर्ण थासबसे पहले शब्दशः अनुवाद, उसके बाद मुहावरों और शैली का अनुवाद किया गया तथा अंत में अनुवाद को सहज बनाकर पठनीयता और प्रवाह पर ध्यान दिया गयायहउपन्यास राजनैतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक औरनैतिक अधोपतनसेविकलांगहोचुकेसमाजकीपड़तालकरताहै। इसमेंक्षेत्रीयताऔरसीमाओं, राजनीतिकसत्ताकेलिएसंघर्ष, रिश्तेऔरनिहितस्वार्थ, भ्रष्टाचार, हमारेद्वाराअपनीकमजोरीकोस्वीकारकरनेऔरखुदकेबारेमेंसत्यकीखोजकरने जैसे मानवअस्तित्वसे जुड़े सवालोंकोउठायाहैअंधगृहपूरेदेशऔर समाज काएकसशक्त रूपक है।

उपन्यास के पात्र जीवंत और वास्तविक लगते हैंलेखक का मानना है - “मेरेपात्रअक्सरमेरेप्रतिबिंबलगतेहैं।मुझेयकीनहैकिजबमैंनहींरहूंगा, तबभीमैंअपनेपात्रोंकेमाध्यमसेजीवितरहूंगा।”उपन्यास में बाबा, शरफू, भोला, रोनी और कुछ गौण पात्र हैं। पात्रों के प्रति लेखक का नजरिया बहुत उदार और मानवीय है। उनकामाननाथाकिजीवनकिसीभीदर्शनसेबढ़करहै। चूंकि दृष्टिहीनों की दुनिया बहुत सीमित है और वे बोल कर और छू कर ही स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं, उनके लिए नैतिक मानदंड बहुत कड़े नहीं रखे गये हैं। रोनी के बाबा, शरफू, भोला -तीनों ही के साथ संबंध हैं मगर उसकी शादी शरफू के साथ होती है। वह नाराज होकर अंधगृह से बाहर निकलती है मगर कठोर परिस्थितियों की शिकार हो कर अपनी बच्ची के साथ लौट आती है। बाबा देख सकने के बावजूद दृष्टिहीन बने रहने का अभिनय करता है क्योंकि उसे अपने साथियों की बहुत फ़िक्र है। वह अंतर्राष्ट्रीय आसूचना संगठन के चंगुल में फंसकर उनके हाथों कठपुतली बन जाता है और साम्प्रदायिक दंगे करवाता है। उसे पद्म विभूषण मिलता है और राज्य सभा में संसद सदस्य भी बन जाता है। उसे प्रधान मंत्री द्वारा यू. एन. ओ. द्वारा दृष्टिहीन लोगों के कल्याण हेतु आयोजित की जाने वाली सभा की अध्यक्षता की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। मगर आसूचना संगठन उसे विदेश मंत्री समेत विमान के अन्य यात्रियों को बम से उड़ाने का आदेश देता है जिनमें उसके अंध गृह के पांच साथी भी होते हैं। अंततः बाबा की अंतरात्मा जाग जाती है और वह आत्महत्या करने से पहले अपने अपराधों को स्वीकार करते हुए पत्र लिखकर उन लोगों की जान बचा लेता है।


दृष्टिहीन लोगों के बारे में लिखना बहुत कठिन है क्योंकि उनकी अँधेरी दुनिया में सबसे ज्यादा समय अपने बारे में सोचने और मन ही मन में बतियाने में निकल जाता है। अंधगृह में रहने वाले लोग अपने- अपने तरीके से  देखसकतेहैं। शरफू  उंगलियोंकेमाध्यमसेदेखताहै जिनसेवह सुंदरटोकरीमेंबांसके तंतुओं सेबुनाईकरता है। उसके बारे में बाबा काव्यात्मक ढंग से कहता है- ‘किसी को टोकरी की जिन्दगी जीनी हो तो निश्चिन्त होकर खुद को शरफूके हाथों में सौंपकर मर सकता है।’ रोनी अपनीइच्छाओंसेअंधी होते हुए भी, अपने प्रेमियों केमाध्यमसेदेखतीहै।भोलाअंतर्ज्ञानऔरछलकेमाध्यमसेअपनेदोस्तोंपरसतर्कनजररखताहै।  जबबाबा को एकदुर्घटनाके बाद दिखाई देने लगता है, तो उसे दुनिया भ्रष्टऔरअवनतिकी ओर जाती हुई नजर आतीहै।बाबा कहता है-‘जब मैं अँधा था, तो मैं अपने बस में था। मगर जैसे ही मुझे दिखने लगा, मैं खुद से दूर हो गया।’उपन्यास में दृष्टि और अंतर्दृष्टि तथा  देखने और न देखने के बीच अंतर बढ़ता जाता है। अंधापन विभिन्न स्तरों पर व्याप्त है। यह अंध गृह से शुरू हो कर पूरे देश की समस्या से जुडा हुआ है। दूसरे स्तर परयहविश्व के किसी भी देश की कहानी कहता है। अंत में दृष्टिहीन देखना नहीं चाहते हैं क्योंकि वे अपने आस- पास की बुराई नहीं देखना चाहते हैंसिर्फ आँखों वाले सीमा निर्धारण करते हैंदृष्टिहीनों के लिए कोई भी स्थान, देश या घर उनका अपना हो सकता है।’

उपन्यास के कथानक को कहीं ‘मैं’ की शैली में और कहीं लेखक द्वारा स्वयं आगे बढ़ाया गया है। शुरू में पात्र अपने और साथियों के बारे में विस्तार से बताते हैं। अंध गृह के लोगों का माहौल आत्मीय है। पात्र  एक- दूसरे की कमियों को माफ़कर देते हैं। बाबा कहता है- ‘फिर भी वे अपनी पूर्णता में पूर्ण हैं। मैं उन्हें अच्छे या बुरे की श्रेणी में डालकर उन्हें उनकी पहचान से क्यों वंचित करूं।’ सबसे दिलचस्प कुएं द्वारा महसूस किया जाना, शरफू का बांस के तंतुओं के साथ और गूंगे सिंहा का पिल्ले के साथ कल्पित संवाद है। मिल मालिक तथा मजदूर नेता के बीच टकराव में दोनों बार मजदूर नेता मारा जाता हैकालिया कहता है- ‘जब सत्य मरता है तो तुम और हम नहीं मरते हैं’...हममें से हर कोई थोड़ा-थोड़ा मर जाता है’ उपन्यास का दूसरा भाग थ्रिलर जैसा आभास देता हैबाबा बहुत तेजी से तरक्की करता हुआ अपराध की दुनिया में धंसता जाता हैढोंगी साधुओं द्वारा राजनीति में हस्तक्षेप और अपना वेतन बढाने पर सब दलों की सर्वसम्मति के माध्यम से देश में राजनैतिक गिरावट को बहुत करीबी से दिखाया गया हैब्लाइंडउपन्यासकाशाश्वत,सौंदर्यबोधपूर्ण, नैतिक, अस्तित्ववादीऔरसात्विकमहत्वहै। इस प्रयोगात्मक, बहुस्तरीय, काव्यात्मक और दार्शनिक उपन्यास में अर्थ की कई संभावनाएं छिपी हैं।कुछ लेखकों द्वारा इसके आख्यान को महाकाव्यात्मक बताया गया है।

                        
                                           मोबाइल: 9871948430


जय नारायण बुधवार की ग़ज़लें

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जय नारायण बुधवारको बरसों से हम 'कल के लिए'पत्रिका के संपादक के तौर पर जानते रहे हैं. वे बहुत अच्छी क्लासिकी अंदाज़ की ग़ज़लें लिखते हैं. आज उनकी चुनिन्दा ग़ज़लें- मॉडरेटर 
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1. 
कुँआ ये प्यार का प्यासा बहुत है
 सम्हलना,देखकर,गहरा बहुत है।

मेरे दिल पर न कोई तंज़ करना
ये बच्चा रात भर रोया बहुत है।

पता देती है उसकी बदमिजाजी
किसी ने टूट कर चाहा बहुत है।

नहीं है ख़ास कुछ चेहरे में मेरे
तुम्हारी आँख ने देखा बहुत है।

वहीं से आती हैं ठंढी हवाएं
तुम्हारी रूह में झाँका बहुत है।

बुरा मत मानो उसकी बेदिली का
वो राजा है,मगर तनहा बहुत है।

रहम मत कीजिये मुझ पर खुदाया
ये मरहम जख्म में लगता बहुत है।


२.
हमने जब जब खून बहाया,रास आया
झूठ का नुस्खा जब अजमाया,रास आया

 नफरत से नुकसान नहीं पहुंचा हमको
मौत का जब भी जश्न मनाया,रास आया।

पेशा ही ऐसा है यार सियासत का
भाई को भाई से लड़ाया,रास आया।

बाढ़ और सूखे की रकम डकार गए
एक हिस्सा मंदिर में चढ़ाया,रास आया।

 एक सड़क ही आज तलक बनवायी है
हर छह महीने पर नपवाया,रास आया।


3.

अब आप भी पधारें,खेला अदब का है
जो जी में आये छानें तेला ,अदब का है।

 खाली पड़ी हुई है दूकान किताबों की
सब भीड़ है सर्कस में मेला अदब का है।

चप्पल से ले के जूता,शीशे से इत्रदानी
 हर माल है मुहैया,ठेला अदब का है।

जब वक्त मिले छीलें,खुद खाएं और खिलाएं
अब फेसबुक पे बिकता,केला अदब का है।

जिस तरह की मर्ज़ी हो चंपी कराते रहिये
मायूस नहीं होंगे,चेला अदब का है।


4.

सम्हल कर वोट देते लोग ग़र पिछले इलेक्शन में
हमारे मुल्क में खुजली की बीमारी नहीं आती।

न आती ग़र अदाकारा वज़ीरों की कतारों में
हमारे कॉलेजों में इतनी ऐयारी नहीं आती।

मियाँ तुम लौट जाओ क्या करोगे तुम सियासत में
तुम्हें तो घर मोहल्ले से भी गद्दारी नहीं आती।

यहाँ इन बस्तियों में तो तरक्की एक गाली है
रसोई में यहाँ बरसों से तरकारी नहीं आती।

उलझ कर रह गए होते पुरस्कारों के चक्कर में
हमारे शेरों में भी इतनी खुद्दारी नहीं आती।


5

बहुत करीब है दिल के ये गुनगुना रिश्ता
किस कदर बोले है दिन रात अनसुना रिश्ता।

लहू के रिश्तों की ठंढक में काम आएगा
खुद अपने हाथों की मेहनत से ही बुना रिश्ता।

 किसी सफर में रहो खूब काम आएगाये
मेरे प्यार के जीरे से है भुना रिश्ता।

हरेक खिड़की पे पर्दों की ताजपोशी है
किसी दीवार में मिल जायेगा चुना रिश्ता।

कोई भी वक्त हो,कैसा भी मोड़ आया हो

मेरे मिज़ाज़ ने हर हाल में,चुना रिश्ता।

उषाकिरण खान की कहानी 'कौस्तुभ स्तंभ'

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उषाकिरण खानहिंदी की वरिष्ठ लेखिका हैं. मिथिला की मिटटी-पानी की गंध उनकी रचनाओं में खूब है. बिहार के बाढ़ के मौसम में उनकी यह कहानी याद आई- मॉडरेटर 
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       माँ ..... ओ माँ ...  तुम ठीक तो हो ना ... कैसी हो ......?आवाज ... ओ।
       चीख-चीखकर बेटा पुकार रहा है तटबंध से। पानी में आवाज दूर तक गूँजती है। साँझ गहराने के साथ ही तटबंध की ओर से जनसमूह के बाकी कलमल स्वर बंद हो गए हैं। यही एक तीखी उतावली आवाज आ रही है बार-बार। उत्तर न पाने पर विवश चीख जैसी।
       मुझसे चिल्लाना न हो सकेगा मंगल-बहू। तू आवाज दे दे।देवी माँ ने छप्पर की मुँडेर पर बैठी अपनी साधिन से कहा।
       बउआ ...ए हम ठीक हैं - ऊ ... ।देर तक पुकारकर जोर-से कहने की चेष्टा की मंग-बहू ने। गले पर जोर पड़ने के कारण खाँसी आ गई। खाँसी थमते ही हँसने लगी मंगल-बहू।
       अब तुम्हारी यह बेवक्त की हँसी शुरू हो गई।देवी माँ ने उसे बरजते हुए कहा।
       देवी माँ, अब बउआ चुप हो गया,हमारी आवाज पहुँच गई है’,खिलखिलाती हुई बोल रही थी,मंगल-बहू।
       ओफ्फोह,हँसी बंद करो,तुम्हारी यह हँसी की आवाज भी फिसलती हुई किनारे की तरफ जाती होगी।परंतु मंगल-बहू की खिलखिलाहट और तेज होती जाती।
       अब मैं इसे कुछ न कहूँगी। जितनी रोकेगी उतना हँसेगी,लोट-लोटकर कहीं पानी में न गिर जाए। पगली हो है ही। तटबंध पर सब खुले आकाश के नीचे कैसे होंगे। एक ही तो खाट जा पाई थी,कुछ चटाइयाँ थीं। रह-रहकर किसी बच्चे की रोने की आवाज सुन पड़ती थी। आकाश काली अँधेरी चादर की भाँति तना है सिर के ऊपर। प्रकृति की कृपा है। असीम जल क इस विराट विस्तार में कभी कुछ गिरने की आवाज आती है तो कभी किसी पक्षी के फड़फड़ाने की। देवी माँ चारों ओर दृष्ट घुमाती हैं। कहीं कुछ नहीं है। पानी पर आँखे स्थिर करती हैं। सारी झोपड़ियाँ बह गई-सी लगती हैं। क्यांेकि पानी एक विशाल स्लेट-सा दीखता है,सीधा सतर। मंगल-बहू की हँस थम गइ थी। कुछ गिरने की जोरदार आवाज हुई। धस्स।
       देवी माँ,ये क्या गिरा?पानी में तेजी बहुत है,कहीं कोई पेड़ तो नहीं गिरा?’
       नहीं। जान पड़ता है सखीचन की दालान गिरा है। मिट्टी के पानी में गिरने की आवाज थी और वह भी दक्षिण से। उस ओर तो उसी का दालान था।
       हाँ उस ओर उसी का दालान था। कितना पुराना दालान था। कितना बरसात खा गया, कितना बाढ़ का पानी सहा। आज वह भी गिर गया।मंगल-बहू ने उसाँस ली। गाँव का सबसे बड़ा और ऊँचा दालान था। एक हाथ धरती के नीचे से पक्के ईंट की कुरसी फिर मिटयार की मौत।
       दीवारों के बीच एक छोटी-सी कोठरी थी पहलें बाद में उस कोठरी को तोड़कर मचान बना दिया गाय। अपनी झोपड़ी से पहले मंगल-बहू इसी दालान में उतरी थी। पचास-साठ साल पहले की बात होगी,मंगल अपनी बहू का गौना कराकर लाया था। उस वर्ष खेत खूब उपजा था। घर-घर कोठिले और बखारियाँ (मिट्टी तथा बाँस के अनाज रखने के पात्र) बन रही थीं नयी-नयी। पूजा और कीर्तन का जोर था गाँव में। मंगल कुम्हरार के घर अनायास बरतनांे की बिक्री बढ़ गई थी। मंगल की माँ दिवंगत हो गई थी। ले-देकर एक बाप और एक मंगल। बाप ने बहू के गौने का दिन भेजा था। मंगलबहू को लिवाकर बैसाख के पूनों के दिन ला रहा था। मंगल-बहू के पके चेहरे पर अब भी पूनो का प्रकाश छा जाता है यदा-कदा। गाँव के पंडित जी ने गौने का समय दिन उगते ही रखा,सो मंगल अपनी बहू को सुबह-सुबह लिवा के चला था। आगे-आगे पीली धोती,लाल गमछा और बड़ी-सी पोटली लिए मंगल कुम्हार,उसके पीछे लाल साड़ी में लिपटी साँवली सलोनी बहू। बहू ने लंबा घूँघट किया था। उसके पैरों का कड़ा-कड़ा चलते समय रून-झुन की आवाज करता था। थोड़ी ही दूर चलने के बाद शायद धूप और नए वस्त्र के घूँघट ने मंगल-बहू को थका दिया था। साथ चलते भरिया ने आवाज दी थी। मेहमान, जरा इस पीपल की छाँव में बइठ जाइएउ,बहिनी थक गई है।और सब बैठ गए थे। मंगल पूरब की ओर मुँह करके बैठा था तो बहू पश्चिम की ओर। अभी भी मंगल-बहू को स्मरण हे मंगल अपनी कमर टटोलने लगा था। साथी भरिया ने देखा और पूछा था –तलब लगी है मेहमान,बीड़ी-उड़ी की खैनी-चूना?’
       बीड़ी। लगता है कहीं गिर गई बगुली।शर्माता-सा सफाई दे रहा था मंगल। बहिनी,तुम्हारा पास है बीड़ी?’भरिया ने पूछा था। बेहद लजा गई थी मंगल-बहू-हाय-हाय,कैसा मूरख है,आदमीके सामने बीड़ी के लिए पूछता है। पर अनायास अपने नए सिले झुल्ला (ब्लाउज) की बगली (जेब) में हाथ चला गया। वह छींटदार झुल्ला बाबू सुपौल बाजार के दर्जी से सिलवाकर लाए थे। जमना कुम्हार की बेटी थी,कोई मामूली नहीं थी। जमना कुम्हार पंडित कहलाते थे। बर्तनों में एक से एक फूल-पत्तियाँ,किस्से-कहानियाँ गढ़ते थे। उनके भित्ति-शिल्प प्रसिद्ध थे। अपना घर फूल-पत्तियों से भरा हुआ था,बरतन का बड़ा कारोबार था। मिट्टी से रूपया बनाना कोई उनसे सीखे। सो गाँव के पहले-पहल कबोइ हिन्नू लड़की दर्जी का सिला झुल्ला पहनकर ससुराल चली थी। झुल्ला की बगली से बीड़ी की बंडल और दियासलाई निकालकर मंगल-बहू ने हाथ बढ़ाया था। लाख की सुनहरी नारंगी चूड़ियाँ और कंगन मीठी टकराहट से कुनकुना उठीं। तभी मंगल ने पलटकर देखा साँवला गदबदा हाथ आगे बढ़ा। वह कैसे सीधे-सीधे उस हाथ से ले ले बीड़ी। अभी भी वैसे ही याद है मंगल-बहू को। उसने थकमकाकर बीड़ी और दियासलाई जमीन पर रख दिया था। क्षणांश में जो देखा था मंगल का वह रूप अब भी याद है। कभी भूली कहाँ थी। गोरा सुंदर मंगल तेज धूप के कारण लाल भभूका लगता था,घनी काली मूँछें और घुँघराले बाल थे। सहेलियाँ सच ही कहती थीं- क्या आग-सा चमकीला तेरा दूल्हा है। तेरे साथ खूब जमेगा,कोयले में आग जैसा।एक पुलक एक सिहरन व्याप गई शरीर में। उठते-बैठते,बैठते-उठते,धीमे-धीमे डग भरते जब मंगल अपने गाँव के सिमान पर पहुँचा तो दिन ढ़लने में एक पहर बाकी थी। पहली बार बहू दिन रहते घर में पैर नहीं रखती,दिया-बाती हो जाने के बाद लक्ष्मी का आह्वान होता है। सिमान के पाकड़ का पेड़ ही पहली गेह थी मंगल-बहू की। इस विशाल वृक्ष की छाँव में बढ़ोतरी ही हुई हे,कमी नहीं हुई। दक्षिण की ओर गरदन मोड़कर देखा मंगल-बहू ने। आँखों की ज्योति कम हो गई हे।
       देवी माँ,पाकड़ का पेड़ ठीक है न! देखिए तो।देवी माँ दक्षिण की ओर मुँह करके पहले से बैठी थी। उन्होंने कहा,हाँ,ठीक है सत्तासी की बाढ़ में जो नहीं गिरा जो अब क्या गिरेगा?’
       सत्तासी से कम जोर का तो नहीं है यह बाढ़।‘वह बुदबुदायी। हँू,टक्कर बराबर की है।बड़े सहज भाव से बातें हो रही थीं। मानो बाढ़ की विभीषिका को ये सद्यः झेल नहीं रही हों,कहीं दूर से देख रही हों।
       अपने यहाँ कहिबी (मुहावरा) है न पंथक पाकड़िसो अपने इस गाँव में सत्त है।
       हूँ!देवी माँ ने फिर हुँकारी भरी। चिलचिलाती धूप में जलता हुआ वन-प्रांतर। छाँव के लिए लालायित लोग आकर इस घने पाकड़ वृक्ष के नीचे आराम से दुपहरी काट लेते हैं। छोटे-मोटे व्यापारी सुखाड़ के समय अपने घोड़ों,बैलगाड़ियों सहित इसी पाकड़ के तले रात गुजार लेते हैं। आँधी-तूफान बरसात में यह वृक्ष शरण स्थली रहा है और अब बाढ़ में सैकड़ों जीव-जंतुओंा का बसेरा रहता है। सौ साल से ऊपर का तो अवश्य है वह वृक्ष। इसकी उम्र का कोई बुजुर्ग जीवित नहीं है इलाके में। फिर एक जोरदार छपाक का स्वर सुनाई पड़ा।
       लगता है दालान का धरण गिर गया।फुसफुसाती-सी बोली मंगल-बहू। 
       उस दिन पाकड़ के नीचे गाँव भर के बच्चे जमा हो गए थे। फिर किशोरियाँ,तब युवतियाँ और बुढ़ियाँ भी आ जुटी थीं। मंगल-बहू लाल कपड़े की गठरी बन गई थी। नख-सिख ढँक लिया था। सुकनी मलाहिन गाँव के बुजुर्ग बेटी थी। उसकी बात कोई नहीं काटता था। उसने बच्चों,किशोरों और बुजुर्गों की भीड़ को धमकाया कि बहू का पीछा छोड़े। पर भीड़ थी गुड़ पर लगे चींटे की तरह चिपकी जा रही थी। तब सुकनी ने कहा था –कब तक गठरी बनकर बैठी रहेगी बहुरिया यहाँ,साँझ ढ़लने में देर है। इसे सब लेकर सखीचन के दालान में चलो।आगे-आगे सुकनी पीछे-पीछे बहुरिया मंगल-बहू और चारों ओर से गाँव के बच्चे। दालान की कोठरी में बहुरिया को बैठाकर सुकनी पीछे थी तो मंगल कोने में खड़ा था। अब मैं उधर जाऊँ?’मंगल ने बाहर की ओर इशारा किया।
       कहीं नहीं जाएगा तू,बहुरिया के साथ पहले घर में घुसेगा तब कहीं बौराएगा। ऐ भरिया तुम भी यहीं बइठो। मंगल इहै रह। अरे बच्चा-कच्चा सब भाक्-भाक्।
       भीड़ भगाने की निरर्थक चेष्टा की थी सुकनी मलाहिन ने।
       और बहू रे,हम तो भूल ही गए कि मंगला के बाबू ने विधि-व्यौहार का सामान जुटाने को बुलाया था। रे मंगला,बहुरिया के पास कोई न जाए,देखना।सुकनी निर्देश देकर चली गई। निमुन्न लाल गठरी में अधिक देर बच्चांे को बाँध रखने की कोई बात नहीं थी। धीरे-धीरे भीड़ अगल-बगल सरक गई। मंगल हौले से कोठरी में गया था।
       सुनती हो,एतना घोंघट का बंद घर में जरूरत नहीं है। जरा देह में हवा लगने दो। हमारे घर बाबू और हम हैं बस। बाकी नौकर-चाकर,मट्टी लाने वाला,कूटने-गूँधने वाला। चाक पर तो हम और बाबू जी बैठते हैं। सारा घर तुम्हें सँभालना है। अब तक तो जैसे-तैसे भात बनाकर हमलोग खा लेते थे। तुम आ गई हो तो सुभीता होगा।एक-एक शब्द मंगल-बहू मानो पी रही थी। ममता से भरी आया था मन।उसी दिन से सोलह वर्ष की कुमारी कन्या माँ की भूमिका में आ गई थी। माँ की तरह देखभाल की थी ससुर की और एक हद तक पति मंगल की थी।
       सखीचन का वह ऊँचा धरण वाला दालान बार-बार मरम्मत होता रहा था। कोठरी टूटकर मचान बनी। मचान हटाकर चैकियाँ रखी गई। लीपते-रंगते दालान का रूप कई बार बदला,पर भित्ति वैसे-का-वैसा ही रहा। धरण ने लंबे-चैड़े चार खंडों वाले छप्पर को अब तक धारण किए रखा। कई-कई बार तरह-तरह के खर-कास से छवाया गया। छपपर अब लगभग पन्द्रह वर्षों से खपड़ा से छवाया गया था। सत्तासी की बाढ़ में एक-एक कर यों ही खपड़े पानी में गिरते रहे तब फिर किसी तरह सखीचन पासवान के पोतों ने आधे बचे खपड़े आधे खर-पुआल से छवा दिया दालान को।
       नीचे से जर्जर हो गई थी दीवार,आज संपूर्ण चैपट। पूरा दालान गिर गया जान पड़ता है।
       देवी माँ, ई लगता है धरण गिर गया।
       ऐसा ही हुआ है।
       बहाव तो बहुत तेज है-कहाँ-से-कहाँ बहाकर ले जाएगा। जिसको मिलेगा यह धरण उसका तो भाग खुल जाएगा। असली सारिल चह (एक प्रकार की लकड़ी) का है। लोहा से भी बरियार।
       सो तो हैं। यह दालान दक्षिण की ओर था। धारा उत्तर से दक्षिण की ओर बह रही है। कहीं हमारा घर दक्षिण में होता तो उस विशाल धरण की चपेट में अपना यह छप्पर आ जाता।
       तब क्या होता देवी माँ!धीमा डरा-सा स्वर था मंगल-बहू का मानो किसी ने सुन लिया तो धारा पलट जाएगी।
       माँ ऽ ऽ ऽ ऽ ठीक हो न! आवाज दो। माँ ऽ ऽ ऽ!जिज्ञासा की चीख फिर गूँजी।
       हाँ बउआ ऽ ऽ ऽ हम ठीक हैं। - ऊ ऊ ऽ ऽ!चिल्लाई मंगल-बहू। सब शांत हो गया।
       बउआ रातभर जागता रहेगा देवी माँ, आपकी जिद भी अपार है। निसाभाग रात में उसको भी कैसा निम्न होगा। इहाँ रहके ठीक नहीं किया।झुँझला उठी मंगल-बहू।
       जागना ही चाहिए। प्रत्येक रात सोना ही तो है। विकाल समय है,जागना उचित है,हौले-से हँसी देवी माँ।
       सत्त वचन है,मगर आपका यहाँ रहना नहीं सुहाता है।
       आखिरी नाव छूटते-छूटते घना अँधेरा छा गया था,तुमने भी तो देखा था। फिर मैं कैसे एक बार और आने को कहती। उन लोगों की जान खतरे में डालती?जो बात नहीं समझती उसमें भी टाँग मत अड़ाओ।देवी माँ ने झिड़की सुनाई। चार मजबूत खंभों और बाँस के झाँझन वाले इस घर की छप्पर पर बैठी ये दो जाँबाज वृद्धाएँ फिर चुप होकर जल-प्लावन का हहराता शोर सुनने लगीं।
       मंगल-बहू रात होने पर अपने घर आई थी। मुहल्ले-गाँव की बहनांे ने दुअरि-छेंकाई की रस्म की थी। बुजुर्ग महिलाआंे ने बाकी विधि-ब्यौहार निपटाए थे। घर में माँ-बहन की कमी को किसी ने अनुभव न होने दिया था। सुकनी मलाहिन ने बहू के यहाँ से आए संदेश ठेकुआ-पूरी महिलाआंे बच्चांे में बाँटे। सौगात लेकर जब सब चली गई ब मंगल घर मंे आयी थी। बड़े से भित्ति घर में एक कोने पर बरतनांे का अंबार लगा था। परिचित सोंधी महक से घर गुलजार था। सुंदर नक्काशीदार लाबन (दिया रखने का स्टैंड) पर बड़ी-सी मिट्टी की ढिबरी जल रही थी। सब कुछ प्रकाशित था। मंगल ने आते ही मनुहार से कहा,इसने कुछ खाया नहीं,दिन भर की भूखी है। कुछ खा लेती तो अच्छा रहता।बहू लाज से सिमट गई थी। तब मंगल पास आया था – घोंघट हटा,कौन है दूसरा-तीसरा इहाँ?’ - मंगल ने घूँघट खींच दिया था। बहू खिलखिलाकर हँस पड़ी थी। उसकी वही हँसी अब तक बरकरार है। मंगल को अपनी खाई-पीई गदराई बहू खूब अच्छी लगी थी। घने घुँघराले बाल कसकर जूड़े की शक्ल में बँधे थे,ऊन के फुँदने और कौड़ियों वाले नाड़े से। ‘खींचकर बाँधा गया बाल दुखता है,इसे खोल दें?’बहू ने पूछा था।
       मैं क्या जानूँ! दुखता है तो खोल दे।मंगल ने सहमति जताई। दूसरे दिन गाँव की स्त्रियों ने बहू को घूँघट के अंदर बाल फैलाए देखा था,मुँह छिपाकर हँसने लगी थीं। बहू काम में ऐसी जुट गई कि मायके की कभी याद नहीं आई। एक-एक कर आठ बच्चे हुए। तभी गाँव में कोसी की विनाश-लीला शुरू हो गई थी। मलेरिया जड़ जमाकर बैठ गया। ससुर के मलेरिया से मरने के बाद घर में मानो यम का प्रवेश हो गया था। मंगल और तीन बेटे दिवंगत हो गए। दो बेटियाँ भी उसी राह चली गई। इलाके के सबसे बड़े कलाकार कुम्हार जमना पंडित की बेटी,संपन्न लोगांे में गिने जाने वाले नेवा पंडित की पुत्रवधू मंगल-बहू निराश्रित हो र्ग। भात-रोटी पकाने के अतिरिक्त कुछ सीखा ही नहीं था उसने। जरूरत ही नहीं पड़ी थी। कच्ची मिट्टी के बरतनांे में गाबिस की चित्रकारी मात्र जानती थी जो आग में डालने से पहले किया जाता। किंतु बिना बरतन गढ़े चित्रकारी कैसी,आँगन के कोने में दूर-दूर से लाई गई मटियार,गाबिस चिकनी माटी की पिंड थम गई। घर के कोने में चुपचाप बैठे रहते तीनों बच्चे-सोना,रूपा और अनधन। सोना थोड़ी बड़ी थी। रूपा और अनधन को खिला-पिला देती। माँ की सार-सँभर भी कर देती। मलेरिया से काँखते गाँव के लोग बचे ही कहाँ थे? कुछ मर-मरा गए,कुछ परसेद चले गए। पूरे पाँच सौ की आबादी वाले गाँव में कुल पच्चीस आदमी रह गए थे। कुत्ते और सियार साथ-साथ भूँकने लगे थे। हवाँ की सायं-सायं और टिटहरी की चीत्कार के अलावा इनसान का क्रंदन-मात्र रह गया था। पालने वालांे के अभाव में ढोर-डंगर भ्ीा नहीं रहे।
       काँव-काँव-काँव! कौए के बोलने की आवाज आई।
       देवी माँ,यह तो कौआ बोल रहा है,कहाँ बैठा है?’मंगल-बहू ने चैंकरक पूछा।
       इस छप्पर के अलावे पाकड़ का पेड़ है जो पानी से ऊपर है। उस पर भी हमारी तरह सैकड़ों जीव जंतुओं ने पनाह लिया होगा।
       ठीक कहती हे, पंछी सब उसी पर होगा।
       तीन प्रहर रात बीत गई लगती है।
       जय कोसिका माई। बाल-बच्चों की रच्छया करना। मैया सब तोहरे भरोसे है।उत्तर की ओर गरदन मोड़कर देखती है मंगल-बहू। उसका घर और बाकी सभी बैकालियों,मल्लाहांे और कुँजड़ों का घर पानी के अंदर है। इस छप्पर के चारों ओर बस पानी ही पानी है। कहीं-कहीं कुछ पौधा-सा दीखता है। संभवतः वह ऊँचे ढूह पर यत्न से लगाया गया श्याम-तुलसी-वन है। तुलसी की फुनगी जल के उपर है। मंगल-बहू के लिए यह नया नहीं है। इस इलाके में तो ऐसा होता रहता है। दसई (दशहरा) का ढोल सुनते ही पानी भाग जाता है। नए सिरे से शुरू होता है यह बाँस का काम। दीवाली आते-आते घर का छाजन-छप्पर भी तैयार और आँगन-मुँडेर भी लेप पोतकर सुचिक्कन। दीवाली और गौ पूजा के बाद खलिहान की तैयारी शुरू होती है। कोसी के आते-जाते जल वाले इलाके में मोटे धान की फसल अच्छी होती है।
       देवी माँ, छप्पर का बल्ली-बाँस कस के पकड़े रहिएगा,छाजन वाला खढ़ न कहीं पकड़ाए,खिसक जाएगा तो क्या होगा?’
       हूँ,,तुमने क्या पकड़ रखा है वह ध्यान दो,मैं ठीक हूँ।
       अरे बाप रे हम तो बाती पकड़कर बैठे हैं। जरा भी हिल-डोल नहीं रहे हैं। चारांे तरफ बेंग-साँप,मूस-छुछुंदर बैठा है।
       तुम उसके डर से सिमट सकती हो। वह तो नहीं डरता।
       अरे बाप रे,याद है उस बार कितना चींटा आपके पैर पर चढ़कर बैठ गया था। रात-भर काटता रहा था। अभी भी घाव का दाग है। आप अस्सब (असंभव) जीव हैं। इस बार भी कुछ काट रहा होगा। आपको यहाँ रूकना नहीं चाहिए था।
       अब ज्यादा लेक्चर न झाड़ो। चुपचाप बैठी रहो। सुबह होने में देर नहीं है।
       ऐसे ही आप बोलती हैं हम चुप नहीं रहंेगे....देर तक बड़बड़ाती रही थी मंगल-बहू। फिर सोचने लगी थी। दस-बीस लोगों के टोले पर एक दिन रोशनी दिखाई पड़ी थी। जब सफेद कपड़ांे में सजा एक व्यक्ति देवदूत-सा आकर खड़ा हो गया था। साग-पात पर गुजारा करते,मलेरिया के जूड़ीपात से जूझते मृत्योन्मुख प्राणियों के मन में आशा की किरणें फूटीं। खैरात का अनाज खाने के लिए,दवाइयाँ रोगमुक्त होने के लिए, शुद्ध जल पीने के लिए चापाकल उन्होेंने मुहैया कराई। सामान्य शिसक्षण के लिए स्कूल खोलने का संकल्प उन्हांेने किया अपनी सहधर्मिणी देवी माँ को लाकर उन्हांेने यहीं घर बसा लिया।
       आज कोई गाँव में नहीं रहता। छबीला,लछना,रामकिसुन पढ़-निलख गया तो बाहर नौकरी करने चला गया। बिहारी,सेवक और सनीचर जैसे पचासांे मर्द मजूरी के बहाने सालों-साल गाँव नहीं लौटते। कई घरों की औरतंे भी आँखों में सुरमा डालकर शहर की ओर चली गईं। इधर ये देवी माँ शहर से आकर गाँव में रह गईं। अभी भी इनके बच्चे शहर में है। इनका एक घर शहर मे है। सतासी की दुर्दांत बाढ़ में इसी तरह सारे गाँव के औरतों-बच्चांे को नाव से पार कर तटबंध तक पहुँचते-पहुँचते बेहोश हो गई थीं। पूरे पैरों पर चींटियाँ चढ़ गई थीं। देवी माँ ने उफ् तक न किया। अलबत्ता सुबह होने पर तटबंध तक पहुँचते-पहुँचते बेहोश हो गई थीं। जब होश में आईं तब विधायक जी हाथ जोड़े खड़े थे।
       देवी माँ,आप हम लोगांे को कितने बड़े अपयश में डाल देतीं। अव्वल तो इस बरसात में आपको यहाँ रहना ही नहीं चाहिए था,रह गईं तो सबसे पहले सुरक्षित स्थान पर पहुँच जानार चाहिए था। आप सुकुमार ठहरीं। इनका क्या,इन्हें तो बाढ़ की आदत है।
       आदतें तो बदलती रहती हैं बेटे! देखो तुम्हारी बाढ़ की आदत थी बदल गई। तुम चैमासा राजधानी के पक्के मकान में गुजारते हो। मैं इनके साथ हँू। तुम्हें मेरे लिए सचमुच जरा भी दर्द है तो बरसात के पहले नाव का इंतजाम क्यांे नहीं कर देते। मैं तुम्हारी तरह खुदगर्ज नहीं हँू कि सुख के समय इस माटी में रहूँ और दुख पड़ने की आशंका से ही भाग खड़ी होऊँ।
       आप ठीक कहती हैं। पर अब आपकी उम्र कम नहीं रही’,विधायक जी ने उत्तर दिया था।
       तुम्हारे पुरखे बुढ़ापे में राजधानी चले गए थे। वहाँ क्या यमराज नहीं आते?’आपसे अधिक बोलना नहीं चाहता, पर मैं सचमुच आपके लिए कुछ करना चाहता हँू।
       मेरे लिए क्या और क्यों करोगे? अपनी इस पीड़ित जनता का ख्याल करो जिसकी सेवा का संकल्प लेकर तुम कुरसी पर बैठे हो। जाओ कुछ करो उनके लिए जो सचमुच तुम्हारी मदद चाहते हैं।
       दुम दबाकर लौटे विधायक जी ने पहले तो इलाके के लोगों को डपटा कि क्यांे देवी माँ को पानी के अंदर रहने दिया फिर मदद का आश्वासन देकर चले गए। कुछ दवाएँ और तैयार भोज्य सामग्री बाँटी भी। फिर जब-जब इधर का रूख किया दूर से ही रौब गाँठकर चले गए। देवी माँ से मिलने की चेष्टा नहीं की।
       गाँव के लोगों ने अपने आपको ठीक से पहचानना शुरू ही तो किया था कि बीच में ही रहबर चला गया। फिर से सब निराशा के अंधकार में डूब गए। सोना,रूपा और अनधन पंडित की माँ मंगल-बहू जो अब तक मजबूती से अपने पैरों पर खड़ी हो गई थी भीतर तक हिल गई। देवी माँ ने इसे जीना सिखाया था।
       तुम्हारे पाँच बच्चे और पति नहीं हरे उसका तुम सोग मनाती हो,सोना,रूपा और अनधन सामने खड़ा है,उसे पालने-पोषने की जिम्मेदारी नहीं समझतीं?जो चला गया उसकी चिंता मंे जो सामने है उसे भी खो दोगी मंगल-बहू!उन्हांेने समझाया था।
       मैं क्या कर सकती हँू देवी माँ, कुम्हार का धन तो मिट्टी का होता है। वह काम कौन करेगा?मुझे तो हाथ में ठोंक के तवा और दिया बनाना भी नहीं आता।
       कुम्हार की,सृष्टि की चाक कभी नहीं थमी। सबसे बड़ा कुम्हार जो ऊपर बैठा है,तुम्हें बैठने नहीं देगा। बच्चांे को पालने के लिए खेतों में काम करो। उसमें हुनर की नहीं परिश्रम की आवश्यकता है।
       एक तो मैं ठीक हँसिया-खुरपी चलाना नहीं जानती दूसरे लोग हँसेंगे।
       हँसने दो,कोई तुम्हें मुफ्त खाने को नहीं देगा। कोई तुम्हारे बच्चे नहीं पाल देगा। रही हँसिया-खुरपी से काम लेने की बात,तो वह तुम जल्दी ही सीख लोगी।
       देवी माँ के सुझाये रास्ते पर चलकर मंगल-बहू ने बच्चांे को पालकर कमाऊ बना लिया था। इलाके के लोग एक ही बात कहते,बाबू के चलने जाने के बाद अब देवी माँ नहीं रहेंगी। अपने घर शहर चली जाएंगी। खेत जो उनके हैं सारे या तो बटाई पर लगा देंगी या बेच लेंगी। ऐसे ही समय में मंगल-बहू देवी माँ के पास जाकर खड़ी हो गई थी।
       आप जब ाश्हर जाने लगें तो मुझे और अनधन को भी ले चलें,हम आपके घर का काम कर दंेगे। आपके बिना रहा नहीं जाएगा।बात समाप्त करते-करते रो पड़ी थी मंगल-बहू।
       अरे पगली,रोती क्यों है,मैं जा कहाँ रही हँू। बाब जी ने जो काम छोड़ा है मेरे जिम्मे,वह कौन करेगा? मुझे तो वे वहाँ रखकर परलोग चल गए तुम लोगों के लिए।संतोष की लहर फैल गई थी गाँव में। इस मिट्टी का सुख-दुख देवी माँ का अपना है।
       कौओं का काँव-काँव बढ़ गया था। एकाध दूसरी चिड़ियों ने भी चहचहाकर अपनी उपस्थिति जताई थी।
       भोर समीप है।देवी माँ ने आशावान होकर कहा मानो अपने आपसे। भोर आशा का संचार करता है।फिर अस्फुट स्वर में बुदबुदाई-इस इलाके का बारह मास आठ प्रहर की संपूर्ण यात्रा के समान है। अँधेरी काली रात की तरह बाढ़ का समय होता है। लाख यत्न करने पर भी इनसान अपना कुछ-न-कुछ गँवा देती है। सावन-भादो आते-आते अन्न का बहुत अधिक दाना बचता नहीं है,पर और भी तो घरेलू सामान होता है जो बाढ़ में चला जाता है। टाट-बाँस के घर टूट जाते हैं,खूबसूरती और यत्न से गढ़े मिट्टी के कोठिले ढह जाते हैं। आले-ताखे,घिड़ौचियाँ,बितियाओं के घरौंदे,कला संस्कृति या यह जीवन का अविभाज्य अंग प्रत्येक वर्ष निर्मित होता ही है बाढ़ में विसर्जित होने के लिए। मानों पूरे इलाके की जनता कोसी मैया की पाणिक पूजा करती हो जिसका ऐसा ही समापन होता है।
       तटबंध की ओर से रँभाने का स्वर सुनाई देने लगा है। भूसे और पुआल तो पर्याप्त मात्रा में है उधर। कुछ लोगों ने पहले तो सूखे में अपने सामान रख छोड़े थे। काम चल जाएगा। ऊँचे मकानांे वाले पुआल भी अब की बह गए। एक और बड़ी नाव होती तो शायद कुछ बच जाता। मन रिक्त हो आया देवी माँ का –हुँह,अपने लोगों की अपनी चुनी हुई सरकार। अपना नुमाइंदा,एक नाव तक नहीं,कोई खोज-खबर नहीं। जरूरत क्या है उसकी। हेलीकाॅप्टर से सड़े हुए पाव-रोटी पानी में छपाक से गिरा देने भर से ही उनके कत्र्तव्यांे की इति श्री हो जाती है। बाकी का काम अखबारवाले कर देते हैं -काफी राहत सामग्री बाँटी गई। सब ठीक है।
       खेतों से निकले अनाज जैसे पाॅलिथिन पैकेटों में पाॅलिस होकर बड़े शहरों के जनरल स्टोर्स में शोभायमान होते हैं,उसी तरह इस मिट्टी से जनमें बढ़े-चुने गए नेता राजधानियों की मखमली कुरसियों पर विराजमान हो जाते हैं। पलटकर देखें क्यों,कींच-कादो लग जाने का भय है।
       माँ ऽ ऽ ऽ ऽ । आवाज दो ऽ ऽ ऽ ऽ ।किनारे से पुकार उठी।
       बउआ ऽ ऽ ऽ हम ठीक हैं। ऊ ऽ ऽ ऽ!पलटकर मंगल-बहू ने तसदीक दी।
       आप कहेंगी तो बड़ा नाव तुरंत विधायक जी दे देंगे’,मंगल-बहू बड़बड़ाई। मेरे कहने से वो क्यांे देगा,उसे क्या पड़ी है। उसी के परिवार वाले गाँव में डूबते हैं क्या? अरे मेरे कहने से अपने गाँव का कमाऊ पूत सब तो एक बड़ी नाव गँठवाता ही नहीं जिसके बीवी-बच्चे डूबते है!विवश झुँझलाहट भर आई थी देवी माँ के स्वर में। मंगल-बहू को बेसाख्ता याद आया-देवी माँ अकसर अपने गाँव के छोटे-से स्कूल की मरम्मत के लिए,छोड़े मेड़ों को रिंग बाँध का रूप देने के लिए,बरसात का ख्याल कर दो-चार और नावें ठकुवा देने के लिए हर वक्त अपने गाँव के लड़कांेा से कहती रहती हैं। उनका कहना है कि स्वार्थी ही बनो तो ऐसा काम करो जिससे संकट के समय सुभीता हो। यह तो जाना हुआ संकट है। हर पाँच-सात बरस पर विनाशलीला होनी ही है। दूसरे के भरोसे कब तक रहना ठीक है? छोटी-छोटी बातांे के लिए सरकार का मुँह कब तक जोहा जाए?पर अब इनकी बात कौन सुनता है? अलबत्ता अपने बीवी-बच्चांे को इन्हीं के भरोसे छोड़कर परदेस कमाने चले जाते हैं। मंगल-बहू ने अपने अनधन को कभी परदेस नहीं भेजा। उन्हें रखने और उबारने वाली धरती और आकाश समान देवी माँ तो यही बसती है,फिर बाहर क्या है?मंगल के जाने के बाद कोई देखने वाला नहीं था। आँगन में मिट्टी का ढेर पड़ा था बरतन गढ़ने वाला कोई नहीं था। पड़ोस के गाँव का कुम्हार एक दिन आकर मंगल-बहू से निहोरा कर अनधन को माँगकर ले गया।
       बहुरिया,भाई साहब लोग रहे नहीं सो तुम आज्ञा दो तो अनधन को ले जाऊँ। पुरखों का इलम सिखाऊँगा। आगे सारा इलाका इसी को सँभालना है।कला सिखाने की बात कहकर बैजू पंडित ले गया पहले अनधन को पीछे चाक उठाकर ले गया,फिर धीरे-धीरे सारी मिट्टियाँ ले गया। मिट्टियों के ढूहे जिस दिन आँगन से चले गए उस दिन मंगल-बहू का कलेजा मानो खाली हो गया,शरीर निष्प्राण-सा रह गया। बिना चाक,बिना मिट्टी क्या कुम्हार पंडित का घर! थोड़े ही दिनांे बाद रोता-धोता अनधन लौट आया- मैं नहीं सीखूँगा बरतन बनाना, देख मेरे लिल्हुए!उसने हाथ के ऊपरी हिस्से को देखाकर कहा,कैसे मार-मारकर फुला दिए हैं,बैजू पंडित ने।मंगल-बहू से देखा न गया,उसने खेत का काम सिखाया अनधन को। हल जोतना,फावड़ा भाँजना,खुरपी चलाना। आज तक वही करता है अनधन। हाथ छूटे मुफ्त के नोकर को बैजू पंडित छोड़ना नहीं चाहता था। पीठ पीछे ही आया था-
       बहूरिया,कुम्हार पंडित के बच्चों की तलहत्थी मिट्टी गूँधते-गूँधते मुलायम रहती है,इलम सिखाने के लिए बच्चे को थोड़ा ताड़न दे दिया तो भाग आया। अब खेत-मजूरों की तरह तलहत्थी में गट्ठा पड़वाएगी?सारी बिरादरी तुम्हीं पर नहीं मुझ पर भी हँसेगी।देवी माँ ने आकर उबार लिया था -
       बैजू पंडित,मिट्टी-चाक सब ले गए मुफ्त,अब विपत्ति की मारी इस दुखिया के बच्चांे को बख्श दो।
       देवी माँ,मैं तो उपकार करना चाहता था,’बैजू ने समझाया।
       अभी तक कितनी बार चाक पर काम करने दिया?’
       पहले मिट्टी बनाना तो सीख ले,मिट्टी तैयार करना सबसे बड़ी कला है माँ!
       ठीक है,वह काम तुम स्वयं करो। इन्हें उस कला को सीखने की अब इच्छा नहीं है।बैजू पंडित हाथ मलते चला गया मानो बँधुआ छूट रहा हो। आज अनधन गाय बैल और दो भैंसों का मालिक है। रात गए तक नाव पर गाँव के लोगों का असबाब और मवेशियों को ढोता रहा। ‘देवी माँ,लगता है मेरी पीठ अकड़ गई है। दर्द छाती की ओर बढ़ रही है। पैर भी सुन्न हो रहे हें। कहीं मैं गिर न जाऊँग। आपका हाथ कहाँ है,मैं थाम लूँ।मंगल-बहू ने काँखते हुए कहा। देवी माँ ने टटोलकर उसका हाथ थाम लिया।
       एक ही जगह उकडूँ बैठे-बैठे ऐसा हुआ है,अब तुम्हारी उम्र भी कम नहीं हुई मंगल-बहू वो तो तुम्हीं हो जो इतना सहन कर लेती हो। बेकार यहाँ बैठी रहीं। तुम्हें चली जाना चाहिए था’,वे आशंकित थीं।
       देवी माँ,,आपको छोड़कर .....ऊँह करके चुप हो रही मंगल-बहू। बोल नहीं पा रही थी।
       चुप हो,और धीरज धरो। देखो सुबह हो रही है। किनारे से कोई नाव खुली है इधर ही तो आ रही है।उसे समेटकर देवी माँ ने अपने गिर्द टिका दिया। किनारे से सचमुच नाव आ रही थी। निरभ्र आकाश का अक्स चतुर्दिक जल में पड़ रहा था। देवी माँ के सफेद रेशम से घुँघराले केश हवा में उड़ रहे थे। काँधे पर मंगल-बहू को थामे हुए वो कल्पना के आकाश में चाँद पर बैठी हुई सूत कातती वृद्धा दीख रही थी। जल में कहीं फुनगी,कहीं ऊँचा मचान,,मचान पर आधा डूबा,आधा सूखा पुआल का ढेर दीख रहा था। सखीचन पासवान के दालान का धरण सलीब की तरह आड़ा पकाड़ के विशाल पेड़ पर टिका था।
       तेज धार के कारण नाव की दिशा बार-बार पलट जाती। टूटे छप्पर पर बैठी अपनी माँ और अनधन की माँ को लेने बाबू आ रहे थे। पंद्रह मिनट के रास्ते को पार करने में दोगुना समय लगा। नाव घर की दीवार से टिकाकर लगा दिया गया।
       पहले इसे सँभाल अनधन!देवी माँ ने मंगल-बहू की ओर संकेत किया। उसे सँभालकर उतारा गया। नाव में बिछे पुआल पर लिटा दिया गया। अकड़े हुए पैरों से देवी भी उतरीं। हलचल से आतंकित होकर छप्पर पर आश्रय लेकर बैठे मेंढक,चूहे और छुछुंदर छपाक्-छपाक् जल में कूदकर इधर-उधर भागने लगे। नाव बहाव की ओर थी। तुरंत किनारे पहुँच गई। अनधन ने माँ को गोद में उठा लिया। उसके हाथों में देवी माँ का पल्लू था। मंगल-बहू ने एक बार चारों ओर देखा,फिर देवी माँ को देखा। सूय्र की किरणांे ने उनके श्वेत रेशमी केशांे को सुनहरे रंग में रंग दिया। वत्सल माँ का मुखमंडल संतुष्ट था। चारांे ओर से औरतों-बच्चों ने उन्हें घेर लिया। एक व्यक्ति ने खाट बिछा दी। दूसरे ने चादर और तकिया रख दिया।
       ऐ क्या है खिसको-देवी माँ आराम करेंगी।अपनी माँ को पुआल पर बिछी चटाई पर लिटाते हुए अनधन ने डाँटकर भगाना चाहा।
       हाँ,मैं बेहद थकी हँू। आराम करूँगी। तुम लोग जाओ। बच्चांे को कुछ पकाकर खिलाओ। लड़कियाँ हैं?’देवी माँ ने खाट पर लेटते हुए प्रश्न किया।
       उपले हैं’, किसी ने उत्तर दिया।
       नीचे बिछे पुआल पर चटाई थी। उसी पर बाबू और बहुरिया बैठे हौले-हौले देवी माँ का सिर और पैर सहलाने लगे। अनधन की बहू अपनी सास को सँभाल रही थी।
       अपने स्नेह के आँचल तले जनसमूह को सुकून देने वाली माँ की खाट में आतप रोकने को मसहरी लगाने लगा एक बच्चा।
       अम्माँ,जरा ठहरकर सोएँ। चाय बनाती हूँ’,खर-पत्ते जलाती केतली चढ़ाती बहू ने आवाज दी।
       बनाओ,पीकर ही सोऊँगी। अब तुम सब जगे रहो;मेरे आराम का समय है’,उनीदीं आँखों से कहा देवी माँ ने। उत्सव का वातावरण हो मानो। तटबंध पर ठिठका खड़ा सूरज भरपूर आँखांे से देख रहा था कभी निर्मम प्रकृति के बीच अखंड जलधार को और अपराजित मानव समूह के बीच खड़ी कौस्तुभ स्तंभ दीपित देवी माँ को।
       हरहराता हुआ हेलीकाॅप्टर गुजरा नीचे की ओर झुकना हुआ,कुछ गिरता हुआ यहाँ-वहाँ। कल के अखबारों में खबर बनेगी यह हवाई कलाबाजी,खबर नहीं बनेगी तो इनका अंग बनी देवी माँ और साथिन मंगल-बहू। सूरज इन्हें ऊर्जा देता बड़ी तेजी-से आकाश के बीचों-बीच अग्रसर हो उठा।


रचना भोला यामिनी की स्मरण-कथाएं

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सोशल मीडिया ने लेखन की नई नई विधाओं के लिए स्पेस बनाया है. बनी-बनाई विधाओं में तोड़-फोड़ करते हुए. उदाहरण के लिए रचना भोला यामिनीके इन छोटे छोटे गद्यांशों को ही ले लीजिये. चाहे तो इसे स्मरण-कथा नाम दे सकते हैं. बहरहाल, पढने में कितना अच्छा लगता है? पढ़कर बताइयेगा- मॉडरेटर 
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बेअक्ललड़की

 लड़कागुनगुनातेहुएआयातोलड़कीरसोईमेंपीठकिएखड़ीदिखी . उसनेलड़कीकीगर्दनकेपिछलेहिस्सेपरहौलेसेअपनीउँगलियाँफिराईंऔरउसकीऒरझुका...लड़कीकेबदनकीमहकमेंकुछदेरपहलेलगाएफेसपैकऔरफेसवॉशकीमहकइसतरहघुलगईथीजैसेलक्मेका  नयापरफ्यूमलगायाहो. लड़काउसकीसंदलीगर्दनकेस्पर्शकेसाथमदहोशहो,कुछकहने  हीवालाथाकिलड़कीअचानकमिलीइसछुअनसेचिहुँकी...
अरेगएतुम.. हदहैयार, तुम्हेंसुबहसेदूधलानेकोबोलरखाहैअभीतकनहींलाए...तुम्हारीरसोईकायेनलफिरसेटपकनेलगाअरेहाँ, गैसक़ीनॉबबदलवानीहैऔरबाज़ारजातेहुएमेरेलैपटॉपबैगक़ीचेनभीठीककरवादेना ....येक्यातुमनहाएनहींअभी...सच्चीपूरेमलेच्छों  केख़ानदानसेहो. रसोईमेंखड़े-खड़ेथकगईमैँतो.. अबलंचतुमबनाओगे. सुनो..बिजलीकाबिलगयाहै. इसबारदसहज़ारसेऊपरगयाहै. अच्छातुमयेचेकशर्ट्सपहनकरमुझेऑफिससेलेनेमतआयाकरो. स्टाफतुम्हेंदेखदबीहँसीहँसताहै. I feel insulted. यारड्रेसिंगसेंसभीकोईचीज़होतीहै. लड़कीनेअपनीउधड़ीतुरपाईवालेगाउनसेझाँकतेबगलकेबालोंको dangerously ingnore करतेहुएअपनेसौंदर्यबोधक़ीदुहाईदी. लड़केक़ीउँगलियाँजानेकबसहमकरउसकीपेंटक़ीजेबमेंवापिसजाचुकीथीं. ज़ेहनसेमखमलीगर्दनकास्पर्शऔरकुछदेरपहलेनासापुटोंकोआनंदितकरतीपरफ्यूमक़ीमहकजानेकहाँउड़गईथी. वहदबेपाँवचलदियाऔरलड़कीनेविजयीमुद्रामेंअपनाकामजारीरखा. लड़केकेसामनेमनभरबातोंक़ीपोटलीखोलकरजोसंतोषमिलाथा, उसकेपरमानन्दमेंमग्नलड़कीकहाँजानतीथीकिउसनेअभी - अभीक्यागवाँदियाथा!
 ...लड़कीनेगवाँदिएथेवोक्षणजोउसकेजीवनकेसुन्दरसुहागसेसजेक्षणहोसकतेथे.. जिनकेबीचपनपसकतीथीकोईबेलौसअलमस्तकविता...रचीजासकतीथीकोईरोमानीकहानी... जिनकेबीचबुनेजासकतेथेचंदरुपहलेसपने..जबतोड़करलाएजासकतेथेचाँदसितारेलड़कीकोकहाजासकताथापरीलोकसेउतरीशहज़ादी…. लड़कीलड़केकेबालोंमेंफिरासकतीथीउँगलियाँ... गासकतीथीउसकेलिएकिसीपंजाबीगीतकेकुछबोल...मैंड्डा  इश्कवीतूँमेरायारवीतूँ...मैंड्डादीनवीतूँईमानवीतूँ.... लड़कासुनादेताउसेनुसरतकेकुछबोल.. आजतकयातोलगामुझेऐसे...जैसेमेरीईदहोगई.. 
...लड़कीनेगवाँदिएवोक्षणजबवेकरसकतेथेअपनेआनेवालेकलक़ीबातें ... जबवेएक-एककपकॉफ़ीकेसाथकिसीकिताबकेबहानेजीसकतेथेएकअलगज़िन्दगी...जबवोदोहरासकतेथेअमृताइमरोज़केकिस्से..जहाँअमृताकोजबयहपताचलाथाकिइमरोज़नेजिस्मक़ीभूखसेपीड़ितहोकरएकबारऐसीऔरतकेपासजानाचाहाथाजोरोज़केबीसरुपयेलेतीथी..तोअमृताकेमुखसेसहजहीनिकलाथाकिअगरतुमऐसीऔरतकेपासजातेतोमेराजीकरताहैकिवहऔरतमैंहीहोती. लड़कालड़कीकोबतासकताथाकिकजानजाकिसनेअपनीप्रेमिकासेपहलीभेंटकेदौरानकहाथा..Create an idealized image of yourself and try to resemble it ..लड़काऔरलड़कीएकसाथपुरानीकिताबोंसेझाँकतेपात्रोंकेसाथबितासकतेथेकुछवक्त... लड़कालड़कीकोबतासकताथाकिज़िन्दगीमेंआतेहैंऐसेभीपल, जबपैसोंक़ीकमीएकछोटासचबनजातीहैऔरएकदूजेकासाथज़िन्दगीकीसबसेबड़ीनेमतहोजाताहै...जबवेमिलकरगुनगुनासकतेथेरबींद्रसंगीतक़ीकुछपंक्तियाँ....तोमायगानशोनाबो..ताईतोअमायजागियेराखो....लड़कातबलेक़ीथापदेतातोशायदथोड़ाथिरकभीसकतीथीलड़की...जबवेबनसकतेथेबंगालीफ़िल्म'अनुरणन'मूवीकेराहुलऔरनंदिता....जहाँलड़काउसेबताताकिकहींकहींकमीहैउनकेबीचअनुरणनक़ी..सुरमेंसुरमिलानेकाखेल..जिसेवेऐसेक्षणोंकेजादूसेपलमेंकरसकतेहैंदूरजबवेएकसाथदेखसकतेथेकुछऐसीमूवीजजोउन्हेंज़िन्दगीक़ेकुछनएरंगोंसेवाक़िफ़करवासकतीथीं. वेकेवलहाथोंमेंहाथथामेबैठेरहतेऔरलड़कालड़कीक़ेआगेदोहरासकताथाकविक़ीपंक्तियाँ..... उसकाहाथ, अपनेहाथमेंलेतेहुए, मैंनेसोचा, दुनियाकोहाथक़ीतरहगर्मऔरसुन्दरहोनाचाहिए..
 ...लड़कीनेगवाँदिएथेवोक्षणजिनकेसाथजिएजासकतेथेकुछऐसेपलजोसौजन्मोंपरभारीहोते...जोदेसकतेथेआँखोंकोऐसीख़ुमारीजोअक्सररतजगोंकेबादउभरआतीहै...जोदेसकतेथेनाज़ुकहोठोंक़ीछुअन..दोधड़कतेदिलोंकाएकसुर- तालमेंबजना...साँसोंकासाँसोंमेंइसतरहघुलनाकिमन, देहऔरआत्माएकप्राणहोउठें....हरकिन्तु-परन्तुकाउससंयोगमेंलीनहोजाना  कायाकातितलीकेपंखोंजैसेस्पर्शसेमुदितहोउठना.... मौसमक़ीपहलीबारिशकेबादमिटटीसेउठतीपहलेमिलनक़ीमहक...पुरुषऔरप्रकृतिकेचिरपुरातनकिन्तुशाश्वतसम्बन्धक़ीएकमधुरस्मृति...जोदिलासकतेथेलड़कीकोएहसासकिप्रेममेंपगेशब्दोंकेबीचरसियाअंगलगालेतोदुनियाक़ीहरमधुरमदमातीगंधपड़जातीहैफ़ीकी....अंतरिक्षकेकिसीछोरसेझाँकतेदेवगणकरदेतेहैंपुष्पोंक़ीवर्षा...सृष्टिलेतीहैअंगड़ाईऔरकोईकलीमुस्कुराकरखोलदेतीहैअपनीपंखुड़ियाँ... सृजनकोमिलतेहैंनएआयाम....परिवेशहोउठताहैदिव्यजानेकिसशून्यसेतिरआतीहैएकसंगीतलहरी ...एकसागरक़ीउत्तलतरंगऔरजलमग्नहोउठतेहैंधरतीऔरपाताल…..  
 कैसीबेअक़लनिकलीलड़की... कितनाकुछगवाँबैठी.....

         

मेरामन
एकस्त्रीकेमनकेकितनेटुकड़ेहोतेहैं।वहआपनहींजानतीबेचारी।एकटुकड़ामीलोंदूरपरदेसमेंबैठीसंतानकीकुशल-क्षेमकेनाम, एकहिस्सामायकेकीखै़रियतकेनाम, एकहिस्साउसकेससुरालकीमर्यादाऔरप्रतिष्ठाकेनाम, एकहिस्साकुटुंब  केप्रतिस्नेहकेनाम, किसीदुर्घटनामेंअसमयकाल-कवलितबेनामपरिवारकेनाम, सगे-संबंधियोंऔरउनकेजीवनकेनाम, अपनेमरेहुएसपनोंकीपोटलीछातीसेजकड़ेफाँसीकेफँदेपरझूलगईघरकीलक्ष्मीकेनाम, जलसेनिकलीमछलीसे, हाथसेफिसलतेमूल्योंकेनाम, घरसेनिकलीबिटियाकीसुरक्षाकेनाम, सबकेअच्छेशारीरिकऔरमानसिकस्वास्थ्यकेनाम, अपनोंकीख़ुशियोंकेनाम, सड़कचलतीभिखारिनकेनंगेफ़टेपैरोंकीबिवाईयोंकेनाम, एकहिस्सागलीमेंघूमतेकानकटेकालूकुत्तेकीआँखोंसेछलकतेदुःखकेनाम, छतपरपानीकीआसमेंख़ालीबर्तनपरबैठीचिड़ियाकेनाम, सुखकीचाहमेंदर--दरभटकतेलोगोंकीदिग्भ्रमितआस्थाकेनाम………
सूचीतोअंतहीनहै, प्रिये, इनसबकेबावजूदएकबड़ासाडबलस्पेशलटुकड़ातुम्हारेनाम  है, मनकेउसहिस्सेकोबसतुम्हारेलिएरखछोड़ाहै, तुम्हारीहँसी, तुम्हारासुख, तुम्हारेसपने, तुम्हारीजीत, तुम्हारीहार, तुम्हारेमनकेभीतरछिपीआकांक्षाएँ, तुम्हारीआँखकीक़ोरोंमेंछिपेआँसू, तुम्हारीदेह, तुम्हारीआत्मा, मेरेअंतसकोमह-महमहकादेनेवाले, तुम्हारीचेतनामेंबसेकंवलकेनाम, तुम्हारेउसस्पर्शकेनाम, जिसकास्मरणमात्रमुझेपोर-पोरसहलादेताहै, तुम्हारेसुरमेंघुलेउसमाधुर्यकेनामजोकिसीमलहमसामेरीरगोंमेंदौड़ताचलाजाताहै, मुझेहरबारएकनईआसऔरविश्वाससेजोड़नेवालीतुम्हारीआहटकेनाम, नमआँखोंऔरचुपलगाएहोठोंकेनाम, तुम्हारीहथेलियोंकीउसगर्माहटकेनाम... जोहरकष्टऔरसंकटकेबीचमुझेकिसीपिताकेसेअसीमधैर्यसाथामलेतीहै .....
फिरमनकेइनतमामटुकड़ोंकेबाद, कहींकोनेमेंएकतिलजितनाहिस्साअपनेलिएरखछोड़ाहै, उसेमैंनितांतअपनामानतीहूँ, वहमेरीमानससंतानसाहीनिष्पाप, निष्कलंकऔरपवित्रहै, वहीतोहै, जोमुझेइससंसारकेदग्धतापकेबीचशीतलसमीरसासहलाताहै, उत्साहऔरउमंगकेसाथजीनेकीललकबनजाताहै, कोईजानतकनहींपाताकिवही  मेेरेक्षत-विक्षतऔरलहू-लुहानअस्तित्वकोसैंकड़ोंबारगोदमेंउठाए, नवजातशिशुकीमाँसास्तनपानकराता, अपनीमीठीबातोंसेदुलारता, किलकारियाँभरनेकोविवशकरदेताहै।हैविचित्र! कभीमेरीमाँसातोकभीमेराजाया, कभीमेरापरममित्रतोकभीमेराहीकट्टरबैरी! कभीमेराउछाहबनउत्तुंगपर्वतशिखरोंतकसाथचलदेताहैतोकभीघरकेतिमंज़िले  तकजानेमेंहाँफउठताहै........
अच्छासुनो, जान! मेरेमनकायहकोनाभीतुम्हींरखलो।तुम्हेंकुछऐसादेनाचाहतीथी, जोमुझेसबसेप्रियहो, मनकायहअंशमुझेमेरेअस्तित्वसेभीकहींअधिकभाताहै, इसेभीअपनेमनकेभीतरस्थानदेदो..
देदोगेप्रिय ...




       अरेरचना...
 किसीप्रोजेक्टमेंज़्यादापैसेमिलनेकालालच - , - कभीनहीं...., परियोजनाकोसहीसमयपरपूराकरनेकादबाव- म्मम, नहीं ......, किसीख़ासटापिककेसाथअपनालगाव - नहीं, येभीनहीं ....., किसीपरियोजनाकेकारणप्रकाशकसेसंबंधबिगड़नेकाभय- जी, ऐसीकोईगल्लनहीं .....बंदेसारेहीनेकहैं, किसीपरियोजनाकेसाथलाइमलाइटमेंआनेकालालच ..... येलालचतोकभीरहाहीनहीं, अगरहोतातोआज......, अच्छा, किसीप्रोजेक्टकेछोटाहोनेकीखुशीयालंबाहोनेपरजल्दी-जल्दीटाइपिंगनिपटानेकातनाव - हम्म, ऐसेतनावमेंकामकाबैंडबजजाताहै ....इसलिएऐसेहालातसेहमेशाबचतीहूँ......किसीकामकेसाथरौमिलनेपर, उसेफटाफटचलताकरनेकीसोच (पंजाबीमेंइसेफाहानिबेड़कहतेहैं) ..... मेरीनज़रमेंतोयेपापहैजी...., म्म्म्मममम!!! अच्छासुनो, किसीपरियोजनाकाबड़ीहस्तीकेनामसेजुड़ाहोनायाउससेमिलनेकीउत्सुकताहोना.... नहीं- येतोकोईकारणनहींबनता।
लाखमत्थामारनेपरभीकारणनहींखोजपारही।पतानहींचलताऐसाक्याकारणहैकिमहीनोंपहलेआईं, अनुवादपरियोजनाएँ, मेज़परएककेबादएकढेरबनीं, प्राथमिकतासूचीडेडलाइनकेअनुसार, अपनीबारीआनेकीराहदेखतीरहजातीहैं, जबकिकोईएकक़िताब, कोईअनुवादपरियोजनाहाथमेंआतेहीपंखलगाकरउड़नेलगतीहै।भलेहीउसेतीनमाहबादपूराकरनाहो।उससेकोईवित्तीययाकिसीभीप्रकारकालाभहोनेकीसंभावनाहो... परयहबातअक्सरदेखीहै।वहअपनाहीएकआभामंडलरखतीहै।उसेकरनेसेमनकोखु़शीमिलतीहै, एकअनजानासासंतोषऔरसुकूनमिलताहै।उसकाअनुवाद, पन्ने-दर-पन्ने, मेरीफाइलमेंहिंदीटाइपिंगकीशक्लमेंउतरताचलाजाताहैऔरमुझेलगताहैकिवाकईआसमानमेंउड़ानभरनेकोपंखमिलगएहैं।
एकअजीबसानशातारीरहताहैजैसेसारेब्रह्माण्डकेरहस्यजाननेकीकुँजीहाथगईहो।हररोज़उससेमिलनेकीऐसीबेताबीबनीरहतीहैजैसेनया-नयाबनाप्रेमी, प्रेमिकासेमुलाकातकीबाटजोहताहो।भलेहीथकानसेजाननिढ़ालहोरहीहो, परवहअपनीओरखींचतीहै, फाइलखुलतीहैऔरचाहेचारपंक्तियाँटाइपकीहों, वहमुस्कुराकरकहतीहै, ”अच्छा, अबजाथोड़ाआरामकरले, कलमिलतेहैं।
किसी-किसीदिनपरिस्थितियाँकंप्यूटरपरआनेकीअनुमतिनहींदेतींयाघरसेबाहररहनेपरकामकरनासंभवनहींहोपाता।अपनेजुनूनकेआगे, फ़र्जहावीहोजाताहै, कभीगृहस्थिनकीभूमिकाऐसानाचनचातीहैकिअनुवादिकाकोबैरागलेनापड़ताहै, तबहृदयकेकिसीकोनेमेंजैसेखुट-खुटकरताकोईधीरे-धीरेनोचतारहताहै...सारेउल्लास, आमोद-प्रमोदऔरतमामरंगीनियोंकेबीचऐसालगताहैकिकोईछोटासाकोनारोशनहोते-होतेरहगया....दिलकेउसीकोनेमेंमातमसाछायारहताहै.....दुनियाकेसारेव्यापारऔरतमामझमेलोंकोसुलझाते-सुलझातेभीमनउसीनवप्रसूतासाअकुलायारहताहै, जोघरपरदुधमुँहेनवजातशिशुकोछोड़, बाज़ारकरनेगईहो....
...औरफिरजबबीतजातेहैंसारेराग-रंग, उत्सव, समारोह, मेल-मुलाकातें, कुछपिछलेबरसोंऔरमहीनोंकेअधूरेकाम, कुछजमाहोगईबेफ़िजू़लकीबातें, बे-सिरपैरकेकिस्से....संभलजातीहैंधुले, अनधुले, सिलाईयाँउधड़ेहुएऔरइस्त्रीहोनेवालेकपड़ोंकीपोटलियाँ...  जातेहैं, दूरऔरपासकेसभीरिश्तेअपनेजाने-पहचानेकंफर्टज़ोनकेभीतर, सँवरजातेहैंपुरानेहैंडबैग्समेंरखेजानेकबसेसीलरहे, बासीपड़चुकेबहाने....पूरेहोनेकीकोशिशमेंऔरभीअधूरेछूटनेलगतेहैंकाम ....रह-रहकरजैसेकोईकहींदूरसेदेताहैआवाज़...अरेरचना!!!!!!!
तबउनसबकेबीचअचानकखड़ीहोतीहैउसकीयाद, जैसेकईसालबाद, कॉलेजवालीसहेलीदरवाजाखोलतेहीसामनेदिखजाए, तोफिरकैसादिखावा, औरकहाँकीऔपचारिकता... बसझटसेबढ़ाओहाथ, औरलपककरलगालोगले.....कम्बख़्तयेहोती, तोक्यामैंभी, सहीमायनोंमेंमैंबनपाती.... कहपाती, खु़दसे... ‘मैंहूँ!!!’




हमारे'वो'
क्याकभीउनकेसरकोगोदमेंरखकरहौले-हौलेसहलाया/ क्याकभीउनकीबंदपलकोंकेनीचेउंगलियोंसेघेरेबनातेहुएयहजाननाचाहाकिउनकेबीचकितनेसपनेगहरीनींदसोचुकेहैंजोअबकभीनहींजागेंगे, वेउन्हेंगृहस्थीकेयज्ञमेंहोमकरचुकेहैं / क्याकभीउनकीहथेलियोंक़ीलकीरोंमेंछिपीदर्दक़ीपरतोंकोदेखा, हाथोंपरउभरआईगांठोंमेंवेअपनेसारेअनकहेदर्दऔरपीड़ाओंकीपोटलियाँछिपाएरखतेहैं / क्याकभीउनकीछातीपरउगेबालोंमेंउभरतेघूमरगिने..वेपूरेब्रह्माण्डमेंचक्करकाटतेग्रह-नक्षत्रोंसेभीअधिकहैं /एक-एकघूमरमेंवेजानेकितनेभावलिएडोलरहेहैं / क्याकभीयेजानाकिमुखसेएकभीशब्दकहेबिनाजबवेआपकोतकतेहैंतोउनपलोंमेंवेएकपूरीप्रेमकथाबांचदेतेहैं / क्याकभीसुनाईदीआपको? क्याकभीध्यानसेदेखाकिजबवेबंदहोठोंक़ीकोरसेज़रासामुस्कुरातेहैंतोचाँदकैसेमुहंछिपाताफिरताहैऔरहवादुपट्टालहरातीबालाक़ीतरहइठलाकरआपकेपाससेनिकलजातीहै /क्याकभीमहसूसकियाक़िबसकुछपलकोउनबाँहोंक़ीजकड़नमेंबंधनेकामौकामिलजाएतोसातजन्मोंकाभारदिलसेउतरजाताहै/ सालमेंदोबारऔपचारिकताक़ेनातेउनकेचरणोंकोस्पर्शकरनेक़ेअलावाकभीउनकेपैरोंकोधोपोंछकरप्यारसेदबायाहोतातोजानजातींक़िजीवनक़ेऊबड़खाबड़रास्तोंपरआपकेसाथचलते -चलतेअबउनकेपैरभीपहलेसेनरमऔरमुलायमनहींरहे..अपनेगठियाक़ेदर्दक़ीहाय - हायसेफुर्सतपातींतोजानलेतींकिअबउनकीदेहभीकड़ेश्रमसेथकनेलगीहै/ वेभीअपनीदेहपरनेहसेभरास्पर्शचाहतेहैं, जबआपदीन-जहाँक़ीबेसिरपैरक़ीबातोंकोउनकेकानोंमेंउड़ेलतेहुएसारेदिनकारागअलापरहीहोतीहैं, तोवेआपकेसाथकासुखपानेक़ेलोभमेंहीसभीबातोंपरलगातारगर्दनहिलातेचलेजातेहैंभलेहीआपकीकहानीकाएकभीशब्दउनकेपल्लेपड़रहाहो/ केवलदोवक्तकाभोजनऔरप्रेसकिएहुएकपड़ेथमाकरअपनेकर्तव्यक़ीइतिश्रीमानलेतीहैं, भूलगईंकिकिसीमाँनेअपनाबेटाबहुतहीभरोसेऔरमानक़ेसाथसौंपाथा / जिसनेसारेजहाँकोपीछेछोड़आपसेअपनानाताजोड़ा.. जोआजीवनपरिवारक़ेलिएएकमशीनक़ीतरहखटताचलाजारहाहै...क्याआपकोउसछहफुटक़ेमर्दमेंछिपाबालकनहींदीखताजोमेलेमेंअकेलेछूटगएबच्चेक़ीतरहखोया-खोयाडोलताहै ? उसेभीममतामयीस्पर्शक़ीचाहहै..वहहमेशाशरीरक़ीभूखमिटानेकोआपकेपासनहींआता..उसेभीपीठपरजीवनक़ेकठिनसमयमेंकिसीकाहौंसलेसेभराहाथचाहिए / वहभीसारीदुनियासेछिपाकरअपनीनाकामयाबीऔरपीड़ाकाभारकमकरनेक़ेलिएदोआंसूबहानाचाहताहै/ लाखघरकामुखियाहोपरउसकेभीतरभीतोएकबालकहै..आपअपनेपुरुषक़ीप्रकृतिहैं..उसकीशक्तिहैं..उसकेजीवनकासम्बलहैं/ कैसेभूलगईंकिउसकीसाँसोंक़ीगंधनेकभीआपकेजीवनकोमहकादियाथा , उसकानामसुनतेहीआपकाचेहराअबीरहोउठताथा, उसकीएकआवाज़कोसुनआपलरज़जातीथीं, कभीजिसकेपाससेहोकरगुज़रनायासटकरबैठनाभीकिसीवरदानसेकमनहींदीखताथा, कभीसबसेछिपाकरबार-बारमिट्टीमेंउसकानामलिखनाआपकामनपसंदशगलथा/ अबआपकोउसशख्सकावहरूपदिखाईहीनहींदेता/ आपभूलगईंकिआपकेबच्चोंकापिता; आपकाप्रेमी, आपकासाजन, आपकाप्रिय, आपकाअपनासाथीभीहै, वहआपकीआत्माकाएकअंशहै, आपदोनोंकेमेलसेहीयहसृष्टिसंभवहुईहै, आपदोनोंकासाथजीवनक़ीअनमोलपूँजीहै/ उनकेदमपरआपकेजीवनकेसारेचिरागरोशनहैं / आपकेसारेव्रतउपवासऔरदेवीदेवतोंकेचढ़ावेउनके
नामपरहीतोहैं/ ...ज़रासावक्तउनकेलिएभीनिकालें, भूलकरदुनियाकेरंज़ोगम... बसउन्हेंमहसूसकरें , यकीनजानेंआपकीएकहलकीसीछुअनसेउनकेदिलपरलगेसाततालेखटाकसेखुलजाएंगे/ भीतरसेनिकलेगाअमृतसेभरेभावोंकाऐसाकलशजोअपनीस्नेहधारासेआपकोसराबोरकरदेगा ....
ओह....हदहोगई..स्ट्रांगकॉफ़ीक़ीपिनकमेंजानेक्या-क्याबकगयी..माफ़कीजिएगामैडमजी...आपकासमयजायाकिया...आपतोनिकलिए.... कहींबिगबॉसकाशोहीछूटजाये..दूसरेघरोंक़ीमैलीपोटलियांखुलतीदेखकितनाआनंदआताहै..भलेहीवेघरकाल्पनिकक्योंहों.. किसीसासबहूकासीरियलरहाहोगा..याफिरदेशक़ीसभीख़बरोंपरनज़रभीतोरखनीहै, भाईआधुनिकनारीजोठहरी , चलिएकलक़ीकिटीयाकीर्तनक़ीतैयारीभीतोकरनीहै...रसोईकाझंझटतोसरपरसवारहैही.. मुएकेलिएकरवाचौथकाव्रतभीरखनाहै...क्याकोईमज़ाकहै, पताहैकितनीतैयारीचाहिए. अगरहाथोंक़ीनेलपोलिशसेलेकरअंतर्वस्त्रोंतककारंगड्रेससेमेलखाताहुआतोसमझोसबबकवासहोगया/ ठीकहै..बसघरसहीतरहचलनाचाहिए..आपखर्चकरतीरहें .घोड़ाकमाकरलातारहेऔरगधाहीक्योंबनजाये, बसघरचलतारहनाचाहिए,,,बाकीतोबेकारकेचोंचलेहैंजी... अबतोबालबच्चेभीबड़ेहोगए.. येसबशोभानहींदेताजी
आपतोचारऔरतोंकेबीचबैठेंऔरकिसीदुखियारीक़ीतरहरोनीसूरतबनाकरकहनाभूलें
हमारेवोतोहमसेप्यारहीनहींकरते .....



  रंगबदलतीलड़की.....
लड़की- पतानहींकहाँरहगए..एककामबोलोऔरतीनघंटेइंतज़ारकरो...हुँह
लड़का- सुनोमक्खनफ्रिजमेंरखदियाहै..
लड़की- तुमनेइतनीदेरकैसेलगादी?
लड़का- यारवोवर्माऑन्टीकीमेडिसिनलेनेरुकगयाथा. मार्किटजारहाथातोसोचाउनकाभीकामकरदूँ. बेचारीबीमारचलरहीहैंऔरबेटा- बहूभीबाहरगएहुएहैं .
लड़की- हाँ, सारेमोहल्लेकाठेकातोअपनाहीहै ..अगलेकेबच्चेघूमनेगएहैंऔरहमदवाएँलाकरदेरहेहैं..
लड़का- जबकलउनकेघरगएथेतोतुमनेहीकहाथाकिकोईकामहोतोबतादेना..हमहेल्पकरदेंगे---हमभीआपकेहीबच्चेहैं .
लड़की- हाँ, कहाथापरइसकामतलबयेतोनहींकितुमहीकोल्हूकेबैलबनजाओ.. कहीजानेवालीहरबातहमेशापूरीकरनेवालीनहींहोती. पतानहींतुमयेकबसमझोगे. येगँवईसंस्कार...हरजगहभलमनसाहतदिखनेखड़ेहोजाएँगे...ऐसेलोगोंकेबलपरतोचललीदुनिया...
लड़काकोईबहसकिएबिनाटीवीखोलकरबैठाहीथाकिलड़कीकेदिमागमेंएककीड़ाकुलबुलागयाऔरजबलड़कीकेदिमागमेंकोईबातजातीहैतोउसेपूरीयोजनाऔरदाँव-पेंचकेसाथप्रस्तुतकरनेमेंदेरनहींकरती..भाईसालोंकाएक्सपीरियंसजोठहरा.
लड़की(सुरमेंबदलावलातेहुए) जीसुनो ..
लड़का- हाँ, कहो
लड़की- आजतुम्हारेमौसाजीकोहॉस्पिटलमेंदेखआएँ. सुनाहैकईदिनसेभर्तीहैं .
लड़का- हाँ, मेरीकलउनकेबेटेसेफ़ोनपरबातहुईथी. हीइज़फीलिंगमचबेटर. देखनेजानेक़ीज़रूरतनहींहै.
लड़की- नहीं, जानूहमेंजानाचाहिए. मुझेतुम्हारेरिश्तेदारोंमेंयेमौसाजीबहुतपसंदहैं. पताहैइन्होंनेमुझेपूरेपाँचसौकाशगनडालाथाबाकीकंजूसरिश्तेदारतोदो-दोसौमेंहीटरकागए. भुक्खड़कहींके ..
लड़का- परऐसी formalities मेंक्यापड़ाहै? जबवेघरजाएँगेतोकभीमिलआएँगे. मेरेख्यालसेअभीउन्हेंआरामकरनेदियाजाए.
लड़की- नहीं, तुम्हेंदुनियादारीकाकुछपतानहीं. अगरकिसीकेठीकहोनेकेबादहालपूछनेजाओतोबंदापागलहीलगताहै . अकलमंदीतोइसीमेंहैकिअगलाबीमारहोऔरसाथक़ीसाथकामनिपटादो. अगरवहकहींठीकहोजाएतोमौकाचूकजाताहै..वैसेभीहमतोबहुतदेरसेजारहेहैं ... मुझेडरहैक़िकहींउन्हेंकलछुट्टीहीमिलजाए.
लड़का- (मनहीमनसोचताहै.. मौसाजीकाठीकहोकरघरजानाख़ुशीकीबातहैयाडरक़ी?
लड़की- अबजल्दीहामीभरोतोमेंतैयारहोनेजाऊँ.
लड़का- (हथियारडालतेहुए) अच्छाजाओकपडेबदललो. वहजानताहैकिइसेरोकानहींजासकता. अगरकहींमुहँफुलालियातोचारदिनक़ीरोटीऔरजाएगी.
लड़की- (हुलसतेहुए ) सुनोक्यापहनूँ
लड़का- जोतुम्हारेदिलमेंआएपहनलो.
लड़की- हाँ, जैसेबड़ाआसानकामहै.. पिछलीबारजबतुम्हारीचाचीकाहालपूछनेगएथेतोतुम्हारीचचेरीभाभीनेवहींपूछलियाथाकिक्यायेसूटनयासिलवायाहै. मैंतोशर्मसारहीहोगईथी. उसेक्याबतातीकिउससूटकोस्टिचकरवाएतीनमहीनेहोगएथेऔरमैंउसेघरसेबाहरचौथीबारपहनरहीथी. how insulting !
लड़की- सुनोजी, अच्छागुलाबी, लालऔरकालेरंगकेसूटमेंचॉयसकरवादो. मैंतोइनकामोंमेंबड़ी confuse होजातीहूँ. आजकलघरसेबाहरजानाक्याआसानहै..घरमेंतोगाउनभीपहनकरचलजाताहैपरबाहरतोफैशनऔरस्टाइलकाध्यानरखनाहीहोताहै. तुमनेबतायानहींकिक्यापहनूँ.
लड़का- गुलाबीरंगवालापहनलो. ज़रासोबरलुकमेंहै .
लड़की- (कमरेमेंतैयारहोतेहुएआवाज़देतीहै) सुनो..वापसीमेंकुछसामानलेलेंगे..मुझेअभीयादआयाकिआजतोमंगलबाजारलगाहोगा..बढ़ियाहै, मैंअपनेदो suits क़ीमैचिंगलैगिंगऔरएकजोड़ासैंडललेलूँगी. यहाँसस्ताऔरटिकाऊमालमिलजाताहै.
लड़का- ज़राजल्दीकरलोसमयसेलौटनाभीहै
लड़की- अबतुमयेमतप्लानकरलेनाकिघरकरखानामिलेगा. मैंनेकुछनहींबनाया. वापसीपरबब्बलकेपनीरवालेछोलेभठूरेखालेंगे. वहदुकानदेरतकखुलीरहतीहैऔरनीनाबतारहीथीकिलालचौकक़ीपीछेवालीगलीमेंएकआइसक्रीमपार्लरखुलाहै. वहाँएकआइसक्रीमकेसाथदोस्कूपआइसक्रीमफ्रीमिलरहीहै. मैंतोकबसेप्लानकररहीथीकिकिसीदिनखाकरआएँगे .. देखोआजकिस्मतसेमौकाबनहीगया.
देखाजनाबइसेकहतेहैंमल्टीटास्किंग.. यानीआमकेआमऔरगुठलियोंकेदाम ..
लड़काइसबातकाकोईजवाबनहींदेसका.. दरअसलसबबातोंकाजवाबदेनाज़रूरीहोताभीनहींऔरकुछबातोंकेजवाबहोतेभीनहीं. अगरइनकेजवाबदेनेक़ीकोशिशक़ीभीजाएतोबड़ेसेबड़ेआशियानेकेतिनकेबिखरतेदेरलगे. क्यादुनियाजहानक़ीआँधियोंकेबीचअपनेघरौंदेबचाकरचलनाकोईबच्चोंकाखेलहै ? चारसालकेवैवाहिकजीवननेइतनातोसिखाहीदियाहैकिएकचुपहज़ारसुख!!
लड़कीकरीबनआधेघंटेबादकमरेसेतैयारहोकालेरंगक़ीड्रेसपहनकरबाहरआई . आजतकपूरीदुनियामेंऐसाकहींनहींहुआकिकिसीपत्नीनेपतिकेबताएरंगकेकपडेपहनेहों. वोपूछतीभीज़रूरहैपरकभीबातमानतीनहीं. मज़ेदारबातयहहैकिपूछने-पुछानेकेइसखेलमेंदोनोंहीपहलेसेजानतेहैंकिक्याहोगापररस्मअदायगीतोबनतीहीहै.
लड़की- (मनहीमन) यारआजक़ीतोशामबनगई. देखाइसेकहतेहैंचतुराई..मौसाकाहालपूछनेकेबहानेपूरीआउटिंगप्लानहोगई. मैंतोकहतीहूँकिइसीतरहकोईकोईबीमारपड़तारहाकरे..ज़रारौनकसीबनीरहतीहै
लड़काभीजानेकोतैयारहै. इतनेमेंफ़ोनक़ीघंटीबजतीहै. लड़कीलिपस्टिककोफाइनलटचिंगदेरहीहै..
लड़का(फ़ोनपरबतियातेहुए) हेलो.....अच्छा---ओह--- कैसे---कब----
लड़की(संकेतसे) किसकाफ़ोनहै?
लड़का-( फ़ोनपरहाथरखकर ) मौसाजीकेबेटेकाहै.. दोबाराफ़ोनपर--- हाँ- हाँ --क्योंनहीं---यारऐसेवक्तमेंअपनेहीकामआतेहैं..
लड़की-- (मनहीमन) ओहमायगॉड.. I think मौसाजी expire होगए. शुक्रहैकिमैंनेइनकीबातोंमेंकरगुलाबीसूटनहींपहना..अबयहीचलजाएगाबस lipshade पिंककरलेतीहूँ. कलसुबहभीतोजानाहोगा ... येभीसहीहै.. मार्किटभीजानाहोहीरहाहैवरनाऔरमुसीबतहोजाती..कुछ white मेंभीदेखलूँगी... आजकल white काहीक्रेजहै.. चलोइसीबहानेसेलखनवीकुर्तीतैयारहोजाएगी..उसपर coloured धागोंकाकामबहुतचलरहाहै. वहबड़ाहीएथनिकटचदेतीहै. मौकाअफ़सोसकाहोयाकोईऔर..आजकलतोहरकोईकपडाहीदेखताहै..
राहुलक़ीवाइफनेअपनेमामाकेअफ़सोसमेंकैसामरेसेरंगकाओल्ड fashion कासूटपहनलियाथा...बेचारीरो-रोकरबेहालहोरहीथीऔरउसेदिखाईतकनहींदियाकिउसकीकितनीइंसल्टहोरहीथी..... चलोअपनकोक्याचिंता... कपडेतोतैयारहैंहीऔरअबआरामसेचारदिनकाखानामौसाजीकेयहाँहोजायाकरेगा... अगरकहींउठालातेरहवींपरहीरखातोपूरेतेरहदिनरौनकमेलालगारहेगा..इसीबहानेअगले-पिछलेसारेरिश्तेदारोंसेमेलभीहोजाताहै. अगरमम्माभीआईतोउनकेसाथएकदिनशॉपिंगप्लानहोजाएगीऔरबढ़ियासीमूवीदेखआएँगे…..
लड़कीकेदिमागमेंचलरहेख्यालोंसेअनजानलड़केनेउसेपुकाराऔरउसकेशब्दोंनेपलभरमेंजैसेकिसीमहलक़ीबुनियादक़ीहिलादीहो----
लड़का- सुनो, ज़रामैँहोकरआताहूँ.
लड़की- नहीं...नहींमैँभीचलूँगी. सुनकरबड़ाअफ़सोसहुआ.. मेराभीअभीजानाबनताहै..कलसुबहतोदोबाराजाएँगेही....
लड़का(हैरानीसे) परतुमजाकरक्याकरोगी?
लड़की- बेशकमर्दोंकोहीऐसीजगहसारेकामकरनेहोतेहैंपरअफ़सोसपरतोजाकरबैठनाहीहोगा
लड़का- क्याबकरहीहो..मौसाजीकेबेटेकाफ़ोनआयाहैकिवोलोगउन्हेंहॉस्पिटलसेघरलेजारहेथीकिगाड़ीखराबहोगई.. मुझेउनकेलिएवहाँकिसीमैकेनिककोलेजानाहै..सुनसानरास्तेमेंकोईहेल्पनहींमिलरही ... मौसाजीइज़टोटलीफिटएंडफाइन...
लड़की-- ओहयेतोबहुतअच्छीबातहै..अच्छाहैकिमौसाजीठीकहोगए.. अबहॉस्पिटलनहींजानापड़ेगा....
क्यालड़केकोलड़कीकेइसवाक्यकेपीछेछिपीमायूसीनहींदिखती ? क्यावहलड़कीकेमनोभावोंसेअनजानहै ? क्यावहनहींजानताकिअबलड़कीइसबातपरमनहीमनबिसूररहीहोगीकिइसबेवक़्तमेंलड़केकोउनलोगोंक़ीमददकेलिएजानेक़ीक्यापड़ीहै.. येकामकोईऔरभीतोकरसकताहै.. हुँह...
क्यालड़कानहींजानताकिलड़कीकितनेरंगबदलनाजानतीहै?






फेसबुक के हिंदी समाज के नाम एक खुला पत्र- गगन गिल

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पिछले कुछ दिनों से गगन गिलसहित कुछ कवयित्रियों के बारे में फेसबुक पर जैसी घिनौनी बातें की जा रही हैं वह शर्मनाक हैं. किसी भी लेखिका के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग निंदनीय है. जानकी पुल हमेशा से लेखिकाओं के सम्मान के लिए खड़ा रहा है. आज गगन गिल जी का यह मार्मिक पत्र हम सबको सोचने के लिए विवश कर देता है- मॉडरेटर 
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चाहता था इन गलियों से बेदाग निकल जाऊं! - कुँवर नारायण


ऐसी इच्छा हम सभी की होती होगी, पुरुष हो या स्त्री। 

मैं फेस बुक पर नहीं हूं, आप लोग जानते हैं। मुझे मेरी अजीज़ ने कुछ स्क्रीन शॉट्स भेजे तो पता चला, आप लोग चौपाल में व्यस्त हैं। 

इस बीच आप कुछ और बूढ़े हो गए होंगे, इस पृथ्वी पर आपका समय कुछ और खत्म हो गया होगा। क्या आपने वक्त की टिकटिक सुनी? मैं इतने बरसों से उसी को सुनती चुपचाप अपना काम कर रही हूँ। शायद कभी- कभी आपको मेरा लिखा दिख जाता हो, चौपाल की फुर्सत के बाद। 

मुझे खेद है, विमल कुमार जी, दिविक रमेश जी, मैं अपनी चुप्पी में से समय नहीं निकल पायी। आप लोगों से संवाद में कितना कुछ सीख सकती थी लेकिन मुझे अपना एकांत ही पसंद था। 

आभारी हूँ, विमल कुमार जी, कि आपको यह लक्षित करना याद रहा, मैं इतने बरसों में कभी किसी दरबार में नहीं गयी, न गुट में।

ऐसा नहीं, कि मैंने आप हिंदी समाज के लोगों से जान-बूझ कर बात नहीं की। मैं अपने अध्ययन कक्ष मेें ही इतना व्यस्त रही, मेरी रुचियां ही इतनी अलग थीं, कि मुझे ध्यान नहीं रहा, आखिर आप लोग हैं तो मेरे समुदाय के, अनदेखे किये जाने के सब्र की भी कोई हद होती है। 
लेकिन क्या इस तरह ध्यान आकर्षित करना था आप सब को? चौपाल लगा कर?
कितना अच्छा होता, अगर मैं सारी बात इशारे से कह देती। किसी का नाम न लेती। किसी को दुःख न पहुंचता। 
आज आप सब की सभा में शिकायत रख रही हूँ साफ़-साफ़। हो सके तो न्याय करियेगा, नहीं तो चौपाल तो है ही। 
सबसे पहले, मुद्दे की बात। जिन अनिल जनविजय के साथ मेरे नाम को लेकर हंगामा हो रहा है, वह हमेशा से एक बीमार आदमी थे। मेरा दुर्भाग्य, कि उनसे मेरा परिचय कॉलेज की कविता प्रतियोगिताओं में हुआ था, करीब चालीस बरस पहले। सत्रह अट्ठारह बरस की भोली उम्र में। तब मुझे मालूम नहीं था, मैं महादेवी के बाद की सबसे उल्लेखनीय कवि कहलाऊँगी।

वह उस समय भी शोहदे व्यक्ति थे, और अब भी। मैंने उन्हें कई बरसों से देखा नहीं, कि पता चले, बीमारी कितनी बढ़ गयी है।

उस समय,1977 में, मैं छोटी उम्र की ज़रूर थी लेकिन समझती सब थी, जैसा दिविक जी ने कहा। अनिल को तब कोई नहीं जानता था। वह फटेहाल रहते थे, सौतेली मां की कुछ बात करते थे। बाद में उन्होंने जे एन यू में जुगाड़ बैठाया, मास्को चले गए, आदि। 

आजकल वह फेसबुक पर सब तरह के वरिष्ठों की गलबहियां करते दिखते हैं। इस दुर्घटना के दौरान ही मैंने फेसबुक पर उनके 'सादा जीवन उच्च विचार'की झांकी देखी है। इतनी उठा-पटक में उन्होंने लिखा क्या, सोचा-समझा क्या, इसकी जानकारी फिलहाल नहीं मिल पायी। न यह पता चल पाया कि इस बीच वह अट्ठारह बरस की उम्र से बड़े हुए कि नहीं! क्या पता, उन्होंने काल को मात कर दिया हो और मुझ तक खबर न पहुंची हो! 

दरअसल 1978 के आसपास पश्यन्ति के संपादक स्वर्गीय प्रभात मित्तल से उनका परिचय मैंने ही करवाया था। अनिल की जुगाड़ू काबिलियत यह कि बाद में वह कई अन्य हापुड़ वालों की किताबें भी ढोते रहे। यह सब इतना पुरातन समय है मेरे लिए कि अब सब धुंधला है। 

मुझे नहीं मालूम था, चालीस बरस से एक पुरानी जोंक अभी भी मेरे साथ चिपकी हुई है, वह अभी भी मेरा नाम भुना कर लहू पी रही है। 

अनिल ने उन बरसों में जब मेरे नाम से श्री स्वप्निल श्रीवास्तव की किसी चार पन्ने की पैम्फलेट में कुछ छपाया व मुझे दिखाया तो मैं सतर्क हुई। यह तब की बात है, जब मैं अभी कच्चा लिख रही थी। आज की गगन गिल नहीं हुई थी। एक दिन लौटेगी की कविताओं से पहले के दिन।

जो लोग शोध करना चाहें, वह इस बात पर भी ध्यान दें कि लेखन में मैं उनकी वरिष्ठ थी, तब भी, आज भी। 

उन बरसों में अनिल जनविजय को हम सब ने कई बार डाँट लगायी, प्रभात जी ने भी, एक बार अमृता भारती ने उन्हें अपने घर से ही निकाल दिया था, कोई कविता इस लेखिका को समर्पित करके छपा कर दिखाने लाये थे। लेकिन अनिल ढीठ निकले। जैसा अब देख रही हूँ, हैरानी और अविश्वास से। 

अगर कोई बीमारी चालीस बरस पुरानी हो जाये, तो उसे अनदेखा नहीं कर सकते। आप लोग चाहें , तो मिल जुल कर उनका इलाज ढूंढ़ सकते हैं।

यह सब इतना लंबा कैसे खिंच गया? मुझे सबसे ज़्यादा इसी पर हैरानी है। लोग कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं। 
क्या इसलिए, कि हर बार अनिल जनविजय धृष्टता के बाद माफीनामे भेजते रहे व मैं रफा-दफा करती रही? हो सकता है, विमल कुमार भी उन्हीं दिनों अनिल का कोई माफीनामा लेकर आये हों, मुझे याद नहीं। 
सच तो यह है, मेरी दुनिया ही दूसरी थी, मैं अमृता प्रीतम सहित कई बेहतरीन साहित्यिकों की सोहबत में थी, समीक्षाएं एवं अनुवाद कर रही थी और टाइम्स ऑफ इंडिया में नौकरी, मुझे किसी की नालायकी पर सोचने की फुर्सत न थी। और ऐसा तो होता नहीं कि लोग सुधरते नहीं, अनिल जनविजय से मेरा विश्वास अभी पूरी तरह टूटा न था। 

इस परिचय का सबसे बड़ा फंदा अनिल ने तब डाला, जब मैं 1990 में निर्मल जी के साथ यूरोप घूमने जा रही थी, जर्मनी में उनकी एक कांफ्रेंस के बाद। मेरी टिकट एरोफ्लोट की सस्ती टिकट थी। संयोग से उन्हीं दिनों श्रीमान भारत आये और जब पता चला कि मास्को से ही गुज़र रही हूँ तो कहा, दो दिन रुक कर देख क्यों नहीं लेती। मेरी मूर्खता का यह हाल कि मेरी सोच में भी नहीं आया, यह एक फंदा है। 
क्या आप एक साइकोपैथ एट वर्क देख पा रहे हैं? सुना है, इस दौरे की कीमती स्मृतियां भी उन्होंने छपाई हैं! 

मेरी इस प्रकरण को भाग 2 तक ले जाने में दिलचस्पी नहीं, हालाँकि अनिल की पत्नी नादया उन दिनों पर ज़्यादा रोशनी डाल सकती हैं। अनिल का उन्हीं दिनों नादया की छोटी बहन के साथ चोरी छिपा संबंध चल रहा था। बाद में उनके और भी मुखौटे उतरे होंगे। 
क्या ऐसा ही कोई आदमी हमारे परिचय में नहीं होता, जो विश्वास की आड़ में हमारे घर आने का रास्ता बनाता है और एक दिन हमारी बच्ची का शिकार करता है? क्या आप लोग इस चरित्र को पहचानते हैं? इसका विकृत रूप देख सकते हैं?

कुछ अपने बारे में भी। एक अति प्रतिष्ठित परिवार में जन्म होने के कारण मैं सभ्य सुसंस्कृत लोगों के बीच ही बड़ी हुई। मेरी माँ कालेज में प्रिंसिपल थीं, पिता गुरबाणी के विद्वान। मेरा दुर्भाग्य कि हिंदी लेखन में आ गयी। आज जो कीचड़ मैं देख रही हूँ, इसकी कोई कल्पना भी हमें नहीं थी। मेरे परिवारिक पृष्ठभूमि का कुछ ब्यौरा आपको मेरे पिता पर लिखे लेख में मिल सकता है, यदि आप उसे पढ़ें तो। उन दिनों के कॉलेज के मेरे कुछ परिचित उसी स्नेह और सद्भाव में हमारे यहाँ आते थे, घर भी हमारा यूनिवर्सिटी के करीब था। आदरणीय अजित जी , रामदरश जी के स्नेह की स्मृतियां उन्हीं दिनों की हैं। 

महत्वाकांक्षा साधने की कोई ज़रूरत न मुझे तब थी, न आज। जिसे कहते हैं, मुंह में चांदी का चम्मच ले कर पैदा हुई थी। वैसे भी, मेरे माता-पिता ने मुझे इतनी तालीम दी है कि स्वाभिमान से अपनी रोटी कमा सकूँ। बाद के वर्षों में एक-दो बड़ी नौकरियां मुझे पलक झपकते ठुकरानी पड़ीं, इसलिए कि वहां काम करने की बौद्धिक आज़ादी नहीं थी, यह जॉइनिंग से पहले ही दिख गया था। इससे भी मैंने कुछ लोगों का दिल ज़रूर दुखाया होगा, विशेष कर जो मुझे घर पर न्योता देने आये थे। 

अब श्री अनिल जनविजय के विषय पर। क्या उन बरसों में कभी भी उन्होंने या मैंनेे ऐसा कुछ कहा, जिसे हम निजी या प्राइवेट कह सकें? इतनी बड़ी गप्प उनकी किस कल्पना में से निकली? इस बीमारी की चपेट में और लोग आये न हों, ऐसा हो नहीं सकता।

बड़े होते हुए, कॉलेज में पढ़ते हुए, कितने लोगों से भेंट होती है, फिर सब अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। वह क्यों नहीं गए?

आज सार्वजनिक तौर से मुझे उनसे पूछना है, क्या वह अपने आप घर चले जायेंगे? या आप में से कोई उन्हें पहुंचा कर आयेगा? या हमारी अगली पीढ़ी की लड़कियां और लड़के इसका जिम्मा लेंगे?

क्षमा कीजियेगा, इस बार मैं सचमुच महादेवी जी की पंक्ति में बैठने जा रही हूँ। क्या आप जानते हैं, एक कवि सम्मेलन में किसी अकिंचन कवि ने उन पर फब्ती कसी थी - मेरी गोद में बैठ जाओ! उसके बाद वह कभी किसी कवि सम्मेलन में नहीं गयीं। यह बात उन्होंने अपनी दोस्त सुभद्राकुमारी चौहान से कही थी। उन पर लिखी ऑक्सफोर्ड की बायोग्राफी में इसका ज़िक्र है।

मैं भी आपकी चौपाल में कभी नहीं आऊंगी। आप इस अभियुक्त का फैसला जो चाहें, करें। 

-गगन गिल 

1 सितंबर2016

संजू शब्दिता के कुछ शेर

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संजू शब्दिताबहुत अच्छे शेर कहती हैं. फेसबुक पर उनके कई शेर पढ़कर मैं बहुत मुतास्सिर हुआ. यहाँ उनके करीब 60 चुनिन्दा शेर हैं. पढियेगा और अच्छी लगे तो दाद भी दीजियेगा- मॉडरेटर 
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1-
हम सितारों की उजालों में कोई कद्र कहाँ
खूब चमकेंगे जरा रात घनी होने दो
2-
हवा के काम सभी कर  गए बख़ूबी हम
मगर चराग़ बुझाना हमें नहीं आया
3-
किसी ने कह दिया जहाँ तुम्हीं से रौशन है
चराग़ खुद को आफ़ताब ही समझ बैठा
4-
चरागों के उजालों को चुराकर
बने बैठे हैं कुछ सूरज यहाँ पर
5-
काफ़िया ले लिया गलत हमने
अब ग़ज़ल किस तरह मुक़म्मल हो
6-
बदलने चल पड़े दुनिया को नादाँ
जो दाना हैं तमाशाई बने हैं
7-
उसने रस्मन जो मांग ली माफ़ी
मैंने भी माफ़ कर दिया रस्मन
8-
रक्खा भी क्या है इन किताबों में
वक़्त है ज़िन्दगी पढ़ी जाये
9-
इतना ज्यादा है मेरा सादापन
लोग शातिर समझने लगते हैं
10-
थोड़ी सी दिल में क्या जगह मांगी
वो मुहाज़िर समझने लगते हैं
11-
ज़िरह करने की अब हिम्मत नहीं है
मैं बाजी हारकर भी ख़ुश बहुत हूँ
12-
मिली रहमतें भी हमें इस तरह
हवा हमने चाही तो आंधी मिली
13-
हमने सांसे ही मुल्तवी कर दीं
आओगे जब बहाल कर देंगे
14-15
हमारा नाम लिखकर वो हथेली में छिपा लेना
हमेशा छत पे आ जाना तुम्हारा शाम से पहले
तुम्हारे दम पे ही हमने भरा था फ़ॉर्म मैट्रिक का
तुम्हें भी रूठना था बोर्ड के एग्जाम से पहले
16-17
उलझ गया है अभी आसमां पहेली में
सितारे क़ैद हुए किस तरह हथेली में
उसे है इश्क़ हमीं से मगर बताएं क्या
वो ढूंढ़ता है बहुत खूबियाँ सहेली में
18-19
तरबियत* है नए ज़माने की
दिल में रखकर दरार मिलते हैं
हम जो निकले हैं ढूंढ़ने नादाँ
सब के सब होशियार मिलते हैं
*तरबियत - शिक्षा - दीक्षा
20-
मौत के बाद ज़िन्दगी होगी
ये समझकर ही मर रहे हैं हम
21-
जीना दुश्वार मरना भी मुश्किल
या ख़ुदा और कोई राह दिखा
22-
हुकूमतों का शोख़ रंग यह भी है यारो
कि हम जहाँ नहीं दिलों पे राज करते हैं
23-
ख्वाहिशें बेहिसाब होने दो
ज़िन्दगी को सराब होने दो
24-
उलझे रहने दो कुछ सवाल उन्हें
खुद ब खुद जवाब होने दो
25-
तुम रहो दरिया की रवानी तक
मेरी हस्ती हुबाब होने दो
26-
हार का लुत्फ़ भी उठा लेंगे
इक दफ़ा कामयाब होने दो
27-
रब ने तो दे दिया जहाँ सारा
मुझको बस ज़िन्दगी की चाहत थी
28-
परिन्दा घर गया वापस नहीं पहचानता कोई
सुनो सैयाद तुमने देर की आज़ाद करने में
29-
पहले नादाँ थे बोलते थे बहुत
अब जो दाना हुए तो चुप हैं हम
30-
उसकी ग़ज़लों में ग़ज़ल हो कि न हो
उसके लहज़े में तगज्जुल है बहुत
31-
दौड़ते भागते रहे हरदम
पर कहीं आज तक नहीं पहुंचे
32-
परिन्दा चाहता तो उड़ ही जाता
मुहब्बत हो गई पिंजरे से उसको
33-
ज़रा सी हेरा फेरी की जरुरत है
किसी पत्थर को वो हीरा बना देगा
34-
इश्क़ की आग लग गई मौला
हम जलेंगे बड़े करीने से
35-
तू सितम देखकर भी चुप क्यों है
मुझको शक़ है तेरी खुदाई पर
36-
बात करते हैं आसमान से हम
ले रहे दुश्मनी जहान से हम
37-
पत्थरों के शहर में ज़िन्दा है
लोग कहते हैं आइना है वो
38-
वो बहाने से जा भी सकता है
हम इसी डर से रूठते ही नहीं
39-40
हमारी बात उन्हें इतनी नागवार लगी
गुलों की बात छिड़ी और उनको खार लगी
बहुत संभाल के हमने रखे थे पाँव मगर
जहाँ थे जख़्म वहीं चोट बार- बार लगी
41-
जब से सीखा है तैरने का हुनर
हो गई ज़िन्दगी समन्दर सी
42-43
चाँद तारे ख़्वाब में आते नहीं
हम भी छत पर रात में जाते नहीं
ढूंढ़ते हैं मिल भी जाता है मगर
चाहिए जो बस वही पाते नहीं
44-
रब ने तो दे दिया जहाँ सारा
मुझको बस ज़िन्दगी की चाहत थी
45-
परिन्दा घर गया वापस नहीं पहचानता कोई
सुनो सैयाद तुमने देर की आज़ाद करने में
46-
फलों की डाल हैं झुकना तो तय था
मगर हम शाख से कटते रहे हैं
47-
रवायत इश्क़ की भाती नहीं है
जफ़ा की रस्म में उलझे रहे हम
48-
है भला क्या तेरी परेशानी
बावफ़ा जो हुआ नहीं जाता
49-
कैसे वादा निभाऊँ जीने का
तेरे बिन अब जिया नहीं जाता
50-
मिला कुछ इस तरह महबूब हमसे
जुदाई में ही हम अच्छे रहे हैं
51-
मंज़िलों के सफ़र में रस्ते भर
जान जाती है जान आती है
52-
अब किसी हाल में बेहाल नहीं होते हम
लोग इस बात पे हैरान हुए जाते हैं
53-
कतर डाले मेरे जब हौसलों के पंख उसने
बुलंदी आसमां की अब दिखाना चाहता है
54-55
वो मेरी रूह मसल देता है
साँस भी लूँ तो दख़ल देता है
उसको मालूम नहीं गम में भी
वो मुझे रोज ग़ज़ल देता है
56-
मैंने माँगा था उससे हक़ अपना
बस इसी बात पर खफ़ा है वो
57-
बेवज़ह बात क्यों बढ़ाते हो
हम गलत हैं तो तुम सही हो क्या
58-
इक मुहब्बत में हार बैठे हम
वर्ना तू क्या तेरी बिसात ही क्या
59-
कुछ दिन से मेरे शहर का मौसम है बदगुमां
गुमसुम हैं बागबान सभी गुल खिला नहीं
60-
कैसा विसाल आज है कोई गिला नहीं
पहले कभी वो आज तलक यों मिला नहीं
61-
वो मेरी ग़ज़लों का ही है हिस्सा
वो कहाँ ज़िन्दगी में शामिल है
62-
शाइरी जिसको कह रहे हैं सब
वो मेरी रूह का ही हिस्सा है



जौन ईलिया 'गुमान'और कुछ ग़ज़लें

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मजरूह सुल्तानपुरी ने जौनईलियाको शायरों का शायर कहा था. वे उर्दू में नासिर काज़मी के बाद दूसरे ऐसे शायर हैं जिनकी मकबूलियत मरने के बाद बढती गई है. सोशल मीडिया के जमाने में तो ऐसा लगता है कि बस वही एक शायर था जिसने आज के दौर के लोगों के दिल को समझा था, उनके दर्द को समझा था, मोहब्बत की तासीर समझी थी, उसका फ़साना समझा था. बहरहाल, देवनागरी में उनकी पहला दीवान 'गुमान'छ्पकर आया है. Anybookप्रकाशन से. किसी बड़े प्रकाशक के यहाँ से नहीं आया है. लेकिन यह दीवान एनीबुक ने जितना सुन्दर छापा है लगता नहीं है कोई बड़ा प्रकाशक इससे बेहतर छाप सकता था. बहरहाल, जौन की कुछ कम प्रचलित गजलों का लुत्फ़ उठाइए- मॉडरेटर 
============== 

1. 
दिल जो दीवाना नहीं आखिर को दीवाना भी था
भूलने पर उसको जब आया तो पहचाना भी था

जानिये किस शौक में रिश्ते बिछड़कर रह गए
काम तो कोई नहीं था पर हमें जाना भी था

अजनबी-सा एक मौसम, एक बेमौसम सी शाम
जब उसे आना नहीं था जब उसे आना भी था

जानिये क्यूँ दिल की वहशत दरमियाँ में आ गयी
बस यूँ ही हमको बहकना भी था बहकाना भी था

इस महकता सा वो लम्हा था कि जैसे इक ख़याल
इक जमाने तक उसी लम्हे को तड़पाना भी था

२.
काम की बात मैंने की ही नहीं
ये मेरा तौरे ज़िन्दगी ही नहीं

ऐ उमीद! ऐ उमीदे-नौ-मैदां
मुझसे मैयत तेरी उठ ही नहीं

मैं तो था उस गली का मस्त-खिराम1   1. मस्त चाल चलने वाला
उस गली में मेरी चली ही नहीं

ये सुना है कि मेरे कूच के बाद
उसकी खुशबू कहीं बसी ही नहीं

थी जो इक फाख्ता उदास-उदास
सुबह वो शाख से उड़ी ही नहीं

मुझमें अब मेरा जी नहीं लगता
और सितम ये कि मेरा जी भी नहीं

वो जो रहती थी दिल मोहल्ले में
फिर वो लड़की मुझे मिली ही नहीं

जाइए और ख़ाक उड़ाइए आप
अब वो घर क्या कि वो गली ही नहीं

हाय! वो शौक जो नहीं था कभी
हाय! वो जिन्दगी जो थी ही नहीं

3.
कर लिया खुद को जो तनहा मैंने
ये हुनर किसको दिखाया मैंने

वो जो था उसको मिला क्या मुझसे
उसको तो ख्वाब ही समझा मैंने

दिल जालान कोई हासिल तो न था
आखिरे-कार किया क्या मैंने

देखकर उसको हुआ मस्त ऐसा
फिर कभी उसको न देखा मैंने

इक पलक तुझसे गुजरकर ता-उम्र
खुद तेरा वक्त गुजारा मैंने

अब खड़ा सोच रहा हूँ लोगो
क्यों किया तुझको इकठ्ठा मैंने 

शिक्षक दिवस पर एक शिक्षक की ओर से पांच बातें

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आज शिक्षक दिवस है. आज युवा लेखक और शिक्षक शशिभूषणने विद्यार्थियों के लिए पांच बातें लिखी हैं- मॉडरेटर 
============== 
शिक्षक दिवस पर पाँच बातेंप्रिय विद्यार्थियो, मौका है कि शिक्षक दिवस पर मैं आपसे कुछ कहूँ। आप जानते हैं कि मैं आपसे कहता ही रहता हूँ। आपसे खूब बातें करना मुझे कितना पसंद हैं आप अच्छे से जानते हैं। इसलिए आज मैं आपसे अपनी कुछ कही हुई वही पुरानी बातें फिर कहता हूँ। आपको मेरी एक बात याद होगी कि यदि मौका खास हो तो दुहराई हुई बात चित्त पर चढ़ जाती है। तो शुरू करते हैं।पहली बात, आप में से कोई बच्चा नहीं है। आप हमारी नकल पर जब एक दूसरे को भी बच्चा कहते हैं, आकर बोलते हैं- सब बच्चे शोर कर रहे...तो मुझे हँसी आती है, अजीब लगता है, अफ़सोस भी होता है। आप सब बच्चे नहीं विद्यार्थी हैं। विद्यालय में जो आया वह विद्यार्थी। आप घर में बच्चे हैं। गलियों, कारखानों में बच्चे हैं। विद्यालय छोड़कर हर जगह बच्चे हैं। लेकिन विद्यालय में आप विद्यार्थी हैं और हम शिक्षक। जो इतनी छोटी उमर में इतनी कठिन बातें सीख ले रहा है। छह घंटे से ऊपर एक जगह टिककर रो नहीं रहा, चोरी चकारी और उपद्रव नहीं कर रहा वह बच्चा है? बिल्कुल नहीं। आप विद्यार्थी हैं। जो आपको बच्चा कहते हैं उन्हें देश के सब अवयस्क मनुष्यों को विद्यालय के बाहर सचमुच बच्चों का स्नेह देना चाहिए। उनकी देखभाल और रक्षा करनी चाहिए।दूसरी बात, शिक्षा कोई देता नहीं है। कोई सरकार इतनी अच्छी नहीं होती कि वह पूरी प्रजा को शिक्षित करना चाहे। यदि ऐसा हो गया तो वह सरकार का मुखिया राज नहीं कर पायेगा। आप क्या सोचते हैं द्रोण शिक्षा देते थे? हर्गिज़ नहीं। द्रोण ने एकलव्य को भगा दिया था। अर्जुन और पूरे हस्तिनापुर के विद्यार्थियों को गलत शिक्षा दी। यदि अर्जुन को सही शिक्षा मिली होती तो वह एकलव्य का साथ देता। कर्ण को एकलव्य के साथ जाना था। लेकिन वह दुर्योधन के लिए लड़ा। क्योंकि वह परशुराम का शिष्य और इंद्र का बेटा था। और आपने क्या सोचा कृष्ण ने अर्जुन को सही सिखाया? कोई लड़ना सिखाता है भला? कृष्ण को चाहिए था कि वे पहले ही सबको समझा देते। कोई ज्ञानी इस बात का इंतजार करता है कि एक सेना माँगने आये दूसरा मुझको? कभी नहीं। मतलब यह हुआ कि शिक्षा लेनी पड़ती है। खुद सीखना पड़ता है। कोई देता नहीं। रात-रात भर जागकर, दुनिया में भटककर, भूखे रहकर जानना पड़ता है। जो भी सच्चे विद्यार्थी रहे उन्होने दी गयी शिक्षा से संतोष नहीं किया। खुद जाना। तब कुछ कर पाये। नौकरी तो घूस देकर भी मिल जाती है। अच्छे काम बेईमानी से नहीं होते।तीसरी बात, आप क्या सोचते हैं हम गुरू हैं? बिल्कुल नहीं। हमने जो सीखा था उसे आपके मन में छपवा देने वाले मुनीम हैं। क्या हमारा गुरू हो जाना सरल है? कोई राजा हमें वह सिखाने देगा जो हमने अनुभव किया? जो सही है उसे सिखाने का कोई उपाय नहीं। मारे जायेंगे अगर सही सिखायेंगे। मैं आपको गणित लगाना बता सकता हूँ। पौधों का भोजन बनाना बता सकता हूँ। लेकिन वह हिसाब नहीं सिखाऊँगा कि राजा कितने प्रतिशत आपकी किताबें, विद्यालय और मध्यान्ह भोजन स्वयं खा लेता है। व्यापारी और नीतिकार मिलकर कैसे राजा का भोजन और बिस्तर बनाते हैं। यह बताने का कोई पाठ्यक्रम नहीं है। बताने की कोई जगह नहीं। मैंने भी यह चोरी से सीखा। किताबों और कुछ सज़ा पाये शिक्षकों से जाना। इसलिए हम गुरू नहीं हैं। ब्रह्मा तो खैर होना ही नहीं चाहते। आप हमारी हर बात से आगे निकलना। उसे जाँच लेना। क्योंकि आप बच्चे नहीं। किसी ने सिखा दिया बच्चा और आपने रट लिया। गलत बात है।चौथी बात, आप जानते हैं कि मैं नकल का विरोधी हूँ। नकल ठीक बात नहीं है। जानकारी उड़ाकर शिक्षकों के सामने टीपकर टॉप मार लेना सबसे गंदी बात है। जब कभी मेरिट में आना तो सोचना लाखों बच्चे पढ़ने के लिए रौशनी नहीं पा रहे। उनके पेट में अन्न नहीं मिलता जब पोस्टमार्टम होता है। दर्जनों विद्यार्थी मध्यान्ह भोजन खाकर मर जाते हैं। घरों में रौशनी नहीं। मिट्टी का तेल तक नहीं। माँ बीमार। पिता बेरोज़गार। भाई जेल में। बहन बेईज्जत। तुम्हारी उमर की लड़कियां स्कूल की दीवाल पर कंडे थाप रहीं। बच्चे पाल रहीं। उनके स्कूलों की हालत देख लो तो रात में बुरे सपनों से डर जाओ। उन्हें पछाड़ने के लिए तुम्हें नकल करने की ज़रूरत पड़ती है? कितने शर्म की बात है। कितने गंदे हैं वे मास्टर जो तुमसे यह करवाते हैं। अपना कालर ऊँचा रखने। छी छी। फेल हो जाना। मगर धोखादेह मेरिट में मत आना। फेल हो जाना बुरा नहीं है। खाली हाथ बैठना बुरा है। तुम पढ़ने से ज्यादा काम करो। अपने घर के हर काम में हाथ बटाओ। कोई सरकार अब रोज़गार नहीं देने वाली। किसी कंपनी की सेवा में मत लग जाना। सब मिलकर खून चूस लेंगे। प्राइवेट विद्यालयों में क्या होता है? जोंक हैं सबकी सब। बड़े होकर अच्छा समाज बनाना होगा। तब तक बड़ा दुख रहेगा। हार मानने से विदेश भाग जाने से यह नहीं हो पायेगा।पाँचवी बात, तुम खूब सोया करो। खूब खेलो। कार्यक्रमों में भाग लो, दुनिया भर में घूमने की सोचो। जो मर्ज़ी आये करो। बस बदतमीज़ी मत करो। बदतमीज़ी करते-करते विद्यार्थी अन्यायी हो जाता है। कोई विद्यार्थी जीवन में ही अन्यायी हो जाये या बना दिया जाये तो समाज को बड़े दुख उठाने पड़ते हैं। बड़े दंगे होते हैं। बड़े युद्ध और नरसंहार होते हैं। इंसान राक्षस हो जाता है। औरतों और गरीबों पर बड़े अत्याचार होने लगते हैं। अवसर पाकर कोई बड़ा बदतमीज़ उनका नेता बन जाता है। क्योंकि जिसे राज करना है वह हमेशा ताकतवर के मत का मालिक बनता है। एक बात याद रखना, कोई भगवान आता नहीं राजा को मारने। कृष्ण को एक बहेलिए ने मारा था। देश के कुछ अच्छे विद्यार्थियों को ही अन्यायी राजा का वध करने आगे आना पड़ता है। जो ताकत देश को संवारने में लगनी चाहिए वह दुष्टों का अंत करने में चली जाती है। दुनिया वैसी की वैसी गोल रह जाती है। इसलिए आपको कुछ नहीं सूझता तो सोकर देर से उठो मगर सुबह जल्दी उठकर विद्यालय मे आकर या विद्यालय से निकलकर बदतमीज़ी मत करो। आप भाग्यशाली हैं कि आपको पढ़ने का मौका मिला। खूब जानिए। खुद से जानिए। यदि मेरी बात ठीक न लगे तो मत मानिए। बोलना और पढ़ाना मेरा काम है। समझे? समझना और समझने की जीवन भर कोशिश करना विद्यार्थियों का असल काम है। मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम सब मेरी रक्षा करना। जैसे कि अब तक शिक्षकों की रक्षा करते आये हो।विद्यार्थियो, आपने मेरी पाँच पुरानी बातें इतने ध्यान से सुनी, कुछ लोगों ने मस्ती भी की इसके लिए धन्यवाद!शशिभूषण
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फेसबुक-डिबेट और फेसबुकिया सपने

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आजकल हिंदी वाले फेसबुक पर खूब डिबेट में लगे हुए हैं. अपने डॉक्टर व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झाका यह व्यंग्य-लेख इसी पर है- मॉडरेटर 
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प्रयाग में आज शास्त्रार्थ 'रिविजिटेड'का आयोजन है। रियैलिटी शो टाइप। मंच सजा है। 'राईट'की ओर 'मार्कण्डेय'लिखा है, 'लेफ्ट'की ओर लिखा है 'पिनाकी' 

मार्कण्डेय और पिनाकी कईयों को परास्त कर पहुँचे हैं, और आज फाइनल मुकाबला है। मार्कण्डेय की खासियत है शास्त्रार्थ से पूर्व ही विजयमाल पहन लेते हैं। सामने वाले को अपने विजयी मुस्कान से ही परास्त कर देते हैं। देखने में भी मोटे-ताजे खाते-पीते परिवार से हैं, और साथ में चेले-चपाटी भी बनारसी पंडों की तरह पान घुलटते मुस्कियाते। 

पिनाकी ठीक विपरीत लौंगिया मिर्च। पतले से फनफनाते हुए। उनकी फौज भी चश्माधारी दढ़ियलों की है। साक्ष्य और तर्क जेब में लिये घूमते हैं। कई सूरमाओं को तीखी आँखों से ही परास्त कर देते हैं। मंच पर अपने सिंहासन-नुमा कुर्सी पर पिनाकी विराजे तो नीचे फर्श पर बैठे लोगों को लगा जैसे कूद कर कोई बिल्ली जा बैठी हो।

मार्कण्डेय हाथ हिलाते अपने दल के साथ आये। पिनाकी ने नैपथ्य में पूछा, "कौन?"

"वही जिसने तुम्हें सोमनाथ में परास्त किया था।"

"अच्छा मार्कण्डेय! वो समय और था, लोग तुम्हारे थे। तर्क से नहीं, हुड़दंगी से जीते तुम।"

"लोग तो आज भी हमारे हैं। आज भी तर्क पर जुमले भारी हैं गुरू। भई, किधर रखी है विजयमाला? मैं पहले धारण कर लूँ।"

और मार्कण्डेय जा बैठे सिंहासन पर माला पहन। बैठ क्या गये, आधे लेटे मुद्रा में टिक गए। प्रतीत हुआ साक्षात् विष्णु पान चबा रहे हैं। 

आयोजकों ने चिट उठाने को कहा। चिट से शास्त्रार्थ का मुद्दा चुना जाना था। बिना किसी टॉस के मार्कण्डेय ने लपक कर उठा लिया। पिनाकी निर्विकार बैठे रहे। 

"भाई ये गलत है। चिट कॉमरेडों ने बनायी है। साला पिनाकी! पहले आकर मैच-फिक्सिंग कर रहा था?"

"निकला क्या है, ये तो बताओ?"

"वही घिसा-पिटा। 'जातिवाद'। पक्का सेटिंग है। ये तुम्हारा फेवरिट टॉपिक है।"

"तो चिट बदल लो।"पिनाकी ने चवन्नियाँ मुस्कान देकर कहा।

"मार्कण्डेय ने आज तक न कभी चिट नहीं बदला, न आज बदलेगा। लाओ कहाँ है हस्ताक्षर करना?"

मार्कण्डेय और पिनाकी दोनों ने हस्ताक्षर करे।

"साले! तुमलोग हस्ताक्षर भी बायें हाथ से करते हो?"मार्कण्डेय ने चुटकी ली, तो दर्शक-दीर्घा में ठहाके। दर्शक क्या थे? आधे तो मार्कण्डेय के मवाली, और आधे बिन पेंदी के लोटे। 

खैर, शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। 

"देखिये, जातिवाद तो संवैधानिक रूपेण समाप्त है और सभी एक समान हैं। ये टॉपिक ही निराधार है।"मार्कण्डेय ने सिंहासन से उठकर कहा और धम्म से बैठ गए।

"मार्कण्डेय जी को संविधान का कोई ज्ञान नहीं। फलाँ आर्टिकल, फलाँ पृष्ठ..."पिनाकी ने तर्कों की झड़ी लगा दी। 

मार्कण्डेय को गहरी नींद आ गई, खर्राटे मारने लगे तो पिनाकी चुप हुए।

"अरे गुरू! उठो! अब आपकी बारी है।"चेलों ने मार्कण्डेय को जगाया।

"कौन जात हो पिनाकी तुम?"मार्कण्डेय नींद से उठ ऐसे हड़बड़ा कर बोले, जैसे नींद में एन.डी.टी.वी. देख रहे थे।

"ये कोई मायने नहीं रखता। आप तर्क करें।"

"जात मायने नहीं रखता न? हो गई बात खत्म। लाओ जी कोई कप-ट्रॉफी वगैरा भी है कि बस माला ही पहना के भेजोगे?" 

दर्शकों की तालियाँ गूँजने लगी। किलकारियाँ होने लगी। मार्कण्डेय की सेना टपोरियों की तरह नाचने लगी।

"देखिए! ये कुतर्क है। मार्कण्डेय हुड़दंगी है। जातिवाद एक अभिशाप है। गुजरात....।"पिनाकी फनफनाते रहे। उनकी सेना आजादी के नारे लगाने लगी, पर मार्कण्डेय का जुमला तुरूप का पत्ता था। हिट हो गया था। 

मार्कण्डेय जीभ निकाल कर फूहड़ हँसी हँस कर पिनाकी को चिढ़ाने लगे। 

पिनाकी ने क्रोध में हुंकार भर ली। कुछ मंतर पढ़ने लगे। 

घोर गर्जन। आसमान का रंग खालिस लाल हो गया। बादल फट पड़ा। और पिनाकी के हाथ कलयुग का ब्रह्मास्त्र आ गया - "ब्लॉकास्त्र"।

और पिनाकी ने मार्कण्डेय को ब्लॉक कर दिया।


विकट स्तिथि है। आजकल ये फेसबुक-डिबेट देख-देख कर स्वप्न भी फेसबुकिया हो गए हैं। 


विनोद भारद्वाज की कुछ कविताएँ

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1.   एक तरफ हिंदी के बड़े प्रकाशक यह कहते हैं कि हिंदी में कविता की किताबें नहीं बिकती हैं. दूसरी तरफ, हिंदी के नए-नए प्रकाशक कविता की किताब बड़े प्यार से छापते हैं. अभी हाल में ही Anybook प्रकाशन ने जौन इलिया का दीवान  छापा है. मेरे हाथ में फिलहाल copper coin प्रकाशन से प्रकाशितविनोद भारद्वाजका कविता संग्रह 'होशियारपुर'है. विनोद जी हिंदी में सिनेमा पर बेहतरीन लिखने वाले विद्वानों में रहे हैं. लेकिन उन्होंने लेखन की शुरुआत कविताओं से ही की थी. बहुत दिनों बाद उनकी सम्पूर्ण कविताएँ एक जिल्द में आई हैं. उसी संग्रह से कुछ कविताएँ- मॉडरेटर 
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1. 
उदास आँखें

जब तुम्हारी उदास आँखों को
देखता हूँ
तो लगता है कि आज ईश्वर को किसी ने
परेशान किया है
जब तुम्हारी उदास आँखों को
देखता हूँ
तो अमृत के किसी हौज में
कोई कंकड़ कहीं से उछलता है
आकर गिरता है.
तुम्हारी उदास आँखों में
दुनिया भर की सुन्दरता का दर्द है
भय है
नजाकत है तुम्हारी उदास आँखों में
तुम रोने के बाद
आईने में जब देखती हो
तो माफ़ कर देती हो इस दुनिया को
तुम चुपचाप एक कोने में
सिमटकर बैठ जाती हो
जब तुम्हारी उदास आँखों को देखता हूँ
डरता हूँ
काँपता हूँ
फिर ईश्वर की तरह चाहता हूँ
इन उदास आँखों को
इन आँखों के पीछे
कई सारी आँखें हैं
क्षण भर के लिए उदास
क्षण भर के लिए बहुत पास
इन उदास आँखों को देखता हूँ
तो लगता है कि
ईश्वर को किसी ने गहरी नींद से
जगाया है
कि देखो दुनिया कितनी उदास हो चुकी है

२.
आंच

मेरी आँखों में आग है
तुमने बहुत ख़ामोशी में कहा
इसकी तेज आंच
कहीं तुमको तपस्वी न बना दे

3.
सच्चाई

एक ख़ूबसूरत-सी ख़ामोशी में तुमने
कहा
मेरी आँखों में ढेर सारी सच्चाईयां हैं
तुम अपनी आँखों से ताकत का नशा
और झूठ के परदे उतारो
तो वे चमक जाएँगी

4.
छलांग

तुम कह रहे हो
तुमने उससे सचमुच प्रेम किया
नेरुदा की प्रेम कविताएँ उसे सुनाई
केदारनाथ सिंह की कविताएँ भी उसे सुनाते थे
फिर वह पीड़िता कैसे बन गई तुम्हारी
नहीं सर, आपसे मैं सहमत हूँ
यह धरती पीड़िताओं से भरी पड़ी है
मैं भ उनके लिए लड़ता रहा हूँ
पर आप एक बार सोचिये तो सही
इस धरती पर क्या कोई पीड़ित नहीं हो सकता है?
यह कहते कहते उसने छलांग लगा दी
ठंढ की उस अजीब रात में
उसका लाल मफलर अँधेरे में उड़ता रहा.

५.
ठंढ

इस बार ठंढ में
एक इच्छा है
शकरकांड खाने की
आग में उसे तपता हुआ देखने की

घर जाने की. 

प्रकाशक- copper coin, 
www.coppercoin.co.in

गैब्रियल गार्सिया मार्केस की कहानी 'संत'

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मदर टेरेसा को संत की उपाधि दी गई तो स्पैनिश लेखक गैब्रियल गार्सिया मार्केसकी कहानी 'सेंट'की याद आई. अंग्रेजी की प्राध्यापिका और वरिष्ठ लेखिका विजय शर्माने इस कहानी का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया है. आज पढियेगा- मॉडरेटर 

बाइस वर्ष बाद ट्रास्टवेयरे की पतली रहस्यमयी गलियों में से एक में मार्गरीटो डुआर्ट को देखा। उसे पहचानने में पहले मुझे मुश्किल हुई क्योंकि वह टूटी-फ़ूटी स्पैनिश बोल रहा था और देखने में एक बूढ़ा रोमन लग रहा था। उसके बाल काफ़ी झड़ चुके थे और सफ़ेद हो गए थे। उसके ऐंडियन बुद्धिजीवी तौर-तरीके और सूतक के जिन कपड़ों में वह पहले-पहल रोम आया था उनका कहीं नामो-निशान नहीं बचा था। हमारी बातचीत के दौरान मैं उसे धीरे-धीरे उन बीस वर्षों में से निकाल लाया जिसमें निर्मम समय ने उसके साथ अन्याय किया था। तब मैंने उसे उसी रूप में देखा जैसा वह था; रहस्यमय, अप्रत्याशित और पत्थरकट्ट की भाँति दृढ़। अनेक बार में से एक में बैठ कर पुराने दिनों की तरह ही दूसरा कप कॉफ़ी पीने से पहले मैंने उससे वह प्रश्न पूछने की हिम्मत की जो भीतर-ही-भीतर मुझे कुरेद रहा था।
“संत के साथ क्या हुआ?”
“संत यहीं है इंतजार में।” उसने उत्तर दिया।
हमें वर्षों से उसकी कहानी इतनी अच्छी तरह मालूम थी कि गायक राफ़ेल सिल्वा और मैं ही उसके उत्तर की मानवीय पीड़ा को समझ सके। मैं सोचता था कि मार्गरीटो डुआर्ट एक ऐसा चरित्र था जो एक लेखक की खोज में था, जिसका हम कहानीकार ताजिंदगी इंतजार करते हैं। मैंने कभी उसे मेरा उपयोग नहीं करने दिया क्योंकि अंत में उसकी कहानी कल्पनातीत लगती थी।
वह उस खिले हुए वसंत में रोम आया था जब पोप पायस द्वादश हिचकियों के हमले से ग्रसित था, हिचकियाँ जो न तो डॉक्टरों की अच्छी-बुरी कलाओं से ठीक हो रही थीं, न ही झाड़-फ़ूँक के जादूई इलाज से। कोलंबियन ऐंडीज की ऊँचाई पर स्थित टोलीया गाँव से वह पहली बार बाहर आया आय था। यह एक सच्चाई थी जो उसके सोने के तरीके तक में नजर आती थी। एक सुबह वह अपने हाथ में वायलिन केस के आकार-प्रकार का पॉलिस किया हुआ पाइन का बक्सा लिए हुए हमरे कॉन्सुलेट में नमूदार हुआ और उसने कॉन्सल को अपनी यात्रा का आश्चर्यजनक कारण बताया। कॉन्सल ने अपने देशवसी गायक राफ़ेल रिबेरो सिल्वा को फ़ोन किया कि जहाँ हम दोनों रह रहे हैं उसी छात्रावास में उसके रहने का भी इंतजाम कार दें। इस तरह मैं उससे मिला।
मार्गरीटो डुआर्ट प्राइमरी स्कूल से आगे नहीं बढ़ा था पारंतु लिखने-पढ़ने के उसके व्यवसाय के कारण जो भी छपा हुआ उसके हाथ लगा उसने उसे बड़े उत्साह से पढ़ा। अट्ठारह वर्ष की आयु में जब वह गाँव में क्लर्क था उसने एक खूबसूरत लदअकी से शादी की, जो उनकी पहली संतान एक अब्च्ची को जन्म देने के तत्काल बाद मर गई। अपनी माँ से भी अधिक खूबसूरत वाह बच्ची भी सात साल की उम्र में बुखार से मर गई। परंतु मार्गरीटो डुआर्ट की कहानी असल में उसके रोम पहुँचने के छ: महीने पूर्व प्रारंभ हुई। एक बाँध निर्मण के सिलसिले में उसके गाँव की कब्रगाह उस स्थान से विस्थापित करने की जरूरत पड़ी।
इलाके के सभी निवासियों की भाँति मार्गरीटो डुआर्ट ने भी अपने मृतकों को नई कब्रगाह में ले जाने के लिए खोद निकाला। उसकी पत्नी मिट्टी बन चुकी थी परंतु उसकी बगल वाली लड़की ग्यारह सालों के बाद भी ज्यों-कि-त्यों थी। असल में जब उन्होंने ताबूत खोला तो उनके नथुनों में उन ताजा कटे गुलाबों की खुशबू भर गई जिनके साथ उसे दफ़नाया गया था। सब से ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह थी कि लड़की के शरीर में कोई भार न था।
चमत्कार की गूँज से सैंकड़ों उत्सुक गाँव में उमड़ पड़े। इस विषय में कोई शंका न थी, शरीर की अक्षयता उसके संत होने की असंदिग्ध निशानी थी और यहाँ तक कि डायोसीज के बिशप ने स्वीकारा कि ऐसे विलक्षण चमत्कार को वतिकान के फ़ैसले के लिए दर्ज किया जाना चाहिए और इसके लिए उन्होंने जनता से चंदा उगाहा ताकि मार्गरीटो डुआर्ट रोम की यात्रा कर सके और इस निमित्त के लिए जद्दोजहद करे जो अब केवल उसका नहीं था, न ही केवल गाँव की सीम में संकुचित था वरन एक राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका था।
शांत पारीओली जिले के छात्रावास में जब वह हमें अपनी कहानी सुना रहा था, मार्गरीटो डुआर्ट ने ताला खोला और उस सुंदर बक्से का ढ़क्कन उठाया। इस तरह गायक राफ़ेल रिबेरो सिल्वा और मैं उस चमत्कार के साझीदार बने। संसार के बहुत से संग्रहालयों में दीखने वाली सूखी ममी (शव) की तरह वह नहीं दीखती थी। एक छोटी बच्ची जिसने दुल्हन की पोशाक पहन रखी हो और जो एक लंबे समय से जमीन के भीतर सो रही हो, वह ऐसी ही लगती थी। उसकी त्वचा चिकनी और नरम थी, उसकी खुली आँखें स्वच्छ थीं और ऐसा लगता था कि वे मृत्यु के पार से हमारी ओर देख रही हों, जिसे सहन करना कठिन था। उसके मुकुट में साटिन और नारंगी के जो कृत्रिम फ़ूल लगे थे उन्होंने समय की मार झेली थी, उसकी त्वचा ने नहीं। परंतु उसके हाथ में जो गुलाब के फ़ूल रखे गए थे वे अब तक ताजा थे। यह एक सच्चाई थी कि जब हमनें शरीर संदूक से हटा दिया तब भी संदूक के भार में कोई बदलाव नहीं आया।
पहुँचने के अगले दिन से मार्गरीटो डुआर्ट ने अपनी बातचीत प्रारंभ कर दी। पहले-पहल डिप्लोमेटिक असिस्टेंट के साथ जो दयालु ज्यादा, कुशल कम था। और फ़िर उसने वतिकान के रचाए गए अनगिनत चक्रव्यूहों की घेराबंदी के प्रत्येक दाँवपेंच से बात की।वह अपने उठाए गए प्रत्येक कदम में सदैव बड़ा गंभीर था लेकिन हमें मालूम था कि वतिकान के घेरे अनगिनत थे और कोई लाभ नहीं होने वाला था। उसने सब धार्मिक सभाओं और जो भी मानवीय संघ मिला उनसे संपर्क साधा। वे बड़े ध्यान से उसकी बात सुनते परंतु कोई आश्चर्य नहीं कि तत्काल कदम उठाने के लिए किए गए वायदे कभी पूरे नहीं होते। सच्चाई यह थी कि यह समय बहुत अनुकूल था भी नहीं। प्रत्येक वह कार्य जिसमें पोप के पवित्र दर्शनों की आवश्यकता थी, तब तक के लिए मुल्तवी कर दिया गया था जब तक पोप की हिचकियों का दौर बंद न हो जाए। जो न केवल विशेषज्ञों का प्रतिरोध नहीं कर रही थीं बल्कि समस्त संसार से भेजे जा अर्हे प्रत्येक प्रकार के जादू-टोनों को भी बेअसर करे हुए थीं।
आखीर में जब जुलाई महीने में पोप पायस द्वादश स्वस्थ हुए और अपने ग्रीष्मकालेन अवकाश के लिए कैसल गैंडोल्फ़ो चले गए। मार्गरीटो डुआर्ट संत को साप्ताहिक दर्शन के लिए इस आशा के साथ ले गया कि वह उसे पोप को दिखा सकेगा। पोप भीतरी सहन की एक इतनी नीची बाल्कनी पर आए जहाँ से मार्गरीटो डुआर्ट उनके नाखून की चमक और लैवेंडर की सुगंध पा सका। संसार के प्रत्येक देश से आए पर्यटकों के बीच उन्होंने विचरण नहीं किया जैसा कि मारग्रीटो डुआर्ट ने आशा की थी। परंतु छ: भाषाओं में एक ही कथन बार-बार दोहराया गया और सार्वजनिक आशीर्वाद के साथ पोप ने अपना दर्शन समाप्त किया।
बहुत विलंब के बाद मार्गरीटो डुआर्ट ने बात अपने हाथ में लेने का निश्चय किया और उसने लगभग साठ पन्नों का एक पत्र सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट को लिखा, परंतु कोई जवाब नहीं आया। उसे यही अंदेशा था, क्योंकि जिस कार्यकर्ता ने सारी औपचरिकता के सथ उसका हस्तलिखित पत्र लिया था उसने मृत लड़की पर एक सरसरी नजर डालने के अलावा उसे किसी और योग्य नहीं समझा था। पास से गुजरते क्लर्कों ने उसे बिना किसी रूचि के देखा था। उनमें से एक ने बताया था कि पिछले वर्ष उन लोगों ने साबुत शवों को संत का दर्जा देने के संबंध में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आठ सौ से ज्यादा पत्र पाए थे। अंत में मार्गरीटो डुआर्ट ने याचना की कि शरीर की भारहीनता की पुष्टि की जाए। अधिकारियों ने जाँच की परंतु उसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया।
“यह सामूहिक सम्मोहन का मामला है।” उन्होंने कहा।
ग्रीष्म के शुष्क इतवारों को अपने थोड़े से बचे समय में वह अपने कमरे में रहता और इस विषय पर जो भी साहित्य उपलब्ध होता उसे घोंटता रहता। प्रत्येक माह के अंत में, अपने खर्चे की विस्तृत गणना एक विशिष्ट क्लर्क की खास लिपि में दर्ज करता और अपने गाँव के दानकर्ताओं को सात्र्कता और नवीनतम जान्कारियों के साथ भेजता। साल खतम होने के पहले उसे रोम की समस्त भूल-भुलैया ज्ञात हो गई थी। ऐसा लगता था मानो वह यहीं जनमा हो। वह अपनी ऐंडियन स्पैनिश के लहजे में फ़र्राटेदार इटैलियन बोलने लगा था और संत घोषित किए जाने की प्रक्रिया (कैनेनाइजेशन) के बारे में सब कुछ जान गया था। लेकिन उसे अपने सोग वाले कपड़े, वेस्ट और मजिस्ट्रेट का हैट बदलने में काफ़ी समय लगा जो खुल कर न बताने वाली रहस्यमय उद्देश्य वाली सोसाइटी के प्रतीक थे। वह कभी-कभी संत वाला बक्सा ले कर अत्ड़के निकल पड़ता और गई रात थका-उदास लौटता। परंतु सदैव अगले दिन के लिए उत्साह की चमक से भरा रहता।
“संत का अपना खास समय होत है।” वह कहता।
यह रोम में मेरा पहला अवसर था जहाँ मैं एक्सपैरिमेंटल फ़िल्म सेंटर में पढ़ रहा थ, मैंने सघन संवेदना के साथ उसकी यंत्रणा को जीया।
हमारा छात्रावास विला बोर्गीस से कुछ कदम की दूरी पर एक आधुनिक अपार्टमेंट था। मालकिन स्वयं दो कमरों में रहती थी और उसने चार कमरे विदेशी छात्रों को किराए पर उठाए हुए थे। हम उसे बेला मारिया पुकारते थे। अपना वसंत बीत जाने पर भी वह गजब की सुंदरी और तुनक मिजाज थी। वह इस नियम में विश्वास करती थी कि प्रत्येक इंसान अपने कमरे का बादशाह होता है। मगर वास्तव में उसकी बड़ी बहन बिना पंखों वाली एक फ़रीश्ता ऑन्ट एंटनिटा रोजमर्रा की सारी मुसीबतें उठाती थी। वह घंटों-घंटों उसके लिए काम किया करती, दिन भर लकड़ी की बाल्टी में पानी और ब्रश लिए अपार्टमेंट में घूमती, संगमरमर के फ़र्श को शीशे सा चमकाती। उसी ने हमें नन्हीं साँग बर्ड खाना सिखाया, जो उसका पति बरटोली, युद्ध की बुरी लत के कारण पकड़ लाता था। जब मार्गरीटो डुआर्ट बेला मारिया का किराया चुकाने में असमर्थ रहा तो उसी ने उसे अपने घर में शरण दी।
बिन अनियमों वाला घर मार्गरीटो डुआर्ट के स्वभाव के मुआफ़िक नहीं था। प्रत्येक घंटे हमारे लिए कोई-न-कोई अचम्भा इंतजार करता रहता, यहाँ तक कि भोर में जब हम विला बोर्गीस के चिड़ियाघर के शेर की दहाड़ के साथ जागते। गायक रिबेरो सिल्वा को विशेषाधिकार प्राप्त था। रोमन भी उसके सुबह के रियाज का बुरा नहीं मानते। वह छ: बजे सुबह उठ कर बर्फ़ीले ठंडे औषधीय स्नान करता, अपनी बकरा दाढ़ी-मूँछें संवार कार ऊनी चारखाने वाले कपड़े, चाइनीज सिल्क का स्कार्फ़ पहनता और अपना खास इत्र लगा कर वाह तन-मन से रियाज में जुट जाता। जब शरत ऋतु के तारे आकाश में जगमगा रहे होते तब भी वह अपनी खिड़की खोल रखता। गरमाने की हद तक वह अपने खुले गले की पूरी ताकत से महान प्रेम की तान लेता। रोजाना जब वह पंचम सुर में डो’ का आलाप लेता तभी विला बोर्गीस का शेर पृथ्वी कंपाने वाली अधाड़ से उसका उत्तर देगा ऐसी सब की अपेक्षा रहती।
“तुम सच में सेंत मार्क के अवतार हो प्यारे!” ऑन्ट एंटोनिटा आश्चर्य के साथ घोषित करती। “केवल वही शेरों के साथ बात कर सकता है।”
यह शेर नहीं था जिसने एक सुबह उत्तर दिया। गायक ने ओटेलो’ से एक युगल प्रेम गीत की तान छेड़ी और नीचे आँगन से एक मधुर पंचम सुर में उत्तर सुनाई दिया। गायक ने रियाज जारी रखा और पड़ौसियों को प्रसन्न करते हुए उन्होंने पूरा गाना गाया। लोगों ने उस प्रचंड प्रेम धार के लिए अपनी-अपनी खिड़कियाँ खोल दीं। गायक करीब-करीब बेहोश हो गया जब उसे ज्ञात हुआ कि उसकी अदृश्य डेस्डोमोना और कोई नहीं स्वयं महान मारिया कनोग्लिया थी।
मुझे ऐसा लगता है कि इस कड़ी ने मार्गरीटो डुआर्ट को इस घर के जीवन से जोड़ने का सटीक कारण दे दिय। तब से वह हमारे सथ टेबल पार बैठने लगा। पहले वह रसोई में बैठता था। जहाँ प्रतिदिन ऑन्ट एंटोनिटा उसे साँग अब्र्ड का स्टू देती थी। जब भोजन समाप्त हो जाता, हमें इटैलियन सिखानी की गरज से बेला मारिया अखबार जोर-जोर से पढ़ती और खबरों पर टिप्पणी भी करती चलती, जो हमारी जीवन में रस घोलता। एक दिन उसने हमें बताया कि पॉलेर्मो शहर में एक बहुत विशाल म्युजियम है जहाँ पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के अक्षय शव रखे हुए हैं और यहाँ तक कि बहुत से बिशप के भी जो उसी कपुचिन कब्रगाह से हटाए गए थे। इस खबर से मार्गेरीटो डुआर्ट इतना विचलित हो गया कि जब तक हम पॉलेर्मो नहीं गए उसे चैन नहीं पड़ा। परंतु उसके निर्णय के लिए उन विषादजनक गैलरियों की उदास ममी पर एक नजर डालना काफ़ी था।
“ए वो बिल्कुल नहीं हैं,” उसने कहा। “कोई भी बता सकता है कि ये मरे हुए हैं।”
दोपहार अपने अगस्त महीने के आलस्य में डूब जाती। दोपहार का सूर्य मध्य आकाश में अटका जड़ा रहता और दो बजे की नीरवता में केवल पानी की आवाज सुनाई पड़ती, जो रोम की नैसर्गिक ध्वनि है। लेकिन जब सात बजे ठंडी हवा चलने लगती तो खिड़कियाँ खुल जातीं, और छतों के ऊपर फ़ूलों के बीच प्रेम गीतों के स्वरों के मध्य बिना किसी उद्देश्य एक खुशनुमा भीड़ मात्र जीने के लिए सड़क पर उमड़ पड़ती।
गायक और मैं झपकी नहीं लेते थे। हम वेस्पा पर सवारी करते, मैं पीछे बैठता और वह चलाता। हम विला बोर्गीज की सदियों पुरानी लॉरेल की छाया में जागे हुए राहगीरों का चमकते हुए सूर्य में इंतजार करती थिरकती नन्हीं वेश्याओं के लिए बर्फ़ और चाकलेट लाते। उन दिनों की अधिकाँश इटैलियन औरतों की तरह वे सुंदर, गरीब और प्यारी थीं। वे नीली ऑर्गंडी, गुलाबी पॉपलीन, हरी लीनेन पहनती और हाल के युद्ध की गोलियों की बौछार से फ़टे हुए पारासोल की सहायता से स्वयं को धूप से बचातीं।
उनके साथ रहना एक खास तरह की खुशी थी क्योंकि वे धंधे के नियमों को नजर अंदाज कर हमारे साथ बार के एक कोने में बैठ कर कॉफ़ी पीने और बातें करने के लिए अपने धनी ग्राहकों को छोड़ देतीं, या फ़िर वे हमारे साथ बग्घी में बैठ कर पार्क का चक्कर लगातीं, हमें अपदस्त बादशाहों और उनकी अर्खैलों की बातें बता कर दयाद्र करतीं जो गोधूलि में घोड़े की पीठ पर बैठ कर गेलेपोशियो का चक्कर लगाते थे। कई बार हम उनके दुभाषिए बनते, जब कोई विदेशी बहक जाता।
हमारा मार्गरीटो डुआर्ट को विला बोर्गीज लाने का करण वेश्याएँ नहीं थीं। हम चाहते थे कि वह शेर देखे। शेर छोटे से टापू में बिना पिंजड़े के खुला रहता था और हमें दूर से देखते ही उसने दहाड़ना शुरु कार दिया। इतनी बेचैनी से कि उसका रखवाला चकित हो गया। पार्क में घूमने आए लोग आश्चर्य से जमा हो गए। गायक उसे अपनी सुबह वालीडो’ के द्वारा आकर्षित करना चाहता था पारंतु शेर ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह हम सब पर दहाड़ रहा था। फ़िर भी उसका रखवाला तुरंत जान गया कि वह केवल मार्गरीटो डुआर्ट के लिए दहाड़ रहा था। जिधर वह घूमता, शेर भी उधर घूम जाता और जब वह ओझल हो जाता तो शेर दहाड़ना बंद कर देता। उसक अरखवाला क्लासिकल लिटरेचर में सियोन यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट था, उसका मानना था कि मार्गरीटो डुआर्ट उस दिन दूसरे शेरों के साथ था और अपने संग उनकी गंध लाया था। रखवाला इस अतार्किक तर्क की कोई और व्याख्या नहीं सोच पा रहा था।
“खैर, यह दहाड़ सहानुभूति की है, युद्ध की नहीं।” उसने कहा। इस अलौकिक एपीसोड से गायक रिबेरो सिल्वा को उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना मार्गरीटो के सम्भ्रमित होने से हुआ। जब वे पार्क में लड़कियों से बात करने के लिए रुके। गायक ने टेबल पार इस बात का जिक्र किया और हम सब सहमत हो गए – कुछ शैतानी से और कुछ सहानुभूति से – मार्गरीटो डुआर्ट के अकेलेपन को दूर करने का विचार अच्छा है। हमारे दयालु विचार से द्रवित बेला मारिया ने अपने मातमही जैसे सीने पर नकली पत्थरों की अँगुलियों से भरे अपने हाथ दबाए।
“मैं, मैं यह फ़ोकट में करती। लेकिन मैं वेस्ट पहनने वाले आदमी बरदाश्त नहीं कर सक्ती।” वह बोली।
और इस तरह गायक अपने वेस्पा पार दोपहर दो अब्जे विला बोर्गीज गया और एक नन्हीं तितली को ले कर लौटा। उसे लगा कि वह मार्गरेटो डुआर्ट को एक घंटे अच्छा साथ देगी। गायक के कहने पार उसने गायक के कमरे में अपने काप्ड़े उतारे। गायक ने उसे खुशबूदार साबुन से नहलाया, पोंछा, अपने खास कोलोन से उसे महकाया और उसके सारे शरीर पर कर्पूर वाला आफ़्टर शेव पाउडर छिड़का। फ़िर उसने इस एक घंटे तथा एक और घंटे की कीमत अदा की एवं क्या-क्या करना है उसे बताया।
झपकी के स्वप्न की मानिन्द नग्न सुन्दरी ने छायादार घर में पंजों के बल चलते हुए बेडरूम के पिछले दरवाजे पर दस्तक दी। नंगे पैर, नंगे बदन मार्गरीटो डुआर्ट दरवाजे पर आया।
“नमस्कार,” उसने एक स्कूली लड़की की अदा और स्वर में कहा, “मुझे गायक ने भेजा है।”
बड़ी शान के साथ मार्गरीटो डुआर्ट ने इस हादसे को पचाया। लड़की के अंदर आने के लिए उसने दरवाजा खोल दिया। वह बिस्तर पर लेट गई। इस बीच शर्ट औअर जूते पहनते हुए वह तेजी से अंदर गया ताकि लड़की का पूरे सम्मान के साथ स्वागत कर सके। फ़िर वह उअस्की बगल वाली कुर्सी पर आ कर बैठ गया और बातचीत करने लगा। परेशान लड़की ने कहा कि वह जल्दी करे क्योंकि उनके पास मात्र एक घंटा है पर लगता नहीं कि वह इस बात को समझा। अगर वह चाहता तो वह सारा वक्त उसके साथ गुजारती और एक सेंट भी नहीं लेती। ऐसा लड़की ने बाद में बताया। क्योंकि उसे लगा कि इतना अच्छा व्यवहार कार्ने वाला इस दुनिया का हो ही नहीं सकता है। क्या करना है इसे नहीं जानते हुए लड़की ने इस बीच पूरे कमरे में चारों ओर नजर दौड़ाई। और फ़िर फ़ायरप्लेस के पास रखे लाक्ड़ी के केस पर उसकी दृष्टि पड़ी। उसने मार्गरीटो डुआर्ट से पूछा क्या वह सेक्सोफ़ोन है। मार्गरीटो डुआर्ट ने जवाब नहीं दिया लेकिन खिड़की का परदा सरका दिया ताकि थोड़ी रोशनी आ सके, वह केस बिस्तर के पास उठा लाया और उसने उसका ढ़क्कन उठा दिया। लड़की ने कुछ कहने की कोशिश की पर उसके खुले जबड़े लटक गय। या जैसा कि उअस्ने बाद में हमॆं बताया कि वह दहशत से चीख कर भागी। लेकिन हाल में वह रास्ता भटक गई और ऑन्ट एंटनिटा से जा टकराई जो मेरे कमरे का बल्ब बदलने आ रही थी। वे दोनों इतना डरी हुई थीं कि लड़की ने सारी रात गायक का कमरा नहीं छोड़ा।
ऑन्ट एंटनिटा को कभी पता नहीं चला कि क्या हुआ था। वह इतनी भयभीत थी कि उससे मेरे लैम्प का बल्ब नहीं बदला जा रहा था। उसके हाथ काँप रहे थे। मैंने पूछा, क्या हुआ?
“इस घार में भूत बास्ते हैं,” उसने कहा, “अब दिन-दहाड़े घूमते हैं।”
पक्के विश्वास के साथ उसने मुझे बताया कि युद्धकाल में एक जर्मन ऑफ़ीसर ने अपनी रखैल का गला उसी कमरे में काट डाला था, जिसमें गायक रहता है। जब ऑन्ट एंटोनिटा काम करती इधर-उधर जाती है अक्सर उस बेचारी का भूत कॉरीडोर में मिलता है। मैंने अभी-अभी हॉल में उसे नंगी चलते हुए देखा है,” वह बोली, “वह वही थी।”
शहर ने पतझड़ की दिनचर्या पकड़ ली थी। हवा के पहले झोंकों के साथ गर्मी की फ़ूलों वाली छतें बंद हो गई थीं। और गायक तथा मैं अपने ट्रास्टवेयरे के पुराने अड्डे पर लौट आए जहाँ काउंट कारलो कैल्काग्नि के जोर-जोर से बोलने वाले छात्रों और मेरे फ़िल्म स्कूल के कुछ सहपाठियों के साथ हम रात का भोजन करते। इनमें हमारे सबसे नजदीक लाकिस था जो बुद्धिमान और दोस्ताना व्यवहार कार्ने वाला यूनानी था। सामाजिअक न्याय पर उबाऊ भाषण देना जिसकी एकमात्र कमजोरी थी। यह महारा सौभाग्य था कि गायक और वादक सदैव उसे गानों के चयन से चित्त कर देते, जिसे वे पूरा गला फ़ाड़ कर गाते, जिससे आधी रात के बाद भी कोई परेशान नहीं होता। उल्टे कोई-कोई देर रात का मुसाफ़िर उनसे सुर मिलाता और वाहवाही के लिए पड़ौसी खिड़कियाँ खोल देते।
एक रात जब हम गा रहे थे, हमारे गाने में बाधा न पड़े इसलिए मार्गरीटो डुआर्ट दबे पाँव आया। वह पाइन केस लिए हुए था। उस दिन वह संत को लैटरानो में सैन गिओवानी के पेरिस प्रीस्ट को दिखाने ले गया था, जिसके विषय में माना जाता था कि उसकी होली कॉन्ग्रगेशन में अच्छी पहुँच है। लौटने पर उसे संत को छात्रावास में रखने का वक्त नहीं मिला था। मैम्ने कान्खी से देखा कि उसने केस को दूर एक टेबल के नीचे रख दिया और हमेशा की तरह हमारा गाना समाप्त होने तक बैठा रहा। आधी रात के बाद जब रेस्तराँ खाली होने लगता हम कई टेबल खींच कर जोड़ लेते और एक झुंड में अबिठते, गाते, फ़िल्म की बातें करते। हमारे बीच मार्गरीटो डुआर्ट रहस्यमय जिंदगी वाला चुप, उदास कोलंबियन के रूप में जाना जाता था। लाकिंस को जिज्ञासा हुई उसने पूछा क्या वह सेलो बजाता है? मैं औचक पकड़ा गया क्योंकि मुझे वह नाजुक प्रश्न बड़ा मुश्किल लगा। गायक भी उतना ही परेशान अनुभव कर रहा था, वह भी स्थिति को संभाल नहीं सका। मात्र मार्गरीटो डुआर्ट ही ऐसा था जिसने प्रश्न का बड़े सामान्य ढ़ंग से उत्तर दिया।
“यह सेलो नहीं है, संत है।” उसने कहा।
उसने केस टेबल पर रख दिया, उसका ताला खोला और ढ़क्कन हटा दिया। रेस्तराँ अचंभे से हिल गया। दूसरे ग्राहक, बैयरे, यहाँ तक कि रसोई के लोग भी अपने खून सने ऐप्रेन के साथ इस आश्चर्य को देखने जमा हो गए। कुछ ने सीने पार क्रॉस बनाया। एक खानसामा अपने घुटनों पर गिर, हाथ जोड़ कर मन-ही-मन प्रार्थना करते हुए भक्ति भाव से काँपने लगा।
जब घबराहट शांत हुई हम वर्तमान काल में संत भावना की कमी के बारे में जोर-जोर से आलोचना करने लगे। स्वाभाविक रूप से लाकिंस सबसे ज्यादा उत्तेजित था और अंत में उसने स्पष्ट किया कि वह संत के विषय पर एक क्रिटिकल मूवी बनाना चाहता है। “मुझे विश्वास है, बूढ़ा सीजर इस विषय को कभी भी हाथ से नहीं जाने देगा।” उसने कहा।
उसका इशारा सीजर जवाटोनी की ओर था जो हमें प्लॉट डिवलपमेंट और स्क्रीन राइटिंग पढ़ाता था। फ़िल्म इतिहस में वह एक हस्ती था और केवल वही था जो क्लास के बाहर भी हमसे संपर्क रखता था। वह न केवल हमें क्राफ़्ट सिखाता वरन जीवन के प्रति एक अलग नजरिया रखना भी बताता था। वह प्लॉट इजाद करने की मशीन था। प्लॉट उससे उमड़ते-घुमड़ते रहते। करीब-करीब उसकी इच्छा के बिना भी इतनी तेजी से नि:सृत होते कि उन्हें बीच में लोकने के लिए किसी-न-किसी की आवश्यकता पड़ती। क्योंकि वह उन्हें जोर-जोर से बोल कर सोचता था। उसका जोश प्लॉट को पूरा कर के ही दम लेता था। “बहुत बुरी बात है कि इन्हें फ़िल्मों में ढ़ालना है.” वह कहता। उसे लगता कि परदे पर इनका मौलिक जादू काफ़ी हद तक अन्ष्ट हो जाएगा। वह अपने विचारों को दीवार पर पिनअप कर के रखता, वे इतने अधिक थे कि उनसे काम्रे की पूरी दीवारें भर गई थीं।
अगले शनिवार हम मार्गरीटो डुआर्ट को उसके पास ले गए। हमने जो आइडिया फ़ोन पर उसे बताया था उसमें उसकी रूचि के कारण वहबेताब था। जवाटीनी के पास इतना उत्साह था कि वह हमें विपा-डि-सेंट-एंजेला-मेरिसी के दरवाजे पर खड़ा मिला।
आदतन करने वाला अभिवादन भी उसने नहीं किया। और अपने द्वारा तैयार की गई मेज के पास मार्गरीटो डुआर्ट को ले गया। केस उसने स्वयं खोला। तभी कुछ ऐसा हुआ जिअस्की हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हमारी आशा के विपरीत पागल होने के बजाय वह एक प्रकार के मानसिक लकवे का शिकार हो गया। “आश्चर्य!” वह भय से बुदबुदाया।
संत को उसने  दो-तीन मिनट तक निहारा और फ़िर केस को स्वयं बंद कर दिया। बिना एक शब्द कहे वह मार्गरीटो डुआर्ट को द्वार तक ऐसे ले गया मानो कोई बच्चा अपना पहला कदम उठा रहा हो, उसने मार्गरीटो डुआर्ट के कंधे पर थपकी देते हुए उसे विदा दी।
“धन्यवाद, मेरे बच्चे, बहुत-बहुत धन्यवाद!” उसने कहा।
“ईश्वर तुम्हारे संघर्ष में तुम्हारा साथ दे।” दरवाजा बंद कर वह हमारी ओर मुड़ा और उसने अपना निर्णय सुनाया।
“यह मूवी के लिए अच्छा नहीं है, कोई पतियाएगा नहीं।” उसने कहा।
जब हम ट्राम से घर लौटे तब वह आश्चर्यजनक पाठ भी हमारे साथ यात्रा कर रहा था। अगर जावाटीनी ने ऐसा कहा है तो यह सत्य ही होगा। कहानी अच्छी नहीं थी। पारंतु बेला मारिया हमें जावाटीनी के संदेश के साथ छात्रावास पर मिली। वह उस रात हमारा इंतजार करेगा। लेकिन उसने हमें मार्गरीटो डुआर्ट के बिना बुलाया था।
हमने उस्ताद को सितारों की बुलंदी पर पाया। लाकिंस अपने दो-तीन साथियों को ले कर आया था, पारंतु जब जावाटीनी ने दरवाजा खोला, उसने उनकी ओर देखा भी नहीं।
“मुझे मिल गया,” वह चिल्लाया, “यह एक सनसनीखेज पिक्चर होगी, यदो मार्गरीटो डुआर्ट एक जादू करे और लड़की को पुनर्जीवित कर दे।”
“पिक्चर में या असल जिंदगी में?” मैंने पूछा। उसने अपनी झुंझलाहट दबा ली, “बेवकूफ़ मत बनो।” उसने कहा।
हमने उसकी आँखों में अदमनीय उमड़ते विचारों को कौंधते देखा, “यदि वह उसे जीवन में पुनर्जीवित कर दे तो?” उसने विचारा और पूरी गंभीरता से जोड़ा –
“उसे कोशिश करनी होगी।”
यह एक क्षणिक प्रलोभन से ज्यादा न था, उसने पुन: सूत्र संभाला। वह एक आनंदित पागल की तरह प्रत्येक कमरे में चहलकदमी करने लगा। जोर-जोर से चिल्लाते हुए, हाथ हिला-हिला कर फ़िल्म दोहराने लगा। चकराते हुए हमने उसे सुना, ऐसा लग रहा था मानो हम सब फ़िल्म देख पा रहे हों। जैसे अंधेरे में चमकती हुई चिड़ियों के झुंड खुले छोड़ दिए गए हों। उनकी पागल उड़ान पूरे घर में भर गई।
उसने कहा, “एक रात जब किसी कारणवश वह जिन बीस पोप से मिल था, वे मर गए, मार्गरीटो डुआर्ट बूढ़ा हो गया। एक दिन वह थका-हारा अपने घार आता है, केस खोलता है, छोटी मृत लड़की का चेहरा सहलाता है और संसार की सारी कोमलता के साथ कहता है: “मेरी बच्ची! अपने पिता के प्यार की खातिर उठो और चलो।”
उसने हम सब की ओर नजर डाली और एक विजयी मुद्रा के साथ समाप्त किया:
“और वह ऐसा करती है।”
वह हम से कुछ अपेक्षा कर रहा था मगर हम इतना खो गए थे कि एक शब्द न कह सके। केवल यूनानी लाकिंस ने अपना हाथ उठाया मानो वह स्कूल में हो और पूछने के लिए आज्ञा माँग रहा हो।
“मेरी मुसीबत यह है कि मैं इस पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ,” उसने कहा। हमें चकित करते हुए वह जावाटीनी से कह रहाथा, “माफ़ करना उस्ताद, लेकिन मुझे इस पार विश्वास नहीं।”
अब चौंकने की बारी जावाटीनी की थी।
“और क्यों नहीं?”
“मुझे क्या पता।” लाकिंस ने व्यथा के साथ कहा। “परंतु यह असंभव है।”
“आश्चर्य!” उस्ताद ने इतने जोर से और ऐसे स्वर में गर्जन किया जो पूरे पड़ोस में अवश्य सुनी गई होगी।
“स्टालिनवादियों की यही बात मेरी समझ में नहीं आती है कि वे क्यों यथार्थ में विश्वास नहीं करते।”
जैसा कि स्वयं मार्गरीटो डुआर्ट ने बताया अगले पंद्रह वर्ष वह संत को इस इंतजार में कैसल गैंडोल्फ़ो ले जाता रहा कि उसे एक बार संत को प्रदर्शित करने का अवसर मिलेगा। करीब दो सौ तीर्थयात्रियों का जत्था लैटिन अमेरिका से पोप जॉन तैइसवाँ का दर्शन करने आया था।इस अवसर पर वह किसी प्रकार उन्हें अपनी कहानी सुन सका।
परंतु उन्हें लड़की दिखा नहीं सका. क्योंकि हत्या के प्रयासों के तहत की जा रही सावधानी के कारण अन्य यात्रियों के सामान के साथ उसे भी संत को प्रवेश द्वार पर ही छोड़ देना पड़ा। भीड़ में जितने ध्यान से पोप सुन सकते थे उन्होंने उसकी बात सुनी और उसके गाल पर उत्साहजनक चपत लगाई।
“शाबाश, मेरे मित्र।” उन्होंने कहा। “ईश्वर तुम्हारी लगन को ईनाम दे।”
मगर मुस्कुराते एल्बीनों लुसीआनी के अल्पकालीन शासन के दौरान मार्गरीटो डुआर्ट को पक्का यकीन हो गया था कि उसके स्वप्न पूरे होने का समय आ गया है। माग्ररीटो डुआर्ट की कहानी से प्रभावित पोप के एक रिश्तेदार ने हस्तक्षेप करने का वायदा किया।इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब दो दिन बाद वह छात्रावास में खाना खा रहा था किसी ने टेलीफ़ोन पर सरल त्वरित संदेश मार्गरीटो डुआर्ट के लिए दिया। उसे किसी भी सूरत में रोम नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि वृहस्पतिवार से पहले किसी भी समय उसको निजी दर्शन के लिए वतिकान से बुलावा आ सकता है।
किसी को भी पता नहीं चल सका कि यह मजाक था या नहीं। मार्गरीटो डुआर्ट ने ऐसा नहीं सोचा और सतर्क रहा। उसने घर नहीं छोड़ा। अगर उसे बाथरूम भी जाना होता तो वह सब को सुना कर कहता, “मैं  बाथरूम जा रहा हूँ।” बेला मारिया बुढ़ापे में भी मजाकिया थी, वह मुक्त स्त्रियों की तरह खुल कर हँसती थी। “हमें मालूम है मार्गरीटो,” वह जोर से कहती, “अगर पोप बुलाए तो।” अगले सप्तह एक दिन भोर में मार्गरीटो करीब-करीब बेहोश हो गया, जब उसने दरवाजे के नीचे सरके अखबार की सुर्खी देखी: “पोप मर गया।” कुछ क्षण वह भ्रम में रहा कि हो-न-हो यह पुराना अखबार है, जो गलती से वितरित हो गया है। यह विश्वास करना कठिन था कि प्रति माह एक पोप मरेगा। लेकिन यह सत्य था: मुस्कुराने वाला एल्बीनों लुसीआनी जो मात्र तैंतीस दिन पूर्व चुना गया था, अपनी नींद में ही चल बसा।
पहली बार मार्गरीटो डुआर्ट से मिलने के बाईस वर्ष बाद मैं रोम लौटा था, शायद मैं उसके विषय में नहीं सोचता यदि हम अचानक एक-दूसरे से टकरा न जाते। मैं खराब मौसम से उतन हताश था कि किसी भी विषय पर सोच नहीं पा रहा था। वर्षा की एकसार झड़ी गरम सूप की भाँति लगातार गिर रही थी। दूसरे मौसम की हीरे जैसी चमकती रोशनी मटमैली हो गई थी। स्थान जो कभी मेरा था, मेरी स्मृति में था, अब अजनबी हो गया था। जहाँ छात्रावास था वह जगह अभी भी नहीं बदली थी। मगर कोई बेला मारिया के विषय में नहीं जानता था। वर्षों पहले गायक रिबेरो सिल्वा ने जो छ: भिन्न-भिन्न अलग टेलीफ़ोन नंबार मुझे भेजे थे उन पर कोई उत्तर नहीं मिले। फ़िल्म स्कूल के नए लोगों के साथ खाते समय मैंने अपने उस्ताद की स्मृति जगानी चाही पर एक क्षण के लिए टेबल पर चुप्पी छा गई जब किसी ने कहने की हिमाकत की, “जावाटीनी! कभी नाम नहीं सुना उसका।”
यह सत्य था। किसी ने उसके बारे में नहीं सुना था। विला बोर्गीज के पेड़ बारिश में अस्त-व्यस्त हो गए थे, सुंदर उदास रखैलों के गेलेपिओ को खर-पतवार ने ढ़ंक लिया था। पुरानी सुंदर लड़कियाँ बहुत पहले एथलीट की पुरुषों जैसी चमकीली ड्रेस में बदल गई थीं। लुप्तप्राय: प्राणियों में केवल बूढ़ा शेर बचा था जो अपने सूखे पानी वाले टापू पर खुजली और नजले से परेशान था। पित्जा डि स्पैग्ना के प्लास्टिक ट्रेटोरियाज(होटल) में न तो कोई गाता था न ही कोई प्रेम में मरता था। क्योंकि हमारी स्मृति का रोम सीजर के रोम के भीतर एक और दूसरा पुराना रोम बन चुका था।ट्रास्टवेयरे की पतली गली में तभी किसी ने मुझे पुकार कर सर्द कर दिया था:
“हेल्लो, कवि!”
यह वह था, बूढ़ा और थका। चार पोप मर चुके थे।
शाश्वत नगार रोम पहली बार वृद्धावस्था की क्षीणता के लक्षण दिखा रहा था और वह अब भी प्रतीक्षा कर रहा था।
“मैंने इतने दिन इंतजार किया है, अब और अधिक समय नहीं लगेगा।” चार घंटे अतीत की याद में बिताने के बाद विदा होते समय उसने कहा। “यह सिर्फ़ कुछ महीनों की बात है।” कॉम्बैट बूट और पुरानी बदरंग कैप पहने वह सड़क के बीचोंबीच चहबच्चों को नजर अंदाज करता जहाँ डूब रही थी डगमगाता हुआ चला जा रहा था। अगर पहले जरा भी शक था भी तो अब मुझे कोई शक नहीं था कि संत तो असल में मार्गरीटो डुआर्ट था। बिना इस तथ्य को जाने बिना वह अपनी बेटी के अक्षय शरीर के निमित्त अभी भी जीवित था। अपने ही – कैनेनाइजेशन * के वैध संघर्ष में बाईस साल लगा रहा। उसका संघर्ष अपनी बेटी के लिए नहीं उसके अपने लिए ही था।
०००
– अगस्त  १९८१
रूपांतरण दिसम्बर २००२
·         कैनेनैजेशन – वेटिकन द्वारा संत घोषित किए जाने की प्रक्रिया।
०००
  • डॉ. (श्रीमती)विजयशर्मा, ३२६, न्यूसीतारामडेरा, एग्रीको, जमशेदपुर८३१००९
मो.: ०९९५५०५४२७१, ०९४३०३८१७१८ईमेल:vijshain@gmail.com


हिंदी जगत के लिए एलियन जैसे थे नीलाभ- भूमिका द्विवेदी

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'सामायिक सरस्वती'पत्रिका का जुलाई अंक हाथ में आया तो सबसे पहले इस स्मरण-लेख पर नजर ठहर गई. पढता गया, नीलाभजी की यादों में डूबता गया. उनकी पत्नी भूमिका द्विवेदीने बहुत दिल से लिखा है और नीलाभ जी के बोहेमियन व्यक्तित्व का सम्यक मूल्यांकन करने की एक रचनात्मक कोशिश की है. यह 'सामायिक सरस्वती'के इस नए अंक का यादगार लेख है. मस्ट रीड टाइप. सिर्फ इस लेख को  पढने के लिए पत्रिका  खरीदी जा सकती है. वैसे इसमें पढने लायक सामग्री और भी है - मॉडरेटर 
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नीलाभ जी के बालसखा सुहृद और सुपरिचित साहित्यकार श्री दूधनाथ सिंह जी कहते हैं-ऊपर से कठोर, तेज तर्रार लेकिन अन्दर से बेहद सरल, सहज और मधुर प्राणी रहे नीलाभ जी...
उनके लिए हुई एक शोकसभा में उनके पुराने मित्र अजय जी ने कहा- जिन्दगी को खूबसूरत, सार्थक और आबाद कैसे बनाया जा सकता है ये कोई नीलाभ से सीख सकता है। लेकिन उसी एक जिन्दगी को बदसूरत, निरर्थक और बर्बाद करना भी नीलाभ से ही सीखा जा सकता है।
मेरे खयाल से नीलाभ जी के लिए इसके सटीक टिप्पणी कोई अन्य नहीं हो सकती। उस शख्स पर लिखना एक जटिल तजुर्बा लेकिन बेहद सहज सरल अभिव्यक्ति हैI जैसे कि वो खुद महज एक शख्स न होकर शख्सियत रहे। वो जटिल से जटिल अभिजात्य वर्ग के व्यक्ति होने के साथ-साथ अतिशय जमीनी जीवन जीते रहे, उनसे सादा और उनसे दुरूह व्यक्ति का इस धरातल पर मिलना कठिन है।
वो जब पहली बार मिले मुझसे तो मेरी लिखी एक कहानी काला गुलाब, मई जनसत्ता रविवासरीय में प्रकाशित, पढकर थोड़ा सा होमवर्क किए हुए मिले थेIकुछ मैरून टीशर्ट पहने, कान में चमकता बूंदा, आवाज में खनक और कसरती देह में एक चपलता थीI ये बातें उनकी रंगीन बानगी बयान कर रही थी, लेकिन रह रहकर आंखों में गहरी उदासी तैरती दिखती थी।
उनके अल्फ़ाज़ बहुत तराशे हुए और जहीन थे, जहां अकेलेपन की तकलीफ स्पष्ट थीI जिससे मैं खुद व्यक्तिगत रूप से परिचित थी। उन्होंने उसी वक्त बड़ी साफगोई से अपनी जिन्दगी की कुछ जरूरी परतें खोल दी थीं- भूमिका जी, तब नीलाभ मुझे आप सम्बोधित करते थे, मैं एक गरीब, अकेला, उदास आदमी और बेशक एक बुजुर्ग कवि हूं...कई सारे कर्जे हैं मुझ पर जिन्हें मुझे चुकाना हैI मेरी एक बीवी थी जिसका 2010 में देहान्त हो चुका हैI मेरे दो बेटे हैं जिन्होंने बीसियों साल से मुझसे बात तक नहीं की है। क्या तिस पर भी मैं आपके सामने विवाह का प्रस्ताव रखने की हिम्मत कर सकता हूं। ये जानते हुए भी कि आपके सामने पूरा आसमान, पूरी दुनिया और लाखों चाहने वाले बिखरे पड़े हैंI जब मैंने आपका लिखा पढ़ा तभी मुझे लगा था कि आप एक संजीदा दिमाग और समृद्ध लेखनी की धनी हैंइसलिए ये बातें आपसे कह रहा हूंI मुझे वास्तव में आपकी बेहद सख्त जरूरत है, मुझे ठुकराइए मत,प्लीज...हालांकि मेरे इख़्तियार में सिवाय इल्तिज़ा के कुछ नहीं...
मैं चुपचाप उन्हें देखे जा रही थीI जवाब समझ नहीं आ रहा था, कोई पहली ही मुलाकात में कैसे इतना बहादुर बन सकता है। न हां कहते बन रहा था और न नाI मेरे पास उनके प्रस्ताव को ठुकराने की सबसे बड़ी वजह उनकी उम्र थीIलेकिन हां कहने की ठोस, खूबसूरत और दिलफरेब वजहें भी मौजूद थीं। उनका अपरिमित ज्ञान, उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व, उनकी मनमोहक बातें, उनका मनाना, रिझाना, अकुलाना, बहलाना, इतराना।
एक कड़वा यथार्थ और भी था जो नीलाभ जी के प्रस्ताव के लिए मेरी सहमति का कारक बन रहा था। मेरा मंत्री के घमंडी, बददिमाग भतीजे की मंगेतर होना। जो बात बात पर अपने रुतबे, अपनी ऊंची औकात की व्याख्या करना नहीं भूलता था और न जाने क्यूं उस परिवार को विवाह की भीषण हड़बड़ी भी थी।

कहां नीलाभ जी जैसे प्रकाण्ड विद्वान की विनम्रता से लबरेज मीठी सरल वाणी, कहां संसद और मंत्रालय पर बोझ सरीखा, आडम्बरों से गुंथा हुआ, बड़ी-बड़ी प्रापर्टी को सिर पर मुकुट जैसा सजाए हुए परिवार का इकलौता चिराग और अहम में डूबी उसकी अतिशय घमंडी काली जबान...।
मेरे पास अन्य विकल्प भी थे- जिनमें शैक्षिक विकल्पों सहित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सहपाठी रहे मेरे फ्रेंच मित्र गेब्रीएल और उसकी स्नेहिल मां का आत्मीय वैवाहिक निमंत्रण भी विचाराधीन था। लेकिन गेब्रीएल को गो-मांस नोच-नोचकर खाते देखकर भी मेरा जी भिनक जाता था, भले ही वो एक शानदार चित्रकार था, लेकिन मैं खुद शाकाहारी सुपरिचित ब्राह्मण परिवार की पैदाइश भी थी।
इस तरह 6 जून 2013 को हुई एक विराट लेकिन संतुलित मधुर व्यक्तित्व की उस पहली मुलाकात ने मुझे बड़े प्रेम से श्रीमती नीलाभ अश्क बना दिया। बेशक उस बड़े बाल,चमकदार चेहरे, घनी दाढ़ीमूंछ वाले और लहीम सहीम देहयष्टि वाले,कई भाषा-साहित्य और उनके विधाओं के पारंगत बाबा में कोई जादू जरूर था-जिसके मेरी जिन्दगी में दमदार दखल के बाद मुझे कोई भी और देशी-विदेशी रिझा नहीं पाया।
उनका भोर में उठना, रविशंकर के सितार या जैज का रिकार्ड सुनना, फिर कश्मीरी कहवा बनाकर, मेरी प्रिय गुलाम साहब की ग़ज़ल प्ले कर, मेरा माथा सहलाते हुए रोजाना बिना नागा मुझे जगाना, ठीक नौ बजे चाय पीना, भरवां शिमला मिर्च बनाना, मेरे माथे की शिकन पर शोध करना, मेरा लिखा हुआ तन्मयता से पढ़ना, उस पर चर्चा करना,फूलों सा मुझे सहेजना, संवारना, दुलारना- कभी न भुलने वाली बातें हैंI और अभी हाल ही में मेरे पांव पकड़कर आंसुओं की बरसात के साथ माफियां मांगना, हाथ पकड़कर रो-रोकर कहना मुझे अस्पताल नहीं जाना, नहीं जाना, बच्चों जैसे चीखना-चिल्लाना- दवा नहीं खाऊंगा, नहीं खाऊंगा ऐसी मर्मान्तक और रूह कंपाने वाली स्मृतियां है जिन्हें जेहन से धुंधला भी करना असंभव है।
आखिरी वक्त का वो दारुण दौर जब नीलाभ पैसे-पैसे के लिए परेशान थे। जब मोहल्ले के हर बनिया के बहीखाते में इनका लम्बा-चौड़ा उधार दर्ज होने लगा, जब उनकी जर्जर सेहत देखकर कई दुकानदारों ने उन्हें उधार देने से मना कर दिया,  जब छोटे-छोटे कामगर लोग उनसे तकाजा करने लगे, तब एक दिन बीड़ी वाले से नीलाभ महज 500 रुपये उधार लेकर खुश-खुश आए और बोले- कुछ दवाएं तो आ ही जाएंगी। मैं ये सुनकर रोने लगीI मैंने मेरी मां के पहनाए अपने दोनों कंगन उतारकर उनके हथेली पर रख दिए और समझाने लगी- क्यों दर-दर भीख मांग रहे हैंI ये जेवर ऐसे आड़े वक्त के लिए ही तो होते हैं ना।
उन्होंने मेरे कंगन वापस मुझे पहना दिए और बीमारी के बावजूद ऊंची आवाज में बोले- इतनी छोटी लड़की ब्याह कर इस दिन के लिए तो नहीं लाया थाI अपने तो सारे गंवा ही चुका हूं, अब तुम्हारे पहने हुए जेवर बेचने से बेहतर है कि मैं हमेशा के लिए आंखें मूंद लूं...आगे ऐसे कड़वे विकल्प मेरे सामने मत झाड़ना...Iउनकी खुद्दारी, उनकी अकड़, उनके अटल इरादों की कोई सानी नहीं। उनकी जिदों का कोई तोड़ नहीं।
इस दौरान वे कई मर्तबा घर के हर कोनों पर बेहोश होकर गिरते रहे, मोहल्ले के एक-एक शख्स ने मेरा साथ देते हुए उन्हें उठाया, बिस्तर तक पहुंचायाIहर कदम उन्हें सम्भाला, जिन एक-एक आंटी, भाभी, भइया, अंकल की मैं सदा ऋणी रहूंगी।
वाशवेसिन के नीचे जिस जगह वो आखिरी बार गिरकर दोबारा कभी नहीं उठे उस जमीन से मैं अभी भी बचकर किनारे से जाती हूं कि कहीं उन पर मेरा पांव न पड़ जाएI वो आज भी चैन से आंखें मूंदे वहीं लेटे दिखाई देते हैं।
उस मनहूस 23 जुलाई की सुबह मैं डाक्टर और नर्सों से उसी जगह बुरी तरह झगड़ रही थी- आप इन्हें होश में लाइए, आपका दिमाग खराब हो गया है? क्या बकवास कर रहे हैं आप लोग...ये तो रोज बेहोश हो रहे हैं। वही इंजेक्शन लगाइए, वही दवा दीजिए जिससे आप इनके होश वापस लाते हैं। ये इतना लम्बा-चौड़ा दवा का परचा, ये टेस्ट, ये नौटंकियां, ये ड्रामे आपने क्लीनिकली डेड लिखने के लिए कराये थे। आप और आपका स्टाफ इस दिन के लिए नचा रहा था मुझे... ये आदमी मर नहीं सकता, मैं कुछ नहीं जानती आप इन्हें होश में लाइए बस...

निश्चित रूप से ये उनका भरपूर प्रायश्चित और आत्मा से किया हुआ पश्चाताप ही है जो आखिरी वक्त उनके चेहरे पर एक अलौकिक तृप्ति और असीम शान्ति दिखा रहा था। जबकि पिछले महीनों की बीमारी से उनका चेहरा और पूरा शरीर बहुत मुरझा गया था। निगम बोध घाट पर उनकी मृत देह पर उड़ती हुई मक्खियों को लगातार मैं अपने आंचल से उड़ाती रही और किसी दिव्य महन्त जैसे दमकते चेहरे को देखते हुए सोचती रही कि अभी ये आंखें खोल देंगे और शायद कि बरस ही पड़ेंगे कि महारानी जी, ये तुम मुझे कहां ले आई हो, चलो जल्दी घर चलें वरना ट्रैफिक बढ़ जाएगा...
अन्तिम समय की उनके चेहरे की उस दैवीय कान्ति ने मुझे वास्तव में बेहद झकझोरा भी है और एक आध्यात्मिक इत्मीनान भी दिया है कि वे सद्गति को प्राप्त हुए हैं...।
वरना उनका कहा मुझ धर्मभीरू हिन्दू पत्नी को भयभीत करता था कि मैं बड़ा कुकर्मी हूं, तुम नयी मिली हो इसलिए मेरे बारे में ज्यादा नहीं जानती हो, मैंने बड़े पाप किए हैI देखना मैं तो नरक में बैठकर खूब शराब पीयूंगा...।
वो एक बहोत प्यारे और पहली नजर में दिल जीत लेने वाले इन्सान थे।
उन्होंने जीवन में बेशक तमाम अपराध किए लेकिन सरेआम स्वीकारा, खुलेआम माफी मांगी।
यूं तो नीलाभ जी का मोस्ट फेवरेट अड्डा इलाहाबाद और इलाहाबाद में भी नीलाभ प्रकाशन दफ्तर रहा लेकिन दिल्ली की सड़कों में भी फेरा दर फेरा लगाना हम दोनों का उन्मुक्त चस्का था। वो हर जगह जाकर उस खास जगह का पूरा अतीत सुना देते थे-मसलन उन्होंने बताया कि पूरा कनाट प्लेस उनके सामने बसाया गया है। उनकी इस तरह की बात सुनकर मैं हमेशा कह दिया करती थी- मैं ठीक ही तो कहती हूं आप सचमुच अंग्रेजों के जमाने के जेलर ही हैं...I इस पर पहले तो वो जोर का ठहाका लगाते थे और फिर कार की स्पीड अचानक बहुत बढ़ा देते थे।
वो मस्त, बिंदास और आवारा जीवन जीते थे। कोई रोक-टोक उन्हें कभी पसन्द नहीं थी, न खुद के लिए, न किसी भी और के लिएI यहां तक कि मेरे कैसे भी परिधान, परिवेश और आदतों पर उन्होंने ताउम्र एक सवाल तक नहीं कियाI कभी कोई रोक नहीं लगाई। फ्रेंच सोहबत से प्रभावित मेरे कुछ परिधान हिन्दी साहित्य जगत में विवाद और चर्चा का विषय भी बनेI लेकिन नीलाभ जी को रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा।
किताबों और शब्दकोशों में हर वक्त डूबे हुए वो एक बहुआयामी, बहुप्रतिभाशाली, धुरन्धर पढ़ाकू, अव्वल जिद्दी, बहुत ज्यादा खुद्दार और बड़े ही बातूनी आदमी थे,  जिनके साथ वक्त का गुजरना पता ही नहीं चलता था।
वे जितने धुरन्धर ज्ञाता क्लासिक विषयों के थे उतने ही मास्टर आधुनिक तकनीकी के थे। उनके व्यक्तित्व के ये सारे विरले संगम बड़ी मुश्किल से देखने को मिलते हैं।
उन हर मिनट के साथी के लिए था लिखना दुनिया का एक बेहद तकलीफदेह तजुर्बा है। पिछले छह महीने में बीमारी के दौरान उन जैसे हट्टे-कट्टे पहलवान को चलने-फिरने से मजबूर देखकर कभी-कभी मेरी आंखें छलक पड़ती थीं और वो मेरी बांह मजबूती से थाम कर कहते थे जिस पर मैं ताउम्र अमल करूंगी- मैं रहूं न रहूं लेकिन मेरी कही बातें याद रखनाI ये तय बात है किमैं तुमसे पहले दुनिया को विदा कहूंगा लेकिन अकेले रोकर मत जीना, इस दुनिया से लड़कर जीना, मेरी भूमिका रोएगी नहीं, वो लिखेगी, कहानी लिखेगी, कविता लिखेगी, खुशियां लिखेगी और अश्क लिखेंगी...
हम दोनों बहुत कुछ एक जैसी नियतियों के साझेदार रहे- जितने बदनसीब वे कमोबेश उतनी ही मैं...जितना भाग्यशाली उनका जीवनI कुछ मायनों में वैसा ही मेरा।
वो अपनी ओर से किसी के लिए हमेशा सबसे अच्छा करना चाहते रहे लेकिन कई बार वो उनका अच्छा चाहना वांछित व्यक्ति तक पहुंचा ही नहींI मेरे लिए वो बहुत कुछ सुंदर और सकारात्मक करना चाह रहे थे लेकिन उनकी बद से बदतर होती सेहत और इसी वजह से डगमगाती अर्थव्यवस्था ने उनका ख्वाब पूरा नहीं होने दिया।
बेशक ये उस वांछित व्यक्ति या खुद मेरी ही मन्द तकदीर कही जाएगी।
उनकी एक खास बात जो उन्हें कई सारे भीषण ज्ञानियों के बीच ला खड़ा करती है वो उनका कीमती पत्थरों का विशद, विस्तृत और सूक्ष्म ज्ञान। गजब हैरान करने वाली बात तो ये रही कि जौहरी खुद नगीनों और रत्नों के बारे में नीलाभ जी से जानकारी और सलाह मांगा करते थे।
मेरी हैरानी देखकर कहते थे- प्यारी, उनका मेरे लिए सम्बोधन प्यारी या जान का कोहेनूर या महारानी जी होता था, हैरान परेशान मत रहो! सबसे कीमती हीरा मैंने खोज लिया हैI ये दीगर बात है कि मेरा कोहेनूर मुझे उम्र के आखिरी पड़ाव में मिलाI लेकिन कोई बात नहीं, उसे सहेजने का दमखम अभी है  मुझमें...
उनके चेहरे की एक एक झुर्री अनगिनत तजुर्बे और तकलीफों का आईना थी। उनकी कुल जमा बहत्तर बरस की जिन्दगी में उनके अपने खुद के बयालीस पते रहे,जिनमें लंदन का साढ़े चार बरस का निवास भी उल्लेखनीय है। उन्होंने अपनी जिन्दगी से जुड़े एक एक शख्स को संवारा और भली तरह से बसा दिया। मेरा उनका महज तीन सालों का भीषण साथ रहा और इन तीन सालों में उन्होंने तीन सौ मर्तबा एक ही बात कहीं- तुम मुझे मेरी जवानी में क्यों नहीं मिल गई, मैं तभी से संभला और सुधरा इनसान होता।
मैं भी हमेशा एक ही जवाब देती- भई आपकी जवानी में जब मैं पैदा ही नहीं हुई थी तो मिलती कहां सेI और सुधार की कोई उम्र नहीं होती। अगर आप चाहें तो अभी भी सुधर सकते है।
न मैं उन्हें पच्चीस बरस का बना सकती थी न खुद को सत्तर का।

मोबाइल नं.: 09999740265
Email: bhumika.jnu@gmail.com

गीताश्री की नयी कहानी 'टच मी नॉट'

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गीताश्रीकी कहानियों की रेंज बहुत बड़ी है. दुर्भाग्य से उनकी कहानियों के ऊपर ध्यान नहीं दिया गया है. एक तरफ उन्होंने गाँव-देहातों की सशक्त स्त्री पात्रों को लेकर कहानियां लिखी हैं तो दूसरी तरफ समकालीन जीवन स्थितियां उनकी  में सशक्त तरीके से उभर  हैं. मसलन, यही कहानी।  इसका अंत पुराने लोगों को चौंकाऊ लग  सकता है लेकिन युवा पीढ़ी को इसमें कुछ भी असहज नहीं लगेगा. पढ़कर बताइयेगा- मॉडरेटर 
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मुहल्ले की नई बहार थी वह. सबकी तरह आलोक को भी बहुत भाने लगी थी. वह चाहता था यह बसंत ठहर जाए. उसके घर में न सही, उसके आसपास. खूशबू आती रहे दूर से ही मगर, सामने हो चमन कोई कम तो नहीं...की तर्ज पर वह इन दिनों सोचने लगा था. पर चंचल खुशबू थी. उड़ती फिर रही थी.
वह टिकती कहां. वह किसी चित्रकार की तलाश में थी जिसके पास अपना बड़ा-सा स्टुडियो हो.
जहां रंग, ब्रश और बड़े बड़े कैनवस रख सके. थोड़ा एकांत और सुकून हो, जहां जब तक चाहे बैठ कर पेंट कर सके. कच्चे रंगों की महक से किसी को समस्या न हो. कुछ ऐसे ही इच्छाएंमुहल्ले के उजाड़ में उमड़ उमड़ कर आ रही थीं. जरुरतों से संचालित होने वाली इच्छाएं बहुत भगाती हैं.
गली नं चार के सारे मकान मालिक उसे कमरा , हॉल छत किराये पर देने को तैयार थे. मगर वह बहार किसी गुप्ता जी, मिश्रा जी, शुक्ला जी के नसीब में नहीं,  आलोक के नसीब में थी. गली नं पांच के प्रोपर्टी डीलर के साथ रोज रोज घूमते -भटकते -भागते एक दिन वह उसके स्टूडियो में धमक ही गई थी.
आलोक ने उसे देखा और बिना नखरे के स्टूडियो शेयर करने को तैयार हो गया. उसके स्टुडियो को उसने जिस तरस और प्रशंसा भरी निगाह से देखावह अपनी ही जगह से रश्क कर बैठा . पहली बार लगा कि उसने कोई बड़ा काम कर लिया है जिसके पास बहार खुद ठिकाना ढूंढने आई है. इससे पहले कि बहार का मन बदल जाए, फटाफट आलोक ने दो कमरो में से एक उसे दे दिया और अपने सारे सामान समेत दूसरे कमरे में शिफ्ट हो गया. छत कॉमन रखी गई ताकि बीच बीच में खुली हवा में सांस ली जा सके. बहार यानी मिस बहार दीक्षित। नाम सुनते ही आलोक का यकीन पक्का हो गया कि दीक्षित लड़कियां महासुदंर होती हैं और किस्मत वालों को ही उनका संग साथ नसीब होता है। उसने महसूस किया वह भाग्यवादियों सरीखा दिखने लगा है।  

वह अकेली हैं या दुकेली, इससे आलोक को कोई मतलब नहीं. वह बस अपनी नई साथी के साथ जीवन के बचे खुचे सारे कलात्मक पल बिता देना चाहता था. पूरी तन्मयता से उसने बहार का स्टुडियो वैसे अरेंज किया जैसा पहली बार अपने लिए किया होगा. पत्नी ने कितनी बार हाथ बंटाना चाहा पर वह इस जगह से परिवार को यथासंभव दूर ही रखता. आखिर दोनों की दुनिया भी अलग अलग जो थी. पत्नी रोज शाम मंडी हाउस के चक्कर लगाने जाती या किसी न किसी नाटक के रिहर्सल में लगी रहती, ठीक उसी वक्त आलोक अपने स्टुडियो में ब्रश लेकर बैठ रहा होता था. हाथ में स्कॉच का ग्लास और ब्रश. पास में ही कुमार गंधर्व का गायन चलता रहता. अब इन सबके अलावा कुछ चीजें और जुड गई थी. आलोक को लगा जैसे कैनवस पर कुछ नए रंग और इंट्रोडयूस हुए हैं अभी अभी. जो पहले कहीं नहीं थे...किसी की पेंटिंग में नहीं. जेहन में पिकासो का स्टुडियो कौंधा. अपनी अंतिम प्रेमिका के साथ मस्ती में थिरकते पिकासो और चारो तरफ बेतरतीब फैले ब्रश, रंग !
क्या सुखद संयोग है कि इतने साल दिल्ली के गढी स्टुडियो मे काम करते हुए पडोस में भी कोई बहार नसीब न हुई. महिला चितेरियां थीं पर वे सब नामचीन थीं और आलोक नया चेहरा...अपनी शैली की तलाश में भटकता हुआ..
यदाकदा गढी के खुले प्रांगण में भटकता हुआ खुद को दिशाहीन पाता और मायूस-सा फिर से अपने  दड़बेनुमा केबिन में घुस जाता. जल्दी से कुछ बड़ी बड़ी पेंटिग बना कर , उन्हें बेच कर अपना अलग स्टुडियो बनाने की तड़प पल रही थी जो एक झटके में पूरी हो गई.
दिल्ली की बड़ी गैलरी की मालकिन के साथ गढी में चक्कर लगाता हुआ एक बड़े होटल का मालिक, आलोक की पेंटिंग पर इतना फिदा हुआ कि उसका पूरा केबिन खाली हुआ सो हुआ, होटल के हर कमरे के लिए छोटी पेंटिंग बनाने का बड़ा ऑर्डर तक मिल गया. वह भूला नहीं कि बीच में गैलरी ने कितना माल काटा होगा. उसे इतना माल जरुर मिला कि उसके बाद पलट कर अभाव का मुंह नहीं देखा. अब वह स्वतंत्र पेंटर था जो अपनी शर्तो पर पेंटिंग बनाता और बेचता था. बडी गैलरी से करार था जो उसकी पेंटिंग रिजनेबल दामों में ले लिया करती. वह धनधान्य से भरपूर था और परिवार भी मस्त. अपने स्पेस की चाहत भी पूरी हो गई थी.
कमी थी तो बस एक अदद प्रेमिका की। जो हर साधन संपन्न, नवधनाढ़य वर्ग के अधेड़ावस्था की तरफ बढ़ते मर्दों की होती है। कलाकार हो तो प्रेरणा अनिवार्य शर्त है जो प्रकृति और स्त्री दोनों के सान्निध्य से ही मिलती है। खुली छत पर ढेर सारे गमलों में हरे भरे पौधे उगा रखे हैं, लेकिन यह सचमुच की प्रकृति तो नहीं। प्रकृति का छायाएं हैं। स्त्री का साथ घर में भी है पर उसकी प्रेरणा एक्सपायर हो चुकी है। वैसे भी कलाकार आलोक की नजर में घर की स्त्री गमलो में उगे पौधों की तरह होती है जो हरियाली का भ्रम देती है, छाया नहीं। उसे सघन छाया की नए सिरे से तलाश थी। किस्मत से वह करीब आ रही थी। उस खुली छत पर अब दो स्टुडियों आबाद थे। उस गली में और भी कलाकार थे, पर किसी के पास इतनी खुली जगह कहां। नए बसी कालोनी में मकान के मामले में भी आलोक ने बाजी मार ली थी।  एक और बाजी उसके बेहद करीब आ चुकी थी। उसे बस अपने को बाजी के लिए तैयार करना था।
शाम को आलोक अपने स्टुडियों में साजो सामान समेत जम गया। सामने वाले स्टुडियो में बहार पहले से जमी ही थी। उसका मन पेंट करने में नहीं रम रहा था। बार बार उसका मन होता कि वह उसके स्टुडियों में झांक कर आए कि वह क्या कर रही है। अभी तक उसका पूरा काम देखा नहीं था। स्टुडियों में पेंटिंग रखवाते समय जरुर उसने महसूस किया कि वह बड़ी साइज की पेंटिंग बनाती है और जो थोड़ी भारी वजन की थी। पता नहीं क्यों भारी थी। वह बस अनुमान लगा सकता था। उसका संसार देखने के मन हो रहा था। एक बार संसार देख ले फिर बातचीत शुरु की जा सकती है। सहज दोस्ताना बने तो दोनों साथ साथ आर्ट गैलरीज में प्रदर्शनी देखने जा सकते हैं। वह शहर में नई है, उसे महानगर में जमने के, बिकने के थोड़े हुनर सीखा सकता है। वह उधेड़बुन में था कि सामने से थकी हारी , उलझी हुई सी बहार चली आ रही थी। उसका चित्त प्रसन्न हो गया।
हाय...कैसे हो। चाय मिलेगी...मैं धीरे धीरे स्टुडियों में सारा इंतजाम कर लूंगी..फिलहाल आपकी पत्नी के हाथ की बनी चाय मिल जाए तो जन्म सफल हो जाए।
आलोक उसकी इस बेतकुल्लफी पर फिदा हो गया। जमेगी इनके साथ। सामाजिक लग रही हैं।
हां हां क्यों नहीं...माई प्लेजर मैम...बिहसंता हुए आलोक ने घंटी बजाई। थोड़ी देर में आलोक की पत्नी नीना दौड़ती हुई उपर आई। तीनों ने एक साथ चाय पी। आलोक चाहता था कि नीना चाय देकर नीचे चली जाए। नीना टलने का नाम ही नहीं ले रही थी। थोड़ी ही देर में बहार और नीना आपस में इतने घुलमिल कर बातें करने लगे कि आलोक को लगा, वह इन दोनों के बीच अचानक अप्रासंगिक हो गया है।
दोनों को नजदीक आने से थोड़ा खुश भी हुआ पर संशकित भी। दोनों आपस में सहेलियां बन गईं तो उसकी दाल नहीं गलेगी। उसे अरहर दाल की बढ़ती कीमतो से ज्यादा अपनी दाल को लेकर चिंता हो रही थी। वैसे भी नीना दाल गलाने में माहिर। मुरादाबादी जो थी। किसी भी तरह के दाल को पका कर चाट की तरह कटोरियों में पेश कर देती थी। वह कई बार चिढ़ जाता था। दाल की चाट...। नीना परोसते समय दाल की चाट का ऐतिहासिक महत्व बताना नहीं भूलती...जिसे उसके कान ने आज तक नहीं सुनना चाहा।
उसे नीना से ही खतरा महसूस हुआ जो उसके अरमानों पर पानी फेर सकती थी। मन को बहुत समझाया कि शाम को नीना कहां होती है घर पर। देर शाम आएगी। तह तक का समय उसका। मैनेज कर लेगा। नीना के शोज आने वाले हैं, उसी में उलझ जाएगी। दिल को बहलाता हुआ वह अपने कैनवस पर खो गया।
नीना से बहार की हाय हैल्लोरोज की बात हो गई थी। नीना मंडी हाउस जाते समय छत पर आकर बहार को हैल्लो करना नहीं भूलती। बाद में अति व्यस्त होती चली गई तो यह सिलसिला भी खत्म हो गया। सब अपने काम में डूब गए। बहार का ज्यादा समय आलोक के साथ बीतने लगा। आलोक को बहार की सबसे अच्छी बात लगी कि वह वोदका पी लेती है। बस क्या था। व्हिस्की की जगह वोदका ने ले ली। रोज वोदका सेवन शुऱु। फ्रीज में बर्फ जमाने की जिम्मेदारी खुद आलोक ने ले ली। नीना एकाध बार चकित होकर देखती कि इतनी तत्परता से आलोक बर्फ कभी नहीं जमाता था। अब ट्रे में पानी भर कर खुद रखने लगा है। उसे छत पर जाने का समय भी नहीं मिला। कई दिन हो गए थे बहार से हाय हैल्लोकिए हुए। उसने आलोक से ही पूछ लिया..वह फटाक से जवाब देता जैसे बहार ने उसे प्रवक्ता नियुक्त कर रखा हो। बहार के शोज के बारे में, बहार के लिए गैलरी बुक करवाने का जिम्मा, गेस्ट का जिम्मा, बायर्स की लिस्ट...सब आलोक उससे शेयर करने को तत्पर। यहां तक कि बहार कैनवस पर जो मेटेरियल यूज करती थी, जिससे उसकी पेंटिंग भारी हो जाती थी, उसका इंतजाम भी आलोक के जिम्मे। आलोक के दिन गदगद चल रहे थे। बस बहार तक उसकी भावनाएं खुल कर नहीं पहुंच पा रही थीं। सीधे सीधे क्या कहता। एक ही फील्ड के लोग। सहजता से घटित हो तो सुंदरता बनी रहती है, आलोक सोचता और बहार से कुछ कहते कहते रुक जाता। बहार रोज नीना के बारे में जरुर बात करती। जैसे क्या करती है, किस किस नाटक में, कैसी भूमिकाएं की। कहां मिली..कैसी है, उसे क्या क्या पसंद है। उसकी दोस्त हैं या नहीं..। ऊपर आज कल क्यों नहीं आती...आदि आदि ढेरो सवाल। कई बार वह खीझ जाता। नीना को फोन करके कह देता-भई, कोई आपको मिस कर रहा है, बात कर लें आप।
बहार उसे शाम के वोदका सेशन के लिए आमंत्रित करना चाहती थी। नीना उपलब्ध नहीं थी, उसे अपना नाटय ग्रुप के साथ असम के दौरे पर जाना पड़ा। आलोक ने चैन की सांस ली। वह बहार से कुल कर फ्लर्ट कर सकता था। कोई रोकटोक नहीं, कोई भय नहीं..खुल कर अपनी बात कह सकता था। बहार बुरी तरह रिएक्ट करना चाहे तो भी किसी का भय नहीं. यह मुफीद मौका है, अपनी बात कह देने का। उसने नीना और ईश्वर दोनों को इस सुअवसर के लिए धन्यवाद दिया।
शाम को वोदका सेशन पर आलोक ने घुमा फिरा कर बातें छेड़ी। बहार ने समझा, वह चुहल कर रहा है। वह मजे लेने लगी। आलोक को छेड़ती रही। आलोक की दाल की हांडी खदक रही थी। यह रोज का क्रम हो गया। नीना के लौटने तक दोनों और करीब आ गए थे। दोनों को ये अहसास नहीं था कि बगल की बहुमंजिली इमारत की बालकनी से कोई उनकी चुहल पर गौर फरमा रहा है। जो देख रहा था, यूं कहे, देख रही थी, उसे मालूम था कि नीना शहर से बाहर गई हुई है। वहां किस्से बुने जा रहे थे।
नीना लौट कर आ गई। उसके आते ही जैसे धमाका-सा हुआ। वह मीन माइंडेड नहीं थी। इसीलिए आलोक और बहार की निकटता से उसे कोई समस्या नहीं थी। वह दोनों की निकटता को प्रोफेशनल निगाह से देखती थी। उसके पीछे क्या गुल खिला है, इसका अंदेशा तक नहीं था उसे। नीना ने उसी शाम घर में फोड़ दिया। आलोक हतप्रभ रह गया। उसे लगा, नीना ने कोई कांड किया तो वीराना आते देर नहीं लगेगी। बहार हासिल नहीं तो क्या हुआ, बहार सामने तो है। नीना ने फरमान जारी कर दिया कि वो लड़की कहीं और स्टुडियों बना ले। यह घर खाली करना पड़ेगा। उस शाम नीना ने क्या क्या नहीं कहा। आलोक हक्का बक्का सुनता रहा। वह चाहता तो डटकर मुकाबला कर सकता था पर किसके सहारे करे। बहार का माइंड वह समझ नहीं पाया था। नीना दोनों को गलत समझ रही है। उसे अफसोस इसी बात का कि नीना का इल्जाम सही नहीं है। सही होता तो हर जुल्म सितम सह लेता। कोई न कोई रास्ता निकालता। बहार को किसी दोस्त की छत पर स्टुडियो दिलवा देता। लेकिन अब बहार उसके हाथ से निकल जाएगी, कहां जाएगी पता नहीं। कितना कायर समझेगी उसको जो अपनी बीवी से डर गया। किस बात का कलाकार। उसे इतनी फ्रीडम नहीं। गुस्से में दनदनाता हुआ वह ऊपर गया। बहार के हाथ गीले थे। प्लास्टर आफ पेरिस के सफेद गोले बना रही थी। कैनवस पर उभार के लिए चिपकाने वाली थी, आलोक को ऐसा लगा।
उसका माथा इतना भिन्नाया हुआ था कि लगा, उसी गोले से अपना सिर फोड़ ले या नीना का फोड़ दे। सारे कैनवस पर प्लास्टर फेर दे। बहार उसके हाथ से निकलने वाली है। पहले की तरह वीरानी से भर जाएगा वह। सुख के दिन इतने कम क्यों होते हैं, सोचते ही हलक सूख गया।
मैम...मेरी पत्नी को शक है कि हमारे बीच कुछ चल रहा है। उसे किसी ने कंपलेन कर दिया है। वह बहुत गुस्से में हैं और वह चाहती है कि....
बहार के हाथ रुक गए। मग में हाथ डाल कर धो लिया। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया. मानो कोई नई या अनहोनी बात न हो। या वह इस तरह के आरोपो की आदी रही हो।
आलोक को लगा, वह चीखेगी, खंडन करेगी, नीना को भला बुरा कहेगी या कुछ भी रिएक्शन हो सकता था। कलाकार भी तो सामान्य इनसान ही होते हैं।
आप नीना को बुलाइए...मैं उनसे कुछ कहना चाहती हूं...
नीना वहां धमक चुकी थी। वह तमतमा रही थी। उसका बस चलता तो बहार को हाथ पकड़ कर बाहर कर देती।
नीना का गुस्सा देख आलोक दूसरी तरफ घूम गया। बहार और नीना आमने सामने।
नीना...
तुमने सोचा कभी कि मैंने एक पुरुष के साथ स्टुडियो साझा क्यों किया। एक अकेली लड़की इतना साहस कैसे कर गई। मुझे बहुत मिलते रहे हैं ऐसे जगहो के न्योते। मैं यहां आई, जहां कोई स्त्री हो। मुझे तुम्हारे पति में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं। सच कहूं तो मुझे मर्दोके साथ अकेले काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती। होत है तो....कुछ पल के लिए रुकी।  
उसका स्वर शांत, उत्तेजनारहित था। आलोक उसके इस अदा पर भी फिदा हो रहा था।
सुनो...मेरी दिलचस्पी नीना में है। नीना....समझ गई न। आई एम इंटेरेस्टेड इन यू । ओनली वीमेन, नो मेन इन माई लाइफ। मैं तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाना चाहती हूं...वांट टू बी अ रिलेशनशीप विद यू।
बहार अपना हाथ छोटे तौलिए से पोंछ रही थी। चेहरे पर सुकून की छाया। सच बोलने के साहस की रेखाएं चमक रही थीं।
आलोक को लगा बिजली के सारे तार टूट कर उसकी छत पर आ गिरे हैं और सारे कैनवस पर चिंगारियां बरस रही हैं। वह चौतरफा तारो से घिर गया है। उसे कुछ दिखाई देना बंद हो गया है। प्लास्टर के गोले हवा में उड़ रहे थे।

…….




भारत भूषण पन्त की ग़ज़लें

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आज भारत भूषण पन्तकी ग़ज़लें. भारत भूषण पन्त शायर वाली आसी के शागिर्द रहे और मुनव्वर राना के उस्ताद-भाई. एक बार मुनव्वर राना ने 'तहलका'पत्रिका में दिए गए अपने इंटरव्यू में उनकी शायरी की चर्चा भी की थी. उर्दू के इस जाने माने शायर को आज हिंदी में पढ़ते हैं- मॉडरेटर 
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1. 

फिर से कोई मंज़र पसे-मंज़र से निकालो
डूबे हुए सूरज को समंदर से निकालो

लफ़्ज़ों का तमाशा तो बहुत देख चुके हम
अब शेर कोई फ़िक्र के महवर से निकालो

गर इश्क़ समझते हो तो रख लो मुझे दिल में
सौदा हूँ अगर मैं तो मुझे सर से निकालो

अब चाहे मोहब्बत का वो जज़्बा हो कि नफ़रत
जो दिल में छुपा है उसे अंदर से निकालो

मैं कबसे सदा बन के यहाँ गूँज रहा हूँ
अब तो मुझे इस गुम्बदे-बेदर से निकालो

वो दर्द भरी चीख़ मैं भूला नहीं अब तक
कहता था कोई बुत मुझे पत्थर से निकालो

ये शख़्स हमें चैन से रहने नहीं देगा
तन्हाइयां कहती हैं इसे घर से निकालो ।।
 'तन्हाइयाँ कहती हैं' से

2.

 

ख़ुद पर जो एतमाद था झूठा निकल गया 
दरिया मिरे क़यास से गहरा निकल गया

शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता 
मीलों मिरी तलाश में रस्ता निकल गया

सूरज ग़ुरूब होते ही तन्हा हुए शजर 
जाने कहाँ अंधेरों में साया निकल गया

दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
क्यों बार-बार सूई से धागा निकल गया

कुछ और बढ़ गईं हैं शजर की उदासियाँ 
शाख़ों से आज फिर कोई पत्ता निकल गया

पहले तो बस लहू पे ये इलज़ाम था मगर 
अब आंसुओं का रंग भी कच्चा निकल गया

अब तो सफ़र का कोई भी मक़सद नहीं रहा
ये क्या हुआ कि पांव का काँटा निकल गया

ये अहले-बज़्म किसलिए ख़ामोश हो गये
तौबा ! मिरी ज़बान से ये क्या निकल गया

3.

शाम का वक़्त है ठहरा हुआ दरिया भी है 
और साहिल पे कोई सोच में डूबा भी है


हमसफ़र ये तो बता कौन सी मंज़िल है ये
तू मिरे साथ भी है और अकेला भी है

मुझको इस कारे-जहाँ से ही कहाँ फुर्सत है
लोग कहते हैं कि इक दूसरी दुनिया भी है

क़ुरबतें मेरी ज़मीनों से बहुत हैं लेकिन
आसमानों से मिरा दूर का रिश्ता भी है

आज दोनों में किसी एक को चुनना है मुझे
आइना भी है मिरे सामने चेहरा भी है

कौन समझेगा मिरे दर्द को उससे बेहतर
वो मिरा ख़ून भी है ख़ून का प्यासा भी है

ज़िन्दगी तुझसे कोई अहदे-वफ़ा तो कर लूँ
ऐसे कामों में मगर जान का ख़तरा भी है
- तन्हाइयां कहती हैं से

4.

जानता हूँ मौजे-दरिया की रवानी और है
आँख से बहता हुआ लेकिन ये पानी और है


जो पढ़ी मैंने किताबे-आसमानी और है
वो कहानी दूसरी थी, ये कहानी और है

सच तो ये है हम जिसे समझे थे सच वो भी नहीं
लफ्ज़ की दुनिया अलग, शहरे-मआनी और है

जो बज़ाहिर है वही बातिन हो, ऐसा तो नहीं
जिस्म-ओ-जां के दरमियाँ रब्त-ए-निहानी और है

मौत की साअत से पहले राज़ ये खुलता नहीं
साँस लेना मुख़्तलिफ़ है, ज़िन्दगानी और है

मुख़्तलिफ़ है आइने का अक्स मेरी ज़ात से
फ़र्क़ है ख़ामोश रहना, बेज़बानी और है

मुझको हँसता देखकर ये मत समझना ख़ुश हूँ मैं
बज़्म के आदाब कुछ हैं, शादमानी और है

मर चुके हैं जाने कितनी बार हम लेकिन यहाँ
अब भी ग़ालिब एक मर्गे-नागहानी और है ......
-  तन्हाइयां कहती हैं "2005 से (नज़्र-ए-ग़ालिब )


5.

ठहरा हुआ सुकूँ से कहीं पर नहीं हूँ मैं
गर्दे-सफ़र हूँ मील का पत्थर नहीं हूँ मैं

खोया हुआ हूँ इस क़दर अपनी तलाश में
मौजूद हूँ जहाँ वहीं अक्सर नहीं हूँ मैं

वो पूछने भी आये तो तन्हाइयो मिरी
बादे-सबा से कहियो कि घर पर नहीं हूँ मैं

अब तक तो मुश्किलें मिरी आसाँ नहीं हुईं
ऐसा नहीं कि रंज का ख़ूगर नहीं हूँ मैं

होने से क्या है मेरे न होने से क्या नहीं
क्यूँकर हूँ मैं जहान में क्यूँकर नहीं हूँ मैं

अशआर हैं किसी के ये मेरी ग़ज़ल नहीं
ग़ालिब है कोई और सुख़नवर नहीं हूँ मैं ........
-  तन्हाइयां कहती हैं "2005 से (नज़्र-ए-ग़ालिब )

6.

ख़्वाहिशों से , वलवलों से दूर रहना चाहिये
जज़्रो-मद में साहिलों से दूर रहना चाहिये

हर किसी चेहरे पे इक तन्हाई लिक्खी हो जहाँ
दिल को ऐसी महफ़िलों से दूर रहना चाहिये

क्या ज़रूरी है कि अपने आप को यकजा करो
टूटे-बिखरे सिलसिलों से दूर रहना चाहिये

आप अपनी जुस्तजू का ये सफ़र आसाँ नहीं
इस सफ़र में मंज़िलों से दूर रहना चाहिये

वर्ना वहशत औ'र सुकूँ में फ़र्क़ क्या रह जायेगा
बस्तियों को जंगलों से दूर रहना चाहिये

इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जायेगी
पागलों को पागलों से दूर रहना चाहिये

जज़्र-ओ-मद : ज्वार-भाटा
-  "बेचेहरगी " 2010 से

कड़वे बादाम की खुशबू और 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा'

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गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ के उपन्यास 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा'प्रेम का महाकाव्यात्मक उपन्यास है. इस उपन्यास की न जाने कितनी व्याख्याएं की गई हैं. इसके कथानक की एक नई व्याख्या आज युवा लेखिका दिव्या विजयने की है- मॉडरेटर 
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महबूब कहे तुम मोहब्बत करती हो मगर वैसी नहीं। मैं पूछूँ कैसी? और वो सामने रख दे यह किताब और आँखें जगर मगर हो उठें पहली ही पंक्ति पर। 'कड़वे बादाम कीख़ुशबू उसे हमेशा एकतरफ़ा प्यार के भाग्य की याद दिलाती थी!'  मार्केज़ के अनेक विलक्षण कार्यों में से एक है 'लव इन  टाइम ऑफ़ कॉलरा।

किताब पढ़ना कई तरह का होता है। कई बार आप ख़ुद किरदार हो जाते हैं। कभी पात्रों को बाहर से देखते हैं। इस किताब को पढ़ते हुए मैं किरदार नहीं हो पायी। किरदार यूँ नहीं हो पायी कि फ़्लॉरेंटीनो-सी मोहब्बत करने की न मेरी कुव्वत थी न उस उत्कटता को सहन करने का साहस।मैं नैरेटर की गलबहियाँ डाले चरित्रों का जीवन पढ़ती रही। सादा दीख पड़ने वाली बातों का तला नैरेटर की आँखों से देखती रही। कितनी ही बातें समझ न आने पर उलझने की बजाय कथावाचक को टहोका देती रही कि समझाओ अब। 

मृत्यु से आरम्भ होने वाली यह प्रेम कहानी कई तहों को उधेड़ते हुई जीवन तक ले जाती है जब जहाज़ का कप्तान, बहत्तर वर्ष के नायक का अपराजेय और निडर प्रेम देख अनुभव करता है कि 'मृत्य से अधिक अपरिमितता जीवन में है।'

यह उपन्यास अन्य प्रेम कथाओं से इसलिए कुछ अलग है कि आरम्भ तब होता है जब प्रतीत होता है कि अंत निकट है। लेकिन यह सिर्फ़ प्रेम कथा नहीं है। प्रेम इसका मूल है परंतु प्रेम के अतिरिक्त बहुत सी गूढ़ छिपी हुई बातें भी हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। प्रेम त्रिकोण होने के अतिरिक्त यह प्रेम के असंख्य हो सकने वाले पहलुओं पर विचार करता है।  प्रेम, विवाह, वृद्धावस्था, मृत्यु, निष्ठा जैसे अनेक विषयों से डील करते हुए यह कहानी आगे बढ़ती है।

पतला दुबला, चिपके बालों और ढीला ढाला फ़्रॉक कोट पहने रहने वाला वाला नायक फ़्लॉरेंटीनो रोमांटिक उपन्यासों के नायक के लिए पूर्वनिर्धारित धारणाएँ तोड़ता है। उसके पास अपनी नायिका को रिझाने के लिए न अप्रतिम सुंदरता है न अद्वितीय विशेषता। वो ख़त लिखता है। प्रेम में डूबे हुए लम्बे ख़त। उपन्यास में एक भी ख़त की बानगी नहीं है लेकिन विवरण से हम कल्पना कर सकते हैं कि वो ख़त कितने मीठे, रसपगे होते होंगे। ख़तों की ख़ुशबू हम तक पहुँचती है। उसका प्रेम पहली दृष्टि में 'स्वीटहार्ट लव'लगता है परंतु धीरे धीरे उसके प्रेम के दूसरे पहलू स्पष्ट होते हैं। नायिका की एक झलक के लिए सुबह से रात तक उसके घर के सामने बैठे रहना, नायिका की ख़ुशबू से मेल खाते इत्र को पी जाना, ख़त का जवाब आने पर ख़ुशी के अतिरेक में गुलाब खाना, आधी रात को उसके लिए वाइलिन बजाते हुए गिरफ़्तार हो जाना, हर स्थान पर स्टॉकर की भाँति नायिका का पीछा करना, उसे कहीं न कहीं मनोरोगी प्रमाणित करता है। परंतु फिर भी, जब उपन्यास ख़त्म होता है तब उसके हर आचरण को दरकिनार करते हुए हम उसका प्रेम मुकम्मल होने का उल्लास महसूस करते हैं। 

प्रेम क्या है जैसा बुनियादी प्रश्न यह उपन्यास हमारे सामने रखता है। इस आसान प्रश्न का उत्तर उतना ही जटिल है। और इसकी जटिलताओं को सुलझाने का प्रयत्न करते हुए उपन्यास मानव मन और मस्तिष्क की सूक्ष्म पड़ताल करता है। उदाहरण के लिए, दो वर्ष तक नायक फ़्लॉरेंटीनो के पत्रों का उत्तर देने के पश्चात, विवाह का वचन देने के बाद फ़रमीना कुछ अंतराल बाद उसका परित्याग कर देती है। यह इतना आकस्मिक और अप्रत्याशित होता है कि पलट कर देखना पड़ता है कि जो पढ़ा सही पढ़ा या नहीं। यहाँ इस एक प्रसंग से कहानी कहने की कला पर मार्केज़ का कितना आधिपत्य है सिद्ध होता है। पहले क्षण जहाँ वो अपने प्रेमी को पत्र लिखने के लिए स्याही ख़रीद रही होती है। अगले ही क्षण उसके सामने आ जाने पर विगत वर्षों को भ्रम और बेवक़ूफ़ी मान हाथ के एक इशारे मात्र  से ख़ारिज कर देती है। किशोरावस्था में शुरू हुआ प्रेम सम्बन्ध उस वक़्त रूमानी लगा होगा मगर जब वो एक लम्बे प्रवास के बाद वापस लौटी उसकी सोच एक स्त्री की-सी हो गयी। स्त्री की सोच से क्या तात्पर्य है इसके अनेक विश्लेषण हो सकते हैं। फ़्लॉरेंटीनो का असौंदर्य दृष्टिगोचर हुआ अथवा उसके साथ कोई भविष्य नहीं है इसका भान हुआ। कच्ची उम्र का संवेदनशील प्रेम तरुणी के वयस्क हो जाने पर उसकी संतुलित और परिष्कृत अभिरुचि के कारण समाप्त हो जाता है। 
अर्थात् जो था वह प्रेम था या नहीं! नएपन को जीने की लालसा थी अथवा अनुभव प्राप्त करने की इच्छा। किसी न किसी स्तर पर प्रेम है परंतु दोनों ओर की तीव्रता में अंतर है। नायक के लम्बे और गहन पत्रों के उत्तर अपेक्षाकृत नपे तुले और संतुलित होते हैं। नायक से अधिक, नायिका प्रेम के अहसास से प्रेम करती प्रतीत होती है।  लेखक  ने मनोविज्ञान की सूक्ष्म पहेलियाँ रख छोड़ी हैं जिसको हम अपने बौद्धिक स्तर के अनुसार हल कर सकते हैं। 

मैं असमंजस में नैरेटर को देखती हूँ कि कहानी आगे बची है? प्रेमिका ने नकार दिया। अब क्या हो सकता है! किसी को जबरन मोहब्बत नहीं करवा सकते। 'मोहब्बत नहीं करवा सकते पर मोहब्बत को संभाल कर तो रख सकते हैं। जीवन लम्बा है और जीवन की गति अज्ञात।'अपने चिरपरिचित अन्दाज़ में नैरेटर बातें घुमाते हुए जवाब देता है। (ओह! क्या मैंने कोई शरारती मुस्कुराहट देखी।)

जब हमें लगता है हम किरदारों को जान रहे हैं और उनसे संबद्ध होने लगते हैं तभी चरित्र इतनी तेज़ी से अपनी छवि को तोड़ निकलने को आतुर हो जाते हैं कि हम अचम्भित हो देखते रह जाते हैं। 

अपनी वर्जिनिटी मात्र अपनी नायिका के लिए बचा कर रखने वाला नायक कैसे 'वुमनाइज़र'में तब्दील होता है यह देखना दिलचस्प है। फ़रमीना के प्रेम में आकंठ डूबा फ़्लॉरेंटीनो लगभग सेक्स मेनीऐक बन स्त्रियों का शिकार करता है। स्त्रियाँ उसके लिए सेक्स टूल हैं और सेक्स उसके लिए ड्रग है जिसके प्रभाव में वो अपनी पीड़ा को भुलाए रखता है। ( क्या प्रेम पीड़ा है! नैरेटर कुछ नहीं कहता। यह ख़ुद ही समझना होगा।) 

अपने लम्बे जीवन में ६२२ औरतों से सम्बंध और अनेक वन नाइट स्टैंड करने के पश्चात भी नायिका के लिए उसका प्रेम ख़त्म नहीं होता। प्रेम को विस्मृत करना सरल नहीं है और जिस प्रकार के ऑबसेशन से  हमारा नायक ग्रस्त है उसमें तो ज़रा भी मुमकिन नहीं। यहाँ मार्केज़ नायक का चरित्र जिस तरह से बुनते हैं वह काफ़ी पेचदार है और कई प्रश्न अपने पीछे छोड़ जाता है। पूरे उपन्यास में देह को प्रेम से अलग रखा गया है। देह के ज़रिए देह की संतुष्टि होती है मन की नहीं। सैकड़ों लोगों के साथ सो चुकने पर भी नायक की निष्ठा नायिका के लिए रत्ती मात्र कम नहीं होती। सम्बन्धों के प्रति ईमानदारी नापने का पैमाना क्या है।  देह, मन या दोनों? डॉक्टर उरबीनो का अपनी पत्नी के अतिरिक्त दो स्त्रियों से सम्बंध रखना छोटा छल है अथवा फ़्लॉरेंटीनो का सैकड़ों स्त्रियों के साथ सो रहने के बावजूद फ़रमीना के प्रेम में आकुल रहना बड़ी ईमानदारी है। उत्तर उपन्यास के अंत में हमें मिलता है जब वह फ़रमीना के सामने अपने 'वर्जिन'होने की घोषणा करता है तो हमें कुछ भी विचित्र नहीं लगता। यह असत्य होते हुए भी सत्य ही प्रतीत होता है। 

लुभावनी फ़ितरत से  इतर नायक का 'डार्क'पहलू बार बार उभर कर आता है। बहत्तर वर्ष की उम्र में, संरक्षण में रह रही चौदह वर्षीया दूर की रिश्तेदार से सम्बन्ध बनाने का वाक़या हो अथवा अपने से बड़ी उम्र की औरतों का साथ हो वह जितनी आसानी से अपने मन को अलग थलग रख सम्बन्धों में आगे बढ़ता है वह वाक़ई कई स्थान पर अचम्भित करता है। निर्दोष लगने वाला व्यवहार घातक तब सिद्ध होता है जब फ़्लॉरेंटीनो के साथ सम्बन्धों के बारे में मालूम होने पर एक पति गला काट कर अपनी पत्नी की हत्या कर देता है।या फिर चौदह साल की प्रेमिका उसके प्रेम में आत्महत्या कर लेती है। अंतरात्मा की आवाज़ की अवहेलना कर ख़ुद की ज़िम्मेदारियों से मुँह मोड़ना नायक की नैतिकता पर सवाल उठाते हैं। अपने सम्बन्धों के लिए संवेदनशील लोग कैसे दूसरों की संवेदनाओं को नकारते चले जाते हैं इसका उदाहरण हमारा प्रेम पीड़ित नायक है। 

मगर नायक  की तमाम विसंगतियों के बावजूद उस से सहानुभूति होती है। हम पात्रों के लिए संवेदना से भर जाते हैं। लेखक अपने पात्रों को बुनते हुए जजमेंटल नहीं होता है। सारे पात्र जटिल होते हुए भी ज़िंदगी जितने असल लगते हैं। कई दफ़ा अनुचित  होते हुए भी हम उन्हें आलोचनात्मक दृष्टि से नहीं देख पाते क्योंकि लेखक हमारी समझ विकसित करता चलता है। वो पात्रों की डिटेलिंग इस तरह करता है कि नैतिक रूप से ग़लत होते हुए भी हम निर्दयी होकर उन्हें नकारते नहीं बल्कि उनकी परिस्थितियों को समझते हुए उनके साथ बने रहते हैं। 

विवाह पर मार्केज़ के अपने स्टीरियोटाइप हैं। मार्केज़ विवाह में प्रेम और प्रसन्नता से अधिक स्थायित्व पर बल देते हैं। फ़रमीना विवाह के लिए डॉक्टर उरबीनो का चुनाव करती है परंतु प्रेम इस विवाह का कारण नहीं है। फ़्लॉरेंटीनो के अनुसार डॉक्टर की समृद्धि इसकी वजह है। परंतु असल में फ़रमीना की असुरक्षा इसका कारण है। एक स्थान पर उरबीनो की आत्मस्वीकृति है कि वह फ़रमीना से प्रेम नहीं करता परंतु यह भी मानता है कि प्रेम अंकुरित हो सकेगा। विवाह के बाहर उरबीनो के सम्बन्धों से दुखी हो फ़रमीना कुछ वक़्त के लिए घर अवश्य छोड़ती है परंतु अपने पति को नहीं। प्रचंड प्रेम न होते हुए भी एक अलहदा क़िस्म का प्रेम है जिस पर विवाह टिका रहता है। वैवाहिक जीवन की तमाम परेशानियों के बावजूद यह प्रेम बचा रहता है। प्रेम की रोमांटिक अवधारणाओं से इतर यह प्रेम अलग है। उनके अनुसार 'विवाह में सबसे बड़ी चुनौती ऊब पर विजय पाना है' 

जबकि फ़्लॉरेंटीनो विवाह को स्त्रियों के लिए बंधन मानता है। उसके अनुसार वैधव्य स्त्रियों को स्वतंत्रता प्रदान करता है। विधवा स्त्रियों का चरित्रांकन भी यही सिद्ध करता है। दुःख की एक निश्चित अवधि के बाद वे जिस तरह मुक्त हो जाती हैं, सेक्स में आक्रामक हो जाती हैं, वे कोई दूसरी व्यक्ति प्रतीत होती हैं।  जैसे अब तलक वे किसी क़ैद में जीवन व्यतीत कर रही थीं और अब अचानक ख़ुद की देह और आत्मा की अधिकारी हो गयी हैं। यहाँ वे सारी स्त्रियाँ स्वतंत्र नज़र आती हैं जो अकेली हैं और अपने मनपसंद साथियों के साथ सो रही हैं। स्त्रियों की स्वतंत्रता क्या मात्र देह की स्वतंत्रता है! नैज़रेथ अपने दैहिक सम्बन्धों पर टिप्पणी करती है, 'मैं तुम्हें पसंद करती हूँ क्योंकि तुमने मुझे वेश्या बनाया।'स्त्रियों के प्रति घिसी हुई मानसिकता क्या इस जुमले में नहीं दीखती जहाँ एक से अधिक सम्बंध बनाते ही वो वेश्या हो जाती है। यहाँ एक ही टकसाल से निकली स्त्रियाँ हैं जो उम्र को दरकिनार कर हमारे नायक के साथ सोने को अधीर हैं। बूढ़ी स्त्रियों से लेकर बच्चियों तक। 'स्त्री जब किसी पुरुष के साथ सोने का मन बना लेती है तब दुनिया की कोई ताक़त उसे पीछे नहीं हटा सकती।'क्या सच! नैरेटर ने कितनी कहानियाँ सुनायीं जहाँ स्त्रियाँ कैसी भी स्थिति में किसी के भी साथ सो रही हैं। अपने बलात्कार की स्मृतियों को 'चेरिश'कर रही हैं। क्या स्त्रियाँ सचमुच इतनी उन्मादी होती हैं! ( नैरेटर बस कहानियाँ कहता है। उसकी देखी सुनी या सोची हुई।) 

बहरहाल, जीवन के इक्यवान वर्ष, नौ महीने और चार दिन एकतरफ़ा प्रेम में डूबे रहने के बाद फ़रमीना का प्रत्युत्तर उसे मिलता है। परंतु पति की मृत्यु के पश्चात, पुराने प्रेम कि पुनरावृत्ति की बजाय नया प्रेम अँखुआता है। नायिका के मन में पुराने दिन की स्मृतियाँ हैं। परंतु वे स्मृतियाँ एक नॉस्टैल्जिया की तरह हैं जैसे पुराने घर की या बचपन की स्मृतियाँ होती हैं जिन्हें हम याद करते हैं परंतु वापस नहीं लौटते। वह फ़्लॉरेंटीनो को जानती है परंतु पुराने प्रेम के पुनरारंभ के लिए प्रस्तुत नहीं है। फ़्लॉरेंटीनो एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद प्रेम को नए सिरे से आरम्भ करता है और इसमें वो सफल भी होता है। एक नवयुवक की भाँति जीवन के अंतिम पड़ाव पर अपने प्रेम को पाने के लिए वह कमर कस लेता है। ( क्या प्रेम युद्ध है! फ़्लॉरेंटीनो के लिए तो यह अनवरत संघर्ष बना रहा जिस पर अब उसे विजय पानी ही है! यह चुनौती उसे फिर ऊर्जा से भर देती है।) उम्र प्रेम के बीच बाधक नहीं है। यहाँ जर्जर होती देह की महक है, उम्र के साथ घट गया पुरुषत्व है परंतु अनथक प्रेम का अभिलाषी मन है। 

क्या प्रेम रुग्णता है? पूरे उपन्यास में प्रेम की तुलना कॉलरा के लक्षणों  से की गयी है। नायिका का जवाब न आने पर व्यग्र नायक के बीमार पड़ने पर डॉक्टर कॉलरा होने का अंदेशा ज़ाहिर करता है। उपन्यास के अंत में प्रेम और कॉलरा की तुलना अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुँचती है जब फ़्लॉरेंटीनो जहाज़ के कप्तान को घोषणा करने का आदेश देता है कि जहाज़ पर कॉलरा का प्रकोप है। यद्यपि जहाज़ पर कॉलरा का कोई रोगी नहीं है फिर भी यह दावा पूर्ण रूप से ग़लत नहीं है क्योंकि जिस दिन नायिका ने उसे अस्वीकार किया था उसी दिन से नायक अनवरत अनुराग से ग्रस्त है। प्रेम का यह संक्रमण कॉलरा रोग के संक्रमण से बहुत अलग नहीं है। 

कहानी का प्लॉट लिनीअर नहीं है बल्कि ख़ूबसूरती से आगे पीछे ऑसिलेट होता है। लेखक का डिस्क्रिप्टिव नरेशन इतने ख़ूबसूरत बिंब बनाता है कि पाठक कई दफ़ा हैरान हो जाता है जब दृश्य उसके सामने उपस्थित हो जाते हैं। नैरेटर के कहे हुए वाक्य जीवन का सत्य उद्घाटित करते हैं। 

इंतज़ार  कठिन होता है मगर रूमान से भरा होता है। कितनी ही तकलीफ़ों से गुज़र लें प्रिय से मिलने की आकांक्षा ख़त्म नहीं होती। आप प्रेम में हैं और एक दिन पाएँ आपके प्रिय का प्रेम आपके लिए नहीं बचा। कौन सी राह खोजेंगे।कोई राह नहीं। प्रतीक्षा और वह भी जीवन भर के लिए, आसान राह नहीं है। नायक यही राह चुनता है और अपनी तमाम ख़ामियों के बावजूद इसीलिए ज़ेहन से उतरता नहीं है। नैरेटर को आँख भर देखने का मन होता है पर वो अब कहाँ। 

( मेरे महबूब तुम आना, इस दफ़ा मेरी मोहब्बत तुम्हें कम नहीं लगेगी।)


सुदीप नगरकर का उपन्यास 'वो स्वाइप करके उतर गई दिल में मेरे'

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सुदीप नगरकरअंग्रेजी में उपन्यास लिखते हैं और युवाओं के चहेते हैं. मैं जब पिछली बार पटना गया था पटना विश्वविद्यालय के विद्यार्थी सत्यम कुमार झा के हाथ में उनका उपन्यास देखकर चौंक गया था. मैंने सोचा उसके उपन्यासों को हिंदी में किया जाए. वह रोमांस तो लिखते हैं लेकिन आज के युवाओं का जीवन-दर्शन, प्यार, वफ़ा, दोस्ती, रिश्तों को लेकर आज के युवाओं का सोच भी उनके उपन्यासों में बहुत अच्छी तरह से उभरकर आता है. यह हिंदी में अनूदित उनका पहला उपन्यास है- 'वो स्वाइप करके उतर गई दिल में मेरे'. राजपाल एंड संज से प्रकाशित इस उपन्यास का अनुवाद मैंने ही किया है. पुस्तक अमेज़न की साईट पर उपलब्ध है. उपन्यास का एक अंश- मॉडरेटर 
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आपकी जो दिली ख्वाहिश होती है उसका अक्सर आपको अनुभव नहीं हो पाताI  हो सकता है आपको बारिश से प्यार हो, लेकिन जब सचमुच में बारिश हो तो हो सकता है कि आप छतरी के नीचे छिप जाएँI   आप शोहरत के लिए तड़प रहे हों लेकिन जब आप शोहरत हासिल कर लें तो हो सकता है कि आप काला चश्मा चढ़ा कर खुद को छिपा लेंI   इसी तरह, हो सकता है कि आप किसी इंसान को प्यार करते हों, लेकिन कई बार यही काफी नहीं होताI   कई बार आप जिसे प्यार करते हैं, वह आपके लायक ही न होI  
तुशिता निश्चित रूप से जीवन में बेहतर की हकदार हैI   एंडी की बांहों में उसने खुद को कभी सुरक्षित महसूस नहीं किया लेकिन फिर भी उसने उसको प्यार कियाI    उस शाम उसके साथ के लिए उसने होस्टल के नियम को करीब करीब तोड़ दियाI   हालांकि वह उससे डरी रहती थीI  
“एंडी, आओ चलते हैंI   यहाँ रहना सेफ नहीं है
“परवाह नहींI   कुछ भी नहीं होने वाला है
तुशिता उलझन में थी, और वह उससे बार-बार वापस चलने के लिए कह रही थी क्योंकि उसे कुछ गड़बड़ महसूस हो रहा था, लेकिन उस रात एंडी अपने प्लान को छोड़ने के मूड में नहीं थाI  
“बिलकुल चुप हो जाओ”, एंडी तुशिता के बार-बार टोकाटोकी से गुस्से में आते हुए बोलाI   तुशिता चुप हो गयी और अंजुना बीच पर कर्लिज शैक की तरफ चुपचाप चलने लगीI   उन्होंने अपनी मोटरसाइकिल दूर कोने में पार्क की थी क्योंकि शैक के आसपास न तो किसी कार न ही दोपहिया गाड़ी को लाने की इजाजत थीI    जब वे नजदीक पहुंचे तो उनको ट्रांस म्यूजिक की तेज आवाज सुनायी दी, और उन्होंने देखा कि रेस्तरां में कुछ विदेशी जॉइंट(ड्रग्स भरकर बनाया गया सिगरेट) और सिगरेट के कश उड़ाते हुए नाच रहे थेI  
“क्या तुम मुझे कुछ दे सकते हो?” एंडी ने काउंटर के पीछे खड़े आदमी से पूछाI  
“क्या?”
“पार्टी पिल, दोस्तI    एमडीएमए(MDMA)?”
जब काउंटर के पीछे वाला लड़का आगे आया तो तुशिता के चेहरे पर कुछ न समझने जैसा भाव थाI    वह उसको नाईजीरियाई लग रहा थाI   तुशिता को याद आया कि उसने उसको एक बार एंडी के साथ देखा थाI   जिस तरह से वे एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए उससे ऐसा लग रहा था कि दोनों एक दूसरे को बेहतर ढंग से जानते थेI  
“कितने हुये?” एंडी ने अपने वॉलेट से पैसे गिनते हुये पूछाI  
“3000 में आधा ग्राम
सौदा हो गयाI   उसने एंडी को पैकेट देते हुए आगे कहा, “जब भी इसकी और जरूरत हो तो रेस्तरां में आकर जैक के बारे में पूछनाI
एंडी ने सिर हिलाया और तुशिता को लेकर डांस फ्लोर की तरफ चला गयावह यह देखकर सदमे में थी कि उसकी उम्र की लड़कियां जॉइंट बना रही थीं और ड्रग्स इतनी आसानी से उनको उपलब्ध थाI   इस तरह की जीवन शैली की वह हामी नहीं थीI   शराब और सिगरेट पीना उसके लिए नयी बात नहीं थी लेकिन वह ड्रग्स से दूर ही रहती आयी थीI  
“तुम थोड़ा सा लेना चाहती हो?” एंडी ने तुशिता से पूछाI  
तुशिता ने न कह दिया, लेकिन एंडी उसको तब तक पटाता रहा जब तक कि उसने हार नहीं मान लीI  
“ओम नमः शिवाय...  ओम नमः शिवाय...  नमो शंकर शिवाय...” नशेड़ी बॉब मार्लो का गाया गाना बार बार बज रहा थाI   जब तक उन्होंने डांस करना शुरू किया तब तक वह नशे में टल्ली हो चुकी थीI   धीरे, धीरे, एंडी ने तुशिता की गर्दन को चूमना शुरू कर दिया, फिर उसके कन्धों कोI  
“क्या कर रहे हो?” तुशिता ने विरोध जतायाI  
“मैं यह कोशिश कर रहा हूँ कि तुम सहज हो जाओ
“इससे से तुम मुझे बुरी तरह से असहज बना रहे हो
हालाँकि, वह कुछ कर नहीं सकी और ड्रग के प्रभाव में होने के कारण उसकी छेड़छाड़ के वश में आ गयी, और जब वे एक दूसरे को किस करने ही वाले थे कि अचानक वहां के माहौल में अफरातफरी मच गयीI   तुशिता ने देखा सभी लोग पागलों की तरह शैक से बाहर भाग रहे थेI  
“एंडी, भागोI    हम मुश्किल में हैं”, नाइजीरियाई चिल्लायाI   एंडी ने तुशिता के बदन पर पकड़ ढीली की और और काउंटर की तरफ दौड़ कर गयाउसने उस नाइजीरियाई से कुछ कहा और पलक झपकते ही गायब हो गयाI   तुशिता ने एंडी के पीछे जाने की सोची लेकिन किसी ने उसके पैर को जोर से कुचल कर घायल कर दियाI   किसी तरह वह पास के वाशरूम में घुस पाने में सफल रहीI   जैसे ही उसने अंदर से दरवाज़ा बंद किया बाहर उसको गोलियों और चीख-पुकार की आवाजें सुनायी दीI   गोलियों की आवाज तेज और तेज होती गयी और वह कुछ देर तक आती रहींI  
“प्लीज, मेरी मदद करो”, उसने अपने एक करीबी दोस्त को फोन से मैसेज किया लेकिन उसने पाया कि मोबाइल का नेटवर्क काम नहीं कर रहा थाI  
तुशिता एंडी का इन्तजार करती रही लेकिन उसका कोई अता-पता नहीं थाI   उसको लगता था कि वह जो करती थी उसके ऊपर उसका वश था लेकिन ऐसा था नहींI    वह अंधी हो गयी थीI    उसके दोस्तों ने उसको एंडी से सावधान रहने के लिए कहा था लेकिन उसने सुना नहीं थाI   वह उस तरह की इंसान हो गयी थी जिस तरह के होने से उसने हमेशा नफरत की थीI   ऐसा लगता था कि उसने उसको अपनी आत्मा बेच दी थीI   वह उदास हो गयीI    वह कमजोर नहीं थी; उसको लगा था कि उसको प्यार हो गया थाI   लेकिन कड़वी सच्चाई यह थी कि उसके लिए उसने प्यार को महसूस नहीं किया, बल्कि वह डरती थीI   उस डर के कारण उसकी आँखों में और कुछ नहीं बल्कि आँसू आये और उसके दिल में उसने विश्वास की जगह ले लीI  
बाहर शोरगुल तेज और तेज होता जा रहा थाI   घबराहट में वह वाशरूम के एक कोने में छिप गयी, उसने आँखें जोर से भींच ली थींI   उसने पहले गोलियों की आवाजें कभी नहीं सुनी थी और इन अनजानी आवाजों ने उसको बुरी तरह डरा दिया थाI  
अचानक, पूरी तरह से ख़ामोशी छा गयीI   उसने बाहर निकलने के बारे में सोचा लेकिन बाहर निकलने का साहस नहीं कर सकीI   अगले ही पल, उसने अपने कंधे पर एक हाथ महसूस किया और उसने गोली की आखिरी आवाज सुनीI   वह डर के मारे जैसे जम सी गयी, और उसके कंधे पर जकड़ बढ़ गयीI    उसका दिमाग सुन्न हो गयाI   उसके दिमाग ने जाने कितने ख्याल दौड़ रहे थेक्या वह पुलिस वाला था? या कोई ड्रग डीलर? या कोई अजनबी जो इस मौके का फायदा उठाना चाह रहा था?
इंसान होने के नाते हम लोगों को इस बात की आजादी है कि हम किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करेंI   हम जो भी फैसला लेते हैं वह हमें किसी अलग तरह की राह पर ले जाता है और उसका अपना महत्व होता हैI   उस अजनबी की संदेह भरी छुअन ने उसको पलक झपकते ही फैसले पर पहुंचायाI  
अगर आप किसी लड़की से प्यार करते हैं तो उसके लगातार बातें करते जाने से आप परेशान नहीं होतेI   अगर आप किसी लड़की को मकान देते हैं तो वह आपको घर देगीI   अगर आप उसको किराने का सामान लाकर देते हैं तो वह आपके लिए भोजन बना देगीI   अगर आप उसको मुस्कराहट देते हैं तो वह आपको अपना दिल दे देगीI   अगर आप उसको वीर्य देते हैं तो वह आपको बच्चा देगीI   उसको जो भी दिया जाता है वह उसमें बरकत लाती हैI   अगर आप उसो घटियापन देते हैं तो बदले में बहुत सारा मल पाने के लिए तैयार रहना चाहिये!

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न्यू टाइप हिंदी में हैपी हिंदी डे!

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आज हिंदी दिवसहै. यह दिवस क्या हिंदी का स्यापा दिवस होता है? हर साल सरकारी टाइप संस्थाओं में हिंदी के विकास का संकल्प ऐसे लिया जाता है जैसे 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने देश के विकास का संकल्प लिया था. सरकारी स्यापे से अलग हिंदी 'नई वाली'हो चुकी है जबकि राजभाषा वाले भी भी पुरानी हिंदी के विकास में लगे हैं. हिंदी दिवस पर कुछ अलग टाइप-सा. लिखा है युवा लेखिका अणुशक्ति सिंहने- मॉडरेटर 
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खटाक... कमरे का दरवाजा हौले से खोलने की कोशिश हुई थी,लेकिन बात बनी नहीं। हमेशा की तरह उसने यहाँ भी जल्दबाजी दिखाई और आवाज़ कर बैठी। वह बाहर निकलना चाहती थी। शहर भर की रौनक देखना चाहती थी। अरे,कल का दिन उसका होने वाला है। किसी ने उसे बताया था कि पिछले 15 दिन से लोग उसके नाम पर ढोल पीट रहे थे। सच्ची मे नसीब वाली है... इतना प्यार,वो भी आज के जमाने मे। खुशी से उसकी 36” इंच वाली फ़िगर 2 इंच ज़्यादा चौड़ी हो गयी थी। सुना था कि उसके नाम पर जलसे वलसे भी होने वाले हैं। भैया,अब तो बाहर निकलना बनता है। आखिर देखा तो जाये,लोग उसे कितना प्यार करते हैं... हाँ तो वो बाहर निकली। हौले से पाँव बढ़ाए और बिना किसी की नज़र मे आए,सीधा बाउंड्री के पार। निकलने के साथ ही दिल टोटे-टोटे करने लगा। देखो ज़रा,इस शहर मे उसके नाम पर पोस्टर,बैनर छप रहे हैं। भई,सच मे उसके दिन फिरने लगे हैं। थोड़ा आगे बढ़ी तो देखा,एक जगह कुछ नई उम्र के लड़के-लड़की कुछ सजावट कर रहे हैं। इधर जाना ठीक नहीं होगा। ये नई उम्र वाले उसको पहचानते भी नहीं होंगे। कहीं और चला जाये। तभी अचानक से एक पोस्टर उड़ा और उसके पास आ गिरा। अरे,ये तो कुछ जाना पहचाना लग रहा है। ओहहो... इस पर तो उसी का नाम लिखा है। माने कि ये आजकल के लड़के-लड़की भी उसको पहचानते हैं। सही मे,भगवान जब भी देता है छ्प्पर फाड़ कर देता है। इन बच्चों से तो उसे ज़रूर मिलना चाहिए। बस क्या था,तीन छलांग लगाई और पहुँच गयी उनके पास। यहाँ तो कोई बड़ा कार्यक्रम हो रहा था। हर तरफ उसका नाम छपा था। लेकिन इन लोगों ने शायद गलती से थोड़ी मिस्टेक कर दी थी। हिज्जे तो सही लगाया था,बस नाम के आगे दो पुच्छले लगा दिये थे। अरे उसे अब तक अपना नाम सिर्फहिन्दीपता था। कभी-कभार कुछ शौकीन लोग उसे हिंदुस्तानी बुला लिया करते थे। ये न्यू टाइप हिन्दीकिसने बुलाना शुरू कर दिया था उसे?कोई बात नहीं... नए बच्चे हैं। मालूम नहीं होगा। अभी जाकर बताती हूँ। सुधार लेंगे...
हैलो,हाय गाय्ज़...
हाय... या...
वेल,माईसेल्फ़ हिन्दी... एक्चुअल्ली,आप लोगों ने ये मेरा नाम थोड़ा गलत लिख दिया है। माइ नेम इज़ ओन्ली हिन्दी। नॉट न्यू टाइप हिन्दी...
इक्सक्यूज मी... हू आर यू?
बोला तो अभी हिन्दी
मैडम,ये हिन्दी क्या बला है?वी नो ओन्ली न्यू टाइप हिन्दी
अरे,मैं उसी न्यू टाइप हिन्दी की हिन्दी हूँ...
देखिये मैडम,आपको कोई गलतफहमी हुई है। हिन्दी विंदी बहुत पुराना कान्सैप्ट है। हम नए लोग हैं... वी टॉक ओन्ली अबाउट ट्रैंडी थिंग।
वाट द हेल?नाम भी मेरा... दिन भी मेरा। लेकिन शिगूफ़ा न्यू टाइप हिन्दी के नाम का। ये क्या नया चल रहा है मार्केट मे। लगता है वो सच मे आउटडेटेड हो गयी है। यहाँसे निकलने मे ही भलाई है। वैसे रही तो वो सब दिन की चोर है। पहले शब्द हड़पती थी अब इधर-उधर नज़रें मार लेती है। हाँ,तो जाते जाते उसने देखा कि न्यू टाइप हिन्दीमे सच मे उसका डब्बा गुल है। इधर तो अङ्ग्रेज़ी बहन ने घुसपैठ मार रखा है। ठीक ही है... आजकल उसकी बहन काफी हॉट लगती है। भला हो उसका जिसने उसकी बहन के बहाने उसके नाम को भी थोड़ी इज्ज़त दे दी।
बड़ी एकसाइटेड होकर निकली थी। पहला ही धक्का दिल के हज़ार टुकड़े कर गया। कोई नहीं,इधर न सही। इस शहर मे उसके दीवाने बहुत हैं। कोई तो उसको याद कर ही रहा होगा। वो थी ही बेवकूफ़ जो नए बच्चों के बीच आई। इनका कोई भरोसा नहीं। पुराने मुरीद ही अक्सर वफा फरमाते हैं। हाँ तो मोहतरमा,आगे बढ़ीं,गाना गाते हुए,‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले। दो चार गली पार करते ही एक और जलसा केंद्र दिख गया। यहाँ भी उसके नाम पर उत्सव होना था। पूरी सजावट हो चुकी थी। इसलिए शायद आस-पास कोई नज़र नहीं आ रहा था। बस एक बूढ़ा चौकीदार खर्राटे भर रहा था।   इस बार वह फिर से अजीब टाइप नहीं फील करना चाह रही थी। पक्की तौर पर अपना नाम देखा। यहाँ कोई न्यू टाइप या ओल्ड टाइप नहीं लगा था उसके नाम के आगे या पीछे। यानी यह सचमुच उसके हॅप्पी बर्थडे के लिए था। इस बार वाला एकसाइटमेंट जस्टिफाइड था। भई,इनलोगों को तो ध्न्यवाद बोलना ज़रूरी है। चौकीदार को जगाकर उससे बात करना मुफीद रहेगा।
भैया चौकीदार,मैं हिन्दी... आपसे बात करना चाहती हूँ। आपको धन्यवाद कहना है।
आधी रात मे,कोई औरत...
चौकीदार आल इज़ वेलकहता हुआ हड़बड़ा कर उठ बैठा।
जी मैडम... कहिए क्या बात। इतनी रात को काहे उठाया?
अरे भैया,नाराज़ क्यों होते हैं। मैं हिन्दी हूँ। आपको बस धन्यवादकहना था। ये आपलोग जो मेरे नाम पर उत्सव कर रहे हैं,उससे मेरा रोम-रोम खिल उठा है।
मैडम,जाइए... आधी रात मे मर्दों की नींद खराब करना अच्छी औरतों के लच्छन नहीं हैं। और आप हैं कौन?आपके नाम पर जलसा क्यों होगा?
अध्यक्ष साहेब के पास ऊपर से आर्डर आया था। सुना है कोई राष्ट्र भाषा है। उसका जन्मदिन है कल। इसलिए ये जलसा हो रहा है। साल मे एक बार ई जलसा हो जाता है तो पूरी समिति का बारह महीने का खर्चा चलता रहता है। बाकी किसको फुर्सत है। हमारे साहब तो धुआँ भी अङ्ग्रेज़ी में छोडते हैं।
हिन्दी को अब जवाब नहीं सूझ रहा था। जिस दिल के वहाँ हज़ार टुकड़े हुए थे,वो यहाँ मिक्सी मे पिस गया था। खैर,ग़म तो कम करना था। और टूटे दिल की दवा तो बस मधुशाला है। मेल कराती मधुशाला... हिन्दी अब फ्लैशबैक मे चली गयी थी। एक ज़माना था जब उसके पास आशिक़ों का जमावड़ा हुआ करता था। उसकी बात करने वाले करने वाले कवि और लेखक आशिक। अब तो स्याले सारे फर्जी हैं। कवि भी कविता कम मैनेजमेंट ज़्यादा करते हैं। पोइट्रि,नॉवेल मैनेजमेंट... यू नो। ;)
अरे रात के 12 बज गए हैं। ये कमबख्त मधुशाला भी आजकल दो घंटे पहले बंद हो जाती है। चलो हिन्दी,वापस चला जाये... बैक्ग्राउण्ड मे गाना बज रहा है जब दिल ही टूट गया जीकर क्या करेंगे...

अरे नहीं। भला हो इन बॉलीवुड वालों का। जब तक ये हैं,हिन्दी तेरीनब्ज़ चलती रहेगी... 

रेखा के रहस्य को उद्घाटित करने वाली किताब

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इन दिनों यासिर उस्मानद्वारा रेखा पर लिखी गई किताब'रेखा: द अनटोल्ड स्टोरी'की अंग्रेजी में बहुत चर्चा है. जगरनौट प्रकाशन से प्रकाशित यह किताब अब हिंदी में भी आने वाली है. बहरहाल, युवा लेखिका दिव्या विजयने अंग्रेजी की इस किताब को पढ़कर हिंदी में इसके ऊपर पहली टिप्पणी की है- मॉडरेटर 
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'जुस्तजू जिसकी थी उसको तो  पाया हमने
इस बहाने से मग़र दुनिया देख ली हमने'

सिरहाने रखी किताब के कवर को बहुत देर तक उलट पलट देखने के बाद पढ़ना शुरू किया। फ़्रंट और बैक पर रेखा की एक एक तस्वीर है जिन्हें पहले कई बार देखने के बावजूद एक़बारगी उनकी  ख़ूबसूरती में खोया जा सकता है। दूसरी ख़ूबसूरती किताब के भीतर है जिसे यासीर उस्मान ने अंक-दर-अंक अपनी किताब में उकेरा है। रेखा नेकिताब के लिए उनसे बात नहीं की फिर भी किताब पढ़ते हुए एक जादू ज़रूर जागता है क्योंकि किताब पूरी किए बग़ैर आप रख नहीं पाते। और रात एक बजे किताब ख़त्मकरने के बाद महसूस किया कि रेखा की बाबत भले ही जो भी किंवदंतियाँ प्रचलित हों वे भीतर से भी उतनी ही प्यारी और ख़ूबसूरत हैं। रात फिर यूँ डूबी कि उमराव जान मेरेफ़ोन में उतर आयी और रात भर गाती रही। 

यूँ मुझे लगता है रेखा अगर बात करतीं तो किताब की शक्ल दूसरी हो सकती थी और कई बातों पर से परदा उठ सकता था। फिर भी लेखक ने अपने शोध में कोई कसर नहींरख छोड़ी है। उनके जन्म से पहले से अब तक लेखक ने खोजबीन कर काफ़ी सामग्री जुटायी है। अधिकतर बातें लोगों को मालूम होंगी लेकिन एक जगह सारी बातों कोतारतम्यता से पढ़ रेखा की यात्रा को बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। 

लेखक कहते हैं किताब के लिए लोगों के इंटरव्यू लेते वक़्त लोगों ने रेखा की बाबत घोर अश्लील बातें कहीं और उनके प्रेम सम्बन्धों पर बेहूदा बातें कीं। यह सब 'ऑफ़रिकॉर्डकहा गया। उन्हीं लोगों ने 'ऑन रिकॉर्डहोने पर उनकी तारीफ़ में सामान्य वक्तव्य दिए जिनमें कुछ भी ठोस नहीं था। राजेश खन्ना की जीवनी लिखते समय जिनलोगों ने खुल कर अपनी राय दी थी वही लोग रेखा के मामले में विमुख नज़र आए। ख़ूब आधुनिक समझी जाने वाली फ़िल्म इंडस्ट्री का 'हिपोक्रेटव्यवहार यहाँ समझ आताहै। फिर भी गुलज़ारश्याम बेनेगलमुज़फ्फर अली सरीखे कुछ लोगों ने रेखा से सम्बंधित अपनी यादें बाँटी हैं। 

रेखा हों और अमिताभ का ज़िक्र  हो तो बात पूरी नहीं होती। 'अगली डकलिंग'' कही जाने वाली रेखा अपने मेकओवर का सारा श्रेय अमिताभ को देती हैं। और यह मेकओवरमात्र जिस्मानी  होकर कहीं गहरा था। अपनी अनुशासनहीनता के लिए कुख्यात रेखा अमिताभ के सम्पर्क में   सिर्फ़ सेट्स पर वक़्त पर आने लगीं बल्कि फ़िल्म मेंअपने किरदार को लेकर भी काफ़ी सजग हो गयीं। अमिताभ के सम्पर्क में आने के बाद वे काफ़ी संयत हो गयीं।

किताब पढ़ते हुए अहसास होता है जिस रेखा को हम अभी देखते हैं वो उन दिनों की रेखा से कितनी अलग है। मुखर और ज़िंदादिल रेखा किस तरह अपने खोल में सिमटरहस्य का पर्याय होती चली गयीं। चंचल चपला रेखा ने कब मौन धारण कर लिया लेखक पुराने वक़्त में गोता लगा पड़ताल करता है।

उनके उस वक़्त के साक्षात्कार के अंश पढ़कर आपको ग़ज़ब रोमांच हो आएगा। अपनी व्यक्तिगत जीवन के बारे मेंअपने प्रेम सम्बन्धों और अपनी भावनाओं के बारे मेंउन्होंने बेलौस मीडिया को बताया है।

अमिताभ को लक्ष्य कर वे एक जगह कहती हैं, " जब मैं प्यार में हूँतब मैं पूरी तरह से इसमें हूँ। हर घंटे के हर मिनट मैं 'उसकेबारे में सोच रही होती हूँ।अपने प्रेम कोलेकर वे सदा मुखर रहीं। भले ही वो जीतेन्द्र होंविनोद मेहरा होंकिरण कुमार हों अथवा अमिताभ हों उन्होंने हमेशा सुर्ख़ियाँ बटोरीं। वे हमेशा मीडिया की स्टार रहीं। अपनीबेबाक़ टिप्पणियों से वे हमेशा चर्चा में रहती थीं। चाहे वो शादी के पहले दैहिक सम्बन्धों को लेकर उनका रूख हो अथवा शादी से पहले अपने गर्भवती  होने को निपट संयोगकहना। इस तरह की उक्तियाँ उस वक़्त हंगामा बरपा दिया करती थीं। 

ख़ैर यह वाली रेखा तब खो गयीं जब उनके पहले 'अधिकृतपति मुकेश अग्रवाल ने आत्मघात कर लिया। इसका ज़िम्मेदार मीडिया ने और आम लोगों ने रेखा को ठहराया।यही नहीं उन्हें 'चुड़ैल', 'डायनआदि विशेषणों से नवाज़ा गया। फ़िल्म इंडस्ट्री के अधिकतर लोग उनसे विमुख हो गए और उन्हें काम मिलना बंद हो गया। परंतु वे फ़ीनिक्सकी तरह अपनी ही राख से जन्मीं। अपने ही अवशेषों से उन्होंने बार बार ख़ुद को गढ़ा। उन्होंने इस डिप्रेसिंग स्थिति का अपने अन्दाज़ में सामना किया लेकिन इसके पश्चातवे दुनिया से कट गयीं। संसार ने उनका बहिष्कार किया थाउन्होंने संसार को बहिष्कृत कर जैसे प्रतिशोध लिया हो। लेखक यह सारी बातें विस्तार से सामने रखते हैं। मुकेशके दोस्त,  रिटायर्ड आई.पी.एसनीरज कुमार जिन्होंने इस केस की पड़ताल भी की थीके वक्तव्य भी किताब में हैं।

 चौदह वर्ष में ही 'सेक्स किटनके नाम से मशहूर हो जाने वाली रेखा को अपने अभिनय के लिए 'घरफ़िल्म से पहचान मिली जिसके लिए गुलज़ार ने कहा था "वो उसकिरदार को लिबास की तरह पहन लेती है।इसके पश्चात उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने बेहतरीन निर्देशकों के साथ बेहद ख़ूबसूरत फ़िल्में दीं। 'दूसरी औरतकेकिरदार के प्रति शायद उनके मन में कोई सॉफ़्ट कॉर्नर था इसलिए उन्होंने बहुत सी फ़िल्मों में गणिका का किरदार निभाया। क्या (अव)चेतन मन में अपने असल जीवन कोवे उन किरदारों से जोड़ उनसे हमदर्दी महसूस करती थीं!  लेखक की पैनी दृष्टि उनकी आदर्श सोफ़िया लोरेन तक पहुँची है। रेखा और सोफ़िया का संघर्ष आश्चर्यजनक तौरपर एक हद तक समान है। 

रेखा की हाज़िरजवाबी की कई बानगी किताब में है। मसलन १९८१ में रेखा को उमराव जान के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से नवाज़ा गया तब तत्कालीन राष्ट्रपतिनीलम संजीव रेड्डी ने उनसे प्रश्न किया "आपकी माँग में सिंदूर क्यों है?" रेखा ने तुरंत उत्तर दिया, "जिस शहर से में आयी हूँवहाँ सिंदूर लगाना फ़ैशन का पर्याय है।उनदिनों उनके सिंदूर ने काफ़ी खलबली मचायी थी। पर रेखा 'सेन्सेशंसको कैरी करना बख़ूबी जानतीं थीं। 

लेखकअमिताभ बच्चन की जीवनी की लेखिका सुष्मिता दासगुप्ता के हवाले से कहते हैं "मैं मानती हूँ कि अमिताभ पहले दिन से जानते थे कि वह रेखा के लिए गम्भीरनहीं हैं। वह अपनी 'क्लासको लेकर भी काफ़ी सतर्क थे। रेखा शायद उनकी 'ईगो ट्रिपथीं।जबकि अमिताभ कभी इस मसले पर या इसकी वजह से उपजे विवाद पर नहींबोले। वे मात्र एक बार १९९७ में सिमी ग्रेवाल को दिए इंटरव्यू में इस बाबत बोले थे जिसमें उन्होंने ऐसे किसी भी सम्बंध से साफ़ इंकार किया। उमराव जान के निर्देशकमुज़फ़्फ़र अली को फ़िल्म बनाते वक़्त रेखा के जीवन को भीतर से देखने का अवसर मिला था। वे याद करते हुए कहते हैं कि उन दिनों अमिताभ 'उमराव जानके सेट परअपना अधिकतर वक़्त बिताते थे। अंत में वे यह भी कहते हैं, "रेखा के साथ ग़लत हुआ। अमिताभ को उनसे शादी करनी चाहिए थी।

उनके बोले बग़ैर सत्य से परिचय नहीं हुआ जा सकता परंतु रेखा के जीवन और मन पर इस एक पुरुष की छाप स्पष्ट और सबसे अधिक दिखती है। किताब में हर मुमकिनस्रोत से प्रामाणिक जानकारी जुटाने का प्रयास किया गया है। प्रश्नों के उत्तर सपाट ढंग से भले  मिलते हों पर रेखा के रहस्यमयी जीवन पर रोशनी ज़रूर पड़ती है। किताबमें उनकी सेक्रेटेरी फ़रज़ाना से उनके सम्बन्ध पर पूरा एक अध्याय है। अलग अलग व्यक्तियों की टिप्पणियाँ हैं जिनमें उन दोनों के सम्बन्धों को 'अजीबठहराते हुए कहागया कि वे दोनों एक दूसरे की मौजूदगी में पति-पत्नी की भाँति पेश आते हैं। फ़रज़ाना की वेश भूषा अमिताभ से मिलती जुलती होने पर भी सवाल उठे हैं। लेखक जेरी पिंटोकहते हैं, "इंडस्ट्री में आदमियों के हाथों प्रताड़ित हुई बहुत सी स्त्रियों के दूसरी स्त्रियों के साथ सम्बंध कोमलसहजप्रसन्नता प्रदान करने वाले और विकास में सहायक रहे।शायद इसीलिए फ़रज़ाना धीरे धीरे रेखा के लिए अमिताभ का पर्याय (?) होतीं चली गयीं।"

१९७२ में स्टारडस्ट में उनके ऊपर छपे एक लेख का शीर्षक था ' ख़ूबसूरत पर अभिशप्त।क्या रेखा वाक़ई अभिशप्त हैं। पीड़ा उनकी आँखों में झलकती है। अपने पिता द्वारास्वीकारे जाने की चाह हो अथवा एक साथी की ललककुछ चाहतें कभी पूरी नहीं होतीं। ( यूँ बहुत बाद में१९९४ में एक अवॉर्ड शो में उनके पिता ने उन्हें अपनी पुत्री के रूपमें स्वीकार किया था) परंतु अपूर्णता के बीच जीवन की राह निकाल लेना ही योद्धा की निशानी है। 

किताब आकर्षक और रोचक बन पड़ी है। रेखा के प्रशंसकों के लिए यह 'ट्रीटहै। और जो प्रशंसक नहीं है (लेखक ख़ुद भी रेखा के बहुत बड़े प्रशंसक नहीं हैंउनके लिए गुज़रेहुए समय की स्मृतियाँ हैं। यूँ उनकी फ़िल्मों पर किताब में और बात की जा सकती थी। उनके द्वारा निभाए गए चरित्रों का थोड़ा ब्योरा किताब को और ठोस बना सकताथा। 

लफ़्ज़ बेमानी हो जाते हैं ग़र जो सिर्फ़ किसी पर आघात करते हैं। जीवनी लिखते वक़्त लेखक को अधिक सतर्क रहना पड़ता है। सच को यूँ सामने रखना होता है कि किसीको कष्ट भी  पहुँचे और सत्य सबके सामने  जाए। और जीवनी की नायिका अगर रेखा जितनी विवादास्पद हों तो लेखक की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है। लेखक नेसावधानी से सारा घटनाक्रम हमारे सामने रखा है। रेखा के सम्मान का पूरा ध्यान रखते हुए। कड़वी से कड़वी बात को यूँ पेश किया है कि आप ही उनकी कड़वाहट कम होजाती है। तिलिस्म यूँ गहराता है कि अपनी शर्तों पर जीतीं हुईं रेखा हमें ख़ुदपसंद लगने की बजाय हर हाल में ख़ूबसूरत लगती  हैं। 



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