Quantcast
Channel: जानकीपुल
Viewing all 596 articles
Browse latest View live

सिनेमा में करुण रस क्या होता है?

$
0
0
युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीरइन दिनों रस सिद्धांत के आधार पर विश्व सिनेमा के अध्ययन में लगे हैं. उनका यह लेख इस बात को लेकर है कि करुण रस दुनिया भर की फिल्मों में किस तरह अभिव्यक्त हुआ है. अंतर्पाठीयता का एक बेजोड़ उदाहरण- मॉडरेटर.
======================================

इस लेखमाला में अब तक आपने पढ़ा:
1.                  हिन्दी फिल्मों का सौंदर्यशास्त्र - http://www.jankipul.com/2014/06/blog-post_7.html
2.                  भारतीय दृष्टिकोण से विश्व सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र - http://www.jankipul.com/2014/07/blog-post_89.html
3.                  भयावह फिल्मों का अनूठा संसार - http://www.jankipul.com/2014/08/blog-post_8.html
4.                  वीभत्स रस और विश्व सिनेमा - http://www.jankipul.com/2014/08/blog-post_20.html
5.                  विस्मय और चमत्कार : विश्व सिनेमा में अद्भुत रस की फिल्में - http://www.jankipul.com/2014/08/blog-post_29.html
6.                  विश्व सिनेमा में वीर रस की फिल्में - (भाग- ) http://www.jankipul.com/2014/09/blog-post_24.html,
7.                  विश्व सिनेमा में वीर रस की फिल्में -(भाग २) : http://www.jankipul.com/2014/10/blog-post_20.html
8.                  शोक, पीड़ा, और कर्त्तव्य: विश्व सिनेमा में करूण रस की फिल्में (भाग- ) : http://www.jankipul.com/2014/11/blog-post_12.html
भारतीय शास्त्रीय सौंदर्यशास्त्र के दृष्टिकोण से विश्व सिनेमा का परिचय कराती इस लेखमाला की नौवीं कड़ी में कारूण्य रस की विश्व की महान फिल्में -
**************

शोक, पीड़ा, और कर्त्तव्य: विश्व सिनेमा में करूणरसकी फिल्में (भाग- २)


(पिछले अंक से आगे ...)

धन का नाश होना शोक का कारण है। किन्तु प्रश्न यह उठता है कि धन क्या है। कितना खो जाना शोक का कारण हो जाता है? इस संदर्भ में संस्कृत सुभाषितानि का एक श्लोक है:
सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्मर्धं त्यजति पण्डित:
अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हि दु:सह:
अर्थात् जब सर्वनाश निकट आता है, तब बुद्धिमान मनुष्य अपने पास जो कुछ है उसका आधा गँवाने की तैयारी रखता है। आधे से भी काम चलाया जा सकता है, परंतु सब कुछ गँवाना बहुत दु:खदायक होता है।
फिल्म इतिहास में Bicycle Thieves (Ladri di biciclette – 1948) अक्सर दुनिया की महानतम फिल्मों में गिनी जाती है। इस फिल्म में इटालियन नियो-रियलिज्म को पुख्ता किया। यह कहानी है द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बेरोजगार आदमी की जिसे सरकार की तरफ से नौकरी मिलती है फिल्मों के पोस्टर लगाने की। यह नौकरी उसके दो बच्चों, बीवी और खुद का पेट पालने के लिये बहुत जरूरी है, लेकिन अड़चन ये है कि उसके पास एक साइकिल नहीं है। घर के चादर बेच कर मियाँ बीवी एक पुरानी साइकिल खरीदते हैं। जब बाप-बेटे काम पर जाते हैं, तब थोड़ी ही देर में उनकी साइकिल चोरी हो जाती है। पूरी फिल्म में, गरीब आदमी की एकमात्र पूँजी और जीने का सहारा, एक पुरानी साइकिल की खोज के बारे में है। मुझे आज भी याद है कि जब पहली बार ये फिल्म हमारे हॉस्टल में फिल्म सोसाइटी ने दिखायी थी, एक ऐसा लड़का न था जो फिल्म के आखिरी दृश्य को देख कर रो नहीं रहा था। मैं ये कहना चाहूँगा कि साधन रहते हुये, जिसने यह फिल्म नहीं देखी है, या तुरंत देखने की ललक नही रखता वह सिनेमा का प्रेमी नहीं हो सकता। Vittorio De Sica (1901- 1974)  की ही अगली फिल्म Umberto D. (1951) एक बूढे आदमी और कुत्ते के घर से बेदखल होने जाने की करूण कहानी है। यह फिल्म बर्गमैन की पसंदीदा फिल्मों में एक थी।
महान स्पेनी निर्देशक Luis Buñuel (1900- 1983) की मेक्सिकन फिल्म Los Olvidados (1950) कई महान लेखकों (जैसे कि नोबल पुरस्कार विजेता मारियो वर्गास लोसा) की पसंदीदा फिल्म है । ये गरीब लड़कों की दुष्टता, एक अंधे भिखारी की पिटाई और उसके शैतानियों का ऐसा चित्रण किया जैसा कि आमतौर पर देखने को मिलता है, जिसे हम वास्तविकता का नाम देते हैं। इस फिल्में में अनैतिकता, छोटी पूँजी का नाश, मृत्यु- हर तरह का शोक मौजूद है। गरीब और अनाथ होने के साथ जो कई तरह की बुराईयाँ साथ आ जाती हैं, उनका ये बेजोड़ चित्रण है। लुइस बुनुएल की महान फिल्मों के साथ यह समस्या रही है कि उनकी महान फिल्में जैसे कि Viridiana (1961), Tristana (1970), The Discreet Charm of the Bourgeoisie (1972), The Phantom of Liberty (1974), That Obscure Object of Desire (1977) - किसी एक प्रमुख रस पर आधारित न हो कर कई सारे भावों और रसों का समन्वय हुआ करती हैं। मेरा मानना है कि लुइस बुनुएल फिल्मों के माध्यम से अपने विचार रखने में, लोगों को कला के दम पर सोचने पर मजबूर करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते थे। उनके लिये अनुभूति आवश्यक तो थी पर उत्पन्न अनुभूति यह चाहती थी कि बुद्धि संदेश जल्दी से जल्दी ग्रहण करे। फिल्मों में जितनी विविधता बुनुएल ने अपने लम्बे कैरियर में दी, उतनी विशाल और महान विविधता शायद ही किसी और निर्देशक ने दी है। उन्होंने कभी अपने फिल्मों का प्रचार प्रसार नहीं किया। कभी उसकी महत्ता नहीं समझायी। जब उन्हें अॉस्कर अवार्ड लेने के लिये बहुत दबाव डाला गया तो अपने अंदाज में उन्होंने बड़े धूप के चश्में पहने, औऱ एक विग लगा कर अवार्ड स्वीकार किया।

फेडरिको फेलिनी (1920-1933), जिन्होंने कैरियर के शुरूआत में रॉबर्टो रोसेलिनी के सहायक के रूप में की, बाद में दुनिया के महान निर्देशकों में एक कहलाये। फिल्म 8 1/2(1963) इनके कैरियर की महान फिल्म थी जो उनके काम के बीच में भी गहरा विभाजन करती है। इससे पहले की महान फिल्में जैसे कि I Vitelloni (1953), La Strada (1954),  Nights of Cabiria (1957), La Dolce Vita (1960) जो कि समाज की विसंगतियाँ और करूण कहानियाँ थी, और कैरियर के दूसरे भाग में उन्होंने Satyricon (1969), Amarcord (1974), जैसी फिल्में बनायीं जिसमें स्वप्न जैसे दृश्य, स्मृतियाँ, संगीत, समारोह प्रमुख होते गये। कैरियर के अंत में उनका सम्मान बहुत हद तक कम गया। जिस तरह लोग देव आनंद साहेब की बेकार फिल्मों को भी केवल आदर दे कर नजरअंदाज कर देते थे, कुछ-कुछ उसी तरह उनकी बाद की फिल्मों को लोगों ने नजरअंदाज करने लगे थे।
इनकी दो फिल्में La Strada (1954) और Nights of Cabiria (1957) करूण रस की दृष्टि से महान फिल्में हैं। ये दोनों ही फिल्में नायिका प्रधान हैं जिसमें फेलिनी की पत्नी Giulietta Masina ने अभिनय किया था। दोनों फिल्मों को विदेशी फिल्मों के लिये ऑस्कर अवार्ड मिला था। फिल्म Nights of Cabiria (1957) ही वो फिल्म थी जिसने महबूब खान की मदर इंडिया को एक वोट से ऑस्कर अवार्ड मिलने से रोक दिया था। इस फिल्म के लिये जिउलिटा मसीना को कान फिल्म फेस्टिवम में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब मिला था। नीना रोटा के करूण संगीत से सजी दोनों फिल्म असहाय और गरीब औरत की कहानी है। फिल्म La Strada में नगर-नगर घूम के तमाशा दिखा कर पैसे कमाने वाला बलशाली आदमी 'जम्पानो'एक बेहद गरीब औरत से उसकी जवान बेटी खरीद लेता है, जिसकी बड़ी बहन उसकी पहली पत्नी थी, जो किसी तरह मर गयी थी। रोती हुयी गरीब औरत अपनी बेटी 'जेल्सोमिना'को बेचते हुये कहती है कि इससे उसे एक कम आदमी के लिये खाना बनाना पड़ेगा। ये गरीब लड़की मार खा कर तमाशा करना सीखती है, लेकिन चोरी बेईमानी, खून खराबे से दूर रहना चाहती है। ठीक इससे उलट स्वाभाव के अपने दुष्ट जीजा को अपना मर्द मानने लगती है। फिल्म में 'नीना रोटा'का संगीत अविस्मरणीय है। इस फिल्म को बनाते हुये आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुये फेलिनी का नर्वस ब्रेकडाउन हो गया था। शुरू में इस फिल्म को आलोचकों ने बकवास करार दिया। आज इसे दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों मे गिना जाता है। फिल्म की नायिका मसीना को दुनिया के कोने-कोने से हजारों ऐसी बेसहारा औरतों के खत मिलें जिसमें लिखा था कि उनके मर्द जो उन्हें छोड़ गये थे, इस फिल्म को देख कर वापस लौट आये। सिनेमा के ऐसे चमत्कार का लेखा-जोखा कौन रखता है? लोग को सच्चाई का रास्ता दिखाना कला की सबसे बड़ी ताकत है। फिल्म Nights of Cabiria द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक वेश्या 'कैबिरिया'की कहानी है, जिसके कमाये पैसे उसके पुरूष दोस्त चोरी कर के उसे मरने के लिये छोड़ देना चाहते हैं। भोली भाली, और दिल की बेहद अच्छी कैबिरिया का इस्तेमाल एक जादूगर अपने शो में करता है, जब वो उसे सम्मोहित कर के दुनिया के सामने उसकी भावनाओं का मजाक उड़ाता है कि वो भी किसी प्रेम करना चाहती है, घर बसाना चाहती है। लोग कैबिरिया पर हँसते हैं मानों कि किसी वेश्या को सपने देने का कोई हक नहीं, कोई चाहत रखने का हक नहीं। रातों को घूमते हुये कैबिरिया की मुलाकात शमशान के पास जमीन के खोह में रहने वाली बूढी फटेहाल वेश्याओं से भी होता है जिनके पास कभी ढाई किलो का सोना हुआ करता था, औऱ जो अब दो वक्त के रोटी के लिये भी किसी की दया पर निर्भर हैं। दोनों फिल्में अपने महान अंत के दृश्यों के लिये याद की जाती है।
अमेरिकी निर्देशक Elia Kazan (1909- 2003) की प्रसिद्ध नाटक के नाम पर ही बनी फिल्म A Street Car Named Desire (1951) में एक शराब की लत की मारी युवावस्था की ढलान पर खोयी सी 'ब्लैंच'को घोर गरीबी में अपनी बहन और उसके पति के घर शरण लेनी पड़ती है। दिखावटी अमीरी में वह कई अपमान को सहती रहती है। फिल्म के अंत में नर्वस ब्रेकडाउन के बाद जब अधिकारी उसे लेने आते हैं, तब पगलायी सी 'ब्लैंच'दयालु अधिकारी के बढ़ाये हुये हाथ को थाम कर कहती है - आप जो भी हैं, मैं हमेशा अजनबियों के दया पर निर्भर रही हूँ।"यह शोक है, करूणा है, विषाद का प्रलाप है कि धनहीन अवस्था में कैसी दयनीय हालत हो जाती है। वूडी एलेन की बहुचर्चित फिल्म Blue jasmine (2013) की ठीक ऐसी ही कहानी थी।
बिली वाइल्डर की फिल्म Sunset Boulevard (1950) में मूक फिल्मों के ज़माने की एक अभिनेत्री का जीवन है, जो फिल्मों से रिटायर हो चुकी है और अब वापस हॉलीवुड में बतौर अभिनेत्री आना चाहती है। किसी सफल अभिनेत्री के यश छीन जाने के बाद उसकी लालसा का इसमें करुण चित्रण है. इस फिल्म का अंत भी बेहद मार्मिक और अविस्मरणीय है।
कल्पना कीजिये कोई धरती के सबसे बड़े भूभाग का राजा हो, सम्राट हो, औऱ उसकी सारी जायदाद छीन कर उसे जेल में डाल दिया जाये। जेल से छूटने पर जिसे माली का काम करना पड़े, जिसके इशारे पे कई लोगों के सर कलम हो सकते थे। ऐसी कहानी थी इटालवी निर्देशक Bernando Bertullocci (जन्म 1941) की महान फिल्म The Last Emperor (1987), जिसे नौ ऑस्कर पुरस्कार मिले थे। चीन के आखिरी सम्राट पुयी Aisin-Gioro Puyi (1906- 1967) के जीवन पर आधारित फिल्म उनके जीवन से चीन के इतिहास पर सरसरी निगाह दौड़ाती है। धन का चला जाना, शक्ति का चला जाना, इन सब कारणों से सम्राट का मानवीय चित्रण सहज करूणा का कारण बन जाता है।
मृत्यु का शोक पीड़ादायक व अस्तित्व को हिला देने वाला अनुभव होता है। मृत्यु को जीवन का सत्य समझ कर मन में कई तरह के दार्शनिक विचार उत्पन्न होते रहते हैं। किसी प्रियजन की मृत्यु की कल्पना भी कष्टकर होती है। लेकिन सच्चाई से मुख नहीं मोड़ा जा सकता कि जो संसार में आया है सब को जाना पड़ता है। बहुधा ऐसे शोक का आशय असमय मृत्यु से होता है। जीवन का शतक वर्ष बीत जाने के बाद समृद्ध जीवन का शोक नहीं उत्सव मनाया जाता है, पर ऐसी बहुत कम ही लोग हो पाते हैं जो सुखी समृद्ध जीवन जीवन गुजारे। असमय मृत्यु कई कारणों से हो सकती है, जैसे कि युद्ध, व्याधि, प्रसव, हत्या, आकस्मिक दुर्घटना, आत्महत्या, प्राकृतिक आपदा आदि। इन सबों के लिए शोक होता है।
हमनाम उपन्यास पर आधारित All Quiet on the Western Front (1930) युद्ध पर शोक बनी बहुचर्चित और पुरस्कृत फिल्म है। फिल्म के शुरुआत में एक विद्यालय के शिक्षक के जोश दिलाने से कुछ छात्र सैनिक बन जाते हैं। लेकिन जब युद्धक्षेत्र की विभीषिका से सामना होता है, एक के बाद एक संगी साथी मरते जाते हैं, या उनके अंग भंग हो जाते हैं। फिल्म के अंतिम दृश्य में किशोर सैनिक सीमा पर एक तितली पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाता है दुश्मन की गोलियों से मारा जाता है।
जब फ्रांसिसी निर्देशक रेन्वा की बंगाल की पृष्ठभूमि पर आधारित अपनी बहुत ही सुन्दर फिल्म The River (1951) बना रहे थे, सत्यजित राय ने उनसे मुलाकात की थी। उनसे प्रेरित हो कर जब सत्यजित राय ने बिभूतिबिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास पर Pather Panchali (1955) बना रहे थे, उन्होंने फिल्म बनाने के लिए अपनी पत्नी के गहने तक गिरवी रख दिए। फिर भी काम नहीं बना तो बंगाल की सरकार ने पथ निर्माण विभाग के नाम से उन्होंने पैसे मुहैय्या करवाया। सत्यजित राय रस सिद्धांत के प्रतिबद्ध थे, और उनकी पहली फिल्म ने दुनिया भर में तहलका मचा दिया। अपु और उसकी बहन का ट्रेन देखने का दृश्य हो, उनकी दादी के मरने का दृश्य, बेहद गरीबी, दुर्गा की मृत्यु पर माँ-बाप का करुण रुदन और अपु का बारिश में भीगना, घर छोड़ के कहीं और जाने का दृश्य, कुल मिला कर यह फिल्म कारुण्य रस की जटिलता को दिखलाने वाली अनुपम कृति है। फिल्म अपराजितो Aparajito (1956) और  अपूर संसार Apur Sansar ( 1959) में भी कारुण्य रस ही मुखर होता है। यही करुण रस के विभाव और अनुभाव बंगाल के अकाल पर बनी उनकी फिल्म आशानी शंकेत Ashani Sanket (1973), अरण्येर दिन रात्रि Aranyer Din Ratri (1969) में बार-बार उभरते हैं।
फ़िल्मकार ऋत्विक घटक की तीन महान फिल्में मेघे ढाका तारा  Meghe Dhaka Tara (1960), कोमल गांधार Komal Gandhar (1961), सुबर्णरेखा Subarnrekha (1963)- बंगाल विभाजन की त्रासदी पर बनी फिल्में हैं, जिनके चरित्र अपने निवास स्थान से उजड़े हुए कहीं और शरणार्थी बन गए हैं। बिना विभाजन की चर्चा किये, इन फिल्मों में त्याग, मृत्यु, हत्या, उभर कर आते रहे हैं। इन फिल्मों का अंत बहुत ही मार्मिक और बंगाल सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर है। मेघे ढाका तारा में एक बड़ी बहन अपने माँ, बाप, भाई, बहनों का नौकरी कर के खर्च उठाती है। सारी ज्यादतियाँ सहते हुए अंत में खुद टीबी का शिकार हो कर मृतप्राय हो जाती है। सुबर्णरेखा फिल्म के अंत में आर्थिक कठिनाई से जूझती औरत वेश्यावृत्ति में प्रवेश करती है तो उसका पहला ग्राहक नशे में धुत्त उसका भाई होता है। इस स्थिति में बहन अपनी गर्दन काट कर आत्महत्या कर लेती है। इस दृश्य का विभाव, अनुभाव, छाया संयोजन, संगीत आदि अनुपम बन पड़े हैं।
सत्यजित रायऔर ऋत्विक घटकजितना सम्मान किसी और भारतीय निर्देशक को आज तक नहीं मिला है। यहाँ ध्यान देने वाली कई बातें हैं इन दोनों में संगीत की अद्भुत समझ थी। दोनों ही महान लेखक भी थी। (ऋत्विक घटक ने मधुमती की कहानी भी लिखी थी) फिल्म के कथानकों पर उनकी गहरी पकड़ रही (सत्यजित राय ने अपनी सभी फिल्मों का कथानक खुद लिखा था), पर केवल कथानक तो वे कभी सीमित नहीं रहे, बल्कि सुन्दर दृश्य का संयोजन, फिल्मांकन, कैमरे पर पकड़, दृष्टि का अभूतपूर्व नयापन बहुत ही कम लोगों में` हुआ है। फिल्म को तकनीक से ऊपर उठा कर, व्यवसाय से ऊपर उठा कर, कला मान कर, पवित्र समझ कर, अनुभूति पर जोर देते हुए, पारंपरिक सिद्धांतों को समझ कर, अपने समय को समझ कर, विदेशी कलाकारों का यथोचित सम्मान देते हुए, उन्होंने अपने क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया। कार्यकुशलता में नवीनता, अपनी समझ, विश्वदृष्टि बाकी चीजों से कहीं बढ़ कर है जैसे कि किसी क्रिया में सिद्धहस्त होना, और सफलता के साधारण मानकों (जैसे कि व्यवसाय) पर खरा उतरना।
महान रूसी निर्देशक आंद्रे तारकोवस्की Andrei Tarkovsky (1932- 1986) की Ivan's Childhood (1961) में युद्ध के दौरान एक बच्चे का छीन लिए बचपन की त्रासदी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। अपनी स्वप्न जैसे चित्रों के छायांकन से कई बार न कहा जा सकने वाला शोक उन्होंने बखूबी दिखाया है। उनकी इतालवी फिल्म में Nostalaghia (1983) अपने देश से बिछुड़े एक लेखक की मुलाकात एक विचित्र आदमी से होती है जिसने दुनिया के डर से अपने घर में बीवी बच्चों को कैद कर रखा था। जब सात साल बाद पुलिस उसके घर में उसके बच्चों को आज़ाद करने आते हैं तो बच्चे आवारा चूहों की तरह घर से निकलते हैं। यही विचित्र आदमी बीथोवन की नौवी सिम्फनी पर विश्व बंधुत्व पर भाषण देता हुआ खुद को आग लगा कर मर जाता है। फिल्म के अंत कुत्तों के भूँकने का दृश्य, बहुत से स्वप्निल दृश्यों से गुजरते नायक की मृत्यु से उत्पन्न कारुण्य रस साधारण मृत्यु और शोक से कहीं जटिल है।
तारकोवस्की की आखिरी फिल्म Offret/ Sacrifice (1986) जो स्वीडिश थी, उन्होंने अपने मित्र इंगमार बर्गमन को समर्पित की थी। यह फिल्म असाधारण रूप से जटिल और कठिन है। इस फिल्म में एक अधेड़ प्रोफेसर समुद्र किनारे अपने बीवी बच्चों के साथ रह रहा होता है कि टीवी पर नाभिकीय विश्वयुद्ध का समाचार आता है। इससे बचने के लिए प्रोफेसर अल्क्सेंदर भगवान से यह प्रार्थना करता है कि अगर सब कुछ ठीक हो जाये तो वह अपना सब कुछ त्याग देगा। अगले दिन सुबह उठने पर जब सब कुछ ठीक रहता है, तब अपने वचन को पूरा करने के लिये वह अपने पूरे घर में आग लगा देता है। अपने छायांकन और कलाकार दृष्टि के कारण यह फिल्म बहुत सम्मानित की गयी। यह फिल्म Nostalaghia (1983) की ही तरह अपने लम्बे बेहतरीन शॉट्स के कारण जानी जाती है। इन फिल्मों के माध्यम से रस की जटिलता और विविधता का चित्रण ही निर्देशक की महानता है। अभिनवगुप्त जैसे सौन्दर्यशास्त्री तत्क्षण तारकोवस्की को रस सिद्धांत को सही समझने के लिए मुबारकबाद देंगे।
सेर्गेई पराजनोव Sergei Parajanov (1924 – 1990) की लोककथाओं पर आधारित दो फिल्में Shadows of Forgotten Ancestors (1964) (जो कि उन्होंने तारकोवस्की की Ivan's Childhood (1961) फिल्म से गहरे तौर पर प्रभावित होने के बाद बनायीं थी) और The Legend of Suram Fortress (1984) में मृत्यु और स्वाभाविक शोक से न उबार पाने की दास्ताँ हैं। लोक कथाएँ बहुधा कई रसों पर होती हैं। इन फिल्मों में श्रृंगार रस और कारुण्य रस समावेश है।
फिल्म Shadows of Forgotten Ancestors में इवान अपने पिता के हत्यारे की पुत्री और अपनी प्रेमिका मरिच्का से शादी करना चाहता है पर मरिच्का की असमय मृत्यु हो जाती है। अपनी दूसरी शादी के बाद भी इवान अपने पहले प्रेम को भूल नहीं पाता और बीवी के धोखे से मारा जाता है। इस फिल्म में सुन्दर पहाड़ों, झीलों, कोहरे, धुआं, रातों, लोक संगीत, शादी के रस्मों का खूबसूरत चित्रण है। फिल्म के पहले दृश्य में जब एक ऊँचा पेड़ कट कर गिरता है और इवान के भाई की मौत होती है, इसके फिल्मांकन के लिए पराजनोव ने पेड़ पर कैमरा बाँध रखा था जो की पेड़ के गिरने के साथ टूट कर बेकार हो गया, पर फिल्म बच गयी। फिल्म The Legend of Suram Fortress में प्रेमी द्वारा धोखा देने के बाद ज्योतिषी बन गयी औरत की भविष्यवाणी पर उसके प्रेमी के लड़के को किले की दीवार में जिन्दा चुनवा दिया जाता है। भविष्य बताने वाले औरत रात के अँधेरे में किले के उस हिस्से पर चादर चढाने जाती है जहाँ वो लड़का दफ़न होता है और अपने अविवाहित जीवन का हवाला देते हुए मरे हुए लड़के को अपना लड़का मानती है।
इटालियन निर्देशक पसोलिनी Pier Paolo Pasolini (1922- 1975) की  Il fiore delle mille e una notte (The Flower of 1001 Nights या  Arabian Nights, 1974) में अलिफ लैला (अरेबिन नाइट्स) की मशहूर कहानियाँ नहीं हैं, जैसे कि अलादीन और जादुई चिराग, अलीबाबा और चालीस चोर, सिंदबाद जहाजी आदि, बल्कि दूसरी कहानियाँ हैं। उसमें एक कहानी थी अजीज़ और उसकी चचेरी बहन अजीज़ा की प्रेम कहानी। इस फिल्म के लिये पसोलिनी ने एक पूरे गाँव से मशीन बने समस्त उत्पाद चुन चुन कर हटा दिये। घर, बर्तन, कपड़े - सारे आठवीं सदी के अरब की तर्ज पर बनाये गये। इस फिल्म में अजीज़ और अजीज़ा की शादी के अजीज़ किसी सुंदरी के प्यार में पड़ जाता है और नियत समय पर शादी के लिये नहीं पहुँचता है। अजीज़ा उसे कुछ भी नहीं कहती है। लेकिन जब अजीज़ उस लड़की की याद में खाना पीना छोड़ देता है तब अजीज़ा उस बुद्धिमती और रहस्यमयी लड़की को हासिल करने में उसकी मदद करती है। अंत में दुख से चूर हो कर अजीज़ा आत्महत्या कर लेती है। इस करूण कहानी का अरब देश की संस्कृति से बहुत ही सुंदर फिल्मांकन किया गया है। 
एनेमेटेड जापानी फिल्म Grave of Fireflies या Hotaru no haka (1988) एक आत्मकथा पर आधारित बहुचर्चित करूण गाथा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय के दस साल के लड़के और उसकी चार साल की बहन के माता-पिता युद्ध और बमबारी में मारे जाते हैं। अपनी नन्हीं बहन को ले कर रिश्तेदारों से प्रताड़ित होने से ले कर, पुलिस से पिटना, एक झील के किनारे घर बना कर रहना, बहुत से हृदय विदारक दृश्यों और संवादों से सजी यह फिल्म युद्ध की विरूद्ध महान दस्तावेज मानी जाती है।  सन1967में प्रकाशित इस उपन्यास के लेखक इस पर फिल्म बनाने के सारे प्रस्ताव बहुत दिनों तक यह कह कर ठुकराते रहे थे कि वैसी तबाही, वैसा अभिनय पुनर्जीवित करना किसी के लिये असंभव है। लेकिन जब उनके पास ऐनिमेशन फिल्म का प्रस्ताव आया, तो वह कहानी पर बनाये हुये स्टोरीबोर्ड से बहुत प्रभावित हुये। यह लेखक की कल्पना के बहुत ही करीब था। ऐनीमेटेड फिल्म में बहुत सारी चीजें की जा सकती हैं जो कि साधारण रूप से फिल्माना कठिन है, जैसे कि लाश के चेहरे पर मक्खी का किसी निश्चित क्रम में भिनभिनाना (क्योंकि मक्खियों को निर्देशित करना संभव नहीं है)
महान पोलिश निर्देशक Krzysztof Kieślowski (1941- 1996) ने कई करूण फिल्में बनायीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ  The Decalogue (1989) (दस भागों की टीवी सीरिज), The Double Life of Véronique (1991), औऱ The Three Colors Trilogy (1993–1994) (Three Colors: Blue (1993), Three Colors: White (1994), and Three Colors: Red (1994)) विश्व सिनेमा की महानतम कृतियों में आंकी जाती हैं। टीवी के लिये बनायी उनकी सीरिज The Decalogue का स्तर इतना ऊँचा था कि स्टैनले क्यूब्रिक जैसे निर्देशक ने इसे दुनिया की महानतम कृति करार दिया था। डेकालोग के पहले एपीसोड में एक बारह साल की मृत्यु का दुखद चित्रण है। एपीसोड दो में मृत्यु के शोक से लिपटा डॉक्टर जीवन का महत्व समझता है।
कई बार शोक से वैराग्य, कई बार नैराश्य से मानव सब कुछ छोड़ कर मुक्ति का प्रयास करता है। फिल्म Three Colors: Blue (1993), जिसकी मूल अवधारणा स्वतंत्रता की है, एक संगीतज्ञा के संगीतज्ञ पति और पुत्री के कार दुर्घटना में निधन के पश्चात सब कुछ छोड़ कर शोक में डूब कर मुक्ति ढूँढ रही होती है, पर अंतत: कर्त्तव्य की राह पर वापस चलने लगती है। इसी तरह शोक का स्थायीभाव भी बदलने के लिये है।
शोक के पश्चात शांति है।

************

अगले लेखों में हम चर्चा करेंगे
1. क्रोध भाव और रौद्र रस- विश्व सिनेमा में रौद्र रस की मुख्य कृतियाँ
2. हँसी, ठिठोली, और व्यंग - विश्व सिनेमा में हास्य रस की फिल्में (दो भागों में)
3. प्रेम, विरह और मिलन - विश्व सिनेमा और शृंगार रस (तीन भागों में)




शीन काफ निजाम की ग़ज़लें

$
0
0
लोकमत समाचार के वार्षिक आयोजन 'दीप भव'में वैसे तो सभी रचनाएँ अपने आप में ख़ास हैं. लेकिन पहले शीन काफ निजामसाहब की ग़ज़लें पढ़िए, जो इस अंक की एक नायाब पेशकश है- मॉडरेटर 


1.

सफ़र में भी सहूलत चाहती है
मुहब्बत अब मुरव्वत चाहती है

तुम्हारा शौक है, ख्वाहिश भी होगी
मगर तखलीक हैरत चाहती है

तबीयत है कि ऐसे दौर में भी
बुजुर्गों जैसी बरकत चाहती है

ये कैसी नस्ल है अपने बड़ों से
बग़ावत की इजाजत चाहती है

बजा तुम ने लहू पानी किया है
मगर मिटटी मुहब्बत चाहती है

वरक खाली पड़े हैं रोजो-शब के
बजा-ए-दिल इबारत चाहती है

तसव्वुर के लिए ग़ालिब से हम तक
तबियत सिर्फ फुर्सत चाहती है

2.

बात के कितने खरे थे पहले
किसको मालूम है कितने पहले

हम तो बचपन से सुना करते हैं
लोग ऐसे तो नहीं थे पहले

अब यहाँ हैं तो यहीं के हम हैं
क्या बताएँ कि कहाँ थे पहले

हम नहीं वैसे रहे, ये सच है
तुम भी ऐसे तो कहाँ थे पहले

इस तजबजुब में कटी उम्र तमाम
बात कीजे तो कहाँ थे पहले

बात वो समझें तो समझें कैसे
लोग पढ़ लेते हैं चेहरे पहले

मंजिलें उनको मिलें कैसे ‘निजाम’
पूछ लेते हैं जो रस्ते पहले


3.

मैं इधर वो उधर अकेला है
हर कोई ख्वाब भर अकेला है

खोले किस किस दुआ को दरवाज़ा
उसके घर में असर अकेला है

हम कहीं भी रहें तुम्हारे हैं
वो इसी बात पर अकेला है

भीड़ में छोड़ कर गया क्यूँ था
क्या करूँ अब अगर अकेला है

ऐबजू सारे उसकी जानिब हैं
मेरे हक़ में हुनर अकेला है

कितने लोगों की भीड़ है लेकिन
राह तनहा सफ़र अकेला है

हो गई शाम मुझको जाने दो
मेरे कमरे में डर अकेला है


महाकरोड़ फिल्मों की बोरियत से निकलना है तो देखिए 'जेड प्लस'

$
0
0
एक के बाद एक आती महाकरोड़ फ़िल्में मनोरंजन कम बोर अधिक करती हैं. ऐसे में ताजा हवा के झोंके की तरह है रामकुमार सिंह लिखित और चंद्रप्रकाश द्विवेदी निर्देशित फिल्म 'जेड प्लस'. फिल्म की कहानी जानदार है और पहली बार चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने भी अपने संघी सांचे से बाहर निकल कर फिल्म बनाई है. निश्चित रूप से यह फिल्म चंद्रप्रकाश द्विवेदी की अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. बहरहाल, युवा फिल्म समीक्षक सैयद एस. तौहीदकी समीक्षा पढ़िए. ताकि सनद रहे कि इस फिल्म की तारीफ बस रामकुमार सिंह के दोस्त और डॉ. द्विवेदी के संगी पत्रकार ही नहीं कर रहे हैं- मॉडरेटर 
========================================

किसी आम आदमी को जेड सेक्युरिटी मिल जाए तो क्या होगा?  असलम पंचर वाले के लिए यह मुसीबत का दूसरा नाम हो गया. जेड प्लस मिलने से असलम की रोजमर्रा जिंदगी में नाटकीय बदलाव घटित होने लगे. मामूली आमदनी वाले रोजगार से परिवार का पेट पालने वाला असलम इससे पहले आम बेफिखर जिंदगी काट रहा था. पीर वाले बाबा के दर का मुरीद असलम अकीदत में वहां का खाविंद बनकर चला गया. इत्तेफाक देखिए उस रोज ही सियासत के मुखिया देश के प्रधानमंत्री दुआओं खातिर वहां आ गए. तकदीर को भला कहें या की बुरा कि जिसने असलम को उनसे मिला दिया. किसी ख्वाजा या पीर की दरगाह पर मुराद लेकर आनेवालों की कतार में एक आला सियासतदां का भी नाम जुड़ गया था.

मुसीबत के वक्त ही दुनियादारों को खुदा के प्यारे बंदे याद आया करते हैं. सरकार को मंझधार से निकालने के लिए एक फकीर की दहलीज पर सरकार के मुखिया चले आए. मजार पर प्रधानमंत्री के आने से बस्ती वालों को अपनी मुरादें पूरी होते दिख रही थी. पी एम को मजार पर एक खाविंद की शक्ल में असलम मिल गया. असलम वहां यूं पहुंचा की कुनबे से दरगाह का खाविंद बनकर जाने में उसका दिन था. एक बड़े सियासतदां के वहां पहुंचने से असलम की अपनी परेशानियों पर उनकी मदद मांगने का अवसर मिला. असलम की छोटी बड़ी परेशानियों में आशिक मिजाज शायर हबीब ज्यादा परेशान कर रहे थे... असलम व आशिक मिजाज हबीब में पडोसी वाले प्यार की जगह तकरार का सीन था. दुश्मनी की वजह सईदा थी. दोनों का दिल सईदा के इश्क में दीवाना सा था.  

पड़ोसियों में तल्खी दिखाने के लिए कश्मीर रूपक का इस्तेमाल सटायर का दिलचस्प नमूना था...मानो हबीब व असलम पड़ोसी न होकर भारत-पाक हों. बहरहाल असलम पीएम को अपनी परेशानी से अवगत कराने का प्रयास करता है. देशज जबान के इस्तेमाल में असलम एक मिसकम्युनिकेशन का शिकार बन जाता है. बोली के फेर में उलझे पीएम असलम की दुखती रग को ठीक से जान नहीं पाते. पड़ोसी हबीब से परेशान शख्स को पाकिस्तान से परेशान मान कर जेड प्लस की फजीहत देकर चले जाते हैं. एक पंचरवाले की सीधी सी जिंदगी में नाटकीयता का तूफान बरपा हो गया. जाने अनजाने बेचारे की जिंदगी सरकारी पचड़े में फंस कर रह जाती है. अमीर व नेताओं किस्म की जिंदगी आम आदमी के लिए परेशानी से कम नहीं...

फ़िल्म कह रही कि अनिवार्य चीजों का पूरा होना ज्यादा जरुरी माना जाए. असलम के साथ पेश आई बातें हंसाने के साथ लोकतंत्र से सीधे संवाद का असरदार हालात बनाती हैं. असलम पंचर वाली की यह कहानी एक उदहारण सी बन रही की जिसमे सरकार जनता के मुद्दों को दरअसल ठीक से समझ नहीं पाती. खुशहाल जिंदगी की तलाश में जनता कभी न खत्म होने वाले सफर पर निकल जाती है. जेड प्लस यह बताना चाह रही कि आम आदमी सरकार से केवल जिंदगी का सुकून तलब करती है. विसंगतियों से जूझता आदमी को जिंदगी में परिवर्तन नजर नहीं आता. क्योंकि आज भी वो समस्याएं नहीं बदली. एक नयी शक्ल में वो आज भी लोगों को तंग कर रहीं. रात-दिन की मेहनत के बाद भी नसीब नहीं बदलता सिर्फ काम बदल रहा. आम आदमी सरकार से ज्यादा तलब नहीं करता ...इसलिए ही शायद सरकार बनाकर भी सरकार से मन का  मांग नहीं सकता. संजय मिश्रा की शक्ल में बर्बाद व खस्ताहाल जिन्दगी गुजार रहे इंतेहापसंदों का मानवीय कोना भी है...आशिकमिजाज शायरी का एक अनोखा किरदार मुकेश तिवारी के हबीब में रोचक अंदाज़ में पेशनजर.

असलम पंक्चरवाले की कहानी की मसाला फिल्मों के नायकों से मेल नहीं खाती. इस तरह के मामूली से दिखते लेकिन ख़ास लोगों पर कम फिल्में बनी. रोजमर्रा के नायक सिनेमा में अपना अक्स तलाश रहे...लेकिन सच मानिए रिक्शावाला, सब्जीवाला, ठेलेवाला या फिर पंचर वाला किस्म के लोगों पर प्रयास कम हुए. लोग बेहतरीन फिल्मों को देखना शुरू करें....बुरी फिल्में फिर से परेशान नहीं करेंगी. फिल्म का चलना, न चलना एक बात है, लेकिन रामकुमार सिंह की कहानी काबिले तारीफ है.सोशल मीडिया से लेकर हर अखबार में चर्चाएं भी हो रही साहसी फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी की जेड प्लस की तारीफ करने को दिल करेगा. मसाला व महाकरोड़ क्लब की फिल्मों ने जिन लोगों को निराश किया वो जेड प्लस देखें. बाक्स आफिस की दुनियादारी में एक हिस्सा इस किस्म के सिनेमा का भी बनता है.मनोरंजन की एक खुबसूरत परिभाषा आपका इंतेज़ार कर रही. भीड़ से अलग होने का नुकसान खुदावर जुनूं के दीवानों को उठाना नहीं पड़े ..महफिल सजती रहे.


लेखक संपर्क- Passion4pearl@gmail.com

जेड प्लस इंटेलेक्चुअल फिल्म नहीं, इंटेलिजेंट फिल्म है!

$
0
0
यह शाम की रिव्यू है. जो सुबह से थोड़ी अलग है और कुछ कुछ उस जैसी भी है. जेड प्लस फिल्म ही ऐसी है कि हर लेखक का अपना अपना पाठ तैयार है. यह पाठ है प्रसिद्ध युवा लेखिका अनु सिंह चौधरीका. असल में करोड़ करोड़ खेलने वाली फिल्मों के बीच कोई सार्थक, सोद्देश्य फिल्म आ जाती है तो लगता है यह प्रोटेस्ट सिनेमा है और इसकी आवाज में आवाज मिलानी चाहिए. एक कंटेम्पररी फिल्म की कम्प्लीट रिव्यू पढ़िए- मॉडरेटर 
=============================

"फिल्म देखी तुमने?"

हालाँकि मेरे इस फोन पर नाम फ़्लैश नहीं कर रहा था, लेकिन मैं जानती थी कि आवाज़ किसकी थी और ये दो टूक सवाल मुझसे पूछने का अधिकार कौन सा फ़िल्मकार रखता है।

अपन की इतनी औकात नहीं अभी कि हैप्पी न्यू ईयर की रिलीज़ से पहले फराह खान फ़ोन करके पूछें, "फिल्म देखी तुमने?" ? ये दीगर बात है कि हैप्पी न्यू ईयर को हम नाचीज़ दर्शकों के बिना भी बॉक्स ऑफ़िस में दो-चार सौ करोड़ तो यूँ ही मिल जाएँगे। लेकिन ज़ेड प्लस जैसी फ़िल्म को हम जैसे दर्शकों की सख़्त ज़रूरत है। इसलिए नहीं कि ज़ेड प्लस किसी एब्स्ट्रैक्ट इंटेलेक्चुअल फ़िल्म की श्रेणी में आती है - वैसी फ़िल्में जो सत्तर और अस्सी के दशक की मेनस्ट्रीम ढिशूम-ढिशूम फ़िल्मों के बीच उतनी ही ख़ामोशी से बन रही थीं जितनी ख़ामोशी से फ़िल्म रिलीज़ हो जाती थी और एनएफडीसी के आर्काइव में जमा कर दी जाती थी। ज़ेड प्लस इंटेलेक्चुअल फ़िल्म बिल्कुल नहीं है। लेकिन ज़ेड प्लस इंटेलिजेंट ज़रूर है, एक ऐसा पॉलिटिकल सटायर जिसे पढ़ने की आदत तो है हमें, लेकिन पिक्चर हॉल में देखने की बिल्कुल नहीं है।

इसलिए कीकर और खेजड़ी के झाड़-झंखाडों से होते हुए कोई एक सड़क जिस रेगिस्तानी कस्बे की ओर का रुख लेती है, वो कस्बा अपनी पूरी ऑथेन्टिसिटी के साथ हमारे समक्ष खुलता है - गड्ढा दर गड्ढा, दुकान दर दुकान, किरदार दर किरदार, बात दर बात, गली दर गली। सुखविंदर सिंह (और किसी नई गायिका) की आवाज़ में कव्वाली को रूह ज़ब्त कर लेना चाहती है, लेकिन रेडियो पर या यूट्यूब पर बार-बार सुना होता तब तो मनोज मुंतशिर नाम के गीतकार के बोल ज़ेहन में ठहरे रहते। इसलिए ज़ेड प्लस का संगीत दर्शकों के लिए उतना ही भर रह जाता है - बैकग्राउंड स्कोर - पार्श्व में चलती हुई धुन जिससे कहानी का वास्ता न के बराबर है।

किरदारों के इंट्रो के बाद जो कहानी खुलती चली जाती है उसमें कहीं कोई बनावटीपन नहीं है, यहाँ तक कि सरकार गिराने की धमकी देती समता मुखर्जी में भी नहीं। व्यंग्य अपने शुद्ध रूप में बचा रहता है - चाहे वो हिंदी न बोल पाने वाले दक्षिण भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में हो (कुलभूषण खरबंदा) या चैनलों को ख़त भेजने की ख़्वाहिश रखने वाले 'पड़ोसी देश'के टेररिस्ट ग्रुप के मुखिया (संजय मिश्रा) के रूप में। ग़ौर फ़रमाने वाली बात ये है कि 'पीएम'न पीवी नरसिंह राव का कैरिकेचर है न देवेगौड़ा का। बल्कि लॉन्ग शॉट में तो कुलभूषण खरबंदा का किरदार मुझे कई जगह चंद्रशेखर के आस-पास लगा। (और चूँकि डॉ द्विवेदी ने फ़िल्म की शुरुआत में ही डिस्क्लेमर दे दिया है कि ऐसी घटनाएँ डेमोक्रैसी में नहीं घटतीं, इसलिए फ़िल्म को हम सिर्फ़ और सिर्फ़ 'डेमोक्रैसी'का कैरिकेचर मान लेते हैं।)

परत दर परत जो कहानी खुलती है वो कुछ यूँ है - एक छोटे से कस्बेऋ के पीपल वाले पीर की दरगाह पर पीएम आते हैं, अपनी सरकार बचाने की दुआ माँगने। पीर की दरगाह पर एक दिन का खादिम असलम पंचरवाला है, जो अपने पड़ोसी की शिकायत पीएम से कर बैठता है। पीएम का आला अफ़सर 'पड़ोसी'से तात्पर्य वही लगाता है जो डेमोक्रैसी के आला अफ़सर को अब तक कूटनीति के पाठ के तहत समझाया गया है - पड़ोसी यानी पाकिस्तान। फिर ज़ुबानों और तर्जुमे का कम, डेमोक्रैसी का कुछ ज़्यादा... घालमेल इस तरह का होता है कि पीएम असलम को ज़ेड प्लस सेक्युरिटी दिलवा देते हैं। उसके बाद असलम महज़ एक किरदार है, बाकी का स्वाँग डेमोक्रैसी रचती चली जाती है।  

फ़िल्म में कुछ कमाल के मेटाफ़र हैं - सईदा यानी कश्मीर के लिए दो पड़ोसियों की लड़ाई; असलम का पंचरवाला होना (जो बाद में चुनाव उम्मीदवार के तौर पर दिल्ली से सीमावर्ती राजस्थान तक पहुँचते-पहुँचते पंचर हो जानेवाली योजनाओं के 'पंचर'ठीक करने का दावा करता है; पीपलवाले पीर की दरगाह से गायब पीपल ठीक वैसे ही जैसे लोकतंत्र से 'लोक'गायब होता है; पीएम का दक्षिण भारतीय होना, जो अब तक के लोकतंत्र के सबसे बड़े स्टीरियोटाईप को तोड़ता है। 

फ़िल्म की दूसरी बड़ी ख़ूबी वे कलाकार हैं जिन्हें हमने अभी तक सह-किरदारों के रूप में देखा है। आदिल हुसैन को देखकर सबसे ज़्यादा हैरानी होती है। जिस आदिल को अभी तक द रिलक्टेंट फंडामेन्टलिस्ट, लाइफ ऑफ़ पाई याइंग्लिश विंग्लिश में हमने बहुत शहरी और सोफिस्टिकेटेड भूमिकाओं में देखा है, उस आदिल को असलम की भूमिका के रूप में स्वीकार करते हुए ज़रा भी वक़्त नहीं लगता। असलम असलम लगता है, आदिल नहीं और यहीं आदिल के अभिनय को विश्वसनीय बनाता है। हालाँकि, निजी तौर पर मुझे आदिल के पड़ोसी की भूमिका में मुकेश तिवारी ने बहुत प्रभावित किया। छोटे से कस्बे के एक नाकाम शायर (और नाकाम महबूब) के रूप में मुकेश ने कमाल का अभिनय किया है। और कुलभूषण खरबंदा मेरी याद में शान के शाकाल के रूप में कम, 'डीक्षिट'कहने की अपनी अदा और आईपैड से असलम के लिए संदेश पढ़ते पीएम के रूप में ज़्यादा बचे रहेंगे।

इस फ़िल्म में जिस एक शख़्स को पर्दे पर देखते ही चेहरे पर हँसी आ जाता है, वो है संजय मिश्रा। ओवर-द-टॉप भूमिकाओं में भी कैसे अपने अभिनय की छाप छोड़ी जाती है, संजय मिश्रा को इसमें महारात हासिल है। हालाँकि जाने क्यों मुझे फँस गया रे ओबामा में संजय का किरदार याद आता रहा। उतनी ही प्रभावशाली भूमिका में पीएम के ओएसडी के रूप में हैं के के रैना। स्टारों और सुपरस्टारों के लिए लिखी और बनाए जानेवाली फ़िल्मों के बीच ऐसे कलाकारों के लिए भूमिकाएं क्यों नहीं लिखी जातीं, ये समझ पाना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। पर्दे पर का स्पेस हर स्टार को इतना ही प्यारा होता है कि मुझे नहीं लगता कि वो किरदारों के इक्वल या फ़ेयर डिस्ट्रिब्यूशन में यकीन भी करता होगा। इस लिहाज़ से ज़ेड प्लस को इसलिए पूरे नंबर मिलने चाहिए क्योंकि यहाँ कहानी को तवज्जो दी गई है, कलाकारों को नहीं। कलाकार अपने दम पर कहानी पर अपनी-अपनी छाप छोड़ते हैं।

हालाँकि फ़िल्म की महिला किरदारों को देखकर अफ़सोस होता है। हो सकता है ये मेरा वहम हो, लेकिन चाहे वो हमीदा हो, सईदा हो या फ़ौज़िया, सब अभिनेत्रियाँ ज़्यादा लगती हैं, किरदार कम। जितनी मेहनत पुरुष किरदारों के डायलॉग सँवारने में गई, उसका दसांश भी महिला किरदारों के डायलॉग को दिया जाता तो शायद जो बनावटीपन उनके किरदारों में दिखाई देता है, उससे बचा जा सकता था। मिसाल के तौर पर, मोना सिंह का शहरी लहज़ा उनसे छूटता नहीं और वहाँ स्थानीयपन को कोई पुट नहीं। ये स्थानीयपन और नहीं तो कम-से-कम पुरुषों की गालीनुमा गालियों में तो बचा रहता है। हालांकि, मुझे लगता रहा कि अगर मुख्य किरदारों के संवादों में रेगिस्तान की थोड़ी सी ख़ुशबू मिलाई जा सकती तो क्या मज़ा आता। उनकी उर्दू और हिंदुस्तानी कहीं-कहीं तो एकदम आर्टिफिशियल लगती है। जो और चीज़ें खलती रहीं वो मीडिया का पोट्रेअल था, जिसमें कहीं कोई ताज़गी नहीं थी। हम इन कैरिकेचरों को इतना देख चुके हैं कि स्क्रीन पर उनका आना बेमानी लगा। फ़िल्म की लंबाई भी खलती रही। एक और चीज़ जो खलती रही वो क्लाइमैक्स का बड़ी ख़ामोशी से आकर ख़त्म हो जाना था। आख़िरी के आधे घंटे फ़िल्म बहुत प्रेडिक्टेबल लगी मुझे - ऐसे कि जैसे एक के बाद घटनाएं ठीक वैसी ही बढ़ती रहीं जैसी हम उम्मीद कर रहे थे। 

मैं वीकेंड में जिस हॉल में फ़िल्म देख रही थी, वहाँ कुल मिलाकर २३ दर्शक थे। उड़ने वाली गाड़ियों और अनरिअलिस्टिक कहानियों के बीच अपने स्टार के लिए सीटियाँ और तालियाँ बजाने की आदत रखने वाली ऑडिएंस को ज़ेड प्लस इसलिए अच्छी नहीं लगेगी क्योंकि इस फ़िल्म में कहीं कोई मसाला नहीं है। अगर आपको सिर्फ़ और सिर्फ़ तंदूरी, पिज्ज़ा और चाइनिज़ खाने की आदत है तो ऑथेन्टिक राजस्थानी कुइज़िन की तरह ये फ़िल्म भी आपकी ज़ुबान पर थोड़ा भारी पड़ सकता है। ये फ़िल्म सटायर है, स्लैपस्टिक कॉमेडी नहीं। इसलिए हँसी फव्वारों में नहीं, फुहारों में आएगी। बाकी, जिस लोकतंत्र को लेकर ही हम इतने तटस्थ हो गए हैं, उस लोकतंत्र पर बने सटायर को लेकर हम क्या पता कभी संवेदनशील होंगे भी या नहीं (पहले आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी/अब किसी बात पर नहीं आती)।

बहरहाल, एक मीडियम के रूप में फ़िल्म की सफलता इस बात में निहित होती है कि उस फ़िल्म ने हमारे वक़्त को कैसे रिकॉर्ड किया है। इस लिहाज़ से ज़ेड प्लस एक महत्वपूर्ण फिल्म है क्योंकि हमारा वक़्त और हमारी पीढ़ियों का सच सिर्फ़ कैंडीफ्लॉस अर्बन डिज़ाईनर सिनेमा ही नहीं है। हमारे वक़्त का सच उन कस्बों का सच भी है जिसे मीडिया रिपोर्ट करती नहीं, जिससे वजूद से हमारा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। और चूँकि फिल्म का लेखक (राम कुमार सिंह) ऐसे ही किसी कस्बे में पला-बढ़ा है, कस्बों में बसे उसी लोकतंत्र और वहाँ की दुनिया के बारे में लिखता-पढ़ता रहता है, इसलिए ज़ेड प्लस जैसी फ़िल्म इससे अधिक ईमानदारी से नहीं लिखी या बनाई जा सकती थी। कोअलिशन पॉलिटिक्स का दौर मुमकिन है टल गया हो, लेकिन ख़त्म नहीं हुआ। मेरा मानना है कि अपनी तमाम खामियों-खूबियों के साथ ज़ेड प्लस सिनेमा के तौर पर उतना ही प्रासंगिक है, जितनी लोकतंत्र के लिए गठबंधन की राजनीति।


बावजूद इसके मेरे जैसे नाकारा दर्शक हैप्पी न्यू ईयर फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने जाएंगे, और जेड़ प्लस जैसी फ़िल्में तब देखेंगे जब वे या तो डीवीडी पर आ जाएंगी या जब कोई उनसे हक से पूछेगा, "फ़िल्म देखी तुमने?"

हिमालय न देखा हो तो 'दर्रा दर्रा हिमालय'पढ़ लीजिए

$
0
0
दर्रा दर्रा हिमालय’ऐसी किताब नहीं है जिसमें हिमालय की गोद में बसे हिल स्टेशनों की कहानी हो, जिसे पढ़ते हुए हम याद करें कि अरे नैनीताल के इस होटल में तो हम भी ठहरे थे, शिमला के रेस्तरां में बैठकर हमने भी मॉल का नजारा लिया था. हमने भी रोहतांग में बर्फ देखी थी. मेरी भांजी बर्फ से फिसल गई थी और उसे बड़ी चोट आई थी.

यह अलग तरह का सफरनामा है. हिमालय के दुर्गम दर्रों की. उनको फतह करने के ख़याल से नहीं बल्कि उनको करीब से देखने के ख़याल से. वह देखने का कि आखिर पुराण, इतिहास, अपने स्कूली किताबों. बड़े बूढों की कहानियों की वह दुनिया कैसी है? असल में सच बताऊँ तो इसे पढ़ते हुए मुझे जाने माने इतिहासकार शेखर पाठक की मानसरोवर यात्रा संस्मरण की याद आती रही. इसलिए नहीं कि इस वृत्तान्त की उससे कुछ समानता है. इसलिए कि उसको पढ़ते हुए मन वैसे ही मानसरोवर की यात्रा पर जाने का होने लगा था जैसे ‘दर्रा दर्रा हिमालय’ पढ़ते हुए एक बार और हिमालय दर्शन का मन होने लगा. और कहीं से नहीं तो कम से कम डलहौजी या मनाली से ही सही. 

यात्रा वृत्तान्त का एक गुण यह भी होता है. लिखने वाला हमें उसमें अपने साथ लेकर चलने लगता है. वह खुद भी सफ़र का साथी बन जाता है और हमें भी अपना साथी बनाता चलता है. कभी हमारे गाइड की तरह, कभी रोचक कहानी सुनाने वाले सफ़र में साथ चलने वाले किसी सहयात्री की तरह. रहस्य-रोमांच से भरपूर. मुझे याद है मैंने स्कूल के दिनों में मोहन राकेश का यात्रा वृत्तान्त पढ़ा था- आखिर चट्टान तक. न जाने मैंने कितनी बार दक्षिण भारत के अलग अलग शहरों की यात्रा की, न जाने कितना कुछ बदलते देखा. बेंगलुरु को फूलों के शहर से जैम में ठहरे शहर में बदलते देखा. लेकिन आज भी दक्षिण में कहीं जाता हूँ तो मोहन राकेश की वही किताब याद आती है. या चीड़ों पर चांदनी! मुक्त यात्रा की वैसी उन्मुक्त किताब शायद ही कोई पढ़ी हो. हृदय की मुक्तावस्था इसी को कहते होंगे शायद.

बहरहाल, अजय सोडानी की किताब ‘दर्रा दर्रा हिमालय’ में मूलतः दो यात्राओं का वर्णन है. पहली यात्रा कालिंदी खाल की है, जिसे दर्रों का सिरमौर कहा गया है. यह रोमांचक यात्रा लेखक ने पूरे परिवार के साथ की. यह इसका एक और आकर्षण है. किताब में यह दर्ज है कि सोडानी परिवार का नाम लिम्का बुक ऑफ़ में दर्ज है कि 2006 में इस दर्रे को पार करने वाला यह पहला परिवार बना.

दूसरी यात्रा उत्तरकाशी, गंगोत्तरी से आगे की है, जिसे लेखक ने पांडवों के पदचिन्हों पर कहा है. जिसका उद्देश्य हिमालय की बायोडायवर्सिटी को देखना समझना बताया गया है. यात्राओं के बीच बीच में ‘यात्राओं से परे’ के अंतर्गत कुछ मशहूर यात्रियों के स्मरण हैं, कुछ डायरीनुमा टीपें हैं. सबसे बढ़कर, एक यात्री का लेखक एक रूप में रूपांतरित होता व्यक्तित्व है. जो पहाड़ों की बर्फानी सुन्दरता को देखते हुए, एवलांच को देखते हुए धीरे धीरे बदलता जा रहा है. आप एक पाठक के रूप में उस रूपांतरण को महसूस कर सकते हैं. आरम्भ में गद्य वर्णनात्मक है जो धीरे धीरे काव्यात्मक होता जाता है. बीच बीच में लेखक ने कविताएं, शेर आदि भी उद्धृत किये हैं.

पुस्तक का प्रकाशन ‘सार्थक’ श्रृंखला के अंतर्गत किया है, जो राजकमल प्रकाशन का एक उपक्रम है पाठकों से सीधे जुड़ने का. यह अच्छा है कि प्रकाशक अब पाठकों की तरफ रुख कर रहे हैं, वे इस बात को समझ गए हैं कि किताबों को पुस्तकालयों के गोदामों से बाहर निकलने का समय आ गया है. इसमें कोई शक नहीं कि पुस्तक मेलों, साहित्य उत्सवों ने धीरे धीरे वह माहौल बनाना शुरु कर दिया है जिससे किताबों का निकष पाठक बनते जा रहे हैं.

ऐसी किताबों की हिंदी में नितांत आवश्यकता है जिसमें विधाओं का लोड न हो, तथाकथित सामाजिकता का बोझ न हो. किसान-मजदूरों के प्रति वह झूठी संवेदना, जिसने पीढ़ियों को आलोचक बनाया, पाठकों को बरगलाने का काम किया है. यह अच्छा है कि इस बात की समझ हिंदी में भी बढ़ रही है कि साहित्य असल में मध्यवर्गीय उपक्रम है और इसका एक उद्देश्य पाठकों आनंदित करना भी होता है. समाज को बदलने, पाठकों को शिक्षित करने का काम उसका न था, न है. इस बात की समझ लेखकों में भी बढ़ी है और अच्छी बात है कि प्रकाशकों में भी. जो किताबों के प्रस्तुतीकरण के पेशेवर नजरिये में दिखाई देने लगा है.

‘दर्रा दर्रा हिमालय’ बहुत सुन्दर ढंग से आकल्पित पुस्तक है जो आने वाले समय में पथ प्रदर्शक साबित होगी, एक पाठक-लेखक एक रूप में मुझे लगता है. आने वाला से समय में हिंदी के लेखक हिंदी विभागों के मास्साब से किसान-मजदूर ब्रांड सर्टिफिकेट से नहीं बल्कि पाठकों के नजरिये से आएंगे, आने चाहिए. हिंदी के आत्मविश्वास के लिए यह जरूरी है.

बहरहाल, अबकी हिमालय की गोद में बसे किसी शहर गया तो वहां पढने के लिए ‘दर्रा दर्रा हिमालय’ लेकर जाऊँगा. वहां इसको पढने की अनुभूति अलग ही होगी. फिलहाल आपको मौका मिले तो अपने अपने मैदानों में गाड़ियों की पों-पों, जीवन की भागमभाग के बीच इसे पढ़कर देखिएगा. सुकून मिलेगा.
प्रभात रंजन 

पुस्तक- दर्रा दर्रा हिमालय, लेखक-अजय सोडानी, प्रकाशक- सार्थक; राजकमल प्रकाशन का एक उपक्रम, मूल्य- 150 रुपये.  
   


मुस्कुराइए कि आपके आ गए दिन अच्छे

$
0
0
नीलिमा चौहानको हम सब भाषा आन्दोलन की एक मुखर आवाज के रूप में जानते-पहचानते रहे हैं. लेकिन उनके अंदर एक संवेदनशील कवि-मन भी है इस बात को हम कम जानते हैं. उनकी चार कविताएँ आज हम सब के लिए- मॉडरेटर 
===========================

स्माइल  अंडर  सर्विलेंस

मुस्कुराइए कि आप
अंडर सर्विलेंस हैं
मुस्कुराइए कि आपके नहीं
पड़ोस में पड़ा है डाका
मुस्कुराइए कि आज नहीं
कम से आज नहीं होगा फाका
मुस्कुराइए कि आज भी बेटी
ठीक ठाक लौट आई है घर
मुस्कुराइए कि कानून की आप पर
अभी पड़ी नहीं है नज़र
मुस्कुराइए कि आपके साथ
अभी नहीं हुई कोई ट्रैजेडी नीच
मुस्कुराइए कि आपके
हैं नेता आपके बीच
मुस्कुराइए कि बगल का नामी लठैत
संसद में विराजमान है
मुस्कुराइए कि एक पुर्जे पर ‘आधारित’
आपका सम्मान है
मुस्कुराइए कि आप
नागरिक हैं सच्चे
मुस्कुराइए कि आपके
आ गए दिन अच्छे
==============

देवता के विरुद्ध

मेरी आस्था ने गढ़े देवता
विश्वासों ने उनको किया अलंकृत
मेरी लाचारगी के ताप से
पकती गई उनकी मिट्टी
मेरे स्मरण से मिली ताकत से वे
जमते गए चौराहों पर
मैंने जब जब उनका किया आह्वान
आहूत किया यज्ञ किये
रक्तबीज से उग आए वे यहां वहां
काठ में,पत्थर में,  पहाड़ में,  कंदराओं में
मेरे वहम ने उनकी लकीरों को
धिस धिस कर किया गाढ़ा
मेरे अहं ने भर दिया
असीम बल उसके बाहुओं में,
मुझे दूसरे के देवता पर हँसी आती
मुझे हर तीसरे की किस्मत पे आता रोना
मुझे सुकून मिलता अपने देवता के
पैदा किए आतंक से

एक देवता क्या गढ़ा मैंने
मैं इंसान से शैतान हो गया
-------------------------------

मैंने नहीं चुना

मैंने अपना देश नहीं चुना
मैंने अपना राज्य नहीं चुना
,मैंने नहीं चुनी अपनी जाति,
मैंने अपना रंग-रूप नहीं चुना,
मैंने नहीं चुना अपना वर्ग ,
मैंने नहीं चुनी अपनी माँ,
मैंने नहीं चुना अपना धर्म अपना देवता
और मैंने अपना नेता भी नहीं चुना।

मैं चुना जाता रहा
जबकि मैंने अपना
होना या न होना तक नहीं चुना
जैसे चुनने का अधिकार
सिरे से नहीं था पास मेरे 
वैसे ही न चुनने की भी सहूलियत
कभी नहीं थी पास मेरे
मेरा  मैं एक भुलावा
मेरा सच बस चयनहीनता 
मैं सच के समीकरणों का
एक  संज्ञाहीन झूठा परिणाम
तयशुदा नितयि  का
हास्यास्पद अंजाम
दुनिया  के सब सचों  की फेहरिस्त में
एक चीज़ जो थी बेमानी और नामहीन
थी अपवाद्ग्रस्त और थी झूठ
वो मैं ही तो था,  मैं ही तो वह था
========================


एक  पुड़िया  आजादी  फ्री

और एक  पुड़िया  आजादी 
मिलना जैसे
चकलाघर से  छूटी लड़कियां
लौटी हों अपने गांव
मांगना जैसे
ऊपरवाले से वरदान
खोजना तलाशना जैसे
खोयी हुई बच्चियों का इश्तिहार

खरीदना  कुछ  न  कुछ  बेचकर
जैसे गरीब का ज़ेवर
उधार लेना 
जैसे कर्ज
संभलकर बरतना
जैसे  हो फर्ज
लूटना

जैसे ईमान
एस ओ एस इस्तेमाल
जैसे हो दवा
हाथ कहां  आती  है
जैसे हो हवा

कागज नारों में सभाओं  में
बोलने में सुनने  में 
भारततंत्र में कॉपीराइट मुक्त शब्द
गरीब गंवार आवाम के लिए

एकदम फ्री फ्री फ्री!!!

संपर्क- neelimasayshi@gmail.com

भारत में शादी विषय पर 1500-2000 शब्दों में निबंध लिखें

$
0
0
आजकल शादियों का मौसम चल रहा है. कल बहुत अच्छा व्यंग्य मैंने बारातियों पर पढ़ा था. प्रसिद्ध व्यंग्यकार राजेंद्र धोड़पकर ने लिखा था. लेकिन शादी पर सदफ नाज़का यह व्यंग्य तो अल्टीमेट है. जितनी बार पढ़ा हँसने के नए मायने मिले. आपका दिन शुभ और शाम को जिस भी शादी में जाएँ वहां खाना भरपूर मिले और हाँ बारातियों के नागिन डांस के कारण कहीं जाम में न फँस जाएँ, यही दुआ करता हूँ. और आग्रह करता हूँ कि एक बार इस व्यंग्य को पढ़कर जाएँ- प्रभात रंजन 
============================================================


भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकतर देशों में शादी एक सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी मानी जाती है। आमतौर पर शादी समाज की खुशी और नियमों को निरंतर+सतत+अनवरत बनाए रखने के लिए कभी खुशी से और कभी ज़ोर ज़बरदस्ती से करवाई जाती है। समामान्यतः शादी समाज की खुशी’, ‘मर्यादाऔर सम्मानके लिए समानधर्म+संस्कृति+जाति+उपजाति+हैसियत+रंग+रूप में ही की जाती है।शादी अगर उपर्युक्त लिखे स्वर्ण अक्षरों से प्रतिरोध करते हुए अपनी इच्छा और पसंद से कर ली जाए तो यह एक सामाजिक मसला बन जाता है।ऐसी शादियों से आमतौर पर लोगों की इज़्ज़त वाली नाक कट जाया करती है। फलस्वरूप कई बार पक्ष और विपक्ष के बीच लाठी-डंडे,ठुकाई-कुटाई और कोर्ट-कचहरी तक की नौबत आ जाती है। हालांकि साल दो साल के बाद ज़्यादातर मामले तब निपट जाते हैं जब पक्ष-विपक्ष के रिश्तेदारों का खून अपने-अपने खूनोंकी तरफ़ खींचना शुरू हो जाता है। ऐसे में प्रारंभ में पक्ष-विपक्ष के लोग समाज-पड़ोसी से सकुचाए छुपते-छुपाते अपने-अपनेखूनोंसे मिलते-जुलते हैं। 

लेकिन जब इज़्ज़त की दूसरी नाक उग आती है तो खुले आम सुखी परिवार की तरह एक साथ रहने लगते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में कई बार शादी-ब्याह इज़्ज़त+संस्कृति के लिए भयानक मसला बन जाता है। ऐसा तब होता है जब लड़का-लड़की अपनी मर्ज़ी से दूसरी जाति,धर्म,कबीले या फिर समान गोत्र में नियम विरूद्ध ब्याह रचा लेते हैं। ऐसे जोड़ों की हत्या स्वंय माता-पिता,रिश्तेदार और समाज वाले कर देते हैं। जिसे ऑनर किलिंगके नाम से अलिखित मान्यता प्राप्त है। दरअसल पूरा भारतीय उपमहाद्वीप भंयकर रूप से धर्म परायणलोगों की बेहद पवित्र स्थली है। ये लोग अपने बच्चों और अन्य लोगों की जान दे-ले सकते हैं, लेकिन अपनी धार्मिक+सांस्कृतिक+सामाजिक +++++जितनी भी मान्यताएं हैं उन पर खरोंच तक नहीं लगने देते हैं। अपने बच्चों की प्रति इनका भयानक रूप से प्रेम ही होता है (खास कर बेटियों के लिए) कि ये समाजिक+धार्मिक+सांस्कृतिक नियम विरूद्ध शादी रचाने वाले बच्चों की हत्या कर देते हैं। ऐसा वो अपने प्यारे बच्चों को दोजख+नर्क+हेल वगैरह की आग में जन्म-जन्मातंर या फिर लाखों-करोड़ों बरसों तक जलाए जाने से बचाने के लिए करते हैं। मृत्यु के बाद बच्चों को दोजख+नर्क+हेल की आग में न जलना पड़े इसी लिए इन्हे दुनिया में ही खत्म कर दिया जाता है (हालांकि प्रत्येक धर्म कहता है कि हर एक अपने कर्मों का स्वंय उत्तरदायी होता है)। इस महाद्वीप में प्राचीन काल से ही शादी एक ऐसा गठबंधन है जिसमें शादी करने वालों की राय+खुशी+समझ से ज़्यादा समाज की खुशी+राय+समझ को ज़रूरी माना जाता है। इन देशों में शादी व्यक्तिगत पंसद या जरूरत की बजाए सामाजिक और नौतिक ज़िम्मेदारी मानी जाती है। इसी सामाजिक और नौतिक ज़िम्मेदारी का सही-सही निर्वहन करने के लिए बच्चों का पालण-पोषण धर्म+संस्कृति+रिश्तेदारों+पड़ोसियों की पसंद और नापसंद की आधार पर किया जाता है। 

शादी चूंकि निजी नहीं बल्कि सामाजिक और नैतिक मामला होता है। ऐसे में इस विषय पर समाज के हर व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति को राय+लताड़+छींटाकशी करने का मौलिक अधिकार मिला होता है। जिसका वे भरपूर उपयोग करते हैं( लेकिन इस अधिकार का प्रयोग आमतौर पर व्यक्ति की हैसियत और पहुंच देखकर करते हैं, पहुंचेलोगों पर छींटाकशी का करने जोखिम प्रायः नहीं उठाया जाता है)। भारतीय उपमहाद्वीप में शादी एक ऐसा त्योहार है जिसे रिश्तेदार+परिवार+समाज+पड़ोसी बड़ी ही खुशी-खुशी मिलजुलकर मनाते हैं। यही कारण है कि लोग बेगानी शादियों में भी अब्दुल्लाह बन कर नाचते-गाते हैं। यहां समाज केवल शादी करवा कर ही अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं मान लेता है। समाज+पड़ोसी+रिश्तेदार शादी के बाद जोड़े के पहले बच्चे हो जाने तक पूरी निष्ठा से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं। सामाजिक लोग जब तक शादी के लड्डू,हंडिया छुलाई की खीर और पहले बच्चे की अछवानी ना खा लें शादीशुदा जोड़े पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखते हैं। अगर पहला बच्चा लड़काहुआ तो समाज अपनी ज़िम्मेदारियों से स्वंय को मुक्त मान लेता है, और किसी दूसरी ज़िम्मेदारीकी तलाश में निकल पड़ता है। सारी स्थापित प्रक्रियाओं से गुज़रने के बाद इस स्टेज पर आकर शादी पूरी तरह से व्यक्तिगत मामले की श्रेणी में आ जाता है। इसके बाद पति-पत्नि में जूतम-पैजार हो या फिर कोर्ट-कचहरी में मामला पहुंच जाए, चाहे उन्हें आर्थिक समस्याओं से जूझना पड़ रहा हो और किसी तरह की सहायता की ज़रूरत हो। कोई समाज+संस्कृति+धर्म+रिश्तेदार+पड़ोसी इनके निजी मामले में दखल देने की कोशिश नहीं करते हैं। 

सभ्यता और संस्कृति से ओत-प्रोत मन वाले किसी के घरेलू+नीजि मामले में दखल देना पसंद नहीं करते हैं। हां लेकिन लेकिन अगर बेटी हो जाए तो समाज+परिवार+रिश्तेदारों की जिम्मेदारी ख़त्म नहीं होती है। और जब तक बेटा ना हो जाए तो वो शादी-शुदा जोड़े को मॉटीवेट करते रहते हैं। कभी ताने-उलाहने की शक्ल में तो कभी-कभी बिन वारिस के बुढ़ापे की डरावनी कल्पना करवा-करवा कर। अगल लगातार बेटियों के बावजूद पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं होती है तब समाज इस जोड़े की देखभाल का जिम्मा उम्र भर के लिए उठा लेता है। ऐसे में समाज+संस्कृति+धर्म की अगुवा औरतें-पुरूष यदा-कदा और मुत्तहदा होकर कभी कातर स्वर में रूदन कर के और कभी ताने की राग भैरवी समेत शादीशुदा जोड़े की ख़ैर-ख़ैरियत उम्र भर लेते रहते हैं। शादी अगर अपने धर्म+जाति+उपजाति+हैसियत+नस्ल में की जाए तो अतिउत्तम।अगर इस इक्वेशन में थोड़ा भी फेरबदल कर शादी की जाए तो धर्म+समाज+रिश्तेदार+पड़ोसियों की नाराजगी झेलने पड़ती है। वो ऐसी शादियों में तरह-तरह स्वादिष्ट व्यंजनों का तो लुत्फ़ उठाते हैं लेकिन उनके माथे से बल कम नहीं हो पाते हैं। शादी के सारे इक्वेशन सही जा रहे हों लेकिन कैलकुलेशन में गड़बड़ हो जाए यानी दहेज मनचाहा ना हो तो रिश्तेदार-परिवार ऐसी शादियों को पूरी तरह से सर्टीफाईड करने से मना कर देते हैं। अगर किसी जोड़े या परिवार के दिमाग में क्रांति के कीड़े पड़ जाएं और वो आदर्श किस्म का कम खर्चे वाला ब्याह रचाने को तैयार हो तो ऐसे में भी कई बार समाज+रिश्तेदार+पड़ोसी को आपत्ति हो जाती है। आदर्श शादी करने वाले जोड़े और उनके अभिभावकों को कंजूस और गैरसमाजी माना जाता है। इस तरह के गलत कारनामें से दूर-पार के रिश्तेदारों की भी इज़्ज़त चली जाती है। 

भारी खर्चे और भारी दहेज वाली शादियों से समाज+रिश्तेदार+पड़ोसी सब ही ईर्ष्यामिश्रित खुशी महसूस करते हैं।दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म+संस्कृति+जाति+उपजाति+हैसियत+रंग+रूप के सारे गुण मिल जाएं तो एक सफल समाजिक जिम्मेदारियों वाली शादी की नींव रखी जा सकती है। लड़के-लड़की की सोच-समझ कितनी मिलती है इन बेकार किस्म की बातों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। यहां तयशुदा नियमों की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद ही सफल शादी की नींव रखी जाती है। वरना कई बार तो दो लोगों के द्वारा आपसी समझ से की गई शादी अख़बारों की सुर्ख़ियां और राष्ट्रीय स्तर के बहस का विषय भी बन जाया करती हैं। संविधान द्वारा प्रद्त्त दो व्यस्कों के अपनी मर्ज़ी से साथ रहने की इज़ाज़ को समाज और संस्कृतिक के लोग ज्यादा तरजीह नहीं देते हैं। 
शादियां आमतौर पर समाज में रूतबे,इज़्ज़त और सुरक्षा के लिए की जाती है। हलांकि आजकल समाज में लव विथ अरेंजवाली शादियों का भी प्रचलन हो गया है। इस तरह की शादियां तेजी से प्रचलित हो रही हैं। बस ऐसी शादियों में थोड़ी सावधानी बरतनी होती है, प्रेम करने से पहले शरलॉक होम्स की तरह थोड़ी तहकीकात करनी पड़ सकती है। यानी पहले जाति+धर्म+उपजाति+हैसियत+गोत्र वगैरह का पता कर के प्रेम में पड़ना पड़ता है। इस प्रकार के प्रेम को परिवार-रिश्तेदार मिल-जुल कर अरेंज्ड कर देते हैं। यानी इसमें प्रेम के साथ समाजिक शादी की भी फीलिंग आती है। इस तरह की शादियों में वो सब कुछ होता है जो एक सामाजिक शादी में होता है। एकता कपूर मार्का धारावाहिकों से मिलते-जुलते रस्मों रिवाज,मंहगी और चकाचक अरेंजमेंट और जगर-मगर करते लोग। हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में शादी को दोआत्माओंका मिलन माना जाता है। दोआत्माओं को मिलाने का परम पुण्य कामप्रायः परिवार+समाज+संस्कृति के बुज़ुर्ग उठाते हैं। दो आत्माओं को जोड़ने की शुरूआती मीटिंग में बुज़ुर्गों के बीच अहम मुद्दा होता है कि कौन सा पक्ष कितने मन लड्डू लाएगा,लड्डू घी के बने होंगे या फिर रिफाइन ऑयल से तैयार होंगे, डायट मिठाईयां भी होंगी,कितने तोले सोने के ज़ेवर लिए दिए जांएंगे, दहेज में क्या होगा, एक दूसरे के रिश्तेदारों को कैसे और कितनी कीमत के गिफ्ट दिए-लिए जाएंगे, बारातियों का स्वागत पान-पराग से होगा या नहीं, शादी की अरेंजमेंट कितनी शानदार-जानदार होगी?इन बेहद अहम मुद्दों पर सही-सही जोड़-घटाव करने के बाद ही बुज़ुर्गों द्वारा पवित्र आत्माओं के मिलन की शुरूआती प्रक्रिया पूरी की जाती है। हालांकि इन सब के दौरान बार्गेनिंग,रूठना-मनाना, तूतू-मैंमैं की भी पूरी संभावना बनी रहती है। 

दो आत्माओं के मिलन की इस महानतम सोच को लेकर निष्ठा का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि आईआईएम,आईआईटी जैसी शिक्षण संस्थानों से निकले युवक-युवतियां भी इस पर पूरी आस्था रखते हैं। ये नौजवान अपने बुज़ुर्गों की बात से पूरी तरह से सहमत होते हुए शानदार-दमदार-जानदार किस्म की शादियों की तैयारियों में जुट जाते हैं। लड़कियां भी मंहगी से मंहगी ज्वेलरी और कपड़े खरीद कर ही ससुराल जाना चाहती हैं। ताकि उनकी इज्ज़तपर कोई आंच ना आए। भले ही इस दौरान बाप के कमज़ोर कंधे और झुक जाएं या फिर मां के अपने ख्वाहिशों को मार-मार के जमा किए पैसे एक्सेसरीज में खर्च हो जाएं। शादी-ब्याह की महत्ता का अंदाजा इससे भी लगया जा सकता है किसमाज+संस्कृति को जितना डर पॉकेटमारों,डकैतों,भ्रष्ट अफसरों,नेताओं से नहीं होता है, उससे कहीं ज्यादा डर बिनब्याहे लड़के-लड़कियों से महसूस होता है। 

दरअसल प्राचीन काल से ही भारतीय उपमहाद्वीप में इस पर गहन शोध किया गया है कि बिना शादी के लड़के-लड़कियां समाजिक कुरीति और बुराई की बड़ी वजह होते हैं। यही कारण है कि इन्हें किराए के मकान भी नहीं दिए जाते हैं। कई हाउसिंग सोसायटी कुंवारों को घर देने पर बैन लगाती हैं। क्योंकि इनकी वजह से संस्कृति के खराब होने की संभावना बनी रहती है। यह भी एक कारण होता है कि समाज गैरशादीशुदा लोगों की शादी जल्द से जल्द किसीसे भी करवा देना चाहता है। समाज तयशुदा उम्र के भीतर-भीतर लड़के-लड़की की शादी करवाने के लिए प्रतिबद्ध होता है। अगर लड़के-लड़कियों की  प्राथमिकता करियर हो या फिर कोई अन्य कारण हो और तयशुदाउम्र में शादी नहीं करना चाहते हैं तो इसे समाज-संस्कृति के नियमों का उल्लंघन माना जाता है। जिस के दंड स्वरूप समाज नौवजवानों के साथ-साथ उनके माता-पिता औऱ रिश्तेदारों पर व्यंग बाण छोड़ता रहता है। इस मुद्दे पर समाज का एकजुट मानना होता है कि ऐसे नौजवानों के माता-पिता और परिवार वाले अपने बच्चों का ख्याल नहीं रखते हैं(मने समाज ही इन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई,दुख,बीमारी औऱ हर तरह की आवश्यकताओं की पूरी जिम्मेदारी उठाता है)। भारतीय उपमहाद्वीप में शादी की महत्ता इस से भी पता चलती है कि समाज भले ही भयानक बीमारी,एक्सीडेंट,पढ़ाई-लिखाई,खाने के लिए किसी की आर्थिक मदद ना करता हो। लेकिन किसी गरीब कि बेटी की शादी में दहेज में देने के लिए पलंग,आलमारी,सोने की अंगूठी टाईप चीजें घट रही हों तो फौरन ही भावविह्ळ होकर आर्थिक मदद कर देता है। 

दरअसल समाज के लिए शादी ब्याह पुण्य का काम है। खासकर बेटियों की शादियां करवाना तो उच्च स्तर का सवाब होता है (उन्हें पढ़ाना-लिखाना,आत्मनिर्भर बनाने से कहीं ज़्यादा)। पांच लड़कियों की शादी करें एक हज का सवाब पाएं कन्या दान करें स्वर्ग का टिकट कन्फर्म करवाएं वगैरह-वगैरह!भारतीय उपमहाद्वीप में शादी की महत्ता का अंदाजा इस से भी लगता है कि माना जाता है कि शादी कर देने से हिस्टीरिया,मिर्गी और कई तरह की दिमागी बीमारियां ठीक हो जाती हैं। इसी लिए कई बार झूठ और धोखे से ऐसे मरीजों से ठीक-ठाक लोगों की शादियां करवा दी जाती हैं। चूंकि यह परम पुण्य का काम होता है तो ऐसे धोखे पर समाज-संस्कृति वैगरह चुप ही रहते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में अकेले रहने वाला व्यक्ति कितना भी भला आदमी हो, सफल हो वो उन्नीस ही रहता है।इसकी जगह भ्रष्ट-कपटी लेकिन भरेपूरे परिवार वाला विवाहित व्यक्ति सम्मानित नागरिकों के श्रेणी में रखा जाता है।


sadafmoazzam@yahoo.in

राजेश खन्ना की कामयाबी एक मिसाल है- सलीम खान

$
0
0
80 के दशक में जब हम बड़े हो रहे थे तो हमारे सामने सबसे बड़ा डाइलेमा था कि कपिल देव सबसे बड़े क्रिकेट खिलाड़ी हैं या सुनील गावस्कर. 70 के दशक में हमारे मामाओं-चाचाओं के लिए डाइलेमा दूसरा था- राजेश खन्ना या अमिताभ बच्चन. याद आया यासिर उस्मान की पुस्तक राजेश खन्ना- कुछ तो लोग कहेंगेको पढ़ते हुए. राजेश खन्ना हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार थे. हम प्रस्तुत कर रहे हैं इस यादगार किताब की भूमिका जिसे लिखा है सलीम खान ने. राजेश खन्ना की फिल्म 'अंदाज'से सलीम-जावेद की उस लेखक जोड़ी की सफल शुरुआत हुई थी. जो सिनेमा की पहली सुपर स्टार लेखक जोड़ी थी. सलीम साहब ने बहुत अच्छा लिखा है. यकीनन आप पढ़कर कायल हो जायेंगे- प्रभात रंजन  
======================================================

राजेश खन्ना और मेरे करियर ने 1970 की शुरुआत में तक़रीबन एक ही साथ उड़ान भरी थी। राजेश खन्ना से जब हमारी (मेरी और जावेद अख़्तर) मुलाक़ात हुई थी तब तक उनकी फिल्में आराधनाऔर दो रास्तेरिलीज़ हो चुकी थीं और उन्हें सुपरस्टार का ख़िताब मिल चुका था। फिर हमने जीपी सिप्पी की फिल्म अंदाज़में पहली बार साथ काम किया। इस फिल्म के निर्माण के दौरान ही हमारी जान-पहचान बढ़ी। उनके साथ नई स्टोरी आयडियाज़ पर बहुत चर्चा होती थी। हम अच्छे दोस्त बन गए थे। बान्द्रा में भी हम लोग पड़ोसी हुआ करते थे और तक़रीबन रोज़ ही मिला करते थे। जिन दिनों उनका सितारा बुलंदी पर था, मैं भी अक्सर उनके बंगले आशीर्वादकी बैठकों में शामिल हुआ। मुझे उन्हें क़रीब से जानने का वक़्त मिला। कई साल तक उन्हें जानने-समझने के बाद मैं उनके बारे में ये तो नहीं समझ पाया कि वो अच्छे हैं या बुरे, बस इतना समझा कि वो अजीब थे। सबसे अलग थे।
   
ये वो वक़्त था जब फिल्म इंडस्ट्री आज के दौर के मुक़ाबले छोटी ज़रूर थी लेकिन यहां प्रतिद्वंद्विता कम नहीं थी। दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार जैसे एक्टर राज करते थे। इन सबकी मौजूदगी में किसी भी नए एक्टर के लिए अपनी पहचान बनाना बड़ी बात थी। राजेश ने ना सिर्फ़ अपनी पहचान बनाई बल्कि बहुत कम वक़्त में अपने स्टारडम को एक नई ऊंचाईं तक पहुंचा दिया। 1969-1975 तक मैंने उनके सुपर स्टारडम को बेहद क़रीब से देखा लेकिन मुझे ये कहने में कोई झिझक नहीं है कि जिस ऊंचाई को उन्होंने छुआ वहां उनके बाद आज तक हिंदी सिनेमा का कोई स्टार नहीं पहुंचा। उनकी कामयाबी एक मिसाल है।

आज मेरा बेटा सलमान बड़ा स्टार है। हमारे घर के बाहर उसे देखने के लिए हर रोज़ भीड़ लगती है। लोग मुझसे कहते हैं कि किसी स्टार के लिए ऐसा क्रेज़ पहले नहीं देखा। मैं उन लोगों से कहता हूं कि इसी सड़क से कुछ दूरी पर, कार्टर रोड पर आशीर्वादके सामने मैं ऐसे कई नज़ारे देख चुका हूं। राजेश खन्ना के बाद मैंने किसी भी दूसरे स्टार के लिए ऐसी दीवानगी नहीं देखी।

राजेश के फैन्स में 6 से 60 साल तक के लोग शामिल थे। ख़ासतौर पर लड़कियां तो उनकी दीवानी थीं। उनके करियर की सबसे बड़ी हिट फिल्म हाथी मेरे साथीलिखने में भी मेरा योगदान था। मुझे याद है कि इस फिल्म की शूटिंग के वक़्त मैं उनके साथ मद्रास (चेन्नई) और तमिलनाडु की कई दूसरी लोकेशन्स पर गया। मैंने देखा उन इलाकों में भी राजेश खन्ना के नाम पर भारी भीड़ जमा हो जाती थी। ये हैरत की बात थी क्योंकि वहां हिंदी फिल्में आमतौर पर ज़्यादा नहीं चलती थीं। तमिल फिल्म इंडस्ट्री ख़ुद काफ़ी बड़ी थी और उसके अपने मशहूर स्टार थे, लेकिन राजेश खन्ना का करिश्मा ही था जो भाषा की सरहदों को भी पार कर गया था। ये करिश्मा उन्होंने उस दौर में कर दिखाया जब ना तो टेलीविजन था, ना 24 घंटे का एफ़एम रेडियो ना बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसीज़।

लेकिन चार-पांच साल के बाद उनके करियर की ढलान भी शुरू हुई। जिस तरह उनकी बेपनाह कामयाबी की कोई एक वजह नहीं थी, उसी तरह उनके करियर के ढलने की भी कोई एक वजह नहीं थी। उनकी पारिवारिक ज़िंदगी के तनाव, इंडस्ट्री के लोगों के साथ उनका बर्ताव और कुछ नया ना करना...ऐसी कई वजहें थीं। लेकिन मुझे लगता है कि इसमें क़िस्मत का खेल भी था। फिर जब फिल्में पिटीं तो उन्होने अपने अंदर झांक कर नहीं देखा कि ग़लती कहां हुई। उन्होंने दूसरों को दोष देना शुरू कर दिया। उन्हें लगता था कि उनके खिलाफ़ कोई साजिश हुई है।

उन जैसे सुपरस्टार के बारे में ये जानकर आपको हैरानी होगी कि एक इंसान के तौर पर वो इंट्रोवर्टथे और खुद को सही ढंग से एक्सप्रेसतक नहीं कर पाते थे। वो बेहद शर्मीले भी थे। मैं उनकी मेहमाननवाज़ी का भी गवाह रहा हूं। बड़े दिल के आदमी थे, खाना खिलाने का शौक़ीन थे। मैं जानता हूं कि उन्होंने अपने स्टाफ़ के लोगों को मकान भी दिए हैं, कोई आदमी अच्छा लगता था तो उसके लिए बिछ जाते थे। गाड़ियां तक गिफ्ट दी है। उस ज़माने में अपने दोस्त नरिंदर बेदी को भी उन्होंने गाड़ी तोहफे में दी थी। फिर धीरे-धीरे उनका दौर गुज़र गया। लेकिन मुझे लगता है कि अपने ज़ेहन में वो इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर पाए।  

फिल्म इंडस्ट्री के बड़े स्टार्स पर कई किताबें लिखी गई हैं। इनमें से ज़्यादातर या तो राजेश खन्ना से पहले के स्टार्स जैसे दिलीप कुमार, देव आनंद, राज कपूर, शम्मी कपूर वगैरह पर है या फिर राजेश खन्ना के बाद के स्टार्स जैसे अमिताभ बच्चन पर। हैरानी की बात है कि राजेश खन्ना पर अब तक कुछ भी शोधपरक नहीं लिखा गया था। जबकि उनका दौर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का बेहद अहम और करिश्माई दौर रहा है। अपने उस दौर में वो वन मैन-इंडस्ट्रीथे और कहा जाए तो उन दिनों फिल्में नहीं चलती थीं, सिर्फ राजेश खन्ना चलते थे।

किसी कलाकार की ज़िंदगी के बारे में रिसर्च करके लिखना आसान नहीं है। वक्त बीतने के साथ साथ कलाकार को जानने वालों की यादें अक्सर धुंधली होती जाती है। ज़रूरी है कि उन लोगों से बात करके उसकी पर्सनैलिटी को समझ कर, उसे दस्तावेज़बंद किया जाए। कोई भी शख्स ऐसा क्यों था? उसकी एक्टिंग, फिल्में और ज़िंदगी, सिनेमा के इतिहास का हिस्सा हैं जिनके बारे में लिखा जाना चाहिए। 

इस किताब के शोध के लिए लेखक यासिर उस्मान ने ऐसे कई लोगों से बात की है जो राजेश खन्ना को क़रीब से जानते थे या फिर उनके साथ काम कर चुके हैं। इसके अलावा ख़ुद राजेश के पुराने इंटरव्यूज़, उनके निर्माता-निर्देशकों, को-स्टार्स के अनुभव और कड़ी रिसर्च के ज़रिए उनकी ज़िंदगी और उस दौर को बड़ी खूबसूरती से री-क्रिएट किया गया है। हालांकि ये राजेश खन्ना की असली ज़िंदगी की कहानी है लेकिन लेखक का अंदाज़-ए-बयां ऐसा है कि ये कहानी किसी दिलचस्प फिल्म की तरह ज़ेहन में यादगार तस्वीरें उभारती है। इन तस्वीरों में राजेश खन्ना पलकें झपकाते हुए, अपनी हसीन मुस्कान के साथ भी नज़र आते हैं और बाद में अकेलपन और गुमनामी से जूझते हुए गुज़रे ज़माने के स्टार के तौर पर भी।    

फिल्म स्टार्स या पब्लिक फिगर्स के बारे में बात करते वक़्त हम अक्सर ये भूल जाते हैं कि वो भी आम इंसान ही हैं जो ग़लतियां करते हैं, नाकाम भी होते हैं, जिन्हें असुरक्षा  होती है और कामयाबी खोने का डर भी सताता है। इस कहानी में राजेश खन्ना के बेमिसाल स्टारडम के साथ एक एक्टर के तौर पर उनकी क़ाबिलियत का ज़िक्र है, तो एक इंसान के तौर पर उनकी ख़ूबियों और ख़ामियों की भी बात है। कुल मिलाकर लेखक, राजेश खन्ना की शख़्सियत के कई डायमेंशंस बड़ी ख़ूबी से सामने लाए हैं। अक्सर मशहूर शख्सियतों की असली ज़िदगी पर लिखे गए लेख या किताबें या तो सिर्फ़ उनकी तारीफ़ करती हैं या सिर्फ आलोचना, और इस कोशिश में अक्सर यूनी डायमेंशनलहो जाती हैं। लेकिन यहां कड़ी रिसर्च के हवाले से, बड़े बैलेंस तरीक़े से सारी बातें उभरती हैं। किसी दिलचस्प नॉवेल की तरह कहानी को आगे बढ़ाते हुए, लेखक गंभीर बात कह जाते हैं। ख़ासतौर पर अंत तक पहुंचते हुए उन्होंने जिस तरह राजेश खन्ना के व्यक्तित्व को समझाने की कोशिश की है, वो लेखनी पर उनकी पकड़ को साफ़ दिखाता है। इसमें लेखक की पत्रकारिता की ट्रेनिंग भी नज़र आती है।

मैंने भी ये सोचा नहीं था कि अगर एक इंसान की ज़िंदगी खोली जाए तो उसमें कितनी पर्तें हो सकती हैं और ये पर्तें उसकी शख्सियत को कितने आयाम देती हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट लिखते समय, नए-नए किरदार गढ़ते वक़्त मैं इन बातों पर बेहद ध्यान देता था, लेकिन ये किताब पढ़कर मुझे यही लगा कि वाक़ई ट्रूथ इज स्ट्रॉन्गर दैन द फिक्शन। एक ऐसा शख़्स जिसे मैं एक जीते जागते इंसान के तौर पर जानता था, उसी शख्स को देखने समझने का एक नया नज़रिया और उसकी ज़िंदगी एक नया पहलू मुझे इस किताब में नज़र आया।

मुझे यक़ीन है कि इस किताब को पढ़ते वक़्त आप मुस्कुराएंगे, कुछ हिस्से आपकी आंखें नम भी करेंगे। अपने हीरो राजेश खन्ना के लिए आपको हमदर्दी भी होगी और फिर क्लाईमैक्स तक आते आते एक जीत का अहसास भी होगा। यानी ये अनुभव तक़रीबन वैसा ही है जैसे राजेश खन्ना की कोई बेहद कामयाब फिल्म देखने के बाद हुआ करता था। फिल्म इंडस्ट्री के जिस दौर का मैं भी गवाह रहा हूं, उस ख़ास वक़्फ़े को इस किताब में जिंदा करने की कोशिश की गई है। मेरा मानना है कि ये किताब सिनेमाई लेखन में एक अहम दस्तावेज़ है जो आने वाले समय में फिल्म इतिहास का हिस्सा रहेगी। मैं यासिर को उनकी इस कोशिश के लिए मुबारकबाद देता हूं। 
===================================================
टेलीविज़न पत्रकार और लेखक यासिर उस्मान ने ये किताब हिंदी और अंग्रेज़ी भाषाओं में लिखी है और इसे पेंगुइन बुक्स इंडिया ने प्रकाशित किया है। 296 पन्नों की इस किताब का मूल्य 250.00 रुपए है और इसमें राजेश खन्ना के जीवन से जुड़े कई रोचक चित्र प्रकाशित किए गए हैं। किताब का ई-बुक वर्जन भी जल्दी ही उपलब्ध होगा।





जनवादी लेखक संघ और वाम लेखकों के बीच एक रोचक और गंभीर बहस!

$
0
0
पता नहीं आप लोगों का इसके ऊपर ध्यान गया कि नहीं वाम विचारक श्री अरुण महेश्वरी ने जनवादी लेखक संघ के नेतृत्व के नाम एक खुला पत्र अपने फेसबुक वाल पर जारी किया. उसके बाद जनवादी लेखक संघ के उप-महासचिव संजीव कुमार का एक पत्र जारी हुआ और उसके बाद श्री नन्द भारद्वाज और अरुण महेश्वरी के बीच एक गंभीर बहस चल रही है. सब कुछ फेसबुक वाल्स पर. इस बहस के सभी प्रासंगिक पहलू यहाँ दिए जा रहे हैं. पढ़िए और खुद फैसला कीजिए कि बाजार का विरोध करने वाला एक लेखक संगठन कितनी सहजता और महारत के साथ बाजार को साध रहा है. बहरहाल, मेरे कहे पर मत जाइए अपनी राय बनाइये. मेरी कोई राय फिलहाल बनी नहीं है लेकिन मन में एक संशय जरूर पैदा हो गया है. फिलहाल यह बहस- प्रभात रंजन 
=================================

अरुण महेश्वरी की फेसबुक वाल- क्या जनवादी लेखक संघ का नेतृत्व बतायेगा ?
 कल (३ दिसंबर को) भारतीय भाषा परिषद की ओर से अशोक सेकसरिया की स्मृति में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया था । अशोक जी के पिता भाषा परिषद के प्रमुख संस्थापक द्वय में एक थे । अशोक जी का परिषद की गतिविंधियों में कभी कोई दखल रहा या नहींहम नहीं जानते । लेकिन यह सब जानते हैं कि पिछले कुछ सालों से वे परिषद की गतिविधियों से सख़्त नाराज़ थे । परिषद के कर्मचारियों से जुड़े सवालों पर उन्होंने एक मर्तबा बाक़ायदा धरना तक देने की धमकी दी थी । पिछले दिनों एक खुले पत्र से उन्होंने उसके मौजूदा संचालकों पर कई बुनियादी नैतिक सवाल उठाये थे । हम उस पत्र के एक बिंदु पर लेखक मित्रों का ध्यान खींचना चाहते हैं । इसमें वे लिखते हैं -
भारतीय भाषा परिषद ने अपने मासिक वागर्थ के दो नवलेखन अंकों को मिला कर बिना किसी संपादन और भूमिका के एक किताब बना कर राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को उसकी चार सौ पचास प्रतियां बेची हैं। यह किताब बाजार में कहीं उपलब्ध नहींपरिषद की पुस्तक की दुकानपुस्तक केंद्र’ तक में नहीं। जिनलोगों की रचनाएं संकलित हैंउन्हें पुस्तक भेजना तो दूरयह भी सूचित नहीं किया गया है कि उनकी रचनाओं का क्या हश्र हुआ है।‘’
इसपर आगे वे कहते हैं - "सूचना के अधिकार के तहत राजा राममोहन रायलाइब्रेरी फाउंडेशन और सरकारी संस्थाओं द्वारा पुस्तकों की खरीद की प्रक्रियाओं - उनके चयन और चयनकर्ताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करना और चुप्पाचोरी धांधली को रोकना बहुत जरूरी है।
ज़ाहिर हैअशोक जी की शिकायत थी कि परिषद ने वागर्थ के दो अंकों को किताब का रूप देकर राममोहन लाइब्रेरी को बेच डालामुनाफ़ा किया लेकिन लेखकों को फूटी कौड़ी नहीं दीयहाँ तक कि पुस्तक की एक प्रति भी नहीं भेजी । इस काम को इतने गोपनीय ढंग से किया गया कि परिषद के प्रकाशनों की सूची में भी उस किताब का कोई स्थान नहीं है ।
भारतीय भाषा परिषद के उद्देश्यों में स्पष्ट रूप से कहा गया है, ‘संस्था के पूर्ण रूप से उन्नायक होने के कारण उसकी कोई भी प्रवृत्तिजिसमें मुद्रण और प्रकाशन भीसम्मिलित हैकिसी भी प्रकार के आर्थिक लाभ या प्राप्ति के लिए संचालित नहीं की जाएगी।’ इसी का हवाला देते हुए अशोक जी ने भाषा परिषद की इस करतूत को अनैतिक क़रार दिया ।
ग़ौर करने लायक बात है कि जिस चीज़ पर अशोक जी की इतनी तीव्र आपत्ति थीवह तो आज के हिंदी जगत का जैसे एक सर्वमान्य नियम बनी हुई है । अधिकांश पत्र-पत्रिकाएँ यह काम धड़ल्ले से करती है । इनमें व्यक्तिगत प्रयत्नों से निकलने वाली पत्रिकाओं के साथ ही लेखक संगठनों की पत्रिकाएँ भी शामिल है । फिर भीव्यक्तिगत प्रयत्नों की पत्रिकाओं के पीछे के तर्कों पर कोई टिप्पणी करना ठीक नहीं होगालेकिन जो बात भारतीय भाषा परिषद पर लागू होती हैवही लेखक संगठनों पर ज़रूर लागू होती है क्योंकि वे भी 'आर्थिक लाभ या प्राप्ति के लिये संचालित नहींहै ।
जनवादी लेखक संघ की पत्रिका 'नया पथके भी कुछ अंक पिछले दिनों किताब का रूप लेचुके हैं । मज़े की बात यह है कि इन किताबों को कहीं भी जनवादी लेखक संघ की किताबों के रूप में पेश नहीं किया जाता है । पता नहीं इनकी कॉपीराइट किसके पास हैलेकिन जनवादी लेखक संघ की वेबसाइट पर इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
ऐसे मेंअशोक जी भारतीय भाषा परिषद के वर्तमान पदाधिकारियों को जिस चीज़ के लिये अपराधी के कठघरे में खड़ा कर रहे थेवह सवाल तो जलेस के पदाधिकारियों पर भी उठाया जा सकता है । हम नहीं जानते जनवादी लेखक संघ की केन्द्रीय परिषद के अनुमोदन से यह काम किया जाता रहा हैया यह सब किसी की सनक का नतीजा है । लेकिन हमारा मानना है कि संगठन के सदस्यों को इसका संतोषप्रद उत्तर ज़रूर मिलना चाहिये । यह भी बताया जाना चाहिये कि क्या इन पुस्तकों में शामिल लेखकों को कोई मानदेय या पुस्तक की एक प्रति ही मुहैय्या करायी गई है पुस्तक की रॉयल्टी वग़ैरह के सवाल अलग हैं ।

संतोष चतुर्वेदी की फेसबुक वाल- कल अरुण माहेश्वरी जी ने अपनी फेसबुक वाल पर क्या जनवादी लेखक संघ का नेतृत्व बतायेगा?’ इस शीर्षक से एक पोस्ट जारी किया था। जलेस के सन्दर्भ में अरुण जी द्वारा उठायी गयी मुख्य आपत्ति इस प्रकार थी 
 “जनवादी लेखक संघ की पत्रिका 'नया पथके भी कुछ अंक पिछले दिनों किताब का रूप ले चुके हैं। मज़े की बात यह है कि इन किताबों को कहीं भी जनवादी लेखक संघ की किताबों के रूप में पेश नहीं किया जाता है । पता नहीं इनकी कॉपीराइट किसके पास हैलेकिन जनवादी लेखक संघ की वेबसाइट पर इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता।” मैंने इस प्रश्न के बावत जलेस के उपमहासचिव संजीव जी से वस्तुस्थिति जाननी चाही थी। आज संजीव जी का जवाब हमें ई-मेल से प्राप्त हुआ। जो इस प्रकार है-

प्रिय संतोष भाई,

नया पथ’ की सामग्री से किताबें छपवाने का जो मुद्दा अरुण माहेश्वरी जी ने उठाया हैउसको लेकर मैंने चंचल चौहान और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह सेजो अभी बच्चों के पास अमरीका में हैंबात की. मेरी जो समझ बनीवह आपसे साझा कर रहा हूँ।
1. नया पथ’ की सामग्री से जो किताबें छपी हैंवे हैं: हिंदी-उर्दू साझा संस्कृति पर नेशनल बुक ट्रस्ट सेफैज़ पर दो किताबें राजकमल से१८५७ पर किताब राजकमल सेऔर नागार्जुन पर लोकभारती से। इनके अलावा तीन सौ रामायणों वाली किताब भी राजकमल से हैजिसमें नया पथ’ की सामग्री बमुश्किल पचास फीसद है और उसमें भी सबसे बड़ा हिस्सा मेरे द्वारा किया हुआ रामानुजन के लेख का अनुवाद है। वह व्यक्तिगत रूप से मेरे सम्पादन में निकली एक कृशकाय पुस्तक हैजिसमें बाबा बुल्केरोमिला थापर और पी के बसंत के लेख/पुस्तकांश भी शामिल किये गए हैंजो नया पथ’ में नहीं थे। अन्य किताबों में भी नया पथ’ से थोड़ी भिन्न सामग्री शामिल की गयी है. जैसे फैज़ वाली किताब में अशोक वाजपेयी और शमीम फैजी के लेख हैं जो 'नया पथ'में नहीं थे। प्रणय कृष्ण के लेख का एक हिस्सा आजकल’ में प्रकाशित लेख से अपनी पूर्णता प्राप्त करता है। सभी किताबों की भूमिकाएं नया पथ’ में प्रकाशित सम्पादकीय से भिन्न हैं।
2. किताबों में शामिल सभी लेखकों को मानदेय भेजे गए हैंकिताबें भी भेजी गयी हैं। नया पथकी ओर से (पत्रिका में प्रकाशन के लिए) मानदेय अलग और प्रकाशक की ओर से अलग। किताब और मानदेय मिलने में कहीं चूक हुई हो तो प्रकाशक या सम्पादक को सूचित किया जा सकता है।
3. ये किताबें जनवादी लेखक संघ के प्रकाशन नहीं हैंभिन्न-भिन्न प्रकाशकों के प्रकाशन हैंजिन पर स्वत्वाधिकार संपादक और लेखक का है। लेखकों को मानदेय और किताब की प्रतिकिताब में उनके लेख के इस्तेमाल का अधिकार प्राप्त करने की शर्त के रूप में दी गयी है।
4. चूंकि इन विशेषांकों की पाठकों की ओर से बहुत मांग थीअतः नया पथ के संपादक मंडल की ओर से स्वतंत्र पुस्तक छपवाने का फैसला किया गया था। पुस्तक के रूप में उस सामग्री को अधिक लंबा जीवन मिल जाता है और पुस्तकालयों के माध्यम से वह अधिकाधिक लोगों के लिए तथा अधिक लम्बे समय के लिए उपलब्ध भी हो जाती है। मेरी अपनी समझ है कि तकनीकी-प्रक्रियागत बिन्दुओं में उलझा कर हमारा जो मुख्य काम है प्रगतिशील-जनवादी चरित्र के लेखन की पहुँच बढाने के सभी साधनों का इस्तेमाल उसे टाला नहीं जाना चाहिए। बेहतर बिक्री-नेटवर्क वाले प्रकाशकों के यहाँ से छप कर ये चीज़ें ज़्यादा दूर तक पहुँची हैं। यह उनमें शामिल लेखकों के लिए संतोष का ही विषय होना चाहिएऔर है। यह लेखकों के हित की बात हैअहित की नहीं। कोई मुझे समझा दे कि उनका क्या अहित हो गया?
5. जहां तक तकनीकी-प्रक्रियागत बिन्दुओं का भी सवाल हैअरुण जी की आपत्ति बहुत तात्विक नहीं है। नया पथ’ या जलेस किसी लेखक की रचना का कॉपीराइट तो खरीदता नहीं है। ऐसी स्थिति में उन लेखकों से उनके लेख के इस्तेमाल की इजाज़त लेकर कोई भी किताब निकाल सकता हैक्या यह बताने की ज़रुरत हैफ़र्ज़ कीजिये कि यही किताबें किसी और के सम्पादन में निकलतीं तो आप क्या करते/कहते! ज़हूर सिद्दीक़ी साहब ने नया पथ’ के साझा संस्कृति वाले अंक से काफी सामग्री ले कर उर्दू में किताब संपादित कीवह भी एन. बी. टी. से है। इसके लिए उन्हें नया पथ या जलेस से नहींउन लेखों के लेखकों से इजाज़त लेनी पडी। यह बात सिर्फ यह जताने के लिए कह रहा हूँ कि अगर प्रश्न तकनीकी प्रकृति के हों तो उत्तर भी तकनीकी प्रकृति के दिए जा सकते हैं और उसमें कोई बुराई नहीं है।
6. लेखकों को अगर उनकी रचनाओं का पूरा श्रेय मिलना चाहिएतो संपादकों को उनके सम्पादन का क्यों नहींमेरी नज़र में यह न सिर्फ तकनीकी रूप से गलत हैबल्कि श्रम-विरोधी दृष्टिकोण भी है कि संपादकों को उनके सम्पादन का श्रेय और स्वत्वाधिकार न दिया जाए। और हममें से कौन नहीं जानता कि श्रेय ही महत्वपूर्ण हैस्वत्वाधिकार के नाम पर रोयल्टी का अंश इतना भी नहीं होता कि साल भर में एक-एक बार किताब के contributors से फोन पर बात कर लेने का खर्चा निकल आये।
7. भारतीय भाषा परिषद् वाले मामले के साथ इन किताबों का मामला तुलनीय नहीं है। भारतीय भाषा परिषद् ने किताबें खुद छापीं और उन्हेंजैसी कि अरुण जी की जानकारी हैबड़ी संख्या में पुस्तकालय ख़रीद का हिस्सा बनवाया। इसका मतलब है कि उसने बाकायदा व्यवसाय किया और उसमें लेखकों को हिस्सा नहीं दिया सो अलग। आप उससे, ‘नया पथ’ की सामग्री लेकर एन. बी. टी.राजकमल आदि से किताबें छपवाने के मामले की तुलना कैसे कर सकते हैं! ख़ास कर जब यह पूरी प्रक्रिया का पालन करते हुएअनुमति ले कर और मानदेय दे करकिया गया हो

नन्द भारद्वाज-  बहुत सटीक और तथ्‍यपूर्ण उत्‍तर है यह। बेहतर होता अरुण जीजलेस जैसे संगठन पर इस तरह की नकारात्‍मक टिप्‍पणी करने से पहले सही तथ्‍यों की जांच स्‍वयं कर लेते,यही बात मैंने अपनी टिप्‍पणी में कहीं हैस्‍वयं अरुण जी अगर उपमहासचिव संजीव से संपर्क कर लेते तो उन्‍हें इस तरह की टिप्‍पणी करना कतई अनुचित ही लगता। बहरहालजब मित्रगण किसी संगठन से अलग हो जाते हैं तो अपने मन में इस तरह की ग्रंथि बना लेते हैंइस प्रवृत्ति से बच सकें तो यह उन्‍हीं के हित में है।

अरुण महेश्वरी- संतोष चतुर्वेदी जी के माध्यम से नया पथ के अंकों की सामग्री के आधार पर किताबों के प्रकाशन के बारे में जो जानकारी मिलीवह मेरी जानकारी से काफी ज्यादा है। मैं नहीं जानता था कि इतने सारे अंकों की सामग्री को पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जा चुका है।
इसके अलावा जिस बात की मुझे आशंका थीवह भी सच प्रमाणित हुई कि जनवादी लेखक संघ की पत्रिका के लिये इकट्ठा की गयी सामग्री से जो पुस्तकें प्रकाशित हुईउनपर जनवादी लेखक संघ का कोई अधिकार नहीं है। वे किताबें संगठन के नेतृत्व के कुछ लोगों की निजी संपदा है।
मेरे प्रश्नों में श्रम विरोधी’ नजरिया कैसे हैयह मैं नहीं जानता। मुझे यह भी समझ में नहीं आता कि ये किताबें हूबहू अशोक सेकसरिया जी की आपत्ति की तर्ज पर जलेस के स्वत्वाधिकार में प्रकाशित होती तो वह गलत होता और इन्हें जलेस के नेतृत्वकारी लोगों के स्वत्वाधिकार में प्रकाशित कर दिया गया तो यह श्रम के सम्मान’ जैसा महत काम होगया !
बहरहालइन तथ्यों के अंतर की बात को और पढ़ने-जानने का काम मैं मित्रों पर ही छोड़ता हूं।

अरुण महेश्वरीजो मित्र मेरे प्रश्नों को संगठन से मेरे संबंधों आदि से जोड़ कर देख रहे हैंउनकी समझ की बलिहारी है।वे हमें सलाह दे रहे हैं कि क्यों नहीं फोन करके हमने सारी बात जान ली। मतलब क्यों नहीं सारी बातों को गुपचुप ही सलटा लिया। उनकी नजर में वही नैतिक होता!

नन्द भारद्वाज-  नहीं अरुण जीमैंने यह कहीं नहीं कहा कि आप या कोई व्‍यक्ति 'फोन करके गुपचुप तरीके सेसारी बातें जान ले। आप बाकायदा लिखकर पूछते और लिखकर ही जवाब मांगते,एक पुराने सदस्‍य के नाते यह आपका हक था। कृपया बात को ठीक तरह से लें।


अरुण महेश्वरी- नन्द जीकभी चीजों को थोड़ा बदलने दीजिये। वैसे ही सब पतन की ओर है। आपने जो बातें कहीवैसी ही बाते श्री संजय माधव जी ने भी लिखी थी। उनके जवाब में जो मैंने लिखा,उसे यहां भी चस्पा कर देता हूं।
"पीड़ा महसूस होती हैजनवादी आंदोलन की वर्तमान दशा पर सवाल करने मात्र पर आप दुखी है,सवाल से जुड़ा सच ज़रा भी विचलित नहीं करता ! चीज़ें अंदर ही अंदर इसी प्रकार सड़ती है और हम समझ भी नहीं पातेवह हमारा जाना हुआ रूप खोकर कुछ और ही बन गयी होती हैं ।

सोचियेनिठारी कांड का सुरेन्दर कोहली । जब तक वह मामला सामने नहीं आया थापड़ौसियों तक के लिये वह एक सामान्य आदमी था । अचानक पता चला कि वह तो नरभक्षी था । आस्ट्रेलिया के अपराधी जोसेफ़ फ्रिजल की कहानी तो जग-प्रसिद्ध है । उसने अपने बच्चों को दुनिया की बुराई से बचाने के लिये सालों तक अपने घर के तहख़ाने में क़ैद रखा और उनसे तमाम प्रकार के दुष्कर्म किये । बाहर के ख़तरों से अपनी बेटी को बचाने के लिये उसे बेटी को नष्ट कर देना मंज़ूर था । वह अपने पक्ष में ऐसी ही दलील देता था कि यदि मैंने ऐसा न किया होता और बेटी को बाहर के बुरे संसार में जाने दिया होता तो उसकी बेटी ज़िन्दा नहीं रहती । उसने कम से कम उसकी हत्या तो नहीं की ! वह चाहता तो उन्हें मार भी सकता था लेकिन उसने जिंदा रखा ।

 श्री अरुण महेश्वरी का नन्द भारद्वाज के नाम खुला पत्र

प्रिय नन्द भारद्वाज जी,

नया पथ’ और उसकी सामग्री को पुस्तकाकार में प्रकाशित किये जाने के प्रसंग पर जलेस के एक और वरिष्ठ अधिकारी जवरीमल पारीख का भी एक खुलासा आया है। इसमें वे लिखते हैं : ‘‘ नया पथ के अंकों की सामग्री लेकर जो पुस्तकें तैयार की गयीवह किया जाना उचित था या अनुचित मैं नहीं जानता. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुस्तकों की जरूरत थी... इन अंकों के पुस्तकाकार छपने से नया पथ को भी लाभ हुआ है. मसलन १८५७ वाले अंक का पूरा खर्चा नया पथ का बच गया था क्योंकि प्रकाशक ने पत्रिका छाप कर दे दी थी और उसके बदले में नया पथ को एक भी पैसा नहीं देना पड़ा था. उसमें जो विज्ञापन मिले थे वह नया पथ की आय हो गयी थी. पिछले चार पांच सालों में निकलने वाले कुछ विशेषांक ही पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं अन्य बहुत से अंकों का व्यय नया पथ के ही अकाउंट से किया गया है.
पारीख जी के उत्तर से जाहिर हैसंजीव कुमार के जिस उत्तर को आप सटीक और तथ्यपूर्ण’ मान रहे थेवह सही नहीं था। वैसे मेरे लिये तो वह जानकारी भी मेरी जानकारी से काफी ज्यादा थी। लेकिन अब जवरीमल जी की पोस्ट से पता चलता है कि संजीव कुमार के पत्र में बताया कम,छिपाया ज्यादा गया था।
मसलन संजीव कुमार का पत्र इस ओर जरा भी इशारा नहीं करता कि नया पथ’ की सामग्री को पुस्तकाकार देने के लिये किसी भी प्रकाशक से किसी प्रकार का कोई आर्थिक लेन-देन किया गया थाजबकि जवरीमल जी बता रहे हैं कि प्रकाशक के पैसों से ही नया पथ का एक पूरा अंक प्रकाशित हुआ।
इसी से संजीव के जवाब का यह तर्क भी बेबुनियाद साबित होता है कि ‘‘ भारतीय भाषा परिषद् वाले मामले के साथ इन किताबों का मामला तुलनीय नहीं है। भारतीय भाषा परिषद् ने किताबें खुद छापीं और उन्हेंजैसी कि अरुण जी की जानकारी हैबड़ी संख्या में पुस्तकालय ख़रीद का हिस्सा बनवाया। इसका मतलब है कि उसने बाकायदा व्यवसाय किया
नया पथ की सामग्री को पुस्तककार में निकालने के लिये नया पथ’ अर्थात जलेस को बाकायदा भुगतान किया गया था।
संजीव कुमार ने अपने पत्र में यह भी बताया है कि ‘‘ किताबों में शामिल सभी लेखकों को मानदेय भेजे गए हैंकिताबें भी भेजी गयी हैं। नया पथ’ की ओर से (पत्रिका में प्रकाशन के लिए) मानदेय अलग और प्रकाशक की ओर से अलग।
अपने अनुभव के आधार पर मैं इस बात की गवाही दे सकता हूं कि संजीव की इस बात में सचाई नहीं है। नया पथ द्वारा लेखकों को मानदेय दिया जाता हैमैं नहीं जानता। मेरी भी एकाध चीज नया पथ में छप चुकी हैलेकिन न किसी प्रकार का कोई मानदेय मिला और न ही हमने उसकी कोई उम्मीद की। इसके अलावा जिस रचना के लिये लेखक को संगठन की ओर से मानदेय दिया गयाउसे किसी व्यवसायिक प्रकाशक को मुहैय्या कराके उसपर निजी स्वत्वाधिकार कायम कर लिया गया ! यह तो और भी अजीब सा लगता है।
ऐसी स्थिति में संजीव कुमार की इस बात में भी कोई दम नहीं लगता कि ‘‘ हममें से कौन नहीं जानता कि श्रेय ही महत्वपूर्ण हैस्वत्वाधिकार के नाम पर रोयल्टी का अंश इतना भी नहीं होता कि साल भर में एक-एक बार किताब के contributors से फोन पर बात कर लेने का खर्चा निकल आये।
भाषा परिषद के मामले में तो अशोक जी ने बताया था कि वागर्थ के दो अंकों के पुस्तकाकार रूप की साढ़े चार सौ प्रतियां बाकायदा राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को बेची गयी थी। इन पुस्तकों की वैसी कोई थोक खरीद नहीं हुईइसे शपथ लेकर कौन कह सकता है ! प्रकाशकों ने इनके प्रकाशन में घाटा उठाने के लिये तो निवेश नहीं ही किया होगा !
नन्द जीयह सब कुछ अजीब प्रकार का गोरखधंधा सा लगने लगा है। इसपर भगवान दास मोरवाल जी ने जो सवाल उठाया है कि ‘‘ कहीं ऐसा तो नहीं है कि जनवादी लेखक संघ का यह निर्णय कुछ बड़े प्रकाशकों और उनसे जुड़े प्राध्यापक किस्म के कुछ लेखकों को लाभ पहूंचाने के लिए लिया गया है समझ में नहीं आता कि आज तक मैंने कभी किसी लेखक संगठन को किसी लेखक के हक में रॉयल्टी वाले मामले में बोलते नहीं सुना हम इस सच्चाई को क्यों नहीं स्वीकारते कि हमारे लेखक संघों का इस्तेमाल कुछ लोगों द्वारा निजी जायदाद की तरह किया गया है ? " वह जरा भी अनुचित नही जान पड़ता।
अब जहां तक इसप्रकार का काम करके साहित्य और संगठन की सेवा करने की जो बात हैउसके बारे में क्या कहूं ! जवरीमल जी लिखते हैं - ‘‘ नया पथ के अंकों की सामग्री लेकर जो पुस्तकें तैयार की गयीवह किया जाना उचित था या अनुचित में नहीं जानता. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुस्तकों की जरूरत थी” । कुछ और मित्रों ने भी साहित्य की इस महती सेवा का जिक्र किया है।
ये दलीलें फिर मेरा ध्यान आस्ट्रेलिया के अपराधी जोसेफ फ्रिजल वाली घटना की ओर खींच ले जाती है। ‘‘उसने अपने बच्चों को दुनिया की बुराई से बचाने के लिये सालों तक अपने घर के तहख़ाने में क़ैद रखा और उनसे तमाम प्रकार के दुष्कर्म किये । बाहर के ख़तरों से अपनी बेटी को बचाने के लिये उसे बेटी को नष्ट कर देना मंज़ूर था । वह अपने पक्ष में ऐसी ही दलील देता था कि यदि मैंने ऐसा न किया होता और बेटी को बाहर के बुरे संसार में जाने दिया होता तो उसकी बेटी ज़िन्दा नहीं रहती । उसने कम से कम उसकी हत्या तो नहीं की ! वह चाहता तो उन्हें मार भी सकता था लेकिन उसने जिंदा रखा ।’’
मैं नहीं जानताजनवादी लेखक संघ के सदस्यों को इन सब बातों की कितनी जानकारी रही है। इन्हें स्वीकारने के तर्कों से भी मेरी गहरी आपत्ति है। इन सबसे यह जरूर पता चलता है कि पिछले दिनों नया पथ के अंकों का भारी-भरकम संकलनों की शक्ल में आने और उनके पीछे की 'मेहनत'का सच क्या रहा है।
चंद्रबली जी की मृत्यु पर उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि ‘‘ यह खिलखिलाहटों काऔर गंभीरता का भान करने वालों के लिये सुंदर पैकेजिंग में मुर्दा सामानों को चलाने का समय है।“ यह सच है कि हमारे उस मंतव्य के पीछे नयापथ का वर्तमान स्वरूप ही काम कर रहा था।
उस लेख के अंत में हमने लिखा था : प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के क्षय को उन्होंने देखा था और उन्हीं अनुभवों के आधार पर नये जनवादी मूल्यों पर टिके एक नये और व्यापक साहित्य-आंदोलन को नेतृत्व दिया था। इसीलिये उनमें हौसला कम नहीं था। लेकिन प्रश्न था कि अब लड़े तो किससे लड़े और कैसे विकल्प के भरोसे! उल्टेउन्होंने अपने को संगठन में ही एक अजीब किस्म के कुत्सित परिवेश से घिरा पाया।
यह सब जो सामने आरहा हैउन्हीं बातों की पुष्टि करता है। अंदर ही अंदर सब कितना बदला जाता हैजो उससे जुड़े होते हैंउन्हें भी इसका पता नहीं होता! इसीलिये बाहर से सवाल उठाने की अहमियत बची रहती है।

नन्द भारद्वाज-  अरुण जीमैं यह बात नहीं समझ पा रहा हूं कि आप एकाएक जलेस के प्रति इतने नकारात्‍मक क्‍यों हो गये हैंजैसा आपने कहा कि जब तक आप इस संगठन में रहेसब कुछ ठीक-ठाक चलता रहालेकिन आपके अलग होते ही अब आपको इस में तमाम तरह की कमजोरियां नजर आ रही हैंबल्कि आपने उन कमजोरियाें पर अखबारों में लिखना भी शुरू कर दिया है। ठीक हैयह आपकी अपनी समझदारी है। मेरा विनम्र निवेदन तो महज इतना सा है कि मैं इस मसले के भीतर-बाहर कहीं नहीं हूंसंगठन के प्रति सकारात्‍मक भाव रखने वाला सामान्‍य लेखक रहा हूंइसलिए आपने जिस तरह मेरे नाम पत्र के रूप में यह जो मजमून बनाया और उसे सार्वजनिक रूप से पेश किया हैउसका कोई औचित्‍य समझ में नहीं आया। आपके इस विवेचन से भी मेरी कई असहमतियां हैंलेकिन वह आपसे निजी भावनात्‍मक रिश्‍ते के कारण यहां व्‍यक्‍त करना उचित नहीं समझता। मेरी अब भी विनम्र अपेक्षा यही है कि आपको जलेसपार्टी या किसी संस्‍था संगठन से अगर कोई असहमति या शिकायत हो तो उसके लिए आपको उससे सीधे संबंध रखने वाले लोगों से संवाद करना चाहिये। हमें जहां अपनी राय देने की जरूरत होगीजरूर देंगे। आशा है मेरी बात को अन्‍यथा नहीं लेंगे।


अरुण महेश्वरी--  नंद जीअन्तर्विरोधों के बारे में माओ का एक कथन बहुत प्रासंगिक है कि बाहरी अन्तर्विरोध उस समय तक आपके संगठन को प्रभावित नहीं करते हैंजब तक कि आपके अंदर कमजोरी न हो। वाइरल का आक्रमण तभी होता है जब आपकी अपनी रोग से लड़ने की क्षमता चूकती है। और मजे की बात यह है कि इस प्रकार के मौसमी हमलों से फिर आप अपने अंदर भी रोग से लड़ने की शक्ति हासिल कर लेते हैं। इसीलियेजब भी किसी कोने से कोई वाजिब सवाल उठे तो उसे किसी भी नैतिकता’ की आड़ में दबाने की बात नहीं की जानी चाहिएबल्कि उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए।मैंने अपने पत्र का अंत इस वाक्य से किया है : ‘‘अंदर ही अंदर सब कितना बदला जाता हैजो उससे जुड़े होते हैंउन्हें भी इसका पता नहीं होता! इसीलिये बाहर से सवाल उठाने की अहमियत बची रहती है।" 

'बनारस टॉकीज'का एक ट्रेलर

$
0
0
हिन्द युग्म प्रकाशन ने हिंदी में अलग ढंग की किताबें छापकर एक नई शुरुआत की. लेखकों और पाठकों के बीच के खोये हुए रिश्तों को जोड़ने का उनका प्रयास सफल रहा. इस प्रकाशन की अगली किताब है 'बनारस टॉकीज'. लेखक हैं सत्य व्यास. उसी पुस्तक का एक रोचक अंश- मॉडरेटर 
===============================================================

ये भगवानदास है बाउ साहब। भगवानदास होस्टल। समय की मार और अंग्रेजी के भार से, जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सिमटकर B.H.U. हुआ; ठीक उसी समय भगवानदास होस्टलसिमटकर B.D. होस्टल हो गया। समय की मार ने इसके नेम में कटौती भले ही की हो; इसके फ़ेम में कटौती नहीं कर पाई। इसके 120कमरे में 240 “बी॰डी॰जीवीआज भी सोये हैं।
क्या!! बी॰डी॰जीवी कौन-सा शब्द है?”
इसीलिये कहते हैं बाउ साहब कि जरा इधर-उधर भी देखा कीजिये! होस्टल में घुसने से पहले जो बरगद है ना; उस पर का Graffiti पढ़िये। जिसपर लिखा है-
कृपया बुद्धिजीवी कहकर अपमान न करें। यहाँ बी.डी.जीवी रहते हैं।
अब आप पूछेंगे कि ये बी.डी.जीवी क्या बला हैं? रूम नम्बर-73में जाइये और जाकर पूछिये कि भगवानदास कौन थे? जवाब मिलेगा-घंटा!!ये हैं जयवर्धन जी।” ‘लेक्चर - घंटा, लेक्चरर - घंटा, भगवान - घंटा, भगवानदास घंटा। सबकुछ घंटे पर रखने के बावजूद, इतने नम्बर तो ले ही आते है कि पढ़ाकुओं और प्रोफेसरों के आंख की किरकिरी बने रहते हैं। ग़लत कहते हैं कहनेवाले, कि दुनिया किसी त्रिशूल पर टिकी है। यह दरअसल जयवर्धन शर्मा के घंटेपर टिकी है; और वो ख़ुद अपनी कहावतों पर टिके हैं। हर बहस की शुरुआत और अंत एक कहावत के साथ कर सकते हैं।
आगे बढ़िये तो रूम नम्बर-79से धुँआ निकलता दिखाई देगा। अरे भाई, डरिये मत! आग नहीं लगा है। भगवानदास के एकमात्र विदेशी छात्र अनुराग डेफूँक रहे होंगे। अब ये विदेशीऐसे हैं कि इनके पुरखे बांग्लादेशी थे; लेकिन अब दो पुश्तों से मुगलसराय में पेशेवर हैं। अरे...!! पेशेवर मतलब- पेशेवर वकील बाउ साहब!आप भी उलटा दिमाग़ दौड़ाने लगते हैं! ख़ैर, एक बात और जान लीजिये कि ये बंगाली होने के कारण पूरे भगवानदास के दादाहैं। कुछ जूनियर्स के तो दादा भइयाभी हैं। ससुर टोला भर का सब बात क़्रिकेटे में करते हैं और क्रिकेट के क्या कहा जाता है....Encyclopedia हैं -
अगर फ़लाना प्रोफ़ेसर सचिन के फ़्लो में पढ़ाता, तब बात बनती।
अरे! साला का लेक्चर है कि गार्नर का बाउंसर है?”
लड़की देखी नहीं बे! साला ग्लांसे मार लेती।

पिंच-हिटिंग और हार्ड-हिटिंग के अंतर पर घंटा भर लेक्चर दे सकते हैं। मार्क ग्रेटबैच को फ़ादर ऑफ पिंच हिटिंगका ख़िताब इन्हीं का दिया हुआ है। डकवर्थ-लुईस मेथड का द विंची कोडदेश भर में सिर्फ़ अनुराग डे समझते हैं। 1987वर्ल्ड कप के सेमीफ़ाइनल में जब फ़िलिप डेफ्रिटस के पहले ही ओवर में सुनील गावस्कर बोल्ड हो गए तो 6साल के अनुराग डे चिल्लाने लगे- Fix है! Fix है!  उनके पिताजी को लगा कि बेटा चिल्ला रहा है- Six है! Six है! काश! पिताजी उस दिन समझ गए होते! पिताजी की नासमझी से मैच फिक्सिंग जैसा अपराध फैल गया।
 “अच्छा, अच्छा... आपको क्रिकेट में इंटरेस्ट नहीं है!” Girls Hostel में तो है ना? तो रूम नम्बर-79में ही अनुराग डे के रूम पार्टनर सूरजसे मिलिये। हालाँकि, इनके क्या, इनके बाप के नाम से भी पता नहीं चलता कि वो ब्राह्मण है; लेकिन जानकारों की कमी, कम-से-कम भगवानदास में तो नहीं ही है। फ़ौरन उनकी सात पीढ़ियों का पता चल गया और वो होस्टल के बाबाहो गये। फ़ैकल्टी में 'सूरज'और दोस्तों में 'बाबा'। लड़कियों में विशेष रुचि है बाबा की। B.H.U के girls hostel की पूरी ख़बर रखते हैं बाबा। हर खुली खिड़की पर दस्तक देते हैं। खिड़कियों से झिड़कियाँ मिलने पर उदास नहीं होते; दुगने जोश से अगली लीड की तलाश में लग जाते हैं। शरीफ़ लगने और दिखने की कोशिश करते हैं। और हाँ! दुनिया का सबसे साहसिक कार्य करते हैं... कविताएँ लिखते हैं।

ले बाउ साहब....!!आपको क्या लग रहा है कि भगवानदास में पढ़ाई-लिखाई साढ़े-बाईस है? इसीलिये तो कह रहे है कि पूरी बात सुनिये-
किस तरह से पढ़ना चाहते है?”
रात भर में पढ़ के कलक्टरी करना है? तो दूबे जी को खोजिये। रामप्रताप नारायण दूबे। जितना लम्बा इनका नाम, उतना ही लम्बा इनका चैनल। हर सेमेस्टर से पहले, पेपर आउट होने की पक्की वाली अफ़वाह फैलाते हैं और हर एग्जाम के बाद अपने reliable source को दमपेल गरियाते हैं। रूम नम्बर-85. हाँ! तो रात भर में कलक्टरी करना है तो दूबे जी को धर लीजिये। ज़्यादा खर्चा नहीं होगा; केवल रात भर जागने के लिए चाय पिलाइये; मन हो तो दिलीप के दुकान का ब्रेड-पकोड़ा खिला दीजिये। दूबे जी ऐसा बूटी देंगे कि बस जा के कॉपी पर उगल दिजिये; बस पास... गारंटी।
क्या!! कैसा बूटी?”
अरे! वो उनका  पेटेंट है। कहते हैं कि अगर देश उनसे खरीद ले तो देश का एजुकेशन सिस्टम सुधर जाये। फॉर्मुला वन नाम है उसका। फॉर्मुला वन मतलब - एक चैप्टर पढ़ो और पाँचो सवाल में वही लिखो। और लॉजिक यह कि सवाल तो कुछ भी पूछा जा सकता है; लेकिन इंसान लिखेगा वही, जो उसने पढ़ा है। सो, दूबे जी एक सवाल तैयार करते हैं, और परीक्षा में पाँचों सवाल कर आते हैं।

ओहो! क्याआपको खाली पास नहीं होना है; नॉलेज बटोरना है? अरे! तो पहले बोलते! झुठो में एक कहानी सुन लिये-
जाइये, जाकर ज्वाइन कीजिये राजीव पांडेकी क्लास। रूम नम्बर-86में चलता है उनका क्लास। पढ़ा तो ऐसा देंगे कि लेक्चरर लोग उंगली चूसने लगेंगे। यूपीएससी के सब attempt ख़त्म हो जाने पर इन्हें कैवल्यकी प्राप्ति हुई और पांडे जी लॉ करने आ गये। खूब पढ़ते हैं और उतना ही लिखते हैं। परीक्षा में अक्सर question इसीलिये छूट जाता है कि उनको पता ही नहीं लग पाता कि कितना लिखें? इसीलिये गलती से भी से उनका नम्बर मत पूछियेगा! खिसिया जाएंगे। परीक्षा हाल में ससुर को खैनी नहीं मिलता है तो लिखिये नहीं पाते है।

और अब, जब पूछ ही लिये हैं, तो सुनिये, ‘पढ़ाईके बारे में बी.डी.जीवीयों के विचार:
अनुराग उर्फ दादा - कीनीया-हॉलैंड मैच (वक़्त की बर्बादी)
राजीव पांडे - A representation or rendering of any object or scene intended, not for exhibition as an original work of art, but for the information, instruction, or assistance of the maker; as, a study of heads or of hands for a figure picture. बाप रे बाप!!!
जयवर्धन- घंटा..!!
सूरज बाबा” – ‘ABCDEFG- A Boy Can Do Everything For Girls.’
दूबे जी सिस्टम के लिये नौकर पैदा करने वाली मशीनरी।

ज्ञान तो बिखरा पड़ा है भगवान दास होस्टल में। बस देखने वाली आंखे चाहियें। आँखें से याद आया-
फ़िल्म देखते हैं बाउ साहेब?”
क्या? क्या कहे? आपके जैसा फ़िल्म का ज्ञान कम ही लोगों को है?”
अच्छा तो बताइये कि डॉली ठाकुरकिस फ़िल्म में पहली बार आई थी?”
क्या...? दस्तूर?”
अरे, बाउ साहेब...!! इसिलिये ना कहते हैं कि डॉली ठाकुर और डॉली मिन्हास में अंतर समझिये और भगवानदास आया-जाया कीजिये।
कमरा नम्बर-88में नवेन्दु जी से भेंट कीजिये। भंसलिया का फिलिम, हमारा यही भाई एडिट किया था। जब ससुरा, इनका नाम नहीं दिया तो भाई आ गये लॉपढ़ने कि वकील बन के केस करूँगा।देश के हर जिला में इनके एक मौसा जी रहते है। डॉक्टर-मौसा, प्रॉक्टर-मौसा, इलेक्ट्रिशियन-मौसा, पॉलिटिशियन-मौसा। घोड़ा-मौसा, गदहा-मौसा। ख़ैर, मौसा महात्मय छोड़ दें तो भी नवेन्दु जी का महत्व कम नहीं हो जाता। फ़िल्म का ज्ञान तो इतना है कि पाक़ीज़ा पर क़िताब लिख दें। शोले पर तो नवेन्दु जी डाक्टरेट ही हैं। अमिताभ के जींस का नाप, धन्नो का बाप, बुलेट पर कम्पनी का छाप और बसंती के घाघरा का माप तक; सब उनको मालूम है। गब्बरवा, सरईसा खैनी खाता था, वही पहली बार बताए थे। अमिताभ बच्चन को याद नहीं होगा कि कितना फ़िल्म में उनका नाम विजयहै। अमिताभ बोलेंगे - 17, तो नवेन्दु बोलेंगे नहीं सर - 18. आप नि:शब्दको तो भूल ही गये। गदरके एक सीन में सनी देओल के नाक पर मक्खी बैठी तो नवेन्दु जी घोषणा कर दिये कि फ़िल्म ऑस्कर के लिये जाएगी; क्योंकि आदमी को तो कोई भी डायरेक्ट कर सकता है; लेकिन मक्खी को डायरेक्ट करना...बाप रे बाप! क्या डायरेक्शन है! ऐसे ज्ञानी हैं नवेन्दु जी।

अच्छा, तो कहानी में interest आ रहा है? पूरी कहानी सुननी है? तो बैठिये; थोड़ा टाइम लगेगा। पेप्सी और चिप्स मँगवा लीजिये।
अब आपसे क्या छुपाना बाऊ साहब। जब कहानी सुनानी ही है तो कहानी शुरू करने से पहले बता दूँ कि इस कहानी का सूत्रधार मैं हूँ- मैं यानी सूरज। अरे वही! Girl’s hostel and all that. किसी से कहियेगा मत! कसम से, अपना समझ के बता रहे हैं आपको।

तारीख़ी तौर पर बंधी इस कहानी का दौर इक्कीसवीं सदी का पहला दशक है। कहानी उन दिनों शुरू होती है जब तेरह टांगों वाली सरकार जा चुकी थी।सुनामी के लहरों से कहर दिखा दिया था और देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई बम विस्फोटों के बीच जीना सीख रही थी।

लेकिन यह कहानी तो देश के सांस्कृतिक राजधानी की है- बनारस। और बनारस की भी क्या है साहब! यह तो भगवानदास होस्टल की कहानी है; जो बनारस के हृदय बी एच यू का छत्तीसवाँ होस्टल है। वकीलों का होस्टल।

हाँ! तो भगवानदास होस्टल जाने के लिये आपको बनारस चलना होगा। अरे, वहीं है ना- सर्व विद्या की राजधानी। बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी; जिसे आप बी.एच.यू. भी कहते हैं। आइये चलें :
=========================================================

विवरण :
किताब का नाम : बनारस टॉकीज़ (पेपरबैक, उपन्यास)
लेखक : सत्य व्यास
पृष्ठ : 192
मूल्य : रु 115
प्रकाशन : हिंद युग्म, दिल्ली

12 जनवरी 2015 से सभी ऑनलाइन स्टोरों पर रीलिज़ होगी। फिलहाल किताब की प्रीबुकिंग चालू है। अपनी प्रति इनमें से किसी भी स्टोर से सुरक्षित कर सकते हैं।

फ्लिपकार्ट- http://bit.ly/btflipkart (मात्र रु 86में, घर मँगाने का कोई अतिरिक्त ख़र्च नहीं)
अमेज़ॉन- http://bit.ly/btamazonin (मात्र रु 90में, घर मँगाने का कोई अतिरिक्त ख़र्च नहीं)

इंफीबीम- http://bit.ly/btinfibeam (मात्र रु 92 में)

सौ साल बाद 'उसने कहा था'

$
0
0
'उसने कहा था'कहानी के सौ साल पूरे होने वाले हैं. इसके महत्व को रेखांकित करते हुए युवा लेखक मनोज कुमार पाण्डेयने एक बहुत अच्छा लेख लिखा है. मैं तो पढ़ चुका आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन 
============================================================

‘उसने कहा था’ पहली बार सरस्वती में जून 1915में प्रकाशित हुई थी। जल्दी ही इसके सौ साल पूरे होने को हैं। इन सौ सालों में यह निर्विवाद रूप से हिंदी की सबसे लोकप्रिय कहानियों में से एक बनी हुई है। हिंदी के पाठ्यक्रमों के लिए निर्मित संकलनों को छोड़ भी दें तो भी हिंदी की सर्वकालिक श्रेष्ठ कहानियों का शायद ही ऐसा कोई संकलन हो जो इस कहानी के बिना पूरा हो जाता हो। आखिर ऐसा क्यों है! इसमें ऐसी कौन सी खूबियाँ हैं जिनकी वजह से यह अभी भी पाठकों को अपनी तरफ लगातार आकर्षित कर रही है? पहले से कुछ ज्यादा ही, जबकि इसे लिखे-छपे हुए लगभग सौ साल होने को आए।

आगे हम इन्हीं सवालों से दो-चार होने की कोशिश करेंगे कि ‘उसने कहा था’ की रचनात्मक बुनावट में आखिर ऐसा क्या छुपा हुआ है जो हमें अभी भी बार बार अपनी तरफ खींचता हैं। और इस बार बार के बावजूद यह कहानी हमें आज भी उतनी ही नई और समकालीन लगती है। क्यों! 1914में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ा। साल भर के भीतर ही उसे केंद्र में रखकर ऐसी कहानी रच पाना लगभग अविश्वसनीय है। यह अंतरराष्ट्रीय लोकेल को लेकर लिखी गई संभवतः हिंदी की पहली कहानी है। आज भी ऐसी कहानियाँ हिंदी में कम ही हैं।डिक्शन की बात करें तो भी यह अपने समय से बहुत आगे की कहानी ठहरती है। और यह भी कि इसका डिक्शन आज तक पुराना नहीं पड़ा। भाषा ललित निबंधोंवाली,विषय ऐसा कि इसकी समकालीनता आज भी जस की तस बनी हुई है और दूसरी तरफ बिना किसी शोर-शराबे के यह कहानी चुपचाप हिंदी की कालजयी कहानियों में शामिल हो गई है।

क्या यह युद्ध विरोधी कहानी है, इसलिए! यह युद्ध की भयावह स्थितियों को बहुत ही सहजता से हमारे सामने रख देती है। इसकी खूबसूरती इस बात में भी है कि अपने वर्णन में यह युद्ध के विरोध में कोई बात नहीं कहती। स्थितियाँ खुदबखुद मुखर होकर बोलने लगती हैं कि लगातार युद्ध की मनःस्थिति में जीना किस कदर भयावह है। यही भयावहता स्मृतियों के लिए एक जरूरी खिड़की खोलती है। सबसे भयावह स्थितियों के बीच सबसे कोमल स्मृतियाँ ही जिंदगी को जीने लायक बना सकती हैं। वहीं से यह उदात्तता भी आती है कि कोई मरने-मारने के उन भयावह रूप से निर्णायक क्षणों में भी किसी और के लिए खुद को होम कर दे।

युद्ध को लेकर हिंदी में आज भी न के बराबर कहानियाँ उपलब्ध हैं। जबकि आजादी के बाद का ही समय लें तो भी जाने अनजाने हम कई युद्धों का सक्रिय हिस्सा रहे हैं। इस कहानी में आया युद्ध इसलिए भी खास है कि यह जिस धरती पर लड़ा जा रहा है वह धरती राष्ट्र या वतन की किसी भी परिभाषा के तहत लड़नेवालों की नहीं है। जिनसे लड़ा जा रहा है वह शत्रु भी अपने नहीं हैं। यही नहीं अगर वे यह युद्ध जीत भी जाते हैं तो भी यह धरती उनकी नहीं होनी है। वे वतन के लिए या आजादी के लिए नहीं बल्कि किसी स्वामी के लिए लड़ रहे हैं जो कि कहानी में ब्रिटेन है। इसके बावजूद वे मर और मार रहे हैं। यह युद्ध की सबसे भयानक परिणति है। जहाँ हम अपने ही जैसे कुछ दूसरों को मारकर वीर बन जाते हैं जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते। न उनका नाम न पृष्ठभूमि, न घर-परिवार के बारे में कुछ, न उनकी भाषा। वे हमारे तथाकथित शत्रु भी हमारे बारे में कुछ नहीं जानते फिर भी एक सैनिक के रूप में हम मारते हैं और मरते हैं। और मजे की बात यह है कि दोनों ही स्थितियों में कुछ चमकीले विशेषणों से सुशोभित होते हैं।

       युद्ध इनसानी समाज की सबसे भयानक त्रासदियों में से एक है फिर भी हम इससे निकलने का कोई सही रास्ता नहीं ढूँढ़ पाए हैं। कि दुनिया को शांति मिले, बल्कि सबसे ज्यादा लड़ाइयाँ इसी मरजानी शांति के नाम पर लड़ी गई हैं और लड़ी जा रही हैं। उसने कहा था हमें इस लिए भी बार बार अपनी तरफ खींचती है कि यह युद्ध के बरक्स बल्कि युद्ध के बीच प्रेम की संभावनाओं की खोज करती है।

हिंदी के कायदन पहले आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसके इसी प्रेमवाले पक्ष पर ही जोर देते हुए लिखा कि, ‘उसने कहा था में पक्के यथार्थवाद के बीच सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है, जैसी बराबर हुआ करती है; पर उसके भीतर प्रेम का एक स्वर्गीय रूप झाँक रहा है - केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है। कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्ज प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता। इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।’  

ज्यादातर कालजयी कहानियाँ पहली नजर में अविश्वसनीय क्यों लगती हैं। ‘उसने कहा था’ भी इसका अपवाद नहीं है। एक भूल गई स्मृति पर लहना सिंह अपना जीवन बलिदान कर देता है। भला क्यों? देखा जाय तो सूबेदारनी और लहना सिंह के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी बिना पर लहना सिंह के आत्मबलिदान का मर्म समझा जा सके। और यह तब तक अविश्वसनीय ही लगता है जब तक कि हम इस बलिदान की पृष्ठभूमि में चल रहे युद्ध की तरफ नहीं देखते।

तब हमें समझ में आता है कि युद्ध की अतिरेकी स्थिति के बीच हम सबसे ज्यादा किसके बारे में सोचेंगे? हिंसा और भयावह रक्तपात के बीच ऐसा क्या है जिसकी कमी हमें सबसे ज्यादा खलेगी। या कि वह कौन सा एहसास है जो हमें इस सब के बीच भी जानवर में नहीं बदलने देगा। हम तब भी मनुष्य बने रहेंगे। इन सब का जवाब एक ही है - प्रेम... भले ही यह किसी से भी हो और किसी भी तरह का हो। और इसके बाद बड़े से बड़ा बलिदान भी सहज लगता है। क्या इसीलिए दुनिया की कुछ सबसे शानदार प्रेम कहानियों की पृष्ठभूमि में हथियारों का बहरा कर देनेवाला शोर गूँजता रहता है जिसे चीरकर यह कहानियाँ बाहर आती हैं!

जब सूबेदार और बोधा सिंह गाड़ी में बैठकर चल देते हैं और लहना सिंह अपनी आखिरी साँसें गिन रहा होता है तो उस पर स्मृतियाँ इतनी हमलावर क्यों होती हैं! नहीं स्मृतियाँ पहले से ही हमलावर हैं उस पर नहीं तो वह अपना बलिदान यूँ ही नहीं देता। या कि सूबेदार की जगह पर वही गाड़ी में बैठकर चला जाता। याकि साथ में ही चला जाता। इनमें से कुछ भी नहीं करता वह। उसने अपने लिए मौत चुन ली है। क्यों? इस क्यों का उत्तर आखिर कहाँ है प्रेम में या युद्ध में? क्या वह जिंदगी के बारे में किसी निर्णायक नतीजे पर पहुँच चुका है?

और अगर ऐसा है भी तो यह कहानी हमें अपनी सी क्यों लगती है? हम आज भी इसे पढ़ते हुए कुछ अबूझ सा क्यों महसूस करने लगते हैं जबकि न जाने कितने प्रेम और प्रेम कहानियाँ हमारे आसपास के वातावरण में तैरती रहती हैं और वे हमें उस तरह से नहीं छूतीं। जबकि यह कहानी लोककथाओं की तरह हमारी चेतना में जज्ब होकर नया नया रूप लेती रहती है।

सोचने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि आज हम पल-प्रतिपल युद्ध की ही अतिरेकी मानसिकता में जी रहे हैं। विज्ञान के तमाम चिकित्सा चमत्कारों के बाद भी जिंदगी के बारे में एक अनिश्चितता की स्थिति बनी है। हम देखते हैं कि हर साल लाखों की संख्या में तो लोग सड़क दुर्घटनाओं के चलते ही दम तोड़ देते हैं। ऐसे ही मरने के न जाने कितने तरीके समय ने ईजाद किए हैं।

      तकनीकी चमत्कारों ने बाहर की दुनिया को जितना भरा है हमारा भीतर उसी अनुपात में खाली होता गया है। बाहर जितना शोर है भीतर उतना ही अपरिचय और अलगाव है। इसके बावजूद बाहर की दुनिया में परिचय का शोर इतना ज्यादा है कि छोटी-छोटी चीजें अनकही ही रह जाती हैं और कभी कही भी जाती हैं तो कई बार पिछड़ी संवेदना करार दे दी जाती हैं तो कई बार बाहर के शोर के बरक्स उनका कहा जाना खुद-ब-खुद एब्सर्ड में बदल जाता है।

      कहानी में लौटें तो वहाँ भी शोर है। भयावह शोर है। छल-कपट है, एब्सर्ड स्थितियाँ हैं कि जो लोग एक दूसरे को मार और मर रहे हैं वे एक दूसरे के बारे में कुछ भी नहीं जानते। इसके बावजूद कि वे मनुष्य हैं रोबोट नहीं। जान सकें ऐसी संभावना भी कम ही है क्योंकि वह युद्ध में हैं जो ऐसी किसी भी संभावना की भ्रूण हत्या कर देनेवाला है।

      तो कहीं यह तो नहीं कि ऐसे में किसी सूबेदारनी की धुँधली सी याद हमें मनुष्य बनाए रखती है... और यह इतनी बड़ी बात है कि इसके लिए हम बड़ी से बड़ी कीमत चुकाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं...। सूबेदारनी के साथ साथ अपने घर-परिवार के बारे में बेहोशी की हालत में भी सोचते हुए लहना सिंह जब अपने लिए मौत चुनता है तो क्या एक बार ही सही उसे उन जर्मन सैनिकों की भी याद आई होगी जिन्हें थोड़ी देर पहले उसने मौत के घाट उतार दिया था! या उसने उस जर्मन सैनिक के बारे में कुछ सोचा होगा जिसकी गोली उसका प्राण ले रही थी? कहानी ऐसे बहुतेरे सवालों के बारे में ठोस कुछ भी नहीं कहती। वह उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाती है। क्या लहना सिंह की तरफ?

      नहीं। इसके बाद कहानी पाठकों की तरफ लौटती है। मुझे यह कहानी इस लिए भी प्रिय है - और मैं सोचता हूँ कि यह भी इसकी लोकप्रियता और चिरसमकालिकता के कारणों में से एक है - कि यह कहानी हमें हमारे बहुत भीतर बसे हुए उस लहना सिंह के करीब ले जाती है जिसे हम कई बार उसी तरह भूल चुके होते हैं जिस तरह से लहना सिंह सूबेदारनी से मिलने के पहले अपने बचपन का वह पहला आकर्षण भूल गया है। हम सब के जीवन में एक सूबेदारनी (सूबेदार भी) होती है जिसके लिए हम अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए तैयार बैठे मिलते हैं। बिना किसी खास वजह के भी। यह सिर्फ अच्छे कहे जानेवाले लोगों की बात नहीं है बल्कि बुरे कहे जानेवाले लोगों के लिए भी इसी तरह से और इतना ही सच है। इसे पढ़ना बार बार अपने भीतर छुपे लहना सिंह की खोज है। यह एक ऐसी पुरानी बात है जो कभी भी पुरानी नहीं पड़नेवाली।
===========================================
संपर्क : हिंदीसमय, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा - 442005 (महाराष्ट्र)
फोन : 08275409685
ई-मेल : chanduksaath@gmail.com

'उसने कहा था'की सूबेदारनी और मैत्रयी पुष्पा की कलम

$
0
0
'उसने कहा था'कहानी अगले साल सौ साल की हो जाएगी. इस सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए कल हमने युवा लेखक मनोज कुमार पाण्डे का लेख प्रस्तुत किया था. आज प्रसिद्ध लेखिका मैत्रेयी पुष्पाका यह लेख. जो यह सवाल उठाता है कि क्या यह कहानी महज लहना सिंह की है, सूबेदारनी का पक्ष भी तो आना चाहिए. पढ़िए एक दिलचस्प लेख- मॉडरेटर
================


मुझे पहचाना?’
नहीं।
तेरी कुड़माई हो गई?’
धत्।
कल ही हो गई।
देखते नहीं यह रेशमी बूटों वाला शालू. अमृतसर में।

यह संवाद! लहनासिंह, तुमने जीवन साथ बिताने का खूबसूरत सपना देखा था न? और मेरे पिछले वाक्य पर कितना छोटा मुंह हो गया था तुम्हारा! क्यों न होता, उस छोटी सी उम्र में उस क्षण तुम्हें समझ नहीं आ रहा कि दिन की सुनहरी भोर में यकायक अंधेरा कैसे फट पड़ा। मेरी सहज मुद्रा हवा में भले ही लहरा रही थी, मगर दिल पर कुछ भारी-भारी सा लदा हुआ था। शायद इसलिए कि मैं हर रात तुम्हारे सुबह मिलने की आहट ओढ़-बिछाकर सोती थी। मेरा हर सपना लहनासिंह के आसपास होता था। अबोध आंखों के तितली जैसे रंगीन और कोमल सपनों को लेकर ही दुनिया को पहचान रही थी मैं। सारे मासूम विवरणों को अपनी झोली में समेटकर भरने के बाद समझ में यही आया था कि हम एक-दूसरे के इतने निकट आते जा रहे हैं कि इन नजदीकियों को अब तक पहचानते नहीं थे। इतना इल्म कहां था कि आपस के शरारत भरे संवाद और छेड़छाड़ की नन्ही-छोटी मुद्राएं आगे चलकर किस घाट लगेंगी।

मैं आठ साल की थी और तुम बारह साल के।

अब तो पूरे पच्चीस वर्ष का अंतराल है। इस अंतराल का एक-एक दिन, एक-एक महीना और एक-एक साल मैंने यही सोचकर बिताया कि मैं तुम्हें भूल रही हूं, भूलती जा रही हूं और जब जिंदगी का अंजुरी-अंजुरी पानी उलीच दिया, प्रेम से लबरेज रहने वाली लड़की निखालिस गृहस्थिन सूबेदारनी हो गई तो लगा कि मैं तुम्हें भूल चुकी हूं। अब मेरे घर में खालीपन भर गया है। वहां सूखा व्यापी है और वहां गृहस्थ प्रेम के सिवा किसी भी प्रेम के लिए बंजर है। यहां सेना के जवान और मेरे पति सूबेदार की दुनिया है। दुश्मन, जंग और हार-जीत की बातें हैं, इसलिए भी यहां मोहब्बत के लिए जगह कहां?

बंदूकें, रायफलें और तोपें!
परेड, अभ्यास और कैंप!!

सैनिकों के बूटों से धरती हिलती, कमांडर का हुक्म दिशाओं में गूंजता, सीमा पर लड़ने की शपथ कलेजा हिला देती और मैं अपने आसपास चलते-फिरते जवानों के चेहरों पर तुम्हारा चेहरा लगा-लगाकर देखती रहती, एकदम बेसुध, बेखबर। क्या मुझे मालूम था कि तुम सेना में भर्ती हुए होगे? नहीं, मैं तो कुछ भी नहीं जानती थी और कल्पना के सिवा तुम्हारे चेहरे का रूप-रंग भी मेरे पास नहीं था। अगर कुछ था तो वह शरारत भरा चेहरा जो बारह साल के लड़के के रूप में कहता थाµ ”तेरी कुड़माई हो गई?” बस यही स्वर, यही वाक्य अभ्यास के वास्ते परेड करते जवानों के साथ फौजी माहौल में मेरे सपनों के घुंघरू बांधकर नाचने लगता। जबकि मुझे मालूम था कि अब किसी दिन भी लहनासिंह से मेरी मुलाकात होने वाली नहीं। मगर मैं नहीं, मेरी आकांक्षाएं अपनी उम्मीद तोड़ नहीं पाती थीं।

मैं सुहागिन औरत, जिसकी जिंदगी का सर्वस्व सूबेदार, बार-बार उन कुंआरी यादों को अतीत में धकेलने की कोशिश करती रही। मगर मेरी कोशिशें नाकाम भी तो होती रहती थीं और लहनासिंह की याद मुझे अपने ही भीतर गुनहगार बना जाती। मेरे जमाने की औरतें कहा करती थीं- प्यार का बिरवा कभी मत लगाओ, लग भी जाए तो उसे सींचो नहीं क्योंकि वह हरा-भरा होकर जहरीली पत्तियां गिराने लगता है। मैं अपने दाम्पत्य की खैरियत मनाते हुए अपने दिल को रेगिस्तान की तरह वीरान करने में जुट गई। लहनासिंह के लिए सूबेदारनी की आंखें अब अंधी थीं। मगर वे दो आंखें किसकी थीं, जो अपने बाल मित्रा को अपलक देखती रहतीं और कोमल, मासूम और निश्छल अहसास से भर उठतीं। क्या वह उस भोली-सी छोटी लड़की का प्यार मैं अब तक अपने कलेजे से लगाए फिर रही थी? अपने ही प्यार में अभिभूत थी? मैंने मान लिया था कि तुम, तुम नहीं, मेरे अपने प्यार की भावना हो।

इसलिए ही!

जब तुम सामने पड़े तो मैं चौंकी नहीं, अपनी भावना से मिलान करने लगी और मेरी अंतरंग चेतना जो मोहब्बत से बनी थी, तुम्हें पहचानने लगी। मैंने कहा था न, मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया।
लहनासिंह, तुम मुझे नहीं पहचाने, इस पर मैं विश्वास नहीं कर पा रही थी। तुम्हारी सूरत अब बालक की नहीं, एक जवान की थी, जैसी कि सिख जवान की होती है। मेरा चेहरा भी बदल गया है, आखिर पच्चीस साल का फासला एक लंबी अवधि है। मगर मेरा और तुम्हारा वही क्या था, जो अब तक नहीं बदला। एक-दूसरे से लगाव, जुड़ाव, जिसे मोहब्बत कहते हैं। शायद तुम्हारे पास भी वही रह गई और मैं भी अपने शालू के छोर में वही बांध लाई नहीं तो मैं यहां-वहां तुम्हें सब की निगाह बचाकर क्यों खोजती और तुम विदा होते समय मेरे साथ-साथ रोते क्यों?


लहनासिंह, तुम्हारे लिए मैं वही छोटी लड़की हूं न जो दूध-दही की दुकान से लेकर सब्जी मंडी तक राह चलते तुम्हें कहीं भी मिल जाती थी और उसे देखते ही तुम्हारी कोमल आंखें चमक उठती थीं। वह तुम्हारे दिल में आज भी रहती है?

देखते नहीं यह रेशमी बूटों वाला शालूµअमृतसर में।यह एक वाक्य ऐसी कटार था, जिसने हमारे साथ चलने वाले रास्ते काट दिए। हमारा मिलन कट-फट गया। भोली शरारतें उदास हो गईं। तुम्हारे प्यार का हक उखड़ गया, मेरी चाहत का तो किला ही ढह गया। फिर भी खंडहर के रूप में मुझे कोई नहीं देख पाया। अमृतसर शहर में क्या है, क्या नहीं, मैंने नहीं देखा। हां, यहां एक पथरीला बंगला है, जिसकी दीवारों से टकरा-टकराकर मैंने अपनी भावनाओं को लहूलुहान करते हुए दांपत्य का संतोष हासिल किया है। कोई गजब तो नहीं हुआ, ऐसा तो होता ही रहता है। कोई औरत अपने प्यार की बरबादी पर रो ही कहां पाती है? वह तो उसे छिपाकर सुहाग भरी जिंदगी हासिल करते हुए अपनी जीत का परचम लहराती रहती है, भले उसके हाथ कांपते रहें और पांव थरथराएं।

बच्चों की दोस्ती, दो पल का खेल। खेल के बाद अपने-अपने रास्तेयह व्यावहारिक बात मैंने दिल में बसा ली थी, लेकिन जब-जब अमृतसर में सुबह होती, घर हिलता नजर आता। हवाएं नहीं, आंधियां महसूस होतीं। याद आता कि लहना घर की सीध में चला जा रहा था, रास्ते में एक लड़के को मोरी में धकेल दिया। एक छावड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई। एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहाकर आती वैष्णवी से टकरा गया, अंधे की उपाधि पाई। लहना के भीतर ऐसी टूटन-फूटन हुई जैसे हंसने वाले लड़के के दिमाग में बारूद भर गया हो।

समझने के लिए अब क्या रह गया था? अजब-सी, मोहब्बत से भरी आंखें और शरारत भरी भोली अदाएं जलजला क्यों बनने लगीं, अमृतसर ने ऐसा जहरीला डंक मारा कि तुम तुम न रहे।
लहना, मेरी कुड़माई नहीं होनी चाहिए थी क्या?

नहीं तो क्यों नहीं? इसलिए कि पिछले एक महीने से मैं तुमसे बराबर मिल रही थी और तुम मुझे लेकर अबूझ सपने पाल रहे थे। उन सपनों की मनमोहक छवियां एक लड़की की तरह तुम्हारी गली में आवाजाही कर रही थीं।

मगर मेरा क्या हाल था, तुम्हें शायद मालूम ही नहीं क्योंकि अमृतसर के शालू की बात सुनकर तुमने जो आक्रामकता दिखाई, उसी शालू को ओढ़कर मैं चुपचाप विदा हो गई। मेरी जैसी लड़कियों की जिंदगी, ऐसे ही शालुओं के हवाले हो जाती है, बेआवाज। मगर गौर से कोई देखे तो दिखाई देगा कि एक दर्दनाक तकलीफ चुपके-चुपके बढ़ती है और उमंग तथा उम्मीदों को उजाड़ती चली जाती है। आज तक यह अहसास जिंदा है कि कोई मेरी गर्दन में रेशमी शालू का फंदा कसकर अमृतसर की ओर खींच रहा है। उस समय तो मैं रोती रही थी, जैसे छोटी लड़की अपना खिलौना टूटने पर रोती है।

मगर लहना, न तुम खिलौना थे, न मैं खेलनहार।

मैं कहां गई, तुम कहां रहे, यह भी कोई पहेली नहीं, रिवाज का एक हिस्सा है। पति की घर-गृहस्थी संभालना हर लड़की का धर्म माना गया। लड़के संभालते हैं बाहर का मैदान, जहां तुम पहुंचे। खोज-खबर लेना भी गुनाह फिर सुबह-दोपहर-शाम और रात का हिसाब कौन करे? हां, याद करते हुए लगा कि मेरे चेहरे पर उजली-सी मुस्कान खेल गई है, जिसमें सुबह और दही की रंगत मिली हुई है। और जब कभी तुमको याद करते हुए आंखें भीग उठी हैं, मैंने किसी को खबर नहीं होने दी जैसे रात छिटके हुए तारों की रोशनी को उजागर नहीं होने देती।

इस लुका-छिपी का हासिल क्या रहा, पता है? एक डर, एक भय, एक आशंका और अपराध-बोध। पच्चीस साल बाद वह बारह वर्ष का लड़का आज दाढ़ी-मूँछों वाले सरदार के रूप में पगड़ी बांधे खड़ा था।

लहना? लहना! यह लहनासिंह है!!

मैंने तुम्हें पहचान लिया। यकायक मैं उसी लगाव भरी दुनिया में लौट आई, जिसे छोड़ने-त्यागने की कवायद करते हुए मैंने अपने प्राणों को क्रूर तकलीफ में डालने का अभ्यास साध लिया था। मेरी अब तक की तपस्या भंग होने लगी। मेरे पतिव्रत धर्म का तम्बू बिखरने को हो आया। तेरी कुड़माई हो गई?’ का मीठा सवाल दाम्पत्य में जहर बोने वाला था। भरी दोपहरी में भोर की रेशमी कोमल हवा कहां से आई? सूनी राह पर चलते हुए छूटा-बिछुड़ा पुराना राहगीर। मैं किस ओर दौड़ने लगी? कि दिल बेपनाह धड़क रहा है और कोई भूला हुआ विश्वास धीरज देने लगा है कि तेरी अब तक की तलाश पूरी हुई। यह भ्रम है, जानबूझकर सोचा, मगर नहीं, कोई कहीं छुट जाता है तो भी क्या संबंध टूट जाता है?

मगर यह तो अजनबी की तरह खड़ा है, मेरी पहचान को चुनौती देता हुआ। और यादें हैं कि दौड़ती हुई चली आ रही हैं। बचपन के दिन साथ-साथ भाग रहे हैं। प्यार के धागे में पिरोए नन्हे-मुन्ने सपने। सपनों ने मुझे हर हालत में अपने नजदीक अपने आगोश में समेटकर रखा।

लहनासिंह, सच बताना, तुझे मैं क्या सूबेदारनी लगी? क्यों नहीं लगी हूंगी, जब तूने जमादार रैंक के सिपाही की तरह मेरी ड्योढ़ी पर मत्था टेकनाकिया तो मैं अचकचाई तक नहीं। मैंने पिछले समय को अपनी आंखों पर आने नहीं दिया और तुझे ऐसे देखा जैसे जमादार रैंक के दूसरे सैनिक होते हैं। यह एक मजबूर पतिव्रता का आचरण था। परिचय से जान-पहचान तक जाना भी अपराध लग रहा था। जान-पहचान कहीं दोस्ती न लगने लगे। दोस्ती घनिष्ठता की बू न देने लगे। देखा, विवाहित स्त्रियां अपने दिल के साथ कितनी सख्त कार्रवाइयां करती हैं। और छूट भी ऐसी देती हैं कि कयामत हो जाए! हम वही हैं जो पच्चीस साल पहले थे। लहना की आंखों में पिछला समय तैर गया। होंठों पर नजरों से होती हुई मुस्कराहट झिलमिलाने लगी। या मेरे दरवाजे पर सितारे जगमगाए हैं! जिस प्यार को सीने से लगाए रही, आपातकाल में नजदीक आ गया। मैं वहां खड़ी-खड़ी, सब को भूल गई। यह बिछुड़ने का अपना ताव था और अपनी चमक।

दूसरे ही क्षण मैं होश में आई, यह मानकर कि बिछुड़ना, तकलीफ सहना, त्याग करना प्रेम की संपदा है और मैं इससे भरी-पूरी हूं। मैं अपनी दुनिया में लौटी, लहना पास ही था लेकिन मेरी इस दुनिया से बहुत दूर। क्या हुआ जो मेरी भावनाएं दुःख में बदल रही हैं और लहना की आंखें छलछला आई हैं। ये भी तो वक्त के ऐसे विलक्षण लमहे हैं, जिनकी कल्पना तक मेरे पास न थी। अमृतसर में यह पथरीला बंगला गुलशन जैसा क्यों होने लगा? मैंने तो मान लिया था कि सामाजिक विधि-नियमों का हम जैसी औरतों को श्राप लगा होता है कि लहना जैसों से लगाव-जुड़ाव शिला हो जाए। और यह विधि नहीं विधाता का करिश्मा है कि शिलाओं के नीचे से जलधारा फूट पड़ी।

धारा पुरुष वर्चस्व, धर्म वर्चस्व और भय के वर्चस्व के आसपास अपने जल को टकरा रही है। प्रेम की अनुभूति और विवाह संस्कार का भी आमना-सामना है। कौन जीते, कौन हारे का द्वंद्व था और मेरे हृदय के ताप का असर आसपास हो रहा था, स्थिति खुद ब खुद बनने लगी, क्योंकि लहना अकल्पनीय देव की तरह मेरे सामने उपस्थित था। कल्पित भी नहीं, साक्षात् खड़ा था। मेरे भीतर हूक उठने लगी, जो अपने हृदय के गहरेपन को बड़ी शिद्दत से महसूस करके उठी थी।
मगर यकायक क्या हुआ?

भय के वर्चस्व ने मुझे दबोच लिया, जो पुरुष और धर्म के वर्चस्व से पैदा हुआ था। सूबेदार, मेरे पति की गृहस्थी का सुखमय संसार तबाह हो जाएगा। लहनासिंह शांत परिवार के लिए असगुन की तरह है। पतिव्रत धर्म का बेरहम चाबुक मेरे मन पर पड़ा और रेशे-रेशे उधेड़ने लगा। अचानक यह कैसा दर्द उमड़ा कि मैं अपनेपन में झुकती-सिकुड़ती चली गई। बार-बार अब यही लग रहा था कि जो भी हो, गृहस्थ को संभालती हुई एक औरत दुखी या उपेक्षित रहती हुई भी सम्मानित गृहिणी के रूप में जरूर रह सकती है। इस बात को साबित करने का उपाय एक ही है, अपनी भावनाओं, आशा-आकांक्षाओं और सपनों को भूल जाना। वर्जना का इतिहास यों ही तो अपना प्रभुत्व नहीं बनाए हुए। वर्जनाओं को गले लगाकर लक्ष्मी जैसी औरत की पदवी मिलती है। यानी कि स्त्री की सामाजिक विजय।

हमारा प्रेम और प्रथम विश्वयुद्ध, लगता है कि एक ही धरातल पर घटित हो रहे थे और दोनों के संयोग से एक प्रेम कहानी (उसने कहा था) का जन्म होना था। यह प्रेमकथा ऐसे ही अमर होनी थी जैसे प्यार का प्रतीक ताजमहल।

मेरे लिए प्रेमिका होना ऐसा ही घिनौना घाव है, जिसे ढके रहना ही लाजिमी है। लहनासिंह का प्रेम ही मेरे लिए गौरव है। मुझे प्यार के लिए असाधारण योग्यता या अदम्य लालसा दिखाने का अधिकार ही नहीं दिया गया, यह बात कहने की नहीं है, महसूस करने की है, जो प्रेम करने वाली स्त्रिायां महसूस कर सकती हैं। हम तो अपने प्रेमियों के त्याग-बलिदान और स्थापित सौगातों पर निछावर ही रहे।

अपने उत्कट प्रेम को मैं इस तरह चित्रित करने के लिए तैयार थी या नहीं, मुझसे किसी ने नहीं पूछा। हां, कोई पूछता भी क्यों, मैं ही यू टर्न ले गई। आज उसी दहशतजदा व्यवहार पर मैं कटी मछली-सी तड़पती हूं और मेरे नीचे सूखे रेत के सिवा कुछ नहीं। प्यार जो लहना के लिए मेरे दिल में आवाजाही करता था, आज अपनी मूक उपस्थिति में बिलबिलाता है। प्यार की राह में मैं अपना गुनाह नहीं मिटा सकती। बस आंसू बहा सकती हूं और आंसू सूखते नहीं, क्योंकि इनमें लहना का खून मिला हुआ है। खून सूखा भी तो अपने निशान गाढ़े कर गया।

मैं आखिर क्या रही, एक अमरबेल सरीखी, जिसका जीवन तभी पनपता है जब अपने आधार का ही भक्षण करे। मैं भी तो जीती-जागती रही और अपने गृहस्थ में फलती-फूलती भी। लहनासिंह प्रेम की पराकाष्ठा में खत्म हो गया। तेरे में यह बहादुरी बचपन से थी लहना, शायद इसलिए कि तेरे लिए बहादुरी का सबक बचपन का सबक था, जैसे मेरे लिए कमजोर बने रहने का पाठ बचपन से था। तभी तो जब तांगे वाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था और मैं घिर गई थी। डर के मारे मेरे प्राण निकल रहे थे, उस दिन लहना ने मेरे प्राण बचाए थे और खुद घोड़े की टांगों तले चला गया था। मुझे उठाकर तख्त पर खड़ा कर दिया था। यह तेरे प्रेम की पहली बहादुरी थी और तेरे पुरुष होने का पहला संस्कार क्योंकि तेरे सामने मोहब्बत को छिपाने की मजबूरी नहीं थी। मजबूरी क्यों होती, कलुषित तो लड़की का प्यार ही माना जाता है।

बस, मैं न तुझे भूल पाई, न अपनी भावना जता पाई। न तब, न अब। हर समय अच्छे-बुरे चरित्रा का पेंडुलम लटकता रहा और मैं खुद को बुरी लड़कीहोने से बचाती हुई अच्छाई को साधती रही, शील को धारण करके यहां तक का सफर तय करती रही। क्या फर्क पड़ता है कि तब अबोध लड़की थी और आज ब्याहता औरत। लड़की को पिता की इज्जत रखनी थी, अपना प्रेम नहीं। आज मुझे पति और उसके खानदान की आबरू के लिए अपनी यादों, भावनाओं और संवेदनाओं का खात्मा करना है।  एक वाक्य में कहें तो मेरी जिंदगी पति की जिंदगी के कारण है। पति के सामने मेरे माता-पिता और बहन-भाइयों का भी कोई महत्त्व नहीं।

फिर लहना को मैं किस कोने रखती? क्या बताती उसके बारे में? परिचय में उसके लिए संबोधन क्या होता? इसलिए ही मेरी कथा मेरे प्रेम के साथ लुकाछिपी खेलती रही। सिद्ध करती रही कि सूबेदारनी का प्रेम होता तो नाजायज होता। अगर मैं लहना की प्रेमिका के रूप में खुलेआम प्रस्तुत होती हूं तो मैं प्रेमिका नहीं, बदचलन मानी जाऊंगी क्योंकि मुझे मोहब्बत करने का अधिकार नहीं।
मैं और लहना कतई बख्शे नहीं जाते। हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल और लैला-मजनूं की दास्तान उन सजाओं की मिसालें हैं, जो प्रेमियों को दी गईं। हमने विरासत में दहशत ही पाई है, दादी-नानियों की जिंदा कहानियां हमारे सामने रही हैं। क्या इसलिए ही सुनाई-पढ़ाई जाती हैं कि हम मोहब्बत से दूर ही रहें। क्या इसलिए कि मोहब्बत में बराबरी का जज्बा होता है जबकि औरत के लिए बराबरी निषिद्ध है। मैं सूबेदार की पत्नी होने के नाते साहस कैसे करती कि कहती, मैं अपने बाल सखा के पराक्रम से अभिभूत हूं, उसकी मोहब्बत भरी भावना के लिए आश्वस्त एक गर्वीली प्रेयसी! मैं गौरवान्वित हूं। फिर सूबेदार का क्या होता, जो मेरा पति मेरे मालिक के रूप में था? लहना, यहां मेरा प्यार और मेरा भय जुड़वां की तरह मेरे मन में उथल-पुथल मचाते रहे।

तुमने भी यही सोचा होगा लहना कि सूबेदारनी अब छोटी बच्ची नहीं जो धत्कहकर शरारतपूर्ण हंसी के साथ भाग जाएगी। वह अनुभवों की आंच में तपी हुई परिपक्व औरत है, तभी तो मेरी ड्योढ़ी पर मत्था टेकना करके मुझे आदर दिया था। मैं फिर कैसे कहती कि जो जिंदगी के सचों को तपाकर कुंदन की तरह मन में बसाए हुए है, उसकी चाहत भी कुंदन हो गई है, जो न गल सकती है, न पिघल सकती है। समझ लो कि चाहत के सिवा मेरी भावना कुछ हो भी नहीं सकती। बिकने के लिए उसका मोल भी कहां होता है? मेरा प्यार लहना के सिवा किसी के काम का ही कहां था।

उधर युद्ध, इधर मोहब्बत। उधर दुश्मन, इधर मीत। यह जंग मोहब्बत और नफरत के बीच चल रही थी। यह मारकाट दिलों में हो रही थी या मैदान में? मेरे सामने दोनों मंजर थे। यहां कौन दोस्त था, कौन दुश्मन? मैं किसकी तरफ से लडूं? मैं प्यार निभाऊं या वफादारी? आत्मा की आवाज सुनूं या संस्कारों के नियमों पर चलूं?

लहनासिंह जंग के मैदान में उतरने जा रहा है। पति और बेटा भी युद्ध में शरीक होने के लिए रवाना हो रहे हैं। लहना को कैसे विदा करूं? एक बार सीने से लगाकर रुखसत करूं और सलामती की दुआ के साथ नजरें मिलाऊं। वह मासूम धड़कन आज भी मेरे सीने में जिंदा है जो लहनासिंह की छाती में धड़कती है। मैं आगे बढ़ रही थी।

मगर मुझे मैंने ही बीच में रोक लिया। एक पत्नी ने प्रेमिका के पांवों में जकड़न पैदा कर दी। प्रेम की आग क्या जली, दहशत का धुआं साथ-साथ फैलने लगा। पतिव्रत की तपस्या खंडित हो जाएगी। सूबेदारनी अनैतिक, चरित्राहीन और कुलटा कहलाएगी। मेरी कथा की त्रासदी तो देखो, लहनासिंह शादीशुदा था या अविवाहित, बेशिकन चेहरा लिए प्रेम से लबरेज मेरे सामने खड़ा था। अपनी साफ-शफ्फाक नजर से कह रहा थाµ प्यार में सब कुछ जायज है जैसे कि युद्ध में सब कुछ जायज। मैं न प्यार में हारना चाहता हूं, न जंग में।

मगर मैं हारने लगी लहना! प्रेमकथा में स्त्री को हारना होता है क्योंकि उसे अपने शील में जीतने की आदत पड़ी होती है। आज अपने प्रेम की ही सौगंध खाकर कहती हूं कि मैं अपने पति से अर्ज करना चाहती थी- सूबेदार, जंग के मैदान में लड़ाकू जवानों को हुक्म देने वाले तुम हो। यह लहनासिंह, तुम्हारा जमादार सिपाही ही नहीं, मेरी चाहत का अबूझ और जरूरी हिस्सा है, इसे महफूज रखते हुए मुझे लौटाना। तुम्हारी सेवा अगर मैंने की है, समर्पण किया है तो वह एक पत्नी का धर्म था, मगर यह मेरा प्यार है, जिसे न सेवा चाहिए, न समर्पण, बस मोहब्बत की दरकार है। इसने मुझे बचपन में अपनी जान पर खेलकर बचाया था और शादी के बाद यह तुम्हारे और मेरे रिश्ते को बचाता रहा है, इस घर और गृहस्थ के लिए।

मैं ऐसा कुछ भी तो नहीं कह पाई। मेरी मोहब्बत की दास्तान अनकही ही रह गई जबकि यह सारा किस्सा मेरे इर्द-गिर्द ही बुना जा रहा था। आखिर मेरी दृढ़ता क्यों कांप उठी? क्या उस दिन मैंने उस मासूम लड़की का खात्मा कर डाला, जिसे बरसों पखेरू की तरह दिल में पालती रही?
अपनी निष्पाप प्रेम भावना को रौंदते हुए मैं अपने लेखक के जरिये यह कहने के लिए मजबूर हुई, वह भी एकांत में!

मैंने तेरे आते ही तुझे पहचान लिया था। एक काम कहती हूं। मेरे तो भाग ही फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, आज नमक हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं सूबेदार के साथ ही चली जाती। एक बेटा है, फौज में भरती हुए इसे एक बरस ही हुआ। अब दोनों जाते हैं, मेरे भाग। जैसे बचपन में मुझे बचाया था, ऐसे ही दोनों को बचाना। यही मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आंचल पसारती हूं।कहते-कहते सूबेदारनी फूट-फूटकर रो पड़ी।

कौन मानेगा कि मैं वही छोटी बच्ची हूं, जो लहना की आंखों के प्रेम को समझ गई थी? यहां तो मैं बेहद दुनियादार औरत के रूप में प्रस्तुत हूं, जो लहनासिंह के प्यार को बेरहमी से इस्तेमाल करने पर आमादा है। मेरी आत्मा का बध कर डाला लहना, उस आत्मा का जो किसी की मोहब्बत से अब तक लबरेज रही। लगता है कि लहना को देखते ही मुझे अपने पति और बेटे के बचाव की ढाल मिल गई और मैंने अपना स्वार्थ तुरंत उसके सामने रख दिया। जैसे यही मेरा कर्तव्य था, जिसे निभाना लाजिमी था। इस लाजिम नियम के तहत मैं तुम्हारे सामने गिड़गिड़ाने लगी। पल्ला पसारने लगी। मेरी दयनीय दशा का यह भयानक रूप प्यार के लिए है या प्यार के खिलाफ? क्या मैं संवेदना के लिए जानी जाने वाली औरत जाति के लिए कलंक नहीं हूं? मेरा रूप प्रेमिका नहीं, गुलाम का है, जिसे रोटी, कपड़ा और सिर पर छत के लिए किसी के हाथों बिकना है। बिना सोचे-समझे वैवाहिक जीवन की गुलाम होते जाने की स्त्री की नियति है।

लहनासिंह, तू जीता-जागता पराक्रम चरम साहसिक चुनाव में अपनी मर्जी का मालिक, तभी तो तेरी गहन भावना उदात्त प्रेम और व्यापक संदेश की वाहक बनी।

मैं निखालिस पति परायणा सूबेदारनी, अपनी सारी इंद्रियों पर पति का कब्जा मानने वाली, रिवाजों का दलदल पार नहीं कर सकी। कितनी जद्दोजहद थी, कितनी कशमकश, मगर हर बार रिश्ते का गलत नतीजा आकर राह रोक लेता। आखिर में उसी पायदान पर उतर आई जहां औरत अपने प्रेम की हत्या कर देती है और अपनी मोहब्बत की कातिल औरत ही आदरणीय मानी जाती है। मुझे मेरा लेखक जरा सा भी साहस नहीं दे पाया कि मैं पूज्य ग्रंथों की सीखों से मुठभेड़ कर पाती। बस, पवित्रता, श्रेष्ठता और महानता के लबादे ऐसे रहे कि वैज्ञानिक तथ्य भी ओझल हो गए। तभी तो मैं डरों और सावधानियों से घिरी तुम्हारा बलिदान मांगने लगी। मुझे कहानी की नायिका बनाते हुए समय का दबाव मेरा लेखक भी झेल रहा होगा कि सामाजिक व्यवहार में प्रेम के मूल स्रोतों से उपजे किसी स्वतंत्रा संबंध की स्वीकृति नहीं हुआ करती। बस, इसलिए ही मेरे गले से प्रेम की पुकार गायब कर दी। शास्त्रों की विलक्षण और अद्वितीय नियमावली पर आंच नहीं आई। जो बातें मुझे उपदेशों के रूप में प्रदान की गईं, हर स्त्री के लिए वही तो शिक्षा है।

हां, यह मेरी अनधिकारिक चेष्टा है कि कहीं गहरे प्यार की हूक उठती है कि शिकायत जमाती है, मेरे प्यार का खात्मा करते हुए यह प्रेमकथा क्यों लिखी गई? लहना के लिए मेरे दिल में कोमल खजाना था और उसे मैंने विवाह के बाद भी अमूल्य और गोपनीय संपत्ति की तरह संजोकर, सहेजकर बचाए रखा था। आज दुनिया के सारे कहानीकार सुनें कि स्त्रियों के हृदय में प्रेम का सरोवर होता है, उसमें यादों के कमल खिलते हैं, जिनकी सुगंध से वे भीतर ही भीतर मतवाली रहती हैं। तभी तो बिना इच्छा से वैवाहिक बंधन में बांधे गए पति को भी दुलराती रहती हैं। फिर कैसे मान लिया कि मैं अपने प्रेम का ऐसा क्रूर हश्र करती? और ऐसा करके लेखक ने आखिर क्या सिद्ध करना चाहा? प्रेम की आग दोनों ओर बराबर लगी होती है जिसमें आपसी ताप बराबर रहता है, फिर वह मेरे ही हाथों नष्ट क्यों होता? यह मेरे प्रति इंसाफ नहीं, लदा हुआ फैसला है। फैसला यह कि मेरे प्यार का इजहार नहीं होना चाहिए था।

आज लगभग एक शताब्दी बाद भी सूबेदारनी ज्यों की त्यों खड़ी है। यह कैसी कथा है कि प्रेमिका अपने प्रेमी के प्राण मांग रही है, पति और पुत्र के लिए! इन थोपे हुए संस्कारों का न्याय कौन करेगा? पौराणिक आदिमताओं के किलों में हमारे लिए हमारे चरित्र के खिलाफ, स्वभाव के खिलाफ कारनामे हैं। इनसे बचना कितना मुश्किल है, मगर फिर भी मेरे जैसा कृत्य किसी पे्रम करने वाली ने नहीं किया। ऐसा करके आखिर मैं समाज में सती, देवी, लक्ष्मी कहलाकर क्या करूंगी? अच्छा होता कि अपने पति को भी ऐसे ही जाने देती जंग में जैसे लहनासिंह गया था। हां, मैं तो ऐसे ही जाने देती। जो युद्ध में घटित होता, सो होता। पाखंड की जिंदगी जीना तो मौत से बदतर है।

लहना, यह तेरी प्रेमकथा मेरी गद्दारी की कहानी है। मैंने प्रेम निभाया नहीं, उसको भुना लिया। जबकि अपने प्यार को जीवित रखने के लिए ही मैं पूरी बात न कहकर केवल इतना कहकर रह गई! मैं इसे जानती हूं। मैं इतनी ही चौकन्नी थी, जैसे शेर के सामने खरगोश होता है। मैं यह भी समझ रही थी कि सूबेदार अपनी मर्दानगी की शान में पत्नी की लहनासिंह से घनिष्ठता बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। मगर मैं इतना क्यों डर रही थी? अपने शांत जीवन को बरकरार रखने के लिए, सुहागिन की तरह सम्मानित जिंदगी गुजारने के लिए या पति को ठेस न देने के लिए? सवाल बहुत हैं, मगर मेरे भीतर यह आवाज भी उठती है कि मेरी नियति यही नहीं थी। हम स्त्रिायों के हिस्से में प्यार क्यों नहीं आना चाहिए? अपने प्रेम के लिए उसे मवेशी की तरह मूक क्यों रहना चाहिए? हद तो तब हुई जब मैं प्यार के इजहार में पशु या पक्षी की तरह अपनी नजरें भी नहीं मिला पाई जबकि अकुंठ प्रेम की पुकार हृदय से बार-बार उठ रही थी। औरत के कान-पूंछ पशु की भांति होते तो प्यार में इन अवयवों की हरकत पर भी स्त्री के लिए निषेध होता। इसी निषेध के तहत मैं अपने उद्गार दबा गई और साबित कर दिया कि औरत सुरक्षाविहीन होने के डर से कैसा कायर जीवन गुजारती है। यदि ऐसा नहीं करती तो प्रत्यक्ष रूप से पति को ही चुनौती देती। बदचलन और कुलटा सूबेदार की पत्नी कहलाती। सूबेदार के घर की मर्यादा जाती। मैं घर की आबरू ढोने के चलते अपनी मोहब्बत में गुनहगार क्यों बनी? बनना जरूरी था क्योंकि मेरा वजूद सिर्फ पतिव्रत धर्म निभाने के लिए या जहां सपनेहु आन पुरुष मन नाहि की लक्ष्मण रेखा खिंची हुई है विवाहिता के लिए। लेकिन वह क्या था- मैं तेरे को आते ही पहचान गई। क्यों उसकी छवि मैं पच्चीस साल की लंबी अवधि में भूली नहीं। उसका चेहरा-मोहरा बदल गया, कद-काठी वही नहीं थी, पहनावा भी फर्क था, फिर किस तरह पहचान गई? मेरे लेखक ने मेरी बात दबाकर स्त्री सुलभ गरिमा की रस्सियों से बांध दिया, वरन् लहना और मैंने इतने दिनों बाद भी एक-दूसरे को मोहब्बत भरी आंखों से देखा था।
तभी तो लहनासिंह पर इतना भरोसा कर बैठी। कोई भी सोच सकता है कि बचपन में सिर्फ एक महीने का गली चलते मेल-मिलाप मुझे इतना भरोसा क्यों दे गया जितना कि मैं अपने पति पर पच्चीस साल में नहीं कर पाई। कहूं कि लहना से प्रेम था और पति से दहशत बनी रही। एक में बराबरी थी, दूसरे में सेविका का भाव। सब कुछ जानते-समझते हुए भी पारंपरिक और सामाजिक ढर्रे अपना करिश्मा दिखा रहे थे, मेरी भावनाओं का क्षरण होते हुए मैं ही देख रही थी कि प्रगाढ़ता से पैदा होने वाली दृढ़ता क्षीण रूप में प्रस्तुत हुई। मेरे स्त्री-संस्कार मुझे गलत दिशा में घेर ले गए। पतियों की दुनिया में प्रेम के लिए कट्टरपन की कहानियां मुझे डराने लगी होंगी, माना तो यही जाएगा क्योंकि कुंआरी लड़की की कोमल भावनाओं को उसके विवाहित होने पर पति की कचहरी में उन्हें अपराध सिद्ध किया जाता है।

यह निजाम कब बदलेगा? औरत कब भयमुक्त होगी? अपने प्रेम की स्वीकृत सूबेदारनियां लहना¯सहों की तरह कब सार्वजनिक करेंगी? शायद तब, जब औरत के कुंवारे प्रेम को, उसकी दोस्ती को, उसकी कोमल भावनाओं को मालिकरूपी पुरुष अपने शिकंजे से मुक्त करेगा या यह मुक्ति स्त्री स्वयं अर्जित करेगी। अभी तक भी यानी कि सौ वर्ष बाद भी चलन यही है कि जब भी सदाबहार रूढि़यों के लिए औरत के व्यवहार में कोताही होती है, उसके लिए नतीजे भयानक होते हैं।

तारीखें बदलती हैं, दिन, महीने और सालें बदलते हैं, रिवाजें नहीं बदलतीं। कैसे बदलें, ये रिवाजें पुरुष व्यवस्था के पक्ष में खड़ी हैं और स्त्रियां इनमें हस्तक्षेप करने का साहस नहीं करतीं, क्योंकि ये धर्मशास्त्र की दुहाई देती हुई काबिज हैं। सूबेदारनी के रूप में मैं क्या, आज की आधुनिक से आधुनिक स्त्री यदि विवाह संस्था की मुलाजिम है तो वह पति और प्रेमी के लिए प्राणदान के चुनाव पर अपना मत पति के ही पक्ष में देने को बेहतर मानेगी और देगी भी। वह आतंकित रहती है कि उससे सामाजिक मान्यता न छिन जाए और जान रही होती है कि पति ही वह वैध पुरुष है जो इस मान्यता का लाइसेंस देता है। सुहाग के पक्ष में खड़ी होने वाली परंपरा को औरतें आज तक निभा रही हैं और करवाचैथ के व्रत को शीश झुका रही हैं, वरन् वैज्ञानिक सच्चाइयां भी आज खुल चुकी हैं।

लहनासिंह, तेरे से मेरा ब्याह हो जाता तो तू नहीं मरता क्योंकि फिर मेरा प्यार नहीं, स्वामिभक्ति तेरे साथ होती। और मेरा सारा समर्पण दुनिया को तेरे लिए मेरे प्यार के रूप में दिखता। मैं भी सामाजिक नैतिकता के खिलाफ जाने के भय से मुक्त रहती। वह अलग बात है कि पहले मुझे प्रेमी को पति बनाने वाली जंग लड़नी पड़ती। क्या कुंवारी लड़कियां अपनी प्रेम भावनाओं को दबाकर इसलिए ही प्रेमी की पत्नी के रूप को स्वीकार करने के लिए विवश नहीं होतीं कि ताउम्र का साथ केवल पति के साथ ही मिल सकता है। जो ऐसा नहीं कर पातीं, पति से ही प्रेम करने का अभिनय करती रहती हैं।

मेरा प्रेम चुपचाप तड़पता रहा क्योंकि पतिव्रत के आग्रह ने ऐसा कोड़ा चलाया कि पति और बेटे के जंगी हथियार तेरी पीठ पर लाद दिए। अपने प्रेम की डोर तेरे प्रेम की डोर से काट डाली। मोहब्बत को जुर्म की तरह छिपाती रही। तेरी मुजरिम हुई मैं। दहशतों ने कैसे-कैसे नतीजे दिखाए हैं, कथा, कहानियों और इतिहास के पन्नों पर प्रेमियों को सूली चढ़ाए जाने के अनेक परपीड़क दृश्य दिखाई देते हैं। और प्रेमिकाएं गूंगी गुडि़या की तरह गुमसुम तस्वीरों में कैद रहती हैं।
मगर मेरा सारा भेद खुल गया।

मर्म तेरे से ही खुला! उसने कहा था! उसने कहा था।

उसने कहा था कहते हुए प्राण-विसर्जन किया और एक अविस्मरणीय दृश्य पेश कर दिया। लहना, तू प्रेमियों का सिरमौर प्रेमी। उसने कहा था केवल तेरी प्रेम कथा है। तेरी ओर से मोहब्बत के बुलंद मकबरे में तेरी ही सदा गूंजती है- उसने कहा था।

यहां मैं कौन थी? पतिपरायणा सतियों जैसी एक सती। क्या सचमुच मैंने सती पद पाने के लिए तेरी-मेरी मोहब्बत को दिल में छिपाकर रखा था? क्या तेरे को पहचान लेने का जोखिम सती पद पाने के लिए ही उठाया था? मैं नहीं डरी थी लहना, यह कहो कि यहां हर पायदान पर औरत को डराकर रखने का चलन है, चाहे वह जीती-जागती दुनिया में रहे या कथा-कहानियों में मिले। यह तो सब जानते हैं कि प्यार दो लोगों के बीच होता है। मगर स्त्री और पुरुष का प्रेम है तो स्त्री को प्रेम के रास्ते पर अपनी सक्रियता में चलाए जाने पर कोताही क्यों बरती जाती है? तू जंग में जाता या किसी मंदिर में, तेरा जाना देशप्रेम या देवप्रेम के लिए होता, लिखा यही जाता कि सूबेदारनी की मोहब्बत में समर्पित हुआ।

तेरा बलिदान हुआ और मेरा प्यार आज तक लहूलुहान अवस्था में पड़ा है, तिरस्कृत, बहिष्कृत के रूप में प्यार की दुनिया में कलंकित। सच में विवाहिताएं प्रेम के साथ नाइंसाफी करती हैं, नहीं तो मैंने क्यों कहा था तुझसे ऐसा कुछ जो तेरे ही इम्तहान और तेरे ही प्राणांत का कारण बना। नहीं, लहना! नहीं, मेरा आशय यह नहीं था कि मैं तेरे खून से अपनी गृहस्थी सींचूं।


मेरे लेखक ने सुहाग का संस्कार इतना ही खूंखार और दरिंदगी भरा बना दिया, जितना की मनुस्मृति ने बनाकर दिया। क्या इसीलिए ही मुझे अपने बसे हुए घर पर लहना के खून के ताजे धब्बे आज भी नजर आते हैं? या मैंने ही दहशत और कायरता द्वारा कमाई हुई मर्यादा की दागदार चादर ओढ़ ली है, इस प्रेमकथा ने मुझे पतिव्रत कथा की यही सौगात बख्शी है। क्या मैं यह कहूं कि उन प्रेमिकाओं को सावधान रहना चाहिए, जिनसे प्रेम के लिए साहस का बल छीनने के पवित्रा उपाय किए जाते हैं? मोहब्बत के लिए हिम्मत इतनी ही जरूरी है, जितनी कि जिंदगी के लिए सांसें। साहस होता तो प्रेम की उत्कृष्ट कथा उसने कहा था में सूबेदारनी का प्रेम लज्जित न होता। यहां मैं एक पत्नी और मां के सिवा कुछ भी तो नहीं रहने दी गई, फिर कहानी की नायिका यानी लहनासिंह की प्रेमिका का मुकुट मेरे माथे पर क्यों सजाया गया?

विमल राय की फिल्म 'उसने कहा था'

$
0
0
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था'पर विमल राय ने एक फिल्म का निर्माण किया था. हालाँकि निर्देशन उन्होंने खुद नहीं किया था. फिल्म के लिहाज से कहानी में काफी बदलाव किया गया था. उस फिल्म पर आज सैयद एस. तौहीदका लेख- मॉडरेटर 
=============================================

कथाकार चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कथा उसने कहा थापर जाने-माने फ़िल्मकार बिमल राय ने इसी नाम से एक फ़िल्म बनाई थी। निर्माता बिमल दा की फ़िल्म को मोनी भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था। फ़िल्म मे सुनील दत्त, नंदा, इंद्रानी मुखर्जी, दुर्गा खोटे, राजेन्द्र नाथ, तरूण बोस, रशीद खान व असित सेन ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं।
कहानी के सिनेमाई रूपांतरण की कथा कुछ इस तरह है: --
पंजाब के एक छोटे से शहर मे बालक नंदु अपनी विधवा माता पारो (दुर्गा खोटे) के साथ रहता है। हम देखते हैं कि नंदु की फ़रीदा(बेबी फ़रीदा) से बचपन की दोस्ती है। फ़िल्म की पात्र कमली(बेबी शोभा)अंबाला से अपने माता-पिता के साथ यहां छुट्टियां मनाने आई है।एक घटना मे नंदु बालिका कमली की जान बचाता है, उस दिन से नंदु व कमली अच्छे दोस्त बन जाते हैं। यह मित्रता कमली के अचानक अंबाला लौट जाने से समाप्त हो जाती है।
कमली और नंदु को बिछडे वर्षों बीत चुके हैं। इस बीच आस-पास और दुनिया मे अनेक परिवर्तन आए। द्वितीय विश्वयुध का समय आ गया है। बालक नंदु अब युवा गबरू जवान (सुनील दत्त) है। नंदु का ज्यादातर समय खैराती (रशीद खान) और वज़ीरा (राजेन्द्र नाथ) जैसे हमराह मित्रों के साथ गुज़रता है। घर की परवाह से दूर वह सारा दिन यूं ही मित्रो के साथ मटरगस्ती करता रहता है। घर का खर्च मां पारो के प्रयासों से पूरा हो रहा है।
दोस्तों की संगत मे रहते हुए नंदु मे मुर्गे पर जुआ खेलने का शौक पनप जाता है । इस खेल मे बाज़ी लगाने का शौक उसे कभी-कभी कुछ पैसा दे देता है। एक दिन इसी से कमाए रूपए से वह अपनी मां के लिए हार,चश्मा और गर्म शाल खरीदता है। पहले तो पारो खूब खुश होती है, जब सच सामने आया तो वह बेटे को सारा सामान लौटा देती है। घटना नंदु के जीवन मे आने वाले परिवर्तन संकेत के रूप मे देखी जा सकती है।
हम देखते हैं कि नंदु तांगेवाले खैराती के साथ बाहर निकला हुआ है। राह मे सामने से आ रहे दूसरे तांगेवाले  से उसकी झड़प हो जाती है। इस मामले तांगे पर बैठी एक युवती से बहस कर बैठता है। यह युवती बड़ी हो चुकी कमली है। बचपन के दोस्त इतने वर्षो बाद ऐसे अनजानमिलेंगे दोनो को ऐसी आशा न थी। समय का चक्र कमली को एक बार फ़िर से बचपन की जगह वापस ले आता है। कहानी मे आगे कमली(नंदा) नंदु (सुनील दत्त) को अपने बिछडे हुए बचपन के दोस्त रूप मे पहचान लेती है। नंदु का दोस्त खैराती कमली को उसके बारे मे बताता है कि यह लफ़ंगा(सुनील दत्त) दरअसल उसके बचपन का दोस्त है। सच को जानने के बाद कमली के मन मे नंदु के लिए प्रेम हो जाता है। सुख भरे दिन फ़िर से काफ़ूर होने लगते हैं। कमली के चाचा उसकी शादी सूबेदार के बेटे से करने का मन बनाते हैं
इसी बीच पारो अपने बेटे के लिए कमली का हांथ मांगने आती है। कमली के चाचा इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज़ कर पारो को वापस लौटा देते हैं। नंदु अपनी मां की बेइज़्ज़ती से बहुत आहत होता है। वह माता व स्वयं को अपमानित व तिरस्कृत पाकर खोया सम्मान वापस अर्जित करने के लिए फ़ौज मे चला जाता है।
कुछ महीने फ़ौज मे रहने के बाद नंदु वापस छुट्टियों मे घर आता है। इस बीच कमली के घरवाले उसकी सगाई कर देते हैं। कमली की सगाई की खबर सुनकर नंदु तुरंत ही फ़ौज लौट जाता है। रेजीमेंट पहुंचकर वह अपने सीनियर अफ़सर (तरूण बोस) के पास रिपोर्ट करता है। हम देखते हैं कि नंदु के सीनियर विवाह हेतु घर जा रहे हैं। दरअसल उनका रिश्ता कमली से तय हुआ। सीनियर के चले जाने के पर रणक्षेत्र का दायित्त्व नंदु के कांधे आता है, एक ओर वह फ़ौज मे शत्रुओं का सामना कर रहा है तो दूसरी ओर कमली एक अजनबी के साथ बंध रही है।

प्रेम व डयूटी के दो पाटों मे बंटे नंदु और कमली क्या अपने दायित्त्व का निर्वाह कर सकेंगे? युद्ध का बडा परिवर्तन दोनों की ज़िंदगी मे क्या बदलाव लाएगा? क्या फ़िल्म का सुखांत अंत होगा? इन प्रश्नों के बीच एक ठोस संकेत मिला: जंग अपने साथ हर समय विषम परिस्थिति लेकर आता है। नंदु व कमली की कहानी के माध्यम से फ़िल्म एक कड़वा सच उजागर करती है: जीवन की खुशहाली मे युद्ध एक बडी बाधा है ।

हम खड़ी बोली वाले हर बात के विरोध में खड़े रहते हैं!

$
0
0
हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक, एक ज़माने में मैं जिनका दूत होता था, भूत होता था, ने एक बड़ी मार्के की बात कही थी. उन्होंने कहा था कि जानते हो हिंदी भाषा खड़ी बोली से बनी है, और इसलिए हर बात पर विरोध में खड़े हो जाना इसके मूल स्वभाव में है. विरोध हम हिंदी वालों का मूल स्वभाव है, मूल प्रवृत्ति है.

80 के दशक में हम टीवी के खिलाफ खड़े हुए. मेरे गुरु मनोहर श्याम जोशी जब ‘हमलोग’, बुनियाद’ जैसे सीरियल लिखकर हिंदी के परिसर में एक नई शुरुआत कर रहे थे हम हिंदी वाले उनके ऊपर ढेले फेंक-फेंक कर अपनी प्रगतिशीलता का सबूत देने में लगे हुए थे. भारत के सबसे दूरदर्शी प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने जब कंप्यूटर क्रांति, संचार क्रांति की बुनियाद रखी हम हिंदी वाले ऐसे विरोध में लगे रहे जैसे कंप्यूटर आ गया तो हम जैसे निपट ही जायेंगे. सुधीश पचौरी ने जब उत्तर-आधुनिकता की बात की हम उनके खिलाफ खड़े हो गए. 
जब इंटरनेट आया हम सोशल मीडिया के विरोध में खड़े हो गए, खुद को हिंदी के विधाता मानने वाले बूढ़े कहने लगे इससे तो मर्यादाएं टूटने लगी हैं, जो बात गुपचुप में होनी चाहिए वह खुले आम हो रही है.

एक बड़ा अच्छा किस्सा सुनाता हूँ. मेरे एक आदरणीय प्रोफ़ेसर साहब हैं. मिलने पर बड़े प्यार से जानकी पुल ब्लॉग का हालचाल पूछा, फिर ये कहा कि वे फेसबुक ब्लॉग को पढने से क्यों बचते हैं क्योंकि यह समय नष्ट करने का माध्यम है. इस बात पर बड़ा अफ़सोस भी जताया कि अच्छी अच्छी प्रतिभाएं इसके प्रभाव में आकर नष्ट हो रही हैं. जब मैं चलने लगा तो यह कहा- सुनो, तुम जानकीवल्लभ शास्त्री के भक्त रहे हो, उनकी सारी किताबें दिल्ली के एक बड़े प्रकाशक से मैंने छपवा दी हैं, जरा इसके बारे में जानकी पुल पर लिख देना. 
प्रगतिशीलता का यही दुचित्तापन है.

बाद हम बाजार के विरोध में खड़े हो गए. जिस दौर में तथाकथित लघु पत्रिकाओं में शिवराज सिंह, रमन सिंह का चेहरा विज्ञापनों के रूप में अगले-पिछले पन्नों पर छप रहा था, छप रहा है उस दौर में हम भाजपा के विरोध में खड़े हो गए. मैं पूछना चाहता हूँ कि प्रगतिशीलता की वह नैतिक जमीन कहाँ बची है जहाँ खड़े होकर हम दक्षिणपंथी राजनीति का विरोध करें, उनको फासीवादी बताएँ और खुद को प्रगतिशील? जिन राज्यों में दक्षिणपंथी सरकारें हैं, वहां हमारी किताबों की थोक खरीद होती है हम उसका विरोध नहीं करते, हम वहां से मिलने वाले नियमित विज्ञापनों का विरोध नहीं करते हम बस रायपुर साहित्योत्सव का विरोध करते हैं! हमारे इसी दुचित्तेपन ने हमारे विद्रोह को हास्यास्पद बना दिया है. विद्रोह त्याग की मांग करता है. उसके बिना सारा विद्रोह छद्म लगने लगता है. यह कहने लगता है हिंदी पर खतरा है.

मैं विरोध में खड़ा नहीं हूँ. मैं इस आयोजन में गया भी, बिक भी गया और आप चाहे इसके लिए मेरे ऊपर थूकाथुकी भी कर लें लेकिन मैं साफ़ साफ़ कहूँगा कि बड़े सकारात्मक भाव से लौटा. कारण है, इससे पहले बहुत सारे लिटरेचर फेस्टिवल्स में भाग लेने का मौका मिला है. मान-सम्मान, स्वागत-बात में कहीं कोई कमी नहीं रहती है. लेकिन एक कमी हर जगह दिखाई देती है कि दिव्यता-भव्यता तो उनमें खूब रहती है लेकिन हिंदी के लेखकों के असली पाठक उनको नहीं मिलते. रायपुर साहित्योत्सव अकेला ऐसा उत्सव लगा जहाँ माहौल में वह अंग्रेजियत नहीं थी, हिंदी के असली पाठक अपने लेखकों से मिल कर गौरवान्वित हो रहे थे. वहां सारे स्टाल हिंदी के प्रकाशकों के थे और मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि वहां स्टाल लगाने वाला कोई प्रकाशक यह नहीं कहेगा कि उसकी बिक्री कम हुई. अच्छी हुई. यह बात मैं हवा हवाई नहीं कह रहा हूँ. वहां स्टाल पर मौजूद प्रतिनिधियों से बातचीत के आधार पर कह रहा हूँ.

एक और बात, मैं बड़े बूढों की बात नहीं करना चाहता. वे बेचारे तो नए पुराने दो पाटों के बीच फँस गए हैं. लेकिन नए लेखकों ने जहाँ भी बोला जमकर बोला और उनको लेकर सुनने वालों में उत्साह भी खूब रहा. वहां आयोजित सत्रों में जिन दो सत्रों में जबरदस्त भागीदारी देखने में आई, उनमें एक सत्र लोकप्रिय लेखन को लेकर था, जिसमें अदिति महेश्वरी, पंकज दुबे, प्रभात कुमार(प्रभात प्रकाशन वाले) आदि वक्ता थे, और जिन्होंने भविष्य की किताबों को लेकर, समकालीन लेखन को लेकर जमीनी बातें की, क्रांति-व्रांति जैसी हवा-हवाई बातें नहीं! दूसरा सत्र आभासी दुनिया के लेखन को लेकर था जिसमें विनीत कुमार, मनीषा पाण्डे, वरुण ग्रोवर और युवा उत्साह से सराबोर बुजुर्ग जगदीश्वर चतुर्वेदी वक्ता थे और आपका यह जानकी पुल का रखवाला उस सत्र का संचालन कर रहा था. सच बताऊँ तो अभूतपूर्व उपस्थिति थी उस सत्र में और विनीत कुमार को तो जैसे सुनने वालों ने सर पर बिठा लिया.

हिंदी के लेखक को पाठक मिल रहे हैं, बड़े बूढों के सर्टिफिकेट के बिना दमदार युवा लेखकों को पहचान मिल रही है. हम जिस जन-जन का हल्ला मचाते हैं वह हम लेखकों तक पहुँच रहा है. इसमें विरोध की क्या बात है. यह सकरात्मक पहलू है जो आश्वस्त करता है कि आने वाले समय में लेखकों द्वारा लेखकों के लिए किया जाने वाला लेखन समाप्त हो जायेगा, पुरस्कारों के लिए लिए लिखी जाने वाली कवितायेँ कूड़ेदान में चली जाएँगी. हिंदी में पाठकों लेखकों के बीच जीवंत रिश्ता बनेगा. कम से कम रायपुर साहित्योत्सव ने मुझे उत्साह से भर दिया है.

अंत में, जहाँ तक मानदेय लेकर बिकने की बात है तो मुझे इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है मैं एक बिका हुआ लेखक नहीं हूँ. मैं पत्र-पत्रिकाओं में लिखता हूँ मानदेय लेता हूँ, लड़-झगड़ कर लेता हूँ, प्रकाशकों से रॉयल्टी लेता हूँ. सभा-समारोहों में पत्रं-पुष्पं लेता हूँ. मैं तो न जाने से कब से बिका हुआ हूँ. यह कोई पहली बार थोड़े न है. साहित्योत्सवों में मानदेय मिलना चाहिए. यह अच्छी शुरुआत है. लेखक बंधुआ मजदूर नहीं होता है, जिस तरह मजदूरों को उचित मजदूरी मिलनी चाहिए उसी तरह लेखकों को उसके लेखन की उचित मजदूरी मिलनी चाहिए. उसके श्रम का मूल्य मिलना चाहिए. तभी उसके लेखन की सार्थकता है. यह मेरा अपना मत है. आप चाहें लाख विरोध करें मैं अपने इस मत से टलने वाला नहीं हूँ.

मेरे आदरणीयों, हिंदी को नकारात्मक मोड(mode) से निकलने दीजिए, सकारात्मक होकर सोचिये. हिंदी के विस्तार में ही हमारा विस्तार है. हमारी भाषा को खड़े खड़े सौ साल से ऊपर हो चुके हैं. अब प्लीज उसे बैठ जाने दीजिए न मंगलेश जी, विष्णु जी!

- प्रभात रंजन 


कल 'रवीशपन्ती'का लोकार्पण है!

$
0
0
लोग यह कहते हैं कि हिंदी की लिखत-पढ़त की दुनिया में दशकों से कुछ नहीं बदला- न भाषा बदली, न मुहावरा बदला, न वह संवेदना, जो आजादी के पहले से इसकी रूह से चिपक गई थी. गाँव बनाम शहर. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता याद है- ‘यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी जो मेरे गाँव को जाती थी...’ जब गाँव से नया नया दिल्ली आया था, तब हिन्दू कॉलेज होस्टल में इस कविता को पढ़ते हुए इसकी उच्छल भावुकता से मैं भी खूब प्रभावित होता था. अब पढता हूँ तो हँसी आती है. कविता यह कहती है गाँव मतलब कच्ची सड़क, अंधरे में डूबे घर, दूखा-रुखा जीवन. बहरहाल, लिखने कुछ चला कुछ लिखने लगा. लेकिन यह सब लिख रहा हूँ रवीश कुमार की किताब ‘रवीशपन्ती’ को पढ़ते हुए.

जो लोग यह कहते हैं कि न भाषा बदली, न संवेदना, न चीजों को देखने का नजरिया तो मैं उनको कहता हूँ लेखक रवीश कुमार को पढ़िए. सरोकार सिर्फ किसी लाल झंडे वाली पार्टी की सदस्यता लेने से नहीं आती है, न ही बचपन या जवानी में छूट चुके उस गाँव को मन में संजोये रखने से जहाँ से भौतिक दुनिया में हमारा नाता छूट चुका होता है लेकिन हम यह चाहते हैं कि वह वैसा का वैसा बना रहे जैसा कि हमारे मन में है.

रवीशपन्ती’ एक किताब मात्र नहीं है. यह हिंदी के बदलते मुहावरे, ‘किसान-मजदूर चेतना’ की झूठी संवेदना के बरक्स गांवों के बदलते जीवन के ‘पैराडोक्स’ को करीब से समझने की एक जरूरी और गंभीर कोशिश है. गाँव को नए सिरे से समझने की एक कोशिश जिसकी शुरुआत नीलेश मिसरा के अखबार ‘गाँव कनेक्शन’ के साथ हुई थी. हमारे मन का गाँव अब बहुत बदल गया है. किताब के पहले ही लेख में आमिर खान की फिल्म ‘तलाश’ का हवाला देते हुए रवीश कहते हैं कि गाँव वही होता है जहाँ भैंस होती है, बैलगाड़ी चलती है. लेखक लिखता है कि इसके बाद जोर की हँसी छूटती है. मैं हिंदी का लेखक हूँ, और जब भगवान दास मोरवाल टाइप लेखकों को, जो एक बड़े संस्थान में बड़े अफसर हैं, यह लिखते कहते सुनता-पढता हूँ कि हम गाँव के लोग हैं तो सच बताऊँ मेरी भी हँसी छूटने लगती है. हिंदी वालों ने गाँव का एक ‘क्लीशे’ बना दिया है. यह किताब इसी तरह के क्लीशे से मुक्त करवाने की कोशिश करती है, अपनी आँखों से देखे हुए को दिखाते हुए, अपनी समझ से समझाते हुए.

दिल से कहता हूँ रेणु के बाद गाँवों के इतने जीवंत वर्णन पहली बार पढ़ रहा हूँ. हालाँकि इसमें न रेणु के जमाने का वह गाँव है, न ही वह गँवई भोलापन जो  राज कपूर की फिल्मों में स्थायी भाव की तरह से मौजूद रहता था. लेकिन जीवन्तता वही है और भाषा का खुलापन वही. ‘रवीशपंती’ भाषा की मुक्ति का भी पाठ है. मेरा तो मानना है कि हिंदी भाषा दो तरह की है एक रवीश कुमार के पहले की भाषा दूसरी रवीश कुमार के बाद की भाषा!

आपके लिए किताब की भूमिका से भाषा की एक बानगी- ‘गाँव क्या है। इसकी परिभाषा अनेक विद्वानों ने दी है। एकाध मैं भी दे चलता हूँ। गाँव एक होनेवाला शहर है जिसके लोगों को शहर बसाने के लिए खदेड़ा जानेवाला है। गाँव एक गैराज है जहाँ सरकार की योजनाएँ खड़ी की जाती हैं। दर, दीवार पर पीले रंग की सर्वशिक्षा अभियान की पार्किंग आपने देखी होगी! खाद से लेकर नसबन्दी तक, पैदाइश से लेकर शादी तक बालिका विवाह योजना से लेकर साइकिल की बँटाई का एलान प्लान। योजनाएँ कागजों में ही बने-बने सड़ जाती हैं, पर लागू नहीं होतीं। गाँव में निराशा न फैले इसलिए मुख्यमंत्री की हँसते हुए फोटू लगा दी जाती है। जब वो खुश है तो आप क्यों नहीं भाई। कुल मिलाकर गाँव एक विकासशील अवधारणा है। गाँवों ने बड़ी-बड़ी योजनाओं को निगलकर बता दिया है कि उन्हें विकसित करना इतना आसान नहीं। कभी किसी गाँव ने मना नहीं किया होगा कि भाई हमें ये योजना नहीं चाहिए। ये सब ले लेते हैं। इन्हें पता है लागू तो होंगी नहीं कम-से-कम लागत तो पचा ही सकते हैं।‘
 अब नाइन बुक्स इंप्रिंट के बारे में. नाइन बुक्स बदलते भारत के साहित्य के नवरस को बटोरने की कोशिश है। नाइन बुक्स इंप्रिंट वाणी प्रकाशन और कंटेंट प्रोजेक्ट का एक साझा प्रयास है, जो उभरते भारत को नये, चमकते साहित्य और किस्सागो देगा। वाणी प्रकाशन पिछले 50 वर्षों से भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन गृह रहा है और नाइन बुक्स इंप्रिंट के तहत कंटेंट प्रोजेक्ट साउथ एशिया की पहली लेखकों की कम्पनी है, जो भारत में उर्वर साहित्य को नया आयाम देने की पहली लेखकों की कम्पनी है। यह मौलिक सृजन यात्रा आने वाले वर्षों में हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह एक नया आयाम जोड़ेगी।


कहानी कला को नया आयाम देने के लिए नीलेश मिसरा ने किस्सागो युवा लेखकों की कहानी बनाने, कहने-सुनने की मंडली तैयार की है। देश भर में दूरदराज बैठे मंडली के सदस्य अपनी-अपनी कहानी नीलेश जी के नेतृत्व में युवा रचनाकारों के बीच चर्चा कर हिन्दी कहानी के इतिहास में एक नया आयाम रच रहे हैं। पाठकों से सीधे कहानी कहने, गढ़ने के इन लेखकों के अपने रिश्ते हैं। ऐसी ही सरस लोकप्रिय कहानियों की दूसरी कड़ी हैं रवीश कुमार की रवीशपन्ती



17 की शाम से यह पुस्तक वाणी प्रकाशन वेबसाइट पर  प्री-आर्डर के लिए उपलब्ध होगी और 22 दिसम्बर 2014 से फ्लिपकार्ट, अमज़ोन व इंफीबीम आदि ऑनलाइन बुकस्टोर पर उपलब्ध हो जाएगी।

मैं 17 की शाम को ही इसे प्री-ऑर्डर में बुक करता हूँ. आप अपनी जानें! उससे पहले कल यानी 17 दिसंबर को ही दोपहर 2 बजे मिलते हैं कनाट प्लेस में ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर में जहाँ इस किताब का लोकार्पण है. 

जय गाँव! जय रवीशपन्ती!  

प्रभात रंजन 
  

रायपुर का रायचंद

$
0
0
मेरे प्रिय व्यंग्यकार-कवि अशोक चक्रधरने रायपुर साहित्योत्सव से लौटकर अपने प्रसिद्ध स्तम्भ 'चौं रे चम्पू'में इस बार उसी आयोजन पर लिखा है. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन 
=====================================================

--चौं रे चम्पू! तू रायपुर साहित्य महोत्सव में गयौ ओ, कौन सी चीज तोय सबते जादा अच्छी लगी?
--चीज़ से क्या मतलब है चचा? खाने-पीने की, ओढ़ने-बिछाने की, आवभगत की या साहित्य-सत्संग में आने वाले किसी भगत की?
--अरे, कोई सी बात बताय दै!
--सबसे अच्छी बात हुई वरिष्ठ कवि-साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल से मिलना। सन् उन्नीस सौ चौहत्तर में सुधीश पचौरी के कमरे पर अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित 'पहचान'सीरीज़ की ख़ूब चीरफाड़ हुई। उस सीरीज़ में विनोद जी की भी एक कविता-पुस्तिका थी, 'लगभग जयहिन्द', लेकिन सभी ने उसे पसंद किया। व्यंग्य का एक निराला और नया अंदाज़ था। होती हुई चर्चाओं के प्रकाश में मैंने सीरीज़ की समीक्षा 'पहचान अशोक वाजपेयी की'शीर्षक से लिखी, जो 'ओर'नाम की पत्रिका में प्रकाशित हुई। तभी से मेरा मन था कि विनोद कुमार शुक्ल से मिलना है। इसलिेए भी लालायित था कि राजनांदगाँव में उन्होंने गजानन माधव मुक्तिबोध के साथ लंबा समय बिताया। आप जानते हैं कि मुक्तिबोध मेरे आदर्श कवि हैं। मेरी कविताओं को मानवतावादी यथार्थवादी रास्ता वही दिखाते हैं। लेकिन देखिए, विनोद जी से मिलने की चालीस साल पुरानी हसरत अब आकर पूरी हुई।
--कैसी रही मुलाक़ात?
--अत्यंत संक्षिप्त,अत्यंत आत्मीय। 'लगभग जयहिन्द'के बाद मैंने उनकी कोई रचना नहीं छोड़ी। जैसे-जैसे उन्हें पढ़ता गया, उनके प्रति स्नेहादर बढ़ता गया। 'दीवार में एक खिड़की रहती थी'उनकी अल्टीमेट औपन्यासिक कृति है। पूरा उपन्यास एक महाकाव्य सरीखा है। उपन्यास के प्रारंभ में ही उन्होंने उद्घोषणा कर दी थी कि 'उपन्यास में एक कविता रहती थी'। उनसे आजानुभुज मिलना और उन्हें साक्षात सुनना इस महोत्सव की सबसे बड़ी उपलब्धि थी मेरे लिए
--का सुनायौ उन्नै?
--छोटी-छोटी अनेक कविताएं सुनाईं। हर कविता में मार्मिक व्यंग्य! पता नहीं क्यों आज के व्यंग्यकार जब व्यंग्य की बात करते हैं तो उनका नाम नहीं लेते। शायद इसलिए कि वे व्यंग्य में हास्य ज़रूरी मानते हैं। ग़रीब की हितैषी संवेदनशील व्यंजना उनके व्यंग्य की सबसे बड़ी शक्ति है।
--तौ सुना उनके संबेदनसील ब्यंग!
--अतुकांत कविताएं यथावत तो मुश्किल से याद रहती हैं पर कुछ पंक्तियां ऐसी हैं जो पिछले चार-पाँच दिन से निरंतर गूंज रही हैं। जैसे उन्होंने कहा कि मैं हिंदी में शपथ लेता हूँ कि मैं किसी भी भाषा का अपमान नहीं करूंगा। कविता में उन्होंने कामना रखी कि उनकी भाषा हर जनम में बदलती रहे। और वे संसार में इसके लिए बार-बार जन्म लेते रहेंगे। कविता के अंत में उन्होंने कहा, मैं कीट-पतंगों से भी यह बात मनुष्य होकर कह रहा हूं। अब चचा, वहां हिन्दी को लेकर काफ़ी चर्चाएं हुईं। मातृभाषा, राजभाषा, संपर्कभाषा, राष्ट्रभाषा, आख़िर हिंदी है क्या? अख़बारों में अशोक वाजपेयी का वक्तव्य बड़ा मोटा-मोटा छपा, हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं है। उनके अनुसार यदि किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा माना जाएगा, तो वह भाषा तानाशाह हो जाएगी। उनके अनुसार भारत की सारी भाषाएं और बोलियां राष्ट्रभाषाएं हैं! अंग्रेज़ी के प्रच्छन्न समर्थन के लिए यह बड़ी बारीक कताई है वाजपेयी जी की।
--सो कैसै?
--इस विचार का विरोध करने वाले क्यों चाहेंगे कि अन्य भारतीय भाषाओं के समर्थक न माने जाएं।
--अरे उनकी भली चलाई!
--चचा, आपने विनोद जी का नज़रिया भी सुना। उनके वक्तव्य में एक विश्वदृष्टि है। मनुष्य अगर न समझें तो वे हिंदी में शपथ लेकर कीट-पतंगों को भी सुनाना चाहते हैं। वे संसार की सारी भाषाओं के प्रति आत्मीयता से भरा संवेदनात्मक सोच देना चाह रहे हैं और अशोक जी हिंदी भाषा के तानाशाह होने का ख़तरा दिखा रहे हैं।
--लोग तानासाह होयौ करैं, भासा कैसै है जायगी?
--वही तो बात है चचा! किसी भाषा को मज़हब या शासन से जोड़कर देखना सोचाई को कितना संकीर्ण कर देता है। भाषाओं की आत्मीयताओं की जड़ों में मठा क्यों डाल रहे हैं, खुलकर अंग्रेज़ी मैया की जय बोलें न! इसमें शक नहीं है कि अशोक जी की हिंदी बहुत प्यारी लगती है। हिंदी के वरिष्ठ लेखकों में उनसे ज़्यादा अच्छी अंग्रेज़ी शायद ही किसी की होगी, लेकिन सिद्ध तो करें कि हिंदी पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने वाली और बहुवचन की भाषा नहीं है।

--अरे बे तौ स्बयंसिद्ध ऐं! तू उन्ते का सिद्ध करायगौ, रायपुर कौ रायचंद बनैं खामखां! मोय सुकल जी कौ उपन्यास दइयो, खिरकी वारौ। 

दूसरा शैलप्रिया स्मृति पुरस्कार: एक रपट

$
0
0
यह हम हिंदी वालों का लगता है स्वभाव बन गया है- जो अच्छा होता है उसकी ओर हमारा ध्यान कम जाता है. रांची में 'शैलप्रिया स्मृति पुरस्कार'ऐसी ही एक बेहतर शुरुआत है. इस गरिमामयी सम्मान का यह दूसरा आयोजन था, जिसकी एक रपट हमारे लिए भेजी है कवयित्री कलावंती ने- जानकी पुल.
======================================================== 


बहुमुखी प्रतिभा की धनी रचनाकर नीलेश रघुवंशी को उनके उत्कृष्ट लेखन के लिए दूसरा शैलप्रिया स्मृति पुरस्कार, 14 दिसंबर 2014 को एक भव्य समारोह में झारखंड की राजधानी रांची में प्रदान किया गया। विशेष बात यह रही कि सभी लोगों को बुके न देकर अशोकवृक्ष  के छोटे छोटे पौधे दिये गए। यह कवयित्री अपने सामाजिक सरोकारों के कारण इस शहर मेंकिस कदर लोकप्रिय थी,इस बात का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है किपूरा सभागार खचाखच भरा हुआ था। वे मंच पर नहीं थीं पर वे पूरे समारोह मे घुली थीं। उनके पति,उनके बेटे और नाती,नतिनियाँ,पोते पोती,शहर के गणमान्य और आत्मीय जन। सब तो थे । शैलप्रिया महज 48 वर्ष की उम्र मे कैंसर से जूझते हुए चल बसी। उनके बेटे प्रियदर्शन ने अपनी माँ को याद करते हुए कहा कि  इस उम्र में बहुत सी लेखिकाओं ने दूसरी पारी में लिखना शुरू किया है। उन्हें यह दूसरी पारी नहीं मिल सकी। नीलेश जी और शैलप्रियाजी दोनों की ही रचनाएँ आम स्त्रियॉं अथवा समाज मेंवंचित तबके को आवाज देती रचनाएँ हैं जोसारे अंधेरोंके बाद भी थोड़ी सी रोशनी…..दिया भर रोशनी बचाए रखना जानती हैं। अपने जीवन के छीजन को छाजन बनाना जानती हैं वे। वे अपने  समय की,अपनी गृहस्थी की  सबसे बड़ी रफूगर होती हैं।

नीलेश रघुवंशी को यह पुरस्कार प्रसिद्ध लेखिका अल्का सरावगी ने अपने हाथों से प्रदान किया। पुरस्कार के रूप मे 15,000,मानपत्र व एक स्मृति चिन्ह भी किया गया। नीलेश रघुवंशी ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहा किस्त्री लेखन,पुरुष लेखन जैसा बटवारा बिलकुल गलत है। उन्होंने अपनी कुछ कवितायें पढ़कर सुनाई। मंच पर आसीन प्रसिद्ध उपन्यासकर मनमोहन पाठक ने सभा की अध्यक्षता की। उनके अलावा प्रियदर्शन,प्रसिद्ध आलोचक श्री रविभूषण। प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती महुआ माझी व महादेव टोप्पो मंच पर उपस्थिथे। समारोह का संचालन सुशील कुमार अंकन ने किया। धन्यवाद ज्ञापन अनुराग अन्वेषी ने किया  ने किया।

दूसरे सत्र की शुरुआतमेंसमकालीन महिला लेखन का बदलता परिदृश्यविषय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया। डॉ रविभूषण ने इस मौके पर कहा कि नव उदरवादी व्यवस्था में स्त्री लेखन ज्यादा मुखर हुआ है।स्त्री पर पुरुष लेखकों द्वार अनेक कवितायें लिखी गई। पर हाल के वर्षों में कई मुखर,प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ लिख रहीं हैं। लेखिका अलका सरावगी ने कहा कि मानस धीरे धीरे बदल रहा है। वे खुद जब लिखती हैं तो सबसे पहले पाठक उनके घर के लोग होते हैं। बहुत से पुरुष रचनाकारों यथा शरतचंद्र ने स्त्री समाज पर,उनके मनोविज्ञान पर बहुत ही बढ़िया लिखा है। उसी प्रकार उनकी पहली कहानी 1991 में छपी थी जिसका प्रधान पात्र एक पुरुष ही था। श्रीमती  महुआ मांझी ने कहा कि एक लेखक को समाज में घट रही घटनाओंके प्रति संवेदनशील होना चाहिए। उस पर लिखा जाना चाहिए। महादेव टोप्पो ने कहा कि शैलप्रिया स्मृति न्यास महिला लेखिकाओं को सम्मानित व प्रोत्साहित कर रहा है। यह सम्मान झारखंड के बाहर भी जाएगा इसी क्रम मेंआज यह सम्मान मध्य प्रदेश की नीलेश रघुवंशी को दिया जा रहा है। प्रियदर्शन ने कहा कि परंपरा और आधुनिकता दोनों स्त्री विरोधी है। एक स्त्री को घर के भीतर मारना चाहता है तो दूसरा बाहर ले जाकर।  

आखिरी सत्र में अनामिका प्रियाकी आलोचना पुस्तक हिन्दी का कथा साहित्य और झारखंडका लोकार्पणभी किया गया। डॉ मिथिलेश ने इस पुस्तक पर प्रकाश डाला। उन्होने कहा किऐसी पुस्तकें आगे भी आनीचाहिए। मौके पर विद्याभूषण,अशोक प्रियदर्शी,डॉ शैलेश पंडित ,बलबीर दत्त.डॉ माया प्रसाद ,राजेंद्र प्रसाद ,मनोज,आलोक और बहुत से सुधिजन वहाँ उपस्थितथे।
                                             
   

   

शैलप्रिया से नीलेश रघुवंशी तक

$
0
0
पिछले इतवार को रांची में शैलप्रिया स्मृति सम्मान का आयोजन हुआ था. इस आयोजन पर कल बहुत अच्छी रपट हमने प्रस्तुत की थी, कलावंती जी ने लिखा था. आज उस आयोजन के मौके पर 'समकालीन महिला लेखन का बदलता परिदृश्य'विषय पर एक गोष्ठी का आयोजन किया गया इस गोष्ठी में  प्रियदर्शनका व्याख्यान सारगर्भित था. पढ़कर साझा कर रहा हूँ- प्रभात रंजन 
==================================

आज जो सिलसिला इस मंच पर चल रहा है, इसकी शुरुआत 20साल पहले हमारे जीवन में आई एक त्रासदी से हुई थी। हमारी मां, शैलप्रिया- कैंसर से एक नामालूम लड़ाई लड़ती हुई 48साल की उम्र में चल बसी थीं। इस बीमारी से पहले घर, परिवार, समाज-साहित्य के बहुत सारे मोर्चों पर वे सक्रिय थीं। वह दुख हमारे लिए बड़ा था।

लेकिन यहां मैं निजी तौर पर उस दुख को याद करने के लिए खड़ा नहीं हुआ हूं। हम सब जानते हैं कि मृत्यु अवश्यंभावी है। हम सब जो शोक मना रहे हैं- हमें भी जाना है। मुझे रवींद्रनाथ टैगोर याद आते हैं जिन्होंने किसी को जन्मदिन की बधाई दी थी। उस आदमी ने पूछा कि मेरी उम्र तो एक साल कम हो गई। मुझे बधाई किस बात की। गुरुदेव ने कहा, देखो, हमारी मृत्यु हमारे जन्म के साथ ही पैदा होती है। जन्म के पहले कोई मृत्यु नहीं होती। बधाई इस बात की कि हम उस मृत्यु को पीछे ठेलते रहते है।

तो जाना सबको है। लेकिन आज जब मैं ख़ुद 47का हो चुका हूं, अगले साल 48का हो जाऊंगा, तब मुझे लगता है कि यह एक लेखक के जाने की उम्र नहीं थी। हम सब जब इस उम्र में अपनी भाषा के परिष्कार में जुटे हैं, दुनिया को देखने समझने के नए नज़रियों से तालमेल बिठा रहे हैं, अपनी विधाओं के पुनराविष्कार की- अपने लेखन की पुनर्व्याख्या की कोशिश में लगे हैं, तब 48साल की एक लेखिका अपना बिखरा-छितरा हुआ लिखकर चली गई। 20साल पहले शैलप्रिया पर एक संस्मरण लिखते हुए मैंने लिखा था कि उनका लिखना मेरे लिए एक पहेली था। वह कैसे लिखती थीं. मुझे पता नहीं चलता था। लेकिन अब जब साहित्य की थोड़ी-बहुत कच्ची-पक्की समझ रखने के कुछ भ्रमों के साथ यहां खड़ा हूं तो कह सकता हूं कि शैलप्रिया का लेखन मेरे लिए वैसी पहेली नहीं रहा। हम जो जीते हैं, जिस तरह जीते हैं, जिस तरह सोचते-विचारते, महसूस करते, दुखी होते, खुश होते हैं, जो हमारे सरोकार होते हैं, उन्हीं से हमारा लेखन बनता है। वह कागज पर किसी एक घड़ी में उतारा जाता है, लेकिन हमारे भीतर पकता रहता है। हमारे जीवन की तीव्रता, उसके स्पंदन उसमें बोलते हैं। कल अलका सरावगी ने अपने उपन्यास अंश के पाठ के दौरान कहा था कि उन्होंने कभी सोच कर नहीं लिखा कि इस विचार या इस बात को पुष्ट करने के लिए लिखना है। लेखन अपने भीतर से उपजा और उसमें वे चीजें चली आईं जिन्हें कई तरह से वे महसूस करती रहीं। तो शैलप्रिया इसी तरह अपना जीवन जीते और अपने चारों ओर के समाज को महसूस करते हुए अपना लेखन भी करती रहीं- अक्सर बड़े लापरवाह ढंग से, कई बार आकाशवाणी की तरफ से काव्य पाठ के न्योते के बाद, कई बार किसी पत्रिका के संपादक से किए गए वादे को पूरा करने की मजबूरी में। उनकी दो किताबें उनके जीवन काल में आईं- अपने लिए, और चांदनी आग है। तब मुझे लगता था कि उनकी पहली किताब का नाम अपने लिए बेहद सार्थक है- क्योंकि वह अपने लिए लिखती थीं। अब समझता हूं कि हम सब अपने लिए ही लिखते हैं। सवाल बस इतना है कि वह अपना कितना विस्तृत है, उसका परिसर कितने बड़े आंगन को समेटता है। इस लिहाज से शैलप्रिया का परिसर बड़ा था। वे साहित्य के ही नहीं, समाज के मोर्चे पर भी सक्रिय थीं- इसलिए अपने लिए लिखी गई रचनाओं में चांदनी भी कई बार तपती हुई- आग जैसी- दिख पड़ती थी। उनके देहावसान के बाद उनके तीन संग्रह और आए- शेष है अवशेष, जो अनकहा रहा और घर की तलाश में यात्रा। यह अपनी पृष्ठ संख्या के लिहाज से बहुत विपुल लेखन नहीं था, लेकिन एक विपुलता का एहसास हमें होता था- शायद यह हमारे निजी जुड़ाव का नतीजा हो।

बहरहाल, जब उनके देहांत के बाद हम सबको यह बात सालती रही कि यह लेखिका देर-सबेर गुमनामी की गर्द में न खो जाए, इस विराट हिंदी संसार ने जब उनके जीवनकाल में उनका नोटिस नहीं लिया तो इस घोर स्मृतिशिथिल समय में उनकी मृत्यु के बाद क्यों लेगाजब उनके नाम पर एक पुरस्कार की घोषणा का हमने विचार किया तो यह सवाल भी आया कि जैसे कुछ पैसेवाले अपने पुरखों के नाम पर धर्मशालाएं बनवाते हैं, क्या उसी तरह यह पुरस्कार स्थापित करना नहीं होगा? हम सब न ऐसे पैसे वाले हैं और न ऐसी निर्जीव स्मृति को किसी शिला चिह्न की तरह स्थापित करना हमें सार्थक लग सकता है।

तो हमने यही सोचा कि जो सम्मान हो, वह शैलप्रिया की परंपरा का- चाहे वह जैसी भी नाकुछ हो- उनके सरोकारों का- चाहे वे जैसे भी मामूली हो- उनका जीवंत विस्तार हो। इस लिहाज से तय किया गया कि उनके नाम पर स्त्री लेखन का सम्मान किया जाए- और यह ख़याल रखा जाए कि जिन्हें हम यह सम्मान दें, वे कम से कम इस सरोकारसंपन्न परंपरा का हिस्सा हों।

इसी तलाश में हमें नीलेश रघुवंशी मिलीं। मध्य प्रदेश के एक कस्बे में जीवन की जलती हुई भट्टी के बीच से निकली हुई एक लेखिका। आप उन्हें देखेंगे तो आपको अपने झारखंड की ही लगेंगी। शायद साहित्य और मनुष्यता का एक शाप या वरदान यह होता है कि हम तमाम तरह के खंडों के बीच एक पुल बना पाते हैं- साझा पहचान का पुल। नीलेश रघुवंशी की कविता से मेरा परिचय वैसे तो काफी पहले का है- लेकिन मैं आपको बताऊं कि मैं उनके कुछ बहुत विकट प्रशंसकों से घिरा रहा। शायद यह 14-15बरस पहले की बात होगी जब जनसत्ता के दफ़्तर में मैं वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल से किसी बहस में उलझा और शायद कहीं से उनको लगा कि मैं नीलेश की कविताएं पसंद नहीं करता हूं। अगले ही दिन वे अपने घर से उनका संग्रह घर निकासी लेकर आ गए और कहा कि इसको पढ़िए। मैं लेखक जैसा भी होऊं, पाठक शायद ठीक हूं- और मैंने बड़ी गंभीरता से वह संग्रह पढ़ा। मेरी राय बदल गई यह नहीं कहूंगा क्योंकि कोई बुरी राय पहले भी नहीं थी- लेकिन एक नई राय ज़रूर बनी। आने वाले वर्षों में उनके और भी संग्रह आए- पानी का स्वाद, और अंतिम पंक्ति में। उसके बाद दूसरी विधाओं में भी उन्होंने काम किया- अनुवाद भी किए। यह सब करते हुए उनका रचना संसार विकसित होता रहा, लेकिन वह ताप, वह रगड़, वह दुर्धर्ष संघर्ष चेतना उनकी रचना के मूल में बनी रही जो कमज़ोर, पीड़ित और हाशिए पर पड़े लोगों के हक़ में खड़ी होती है। दो साल पहले आया उनका आत्मकथात्मक उपन्यास एक कस्बे के नोट्स जैसे इन सबके चरम की तरह आया है। इसी मोड़ पर हमें लगा कि नीलेश रघुवंशी वह लेखिका है जो साहित्य की उस जनपक्षधर परंपरा को बड़ी सहजता से आगे बढ़ाती हैं जिनसे हमारा और हमारी कवयित्री शैलप्रिया का भी वास्ता रहा है। नीलेश को ढेर सारे सम्मान मिले हैं, इतने कि कई लेखक ईर्ष्या करें, लेकिन फिर भी उन्हें सम्मानित करना सार्थक लगता है तो इसके कारण किसी की सदाशयता में नहीं, उनकी रचनाशीलता में निहित हैं।

हमारे बहुत विकट समय में, जब एक विराट तंत्र जैसे हमारी मानवीय धुकधुकी पर पांव रख कर चल रहा है, जब सत्ता और शक्ति के सारे उपादान मनुष्य विरोधी साबित हो रहे हैं, तब साहित्य ही वह शरण्य बचता है जहां हम अपनी नागरिकता का, अपने लोकतंत्र का और बराबरी के अपने सपने का पुनर्वास करते हैं। नीलेश इस प्रक्रिया की एक अहम कड़ी हैं।


अब वह वक्तव्य जो निर्णायक मंडल की ओर से उनका चयन करते हुए दिया गया है- नब्बे के दशक में अपनी कविताओं से हिंदी के युवा लेखन में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली कवयित्री नीलेश रघुवंशी की रचना यात्रा पिछले दो दशकों में विपुल और बहुमुखी रही है। इसी दौर में भूमंडलीकरण के चौतरफ़ा हमले में जो घर, जो समाज, जो कस्बे अपनी चूलों से उख़ड़ रहे हैं, उन्हें नीलेश रघुवंशी का साहित्य जैसे फिर से बसाता है। जनपक्षधरता उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता भर नहीं उनकी रचना का स्वभाव है जो उनके जीवन से निकली है। कमज़ोर लोगों की हांफती हुई आवाज़ें उनकी कलम में नई हैसियत हासिल करती हैं। 2012 में प्रकाशित उनके उपन्यास एक कस्बे के नोट्स के साथ उनके लेखकीय व्यक्तित्व का एक और समृद्ध पक्ष सामने आया है। समकालीन हिंदी साहित्य में यह औपन्यासिक कृति अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है जिसमें एक कस्बे के भीतर बेटियों से भरे एक मेहनतकश घर की कहानी अपनी पूरी गरिमा के साथ खुलती है। कहना न होगा कि इस पूरे रचना संसार में एक स्त्री दृष्टि सक्रिय है जो बेहद संवेदनशील और सभ्यतामुखी है। द्वितीय शैलप्रिया स्मृति सम्मान के लिए नीलेश रघुवंशी का चयन करते हुए हमें खुशी हो रही है।

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है

$
0
0
आज हिंदी के दुःख को उर्दू ने कम कर दिया- कल साहित्य अकादेमी पुरस्कार की घोषणा के बाद किसी मित्र ने कहा. मेरे जैसे हजारों-हजार हिंदी वाले हैं जो मुनव्वर राना को अपने अधिक करीब पाते हैं. हिंदी उर्दू का यही रिश्ता है. हिंदी के अकादेमी पुरस्कार पर फिर चर्चा करेंगे. फिलहाल, मुनव्वर राना की शायरी पर पढ़िए प्रसिद्ध पत्रकार, कवि, लेखक प्रियदर्शनका यह मौजू लेख- प्रभात रंजन 
============================

लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है / मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं और हिंदी मुस्कुराती है, ये मुनव्वर राना हैं- समकालीन उर्दू गज़ल की वह शख़्सियत जिनका जादू हिंदी पाठकों के सिर चढ़कर बोलता है। हिंदी में उनकी किताबें छापने वाले वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी बताते हैं कि मुनव्वर राना के संग्रह मांकी एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। यही नहीं, हाल में आई उनकी सात किताबों के संस्करण 15 दिन में ख़त्म हो गए। जिस दौर में हिंदी कविता की किताबें 500 और 700 से ज्यादा नहीं बिकतीं, उस दौर में आख़िर मुनव्वर राना की ग़ज़लों में ऐसा क्या है कि वह हिंदी के पाठकों को इस क़दर दीवाना बना रही है? इस सवाल का जवाब उनकी शायरी से गुज़रते हुए बड़ी आसानी से मिल जाता है। उसमें ज़ुबान की सादगी और कशिश इतनी गहरी है कि लगता ही नहीं कि मुनव्वर राना ग़ज़ल कह रहे हैं- वे बस बात कहते-कहते हमारी-आपकी रगों के भीतर का कोई खोया हुआ सोता छू लेते हैं। उनकी शायरी में देसी मुहावरों का जो ठाठ है, बिल्कुल अलग ढंग से खुलता है। मसलन, बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है /न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है।...वो दुश्मन ही सही, आवाज़ दे उसको मोहब्बत से, सलीके से बिठाकर देख, हड़्डी बैठ जाती है।

बरसों पहले हिंदी के मशहूर कवि और ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार ने अपनी इतनी ही मशहूर किताब साये की धूपकी भूमिका में लिखा था कि हिंदी और उर्दू जब अपने-अपने सिंहासनों से उतर कर आम आदमी की ज़ुबान में बात करती हैं तो वे हिंदुस्तानी बन जाती हैं। दरअसल राना की ताकत यही है- वे अपनी भाषा के जल से जैसे हिंदुस्तान के आम जन के पांव पखारते हैं। फिर यह सादगी भाषा की ही नहीं, कथ्य की भी है। उनको पढ़ते हुए छूटते नाते-रिश्ते, टूटती बिरादरियां और घर-परिवार याद आते हैं। मां की उपस्थिति उनकी शायरी में बहुत बड़ी है- अभिधा में भी और व्यंजना में भी- जन्म देने वाली मां भी और प्रतीकात्मक मां भी- लबों पे उसके कभी बददुआ नहीं होती/  बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती।

ऐसी मिसालें अनगिनत हैं। लगता है मुनव्वर राना को उद्धृत करते चले जाएं- घर, परिवार, सियासत, दुख-दर्द का बयान इतना सादा, इतना मार्मिक, इतना आत्मीय कि हर ग़ज़ल अपनी ही कहानी लगती है, हर बयान अपना ही बयान लगता है- बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है /बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है /….यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता /मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी मां सजदे में रहती है।../अमीरी रेशमो किमखाब में नंगी नज़र आई /गरीबी शान से इक टाट के परदे में रहती है।

दरअसल इस सादगी के बीच मुनव्वर एक समाजवादी मुहावरा भी ले आते हैं- राजनीतिक अर्थों में नहीं, मानवीय अर्थों में ही। उनकी ग़ज़लों में गरीबी का अभिमान दिखता है, फ़कीरी की इज़्ज़त दिखती है, ईमान और सादगी के आगे सिजदा दिखता है। हालांकि जब इस मुहावरे को वे सियासत तक ले जाते हैं तो सादाबयानी सपाटबयानी में भी बदल जाती है- मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है / सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है। 

दरअसल यहां समझ में आता है कि मुनव्वर राना ठेठ सियासी मसलों के शायर नहीं हैं, जब वे इन मसलों को उठाते हैं तो जज़्बाती तकरीरों में उलझे दिखाई पड़ते हैं, मां के धागे से मुल्क के मुहावरे तक पहुंचते हैं और देशभक्ति के खेल में भी कहीं-कहीं फंसते हैं। लेकिन उनका इक़बाल कहीं ज़्यादा बड़ा है। वे सियासी सरहदों के आरपार जाकर इंसानी बेदखली की वह कविता रचते हैं जिसकी गूंज बहुत बड़ी है। भारत छोड़कर पाकिस्तान गए लोगों पर केंद्रित उनकी किताब मुहाजिरनामाइस लिहाज से एक अनूठी किताब है। कहने को यह किताब उन बेदखल लोगों पर है जो अपनी जड़ों से कट कर पाकिस्तान गए और वहां से हिंदुस्तान को याद करते हैं, लेकिन असल में इसकी जद में वह पूरी तहजीब चली आती है जो इन दिनों अपने भूगोल और इतिहास दोनों से उखड़ी हुई है। यह पूरी किताब एक ही लय में- एक ही बहर पर- लिखा गया महाकाव्य है जिसमें बिछड़ने की, जड़ों से उखड़ने की कसक अपने बहुत गहरे अर्थों में अभिव्यक्त हुई है। किताब जहां से शुरू होती है, वहां मुनव्वर कहते हैं, मुहाजिर हैं, मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं /तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।आगे कई शेर ऐसे हैं जो दिल को छू लेते हैं, कहानी के ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है /कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं..../ जवानी से बुढ़ापे तक जिसे संभाला था मां ने /वो फुंकनी छोड़ आए हैं, वो चिमटा छोड़ आए हैं /किसी की आरजू के पांव में ज़ंजीर डाली थी /किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं।यह पूरी किताब अलग से पढ़ने और लिखे जाने लायक है।

बहरहाल, सादगी कविता का इकलौता मोल नहीं होती। उर्दू के ही सबसे बड़े शायर मिर्ज़ा गालिब कहीं से सादाबयानी के शायर नहीं हैं, उनमें अपनी तरह का विडंबना बोध है- ईमां मुझे रोके हैं, खैंचे है मुझे कुफ़्रवाली कशमकश, जो शायरी को अलग ऊंचाई देती है। इक़बाल भी बहुत बड़े शायर हैं- लेकिन उनकी भाषा और उनके विषय में अपनी तरह की जटिलता है। बेशक, मीर और फ़िराक देशज ठाठ के शायर हैं, लेकिन उनकी शायरी मायनी के स्तर पर बहुत तहदार है। लेकिन उर्दू में सादगी की एक बड़ी परंपरा रही है जो कई समकालीन शायरों तक दिखती है। फ़ैज़ की ज़्यादातर ग़ज़लें बड़ी सादा जुबान में कही गई हैं। निदा फ़ाज़ली, अहमद फ़राज़, बशीर बद्र अपने ढंग से सादाज़ुबान शायर हैं और बेहद लोकप्रिय भी। लेकिन मुनव्वर राना इस सादगी को कुछ और साधते हैं। उनकी परंपरा कुछ हद तक नासिर काज़मी की पहली बारिशसे जुड़ती दिखती है। लेकिन नासिर की फिक्रें और भी हैं, उनके फन दूसरी तरह के भी हैं। एक स्तर पर मुनव्वर अदम गोंडवी के भी क़रीब दिखते हैं, ख़ासकर जब वो राजनीतिक शायरी कर रहे होते हैं। लेकिन अदम में जो तीखापन है, उसको कहीं-कहीं छूते हुए भी मुनव्वर उससे अलग, उससे बाहर हो जाते हैं।


उर्दू की इस परंपरा को पढ़ते हुए मुझे हिंदी के वे कई कवि याद आते हैं जो अपने शिल्प में कहीं ज़्यादा चौकस, अपने कथ्य में कहीं ज़्यादा गहन और अपनी दृष्टि में कहीं ज़्यादा वैश्विक हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, वे अपने समाज के कवि नहीं हो पाए हैं। अक्सर यह सवाल मेरे भीतर सिर उठाता है कि क्या यह कहीं शिल्प की सीमा है जो हिंदी कवि को उसके पाठक से दूर करती है? आखिर इसी भाषा में रचते हुए नागार्जुन जनकवि होते हैं, भवानी प्रसाद मिश्र दूर-दूर तक सुने जाते हैं, दुष्यंत भरपूर उद्धृत किए जाते हैं और हरिवंश राय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर तक खूब पढ़े जाते हैं। अचानक ये सारे उदाहरण छंदोबद्ध कविता के पक्ष में जाते दिखते हैं, लेकिन मेरी मुराद यह नहीं है। मेरा कहना बस इतना है कि हिंदी कविता को अपना एक मुहावरा बनाना होगा जो उसके पाठकों तक उसे ले जाए। ये एक बड़ी चुनौती है कि हिंदी कविता की अपनी उत्कृष्टता और बहुपरतीयता को बचाए रखते हुए यह काम कैसे किया जाए।  

वतन ऐसे रहेगा कब तलक आबाद मौलाना

$
0
0
दिलीप कुमार के पेशावर को याद रखने का एक दूसरा दर्दनाक सिलसिला बन गया. दोनों मुल्कों के इतिहास का सबसे काला दिन बन गया 16 दिसंबर 2014. दो ग़ज़लें मशहूर गजलगो सुशील सिद्धार्थने उस घटना को याद करते हुए लिखी है. भरे मन से यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ- प्रभात रंजन 
=======================================================

1. 

हो कुछ किलकारियों के क़त्ल पर इरशाद मौलाना
ये पेशावर रहेगा जिंदगी भर याद मौलाना

लहू के आंसुओं में रोई होंगी हज़रात-ए-जैनब
अली असगर की हमको फिर दिला दी याद मौलाना

सुबह दम अम्मी अब्बू ने खुदा हाफ़िज़ कहा होगा
खुदा ने क्या कहा होगा सुबह के बाद मौलाना

न आँसू हैं न आहें हैं न सिसकी है न हिचकी है
ये माँएं क्या करें किससे करें फ़रियाद मौलाना

यही मंजर है तब सोचो तुम्हारा हो हमारा हो
वतन ऐसे रहेगा कब तलक आबाद मौलाना

2.
लहू वाले कपड़े सुखा देना अम्मी
अँधेरे में आँसू छिपा देना अम्मी

वो कॉपी किताबें कलम बैग सब कुछ
करीने से उनको सजा देना अम्मी

यही कहने वाले थे आदत पड़ी है
सुबह हमको जल्दी जगा देना अम्मी

खुदा का करम दोस्त बच कर गए हैं
उन्हीं को अब अपनी दुआ देना अम्मी

जभी ईद में तुम सिवईयां बनाना
तो यादों में हमको खिला देना अम्मी

तुम्हीं हौसला दोगी अब्बू को मेरे

जो मुमकिन हो हमको भुला देना अम्मी 
Viewing all 596 articles
Browse latest View live