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रस्किन बांड की कहानी 'अँधेरे में एक चेहरा'

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रस्किन बांड ने भूतों-प्रेतों की अलौकिक दुनिया को लेकर अनेक कहानियां लिखी हैं. उनकी ऐसी ही कहानियों का संकलन 'अँधेरे में एक चेहरा'नाम से राजपाल एंड संजप्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. अंग्रेजी से इन कहानियों का अनुवाद किया है युवा लेखिका रश्मि भारद्वाजने. उसी किताब से एक कहानी- मॉडरेटर 
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अंधेरे में एक चेहरा
 एंग्लो इंडियन शिक्षक मिस्टर ऑलिवर एक बार शिमला हिलस्टेशन के बाहर बने अपने स्कूल के लिए देर रात लौट रहे थे ।मशहूर लेखक रुडयार्ड किपलिंग के समय से भी पहले ,यह स्कूल अंग्रेज़ी पब्लिक स्कूलों की तर्ज़ पर चल रहा था और यहाँ पढ़ने वाले बच्चे ब्लेज़र,टोपियों और टाई में सजे अधिकांशतः समृद्ध भारतीय परिवारों के थे । प्रसिद्ध अमरीकी लाइफ़ पत्रिका ने  एक बार भारत पर किए गए अपने फीचर में इस स्कूल की तूलनाइंग्लैंड स्थित प्रसिद्ध लड़कों के स्कूल इटेन से करते हुए इसे इटेन ऑफ ईस्टकी संज्ञा दी थी। मिस्टर ऑलिवर यहाँ कुछ सालों से पढ़ा रहे थे।

अपने सिनेमा घरों और रेस्तरां के साथ शिमला बाज़ार स्कूल से लगभग तीन मील दूर था और कुँवारे मिस्टर ऑलिवर अक्सर शाम को घूमने शहर की ओर निकल पड़ते थे और अंधेरा होने के बाद देवदार के जंगल से गुजरते छोटे रास्ते से स्कूल लौटते थे । तेज़ हवा चलने पर देवदार के पेड़  से निकलती उदास ,डरावनी सी आवाज़ों की वजह से अधिकांश लोग उस रास्ते को नहीं इस्तेमाल कर मुख्य रास्ते से ही जाते थे । लेकिन मिस्टर ऑलिवर भीरु या कल्पनाशील नहीं थे । उन्होंने एक टॉर्च रखा हुआ था जिसकी बैटरी ख़त्म होने वाली थी ।  टॉर्च से निकलता अस्थिर प्रकाश जंगल के सँकरे रास्ते पर पड़ रहा था । जब उसकी अनियमित रोशनी एक लड़के की आकृति पर पड़ी,जो चट्टान पर अकेले बैठा हुआ था ,मिस्टर ऑलिवर रुक गए । लड़कों को अंधेरे के बाद बाहर रहने की अनुमति नहीं थी।
तुम यहाँ  बाहर क्या कर रहे हो,लड़के?’मिस्टर ऑलिवर ने थोड़ी कठोरता से उसके पास जाते हुए पूछा ताकि वह उस बदमाश को पहचान सके । लेकिन उस लड़के की ओर बढ़ते हुए मिस्टर ऑलिवर को यह महसूस हुआ कि कुछ तो गड़बड़ है। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह लड़का रो रहा है। उसने अपना सिर झुका रखा था ,अपने हाथों में उसने अपना चेहरा थाम रखा था और उसका शरीर झटकों के साथ हिल रहा था । वह एक विचित्र ,आवाज़हीन रुलाई थी और मिस्टर ऑलिवर को साफ़ तौर पर थोड़ा विचित्र महसूस हुआ। 
अच्छा ,क्या बात है ?’उनकी आवाज़ में अब क्रोध की जगह सहानुभूति थी । तुम क्यों रो रहे हो?’लड़के ने न उत्तर दिया न ऊपर देखा। उसका शरीर पहले की तरह खामोश सिसकियों के साथ हिलता रहा । अरे बच्चे ! हो गया ,तुम्हें इस समय बाहर नहीं होना चाहिए । मुझे बताओ अपनी परेशानी। ऊपर देखो ! लड़के ने ऊपर देखा । उसने चेहरे से अपने हाथ हठाए और अपने शिक्षक की ओर देखा । मिस्टर ऑलिवर के टॉर्च की रोशनी उस लड़के के चेहरे पर पड़ी- अगर आप उसे एक चेहरा बुलाना चाहो तो ।
उस चेहरे पर आँखें,कान,नाक,मुँह कुछ भी नहीं था । वह बस एक गोल चिकना सिर था और उसके ऊपर स्कूल की टोपी पड़ी थी ! और यहीं पर यह कहानी ख़त्म हो जानी चाहिए थी । लेकिन मिस्टर ऑलिवर के लिए यह यहीं ख़त्म नहीं हुयी ।
उनके कांपते हाथों से टॉर्च गिर पड़ी । वह मुड़े और गिरते पड़ते हुए भी पेड़ों के बीच से तेज़ी से भागते हुये मदद के लिए चिल्ला रहे थे । वह अब भी स्कूल की इमारत की तरफ़ ही दौड़ रहे थे की उन्होने रास्ते के बीच में एक लालटेन झूलती हुई देखी। मिस्टर ऑलिवर चौकीदार से टकरा कर लड़खड़ाए और हाँफते हुआ सांसें लेने लगे। क्या बात है ,साहेब?’चौकीदार ने पूछा । “ क्या  वहाँ कोई दुर्घटना हुई है?’आप दौड़ क्यों रहें हैं?’
मैंने कुछ देखा – कुछ बहुत ही भयावह – जंगल में एक रोता हुआ लड़का – और उसका चेहरा नहीं था!
चेहरा नहीं ,साहेब?’
आँख ,नाक ,मुँह – कुछ नहीं!
क्या आपका मतलब है कि वह ऐसा था साहेब?’चौकीदार ने पूछा और रोशनी अपने चेहरे के ऊपर ले गया । चौकीदार के चेहरे पर ना आँखें थीं  ,ना कान ,कोई और अंग नहीं - यहाँ तक कि भवें भी नहीं । और तभी हवा चली और लैंप बुझ गया। 





क्यों 'पिंक'जैसी फिल्मों की जरूरत है संवेदनहीन पुरुष समाज के लिए?

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अनिरुद्ध रॉय चौधरी निर्देशित और रितेश शाह लिखित फिल्म 'पिंक'की बड़ी चर्चा है. इस फिल्म के प्रभाव को लेकर, इसके द्वारा उठाये गए सवालों को लेकर लेखिका दिव्या विजयने यह टिप्पणी लिखी है- मॉडरेटर 
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एक मौन चीख़ हृदय से हर बार निकलती है जब लड़कियों को परदे पर प्रताड़ित किया जाता है। और प्रताड़ना क्यूँ? क्योंकि वो लड़कियाँ हैं! और लड़की होकर वो कर रही हैं जो 'अच्छी'लड़कियाँ नहीं करतीं। मुझे दुःख होता है हमें इक्कीसवीं सदी में ऐसे फ़िल्मों की आवश्यकता है और इस से भी अधिक पीड़ा इस बाबत कि नतीजा वही ढाक के तीन पात। हम थिएटर  तक जाते हैं, संवादों पर तालियाँ बजाते हैं लेकिन बग़ल में बैठी अकेली लड़की को देख मन ही मन अनगिन कल्पनाएँ करते हैं।

अपने आस पास नज़र घुमा देखने पर कितने लोग नज़र आएँगे जो सही अर्थों में 'सेक्सिस्ट'नहीं हैं। सोचने पर कौन सा एक शख़्स आपके दिमाग़ में सबसे पहले कौंधता है जिसने आपके स्त्री होने के कारण कभी जज न किया हो। आपके पिता, भाई, पति, प्रेमी या दोस्त कौन ऐसा है जिसने जीवन में कभी सिर्फ इस वजह से कोई सलाह न दी हो कि आप स्त्री हैं भले ही वो आपकी सुरक्षा के लिए हो या घर की इज़्ज़त के लिए। अकेले रात में कहीं जाते हुए कितनी लड़कियाँ ऐसी हैं जो अपने पीछे आती क़दमों की आहट से चौंक न गयी हों। हम मनुष्य हैं परंतु उस से पहले हम देह हो जाती हैं...स्त्री देह।

बात नयी नहीं है। पुरानी है। दिन-ब-दिन और पुरानी होती जा रही है। जितनी लड़कियाँ आवाज़ उठाते हुए दिखती हैं उस से अधिक लड़कियों की चीख़ दम तोड़ देती हैं। कितनी लड़कियाँ ख़ुद की सुरक्षा के लिए पुलिस चौकी तक जा पाती हैं और कितनी बिना ख़ुद को अपमानित कराए वहाँ से मदद पाती हैं। कितनी प्रताड़नाएँ क़ानून के अंतर्गत आती हैं और कितनी उसके अंतर्गत न आने पर मन पर प्रहार किए जाती हैं।

पिंक'एक ऐसी फ़िल्म है जिस से हर लड़की रिलेट करेगी। और हर पुरुष ख़ुद को परदे पर देख पाएगा। ख़ुद को हद दर्ज़े के लिबरल मानने-दिखाने वाले पुरुष का दिमाग़ भी  बची हुई आधी आबादी की बात आते ही संकुचित होने लगता है।

तीन लड़कियाँ जो साथ रहती हैं। मीनल, फ़लक़ और एंड्रिया। वे सिर्फ़ एक दूसरे की दोस्त नहीं हैं। एक दूसरे को 'नर्चर'भी करती हैं। एक दूसरे का ख़्याल रखती हैं। रात नींद खुलने पर एक दूसरे को कम्बल भी ओढ़ाती है, तकिया भी जाँच लेती है।

दोस्त से आगे वे एक दूसरे की साथी हैं। 'कांड'कर आयी हैं मगर हँसना नहीं भूलना चाहतीं। ये दृश्य आँखों में बस जाता है। डरी सहमी तीन लड़कियाँ हँसी 'मिस'कर रही हैं। वो हर हाल में हँसना चाहती हैं और एक दूसरे की कमर के गिर्द बाँहें लपेटे हँसती हुई तीन लड़कियाँ बहुत ख़ूबसूरत दिखती हैं। (आपने देखी हैं ब्रेक अप के बाद, तलाक़ के बाद, गालियाँ सुनने- देने के बाद, किसी को थप्पड़ रसीद कर देने के बाद, सर फोड़ देने के बाद भी हँसती हुई स्त्रियाँ? हाँ उन्हें हँसना चाहिए। क्यों किसी और के लिए अपनी मुस्कुराहट की क़ुरबानी वे दें।)

केस के दौरान लड़कियों को वेश्या सिद्ध करने की क़वायद में राजवीर के स्टेट्मेंट,
("ये हमें हिंट दे रहीं थीं।"
"कैसे?"
"हँस कर और छू कर बात कर रही थीं।")
के जवाब में अमिताभ की आँखें। अहा! उपहास और विडम्बना से भरी वे आँखें दरअसल दुनिया के हर पुरुष की आँखें होनी चाहिए। हम क्यों मान लेते हैं कि हँसती हुई लड़कियाँ सहजता से 'उपलब्ध'होती हैं। हँस हँस कर बात करती हुई लड़कियाँ किसी को आकर्षित करने के लिए अथवा हमबिस्तर होने के लिए नहीं हँस रही होतीं। उन्हें हँसना उतना ही प्रिय है जितना किसी भी दूसरे मनुष्य को। कभी कल्पना की है लड़कियों की हँसी के बग़ैर दुनिया कैसी होगी?  (क्या आपने कभी हँसती हुई लड़की देख सोचा है कि  यह आसानी से 'लाइन'दे देगी।)

अकेले रहने वाली तीन लड़कियाँ देर रात रॉक शो जातीं हैं 'उस'तरह के कपड़े पहने। लड़कों से घुल मिल कर बात कर लेती हैं। यहाँ तक कि उनके साथ जाकर कमरे में शराब भी पीती हैं और बताइए फिर भी आप मानेंगे वे 'सेक्स'में इंट्रेस्टेड नहीं हैं। क्यों मानेंगे आप? और मानना भी नहीं चाहिए। आख़िरकार लड़कियों को यह सब करने का अधिकार जो नहीं है। यह सब तो लड़कों का जन्मसिद्ध अधिकार है। और उसमें जो सेंध लगाएगा लड़के उसे 'सबक़'सिखाएँगे। यह सबक़ सिखाने वाली प्रवृत्ति भी पुरूषों को जन्म से ही मिली होगी? राजवीर और उसके दोस्त भी 'ट्रेडिशन'फ़ॉलो कर रहे हैं। क्या अलग कर रहे हैं! लड़कियाँ जो उनकी फ़्यूडल मानसिकता को पोषित नहीं करती, उन पर हाथ उठाती हैं , आख़िर उन्हें तो सुधारना ही होगा, नहीं तो क्या समाज गर्त में नहीं चला जाएगा! अपने पौरुष की आत्मश्लाघा से निकल कब वे स्त्रियों को अपने बराबर की ज़मीन पर खड़े देख पाएँगे। कब लड़कियों के ''कहने पर उनके अहम को ठेस पहुँचना समाप्त होगा। और कब वे प्रतिशोध की भावना से मुक्त हो सकेंगे।
(क्या आपने कभी किसी स्त्री को उसकी 'जगह'दिखाने का प्रण लिया है?)

एक और दृश्य जो मानस पटल पर लम्बे समय के लिए अंकित होता है। अदालत में लड़कियों को पैसे के बदले देह की फ़रोख़्त करने वाली साबित करतीं पीयूष मिश्रा की दलीलों को जब फ़लक़ रोक नहीं पाती तो चिल्ला देती है। ज़ोर से। एक सन्नाटा पसर जाता है और वो कहती है "हाँ हमने पैसे लिए हैं।"लड़कियों के साथ वक़ील, जज सब स्तब्ध हैं। आप भी स्तब्ध हैं। एक ही बात का इतनी बार दोहराव कि थक कर उसे मान लेने के अतिरिक्त और कोई चुनाव नहीं बचता। परंतु रुकिए, उसका साहस, खंडित हो चुकने पर भी अभी ख़त्म नहीं हुआ है। उसकी यह स्वीकृति पुरुषों के मुँह पर तमाचा है। यही हथियार है पुरुषों के पास स्त्रियों की किसी भी बात के विरुद्ध।अचूक हथियार। जब लड़की समझ न रही हो, अपनी 'औक़ात'से बाहर जा रही हो तो उसे वेश्या साबित कर दो। उसके चरित्र का हनन कर दो। हाँ हैं वो लड़कियाँ वेश्या, हम सब लड़कियाँ हैं। तो फिर! क्या करेंगे आप...हम वेश्याओं के साथ। ज़बरदस्ती करने के अनुमति तो हम फिर भी नहीं देंगे आपको। न किसी सम्बंध में होने के लिए न बिस्तर पर आने के लिए।  वेश्या, रंडी, 'होर'इस एक शब्द से पुरुष स्त्री को डरा नहीं सकते। हम सबकी ''का मतलब न ही है। सिर्फ़ न।

गालियों को बीप कर देने से उनका प्रभाव कम नहीं होता। राजवीर की भाव भंगिमा, चेहरे की एक एक मांसपेशी लड़कियों को रंडी कहती दिखायी देती है।
इस शब्द की गूँज पार्श्व तक जाती है जब हरियाणवी पुलिस अधिकारी इन्हीं अर्थों में कुछ शब्द प्रयोग करती है। महिलाओं की भूमिका में  सत्ता और अधिकार मिलते ही अक्सर हेर फेर हो जाता है। वे क्रूर और कठोर हो जाती हैं। फ़िल्म में पीड़ितों और पुलिस अफ़सर के अतिरिक्त एक स्त्री पात्र और है। दीपक सहगल की पत्नी जो अस्पताल में है और जीवन के आख़िरी पायदान पर है। वह अपने पति और लड़कियों के पक्ष में हैं। परंतु यथार्थ में आम औरतों का रूख 'ऐसी'लड़कियों के प्रति कैसा होता है यह अदृष्ट नहीं है। अपने आस पास की स्त्रियों को जेंडर के आधार पर भेद करती गॉसिप करते हम सबने कहीं न कहीं सुना है। स्त्रियों को ऐसे नाम देना उनकी सेक्सुअल आदतों को रेखांकित करने से अधिक उन पर अंकुश लगाने का साधन है।
(आप में से कितने लोगों ने मन की भड़ास निकालने को यह या इस से मिलते जुलते शब्द इस्तेमाल किए हैं?)

अमिताभ की रौबदार आवाज़ गूँजती है, "मीनल आर यू वर्जिन?"नहीं.....नहीं है वो वर्जिन। और कमाल की बात है उसकी वर्जिनिटी बलात्कार से नहीं गयी। उसने लड़कों की भाँति ख़ुद अपनी इच्छा से सेक्स किया। उन्नीस की उम्र में पहली बार। फिर जब जिस से प्रेम हुआ, उससे  सेक्स किया। उसके एक, दो, तीन....दस और न जाने कितने पार्टनर हुए। लेकिन उसकी अनुमति से हुए। उसने जिसे चाहा वे उसके साथी हुए। सहमति से। हज़ार बार जो काम वो अलग अलग लोगों के साथ कर चुकी है, आपके साथ नहीं करना क्योंकि उसका मन नहीं है। क्यों नहीं है? यह पूछने का अधिकार अगर उसने नहीं दिया तो आपको नहीं है। उसने न कह दिया इतना पर्याप्त होना चाहिए। (क्या आपसे कोई पूछने आता है कि आपका मन क्यों है और लगभग हमेशा क्यों रहता है!) स्त्रियों के यौन सम्बन्धों के आधार पर उनके चरित्र को आँकना अनवरत जारी है।

'मीनल का तो समझ आता है।"फ़लक का प्रेमी जो उस से उम्र में कई गुना बड़ा है इस हादसे पर टिप्पणी करता है और फ़लक अपनी दोस्त के लिए स्टैंड लेती है। फ़लक़ का स्टैंड लेना उसकी संवेदनशीलता का परिचायक है। संभवतः  उसे अहसास हुआ होगा कि जो पुरुष उसकी दोस्त के सही होते हुए भी उस पर उँगली उठा सकता वह उसके चरित्र को किस तरह आँक सकता है। जिसने प्रेम करते वक़्त सैकड़ों  वादे किए होंगे वही प्रेमी हादसे के बाद सबसे पहले पीछा छुड़ा भागता है कि उसकी बेटी इन सबसे दूर रहने पाए। चरित्र को नापने के लिए सदियों से दो पैमाने न जाने क्यों रखे गए हैं।समान आचरण के लिए पुरुष पुरस्कृत होते हैं ( डूड का टैग)और स्त्रियाँ को दंड दिया जाता है। (होर का टैग)।    बालकनी से लड़कियों को घूरना, उनके अन्तःवस्त्रों पर नज़र जमाए रहना चरित्रवान होने की निशानी है और अपना घर होते हुए भी दूसरा घर किराए पर ले रहना, देर रात घर लौटना चरित्रहीन होने की निशानी है!

तीसरी लड़की एंड्रिया 'नॉर्थ ईस्ट में कहीं से है।'नॉर्थ ईस्ट में आठ प्रदेश हैं मगर इस से फ़र्क़ क्या पड़ता है। दिल्ली में सबसे ज़्यादा कॉल गर्ल्ज़ वहीं से आती हैं तो वहाँ की हर लड़की को वही समझने की आज़ादी हम ले सकते हैं। और बताइए अकेले अनजान लड़के के साथ टॉयलेट इस्तेमाल करने कोई भली लड़की कैसे जा सकती है। यूँ भी लड़कियों का 'नेचर कॉल'एक वीभत्सता है जिसे लड़कों को साथ ले जाकर पूरा नहीं किया जा सकता। लड़कों को साथ ले जाने का अर्थ है उन्हें सेक्स के लिए आमंत्रित करना। और अगर लड़कियाँ ऐसा न चाहती हों तो उन्हें अपने नाख़ून बढ़ा कर रखने चाहिए कि कम-अज-कम वो उस लड़के का मुँह तो नोच सकें।

अमिताभ के साथ जॉगिंग करती मीनल लोगों के छींटाकशी पर जब ख़ुद को कवर कर लेती है तो अमिताभ उस हुड को हटा देते हैं। पूरी फ़िल्म का सार यहाँ एक दृश्य में सिमट आता है। 'स्लट शेमिंग'से डर कर नहीं, ख़ुद के वजूद को मिटा कर नहीं, खुल कर जीयो।

हम सब यह बातें न जाने कितनी बार कर चुके हैं। लड़कियाँ लगभग हर रोज़ ऐसी ही बातें लिख रही हैं। आवाज़ भी उठा रही हैं। लेकिन सच कहें तो बदलता कुछ नहीं है। न लोगों की मानसिकता ना लड़कियों पर टॉर्चर। आप यह फ़िल्म देखने न जाएँ, जीने जाएँ।कि कुछ अरसे बाद हमें यह सब न देखना पड़े। हमें हँसती हुई, स्त्री होने के उल्लास को महसूस करती औरतें दिखें। भयग्रस्त, आशंकित नहीं माथे पर बग़ैर लकीरों वाली स्त्रियाँ दिखें। हमारी बच्चियों की आँखों में प्रश्न नहीं सुकून रखा मिले। उनके परों पर ख़ून के छींटे नहीं, ओस की बूँदें छितरी मिलें।

अमिताभ नियमों के बहाने से जो व्यंग्य करते हैं, हमारे समाज के लिए उस व्यंग्य की आवश्यकता समाप्त हो जाए। रोती हुई नाज़ुक सी एंड्रिया, मीनल और फ़लक़ को खुद को बेक़ुसूर साबित  करने के लिए किसी अमिताभ की ज़रुरत न पड़े। हम मान लें कि वे लड़कियाँ देर रात तक बाहर रहती हैं, छोटे कपड़े पहनती हैं, शराब पीती हैं, सेक्स करती हैं और फिर भी स्लट नहीं हैं। वे 'गर्ल नेक्स्ट डोर'ही हैं।

बक़ौल राजवीर,  "ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा ही होता है।"और ऐसे लड़कों के साथ क्या होना चाहिए। जो ग़ुस्सा अक्सर आँसुओं में बह जाता है उस ग़ुस्से को बाज़ुओं में समेट वही करना चाहिए जो मीनल ने किया। जब तक दुनिया न बदले तब तक हर स्त्री को दूसरी स्त्री की ताक़त बन, हाथ थाम एक सुरक्षा चक्र बना लेना चाहिए। एक वृत्त जिसकी मज़बूती किन्हीं भी प्रचलित धारणाओं से न टूटने पाएँ।










'पिंक'की आलोचना करना रिस्क उठाने जैसा है

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'पिंक'फिल्म को लेकर एक अलग दृष्टिकोण से कुछ तार्किक सवाल उठाये हैं अभिनय झाने- मॉडरेटर 
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मौज़ूदा धारा से थोड़ा हटकर “पिंक” सिनेमा की आलोचना करना मॉब लिंचिंग का शिकार होने का रिस्क लेने जैसा है, तब भी। वैसे आलोचना न कह कर दृष्टिकोण का अंतर कहना ठीक रहेगा। जैसे ब्राह्मणवाद ने समय की गति को भाँपते हुए विशिष्ट प्रयोजनों से एकाएक मंदिरों के पट “सबके” लिए खोल दिया, कुछ-कुछ उसी तरह से पितृसत्ता खुद ही आगे बढ़कर “नारी की मुक्ति” के द्वार खोल रही है। जब-जब नारी पर हमला होगा, उस हमलावर पुरुष से त्राण दिलाने भी एक अन्य पुरुष ही अवतार लेगा। तीन शहरी, युवा और शिक्षित औरतों पर एक बूढ़े-से-बूढ़ा वक़ील ज्यादा सक्षम है, ज़ाहिर तौर पर वह एक पुरुष है। अगर पेशेवर जानकारी ज़रूरी ही थी, तो बूढ़ी वकील से भी काम चल जाता। बहरहाल, पक्ष भी तुम, प्रतिपक्ष भी तुम।

पेशे और कारोबार के रूप में सीधा खेल तो ठीक है, पर शिकारी जब रूप बदलकर आता है तो समस्या गहरी और गंभीर हो जाती है। एक मिलता-जुलता उदाहरण याद कीजिए “कौन बनेगा करोड़पति” में अमिताभ बच्चन कितने “भद्र और दोस्ताना” तरीके से प्रतिभागियों से और उनके परिवार के सदस्यों से हालचाल लेते थे। “कैसे हैं आप, मैं तो धन्य हो गया आपसे बात करके” नुमा। ऐसे “पारिवारिक” शो और छवि की बहुत ज़रूरत होती है। मगर ऐसा लगता है कि जैसे टाटा नमक ‘देश के नमक’ होने के नाम पर मार्केटिंग करती है और पतंजलि स्वदेशी होने के नाम पर, बहुत कुछ उसी तरह पिंक सिनेमा ने नारीमुक्ति के नाम पर महज़ कारोबार किया है और प्रकारांतर से पितृसत्ता की शक्ति-संरचना को ही रीइन्फोर्स किया है।
एक वह दौर भी आया था जब पितृसत्ता ने बाज़ार ने अपने साझे हितों के चलते औरत को सूडो-स्वतंत्रता देने के नाम पर उसको सस्ते श्रमिक की फौज़ के रूप में खड़ा कर दिया था। कहना न होगा कि बहुत हद तक आज भी यही स्थिति है। “वर्किंग और इंडिपेंडेट लेडी” के नाम पर एक समूचा तबका आसानी से कम सैलरी पर उपलब्ध है। इन बातों के लिहाज़ से यह कहना ही होगा कि चाहे यह फिल्म ऊपर-ऊपर से ज़रूरी सवाल उठाती है और उन सवालों पर बात किए जाने की बहुत ज़रूरत भी है। फिर भी इसका अंडरकरेंट बहुत ही चालाकी और पक्षपात से भरपूर है।
कला के रूप में फिल्मों की रेसिपी जितना यथार्थ होती है, उतनी ही कल्पना भी। यथार्थ की कुरूपता का मेक-अप किसी हद तक सुंदर कल्पना कर सकती है जो एक तरह से भविष्य की आकांक्षा ही होती है। पिंक फिल्म में इस आकांक्षा तक से परहेज़ किया गया है। ऐसा भी हो सकता था कि जब लड़के किसी लड़की को ज़बरन गाड़ी में घसीटते हैं तो वह संघर्ष में जीत जाती। ऐसा भी हो सकता था कि तीन लड़कियों में से कोई खुद ही वक़ील होती। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वक़ील रखना तो दूर, इंटर्न तक नहीं रखा। संघर्ष और विजय को पूरी तरह से मेल प्रोटैगनिस्ट के लिए आरक्षित कर दिया गया।
एक आख़िरी बात। फिल्म का नाम “पिंक” अपनेआप में ही एक ओल्ड-फ़ैशन्ड स्टीरियोटाइप है। पिंक वर्ण नारी का उसी लाइन में प्रतीक है, जिस लाइन में उसका सच्चरित्र होना है, उसकी कोमलता है, उसका त्याग है और उसके व्रत-उपवास हैं। देखने वाली बात यह है कि चाहे नारी कितनी भी “मॉड” हो जाए, वह खुद से कुछ हासिल नहीं करेगी। उसे किसी पुरुष के हाथों कुछ हासिल कराया जाएगा और “आज़ादी” दिलाने के नाम पर उसे फिर से देवी ही बनाएँगे और फिर वहाँ अच्छे-बुरे देवता रमेंगे।

राकेश तिवारी के उपन्यास 'तिराहे पर फसक'का अंश

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राकेश तिवारीका कहानी संग्रह कुछ समय पहले आया था- मुकुटधारी चूहा. अच्छी कहानियां थीं. उनके लेखन में एक अन्तर्निहित विट है जो पाठकों को बांधता है. यह उनके इस उपन्यास में भी दिखाई देता है. फसक कुमाऊंनी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ गप्प होता है. एक रोचक अंश का आनंद लीजिये और लेखक को शुभकामनाएं दीजिये- मॉडरेटर 
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                               कुकुरीबाघ
शहतूत के पेड़ की एक मोटी और ज़मीन के समानांतर पसरी डाली पर बाबाजी उल्टे लटके थे। पैर टहनी में फंसा रखे थे। सिर नीचे। लुंगी की तरह बंधी धोती उलट कर मुंह तक पहुंच रही थी। कमर से नीचे के नग्न हिस्से को केवल एक लंगोट ढांपे हुए था। वह ढीला लग रहा था। भैरव को उस ओर देखने में संकोच हुआ। उसे डर था कि ज़्यादा कसरतबाज़ी से कोई अश्लील दृश्य न उपस्थित हो जाये। बाबा बीच-बीच में सीधे हो जाते और उसी मोटी डाल पर उकड़ू बैठ जाते। बंदर की तरह। बार-बार मुंडी हिला कर नीचे खड़े भैरव और आठ-दस दूसरे लोगों को घुड़की-सी देने लगते। यह दृश्य देख कर चंदू पांडे भौंचक रह गया।
   भैरव के हाथ में केले थे। वह बाबाजी को केले दिखा कर नीचे बुला रहा था। चंदू ने भैरव के कंधे पर धीरे से हाथ रखा, ये क्या हो रहा है ?”
   भैरव ने चंदू की तरफ़ नहीं देखा। केले हवा में लहरा कर बाबाजी की ओर बढ़ाते हुए बताया, कभी-कभी वानरों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। हनुमानजी के अवतार हैं ना। केले दिखा कर नीचे उतारना पड़ता है।
   चंदू ने फौरन महराज जी की ओर हाथ जोड़ दिये। भैरव ने आवाज़ दी, आओ महराज जी, केले खा लो...हनुमान जी, ये देखो केले !”
   यह दो साल पुरानी बात है। तब से चंदू पांडे शनि और मंगल के दिन प्रायः एक चक्कर आश्रम का ज़रूर लगाता है। सुबह मौक़ा न मिले तो शाम को ही सही। दोनों दिन बूंदी का प्रसाद लेकर जाता है। कभी-कभी केले भी ले जाता है।
   मंगलवार का दिन है। आश्रम के भजन-कक्ष में नन्नू बाबा उर्फ़ नन्नू महराज तखत पर विराजमान हैं। उनके खुले केश कंधे पर झूल रहे हैं और पैर हवा में। कुछ भक्तगण फ़र्श पर बिछे कालीन पर पहले से बैठे हैं। बाबा के चरणों की छांव में। दो महिलाएं बाबाजी के पैरों की सुंदरता पर चर्चा कर रही हैं— कितने सफेद और गुदगुदे पैर हैं।
   मंगलवार को बाबा सिंदूरी टीका लगाते हैं। भक्तगण आ रहे हैं, बाबा के चरण छूकर स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं। चंदू पांडे पिठ्यां[1]लगाए बीच में बैठा है। बूंदी का प्रसाद बाबा के सामने रख चुका है। कुछ भक्त फल, मिठाई और अगरबत्ती लेकर आए हैं। इस मंगलवार भक्तों की संख्या अधिक लग रही है। बाबा तिरछी नज़र से एक-एक भक्त को देखते हैं और भक्त मुदित मन से बाबा के मुखमंडल को। वे चंदू को संबोधित करने के लिए उसकी ओर नज़र घुमाते हैं, कर्म करने से भाग्य नहीं बदलता। किसी का नहीं बदला।
   बाबा हाथ हिला कर कहते हैं। भक्तों का नई थ्योरी से परिचय हो रहा था। वे सांस रोक कर सुन रहे थे। बाबाजी ने समझाया— सच्चाई तो यह है कि हर मनुष्य भाग्य के अनुसार कर्म करता है। भाग्य में जितना पाना लिखा है, कर्म उतना ही होगा। लाख एड़ियां रगड़ लो। भाग्य में जेल जाना होगा तो मन चोरी-डकैती के लिए ललचायेगा। आदमी ऐसी ग़लती करेगा कि रंगे हाथों पकड़ा जाए। पकड़े जाने पर पुलिस वाले के साथ सुलह-समझौता करने की जगह ऐंठ जाएगा। ठुल्ला-पुल्लाबोल देगा। क्यों बोलेगा ? क्योंकि भय्या, भाग्य में तो जेल जाना लिखा है। 
   महराज के सामने बैठे चेले-चपाटे उनके विचार सुन कर नतमस्तक हो गए। सभी भक्त भाग्यवादी थे। अपने खुट्टल भाग्य में धार चढ़वाने के लिए बाबा के द्वार पर आए हुए थे। बाबा सान लगाने वाली साइकिल का पहिया घुमाए जा रहे थे। चिंगारियां निकल रही थीं। धार लग रही थी। चमत्कार। बाबा के प्रवचन ही नहीं, खुद वे भी चमत्कारी बताए जाते हैं। वे चमत्कार दिखाते नहीं, बल्कि जो भी दिखा दें, भक्त उसी को चमत्कार मान लेते हैं। एक दिन बाबा ने जॉनसन बड कान में डाल कर पीला मैल निकाल दिया। पास के गांव से आया एक भक्त देख रहा था। वह चिल्लाया— चमत्कार हो गया। बाबा ने कान में फुलझड़ी जैसी कोई चीज़ डाली और सारा मैल अपने आप फुलझड़ी में चिपक गया। दो साल पहले जब बाबा पेड़ पर लटके थे, तब भी उनकी धोती के अंदर से झांक रहा लंगोट देख कर भक्तों ने उसे चमत्कार कहा था। सुनने वालों की आंखें फटी रह गई थीं— अरे बाप रे। शायद उन्होंने भक्तों को अपने अंदर विद्यमान लंगोटी महराज के दर्शन कराये— अपने गुरू के। हाये, हम न हुए। भक्तनों को भी अफ़सोस था। भैरव सुन रहा था। उसने आकाश की ओर हाथ जोड़ दिये। ईश्वर की बड़ी कृपा। उसने बाबाजी का लंगोट नहीं खिसकने दिया।
   बाबा अगर खिड़की से झांक रहे हों तो लोग अनुमान लगाते हैं कि भविष्य में झांक रहे होंगे। वे अंधेरे को देखने लगें तो लोग सन्नाटा खा जाते हैं। अवश्य ही बाबा अतीत में झांक रहे हैं। भक्तों की राय में बाबा त्रिकालदर्शी हैं।
   बाबा के प्रवचनों से सब मुग्ध थे। सबसे अधिक प्रभावित लग रहा है चंदू पांडे। बाबा जो कहते हैं उसके समर्थन में गर्दन हिलाता है। महराज ने पांचों खुली उंगलियों के साथ बाएं हाथ से चंदू की तरफ़ संकेत करते हुए कहा— विचार कीजिए कि इनके भाग्य में एक दिन संसद पहुंचना लिखा है।
  सबने पलट कर देखा। आज किसके भाग्य में धार लग गई ?चंदू भी पलट कर पीछे देखने लगा। बाबा मुस्कुराए, भक्तों की ओर देखा और प्रश्न पर ज़ोर दिया— संसद पहुंचना लिखा है तो क्या होगा ? सारे भक्त चूतियों की तरह एक-दूसरे को देखने लगे। कौन जाने क्या हो जाए !बाबाजी ने रहस्य खोलने के अंदाज में कहा— होगा यह कि हमारे चंदू जी का मन अभी से ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ने को लालायित हो जाएगा। छटपटाने लगेगा। अगर चोरी-चमाटी करते होंगे तो उससे विरक्ति हो जाएगी— नहीं भय्या, बहुत हुआ। अब तो चुनाव लड़ूंगा।
   जो भक्त चंदू को जानते थे और जिन्हें उससे ईर्ष्या हो रही थी, वे चोरो-चमाटीसुन कर सिर झुकाए फी-फी करने लगे। चंदू ने उनकी हंसी पर ध्यान न देकर उनकी उपेक्षा का प्रदर्शन किया, ऐसे ही केवल उदाहरण दे रहे हैं महराज, या मेरे भाग्य में लिखा है ?”
  भाग्य में जो लिखा है उसे तुम भी पढ़ सकते हो। अपने अंदर झांक कर देखो।— इतना कह कर महराज गुनगुनाने लगे— मन की आंखें खोल बाबा, मन की आंखें खोल...
   चंदू पांडे असमंजस में पड़ गया। उनसे आंखें मूंद लीं और मन की आंखें खोलने की कोशिश करने लगा। उसे कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। लगा, कहीं उसके मन की आंखें फूट तो नहीं गईं ? कौन जाने मन साला पैदाइशी नेत्रहीन हो। उसने कुछ पल शांत रहने के बाद यूं ही कह दिया, थोड़ा-थोड़ा दिख रहा है महराज। मैं...मैं बनना चाहता हूं। लेकिन एक दुविधा है।
   बाबा ने उसकी ओर देखा। मानो, पूछ रहे हों, क्या दुविधा है। चंदू ने बताया— अंदर तो मल्ला रामखेत वाले घमासान मचाए हुए हैं। वो बनने देंगे ?खुद हमारे भाई साब नहीं बनने देंगे। मन के अंदर दिख रहा है, भाई साब हाथ में जूता लिये दौड़ा रहे हैं।
   सब लोग ठहाका मार कर हंसे। बाबा ने बड़ी मुश्किल से हंसी दबाई। चंदू को उसका बड़ा भाई बचपन से ही जूता हाथ में लिये दौड़ाता रहा। लोग कहते हैं कि चंदुआ पैदाइशी लुच्चा है। जूता खाये बिना मानने वालों में से नहीं है। कुछ लोग उसके भाई के लिए भी उच्च विचार रखते थे। उनकी राय में, भाई अपने समय में बड़ा हरामी और गुरुघंटाल रहा। तीन भाइयों के गिरोह का सरगना वही था। उसी ने तीनों को गांव और क़स्बे से लेकर जंगल तक छापामारी की ट्रेनिंग दी थी। बड़े को जब से लकवा मार गया, भाइयों का गिरोह टूट गया और सबने अगल-अलग धंधे पकड़ लिए।
   आप तो जानते हैं महराज, दूसरों को चैन से दो रोटी खाते कोई नहीं देख सकता।चंदू ने भक्तों पर सरसरी निगाह डालते हुए व्यंग्य किया, यहीं देख लीजिए, कितने लोगों के सांप लोट रहे हैं।
   मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग साथ आते गए कारवां बनता गया,कह कर बाबा ने फिर आंखें मूंद लीं और गुनगुनाने लगे, जोदी तोर डक शुने केऊ ना आसे, तबे एकला चलो रे...
   बाबा कभी पश्चिम बंगाल में रहे। काफी समय असम में रहने के अलावा कुछ समय उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों में बिताया। यह बाबा खुद बताते हैं। पर हल्द्वानी के एक उभरते कथावाचक का कहना था कि नन्नू बाबा कभी उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरी करते थे। किसी सहकर्मी की पत्नी से अवैध संबंध बनाने और उसके पति की हत्या करने के बाद पकड़े जाने की नौबत आ गई। वे पश्चिम बंगाल भाग गए और साधु हो गए। पंद्रह साल देशभर में भटकने के बाद कलाज पहुंच गए।
   पता नहीं सच क्या था। पर बाबा के चेहरे पर लिखी इबारत तो कहती थी कि यह सब झूठ है। हां, इसमें दो राय नहीं कि उन्हें बांग्ला ही नहीं, कई भाषाओं, कई प्रांतों की लोकधुनों और साहित्य की मोटी-मोटी जानकारी थी। चंदू को केवल एकला चलो रेसमझ में आया था। नासमझों के लिए सारा अर्थ इसी में छुपा था। नन्नू महराज ने कुछ पंक्तियां गाने के बाद फैसला सुनाने के अंदाज़ में कहा— जहां चाह, वहां राह।
   “राह बनेगी ?”
   मैं तो संसद तक की यात्रा देख रहा हूं।

चंदू पांडे चील की तरह उड़ान भर रहा था। मन क्रीक-क्रीक करता था। आकाश की ऊंचाई से गांव वाले चूज़े लग रहे थे। इंकुबेटर से थोक में निकाले गए चूज़े। बिना मुर्ग़ी के। चील के पंखों की छांव में पलने के लिए अभिशप्त नन्हें-नन्हें चूज़े।
   वह उड़ रहा था। एक बार पंख फटकारता और देर तक हवा में उतराता रहता। शाबाश रे क़िस्मत। तेरा भी जवाब नहीं। कब किस करवट बैठ जाए। उसने अपना कंधा थपथपाते हुए इस तरह कहा जैसे क़िस्मत आदमी के कंधे पर बैठी रहती हो।
   वह हवा के साथ कदमताल करता हुआ घर पहुंचा। सीधा आंगन में लैंड करने के बाद स्लो मोशन में घर के अंदर प्रवेश किया। पत्नी बगीचे में गोबर की खाद डालने के बाद नीली धारीदार दरी में लेटी खर्रांटे ले रही थी। मुंह खुला था। चारखाने की सूती साड़ी पिंडलियों तक पहुंची थी। एड़ियों में मोटी दरारें थीं और उनमें गोबर फंसा था। घर में गोबर की दुर्गंध फैली हुई थी। मक्खियां गुच्छा-सा बनाये पैरों में जहां तहां चिपकी थीं। चंदू ने थोड़ा नाक सिकोड़ी और फिल्मी अंदाज़ में बोला— अब तुझे आराम ही आराम है डार्लिंग।
   पत्नी हड़बड़ा कर उठी, इस घर में और आराम ?ऊपर पहुंचाने की ठान ली क्या ?”
   मेरी समझ में नहीं आता, तेरी ये ज़बान काकू[2]जैसी टर्री क्यों है ?
   तुम्हारे मुंह में तो मधुमक्खी का छत्ता लगा है। कहो, शहद में सान कर कौन-सा समाचार लाए हो ?”
   अब तुझे पैर पर पैर चढ़ा कर बैठना है,ठसक से। एक इशारा, सारा जहां तुम्हारा।
   शराब पी रखी है या अत्तर ?”  
   चंदू पांडे उखड़ गया,चल साली औरत बुद्धि...तू दूर की सोच ही नहीं सकती। औरत माने, छोटी सोच। अरे मूरख,रीढ़ में अकड़ लाने की पिरेक्टिस कर अब। ऐसे लुर-लुर, लुर-लुर चलती है लूरी कुतिया की तरह। बदल इस आदत को। नन्नू महराज ने कह दिया है, इस बार ग्राम प्रधान और फिर देखते ही देखते एम्पी। एम्पी का मतलब जानती है ?”
   चंदू की घरवाली ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। असभ्य और बदज़बान तो वह पहले भी था, लेकिन ऐसी बहकी-बहकी बातें नहीं करता था। उसे लगा वह दिमाग़ सटका देने वाले किसी नशे की गिरफ़्त में है।
   एम्पी मतलब, जिसकी कार की मुंडी में लाल बत्ती झमझम करती है,”उसने लाल बत्ती के लिए एक हाथ को दूसरे हाथ की हथेली पर लट्टू की तरह दाएं-बाएं घुमा कर पत्नी को समझाया, दिल्ली में जो संसद भवन है ना, उसमें बैठता है एम्मी। हमारे यहां के कटोरे जैसे मुंह वाले ऐरे-ग़ैरे नेता वहां तक नहीं पहुंच सकते। बड़े-बड़े थाल बराबर मुंह होते हैं उनके। सबसे ओजस्वी देश का प्रधानमंत्री भी वहीं बैठता है। समझी ?”
   वह सूती धोती का छोर मुंह में लेकर हंसने लगी, “तुम्हारा मुंह तो गिलास जैसा है— नीचे से पतला, ऊपर से मोटा। तुम्हें कैसे ले जाएंगे वहां ?”
   चंदू ने माथे पर हाथ मारा, धत् तेरे की, छोटी सोच। दिल्ली में मेरे साथ ऐसे ही रहेगी अपनी उल्टी बुद्धि और सीधे पल्ले की धोती पहन कर ?ऊपर से हंसती है। इसी तरह हंसेगी दिल्ली में ?”
   चंदू पांडे की घरवाली को नन्नू बाबा पर बड़ा भरोसा था। सोचने लगी कि बाबाजी तो ऐसा अल्ल-बल्ल बोल नहीं सकते। ज़रूर इन्हीं ने कोई नशा किया है। मैं मान नहीं सकती। उसने चंदू से मुंह दिखाने को कहा।
   तू सोच रही होगी— ये मुंह और मसूर की दाल ?”
   नहीं, मैं मुंह सूंघना चाहती हूं।
   उसने जेब से सेल फोन निकाला और गुस्से से पत्नी के हाथ पर धर दिया— ये ले, पकड़। लगा बाबाजी को। खुद पूछ ले।...और ले, सूंघ मेरा मुंह। कभी दिन-दहाड़े दारू पी मैंने ? आंख देख मेरी,  चढ़ी हैं ?
   चंदू की घरवाली ने पति की आंखों में झांका। चंदू आंखें तान कर खड़ा हो गया, ले देख।
   उसकी धतूरे के बीज जैसी आंखें पैदाइशी झूठी लगती थीं। लेकिन आज उनमें सच्चाई तैर रही थी। मानो कुकुरीबाघ ने कुत्ते की आंख लगा ली हो। वह असमंजस में पड़ गई। उसे लगा, कहीं उसे गोबर की गैस तो नहीं चढ़ गई। उसने नशे की हालत में चंदू पर इस्तेमाल किया जाने वाला टंग ट्विस्टरअपने ऊपर आजमाया— कुछ ऊंट ऊंचा कुछ पूंछ ऊंची कुछ ऊंची पूंछ ऊंट की।
   सब ठीक तो है। ज़बान सरपट चल रही है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। समझ में नहीं आ रहा था कि खुशी में पति की आंखों में डुबकी लगा दे या अपनी रीढ़ सीधी करे। अंततः उसने रीढ़ सीधी करने का फैसला किया और मरोड़ी की तरह ऐंठ गई। मानो, एम्पियाणी[3]बन गई हो।
   तेज प्रताप ने यह दृश्य नहीं देखा। वरना अपने प्रिय तकिया-कलाम का इस्तेमाल करते हुए कहता— साला चुग़द चूतिया चंदू पांडे...और उससे भी घनघोर चूतिया घरवाली।





[1]रोली-चंदन का टीका
[2]काकी पर्सिमन
[3]एम्पियाइन (सांसद की पत्नी)

मनोज कुमार पाण्डेय की कहानी 'मदीना'

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मनोज कुमार पाण्डेय समकालीन लेखकों में सबसे नियमित और निरंतर कुछ बेहतर लिखने के लिए जाने जाते हैं. उनकी यह नई कहानी भी इसी ताकीद करती है- मॉडरेटर 
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गाँव में मेरा घर गाँव से थोड़ा परे हटकर था। पूरा गाँव जहाँ हरियाली और रास्ता था वहीं मेरे घर के आसपास की जमीन जैसे बंजर। बारिश के कुछ महीनों को छोड़ दें तो दुआर पर साल भर रेह फूलती रहती। कच्चे घर की दीवारें हमेशा लोना छोड़ती रहतीं। हमें घर की फर्श और दीवालों को दुरुस्त करने के लिए दूर से मिट्टी ढो कर लानी पड़ती। वह सफेद मिट्टी तो और दूर से आती जिससे घर की दीवारें और चूल्हे पोते जाते।
      घर पर पेड़ पौधों के नाम पर बस बस थोड़े से पेड़ थे। घर के सामने थोड़ी दूर पर नीम का एक पुराना पेड़ था। हालाँकि यह भी गाँव के अपने हमउम्र पेड़ों जितना घना नहीं था फिर भी उसका होना हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी। उसके अलावा घर के पूरब की तरफ बबूल और विलायती बबूल के कई पेड़ थे। जिनकी छाँव कई बार हमारे उठने बैठने के और इससे भी ज्यादा जानवरों के काम आती। हम उन्हीं बबूलों के नीचे जानवर बाँधते। एक सहूलियत यह भी कि खूँटे नहीं गाड़ने पड़ते। उनकी जगह बबूल के पेड़ ही काम में आ जाते। वहीं टूटी-फूटी ईंटों और मिट्टी के जोड़-तोड़ से एक चरही बना दी गई थी जिसमें जानवरों को चारा डाला जाता।
      मेरे घर पर एक भी ऐसा पेड़ नहीं था जिसमें फल लगता और हम खाते। मैं आम, जामुन या बेर आदि की तलाश में दूसरों के पेड़ों के नीचे भटकता और झिड़कियाँ खाता। कई बार तो वे लोग ओरहन लेकर घर तक चले आते और मुझे घर पर डाँट और मार पड़ती। फल ही नहीं फूल वाले पौधे भी घर पर न के बराबर थे। कुएँ की बगल की एक जगह पर हर साल देशी गेंदे के कुछ पौधे उगते और बड़े होते। उनमें फूल खिलते फिर वे सूख जाते। इसके सिवा हमारे यहाँ कोई दूसरा फूल भी नहीं था। बाबा या बाबू रोज सुबह कहीं और से फूल तोड़ कर ले आते। हालाँकि इसके लिए भी उन्हें कई बार उसी तरह से भुनभुनाहट का सामना करना पड़ता जिस तरह से हमें आम और जामुन के लिए।
      शायद यही अभाव रहा होगा जिसने मेरे मन में यह घनघोर लालसा भरी होगी कि हमारे यहाँ भी खूब सारे फल और फूल वाले पेड़ हों। बल्कि उतने हों जितने कि गाँव में किसी के यहाँ न हों। यह सोचना आसान था पर इसे संभव कर पाना बहुत मुश्किल। मैं आमों और जामुनों के बीज ले आता और उन्हें जहाँ तहाँ बो देता। कई बार उनमें से पौधे भी निकलते। उनकी रंगीन आभा मेरा मन मोह लेती। मैं दिन में कई कई बार उन्हें देखने जाता। उन्हें बढ़ता देखता और गहराई तक एक सम्मोहन से भर जाता। उन्हें लेकर मन में बहुत सारे सपने देखने लगता। सपनों में जब वे कद्दावर पेड़ों में बदल रहे होते यथार्थ में उनकी पत्तियाँ अपनी चमक खोने लगतीं और वे धीरे धीरे सूख जाते। मेरे घर की मिट्टी में पता नहीं ऐसा क्या था जो उन्हें मार डालता। मैं कई बार उस मिट्टी को चखता कि कहीं उनमें कोई जहर तो नहीं है। मेरे मुँह का स्वाद नमकीन हो जाता पर मेरा कुछ नहीं बिगड़ता।
      इसके बावजूद मैंने कोशिशें नहीं छोड़ीं हालाँकि नतीजा शून्य ही रहा। फिर मैंने हाई स्कूल के लिए घर से लगभग तीन कोस दूर एक कस्बे के स्कूल में दाखिला लिया। स्कूल इसलिए भी मेरे सपनों के नजदीक लगा कि उसमें इतनी तरह के फूलों के पौधे और पेड़ थे जितने मैंने एक साथ पहले कभी नहीं देखे थे। ज्यादातर के तो मैं नाम भी नहीं जानता था। मैं अपने स्कूल में बहुत खुश था पर उस दिन मेरी खुशी और बढ़ गई जब मैंने स्कूल के नजदीक ही एक पेड़-पौधों की नर्सरी ढूँढ़ निकाली। मेरे सपनों को जैसे पंख ही लग गए फिर।
      जल्दी ही मैंने स्कूल के माली से जान-पहचान बढ़ानी शुरू कर दी। मुझे उससे वह गुर सीखना था जिससे पौधे सूखें नहीं और वैसे ही बढ़ते जाएँ जैसे मेरे स्कूल में बढ़ रहे थे। माली ने पहले तो मुझमें रुचि नहीं दिखाई फिर मेरी तमाम कोशिशों और पीछे पड़े रहने के बाद एक दिन उसने मुझसे स्कूल के पीछे चलने के लिए कहा। मैं खुश हो गया। माली मुझे स्कूल के पीछे वाली नहर में ले गया और उसने मुझमें ऐसी रुचि दिखाई कि मैं उठ के खड़े होने के काबिल भी नहीं बचा। न जाने किस तरह से साइकिल चलाकर मैं घर पहुँचा। अगले कई दिनों तक मुझे बुखार आता रहा और टट्टी जाने के नाम से भी मेरी रूह काँपती रही। पर मुझमें न जाने कैसा डर या शर्म थी कि यह बात मैं किसी को भी नहीं बता पाया।
      जब मैं दोबारा स्कूल पहुँचा तो एक अजीब तरह के भय से भरा हुआ था। अब वहाँ स्थिति उलट गई थी। पहले मैं माली के पीछे घूमता था अब माली मुझे ढूँढ़ रहा था। उसने मुझे लालच दिया कि अगर मैं उसका कहा मानता रहूँ तो वह भी मुझे पेड़ पौधों के बारे में बहुत सारी बातें बताएगा। यही नहीं वह स्कूल में लगने के लिए आने वाले पौधों में से बहुत सारे पौधे मुझे देगा। यह प्रलोभन मेरे लिए बहुत तगड़ा था पर उसके साथ का अनुभव उससे भी ज्यादा भयावह था। मैंने मना कर दिया। फिर भी वह बहुत दिनों तक मेरे पीछे पड़ा रहा। आखिर में कई दिनों की कोशिश और अभ्यास के बाद एक दिन मैंने माली को गाली बकी और कहा कि मैं उसकी शिकायत प्रिंसिपल से करूँगा। माली हँसा और बोला तो प्रिंसिपल तुम जैसे चिकने को छोड़ देंगे क्या? वह मुझसे भी ज्यादा शौकीन हैं। मेरी अभ्यास से जुटाई हुई हिम्मत न जाने कहाँ गायब हो गई। मैं रोने लगा।  
      यह एक संयोग था कि मेरी ही क्लास का एक लड़का उधर आ निकला। उसने मुझसे रोने की वजह पूछी। उसके पूछने में न जाने ऐसा क्या था कि मैं भरभरा गया और जो बात मैंने अब तक किसी को नहीं बताई थी वह उसे बता डाली। फिर तो उसने माली का कालर पकड़कर उसे कई हाथ मारे और जो जो गालियाँ सुनाईं कि मेरा जी ही खुश हो गया। उतनी गालियाँ मैंने पहले कभी एक साथ शायद ही सुनी हों। बाद में उसने बताया कि उसका बाप वहीं कस्बे के ही थाने में पुलिस है और वह अपने बाप की गालियाँ सुनकर रोज उनके बकने का अभ्यास करता है। बाद में भी उस दोस्त ने मुझे बहुत सारी मुश्किलों से बचाया।
      माली से निराश होने के बाद अब नर्सरी ही थी जो मेरे सपनों में बसने वाले पेड़-पौधों को जमीन पर उतार सकती थी। पर वहाँ मुफ्त का कुछ नहीं था। नर्सरी में जाने से पहले मुझे कुछ रुपये चाहिये थे जिनसे मैं पौधे खरीद सकता। दरअसल मैं एक एक पौधा खरीदने और लगाने के बारे में नहीं सोचता था। मेरा लालच बहुत बड़ा था। मैं एक साथ बहुत सारे पौधे खरीदना चाहता था। मैं सपने में देखता था कि वे बहुत सारे पौधे पेड़ बन गए हैं। वे तरह तरह के फूलों और फलों से लदे हुए हैं। उन पेड़ों के बीच बहुत सारी रंग-बिरंगे पंछियों के घोसले हैं। उन पंछियों के बीच बहुत सारे तोते हैं। वे तोते आमों को जूठा कर देते हैं और वे जूठे आम बहुत मीठे होते हैं। कोयल हैं जो आमों पर पाद देती हैं और वे आम महकने लगते हैं।
      यह सब सपनों की बातें थीं पर असल में भी इसके लिए मैं बहुत कुछ कर रहा था। एक दिन जब मेरे पास पचास रुपये हो गए तो मैंने नर्सरी में जाने की हिम्मत जुटाई। मैं बहुत देर तक नर्सरी में इधर उधर घूमता रहा। तरह तरह के पौधों के दाम पूछता रहा। पौधों को दिखाने वाला लड़का थोड़ी देर में मुझसे उकता हो गया। उसने कहा कुछ लेना हो तो लो नहीं तो आगे बढ़ो। मैंने बहुत सोच समझ कर खुद को फूलों के पौधों पर केंद्रित किया। मेरी सोच यह थी कि ऐसा करने से बाबा और बाबू खुश होंगे और आगे दूसरे पौधों के लिए रुपये माँगने और जुटाने में मुझे आसानी होगी। इस तरह से मैंने पचास रुपये में कुल पाँच पौधे खरीदे। लाल कनेर, गुड़हल, गुलाब और मदीना। मदीने के पेड़ मैंने अपने इस स्कूल में आने के पहले बस एक दो बार ही देखे थे और मोहित हुआ था। तब मैं इसका नाम नहीं जानता था। यह तो स्कूल में आकर पता चला कि यह पेड़ मदीना है और उस दिन नर्सरी में यह पता चला कि इसे गुलमोहर भी कहते हैं। नाम जो भी हो मेरे लिए मदीना एक हरे भरे, छतनार, लाल फूलों से लदे पेड़ का नाम था। इसका कोई और भी मतलब हो सकता था यह मुझे बाद में जानना था। इन पौधों के साथ एक अमरूद का पौधा खरीदने से मैं खुद को रोक नहीं पाया। आखिर सपने में कुछ फल भी तो थे जिन्हें तोतों द्वारा जूठा करके मीठा करना था।
      पौधे खरीदने के बाद मैं देर तक नर्सरी के मालिक के साथ बतियाता रहा। यह मालिक एक बूढ़ा था जिससे जी भर के बातें की जा सकती थीं। वह खुद पेड़ पौधों के बारे में बहुत सारी बातें बताना चाहता था। मैंने उसे अपने घर की बंजर मिट्टी के बारे में बताया। यह भी बताया कि कैसे पौधे उगते हैं फिर सूख जाते हैं। उसने सब धैर्य से सुना फिर मुझे मिट्टी को सुधारने की कई तरकीबें बताईं। मुझे गहरे गड्ढे खोदने थे। उनकी मिट्टी निकाल कर उनमें बढ़िया मिट्टी डालनी थी। बीच बीच में पुआल या पेड़ों की पत्तियाँ, गोबर की खाद की परत, फिर मिट्टी और फिर यही सब। यह सब बड़े पेड़ों के लिए तैयार होने वाले गड्ढों के लिए था। जिन्हें यह सब करके बारिश भर के लिए छोड़ देना था। मैंने छोटे पेड़ों वाले पौधे खरीदे थे। उनका काम बाहर की मिट्टी और गोबर की खाद से चल जाना था। बाकी कुछ रसायनिक खादें भी थी जो कि घर पर खेती आदि के लिए आती ही रहती थीं।
      मैं बहुत उत्साहित होकर घर आया। घर आकर मेरा सारा उत्साह जाता रहा। मुझे बाबा की डाँट का सामना करना पड़ा और उन्हें यह सब बताना पड़ा कि मेरे पास पचास रुपये आए कहाँ से? उसके बाद ये पौधे कहाँ लगाए जाएँगे इसके बारे में मेरी एक न चली। मैंने मन ही मन उन्हें कहीं और लगाने की सोच रखी थी और बाबा ने जो जगहें बताई वह मुझे अच्छी नहीं लग रही थीं। पर अंततः मुझे ही झुकना था और मैंने बाबा द्वारा तय की गई जगहों पर ही गड्ढे तैयार करने शुरू कर दिए। इस बीच पौधे एक जगह छाया में रखे हुए थे जिन पर मैं बीच बीच में पानी छिड़कता रहता। आखिरकार चार दिन बाद एक साथ पाँचों पौधों को उनके हिस्से की जमीन सौंप दी गई।
      मैं रोज सुबह शाम जब भी मौका मिलता उन पौधों के पास जाता। उन्हें पानी देता। उनके पत्ते छूता, उन्हें सहलाता पर हफ्ते भर के भीतर अमरूद का पौधा सूख गया। इस तरह से फल का किस्सा खत्म। अब सिर्फ फूल बचे थे और उन चारों में नई कोंपलें निकल रही थीं। मैं खुशी में मगन था कि अब वह दिन दूर नहीं कि जब मेरे लगाए हुए पौधों में फूल खिलेंगे। पौधे बढ़ते रहे। मुझे भरोसा नहीं हो रहा था कि पौधों ने जड़ पकड़ ली है और इस बंजर जमीन के साथ उनका एक जीवित रिश्ता बन रहा है। मेरे सपनों को पंख लग गए थे कि अगर यह चार यहाँ अपनी जड़ जमा सकते हैं तो अगले चालीस भी जमाएँगे। मैंने दादा से जगह के बारे में तय किया। कुछ जगहों पर अपने मन से गड्ढे खोदने शुरू किए। मुझे जब भी समय मिलता मैं उनमें दूर खेत से बढ़िया मिट्टी लाकर डालता। बीच बीच में जलकुंभी, पुआल, पेड़ों की पत्तियाँ और गोबर की खाद डालना न भूलता। यह अगले साल की तैयारी थी। पौधे खरीदने के लिए रुपये इकट्ठे करने का काम अलग से चल ही रहा था। उसके लिए भी बहुत सारा प्रपंच रचना पड़ रहा था।
      अचानक एक दिन मेरे सपने को फिर से झटका लगा। लाल कनेर और गुड़हल के पौधे कोई उखाड़ ले गया था। उनकी जगह खाली थी। मेरी आँखों में आँसू आ गए। जैसे जमाने भर की निराशा मेरे भीतर आकर इकट्ठा हो गई थी। यह बात तो मैंने सोची ही नहीं थी कि पौधे चोरी भी हो सकते हैं नहीं तो उनके चारों तरफ कँटीली बाड़ का इंतजाम तो कर ही सकता था। पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था। इस घटना से सबक लेकर मैंने बाकी बचे पौधों की सुरक्षा के लिए बबूल की डालियों की बाड़ लगाने का निश्चय किया।
      तभी मैंने गुलाब की एक नई नई कोंपल में एक नन्हीं सी कली देखी। मैं खुशी के मारे पागल ही हो गया। मेरे अपने गुलाब में फूल खिलने वाला है यह खुशी इतनी नई और अनोखी थी कि मैं अमरूद का सूखना और गुड़हल और लाल कनेर का चोरी चले जाना जैसे भूल ही गया। मदीना भी तेज गति से बढ़ रहा था। तीन चार महीनों के भीतर वह मुझसे भी बड़ा हो गया था और उसमें सभी दिशाओं में नए नए कल्ले फूट रहे थे। पर गुलाब में एक कली दिख गई थी इसलिए मैं उसके प्रति एक तरह के पक्षपात से भर गया था। मैं उसके आसपास किसी घास का एक तिनका भी नहीं रहने देना चाहता था। तभी एक दिन किसी दोस्त ने उसमें रसायनिक खाद डालने की सलाह दी। मैंने गुलाब के पौधे के आसपास गुड़ाई की और उसमें अँजुरी भर यूरिया और अँजुरी भर डीएपी लाकर डाल दिया। अगले दिन सुबह पौधा मुरझाया हुआ था। उसकी नई कोंपले नीचे से काली पड़ गई थीं। मैंने खाद डालते हुए सोचा भी नहीं था कि जरूरत से ज्यादा खाद मेरे गुलाब की जान भी ले सकती है। इस लहलहाते पौधे की हत्या की जिम्मेदार मेरी ही नासमझी थी। यह चीज मुझे लंबे समय तक सालती रहने वाली थी।  
      अब पाँच में से सिर्फ एक पौधा बचा था, मदीने का। इसके साथ मैं किसी भी तरह का खतरा उठाने को तैयार नहीं था। मैं दिन में कई कई बार उसके पास जाता। उससे बातें करता। उससे इस बात का वादा लेता कि अपने बाकी साथियों की तरह वह मुझसे दगा नहीं करेगा। वह मेरा साथ देगा। वह मेरे हरे भरे सपनों की जमीन बनेगा और उसने मेरा पूरा साथ दिया। साल भर के भीतर ही वह एक किशोर छतनार पेड़ में बदल गया। बारिश आने के बाद जब साल भर की धूल मिट्टी साफ हुई और नई कोंपले प्रकट हुईं तो उनकी हरी आभा ने मेरा मन ही मोह लिया। पर असली जादू अभी बाकी था। उन कोंपलों की फुनगियों में ढेर सारी कलियाँ छुपी हुई थीं। मैंने सोचा ही नहीं था कि उसमें इतनी जल्दी फूल आएँगे। शायद इसलिए कलियों की तरफ मेरा ध्यान ही तब गया जब वह खिलने खिलने को हो आईं। और एक दिन सुबह उसमें कई फूल एक साथ खिले हुए थे। मेरे बोए गए या लगाए गए पौधों में यह पहला था जिसने मेरी आँखों में सफलता की एक रंगीन चमक पैदा की थी।
      मैं घर भर में सबको दिखाना चाहता था। पर मैंने जल्दी ही पाया कि मेरा उत्साह किसी पर कोई खास असर नहीं डाल रहा है। बाबा जरूर पेड़ तक गए। उन्होंने उसका एक फूल तोड़ा और सूँघा फिर फेंक दिया। बोले इसमें तो कोई महक ही नहीं है बल्कि एक अजीब सी जंगली बू है। मैंने उनके फेंके हुए फूल को उठाया और सूँघा। सचमुच उसमें एक भीनी सी जंगली बू थी पर यह बू मुझे सबसे अलग और खास लगी। मुझे लगा कि यह मेरे सपनों की महक है। एकदम सबसे अलग, सुंदर और जंगली। वह अपने साथ मेरे भी होने का एहसास लेकर आया था। यह जो एक नन्हें से पौधे से खूबसूरत घने पेड़ में बदल रहा है और जिस पर लाल रंग के फूलों के गुच्छे खिले हुए हैं उसे मैंने लगाया है। वह मेरी मेहनत और देखरेख में बड़ा हुआ है। वह मेरा है।
      उसकी आभा दिन पर दिन बढ़ती ही जाती थी और उसी के साथ साथ और पौधे लगाने का मेरा उत्साह भी। मैंने इस बार पौधे लगाने के लिए गिनकर पूरे पचास गड्ढे तैयार किए थे। पर एक साथ पचास पौधे ले आना मेरी क्षमता के बाहर की बात थी। इसलिए मैंने तय किया कि मैं पाँच पौधे रोज ले आऊँगा और इस तरह से अगले दस बारह दिनों में पूरे पौधे आ जाएँगे। इससे यह भी फायदा होगा कि पौधों को घर लाकर रखना नहीं पड़ेगा और वे रोज के रोज लगा दिए जाएँगे। जिस दिन पौधों की पहली खेप घर लाया मैं नए उत्साह से भरा हुआ था। मेरे पास पाँच पौधे थे उन्हें लेकर मैं मदीने के पास पहुँचा। मुझे उन पौधों को उनके बड़े भाई से मिलाना था जो उसी नर्सरी से साल भर पहले आया था और लहलहा रहा था।
      वहाँ पहुँचकर मैं जैसे जड़ हो गया। मदीना कटा हुआ पड़ा था। उसकी आभा खत्म हो गई थी। उसकी बड़ी बड़ी पत्तियाँ, कलियाँ और फूल सब मिट्टी में पड़े हुए थे। मेरी समझ में ही नहीं आया कि मैं क्या करूँ अब। पौधे मेरे हाथ से छूटकर नीचे गिर गए थे। जब मेरी जड़ता टूटी तो मैं चिल्लाते हुए घर की तरफ भागा। घर में माँ थी बस। माँ ने बताया कि कोई पंडितजी आए थे। उन्होंने उस पेड़ के लिए कहा कि यह तुम्हारे यहाँ कैसे? यह तो मुसलमानी पेड़ है। इससे गंदी गंदी हवाएँ निकलती हैं जो बहुत अशुभ होती हैं और घर में तरह तरह के रोग फैलाती हैं। यही नहीं अगर घर के सामने यह पेड़ रहे तो घर वालों का मन मांस खाने को करने लगता है। वे अपने धर्म के बारे में सब कुछ भूलने लगते हैं और इस तरह उनकी अगली पीढ़ी मुसलमान हो जाती है। बाबा यह सुनते ही भड़क गए। उन्होंने कहा कि नर्सरी वाला जरूर ही मुसलमान होगा और उसने जान-बूझकर यह पेड़ बचवा को दिया होगा। यह कहते हुए उन्होंने कुल्हाड़ी उठाई और पेड़ को काट डाला।
      माँ की बात पूरी होते होते मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। माँ मुझे चुप कराने लगी। वह मुझे समझा रही थी कि कोई बात नहीं तुम वहाँ दूसरा पेड़ लगा देना। उन्हें क्या पता कि वह पेड़ कितनी मुश्किल और प्यार से मैंने इतना बड़ा किया था। मैंने माँ से कहा कि मैं मर जाता हूँ तुम दूसरा बेटा पैदा कर लेना। माँ ने मुझे चाँटा मारा पर तुरंत ही गले से लगा लिया। मेरी रुलाई बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी। थोड़ी देर बाद बाबा आए तो अब तक का सारा डर भूलकर मैंने उनसे पूछा कि किससे पूछकर उन्होंने मेरा पेड़ काटा। बाबा ने मुझे गाली दी और कहा कि मेरा घर है मेरी जमीन है मैं जो मर्जी होगी करूँगा। मुझे किसी से पूछने की कोई जरूरत नहीं है।
तब मैंने उनसे पूछा कि मेरी साल भर की मेहनत का क्या? इसके पहले मैंने बाबा से कभी जबान नहीं लड़ाई थी। वे गुस्से में बमक उठे। बगल में पड़ा डंडा उठाया और मुझे कई डंडे मारे। वे गाली बक रहे थे कि साला मेरे ही घर में यह बित्ता भर का लौंडा मुझसे सवाल-जवाब करेगा। मेरे दरवाजे पर मुसलमानी पेड़ लगाएगा और मैं उसको काटूँगा नहीं उसमें जल चढ़ाऊँगा! पढ़ाई-लिखाई छोड़ के पेड़ लगाएँगे बबुआ। मालीगीरी करनी है। अब इस चक्कर में पड़े तो हाथ पैर तोड़ कर भीख मँगवाऊँगा। तभी उनकी नजर उन पौधों पर गई जिन्हें मैं थोड़ी देर पहले मदीने के पास से ले आया था। वे एक साथ एक रस्सी में बँधे हुए थे। उन्होंने पाँचों को एक साथ उठाया और जमीन पर पटक दिया। वह पालीथीनें जिनमें मिट्टी भरी थी और जो जड़ों को सँभाले हुए थीं फटकर बिखर गईं। पाँचों पौधों की जड़ें नंगी हो गईं। बाबा ने उन्हें तोड़ा-मरोड़ा और दूर फेंक दिया।
बाकी पैतालिस पौधे कभी नहीं आए। मैंने अगले दिन सभी तैयार किए हुए गड्ढों में बबूल के बहुत सारे बीज डाल दिए। हालाँकि वे उगे या कि नहीं मैं दोबारा पलटकर देखने नहीं गया।  
  
'रचना समय'से साभार 


मनोज कुमार पांडेय

फोन : 08275409685
ई-मेल : chanduksaath@gmail.coms


इरशाद ख़ान सिकंदर की ग़ज़लें

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असली नाम, छद्म नाम की बहसों से अलग कुछ अच्छी ग़ज़लें पढ़िए. इरशाद खान सिकंदरकी गजलों की किताब आई है- आंसुओं का तर्जुमा. उसी anybook प्रकाशन से जिसने कुछ समय पहले जौन एलिया की किताब 'गुमान'छापी थी. 
1.
बन्द दरवाज़े खुले रूह में दाख़िल हुआ मैं
चन्द सज्दों से तिरी ज़ात में शामिल हुआ मैं
खींच लायी है मुहब्बत तिरे दर पर मुझको
इतनी आसानी से वर्ना किसे हासिल हुआ मैं
मुद्दतों आँखें वज़ू करती रहीं अश्कों से
तब कहीं जाके तिरी दीद के क़ाबिल हुआ मैं
जब तिरे पाँव की आहट मिरी जानिब आई
सर से पा तक मुझे उस वक़्त लगा दिल हुआ मैं
जब मैं आया था जहाँ में तो बहुत आलिम था
जितनी तालीम मिली उतना ही जाहिल हुआ मैं
फूल से ज़ख़्म की ख़ुशबू से मुअत्तर ग़ज़लें
लुत्फ़ देने लगीं और दर्द से ग़ाफ़िल हुआ मैं
मोजिज़े इश्क़ दिखाता है सिकंदरसाहब
चोट तो उसको लगी देखिये चोटिल हुआ मैं
2.
सर पे बादल की तरह घिर मेरे
धूप हालात हुए फिर मेरे
मेरे महबूब गले से लग जा
आके क़दमों पे न यूँ गिर मेरे
रात गुज़रे तो सफ़र पर निकलें
मुझमें सोये हैं मुसाफ़िर मेरे
दिल में झाँके ये किसे फ़ुर्सत है
ज़ख्म ग़ायब हैं बज़ाहिर मेरे
एक दिन फूट के बस रोया था
धुल गये सारे अनासिर मेरे
उसकी आँखों में नहीं देखता मैं
ख़्वाब हो जाते हैं ज़ाहिर मेरे
मुझको ईमां की तरफ़ लाए हैं
कुफ़्र बकते हुए काफ़िर मेरे
3.
बहुत चुप हूँ कि हूँ चौंका हुआ मैं
ज़मीं पर आगिरा उड़ता हुआ मैं
बदन से जान तो जा ही चुकी थी
किसी ने छू लिया ज़िंदा हुआ मैं
न जाने लफ़्ज़ किस दुनिया में खो गया
तुम्हारे सामने गूंगा हुआ मैं
भँवर में छोड़ आये थे मुझे तुम
किनारे आ लगा बहता हुआ मैं
बज़ाहिर दिख रहा हूँ तन्हा तन्हा
किसी के साथ हूँ बिछड़ा हुआ मैं
चला आया हूँ सहराओं की जानिब
तुम्हारे ध्यान में डूबा हुआ मैं
अब अपने आपको खुद ढूँढता हूँ
तुम्हारी खोज में निकला हुआ मैं
मिरी आँखों में आँसू तो नहीं हैं
मगर हूँ रूह तक भीगा हुआ मैं
बनाई किसने ये तस्वीर सच्ची
वो उभरा चाँद ये ढलता हुआ मैं
4.
रिश्ता बहाल काश फिर उसकी गली से हो
जी चाहता है इश्क़ दुबारा उसी से हो
अंजाम जो भी हो मुझे उसकी नहीं है फ़िक्र
आग़ाज़े-दास्ताने -सफ़र आप ही से हो
ख्व़ाहिश है पहुंचूं इश्क़ के मैं उस मुक़ाम पर
जब उनका सामना मिरी दीवानगी से हो
कपड़ों की वज्ह से मुझे कमतर न आंकिये
अच्छा हो ,मेरी जाँच-परख शायरी से हो
अब मेरे सर पे सब को हंसाने का काम है
मै चाहता हूँ काम ये संजीदगी से हो
दुनिया के सारे काम तो करना दिमाग़ से
लेकिन जब इश्क़ हो तो सिकंदरवो जी से हो
5.
ज़मीनें आसमां छूने लगी हैं
हमारी क़ीमतें अब भी वही हैं
शराफ़त इन्तेहा तक दब गई तब
सिमट कर उँगलियाँ मुठ्ठी बनी हैं
रहे हैंवार सब ओछेतुम्हारे
मिरी साँसें अभी तक चल रही हैं
बचे फिरते हैं बारिश की नज़र से
बदन इनके भी शायद काग़ज़ी हैं
तिरी यादेँ बहुत भाती हैं लेकिन
हमारी जान लेने पर तुली हैं
6.
दिलो-नज़र में तिरे रूप को बसाता हुआ
तिरी गली से गुज़रता हूँ जगमगाता हुआ
ग़ज़ल के फूल मिरे ज़ेहन में महकते हुए
तिरा ख़याल मुझे रातभर जगाता हुआ
वो बारगाहे-अदब है अक़ीदतों की जगह
मै उस गली से न गुज़रूँगा ख़ाक उड़ाता हुआ
मिरे जुनूं से हरीफ़ों के पांव उखड़ते हुए
मैं जान देने के चक्कर में जाँ बचाता हुआ
किसे मिला तिरे क़दमों में जान दे देना
मैं सुर्ख़रू हुआ चाहत के काम आता हुआ
तुम्हारी याद मुझे इस तरह से लगती है
कोई चराग़ अँधेरे में झिलमिलाता हुआ
हथेलियों की लकीरें मुझे परखती हुई
मैं हर क़दम पे मुक़द्दर को आज़माता हुआ
जवाब क्यों हैं सभी ख़ामुशी में दुबके हुए
सवाल ज़ेहन के आंगन में आता-जाता हुआ
मिरे खिलाफ़ सभी साज़िशें रचीं जिसने
वो रो रहा है मिरी दास्ताँ सुनाता हुआ
हमारी सम्त लगातार वार होते हुए
उसे बचाने में अक्सर मैं चोट खाता हुआ
7.
जिस्म दरिया का थरथराया है
हमनेपानी से सर उठाया है
शाम की सांवली हथेली पर
इक दिया भी तो मुस्कुराया है
अब मैं ज़ख़्मों को फूल कहता हूँ
फ़न ये मुश्किल से हाथ आया है
जिन दिनों आपसे तवक़्क़ो थी
आपने भी मज़ाक़ उड़ाया है
हाले दिल उसको क्या सुनाएँ हम
सब उसी का किया-कराया है
8.
ये कैसी आज़ादी है
सांस गले में अटकी है
पत्ते जलकर राख हुए
सहमी-सहमी आँधी है
ये कैसा सूरज निकला
जिसने आग लगा दी है
चूहों ने ये सोचा था
दुनिया भीगी बिल्ली है
उसके घर के रस्ते में
हमसे दुनिया छूटी है
अपनी करके मानेगी
चाहत ज़िद्दी लड़की है
मिन्नत छोड़ो चीख़ पड़ो
दिल्ली ऊँचा सुनती है
मिट्टी में मिल जायेगी
मिट्टी आख़िर मिट्टी है
9.
मिरी ग़ज़लों में जिसने चांदनी की
उसी ने जिंदगी तारीक भी की
वहाँ भी जिंदगी ने धर दबोचा
वो कोशिश कर चुका है ख़ुदकुशी की
कोई उसकी हिमायत में नहीं है
हिफ़ाज़त कर रहा था जो सभी की
अगर ये ख्व़ाब सच्चा हो तो क्या हो
मिले भी और उससे बात भी की
छुपाया मैंने सबसे राज़ अपना
मिरे अश्कों ने लेकिन मुख़बिरी की
10.
आँखों की दहलीज़ पे आकर बैठ गयी
तेरी सूरत ख़्वाब सजाकर बैठ गयी
कल तेरी तस्वीर मुकम्मल की मैंने
फ़ौरन उसपर तितली आकर बैठ गयी
ताना-बाना बुनते-बुनते हम उधड़े
हसरत फिर थककर,ग़श खाकर बैठ गयी
खोज रहा है आज भी वो गूलर का फूल
दुनिया तो अफ़वाह उड़ाकर बैठ गयी
रोने की तरकीब हमारे आई काम
ग़म की मिट्टी पानी पाकर बैठ गयी
वो भी लड़ते-लड़ते जग से हार गया
चाहत भी घर-बार लुटाकर बैठ गयी
बूढ़ी माँ का शायद लौट आया बचपन
गुड़ियों का अम्बार लगाकर बैठ गयी
अबके चरागों ने चौंकाया दुनिया को
आंधी आखिर में झुंझलाकर बैठ गयी
एक से बढ़कर एक थे दांव शराफ़त के
जीत मगर हमसे कतराकर बैठ गयी
तेरे शह्र से होकर आई तेज़ हवा
फिर दिल की बुनियाद हिलाकर बैठ गयी


आँसूओं का तर्जुमासंग्रह से। (प्रकाशक- Anybook) 

रविकांत की किताब और उनकी भाषा लीला

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मीडिया की भाषा-लीला- यह इस साल की सबसे सुसज्जित पुस्तक है. प्रकाशक वाणी प्रकाशनहै. रविकांतकी यह हिंदी में पहली प्रकाशित पुस्तक है. महज इससे रविकांत का महत्व नहीं समझा जा सकता है. पिछले करीब तीन दशकों में इतिहासकार रविकांत ने दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढने वाले विद्यार्थियों को जितना प्रभावित किया उतना शायद हिंदी के किसी प्रोफ़ेसर ने भी नहीं किया. इस दौरान हिंदी के जितने युवाओं ने हिंदी में अलग ढंग से काम किया वे सब किसी न किसी रूप में रविकांत से प्रभावित रहे. यह एक सच्चाई है. मैं खुद भी उन प्रभावित होने वाले लेखकों में रहा हूँ.

रविकांत मूलतः इतिहासकार हैं. इस पुस्तक में मूलतः सिनेमा की भाषा और उसको प्रभावित करने वाले कारकों का ऐतिहासिक मूल्यांकन करने वाले कुछ लेख हैं. रविकांत ने हिंदी सिनेमा के इतिहास के ऊपर इतिहास विभाग से पीएचडी की है लेकिन यह किताब उनका शोध प्रबंध नहीं है. बल्कि पुस्तक में उस शोध के दौरान उन्होंने सिनेमा, उसकी भाषा को लेकर कुछ अलग-अलग लेख लिखे थे उसको एक साथ संकलित किया गया है. लेखक ने सिनेमा और रेडियो की भाषा और उसके ऊपर साहित्य के प्रभावों, भाषा के बदलते रूपों को लेकर भूमिका में विस्तार से उल्लेख किया है. हिंदी सिनेमा की ऐतहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिहाज से ‘मीडिया की भाषा लीला’ की भूमिका पढने लायक है.

लेखक की चिंता के केंद्र में सिनेमा की, माध्यमों की भाषा है- हिंदी-उर्दू का द्वंद्व. आज हिंग्लिश भाषा का सिनेमा में जोर है लेकिन लेखक ने अपने एक लेख में यह याद दिलाया है कि असल में हिंदी की आड़ में उर्दू के ऐतिहासिक वर्चस्व को हम नजरअंदाज कर रहे होते हैं. इसलिए पुस्तक में लेखक ने उर्दू की उस ऐतिहासिक भूमिका को अपने लेखों के माध्यम से समझने की कोशिश की है. मेरे ख़याल से दो उदाहरन इस सन्दर्भ में दिए जा सकते हैं. हिंदी सिनेमा के सर्वकालिक महान अभिनेता दिलीप कुमार अपनी फिल्मों में खालिस उर्दू में संवाद बोलते रहे और तो वे भी सबसे लोकप्रिय अभिनेता रहे. इसी तरह हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय गीतकार साहिर लुधियानवी रहे, जिनके बारे में यह कहा जाता है कि वे सिनेमा में उर्दू शायरी को लेकर गए और उन्होंने उसको स्थापित भी किया. बहरहाल, लेखक ने अपने लेखों में उर्दू के खालिस शब्दों का जमकर प्रयोग किया है. ऐसा लगता है रविकांत हिन्दुस्तानी भाषा के रूप के नहीं बल्कि देवनागरी में उर्दू लिखने के हामी हैं. भाषा को लेकर उनका दृष्टिकोण बहसतलब है.

किताब में दो लेख ऐसे हैं जिनसे बचा जा सकता था. एक लेख मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ की भाषा को लेकर है. दूसरा लेख ‘हिंदी वेब जगत: भविष्य का इतिहास’ है. यह लेख वेब पर बरती जाने वाली शुरूआती हिंदी को लेकर है. अब इन्टरनेट पर हिंदी बहुत विकसित हो चुकी है. बहरहाल, इन्टरनेट पर हिंदी के शुरूआती प्रयासों को लेकर यह लेख ऐतिहासिक प्रकृति का है.

पुस्तक में कुल सात लेख हैं. एक लेख सिनेमा की पत्रिका ‘माधुरी’ को लेकर है. जो सिनेमा और साहित्य के अंतर्संबंधों को समझने के लिए बहुत उपयोगी लेख है. हालाँकि हिन्दुस्तानी सिनेमा और उर्दू को लेकर रविकांत ने इस लेख में भी सवाल उठाये हैं. मुझे हैरानी इस बात पर होती है कि रविकांत उर्दू को लेकर तो बहुत बात करते हैं लेकिन हिन्दुस्तानी को लेकर नहीं, जो हिंदी का सबसे प्रचलित रूप रहा है. हो सकता है हिंदी-उर्दू के सवालों को उठाने के पीछे रविकांत की अपनी राजनीति हो.

बहरहाल, रविकांत ने ही हमारे अन्दर प्रश्नाकुलता पैदा की. इसलिए उनकी इस किताब को पढ़ते हुए मन में कुछ सवाल उठे. एक हिंदी लेखक होने के नाते कुछ हिंदी वाले सवाल.

लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह एक संग्रहणीय किताब है. बहुत दिनों बाद शोधपूर्ण लेखों की ऐसी पठनीय किताब हिंदी में आई है. तमाम तरह के पूर्वाग्रहों के बावजूद यह किताब पढने के लिए मजबूर करती है. सिनेमा में दिलचस्पी रखने वालों को, सिनेमा के इतिहास को लेकर काम करने वालों को इस किताब को जरूर पढना चाहिए.

हालाँकि किताब क नाम ‘मीडिया की भाषा लीला’ क्यों रखा गया यह समझ में नहीं आया?

पुस्तक- मीडिया की भाषा लीला; लेखक- रविकांत; प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, मूल्य-395(पेपरबैक)


मंदाक्रांता सेन की कविताएँ

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आज मंदाक्रांता सेनकी कविताएँ. समकालीन बांगला साहित्य में मंदाक्रांता सेन का नाम जाना-माना है. उनको आनंद पुरस्कार भी मिल चुका है. उन्होंने साहित्य अकादेमी का युवा पुरस्कार लौटा दिया था. उनका एक उपन्यास 'झपताल'हिंदी अनुवाद में उपलब्ध भी है. हम आभारी हैं उत्पल बैनर्जीके कि उन्होंने उनकी कविताओं का इतना सुन्दर अनुवाद किया. जबरदस्त फेमिनिस्ट कविताएँ हैं- मॉडरेटर 
=========
  
1.

रास्ता

तुम्हारी आँखों के भीतर
एक लंबा रास्ता ठिठका हुआ है
इतने दिनों तक मैं उसे नहीं देख सकी
आज जैसे ही तुमने नज़रें घुमाई
मुझे दिखाई दे गया वह रास्ता।
बीच-बीच में तकलीफ़ झेलते मोड़
रास्ते के दोनों ओर थे मैदान
फ़सलों से भरे खेत
वे भी जाने कब से ठिठके हुए थे
यह सब तुम्हें ठीक से याद नहीं
आँखों के भीतर एक रास्ता पड़ा हुआ था
सुनसान और जनहीन।

दूसरी ओर
कई योजन तक फैला हुआ है कीचड़
वहाँ रास्ता भी व्यर्थ की आकांक्षा-जैसा मालूम होता है
कँटीली झाड़ियाँ और नमक से भरी है रेत,
कहीं पर भी ज़रा-सी भी छाया नहीं
इन सबको पार कर जो आया है
क्या तुम उसे पहचानते हो?
वह अगर कभी भी राह न ढूँढ़ पाए
तो क्या तुम उससे नहीं कहोगे
कि तुम्हारी आँखों में एक रास्ता है
जो उसका इंतज़ार कर रहा है?

2

लज्जावस्त्र

रास्ते से जा रही हूँ
और मेरे वस्त्र खुलकर गिरते जा रहे हैं
मैं नग्न हुई जा रही हूँ माँ!
और आखि़र घुटनों के बल बैठ जाती हूँ
दोनों हाथों से जकड़ लेती हूँ
दोनों घुटनों को,
छुपा लेती हूँ अपना चेहरा
अपना पेट अपना सीना
खुली पीठ पर अनगिनत तीर बिंधने लगते हैं
माँ,यकृत तक को तार-तार कर रही हैं नज़रें
हृदय और फेफड़ों को भी ...

शायद ये सब दुःस्वप्न हैं
लेकिन दुःस्वप्न तो हर रास्ते पर बिखरे हुए हैं
भागने की जी जान से कोशिश करती हुई
मैं गलियों कोनों-अँतरों में घुस जाती हूँ
हर तरफ़ भीड़ ही भीड़!!
कितने कौतूहल से देखती रहती हैं गलियाँ
दोनों ओर से दीवारें जकड़ लेती है
मेरा दम घुटता जा रहा है
अट्टहासों का झुण्ड मेरी ओर दौड़ता आ रहा है
ओ माँ,ख़ून की धार में बही जा रही हूँ
खू़न पोछूँ किस तरह ...
मेरी देह पर कपड़े का एक टुकड़ा भी नहीं
भयंकर लज्जा से मरी जा रही हूँ

आखि़रकार मैं किस तरह
अपने घर लौट सकी भगवान जाने ...
और माँ,उधर उन लोगों ने तब
मेरे नग्न शव को
परचम से ढँकना शुरू कर दिया था ...


3.
स्वप्नरूपेण

मुझे विश्वास है कि तुम कर सकती हो।

तुमने निहायत सस्ती
सिंथेटिक साड़ी पहन रखी थी
हाथ में था प्लास्टिक का गुलाबी पैकेट
कलाई में केवल शाखा-पला1
और घिस चुकी हवाई चप्पल पैरों में
लगता है तुम्हें सेफ़्टिपिन बहुत पसंद है
लगता है,तुमने कुछ और पसंद करने के बारे में
कभी सोचा ही नहीं।

समझ में आ जाता है कि
तुम विज्ञान नहीं जानती,कविता भी नहीं,
गाने या कि अल्पना रचना भी तुम्हें नहीं आता
(जो ये सब जानते हैं वे कुछ तो उजले दिखते हैं)
तुममें चमक नहीं,चेहरे की त्वचा खुरदुरी।
यहाँ तक कि टिकिट लेकर
खुल्ले पैसों का हिसाब तक नहीं कर पातीं
कंडक्टर धमक देता है।
तुम्हारे चेहरे पर उभर आता है आतंक
और फटे होंठों पर अर्थहीन हँसी।

सब तुम्हें सता रहे थे
और किसी तरह तुम बस से उतर पाईं
अच्छा कहो,अब तुम क्या करोगी ... घर जाओगी
तुम्हारा पति घर पर नहीं है
बच्चे भी नहीं,अच्छा-बुरा खाना बनाओगी कुछ?
वह भी तुम्हें शायद ठीक से नहीं आता!
तेल नहीं है,केवल दो आलू पड़े हैं
यह सब कहने से क्या होता है!
जो क़ाबिल हैं,अन्नपूर्णा,
वे दाल-भात को भी अमृत बना देती हैं

रात ढलने पर एक-एक कर
तुम्हारा संसार घर लौट आया
खाना हुआ और सोने का इंतज़ाम भी
मिलन भी हुआ और तुम कुछ भी नहीं कर सकीं।
फिर आधी रात को तुमने
पति और संतानों के चेहरों को
चुपके से छुआ
और वे स्वप्न में नीले पड़ गए।

मैंने कहा थातुम कर सकती हो
बस किसी ने इस पर विश्वास नहीं किया।
00


-------------
1.शाखा-पला: विशेष प्रकार के कड़े,जिन्हें बंगाल की सधवा स्त्रियाँ सुहाग की निशानी के तौर पर पहनती हैं।


4.

विसर्जन

पुराने कमरे की फ़र्श पर पड़ी हुई थी
अस्त-व्यस्त साड़ी
उसे भी छोड़कर वह युवती अनाड़ी
आधी रात देहरी से बाहर निकल गई
वहाँ,घर के बाहर मैदान का संदिग्ध विस्तार था ...

उस युवती ने सोचा था कि
रोज़ रात को बिकने के बजाय
एक रोज़ अँधेरे में
इस अंधकूप को तैर कर पार करके
चली जाएगी किसी दूरवर्ती घाट पर
यह तो उसका पहला ही घाट था
स्त्रियों का जीवन तो
बहते-बहते ही कटता है ...

निहायत नासमझ लड़की थी वह
अँधेरा उसकी नाव नहीं था
और नदी की हर बाँक पर था डर
तमाम घाटों पर बहते रहना हो तो
तैराकी का आना भी तो ज़रूरी है
लेकिन वह युवती आज तक
ठीक से तैरना तक नहीं सीख सकी थी

जो होना था वही हुआ
लड़की ने जैसे ही डोंगी खोल दी
तुरंत उसकी बेआबरू देह पर
भीतर तक बिंध गया आदिम पृथ्वी का अँधेरा
अकेला नहीं,झुण्ड के झुण्ड मृतजीवी

सामूहिक बलात्कार के बाद
मैदान में पड़ी रही लाश
गले में फंदा उसी के ब्लाउज़ का
दो-तीन दिन बाद
आनन-फानन जाने कौन लोग
गाड़ गए वह लाश

अब उस कमरे में एक नई लड़की है
जिसने वही छोड़ी हुई साड़ी पहन रखी है ...


5.

कहो और तरह से

जो बात जिस तरह से कही जा चुकी है
आज उसे और तरह से कहो।
कहो कि तुम प्यार करती हो,
लेकिन ऐसा झूठमूठ मत कहना।
प्यार करते-करते देखो
कि एक दिन रुलाई आती है या नहीं,
फिर दबी ज़बान में ख़ुद से ही कहो: और ... और ...

मुझे मालूम है
बहुत सारे दुःख जमा हो चुके हैं।
फिर भी, दुःख की बातें
उपेक्षा से बिखरा कर मत रखना
हँसते-मुसकराते हुए ख़ुद को प्यार करना
कहना कि अहा,रहने दो।
दुःख में तुम बहुत फबती हो
यह बात जो जानता है,वही जानता है!

लोगों ने जो बात
बार-बार चीख़कर कही है
उसे तुम्हें कहने की ज़रूरत क्या है!
ख़ामोशी से पलट दो,चुपके से उलट दो दान ...
भीड़ के सिर पर सवार हो
जब दरवाज़े पर दस्तक दे क्रांति
तुम हौले से मुसकराते हुए कहना -- अच्छा मैं भी आती हूँ ...!


6.

युद्ध के बाद की कविता

इतनी बार ध्वस्त हो चुकी हूँ
फिर भी ध्वस्त होने की आदत नहीं पड़ी।
आज भी बड़ी तकलीफ़ होती है
ध्वस्त होने में बड़ी तकलीफ़ होती है।
हरेक अंत से,देखो,उस मृत्यु से मैं लौट रही हूँ
जन्मलग्न की ओर
जी जान से लौट रही हूँ
घुटनों और सीने के बल घिसटती।
इतनी बार,इतनी बार मरती हूँ
देखो,फिर भी मैं मृत्यु पर विश्वास नहीं करती
लड़ाई के मैदान में टटोलती फिरती हूँ चेहरे
झरे हुए चेहरे।
माँ और पिता के चेहरो, संतानो के चेहरो,  उठो --
लड़ाई ख़त्म हो गई है।
अगली लड़ाई से पहले
हम फिर से गढ़ेंगे नई बस्तियाँ
हम फिर से करेंगे प्यार।
आदिगन्त तक फैले खेतों में
हथियार बोकर उगाएँगे धान की फ़सल।

मैं इतनी बार झुलसी हूँ
बही हूँ कितनी ही बार
फिर भी देखो मैं अब भी नहीं भूली
कि ध्वंस के बाद भी इन्सान
किस प्रकार जीतता है ...
00

मूल बँगला से अनुवाद: उत्पल बैनर्जी










हम केवल बातन के तेज़

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वरिष्ठ पत्रकार और लेखक रंजन कुमार सिंहने भारत-पाकिस्तान तनाव के सन्दर्भ में प्रधानमंत्री के हाल के भाषण के ऊपर बहुत विचारोत्तेजक लेख लिखा है- मॉडरेटर 
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एक थे पहलवानजी। नई-नई शादी हुई थी। सुहागरात पर उन्होंने अपनी पत्नी से बड़े ही प्यार से पूछा- पंजा लड़ाएगी?

पूरा देश जब पाकिस्तान से अपने फौजियों की शहादत का हिसाब मांग रहा है तो हमारे प्रधानमंत्री कुछ वैसे ही पाकिस्तानियों (पाकिस्तान को नहीं) को चुनौती दे रहे हैं आइए, गरीबी से लड़ाई लड़ते हैं। देखते हैं, गरीबी पहले कौन हटाता है आप या हम? आइए, बोरोजगारी से लड़ाई लड़ें और देखें, बेरोजगारी पहले आप दूर करते हैं या हम? आइए, अशिक्षा के खिलाफ लड़ाई लड़कर दिखाते हैं कि अशिक्षा पहले आप खत्म करते हैं कि हम? गनीमत है कि इस लड़ाई का संदर्भ उन्होंने गरीबी से लेकर बेकारी तक को ही बनाया, दुश्मन को क्रिकेट, कबड़्डी, खोखो या फिर रमी के लिए नहीं ललकारा। उनसे यह नहीं कहा कि आइए, ओक्का-बोक्का खेलते हैं, देखते हैं आप जीतते हैं कि हम? 56 इंच की छाती की दुहाई देनेवाले हमारे इस नेता ने न जाने क्यों आज अपना रंग बदल लिया है? एक के बदले दस सिर काट लाने की ललकार लगाने वाले हमारे नेता ने कुर्सी पर बैठते ही जाने क्यों अपना राग बदल लिया है? जिस मोदी के लिए हमने मोदी-मोदीके नारे लगाए थे, वह निश्चय ही कोई और था।

जी हां, हमें गरीबी, बेकारी, अशिक्षा सबसे ही लड़ाई लड़नी है। बेशक लड़नी है, लेकिन इसके लिए हमें पाकिस्तान से उलझने की जरूरत नहीं है। यदि प्रधानमंत्रीजी ने ये चुनौतियां अपने ही देश के सभी प्रांतो के सामने रखी होतीं कि देखें गरीबी, भुखमरी, बेकारी और अशिक्षा के खिलाफ जंग में किस प्रदेश की जीत होती है तो उनके बीच एक स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता पनपती और विकास की दिशा में इसका विशेष मायने होता, पर पाकिस्तान की आवाम को इनके लिए ललकारने से भला क्या सिद्ध होगा? जब पाकिस्तान हमारे घर में घुसकर हमारे सैनिकों को मार रहा हो, तब हम उसकी आवाम से गरीबी से लड़ने की प्रतिद्वंद्विता की बात करें, यह स्थितियों से मुंह चुराना है। यदि मोदी जी को दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय विकास की इतनी ही चिन्ता है तो वह उस दिन भी झलकनी चाहिए थी, जब वह एक के बदले दस सिर काट लाने के वायदे कर रहे थे। दुश्मन को सबक सिखाने के लिए मनमोहन सरकार का पैमाना कुछ हो और मोदी सरकार कुछ और, ऐसा तो नहीं हो सकता। खेल के जो नियम खुद मोदीजी ने बनाए हैं, उनका पालन तो उन्हें करना ही पड़ेगा।

पाकिस्तान से लड़ाई के खतरों का भान हमें है। लेकिन क्या यह भान मोदी जी को नहीं था, जब वह देश को अपनी 56 इंच की छाती का भरोसा दे रहे थे? जी हां, हम युद्ध नहीं चाहते, विकास चाहते हैं, लेकिन दुश्मन जब हमें हमारे घर में घुसकर मार रहा हो तो क्या हम विकास के बारे में सोच भी सकते हैं? कभी-कभी विकास के लिए भी युद्ध आवश्यक हो रहता है। यदि ऐसा नहीं होता तो हमारी आस्था के प्राण भगवान श्रीकृष्ण मोहपाश में जकड़े अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार न करते। यह कभी न कहते उससे कि उठो पार्थ, गांडीव संभालो। फिर भी हम लड़ाई नहीं चाहते। पाकिस्तान से तो क्या, किसी से भी नहीं चाहते और ना ही किसी और को लड़ाना चाहते हैं। भारत का यह चरित्र बिलकुल ही नहीं है। परन्तु हम यह भी नहीं चाहते कि कोई हमारा मान मर्दन करे। हम कदापि नहीं चाहते कि कोई हमारी संप्रभुता पर चोट करे। और यदि कोई ऐसा करता है तो हमें अधिकार है कि हम उसे उसका माकूल जवाब दे।

मुझे ही क्यों, पूरे देश को ही संतोष होता यदि मोदीजी ने कोझिकोड के उस मंच से पाकिस्तानी आवाम को संबोधित करने की बजाय पाकिस्तान के नेतृत्व को संबोधित किया होता कि हमें तो हाफिज सईद का सिर चाहिए। तुम्ही बताओ, तुम लाकर दोगे या हम खुद आकर लें? हमें ही क्यों, पूरी दुनिया को भी खुशी होती यदि हमारे प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के नेतृत्व को ललकारा होता कि यह तुम तय करो कि तुम्हारी सरजमीं पर चलनेवाले आतंकी शिविरों को तुम खुद खत्म करोगे या हम आकर करें? जी हां, हमें एक के बदले दस सिर नहीं चाहिए। हमें तो उरी में शहीद उन अठारह जबानों के सिरों के बदले सिर्फ एक सिर ही चाहिए हाफिज सईद का। हमें पाकिस्तान पर हमला कर के किसी भी निर्दोष की जान नहीं लेनी है, हम तो सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान में चलाए जा रहे आतंकी शिविरों को नेस्तनाबूत देखना चाहते हैं। ऐसा करने की बजाय हमारे प्रधानमंत्री यदि भारत-पाक गरीबी उन्मूलन प्रतियोगिता कराएंगे तो स्वाभाविक तौर से हमें उस पहलवान की याद हो आएगी, जिसने समय, स्थान एवं संदर्भ का ख्याल किए बिना अपनी पत्नी से पूछा था पंजा लड़ाएगी?


देव आनंद के ऊपर दिलीप कुमार

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दिलीप कुमारऔर देव आनंद समकालीन अभिनेता ही नहीं थे अच्छे दोस्त भी थे. देव साहब के निधन पर दिलीप कुमार ने यह लिखा था. कल देव आनंद का जन्मदिन था तो सैयद एस. तौहीदने इस लेख की याद दिलाई. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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सिनेमा में दाखिल होने के मामले में देव मुझसे महज एक बरस जूनियर थे। चालीस दशक के मध्य में हम तीनों यानी राज,देव व मैंने तकरीबन एक साथ फिल्मों में कदम रखा। वो भी क्या दिन थेआज भी आंखों के सामने हैं। काम की तलाश में बाम्बे की लोकल में इधर-उधर फिरने के दिन। देव भी अक्सर साथ हुआ करते थे। थोड़े ही दिनों में हमारे बीच दोस्ती पनप चुकी थी। वे घर के सदस्य बराबर थेनासिर(दिलीप कुमार के छोटे भाई) से उनकी मुझसे भी ज्यादा बनती थी। दशक के पूरे होने तक हमने फिल्मों में मजबूत आधार हासिल कर लिया था। 'शहीद''अंदाज'व 'बरसात'से राज व मेरी पहचान सितारों में होने लगी। हमारे समानांतर  'बाज़ी'व 'जिददी'सरीखी फिल्मों ने देव को भी सितारों में बिठा दिया।  शुरु के जमाने से ही देव व मेरे दरम्यान एक पेशेवर तालमेल कायम रहा। पेशेगत मजबूरियों के नाम हमने दोस्ती का अदब नहीं भुलाया। हमने एक दोतरफा रिश्ता बनायाएक शांत व अनकही संहिता को हमने निभाया। एक दूसरे की इज्जत करना हम बखूबी जानते थे। राज देव और मेरे बीच मिलना-जुलना बराबर होता रहा। हम एक दूसरे के काम के ऊपर सकारात्मक चर्चाएं करते थे। एक दूसरे से पेशेवर अनुभव शेयर करना हमने सीख लिया था। उन हास्य-व्यंग्य के पलों को भुला नहीं सकता जब राज देव व मेरी दिलचस्प नक़ल किया करते। वो बेहद खुबसूरत पल थेक्योंकि हम विरोध नहीं बल्कि रोचक प्रतिस्पर्धा में जी रहे थे। हर कलाकार व तकनीशियन का सहयोग व समर्थन करना देव की एक बडी खासियत थी। उनके कातिलाना रंग-रूप का जवाब नहीं था। देव की मुस्कान का रुमानी अंदाज आज भी सबसे दिलकश नजर आता है। जब कभी आपको उपयुक्त कथा व काबिल फिल्मकार मिला कमाल कर दिखाया। इस सिलसिले में देव की 'काला पानी', 'असली नकली'एवं गाईड की तारीफ करनी होगी।
फिल्म में रूमानी दृश्यों को खूबसूरती से अंजाम देने में देव साहेब सबमें अव्वल थे। जेमिनी की महान प्रस्तुति इंसानियतमें हमें एक साथ काम करने का सुनहरा अवसर मिला। एस एस वासन की यह शाहकार राजसी नाट्कीयता समेटे हुए थे। देव की हृदयता का आलम देखें कि मेरी तारीखों से मेल करने वास्ते देव ने खुद की फिल्म शुटिंग स्थगित कर दी थी। मेरी अनुभव रहा कि देव जूनियर कलाकारों को लेकर भी बडे दरियादिल थे। आपने कभी किसी की मेहनत को नजरअंदाज नहीं कियापरफेक्ट शाट निकालवने के लिए टेक पर रिटेक मंजूर था। इस तरह उन गुमनाम कलाकारों में आत्मविश्वास का भाव हो जाता। एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना हमारी प्राथमिकताओं में था। देव की बहन की शादी में गया। फिर बिटिया देविना के ब्याह में भी शामिल हुआ। मिलने जुलने का मसला हम दोनों के बीच नहीं था। 
याद आ रहा कि मेरी शादी में देव पत्नी मोना को लेकर आए थे। दोनों ने हमारी रस्मों को देखा। सिर्फ यही नहीं हमारे दौलतखाना पाली हिल की बाकी मजलिसों में भी देव का आना होता था। हम दोनों एक परिवार की तरह थे। मधुर रिश्तों के बीच हम पेशागत बोझ को नही लाते थे। हम पंडित नेहरू से यादगार मुलाकात को नहीं भुला सकते। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने मुझे राज व देव को मिलने बुलाया था। देश समाज व सिनेमा पर हमसे बातें हुई। तीनों ने अपने विचार रखे। देव आनंद को जिस स्नेह से मैं देव बुलाया करता था। वो भी मुझे लालेकह कर संबोधित करतेदेव के निधन ने झकझोर दिया है। लंदन से यूँ अचानक आई खबर ने दिल को गहरा सदमा दिया है। जन्मदिन पर बुलाया थासोंचा था कि देव का आना होगा। वो आएगासीने से लगाकर कहेगा लाले तु हज़ार साल जिएगा। यह मेरा सबसे गमगीन जन्मदिन होगाकहां गए देव मुझे छोडकर

..... (दिलीप कुमार)


प्रवीण कुमार झा का व्यंग्य 'मिक्स्ड डबल'

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पिछले दिनों युवा लेखक प्रवीण कुमार झाकी किताब आई 'चमनलाल की डायरी'. इस पर लेखक का नाम वामा गांधी है. वे इसी नाम से शायद ब्लॉग लिखा करते थे. बहरहाल, यह किताब अपने आप में सेल्फ पब्लिशिंग का अच्छा उदाहरण है. बिना किसी प्रचार-प्रसार के महज पाठकों और दोस्तों के फेसबुक स्टेटस के आधार पर यह किताब अच्छी बिक रही है. इस किताब ने यह दिशा दिखाई है कि अगर आपके लेखन में जोर है तो बड़े प्रकाशकों का मोहताज होने की कोई जरुरत नहीं है. हिंदी में अच्छा, अलग पढने वाले अभी भी हैं. लेखक को अपने लेखन पर भरोसा होना चाहिए और साहस. फिलहाल, उसी किताब से एक प्रतिनिधि व्यंग्य, जो मुझे बहुत पसंद है- प्रभात रंजन 
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दुनिया की सबसे बेरहम जगह लोग कहते हैं अमरीका ने ग्वाटेमाला बे में बना रखी है. वहाँ का तो कुछ खास अनुभव नहीं पर दावे के साथ कह सकता हूँ ९० की दशक में बिहार रोडवेज के बस की आखिरी सीट कुछ कम नहीं थी. कूल्हों को उछाल-उछाल कर झटके देते तो कभी दायें-बायें रगड़ कर लाल कर देते. ये अप्राकृतिक बलात्कार हर रोज उन सड़कों पर होता. किस्मत ऐसी, कि अक्सरहाँ लोग धकिया कर वहीं पिछली सीट पर भेज देते. रूमाल या गमछा न हो तो अपनी सीट बचती कहाँ थी

ऐसी ही एक बस में ज्यादा नहीं, कुछ १०-२० किलोमीटर का सफर तय कर रहा था. सफर भले ही छोटी लगे, औसतन ३-४ घंटे लगते थे. काफी संभल कर खिड़की की तरफ बैठा था. जब भी गड्ढे आते, झट से खड़ा हो जाता. पहले घंटे लगभग ३०-४० दफे उठ-बैठ की, तो हिम्मत हार गया. 

गड्ढे ही गड्ढे थे, रोड का नामों निशां नहीं. ओम पुरी जी के गालों में तो फिर भी काफी कम हैं, ये तो चाइनीज चेकर की भांति एक गड्ढे से दूसरे गड्ढे की दौड़ थी. मैंने भी कमर कस ली. अब घिसे तो घिसे, जो होगा देखा जाएगा. वो किसी फिल्म का डायलॉग है न, "तोहफा कबूल करें जहाँ पनाह!" 

नींद का तो खैर प्रश्न ही नहीं था, इधर-उधर झांकने लगा. 

दृश्य बड़ा अटपटा था. दो अधेड़ पुरूष एक दूसरे की मटमैली धोती में हाथ डाले हस्त-मैथुन कर रहे थे. 

एक तो बस के झटकों ने यूँ ही पेट में हिलोड़े ला दिये थे, ऊपर से ये घृणित कुकर्म दृश्य. बाकी रस्ते बस खिड़की से उल्टी करते गया.

ये दृश्य धीरे-धीरे आम होने लगे. कभी पुरूष या महिला छात्रावास के बंद कमरों में, तो कभी खुलेआम ट्रेन या बस में. समलैंगिकता काफी सुलभ थी, और प्राकृतिक यौन संबंध उतनी ही दुर्लभ. 
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जब जवानी का जुनून आया, तो देखा किताबों में फंस कर सेहत आधी हो गयी थी. हड्डियां लगभग गिनी जा सकती थी. कभी वर्जिश की ही नहीं. आत्मग्लानि में जिम की सदस्यता तो ले ली लेकिन पहलवानों को देख दुबक गया. सदस्यता की फीस बेवजह बरबाद हो रही थी, और डंबल-शंबल की दुनिया से भय हो रहा था. 

जिम जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. इसे कुछ लोग मध्यवर्गीय मानसिकता भी कह सकते हैं. जो पहले किसी चीज को दुकान में देख ललचाते हैं, फिर पैसे जमा करते हैं. लेकिन दुकान तक जाने की हिम्मत नहीं होती कि दुकानदार हुड़क न दे. फिर दुकान की रेकी करते हैं कि कब भीड़ कम होगी और कम ज़हमत होगी. क्या पता दाम बढ़ गये हों? मँहगाई का कुछ भरोसा नहीं. ५००-१००० रूपए तो संभाल लूँगा. चलो, कुछ छोटी चीज लेने के बहाने जाता हूँ. आखिर जब मिशन पूरा होता, तो उसे ट्रॉफी की तरह घर लेकर आते. चाहे कलर टी.वी. हो या कैरमबोर्ड, मुहल्ले वालों को बताते और रौब जमाते. 

इसी रणनीति से दो-चार दिन चुपके से जिम की रेकी कर एक वक्त का पता लगा जब जिम खाली-खाली सा होता.

आखिर जिम की शुरूआत हो ही गई. भारी-भरकम ताम-झाम था. थोड़ी देर उछल-कूद कर आखिर एक हल्का सा डंबल उठाया. आईने में डंबल को ऊपर-नीचे करते अपने आप को देख रहा था और खुश हो रहा था. जिम में ये एक खासियत है. आईने इतने लगे होते हैं कि खुद को देख-देख कर आत्मप्रेम दुगुना हो जाता है. थोड़ी ही देर में शर्ट उतार बनियान में अा गया, और अपने मिनी साइज डोले-शोले देख कर लगा कि बदन में कुछ हरकत हो रही है. 

तभी एक मॉडल टाईप हट्टा-कट्टा लड़का जिम में दाखिल हुआ. किताबी मांसपेशी वाला गठीला शरीर. उसके सामने डंबल उठाये मैं बहुत बड़ा नमूना लग रहा था. मैंने फटाफट डंबल रखा, कपड़े पहने और जिम से निकलकर खिड़की से छुपकर उसे देखने लगा. दो-चार दिन ये सिलसिला चला, फिर एक दिन हीनभावना त्याग कर उससे गुरू बनने का अनुरोध कर डाला. 

ये व्यायामशाला या जिम एक पंथ या cult है. इनकी अलग अपनी दुनिया है, जो बाकी दुनिया को नमूना समझती है. इस पंथ का हर इंसान दूसरे को पंथ में शामिल करने की पुरजोर कोशिश करता है. उसने अपना नाम माइकल बताया, और मुझे खाने-पीने की योजना से लेकर जिम में कसरत का रूटीन तक सब बता डाला. हफ्ते में एक दिन बाँह और हाथ की कसरत, एक दिन छाती, एक दिन कंधे और पीठ, और एक दिन बस टांगे. खूब सारा प्रोटीन. ६-६ अंडे रोज और सिर्फ अंडे का सफेद हिस्सा. हर रोज एक नयी सलाह देता और खूब सारी कसरत कराता. एक हफ्ते में ही दम निकल गया. बदन जैसे अकड़ सी गयी और जिन-जिन हिस्सों में मांस जाकर हड्डियों से मिलते, वहां बेतहाशा टीस हो रही थी. जैसे अब उखड़ा, तब उखड़ा. अगले हफ्ते जाने की हिम्मत न पड़ी. रोबोट की भांति टांगे हल्की फैला कर चलता, वही जैसे अप्राकृतिक बलात्कार हो गया हो.

पर ये जिम पंथी भी बड़े घाघ होते हैं. दोस्तों के साथ चाय-सुट्टा पी रहा था, कि देखता हूँ एक बुलेटनुमा मोटरसाईकल से उतर कर एक भारी-भरकम हेल्मेटधारी मेरी तरफ चला आ रहा है. माइकल को देख ऐसे सिहर गया जैसे स्कूल प्रिंसिपल नें क्लास बंक करते पकड़ लिया हो, और अब कान ऐंठ कर मुर्गा बनाएगा. मैनें अग्रिम क्षमा-याचना की और उसने बड़े दिल से माफ कर दिया. उसने ये भी समझाया कि इस दर्द और अकड़न का इलाज व्यायाम ही है, व्यायाम से भागना नहीं. ये तो पुरानी गाड़ी स्टार्ट करते वक्त की घरघराहट है जो कुछ देर चलने के बाद खत्म हो जायेगी. धीरे-धीरे मेहनत रंग लाने लगी. छाती चौड़ी होती जा रही थी, और टी-शर्ट की बाँहे कस सी गयी थी. असर भी दिख रहा था. जो लड़कियाँ पहले दूर छिटकती थी, अब किसी न किसी बहाने चिपकने लगी. पर जैसे पौरूष और अकड़ एक दूसरे के पर्याय हैं. पहले जुबां में एक भीरूता थी, अब लड़कियों से भी ऐसे बात करता जैसे बच्चन साब का डॉयलाग बोल रहा हूँ. उन दिनों चिकने चॉकलेटी लड़के ज्यादा चल रहे थे, और मैं चॉकलेट से अखरोट बनता जा रहा था. 

व्यायामशाला यूँ तो आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित थी पर माइकल ने इतवार को मालिश सेशन का न्यौता दे डाला. ये सब तो गामा पहलवान के अखाड़े वगैरा में सुना था. भई मुझे नहीं करवानी मालिश-वालिश. खैर मैं यूँ ही व्यायामशाला का चक्कर लगाने निकल पड़ा. कयास ठीक ही लगाया था. अखाड़े वाला माहौल था. सारे अर्धनग्न लेटे थे, और एक दूसरे के ऊपर तेल चपोड़ मालिश कर रहे थे. एक मांसपेशी को पूरी गोलाई में मालिश करते. छातियों से जांघों तक. घुटनों से टखनों तक. माइकल ने कहा कि इससे अकड़ बिल्कुल खत्म हो जाएगी और मांसपेशियां उभर कर आएगी. मैंनें मजाकिया लहजे में मना किया कि भई ये मर्दाना रोमांस मुझसे न होगा. यह सुनकर माइकल हँसा नहीं, बल्कि आंखे तन गई और पलट कर मालिश की देख-रेख करने लगा. मैंने शायद कुछ ऐसा किया था, जिसे अंग्रेजी मुहावरों में बेल्ट की नीचे प्रहार कहते हैं. 

बरसों बाद कुछ ऐसी ही मालिश मैंने भी करवाई गोवा के एक हाई-फाई स्पा में. एक चिंकी उत्तर-पूर्व की महिला ने अंधेरे कमरे में  शास्त्रीय संगीत बजा कर पूरे शरीर पर मालिश करी. अजी रोंगटे खड़े हो गये थे. यूँ तो शेख-चिल्ली बना फिरता था, लेकिन अर्धनग्न लेटा अनजानी महिला के साथ असहाय महसूस कर रहा था. मसाज समाप्त होते ही राम-राम तौबा-तौबा करता भागा.

माइकल ने जिम में अपना वक्त बदल लिया था, और मेरा संपर्क टूट गया. परीक्षा निकट आ गये तो कसरत भी बंद कर दी. 
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एक समस्या जो मेरे साथ हमेशा रही कि हॉस्टल मेस का खाना कभी नहीं भाया. कहते हैं मैकडॉनल्ड्स के बर्गर सदियों से बदले नहीं. अपनी उत्तमता बरकरार रखी है. इस मिसाल में भी भारतीय मेस कुछ कम नहीं. एक ही खाने का मीनू साल-दर-साल. हालांकि सुना है देश के कई संस्थानों में लजीज मेस भी हैं. बैंग्लूरू के ईंडियन ईंस्टीच्यूट ऑफ साइंस एक रिसर्च के सिलसिले में गया था. प्रयोगशाला से ज्यादा समय कैंटीन में लाजवाब डोसे खाते बिताये. मैंने ही क्या, बाकियों ने कौन सा नोबेल जीत लिया? सबके सब डोसे गटक रहे हैं बस. खैर उनसे कोई बैर नहीं. खाए पीए ऐश करें अपनी बला से. मैंने भी कई जुगत लगाए. भाँति-भाँति के डब्बे वालों का खाना आजमाया. पर आखिर सुई अटकी एक सरदार जी के ढाबेनुमा मेस पे. 

सरदारनी साक्षात् अन्नपूर्णा थी. खाने वाले का दिल भाँप लेती. या यूँ कहिये, जो भी बनाती उसी पे दिल आ जाता. उनकी ननद यानी सरदार जी की विधवा बहन उनका साथ देती. अप्रतिम सुंदर. उम्र का तो अंदाजा नहीं पर नयी नवेली शादी हुई थी और पति कारगिल युद्ध में शहीद हो गया. ठीक-ठीक हिसाब लगाऊँ तो तीस के आस-पास की होगी. थोड़ी घनिष्ठता हुई, तो कहा पेंशन के पैसे ससुराल भेज देती है, और यहाँ भाई-भाभी का हाथ बँटा देती है. मन भी लगा रहता है और जिम्मेदारी से भी मुँह नहीं मोड़ती. आर्मी वाले के विधवा के लिये प्रेम उमड़ना देशद्रोह से कम नहीं था, लेकिन फिर भी उनमें एक खिंचाव सा जरूर था. वो फुलके लाकर प्लेट पे डालती और मैं बस खाता चला जाता. 

सरदारजी शाम से दारू पीने बैठ जाते, और हमारे खाते-खाते घुलट जाते. कभी कभार गुस्से में सरदारनी को थप्पड़ भी सबके सामने जड़ देते. ऐसा लगता जैसे हमारी देवी पर असुर ने हमला कर दिया. खून खौल जाता, लेकिन कुछ करने की हिम्मत नहीं होती. गुस्से को फुलकों के साथ निगल जाता. वो थपड़ाते रहे और हम बेशर्मों की तरह खाते रहे. धीरे धीरे ये स्त्री-शोषन भी एक मनोरंजन बन गया. रोज खाते वक्त इस रोमांच का इंतजार करते. रोम के ग्लैडिएटर एरिना की भांति. पौरूष शक्ति का प्रदर्शन और सुंदर भरी पूरी विधवा के दर्शन. इसपाश्विक आनंद में जानवर बनता जा रहा था. शायद मानसिकता इस कदर गिर गयी कि पढ़ाई खत्म होते ही सरदारजी के घर के सामने कमरा ले लिया. अब तो रोज सुंदरी को खिड़कियों से झांकता.

ऐसी ही एक रात खिड़कियों से वो दृश्य देखा जो पहले छुप-छुप कर सतरंगी फिल्मों में ही देखा था. सरदारजी बरामदे पर नशे में धुत्त पड़े थे और दोनों महिलायें अंधेरे में प्रेमपाश में बंधी थी. हल्की सी नाईट-लाईट में दो नग्न शरीर. बड़े-बड़े राजघरानों के हरेम की कहानीयाँ पढ़ी थी. नींद उड़ गई. बस करवटें बदलता रहा. बिहार के खटारा बस में अधेड़ पुरूषों के घिनौनेपन से इन सुंदरियों की रंगलीला में कितना फर्क था? बस ये निर्णय नहीं कर पा रहा था कि मुझमें और इनमें, भला मानसिकता किसकी ज्यादा विकृत थी

वो कमरा भी त्याग दिया और सरदार जी का ढाबा भी. 
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वापस हॉस्टल में पैरासाईट बन कर रहने लगा. पैरासाइट मतलब वो घुसपैठिये जो पास होने के बाद भी गैरकानूनी ढंग से हॉस्टल में रहते हैं. पैरासाईट और क्रोनी ये दो वर्ग हॉस्टल के अहम हिस्सा होते. क्रोनी मतलब वो छात्र जो वर्षों से फेल होते हॉस्टल में जमे रहते. इन छात्रों में एक अद्भुत प्रेम होता हॉस्टल के लिए. तभी तों जोंक की भांति चिपके रहते. उमर हो गई पर फिर भी फ्रेशर लड़कियाँ ताड़ने बैठ जाते. नये-नवेले पढ़ाकू बच्चों को सिगरेट पीना सीखाते, और हॉस्टल की सीढ़ियों पर घंटों फंडे देते. खुराफात के नये-नये गुर सिखाते.

पुणे शहर सदियों से लीक से जरा हटके रहा है. कुछ पढ़ाकू विद्वान, तो कुछ अव्वल दर्जे के खुराफाती. खुराफात इस कदर कि देश हिला के रख दे. कहते हैं मुगल शाह औरंगजेब की नाक में दम कर दिया. अपनी आधी जिंदगी शिवाजी महाराज को पकड़ते बिताई. टॉम और जेरी के कार्टून शो की तरह. जब सारी दुनिया महात्मा गांधी का लोहा मान रही थी, पुणे में एक खुराफाती कीड़ा करने में लगा हुआ था. हाँ ये सच है कि विश्व के बड़े-बड़े मार्गदर्शक डायरिया-मलेरिया से नहीं मरे. लिंकन, गांधी या लूथर किंग. सब गोली खा के मरे. लेकिन ये खुराफात पुणे की मंगलवार पेठ में बैठा गोडसे ही करे, ये तो विधान नहीं. अब ओशो रजनीश को ही ले लो. कितने धर्मगुरू आये और गये पर ऐसा खुराफाती? मानो या न मानो, शहर की हवा में कुछ है. 

ये मालूम नहीं कि ओशो का प्रभाव था या पश्चिमी संस्कृति का, पर इस शहर की यौन संस्कृति भी जुदा थी. एक साक्ष्य तो ये है कि इस शहर में देश की सर्वाधिक महिला दुपहिया चालक हैं. चेहरे पे रंग-बिरंगे रूमाल बांधे पतली कमर वाली स्कूटी चलाती जवां छोरियां. महिलाओं में एक अलग आत्मविश्वास नजर आता. कुछ सिगरेट भी पीती, और छोटे कपड़ों में बाजार भी घूमती. इसे मैं संस्कृति हीनता नहीं, संस्कृति की उन्मुक्तता कहना चाहूँगा. ऐसी ही एक उन्मुक्तता कुछ पुरूषों में भी दिखी. बदन पर तरह-तरह के टैट्टू, बाल कंधे तक, कमर से नीचे लटकती जींस कि आधे कूल्हे दिख जायें और अजीब सी चाल. खबर मिली कि इनमें से कई समलैंगिक हैं, और रात में सड़कों पर लड़के छेड़ते हैं. 

खबर कच्ची थी या पक्की पता नहीं, पर हॉस्टल में गोलमेज सम्मेलन प्रारंभ हो गया. अफवाहें फैलने लगी. अमुक को रस्ते में कमीनों ने घेर लिया, और पैंट की जिप खोल दी. बड़ी मुश्किल से जान छुड़ा कर भागा. चिकने लड़के रात को अकेले न निकले, और निकले भी तो दो-चार लोगों के साथ. उनकी पहचान तय की गई. बदन से कसी हुई टाईट कपड़े पहनते हैं और टांग फैला कर चलते हैं. अक्सरहाँ सार्वजनिक शौचालयों के आस-पास च्विंगम खाते घूरते मिलेंगे. कुछ ने बालों को रंग रंखा होगा, कुछ की लड़कियों वाली लचकदार चाल और कुछ ने तो लिपस्टिक तक लगा रखी होगी. 

बस फिर क्या था, पहचान परेड चालू हो गई. लड़के झुंड बना कर जाते और रास्तगीरों पे गौर करते. अजी लड़कियों पे नहीं लड़कों पर. क्या अजीब मानसिकता हो गई थी? जिसपे शक होता, उसे 'होमो'कह कर चिढ़ाते. वो गुस्से में मुड़ कर जाने लगे, तो उसे खदेड़ कर दौराते. धीरे-धीरे इस शिकार में मजा आने लगा. रोज रात एक 'होमो'खदेड़ते, जैसे आवारा कुत्तों को लठिया कर भगा रहे हों. खेल धीरे-धीरे रोमांचक होता जा रहा था. रणनीतियाँ बनती और जाल बिछाए जाते. छात्रावास के चिकने लड़के 'होमो'लड़कों को प्रेमजाल में फांस कर लाते, और हॉस्टल  आते ही उसका पीट-पीट कर बुरा हाल कर देते. हर कोई अपनी भड़ांस निकालता. अश्लील भद्दी गालियाँ, और लिंग पे घूंसो-जूतों से प्रहार. 

यूँ तो मैं इस नैतिक दंगेबाजी से दूर ही रहता, पर उस रात कुछ हुड़दंगी माहौल था. किसी का जन्मदिन मना रहे थे, और कुछ दारू-शारू का असर चढ़ने के बाद दोस्तों को शिकार का शौक हुआ. होमो'के शिकार में देर हो रही थी और सब्र का बांध टूट रहा था. मैं यूँ ही मोटरसाइकिल से सिगरेट लाने निकल पड़ा और दोराबजी की पुरानी दुकान के सामने बैठ पुणे शहर को गौर से देखने लगा. क्या माकूल आबो-हवा, क्या मुस्कुराते चेहरे. हर तरह के लोग हैं यहाँ. दोराबजी, पूनावाला जैसे पारसी उद्योगपति. सुना है घोड़ों की रेस में बड़े-बड़े रईस आते है. कैंट के पीछे मुसलमानों की बस्ती शिवाजीनगर. पेठ की ओर निकल जाओ तो हिंदूओं का जमावड़ा है. आगाखाँ साहब के महल में तो गांधी जी भी रहे थे. शांतिदूतों की नगरी और मराठों का पौरूष. 

इसी ऊहापोह में आखिर छात्रावास पहुंचा, तो खेल शुरू हो गया था. चक्रव्यूह बना कर कूटाई हो रही थी. भीड़ को भेदते केंद्र तक पहुंचा तो एक लहुलहान हट्टा-कट्टा इंसान दिख रहा था. मुंह सूजा हुआ और होठों से रक्तधारा. मुझे देखते ही उसका ध्वस्त आत्मविश्वास जैसे आखिरी बार फड़फड़ाने लगा. आखिर मेरे आत्मविश्वास और दमदार बाजूओं को गढ़ने में उसकी भूमिका रही थी. 

माइकल!!

मेरी नजर में कभी शक्ति का जीता जागता स्वरूप रहा था, आज अनासक्त नपुंसक नजर आ रहा था. मुझे देखकर घिघियाया, लेकिन इस वीभत्स प्रताड़न में मेरा नाम शायद विस्मृत हो गया था. बस ये गुहार लगा पाया कि मैं इन्हे जानता हूँ. सब ने अजीब सी संदेहपूर्ण नजरों से मेरी तरफ देखा. हॉस्टल में एक दबदबा था. एक बार बस उंगली उठा दू, सबके हाथ रूक जाए. पर शायद प्रतिष्ठा और विवेक में उस दिन प्रतिष्ठा विजयी रही. मैंने कहा कि मैं इसे नहीं जानता और सब टूट पड़े. बोझिल कदमों से वापस कमरे में आकर लेट गया. कौन समलैंगिकता का धब्बा सर पर ले? उस दिन के बाद ये तमाशा फिर कभी नहीं हुआ.

माइकल वाकई घाघ निकला. पिटता लेकिन फिर उठ खड़ा हो जाता. उसकी सहनशक्ति तभी समाप्त हुई, जब उसकी मृत्यु हो गई. 



हुमैरा राहत की ग़ज़लें

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हुमैरा राहतके शेर पढता रहता था. अभी हाल में ही उनकी गजलों और नज्मों का संकलन हाथ में आया- पांचवीं हिजरत. किताब राजपाल एंड संज प्रकाशन से आई है. उसी से कुछ ग़ज़लें- मॉडरेटर 
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1.
बिछुड़ते वक्त भी रोया नहीं है
ये दिल अब नासमझ बच्चा नहीं है

मैं ऐसे रास्ते पर चल रही हूँ
जो मंजिल की तरफ जाता नहीं है

मुहब्बत की अदीमुल्फुर्सती में1
इसे चाहा मगर सोचा नहीं है

लबों पर मुस्कराहट बन के चमका
जो आंसू आँख से टपका नहीं है

जब आइना था तब चेहरा नहीं था
है अब चेहरा तो आइना नहीं है 

मैं ऐसे सानिहे2पर रो रही हूँ
अभी जो आँख ने देखा नहीं है

जो शहरे इश्क का वासी है राहत
वो तनहा होके भी तनहा नहीं है 

1. 1   ऐसा प्रेम जिसमें सोचने की फुर्सत न हो
2.     २.  हादसा

२.
अक्स न कोई ठहरा है
आईना बे-चेहरा है

आस की नाव टूटी हुई
दर्द का सागर गहरा है

शायद सच्चा हो जाए
ख्वाब का रंग सुनहरा है

मेरी याद की खिड़की में
सिर्फ तुम्हारा चेहरा है

जेहन की बात नहीं सुनता
शायद ये दिल बहरा है

3.
मुकम्मल दास्ताँ होने से पहले
बिछुड़ जाना ज़ियाँ1होने से पहले

बचा सकता है तू ही मेरे मालिक
किसी घर को मकाँ होने से पहले

बता दे कोई मुझको मैं कहाँ थी
जहाँ अब हूँ वहां होने से पहले

परिंदों की उड़ानें थी कहाँ तक
शजर2और आसमां होने से पहले

बड़ी हसरत से किसको देखती है
मुहब्बत रायगाँ3होने से पहले

बरस जाएँ ने ये आँखें अचानक
घटा के मेहरबां होने से पहले

1.      1. नुकसान
2.      २. शाख  
3.      3. निरर्थक

4.
हरेक ख्वाब की ताबीर थोड़ी होती है
मुहब्बतों की ये तकदीर थोड़ी होती है

कभी कभी तो जुदा बे सबब भी होती है
सदा ज़माने की तफसीर थोड़ी होती है

पलक पे ठहरे हुए अश्क से कहा मैंने
हरेक दर्द की तश्हीर1थोड़ी होती है

सफ़र ये करते हैं इक दिल से दूसरे दिल तक
दुखों के पाँव में जंजीर थोड़ी होती है

दुआ को हाथ उठाओ तो ध्यान में रखना
हरेक लफ्ज़ में तासीर थोड़ी होती है

1.    1.  बदनामी




पुरूष अहेरी है, नारी शिकार!

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शर्मिला बोहरा जालानजो भी लिखती हैं उसको एक ठोस वैचारिक जमीन देने की कोशिश करती हैं. यह समकालीन लेखिकाओं में विरल तत्त्व है जो उनके लेखन में प्रबल है. बहरहाल, फिल्म 'पिंक'देखने के बाद और उसके हो-हल्ले के थम जाने के बाद उन्होंने उससे उठने वाले कुछ सवालों को लेकर यह लेख लिखा है- मॉडरेटर 
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अनिरूद्घ राय चौधरी निर्देशित और रितेश शाह लिखित फिल्म 'पिंकको समझने के लिए हमें वैसी 'समझ'चाहिए जो पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के पूर्वाग्रह व संस्कार से पूरी तरह मुक्त हो। वह मन चाहिए जो वर्जनाओं से मुक्त हो, डर और आतंक से ग्रसित वह मन नहीं जो पाप व पुण्य में फँसा हुआ है। 

यह फिल्म हमें कैसी समझ देती है? कैसे प्रश्न उठाती है? स्त्री की मुक्ति कहां है? इन सवालों को मन में ले  फिल्म देखना शुरू किया तो पाया कि यह फिल्म  पारम्परिक व घरेलू महिलाओं व युवतियों को जीवन पर नहीं है।

यह कथा उन आधुनिक युवतियों की है जो शिक्षित व आत्मनिर्भर हैं और दिल्ली जैसे  महानगर में कमरा लेकर एक साथ रहती हैं।

जिन्हें पूर्वाग्रह और पारम्परिक रूढ़ि संस्कार से ग्रसित लोग कॉल गर्ल भी मानते हैं पर वे कॉल गर्ल नहीं हैं। वे नार्मल वर्किंग वुमेन हैं। जो हंसती बोलती हैं, कमाती हैं कोई कोई अपने  घर की आर्थिक मदद भी करती है,संरक्षण देती हैं।

ये आधुनिक ख्याल की उस तरह से हैं कि वे छोटे कपड़े  पहनती हैं, देर रात बाहर भी रहती हैं, शराब भी पी लेती हैं और अपने उस मित्र के साथ सहवास भी करती हैं जिसके साथ वे करना चाहती हैं।
ये तीन लड़कियां क्रमश: एंड्रिया(नार्थ ईस्ट से), मीनल (दिल्ली), फलक (लखनऊ)हैं।

फिल्म का प्रारंभ 'तनाव'से होता है और पूरी फिल्म में यह तनाव बना रहता है जो अंत में तब एक तरह से कम होता है जब न्यायालय का फैसला इन तीनों लड़कियों के पक्ष में जाता है।

मूल समस्या इस फिल्म में यह है कि तीन लडकियां रॉक शॉ में देर रात चार लड़कों से मिलती घुलती-मिलती हैं। ड्रिंक भी लेती हैं। और उनके साथ शुद्ध भाव से कमरे में अकेले भी जाती हैं।

उसमें से एक का नाम राजवीर है  जो कि धनी भी है और मंत्री का बेटा है।


उसके साथ मीनल कमरे में जाती है और राजवीर जब उसकी मर्जी के खिलाफ उससे संबंध बनाना चाहता है तो वह उसे हाथ में आए कांच के बोतल से इतनी जोर से मारती है कि उसकी आँख के साथ-साथ उसकी जान भी जाने की पूरी संभावना रहती है। 
राजवीर और उसके मित्र मीनल, फलक और एंड्रिया को न सिर्फ कोट तक ले जाते हैं , मीनल को जबर्दस्ती गाड़ी में बैठा उसका मॉलेस्टेशन, भी करते हैं।


इस मूल कथा के समानान्तर जो छोटी कथाएं चलती हैं उनके द्वारा इन युवतियों को बिगड़ी और बर्बाद लड़कियां कहने के लिए कई उदाहरण दिए गए हैं कि ये 'वैसी'लड़कियां हैं।


जो सहवास के रेट फिक्स करती हैं। पैसों के लिए ही ये सब करती हैं।


दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन)एक प्रतिष्ठित वकील हैं जो 'बुद्ध'बनकर इनकी मदद करने पहुंचते हैं। कई लोगों का तर्क है कि पुरूष की इस व्यवस्था ने स्त्री को जो संताप और हाहाकार दिया है उससे मुक्त करवाने पुरूष ही पहुंचा!

पर क्या फर्क पड़ता है उन तीन लड़कियों की मदद करने समाज को उसकी वर्जनाओं से मुक्ति दिलाने कोई पुरूष मिला या स्त्री। अर्थ तो उनका कर्म से है और वह एक बीज वाक्य कहते हैं कि इस सोशायटी का विकास ही गलत डिरेक्शन में हुआ है। लड़कियां जिन्स टी शर्ट व छोटे कपड़े न पहने, रात बाहर न रहे कारण लड़के उत्तेजित होते हैं। लड़कियाों को  हर वक्त अच्छा रहने की शिक्षा दी जाती है। जब की शिक्षा लड़कों को दी जानी चाहिए।


दीपक सहगल पितृ व्यवस्था पर व्यंग्य करतेे हैं और कहते हैं कि इस व्यवस्था में रहना है तो युवतियों को कुछ 'सेफ्टी रूल्स'मानने चाहिए जो इस प्रकार हैं-
1. देर रात तक बाहर नहीं रहना चाहिए।
2. लड़कों से हंस-हंस कर फ्रेंडली होकर बात नहीं करना चाहिए।
3.लड़कों के साथ  शराब नहीं पीनी चाहिए।
4. अनजान लडकों के साथ टॉयलेट इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

हाँ शायद नया कुछ नहीं है फिल्म में पर वही पुरानी बात समझने की है कि पुरूष अहेरी है, नारी शिकार। युग-युग से जिन संस्कारों ने मूल्यों का निर्माण किया है उन पर प्रश्न चिन्ह।


स्त्री की योनि पर  बलात् प्रहार कैसे पुरूष कर  सकता है। पिंक यानी  वर्जाइना यानी 'योनि'यानी उन कामकाजी युवतियों और महिलाओं की भी योनि जो अपनी मर्जी से 19 साल की वय में सहवास करती है पर कोई भी पुरूष व युवक बलात् कैसे संभोग कर सकता है।

और यह पुरानी बात ही फिर समझने की है कि 'काम'एक स्वाभाविक व नैसर्गिक प्रवृत्ति है। काम हर व्यक्ति के भीतर है। वह जीवन को गति देने वाली ऊर्जा है। जो शरीर व मन दोनों को सहेजे ऱखती है। जो स्त्री व पुरूष दोनों में है। उसको संस्कार देने की जरूरत है न कि बलात करने की। और क्या हमारे समाज में 'काम'पर बात की जाती है? जो लड़कियाँ व युवतियाँ ऩौकरी करने अकेले बाहर नहीं रहती उनके मन को किसने पढ़ा और उनके साथ क्या होता है और नहीं होता उसका बही खाता किसके पास है। न जाने कैसे इस फिल्म के 'तनाव'को महसूस करते हुए मेरे ज़हन में लगभग १८ -१९  साल पहले देखी रितुपर्ण घोष की  फिल्म 'दहन'घूम रही थी।

और अवान्तर ही सही विष्णु प्रभाकर का उपन्यास 'अर्धनारीश्वर'याद आ रहा था। जहाँ विष्णु प्रभाकर कहते हैं-"पारस्परि संबंधों में पुरूष और स्त्री एक दूसरे के पूरी तरह निरंकुश , स्थायी, और साथ ही कुछ दयनीय दास भी हैं क्योंकि मनुष्य में जब तक इच्छाएँ हैं, अभिरुचियाँ और आसक्तियाँ हैं तब तक वह इन वस्तुओं का और उन व्यक्तियों का भी दास है जिन पर वह उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी निर्भर रहता है। 

तो क्या मुक्ति का मार्ग इन इच्छाओं से, अभिरूचियों से, और आसक्तियों से मुक्त होना है। नहीं इच्छाओं की दासता से मुक्ति है। 
परस्पर की दासता से मुक्ति।"

नन्दकिशोर आचार्य की कविता से इस लेख का अन्त करना चाहूंगी-
हर भटकन

पगडंडी होती है वहाँ
आते-जाते रहते हैं लोग
                       जहां
न आया- गया हो कोई
पगडंडी होती नहीं वहां

खोलती रहती है पर
हर भटकन खुद राह

न हो पाये जिस की नियति
                      भटकना।
यात्री वह हो पाता है कहाँ।



पाकिस्तान का नमक खाया है

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नॉर्वे-प्रवासी डॉक्टर व्यंग्यकार प्रवीण कुमार झाआज नए व्यंग्य के साथ- मॉडरेटर 
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मैं पाकिस्तान का नमक खाता हूँ। भड़किये नहीं! मैं ही नहीं, कई प्रवासी भारतीय पाकिस्तान का नमक-मसाला खाते हैं। दरअसल, यहाँ जितने भारतीय नमक-मसाले की दुकानें हैं, पाकिस्तानियों की है। अधिकतर रेस्तराँ, जिनमें हर तीसरे का नाम बॉम्बे, ताजमहल या इंडिया गेट रेस्तराँ है, वो पाकिस्तानियों की है। ताज्जुब की बात है, लाहौर, इस्लामाबाद या रावलपिंडी नामसे रेस्तराँ का नाम नहीं रख्खा। वो पाकिस्तानी होटल खुद को इंडिस्क रेस्तराँ कहकर मार्केट करते हैं। 

जब भारत-पाक टेंशन की फेसबुकिया शुरूआत हुई, मैनें भी बॉयकॉट कर दिया। यूरोपीय दुकानें जाने लगा। पर आँतों में ये विलायती 'चीज़'बस लस्सेदार गुत्थे बनकर रह जाते। पेट में अजीब सी गुड़गुड़ाहट, और मसालों की तलब। आखिर कुछ भारत से अचार वगैरा लाया था, उसे ब्रेड के बीच घुसेड़ कर खाने लगा। एक हफ्ते में आँतों में मरोड़ आ गया, तो सोचा खिचड़ी बनाई जाए। पर बिन हल्दी खिचड़ी कहाँ? एक मस्टर्ड-सॉस नामक पीली चटनी मिलती है, उसे चावल में डालकर उबाल दिया। ये कोशिश (या स्टंट) सिर्फ विशेषज्ञों की देखरेख में करें। आपकी जान, जीभ, पेट, सर्वांग खतरा हो सकता है। भोजन देखकर विषाद उत्पन्न हो सकता है।

मैनें ठान लिया अब प्रेमपूर्वक 'एल.ओ.सी.'क्रॉस कर ली जाए। चुपचाप झोला लिये पाकिस्तानी दुकान में धावा बोला और एक-एक मसाले पर 'सर्जिकल स्ट्राइक'किया। हल्दी, मिर्च मसाला, मेथी, जीरा सब भर लाया। इतने भर लाया कि गर युद्ध हो जाए और फिर से मन में राष्ट्रभक्ति हावी हो जाए, तो स्टॉक भरपूर रहे। पाकिस्तानी दुकानदार भी हतप्रभ रह गया कि भला ये जनाब ३ किलो जीरा का करेंगें क्या? कोई भारतीय ढाबा-वाबा तो नहीं खोलने वाले

"कैसे हैं आप? कई रोज़ बाद नजर आये?"

"कुछ नहीं। बिजी हो गया था। तुम सुनाओ। सब खैरियत?" 

"सब्बा खैर!"

"सब खैरियत वहाँ भी? तुम तो कश्मीर से हो?"

"आजाद कश्मीर से। हाँ!"

"नहीं! कुछ वार-शार चल रहा है।"

"अच्छा? कश्मीर में? वो तो रोज ही चलता है बॉर्डर पे। हम दूर रहते हैं।"

"ओह! मतलब कोई खतरा नहीं।"

"न न! बेफिक्र रहिए जनाब। आप भी कश्मीर से हैं?"

"नहीं! बिहार से। दूर हैं हम भी।"

"बस ठीक है। लो जी आपके हो गये ४३० क्रोनर, और आपका १० % डिस्काउंट स्पेशल।"

"मेरी जॉब नहीं गई भाई!"

"ओह! कई इंडियन्स की गई न? हमने सबको १० % कर दिया है, इंडियन्स को बस। नॉर्वे वालों को नहीं।"

"माफ करना। मैं नहीं लूँगा डिस्काउंट।"

"क्यूँ नाराज हो रहे हो जनाब? बच्चोंकी चॉकलेट ले लें।"

"नहीं। कुछ नहीं लूँगा। बाय।"


भला मेरे बच्चे पाकिस्तानियों की खैरात खायेंगें? लानत है ऐसी चॉकलेट पर। फिर लगा चॉकलेट ही तो है, और वो कौन सा पाकिस्तान में बना होगा। और कौन भारतीय फेसबुक से देखने आ रहा है? अब नमक-मसाले भी तो उठाए, फिर चॉकलेट भी सही। 

"दे दो भाई चॉकलेट!"

"अब नहीं दूँगा। आप नाराज हो चले गए।"

"नहीं-नहीं। सोचा मुफ्त में न लूँ।"

"जो मर्जी उठा लो। आपकी ही दुकान है। मुफ्त में क्या?"


'एल.ओ.सी.'क्रॉस कर वापस लौटा, तो कुछ मिक्स्ड ईमोशन थे। 'सर्जिकल स्ट्राइक'सफल रहा या असफल? अजीब पशोपेश में था। खैरात के पाकिस्तानी चॉकलेट अब भी काट रहे थे, पर बच्चों ने जेब में चॉकलेटनुमा उभार देखा तो झपट पड़े। सारी देशभक्ति कैरामेल के साथ मेल्ट हो गई। मसाले आ गए, तो आँते भी विजय-नृत्य करने लगी। अब इन आँतों को कौन समझाए कि ये पाक के नापाक मसाले हैं?


क्या 2 अक्टूबर 1869 महात्मा गाँधी की सही जन्मतिथि नहीं है?

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लोग भी किन किन बातों पर कितना शोध करते हैं. एक सदानंद पॉलजी हैं. पढ़िए इन्होने क्या शोध किया है? हाँ, लेख के बाद उनका परिचय भी धैर्यपूर्वक पढियेगा- मॉडरेटर 
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आज से 10 साल पहले मैंने स्व0 देवकीनन्दन सिंह की पुस्तक 'ज्योतिष- रत्नाकर' (पृष्ठ संख्या- 979 से 985 तक/ पुनर्मुद्रण वर्ष- 1999/ प्रकाशक- मोतीलाल बनारसीदास) पढ़ा, तो पाया महात्मा गाँधी की जन्मतिथि विक्रमी संवत् में 'आश्विन बदी द्वादशी, संवत् 1925'लिखा है, जबकि गाँधी जी की जन्मतिथि उनकी 'आत्मकथा' (गुजराती और हिंदी संस्करण) के अनुसार विक्रमी संवत् में 'भादो बदी द्वादशी, संवत् 1925'है, दोनों तरह की पुस्तकों में महात्मा गाँधी की जन्मतिथि की अँग्रेजी तारीख 02 अक्टूबर 1869 0 ही प्रकाशित है, किन्तु यह प्राथमिकता के तौर पर नहीं , अपितु 'अर्थात्'लिए है !
जिन वर्षों में और जहाँ (सौराष्ट्र प्रांत) गाँधी जी ने जन्म लिया, वहाँ और उस समय हिन्दू व जैन परिवारों में विक्रमी संवत् का प्रचलन था । विज्ञानलेखक डॉ0 गुणाकर मुळे ने मुझे 'हिंदी भाषा में गणित का पहला अन्वेषक'का खिताब दिया । इसतरह से अपना गणितीय-आकलन, फिर ठाकुर प्रसाद पंचांग सहित कई स्थानीय और परप्रांतीय पंचांगों से मिलान व मलमासों की स्थितियों के योग करके मैंने पाया कि 'आश्विन बदी द्वादशी, संवत् 1925'की अँग्रेजी तारीख 13 सितम्बर 1868 0 , दिन - रविवार है, जबकि 'भादो बदी द्वादशी, संवत् 1925'की अँग्रेजी तारीख 16 अगस्त 1868 0 , दिन- रविवार है । पहली जन्मतिथि की स्थिति में पुस्तक 'ज्योतिष-रत्नाकर'में गाँधी जी की जन्मकुण्डली का उल्लेख करते हुए विक्रमी संवत् की जन्मतिथि को उद्धृत किया गया है, जबकि दूसरी जन्मतिथि को स्वयं गाँधी जी ने अपनी 'आत्मकथा'में लिखा है । इसतरह से CONFUSE करनेवाली स्थिति पर स्पष्टीकरण पाने को लेकर मैंने गाँधी जी की जन्मकुण्डली जानने तथा विद्यालयीय-पंजी (पोरबंदर / राजकोट में) में दर्ज़ वास्तविक जन्मतिथि की सटीक जानकारी अर्जित करने को लेकर 'सूचना एवम् जन संपर्क विभाग, गुजरात सरकार, गाँधीनगर'को दिनांक- 14.11.2008 को 'स्पीड पोस्ट' (नं. EE899091939IN / MANIHARI P.O.- 854113) से पत्र भेजा, किन्तु काफी घूम-फिर कर पत्रयुक्त स्पीडपोस्ट-लिफ़ाफ़ा मेरे पास वापस आ गया । हो सकता है, पानेवाला का पता मैंने गलत उद्धृत किया हो ! किन्तु डाक विभाग और पोस्टमैन की सहृदयता जहाँ परिवर्तित पता में भी पत्र को पहुँचाया जा सकने की स्थिति को दृढ़ित करता है, परंतु ऐसा मेरे साथ नहीं हो सका !
तब मैंने महामहिम राष्ट्रपति सचिवालय, माननीय प्रधानमन्त्री कार्यालय और माननीय गृह मंत्रालय, भारत सरकार से यह जानना चाहा------ 'हम जो अपने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जयंती 02 अक्टूबर को मनाते हैं , इस जन्मतिथि का आधार या श्रोत (जहाँ से जन्मतिथि संकलित हुई है) जो हो बतायेंगे, चूँकि गाँधी जी की जन्मकुण्डली - विषयक पुस्तक और उनकी आत्मकथा में विक्रमी संवत् लिए जन्मतिथि क्रमशः आश्विन बदी द्वादशी, भादो बदी द्वादशी (दोनों में संवत् 1925 ) का ज़िक्र है और दोनों के मेरे गणितीय-आकलनानुसार अँग्रेजी तारीख क्रमशः 13 सितम्बर 1868 और 16 अगस्त 1868 आती है, पर 02 अक्टूबर 1869 नहीं आती है'
राष्ट्रपति सचिवालय ने अंतरित करते हुए तीन बार [866-892/RTI/10/09-10/दि.11.11.2009, A-27011/562/06-RTI-A(AA)/दि.18. 11.2009 और A-27011/562/06-RTI-A(AA)/दि.05.01.2010], प्रधानमन्त्री कार्यालय ने एक बार [RTI/603/2010-PMR/दि.03.03. 2010], गृह मंत्रालय ने अंतरित करते हुए दो बार [फ़ाइल सं. 21/ 78/ 2009/M & G/दि.02.10.2009 और A-43020/01/2009-RTI/दि.16. 09.2009] जवाब यह दिया कि उनके कार्यालय को इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है । फिर गृह मंत्रालय, भारत सरकार ने मंत्रिमंडल (कैबिनेट) सचिवालय, संस्कृति मंत्रालय और राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archive), नई दिल्ली को इस सम्बन्ध में जानकारी देने को कहा । मंत्रिमंडल सचिवालय के दो बार [F.12015/296/2009-RTI/दि.01.10.2009 और F.12015/ 296/2009-RTI/दि.25.11.2009], संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के तीन बार [F.14-33/2009-C & M/दि.29.10.2009, F.27-86/09-CDN/दि.23.11.2009 और F.14-33/2009-C & M/दि.07.12.2009], राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के दो बार [मिसिल सं. 63-2(LVII) /2009/RTI/दि.20.10.2009 और 63-2(LVII) /2009/ RTI/ दि.04.12.2009] जवाब यह प्राप्त हुआ कि उनके कार्यालय को इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है । हाँ, राष्ट्रीय अभिलेखागार ने इस सम्बब्ध में यह लिखा कि मैं TA/DA के बगैर उनके नई दिल्ली कार्यालय जाकर कार्यालयीय-अवधि में इस संदर्भ में शोध कर सकता हूँ ! परंतु मैंने जब लिखा कि यह मेरे द्वारा शोध किया गया है , तो उनके द्वारा उत्तर मौन रहा ! मैं इसे लेकर केंद्रीय सूचना आयोग भी गया, जहाँ मुख्य सूचना आयुक्त ने अंततः यह कहा -- 'सूचना'वही दी जा सकती है, जो लोक सूचना पदाधिकारी के पास हो ! मजे की बात है कि यह सूचना जब किसी के पास नहीं है, तो हम 02 अक्टूबर को 'गांधी जयंती'कैसे मनाते हैं ? अब तो संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) भी गाँधी जयंती (02 अक्टूबर) को 'अंतरराष्ट्रीय अहिंसक दिवस'के रूप में मनाते हैं ! परंतु यक्ष प्रश्न अब भी यथावत् है कि 02 अक्टूबर 1869 , जो महात्मा गाँधी के जन्मदिन (कथित) हैं, इस जन्मदिन के प्रमाण / साक्ष्य क्या है ? अन्यथा विक्रमी संवत् लिए महात्मा गाँधी के जन्मदिन क्रमशः 13 सितम्बर और 16 अगस्त 1868 होते हैं !
चूँकि गाँधी जी सत्य और अहिंसा के वैश्विक पुजारी थे, इसलिए इस प्रातः स्मरणीय महापुरुष की असली जन्मतिथि (जन्मकुण्डली के अनुसार 13 सितम्बर 1868 और आत्मकथा के अनुसार 16 अगस्त 1868) लिए असली जयंती (13 सितम्बर या 16 अगस्त) ही मनाये जाने चाहिए । मेरी तिथि अनंतिम नहीं है, अन्य प्राधिकार भी पड़ताल करने को स्वतंत्र है । आखिर जो सही हो, उन्हीं को मानिए, किन्तु यह सत्यान्वेषित हो । ध्यातव्य है, मेरे द्वारा अन्वेषित गाँधी जी की जन्मतिथि को भारत सरकार के कॉपीराइट कार्यालय ने भी रजिष्टर्ड किया है तथा लगभग 5 वर्षों से वेब पत्रिका 'अपनी माटी'में मेरे मित्र डॉ0 देवेन्द्र कुमार 'देवेश' (विशेष कार्याधिकारी, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली) के मार्फ़त यह जानकारी अब भी जारी है ।×××××××××××××××

[लेखक:-सदानंद पॉल, ईमेल:-  s.paul.rtiactivist75@gmail.com ]
लेखक परिचय- सदानंद पॉल (SADANAND PAUL)  शिक्षाविद् , साहित्यकार, पत्रकार, गणितज्ञ, नृविज्ञानी, भूकंपविशेषज्ञ, RTI मैसेंजर, ऐतिहासिक वस्तुओं के संग्रहकर्ता हैं.स्वतंत्रतासेनानी, पिछड़ा वर्ग, मूर्तिकार, माटी कलाकार परिवार में 5 मार्च 1975 को कटिहार,बिहार में जन्म हुआ.
   पटना विश्वविद्यालय में विधि अध्ययन, इग्नू दिल्ली से शिक्षास्नातक और  स्नातकोत्तर, जैमिनी अकादेमी पानीपत से पत्रकारिता आचार्य , यूजीसी नेट हिंदी में ऑल इंडिया रैंकधारक, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से रिसर्च फेलो,11 वर्ष में महर्षि मेंहीं रचित सत्संग योग की समीक्षा पर नेपाल के प्रधानमन्त्री कुलाधिपति श्री एनपी रिजाल से आनरेरी डॉक्टरेट कार्ड प्राप्त, पटना विश्वविद्यालय पीइटीसी में हिंदी अध्यापन 2005-07 और 2007 से अन्यत्र  व्याख्याता, 125 मूल्यवान प्रमाणपत्रधारक, तीन महादेशों की परीक्षा समेत IAS से क्लर्क तक 450 से अधिक सरकारी,अकादमिक,अन्य परीक्षाओं में सफलता प्राप्त.
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वर्ष की आयु में BBC लंदन हेतु अल्पावधि कार्य , दैनिक आज में 14 वर्ष की अल्पायु में संवाददाता, 16 वर्ष में गिनीज बुक रिकार्ड्स समीक्षित पत्रिका भूचाल और 18 वर्ष में साप्ताहिक आमख्याल हेतु लिम्का बुक रिकार्ड्स अनुसार भारत के दूसरे सबसे युवा संपादक, विज्ञान-प्रगति हेतु प्रूफएडिटिंग, बिहार सरकार की ज़िलास्मारिका कटिहार विहंगम-2014  के शब्दसंयोजक, अर्यसन्देश 2015-16 के ग्रुपएडिटर. दस राज्यों के पत्र पत्रिकाओं और आकाशवाणी पटना हेतु कार्य. मा. राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री,खिलाड़ी, सिनेमा महानायक, साहित्यकार, आज़ाद हिन्द फ़ौज़ सहित 1942 क्रान्ति के सेनानियों इत्यादि हज़ारों व्यक्तियों से साक्षात्कार पत्रवार्ताएं.
                                             
दर्जनों शोधालेख, 250 विविध रचनाएँ देश विदेश के पत्रिकाओं संस्थानों में से प्रकाशित प्रसारित तथा लोकपर्व छठ पर पहला आलेख बिहार से बाहर के अखबार में पहलीबार प्रकाशित, स्वयंखोजी 70 लोकगाथाएं  नालंदा खुला विश्वविद्यालय में पंजीकृत हुआ, चाइना रेडियो से चतुर्थ विश्व महिला सम्मेलनार्थ लिखा Pearl writing विभूषित आलेख प्रसारित , शब्द श्री को 2 करोड़ 5 लाख 912 तरीक़े से लिखा, जिनके आधारित हिंदी का पहला ध्वनि व्याकरण लिखा,जिनपर चीन के शंघाई विश्वविद्यालय ने पहली प्रतिक्रिया दी, भारत सरकार ने पहलीबार स्पेसफिक्शन लव इन डार्विन का कॉपीराइट रजिस्टर्ड किया, फिल्मांतरण भी.
भारत के दूसरा विक्रमादित्य अटल बिहारी वाजपेयीपूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, दलित साहित्य का समाजशास्त्र, ऐवरेस्ट पर सर्वप्रथम पहुँचनेवाला भारतीय था इत्यादि प्रकाशितालेख हैं.
                                              
ग्यारह वर्ष की अल्पायु में 100 स्वयंखोजी सूत्रों का गणित डायरी प्रकाशित, एक सवाल का 1600 तरीके से हल लिए गणित डायरी द्वितीय संस्करण 1998 में छपा, जिसे पटना, भागलपुर और केरल विश्वविद्यालय ने सराहे , CSIR की संस्थान ने आलेख कंप्यूटर की Y2K समस्या का समाधान के प्रकाशन पर पत्र लिखा, 30 विश्वविद्यालयों , 10  IIT IISc TIFR , 5 जर्नल्स में विचारार्थ Formula of Next PRIME NUMBERs Know शोध  Abel Prize समिति को प्राप्त , कापरेकर नियतांक गलत साबित और संख्या 2178 की खोज पर अमेरिकन मैथेमेटिकल सोसाइटी से पत्र प्राप्त , हिंदी में प्रथम गणित कहानी के लेखक , शोधपत्र  भूकंप की भविष्यवाणी और Pi का समानांतर मान को तृतीय अ.भा. विज्ञान सम्मलेन, नई दिल्ली 2004 में प्रस्तुत. वैश्विक गणित में भारतीय गणितज्ञों की स्थिति,कुछ सोचनीय गणितीय उलझनें इत्यादि प्रकाशितालेख हैं.
                                              
सूचनाधिकार RTI अधिनियमान्तर्गत देशभर और सभी राज्यों के प्रायः विभागों को 14000  सूचनावेदन भेजकर हज़ारों सूचनाएं एकत्र किया, जिनमें एक्सप्रेसट्रेन आरक्षित बोगी से कष्टदायक साइड मिडिल बर्थ  हटाया, रेलयात्रियों को चलती ट्रेन में टिकट की प्रथम अवधारणा,  BPSC ने परीक्षार्थियों को करोड़ो रुपए के डाकटिकटों को वापस किया, बिहार में प्रिंटेड रजिष्ट्रर से लाखों शिक्षकों की फ्रेश नियुक्ति, UGC ने NET परीक्षार्थियों के रैंकिंग दिए  इत्यादि. केंद्रीय सूचना आयोग, सभी राज्य सूचना आयोगों में case जीतनेवाले भारत के एकमात्र अपीलकर्ता.
                                                 12000 RTI
आवेदन भेजने में अपना 3.5 लाख रुपये तब खर्च किये, जब औसत वार्षिक आय 1 लाख रु. भी नहीं था. अविवाहित रहकर,कई भौतिक सुखों को त्यागकर और कई लाख रुपये खर्चकर अप्राप्य दस्तावेजों,पत्रिकाओं,पुस्तकों, कई सदी के सिक्के, डाकटिकट, रेलसामग्री इत्यादि इकट्ठेकर संग्रहालय बनाया. तमिलनाडु,बिहार सही अन्य राज्यों में आये बाढ़ हेतु आपदा राहत प्रेषित. भूकंप पर शोध लिए नये सिद्धांत विकसित किये. 1 लाख से अधिक आवेदन, Drafts के लेखक. प्रतिदिन शिक्षकों, कर्मचारियों, प्रतियोगियों के समस्याओं के निदानार्थ बौद्धिक सहायता. फोर्ड फाउंडेशन फेलोशिप के फाइनलिस्ट, किन्तु भारतीय संस्कृति की गरिमा का ख्यालकर तत्काल छोड़ा.
प्रधानमन्त्री श्री चंद्रशेखर से प्रशंसित कविता को राष्ट्रीय कविता अवार्ड 1994-95, जिसे मा.राष्ट्रपति डॉ. एसडी शर्मा ने भी सराहे.महर्षि मेंहीं रचित - सत्संग योग- चतुर्थ भाग  की 11 वर्षायु में समीक्षा लिखने पर नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री कुलाधिपति श्री एनपी  रिज़ाल से आनरेरी डॉक्टरेट कार्ड मिला. मा.प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से मन की बात लिए वैचारिकी आदान. दिल्ली और बिहार के माननीय मुख्यमंत्री से RTI उपलब्धियाँ हेतु सम्मानित. दैनिक हिन्दुस्तान से  बिहार शताब्दी नायक , दैनिक जागरण से  RTI के ध्वजवाहक ,अम्बेडकर इन इंडिया पत्रिका का अतिप्रतिभाशाली भारतीय दलित बैकवर्ड लेखक का ख़िताब, प्रतियोगिता दर्पण से सर्वश्रेष्ठ  निबंधकार द्वितीयपुरस्कृत. हिंदी में गणित का पहला अन्वेषक  खिताब विज्ञानलेखक श्री गुणाकर मुळे ने दिया, वहीं 2008 से Google search person , तो  All India Radio कार्यक्रम Public Speak में लगातार 25 सप्ताह भागीदारी. संस्कृति मंत्रालय, भारतीय साहित्य कला अकादेमी, भारतीय दलित साहित्य अकादेमी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, राजभाषा विभाग इत्यादि से सम्मानित. विज्ञानपत्रिका Nature को प्रकाशनार्थालेख. रेमन मैगसायसाय अवार्ड में नामांकन मिला. पद्मश्री-2012 से लगातार नामांकन.
प्रो. सदानंद पॉल के हिंदी में प्रकाशित/प्रसारित प्रमुख रचना:---
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1.
महर्षि मेंहीं कृत् सत्संग योग चतुर्थ भाग की समीक्षा- 1986 में नेपाल के तत्कालीन कुलाधिपति से प्रशंसित,
2.
देहात में बालकवि गोष्ठी से मुग्ध हुए श्रोता- 1989 में दैनिक आज में,
3.
तुम पक्के हिन्दुस्तानी और अन्य कविताएँ- 1989 से भागीरथी में,
4.
हिंदी फ़िल्म की गीत समीक्षा-1992 में आकाशवाणी भागलपुर से,
5.
महिलाओं की भागीदारी- 1994 में चाइना रेडियो इंटरनेशनल से,
6.
पाकिस्तान या पापिस्तान- 1995 में साप्ताहिक आमख्याल में,
7.
भारत के दूसरा विक्रमादित्य अटल बिहारी वाजपेयी- 1996 में साप्ताहिक आमख्याल में,
8.
समतामूलक समाज में अंतरजातीय अंतरधार्मिक विवाह का महत्व- 2000 में इटीवी बिहार से,
9.
दो करोड़ पाँच लाख नौ सौ बारह तरीके से शब्द श्री लेखन- 2001 में दैनिक हिन्दुस्तान पटना में,
10.
दलित जातियाँ सवर्ण जातियाँ- 2002 में मासिक हंस में,
11.
जीवन अनलिमिटेड एक समीक्षा- 2003 में बी बी सी लंदन से,
12.
हिंदुइज़्म और कुरआन की रब्ब उल आलमीन- 2003 में मासिक अहवाले मिशन में,
13.
एवेरेस्ट पर सर्वप्रथम पहुँचनेवाला एक भारतीय था- 2003 में मासिक कादम्बिनी में,
14.
ईश्वर, धर्म और ब्राह्मण एक आख्यान- 2004 में मासिक आंबेडकर इन इंडिया में,
15.
मेहतरानी बहन और चमारिन प्रेमिका- 2004 में मासिक हंस में,
16.
दलित समाजशास्त्र का सौंदर्य- 2004 में आकाशवाणी पटना से,
17.
सर्वाधिक डिग्रीधारी श्रीकांत जिचकर- 2004 में झिलमिल जुगनू में,
18.
दलित साहित्य का समाजशास्त्र- 2005 में वार्षिकी आंबेडकर चिंतन में,
19.
समकालीन हिंदी कहानी का ग्रामीण यथार्थ- 2005 में आकाशवाणी पटना से.
20.
पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन इत्यादि.
प्रो. सदानंद पॉल के प्रकाशित / प्रसारित गणित विज्ञान आलेख:---
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1.
सदानंद पॉल की गणित डायरी- 1998 में द्वितीय संस्करण,
2.
विज्ञानलेखक के गलत आंकड़े- 2000 में मासिक आजकल में,
3.
एक गणितीय प्रश्न का मूलरूप से सोलह सौ तरीके से हल- 2002 में नोटरी कटिहार से एफिडेविट,
4.
कुछ सोचनीय गणितीय उलझने- 2002 में विज्ञान प्रगति में,
5.
गणित के कुछ नये पुराने नियम- 2003 में ज्ञान विज्ञान में,
6.
गुणा के बारे में बताइये न भैया- 2003 में मासिक झिलमिल जुगनू में,
7.
पाई के समानांतर मान और भूकंप की भविष्यवाणी- 2004 में अ भा विज्ञान सम्मलेन, NPL सभागार नई दिल्ली में प्रस्तुति,
8.
वैश्विक गणित में भारतीय गणितज्ञों की स्थिति- 2004 में विज्ञान प्रगति में,
9.
सम विषम और अभाज्य संख्याओं पर एक नज़र- 2004 में ज्ञान विज्ञान में,
10.
भूकंप की क्षमता और उनके आने की पूर्व घोषणा- 2005 में NRDC नई दिल्ली को पेटेंट के लिए आवेदन,
11.
एक से एक लाख तक की संख्याओं के वर्गमूल निकालने की मौखिक विधि- 2005 में झिलमिल जुगनू में,
12.
कोपरेकर नियतांक को गलत साबितकर यूनिक नंबर 2178 की खोज- 2008 में अमेरिकन मैथमेटिकल सोसाइटी से प्रशंसित,
13.
आगामी अभाज्य संख्याऐं जानने के सूत्र- 2015-16 में Nature विज्ञान पत्रिका और Abel Prize के लिए प्रेषित. इत्यादि.
प्रो. सदानंद पॉल के बारे में अन्य जानकारी:---
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1.
भारत के दूसरे सबसे युवा संपादक- Limca book of Records के पत्र,
2.
महामहिम राष्ट्रपति प्रशंसित राष्ट्रीय कविता अवार्ड- 1994-95,
3. 1996
में भूचाल हेतु गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकार्ड्स के समीक्षापत्र प्राप्त,
4. 14000
से ऊपर RTI आवेदन, RTI क्षेत्र में माननीय मुख्यमंत्री द्वय से सम्मानित,
5.
दैनिक हिन्दुस्तान से बिहार शताब्दी नायक सम्मान,
6.
दैनिक जागरण से RTI के ध्वजवाहक,
7.
आंबेडकर इन इंडिया से अतिप्रतिभाशाली भारतीय दलित बैकवर्ड लेखक का खिताब,
8.
प्रतियोगिता दर्पण से द्वितीय पुरस्कृत सर्वश्रेष्ठ निबंधकार,
9.
हिंदी भाषा में गणित का पहला अन्वेषक,
10. All India Radio
के कार्यक्रम Public speak में लगातार 25 सप्ताह भागीदारी,
11.
संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार, भारतीय दलित साहित्य अकादेमी, भारतीय साहित्य कला अकादेमी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् , राजभाषा विभाग बिहार सरकार से सम्मान प्राप्त. इत्यादि. 




निर्मल वर्मा की कहानी 'धूप का एक टुकड़ा'

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पिछले दिनों निर्मल वर्मापर एक बहस में अर्चना वर्मा मैम ने यह बात कही ही कि समकालीन जीवन से सबसे ज्यादा निर्मल वर्मा की कहानियां कनेक्ट करती हैं. इस कहानी को पढ़िए तो पता चलेगा कि अकारण नहीं है कि निर्मल वर्मा आज बहुत प्रासंगिक लेखक लगने लगे हैं- मॉडरेटर 
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क्या मैं इस बेंच पर बैठ सकती हूँ? नहीं, आप उठिए नहीं - मेरे लिए यह कोना ही काफी है। आप शायद हैरान होंगे कि मैं दूसरी बेंच पर क्यों नहीं जाती? इतना बड़ा पार्क - चारों तरफ खाली बेंचें - मैं आपके पास ही क्यों धँसना चाहती हूँ? आप बुरा न मानें, तो एक बात कहूँ - जिस बेंच पर आप बैठे हैं, वह मेरी है। जी हाँ, मैं यहाँ रोज बैठती हूँ। नहीं, आप गलत न समझें। इस बेंच पर मेरा कोई नाम नहीं लिखा है। भला म्यूनिसिपैलिटी की बेंचों पर नाम कैसा? लोग आते हैं, घड़ी-दो घड़ी बैठते हैं, और फिर चले जाते हैं। किसी को याद भी नहीं रहता कि फलाँ दिन फलाँ आदमी यहाँ बैठा था। उसके जाने के बाद बेंच पहले की तरह ही खाली हो जाती है। जब कुछ देर बाद कोई नया आगंतुक आ कर उस पर बैठता है, तो उसे पता भी नहीं चलता कि उससे पहले वहाँ कोई स्कूल की बच्ची या अकेली बुढ़िया या नशे में धुत्त जिप्सी बैठा होगा। नहीं जी, नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहाँ आदमी टिक कर रहे - तभी घरों के नाम होते हैं, या फिर क़ब्रों के - हालाँकि कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क़ब्रों पर नाम भी न रहें, तो भी खास अंतर नहीं पड़ता। कोई जीता-जागता आदमी जान-बूझ कर दूसरे की क़ब्र में घुसना पसंद नहीं करेगा!
आप उधर देख रहे हैं - घोड़ा-गाड़ी की तरफ? नहीं, इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। शादी-ब्याह के मौकों पर लोग अब भी घोड़ा-गाड़ी इस्तेमाल करते हैं... मैं तो हर रोज देखती हूँ। इसीलिए मैंने यह बेंच अपने लिए चुनी है। यहाँ बैठ कर आँखें सीधी गिरजे पर जाती हैं - आपको अपनी गर्दन टेढ़ी नहीं करनी पड़ती। बहुत पुराना गिरजा है। इस गिरजे में शादी करवाना बहुत बड़ा गौरव माना जाता है। लोग आठ-दस महीने पहले से अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं। वैसे सगाई और शादी के बीच इतना लंबा अंतराल ठीक नहीं। कभी-कभी बीच में मन-मुटाव हो जाता है, और ऐन विवाह के मुहूर्त पर वर-वधू में से कोई भी दिखाई नहीं देता। उन दिनों यह जगह सुनसान पड़ी रहती है। न कोई भीड़ न कोई घोड़ा-गाड़ी। भिखारी भी खाली हाथ लौट जाते हैं। ऐसे ही एक दिन मैंने सामनेवाली बेंच पर एक लड़की को देखा था। अकेली बैठी थी और सूनी आँखों से गिरजे को देख रही थी।
पार्क में यही एक मुश्किल है। इतने खुले में सब अपने-अपने में बंद बैठे रहते हैं। आप किसी के पास जा कर सांत्वना के दो शब्द भी नहीं कह सकते। आप दूसरों को देखते हैं, दूसरे आपको। शायद इससे भी कोई तसल्ली मिलती होगी। यही कारण है, अकेले कमरे में जब तकलीफ दुश्वार हो जाती है, तो अक्सर लोग बाहर चले आते हैं।  सड़कों पर। पब्लिक पार्क में। किसी पब में। वहाँ आपको कोई तसल्ली न भी दे, तो भी आपका दुख एक जगह से मुड़ कर दूसरी तरफ करवट ले लेता है। इससे तकलीफ का बोझ कम नहीं होता; लेकिन आप उसे कुली के सामान की तरह एक कंधे से उठा कर दूसरे कंधे पर रख देते हैं। यह क्या कम राहत है? मैं तो ऐसा ही करती हूँ - सुबह से ही अपने कमरे से बाहर निकल आती हूँ। नहीं, नहीं - आप गलत न समझें - मुझे कोई तकलीफ नहीं। मैं धूप की ख़ातिर यहाँ आती हूँ - आपने देखा होगा, सारे पार्क में सिर्फ यही एक बेंच है, जो पेड़ के नीचे नहीं है। इस बेंच पर एक पत्ता भी नहीं झरता - फिर इसका एक बड़ा फायदा यह भी है कि यहाँ से मैं सीधे गिरजे की तरफ देख सकती हूँ -लेकिन यह शायद मैं आपसे पहले ही कह चुकी हूँ।
आप सचमुच सौभाग्यशाली हैं। पहले दिन यहाँ आए - और सामने घोड़ा-गाड़ी! आप देखते रहिए - कुछ ही देर में गिरजे के सामने छोटी-सी भीड़ जमा हो जाएगी। उनमें से ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं, जो न वर को जानते हैं, न वधू को। लेकिन एक झलक पाने के लिए घंटों बाहर खड़े रहते हैं। आपके बारे में मुझे मालूम नहीं, लेकिन कुछ चीजों को देखने की उत्सुकता जीवन-भर खत्म नहीं होती। अब देखिए, आप इस पेरेंबुलेटर के आगे बैठे थे। पहली इच्छा यह हुई, झाँक कर भीतर देखूँ, जैसे आपका बच्चा औरों से अलग होगा। अलग होता नहीं। इस उम्र में सारे बच्चे एक जैसे ही होते हैं - मुँह में चूसनी दबाए लेटे रहते हैं। फिर भी जब मैं किसी पेरेंबुलेटर के सामने से गुज़रती हूँ, तो एक बार भीतर झाँकने की जबर्दस्त इच्छा होती है। मुझे यह सोच कर काफी हैरानी होती है कि जो चीजें हमेशा एक जैसी रहती हैं, उनसे ऊबने के बजाय आदमी सबसे ज्यादा उन्हीं को देखना चाहता है, जैसे प्रैम में लेटे बच्चे या नव-विवाहित जोड़े की घोड़ा-गाड़ी या मुर्दों की अर्थी। आपने देखा होगा, ऐसी चीजों के इर्द-गिर्द हमेशा भीड़ जमा हो जाती है। अपना बस हो या न हो, पाँव खुद-ब-खुद उनके पास खिंचे चले आते हैं। मुझे कभी-कभी यह सोच कर बड़ा अचरज होता है कि जो चीजें हमें अपनी ज़िंदगी को पकड़ने में मदद देती हैं, वे चीजें हमारी पकड़ के बाहर हैं। हम न उनके बारे में कुछ सोच सकते हैं, न किसी दूसरे को बता सकते हैं। मैं आपसे पूछती हूँ - क्या आप अपनी जन्म की घड़ी के बारे में कुछ याद कर सकते हैं, या अपनी मौत के बारे में किसी को कुछ बता सकते हैं, या अपने विवाह के अनुभव को हू-ब-हू अपने भीतर दुहरा सकते हैं? आप हँस रहे हैं... नहीं, मेरा मतलब कुछ और था। कौन ऐसा आदमी है, जो अपने विवाह के अनुभव को याद नहीं कर सकता! मैंने सुना है, कुछ ऐसे देश हैं, जहाँ जब तक लोग नशे में धुत्त नहीं हो जाते, तब तक विवाह करने का फैसला नहीं लेते... और बाद में उन्हें उसके बारे में कुछ याद नहीं रहता। नहीं जी, मेरा मतलब ऐसे अनुभव से नहीं था। मेरा मतलब था, क्या आप उस क्षण को याद कर सकते हैं, जब आप एकाएक यह फैसला कर लेते हैं कि आप अलग न रह कर किसी दूसरे के साथ रहेंगे... ज़िंदगी-भर? मेरा मतलब है, क्या आप सही-सही उस बिंदु पर अँगुली रख सकते हैं, जब आप अपने भीतर के अकेलेपन को थोड़ा-सा सरका कर किसी दूसरे को वहाँ आने देते हैं?... जी हाँ... उसी तरह जैसे कुछ देर पहले आपने थोड़ा-सा सरक कर मुझे बेंच पर आने दिया था और अब मैं आपसे ऐसे बातें कर रही हूँ, मानो आपको बरसों से जानती हूँ।
लीजिए, अब दो-चार सिपाही भी गिरजे के सामने खड़े हो गए। अगर इसी तरह भीड़ जमा होती गई, तो आने-जाने का रास्ता भी रुक जाएगा। आज तो खैर धूप निकली है, लेकिन सर्दी के दिनों में भी लोग ठिठुरते हुए खड़े रहते हैं। मैं तो बरसों से यह देखती आ रही हूँ... कभी-कभी तो यह भ्रम होता है कि पंद्रह साल पहले मेरे विवाह के मौके पर जो लोग जमा हुए थे, वही लोग आज भी हैं, वही घोड़ा-गाड़ी, वही इधर-उधर घूमते हुए सिपाही... जैसे इस दौरान कुछ भी नहीं बदला है! जी हाँ - मेरा विवाह भी इसी गिरजे में हुआ था। लेकिन यह मुद्दत पहले की बात है। तब सड़क इतनी चौड़ी नहीं थी कि घोड़ा-गाड़ी सीधे गिरजे के दरवाजे पर आ कर ठहर सके। हमें उसे गली के पिछवाड़े रोक देना पड़ा था... और मैं अपने पिता के साथ पैदल चल कर यहाँ तक आई थी। सड़क के दोनों तरफ लोग खड़े थे और मेरा दिल धुक-धुक कर रहा था कि कहीं सबके सामने मेरा पाँव न फिसल पड़े। पता नहीं, वे लोग अब कहाँ होंगे, जो उस रोज भीड़ में खड़े मुझे देख रहे थे! आप क्या सोचते हैं... अगर उनमें से कोई आज मुझे देखे, तो क्या पहचान सकेगा कि बेंच पर बैठी यह अकेली औरत वही लड़की है, जो सफेद पोशाक में पंद्रह साल पहले गिरजे की तरफ जा रही थी? सच बताइए, क्या पहचान सकेगा? आदमियों की तो बात मैं नहीं जानती, लेकिन मुझे लगता है कि वह घोड़ा मुझे जरूर पहचान लेगा, जो उस दिन हमें खींच कर लाया था... जी हाँ, घोड़ों को देख कर मैं हमेशा हैरान रह जाती हूँ। कभी आपने उनकी आँखों में झाँक कर देखा है? लगता है, जैसे वे किसी बहुत ही आत्मीय चीज से अलग हो गए हैं, लेकिन अभी तक अपने अलगाव के आदी नहीं हो सके हैं। इसीलिए वे आदमियों की दुनिया में सबसे अधिक उदास रहते हैं। किसी चीज का आदी न हो पाना, इससे बड़ा और कोई दुर्भाग्य नहीं। वे लोग जो आखिर तक आदी नहीं हो पाते या तो घोड़ों की तरह उदासीन हो जाते हैं, या मेरी तरह धूप के एक टुकड़े की खोज में एक बेंच से दूसरी बेंच का चक्कर लगाते रहते हैं।
क्या कहा आपने? नहीं, आपने शायद मुझे गलत समझ लिया। मेरे कोई बच्चा नहीं -यह मेरा सौभाग्य है। बच्चा होता, तो शायद मैं कभी अलग नहीं हो पाती। आपने देखा होगा, आदमी और औरत में प्यार न भी रहे, तो भी बच्चे की ख़ातिर एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं। मेरे साथ कभी ऐसी रुकावट नहीं रही। इस लिहाज से मैं बहुत सुखी हूँ -अगर सुख का मतलब है कि हम अपने अकेलेपन को खुद चुन सकें। लेकिन चुनना एक बात है, आदी हो सकना बिल्कुल दूसरी बात। जब शाम को धूप मिटने लगती है, तो मैं अपने कमरे में चली जाती हूँ। लेकिन जाने से पहले मैं कुछ देर उस पब में जरूर बैठती हूँ, जहाँ वह मेरी प्रतीक्षा करता था। जानते हैं, उस पब का नाम? बोनापार्ट - जी हाँ, कहते हैं, जब नेपोलियन पहली बार इस शहर में आया, तो उस पब में बैठा था - लेकिन उन दिनों मुझे इसका कुछ पता नहीं था। जब पहली बार उसने मुझसे कहा कि हम बोनापार्ट के सामने मिलेंगे, तो मैं सारी शाम शहर के दूसरे सिरे पर खड़ी रही, जहाँ नेपोलियन घोड़े पर बैठा है। आपने कभी अपनी पहली डेट इस तरह गुजारी है कि आप सारी शाम पब के सामने खड़े रहें और आपकी मंगेतर पब्लिक-स्टेचू के नीचे! बाद में जो उसका शौक था, वह मेरी आदत बन गई। हम दोनों हर शाम कभी उस जगह जाते, जहाँ मुझे मिलने से पहले वह बैठता था, या उस शहर के उन इलाकों में घूमने निकल जाते, जहाँ मैंने बचपन गुजारा था। यह आपको कुछ अजीब नहीं लगता कि जब हम किसी व्यक्ति को बहुत चाहने लगते हैं, तो न केवल वर्तमान में उसके साथ रहना चाहते हैं, बल्कि उसके अतीत को भी निगलना चाहते हैं, जब वह हमारे साथ नहीं था! हम इतने लालची और ईर्ष्यालु हो जाते हैं कि हमें यह सोचना भी असहनीय लगता है कि कभी ऐसा समय रहा होगा, जब वह हमारे बगैर जीता था, प्यार करता था, सोता-जागता था। फिर अगर कुछ साल उसी एक आदमी के साथ गुजार दें, तो यह कहना भी असंभव हो जाता है कि कौन-सी आदत आपकी अपनी है, कौन-सी आपने दूसरे से चुराई है... जी हाँ, ताश के पत्तों की तरह वे इस तरह आपमें घुल-मिल जाती हैं कि आप किसी एक पत्तों को उठा कर नहीं कह सकते कि यह पत्ता मेरा है, और वह पत्ता उसका।
देखिए, कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि मरने से पहले हममें से हर एक को यह छूट मिलनी चाहिए कि हम अपनी चीर-फाड़ खुद कर सकें। अपने अतीत की तहों को प्याज के छिलकों की तरह एक-एक करके उतारते जाएँ... आपको हैरानी होगी कि सब लोग अपना-अपना हिस्सा लेने आ पहुँचेंगे, माँ-बाप, दोस्त, पति... सारे छिलके दूसरों के, आखिर की सूखी डंठल आपके हाथ में रह जाएगी, जो किसी काम की नहीं, जिसे मृत्यु के बाद जला दिया जाता है, या मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है। देखिए, अक्सर कहा जाता है कि हर आदमी अकेला मरता है। मैं यह नहीं मानती। वह उन सब लोगों के साथ मरता है, जो उसके भीतर थे, जिनसे वह लड़ता था या प्रेम करता था। वह अपने भीतर पूरी एक दुनिया ले कर जाता है। इसीलिए हमें दूसरों के मरने पर जो दुख होता है, वह थोड़ा-बहुत स्वार्थी क़िस्म का दुख है, क्योंकि हमें लगता है कि इसके साथ हमारा एक हिस्सा भी हमेशा के लिए खत्म हो गया है।
अरे देखिए - वह जाग गया। जरा पेरेंबुलेटर हिलाइए, धीरे-धीरे हिलाते जाइए। अपने आप चुप हो जाएगा... मुँह में चूसनी इस तरह दबा कर लेटा है, जैसे छोटा-मोटा सिगार हो! देखिए-कैसे ऊपर बादलों की तरफ टुकुर-टुकुर ताक रहा है! मैं जब छोटी थी, तब लकड़ी ले कर बादलों की तरफ इस तरह घुमाती थी, जैसे वे मेरे इशारों पर ही आकाश में चल रहे हों... आप क्या सोचते हैं? बच्चे इस उम्र में जो कुछ देखते हैं या सुनते हैं, वह क्या बाद में उन्हें याद रहता है? रहता जरूर होगा... कोई आवाज, कोई झलक, या कोई आहट, जिसे बड़े हो कर हम उम्र के जाले में खो देते हैं। लेकिन किसी अनजाने मौके पर, जरा-सा इशारा पाते ही हमें लगता है कि इस आवाज को कहीं हमने सुना है, यह घटना या ऐसी ही कोई घटना पहले कभी हुई है... और फिर उसके साथ-साथ बहुत-सी चीजें अपने आप खुलने लगती हैं, जो हमारे भीतर अरसे से जमा थीं, लेकिन रोजमर्रा की दौड़-धूप में जिनकी तरफ हमारा ध्यान जाता नहीं, लेकिन वे वहाँ हैं, घात लगाए कोने में खड़ी रहती हैं - मौके की तलाश में - और फिर किसी घड़ी सड़क पर चलते हुए या ट्राम की प्रतीक्षा करते हुए या रात को सोने और जागने के बीच वे अचानक आपको पकड़ लेती हैं और तब आप कितना ही हाथ-पाँव क्यों न मारें, कितना ही क्यों न छटपटाएँ, वे आपको छोड़ती नहीं। मेरे साथ एक रात ऐसे ही हुआ था...
हम दोनों सो रहे थे और तब मुझे एक अजीब-सा खटका सुनाई दिया - बिल्कुल वैसे ही, जैसे बचपन में मैं अपने अकेले कमरे में हड़बड़ा कर जाग उठती थी और सहसा यह भ्रम होता था कि दूसरे कमरे में माँ और बाबू नहीं हैं - और मुझे लगता था कि अब मैं उन्हें कभी नहीं देख सकूँगी और तब मैं चीखने लगती थी। लेकिन उस रात मैं चीखी-चिल्लाई नहीं। मैं बिस्तर से उठ कर देहरी तक आई, दरवाजा खोल कर बाहर झाँका, बाहर कोई न था। वापस लौट कर उसकी तरफ देखा। वह दीवार की तरफ मुँह मोड़ कर सो रहा था, जैसे वह हर रात सोता था। उसे कुछ भी सुनाई नहीं दिया था। तब मुझे पता चला कि वह खटका कहीं बाहर नहीं, मेरे भीतर हुआ था। नहीं, मेरे भीतर भी नहीं, अँधेरे में एक चमगादड़ की तरह वह मुझे छूता हुआ निकल गया था - न बाहर, न भीतर, फिर भी चारों तरफ फड़फड़ाता हुआ। मैं पलँग पर आ कर बैठ गई, जहाँ वह लेटा था और धीरे-धीरे उसकी देह को छूने लगी। उसकी देह के उन सब कोनों को छूने लगी, जो एक जमाने में मुझे तसल्ली देते थे। मुझे यह अजीब-सा लगा कि मैं उसे छू रही हूँ और मेरे हाथ खाली-के-खाली वापस लौट आते हैं। बरसों पहले की गूँज, जो उसके अंगों से निकल कर मेरी आत्मा में बस जाती थी, अब कहीं न थी। मैं उसी तरह उसकी देह को टोह रही थी, जैसे कुछ लोग पुराने खंडहरों पर अपने नाम खोजते हैं, जो मुद्दत पहले उन्होंने दीवारों पर लिखे थे। लेकिन मेरा नाम वहाँ कहीं न था। कुछ और निशान थे, जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा था; जिनका मुझसे दूर का भी वास्ता न था। मैं रात-भर उसके सिरहाने बैठी रही और मेरे हाथ मुर्दा हो कर उसकी देह पर पड़े रहे... मुझे यह भयानक-सा लगा कि हम दोनों के बीच जो खालीपन आ गया था, वह मैं किसी से नहीं कह सकती। जी हाँ-अपने वकील से भी नहीं, जिन्हें मैं अरसे से जानती थी।
वे समझे, मैं सठिया गई हूँ। कैसा खटका! क्या मेरा पति किसी दूसरी औरत के साथ जाता था? क्या वह मेरे प्रति क्रूर था? जी हाँ... उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी और मैं थी कि एक ईडियट की तरह उनका मुँह ताकती रही। और तब मुझे पहली बार पता चला कि अलग होने के लिए कोर्ट, कचहरी जाना जरूरी नहीं है। अक्सर लोग कहते हैं कि अपना दुख दूसरों के साथ बाँट कर हम हल्के हो जाते हैं। मैं कभी हल्की नहीं होती। नहीं जी, लोग दुख नहीं बाँटते, सिर्फ फ़ैसला करते हैं - कौन दोषी है और कौन निर्दोष... मुश्किल यह है, जो एक व्यक्ति आपकी दुखती रग को सही-सही पहचान सकता है, उसी से हम अलग हो जाते हैं... इसीलिए मैं अपने मुहल्ले को छोड़ कर शहर के इस इलाके में आ गई, यहाँ मुझे कोई नहीं जानता। यहाँ मुझे देख कर कोई यह नहीं कहता कि देखो, यह औरत अपने पति के साथ आठ वर्ष रही और फिर अलग हो गई। पहले जब कोई इस तरह की बात कहता था, तो मैं बीच सड़क पर खड़ी हो जाती थी। इच्छा होती थी, लोगों को पकड़ कर शुरू से आखिर तक सब कुछ बताऊँ... कैसे हम पहली शाम अलग-अलग एक-दूसरे की प्रतीक्षा करते रहे थे - वह पब के सामने, मैं मूर्ति के नीचे। कैसे उसने पहली बार मुझे पेड़ के तने से सटा कर चूमा था, कैसे मैंने पहली बार डरते-डरते उसके बालों को छुआ था। जी हाँ, मुझे यह लगता था कि जब तक मैं उन्हें यह सच नहीं बता दूँगी, तब तक उस रात के बारे में कुछ नहीं कह सकूँगी, जब पहली बार मेरे भीतर खटका हुआ था और बरसों बाद यह इच्छा हुई थी कि मैं दूसरे कमरे में भाग जाऊँ, जहाँ मेरे माँ-बाप सोते थे... लेकिन वह कमरा खाली था। जी, मैंने कहीं पढ़ा था कि बड़े होने का मतलब है कि अगर आप आधी रात को जाग जाएँ और कितना ही क्यों न चीखें-चिल्लाएँ, दूसरे कमरे से कोई नहीं आएगा। वह हमेशा खाली रहेगा। देखिए, उस रात के बाद मैं कितनी बड़ी हो गई हूँ!
लेकिन एक बात मुझे अभी तक समझ में नहीं आती। भूचाल या बमबारी की खबरें अखबारों में छपती हैं। दूसरे दिन सबको पता चल जाता है कि जहाँ बच्चों का स्कूल था, वहाँ खंडहर हैं; जहाँ खंडहर थे, वहाँ उड़ती धूल। लेकिन जब लोगों के साथ ऐसा होता है, तो किसी को कोई खबर नहीं होती... उस रात के बाद दूसरे दिन मैं सारे शहर में अकेली घूमती रही और किसी ने मेरी तरफ देखा भी नहीं... जब मैं पहली बार इस पार्क में आई थी, इसी बेंच पर बैठी थी, जिस पर आप बैठे हैं। और जी हाँ, उस दिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि मैं उसी गिरजे के सामने बैठी हूँ, जहाँ मेरा विवाह हुआ था... तब सड़क इतनी चौड़ी नहीं थी कि हमारी घोड़ा-गाड़ी सीधे गिरजे के सामने आ सके। हम दोनों पैदल चल कर यहाँ आए थे...
आप सुन रहे हैं, ओर्गन पर संगीत? देखिए, उन्होंने दरवाजे खोल दिए हैं। संगीत की आवाज यहाँ तक आती है। इसे सुनते ही मुझे पता चल जाता है कि उन्होंने एक-दूसरे को चूमा है, अँगूठियों की अदला-बदली की है। बस, अब थोड़ी-सी देर और है - वे अब बाहर आनेवाले हैं। लोगों में अब इतना चैन कहाँ कि शांति से खड़े रहें, अगर आप जा कर देखना चाहें, तो निश्चिंत हो कर चले जाएँ। मैं तो यहाँ बैठी ही हूँ। आपके बच्चे को देखती रहूँगी। क्या कहा आपने? जी हाँ, शाम होने तक यहीं रहती हूँ। फिर यहाँ सर्दी हो जाती है। दिन-भर मैं यह देखती रहती हूँ कि धूप का टुकड़ा किस बेंच पर है - उसी बेंच पर जा कर बैठ जाती हूँ। पार्क का कोई ऐसा कोना नहीं, जहाँ मैं घड़ी-आधा घड़ी नहीं बैठती। लेकिन यह बेंच मुझे सबसे अच्छी लगती है। एक तो इस पर पत्ते नहीं झरते और दूसरे... अरे, आप जा रहे हैं?
- निर्मल वर्मा


साढ़े तीन कविता, सीपियों वाला पेंसिल बॉक्स और पीले पेपर के डिज़ाइन

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हिंदी में किशोरों के जीवन, उनकी शिक्षा, उससे जुड़े तनावों को लेकर कम कहानी लिखी गई है. प्रबुद्ध जैन की यह कहानी उसी तरह की है- मॉडरेटर 
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बात साल 2007 की है। अंशुल फ़िफ़्थ में रहा होगा। मां-बाप यानी किशोर और नम्रता बेटे का हाथ थामे 'तारे ज़मीं पर'देखने के बाद थियेटर से बाहर निकले तो पास के कॉफ़ी हाउस में चर्चा सिर्फ़ एक चीज़ पर हुई। अंशुल को वो सब करने दिया जाएगा जो वो ज़िंदगी में चाहे। जब पति और पत्नी बेटे की ज़िंदगी का ख़ाका खींच रहे थे तो मोटे तौर पर उनके दिमाग़ में उसका करियर ही घूम रहा था।

ये कुछ उसी तरह के भावावेश में किया गया फ़ैसला था जैसे किशोर ने 'बाग़बान'देखने के बाद बाबूजी को ओल्ड एज होम से वापस लाने का फ़ैसला लगभग कर ही लिया था लेकिन अगली सुबह दफ़्तर जाने के बाद विचार दिमाग़ से निकल गया।
हिंदी सिनेमा विचार बहुत तेज़ी से पैदा करता है। फिर, उससे दोगुनी तेज़ी से उन विचारों का ख़ात्मा कर डालता है।

तारे ज़मीं पर'देखते हुए पर्दे पर 'मैं कभी बतलाता नहीं, अंधेरे से डरता हूं मैं मां'आते ही नम्रता की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई। किशोर और नम्रता ने बीच में बैठे अंशुल को आग़ोश में लेकर उस अंधेरे में ढेर सारी ममता उड़ेल दी। उस दिन से ये गाना अंशुल का फ़ेवरेट बन गया। ईशान अवस्थी की हालत देखकर और रामशंकर निकुंभ की प्रेरणादायी डायलॉगबाज़ी के बाद उनकी मन:स्थिति बदल चुकी थी। ज़ाहिर है जब फ़िल्म का इतना असर हुआ तो हर साल मैग्नीफ़ाइंग ग्लास से अंशुल के रिपोर्ट कार्ड का मुआयना करने वाले मां-बाप ने उसे उसके दिल की आवाज़ सुनने देने का फ़ैसला कर लिया। ये अभूतपूर्व फ़ैसला था। लेकिन चूंकि ये उसी अंधेरे से उपजा, भावावेश में किया गया फ़ैसला था तो इसकी उम्र भी दस-पंद्रह दिन ही रह पाई।

इन दस-पंद्रह दिन में अंशुल ने कोई साढ़े तीन कविताएं लिखीं-तीन पूरी और एक अधूरी, पास ही बनने वाली बिल्डिंग के लिए जमा रेत में से कुछ सीपियां चुनकर पुराने पेंसिल बॉक्स के हवाले की, पिछले दो महीने से कट्टी चल रहे दोस्त रुचिर से पुच्ची की और पीले चार्ट पेपर को काटपीट कर अपने मन के कुछ डिज़ाइन बनाए। यानी कुल मिलाकर जमके टाइम बर्बाद किया। क्योंकि जब किशोर और नम्रता को ये एहसास हुआ कि ईशान अवस्थी वास्तव में भला चंगा है और छोटे पर्दे पर मज़े से डांस कर रहा है तो उनके पास हिंदी सिनेमा को कोसने के अलावा कोई चारा नहीं था। ईशान अवस्थी के चक्कर में अंशुल निरा निकट्ठू होता जा रहा था, ये यकीन उन्हें हो चला था और फिर अंशुल को अपना रास्ता ख़ुद तय करने देने की पॉलिसी बीच में ही लैप्स हो गई।

किशोरऔरनम्रतादोनोंकामकाजीथे।जवान, ठीकठाककमानेवालेऔरवीकेंडपरफ़िल्मेंदेखनेवाले।एकबच्चाकरेंगे, येडेटिंगकेदौरानहीतयहोचुकाथा।हां, उसेक्याबनाएंगेइसपरबहसगाहे-बगाहेहोतीरहतीथी।किशोरइंजीनियरिंगकेपक्षमेंथातोनम्रताएमबीएके।अंशुलजबसवानौसालकाथातोएकदिनअचानकउसकेभविष्यकीउज्जवलराहखुलगई।नम्रताकेकिसीरिश्तेदारनेइंजीनियरिंगकेबादएमबीएकरके 42 लाखकापैकेजहासिलकियाथा।तोयेतयठहराकिअंशुलइंजीनियर-एमबीएकहलाएगा।इसनतीजेकाएकफ़ायदायेभीहुआकिकिशोरऔरनम्रताकेबीचअंशुलकेकरियरकोहोनेवालीबहसोंपरविरामलगगया।क्योंकिइसनएचुनेगएकरियरमेंदोनोंकीबातकामानरहगया।
सबयोजनाकेमुताबिक़हीचलरहाथा।अंशुलकावैदिकमैथ्ससमेतचारविषयोंकाट्यूशनलगवादियागयाथा।शामकोताइक्वांडो, होमवर्क, रिवीज़नऔरबिस्तर।ज़िंदगीइसीकेइर्द-गिर्दचक्करलगारहीथी।फिरजानेकहांसेये'तारेज़मींपर'गईऔररामशंकरनिकुंभदेशभरकेबच्चोंकेभविष्यमेंपलीतालगानेपहुंचा।वोतोभलाहोमतिकाजोबेवक़्तमारीजातीहैतोकभी-कभीऐनवक्तपरभीजातीहै।किशोरऔरनम्रताकोभीगई।उन्होंनेफ़िल्मकोकोसतेहुएअंशुलकेपंद्रहसपनीलेदिनोंमेंशामिलकविताओं, सीपियों, डिज़ाइनकोएकबक्सेमेंबंदकियाऔरउसेउन्हींवैदिकमैथ्स, साइंस, ताइक्वांडो, होमवर्क, रिवीज़न, बिस्तरवालेदूसरेबक्सेमेंडालदिया।

इसबक्सेमेंपड़े-पड़ेअंशुलनेजानेकितनीबार'तारेज़मींपर'सेहीगुनगुनायाथा-
'मैंकभीबतलातानहींअंधेरेसेडरताहूंमैंमां'

लेकिनपतानहींग़लतीसेयाजानबूझकरकुंडीइतनीमज़बूतीसेबंदथीकिगानाबक्सेकीदीवारोंसेटकराकरदमतोड़तारहा।वोजब-जबयेगानागुनगुनारहाहोतातोउन्हींदिनोंमेंपहुंचजाताजबयेफ़िल्मदेखतेहुएनम्रताऔरकिशोरनेउसपरदिलोजानसेप्यारलुटायाथा।उसेलगताकिशायदअबकुंडीखुलेगीऔरमांवहीप्यारउमड़ातेहुएउसकाबक्साबदलदेगी।उसेकविताओं, सीपियोंऔरपीलेपेपरकीकतरनोंसेबनेडिज़ाइनवालेबक्सेकीयादबेतरहआती।

रिपोर्टकार्डअबडबलमैग्नीफ़ाइंगग्लाससेदेखेजातेथे।खेलकावक़्तमिनटोंकेहिसाबसेतयहोनेलगा। 2008 कीमंदीअपनाकामकरचुकीथी, जिसकेसाथनम्रताकीनौकरीभीचलीगई।मंदीकादानव, दुनियाकीअर्थव्यवस्थाकोतहस-नहसकरतेवक़्तअगरअंशुलजैसेमासूमोंपरउसकेअसरकीकल्पनाकरपातातोउम्मीदथीकिपिघलजाता।लेकिनजिसदौरमेंमानवोंसेभीकल्पनाशीलताकीउम्मीदकरनाज़्यादतीहो, वहांदानवसेआपऐसीउम्मीदक्योंकरेंगेभला !
बक्सेकीदीवारोंसेरगड़खाते-खातेअंशुलफ़िफ़्थसेनाइंथमेंचुकाथा।वोपढ़ाई-लिखाईकेसीरियसमोडमेंपहुंचगया।यानी, जबपढ़े-लिखेनौकरीपेशामां-बापबच्चोंकीपढ़ाईकोलेकरमरने-मारनेतकसीरियसहोजातेहैं।अंशुलकेभविष्यकोलेकररणनीतियोंकादौरअपनेचरमपरथा।बोस्टनवालीदीदीसेलेकरबरेलीवालेताऊजीतकसबकीरायलीजानेलगी।नेपोलियनकेवक़्तमेंअगरमां-बापरणनीतिकेयेपैंतरेऔरतैयारीकायेस्तरदिखातेतोयक़ीननवोवॉटरलूकेमैदानमेंभीफ़्रांसकाझंडाफहराकरहीदमलेता !
हालांकि, सारीरायशुमारीकेबाद, बातवहीनम्रताकेपुरानेफ़ैसलेकोसहीबतानेपरख़त्महुईकिअंशुलकोपहलेइंजीनियरिंगकरनीचाहिएऔरफिरएमबीए।बस, इसमेंकैचयहीथाकिकॉम्बिनेशन IIT-IIM काहो।औरअंशुलये'कैच'पकड़नेकेमूडमेंक़तईनहींथा।

नम्रतानेफ़ैसलाकियाकिउसे IIT कोचिंगकीराजधानीकोटाभेजाजाए।किशोरनेउसकेफ़ैसलेपरसहमतिकीमोहरलगाई। 14 सालकेबच्चेकोअपनाशहरछोड़करउससपनेकोजीनेकोटाजानाकुछभारीजानपड़ाजिसमेंउसकीहिस्सेदारीज़ीरोथी।वोसपनाउसनेनहींदेखाथा, कभीनहीं।लेकिन, वोहररातकौनसासपनादेखताथा, येतोउससेकिसीनेकभीपूछाहीनहीं।उसकेसारेसपनेउसीबक्सेमेंक़ैदहोगएथेजिसमेंउसकीसाढ़ेतीनकविताएं, सीपियोंवालापेंसिलबॉक्सऔरपीलेपेपरकेडिज़ाइनबंदथे।लेकिन, चूंकिइसबारमामलासंगीनथातोअंशुलनेबग़ावतीतेवरोंकामनबनालिया।

अगलेरोज़हीनाश्तेकीटेबलपरऐलानहोगया।
"मुझेनहींजानाकोटा"
"हूं", किशोरनेअख़बारसेबिनानज़रेंहटाएजवाबजैसाकुछदिया।
"मैंनेकहा, मुझेकोटानहींजाना"
"कोटानहींजानामतलब? कुछसोचकेभीबोलरहेहो?", इसबारजवाबकामोर्चानम्रतानेसंभाला।
"मुझेइंजीनियरिंगनहींकरनी"
"तोक्याफ़ोटोग्राफ़ीकरनीहै, राइटरबननाहैयाफिरफ़िलॉस्फर"
"नहींपता, बसअभीयहीपताहैकिइंजीनियरिंगनहींकरनी"

"पतानहींहैतोपताकरो...नाइंथमेंहो, कोईबच्चेनहींहो! औरवोकौनसीफ़िल्मगएथेहमपिछलेसंडे...हां...थ्रीइडियट्स।येउसीकाभूतचढ़ाहैतुमपर।इसेजितनाजल्दीउतारलोउतनाबेहतरहै।येसबफ़िल्मोंमेंहीअच्छालगताहै।आमिरख़ानकोरामशंकरनिकुंभबननेकेभीकरोड़ोंमिलतेहैंऔररणछोड़दासचांचड़बननेकेभी।तुमकोइन्हेंफ़ॉलोकरकेफूटीकौड़ीनहींमिलनेवाली।"किशोरकीआंखेअख़बारसेपूरीतरहहटकरअंशुलकीआंखोंमेंधंसीथीं।

नाश्तेकीटेबलपरहुईइसबातचीतसेदोचीज़ेंसाफ़होगईं।एक, अंशुलकोकोटाजानेसेभगवानभीनहींबचासकतेथे।दूसरा, किशोरऔरनम्रताकोचारसालपहलेआमिरख़ानपंद्रहदिनकेलिएबेवकूफ़बनाचुकाथालेकिनइसबारवोपूरीतरहतैयारथे।किसीसमीक्षकनेलिखाभीथा-'थ्रीइडियट्स'अपनेमक़सदमेंबुरीतरहनाकामरहतीहै।जबआख़िरीसीनमेंबच्चेकोपैरचलातेदेखउसकानानायानीबमनईरानीउसेफ़ुटबॉलरबनानेकीबातकहताहैतोफ़िल्मकासारामैसेजभरभराकरगिरजाताहै।यानी, नानाबच्चेपरफिरसेअपनीइच्छाथोपनाचाहताहै।"
इससमीक्षाकोपढ़नेकेबादतोनम्रताकोऔरभीयक़ीनहोगयाथाकिपूरीफ़िल्मकामक़सदसिर्फ़पैसाकमानाहैकिकोईमैसेजदेना।

तयदिन, अंशुलकाएकऔरबक्सातैयारथा।कोटावालाबक्सा।अगलेकुछसालउसेउसशहरमेंगुज़ारनेथेजिसेसभ्यभाषामेंइंजीनियरिंगऔरएजुकेशनहबऔरचलताऊभाषामेंइंजीनियरोंकीफ़ैक्ट्रीकारुतबामिलचुकाथा।
उसकेपुरानेबक्सेछूटरहेथे।उसेकिसीबक्सेकेछूटनेकाकोईग़मनहींथासिवायउसबक्सेकेजिसमेंउसकीसाढ़ेतीनकविता, सीपियोंकापेंसिलबॉक्सऔरपीलेपेपरकेडिज़ाइनबंदथे।दुखइसबातकाभीथाकिइनचार-पांचसालोंमेंउसनेउनसाढ़ेतीनकविताओंकोचारकविताओंमेंक्योंनहींबदला।उसअधूरीकविताकीटीसबहुतगहरीथी।इतनीकिउसकाबसचलतातोदुनियाकीहरदीवारपरकविताकेबाक़ीआधेहिस्सेकोउकेरदेता।बसमुश्किलयेथीकिकविताकापहलाआधाहिस्साउसेबिल्कुलयादनहींथाऔरअबउसेमंगानेयाज़िक्रछेड़नेकीकोईसूरतनज़रनहींआतीथी।
कोटामेंपत्थरबहुतहैं।तरह-तरहके, भवननिर्माणमेंकामआनेवाले।कोटास्टोनकेनामसेमशहूर।इन्हींपत्थरोंसेबीतेकुछसालोंमेंआलीशानकोचिंगसेंटरबनगएहैंजिनमेंफ़ाइवस्टारसुविधाओंकेबीचइंजीनियरबनाएजातेहैं।हकीमउस्मानीके'शीघ्रपतनशर्तियादूरकरें'विज्ञापनपरनाक-भौंसिकोड़नेवालोंकोयहांज़रूरआनाचाहिए।यहांकीइमारतोंसेलेकरसड़केंऔरगलियांविज्ञापनोंसेपटीपड़ीहैं...संदेशभीकमोबेशवहीहै, पहलेशब्दमेंस्पेसकेसाथ--'शीघ्रपतनशर्तियादूरकरें' !

कोचिंगसेंटरमेंपहलेदिनकीक्लासेज़केबादहीअंशुलकोयेएहसासबख़ूबीहोचुकाथाकिनाश्तेकीटेबलपरपेरेंट्ससेलड़तेवक़्त'बसइंजीनियरिंगनहींकरनी'कहनासचथा।वोयेकरतोसकताथालेकिनशायद IIT सेकरपाए।जबयेतयहोहीचुकाथाकिपीछेलौटनेकीकोईसूरतनहींतोउसनेख़ुदकोपूरीतरहपढ़ाईमेंझोंकनेकामनबनालिया।येभावावेशमेंनहींबल्किपूरीतरहसोच-समझकरकियागयाफ़ैसलाथाइसलिएइसकीमियादकिशोरऔरनम्रताकेऐसेफ़ैसलोंसेकहींज़्यादारहनेवालीथी।

वक़्तकेपांवमेंजोपहिएहोतेहैं, उन्हेंतोकभीसर्विसिंगकीज़रूरतपड़तीहैऔरहीवोपंक्चरहोतेहैं।वोहमेशाआगेहीबढ़तेरहतेहैं।अंशुलकेलिएभीवक़्तकायेचक्कालगातारघूमतारहा।उसनेकईमौकोंपरचाहाकिपूरीताक़तसमेटकरकुछपलकेलिएसहीइसपहिएकोरोकलेलेकिननाकामरहा।इसदौरानउसनेढेरोंकवितालिखीं--प्यारकी, घरकी, यादकी, मांकी, कोटास्टोनकी, पत्तोंकी, आसमानकी, बारिशकीऔरभीजानेक्याक्या।याद्दाश्तपरज़ोरडालकरघरकेबक्सेमेंछूटआईउसअधूरीकविताकोपूरीकरनेकीभीउसनेकईबारकोशिशकी, लेकिनशुरुआतयादहीनहींआई।उसेयेभीख़्यालआयाकिवोबाक़ीआधीकविताअंदाज़ेसेलिखलेऔरबादमेंकभीइसनएहिस्सेकेहिसाबसेउसपुरानेहिस्सेकोसुधारले।लेकिनहरबारयेख़्यालबेईमानीऔरस्वार्थमेंडूबामहसूसहुआ, सोछोड़दियागया।

कोटाकीसड़कों, रेस्टोरेंट, इंस्टीट्यूटकेआंगनों, सीढ़ियोंऔरकॉरिडोरसेगुज़रतेहुएअंशुलकोलगताथाकि IIT कासपनालेकरइसशहरमेंआएजानेकितनेलड़के-लड़कियांअपनेघरोंकेबक्सोंमेंएक-एकअधूरीकविताछोड़आएहैं।वोकविताएंकभीमुकम्मलहोभीपाएंगीं, वोनहींजानता।परपतानहींक्यों, वोयेचाहताज़रूरथाकिदुनियाकीकोईकविताअधूरीरहे।वोसारेछात्र-छात्राएंअभीकेअभीबस, ट्रेन, विमानपकड़ें, घरजाएं, बक्साखोलेंऔरउनअधूरीकविताओंकोपूरेमानीदें।उसनेअपनेदिलकीयेख़्वाहिशकिसीसेसाझानहींकीं, उसेडरथाकिकहींउसेपागलकरारदेदियाजाए।वैसे, निजीतौरपरयेउसेज़्यादापागलपननज़रआताथाकिआपज़िंदगीमेंवोसपनाजीनाचाहतेहैंजोतोआपकीआंखोंनेकभीदेखा, आपकेदिलनेकभीधड़काया।चूंकियेउसकानिजीविचारथा, इसेसार्वजनिककरनाख़तरेसेख़ालीनहींथा।

विचारोंकायेपरस्परटकरावऔरऊहापोहअंशुलकोरात-रातभरजगाएरखती।उधर, किशोरऔरनम्रताअबजाकरचैनकीनींदसोपारहेथे।उन्हेंलगताथाकिज़िंदगीमेंउन्होंनेजोकुछकामकेफ़ैसलेकिए, उनमेंएकअंशुलकोकोटाभेजनेकाभीहै।उन्हेंयक़ीनथाकिपहले IIT काक़िलाध्वस्तहोगाऔरफिर IIM केमहलपरविजयपताकाफहराईजाएगी।बेटेकेसुखदभविष्यकीकल्पनाभरसेमां-बापकेचेहरेखिलउठतेथे।इतनेकिवोनींदमेंभीमुस्कुरातेनज़रआते।

अंशुलकीकरीब-करीबरोज़हीघरबातहुआकरतीथी।जोइतनेसधेशब्दोंमें, तयखांचोंकेभीतरसेहोकरगुज़रतीकिकुछवक़्तकेबादउसमेंसेसड़ांधउठनेलगी।

"औरबेटा, क्याहालहैं"
"ठीकहूं"
"कितनीबारकहाहै, एटीट्यूडबदलो, 'ठीक'नहीं, 'अच्छाहूं'कहाकरो, जैसाबोलोगे, वैसाफ़ीलकरोगे"
"औरइसबारकाटेस्टकैसारहा"
"अच्छारहा", दरअसल, इसदफ़ाउसे'ठीकरहा'हीकहनाचाहिएथा।
"हूं...बेटा, मेरीबातध्यानसेसुनो।हमतुम्हारेदुश्मननहींहै।तुम्हाराभलाचाहतेहैं।एकबार IIT क्रैककरलियातोसमझो...सबबदलजाएगा।फ़रीदाबादवालेरजतभैयानेफर्स्टअटेंप्टमेंनिकाललियाथाऔरआजदेखोवोकहांहैं।"

जबभीफ़रीदाबादवालीबबलीबुआकेबेटेरजतभैयाकाज़िक्रहोता, अंशुलकेज़ेहनमेंउनकेकमरेकीतस्वीरउभरआती।रजतभैयाकेकमरेकीदीवारपरएकगिटारटंगारहताथा।उसनेबचपनमेंकईदफ़ारजतभैयासेकुछबजानेकीगुज़ारिशकी।लेकिनहरबारभैयाकोईकोईबहानाबनाकरटालदियाकरते।उसेबहुतबादमेंपतालगाकिएकदिनग़ुस्सेमेंआकरफूफाजीनेउसगिटारकीतारेंतोड़दीथीं।तबरजतभैयाशायदनाइंथमेंरहेहोंगे।एकाउस्टिकगिटारकीएकतारजोटूटनेसेबचगईथीवोरजतभैयानेख़ुदतोड़दी...ताकिफिरकभीकोईतार, घरमेंकिसीतकरारकीवजहबनसके।उसकीएककविताअधूरीरहगईतोरजतभैयाकीकईधुनअधूरीरहगईं।लेकिनअंशुलइसवाकयेकोकभीरोज़घरहोनेवालीबातचीतकेबीचनहींलापाया।क्योंकि, वोअबबड़ाहोरहाथा।उसेसमझरहाथाकियेअधूरापनहीज़िंदगीकाअसलसचहै।पापाका IIT मेंदाख़िलेकासपनाअधूरारहगयातोमांका MBA का।अबवोइनदोअधूरेसपनोंकावाहकथा।इनसपनोंकाबोझइतनाज़्यादाथाकिउसकीकमरटूटनेलगीथी, सांसउखड़रहीथीऔरक़दमआगेबढ़नेसेइनकारकररहेथे।

बावजूदइसकेवोख़ुदकोघसीटनेलगा।अपनेभीतरकीसारीताक़तकोइकट्ठाकरके, सारीनाराज़गियोंकोभुलाके, सारीहताशाओंकोकिनारेकरके, वोवाकईपूरीशिद्दतसेउससपनेकोसाकारकरनेकीकोशिशमेंलगगयाजोउसकाहोतेहुएभी, उसकीज़िंदगीकोड्राइवकररहाथा।

सपनोंकेसाथसबसेबड़ीदिक़्क़तयहीहै।जबवोअपनेनहींहोतेतोउन्हेंढोनेमेंबड़ीमुश्किलहोतीहै।वैज्ञानिकबतातेहैंजबआदमीचांदपेहोताहैतोउसकावज़नछहगुनाकमहोजाताहै।यूंकिसीनेबतायानहींपरअंशुलकोकईबारलगताकिकभीसपनोंकेवज़नपरगहरीरिसर्चहुईतोपतालगेगाकिदूसरोंकेसपनोंकावज़नअपनेसपनेकेमुकाबलेछहसौगुनाबढ़जाताहै।

अंशुलइंजीनियरिंगकेरेसकोर्सकावोघोड़ाथाजिसपरउसकेमां-बापयानीकिशोरऔरनम्रतानेबड़ादांवखेलाथालेकिनपैरोंमेंबंधेसपनोंकावज़नउसेतेज़दौड़नेसेरोकरहाथा।

कोटाकेजिसनामीइंस्टीट्यूटमेंवो IIT कीतैयारीकररहाथा, वहांउसकीपरफ़ॉरमेंसहरगुज़रतेटेस्टकेसाथबेहतरहोनेकीबजायबिगड़रहीथी।ऐसानहींकिवोमेहनतनहींकररहाथालेकिनकईबारमेहनतमनकीहोतोसुकारथनहींहोती।टेस्टमेंख़राबस्कोरकामतलबअंशुलबख़ूबीसमझताथा।ऐसेहरपरफॉरमेंसकाअर्थथा- IIT सेदूरीमेंऔरइज़ाफ़ा।

घरसेफ़ोनअबभीआताथाऔरटेस्टकेसवालपरवोअबभी'ठीक-ठाक'कहनेकीबजाय'अच्छा'हीकहतारहा।ऐसाक्योंहोताहैकिजबसबसेज़्यादाचीख़नेकीज़रूरतहोतीहैतभीआवाज़घुटनमेंबदलजातीहै।उसेकितनाकुछकहनाथा।किशोरसे, नम्रतासे, कोचिंगइंस्टीट्यूटवालेमिश्रासरसे, दोस्तोंसे, रजतभैयासे, फ़रीदाबादवालेफूफाजीसेलेकिनसबकहींभीतरघुटरहाथा।शायदअंशुलसमझरहाथाकिअगरवोनाकामहोताहैतोयेनाकामीउसकीअकेलेकीनहींहै।येउसकेमां-बापकीभीहै।मिश्रासरऔरफूफाजीकीभी।इनलोगोंकेरवैयेसेबार-बारयहीलगताथाकिउसकेसाथकईज़िंदगियोंकाभविष्यदांवपरहै।वोइतनेसारेलोगोंकाभविष्यअंधेरेमेंधकेलनानहींचाहताथा।इतनीनाकामियोंकाबोझउठानेलायकमज़बूतहीथा।

इनहालातमेंअंशुलकेमनकेभीतरझांककरउसकाएक्स-रेनिकालाजासकताहोतातोउसमेंज़रूरडर, निराशा, चिंताऔरशर्मिंदगीकीमोटीपरतेंदिखाईदेतीं।हरपरतएक-दूसरेपरचढ़ीहुई।टेस्टदरटेस्टउसेयेमहसूसहोनेलगाथाकिIIT केदरवाज़ेकमसेकमउसकेलिएतोनहींखुलनेवाले।
जबयेविचारअंदरतकपैवस्तहोगयातोएकाएकज़िंदगीकेसारेदरवाज़ेबंदहोगए।सपनेअचानकबहुतहल्केहोगए।रुईकेफाहेजैसे।कोईबोझबाक़ीरहा।कोईहसरतज़िंदारही।

दोदिनबादजबपुलिसनेजबरनदरवाज़ाखोलातोकमरेसेसड़ांधउठरहीथी।इससड़ांधमेंकिशोरऔरनम्रताकेशब्दोंकीसड़नभीशामिलथी।अंशुलकोईचिट्ठीछोड़गयाथा।इसचिट्ठीमें  किसी कविता को पूरी करने की अधूरी सी कोशिश भी शामिल थी।

भीतरतकटूटचुकीनम्रतानेकुछदिनबादजबअंशुलकेबचपनकाबक्साखोलातोउसमेंसीपियोंभरेपेंसिलबॉक्स, पीलेपेपरकेडिज़ाइनरटुकड़ोंऔरबाक़ीअटरम-शटरमकेबीचसाढ़ेतीनकविताएंभीमिलीं।तीनपूरीऔरएकअधूरी-बिनाशीर्षककी:


मां, मैंअभीछोटाहूं
परईशानअवस्थीनहींहूं
स्मार्टहूंउससेबहुत
मां, मुझेरामशंकरनिकुंभनहींचाहिए
बसतूमुझेसिखातीरहना
जैसेबतायाथापिछलेट्यूज़डेतूने
किध्रुवतारेसेकैसेपतालगतीहैदिशा
औरचंदामामाकैसेबिनाडायटिंग
जबचाहेहोजातेहैंछोटे-बड़े
मां, आईलवयू
तूमेराध्रुवताराहै
तूभीतोबतादेतीहैमुझेदिशा
कभीखोजाऊंतो
मां, तू.........................
....................................
...................................


असाधारण खिलाड़ी को महानायक बनाने वाली फिल्म

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धोनी अकेले क्रिकेट खिलाड़ी हैं जो बायोपिक के साथ खेल से विदाई लेंगे। उनका जीवन, उनका कैरियर किसी पुरा-नायक जैसा बनाता है उनको। नीरज पांडे ने उनके ऊपर कमाल की फिल्म बनाई है- ms dhoni-untold story, जिसे सुशांत सिंह राजपूत ने अपने अभिनय से यादगार बना दिया है। इस फिल्म पर सैयद एस॰ तौहीद का लेख- मॉडरेटर
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एम.एस धौनी रिलीज़ हुई..आपने देखी क्या ?नहीं  देखा तो देख आएं. क्रिकेट को फ़ौलो करते हैं तो मिस नहीं करना चाहेंगे .जिंदगी के नजरिए के लिए भी मिस नहीं ही की जानी चाहिए.नीरज पांडे की 'ms dhoni-untold story'अपने किस्म की फिल्म बन उभरी है. खेल खेल में जीवन-यात्रा तय कर जाना शायद इसे ही कहते हैं.महेंद्र सिंह धौनी की  जीवन-यात्रा से गुजरते हुए एक सरल किंतु व्यापक व्यक्तित्व से परिचय होता है.धौनी के इतिहास की  पर्याप्त व्याख्या मिलती है. धौनी के जीवन पर बनी यह बॉयोपिक वर्ल्‍ड कप पर आकर समाप्‍त हो जाती है. रांची में मेकॉन कर्मचारी पान सिंह धौनी (अनुपम खेर ) के परिवार में एक लड़का पैदा होता है. बचपन से उसका मन खेल में लगता है.लेकिन मध्य वर्ग का होने की वजह से पढाई का दबाव है. मध्य वर्ग की परिवार की चिंताएं हैं,जहां करिअर की सुरक्षा सरकारी नौकरियों में समझी जाती हैं. पढाई को लेकर एक प्रचलित कहावत को टूटते देखना सुखद अनुभव था. हम 'महीकी शुरूआती रुचि फुटबॉल से भी परिचित होते हैं. स्‍पोर्ट्स टीचर को लगता है कि लड़का अच्‍छा विकेट कीपर बन सकता है.फुटबॉल खेलने वाले को क्रिकेट खेलने के लिए राजी कर लेते हैं.धौनी की किस्मत उनका इंतज़ार कर रही थी. धौनी का सफर आरंभ होता है.

बायॉपिक में फिल्मकार के समक्ष हिस्सों को चुनने व छोड़ने की चुनौती रहती है.नीरज पांडेय के लिए चुनौती रही होगी कि वे धौनी की जीवन यात्रा में किन  हिस्‍सों को हिस्‍सा लें और क्‍या छोड़ दें.फिल्म में स्पोर्ट्सपर्सन एवम छोटे शहर के जुनूनी युवा की कथा का सुंदर सामंजस्य किया गया है.कथा को संघर्षयात्रा का टच मिले इसलिए यह क्रिकेटर से अधिक छोटे शहर के सफ़ल युवक धौनी की कहानी में ढल गई. फिल्‍म ने धौनी के व्‍यक्तित्‍व के उजले पक्षों से उनकी उपलब्धियों को निखारने का अच्छा काम किया है.सहायक किरदार एवं अनछुए प्रसंग इसे अंजाम दे गए.उनके व्यक्तित्व निर्माण में माहौल का भी अच्छा चित्रण हुआ.धौनी के किरदार में प्रेम का सम्वेदनशील पहलू देखना अप्रतिम अनुभव था.हालांकि कुछेक प्रसंग थोडे अधूरे रह गए.धौनी-प्रियंका का लव एंगल कसक छोड़ जाता है. फिल्म महज़ क्रिकेट के शौकीन दर्शकों के लिए नहीं. जो लोग धौनी को फोलो नहीं करते उन्हें भी यह फिल्म देखनी चाहिए. आपको धौनी में छोटे शहर का युवा नायक नज़र आएगा जो अपनी मेहनत व जिद से सपनों को हासिल करता है. क्रिकेट के फोलो करने वालों को यह फिल्‍म अच्‍छी लगेगी,क्‍योंकि इसमें धौनी के खेल एवं संघर्षयात्रा का सुंदर समागम हुआ है. यह फिल्म छोटे शहर के नायकों की कहानी है. धौनी की प्रेरक गाथा युवाओं में जीवन हेतु अदम्य साहस का संचार करने में सफल है. इस फिल्‍म में हम किशोर व आत्‍मविश्‍वास के धनी धौनी को देखते हैं. उनकी जीवन यात्रा कहीं न कहीं हर सफ़ल युवक की कहानी दिखाई पड़ती है.छोटे शहरों के बड़े नायकों का जादू हमें भीतर से खुश करता है.फिल्‍म अपने उद्देश्‍य में सफल रही है.यह बात आखिर में रियल धौनी के हैण्ड वेव पर बजी तालियों से पता चलेगी. फ़िल्म का असली मज़ा सिनेमाहॉल में फील होता है.

एम एस धौनी सामयिक फैसलों के विजय की बात करती है. जिंदगी अहम व पेंचिदा फैसले चलते-फिरते लिए जाते हैं. छोटे क्षणों के फैसलो का असर जिंदगी रहते ख़त्म नहीं होता. हमारे आज व कल को इतिहास के मामूली से दिखाई देने वाले पल दरअसल तय करते हैं. विडम्बना देखें कि इन्हें डिसकस करने का समय  भी हमारे पास नहीं होता.

प्रशंसा करनी होगी अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की जिन्होंने एम एस धौनी के बॉडी लैंग्‍वेज,खेल शैली और एटीट्यूड को समुचित मात्रा में समझा व अपनाया. सुशांत में धौनी की  मेनरिज्म बारीकियां देखते ही बनती हैं.उन्‍होंने धौनी के रूप में खुद को ढाला और आखिर तक वही बने रहे.धौनी की भावात्मक प्रतिक्रियाएं ज़रूर कुछ अलग होंगी, लेकिन फिल्‍म देखते हुए हमें उनकी परवाह कम रहती है. क्योंकि तब तक सुशांत-धौनी के फर्क मिट चुके होते हैं. धौनी के पिता पान सिंह धौनी के किरदार में अनुपम खेर ने न्याय किया है. धौनी के जीवन में आए साथी,परिवार,कोच व मार्गदर्शकों की भूमिकाओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया गया. व्यक्तित्व के स्तरों को बताने के लिए यह आवश्यक था. 

धौनी के आसपास दोस्तों की बड़ी अच्छी जमात थी.क्रिक्रेट के मैदान से लेकर स्पोर्ट्स कोटे में नौकरी मिलने तक वो थोड़ा किस्मत वाले लगे. दोस्त की भूमिका में संतोष  (क्रांति प्रकाश झा) अच्‍छे लगते हैं.युवराज सिंह का किरदार खूब तालियां बटोरता है.क्या खूब कास्टिंग है. बहन के किरदार में भूमिका भूमिका चावला को देखना सुखद था. दिशा पटानी की मिलियन डॉलर स्माइल फिल्म को प्रेम पथ पर ले जाती है. उनकी व पत्‍नी की भूमिकाएं कहानी को जज्बात से जोड़ जाती हैं.जिसका बेहतरीन साथ गाने एवं संगीत ने दिया है.प्रियंका की मौत की ख़बर पर सुशांत की प्रतिक्रिया कहानी को भावनात्मक चरम बिंदु देती है.

फिल्मकार चूंकि बॉयोपिक बना रहे थे इसलिए भाषा-परिवेश का पुट देना ज़रूरी था.नीरज इसे बिहार-झारखंड अनुरूप रखने में सफल रहे हैं. फिल्म को स्थानीयता देने के लिए यह लाजिमी था. इलाके की ज़बान की बारीकियों को डायलॉगस एवं....कपार पर मत चढ़ने देना,दुबरा गए हो ,सिंघाडा जलेबी ..जैसे स्थानीय शब्द व पदो के इस्तेमाल में महसूस किया जा सकता है. बिहार- झारखंड के दर्शक फिल्म में खासा अपनापन पाएंगे.कुछ पलों के लिए ही सही उन्हें'एम एस धौनी'को सेलेब्रेट करने दें..महिया मार रहा..क्या खूब खेल रहा.




धोनी के मौन सन्यास पर फिल्म भी मौन है!

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धोनी कई बार पॉल कोएलो के उपन्यास 'अलकेमिस्ट'के नायक की तरह लगता है, जिसने सपने देखे और उनको हकीकत में बदल दिया। "एमएस धोनी-अनटोल्ड स्टोरी"उसी नायक की कहानी है। नीरज पांडे के इस बायोपिक पर आज नवल किशोर व्यासका लेख- मॉडरेटर 
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धोनी पर बनी फिल्म देखनी ही थी। काफी इंतजार था। हॉल में धोनी धोनी चिल्लाने वालो में से एक में भी था। वैसे पसंद शुरू से सचिन था और लगता था कि जिस दिन ये खेल छोड़ेगा, रो दूंगा पर हो गया उल्टा। सचिन की एक्शन-इमोशन-ड्रामा वाली फेयरवेल के बावजूद केवल दुखी हुआ पर ये मन रोया धोनी के मौन संन्यास पर। उस दिन मौन का जादू सर चढ़ के बोला। पांच दिन तक व्हाट्स एप पर धोनी की फोटो लगा स्टेट्स लिखा था- अभी ना जाओ छोड़ के, कि दिल अभी भरा नही। पर उसे किसकी सुननी थी जो मेरी सुनता। ये कब साला चुपचाप घुसपैठ कर गया, पता ही नही चला। धोनी-अनटोल्ड स्टोरी को केवल धोनी से प्रेम और पागलपन की वजह से देखना हो तो ये फिल्म उम्दा है, बेहतरीन है पर मेरी तरह धोनीप्रेमिल होने के बाद भी दिमाग लगाओगे तो ज्यादा मजा नही आयेगा।
धोनी शायद नीरज पांडे की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म हैं। ये फिल्म उनके मिजाज के अनुरूप थी भी नही। फिल्म को लेकर उनका ट्रीटमेंट भी बेहद साधारण है। इसे साधारण बनाना था या साधारण बन गया, ये भी एक विषय है। बॉयोपिक बनाना वैसे कभी आसान नही होता वो भी तब जब आपको कल्पना की उड़ान उड़ाने का मौका नही मिलने वाला हो। बॉयोपिक को जीवनी की तरह पर्दे पर देखने में कोफ्त होती है और धोनी को देखते समय ये कोफ्त बार-बार हुई। नीरज पांडे ने धोनी को और उस पर लिखी स्क्रिप्ट को बहुत सतही रूप में लिखा हैं। धोनी का बचपन और उसकी गैर जरूरी लाइफ सेट करने में काफी फिल्म बर्बाद की। असमंजस और संघर्ष हर स्पोर्ट्समैन की लाइफ में होता है। इस साधारण संघर्ष ने धोनी को धोनी नही बनाया। धोनी का असली संघर्ष कुछ और था। उसकी उम्र के युवराज, कैफ, दिनेश मोंगिया का टीम में होना और उसका इन बेहद जरूरी समय में टीसी की नौकरी करना और एक मध्यमवर्गीय पिता की इच्छा के लिए जीवन सिक्योर करना या खुद के सपनो की और देखने का असमंजस ही फिल्म का मूल था। फिल्म का ये हिस्सा ही फिल्म का और धोनी के व्यक्तिगत जीवन का बेस्ट पार्ट है। धोनी का एकांत भी धोनी के व्यक्तित्व का खास हिस्सा है। हर टूटन पर उसका एकांत में जाना और खुद में समाना बेहद अपीलिंग है। धोनी में ना तो सचिन, द्रविड़ और विराट जैसी शास्त्रीय प्रतिभा मौजूद थी और ना विकेटकीपर के तौर पर वो असाधारण था। असाधारण है उसकी मजबूत मानसिक दृढ़ता और हर स्थिति में सहज रहने की जीवटता। फिल्म उसके व्यक्तित्व के इस हिस्से को जब-जब मुखर करती है, आनंद देती है।
अच्छे किरदार की समस्या होती है कि आप इन्हें देखकर इससे दूर नही भाग सकते। आनंद लेकर फ्री नही हो सकते। ये आपके दिलो दिमाग में घूमता रहता है कुछ दिन तक, कई बार बहुत दिनों तक। आपको बार-बार खुश करने, दुःखी करने, सोचने-विचारने, खुद से जोड़ने को, लगातार। फिल्म का वो हिस्सा अब भी साथ है जब टीसी की नौकरी करते परेशान धोनी स्टेशन की बेंच पर अपने बॉस से दिल की बात कहता हैं। उसकी समस्या मेरे जैसे बहुतो की है। हम लाइफ में करना कुछ और चाहते है और कर कुछ और रहे होते है। बहुत कम होते है जो एक्चुअल में वही करते है जो उन्हें करना होता है। बॉस का जवाब भी प्यारा है- लाइफ बाउंसर मारे तो डक करके बचो और जब फुलटॉस आये तो घुमा के मारो। दोस्तों के साथ क्रिकेट देखते अचानक उठकर रसोई में जाकर चाय बनाने के एक दृश्य ने वो कह दिया जो डायलॉग ने नही कहा। रूटीन लाइफ की आपाधापी में किसी के सपनो का सुसाइड करना आम है। लाइफ की इस क्रूरता पर बात होनी चाहिए। धोनी का बेंच पर अकेले बारिश में बैठने का दृश्य फिल्म का सार है, बाकी सब रचा और कहा सबने देखा-जाना हुआ है। फिल्म धोनी ने बताया कि असफल होना, रिजेक्ट होना, टूटना भी जीवन का एक भाव है। इसका आनंद भी जरूरी है। इस आनंद से निकला ही धोनी जितना निर्मोही हो सकता है।
कहानी जब बॉयोपिक हो तो फिर व्यक्तिगत कहानी के मायने भी सार्वजनिक हो जाते है। व्यक्तिगत तहें बार-बार सार्वजनिक बन आपके भीतर दस्तक देते रहते है इससे पहले भी दशरथ मांझी के बायोपिक ने हिलाया था। पिंक ने भी, जो बायोपिक नही होकर भी देश की हर उस लड़की का बायोपिक है, उसके भीतर का मोनोलॉग है, जो अपने तय किये व्याकरण के साथ इस थोपे हुए समाजवाद में जीना चाहती है। सिनेमा कई बार चमत्कार सा हमारे सामने आता है तो बहुत बार ये भी होता है कि ये आइने सा, हमारी ही जिंदगी बनकर हमसे मिलता है। मांझी और धोनी इसी मायने में खास हैं। ये हमारे सपनो, हमारी असफलताओं, हमारी जिद, हमारे हौंसलो, हमारे एकांत, हमारी उम्मीदों और हमारी पीड़ाओं की कहानी है। दोनों ही के व्यक्तिगत राग-द्वेष आगे चलकर सार्वजनिक कपाट खोलते है। दोनों किरदारों की कहानी आम से खास बनने की है। धोनी की कहानी सपने को हकीकत में बदलने की जिद की कहानी है तो मांझी की कहानी हकीकत को सपने की तरह दिखने की कहानी है। अजीब संयोग है कि दोनों ही किरदार बिहार(धोनी का झारखंड उस समय का बिहार) की पृष्ठभूमि से हमारे सामने आये है।
धोनी के बारे में क्रिकेट की एक घटना और मूव सभी को आज तक याद है। 2011 के वर्ल्ड कप फाइनल में रन चेस करते हुए लगभग 150 के स्कोर पर जब विराट के रूप में तीसरा विकेट भारत खोता है तो इन फॉर्म युवी की जगह मैदान पर अप्रत्याशित रूप से धोनी खुद उतरता है। उस युवी की जगह जो उस वर्ल्ड कप में अपने उतराव से पहले का अभूतपूर्व शिखर लिख रहा था। धोनी पूरे वर्ल्ड कप में डांवाडोल था, विकेटकीपिंग और बेटिंग दोनों से। धोनी आता है और हार की तरफ बढ़ते मैच को छीनकर लाता है। विजयी छक्का लगा कर एक अमिट याद, एक दिलकश हँसी और एक कभी न भूलने वाला लम्हा हम भारतीयों को देता है और अपने मिजाज के अनुसार पीछे मुड़कर चुपचाप स्टंप उठाने लग जाता है। ये मिजाज और तेवर ही धोनी को धोनी बनाता है। निर्मोही धोनी। भगवान की स्क्रिप्ट भी लिखी होती है। सचिन सचिन ही पैदा होते है। नियति महानता का सर्वनाम कइयों के साथ लाती है तभी सब कुछ स्क्रिप्ट सा होता जाता है। 16 साल की उम्र से खेलना शुरू कर दशकों तक राज करना पर दूसरी और धोनी को धोनी बनने में जोर आता है। इस फिल्म ने मानसिक मजबूती दी है असफलता का आनन्द लेने की। इसने बताया कि असफलता और रिजेक्शन बुरा नही, इसका नशा भी जरूरी है। टूटना जरूरी है, उठने के लिए, सफलता में धोनी जैसे निर्मोही बनने के लिए। अथ श्री धोनी कथा। जय हो।


शाज़ी ज़माँ का 'अकबर'

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अकबर भारतीय इतिहास के सबसे बड़े नायकों में एक हैं. उनके ऊपर पहला उपन्यास आ रहा है- 'अकबर'. लिखा है शाज़ी ज़माँने. प्रकाशक है राजकमल प्रकाशन. आज जानकी पुल के पाठकों के लिए उसका एक अंश- मॉडरेटर
यह उपन्यास  लेखक ने कल्पना के बूते पर नहीं, बाज़ार से दरबार तक के ऐतिहासिक प्रमाण के आधार पर रचा है। बादशाह अकबर और उनके समकालीन के दिल , दिमाग़ और दीन को समझने के लिए और उस दौर के दुनियावी और वैचारिक संघर्ष की तह तक जाने के लिए शाज़ी ज़माँ ने कोलकाता के इंडियन म्यूज़ियम से लेकर लंदन के विक्टोरिया ऐल्बर्ट तक बेशुमार संग्रहालयों में मौजूद अकबर की या अकबर द्वारा बनवायी गयी तस्वीरों पर ग़ौर किया, बादशाह और उनके क़रीबी लोगों की इमारतों का मुआयना किया और 'अकबरनामा’ से लेकर ‘मुन्तख़बुत्तवारीख़’ , 'बाबरनामा’, ‘हुमायूंनामाऔर 'तज़्किरातुल वाक़यात' जैसी किताबों का और जैन और वैष्णव संतों और ईसाई पादरियों की लेखनी का अध्ययन किया। इस तरह बनी और बुनी दास्तान में एक विशाल सलतनत और विराट व्यक्तित्व के मालिक की जद्दोजहद दर्ज है । ये वो शख़्सियत थी जिसमें  हर धर्म को अक़्ल की कसौटी पर आँकने के साथ साथ धर्म से लोहा लेने की भी हिम्मत थी । इसीलिए तो इस शक्तिशाली बादशाह की मौत पर आगरा के दरबार में मौजूद  एक ईसाई पादरी ने कहा : "ना किसी को पता किस दीन में जिए, ना किसी को पता किस दीन में मरे"। 
उपन्यास राजकमल प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य है. अभी amazon.in पर इसकी प्री बुकिंग चल रही है.



अभी महाराणा प्रताप सिंह को लगभग साल भर पहले ही बहुत अजीबो ग़रीब हालात में मेवाड़ का सिंहासन मिला था। रिवायत थी कि मेवाड़ का सिंहासन कभी ख़ाली नहीं रहता था। इसलिए मातम राजपुरोहित के घर पर होता था और उस वक़्त महल को सजाया जाता था। राजा के अंतिम संस्कार में सबसे बड़ा बेटा शामिल नहीं होता था। शव यात्रा के निकलते ही उसे राजगद्दी पर बिठा दिया जाता। महाराणा प्रताप सिंह के पिता उदय सिंह ने अट्ठारह शादियां की जिससे उनको चौबीस बेटे और बीस बेटियां हुईं। जब उदय सिंह के अंतिम संस्कार में उनका बेटा जगमल नहीं दिखा तो भेद खुला कि राणा ने अपने बड़े बेटे प्रताप की जगह उस बेटे को राजगद्दी दे दी जो वारिसों की फ़हरिस्त में नौंवी जगह पर थे।
राणा प्रताप सिंह का साथ देने वालों ने कहा, ‘‘सबसे बड़े, सब से हक़दार और सब से बहादुर प्रताप सिंह को किस कुसूर से ख़ारिज समझा जाए? बादशाह अकबर जैसा दुश्मन सर पर लगा हुआ है, चित्तौड़ टूट रहा है, मेवाड़ उजड़ रहा है। अब ये घर का बखेड़ा भी खड़ा हो गया तो बर्बादी में क्या शक है?’’
जब प्रताप सिंह के समर्थक अंतिम संस्कार के बाद महाराणा के महल पहुंचे तो देखा कि जगमल राजगद्दी पर बैठे हैं। उन्होंने हाथ पकड़ कर जगमल को राजगद्दी से उतारा और उस जगह पर बिठा दिया जहां महाराणा के भाई बैठते हैं। राजगद्दी खाली हो गई और प्रताप सिंह को वहां बिठा दिया गया।
सुना है जड्डा नाम के चारण ने अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ानां की तारीफ़ में चार दोहे लिख कर भेजे। जड्डा ने अचंभित होकर ख़ानेख़ानां से पूछा कि किस तरह से मेरु पर्वत के समान मन को कोमल देह में रचा गया है। जड्डा की कविता में ख़ानेख़ानां आश्चर्य से कहते हैं कि जल जैसे कोमल मन वाला मनुष्य जलता है और तिनके जैसे रूखे मन वाला मनुष्य जलता नहीं; वो कहते हैं कि ईश्वर को ना मेरु पर्वत जैसे दृढ़ मन की ज़रूरत है, ना मणि की और ना मनके की; वो तो संपूर्ण समर्पण चाहता है और ब्रह्माण्ड को प्रेम की आग में जलाता है; धन्य है उसका आदमी बनाने का तरीक़ा।

‘‘ख़ानख़ाना नवाब हो, मोहिं अचंभो अेह।
मायो किमि गिरि मेरुमन, साढ़ तिहस्सी देह।।
ख़ानख़ाना नवाब रे, खांड़े आग खिवंत।
जलवाला नर प्राजलै, तृणवाला जीवंत।।
ख़ानख़ाना नवाबरी, आदमगीेरी धन्न।
मह ठकुराअी मेरु-गिरि मनी न राअी मन्न।।
ख़ानख़ाना नवाबरा, अड़िया भूज ब्रह्मंड।
पूंठे तो है चंडिपुर धार तले नवखंड।।’’

ख़ानख़ाना ने ख़ुश हो कर हर दोहे पर एक लाख रुपये देना चाहा लेकिन जड्डा ने गुज़ारिश की कि जहाज़पुर का परगना जगमल को दे दिया जाए। कहते हैं कि ख़ानख़ाना ने अपने रसूख़ का इस्तेमाल करके जड्डा की ख़्वाहिश पूरी की और ये दोहा लिख कर भेजा -
‘‘धर जड्डी अंबर जड़ा, जड्डा महडूं जोय।
जड्डा नाम अलाहदा, और न जड्डा कोय।।’’

शाज़ी ज़माँ

चाहे जगमल को जहाज़पुर का परगना मिल गया हो  लेकिन मेवाड़ में तो महाराणा प्रताप सिंह का दौर शुरु हो गया। जिस वक़्त महाराणा प्रताप सिंह राज गद्दी पर बैठे, चित्तौड़ की हार यादों में बहुत ताज़ा थी।

लगभग चार बरस पहले बारहवें इलाही सन् के आखि़र में, बमुताबिक़ 23फ़रवरी 1568ईसवी, मंगल के दिन, चित्तौड़ के मज़बूत क़िले ने बादशाह सलामत की फ़ौज के सामने घुटने टेक दिए। इस से एक रात पहले ही क़िले की दीवार को जगह जगह से भेदा जा चुका था लेकिन चित्तौड़ की फ़ौज अभी तक शाही फ़ौज को रोक पा रही थी। रात के अंधेरे में गोलाबारी की लपक में जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर ने हज़ार मेख़ी  पहने एक शख़्स को उस मोर्चे पर देखा जहां दीवार भेद दी गई थी। बादशाह सलामत ने अपनी पसंदीदा बंदूक़ संग्राम को उठाया। उन्हें बंदूक़ों का बहुत शौक़ था। न सिर्फ़ वो बेहतरीन निशानेबाज़ थे बल्कि उनके ईजाद किए गए तरीक़े से इतनी मज़बूत बंदूकें़ बनीं कि पूरी भरी होने पर भी उनके फटने का अंदेशा नहीं रहा। अब बंदूक़ों को चलाने के लिए आग देने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। सिर्फ़ बंदूक़ के घोड़े की हल्की सी हरकत ही काफ़ी थी। बादशाह सलामत हज़ारों बंदूक़ों में से एक हज़ार पांच बंदूक़ों को अपने ख़ास इस्तेमाल के लिए चुनते थे। इन ख़ासा  बंदूक़ों में भी संग्राम सबसे ख़ास थी। ये उनकी पहली ख़ासा बंदूक़ थी। इसे वो जंग के साथ साथ शिकार पर भी ले जाते थे। चूकि बादशाह सलामत के हुक्म से हर बंदूक़ से हुए शिकार का हिसाब रखा जाता था, इसलिए ये पाया गया कि अकेले संग्राम से एक हज़ार उन्नीस जानवर शिकार हुए।
अब जब बादशाह सलामत ने संग्राम से गोली चला दी तो राजा भगवंत दास से कहा, ‘‘जब निशाना सही लगता है तो अच्छा शिकारी जान लेता है।’’
अभी घंटा भर भी नहीं हुआ कि चित्तौड़ की फ़ौज ग़ायब हो गई और क़िले में कई जगहों से आग की लपटें उठने की ख़बर आई। अभी दरबारी क़यास लगा ही रहे थे कि राजा भगवंत दास ने कहा, ‘‘ये जौहर है। जब हार तय होती है और मर्द मारे जाते हैं तो औरतें संदल, सूखी लकड़ी और तेल की चिता में समा जाती हैं।’’
सुबह होते होते पता चल गया कि बादशाह सलामत की संग्राम ने चित्तौड़ के क़िलेदार जयमल को निशाना बनाया लिया था। चार महीने के घेराव के बाद अब जाकर चित्तौड़ का क़िला बादशाह सलामत के क़दमों में आ गया। वो हाथी पर सवार हो कर क़िले में दाखि़ल हुए। शाही फ़ौज के लगभग तीन सौ हाथी भी क़िले में घुसे। बादशाह सलामत की नज़र के सामने हाथी ने चित्तौड़ के जांबाज़ पत्ता को कुचल दिया। इस हाल में भी एक राजपूत ने शाही लश्कर के मधुकर हाथी की सूंड पर हमला किया और कहा, ‘‘बादशाह सलामत को मेरा सलाम कहना।’’
भोर से लेकर दोपहर तक क़त्ले आम हुआ। लगभग तीस हज़ार लोग मारे गए। ऐसे मौक़ों के लिए अख़्लाक़े नासिरी में जो कहा गया था वो बादशाह सलामत को ख़ूब याद था।
‘‘फ़तह के बाद भी तदबीरें नहीं छोड़नी चाहिए, ना ही सूझबूझ में कोई कमी आनी चाहिए। लेकिन जहां तक हो सके, जो ज़िंदा पकड़ा जा सके, उसे मारना नहीं चाहिए क्योंकि कै़द में लेने के कई फ़ायदे हैं। जैसे बंधक बनाना, फ़िरौती वसूल करना, किसी पर एहसान कर देना। मारने के कोई फ़ायदे नहीं हैं। फ़तह के बाद किसी को मारना नहीं चाहिए। ना ही कोई दुश्मनी या भेदभाव रखना चाहिए क्योंकि फ़तह के बाद दुश्मन की हालत गुलाम या रिआया की है। बताया जाता है कि जब सिकंदर ने एक शहर पर क़ब्ज़ा कर के बेहिसाब क़त्ले आम किया तो अरस्तू ने डांट कर ख़त लिखा, ‘फ़तह से पहले दुश्मन को मारने की बात समझ में आती है। फ़तह के बाद अपनी रिआया को मारने की क्या तुक है।बादशाहों की माफ़ी औरों की माफ़ी से बड़ी है। ऐसे वक़्त पर माफ़ करना क़ाबिले तारीफ़ होता है जब माफ़ नहीं भी किया जा सकता था।’’
बादशाह सलामत के दौर की तारीख़ लिखने वाले शेख़ अबुल फ़ज़ल ने कहा, ‘‘पिछली बार 703हिजरी के मुहर्रम  की तीन तारीख़ को जब सुलतान अलाउद्दीन ने इस क़िले पर छह महीने और सात दिन के बाद क़ब्ज़ा किया तो किसानों को मौत के घाट नहीं उतारा गया क्योंकि उन्होंने जंग में हिस्सा नहीं लिया था लेकिन इस बार इस क़त्ले आम की वजह है कि किसानों ने बहुत जोश से हिस्सा लिया।’’
चित्तौड़ की लड़ाई बादशाह सलामत ने ख़ुद लड़ी थी। इस थका देने वाली मुहिम के दौरान बादशाह सलामत ने बहुत नुक़्सान उठाया था। बारहवें इलाही सन् बमुताबिक़, 1567की 20अक्तूबर को, चित्तौड़ के क़िले के पास शाही ख़ेमा लगा था। जिस पहाड़ी पर चित्तौड़ का क़िला था, उसके दो कोस के घेरे का जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर ने अगले ही रोज़ चक्कर लगाया। महीने भर के अंदर पूरी घेराबंदी कर दी गई। जब सीधे चढ़ाई के कोशिश में शाही फ़ौज के लोग मारे जाने लगे तो बादशाह सलामत ने इस की मनाही कर दी और कहा, ‘‘ये बहादुरी नहीं है। उतावलापन है।’’
इसके बाद हुक्म हुआ कि तीन जगहों पर बारूद बिछाने की ऐसी तरकीब निकालें कि क़िले की दीवार में सेंध लगाई जा सके, और दो जगहों पर पहाड़ में से ऐसा रास्ता बने जो सीधे क़िले तक जाए। पांच हज़ार कारीगर सबात बनाने में जुट गए, जो ऐसा घिरा हुआ रास्ता था कि इससे फ़ौज क़िले के पास पहुंच कर दीवार में सेंध लगा सकती थी। क़िले के अंदर से हमले होते रहे और रास्ता बनाने की कोशिश में हर रोज़ दो सौ लोगों की जान जाती रही। मज़दूरों पर सोना चांदी लुटाया गया और सबात तेज़ी से बनता गया। बादशाह सलामत के हुक्म से बारूद भी आगे बढ़ता गया।
क़िले के अंदर के राजपूतों में इन हालात को देखकर खलबली मच रही थी। ख़ुद महाराणा इस वक़्त क़िले में मौजूद नहीं थे। बादशाह सलामत के आने की ख़बर सुनने के बाद उन्होंने जयमल को क़िले की ज़िम्मेदारी दी और अपने ख़ानदान और पांच हज़ार राजपूतों के साथ पहाड़ी इलाक़ों में छुप गए। इस पूरी जंग के दौरान वो आसपास नहीं आए।
अब सुलह के लिए चित्तौड़ के क़िले के अंदर से दो राजपूत सरदारों को बादशाह सलामत के पास भेजा गया।

चालीस गज़ ऊंचे आकाशदीए से चित्तौड़ के इलाक़े में दूर दूर तक लोगों को शाही मौजूदगी का एहसास हो रहा था। लोग इसकी लौ को देखते और कहते, ‘‘अकबर चा दीवा ।’’
चित्तौड़ के क़िले से आए रावत साहिब ख़ान चौहान और डोडिया ठाकुर सांडा ने बादशाह सलामत से कहा, ‘‘महाराणा तो पहाड़ों में चले गए। जो क़िले में बचे हैं उनका कोई कुसूर नहीं है। क़िले का घेरा उठा लें क्योंकि पहले से बादशाहों का यही दस्तूर है कि पेशकश पाने पर मेहरबानी करते हैं।’’
जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर ने राजपूत सरदारों की बात को सुना और कहा, ‘‘राणा के आए बग़ैर लड़ाई नहीं रुकेगी। इसके सिवाय जो चाहे मांगो।’’
डोडिया ठाकुर सांडा ने कहा, ‘‘अब हम को और क्या ज़रूरत है जो मांगे। जो आप हुक्म देते हैं तो केवल इतना चाहता हूं कि अगर लड़ाई में मारा जाऊं तो मेरी लाश हिंदू रीति से जलवा दी जाए।’’
बादशाह सलामत ने इस बात को मंजूर किया और एक बड़े हमले की तैयारी कर ली। लेकिन ये हमला उनके लिए अफ़सोस की बहुत बड़ी वजह बन गया।



पुस्तक का नाम : अकबर (उपन्यास)
लेखक : शाज़ी ज़माँ
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
कीमत : 350 रुपए [ पेपरबैक संस्करण ] 
       799 रुपए [ सजिल्द संस्करण ]
amazon.in पर प्री बुकिंग 5 नवम्बर तक




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