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पाठक की भूख को शांत करने वाला साहित्य वार्षिकांक 'दीप भव'

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‘लोकमत समाचार’ की साहित्य वार्षिकी 'दीप भव'का इन्तजार बना रहता है. इसलिए नहीं कि उसमें मेरी रचना छपी थी. वह तो हर बार नहीं छपती है न. लेकिन पीछे 4-5 सालों से यह वार्षिकी हर बार निकल रही है. इन्तजार इसलिए रहता है कि यह भीड़ से हटकर होता है. हर बार एक विषय होता है, उस विषय के मुताबिक आकल्पन होता है. हिंदी गद्य-पद्य की विविधता का समुच्चय होता है.

साहित्य वार्षिकी के आयोजनों में अगर गुजरे जमाने के आयोजन इण्डिया तुद पत्रिका की साहित्य वार्षिकी के आयोजन को अगर छोड़ दें आम तौर पर साहित्य वार्षिकियों को लेकर मेरा अपना जो अनुभव है वह यही बताता है कि कई बार तो इसके माध्यम से संपादक ऐसा लगता है जैसे हिंदी समाज में दिग्विजय के रथ पर निकल गया हो. खूब सारे कवियों की कवितायेँ, किसी न किसी बहाने अधिक से अधिक लेखकों को उसमें स्थान दिया जाता है ताकि सम्पादक की कीर्ति अधिक से अधिक दूर तक फ़ैल सके. छपने वाले कृतज्ञ भाव से संपादक की जय कर सकें. कोई भी पत्रिका, कोई भी विशेषांक अधिक से अधिक लेखकों की मौजूदगी से श्रेष्ठ नहीं बनता है वह श्रेष्ठ बनता है संपादन दृष्टि से. 

अतिथि संपादक अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में इस वार्षिकांक का संयोजन कवि- संपादक पीयूष दईया करते हैं, जिनके बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि वे हिन्दी में संपादन के स्कूल की तरह हैं. मैं हमेशा से उनकी संपादन उदारता का कायल रहा हूँ. उनके अंदर किसी तरह की वैचारिक कृपणता नहीं है, जो अपनी दृष्टि के बाहर पड़ने वाले हर लेखक को बाहर रखता हो. उनकी दृष्टि में जनतन्त्र का वैभव है. हर छांट के, हर काट के लेखक उनके यहाँ स्थान पाते हैं. यही नहीं विधाओं के मामले में भी हिंदी कितनी समृद्ध है इसका पूरा आभास इसके अंकों को पढने से होता है, वह भी पूरी ठसक के साथ. उनसे यही सीखा जा सकता है कि एक संपादक को गुणग्राहक होना चाहिए, अपने अहं को विलय करके रचना की श्रेष्ठ प्रस्तुति के ऊपर ध्यान दिया जाना चाहिए. पीयूष दईया से संपादक के बतौर मैंने यही उदार दृष्टि सीखी है. 

2014 का वार्षिकांक मेरे सामने है. इस बार का विषय है ‘यादों के दीप’. पत्रिका में राय कृष्ण दास का लेकः जयशंकर प्रसाद के ऊपर है, मुक्तिबोध को लेकर एक दुर्लभ आयोजन है, जिसमें उनकी अप्रकाशित कवितायेँ, राजेंद्र मिश्र का शांता मुक्तिबोध का संवाद है, रमेश मुक्तिबोध का अपने पिता के ऊपर लेख है, मुक्तिबोध के आरंभिक आलोचक अशोक वाजपेयी का लेख है. संस्मरणों के खंड में इन्तजार हुसैन, आशीष मोहन खोपकर, ध्रुव शुक्ल है. हबीब तनवीर हैं, लीलाधर मंडलोई का अपने पिता के ऊपर संस्मरण है. बहुत मार्मिक. राहुल सोनी का कुवैत को लेकर संस्मरण है, उस दौर का जब कुवैत के ऊपर ईराक का हमला हुआ था और अचानक से भारतीयों को देश छोड़ना पड़ा था.

इस बार मुझे विशेष तौर पर युवाओं के लेखन का खंड अच्छा लगा. शुभम मिश्र, ऋभु वाजपेयी, मोहिनी गुप्त के आलेख आश्वस्त करते हैं कि हिंदी कल और आज की भाषा ही नहीं है, आने वाले कल की भी मजबूत भाषा बनी रहेगी.

एक बात कविता खंड के बारे में. इसमें जो खंड हिंदी से इतर भाषाओँ का कविता खंड है उसमें बेहतर कवितायेँ हैं. शीन काफ निजाम, अरुंधति सुब्रमनियम, केकी दारूवाला, गुलाम मोहम्मद शेख की कविताये पढने लायक हैं. जबकि हिंदी कविता का खंड बेहद कमजोर है. आशुतोष दुबे और बोधिसत्व जैसे कवियों को पढ़ते हुए लगता है कि इनके शब्द कितने बेजान हो गए हैं. कविता शब्दों का उलटफेर नहीं होता है, उसमें जीवन की ऊष्मा होनी चाहिए. ये दोनों कवि हिंदी के ‘ओवररेटेड’ कवि हैं. टीवी के लिए धार्मिक सीरियल लिखने वाले बोधिसत्व को संपादक लोग आज भी कवि मानते हैं तो यह शायद उसके मिलने जुलने का परसाद होगा. मेरा स्पष्ट तौर पर कहना है कि अगर ये कवितायेँ न होती तो यह आयोजन और बेहतर हो सकता था.

बहरहाल, संवाद के खंड में कलाकारों की बातचीत का खंड बहुत अच्छा है. भीमसेन जोशी से गौतम चटर्जी की बातचीत, विवान सुन्दरम से विनोद शर्मा की बातचीत बढ़िया है. लेकिन मुझे सबसे अच्छी लगी जया बच्चन के साथ विकास मिश्र की बातचीत.

कुल मिलाकर, एक और संग्रहणीय अंक है ‘दीप भव’. ध्यान रखने की बात है कि अहिन्दी क्षेत्र से हिंदी का सर्वश्रेष्ठ वार्षिकांक निकल रहा है. इसके पीछे अशोक वाजपेयी की दृष्टि और पीयूष दईया का कल्पनाशील संयोजन है. जो हर आयोजन के साथ पहले से बेहतर होता गया है. एक पाठक के रूप में पढ्न की भूख को पूरी तरह से शांत करने वाला!
-प्रभात रंजन
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लोकमत समाचार; दीप भव (रचना वार्षिकी)
अंक- 4

मूल्य 150 रुपये   

हँसी-मजाक में गंभीर सन्देश देती फिल्म है 'पीके'

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कवयित्री अंजू शर्माने फिल्म 'पीके'पर एक सम्यक टिप्पणी की है. फिल्म के बहाने उसके आगे-पीछे उठने वाले सवालों से भी उलझती हुई चली हैं. एक पढ़ी जाने लायक टिप्पणी है. मेरे जैसे लोगों के लिए भी जिन्होंने अभी तक यह फिल्म नहीं देखी है- प्रभात रंजन 
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पिछले दिनों चर्चा में रहा एक न्यूड पोस्टर हो या परफेक्शनिस्ट आमिर खान का नाम जुड़ा हो, राजू हिरानी की फिल्म 'पीके'की प्रतीक्षा सिनेप्रेमियों को लंबे अरसे से थी। लोग 'पीके'के बारे में जानने को इच्छुक थे जो किसी नाम का संक्षिप्त रूप प्रतीत होता था जैसा कि किसी अखबार में लिखा भी था।  लेकिन अटकलों से पर्दा कुछ इस तरह से उठा कि न सिर्फ नाम, न्यूड पोस्टर बल्कि दीगर सवालों के भी जवाब मिलते चले गए।  फिल्म रिलीज़ के बाद सुगबुगाहटों में दो बातें सुनने को आ रही थीं, पहली तो ये कि ये फिल्म परेश रावल की फिल्म 'ओह माई गॉड'से मिलती जुलती है। वहीं कुछ लोगों से ये भी सुना कि 'पीके'ओह माई गॉड का विस्तार हैं।  यानि जहां ओह माइ गॉड खत्म होती है पीके वहीं से शुरू होती है। बहरहाल सिनेमा-हाल का रुख किए बिना ये जानना मुश्किल था कि सच आखिर क्या है क्योंकि इन सारे सवालों के जवाब वहीं थे।

एक इंसान जब पैदा होता है तो जाने अनजाने ही कुछ पूर्वाग्रह उसके साथ जन्मते हैं जो समय बीतने के साथ संस्कारों के रूप में उसकी चमड़ी में बदल जाते हैं।  उसका रंग-रूप, नाम, उपनाम जन्म से तय होता, वह किस समुदाय, जाति, धर्म, प्रांत, देश यहाँ तक कि किस ग्रह से जुड़ा है इस पर भी उसका कोई वश नहीं। होश संभालने के बाद भी यदा-कदा वह चुनाव बदल तो सकता है चमड़ी को उतार फेंकने की कवायद में कभी सफल नहीं हो पाता।  क्या आपने सोचा है कि कभी कोई इंसान अगर शून्य से शुरुआत करे तो कैसा हो। यानी जीवन के खाते का कोई ओपनिंग बैलेन्स नहीं, कोई बैलेन्स फॉरवर्ड नहीं।  पीके इसी शून्य पर खड़ा एक पात्र है जो एलियन है।  इसी ब्रह्मांड के किसी दूसरे ग्रह से आया एक शोधार्थी है जो आते ही एक चोर के हाथों अपना रिमोट कंट्रोल खो बैठता है जिसके बिना उसका वापस अपने ग्रह पर जाना संभव नहीं। जिसके लिए पृथ्वी पर फैला धर्मों और धर्मगुरुओं का मकड़जाल एक भूलभुलैया से कम नहीं।  रिमोट की तलाश में भटकते पीके के लिए इस ग्रह के वस्त्र, मुद्रा, आचार-व्यवहार, मान्यताएँ और धर्म सब एक पहेली है।  इस पहेली को धीरे धीरे रील दर रील सोल्व करते हुये हिरानी ने कॉमेडी का सहारा लिया है।  यहाँ कई एक ऐसे दृश्य हैं जहां भीगी आँखें पीके के साथ मुसकुराती हैं। 

खैर जल्दी ही पीके सब सीख जाता है और जो सबसे पहली बात उसके भेजे में प्रवेश करती है वह यह हर दुख, तकलीफ, कमी, परेशानी में हम पृथ्वीवासी भगवान की शरण में पहुँचते हैं।  अब शून्य खाते वाले हमारे नायक पीके के सामने धार्मिक समुदायों का विभिन्न धर्मगुरुओं द्वारा संचालित विशाल बाज़ार है। वह मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे, हर चौखट पर गुहार लगता है, और प्रसाद, पूजा, मनौती और कर्मकांड के फेर में चिकरघिन्नी से घूमता हर चौखट से निराश लौटता है। 

अब हमारी मुंबइया फिल्मों की ये परेशानी है कि उनका कोई शून्य खाता नहीं।  कोई भी फिल्म धर्म या ईश्वर को लेकर किसी धारणा में उलझने से बचती हैं।  यहाँ किसी भगतसिंह के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं जो ये घोषित करे  कि 'मैं नास्तिक क्यों हूँ'।  बहरहाल 'ओह माय गॉड'में 'गॉड'धरती पर अवतरित हो जाते हैं वहीं पीके का ईश्वर में दृढ़ विश्वास भी इसी धारणा का पोषण करता है।  उसे एक बार भी ईश्वर के होने में कोई शक या शुबह नहीं होता वह तो बस ईश्वर और धर्मगुरुओं के आपसी संपर्क पर सवाल उठता है जो उसकी नज़र में 'रॉन्ग नंबर'है।  इसके बाद लगातार वे सवाल अस्तित्व में आते रहते हैं जो किसी भी तर्कशील इंसान के विचार का हिस्सा हो सकते हैं।  यहाँ वे तर्क लगातार कॉमेडी के शक्ल मे पीके के माध्यम से आते रहते हैं जो शायद बॉक्स ऑफिस पर खरा उतरने की मजबूरी कही जा सकती है।  आखिर कोई निर्माता किसी मुंबइया फिल्म को किसी एलियन के बोरिंग शोध में क्यूँ बदलने देगा।  हालांकि ये हैरत का विषय है कि राजस्थान  से लेकर दिल्ली तक किसी 'डांसिंग कारें'हैं जो पीके को कपड़े और करेंसी मुहैया कराती रहती हैं।

वैसे यह एलियन अन्य फिल्मों की भांति किसी खास चमत्कारित शक्ति से लैस नहीं है सिवाए हाथ छूकर लोगों का दिमाग पढ़ने के और इसी के माध्यम से वह 'भाषा'अर्जित करता है, यही शक्ति बीच बीच में धर्म के आस पास अटकती कहानी को धकेलती भी है।  यही बात नायिका को पीके से जोड़ती है।  जगत जननी यानि टीवी रिपोर्टर जग्गू के माध्यम से पीके की कहानी आगे बढ़ती हैं।  जग्गू एक ऐसी दुस्साहसी युवती जो धर्म और सरहदों के फेर में प्रेम में धोखा खाकर अपने काम में डूबी है और जो पीके की परेशानी को हल करने के साथ अपने चैनल के लिए एक जबर्दस्त स्टोरी के खोज में है। पीके शुरुआत में उसके लिए एक सनसनीखेज स्टोरी भर है जो धीरे धीरे अपने विचित्र  सवालों के साथ एक मजबूत कंटैंट के रूप में सामने आता है।  


टीवी चैनल की मुहीम एक ऐसी फेंटेसी है जो निर्मल बाबा और ऐसे तमाम बाबाओं के 'दिव्य वचनों'से सुबह की शुरुआत करने वाले चैनलों के देश में आज भी एक दुर्लभ है।  उम्मीद की एक सुखद बयार इस फिल्म में देशव्यापी मुहीम के रूप में सामने आती है कि हम बाबा के परम भक्त को भी तर्क के सामने पराजित होते देखते हैं जबकि सच्चाई यह है कि इस देश में 'बलात्कारी बाबा'के तमाम आश्रम, सारी गतिविधियां और लाखों भक्त हर मुहीम से अप्रभावित रहते हैं।  बाबा और पीके के प्रायोजित कार्यक्रम में जहां जोरदार बहस होने की उम्मीद थी निर्देशक ने दोस्त की मृत्यु के गम में डूबे पीके को इतना शांत और गमगीन बनाकर इतना सेफ प्ले किया कि सारी बहस नायिका के पाकिस्तानी प्रेमी की खोज और सरहदों की तनातनी के प्रदर्शन में बदलती नज़र आई।  ये दृश्य इतना लंबा खींचा कि निर्देशक की चूक दर्शकों को बेचैन करती है कि ये प्रेमकथा निपटे और बहस वापिस पीके और बाबा पर लौटे।


बहरहाल फिल्म ट्रैक पर लौटती है इस संदेश के साथ कि ईश्वर के नाम पर हो रहे डर, लालच, मनौतियों  और कर्मकांड के कारोबार और धर्मगुरुओं की इस दुनिया में किसी को कोई जरूरत नहीं।  ईश्वर यदि सचमुच है और इंसान उसकी संतान है तो वह कभी नहीं चाहेगा कि उसकी संतान अजीबोगरीब मनौतियों के फेर में और दुखी हो।  उसके दुखों और परेशानियों को दूर करने के लिए डर या उल्टे सीधे रीति-रिवाज धर्मगुरुओं की उपज हैं।  इसके लिए कहीं कोई लंबे और उबाऊ डायलाग नहीं हैं।  हिरानी ने बेहद सामान्य, संप्रेषणीय और चलताऊ भोजपुरी के माध्यम से ये सारे संवाद कॉमेडी की दिलचस्प चाशनी में पीके के माध्यम से जनता के सामने परोसे हैं।  बावजूद इसके कि फिल्म कई बार इसमें दोहराव का शिकार हुई, निर्देशक यहाँ पूरी तरह सफल हुआ है और यही फिल्म की यू एस पी भी है।  फिल्म उन तमाम धर्मगुरुओं के फैले अरबों के कारोबार पर एक सटीक कटाक्ष है जो व्यवस्था या मीडिया का ध्याम तभी खींचते हैं जब कोई बड़ा कांड हो जाता है।  इस देश में जहां सबको ईश्वर बनने की सहज सुविधा है पीके इसे साबित करता है कि धर्म के इस व्यापार में किसी इन्वेस्ट के और मेहनत के  बिना भी सफल कारोबारी बनना कितना आसान है।  फिल्म इस पोजिटिव नोट पर अंत की ओर बढ़ती है कि जाति, धर्म और सरहदें तो इंसान की बनाई हैं क्योंकि ईश्वर ने कभी किसी इंसान को किसी श्रेणी में विभाजित करने के लिए कोई 'ठप्पा'नहीं लगाया। मेरा ख्याल है यही फिल्म का हासिल भी है, जितनी जल्दी इंसान इसे समझ ले इस दुनिया में  मुंबई, गुजरात और पेशावर के नाम इतिहास में कालिख नहीं कुछ शानदार उपलब्धियों के साथ याद किए जाएंगे।

बीतता साल और हिंदी किताबों के नए ट्रेंड्स

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हिंदी किताबों की दुनिया में पाठकों से जुड़ने की आकांक्षा पहले से बढ़ी है, इस दिशा में पहले भी प्रयास होते रहे हैं, लेकिन इस साल इस दिशा में कुछ लेखकों, प्रकाशकों ने निर्णायक कदम उठाये. जिसके बाद यह कहा जा सकता है कि आने वाले सालों में हिंदी किताबों की दुनिया वही नहीं रहेगी जैसी कि यह अब तक है. मैं उन लेखकों में नहीं हूँ जो हर बदलाव की पहले तो उपेक्षा करता है, जब उससे काम नहीं चलता है तो विरोध करने लगता है. मैं बदलावों को सकारात्मक रूप से देखता हूँ. आप शर्त लगा लीजिये, साल के आखिर में जितने अखबारों, पत्रिकाओं में साल भर के किताबों का लेखक जोखा प्रकाशित होगा, हो रहा है उनमें इन स्वागतयोग्य बदलावों का कोई जिक्र तक नहीं होगा, जिनकी चर्चा मैं इस आलेख में करने जा रहा हूँ.

संयोग से पिछले सप्ताह लगातार तीन दिन किताबों के तीन ऐसे आयोजनों में जाना पड़ा जिनका सम्बन्ध इन्हीं नए बदलावों से था. सबसे पहले 17 दिसंबर को ऑक्सफ़ोर्ड बुक स्टोर में नीलेश मिसरा की किताब ‘बस इतनी सी थी ये कहानी’ का लोकार्पण था. असल में यह आयोजन हिंदी में एक नए तरह की शुरुआत है. इस किताब का प्रकाशन नाइन बुक्स इंप्रिंट के तहत किया गया है.नाइन बुक्स बदलते भारत के साहित्य के नवरस को बटोरने की कोशिश है। नाइन बुक्स इंप्रिंट वाणी प्रकाशन और कंटेंट प्रोजेक्ट का एक साझा प्रयास है, जो उभरते भारत को नये, चमकते साहित्य और किस्सागो देगा। वाणी प्रकाशन पिछले 50 वर्षों से भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन गृहों में से एक रहा है और नाइन बुक्स इंप्रिंट के तहत कंटेंट प्रोजेक्ट साउथ एशिया की पहली लेखकों की कम्पनी है, जो भारत में उर्वर साहित्य को नया आयाम देने की पहली लेखकों की कम्पनी है। कहानी कला को नया आयाम देने के लिए नीलेश मिसरा ने किस्सागो युवा लेखकों की कहानी बनाने, कहने-सुनने की मंडली तैयार की है। देश भर में दूरदराज बैठे मंडली के सदस्य अपनी-अपनी कहानी नीलेश जी के नेतृत्व में युवा रचनाकारों के बीच चर्चा कर हिन्दी कहानी के इतिहास में एक नया आयाम रच रहे हैं। पाठकों से सीधे कहानी कहने, गढ़ने के इन लेखकों के अपने रिश्ते हैं।हिंदी लेखकों की वर्तमान पीढ़ी उदयप्रकाश के विराट फ़ॉर्मूले में इस कदर फँस चुकी है कि उसके पास कहने को नया कुछ भी नहीं है, ऐसे में नीलेश मिसरा के किस्सों से कहानियों की दुनिया में नई ताजगी आएगी, आने वाले सालों में एक नया बदलाव आएगा. यह एक बड़ा शिफ्ट हिंदी कहानियां अब ‘अर्बन’ हो रही है, हो ही नहीं रही है बल्कि उसको स्वीकृति भी हो रही है.

दूसरा आयोजन था इंदिरा गाँधी सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर में ‘नीला स्कार्फ’ की लेखिका अनु सिंह चौधरी से बातचीत का. बातचीत करने वाली थी नताशा बधवार. ऊपर जिस ‘अर्बन’ कहानी का जिक्र मैंने किया ‘नीला स्कार्फ’ उसका सबसे बड़ा उदाहरण बनकर इस साल अवतरित हुआ और बड़े पैमाने पर न केवल उसको स्वीकृति मिली बल्कि समादृत भी हुई. अगर बात सिर्फ प्रचार-प्रसार की हो तो किताबें आती हैं, चली जाती हैं. लोग भूल जाते हैं. लेकिन प्रकाशन के छह महीने बाद भी जिसकी अनुगूंज सुनाई देती रह जाए तो वह किताब टाइटल बन जाती है. मेरा मानना है कि किताब से टाइटल तक के सफ़र के दौरान ‘नीला स्कार्फ’ एक ट्रेंडसेटर किताब के रूप में स्थापित हुई. सिर्फ पाठकों के बूते इस किताब ने अपनी एक बड़ी जगह बनाई है. इसमें साहित्यिक दुनिया के झूठे फ़ॉर्मूले नहीं हैं, महानगर में विस्थापित एक स्त्री के नजरों का, उसके सोच का वह संशय है जो उस परंपरागत रूप से मूल्य के रूप में मिले हैं, और उसका जो समकालीन जीवन है वह बार बार परंपरा के उस चौखटे को तोड़कर बाहर निकल जाना चाहता है. संग्रह की कुल 12 कहानियों को घोषित तौर पर स्त्रीवादी नहीं कहा गया, लेकिन यह आज की स्त्रियों के जीवन के अधिक करीब कहानियां हैं.

मैं अपने सारे बुजुर्गों को प्रणाम करके यह कहना चाहता हूँ कि इस साल प्रकाशित उनकी किताबों में अतीत से चिपके रहने की जिद अधिक दिखाई दी, उनके लेखन में भविष्य की आहटें सुनाई देना बंद हो गई हैं. ‘नीला स्कार्फ’ जैसी किताबें यह बताती हैं कि भविष्य में हिंदी का लेखन कैसा होगा? अगर कोई मेरी सुनता हो तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि इस साल की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक ‘नीला स्कार्फ’ है, जिसकी सीधी-सादी कहानियां जीवन के अधिक करीब दिखाई देती है.

तीसरा आयोजन था 19 दिसंबर को हैबिटैट सेंटर में राजेश खन्ना की जीवनी- ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ के लोकार्पण का. यह किताब भी के नए ट्रेंड की है. पिछले साल पेंगुइन ने हिंदी अंग्रेजी में एक साथ किताबें प्रकाशित करने के ट्रेंड की शुरुआत की. इस तरह की पहली किताब थी पंकज दुबे की ‘लूजर कहीं का’, जो उपन्यास था. राजेश खन्ना की यह जीवनी भी दोनों भाषाओं में एक साथ आई है. इस साल ऐसा लगा जैसे पेंगुइन ने हिंदी में अपनी जमीन पा ली है. अगर देखें तो इस साल जिस उपन्यास की सबसे अधिक चर्चा रही वह है रणेन्द्र का उपन्यास ‘गायब होता देश’, जिसे पेंगुइन ने प्रकाशित किया. सुभाष चन्द्र कुशवाहा की चौरी चौरा पर लिखी किताब भी खासी हिट रही, जिसका प्रकाशन पेंगुइन ने किया था.

पाठकों तक किताबों को पहुंचाने की कोशिश में हार्पर हिंदी ने महान लोकप्रिय उपन्यासकार सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास ‘कोलाबा कोंस्पिरेसी’ का प्रकाशन किया, मेरे प्रिय लेखक रवि बुले के उपन्यास ‘दलाल की बीवी’ का प्रकाशन किया, जो पाठक जी के उपन्यास के मुकाबले चली नहीं. इसका कारण मुझे लगता है कि उपन्यास का नाम और कवर रहा. हिंदी में अब भी दबा छुपा माहौल है. अंदर कंटेंट जैसा भी हो ऊपर से सब दबा छुपा होना चाहिए. लेकिन यह प्रयास स्वागत योग्य है.

यात्रा बुक्स ने अनुवाद में ही सही तुर्की के लोकप्रिय उपन्यासों को सामने लाने का काम किया. हाकान गुंडे का उपन्यास ‘दफ्न होती जिंदगी’ इस्लाम की एक दूसरी छवि हमारे सामने रखता है, तो बारिश एम के उपन्यास ‘एक भाई का क़त्ल’ में अपराध कथा के रूपक में जिस तरह से गायब होते बच्चों के सब्जेक्ट को उठाया गया है वह महत्वपूर्ण है.

आखिर में, एक बड़ी शुरुआत का जिक्र और. अपने साठ साल के विरासत पर नाज़ करने वाले प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने ‘सार्थक बुक्स’ के नाम से एक नए इंप्रिंट की शुरुआत की है, जसके पहले सेट में दो यात्रा वृत्तांतों का प्रकाशन किया गया है. अजय सोडानी के ‘दर्रा दर्रा हिमालय’ किताब के ऊपर मैंने लिखा भी है. इसमें कोई शक नहीं कि वह अच्छी पठनीय किताब है. लेकिन यह कोई ऐसी शुरुआत नहीं है जिसे ट्रेंडसेटर कहा जा सके. एक तो यात्रा वृत्तान्त कोई पहली बार तो आया नहीं है, दूसरे राजकमल जब पाठक केन्द्रित पुस्तकों की दुनिया में नए इंप्रिंट की शुरुआत कर रहा है तो उससे उम्मीदें बड़ी होती हैं. फिलहाल, उम्मीद बाक़ी है. शायद अगले सेट्स में मेरे जैसे पाठकों की उम्मीदें पूरी हों.
प्रभात रंजन 


सिनेमा, प्राउड फंडिंग और 'बेयरफुट टू गोवा'

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सबसे पहले मेरी क्रिसमस. उसके बाद यह पोस्ट. जो लिखी है 'मसाला चाय'के लेखक दिव्य प्रकाश दुबेने. एक बात है मुझे तो आइडिया जोरदार लगा. आप भी पढ़कर देखिये कि कैसे प्राउड फंडिंग से सिनेमा बन सकता है और हम आप उसका हिस्सा भी बन सकते हैं- प्रभात रंजन 
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बड़ा भाई अपनी छोटी बहन से कहता है-

“तुझको तो इतना भी नहीं पता गोवा किधर है ?”

इस पर बहन बोलती है

“वास्को डिगामा को पता था कि गोवा किधर है,फिर भी वो पहुँच गया था न”

“वो गोवा नहीं कोच्चि पहुँचा था” भाई आने आप को सही करते हुए बोलता है

“सब एक ही हैं,पहुँचातो था न”  बहन भाई को गलत साबित करते हुए बोलती है

एक भाई जिसकी उम्र होगी यही कोई 11 साल,एक बहन जिसकी उम्र होगी करीब 7 साल,मुंबई से गोवा के लिए चल देते हैं। क्यूँ चल देते हैं,अपनी दादी से मिलने। जब वो  घर पर बिना बताए चलना शुरू कर देते हैं तब तक ये कहानी खास नहीं होती है लेकिन जैसे जैसे वो आगे बढ़ते हैं वो सफर हमारा हो जाता है। वो सफर जो हम कभी शुरू नहीं कर पाये,वो सफर जो शुरू तो किया लेकिन पूरा नहीं हुआ । हम उन बच्चो के भटकने में अपने भूले बिसरे ठिकानों पर पहुँच जाते हैं। सफर में क्या हुआ,दादी मिलीं भी कि नहीं,वो बच्चे पहुँचते पहुँचते नंगे पाँव क्यूँ हो गए ये सब तो जब आप फिल्म देखेंगे तो पता चल ही जाएगा।

‘Barefoot to goa’ फिल्म की कहानी आराम से धीरे धीरे असर करती है जैसे कभी हमारी नानीकहानी सुनाते हुए हमारा सर हौले-हौले सहलाती थीं। जब ये पता नहीं चलता हो ज़्यादा अच्छा लग क्या रहा है,कहानी या नानी का सर सहलाना या दोनों।

ये फिल्म मार्च15 में रीलीज़ होगी। नीचे सभी डिटेल्स हैं। हाँ अगर कभी आपकी ये तमन्ना रही हो कि किसी फिल्म के क्रेडिट में आप अपना नाम देखें तो इस फिल्म में ‘crowd funding’ नहीं ‘proud funding’ कीजिये । बस एक आखिरी चीज़ #proudfundingकरने का फैसला लेने में कोई कनफ्यूजन हो रहा हो तो बस एक मिनट के लिए उन सारी फिल्मों को याद कर लीजिएगा जिन्होने आपकोऔर सिनेमादोनों को लूटा था।

फिल्म के लेखक और डाइरेक्टर हैं जो कि IRMA से एमबीए हैं। जिसने भी कभी एमबीए की तैयारी की होगी वो जानता होगा IRMAसे एमबीए के क्या मायने होते हैं। एमबीए वालों को फिल्म लाइन में अच्छा काम करते देख हौसला तो मिलता ही है सुकून ज़्यादा मिलता है कि चलो यार अपन भी ठीक रस्ते पर हैं

आपको लगे कि आपको कोई दोस्त इसमें Proud Fundingकर सकता है तो इस पोस्ट को आगे जरूर बढ़ाएँ। 

फिल्म के बारे में: http://www.barefoottogoa.com/
Proud Funding के बारे में: http://www.barefoottogoa.com/crowd-fund/index.html



गिरिराज किराडू की नई कविताएं

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गिरिराज किराडूमेरी पीढ़ी के उन कवियों में हैं जिनकी कविताओं ने मुझे हमेशा प्रभावित किया है. उनका अपना एक विशिष्ट मुहावरा है और शब्दों का संयम. आज उनकी कुछ नई कविताएं- प्रभात रंजन 
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मिस्टर के की दुनिया: पिता होने की कोशिश के बारे में कुछ कविताएँ
गिरिराज किराडू

[रघुवीर सहाय की कविता और उसमें व्यक्त 'वात्सल्य'के नाम]


नवजात पिता की कल्पनाएँ

वह सो गया है
[इससे बड़ा सुख आपके जीवन में नहीं कि अभी इस पल आप उसे देख पा रहे हैं]

आपके सुनाई कहानियाँ आपको नहीं उसे याद रहती हैं
एक दिन वह आपकी सब कहानियों के फ़रेब के आर-पार देख लेगा
तब वह आपसे वैसे प्यार करेगा जैसे अभी आप उससे

वह सो गया है
आप सुदूर भविष्य में उसे प्रेम में बिलखता हुआ देख रहे हैं    

एक दिन वह जान लेगा उसके जन्म ने आपकी आत्महत्या को हमेशा के लिए स्थगित कर दिया था
उस दिन वह आपको वैसे प्यार करेगा अभी आप उससे
पिता की तरह

आप अपने बेटे के लिए एक कठिन जीवन की कल्पना करते हैं
उसकी माँ से भी कठिन अपनी माँ से भी कठिन
इससे अधिक कठिन आपके अनुभव में नहीं

एक दिन वह इस कल्पना को जान लेगा
उस दिन वह आपको वैसे प्यार करेगा जैसे अभी आप उससे
बेटे की तरह

भविष्य
किसके घर में मरना चाहता हूँ
वीराने में मरने के ख़याल में अब रौनक नहीं
जिसे उसी सुबह पहली बार देखा हो  जिसे देखते हुए कुछ याद नहीं आये जिसके आँखों में फूल हिलते हों जिसकी पलकें बेरहम हों जिसके नक्श-ए-पा में नक्श-ए-पा के सिवा और कुछ न हो जो अलविदा ऐसी ज़बान में कहे कि  मुझे समझ न आये उसके घर में मरना चाहता हूँ

पहले इस ख़याल से सिहरन होती है कि आप एक दिन नहीं रहेंगे
फिर इससे दहशत कि एक दिन आप शव हो जायेंगे
आप लिखते हैं मेरा अंतिम संस्कार आकाश में करना पलट के देखने पर मालूम होता है तब आप पच्चीस बरस के थे मोटर साईकिल पर गृहस्थी आबाद होने के दिन
और अब यह बेचैनी किसके घर में मरना चाहता हूँ 
मेरे घर में मेरी मृत्यु के लिए जगह नहीं

प्रियवर जिन्होंने आपकी कोई फ़िक्र नहीं की जिन्होंने आपकी फ़िक्र करने का फ़रेब किया और जिन्होंने आपकी फ़िक्र के सिवा कुछ नहीं किया
अगले साल की पहली शाम तीनों एक-साथ कविताएँ पढ़ेंगे शहर कोतवाल के घर आप सादर आमंत्रित हैं
शराब और कफ़न अपने लिए खुद साथ लेकर आएं

भविष्य में सबसे बड़ी उम्मीद यही है कि
भविष्य में भी कुछ लोग इसलिए कविता लिखेंगे कि
उनकी संतान कुत्ते की मौत न मरे*

[* ऐसा रघुवीर ने अपनी एक कविता में कहा है. मेरी यह सब कविताएं नवम्बर २०१४ में लिखी गयीं]


रामजी तिवारी की नई कविताएं

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साल के आखिरी कुछ दिन बचे हैं. मैं कुछ नहीं कर रहा. कविताएं पढ़ रहा हूँ. जो अच्छी लगती हैं आपसे साझा करता हूँ. आज रामजी तिवारीकी कविताएं. उनकी कविताओं से हम सब परिचित रहे हैं. देखिये इस प्रतिबद्ध कवि की नई कविताएं कैसी बन पड़ी हैं- प्रभात रंजन 
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एक ......

मुकाबला
                
      
चींटी भी कर देती है
अपनी जमीन पर
हाथी की धुलाई,
जंगल का राजा
दरिया में घड़ियाल के सामने
दरिया-दिली दिखाने में ही
समझता है अपनी भलाई |

क्रिकेट का भगवान
शतरंज की विसात पर
दस कदम में है बिखर जाता,
तरणताल में उतरने पर
मैराथन धावक का भी
पानी है उतर जाता |

जिनकी उँगलियों में होते हैं
चित्रों के जादू
वे किसी बाक्सिंग रिंग में
उसे नही आजमाते,
जिनके कंठ से
फूटती है स्वर-लहरियां
वे उसे गाली बकने में
नहीं गँवाते |

फिर क्यों मुब्तिला हैं सारे लोग
किसी माफिया बिल्डर या ठेकेदार से
रहते हैं सुबहो-शाम
उससे मुकाबले के लिए तैयार से |

अपनी जमीन से अलग
क्या वे जीत पायेंगे
अपने जिले का ताज भी,
यहाँ तक कि वार्ड या गाँव में
कोई खिताब भी |

हां ....! चलता रहे जीवन
उतने धन की तो
सबको होती है दरकार,
मगर तब तो चुननी ही चाहिए
अपनी जमीन
जब मुकाबले के लिए हों हम तैयार |
कि जिसमें हम कुछ ख़ास हैं
कि जिसमें हमें विश्वास है |

अब ख़ुदा के लिए
मत बोलिएगा
संतों वाली भाषा,
कि मैं तो
किसी मुकाबले में ही नहीं हूँ
या कि जीवन तो है
बस एक तमाशा | 


     दो .....

मोल-भाव
                 

कहाँ है बचकर निकलना
कहाँ करना है मोलभाव,
जीवन की विसात पर
सोच समझकर धरना है पाँव |

कितना बचेगा
रिक्शेवाले की पीठ पर
उभरी नसों को थोड़ा कम आँककर,
ठेले वाले के पसीने में
अपने उभरे अक्स को
थोड़ा कम झांककर |

कितना बचेगा
पांच लौकी और दस किलो तरोई लेकर
सड़क के किनारे बैठने वाले से भाव तुड़ाकर ,
छाया के लिए दिन में तीन बार
जगह बदलने वाले मोची से
पालिश में दो-चार रूपया छुड़ाकर |

कितना बचेगा
प्रेस करने वाले से
पचास पैसा प्रति कपड़ा कम कराकर,
और चौका-बर्तन करने वाली की पगार से
पचास रूपया महीना कम कराकर |

उन सबसे
जो सब्जी में नमक भर कमाते हैं,
और उसी में
अपने परिवार की गाड़ी चलाते हैं |

नहीं-नहीं
मैं अफरात के नहीं लुटाता हूँ,
वरन मैं तो
बचाने का हर नुश्खा जुटाता हूँ |

मसलन धनतेरस में
यदि मैं तनिष्क वाले से बच गया,
पिज्जा और मैकडोनाल्ड की जगह
सप्ताहांत घर में ही जँच गया |
मैं यदि बच गया नवरात्र में
पुजारियों के जाल से,
बारह महीने में
चौबीस भखौतियों के भौंजाल से |
शहर के हर कार्नर वाले प्लाट पर
लार टपकाने से,
और एक दूसरे को कुचलकर
बेतरह भाग रहे जमाने से |

तो खुला रख सकता हूँ
दस-बीस जरुरत वाले
हाथों के सामने
आजीवन अपना हाथ,
और हिसाब लगाने पर पाउँगा
कि अंततः फायदे ने ही
दिया है मेरा साथ ... |            


                      
     तीन .....

   घालमेल
                     

   गड़बड़ा गया है गणित
मुनिया का,
मचा है जब से घालमेल
संख्याओं की इस दुनिया का |

प्राथमिक कक्षाओं में
शून्यों को बढ़ाते-बढ़ाते
तब सबकी सांस फूलती थी,
जब इकाई के कान में फूंकी आवाज
महाशंख बनकर निकलती थी |

चकरा जाता था माथा
इतने शून्य क्या करेंगे
एक साथ जुटकर,
कहीं लाया तो नहीं गया इन्हें
यहाँ वहाँ से लूटकर |

ओह .....!
किस मनहूस वक्त में
आया था यह ख़याल,
करोड़ों के जीवन से निकलकर
इकठ्ठा हो गए चंद खातों में
बारम्बार मथता है यह सवाल,
और जिन्हें पुकारते हैं ऐसे
जैसे रच रहे हों
नया एक जवाल |

   अब देखिये न मैनेजमेंट यह
शून्यों के वजन से
चरमराती संख्याओं को छिपाने का,
अरब और ख़रब के भारीपन को
हजार और लाख़ में बांटकर
हल्का दिखाने का |

एक अरब की जगह
आजकल सौ करोड़ कहा जाता है,
माथा चकरा जाए
जब दस हजार लाख की मथनी से
उसे महा जाता है |

क्योंकि दस हज़ार लाख़ से
पता ही नहीं चलता
अरब कितना होता है भारी,
कोई जान नहीं पाता
एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रुपये में
एक नील छिहत्तर ख़रब का
तिलिस्म है तारी |

बोझ किसी का भी हो
एक सीमा के बाद
उसे लादने वाली रीढ़
टूट ही जाती है,
और बिना रीढ़ वाले
सिर्फ रेंग ही सकते हैं
पैरों की चाल तो छूट ही जाती है |

फिर कौन चाहता है सीखना
संख्याओं की इस नयी इबारत को,
साबित करता आया है इतिहास
बारम्बार बेमानी
जिस गगनचुम्बी इमारत को |
                   

  चार ....

   सबसे सुन्दर दृश्य
                     
कुचल दिए जाते हैं
बाएं चलने वाले जिस दौर में,
बचा लिए जाते हैं
बीचो-बीच चलने वाले
उसी ठौर में |

अपनों के बीच
जहाँ डरी-सहमी घुटती है मुनिया,
वहां किसी अजनबी पर
कर लेती है भरोसा यह दुनिया |

जिसमें सामान्य रास्ते
मांगते हैं जीवन की कुर्बानी,
उसमें दुर्गम रास्तो से
मंजिल पर पहुँचने की
अनगिनत है कहानी |

जहाँ जीवन और साँसों के बीच
खड़ा हो जाता है अपना ही परिवार,
वहां अजनबी के साथ भागकर
जीवन बचाने के किस्से हैं बेशुमार |

जहाँ रिसते भर रहते हैं 
पवित्र रिश्ते सारे,
वहां कोई पराया आकर
लगा जाता है
घावों पर मरहम हमारे |


अफ़सोस ....!
कि जो दुनिया को बनाने के
सबसे सुन्दर दृश्य हैं,
समाज की नजर में
वे त्याज्य हैं, अश्पृश्य हैं


पांच ....

  औरतें
                  
   हम पुरुषों को
स्त्रियाँ ही देती हैं आकार,
उन्हीं की नज़रों में चढ़कर
हम पैदा होते हैं
आदमी के रूप में पहली बार |

हमारे भीतर उतरकर
साफ़ करती हैं वे जालों को,
जहाँ से हम अब तक चलते रहें हैं
पशुओं जैसी चालों को |

‘हम आदमी हैं’ वाला सम्मान
हमने तब सुना था,
जब स्कूल में शाम ढलने पर
उस अनबोली सहपाठिन ने
घर छोड़ने के लिए
तमाम परिचितों के बीच से
हमें चुना था |

जब ट्रेन की सहयात्री साथिन ने
देखा था मुझमें अपना भाई,
और बस की अनजानी साथिन ने
बगल की सीट पर आराम से यात्रा कर
दी थी मुझे बधाई |

जब मेरी भार्या
मेरे हर उठे हुए हाथ पर मुस्कुराती है,
यह सिजदा या आमंत्रण में होगा
सोचकर शर्माती है |

सच मानिए
मैं इसलिये नहीं पखारता
विदा होती बहन के पैरों को
कि बचा रहे मेरा वैभव,
वरन इसलिए कि उसे छूकर
मैं पवित्र करता हूँ अपना गौरव |

फिर वे कौन हैं
जो आदमी बनने के लिए
स्त्रियों से दूर भागा करते हैं,
क्या वे अपने भीतर की पशुता से
इतना डरते हैं ...?

उन्हें बताईये कि
सफाई पसंद होती हैं औरतें
रखतीं चौकस हमेशा नजरें,
कौन जानता है
भला उनसे बेहतर
गंदगी के होते कितने खतरे |

तभी तो लगाता हूँ
उनसे मैं गुहार,
कि आओ मेरी साथिनों
मुझे आदमी बनाओ
तुमसे है मनुहार |

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परिचय और संपर्क

नाम – रामजी तिवारी

वर्ष 1971 में बलिया, उ.प्र. में जन्म                  
आस्कर अवार्ड्स – यह कठपुतली कौन नचावेशीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानियां, कवितायें और संस्मरण प्रकाशित
‘सिताब-दियारा’ नामक ब्लाग का सम्पादन/संचालन
सम्प्रति - भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत
मो.न. – 09450546312   






  











बातों-मुलाकातों में मनोहर श्याम जोशी

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मनोहर श्याम जोशीकी किताब ‘बातें-मुलाकातें: आत्मपरक-साहित्यपरक’मेरे पास मार्च से है लेकिन इसके ऊपर लिख आज रहा हूँ. यही होता है जो लेखक हमारे सामने होता है हम उसी के ऊपर लिखते रहते हैं, शाबासी के लिए, मिल जाए तो रेवड़ियों के लिए. आज लिखते हुए मैं यही सोचता रहा कि जिनको मैं गुरु कहता रहा उनकी एक अच्छी किताब आई तो मैंने हुलसकर उसके बारे में क्यों नहीं लिखा. आज भी इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि साल भर इसके ऊपर किसी ने नहीं लिखा. मेरे लिए यह इस साल की सबसे अच्छी किताब है. 

मनोहर श्याम जोशी दरअसल ऐसे लेखक थे जिन्होंने अपने जीवन-अपने लेखन को लेकर बहुत कम लिखा. वे आत्ममुग्धता के नहीं आत्मसंशय के लेखक थे. उनके आरंभिक उपन्यास इसलिए छप गए क्योंकि प्रकाशक ने उनको आखिरी प्रूफ नहीं दिखाया और उपन्यास छाप दिए. जी, ‘कुरु कुरु स्वाहा’ और ‘कसप’ के साथ यही हुआ. जो किताबें उनके पास लिखने के बाद अधिक दिन तक रह जाती थी उसको वे बार बार लिखते रहते थे.

बहरहाल, इस किताब में उनके कुछ ऐसे इंटरव्यू हैं जो समय समय पर शोधार्थियों ने लिए थे, जो अभी तक अप्रकाशित थे, जिनको न तो उन शोधार्थियों ने कहीं छपवाया न ही जोशी जी ने. उनके पहले उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ को आधुनिकोत्तर उपन्यास कहा गया था(उस समय सुधीश पचौरी नहीं थे और उत्तर आधुनिकता प्रचलन में नहीं आया था), इस किताब में उनका एक दुर्लभ लेख है जिसमें उन्होंने आधुनिकोत्तर उपन्यास की अवधारणा के ऊपर विचार किया है. एक लेख में उन्होंने अपने उपन्यासों के ऊपर विचार प्रकट किये हैं. इसमें दो लेख दूसरे लेखकों पर हैं, एक नगेन्द्र पर और दूसरा शैलेश मटियानी पर. ‘गफुआ को गुस्सा क्यों आता रहा’ शीर्षक से लिखा गया एक लेख शैलेश मटियानी के ऊपर लिखे गए कुछ अच्छे लेखों में एक है.  

अपने साक्षात्कारों में इतना ईमानदार कोई दूसरा हिंदी लेखक मैंने नहीं देखा. अपने लेखन की कमियों को लेकर, अपनी विराट सफलता से प्रभावित हुए बगैर उन्होंने खुलकर बातें की हैं. लेखक पत्रकार अजित राय के साथ उनकी जो बातचीत है वह तो जैसे उनके लेखन पर मरने से पहले उनका आखिरी स्टेटमेंट जैसा है. प्रसंगवश, उनके मरने से पहले यह उनका आखिरी प्रकाशित इंटरव्यू है. उनका एक लम्बा इंटरव्यू मैं ‘आलोचना’ के लिए लेना चाहता था. जिसके लिए नामवर जी ने उनको कई बार याद दिलाया था, मैं उसकी तैयारी कर रहा था. जो उनके अचानक निधन के कारण पूरा नहीं हो पाया.

जोशी जी के साक्षात्कारों की एक विशेषता यह भी है कि उनमें भी उनका किस्सागो मुखर रहता था. उनके पास कहने को इतना था, जीवन के अनुभव इतने विविध थे कि हर साक्षात्कार में वे अलग लगते हैं. उनके साक्षात्कारों को पढ़ते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि हर बार उनका लेखकीय मूड अलग होता था. उनके उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में मनोहर श्याम जोशी नामक नायक के तीन रूप दिए गए हैं. उसी की तरह किसी बातचीत में उनका मनोहर रूप हावी हो जाता था, एकदम लेखकों जैसे अल्हड, किसी में जोशी जी जैसा गुरु गंभीर रूप.

यह किताब जोशी जी के पाठकों के लिए, शोधार्थियों के लिए पढने और सहेजने के लायक पुस्तक है. इस साल की कुछ वैसी दुर्लभ किताबों में जिनको मैंने पढ़ा भी और अपनी उस अलमारी में रख दिया जहाँ मैं सहेजने वाली किताबें रखता हूँ.

लिखने में भले देर हो गई हो सहेजने में देर नहीं लगाईं थी मैंने. न लिख पाने के पीछे शायद यह लोभ भी रहा हो कि इस किताब के बारे में मैं किसी को न बताऊँ. जोशी को जानने का एक स्रोत अपने तक ही रखूं. क्या यह सच नहीं है कि जिन किताबों से हम प्यार करते हैं उनको भी सबसे छुपा कर रखना चाहते हैं.


प्रभात रंजन 

पुस्तक का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है 

बीएचयू के रस्ते बनारसी ठाठ के किस्सों की दुनिया है 'बनारस टॉकीज'

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'जानकी पुल'पर साल की आखिरी पोस्ट किताबों की दुनिया की नई उम्मीद के नाम. सत्य व्यासका उपन्यास 'बनारस टॉकीज', जिसका प्रकाशन 7 जनवरी को होना है amazon.in की बेस्टसेलर सूची में 41 वें स्थान पर दिखाई दे रहा है. किताबों को पाठक से जोड़ने की जो मुहिम हिन्द युग्म प्रकाशन ने शुरू की थी उसका यह नया मुकाम नए साल की एक बड़ी उम्मीद के रूप में दिखाई दे रहा है. 'बनारस टॉकीज'के लेखक सत्या व्यास से जानकी पुल ने बीएचयू, बनारस, मोदी के बहाने उपन्यास पर बातचीत की. एक बात है सत्य व्यास ने जिस दमदार लहजे में ख़म ठोककर बात की है उससे लगता है कि लेखक में दम तो है. आप भी पढ़िए और बताइए- जानकी पुल.
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1)यह उपन्यासकाशी हिन्दू विश्वविद्यालय के होस्टल जीवन की कहानी है? जरा कुछ झलक देंगे?

प्रभात जी, B.H.U में कुल 62हॉस्टल हैं, जिनमें से 38लड़कों के हॉस्टल हैं। आप यदि वहां गऐ हों तो आपने देखा होगा कि वहां के लड़कों की दिनचर्या, मस्तियाँ, रुमानियत, समस्याएँ और भविष्य की चिंता तक कमोबेश एक सी ही हैं।

बनारस टॉकीज़ ऐसे ही एक हॉस्टल भगवानदास हॉस्टलकी कहानी के मार्फत सारे होस्टलों की कहानी कहती है। कहानी की अगर बात करें तो यह तीन ऐसे दोस्तों की कहानी है जो मिज़ाज़ और लिहाज़ से तो एक-दूसरे से अलहदा हैं लेकिन हर पल को मस्ती और बेखयाली से जीते हैं। क्लासेज़, पढाई, भविष्य सब वह कल पर टालते जाते हैं। अर बस आज में जीते हैं। उनका यही अल्हड़पन और उनकी यही लापरवाही उन्हें एक दिन सबक देती है जब........सस्पेंस है। यह जानने के लिए बनारस टॉकीज़पढ़नी होगी।

2) आजकल बनारस बहुत चर्चा में है। प्रधानमंत्री जी का चुनाव क्षेत्र है, कहीं इसलिए तो आपने नहीं आपने अपने उपन्यास के शीर्षक में बनारस, कथानक में बनारस का प्रयोग किया है?

उपन्यास का नाम तब ही निश्चित हो चुका था जब माननीय प्रधानमंत्री, इस पद के उम्मीदवार भी नहीं थे- लगभग 2012में।

आपको एक आपबीती सुनाता हूँ। बनारस प्रवास के दिनों में एक दिन तुलसी घाट पर बैठा यू. जी, कृष्णमूर्ति की एंथोलोजी पढ़ रहा था। तभी अचानक मेरी बग़ल में एक मैला-कुचैला व्यक्ति आकर बैठ गया। मैं अभी उठने को ही था कि उसने कहा- यू. जी, कृष्णमूर्ति को पढ़ रहे हो? पेज नम्बर (शायद) 31निकालो। मेरे उस पेज को पलटते ही उस व्यक्ति ने त्रुटिहीन अंग्रेजी में मुझे दो पैराग्राफ सुनाए; जबकि किताब मेरे हाथ में थी। स्वभाव से मिलनसार उस आदमी ने मुझे (शायद) विपश्यनाका अर्थ समझाने की कोशिश भी की। उसने मुझे यह भी बताया कि वह अररिया में किसी महाविद्यालय में रिटायर्ड प्रोफेसर रहा है। उसने मुझसे ढेर सारी बातें की और कुछ सेल्फ हेल्प किताबों के नाम भी बताएँ। लेकिन जैसे ही मैंने उनसे पूछा कि आप बनारस क्या करने आए हैं तो उनके चेहरे के तेवर बदल गए। वो बिल्कुल मेरे चेहरे के पास आए और चिल्लाकर कहा- मरने आए हैं। इतना कहकर मुझे सकते में छोड़कर वह उठकर चले गए। कहने का अर्थ है कि शब्द बनारसमें अपने आप में ही एक एनिग्मा है। एक रहस्य है और चूँकि मेरी कहानी भी एक रहस्य के गिर्द चलती है, इसलिए इसका नाम बनारस टॉकीज़रखा। आप बनारस टॉकीज़ पढ़ने के बाद इसका कोई दूसरा नाम सोच ही नहीं पाएँगे।


(3) यह बनारस की कथा है या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की?


B.H.U को बनारस से अलग कर सोचा ही नहीं जा सकता। आप यहाँ से पढ़े किसी भी व्यक्ति से बात कर देखें तो वह विश्वविद्यालय में बिताए सालों को जीवन का स्वर्णिँम अध्याय बताएगा और खुद को बनारसी बताने में गर्व महसूस करेगा। वह लंका, संकटमोचन,कबीरचौरा, गौदौलिया, दुर्गाकुंड तथा अस्सी घाट का ज़िक्र ऐसे करेगा जैसे यह उसके पाठ्यक्रम का विषय हो। बनारस के इतर B.H.U का अस्तित्व सोचा भी नहीं जा सकता। संक्षेप में, ‘बनारस टॉकीज़विश्वविद्यालय की परिधि में बनारस की कहानी कहती है।

(4)आपकी भाषा को लेकर एक सवाल? आपने उपन्यास में रोमन लिपि का भी प्रयोग किया है। क्या आपको नहीं लगता है भाषा के शुद्धतावादी आपत्ति करेंगे? असल बात यह है कि आप इस तरह के भाषा प्रयोग को जस्टिफाई कैसे करते हैं?

देखिए, यह बहुत पुराना सवाल है जिसका जवाब समय-समय पर तारीख देती आई है। तुलसीदास ने जब रामचरितमानस लिखी तब इसकी भाषा पर आँखें टेढी हुईं। फ़ारसी की दरम्यान जब उर्दू अपनी जगह बनाने लगी तब भी इसकी पाकीज़गी पर बवाल मचा।  उर्दू के साथ-साथ हिन्दी पाँव फैलाने लगी तो कुछ नाकिदों और अदीबों के कानों में यह भाषा सुनकर शीशे घुलने लगे; लेकिन देखिए, गुज़स्ता वक्त के साथ इन भाषाओं ने अपनी जगह बनाई कि नही! अब यही बात हिन्दी में रोमन के प्रयोग को लेकर भी हो रही है। हिन्दी तो वैसे ही सर्व ग्राह्य भाषा रही है।

अपना मोर्चा में एक जगह टाँट कसनेका ज़िक्र है। मुझे तीन दफा पढ़ने के बाद समझ आया कि यह दरअसल अंग्रेजी के taunt की बात हो रही है। सोचिये जरा कि यदि मुझे daunting task लिखना हो तो क्या मैं डांटिंग टास्कलिखूँ?

यदि हम अंग्रेजी के शब्द का प्रयोग कर सकते हैं तो लिपि क्यों अछूत रहे? एक पूरी पीढी आ चुकी है जिसे यह प्रयोग स्वीकार्य है। जरूरत बस साहस करने की है।

(5) अगर आपको कहा जाए कि आप हिंदी के लोकप्रिय लेखक हैं तो आप आपत्ति तो नहीं करेंगे? असल में हिंदी में लोकप्रियता से गुरेज करने का चलन है। इसलिए यह पूछ रहा हूँ।

मुझे खुशी होगी यदि मुझे लोकप्रिय लेखक वर्ग में रखा/समझा/माना/जाना जाए।

प्रभात जी,हिन्दी लेखकों को लोकप्रियता से नहीं वरन उस छद्‍म बुद्धिजीविता के हनन से गुरेज़ है जो लेखन के साथ-साथ आ जाती है। मनोहर श्याम जोशी, डॉ. राही मासूम रज़ा और एक वक्त में मंटो तक को बाज़ारू बताने के पीछे इनका यही तर्क है जो अब अपनी ही बातों से पीछे हटते हैं।
मुझे अपने बुद्धिजीवी होने का कोई भ्रम नहीं है। लोकप्रिय हो जाऊँ, इससे ज्यादा क्या चाहिए!

बहुत कठिन है मुसाफ़त नई ज़मीनों कीक़दम-क़दम पे नये आसमान मिलते हैं


(6)  कुछ हिन्द युग्म प्रकाशन के बारे में बताइए। आपने इसी प्रकाशन का चयन क्यों किया? और आपका अनुभव कैसा रहा?

प्रभात जी, हिन्दी लेखन की जो परिपाटी चली आ रही है उसके अनुसार या तो आपको साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपकर नज़र में आना होता है या फिर किसी नवलेखन जैसे पुरस्कार जीतकर पहचान बनानी होती है। मुझ जैसे मध्यम वर्गीय युवाओं के लिये स्थायित्व की कीमत पर यह कर पाना मुश्किल होता है। एक फिल्म से यदि संवाद उधार लूँ तो कहूँगा हमें घर भी चलाना होता है साहब!

दूसरी बात- जिस तरह का विषय, लहज़ा और भाषा मेरी कहानी की माँग थी उस लिहाज़ से हिंद युग्म से बेहतर कोई अन्य प्रकाशन हो ही नहीं सकता। इस प्रकाशन ने उद्यमिता के नये आयाम गढे हैं। इस प्रकाशन ने प्रकाशन व्यवसाय को नया बाज़ार दिखाया है। इस प्रकाशन ने मुझ जैसे युवा लेखकों पर भरोसा दिखाया है और सबसे बढ़कर, इस प्रकाशन ने हिंदी के पाठकों को नया रास्ता दिखाया है। इस प्रकाशन ने युवाओं में लिखने का साहस भी जगाया है।


(7)  आखिर में यह बता दीजिए कि मेरे जैसे 40 पार लोगों के लिए क्या है उपन्यास में? कहीं यह सिर्फ युवाओं के लिए तो नहीं है? उपन्यास तो ऐसी विधा रही है कि वह सबके पढ़ने वाली कथा कहती रही है।

बनारस टॉकीज़दरअसल हर उस व्यक्ति की कहानी है जिसने छात्र-जीवन, दोस्ती, प्रेम, अल्हड़पन और आने वाली भविष्य की चिंताओं के बीच गुजारा हो। आप या आपकी जेनेरेशन ने क्रिकेट न खेली हो ऐसा हो नहीं सकता। ओपेनिंग के झग़ड़े न हुए हो ऐसा मानना भी मुश्किल है। क्लास में किसी ने प्रॉक्सी न मारी हो यह भी संदेहास्पद है। क्वेश्चन पेपर आउट होने की झूठी अफवाहें भी किसी ने जरूर उड़ाई होंगी। छात्र जीवन की रुमानियत से भी रू-ब-रू हुए होंगे। इस लिहाज से जितनी यह कहानी मेरी है उतनी आपकी भी।


और इन सब से इतर आप यदि संकट मोचन ब्लास्ट पर एक लेखक की कल्पनाशक्ति देखना चाहते हैं तो बनारस टॉकीज़जरूर पढ़नी चाहिए।

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है

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आज हिंदी के दुःख को उर्दू ने कम कर दिया- कल साहित्य अकादेमी पुरस्कार की घोषणा के बाद किसी मित्र ने कहा. मेरे जैसे हजारों-हजार हिंदी वाले हैं जो मुनव्वर राना को अपने अधिक करीब पाते हैं. हिंदी उर्दू का यही रिश्ता है. हिंदी के अकादेमी पुरस्कार पर फिर चर्चा करेंगे. फिलहाल, मुनव्वर राना की शायरी पर पढ़िए प्रसिद्ध पत्रकार, कवि, लेखक प्रियदर्शनका यह मौजू लेख- प्रभात रंजन 
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लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है / मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं और हिंदी मुस्कुराती है, ये मुनव्वर राना हैं- समकालीन उर्दू गज़ल की वह शख़्सियत जिनका जादू हिंदी पाठकों के सिर चढ़कर बोलता है। हिंदी में उनकी किताबें छापने वाले वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी बताते हैं कि मुनव्वर राना के संग्रह मांकी एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। यही नहीं, हाल में आई उनकी सात किताबों के संस्करण 15 दिन में ख़त्म हो गए। जिस दौर में हिंदी कविता की किताबें 500 और 700 से ज्यादा नहीं बिकतीं, उस दौर में आख़िर मुनव्वर राना की ग़ज़लों में ऐसा क्या है कि वह हिंदी के पाठकों को इस क़दर दीवाना बना रही है? इस सवाल का जवाब उनकी शायरी से गुज़रते हुए बड़ी आसानी से मिल जाता है। उसमें ज़ुबान की सादगी और कशिश इतनी गहरी है कि लगता ही नहीं कि मुनव्वर राना ग़ज़ल कह रहे हैं- वे बस बात कहते-कहते हमारी-आपकी रगों के भीतर का कोई खोया हुआ सोता छू लेते हैं। उनकी शायरी में देसी मुहावरों का जो ठाठ है, बिल्कुल अलग ढंग से खुलता है। मसलन, बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है /न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है।...वो दुश्मन ही सही, आवाज़ दे उसको मोहब्बत से, सलीके से बिठाकर देख, हड़्डी बैठ जाती है।

बरसों पहले हिंदी के मशहूर कवि और ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार ने अपनी इतनी ही मशहूर किताब साये की धूपकी भूमिका में लिखा था कि हिंदी और उर्दू जब अपने-अपने सिंहासनों से उतर कर आम आदमी की ज़ुबान में बात करती हैं तो वे हिंदुस्तानी बन जाती हैं। दरअसल राना की ताकत यही है- वे अपनी भाषा के जल से जैसे हिंदुस्तान के आम जन के पांव पखारते हैं। फिर यह सादगी भाषा की ही नहीं, कथ्य की भी है। उनको पढ़ते हुए छूटते नाते-रिश्ते, टूटती बिरादरियां और घर-परिवार याद आते हैं। मां की उपस्थिति उनकी शायरी में बहुत बड़ी है- अभिधा में भी और व्यंजना में भी- जन्म देने वाली मां भी और प्रतीकात्मक मां भी- लबों पे उसके कभी बददुआ नहीं होती/  बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती।

ऐसी मिसालें अनगिनत हैं। लगता है मुनव्वर राना को उद्धृत करते चले जाएं- घर, परिवार, सियासत, दुख-दर्द का बयान इतना सादा, इतना मार्मिक, इतना आत्मीय कि हर ग़ज़ल अपनी ही कहानी लगती है, हर बयान अपना ही बयान लगता है- बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है /बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है /….यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता /मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी मां सजदे में रहती है।../अमीरी रेशमो किमखाब में नंगी नज़र आई /गरीबी शान से इक टाट के परदे में रहती है।

दरअसल इस सादगी के बीच मुनव्वर एक समाजवादी मुहावरा भी ले आते हैं- राजनीतिक अर्थों में नहीं, मानवीय अर्थों में ही। उनकी ग़ज़लों में गरीबी का अभिमान दिखता है, फ़कीरी की इज़्ज़त दिखती है, ईमान और सादगी के आगे सिजदा दिखता है। हालांकि जब इस मुहावरे को वे सियासत तक ले जाते हैं तो सादाबयानी सपाटबयानी में भी बदल जाती है- मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है / सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है। 

दरअसल यहां समझ में आता है कि मुनव्वर राना ठेठ सियासी मसलों के शायर नहीं हैं, जब वे इन मसलों को उठाते हैं तो जज़्बाती तकरीरों में उलझे दिखाई पड़ते हैं, मां के धागे से मुल्क के मुहावरे तक पहुंचते हैं और देशभक्ति के खेल में भी कहीं-कहीं फंसते हैं। लेकिन उनका इक़बाल कहीं ज़्यादा बड़ा है। वे सियासी सरहदों के आरपार जाकर इंसानी बेदखली की वह कविता रचते हैं जिसकी गूंज बहुत बड़ी है। भारत छोड़कर पाकिस्तान गए लोगों पर केंद्रित उनकी किताब मुहाजिरनामाइस लिहाज से एक अनूठी किताब है। कहने को यह किताब उन बेदखल लोगों पर है जो अपनी जड़ों से कट कर पाकिस्तान गए और वहां से हिंदुस्तान को याद करते हैं, लेकिन असल में इसकी जद में वह पूरी तहजीब चली आती है जो इन दिनों अपने भूगोल और इतिहास दोनों से उखड़ी हुई है। यह पूरी किताब एक ही लय में- एक ही बहर पर- लिखा गया महाकाव्य है जिसमें बिछड़ने की, जड़ों से उखड़ने की कसक अपने बहुत गहरे अर्थों में अभिव्यक्त हुई है। किताब जहां से शुरू होती है, वहां मुनव्वर कहते हैं, मुहाजिर हैं, मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं /तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।आगे कई शेर ऐसे हैं जो दिल को छू लेते हैं, कहानी के ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है /कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं..../ जवानी से बुढ़ापे तक जिसे संभाला था मां ने /वो फुंकनी छोड़ आए हैं, वो चिमटा छोड़ आए हैं /किसी की आरजू के पांव में ज़ंजीर डाली थी /किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं।यह पूरी किताब अलग से पढ़ने और लिखे जाने लायक है।

बहरहाल, सादगी कविता का इकलौता मोल नहीं होती। उर्दू के ही सबसे बड़े शायर मिर्ज़ा गालिब कहीं से सादाबयानी के शायर नहीं हैं, उनमें अपनी तरह का विडंबना बोध है- ईमां मुझे रोके हैं, खैंचे है मुझे कुफ़्रवाली कशमकश, जो शायरी को अलग ऊंचाई देती है। इक़बाल भी बहुत बड़े शायर हैं- लेकिन उनकी भाषा और उनके विषय में अपनी तरह की जटिलता है। बेशक, मीर और फ़िराक देशज ठाठ के शायर हैं, लेकिन उनकी शायरी मायनी के स्तर पर बहुत तहदार है। लेकिन उर्दू में सादगी की एक बड़ी परंपरा रही है जो कई समकालीन शायरों तक दिखती है। फ़ैज़ की ज़्यादातर ग़ज़लें बड़ी सादा जुबान में कही गई हैं। निदा फ़ाज़ली, अहमद फ़राज़, बशीर बद्र अपने ढंग से सादाज़ुबान शायर हैं और बेहद लोकप्रिय भी। लेकिन मुनव्वर राना इस सादगी को कुछ और साधते हैं। उनकी परंपरा कुछ हद तक नासिर काज़मी की पहली बारिशसे जुड़ती दिखती है। लेकिन नासिर की फिक्रें और भी हैं, उनके फन दूसरी तरह के भी हैं। एक स्तर पर मुनव्वर अदम गोंडवी के भी क़रीब दिखते हैं, ख़ासकर जब वो राजनीतिक शायरी कर रहे होते हैं। लेकिन अदम में जो तीखापन है, उसको कहीं-कहीं छूते हुए भी मुनव्वर उससे अलग, उससे बाहर हो जाते हैं।


उर्दू की इस परंपरा को पढ़ते हुए मुझे हिंदी के वे कई कवि याद आते हैं जो अपने शिल्प में कहीं ज़्यादा चौकस, अपने कथ्य में कहीं ज़्यादा गहन और अपनी दृष्टि में कहीं ज़्यादा वैश्विक हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, वे अपने समाज के कवि नहीं हो पाए हैं। अक्सर यह सवाल मेरे भीतर सिर उठाता है कि क्या यह कहीं शिल्प की सीमा है जो हिंदी कवि को उसके पाठक से दूर करती है? आखिर इसी भाषा में रचते हुए नागार्जुन जनकवि होते हैं, भवानी प्रसाद मिश्र दूर-दूर तक सुने जाते हैं, दुष्यंत भरपूर उद्धृत किए जाते हैं और हरिवंश राय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर तक खूब पढ़े जाते हैं। अचानक ये सारे उदाहरण छंदोबद्ध कविता के पक्ष में जाते दिखते हैं, लेकिन मेरी मुराद यह नहीं है। मेरा कहना बस इतना है कि हिंदी कविता को अपना एक मुहावरा बनाना होगा जो उसके पाठकों तक उसे ले जाए। ये एक बड़ी चुनौती है कि हिंदी कविता की अपनी उत्कृष्टता और बहुपरतीयता को बचाए रखते हुए यह काम कैसे किया जाए।  

कलावंती की कविताएं

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जानकी पुल पर साल की शुरुआत करते हैं कुछ सादगी भरी कविताओं से. कलावंतीकी कविताओं से. कलावंती जी की कविताओं में हो सकता है शिल्प का चमत्कार न दिखे, भाषा का आडम्बर न दिखे लेकिन जीवन में, जीवन के अनुभवों में गहरे रची-बसी हैं उनकी कविताएं. पढ़कर देखिये- मॉडरेटर 


                    1
                         पगड़ी
वह संभालती रही
कभी पिता की पगड़ी
कभी भाई की पगड़ी
कभी पति की पगड़ी
उसने कभी सोचा ही नहीं कि
हो सकती है
उसकी अपनी भी कोई पगड़ी
एक दिन पगड़ी से थककर,
ऊबकर उसने पगड़ी उतारकर देखा
पर इस बार तो गज़ब हुआ
थोड़ा सुस्ताने को पगड़ी जो उतारी
तो देखा पगड़ी कायम थी।
बस माथा गायब था।


                   2
                   डर
वह डरती है
जाने क्यों डरती है
किससे किससे डरती है
वह रात से क्या
दिन से भी डरती है
एक पल जीती है एक पल मरती है।
पहले पिता से,भाई से तब पति से ....
आजकल वह
अपने जाये से भी डरती है।

                 

                      3
                    मन
एक नाजुक सा मन था
अठखेलियोंसा तन था
पूजा सा मन था
देह आचमन था
            वो एक लड़की थी
           भीड़ मेँ चुप रहती थी
           अकेले मेँ खिलखिलाती थी
उजालों से अंधेरे कीतरफ आती जाती थी
वो एक औरत थी
कभी बड़ाती थी
प्यार मेँ थी किनफरत मेँ
बेहोश थीकि होश मेँ थी
बात बात पर हँसती जाती थी
बात बात पर रोती जाती थी
उजालों से अँधेरों की
तरफ आती जाती थी।  
एक नाजुक सा मन था
अठखेलियोंसा तन था
पूजा सा मन था
देह आचमन था
उसे जो कहना था
स्थगित करती जाती है
अगली बार के  लिए
जो स्थगित ही रहता है जीवन भर
पूछती हूँ कुछ कहो –
वह थोड़ा शर्माती है
थोड़ा सा पगलातीहै 
एक लड़की मेरे सपनों मेँ
अँधेरों से उजालों की तरफ आती जाती है 


              
              
                       क्षणिकायेँ
               (क)

एक नदी है मृत्युकी
उस पर तुम हो
इस पार मैं
अकबकाई सी खड़ी हूँ।

               (ख)

फूल गिरा था धूल पर
धूल की किस्मत थी
कि धूल कि किस्मत थी
कि फूल के माथे पर था।

            
              (ग)

बहुत झमेलों मेंभी,
उलझी जिंदगी मेंभी
मैंने चिड़िया सा मन बचाए रखा,
इतने दिन बाद मिले हो
तो उसे उड़ाने में लगे हो।

                (घ)

एक यात्रा पर
निकले हैं हम दोनों
अपने- अपने घरों में
अपने- अपने शरीर छोड़कर।


गाँव, विकास और रंगमंच

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गाँव के रंगमंच को लेकर एक बड़ा रोचक और दुर्लभ किस्म का संस्मरण लिखा है युवा रंग समीक्षक अमितेश कुमारने. लम्बे लेख का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत है. आप भी आनंद लीजिये- मॉडरेटर 
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शुरूआत हुई थी 2005में. अपने गांव वाले घर में चोरी होने के कारण बगहा’ (उत्तरप्रदेश और नेपाल से सटा हुआ जो सदानीरा नारायणी नदी जिसे गंडक भी कहते हैं कि किनारे बसा हुआ. एक जमाने में मिनी चंबल के नाम से मशहूर)से अचानक गांव पजिअरवाजाना पड़ा. यह भारत के बिहार प्रांत के मोतिहारी जिले के सुगौली प्रखंड में स्थित है जिसमें ग्रामपंचायत भी है. गाँवके लोगों को गर्व है कि पंचायत पजिअरवा के नाम से है. मतदाताओं की अधिकता और तीन में से दो मौको पर बहुलांश की एकजुटता की वज़ह से पंचायती राज की बहाली के बाद एक निवर्तमान मुखिया और एक वर्तमान मुखिया का ताल्‍लुक़ गाँवसे ही है. गाँवसे हाइवे और रेलवे लाइन छः किलोमीटर की दूरी पर हैबचपन में ट्रेन पकड़ने के लिये नजदीकी हाल्ट धरमिनिया पैदल जाना आना पड़ता था, कभी-कभार बैलगाड़ी रहती. बरसात के चार महीने गाँव टापू बन जाता. कच्ची सड़कों और धान रोपने के लिये तैयार किये खेतों के बीच का फ़र्क़ मिट जाता था. सड़कें अलबत्ता खेतों से ऊंची थीं. जब कभी कोई दुस्साहसी वाहन उसमें फँसता तब उसे निकालना या निकलवाना एक सामाजिक कवायद होती. इसके लिये वाहन बाहर से बुलवाया जाता क्योंकि गांव में एक भी नहीं था. यह वाहन आम तौर पर ट्रैक्टर होता. जीप और उस जैसी चार पहिये वाहन का आगमन दुर्लभ था इसलिये उनका आगमन बच्चों के लिये जश्न था. वाहन की उड़ाई धूल लेने के लिये उसके पीछे देर तक दौड़ते थे.

ट्रैक्टर पर  सवार ड्राइवर को कोई भी और कुछ भी सलाह दे सकता था. जैसे दांया कर, हाईड्रोलिक उठाव, हेने काट, होने काट  आदि.  बच्चे इस तमाशे के भी मुख्य दर्शक थे और युवक हाथ में कुदाल ले कर पांक काटते,  पसीना बहाते हुए किसी तरह ट्रैक्टर को निकाल लेते. कच्ची से खड़ंजा, और खड़ंजा से पक्की सड़क कोलतार वाली बन गई है.  कुछ गलियों में ढलुआ सड़कें बन गई है जिसे पीसीसी कहते है. होश के गुजरे दो दशक में मेरे द्वारा देखा गया विकासयही है. स्कूल, कालेज, की बात मत पूछियेहाँ आवागमन का एकमात्र साधन पैदल था, वहाँतांगा और जीप चलने लगे.धीरे-धीरे टैम्पो तांगे को विस्थापित कर रहे हैं. गाँव के ब्रह्म स्थान से ही जीप या टैम्पो पर बैठकर आप देश-दुनिया की यात्रा पर निकल सकते हैं. बाकी मोबाईल तो घर-घर में है ही. मुआ बिजली भी कुछ दिनों के लिये आयी लेकिन अपने पीछे दो जले ट्रांसफ़रमर छोड़कर दो सालों तक लापता हो गई. फिर अचानक एक दिन लौटी. लोकसभा चुनावों की हवा में ट्रांसफरमर बदला, तार बदले, लेकिन इस आंधी का क्या करे जिसने अचानक आ कर कई खंभे उखाड़ दिये.  

घर में हुई चोरी की तफ़्तीश के लिए कई रास्तों का सहारा लिया गया था. पुलिसिया रास्ता भी. इन्क्वायरी के लिये आये जमादार साहब की दो हज़ारी की डिमांड को मैंने आदर्शवाद से व्यवहारवाद की धरातल पर उतर कर मोलतोल के उपरांत पांच सौ में निपटाया.
‘गाड़ी का तेल और पुलिस पार्टी में पांच आदमी का खरचा इतना में कैसे होगा जी?
अरे सर! मेरेयहां चोरी हुआ है...पापा नहीं हैं ...इतना ही है घर में ... कहां से लाएं ...
इंक्वायरी की औपचारिकता के लिये आये इस दल को देखनेके लिये बिना टिकट दर्शकों की भीड़ जमा हो गई थी. और मेरे द्वारा की गई कमी की भरपाई करने के लिये वे जाते-जाते लोगों के छान-छप्पर से कोहंड़ा- भथुआ (जिससे मुरब्बा या पेठा बनता है) लेते गये.  दूसरा रास्ता था ओझा-गुनी वाला. एक साथ ऐसे कितने ओझाओं की ख्याति हमारे पास पहुँच गई जो चोरी करने वाले का एक दम से नाम बता देते थे. इसमें सबसे गुप्त सुझाव देने वाले पड़ोस की एक महिला ने चुपचाप रह कर उपाय करने के लिये कहा और इसके लिये मुझे प्रेमकी हायता लेनी थी. प्रेम गाँव में वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी है. गाँव में नाटक, अष्टयाम, अराधना, कीर्तन, होरी इत्‍यादि में उनकी उपस्थिति लाजिमी होती है. वे सधे गायक,पके अभिनेता, जमे नाल वादक और तपे-तपाए संगठनकर्ता हैं. उनको बुलाने के लिये उनके घर गया रात में,तो पता चला वो पड़ोस में हैं. वहाँ पहुँचा तो देखा कुछ लोग इकठ्ठा थे. वहाँ नाटक की भूमिकाओंका बँटवारा हो रहा था और नाक खेलना तय हो गया था. मैंने प्रेम भाई को बाहर बुला कर अपनी बात कही. उन्होंने भरोसा दिया कि कल सुबह वो मेरे साथ चलेंगे. फिर मेरी बुलाहट अंदर हुई. मुझे भी नाटक में एक भूमिका करने के लिए कहा गया. पहला प्रस्ताव था नायिका का, गाँव के नाटकों में अभी भी पुरुष ही स्त्री की भूमिका करते हैं. इसके लिए लड़कों को मनाना मशक्कत भरा काम होता है. लड़को को भी अभिभावक का डर सताता है, जो बेटों को बेटी बनने के लिये घर से निकालने की धमकी तक देते हैं. गाँव में कई बार ऐसा भी हो चुका था कि पितृ-भय के चलते पुत्र इच्छा रहते भी नायिका की भूमिका नहीं निभा सके थे. आपात स्थिति में किसी और को भूमिका करनी पड़ी थी. मैंने कहा कि इस मनःस्थिति में मैं नायिका का किरदार नहीं कर सकता. लेकिन एक छोटा रोल मुझे दे दीजिये, मैं कर लूँगा. इस तरह नाटक मंडली में मेरा प्रवेश हुआ. मुझे एक फ़ौजी की भूमिका मिली थी जो मेरी काया के अनुकूल नहीं थी. दिन में मैं घर के काम में उलझा रहता और रात में रिहर्सल करता. चोरी की वज़ह से हो रहे तनाव से निबटने का यह एक उपचार भी था.   

मेरे गाँव में मुख्यतः पांच टोलें यानी मोहल्ले हैं. एक पुर्वारी टोला, दूसरा पछियारी टोला, तीसरा पोखरा पर, चौथे को केवल टोला कहते हैं और पांचवा बऊधा टोला है. पछियारी टोले में नाटक खेलने वाली दो टीम थी. हमारे टोले के लड़के उसी दो टीमों में अपने संघत के हिसाब से नाटक खेलते थे. उस टोले के लोग हमारे टोले को थोड़ा कमतर मानते हैं और यह पूर्वग्रह उस टोले में निवास करने वाली सभी जातियों का हैं. आखिर गाँव के भूतपूर्व सामंत और दरबार का वह टोला था, जिसमें एक पोस्ट ऑफ़िस था, पुस्तकालय था, स्कूल था, मंदिर था, माई स्थान था, स्वतंत्रता सेनानी थे, पान दुकानदार थे, पत्रकार थे और एक पूर्वमुखिया भी. हमारे टोले में संपन्न, शिक्षित, नौकरीपेशा लोगों की संख्या कम थी या नहीं के बराबर थी. शक्ति प्रतिष्ठान भी नहीं था, ले दे कर एक मसजिद और कुछ आटा पिसने की चक्कियाँ थी. उस टोले की टीम जब भी नाटक खेलती और पात्र बंटवारा करती तब हमारे टोले के कों को कमतर रोल दिया जाता. अधिकतर नायिका का, नौकर का,बुढे का या अन्‍य हास्य किरदारों का. इस उपेक्षा के प्रतिशोध में टोले के लड़के किताब उस टोले से ले कर आये थे और बुनाद की दुकान पर तराजु छू कर कसम खाई थी कि नाटक होगा. बुनाद की शिक्षा नहीं के बराबर हुई है फिर भी बुलंदआवाज़, साफ़ उच्चारण के साथ भूमिका को याद करने की उसमें जबरदस्‍त क्षमता है. नाटक खेलने की उसकी ललक ने सबको प्रेरित किया था. कसम खा ली गई थी, रोल बंट चुके थे, रिहर्सल शुरू हो गई थी, जो बुनाद की ही झोपड़ी में होती थी. कान से कम सुनने वाली उसकी मां को आखिर क्या फ़र्क पड़ता! 


उस वर्ष हम जब चँदा माँगने के लिए गाँव में निकलते तो लोग हमें हतोत्साहित करते थे  तो हम तर्क देते कि हम ठारह पात्र हैं और हमारे घरवाले जो कम से कम सौ होंगे हमारा नाटक देखेंगे. अतः हमारे पास दर्शक तो हैं. गाँव में नाट्य दल का नाम रखने का रिवाज़ था. जिसमें ‘नवयुक नाट्य कला परिषद’ के आगे कोई एक नाम जोड़ दिया जाता था. हमने इस परंपरा को तोड़ के अपने दल का नाम रखा अभिरंग कला परिषद’, जिसमें अभिरंग का आशय था अभिनव रंगमंच. नाटक हुआ और क्या जबरदस्त हुआ! ‘श्मीर हमारा हैउर्फ़ आतंकवाद को मिटा डालो.
हमारागांवमुख्यतःदोटोलोंकेबीचबंटाहुआ है. गांवमेंपहलेनाटकदोनोंटोलेकेबीचो बीचहुआकरताथा, जबवकीलबाबाउर्फ़जयनाथमिश्रनाटकदलकेमुखियाहुआकरतेथे. गिरधारीराऊतकेघर के आगे,जोगांवकेठीकबीचोबीचथा,बहुतबड़ादालानथा. अच्छीखासीजगहथी. बेटोंसेपोतोंकेबीचबंटतेबंटतेअबउसजगहपरइतनेघरबनगयेहैकिजगहसिमटा हुआ दिखाई देता है.लेकिनजमीनदेखकरअंदाजाहोजोताहैकिनाटकोंकेलियेकितनीअच्छीजगहरहीहोगी. वकीलबाबा, शायद ओकिल बाबा उच्चारण ठीक होगा,हमारेगांवकेआदिनटकियाहैं. उनकेबारेमेंलिखाजाएतोअलगसेएकअध्यायलिखनापड़ेगा.मुख्तसरसापरिचययेहैकिपेशेसेप्राध्यापक, छोटीकदकेहाजिरजवाब, स्फ़ूर्तिसेभरेऔरपंचलाईनके व्यंग्यों केउस्तादओकीलबाबागांवमेंनाटकशुरूकरनेवालेआरंभिकलोगोंमेंसेएकथे. उनकीसक्रियतानाटककोलेकरआजभीबनीरहतीहै. उनकाकहनाहैकिनचनियाजबनगाड़ाकेतालसुनलीबैछौनेपरकाहेनालेकिनचुतड़डोलइबेकरी. नचनियासेमतलबअभिनेतासेहीरहताहै. ओकीलबाबाकेबाद  मेरेपिताजीयानीप्रोफ़ेसरसाहबकेनेतृत्वमेंनाटकहोनेलगातोउन्होंनेकभी कभीजगह काबदलावभी करदियाजैसेकिहमारेदरवाजेपरजयपरशुरामहुआथा।जिसमेंपरशुरामकीभूमिकानिभानेवालेनेइतनीशिद्दतसेअभिनयकियाकिआजभीलोगयादकरतेहैंकिगोविंदजीपशुरामबनलेंतोखड़ाऊं  केथापसेचौकीतुड़देले..हांगज़बनुरोलकईलक. यारवा!’ . मेरेपिताजीकेबादकमानअमरचंद्रमिश्रनेसंभालीतोनाटककोवोअपनेटोलेमेंलेगयेऔरअनिलकाकाकेदरवाजेपर,जोगांवकेस्कूलकेपासहै,नाटकहोनेलगा.उसटोलेकीटीमभीतभीदोफाड़हुईजबभूमिकानहींमिलनेकीवज़हसेएकरंगकर्मीनेदलतोड़केकुछलोगोंकोतोड़कर और कुछ नये लोगों जिन्हें मौका नहीं मिलता था को जोड़करअपनादलबनाकेनाटकखेला. विवादकीतीव्रताऔरप्रतिद्वंदिताइतनीगहरी हो गईथीकिएकहीनाटकगुनाहोंकादेवताकोदोनोंदलोंनेएकदिनकेअंतरालपरखेलदिया.लेकिनअंततः दोनोंदलबिखरगया. नाटक मंडलियां केवल मेरे गांव में नहीं बिखर रही थी, जिन गांवों में नाटक होता था, जहां से नाटक के लिये सामग्री आती थी वहां भी खस्ताहाल हो रहा था. बिहार में यही दौर था जब बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप में थी और बड़ी संख्या में आबादी पलायन करने को मजबूर हो गई. गांव में इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के संचालन का जिम्मा जिन युवकों का था वो रोजगार की तलाश में लग गये. सरकारी नौकरी दुर्लभ हो गई जो बहुत परिश्रम से मिलती थी और जिसमें अभिभावक के धन का निवेश भी चाहिये था. जिनके पास यह नहीं था वह निजी नौकरियों की खोज में निकल गये. ऐसे में नाटकों को बंद होना ही था.
'मंतव्य'से साभार 

स्वामी विवेकानंद की जयंती पर एक प्रेरक किस्सा

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आईआईटी से विज्ञान पढ़कर प्रचण्ड प्रवीर जब से गल्प की दुनिया में आये हैं तब से किस्सों की झड़ी लगा दी है उन्होंने. कहते हैं कि सारे देशी संस्थान विदेशी विज्ञान पढ़ाते हैं. इसलिए अब मेरी उनमें रूचि कम होती जा रही है. किस्से-कहानियों की दुनिया में आये ही इसलिए हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह भारत का मूल ज्ञान है, और जहाँ ज्ञान होता है विज्ञान वहीं होता है. आज स्वामी विवेकानंद की जयंती पर उनकी नजर विज्ञान के कूड़े के ढेर के नीचे दबे इस किस्से पर गई. कौन कह सकता है कि आधुनिक विज्ञान भारतीय आध्यात्म का ऋणी नहीं है. हाँ, यह ऐसा ऋण है जिसे ऋण लेने वाला डकार गया. हमारे वैज्ञानिक आविष्कारों को पचा गया, अपने नाम पर पेटेंट करवाकर न जाने कितने वैज्ञानिक दुनिया में छा गए. आज ऐसे ही एक वैज्ञानिक का किस्सा जिसके काम के पीछे प्रेरणा थी स्वामी विवेकानंद की. आप कहेंगे प्रमाण, तो साहब अनुमान के आधार पर काम करने वाले लोगों को प्रमाण नहीं माँगना चाहिए. अब इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि लोक में यह किस्सा मौजूद है. 
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महान वैज्ञानिक निकोला टेसला को हम दुनिया में बिजली के उपकरणों के सुगम उपयोग के आविष्कार लिये जानते हैं। निकोला टेसला पर स्वामी विवेकानंद का प्रभाव दुनिया में किसी से छुपा नहीं रहा है। लेकिन हाल ही में निकोला टेसला पर शोध करने वाले इतिहासकारों ने एक ऐतिहासिक तथ्य को उजागर किया है। सर्बिया मूल का वैज्ञानिक टेसला ने थॉमस अल्वा एडीसन के प्रयोगशाला की नौकरी सन 1882 उसकी वादाखिलाफी से चिढ कर छोड़ दी थी, जब पचास हजार डालर देने का वादा कर के मुकर जाने के बाद एडीसन ने टेसला की तनख्वाह केवल दस डॉलर से बढा कर अट्ठारह डॉलर करने की पेशकश की। अगले कुछ सालों तक छिट-पुट मजदूरी और कब्र खोदने का काम करने वाला पागल वैज्ञानिक इतनी बड़ी कम्पनी का मालिक कैसे बना इसके पीछे एक गहरा रहस्य है। सन 1893 में शिकागो के विश्व कोलम्बिया मेले में टेसला की कंपनी ने एडीसन के कंपनी के डायरेक्ट करेंट के बदले अल्टरनेटिंग करेंट पर जो दाँव लगाया, उसी ने टेसला की किस्मत बदल दी। इसी मेले से ठीक पहले निकोला टेसला की मुलाकात स्वामी विवेकानंद जी से हुयी थी, जिन्होंने टेसला को अल्टरनेटिंग करेंट का आध्यात्मिक ज्ञान दिया था। इसी रहस्य के कारण निकोला टेसला जीवन भर ब्रह्मचारी रहे, और स्वामी विवेकानंद के अहसानमंद रहे। #मेडइनइण्डिया 

किंब, कांगड़ी और मेवों का मौसम

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लोहड़ी को आमतौर पर पंजाबी संस्कृति का त्यौहार माना जाता है. लेकिन इस लेख में लेखिका योगिता यादवने यह बताया है कि किस तरह लोहड़ी जम्मू की संस्कृति का भी अहम् हिस्सा रहा है. तो इस बार जम्मू से हैप्पी लोहड़ी- मॉडरेटर 
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 एक बार रेवाड़ी के मेरे एक उम्रदराज परिचित ने पूछा, 'जेएंडके की राजधानी क्या है? उनका सवाल सामान्य जागरुकतावश था किंतु मैंने जब कहा कि 'गर्मियों में श्रीनगर और सर्दियों में जम्मू, तो वे हैरान, बड़े कौतुक से बोले, 'तो क्या राजधानी वहां भागती रहती है? और हम सब खिलखिला कर हंस पड़े। खुशी, खुशबू और शोखी की ऐसी ही खिलखिलाहट बिखर जाती है जम्मू में, जब पीरपंजाल की पर्वत श्रृंखला बर्फीले शॉल की बुक्कल मार कर बैठ जाती है। जम्मू में सर्दियों में फैशन दिखाना हो तो उसका सबसे बेहतर प्रतीक है शॉल। नोटों की गड्डियां खर्च दीजिए पर शॉल का फैशन खत्म नहीं होगा। पश्मीना शॉल, सेमी पश्मीना शॉल, रफल का शॉल, कान्नी शॉल, जामावार, फिर उस पर सूईं की कढ़ाई, आरी की कढ़ाई, तिल्ले की कढ़ाई, तिल्ला भी कई तरह और कई रंग का। कढ़ाई में भी बेल बूटों का डिजाइन, फुलकारी का डिजाइन, कढ़ाई से पूरा भरा हुआ शॉल और न जाने कितने डिजाइन, कितने रंग, कितनी अदाएं, कितने ढंग। यहां शॉल सिर्फ फैशन ही नहीं है, बल्कि इसमें परंपरा की गर्माहट भी है। कई हुनरमंद हाथों का हुनर भी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जम्मू-कश्मीर की अस्मिता भी। करवा चौथ पर सासू मां को दिया जाने वाला बहू का उपहार भी है शॉल। सही मायनों में करवा चौथ के बाद से ही जम्मू में ठंड और ठंड का अंदाज शुरू हो जाता है। बदलने लगता है खानपान, फैशन और दफ्तर आने जाने का समय भी। यह अक्टूबर का अंत और नवंबर की शुरूआत ही होती है जब दरबार श्रीनगर से जम्मू आ जाता है। अर्थात करवा चौथ के बाद या आसपास का समय। दरबार मूव होते ही सचिवालय में कार्यरत जम्मू के डोगरे वापस घरों को लौट आते हैं तो कश्मीरी बर्फीली जिंदगी छोड़कर जम्मू की रौनक में शामिल होने लगते हैं। बड़े-बड़े अधिकारी और मुलाजिम सरकारी क्वार्टरों में नए पर्दों, नए बिस्तरों के साथ एडजस्ट हो जाते हैं, वहीं छोटे मुलाजिम यहां गलियों में किराए का छोटा-मोटा मकान ढूंढने निकल पड़ते हैं। इस दौरान कभी देर रात राष्ट्रीय राजमार्ग से होकर गुजरने का मौका मिले तो देखिएगा गुज्जर-बक्करवाल भी अपने माल मवेशियों के साथ इसी 'बनिहाल कार्ट रोडÓ से जम्मू की रौनक भरी जिंदगी की ओर लौट रहे होते हैं। बर्नार्ड कार्ट रोड जिसे रोजमर्रा की भाषा में बीसी रोड कहा जाता है का नाम ही इसलिए पड़ा क्योंकि उस दौरान सचिवालय का रिकॉर्ड और अन्य जरूरी सामान बैलगाडिय़ों पर  लदकर जम्मू से श्रीनगर और श्रीनगर से जम्मू आया जाया करता था।
अलग-अलग बोलियों को बोलने वाले जम्मू-कश्मीर के ये सभी बाशिंदे जम्मू में आकर ऐसे मिल जाते हैं जैसे खिचड़ी में घी। जिसके बाद सौंधी सी महक हर गली से उठने लगती हैं। कहीं पकता है मक्की का टोडा (मोटी रोटी), कहीं हरा धनिया मिला चावल का टोडा, कहीं खमीरों पर रखे गलगल के अचार की महक तो कहीं शीर चाय के साथ खाई जा रही कश्मीरी रोटियों की। पुरानी सिटी की गलियों में हलवाई बड़े-बड़े कड़ाहों में पकाने लगते हैं सुंड। सुंड जम्मू का खूब स्वादिष्ट, सेहतमंद मिष्ठान्न है। और शुभता का प्रतीक भी। जो सर्दियों में अमूमन हर घर में बनती है। सुंड असल में मेवों का मिश्रण हैं। जिसमें काजू, बादाम, छुआरे, मग$ज (खरबूजे के बीज) आदि सभी मेवों को मोटा काटकर देसी घी में फ्राई किया जाता है। फिर नारियल का चूरा, खसखस और सुंड के साथ इसे फिर से देसी घी में फ्राई करते हुए मिक्स किया जाता है। सोंठ जिसे स्थानीय बोली में सुंड कहा जाता है, का इस्तेमाल होने के कारण इसे नई मां को जरूर दिया जाता है। थोड़ा, बहुत नहीं 'किलोके माप में। सास ने पांच किलो सुंड खिलाई या दस किलो या बहू के मायके से पंद्रह किलो सुंड आई इससे ही पता चलता है कि घर में आए नए मेहमान की कितनी खुशी मनाई जा रही है। रिश्तेदारों में सुंड बांटकर यह खुशखबरी भी बांटी जाती है। सर्दियों में एक कटोरी सुंड के साथ गरमागरम दूध पिया जाए तो उससे बेहतर नाश्ता और क्या हो सकता है। जितना स्वादिष्ट नाश्ता उतनी ही सेहतमंद हो जाती है इन दिनों जम्मू की दोपहर। मैदानी इलाकों में जहां इस दौरान धुंध का साम्राज्य पसरा होता है वहीं जम्मू में ठंडी धूप खिलती है। आंवले और नींबू के साथ-साथ सर्दियों में यहां कई तरह के देसी खट्टे फल आ जाते हैं। जिनके बारे में कहा जाता है कि यह सर्दियों में रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करते हैं। पीले या नारंगी रंग के ये सभी फल अलग-अलग स्वाद के हैं जिन्हें खाने का खास और मुख्तलिफ अंदाज है। यहां का किन्नू संतरे से ज्यादा रसदार और सस्ता है। जबकि किंब की खटास.... तौबा तौबा। किंब इतना खट्टा फल है कि यदि इसे रस सहित ग्रहण किया जाए तो कड़वाहट देने लगता है। इसलिए किंब को दो हिस्सों में काटकर पहले उसका रस निचोड़ दिया जाता है। ग्रामीण इलाकों में अब भी सरसों के तेल के साथ कोयला जलाकर उसका धुआं देने के बाद इसे खाया जाता है, जिससे इसकी ठंडी तासीर कम हो जाती है। फिर धनिये और हरी मिर्च की खट्टी-मीठी चटनी को किंब की फंाकों पर लगाया खाया जाता है। जबकि 'गलगलÓ का इस्तेमाल अचार के रूप में किया जाता है। किंब, किन्नू और संतरे का स्वाद तभी है जब इन्हेंं धूप में खाया जाए, वरना जुकाम होना तय है।
इन दिनों कड़म का अचार भी खूब खाया जाता है। 'कड़म खाना डोगरों ने कश्मीरियों से सीखाÓ यह उतना ही सही है जितना यह कि दालें खाना कश्मीरियों ने डोगरों से। डोगरे यानी जम्मू के मूल निवासी दालों के शौकीन हैं। यहां हर रोज दिन वार अलग-अलग दाल बनती है। बुधवार को साबुत मूंग, वीरवार को अरहर, शुक्रवार को मां-छोले यानी उड़द-चने की दाल, शनिवार को काले चने और रविवार को राजमा। रविवार को राजमा बनना तो तय है। होटलों, ढाबों, रेस्टोरेंट, शादी-पार्टियों में राजमा नहीं तो कुछ नहीं। राजमा के शौकीन जानते हैं कि स्वाद के मामले में सर्वश्रेष्ठ है भद्रवाह का राजमा। गहरे लाल रंग के छोटे-छोटे दाने। जिन्हें मुट्ठी में दबाकर फूंक मारें तो हल्की नमी छोड़ जाएं। भद्रवाह के राजमा, आरएस पुरा का बासमती चावल और अनार दाने की खट्टी चटनी सर्दियों की गुनगुनी दोपहर में इससे बेहतर कुछ और हो सकता है क्या! राजमा सदाबहार है, लेकिन सर्दियां आते ही जम्मू की रसोई में कुल्थ की दाल का महत्व सबसे ज्यादा बढ़ जाता है। कुल्थ यहां की देसी दाल है जिसकी तासीर खूब गर्म होती है। पौष्टिकता में यह मांसाहार से भी बढ़कर है। यह बदला हुआ खानपान ही है जो जम्मू की सर्दियों से मुकाबला करता है। इसी तरहच्बच्चे बीमार न हो इसके लिए माएं सर्दियों मेंच्बच्चों को दूध में छुआरे उबाल कर देती हैं। या फिर दूध का काढ़ा बनाकर। काढ़ा बनाने के लिए दूध में सुंड डालकर उबाली जाती है, जिसका जिक्र अभी ऊपर हुआ है।
ये सब तो घरेलू उपचार हैं, लेकिन ठंड से बचने के लिए बेहतर है कि शाम होते ही कांगड़ी सुलगा ली जाए। कांगड़ी धधकती नहीं है, धीमे-धीमे सुलगती है। इसलिए लेने वाले इसे बिस्तर में लेकर भी बैठ जाते हैं। जबकि कश्मीर में तो लोग इसे फिरन में साथ लेकर भी चलते हैं। यह एक पोर्टेबल हीटर से भी बढ़कर है। क्योंकि आंच भीतर के मिट्टी के कटोरे में होती है जबकि पकडऩे के लिए लकड़ी का खास हेंडिल युक्त सांचा बना होता है। जैसे गांव-देहात में दही मक्खन रखने के लिए रस्सी का बना 'छीकाÓ टंगा होता था। जहां मौसम ही जिंदगी और मौसम ही मौत हो वहां जीने की गर्माहट है कांगड़ी । इसलिए तो आज भी कश्मीरी शादियों में बेटियों को दहेज में दी जाती है यह। सलमे-सितारों से सजी खूबसूरत कांगड़ी। अब जहां सब कुछ बदल गया है, रूम हीटर से लेकर कार हीटर भी मौजूद है वहां कांगड़ी अब भी जम्मू की जिंदगी से पूरी तरह बर्खास्त नहीं हो पाई है। न ही कश्मीरी संस्कृति से। अब भी हर घर में एक कांगड़ी है। पर कभी-कभी यह सावधानी हटी, दुर्घटना घटी का भी सबब बन जाती है। मेरी एक मित्र लाइट जाने के बाद अंधेरे में मोमबत्ती लेने के लिए दौड़ी तो कांगड़ी उसके पैर पर उलट गई। जिसकी गर्म राख नायलॉन के मोजे को चीरती हुई त्वचा को जला गई। वहीं एक दूसरी बुजुर्ग महिला कांगड़ी लिए बिस्तर में बैठी थी और उनकी शॉल का कोना धीरे-धीरे कांगड़ी में सुलगता रहा। फिर शॉल का क्या हुआ होगा अंदाजा लगाया जा सकता है।
सर्दियां इतनी खुशगवार भी नहीं हैं। यहां अकसर पस्सियां गिरने अर्थात लैंड स्लाइडिंग के हादसे पेश आते रहते हैं।

हादसों और हिम्मत के इसी सर सर्द मौसम में पिरोए जाते हैं मेवों के हार। ढेरों आशीषों और शुभकामनाओं के साथ। नाती-पोतों और नव विवाहितों के लिए। लोहड़ी जम्मू के बड़े पर्वों में से एक है, जिसकी तैयारी काफी धूमधाम से शुरू होती है। सरकारी पोस्टरों में भी नव वर्ष के साथ लोहड़ी की भी बधाई दी जाती है। लोहड़ी से जुड़ी परंपराओं का पूराच्गुच्छा है। जिसमें साज सज्जा है, खेल हैं, उत्सव है। ऐसी ही एक परंपरा है मेवों के हार बनाने की। रंगीन बताशों के साथ मूंगफली, किशमिश, काजू आदि पिरोकर कई-कई लडिय़ों के हार पिरोए जाते हैं लाडलों के लिए। जिनमें बीच में लटकता है बड़ा सा गोला। खास बात यह कि हार जितना लंबा, स्नेह और संपन्नता उतनी अधिक। फिर चाहें उन्हें पिरोते हुए सुईं कई बार अंगुलियों में चुभ जाए। इसी तरह नव विवाहित जोड़े को भी पहली लोहड़ी पर उनके कद के आकार के हार पहनाए जाते हैं। फिर ढोल और बाजों के साथ जश्न मनता है और बांटी जाती है पूरे मोहल्ले में लोहड़ी। 
योगिता यादव, जम्मू

911, सुभाष नगर ; जम्‍मू

फौज़िया रेयाज़ की कहानी 'पिंक का कर्ज़'

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फौज़िया रेयाज़बिलकुल आज की लेखिका हैं. आज के जेनेरेशन की सोच, भाषा, विषय- हिंदी में कहानियां कितनी बदल रही है यह उनकी कहानियों को भी पढ़ते हुए समझा जा सकता है. जैसे कि उनकी उनकी यह कहानी- मॉडरेटर 
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कभी हर कोई हर किसी का होता होगा पर मीरा के बचपन तक पहुंचते-पहुंचते रंग बंट चुके थे. पिंक मीरा काब्लू छोटे भाई सौरभ कामीरा को अपने कमरे की दीवारों पर बने गुलाबी फूल अच्छे नहीं लगते थेबचपन में अगर 'कलरमैन'उसे रंगों की बाल्टी दे देता तो वो सफ़ेद दीवारों पर नीचे ऑरेंज पत्ते बिखेरती और ऊपर सीलिंग की ओर बढ़ते हिस्से पर नेवी ब्लू फूल बनातीपिंक फ़्रॉकपिंक शूज़पिंक हेयर-बैंड…. उफ़्फ़्फ़्फ़जैसी कोफ़्त उसे गुलाबी रंग से महसूस होती थीशायद सौरभ भी समझता थातभी तो जब मम्मी पेनसिल बॉक्स दिलाने ले गई थीं और दुकानदार ने पिंक पेंसिल बॉक्स दिखायातो सौरभ ने चिढ़कर कहा था “ये तो पिंक हैगर्ल्स का कलरमुझे ब्लैक चाहिए या फिर ब्लू

मम्मी मुझे भी ब्लू चाहिएआई डोंट लाइक पिंक” मीरा भिनभिनाई थी
ओह्ह सच्ची??” और मम्मी हैरान हुई थीं

जब अपनी खरीदारी खुद करने लायक हुई तो पीले रंग के पाले में  गईपीले पर्सपीली शर्ट या पीले गुलाबपीला रंग उसे तरो-ताज़ा महसूस करवाता थाहरा रंग भी प्यारा थाहरी साड़ियों पर तो जान देती थीएक और रंग था जो उसकी आंखों को चहकाता था ‘एक्वा’. कलर-पैलेट पर हरे और नीले रंग को मिलाए जाने पर जो रंग उभरता है वो रंग यानि ‘एक्वा’. मीरा को जहां भी इस रंग के कपड़े दिखते खरीद लेतीउसके पास ‘एक्वा’ कलर के बैग्स, ‘एक्वा’ कलर की सैंडल्स, ‘एक्वा’ कलर के नेल-पॉलिश की भरमार थी.

अपनी अल्मारी में ‘एक्वा’ का भंडार सजाते हुए मीरा को अंदाज़ा नहीं था कि ये पसंदीदा रंग उसके दिमाग पर कभी यातना के हथौड़े भी बरसा सकते हैंअपने कमरे में लगे बड़े से शीशे के आगे खड़े होकर वो अक्सर अब अमन के मनपसंद रंग के बारे में सोचती हैक्या होगा अमन का पसंदीदा रंगसात साल में कभी पूछा ही नहींइस बारे में कभी बात ही नहीं हुईएक साथ रहने के बावजूद हम किसी को कितना कम जानते हैं इसका एहसास तो किसी दिन अचानक ही होता हैजिसके साथ एक तकिये पर सिर जोड़कर सोते हैंउसके दिमाग में कौन-सा भूचाल करवटें ले रहा है, पता ही कहां चलता हैहम से सटा हुआ, बालों से ढंका हुआ वो सिर बाहर से कितना शांत दिखता है.

मीरा को आज से कुछ साल पहले तक समझ नहीं आता था कि कुछ लोग खिड़की के पास खड़े होकर बाहर शून्य में क्या तलाशते हैंये लोग कौन हैं जिनकी आंखें कभी आसमानकभी बिल्डिंगो तो कभी आती-जाती गाड़ियों में अर्थ खोजती हैंमीरा के सामने ये राज़ हाल ही में बेनक़ाब हुआ हैये लोग जिनमें अब मीरा भी शामिल हैकभी बालकनी में कुर्सी लगाकर बैठते हैं तो कभी बालकनी की रेलिंग पर टिक जाते हैंबाहर से देखने पर खिड़की में अटके ये लोग फ़्रेम में चिपकी ‘वैन गोग’ की कोई उदास पेंटिंग नज़र आते हैं.

अब तो मीरा खुद भी किसी पार्क में बैठेबेमक़सद पेड़ो को ताकते हुए अक्सर स्मारक बन जाती हैउसकी निगाहें फूलों पर तैरते हुए डालियों पर गोते लगाते हुएशून्य में ताकती हुई आंखों का राज़ समझ गई हैअसल में ये लोग उसी की तरह अपने पुराने पसंदीदा रंगों से थक चुके हैंये अब कोई नया रंग तलाश रहे हैंऐसा रंग जो रास  जाए.

पिछले कुछ साल में जिस्म के अलग-अलग हिस्सों को अमन ने कई बार ‘एक्वा’ रंग से सजायाकभी कलाइंयों परकभी पैरों परकभी माथे पर तो कभी गाल परअमन के भरे ‘एक्वा’ रंग की खासियत थी कि वो जिस्म पर जगह लेते ही उस हिस्से को कढ़ाई की तरह उभार देता थाजाने क्यूं मीरा के ऑफ़िस के लोग इस कला को ‘नील’ या ‘सूजन’ का नाम देते थे.

अमन की इस अद्भुत डिज़ाइन की एक और खासियत थी. ये एक्वा’ रंग मिटने से पहले हरे और फिर पीले रंग मे बदलता हैउसके बाद जाकर कहीं गायब होता हैहरा जिसकी कई रेशमी साड़ियां बैग में पैक हैंपीला वही जो कभी फ़्रेशनेस का एहसास दिलाता थामीरा के तीनों पसंदीदा रंग उसके खुद के जिस्म पर जमे हैंउसकी पसंद-नापसंद का इतना ख़्याल तो बस अमन ही रख सकता था.

वैसे ख़्याल तो मीरा की मम्मी को भी काफ़ी था तभी तो बचपन में बार-बार उसे पिंक पहनाती थींउसकी तरफ़ गुलाबी गालों वाली गुड़िया बढ़ाते हुए वो शायद मीरा को तैयार कर रही थीं. जब आईने के सामने बैठकर चेहरे पर 'रूज'से ‘एक्वा’ छुपाया, पिंक की एहमियत समझ आईमनपसंद रंगों को छुपाने के लिए नापसंद ओढ़ा और खुद पर कई बार पिंक का कर्ज़ चढ़ाया.


अशोक वाजपेयी आज 74 साल के हो गए

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अगर हिंदी का कोई गणतंत्र है तो वे उसकी राजधानी हैं. वे हिंदी के विकेंद्रीकरण के सबसे बड़े प्रतीक हैं. वे हिंदी के भोपाल हैं, पटना हैं, रायपुर हैं, जयपुर हैं, मुम्बई हैं नागपुर हैं. वे हिंदी की संकुचन के नहीं विस्तार के प्रतीक हैं. वही अशोक वाजपेयी आज 74 साल के हो गए. अशोक वाजपेयी की बात करना उनकी कविताओं, उनकी आलोचना को याद भर करना नहीं हैं. यद्यपि वे हिंदी की दूसरी परम्परा के सबसे बड़े कवि हैं, जिनकी कविताओं में मनुष्यता की सच्ची आवाज सुनाई देती है, विचारधारा की झूठी टंकार नहीं. तकरीबन 50 साल पहले उन्होंने आलोचना की एक ऐसी पुस्तक लिखी जो आज तक ‘फिलहाल’ बनी हुई है. हिंदी आलोचना के ऐसे सूत्र दिए जो आजतक परिसर विस्तार के सन्दर्भ बने हुए हैं.

लेकिन अशोक जी का योगदान एक लेखक से भी विराट उस हिंदी सेवी का है जो जहाँ भी गए हिंदी अपने साथ लेकर गए. भाषाओं के बीच आवाजाही ही नहीं, कलाओं के साथ हिंदी के संवाद के महती काम में जीवन भर लगे रहे. बिना इस बात की परवाह किये कि हिंदी वाले इस परिसर विस्तार में अपनी जगह बना पाएंगे या नहीं. यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उन्होंने हिंदी को हीनता की भाषा की छवि से उबारकर गर्व की भाषा के रूप में स्थापित करने का काम किया. हम हिंदी वालों की आदत है कि हम हर बड़े प्रयास को अपनी क्षुद्रताओं से छोटा बनाने में लगे रहते हैं. अशोक वाजपेयी हमेशा क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर गुणीजन संगम बनाने में लगे रहे. एक ऐसा पब्लिक स्फियर जो हो तो हिंदी का अपना लेकिन जो सीना तान कर, आँख में आँख डालकर दुनिया के साहित्य से, कला के विराट संसार से सहज संवाद स्थापित कर सके.

उन्होंने हिंदी को हिंदी विभागों की मुर्दा दुनिया से निकालकर एक सार्वजनिक जीवंत भाषा के रूप में स्थापित करने का अनथक काम किया. उनकी भाषा बौद्धिक जरूर है लेकिन वह संवादधर्मी बौद्धिक भाषा है. उनके चिंतन के केंद्र में कविता जरूर हो सकती है लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने खुद विपुल गद्य लिखा है, हमारी भाषा को अछूते विषयों पर लिखते हुए समृद्ध किया है. अशोक वाजपेयी होना सम्पूर्णता में अपनी मातृभाषा से जुड़ना है. यह बाद ध्यान रखने की है कि सेंट स्टीफेंस कॉलेज से अंग्रेजी पढने के बाद उन्होंने उन्होंने अंग्रेजी लेखन की धारा में बह जाने की लोकप्रिय सहूलियत का चुनाव नहीं किया, बल्कि अपनी भाषा को अंग्रेजी के मुक़ाबिल समृद्ध करने का महती बीड़ा उठाया. उनकी यह यात्रा आज भी जारी है.

आज मुझे नहीं लगता है कि युवाओं के सामने हिंदी का कोई दूसरा व्यक्तित्व ऐसा है जो इतना प्रेरक हो, जो हमें निरंतर नया लिखने की प्रेरणा देता हो. आज हमारी भाषा के कितने बुजुर्ग लेखक हैं जो नियमित रूप से लिखते हों, बहसों के केंद्र में बने रहते हों? निजी आरोपों-प्रत्यारोपों में नहीं बल्कि वैचारिक बहसों में अपने को अपडेट रखते हों. अशोक वाजपेयी के अलावा दूसरा कोई नाम ध्यान में नहीं आता है. आज इस मुबारक अवसर पर हम यही कामना करते हैं कि वे दीर्घायु हों, निरंतर हमें प्रेरणा देते रहें, हिंदी के परिसर विस्तार में योगदान देते रहें. उनके होने में हमारा होना है. उनके शब्दों में हम हिंदी वालों को अपना अक्स दिखाई देता है. 
प्रभात रंजन

मॉडरेटर जानकी पुल 

मुकेश आनंद की कविताएं

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आज मुकेश आनंदकी कविताएं. मुकेश मूलतः विज्ञापन की दुनिया के एक सफल पेशेवर रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी की पढ़ाई करके विज्ञापन की दुनिया में शिखर पर पहुँचने वाले बेहद कम लोगों में वे एक हैं. शब्दों का महत्व समझते हैं और उनको बरतने का कौशल भी. हिंदी के साहित्यिक परिसर के बाहर के कवियों को पढ़ते हुए अक्सर एक तरह की ताजगी का अहसास होता है, एकरसता से मुक्ति का अहसास. कम शब्दों में कुछ कह जाने के शिल्प में रची गई मुकेश की कविताओं को पढ़ते हुए आप कुछ देर सोचेंगे, कहीं चौंकेंगे, कहीं अपने आप में मुस्कुरा उठेंगे. उनके कविता संग्रह 'तुम कभी बूढ़ी मत होना'से कुछ चुनी हुई कविताएं. पुस्तक का आवरण और कविताओं के बीच बीच में प्रयोग किये गए रेखाचित्रों को बनाने वाले कलाकार हैं संजीव साइकिया. पुस्तक में कहीं शब्द मुखर हैं तो कहीं संजीव के रेखाचित्र. एक अच्छी तरह से आकल्पित किताब. किताब मैं रख लेता हूँ आप कविताएं पढ़िए- प्रभात रंजन 
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1.

कल रात फिर
सोया सांकल खड़का गए तुम
कल मैं फिर भागा
उन सपनों के पीछे बेतहाशा
जो उड़ गए हैं
बच्चों के हाथ से
गुब्बारे की तरह

2.

कहीं दूर किसी
नन्हीं जान ने
किलकारी भरी
लगा जैसे
दुबारा जन्मा हूँ मैं

3.
वह चलता है तो
आवाज करते हैं
जूते उसके
कायरों से जब
घबराती है
उतर कर जूतों में
आ जाती है
मुँह की आवाज

4.
जिंदगी के पन्नों पर
मुहरें हैं
नाकाम रिश्तों की
चुक नहीं पाई
उन किश्तों की

5.
आओ एक शाम हम
ऐसे घूमते हैं
झुककर पेड़ जैसे
नदी को चूमते हैं

6.
सरस्वती वंदना
लाखों करोड़ों पड़े हुए
तेरी वरद छाया से वंचित
साधनों के हाथ का
खिलौना बन रह गई तू
पास जिनके दाम तेरा
बस उन्हीं के पास तू

कब तलक जारी रहेगी
यह दुखद कहानी
जाग जाग, हे विद्यापाणी!


सूखे केश रूखे भेस मनुवा बेजान

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सुदीप्ति कम लिखती हैं लेकिन जब भी लिखती हैं, जिस विषय पर भी लिखती हैं कुछ नए बिन्दुओं की तरफ संकेत करती हैं, कुछ नए इंगितों को उठाती हैं. 'रंगरसिया'फिल्म पर उनका यह तब आया है जब फिल्म को लोग भूलने लगे हैं. लेकिन इस लेख को पढ़कर फिल्म की याद आ जाती है. इस फिल्म पर ऐसा विश्लेषणपरक लेख मैंने पहली बार ही पढ़ा. पढ़ा तो सोचा साझा किया जाए- मॉडरेटर 
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‘रंगरसिया’ को लेकर हो रहे आह और वाह से परे भी एक भाव है मेरा, गहरे अवसाद और दुःख का. बॉलीवुड की मसाला फिल्मों के गिरते स्तर से हम सब  वाकिफ हैं लेकिन जब सिनेमा को चाहने वाले, उसके लिए ज़माने के सितम उठाने वाले, सालों इंतज़ार करने वाले ऐसी फ़िल्में बनाएं तो लगता है कि इससे तो बेहतर था कि करोड़ों को गारत कर कोई भी फिल्म बना लेते मगर अपने चाहने वालों पर यह सितम न करते.

इससे पहले कि रंगरसिया के रस में डूबे सिनेप्रेमी मुझे मेरे असंयम के लिए कोसे और कहें कि सीमाओं के साथ ऐसी फिल्मों को स्वीकार करने का धैर्य हमें विकसित करना चाहिए. अब जबकि कोई हमें पूरा नहीं दे रहा तो ऐसे आधे-अधूरे देय को हम अपनी किस्मत माने और सोच लें कि कोई केतन मेहता तो राजा रवि वर्मा के धूल खाते जीवन-चरित को कृतार्थ करने को आगे तो आया. लेकिन, क्या करें कि हमें यह स्वीकार्य नहीं हो पाता. क्या करें कि यह एक सामान्य काल्पनिक कलाकार की भी कथा होती तो कथा, स्क्रिप्ट, संवाद और तार्किकता के धरातल पर ऐसी ही बिखरी नज़र आती जबकि यह तो राजा रवि वर्मा नामक महान कलाकार का सो कॉल्ड बायो-पिक है. पर अपने प्रिय कलाकार को फिर-फिर रचने और उसके आवेगों-संवेगों से गुजरने के लिए खुद अपने भीतर भी उसे जीना होता है. वर्ना जो बनेगा वह बाहरी, ऊपरी और उथला होगा. यों जैसे –“सूखे केश रूखे भेस मनुवा बेजान”. रूखे और सूखे वेश तो सहे जा सकते हैं लेकिन, बेजान होने पर मर्म तक पहुँचना क्या संभव है?  

इस फिल्म को देख मुझे दुःख और निराशा से अधिक क्षोभ हुआ. मेरे क्षोभ  को समझने के लिए आपको पृष्ठभूमि की कहानियों को जानना पड़ेगा. वैसे भी हर फिल्म से जुड़ी दर्शक की अपनी कहानियां होती हैं. यही कहानियां तो एक सिनेमा के दीवाने या सनकी दर्शक को आम से अलगाती हैं. इस फिल्म से जुड़ी मेरी एक नहीं दो कहानियां हैं.  

पहली कहानी:उड़ती-उड़ती खबर सुनी आज से तीन-चार साल पहले कि राजा रवि वर्मा पर फिल्म बन रही है. तो अपने चित्रकार प्रेमी (जिसने जाने क्यों सालों पहले चित्र बनाना छोड़ दिया) की चिट्ठियों से होता हुआ एक नाम कौंधा जो पटना की एक गर्म दोपहर में सिन्हा लाईब्रेरी की अलमारियों से लग कर पढ़ी एक किताब के पन्नों पर खिलता गया था. आज जबकि लगता है कि वह किताब, जो बच्चों के लिए थी, इस बायोपिक से अच्छी थी तो मुझे बार-बार गूगल कर यह पता करने की वह बीती हुई उत्सुकता व्यर्थ लगती है कि रंगरसिया कब आ रही है? आ भी सकेगी कि नहीं?

दूसरी कहानी:मेरे शहर के सिनेमाघरों में यह फिल्म 12:30 दोपहर और 9:45 रात के दो शो में ही लगी थी. दोपहर में नौकरी के कारण जाना नहीं हो सकता तब रात में जाने के लिए चार लोगों को राज़ी किया. कार्यक्रम बनाया और गए तो हॉल वाले ने चलाने से मना कर दिया क्योंकि सिर्फ हम चार ही थे. अगले शुक्र को उतर जानी थी और किसी तरह ढूंढकर हम एक 70 सीटों वाले विडिओ जैसे हॉल में पहुँच गए तो सामने कॉलेज के छोकरों का एक ऐसा ग्रुप था जो हर लिखी इबारत को बोल-बोलकर पढ़ रहा था और जो फिल्म में मौजूद शारीरिक अंतरंगता के दृश्यों की बात सुनकर ही आया था. उनकी बेहूदी बातों, बेतुकी हंसी और मूर्खता भरी हरकतों के बीच देखी इस फिल्म को मेरी साथिनों ने पसंद किया लेकिन मैं उनकी तरह नाउम्मीद नहीं गयी थी. मेरे साथ मेरा उमंग, मेरी कल्पनाशीलता और रवि वर्मा के प्रति मेरा लगाव भी गया था. और लब्बोलुआब यह है कि मैं छली गयी और रीते हुए वापस आई.

वास्तव में, यह फिल्म अगर फिल्म न होती एक कोलाज़ होता, एक कैनवस होता जिसपर रंगों की कूची फिर रही है, अगर स्लाइड शो होता जिसमें हम रवि वर्मा के चित्रों और उस समय की वास्तुकला की भव्यता देख रहे हों, सुन्दर सिनेमेटोग्राफी का गतिमय चित्र या पॉवर पॉइंट प्रदर्शन भर होता तो मुझ से ज्यादा खुश कोई नहीं होता.

वैसे कायदे से तो मुझे दुखी भी नहीं होना चाहिए क्योंकि मैं जो हूँ सिनेमा में दृश्यों की चाह रखती हूँ और उन्हें ही बेहद करीब से देखती हूँ. फिर तो मेरे लिए तो बहुत कुछ है फिल्म में. केरल और बम्बई दोनों में खूबसूरत रंग संयोजन से भरे सुन्दर प्रकृति और देह के चित्र. लेकिन, क्या करें कि फिल्म सिर्फ चित्र और दृश्य नहीं है. उसमें कहानी, तार्किकता, संवाद और अभिनय के साथ चरित्र के प्रति न्याय भी होना चाहिए. शोध की कमी के साथ-साथ निर्देशक राजा रवि वर्मा के चरित्र की दृढ़ता को भी नहीं समझ पाया है. बाकि उसने कला, धर्म और उसकी राजनीति को बेहद सशक्त तरीके से उठाया है. व्यापारी धर्म बेचता है और उसी धर्म की दूकान से कई अपनी राजनीति चमकाते हैं. आपके धर्म और संस्कृति ने आपको ऐसी उदात्त और बहुअर्थी कहानियां दीं, जो कुछ की चित्रों में आते ही अधिकतर के लिए अश्लील हो उठती हैं. उस धर्म और संस्कृति पर आपको खूब गर्व है पर उन कहानियों की हकीकत देख आपका ही धर्म आहत हो उठता है. क्या विडम्बना है और कैसा मज़ाक है.

वास्तव में, एक ही चीज़ को फिल्म में ज़ोरदार तरीके से उठाया गया है. वह है  धार्मिक संकीर्णता और कला की आज़ादी का सवाल. लेकिन, इस सवाल से जूझता  एक कलाकार कोर्ट में पूरी तरह बेबस और कमज़ोर नज़र आता है. हम जिस रवि वर्मा को जानते हैं वे कोर्ट में अंतिम दिन बेबसी में मेलोड्रामा करते नहीं बल्कि अपनी ठोस दलीलों और मजबूती से जीते थे. यह फिल्म वास्तविक राजा रवि वर्मा को नहीं दिखाती जैसे ‘जोधा-अकबर’ या ‘महाराणा प्रताप’ जैसे ऐतिहासिक चरित्र-प्रधान धारावाहिक वास्तविक चरित्रों को नहीं उनका काल्पनिक और नाटकीय रूप दिखाते हैं.

फिल्म रंजीत देसाई के उपन्यास ‘राजा रवि वर्मा’ के आधार पर बनी है और लेखक-निर्देशक रचनात्मक छूट लेने के लिए स्वतन्त्र भी है. परन्तु हम जैसे ‘रवि वर्मा के प्रेमी’ भारतीय कला के पितामह को नहीं एक प्लेबॉय को देख निराश होते हैं. याद कीजिए फिल्म से सफलता के नशे में आँखों पर पट्टी बांध रासलीला में डूबे रविवर्मा का चित्र जब उसे अपने महाराज के देहांत की खबर मिली. मुझे तो वह दृश्य वाकई अश्लील लगा. एक कलाकार की गरिमा का हनन और उसकी योग्यता की जगह उसके बिस्तर पर झांकते पेपराज़ी और इसमें क्या फर्क? जहाँ प्रेम, कला और देह मिल गए वह सारे दृश्य अविस्मरणीय है लेकिन जहाँ कला भोग का साधन बस है वहाँ एक स्त्री क्या पाती है और एक दर्शक क्या सोचता है?

दरअसल निर्देशक इस कलाकार के विभिन्न पक्ष दिखाने में बिखर गया है. उससे यह चरित्र संभाला नहीं गया है. कलाकार स्वभावत: भावुक होते हैं, रोमानी भी. पर रवि वर्मा सिर्फ भावुक और कामुक होते तो उनका योगदान इतना बड़ा न होता. उन्होंने कला को आम जनता तक पहुंचा दिया, उन्होंने मनुष्य रूप में अवतारी देवों को मानव शक्ल दी जिस पर सवाल उठे, मुकदमे हुए. लेकिन, उनको सार्वजानिक मंदिरों से निकलकर घर-घर के मंदिरों तक पहुँचाने वाले रवि वर्मा का ज़िक्र भर है जबकि अपनी हर मॉडल से काम-क्रीडा रत रवि वर्मा पर निर्देशक की पकड़ ज्यादा है. फिल्म में धर्म रक्षा समिति के सचिव चिंतामणि जी अपने लठैतों के साथ उनसे पूछते हैं कि देवता तो मंदिर में होते हैं और उनका का चित्र बनाने की इजाजत उसे किसने दी? तो वाकई जिसने  देवताओं को मंदिर की चारदीवारी से बाहर निकाला और किसी धमकी की परवाह न की उस लोकतांत्रिक कलाकार को कितना ही कम हम देख पाते हैं इस फिल्म में.

फिल्म में रवि वर्मा से अधिक मानवीय और मज़बूत चरित्र कोई उभरता है तो वह उनके भाई राज वर्मा का. फिल्म के शुरूआती दृश्यों में ही हम देख लेते हैं कि वह रवि वर्मा की ढाल की तरह है. लेकिन, क्या ढाल ही? क्या वह उसको थाम लेने वाली दीवार, उसे ठौर देने वाली ज़मीन नहीं? वैसे तो दो भाईयों का खूबसूरत-सा रिश्ता नज़र आता है लेकिन इसकी खूबसूरती उधड जाती है, जब हम सामंती और संयुक्त परिवार की उस परंपरा को देखते हैं, जिसमें छोटे को अपने को होम कर देना होता है. ऐसा नहीं है कि रवि को भान नहीं है कि उसके भाई में भी असीम संभावनाएं हैं. एक जगह वह स्वीकारता भी है कि मेरे कारण तुम सिर्फ बैकग्राउंड पेंटर बन कर रह गए. एक बार चित्रकला की एक प्रतियोगिता में जब दोनों के चित्र गए तब पुरस्कार राज को मिला. ऐसे में कई बार लगता है कि बरगद का पेड़ जैसे अपने आस-पास किसी और पौधे को भले ही पनपने दे पर एक सुदृढ़ आकार नहीं लेने देता उसी प्रकार एक बड़े कलाकार के पास कोई दूसरा उतना बड़ा नहीं हो सकता. सवाल भी उपजता है कि क्या कलाकार अपने प्रिय जनों से सिर्फ आहुति ही लेता है? जिन चित्रों में राज की भी पूरी ज़िन्दगी की मेहनत लगी थी उनको गिरवी रखने से पहले क्या उससे सलाह की जाती है? जिस प्रिंटिंग प्रेस में उसकी भी सारी पूंजी लगी थी क्या उसे अपने विदेशी मित्र को दान में देते उदार रवि ने अपने भाई के बारे में सोचा? खैर, राज का चरित्र यह बताता है कि उसके बिना रवि का जीवन और उसके चित्र ऐसे सुन्दर न होते और हर ऊँची इमारत की नींव ऐसे ही सच्चे और मासूम लोगों से मजबूत बनती है.

अभिनय की बात करें तो रणदीप हुडा ने कहीं-कहीं अच्छा काम किया हैं. खासकर दैहिक प्रेम और समागम के दृश्यों में. काश यह सीखने के साथ कि स्त्री देह पर रंग कैसे उकेरा जाता है किसी चित्रकार को लम्बे समय तक देख यह भी सीख पाए होते कि चित्र बनाने की भंगिमा कैसी होती है. मुझे तो चित्र उकेरते समय कूची पकड़ने से लेकर बनाने तक की उनकी देहयष्टि अपनी मॉडल को रिझाने वाले नर की ही लगती है. नंदना को जहाँ भी अभिनय करने का मौका मिला है आखिरी दृश्यों को छोड़ वे निष्प्रभाव रही हैं जबकि जहाँ प्रेम और सौन्दर्य का प्रदर्शन करना है वहां वे अद्भुत रूप से कुशल हैं. उनकी इस बात के लिए तो तारीफ करुँगी कि देह को खोलने के वे सारे दृश्य जो इतने उदात और सुन्दर बन पड़े हैं, वे उनकी सुन्दरता ही नहीं उस खुलेपन को निर्दोष बेबाकी से, मुक्ति के भाव से सहजता से स्वीकारने के कारण है. नंदना जब पहली बार उर्वशी बन अपना एक वक्ष खोल खड़ी हो जाती हैं उज़बक जैसे युवा लड़कों के बीच भी वहां हमें कोई झिझक महसूस नहीं होती क्योंकि वह शरीर का खुलापन नहीं भाव मुग्धता, कला और सौन्दर्य का खुलापन था. इस लिहाज से मुझे वे रणदीप जैसे मंजे अभिनेता पर भारी दिखती हैं लेकिन जैसे ही संवाद अदायगी की बारी आती है मुझे उनपर और निर्देशक दोनों पर खीझ होती है. महाराष्ट्रीयन मॉडल ढूंढना इतना भी तो मुश्किल नहीं था न जो थोड़ा अभिनय भी कर लेती. खैर.  
      
अब इन सारे अभावों के बाद भी दो-तीन दृश्यों के लिए फिल्म मैं दुबारा देख सकती हूँ तो उन्हीं दृश्यों की बात करूँ. कुछ भी पूरा नहीं मिलता और जो बुरा है उसमें भी कुछ अच्छा हो सकता है की तर्ज़ पर नहीं जो वास्तविक रूप से है मैं उसकी बात कर रही हूँ.

‘कामिनी’ जो नायर स्त्री की मशहूर पेंटिंग की मॉडल है, वह अछूत-स्त्री है. आश्चर्य होता है कि राजकुमारी पत्नी को अछूत होने के कारण उसके साथ के मेल-जोल पर आपत्ति है ना कि उसके साथ दूसरी तरह के अन्तरंग संबंध के कारण. क्या तत्कालीन समाज में स्त्रियाँ बिना विरोध के सहजता से ऐसे संबंधों को स्वीकार लेती थीं? वह भी तब जब पति की तुलना में सामाजिक हैसियत में ऊँची हों? तार्किक तो नहीं ही लगता है. फिल्म में दिखाया गया है कि चित्रकार तो संन्यासी की भांति अपनी कला-साधना में लगा है जबकि कामिनी स्वयं ही उसे आमंत्रण देती है देह-भोग का. जो भी हो, वहां प्रेम का, राग का आमंत्रण नहीं है पर देह-नेह से उपजे राग-रंग का सुन्दर दृश्य है.

सुदूर दक्षिणी तट पर पछाड़ें खाता समन्दर, उसकी लहरों से चोटिल और भींगी लाल चट्टानें फिर उनके किनारे जलती आग और एक-दूसरे में लीन प्रेमी-युगल. मानो आग देह की है, उत्तेजित लहरें आवेग की हैं और सपनों की खुरदरी पर कलात्मक चट्टानों पर दो खूबसूरत लोग केलि में डूबे हैं. अद्भुत सुन्दर दृश्य था. मोहक. कामना और देह के लाल रंग पर कलात्मक सफ़ेद वस्त्रों में लिपटे कामिनी और रवि वर्मा. लालसा का वह मुक्ताकाश कम ही देखने मिलता है हमारी फिल्मों में.

दूसरा दृश्य बम्बई का है. झूले पर सुगंधा बैठी है, दूर क्षितिज पर सूरज डूब रहा है, पूरे आसमान को उसने अपने रंग में डुबा लिया है. गहरे लोहित रंग का आसमान सुरमई होने लगा है और फिर जाने कितने ज़ोर से झूलते हुए सुगंधा आसमान की बुलंदी पर पहुँच जाना चाहती है. आज रवि उसे रोक लेना चाहता है पर वह तो साँझ ढलने के बाद रुक ही नहीं सकती न. रवि उसे एक टापू पर ले जाना चाहता है जहाँ चारों ओर सिर्फ सुगंधा ही हो और कोई नहीं. स्त्री को    

डर है कि कोई उसका टापू खोज लेगा. पुरुष की कामना और स्त्री का डर इस दृश्य की जान है.

अगर आप सोचें तो लगेगा कि जिस स्त्री को पाए बिना कलाकार का जीवन अधूरा था, कला अपूर्ण थी, जिसे वह सबसे दूर ले जाना चाहता था उससे सब पाकर, उसका सब कुछ निचोड़कर एक दिन कहता है कि मैंने तुम्हे मजबूर नहीं किया था. उस दिन वह उसे झटक देता है कि मेरी कल्पना के बाहर तुम हो ही नहीं. मेरे भीतर की स्त्री चीखकर कहना चाहती है कि जब वह प्रेरणा और कल्पना भर ही थी तो उसे कामना के बिस्तर पर तुम क्यों लाए? जब वह तुम्हारी कलात्मकता की भूख को स्वेच्छा से देह के बंध खोल पूरा कर देती है तब तुम्हारे भीतर प्रेम, भोग और समागम की आकांक्षा जगती है जिसमें वह अपनी इच्छा से शामिल है, पर जब वह चौराहे पर बेईज्जत की जाती है तो तुम उसे छोड़ देते हो क्योंकि कल्पना का बहाना कर.

सखी कलावंती जी फिल्म देखकर इतनी उद्विग्न हुई कि उन्होंने फोन किया मुझे और उनका कहा मैं भूल नहीं पाती कि, “जिस चेहरे पर देवी दिख गयी, जिसपर प्रिय का समर्पण दिखा, उसपर तुम्हें आसन्न मृत्यु की परछाई न दिखी? कैसे कलाकार थे तुम? तुम्हारा कहना था कि जीवन कला से सुन्दर होना चाहिए. तो पंखे से लटकती सुगंधा का शरीर जो दृश्य बना रहा था वह तुम्हारे किसी भी चित्र से ज्यादा मार्मिक था. उकेर लेते उसे भी.” इन बातों को सुन मेरे भी कई अनुतरित सवाल उठते है कि क्या वाकई राजा रवि वर्मा ऐसे थे? उनकी महाराष्ट्रियन मॉडल उनकी प्रेमिका भी थी पर क्या उसने फिल्म के जैसे नाटकीय अंत को चुना था? मैंने तो नहीं पढ़ा. पर सबकुछ क्या मेरे पढ़ने के दायरे में ही है? यह फिल्म क्या वाकई एक कलाकार को सामने लाती है? क्या वह इतना निष्ठुर और स्वार्थी होता है? क्या स्त्री की सुन्दरता को चित्र में देखते लोग उसके असल जीवन को कभी सुन्दर रहने देते हैं? जिस प्रकार पुरुषों को ऐसी कई प्रेरणाओं की जरुरत पड़ती है क्या कलाकार स्त्रियों को भी? स्त्री प्रेम, कला और जीवन सबमें छली ही क्यों जाती है? अगर ऐसा है तो बेहतर हैं मेरा बिना प्रसिद्ध हुए मर जाना पर किसी को बुलंदी पर पहुँचाने का माध्यम बनने से.

सवालों से फिर दृश्यों पर आते हैं. कुछ और दृश्य अच्छे बन पड़े हैं. जैसे, सीढ़ियों पर बिलखती सुगंधा जो मोह के भरम से निकल कला के कंटीले यथार्थ को देख रही थी, देश की विविधता को निरखता-परखता कलाकार जो मसान साधने भी निकल पड़ा है ( हालाँकि मुझे मकबूल फ़िदा हुसैन याद आये जो जयपुर की गलियों में होली के दिन रिक्शे पर निकलते थे), उर्वशी-पुरुरवा की कथा सुन उनकी त्रासदी पर मोहित सुगंधा का आँचल खोल खड़े होने की गरिमामय भंगिमा और उन-दोनों के समागम में बिखरे हजारों रंग.

अंत में:फिल्म की एक ही ज़ोरदार आवाज़ है जिसकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकती. वह है धार्मिक कठमुल्लों द्वारा सौ साल पहले भी कला को न समझ उसकी तौहीन करने से लेकर उसे नुकसान पहुँचाना और आज भी अश्लीलता, अनैतिकता और धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाने के नाम पर, हजारों साल पुरानी संस्कृति के नाम पर कला और अभिव्यक्ति का दमन करना. फिर हिन्दू तो जाने किस कछुआ धर्म को मानते हैं जिसके अंतर्विरोध समझन भी आसान नहीं. इनकी हजारों साल पुरानी कहानियाँ कुछ और कहती हैं, उनकी उन्मुक्तता और उनका खुलापन किसी और तरफ इशारा करता है जबकि रक्षकों की संस्कृति कुछ और ही है. अगर आज की संस्कृति के नाम पर धर्म रक्षा में लगे हैं तो कृपया हजारों सालों की कसमें न खाएं. क्योंकि इन हजारों सालों में जाने किन कुंठाओं में आपने अपनी थोड़ी खुली संस्कृति को जब्दी हुई बना डाला है. या फिर देवदत पटनायक की बात को मैं अपनी तरह से कहूँ तो दरअसल अधिकांश हिन्दू अपनी परंपरा का सही बोध नहीं होने के कारण और पाश्चात्य विचारकों की पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर की गई व्याख्याओं को उपयुक्त न मानने के कारण अपने ही संस्कृति प्रतीकों को नकारने लगते हैं, उसे उनपर शर्म आती है और जो राजनीति से प्रेरित होते हैं वे हिंसात्मक भी हो जाते हैं. इससे कला, साहित्य और संस्कृति सबकी स्वतंत्रता और सुन्दरता नष्ट होती है.

'पाखी'से साभार 

बर्बाद जीनियस थे(हैं) ब्रजेश्वर मदान

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ब्रजेश्वर मदानको मैं तब से जानता था जब डीयू में पढ़ते हुए फ्रीलांसिंग शुरू की थी. दरियागंज में 'फ़िल्मी कलियाँ'के दफ्तर में उनसे मिलने जाया करता था. वे उसके संपादक थे. मनोहर श्याम जोशी से जब बाद में मिलना हुआ और उनसे एक गहरा नाता बना तो वे कहते थे कि ब्रजेश्वर मदान स्वाभाविक जीनियस है. वे आज भी हैं लेकिन हमारी स्मृतियों से दूर हो गए हैं, जाने कहाँ. लेखक शशिभूषण द्विवेदीका यह संस्मरण पढ़ा तो एक ज़माना याद आ गया जिसे भूले एक ज़माना हो गया था. शशिभूषण ने बहुत प्यार से लिखा है. उस सम्मान के साथ जिसके वे हमेशा हकदार थे. हैं. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन 
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पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अजीत कौर ने एक बार एक गोष्ठी में सार्वजनिक रूपसे कहा था कि पूरे दक्षिण एशिया में जीवित महान लेखकों में इंतिजार हुसैन के बादअगर कोई दूसरा है तो वो हैं ब्रजेश्वर मदान। हो सकता है कि अजीत कौर की बातमें कुछ अतिश्योक्ति हो लेकिन मदान साहब कई मामलों में अनोखे लेखक तो हैंहीं।हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में वे समान रूप से मकबूल हैं, बल्कि उर्दूमें तो शायद हिंदी से कुछ ज्यादा ही। वे दोनों हाथों से एक साथ लिख सकते हैं-एक हाथ से हिंदी में तो दूसरे से उर्दू या पंजाबी में। हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी के वे समान रूप से विद्वान हैं। लेकिन लेखन की दुनियामेंजब मैं आया तो ब्रजेश्वर मदान को जानता तक नहीं था। मगर जब जाना तब मैं उनकादीवाना हो गया। आगे बढऩे से पहले मैं बता दूं कि अभी हाल ही में मैंने कनॉट प्लेस की अंग्रेजी किताबों की एक दुकान में एक किताब देखी जिसमें हिंदी कीकुछअनूदित कहानियां थीं जो  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का प्रतिनिधित्व करती थीं। इस किताब को बेस्ट सेलर का दर्जा हासिल है और यह शायद हार्पर कालिंस यापेंगुइन से छपी है(प्रकाशक का नाम अब ठीक-ठीक याद नहीं)। इस किताब में हिंदीके जिन लेखकों को प्रतिनिधि लेखक माना गया उनमें-प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, मोहन राकेश, कमलेश्वरस्वदेश दीपक और ब्रजेश्वर मदान हैं।

इस किताब में मदान साहब की कहानी लेटर बॉक्सहै। इसी नाम से उनका एकसंग्रहभी है जो हिंदी के एक गुमनाम प्रकाशक ने छापा है और अब शायद आउट ऑफ प्रिंटहै।मदान साहब के अनुसार यह प्रकाशक दरअसल उनका मित्र है (भले ही उसने उनकाकितनाही शोषण किया हो)। मदान साहब की ज्यादातर किताबें ऐसे ही गुमनाम प्रकाशकों ने छापी हैं जो शराब के नशे में उनके दोस्त बन गए। अजीब बात है कि बाद में जब मैं और प्रभात रंजन उनके संपर्क में आए और हमने चाहा कि उनकी किताबें बड़े प्रकाशकों के यहां से ढंग से छपकर आएं तो  उन्होंने इंकार कर दिया। उनका कहना था कि यार, दोस्ती भी कोई चीज होती है’, जबकि इन किताबों के लिए उन्हें बाजार दर से ज्यादा पैसे देने की बात हो चुकी थी। प्रभात गवाह हैं। मगर मदान साहब टस-से-मस नहीं हुए। उन दिनों मैं मदान साहब के साथ दिन-रात रहता था और प्रभात ने यह जिम्मेदारी मुझे दी थी कि मैं मदान साहब को मना लूं। लेकिन लाख कोशिश के बावजूद मैं उन्हें नहीं मना सका। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी असफलता है।

उन दिनों मदान साहब मुझे अपना बेटा मानते थे और अपनी वसीयत मेरे नाम करने को उतावले थे। हालांकि यह सब शराब के नशे में होता था। ऐसी हालत में अक्सर वे मुझसे कहते कि यार, सुनील दत्त के पास तो इतना पैसा था कि संजय दत्त का इलाज उसने लंदन में करा लिया। मैं तो अपना सब कुछ बेच-बाच भी दूं तो भी तेरे लिए इतना पैसा नहीं जुटा सकता।और मैं सोचता कि मेरे पास तो इतना पैसा भी नहीं कि  इसी शहर में आपका इलाज करा सकूं। यानी हम दोनों बाप-बेटे एक दूसरे के इलाज के मुताल्लिक सोचते रहते और यह सब नशे में होता था। होश में आते ही वे मुझे हरामी कहते और मैं उन्हें। हालांकि हमारी उम्र में कम-से-कम तीस-चालीस साल का अंतर  था।
लेकिन ये रिश्ता बहुत गहरा था। इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने नौकरी बदल दी और उनसे दूर चला आया। दो-तीन महीने बाद ही पता चला कि मदान साहब को फालिस का अटैक पड़ा है और उनका दायां हिस्सा पूरी तरह बेकार हो चुका है। मैं उन्हें देखने जाना चाहता था लेकिन पता नहीं था कि वे कहां हैं। चूंकि अपने घर में वे अकेले थे और फालिज के अटैक के  बाद अपने किसी रिश्तेदार के यहां चले गए थे। यह खबर मिलते ही मैंने प्रभात  को फोन किया। न प्रभात न मेरी हिम्मत पड़ी इस अपाहिज हालत में उन्हें देखने की।  वे हमारे हीरो थे और अपने हीरो को हम अपाहिज नहीं देख सकते थे। इस दौरान कवि चंद्रभूषण और रंजीत वर्मा से उनकी खोज-खबर मिलती रही। हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाए। हिंदी के कई धुरंधरों और मठाधीशों को उनके बारे में बताया तो उन्होंने  भी कोई रुचि नहीं ली। क्यों लेते? अब उनसे उन्हें कोई लाभ जो नहीं था। यूं भी मदान साहब जिंदगी भर इन लोगों को अंगूठा दिखाते रहे। उनकी ज्यादातर क्लासिक कहानियां बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में नहीं छपीं। अधिकांश कहानियां तो फिल्मी कलियांमें छपीं जिसके वे अघोषित संपादक थे और जिसका मालिक उन्हें रोज वेतन की जगह शराब की एक बोतल पकड़ा देता था। उन्होंने बताया था कि मुद्राराक्षस से उनकी दोस्ती फिल्मी कलियांमें छपी उनकी एक कहानी के जरिए ही हुई। जाने क्यों वे मुझे बहुत जहीन और पैदाइशी किस्सागो मानते थे और इस  बात को अपने उस बेटे से जोड़ लेते थे जो जन्म के चार-छह महीने बाद ही गुजर गया था।  वे अक्सर कहते कि अगर मेरा बेटा जिंदा तो बिल्कुल तेरे जैसा होता। उन दिनों नशे में वे अक्सर मुझे बहुत सारी किताबें डांट-डांट कर पढ़ाते थे। उनकी दी हुई बहुत सी किताबें आज भी मेरे पास हैं जिनमें हेनरी मिलर की ट्रॉपिक ऑफ कैप्रिकॉनखास है।

खैर...उनके बेटे से जुड़ी कहानी सचमुच बहुत दुखद है। मदान साहब की जिंदगी की सबसे बड़ी ट्रेजडी। महज बीस-पच्चीस रुपये न होने की वजह से उनका बेटा 30-३५ साल पहले बीमारी में बिना इलाज के मर गया। इस सदमे कोउन्होंने तो जैसे-तैसे बर्दाश्त कर लिया लेकिन उनकी पत्नी नहीं कर पाईं और सारी जिंदगी के लिए साइकिक हो गईं। उस बेटे के कपड़े और मोजे तक उन्होंने संभाल कर रखे थे और उन्हें देखकर अक्सर वे मदान साहब की लानत-मलामत करती थीं। उनका मानना था कि उनके बेटे की मौत के जिम्मेदार मदान साहब ही हैं। यह सब तो  मेरा अपना देखा हुआ है। मदान साहब उनकी बात चुपचाप सुनते रहते और उनका कुछ ज्यादा ही खयाल रखने लगते। हालांकि ये बहुत बाद की बात है।

मदान साहब को शराब की लत थी और यह सब उनकी जिंदगी के भयानक दुखों के बायस था। ये दुख इतने बड़े थे कि मैं उन्हें लिख नहीं सकता और लिख दूं तो कोई समझ नहीं पाएगा। जिंदगी में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो कही नहीं जा सकतीं। मदान साहब से मेरा संबंध सहारा समय और राष्ट्रीय सहारा में नौकरी के दौरान ही बना। इस दौरान उन्हें उसी एक चीज से अरुचि हो गई थी जिसने उन्हें इतनी शोहरत दी यानी फिल्मी लेखन। मनोहर श्याम जोशी को मदान साहब अपना गुरु मानते रहे हैं और प्रभात बताता है कि जोशीजी कहा करते थे कि पूरे दक्षिण एशिया में फिल्म की ऐसी समझ रखने और उस पर लिखनेवाला मदान से बेहतर कोई नहीं। और यह सच भी है। उनकी किताब सिनेमा: नया सिनेमाइसका सबसे बड़ा प्रमाण है।

मदान साहब को फिल्म लेखन के लिए हिंदी में पहला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। यह सम्मान उन्हें तब मिला था जब राष्ट्रीय पुरस्कारों में आज की तरह तीन-तिकड़म नहीं चलते थे। विष्णु खरे और विनोद भारद्वाज तो एडिय़ां घिसते रहे और आज तक यह सम्मान हासिल नहीं कर पाए। लेकिन मदान साहब को कभी इस बात का अहंकार नहीं हुआऔर न उन्होंने इसका कोई लाभ ही उठाया। उन्हें तो इसी में खुशी थी कि यह  पुरस्कार उन्होंने अपनी बीवी के साथ लिया और उस समय वह बहुत खुश थी। पत्नी  की  मौत के बाद वह चित्र जिसमें वे उनके साथ वह पुरस्कार ले रही हैं और बहुत खुश हैं, मदान साहब ने अपने सिरहाने रखा हुआ था। उनके तकिए के नीचे हमेशा फिल्म  अभिनेत्री माला सिन्हा का चित्र रहता था। एक जमाने में माला सिन्हा से उनका  प्रेम चला था, शायद एकतरफा। हालांकि उनके नाम माला सिन्हा के कई भावभीने पत्र मैंने खुद देखे हैं। एक पूरी एल्बम थी जिसमें वे माला सिन्हा के साथ हैं या उनकी बेटी को गोद में खिला रहे हैं (जो अब खुद भी फिल्म अभिनेत्री है।) माला सिन्हा के बारे में वे अक्सर कहते कि इस औरत ने मुझे बर्बाद कर दिया। दरअसल माला सिन्हा के चक्कर में उन्होंने बहुत पापड़ बेले थे। बीए करने के बाद माला सिन्हा के एक परिचित के यहां ट्यूशन पढ़ाया और फिर फिल्मों की दीवानगी के चलते घर (स्यालकोट) से भागकर दिल्ली चले आए। दिल्ली में कोई ठिकाना नहीं था सो फिल्मी कलियांऔर दूसरी फिल्म पत्रिकाओं में बेगारी की। शायद फिल्मी कलियांमें ही उन्होंने माला सिन्हा पर कोई लेख लिखा था जिसे पढक़र माला सिन्हा ने उन्हें पत्र लिखा और मिलने के लिए बंबई बुलाया। वे अचानक सब कुछ छोड़-छाडक़र बंबई चले गए। माला सिन्हा मिलीं और भी बहुत से लोग मिले।

राजकपूर,दिलीप कुमार और भी उस जमाने के जाने-माने लोग। मणि कौल और कुमार साहनी बाद में उनके दोस्त ही बन गए। इसके बाद से ही वे पूरी तरह फिल्म के हो गए। लेकिन फिल्म उनका पहला प्यार नहीं था। वह मजबूरी का काम था। उनका पहला प्यार तो साहित्य था। लेकिन साहित्य से उन्हें पैसा नहीं मिल सकता था। पैसा मिलता था फिल्म लेखन से। नौकरी उन्होंने कभी की नहीं। की भी तो एकाध साल के लिए जब वे रिटायरमेंट की उम्र में पहुंच गए थे। हिंदी में उनके जैसा होलटाइमर फ्रीलांसरमैंने नहीं देखा। पहले होते होंगे तो नहीं जानता। मदान साहब ने जो कुछ पाया-कमाया सिर्फ लेखन से ही। इसके अलावा उन्होंने कभी कुछ और किया-मैं नहीं  जानता। एकबार उन्होंने किसी और के जरिए अपना एक ब्लॉग भी बनवाया था जिस पर लिखा था-नौकरी कभी कभार, चाकरी कभी नहीं की।

मंटो और अहमद नदीम कासमी उनके प्रिय लेखक हैं। कासमी तो उनके दोस्त ही थे। कासमी के तमाम संस्मरण अक्सर वे मुझे सुनाते थे। सिर्फ लेखन के दम पर ही उन्होंने नोएडा में इतना बड़ा बंगला बनवाया जिसमें पत्नी की मृत्यु के बाद वे भूत की तरह अकेले भटकते रहते थे। शक्की बहुत थे। जब तक पत्नी जिंदा थीं उन्हीं के हाथ का बना खाना खाया। उसके बाद अपनी साली के हाथ का बना खाना भी उन्होंने कभी नहीं खाया। उन्हें शक था कि ये लोग उन्हें जहर दे देंगे। हालांकि मदान साहब के इस शक या फोबिया के पीछे कुछ तथ्य भी हैं। दरअसल, प्रापर्टी के  चक्कर में उनके तमाम रिश्तेदार उनके पीछे पड़े हुए थे। उन्हें डर था कि ये लोग इस चक्कर में उनकी जान ले लेंगे। लेकिन जिंदगी अजीब है। जिस संपत्ति के लिए वे इतने सशंकित थे, फालिज के अटैक के बाद अब वे उसे ही छोडक़र किसी और के यहां पड़े हुए हैं। खैर...

एक जमाना था जब हम लोग ऑफिस के बाद शाम सात बजे नोएडा सेक्टर-१२ की मार्केट में होते थे। पूरी मार्केट में हर दुकानदार उनका परिचित था और उनकी बहुत इज्जत करता था। उनमें बहुत से लोग उनके पाठक भी थे। एक कसाई और एक कपड़े की दुकान  वाले को तो मैं खुद जानता हूं जो उनका लिखा जरूर पढ़ते थे। वहां शराब की एक शानदार दुकान है जो शाम को उनका स्थाई अड्डा हुआ करती थी। उस दुकान का मालिक उनका पाठक था और उनकी बहुत इज्जत करता था। चूंकि मदान साहब घर पर नहीं पीते थे (क्योंकि उनकी पत्नी को यह पसंद नहीं था) इसलिए उसने दुकान में ही उनके लिए  विशेष इंतजाम कर रखा था। मैंने आज तक कहीं और कभी नहीं देखा कि शराब की दुकान पर किसी का उधार खाता चलता हो। लेकिन उस दुकान पर मदान साहब का उधार खाता  बाकायदा चलता था। मैंने खुद उनके खाते से कई बार उधार शराब ली है। इसका एक कारण तो मदान साहब के प्रति उन लोगों की श्रद्धा थी। दूसरा यह कि मदान साहब पे मास्टर थे। ज्यादा दिन वे किसी का उधार नहीं रखते थे और बिना किसी हिसाब-किताब के सबको खुश रखते थे। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मदान साहब कोई शाहखर्च थे। कई बार वे कमीनगी की हद तक कंजूस हो जाते थे। मैंने देखा है कि कई बार उन्होंने बहुत जरूरतमंदों को भी जलील करके भगा दिया। हो सकता है कि इसके पीछे कुछ और कारण हों जिन्हें मैं नहीं जानता। अकारण तो वे किसी को बेइज्जत नहीं करते थे। कई बार फिल्म वालों को मैंने उनकी चिरौरी करते भी देखा है लेकिन उन्होंने उन्हें डांट कर भगा दिया। उन दिनों उन्हें फिल्मों से चिढ़ हो गई थी। यहां तक कि टीवी से भी उन्हें नफरत थी। उनके घर पर एकाध बार मैंने उनका टीवी चला दिया तो वे भडक़ गए और बोले इस इडियट बॉक्सको उठाकर बाहर फेंक दे। लोगों को इस मीडियम की कोई समझ नहीं है। टीवी में सब बेवकूफ भरे हुए हैं। मैं उनका मूड देखकर खमोश बैठा रहा।

एक बार की बात है। युवा कथाकार और नया ज्ञानोदय के सहायक संपादक कुणाल सिंह नए-नए दिल्ली आए थे और लोदी कालानी की एक बरसाती में रहते थे। उन्हीं दिनों अजीत कौर की संस्था की तरफ से साउथ एक्स में मदान साहब का कविता-पाठ रखा गया। आमतौर पर मदान साहब नोएडा से बाहर कहीं नहीं जाते थे लेकिन अजीत कौर के प्रस्ताव को वे ठुकरा नहीं पाए और मुझे लेकर वे वहां कविता पाठ के लिए गए थे। यह कवि गोष्ठी काफी सफल रही थी और अजीत कौर ने उसी गोष्ठी में मदान साहब के लिए दक्षिण एशिया में इंतजार हुसैन के बाद दूसरा जीवित महान लेखकवाला वक्तव्य दिया था। गोष्ठी के बाद हम लोगों ने मदान साहब के सम्मान में एक पार्टी का आयोजन किया था। यह पार्टी अजय नावरिया की दलित साहित्य अकादमी की तरफ से थी जिसका दफ्तर कुणाल की बरसाती के ठीक बगल में था। पार्टी में हम तीन-चार लोग ही थे। युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय, मैं, अजय नावरिया और मदान साहब। पार्टी जब उरूज पर पहुंची तो अचानक हरेप्रकाश को एक बदमाशी सूझी।

दरअसल,हरे प्रकाश मदान साहब की कंजूसी की कई वारदातें झेल चुका था और उनसे बदला लेना चाहता था। सो हरेप्रकाश और अजय ने वहीं बैठे-बैठे एक योजना बना डाली जिसमें जाने-अनजाने मुझे भी शामिल कर लिया। हरेप्रकाश ने रोनी सूरत बनाकर मदान साहब को बताना शुरू किया कि बगल के ही कमरे में कुणाल सिंह तीन दिन से बीमार पड़ा है। उसके पास खाने तक के पैसे नहीं हैं। शहर में उसे कोई जानता तक नहीं। नौकरी भी नई-नई है, वहां से भी फिलहाल उसे कुछ मिलने की उम्मीद नहीं। हम लोग भी बेरोजगार हैं और शहर में नए-नए हैं। हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे। कुणाल बहुत प्रतिभाशाली लेखक है, उसके लिए कुछ करना चाहिए आदि-आदि। यह सब हरेप्रकाश ने इतने भावुकतापूर्ण अंदाज में कहा था कि मदान साहब भी भावुक हो गए और कहने लगे कि मैंने भी इस शहर में बहुत पापड़ बेले हैं बेटे, चल उसके पास चलते  हैं,जो हो सकेगा किया जाएगा। और हम सब मदान साहब के साथ कुणाल की बरसाती में आ गए।

कुणाल बिस्तर पर लेटा कुछ पढ़ रहा था। कमरे की हालत अस्त-व्यस्त थी और उसे देखकर लगता था कि सचमुच उसकी हालत बहुत दयनीय है। मदान साहब उसके बिस्तर पर बैठ गए और जेब से फौरन हजार का नोट निकालकर जबरदस्ती उसे देते हुए बोले,बेटे, चिंता मत कर, मैं तेरे पिता की तरह हूं। इस शहर में तू खुद को कभी  अकेला मत समझना। कोई भी जरूरत हो, सीधे मुझसे कहना।कुणाल की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि आखिर माजरा क्या है। हम लोगों ने कुणाल का मदान साहब से परिचय कराया और आंख मारते हुए कहा कि अब चिंता की कोई बात नहीं कुणाल। मदान साहब तो तुम्हारे पिता की तरह हैं। प्यार से दे रहे हैं, रख लो। कुणाल बार-बार पैसे लेने से इंकार कर रहा था और हम लोग मदान साहब से कह रहे थे कि बड़ा स्वाभिमानी लडक़ा है, ऐसे पैसे नहीं लेगा। इस पर मदान साहब और भावुक हो जाते और कुणाल के सिर पर हाथ फेरते हुए कहते कि बेटा, जिंदगी रहेगी तो स्वाभिमान भी रहेगा। ये पैसे रख ले। कम हों तो और बता। किसी चीज की कोई कमी नहीं होनी चाहिए। तू तो मेरे बेटे जैसा है। बाप से पैसे लेने में कैसी झिझक?याद नहीं कि कुणाल ने पैसे लिये या नहीं, लेकिन मदान साहब उस रात बहुत भावुक होकर घर लौटे। जितनी देर तक यह सारा तमाशा चलता रहा, नीचे मदान साहब की टैक्सी का मीटर भी डाउन रहा। हजार-दो हजार से कम बिल उसका भी क्या आया होगा। खैर...हरेप्रकाश की इस बदमाशी पर बाद में हम लोग देर तक हंसते रहे।

उनके साथ मेरे कई बार झगड़े भी हुए। एक बार झगड़ा हुआ तो उन्होंने कहा कि अब मैं तेरा मुंह नहीं देखना चाहता। तू अपने घर जा और मैं अपने घर जाता हूं। गर्मियों के दिन थे। मैंने कहा कि मैं अपने कमरे पर नहीं जाऊंगा, गर्मी बहुत है और मेरे पास कूलर भी नहीं है। मैं आपके कमरे में अब एसी में सोऊंगा, अपना झगड़ा हम सुबह निपटा लेंगे। लेकिन वे बहुत गुस्से में थे। उन्होंने बाजार से फौरन एक कूलर खरीदकर रिक्शे पर लदवाया और कहा कि कूलर लेकर अपने कमरे पर जा, फिलहाल मैं तेरा मुंह नहीं देखना चाहता। मैं कूलर लेकर चुपचाप चला आया। वह कूलर हाल-फिलहाल तक मेरे पासथा जिसे कबाड़ मानकर हाल ही में मेरी बीवी ने एक कबाड़ी को बेच दिया।
गुस्से में भी मदान साहब का प्यार और फराखदिली मैंने देखी है। एक बार तो हमारा इतना भयानक झगड़ा हुआ कि पूरा सेक्टर-१२ का मार्केट परेशान। उस दिन कवि चंद्रभूषण भी साथ थे। दरअसल, मदान साहब जिसे प्यार करते थे उसके खराब-से-खराब लेखन को भी अपनी सादगी में महान कह देते थे। एेसी ही कोई बात हो रही थी सो मैंने कह दिया कि मदान साहब, आपका क्या है, आप तो अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं को भी महान बता दोगे। बस, मदान साहब भडक़ गए। बोले कि अगर तूने मुझे गाली दी होती तो कोई बात नहीं थी, लेकिन तूने मेरी आइडियोलॉजी को गाली दी है और लगे हंगामा करने। लेकिन हमारे रिश्तों को पूरा मार्केट जानता था इसलिए  अगले दिन फिर हमें साथ देखकर सब मुस्कुराने लगे। लेखन का उनका तरीका भी अनोखा है। एक से एक खूबसूरत कहानियां उन्होंने एक झटके में लिखी हैं। एक बार अपने लिखे को वे फिर दुबारा फेयर नहीं करते। जो लिख दिया  सो लिख दिया। एक बार की बात है। शाम को मदान साहब ऑफिस से सेक्टर-१२ की मार्केट में आ गए थे और मूडमें थे। इसी बीच सहारा के समूह संपादक गोविंद दीक्षित का फोन आया। उन्होंने कहा कि शिवाजी गणेशन की मौत हो गई है। उन पर एक राइट-अप जाना है। क्या आप ऑफिस आ सकते हैं। मदान साहब ने कहा कि पीकर मैं  ऑफिस नहीं आता। इस पर गोविंद जी ने कहा कि क्या आप लिखने की स्थिति में हैं? तो मदान साहब ने कहा कि लिखने की स्थिति में तो मैं हमेशा रहता हूं। गोविंद जी ने मदान साहब से शिवाजी गणेशन पर फौरन कुछ लिखकर देने का इसरार किया और मदान साहब ने वहीं मार्केट में एक होटल में बैठकर शिवाजी गणेशन पर एक जोरदार राइट-अप लिख दिया, बिना कोई संदर्भ देखे। मुझे याद नहीं कि लिखते हुए उन्हें कभी कोई संदर्भ आदि देखने की जरूरत पड़ती हो। अगले दिन वह लेख अखबार में छपा। शिवाजी गणेशन पर बाकी अखबारों में जो छपा था उसमें सबसे बेहतर लेख मदान साहब का ही था।  इस तरह लेखन का स्टाइल मैंने दो ही लोगों में देखा है-एक ब्रजेश्वर मदान और दूसरे शारदा पाठक। शारदा पाठक भी कम दिलचस्प इंसान नहीं थे। अभी ३ साल पहले एक सडक़ हादसे में उनकी मौत हुई। पाठक जी कभी नव भारतअखबार के संपादक रह चुके थे। फिल्मी दुनिया के बारे में मदान साहब की तरह शारदा पाठक की जानकारियों का भी कोई ओर-छोर नहीं था। एक जमाने में वे भी राजकपूर के दोस्तों में शुमार थे। उनकी भी लगभग सारी जिंदगी फ्रीलांसिंग में ही गुजरी। किसी भी विषय पर उनसे लिखवाया जा सकता था और वे हाथोंहाथ लिखकर दे देते थे बिना कोई संदर्भ देखे। उनकी जानकारियां और स्मरण शक्ति अद्भुत थी। मेरी उनसे पांच-सात मुख्तसर सी मुलाकातें हैं और मैंने उन्हें कभी निराश, हताश या दुखी नहीं देखा। वे जबलपुर के थे। रजनीश, महर्षि महेश योगी और राजेंद्र अवस्थी भी जबलपुर के थे और ये तीनों ही उनके दोस्त थे। वे मजाक में कहते थे कि जबलपुर ने चार फ्राड पैदा किए हैं। तीन तो मैं ऊपर बता चुका हूं, चौथा बड़ा फ्राड वे खुद को मानते थे। यार लोग बताते हैं कि कभी उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स में भी कुछ दिन नौकरी की थी और एक दिन अचानक यह कहते हुए छोड़ दी कि मजबूरी में तो राजा हरिश्चंद्र ने भी डोम की नौकरी कर ली थी, मैंने तो खैर बिड़ला जी की की। सहारा समय के दफ्तर  वे अक्सर आते थे। उस समय सहारा समय में मनोहर नायक सहयोगी संपादक थे। वे भी जबलपुर के हैं। कई बार पाठक जी के आते ही उन्होंने मुझे कूपन देकर कहा कि  पाठक जी को खाना खिला लाओ। शुरू-शुरू में तो मेरी समझ में नहीं आया कि आखिर मामला क्या है? बाद में पता चला कि पाठक जी की जेब में पैसे के नाम पर धेला भी नहीं है और वे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से नोएडा तक पैदल चले आ रहे हैं। जब उनसे खाने की बात की गई तो उनका स्वाभिमान जाग उठा और बोले, नहीं मेरा पेट  भरा है। बड़ी मुश्किल से उन्हें खाना खिलाया गया। ऐसे लोग अब दुर्लभ हैं। मदान साहब के जिक्र के बीच पाठक जी का जिक्र दरअसल इसलिए किया कि दोनों के बीच एक अद्भुत साम्य है। दोनों जिंदगी भर फ्रीलांसिंग करते रहे और दोनों को ही बुढ़ापे में जानलेवा प्रेम हुआ। कहते हैं कि पाठक जी को बुढ़ापे में एक प्रोफेसर से प्रेम हुआ और उसमें असफल होने पर उन्होंने तेजाब से अपना मुंह धो लिया। मदान साहब को भी बुढ़ापे में प्रेम हुआ और सचमुच  जानलेवा प्रेम हुआ। सहारा के उर्दू अखबार में एक लडक़ी थी। निहायत ही खूबसूरत। वह मदान साहब के लेखन की दीवानी थी और अक्सर उनके पास बैठी रहती थी। उसके चक्कर में जिंदगी भर लापरवाह लिबास में रहने वाले  मदान साहब अचानक रोज नए-नए सूट पहनने लगे। दिन में वह लडक़ी जिस भी रंग की बात करती, शाम को मदान साहब उसी रंग का महंगे से महंगा सूट खरीद लेते, बिना कोई मोल भाव किए। चेहरे पर क्लिंजिंग मिल्क और दूसरी प्रसाधन सामग्रियों का भी इस्तेमाल करने लगे थे। फोन पर घंटों ज्यातिषियों से अपने प्रेम की सफलता के बाबत पूछते। महंगा मोबाइल और दूसरे महंगे उपहार भी उन्होंने उसे दिए थे। अचानक एक दिन कहने लगे कि इसे लेकर मैं एक फिल्म बनाऊंगा और उसे फिल्म की हीरोइन बनाने का आश्वासन भी दे आए। फिल्म की कहानी भी उन्होंने शायद लिख ली थी। बाद के दिनों में तो वे उसके चक्कर में नमाज तक पढऩे लगे और धर्म परिवर्तन की भी सोचने लगे थे।


 इन्हीं दिनों उन पर कविता लिखने का भूत भी सवार हुआ। लेकिन अजीब बात है कि प्रेम वो उस लडक़ी से कर रहे थे और प्रेम कविताएं अपनी दिवंगता पत्नी के नाम लिख रहे थे। मेरे सामने कवि चंद्रभूषण ने एक बार बहुत संजीदगी से उनसे पूछा कि मदान साहब क्या सचमुच आप उस लडक़ी से प्रेम करते हैं? मदान साहब एक रहस्यमय मुस्कान मुस्काए और धीरे से बोले, ‘यार, प्यार तो मैंने अपनी बीवी से ही किया था। ये सब जो कर रहा हूं सब दिल बहलाव है।चंद्रभूषण ने कहा कि इसका क्या सबूत है कि आप अपनी पत्नी से प्रेम करते थे। मदान साहब ने कहा कि प्रेम का कोई सबूत नहीं होता, लेकिन हमारी मिट्टी मिलती थी। चंद्रभूषण ने पूछा कि मिट्टी मिलने का क्या मतलब? तो उन्होंने बताया कि दरअसल बिना बोले वो मेरी बात समझ जाती थी और मैं उसकी। लेकिन आखिरकार पत्नी भी उन्हें बीच रास्ते छोडक़र चली गईं और मदान साहब पूरी तरह तन्हा हो गए। मैंने उन्हें अकेले भूत की तरह उस बंगले  घूमते देखा है। इस बीच उनका वह बहुप्रतीक्षित कविता संग्रह भी आ गया जिसे ;उन्होंने अपनी पत्नी को समर्पित किया है। लेकिन हाशिए पर पड़े मदान साहब के इस संग्रह को हिंदी साहित्य के हाशिए पर भी जगह नहीं मिली और वह भी उन्हीं की तरह गुमनामी में चला गया। इस बीच कई घटनाएं घटीं। मदान साहब का दिल टूटा और ऑफिस जाना भी उन्होंने लगभग बंद कर दिया। अचानक एक सुबह डायरी लिखते समय उन्हें पक्षाघात हुआ और उनके दाएं हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। अब वे अपने बंगले पर भी नहीं हैं। सुना है कि कहीं किसी भाई के यहां हैं लेकिन कहां, किसी को  कुछ पता नहीं। पता नहीं अब किसी को उनकी याद भी है या नहीं।
'वर्तमान साहित्य'से साभार 

यह हिंदी साहित्य का 'लप्रेक'युग है!

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पहले सोचा था ‘लप्रेक’ पर नहीं लिखूंगा. कहीं रवीश जी नाराज न हो जाएँ, कहीं निरुपम जी नाराज न हो जाएँ लेकिन प्रेमचंद याद आ गए- बिगाड़ की डर से ईमान की बात न कहोगे. क्या करूँ कहता हूँ खुद को रेणु की परम्परा का लेखक बात बात में याद प्रेमचंद आते हैं.

बहरहाल, बात लप्रेक की कर रहा था. ऊपर की पंक्तियों से ऐसा लग रहा है हो कि मैंकुछ लिखकर हिंदी में नए निकले कथा मुहावरे के मूल आइडिया की जड़ में मट्ठा डालने वाला हूँ. ऐसा नहीं है. कई बार प्रशंसा करते हुए भी डर लगता है. लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि जो अच्छा लगे उसको अच्छा न कहा जाए. सच कहूँ जब शुरू में फेसबुक पर रवीश कुमार ने लप्रेक लिखा शुरू किया था तो मुझे भी संशय था. हिंदी वाला हूँ न हर नई चीज पर पहले संशय करने लगता हूँ. लेकिन उतना पक्का हिंदी वाला भी नहीं हूँ जब आइडिया पक जाए तो उसका विरोध शुरू कर दूँ. उसे बाजारू कहना शुरू कर दूँ.

अच्छा अच्छा मौका है बातें अच्छी अच्छी ही करूँगा. सबसे पहली बात तो यह कि पहली बार हिंदी के एक लेखक(अब रवीश कुमार ‘इश्क में शहर होना’ किताब के लेखक हैं इसलिए यहाँ उनको लेखक ही संबोधित करूँगा) ने एक ऐसे आइडिया को लेकर लगातार लिखा जो हिंदी के नए बनते हुए पाठकों को संबोधित है, एक बड़े प्रकाशक ने उस आइडिया को साकार रूप में देने में, उसके प्रचार प्रसार में ऊर्जा लगाई जो हिंदी के नए बनते पाठकों के लिए है. किताब की कीमत भी मात्र 80 रुपये. 

यह बात बड़ी इसलिए है कि हम हिंदी में लेखन को, साहित्य को अब भी सामाजिक परिवर्तन का बड़ा माध्यम मानते हैं. अब भी मनोरंजन के लिए लेखन से नफरत करते हैं, उसे हिकारत से देखने के आदी हैं. जबकि चेतन भगत जैसा अंग्रेजी लेखक हमारे नए बनते हिंदी पाठकों को अपनी तरफ खींच रहा है और हैरानी की बात है कि हम इसे चुनौती भी नहीं मानते हैं. यह अकारण नहीं है कि चेतन भगत लगातार हिंदी को लेकर मुद्दे उठाता है, बहस छेड़ता है. एक ठेठ हिंदी के आइडिया को लेकर लेखक-प्रकाशक आगे आये हैं तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए.

ज़माना बदल गया है. अब प्यार मोहब्बत एसएमएस, व्हाट्सएप, फेसबुक इनबॉक्स, ईमेल के माध्यम से संभव हो रहा है. हमारा जमाना नहीं रहा कि प्रेमपत्र लिखे जाते थे और ब्रेक अप के बाद हम राजेन्द्रनाथ रहबर की लिखी जगजीत सिंह की गाई फिल्म ‘अर्थ’ कि इस नज़्म की तरह सोचते थे- ‘तेरे ख़त आज मैं गंगा में बहा आया हूँ/ आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ...’ आज बद्रीनारायण की वह कविता पढता हूँ तो हँसी आती है जिसे एक जमाने में पढ़ पढ़ कर भावुक होता था- प्रेमपत्र. जिसमें कवि प्रेमपत्र को बचाने के लिए बेचैन है. आज तो एक मेल लिखिए, फेसबुक पर एक इनबॉक्स डालिए और चाहिए तो उसे अनंतकाल तक सुरक्षित रख सकते हैं, चाहें तो एक क्लिक से सब गायब.

कहने का मतलब है ‘लप्रेक’ आज के उन युवाओं को ध्यान में रखकर तैयार की गई श्रृंखला है जिनके बारे में न तो हिंदी के लेखक सोचते हैं न प्रकाशक. लेखक अगर सोचता भी हो तो प्रकाशक उदासीनता दिखाता है. लप्रेक की पहली किताब है ‘इश्क में शहर होना’, लेखक रवीश कुमार हैं. यह जरूर है कि किताब मैंने अभी प्री ऑर्डर में बुक ही की है. अभी पढ़ी नहीं है. लेकिन लप्रेक तो रवीश कुमार के और गिरीन्द्रनाथ झा, विनीत कुमार के लप्रेक भी पढता रहा हूँ. उसको पढ़कर यही समझ बनी कि यह हिंदी के एक बहुत बड़े गैप को भरने की दिशा में बड़ा कदम है.

पिछले महीने मैंने एक लेख में लिखा था कि 2015 में कोई न कोई किताब ऐसी जरूर होगी जिसकी बिक्री पारदर्शी तरीके से पांच अंकों के जादुई आंकड़े को छुएगी. जिस तरह से ‘इश्क में शहर होना’ की मार्केटिंग है, जैसी उसकी व्याप्ति दिखाई दे रही है उससे मुझे लगता है इस साल के अंत तक पटना पुस्तक मेले के आते आते यह आसानी से संभव हो सकता है. सिर्फ इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि रवीश टीवी के बड़े सेलिब्रिटी हैं, बल्कि इसलिए कि उनक आइडिया हिंदी का है, जुमला हिंदी का है. ध्यान रखने की बात है कि प्रकाशन सिर्फ सेलिब्रिटी रविश कुमार को प्रोमोट नहीं कर रहा है बल्कि वह एक आइडिया को प्रोमोट कर रहा है जिसका लाभ निश्चित रूप से विनीत कुमार और गिरीन्द्रनाथ झा नामक लप्रेक के दूसरे लेखकों को भी होगा. यह पहली बार है. नहीं तो प्रकाशक लोग सेलिब्रिटी के नाम पर कुछ भी छाप कर बेचने में लगे रहते हैं. वे किताब नहीं सेलिब्रिटी बेचते हैं.

मैं कभी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल नहीं गया लेकिन मुझे यह याद नहीं आता है कि कभी वहां ठेठ हिंदी एक आइडिया को लेकर सत्र हुए हों, ठेठ हिंदी के आइडिया को लेकर किताब आई हो. मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा भरोसा है कि इस बार हिंदी की सुगबुगाहट सरसराहट बन जाएगी. एक हिंदी प्रकाशक ने लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी के लिए मुकम्मल जगह बनाने के लिए पहलकदमी की है- एक ताली संपादक के लिए भी बनती है. कहते हैं कभी राजकमल प्रकाशन को ओमप्रकाश जी जैसे संपादक ने एक नया ‘कलर’ दिया था, आज फिर एक संपादक के आइडिया ने मजबूर कर दिया कि मैं उसके लिए फिलहाल अकेले ही ताली बजा लूं.

रवीश ने हिंदी भाषा को नई भंगिमा दी, अब नया मुहावरा दिया है. किताब तो जब चलेगी तब चलेगी फिलहाल ‘लप्रेक’ चल गया है. हिंदी के माथे से शर्म की भाषा की छाप हटे, नौजवान पीढ़ी हिंदी पढ़ते शर्माए नहीं इसके लिए ऐसी किताबों की जरुरत है जिसमें उसकी बोली-ठोली में उसकी बात हो.

हमारे लिए न सही हिंदी के भविष्य के लिए यह बेहतर संकेत है. अंत में, अज्ञेय का लिखा वाक्य याद आ रहा है, ‘शेखर: एक जीवनी’ में लिखा था. वाक्य एकदम ठीक से नहीं याद आ रहा है इसलिए उद्धृत नहीं कर रहा हूँ, लेकिन आशय यही था- हम दोनों बरसों से एक घर बनाते रहे यह जानते हुए भी कि हम उसमें नहीं रहेंगे, लेकिन इस बात से ही वह घर कम सुन्दर नहीं हो जाता कि हम उसमें नहीं रहेंगे. यहाँ ऊपर के वाक्य में हम दोनों की जगह हम हिंदी वाले करके इस वाक्य को पढ़िए. तब मायने और समझ में आएंगे.

हम रहें न रहें हिंदी रहेगी, उसको आगे ले जाने वाले आइडियाज रहेंगे. ‘लप्रेक’ रहेगा, ‘इश्क में शहर होना’ रहेगा.

आखिर में यही उम्मीद है कि अमेजन वाले सही समय पर ‘इश्क में शहर होना’ डेलिवर करेंगे तो इस टूटे पुल का बूढा चौकीदार किताब को पढ़कर कुछ और लिखे.


फिलहाल इसका दिल खोलकर, बाँहें फैलाकर इसका स्वागत करता हूँ.  

प्रेमचंद की परम्परा बचेगी या लप्रेक की परम्परा चलेगी

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'लप्रेक'एक नई कथा परम्परा की शुरुआत है. लेकिन हर नई शुरुआत को अपनी परम्परा के साथ टकराना पड़ता है, उनके सवालों का सामना करना पड़ता है. आज 'लप्रेक'के बहाने हिंदी परम्परा को लेकर कुछ बहासतलब सवाल उठाये हैं हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक भगवानदास मोरवालने, जिनके उपन्यास 'नरक मसीहा'की आजकल बहुत चर्चा है- मॉडरेटर 
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'लप्रेक' आज जैसे ही प्रभात रंजन का 'जानकीपुल'खोला, तोएक बार फिर इस शब्द से सामना हुआ.  जबसे इस शब्द से पाला पड़ा है अनेक कूढ़मगज हिंदी के लेखकों की तरह मैं भी इसका अर्थ खोजना लगा हूँl एक बारसोचा कि यह बिहार से आयातित शब्द होगाl फिर सोचा कि हो सकता है यह कोईस्पेनिशजर्मन, फ्रांस,पुर्तगाल आदि जैसे किसी मुल्क की भाषा से उड़ायागया होl एक बार अनुमान लगाया कि यह लघु प्रेम कविता भी हो सकता हैl

अंतत:मेरे  एक निजी शब्दकोश ने मेरी यह समस्या हल कर दी कि इसका अर्थ वहनहीं है जैसा मैं समझ रहा हूँl दरअसल 'लप्रेक'का अर्थ है 'लघु प्रेमकथा'l इसके बाद मैंने अपने कुछ निजी स्रोतों से इसकी अंतर्कथा पता की औरजो पता चला उसे मैं आपसे भी साझा कर रहा हूँइधर सुना है हिंदीप्रकाशन जगत  में एक युगांतकारी क्रांति होने जा रही है l अभी तक हमनेफेसबुकिया कविताओं के बारे में सुना था, पर अब सुनने में आ रहा है किज़ल्द ही कोई फेसबुक फिक्शन शृंखला नामक सपना साकार होने वाला  हैl वास्तव में फेसबुक फिक्शन शृंखला नामक इस योजना का ही नाम 'लप्रेक'हैl पिछले कुछ दिनों से जिस तरह इस योजना का प्रचार और प्रसार किया जा रहा है, और इसके नेपथ्य से जो बातें छन-छन कर आ रही हैं, वे बेहद रोमांच पैदाकरने वाली हैंl  मसलन, पहली  तो  यही कि हिंदी के बहुत से मुझ जैसेप्रेमचंदीय जो  लेखक इस 'लप्रेक'शब्द के असली अर्थ और परिभाषा को जाननेके लिए हलकान हुए जा रहे थे, जब इसका अर्थ पता चला तो मेरी हालत सचमुचघायल की गति घायल जाने जैसी हो गईl

 'लप्रेक'अर्थात लघु प्रेम कथा यानी ऐसी प्रेमकथाएं जो सिर्फ औरसिर्फ फेसबुक पर लिखी गई होंगीl मगर सावधान हे हिंदी लघुकथा लेखक यहयोजना आप जैसे प्रेमचंदीय लेखकों के लिए नहीं, बल्कि उन सेलीब्रेटीज़नुमालेखकों के लिए है जिन्हें इस आधुनिक भारत का युवा जानता तो है मगर उनकी कथा-प्रतिभा से अभी तक परिचित नहीं हैl तो, इस योजना का असली मकसदआधुनिक भारत के इसी युवा वर्ग के उस सेलीब्रेटी साहित्य प्रेम अर्थातउनके भीतर छिपे उस साहित्य अनुराग को जाग्रत करना है जिसको जगाने में कथासम्राट प्रेमचंद,रेणु, राही मासूम रज़ा, श्रीलाल शुक्ल से लेकर मुझ जैसाप्रेमचंदीय लेखकअसफल रहा है,और जिनकी असफलताओं के चलते हमारा यह युवा पाठक आज के हिंदीसाहित्य से विमुख होता जा रहा हैl

फेसबुक फिक्शन शृंखला अर्थात 'लप्रेक'यानी इस लघु प्रेम कथा योजनाकी सबसे महत्वपूर्ण और आकर्षित करने वाली बात यह होगी कि हिंदी के नएबनतेपाठक के भीतर छिपे उसके साहित्यानुराग को जाग्रत या दोहन करने के लिएप्रकाशित की जाने वाली इस प्रथम सौ पृष्ठीय पुस्तक की प्री-बुकिंग कीमतमात्र80/- रुपए रखी गई हैl यानी एक ज़माने में जिस तरह राजन-इकबाल सीरिज़ कीपुस्तकें युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करती थीं , वही काम अब 'लप्रेक'करनेजा रहा हैl पुस्तक की प्री-बुकिंग का एक अर्थ तो साफ़ है कि इसके अंतर्गतजितनी भी बुकिंग होगी वह सार्वजनिक और बेहद पारदर्शी होगीl हो सकता हैइसयोजना के शुरू होने के बाद हिंदी प्रकाशन जगत इस तौहीन से निष्कलंक होजाए , और जिसकी हर छोटे-बड़े लेखक को शिकायत रहती  है कि हिंदी का प्रकाशककभी भी उसकी पुस्तक की सही बिक्री नहीं बताताl

वैसे सुनने में यह भी आ रहा है कि इस योजना को 'लौंच'करने की बड़ेजोर-शोर से  भव्य तैयारी चल रही हैl इतना ही नहीं, सुना है कि प्रकाश्यपुस्तक और उसके लेखक को इसके  प्रकाशक द्वारा इस घटना को हिंदी साहित्यका एक ऐतिहासिक 'इवेंट'बनाने के लिए फ़िल्मी सितारों से लबरेज़ जयपुर मेंचल रहे एक मेले में अपने पराश्रित मध्यवर्गीय पाठकों को परिचित करने केलिए महंगी इवेंट भी रखी हैl मुझे तो इस अप्रतिम इवेंट के बारेमें सुन-सुन कर हिंदी के उन अभागे लेखकों पर तरस आ रहा है, जो अपनी छपीहुई पुस्तक को अपने सीमित संसाधनों और प्रयासों के चलते कभी पटना भागाजा रहा है, तो कभी लखनऊ कभी महाराष्ट्र जा रहा है तो कभी दूसरी जगह तलाशहै और  तलाश रहा है अपने उस पाठक को जो प्रेमचंदरेणु, राही मासूम रज़ा औरश्रीलाल शुक्ल के साहित्य की  तरह उसके साहित्य से भी विमुख  होता जा रहाहैl


हिंदी जगत की इस ऐतिहासिक घटना से साफ़ है कि हिंदी का वह लेखकजो अपनी कुछ सौ पुस्तकों के बल पर, अपने लेखन को समाज परिवर्तन की ज़मीनतैयार करने वाला औज़ार मानता थाऔर इतराता फिर रहा था, उसके दिन अब लदनेवाले हैंl  सोच रहा हूँ कि जिस फेसबुक पर अपनी वाल को अपने उपन्यास 'नरकमसीहा'के प्रचार में रंगे जा रहा हूँ, उसकी जगह मैं भी लघु प्रेम कथाअर्थात 'लप्रेक'लिखना शुरू कर ,यह जानते हुए कि आज तक मैंने किसी सेप्रेम तो क्या ,प्रेम से देखा तक नहीं l मगर एक दिक्कत भी है कि जब मैंकोई सेलिब्रेटी ही नहीं हूँ तो मेरी इन 'लप्रेक'पर यकीन कौन करेगा? मैं  तो अपने पुरखों प्रेमचंद, रेणु, राही मासूम रज़ा यशपाल, जैनेन्द्र, श्रीलाल शुक्ल के साथ-साथ मुझ जैसे  लेखकों के बारे में सोच कर परेशानहो रहा हूँ जिन्होंने धूल और  धूप में  अपने रक्त को सीच-सींच कर समाज केदुखों को अपना दुःख बनायाl
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