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क्रांति और भ्रांति के बीच 'लप्रेक'

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लप्रेक के आने की सुगबुगाहट जब से शुरू हुई है हिंदी में परंपरा-परम्परा की फुसफुसाहट शुरू हो गई है. कल वरिष्ठ लेखक भगवानदास मोरवाल ने लप्रेक को लेकर सवाल उठाये थे. आज युवा लेखक-प्राध्यापक नवीन रमण मजबूती के साथ कुछ बातें रखी हैं लप्रेक के पक्ष में. लप्रेक बहस में आपकी भी वैचारिक बातों का स्वागत है. फिलहाल यह लेख- मॉडरेटर.
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हिन्दी साहित्य जगत की दुनिया के परस्पर जो हिन्दी का नया स्पेसबन रहा है। उसको अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस पूरी प्रक्रिया का विश्लेषण एवं मूल्याकंन किया जाना चाहिए। हिन्दी साहित्य जगत की दुनिया और हिन्दी का बनता नया स्पेस ये दोनों दो अलग-अलग दुनिया बना दी गई हैं। क्योंकि हिन्दी साहित्य जगत में प्रवेश की एक खास प्रक्रिया है और जहां किसी भी नए लेखक का पैर जमा पाना संभव नहीं है। जबकि हिन्दी के बनते नए स्पेसमें किसी आलोचक,प्रकाशक आदि की पीठ नहीं सहलानी पड़ती। यहां पाठक-लेखक सब स्वतंत्र है। और दोनों के बीच संवाद,नोक-झोंक सब चलती है। यहां कोई दादा-पोते का संबंध निभाने नहीं आते,बल्कि हर कोई अपनी बात कहने के लिए ज्यादा स्वतंत्र है। इस नए स्पेस में पाठक और लेखक दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। जबकि हिन्दी साहित्य जगत में पाठक भी गढ़े जाते हैं। समीक्षाएं लिखवाई जाती है,शोध करवाएं जाते है,प्रशंसा प्रायोजित-आयोजित होती है। प्रकाशक के आगे कौन दरी बिछाता है,इसका सबको पता ही है। लाइब्रेरी में कितना कूड़ा भरा हुआ,इस पर शोध होना बाकी है।
बात जहां तक लप्रेक की है,यह इस बनते-बिगड़ते नए स्पेस की ही देन है। जिसमें लेखक और पाठक के बीच के दूरी सपाट और एकहरी नहीं हैं। दोनों ही एक दूसरे के साथ घुल मिलकर नई संरचनाओं के बीच अपने होने के अहसास के क्षणों को जी रहे हैं। यह जीना आत्ममुग्धता के साथ जीना नहीं है,बल्कि एक सार्थक हस्तक्षेप के साथ अपनी मौजूदगी का दखल है। एक ऐसे समय में जब प्रेम को सतही और थोथा करार दिया जाने लगा हो,तब ये अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ प्रेम के क्षणों को मुखर करता है।

प्रेम का आख्यान हमेशा अपने विराट रूप में अभिव्यक्त हुआ है। उस आख्यान के बरक्स लप्रेक जिंदगी की सामाजिक,राजनीतिक,धार्मिक,आर्थिक एवं सांस्कृतिक आदि तुरंता प्रतिक्रियाओं के बीच अपने जीवन में होने वाली हलचलों को दर्ज करता है। शहर के गुणा-गणित के बीच प्रेम के लिए स्पेस की तलाश शहर में रहने वाला हर प्रेमी जानता है। प्रेम केवल खुली प्रकृति और बंद कमरों के बीच ही नहीं पनपता,बल्कि वह हर छोटी से छोटी जगह पर अपने लिए स्पेस का निर्माण भी करता है। इसी को इश्क में शहर होना कहा जा सकता है। इस इश्क में सेक्स और रूप-सौंदर्य के सौंदर्यबोध से अलग एक ठोस किस्म का आम जीवन है,जो शहर और कस्बे के युवा को अपना जान पड़ता है। जो कहीं से भी फिल्मी और किताबी नहीं है। न ही इसमें शहर को खलनायक बनाने की कोशिश होती है। इश्क और शहर दोनों में डूब कर जीना इसका खास तेवर है। क्रांति और भ्रांति के बीच इश्क मूलतः जीवन के उलझे हुए रेशे को खंगालने का काम करता है,जिंदगी और शहर दोनों में।

लप्रेक दरअसल धड़कनों को शब्दों के जरिए अभिव्यक्त करने का माध्यम है। इन धड़कनों में शहर भी है,कस्बा भी है और गाम भी है। नहीं है तो वो है बेगानापन। अपनेपन के रस में भीगे रेसों को हर एक छोटी कथा में पिरोया गया है। कहानी छोटी है पर अधूरी नहीं है।

हिन्दी में प्रेमचंद,रेणु की परंपरा के (जैसा तमगा उन्होंने खुद के लिए लगाया) प्रतिष्ठित लेखक भगवानदास मोरवाल जी ने लप्रेक को लेकर जो चिंता और सवाल खड़े करने का प्रयास किया हैं। दरअसल उसमें बहस की गुंजाइश कम ही है। क्योंकि उनके पूरे लेख में हिन्दी और उसके पाठक वर्ग की चिंता कम है। बल्कि एक तथाकथित प्रतिष्ठित लेखकों और अपने खुद के बाजार को लेकर  चिंता अधिक है। जो कि स्वाभाविक भी है। दूसरा उन्होंने मूल्याकंन करते वक्त जल्दबाजी के साथ-साथ नए पाठक वर्ग और संचार माध्यमों के प्रति अपनी कमजोर समझ को भी उजागर कर दिया है। हिन्दी के बनते नए स्पेस के प्रति उनकी नजर रूढ़ नजरिया ही पेश करती है। उनका विरोध बहुत कुछ खाप की तरह है,जो परंपरा के नाम पर विरोध करना चाहते है और रूढ़ को बचाने के चक्कर में फब्तियां कसने का मौका भी नहीं छोड़ते है। उनकी भड़ास राजकमल प्रकाशन के प्रति ज्यादा लग रही है,बजाय लप्रेक के। लप्रेक तो आड़ भर है। इस पूरी बहस में आम पाठक और हिन्दी के शोधार्थियों के अंतर को भी समझना होगा। लप्रेक से हिन्दी का तो भला होगा,पर हिन्दी साहित्य के नाम पर जड़ जमा चुके लेखकों का शायद नुकसान होना स्वाभाविक है।
हम हिन्दी वाले लेखक बनाम बाहरी (बिहारी)

हम और वे की गूंज पूरे लेखन में साफ झलकती है। मानो हिन्दी में कुछ भी करने या लिखने का सारा अधिकार तथाकथित हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखकों के पास ही है। जिस तरह सामाजिक संरचनाओं में बिहारीशब्द का चलन है,कुछ-कुछ उसी तर्ज पर हिन्दी साहित्य में बाहरीका चलन है। खारिज करने का चलन हिन्दी में यों नया नहीं है। हिन्दी साहित्य जगत से जुड़े तमाम लेखक,आलोचक,पाठक,शोधार्थी और प्रवक्ता आदि सब अंदर के खानों में चलने वाली रणनीतियों को जानते-समझते ही है। जिसे आम भाषा में जुगाड़ कहा जाता है। हिन्दी साहित्य में स्थान बनाने-पाने के लिए एक खास योग्यता की मांग रहती ही है। जो उसे पूरा नही करता,उसे बाहर धकेल दिया जाता है। मोरवाल जी की चिंता के संदर्भ में अंतिम बात अज्ञेय के शब्दों में - दूर के विराने तो कोई सह भी ले, खुद के रचे विराने कोई सहे कैसे? ( स्मृति आधारित)




हर पिछला कदम अगले कदम से खौफ खाता है

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‘लप्रेक’को लेकर हिंदी में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं देखने में आ रही हैं उससे मुझे सीतामढ़ी के सबसे बड़े स्थानीय कवि पूर्णेंदु जी की काव्य पंक्तियाँ याद आती हैं- ‘कि हर पिछला कदम अगले कदम से खौफ खाता है.’ हिंदी गद्य का इतिहास बताता है कि हर दौर का अपना मुहावरा होता है, अपनी भंगिमा होती है, अपनी विधा भी होती है. उदाहरण के लिए, कहानियां लम्बी होनी चाहिए यह बात हिंदी में 80 के दशक उत्तरार्ध में स्थापित होने लगी जब उदयप्रकाश की कहानियों की धूम मची, व्यावसायिक पत्रिकाएं बंद होने लगी, लघु पत्रिकाओं का चलन बढ़ा, जहाँ पन्नों की कोई सीमा नहीं होती थी. नहीं तो, याद कीजिए तो हिंदी कहानी के मूर्धन्य लेखकों कमलेश्वर, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा की बहुत कम कहानियां हैं जो आकार में दीर्घ हैं. लेकिन इसमें शायद किसी को हो संदेह हो कि उनकी कहानियों के माध्यम से हिंदी में आधुनिकता आई.

लप्रेक आज की जीवन स्थितियों की देन है. आज हम यूनिकोड फॉण्ट की वजह से फोन में, लैपटॉप में हिंदी लिखने के क्षेत्र में क्रांति आ गई है. हिंदी जितना पढने पढ़ाने की वजह से, हिंदी दिवस मनाने से, राष्ट्रभाषा राष्ट्रभाषा चिल्लाने से नहीं फैली थी उससे कहीं अधिक यूनिकोड क्रांति की वजह से फ़ैल रही है. यह तथ्य है कि हिंदी में लिखने वालों की इतनी बड़ी तादाद कभी नहीं थी जितनी आज है. आज यह जन जन की अभिव्यक्ति की भाषा ही गई है. लोग मेट्रो में जाते हुए, बसों में बैठे हुए, किचेन में सब्जी बनाते हुए, ऑफिस में काम की बोरियत तोड़ते हुए लिख रहे हैं. हिंदी में इसी लेखन क्रांति की जरुरत थी. इसकी वजह से अभिव्यक्ति की छोटी विधाओं की स्वीकृति बढ़ेगी. अंग्रेजी में तो 140 कैरेक्टर्स की ट्विटर कहानियों ने भी धीरे धीरे अपना बड़ा स्पेस बनाया है. प्रतिरोध प्रतिरोध चिल्लाने का नहीं यह समय को, उसकी मांग को समझने का समय है.

अब तक हम साहित्य वाले दडबों में सिमटे रहना चाहते हैं, कोने में दुबके रहना चाहते हैं. इसलिए हमें यह लग रहा है कि लप्रेक हमारी जमीन के ऊपर कब्ज़ा जमा रहा है. मैं विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि कोई किसी की जगह नहीं हड़प रहा है बल्कि हिंदी का विस्तार हो रहा है. यूनिकोड क्रांति की वजह से जो हिंदी का एक बड़ा मध्यवर्ग पैदा हुआ है उसको साहित्य पढने की तरफ मोड़ना होगा. सही बताऊँ, बिना ओरिएंटेशन के जब ‘गुनाहों का देवता’ जैसी लोकप्रिय समझी जाने वाली कृति भी बच्चों को पढ़ाई जाती है तो उनको वह कडवी दवा की तरह लगने लगती है. मैं यह बात विश्वविद्यालय में पढ़ाने के अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ.

लप्रेक पाठकों को न केवल हिंदी से जोड़ेगा बल्कि रवीश कुमार जैसे हिंदी समाज के सबसे विश्वसनीय चेहरे के लप्रेक लेखक होने से लोग हिंदी पढ़ते हुए शर्मायेंगे नहीं. बल्कि उसे अपनाएंगे. हिंदी के विस्तार की विधा को संकुचित मानसिकता से नहीं खुले दिमाग से समझने की जरुरत है. लप्रेक जहाँ जहाँ जाएगी वहीं वहां हिंदी जाएगी. मुश्किल उन लेखकों के लिए है जो जुगाड़ से भाषा में अपनी पहचान बनाते रहे हैं. जब पाठक और बाजार की सीधी दखल बढ़ेगी तो जनतांत्रिकता आएगी. वह जनतांत्रिकता जिसमें पाठक ही निर्णय की अंतिम मुहर लगाएगा. बड़े बड़े बाबाओं के सर्टिफिकेट जाली करार दिए जायेंगे.


मैं यह नहीं कह रहा कि लप्रेक साहित्य की कोई बड़ी विधा है, लेकिन यह ख़म ठोक कर कह रहा हूँ कि यह आत्मविश्वास की विधा है. आज हिंदी वालों को इस आत्मविश्वास की सबसे अधिक जरुरत है.  

कामयाबी से गुमनामी तक का सफरनामा

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सत्तर के दशक के में हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार माने जाने वाले राजेश खन्ना का आरंभिक सिनेमाई जीवन एक खुली किताब की तरह सार्वजनिक है तो बाद का जीवन रहस्यमयी है, किसी ट्रेजिक हीरो की तरह कारुणिक. सत्तर के दशक के आरंभिक वर्षों में अखबारों में उनकी फिल्मों की सफलता की कहानियां भरी रहती थी. जबकि 80 के दशक के आरंभिक वर्षों में जब उनकी फ़िल्में ‘अवतार’ और ‘सौतन’ जैसी फ़िल्में आई तो एक बार फिर सुपर स्टार की वापसी का हल्ला मचने लगा था. सत्तर के दशक में उनके फैन उनको ढूंढते रहते थे, उनकी छाया तक को घेरे रखते थे, जबकि अपने आखिरी विज्ञापन में वे अपने ‘फैन्स’ को याद करते दिखाई देते हैं. इस सारे घटाटोप में उनका जीवन जैसे छिप सा गया था. यासिर उस्मानकी किताब ‘राजेश खन्ना: कुछ तो लोग कहेंगे’ कामयाब-नाकामयाब अभिनेता के जीवन के सूत्रों को जोड़ने की एक ऐसी कोशिश है जिसमें उस कलाकार और उसके वजूद को समझने की कोशिश की गई है.

लेखक ने श्रमपूर्वक लिखी इस जीवनी में राजेश खन्ना के जीवन से जुड़े कई मिथों को तोड़ने का काम किया है, कई सचाइयों को नई रौशनी में उजागर करने का काम किया है. सब कुछ जीवंत तरीके से. पुस्तक की भूमिका में सलीम खान ने सही लिखा है कि ‘हालाँकि ये राजेश खन्ना की असली जिंदगी की कहानी है लेकिन लेखक का अंदाजे-बयां ऐसा है कि ये कहानी किसी दिलचस्प फिल्म की तरह जेहन में यादगार तस्वीरें उभारती हैं. इन तस्वीरों में राजेश खन्ना पलकें झपकाते हुए, अपनी हसीन मुस्कान के साथ भी नजर आते हैं और बाद में अकेलेपन और गुमनामी में जूझते हुए गुजरे जमाने के स्टार के तौर पर भी.’

राजेश खन्ना की जीवनी के लिए लेखक ने शोध भी भरपूर किया है और राजेश खन्ना के जीवन से जुड़े कई अनजान तथ्यों को सामने लेकर आये हैं. सबसे बड़ी बात यह कि जतिन खन्ना राजेश खन्ना बनने के लिए मुंबई कहीं और से नहीं आया था. अपने माता पिता चुन्नीलाल खन्ना और लीलावती खन्ना के साथ वह बचपन से ही मुंबई के गिरगाम इलाके में रहता था. उनके बचपन से जुड़ी इस कहानी के साथ उनके बचपन की कई ग्रंथियों का खुलासा लेखक ने इस किताब में इस तरह से किया है कि उससे राजेश खन्ना का व्यक्तित्व किताब में सम्पूर्णता में उभर कर आता है.

राजेश खन्ना के बचपन की तरह ही रहस्यमयी है उनका उत्तर जीवन जब अमिताभ बच्चन एक नए सुपरस्टार के उदय के साथ राजेश खन्ना का नाम गुमनामी के अँधेरे में खोता जा रहा था, अपने साथ छोड़कर जा रहे थे. राजेश खन्ना अपने कामयाबी के शिखर पर भी अकेले थे और गुमनामी के अँधेरे में भी किसी ने उनका साथ नहीं दिया. वे राजनीति में आये, कांग्रेस पार्टी के सांसद बने. लेकिन उनका राजनीतिक जीवन भी अधिक कामयाब नहीं रहा. लेखक ने बड़ी मेहनत से उनके राजनीतिक जीवन के ताने बाने को भी पुस्तक में बुनने का प्रयास किया है.

ऐक्शन, रोमांस, ड्रामा, मेलोड्रामा से भरपूर किसी फिल्म के सुखद चरमोत्कर्ष की तरह ही उनके जीवन के आखिरी दिनों में लगने लगा था कि उनके अपने उनके पास लौट आये थे. एक चैन की जिंदगी की सूरत बनने लगी थी कि वे इस दुनिया को छोड़कर चले गए.

राजेश खन्ना के बचपन से लेकर उनके अंतिम सफ़र तक की कहानी को 256 पेज की इस किताब में लेखक यासिर उस्मान ने बखूबी बुना है. यह किताब केवल उनके लिए ही उपयोगी नहीं है जो राजेश खन्ना के प्रशंसक थे बल्कि उनके लिए भी इस किताब में काफी कुछ है जो सुपरस्टार के फिनोमिना को समझना चाहते हैं.

प्रभात रंजन 
(राजस्थान पत्रिका में पूर्व प्रकाशित)

पुस्तक: राजेश खन्ना: कुछ तो लोग कहेंगे
लेखक- यासिर उस्मान
प्रकाशक- पेंगुइन

मूल्य- 250 रुपये 

लक्ष्मण बुनियादी तौर पर ‘कॉमन सेंस’ के कार्टूनिस्ट थे

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आर. के. लक्ष्मणको श्रद्धांजलि देते हुए मेरे प्रिय कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोड़पकरने उनकी कला का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है. आज 'दैनिक हिन्दुस्तान'में उनका यह लेख प्रकाशित हुआ है. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन 
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भारत में आर के लक्ष्मण का नाम कार्टून से वैसे ही जुड़ा हुआ हैजैसा संगीत से लता मंगेशकर का या क्रिकेट से सचिन तेंदुलकर का। आम लोगों के लिए वह कार्टून के प्रतीक पुरुष और सर्वोच्च कसौटी थे। मेरी उनसे व्यक्तिगत मुलाकातें दो ही हैं। उनसे कम मिलने की वजह एक तो यह थी कि वह मुंबई में रहते थे और दूसरी यह कि उनका मिजाज पत्रकारिता और कार्टून की दुनिया में काफी चर्चित था। वह ज्यादा लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं करते थे और अगर उन्हें कोई व्यक्ति या बात पसंद नहीं आईतो वह उसे सौजन्यवश बर्दाश्त नहीं करते थे। मुंबई में टाइम्स ऑफ इंडिया के जिस दफ्तर में वह बैठते थेवहां उनके कमरे में जाकर उनसे बात करने की आजादी दफ्तर में भी एक-दो लोगों को ही थी। सौभाग्य से मेरी दोनों मुलाकातें बहुत अच्छे माहौल में हुईं। इसके पहले वह मेरे तत्कालीन संपादक अरुण शौरी से मेरे बारे में कुछ भली बातें कह चुके थेहालांकि मेरा मानना था कि इसकी वजह मेरे काम का स्तर नहींबल्कि यह था कि मेरे पूर्ववर्ती रविशंकर को वह नापसंद करते थे। 

लक्ष्मण के इस अंदाज की एक वजह यह भी थी कि वह अपने काम में पूरी तरह समर्पित और सिर से पांव तक डूबे हुए आदमी थे। उन्हें अपने काम में जरा-सी भी चूक बर्दाश्त नहीं थी और उसी ऊंची कसौटी पर वह हर मिलने वाले व्यक्ति को कसते थे। इसी समर्पण की वजह से उन्हें व्यवधान भी पसंद नहीं थे और वह ज्यादा लोगों से मिलने-जुलने से बचते थे। जाहिर हैवह इतनी बड़ी हस्ती थे कि उनसे मिलने की इच्छा रखने वाले उतने ही लोग होंगे, जितने किसी फिल्मी सितारे से, और इसीलिए उन्होंने अपने आसपास एक दीवार बना रखी थी। पिछले लंबे वक्त से वह बीमार थे। उन्हें लकवा मार गया था और वह कार्टून नहीं बना पा रहे थे। तब एक साथी कार्टूनिस्ट के मुताबिकलक्ष्मण यह कहते रहे कि नियति ने उनके साथ यह क्रूर मजाक किया है कि जो काम उन्हें सबसे प्रिय हैयानी कार्टूनिंगवही वह नहीं कर पा रहे हैं। इस मायने में भी सचिन से उनकी तुलना की जा सकती है। सचिन के देर से रिटायर होने की आलोचना इसलिए होती है कि लोग इसके पीछे पैसे व ग्लैमर की ललक देखते हैं, जबकि इसकी ज्यादा बड़ी वजह यह थी कि सचिन क्रिकेट में इस कदर डूबे हुए व्यक्ति हैं कि वह यह सोच ही नहीं पा रहे थे कि क्रिकेट के बिना उनका जीवन कैसे मुमकिन हो सकता है? लकवे के बावजूद अपने कांपते हाथों से लक्ष्मण जब तक संभव हुआ, कार्टून बनाते रहे। जो व्यक्ति अपनी कला और उसकी तकनीक का उस्ताद हो, उसकी कांपती लकीरें देखकर बुरा तो लगता था, लेकिन उनकी जिद और समर्पण के लिए मन में उनके प्रति सम्मान भी बढ़ता था। 

लक्ष्मण की अपार लोकप्रियता की एक बड़ी वजह यह थी कि भले ही वह एक नामी अखबार के लिए रोज कार्टून बनाते थेजिसका विषय ज्यादातर राजनीति ही होता था, लेकिन बुनियादी तौर पर वह राजनीतिक कार्टूनिस्ट नहीं थे। वह उस तरह से राजनीतिक विश्लेषक नहीं थेजैसे कि उनके समकालीन अबू अब्राहम, ओ वी विजयन या राजिंदर पुरी। लक्ष्मण बुनियादी तौर पर कॉमन सेंसके कार्टूनिस्ट थेजिसने उन्हें कॉमन मैनका प्रिय कार्टूनिस्ट बना दिया। वह एक समझदार, अक्लमंद और तेज हास्य बोध वाले आम आदमी के नजरिये से कार्टून बनाते थेइसलिए वह आम आदमी  को अपने लगते थे। यह भी सच है कि आम आदमी के नजरिये से या कॉमन सेंससे अक्सर राजनीति ज्यादा अच्छी तरह पकड़ में आती है, बनिस्बत राजनीतिक मीनमेख के। लेकिन लक्ष्मण का सबसे जोरदार पक्ष वही था, जहां वह आम आदमी की समस्याओं को उठाते हैं, सड़कों पर गड्ढे, नगरपालिकाओं का तथाकथित निर्माण कार्य, सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार और निकम्मापन, अवैध निर्माण, नेताओं का आम आदमी की समस्याओं का अज्ञान वगैरह-वगैरह। लक्ष्मण जब छुट्टी पर जाते या जब वह बीमार हुएतो उनके अखबार ने कई साल पुराने उनके कार्टून छाप-छापकर काम चलाया। यह लक्ष्मण का सौभाग्य था या दुर्भाग्य कि देश में वही समस्याएं दशकों से वैसे ही चली आ रही हैं, इसलिए ये कार्टून हर वक्त सामयिक बने रहे और अक्सर पाठक समझ ही नहीं पाए कि जो कार्टून वे देख रहे हैं, वे दस या बीस साल पुराने हैं। 

राजनीति में गहरे धंसने में उनकी विशेष दिलचस्पी नहीं थीयह इस बात से भी जाहिर है कि वह जिंदगी भर मुंबई में ही रहे, राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र दिल्ली में नहीं आए। मुंबई देश का सबसे अराजनीतिक शहर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां के आम आदमी को राजनीति में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है, जहां पेशेवर राजनेताओं और खांटी पत्रकारों के अलावा शायद ही कोई राजनीतिक बहसों में पड़ता है। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है। वहां के लोगों का मुख्य सरोकार अर्थ हैऔर वे राजनीति को आर्थिक गतिविधियों में व्यवधान पैदा करने वाली बेकार की गतिविधि मानते हैं। लक्ष्मण में भी राजनीति के प्रति यह उपेक्षापूर्ण रवैया कुछ हद तक था और इसने उनके कार्टूनों को ज्यादा धारदार बनायालेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों और उसूलों के प्रति उनमें गहरा सम्मान था, और यह उनके कार्टूनों में झलकता है। उनके कार्टूनों को देखकर यह भी समझ में आता है कि आजादी के तुरंत बाद के कद्दावर नेताओं के प्रति भी उनमें एक सम्मान का भाव है, हालांकि बख्शा उन्होंने किसी को नहीं है। 

मुझे याद है कि एक मुलाकात में वह शिकायत कर रहे थे कि अब वैसे राजनेता नहीं रहेन वैसे पत्रकार, मैं सोचता हूं कि अब रिटायर हो जाऊं। मैं समझ रहा था कि वह शिकायत के मूड में भले ही हों, लेकिन वह रिटायर नहीं हो सकते। उन्होंने कई बार व्यंग्य में राजनेताओं का आभार भी व्यक्त किया कि उन्होंने कार्टून के लिए विषयों की कमी नहीं होने दी। लक्ष्मण आजादी के बाद तेजी से बढ़ते मध्य वर्ग के महागाथाकार हैं। इस मध्य वर्ग की खुशियां, दुख, शिकायतें, दुनिया और देश को देखने का उसका नजरिया, उसकी उम्मीदें, सबका प्रामाणिक प्रतिनिधित्व उनके कृतित्व में है। इस मध्य वर्ग का विस्तार होता गया और लक्ष्मण के पाठकों और प्रशंसकों का दायरा भी बढ़ता गया। राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय मध्य वर्ग का ऐसा प्रतिनिधि न और कोई लेखक हुआ, और न कलाकार, जैसा कि लक्ष्मण हुए। इस मायने में वह एक कार्टूनिस्ट होने से उठकर एक राष्ट्रीय आइकॉनबन गए। चौखाने का कोट और धोती पहना उनका आदमी पचास के दशक में अस्तित्व में आया और तब भी उसकी उम्र पचास के ऊपर ही लगती थी, लेकिन पाठकों की अनेक पीढ़ियों की आंखों में वह सदा जवान बना रहा। लक्ष्मण ने कार्टूनिस्टों की कई पीढ़ियों को प्रेरित किया और भारतीय मध्य वर्ग की कई पीढ़ियों को सड़क के गड्ढों और संसद के शोरोगुल के बीच से गुजरने के लिए मुस्कराहट की ताकत दी। अब वह स्वर्ग में अपनी पैनी दृष्टि से कार्टून का मसाला ढूंढ़ रहे होंगे और कह रहे होंगे- आजकल देवता भी वैसे नहीं रहे। - 

'दैनिक हिन्दुस्तान'से साभार 

भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा एक किताब में

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भोजपुरी सिनेमा के ऊपर एक किताब आई है जिसके लेखक है रविराज पटेल. रविराज पटेल से एक बातचीत की है सैयद एस. तौहीदने- मॉडरेटर 
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भोजपुरी फिल्मों का इतिहास यूं तो पचास बरसों से अधिक का होने को आया लेकिन उसके दस्तावेजीकरण का काम कम हुआ . हालिया में युवा लेखक रविराज पटेल ने इस दिशा में ठोस काम किया है. भोजपुरी को लेकर रविराज में खासी लगनशीलता से भोजपुरी फिल्मों का सफरनामापुस्तक पाठकों के समक्ष है. पटना के रविन्द्र भवन में भोजपुरी सिनेयात्रा सम्मान कार्यक्रम में पुस्तक का लोकापर्ण हुआ. इस अवसर पर रविराज से भोजपुरी सिनेमा एवं सिनेयात्रा सम्मान को लेकर हुई बातचीत का अंश: सैयद एस. तौहीद 

भोजपुरी सिनेमा पर लिखने का विचार किस प्रकार आया ?

बिहार की संस्कृति बहुत समृद्ध रही लेकिन यहां के सिनेमा पर ठोस दस्तावेज की कमी की चुनौती ने इस दिशा में गंभीरता से सोंचने को कहा. शुरुआत हमने भारतीय एवं विश्व सिनेमा को पढ़कर की जिसमें क्षेत्रीय सिनेमा विशेषकर बिहार की ओर ध्यान गया . पांच बोलियों पर फिल्में होने वाले प्रदेश बिहार पर कोई संतोषजनक सामग्री नहीं मिली. पुणे स्थित फ़िल्म अभिलेखागार तथा संग्रहालय में भी मगही भोजपुरी बज्जिका एवं मैथिली फिल्मों पर सामग्री नहीं मिला .भोजपुरी सिनेमा पर अध्ययन करके उसे पुस्तक की शक्ल देने का सार्थक प्रयास किया. इस दरम्यान पता चला की मेनस्ट्रीम के लोग सिनेमा पर काम कर रहे थे वही लोग भोजपुरी में आए तो उनके बारे में नहीं लिखा गया. हिंदी से भोजपुरी में आने के बीच यह फर्क बहुत तकलीफदेह थी.इसमें बदलाव की आवश्यकता थी हिंदी में क्षेत्रीय सिनेमा पर लिखने में अविजीत घोष की प्रेरणा काम कर गयी. शुरू में ज्यादा जरूरी बिहार की सिनेमा संस्कृति को समझना था. किताब उसी प्रक्रिया का हिस्सा बन गयी. भोजपुरी सिनेमा को पूरी समग्रता से प्रस्तुत करने के लिए लिखा. भोजपुरी का उत्तम स्तर जानने के लिए वो किताब सहयोगी मालुम होगी लेकिन वहीँ पर ठहरना ठीक नहीं माना क्योंकि अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी था. आज के सिनेमा को देखकर भोजपुरी भाषी सिनेमा की भव्य विरासत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता इसलिए वो एक जरुरी काम लगा. एक समग्रता के साथ पुरे सफर को बताने के लिए विकास की कड़ियों को बताना अहम था क्योंकि पचास बरस तक आते आते भोजपुरी सिनेमा अनेक बार मर कर जिया एवं जी कर मरा है . राष्ट्र के प्रथम नागरिक से सीधा सरोकार पा कर भी आज की भोजपुरी फिल्में विरासत से विमुख है.

भोजपुरी सिनेमा के आईने बदल गए ?

सिनेमा के प्रारूप को देखकर किसी प्रदेश की संस्कृति व रीति रिवाज का एक अंदाजा लगाया जाता है .इसलिए सिनेमा को समाज का आईना होने का दायित्व दिया गया.बदलाव पर आपत्ति नहीं आधुनिकता की परत आप पर चढ़ जाए बड़ी बात नही. भोजपुरी सिनेमा की शूटिंग बाहर जा कर करना किस आधार पर जबकि भोजपुरी भाषी क्षेत्र गंगा तट पर बसा हुआ . भोजपुरी फिल्मों में समुद्र दिखाया जा रहां जोकि ठीक नहीं.बाहर तब जाना चाहिए जब यहां चीजें उपलब्ध नहीं.आपके पास क्षेत्र की जीवन शैली एवं परिवेश खत्म हो गया तथा साहित्य नहीं रहा .वो अब भी बाक़ी फिर भी  विमुख हो रहें. आज की फिल्मों ने मिटटी व संस्कार का अहित करके रखा है.आप जब क्षेत्रीय सिनेमा मुनाफे के लिए बना रहे एवं भोजपुरी फिल्में बना रहे तो ध्यान रखना होगा कि क्या नहीं होना चाहिए. अमीर बनना किसे पसंद नहीं लेकिन सकारात्मक चीजें भी लेकर चलना सुहाता है. चीजें होने पर भी तलाशने की कोई ललक नहीं होना दुख देता है. ना केवल इंडस्ट्री बल्कि भोजपुरी को बिजनेस बनाने वाले सबको सोंचना होगा.

भोजपुरी का गर्व स्थापित करने वाले लोगों को याद करने का समय ?

बिलकुल! सिनेयात्रा सम्मान का मकसद वही था. भोजपुरी की पहली फ़िल्म के सम्मानित कलाकारों को सुंदरता से याद करने के लिए उनके नाम पर पुरस्कार रखे गए. वर्तमान को अतीत का आईना दिखाने के लिए आज के लोगों को दिवंगत लोगों के नामो से अवार्ड दिए गए. मसलन जद्दन बाई व नज़ीर साहेब .भोजपुरी में सिनेमा बने यह सोंच को इन्ही कलाकारों ने संभव किया. महबूब खान की तकदीरमें जद्दन बाई ने नरगिस पर ठुमरी रखने को कहा. आपने आग्रह किया कि महेंद्र मिश्र की मशहूर ठुमरी बाबू दरोगा जी कौने कसूर पे धर लियो सैयां मोरको रखने के लिए निर्देश दिए जाए.फ़िल्म में उस ठुमरी को उसी अंदाज़ में रखा गया जिस तरह जद्दन चाहती थीं. गाने की लोकप्रियता ने जद्दन बाई को भोजपुरी भाषा को लेकर पूरी फ़िल्म बनाने का सपना दिया. उनके अधूरे सपने को साकार किया नजीर साहेब ने. राजेन्द्र बाबू के भोजपुरी भाषी होने ने आपको खूब साहस दिया. हालांकि निर्माता खोजने में काफी समय गुजर गया .पचास से चली गाडी साठ दशक में जाकर मंजिल को आई.इस बीच नजीर को पटकथा पर अन्य भाषा में फ़िल्म बनाने वाले बहुत से निर्माता मिले लेकिन मन में लगन रही कि बनि तो केबल आपन भोजपुरिए में.

आज की फिल्मों का कोई मापदंड तो होना चाहिए ? भोजपुरी सिनेमा में नयी धाराओं की सख्त जरूरत सी है.

नजीर साहेब के प्रयासों को सुजीत कुमार की बेदेसिया ने जारी जरुर रखा .भिखारी ठाकुर को साक्षात अभिनय करते देखना चाह रहे तो राममूर्ति की लिखी बेदिसिया में देखें. बीच बीच में उत्तम स्तर को पाने की ललक दिखाई पड़ती रही लेकिन वो बहुत ही सीमित था.नयी बेदेसिया बनी भी तो ऊलजुलूल .इसलिए कहना चाहिए कि आज का हर भोजपुरी फ़िल्म कलाकार धनी जरुर लेकिन प्रतिष्ठा नहीं पा सका. किसी भी चीज को चलाने का एक मापदंड होता है. भोजपुरी सिनेमा का भी होना चाहिए. सम्मानित व सुसंस्कृत आधार लेकर चलने में आपको परेशानी भला क्या. भोजपुरी फ़िल्म के लोगों को इसकी ख़ास फिक्र नहीं क्योंकि उनके पीआरओ उन्हें हिट करा ही देंगे. तेतीस करोड़ भोजपुरी भाषी पर गर्व करने वाले इंडस्ट्री में तेतीस लोग भी सिनेमा पर गंभीरता से नहीं पहल ले रहें. बिहार का सिनेमा बंबई व फारेन लोकेशन का हो कर रहा गया है. 

आज की भोजपुरी फिल्मो में कामेडी का स्तर भी ठीक नहीं .लोहा सिंह सरीखे लोगों को भुला दिया गया ?

लोहा सिंह रेडियो का एक मशहूर का नाटक किरदार का नाम था जिसे रामेश्वर सिंह कश्यप अदा करते. नाटक की लोकप्रियता आलम यह था कि हफ्ते में जिस दिन इस साप्ताहिक कार्यक्रम का प्रसारण होता लोग पहले से ही रेडियो पास जमा होने लगते. इसकी अपार लोकप्रियता की वजह रही पात्रों की गंवईबोली एवं खुद लोहा सिंह का वो दिलचस्प अंदाज जिसमे खदेरन की मां को संबोधित करते. सबसे बड़ी खासियत यह कि इसका हर एपिसोड व्याप्त सामाजिक कुरीतियों पर खुलकर टिप्पणी करता एवं उनमे परिवर्तन की भी कामना रहती. लोहा सिंह का पात्र इस बुलंदी पर पहुंच गया कि इसके पीछे की आवाज रामेश्वर सिंह कश्यप का नाम छूटता गया एवं आम जन से ख़ास तक लोहा सिंह अमर हो गया. इस महान किरदार की लोकप्रियता को सिनेमा में लाने की पहल पटना निवासी मोहन खेतान ने ली. आपने भोजपुरी में इसी नाम से फ़िल्म तब बनाई जब यहां का सिनेमा कठिन संघर्ष से गुजर रहा था.आज का सिनेमा लोहा सिंह सरीखे उदाहरणों को भूला कर अजीब ही फूहड़ कामेडी रच रहा जोकि वाकई में वो नही एवं दुखद रूप से काम को हिट सुपरहिट भी बता रहा.


नोट : भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा को प्रभात प्रकाशन ने जारी किया है.


संपर्क-passion4pearl@gmail.com

शैलजा पाठक की कविताएं

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आज शैलजा पाठककी कविताएं. शैलजा पाठक  की कविताओं में विस्थापन की अन्तर्निहित पीड़ा है. छूटे हुए गाँव, सिवान, अपने-पराये, बोली-ठोली. एक ख़ास तरह की करुणा. आप भी पढ़िए- मॉडरेटर 
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1.   इतनी सी ख़ुशी 

 हमने कब कहा बो देना मुझे अपने मन की जमीन पर
 हमने कहा बिखेर देना जैसे खेतों में छीट दिए जाते हैं बीज
 नहीं कहा की नाम देना मुझे मेरे रिश्ते को
इतना कहा की नाम लेना मेरा प्यासे तालू से चटकने लगे जो प्यास
मैं बरस जाउंगी
कभी नही कहा ना की मिल लेना मुझसे
हमेशा मिलना चाहा कि जैसे कोयल की आवाज को चाहतें हरे पेड़ की मिलती है
आवाज की मिसरी हवा में मीठे हो जाते हैं खलिहान

नही कहा कि पास ही रहना हमेशा, साथ रहना की जैसे सूखे पत्ते के साथ रहती है
हवा
कि जैसे पत्तों पर चमकता हैं बरसों का टीका सिंदूर
कि टूट गए पत्तों को छुपा लेती माटी दो मुस्कराते पत्तों को सौंपती सी
मुस्कराती है
कि आग रहती है सीने में
कि मुलाकात के दुपट्टे पे चिपके रह जाते है कुछ घास फूस
रहना साथ हमेशा
हमारी दूरियों में हवा बनाती है एक पुल
दहकती आग से जलता है गाँव का सिवान
बादलों पर सवार संदेसे बिखरे तो रहते है आसमान की छाती पर
मेरे घर के रेडियो में तुम्हारे शहर की बात होती है
तुम्हारी खिड़कियों से उतरते रंग का समन्दर इधर है

आम प्रेमिकाओं की तरह कहना तो चाहती हूँ कि मेरे रहना सिर्फ और सिर्फ
पर तुम रहना जरूर यही कहती हूँ
तुम कहना जरूर अपने मन की

घोसले में खुले चोंच की चिड़ियाँ
इतनी बड़ी दुनिया से एक तिनका चाहती है बस

२. जीना जानते हैं हम
हम शुरू से शुरू नही कर सकते
हम अंत से शुरू होते हैं

हमारे हाथ में पिछली गिरी दीवारों की रेत है
हमारे हाथ में चिपके आकाश का रंग सफ़ेद है

हम चूल्हे में जान फूंकते हैं
हम मसालों से सने देह वाली औरतें
स्वाद भर याद रहते हैं तुम्हें

हम पिछली तारीखों के कैलेण्डर से बिछे हैं
तुम्हारी फाइलो के नीचे
हम सांवली आँख से घिरे समन्दर में
अपनी कश्तियाँ डुबोते हैं
कोर पर बच जाते हैं

हम जागते हुए सारी रात
तुम्हारे कन्धों पर तेज साँसों से टपक जाते हैं
हम गया हुआ कल है
पुरानी बातों पर मुस्कराते हैं

हम अपने भूले प्रेमी के नाम के पहले अक्षर को याद कर एक पूरी कहानी जी आते हैं
हम भविष्य सूंघते हैं
हम वर्तमान बनाते हैं
हम अतीत के पुराने घिरे बवण्डर में
बेतहाशा भाग रही औरतें
तुम्हारी खोखली दीवारों पर कितने इतिहास लिख जाते हैं
तुम्हारी तेज सांस मेरी खुली आँख पर नही ख़तम हो जाती हमारी कहानी

३. अम्मा रोई थी

अम्मा रोई थी
दीदी की सगाई में
बेटियों की विदाई में
भाई के उदासी में
पिता की दुरूह खांसी में
पूजा घर में भी न जाने क्या क्या याद कर
दूसरों की दुःख में पीड़ा में

एक बार तो भाई को नौकरी मिलने पर भी रोई
कई त्योहारों पर रोई थी
अपनी बेटियों को याद कर
उनके भरे खुशहाल परिवार की फोटो पर भी
हाथ फेरती भिगोती रही आँखें

एक बार मुझे खिलखिलाते देख भी सुबक पड़ी कि
सुबह चली जाने वाली हूँ मैं
ससुराल

एक दिन एकदम से चुप लगा गई
कितने ही कन्धे कांपे पर अम्मा न हिली
सब रहे रोते
अम्मा न रोईं

ये पहली दफा था
बिना आँचल बिना गोद हमने अपने आप को अकेले रोते देखा....

४ .फैसला

तितलियों ने त्याग दिए रंगीन पंख
गोरैया ने बेहिचक सौप दी अपनी उड़ान
नन्ही सी गुड़िया ने एकदम से छोड़ दी रंगीन पेन्सिल
आहत समय के घाव को सहला रही मक्खियाँ

हम एक घोषणा पत्र लिख रहे
एक आवाज हो रहे हम
बेरहम समय के भरोसे
टिका प्यार रेत की दिवार हो रहा
पंचायतें पेड़ों के नीचे चिता जलाये बैठी है
छुरियों पर रेते गए गर्दनों की आखिरी हिचकी है
इतने काले समय में
हम मरने से बदतर जी रहे

प्रेम अलविदा कहता हुआ दो टूक धरती की छाती में समा जाना चाहता है
मोमबत्तियों में जलाये जायेंगे धरे हुए प्रेम पत्र
आखिरी बार रौशनी देखेगी धरती
फिर राख हो जायेगी

हम सबने कर दिए हस्ताक्षर
तुम फैसले सुनाना

५. बताना जरा
तुम याद आते हो
जबकि चाहती हूँ भूल जाना

कितनी दरवाजे खिड़कियां बन्द कर लूँ
ये मन के रास्ते तो पूरा गाँव ही भागता सा चला आये

याद भी न जिद्दी घास होती है
जहाँ उम्मीद न हो वहां उग जाये
तुम्हें भूलूँ तो याद भी क्या करूँ

तुमसे ही जुड़े हैं झरने गीत गाते से
नदिया मचलती सी
ठहरी सी शाम का काँपता पत्ता
उलझे बालों की मुस्काती फ़िक्रें
और तुम्हारी कविता में रूप बदल कर मिलने वाला पहाड़
पता है आदतन जारी है साँसों का आना जाना
भींगे कपड़े को सुखाना
आग को कम ज्यादा करना
हथेली पर चखना नमक का स्वाद
बिस्तर पर लेटते ही पहली मुंदी आँख में उभरा चेहरा

ये झल्लाकर दीवारों पर नए रंग क्यों चढाते हो
पिछले रंग की मायूस पपड़ियाँ उभर आएँगी न
पहले उन्हें सहेजते

बेखुदी में खेलती हूँ बचपने सा खेल
भूल गए याद हो भूल गए याद हो
भूल गए वाले पंखुरी पर याद आ जाते हो
मुस्कराती आँख की झील में डूब कर भी नही डूबती किश्तियाँ
ये पारे सी फैलती याद ये दूरियों की किरचें

जादुई रास्तों पर याद साथ मिलने की बातें

कलेंडर में मिलने की तारीख किस रंग से लिखी होती है बताना जरा ...

रंगीन शीशे से दुनिया को देखना

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आज 'दैनिक हिन्दुस्तान'में महान कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण की आत्मकथा 'द टनेल ऑफ़ टाइम'का एक अंश प्रकाशित हुआ है. अनुवाद मैंने ही किया है- प्रभात रंजन 
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और इस तरह मैं बगीचे में भटकता रहता था, वह बहुत बड़ा था, वहां कम उम्र के लड़कों के लिए छिपने की जगह और झाड़ियाँ थी, घर के बड़े बूढों की नजरों (और बुलावों) से दूर. मैं गिलहरियों और कीड़ों की भागाभागी देखता और चिड़ियों की हर तरह की गतिविधियाँ.

मैंने रेखांकन करना कब शुरू किया? शायद तीन साल की उम्र में. जाहिर है, पहले दीवार पर, किसी भी आम बच्चे की तरह. उन दिनों अभिभावक अधिक सहनशील होते थे. दीवार पर मुझे उस तरह से रेखाकारी करने के लिए किसी ने भी रोका नहीं. मैं लकड़ी के जले हुए टुकड़ों से रेखाएं खींचता था जो मैं पिछवाड़े के गर्म पानी के चूल्हे से ले आता था. मैं बनाता क्या था? ओह, सामान्य चीजें, पेड़, घर, पहाड़ के पीछे सूरज...

कक्षा में मैं पढ़ाई में अच्छा नहीं था. एक बार जब मेरे अध्यापक ने शाबासी में मेरी पीठ थपथपाई थी तो वह मेरे रेखांकन की वजह से. हम सबको पत्ते बनाने के लिए कहा गया था. हर बच्चा अपना सिर खुजाते हुए यह सोचने लगा कि पत्ता किस तरह का लगता होगा. एक ने केले का पत्ता बनाया जो स्लेट के लिहाज से बहुत बड़ा हो गया. एक और ने एक ऐसा धब्बे जैसा कुछ बनाया जिसे देखा नहीं जा सकता था- ईमली का पत्ता! कुछ और किसी तरह कुछ निशान जैसा बना पाए. जब अध्यापक मेरे पास आये, उन्होंने पूछा, ‘यह तुमने खुद बनाया था?’ मैं कुछ झिझका. क्या मैंने कुछ गलती कर दी? क्या मेरी कान उमेठी जायेगी? मेरे गालों पर थप्पड़ पड़ेंगे? मैंने चुपचाप सिर हिला दिया. और आपको बताऊँ, अध्यापक असल में हँस पड़े. उन्होंने कहा कि मैंने बहुत अच्छा काम किया था. उनक उस पत्ते में बड़ी सम्भावना दिखाई दी थी जो मैंने बहुत पहले एक गर्म दोपहर उस उबाऊ कक्षा में बैठकर बनाई थी. मैंने पीपल के पेड़ पर पत्ते को देखा था जिसके सामने से मैं हर रोज स्कूल जाते हुए गुजरता था.  

आम तौर पर, लोग  हर चीज को महत्व नहीं देते हैं. वे अपने आसपास के चीजों को शायद ही देखते हैं. लेकिन मेरी आँखें बहुत तेज थी. मैं हर चीज का अवलोकन किया करता था और मुझे स्वाभाविक रूप से हर चीज विस्तार से याद रहती थी. यह हर कार्टूनिस्ट और रेखांकनकार के लिए जरूरी होता है.

पीछे जाकर जहाँ तक मैं याद कर सकता हूँ मुझे याद आता है कि कौवे मुझे आकर्षित करते थे क्योंकि पूरे भूदृश्य में वह बहुत जीवंत लगता था. हमारे बगीचे में वह हरे पेड़ों, नीले आकाश, लाल धरती और पीली चहारदीवारी के बीच अलग से ही काला दिखाई देता था. बाकी चिड़िया डरपोक होती थी. वे खुद को छिपा लेने की कोशिश करती थी. लेकिन कौवे बड़े चालाक होते हैं. वे अपना ध्यान बड़ी अच्छी तरह से रख सकते हैं.

तीन साल की उम्र में मैंने कौवों का रेखांकन शुरू कर दिया. मैंने उनको मजाहिया ढंग से बनाना शुरू किया. हमारे बाग़ में बहुत सारे पेड़ थे. आम, कठसेब, मार्गोसा, सहजुन... हर पेड़ रोमांच पैदा करता था. मैं उनके ऊपर चढ़ जाता था और वहां से दुनिया को देखा करता था. वही पुरानी जगहें पेड़ की ऊंचाई से कितनी अलग दिखाई देती थी. लेकिन ऐसा नहीं था कि उनके ऊपर चढ़ते हुए डर न लगता हो. कल्पना कीजिए कि एक छोटे बच्चे का अचानक किसी शाखा पर किसी गिरगिट से सामना हो जाए, निस्पंद और डरावने. यह सच में इतिहास-पूर्व जंतु है, आप जानते हैं. इसी तरह छिपकली, जिसको हम ओनान कहते थे- जिनकी फड़कती पूँछों से ही यह लगता था कि वे जीवित थे. जब मैं पीछे मुड़ कर सोचता हूँ तो मुझे यह समझ में आता है कि बच्चों को यथार्थ कल्पना से अधिक शानदार प्रतीत होता है. सोनपंखी से लेकर चूहे तक, हर वह चीज जो चलती फिरती है उसे हैरान करती है...

कभी न ख़त्म होने वाली कहानियों के स्रोत थे जिनको मैं बगीचे में अपने लिया बनाता रहता था. उदाहरण के लिए, आपने कभी चीटियों की बाम्बी देखी है? चीटियों को व्यस्तता से चलते देखा है? सामान्य तौर पर दो तरह की पंक्तियाँ होती हैं- एक बाहर जाती हुई दूसरी अंदर आती हुई. मेरा बड़ा भाई, जो मुझसे ठीक बड़ा था, को नई नई खोज करने का शौक था. वह मुझे बताया करता था कि ये चीटियाँ इन बाम्बियों के नीचे बहुत बड़े शहर में रहती थी. उस शहर में चौड़ी सड़कें और बड़े बड़े घर में रहते थे, वहां डाकघर थे, पुलिस थाना था, खेल के मैदान थे, सिनेमा हॉल थे. यह कि चीटियों के अपने सिनेमा पोस्टर भी होते थे. वह चीटियों के गुप्त जीवन के बारे में एक से एक कहानियां बनाते हुए कभी नहीं थकता था. 

मैं अपने स्कूल के बारे में आपको बताये बिना नहीं रह सकता. जब मैं पांच साल का हुआ तो मैं स्कूल जाने लगा. मुझे स्कूल से नफरत थी. सामान्य सी बात थी. अच्छा बताइए, किस बच्चे को स्कूल जाना पसंद होता है? मैं कक्षा में दयनीय लगता था. मुझे पक्के तौर पर यह लगता था कि इंसानों के लिए अस्वाभाविक और बुरा होता है. 

स्कूल में हम लोग फर्श पर बैठते थे और अपने पाठ एक साथ दोहराते थे. अध्यापक बहुत भयानक थे. वे बोर्ड पर कुछ लिख देते थे, हमसे यह कहते कि उसको उतार लें और बाहर बीड़ी पीने या गप्पबाजी करने चले जाते थे. मैं बहुत नटखट था. अक्सर सजा के रूप में मेरी पिटाई होती थी. लेकिन इससे मेरी बदमाशी कम नहीं होती थी.

मेरे परिवार का इस बात के ऊपर जोर रहता था कि मुझे स्कूल जाना चाहिए, लेकिन जब मैं परीक्षा में फेल हो जाता था तो मुझे उसके लिए डांट नहीं पड़ती थी. मैं हर साल बड़ी मुश्किल से पास होता था. कॉलेज में जाने पर भी मेरा यही हाल था. मैंने बीए की परीक्षा पास कर ली. यह जानकर मुझे कितनी राहत मिली कि अब मुझे कक्षा में फिर से नहीं जाना था.

हाँ, मैंने काफी मेहनत की और काफी समय तक की. लेकिन मैं यह बात नहीं भूल सका कि आप रंगीन शीशों से दुनिया को देख सकते थे. न ही उन शोर मचाने वाली काली चिड़ियों के प्रति मेरा प्यार कम हुआ, जो बच-बचाने में कामयाब रहती थी. मैं कौवों को उसी तरह आनंदपूर्वक चित्रित करता रहा जैसे मैं बरसों पहले बचपन के बेपरवाह दिनों में किया करता था, जब हर दिन उत्साह से भरा और हर घंटा रोमांचक होता था.
अनुवाद- प्रभात रंजन 




बाल साहित्य और शिक्षा की किताबों की चर्चा क्यों नहीं होती?

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हिंदी में साल भर की किताबों का जो लेखा जोखा प्रकाशित होता है उनमें बाल साहित्य तथा शिक्षा से सम्बंधित पुस्तकों की चर्चा न के बराबर होती है. शिक्षाविद कौशलेन्द्र प्रपन्नने एक बढ़िया आकलन करने की कोशिश की है- मॉडरेटर.
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कविता,कहानी,उपन्यास,यात्रा वृत्तांत आदि साहित्य की विधाओं में खूब लिखा जा ररह है, उनके बारे में खूब छापा जा रहा है। किताबें की सूची बनाई जाए तो वह हजारों की संख्या सहजता से पार कर जाएंगी। लेकिन यदि बच्चों के लिए लिखी गई किताबों की सूची देखने चलें तो वहां हम 10-20के बाद हांफने लगते हैं। यही हाल शिक्षा का भी है। बाल और शिक्षा गोया साहित्य का हिस्सा ही नहीं माना जाता। शायद यही वजह है कि जब पूरे साल का लेखा जोखा लिखा जाता है तब बाल और शिक्षा उन आकलनों से नदारत होते हैं। यदि आप यही जानना चाहें कि इस वर्ष बच्चों के लिए कौन सी किताब आई तो आपके हाथ निराशा ही लगेगी। कविता,कहानी,उपन्यास विधा की किताबों से कोई गुरेज नहीं है लेकिन क्या बाल और शिक्षा विधा को हाशिए पर ढकेल कर एक मुकम्मल तस्वीर की कल्पना की जा सकती है?क्या भविष्य के पाठक के लिए ऐसी जमीन की उपजाऊ है?कुछ और भी सवाल हैं जिनसे मुंह नहीं मोड़ सकते। दरअसल बाल और शिक्षा शास्त्र विधा में कम लिखे जाने के कारणों पर विचार करें तो पाएंगे कि यहां बाजार और आर्थिक पहलू ज्यादा हावी है। यदि बाल एवं शिक्षा साहित्य के खरीदार न के बराबर हैं तो ऐसे में प्रकाशक इस दुखते रग पर हाथ नहीं धरना चाहता। इसका अर्थ यह भी नहीं कि कविता,,कहानी,उपन्यास के बाजार गरम हैं। हां इन किताबों के लोर्कापण तो होते हैं लेकिन उन्हें भी पाठकों के राह जोहने पड़ते हैं। संभव है कविता,कहानी के पाठक ज्यादातर वे होते हैं जिन्हें भेंट स्वरूप किताबें मिलती हैं। जिन्हें पढ़कर मित्रों को एहसास करना होता है कि हां हमने तुम्हारी किताब पढ़ी बहुत अच्छी है। इस अच्छी की परिभाषा पर न जाएं। क्योंकि उन्हें महज एक दो कहानी व कविता पढ़कर अपनी राय बना लेते हैं। दरअसल अभी कविता, कहानी आदि की किताबों की समालोचना होना बाकी है। विभिन्न प्रकाशकों के सूची पत्रों से गुजरने के बाद जो हाथ लगता है वह बेहद निराशाजनक ही कहा जाएगा।
हिन्दी के प्रकाशक जिस तरह की बाल किताबें छापते हैं उनमें ज्यादातर बाल कहानियां,बाल गीत की किताबें होती हैं। दूसरे स्तर की वे किताबें मिलेंगी जो सिर्फ नसीहतें देती मिलेंगी। जैसे बच्चे कैसे सीखते हैं,बाल मन के गीत,बाल नाटक,मंदबुद्धि बच्चे आदि। इन किताबों की विषयी समझ और फैलाव पर नजर डालें तो ये किताबें बड़ों कह नजर से बच्चों की दुनिया को देखने की कवायदें ज्यादा लगेंगी। बच्चों के लिए उपयागी किताबें की संख्या बेहद कम हैं। जो बाजार में उपलब्घ हैं वे अंग्रेजी की किताबें हैं या फिर बाल गीत हैं। क्या बाल साहित्य सिर्फ बाल गीत, बाल कहानियां भर ही हैं। इस पर विमर्श करने की आवश्यकता है।
बच्चे कैसे सीखते हैं,भाषा शिक्षण के तौर तरीके क्या हों,कहानी कैसे कही जाए,कक्षा में भाषा और बोली,बच्चों की कहानियां कैसी हों आदि ऐसे विषय हैं जिन पर लेख,किताबें लिखी जानी चाहिए। यदि 2014में प्रकाशित कुछ किताबों पर नजर डालें तो विभिन्न प्रकाशकों की सूची में बाल साहित्य और शिक्षा की किताबें 50से ज्यादा नहीं हैं। वहीं अन्य कविता,कहानी की किताबें हजार की संख्या आसानी से पार कर जाएंगी।  भाषा और शिक्षा से संबंधित समाज,बच्चे-बच्चियां और शिक्षासवालों की शिक्षा’-वीरेंद्र रावत की लिखी इन दो किताबों से गुजरना गणित शिक्षण,कक्षा अवलोकन,भाषा की बुनियादी शैक्षिक समझ की विस्तार से विमर्श करती चलती है। वहीं कई प्रासंगिक दस्तावेजों की रोशनी में यह किताब नेशनल करिकूलम फ्रेमवर्क की परिभाषित भी करती है। भाषा,बच्चे और शिक्षा,कौशलेंद्र प्रपन्न की किताब सड़क पर भटकने वाले लाखों बच्चों को समर्पित है। इस किताब में भाषा से संबंधित शिक्षण विधि,भाषा की प्रकृति-भूगोल की जानकारी तो देती ही है साथ ही बच्चों के अधिकारों के लिए 1989 में संपन्न संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन की पांच बाल अधिकारों की रोशनी में भारत के बच्चों को देखती और विमर्श करती है। प्रेमपाल शर्मा की किताब शिक्षा भाषा और प्रशासन’,शिक्षा के सरोकार 2014, पढ़ने का आनंद 2013, भाषा का भविष्य 2012। यदि 2014 में प्रकाशित शिक्षा के सरोकारके कथ्य पर नजर डालें तो पाएंगे कि हिन्दी माध्यम और भाषा शिक्षण को लेकर उठे यूपीएससी की विवाद बवंड़र को ठहर कर विचारने की ओर प्रेरित करता है।
यदि बड़े प्रकाशकों की प्रकाशित किताबों की सूची देखें तो प्रेमचंद की कहानियां प्रमुखता से छापी जा रही हैं। वहीं दूसरे ज्यादा छपने वाले लेखक रवींद्र नाथ टैगोर हैं जिनकी कहानियां भी पेपर बैक में छपी हैं। राजकमल प्रकाशन की बच्चों की किताबों में प्रेमचंद,टैगोर,रवि शंकर आदि की किताबें ज्यादा हैं। जो विभिन्न मुद्दों पर लिखी गई हैं। एक ओर कृष्ण कुमार किताब मैं नहीं नहीं पढ़ूंगा है वहीं दूसरे ओर बड़े भाई साहब,सवा सेर गेहूं,गिल्ली डंडा और रवि शंकर की नालंदा,राममनोहर लोहिया, प्रवासी पक्षियों का बसेरा आदि टाईटिल मिलती हैं। वहीं प्रभात प्रकाशन की ओर शिक्षा पर बारह टाइटिल छापे गए हैं। लेकिन उन किताबों का प्रकाशन वर्ष स्पष्ट नहीं है कि कितनी किताबें 2014 में छपीं। लेखकों में शामिल हैं दीनानाथ बत्रा,देवेंद्र स्वरूप,जगमोहन सिंह राजपूत,जे एस अग्रवाल जो एक खास विचारधारा से संबंधित हैं। इनमें दीनानाथ बत्रा की भारतीय शिक्षा का स्वरूप’, जे एस राजपूत की किताब ‘शैक्षिक परिवर्तन का यथार्थ’, देवेंद्र स्वरूप की किताब राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का इतिहासशामिल है। बाल कथाओं में विष्णु प्रभाकर,श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी,प्रकाश मनु,हरीश शर्मा आदि की रोचक बाल कहानियों की किताबें मिलेंगी। हितोपदेश की कहानियां,,उपनिषद की कहानियां,चुनी हुई बाल कहानियां,सात बहनों की लोक कथाएं आदि बच्चों के लिए टाइटिल हैं। पंचतंत्र की कहानियां,पूर्वोंत्तर की लोकगाथाएं आदि बाल किताबों पर नजर डालें तो एकबारगी बच्चों पर नैतिक शिक्षा,मूल्य,प्राचीन कथाओं पर पढ़ाने पर जोर दिया गया है।

आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा और बाल साहित्य को नजरअंदाज किया जाए बल्कि उन साहित्यों को भी मुख्यधारा की समीक्षा और सूची में माकूल स्थान दिया जाए। क्योंकि बाल साहित्य और शिक्षा संबंधी किताबों को हाशिए पर रख कर साहित्य के वृहद् परिदृश्य की कल्पना करना मुश्किल है। संभव है इस लेख में कुछ किताबें यहां छूट गईं हों लेकिन उसके पीछे कोई सोची समझी रणनीति नहीं है।

कौशलेंद्र प्रपन्न
भाषा विशेषज्ञ एवं शिक्षा सलाहकार
अंतःसेवाकालीन शिक्षक शिक्षा संस्थान, टेक महिन्द्रा फाउंडेशन

दिल्ली

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

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रामधारी सिंह 'दिनकर'की यह कविता मुझे तब तब जरूर याद आती है जब विप्लव की आहट सुनाई देती है. कितना विरोधाभास है कि दिनकर जी जीवन के आखिरी कुछ वर्षों को छोड़ दें तो आजीवन कांग्रेस की सत्ता के करीब बने रहे, नेहरु जी, इंदिरा जी के करीब रहे. लेकिन उनकी मृत्यु के बाद 1974 में सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन में विद्रोही यही कविता गाते थे, दीवारों पर लिखते थे. यह कविता इस बात की ताकीद करती है कि रचना को लेखक के जीवन से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. लेखक तो मर जाता है रचनाएँ बार बार अपनी प्रासंगिकता को साबित करती हैं. कल रात जब ऑटोवाले ने मुझे घर छोड़ने के बाद अचानक पूछा, सर, 'आप'की सरकार बन जाएगी न?'मुझे फिर यह कविता याद आई- मॉडरेटर 
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सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 


जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,

जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। 


जनता?  हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम,

"जनतासचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"

"सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?"

'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"


मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;

अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। 


लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 


हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राहसमय में ताव कहां?

वह जिधर चाहतीकाल उधर ही मुड़ता है। 


अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार

बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;

यह और नहीं कोईजनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। 


सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो

अभिषेक आज राजा का नहींप्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। 


आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में। 


फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;

दो राहसमय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,


सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

क्या यह हिंदी प्रकाशन जगत में 'ब्रांड वार'की शुरुआत है?

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इस बार विश्व पुस्तक मेले की शुरुआत वेलेन्टाइन डे के दिन हो रही है और हिंदी के दो बड़े प्रकाशकों में इश्क को लेकर ‘ब्रांड वार’ की शुरुआत हो गई है. पहली किताब है राजकमल प्रकाशन के नए इंप्रिंट ‘सार्थक’ से प्रकाशित ‘इश्क में शहर होना’, जिसके लेखक हैं जाने माने पत्रकार रवीश कुमार, जो पत्रकारिता में अपने सरोकारों के लिए जाने जाते हैं. लेकिन यह उनके लिखे लप्रेक का संग्रह है. एक नई विधा है, नई उत्सुकता है. पुस्तक जयपुर साहित्योत्सव में लांच हो चुकी है और इसको लेकर चर्चा खूब हो रही है. अपने फेसबुक पेज पर राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से लिखा गया है- ‘इस #श्रृंखलाकीदूसरीऔरतीसरीकिताबेंभीनिश्चितअंतरालपरआपकोमिलजाएँऔरइससाल#वैलेंटाइनमिजाज#लगातारतीनमहीनेबनारहे, लप्रेक टीम इसी कोशिश में है। इश्क में शहर होते हुए आप तिमाही वैलेंटाइन #मौसमकेलिएतैयाररहिये। आपका उत्साह ही लप्रेक को आगे ले जायेगा. प्रसंगवश, लप्रेक श्रृंखला की दो अन्य पुस्तकों के लेखक हैं विनीत कुमार और गिरीन्द्रनाथ झा. लप्रेक को आशिकों के लिए आशिकी का सबब बनाने की कोशिश हो रही है.

दूसरी पुस्तक है इरशाद कामिल की ‘एक महीना नज्मों का’. जिसका प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है. वाणी प्रकाशन के फेसबुक पेज पर इस किताब की टैगलाइन दी गई है- इस वैलेंटाइन डे पर प्यार का इज़हार गुलाब से नहीं किताब से... इरशाद फिल्मों के जाने माने गीतकार हैं. इस किताब का मुम्बई में जबरदस्त लांच भी हुआ है, जिसमें मेरे दोस्त फिल्म निर्देशक इम्तियाज अली समेत तमाम सितारे मौजूद थे.

प्रेमियों को कौन सी किताब अधिक भाएगी यह तो पता नहीं लेकिन कुछ बातें हैं जो इस तरफ ध्यान दिलाने के लिए हैं कि हिंदी में मार्केटिंग, प्रचार-प्रसार को किस तरह से लिया जाता है. ‘इश्क में शहर होना’ की कीमार रखी गई 99 रुपये, जबकि अमेजन.इन पर प्री लांच में यह किताब पाठकों को महज 80 रुपये में मिली. इस किताब ने ऑनलाइन सेल को एक नया आयाम दिया और पहली बार किसी बड़े प्रकाशक ने ऑनलाइन बिक्री को गंभीरता से लिया, अपनी पुस्तक के प्रचार से जोड़ा. इस पुस्तक के प्रचार प्रसार में, बिक्री में ऑनलाइन की बड़ी भूमिका है. दूसरी तरफ, इरशाद कामिल की किताब को वाणी ने हार्डबाउंड और पेपरबैक दोनों में छापा है. उसके हार्डबाउंड संस्करण की कीमत है 395रुपये. हाँ, 99 रुपये में ‘एक महीना नज्मों का’ इ-बुक संस्करण जरूर उपलब्ध है. जो न्यूजहंट के प्लेटफोर्म पर बिक्री के लिए उपलब्ध है. एक बड़े लोकप्रिय गीतकार ब्रांड की यह किताब ऑनलाइन बिक्री के लिए किसी तटस्थ प्लेटफोर्म पर मौजूद भी नहीं है या अगर हो भी तो मुझ जैसे पाठकों को उसके बारे में पता नहीं है. एक मामूली पाठक के तौर पर मैं इन दोनों प्रयासों का स्वागत करता हूँ यकीन यह भी कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि 395 रुपये में गुलाब थोड़े महंगे जरूर हैं. लगता है प्रकाशक को किताब से अधिक इरशाद कामिल के ब्रांड पर भरोसा है.

बहरहाल, या जरूर है कि ये दोनों ही आयोजन सेलेब्रिटी को केंद्र में रखकर किये गए हैं लेकिन फिर भी मैं इनको सकारात्मक इसलिए मानता हूँ कि कम से कम इसी बहाने किताबों को, लेखकों को हिंदी प्रकाशक ब्रांड के रूप में तो देख रहा है, उनके प्रचार प्रसार पर ध्यान तो दे रहा है, हिंदी विभागों के आचार्यों की गिरफ्त से बाहर तो ला रहा है. आने वाले समय में इसका फायदा हिंदी के आम लेखकों को भी होगा. जिनकी किताब पाठकोन्मुख होगी उसके लिए प्रकाशक प्रचार-प्रसार, बिक्री के नए माध्यमों की तरफ जाएगी. क्योंकि हिंदी में अधिक सेलिब्रिटी हैं नहीं. मैं अपनी तरफ से राजकमल और वाणी प्रकाशन को इसके लिए बधाई देता हूँ कि उन्होंने पुस्तकालयों के सुरक्षित गोदामों से किताबों को बाहर लाकर पाठकों तक पहुंचाने की दिशा में कदम तो बढ़ाया.


फिलहाल, एक मामूली लेखक होने के नाते मैं इस ब्रांड वार का मजा ले रहा हूँ. जानता हूँ हिंदी के भविष्य के लिए, किताबों के भविष्य के लिए इन प्रयासों में सकारात्मक सन्देश छिपे हैं. हिंदी नए हलकों, नए इदारों तक पहुंचे इस पुस्तक मेले से यह उम्मीद बढ़ गई है. 

-प्रभात रंजन 

तुलसी राम की मणिकर्णिका का एक यादगार अंश

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आज तुलसी रामजी का निधन हो गया. वे हिंदी के उन महान लेखकों में थे जिन्होंने आत्मकथा की विधा को उसके शिखर पर पहुंचा दिया. इसे मेरी कमअक्ली समझी जाए तब भी मैं यह कहने से नहीं हिचकूंगा कि उनकी आत्मकथा 'मणिकर्णिका'हिंदी की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा है. हिंदी के ब्राह्मणवादी शिकंजे को तोडती हुई एक क्रांतिकारी पुस्तक है मणिकर्णिका. तुलसी राम जी को श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत है इसी पुस्तक का एक यादगार अंश- प्रभात रंजन 
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कैलाश भवन में जातीय समस्या एक बार फिर उभरकर सामने खड़ी हो गई। छात्र कम्युनिस्ट आंदोलनों में सक्रियता के कारण लंका के दुकानदारों के बीच मैं काफी लोकप्रिय हो गया था। बनारसी जनता की एक विशेषता यह थी कि वे किसी भी व्यक्ति का आदर या अनादर के साथ उल्लेख करते समय उसकी जाति का आंकड़ा अवश्य पेश कर देते थे। इस प्रक्रिया में कैलाश भवन के केयरटेकर रमा शंकर यादव को भी मेरी असली जाति का पता चल गया। यादव जी जाति पांति में गहरी पैठ रखते थे। कैलाश भवन के प्रांगण में एक कुआं था। उसी कुएं से पानी निकालकर सभी लोग नहाते धोते तथा खाना पकाते थे। मैं भी उसी कुएं से अपना सारा काम चलाता था। उस मकान में बिजली के साथ-साथ पानी का कनेक्शन भी नहीं था। एक दिन यादव जी मेरे कमरे में आए और रौद्र रूप धारण करते हुए कहने लगे: ‘‘आप झूठ बोलकर कमरा ले लिए और कुएं का पानी भी भ्रष्ट कर दिए।’’ उन्होंने तुरंत कमरा खाली करने का फरमान जारी कर दिया।

यह पहला अवसर था, जब मैंने जातीय भेदभाव के खिलाफ लड़ने का फैसला किया। मैंने यादव जी से साफ कह दिया कि न तो मैं कमरा खाली करूंगा और न आगे का किराया दूंगा। मैंने उनसे यह भी कहा कि यादव लोग भी उ$ंची जाति में नहीं आते हैं। यादव जी मेरी सारी बातें अचंभित होकर सुनते रहे, किंतु जब मैंने यह कहा कि बी.एच.यू. से सैकड़ों छात्रों को बुलाकर लाउ$ंगा और पूरे कैलाश भवन पर कब्जा करा दूंगा, तो वे यकायक डर गए और बिना कुछ बोले वापस चले गए। मैंने सचमुच में अगले महीने से किराया देना बंद कर दिया। यह घटना जून 1969की है। पहले महीने का किराया बंद होने के बाद डुमरांव से कैलाश भवन के मालिक आए। मालिक के साथ यादव जी पुनः मेरे कमरे पर आए। यादव जी चुपचाप खड़े थे किंतु उनके मालिक ने मुझसे धमकी भरे लहजे में कहा: ‘‘यदि किराया नहीं देना है, तो जंगल में झोपड़ी बनाकर रहो।’’ मैंने ऐसा सुनकर जोर से चिल्लाते हुए वहां बरामदे में रखे हुए लकड़ी के चैलांे में से एक चैला उठा लिया और धमकाते हुए कहा कि वे तुरंत भाग जावें, अन्यथा चैले से सिर फोड़ दूंगा। इसके बाद वे सचमुच में भाग गए। मार्क्सवाद ने मुझे पहली बार इतना साहसी बनाया था। मेरे दिमाग में बार-बार यह बात आती कि यदि मैं ईश्वर को खदेड़ सकता हूं, तो इन जातिवादी मनुष्यों को क्यों नहीं? इस बार पक्का इरादा कर लिया था कि जातिवाद से भविष्य में डरूंगा नहीं, बल्कि मुकाबला करूंगा। बनारस में यह विचित्र स्थिति थी कि मकान तो किराए पर मिलता था, किंतु जातिवाद मुफ्त में।

इसी बीच 1जुलाई, 1969को दो ऐसी घटनाएं घटीं, जिन्हें मैं कभी नहीं भूल पाउ$ंगा। सर्टिफिकेट के अनुसार 1जुलाई 1949को मेरा जन्मदिन पड़ता है। उस दिन मैं 20साल का हो गया था। मैं गोदौलिया से सिटी बस पकड़कर मडुआडीह रेल इंजन कारखाने स्थित अपने रिश्तेदार रघुनाथ प्रसाद के घर जा रहा था। कारखाना स्थित जनरल मैनेजर के आफिस के ठीक सामने से रेल लाइन गुजरती थी। हमारी बस रेल लाइन के समांतर बनी सड़क पर बाएं न मुड़कर सीधे बिना फाटक वाली रेल लाइन पर चढ़ गई। इस बीच इलाहाबाद से आ रही रेलगाड़ी आ धमकी। मुश्किल से एक इंच का फासला रहा होगा, अन्यथा बस के चिथड़े-चिथड़े उड़ गए होते। ड्राइवर ने दिमाग से काम लेकर बस को लाइन पार कराकर जी.एम. आफिस से टकराते-टकराते बचा लिया था। बस में साठ-सत्तर आदमी किसी तरह अंटे हुए थे। सबने राहत की सांस ली अन्यथा उस दिन कोई जिंदा नहीं बचता। बस में बैठी कुछ औरतंे रोने लगी थीं। उस दिन अपने रिश्तेदार के यहां दोपहर का खाना खाकर शाम को उसी बस से पुनः गोदौलिया वापस उतर गया। बस से उतरकर मैं माखन दादा की किताब वाली दुकान पर चला गया। वहां मैंने देखा कि चेकोस्लोवाकिया के प्रख्यात क्रांतिकारी जूलियस फ्युचिक की पुस्तक फ्राम द गैलोका हिंदी अनुवाद फांसी के तख्ते सेरखी हुई थी। इस किताब का प्रकाशन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली से किया गया था। पांच रुपए दाम वाली इस किताब को मैंने खरीद लिया। किताब लेकर मैं दशाश्वमेध घाट चला गया।
मैं जब भी गोदौलिया की तरफ जाता, एक बार गंगा को देखने अवश्य चला जाता था। यद्यपि कोई धार्मिक भावना नहीं होती थी, फिर भी गंगा बहुत अच्छी लगती थी। मैं दशाश्वमेध घाट की गंगा को छूती एक सीढ़ी पर पैर लटकाकर बैठ गया। फांसी के तख्ते सेको तब तक उलट-पुलट कर पढ़ता रहा, जब तक कि अंधेरा नहीं हो गया। घाट पर सैकड़ों लोग आते जाते रहे और अनेक साधु संत तथा आस्थावान लोग गंगा में नहाते रहे। वे लोग शायद मुझे देखकर यही समझते रहे होंगे कि मैं कोई धार्मिक पुस्तक पढ़ रहा था। खैर, अंधेरा होने के बाद मैं गंगा की सीढ़ियों से उठकर पैदल ही बी.एच.यू. के पास स्थित अपने निवास कैलाश भवन की ओर चल दिया। लंका से थोड़ा पहले अस्सी नाले के पास सड़क के किनारे एक मंदिर था। मंदिर से सटा हुआ उसके अहाते में कुछ कमरों वाला एक लाज था जिसमें सिर्फ ब्राह्मणों को रहने दिया जाता था। यह मंदिर एक ऐसा मठ था जिसके पुजारी परंपरागत ढंग से संस्कृत का अध्ययन करते थे। उस समय संस्कृत शिक्षा से जुड़े अनेक मठ मंदिर बनारस में हुआ करते थे। अस्सी वाले मठ में मेरे मित्र तथा बी.एच.यू. के सहपाठी गोरख प्रसाद पांडे रहते थे। गोरख पांडे संस्कृत विश्वविद्यालय से आचार्य (एम.ए.) करके पुनः बी.एच.यू. में मेरे साथ बी.ए. कर रहे थे। वे परंपरागत तौर पर पोंगा पंडित से मार्क्सवाद की तरफ संतरित हो रहे थे। इसलिए उनसे मेरी गहरी दोस्ती हो गई थी। हम दोनों ने आपस में यह तय कर लिया था कि कोई नई किताब मिलेगी, तो उसे आधा-आधा पढ़कर एक-दूसरे को बताएंगे कि उसमें क्या है? कभी-कभी तो हम अलग-अलग किताबों को पढ़ते थे और फिर एक दूसरे को बताते थे कि उनमें क्या-क्या लिखा हुआ था। इस तरह हम एक किताब पढ़ते थे और दो किताबों का ज्ञान हासिल कर लेते थे। ज्ञान प्राप्त करने की हम दोनों की यह अनूठी तकनीक थी। अतः जब मैं उस मठ मंदिर के पास पहुंचा, तो सोचा कि इस किताब को गोरख पांडे को दूं ताकि आधा वे पढ़ें और बाद वाला आधा हिस्सा मैं पढूं और फिर एक दूसरे को पढ़ा हुआ हिस्सा बता देंगे। उस मंदिर के एक पुजारी त्रिलोकी नाथ पांडे बी.एच.यू. के संस्कृत कालेज में एम.ए. कर रहे थे।

त्रिलोकी नाथ पांडे मुझे अच्छी तरह इसलिए जानते थे, क्योंकि मैं एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में पूरे विश्वविद्यालय में कुख्यात हो चुका था। वे जहां भी मिलते, मुझे जगजीवन रामकहकर पुकारते। जगजीवन रामका संबोधन जातिवादी मानसिकता का प्रतीक था, फिर भी, मैं कभी उनसे प्रतिवाद नहीं करता था। उस दिन रात के देवभोगके लिए होने वाली पूजा में कई पुजारी अलग अलग वाद्ययंत्रों, जैसे घंटा, चिमटा, झाल, ढपली आदि बजाने के साथ वंदना गीत भी गा रहे थे। रात के करीब आठ बजे थे। मैं ज्यों ही मंदिर के पास से होते हुए गोरख पांडे के कमरे की ओर मुड़ा। सारे पुजारी अपने अपने वाद्ययंत्रों के साथ मेरी ओर दौड़ पड़े। त्रिलोकी नाथ पांडे के हाथ में घंटा बजाने वाली मुंगरी थी। उनके एक साथी के हाथ में बड़ा-सा साधुओं वाला चिमटा था। त्रिलोकी नाथ जोर से चिल्लाकर बोले चमार सियारमंदिर में नहीं आ सकते। चिमटे वाला पुजारी प्रहार करने की मुद्रा में मेरी तरफ दौड़ा। मैं स्थिति की गंभीरता को देखते हुए बड़ी तेजी से बी.एच.यू. की तरफ भागा। यदि मैं तेज रफ्तार से भागता नहीं तो मेरी धार्मिक पिटाई निश्चित थी। इस बीच मंदिर की हलचल को गोरख पांडे ने देख लिया था। मठ के प्रथम तल पर उनका कमरा था। वे नीचे उतरकर पुजारियों से लड़ पड़े। वे जोर-जोर से चिल्लाकर उनको लथेड़ने लगे। शीघ्र ही गोरख पांडे दौड़ते हुए सड़क पर मेरा पीछा करके लंका चौमुहानी पर मुझसे मिलकर बहुत दुख जताने लगे। गोरख पांडे के मुख से ईश्वर, धर्म और पंडे पुजारियों के खिलाफ अनवरत गालियां निकलती रहीं। गोरख पांडे का ऐसा रूप मैंने पहली बार देखा था। वे कहने लगे कि ऐसे मंदिर में मैं कभी नहीं रहूंगा, जहां दलितों का प्रवेश वर्जित है। वे विशेष रूप से त्रिलोकी नाथ पांडे को गरियाते रहे। वे बहुत देर बाद शांत हुए, जबकि मेरे मुंह से कुछ भी नहीं निकला।

गोरख मेरे साथ मेरे कमरे पर आ गए। हम दोनांे ने लोहे की सिकड़ी में लकड़ी का कोयला जलाकर दाल चावल पकाया। गोरख पांडे आदतन सब्जी के बदले प्याज काटकर उसमें सरसों का तेल तथा नमक मिलाकर दाल चावल के साथ खा लेते थे। उस रात यानी 1जुलाई, 1969को हमने वैसा ही किया। खाने के बाद देर रात तक धर्मांधता पर चर्चा होती रही। आधी रात के बाद वे कैलाश भवन से अपने निवास उस अस्सी के मंदिर गए। सुबह होते ही अपना बोरिया बिस्तर लेकर के अस्सी इलाके में गंगा के किनारे एक अन्य बड़े पुराने संस्कृत मठ में चले गए। इस मठ में भी सिर्फ ब्राह्मणों को रहने दिया जाता था। खासियत इस बात की थी कि मठों में किसी ब्राह्मण को रहने से कभी मना नहीं किया जाता था। ब्राह्मण होने के नाते गोरख पांडे को ऐसा लाभ हर किसी संस्कृत मठ में मिल सकता था। ऐसे संस्कृत मठांे को धनी मारवाड़ी सेठ भारी रकम अनुदान में दिया करते थे। बनारस में कुछ ऐसे भी संस्कृत मठ थे, जिन्हें मुगल बादशाह औरंगजेब ने अनुदान देने की प्रणाली शुरू की थी। बाद में मुगल शासन समाप्त होने के बाद कुछ समाजसेवी मुस्लिम संगठनों ने उन मठों को अनुदान देना जारी रखा। जहां तक अस्सी नाले के पास वाले मंदिर की घटना का सवाल है, मैं उससे बुरी तरह आहत हुआ था। मन में यह भावना बार-बार आती थी कि अपना वश चलता तो धर्म और ईश्वर का पल भर में सफाया कर देता। उस समय सबसे ज्यादा दुख मुझे गोरख पांडे के लिए हुआ था, क्योंकि मेरे कारण उन्हें उस मंदिर से निकल जाना पड़ा था। वे मुझसे बार-बार कहते कि इस मंदिर के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट की जानी चाहिए। शीघ्र ही इस घटना की खबर बी.एच.यू. के राजनीतिक सर्किल में पहुंच गई।

मैं उन दिनांे विश्वविद्यालय के सफाई कर्मचारियों के बीच यूनियन का काम कर रहा था। लंका स्थित यूनिवर्सल बुक हाउस में बनारस के प्रख्यात कवि धूमिलसे मुलाकात हुई। वे मुझसे पूछने लगे कि आपके साथ मंदिर में क्या हुआ था? मैंने सारा वृत्तांत बताने के बाद उनसे कहा: ‘‘मैं अस्सी मंदिर के विरुद्ध भंगियों का प्रदर्शन आयोजित करने जा रहा हूं।’’ इतना सुनते ही धूमिल ने जवाब दिया: ‘‘भंगियों का क्यों वहां तो ब्राह्मणों का प्रदर्शन किया जाना चाहिए, क्योंकि इस घटना के लिए वे ही जिम्मेदार हैं।’’ उनकी बात सुनकर मैं अवाक रह गया। किंतु मुझे लगा कि धूमिल के तर्क में भारी दम था। फिर भी, गोरख और धूमिल के अलावा मुझे कोई तीसरा ब्राह्मण नहीं मिला, जिसे लेकर मैं प्रदर्शन के लिए जाता। अतः प्रदर्शन वाली बात अपने आप धराशायी हो गई। इस बीच बी.एच.यू. छात्रसंघ के भूतपूर्व अध्यक्ष रामबचन पांडे मुझे लंका पर मिले और नाराजगी प्रगट करते हुए कहने लगे: ‘‘कुछ गरीब ब्राह्मण उस मंदिर में अपनी रोजी रोटी किसी तरह चला रहे हैं और आप उनके मुंह से रोटी छीनना चाहते हैं?’’ मैं रामबचन पांडे के तर्क से दंग रह गया। वास्तविकता यह थी कि त्रिलोकी नाथ पांडे राम बचन पांडे के करीबी भाई बंधु थे। उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता नरेन्द्र प्रसाद सिन्हा जो बी.एच.यू. में बहुत सक्रिय थे, उन्होंने भी मंदिर प्रकरण पर एकदम उदासीनता दिखाई। अंततोगत्वा सारा मामला टांय टांय फिस्स हो गया। इसके बाद छः वर्षों से ज्यादा समय तक मैं बनारस में रहा और लगभग रोज ही गोदौलिया स्थित पार्टी आफिस को जाते हुए जब भी उस मंदिर से गुजरता, उसमें रखी देवी-देवताओं की मूर्तियों को घूरता हुआ अपना अकेला विरोध प्रदर्शन जारी रखता।

उन दिनों मैं कभी-कभी संपादक के नाम पत्रलिखा करता था। अतः मंदिर प्रकरण पर दिल्ली से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका पैट्रियाटको पत्र लिखा, जो पूरा का पूरा प्रकाशित हो गया, जिससे मुझे बहुत संतुष्टि मिली थी। सच मानिए तो मेरा लेखकीय अभियान संपादक के नाम पत्रसे ही शुरू हुआ था। यह बात फरवरी 1969की है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा का पहला मध्यावधि चुनाव हो रहा था। आर्य समाज के तत्कालीन प्रख्यात नेता प्रकाशबीर शास्त्री का बनारस के बेनियाबाग में भाषण हुआ। अपने भाषण में उन्होंने कहा: ‘‘यदि जाति-पाति तोड़नी है, तो सवर्ण युवकों को चाहिए कि वे दलित लड़कियों से शादी करें।’’ उनके इस भाषण की प्रतिक्रिया में मैंने बनारस से प्रकाशित होने वाले आजअखबार में एक संपादक के नाम पत्रलिखा। पत्र में मैंने लिखा था: ‘‘यदि जाति-पाति तोड़नी है, तो सवर्ण लड़कियों को दलित लड़कों से शादी करनी चाहिए। यदि सांसद या विधायक अपनी लड़कियों की शादी दलितों से करें; तो वे भारी बहुमत से चुनाव जीत सकते हैं।’’ संपादक के नाम यह पत्र काफी लंबा था, जिसमें मैंने जातिवाद के खिलाफ अनेक तर्क दिए थे। यह पत्र पहली बार पूरा का पूरा छपा। मैं उसकी कटिंग अपने पाकेट में तब तक रखे रहा, जब तक कि वह तार- तार होकर एकदम झड़ नहीं गया। मैं अनेक दोस्तों-मित्रों को वह पत्र जबरन पढ़ने पर मजबूर कर देता था। उस पत्र की खास बात यह थी, कि करीब एक महीने से भी ज्यादा समय तक उसकी प्रतिक्रिया में संपादक के नाम अनेक पत्र छपते रहे। प्रतिक्रिया में छपे सारे पत्र मेरे पत्र के विरोध में थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एम.ए. की एक छात्रा दमयंती ताम्बे का छपा पत्र आज भी मुझे याद है। उन्होंने सवर्ण लड़कियों की दलितों से शादी की बात को हिंदू धर्म के लिए खतरा बताया था। करीब-करीब सारे पत्रों में ऐसी ही मिलती-जुलती बातें कही गई थीं। संपादक के नाम मेरे पत्र की प्रतिक्रिया में छपे पत्रों ने मुझे भविष्य में एक लेखक बनने की असीम प्रेरणा दी थी। साथ ही मेरे अंदर बसा वोल्गा से गंगावाला दुर्मुखविशालतर होता चला गया।

संस्कृत मठों की कड़ी में एक मठ बनारस चौक के पास नेपाली खपड़ा नामक मोहल्ले में था, जिसमें मेरे एम.ए. के सहपाठी मिथिला के कट्टर पंडित हीरानंद झा रहते थे। इस मठ में भी पचास साठ ब्राह्मण रहते थे, जिसमें खाना रहना सब कुछ मुफ्त था। हीरानंद हमेशा टीका चंदन लगाए रहते थे। कक्षा में उनका सबसे पहला दोस्त मैं ही बना था। शुरू-शुरू में उनका टीका चंदन देखकर मैं बहुत घबड़ाया था। किंतु उनका व्यवहार मेरी धारणा के एकदम विरुद्ध सिद्ध हुआ। वे छुआछूत जाति पांति में एकदम विश्वास नहीं करते थे। वे मेरे निवास पर अकसर दोपहर की कक्षाओं के बाद आते और सबसे पहले कमरे के कोने में रखा भगोना या पतीली उठाकर अपनी जांघांे पर रख लेते और बचा-खुचा चावल दाल आदि खाकर खाना समाप्त करने के बाद बातचीत शुरू करते थे। उनका ऐसा करना मुझे बहुत अच्छा लगता था, किंतु मेरी मुश्किल यह थी कि मैं एक समय का खाना पकाकर आधा शाम के लिए छोड़ दिया करता था। जिस दिन वे पतीली सफाचटकर जाते, मेरी कठिनाई बढ़ जाती थी। इस तरह हीरानंद झा मेरे गहरे दोस्त बन गए। एक दिन उन्होंने कहा: ‘‘मैं अकसर आपका खाना खा जाता हूं। एक बार आप मेरे मठ में आइए और वहीं भोजन कीजिए।’’ मैंने उनसे कहा कि ब्राह्मणों के मठ में कैसे आउ$? वहां तो कट्टर जातिवादी मामला होता है। इस पर झा जी ने कहा: ‘‘क्यों घबड़ाते हैं, मेरा टीका चंदन आपके काम आएगा और आपका परिचय दूंगा कि ये तुलसीराम शर्मा हैं।’’ टीका चंदन मुझे लगाकर उस संस्कृत मठ में ले गए। अन्य ब्राह्मणों से शर्मा जी के रूप में उन्होंने मेरा परिचय कराया। उम्र में मुझसे छोटे कई ब्राह्मणों ने मेरा पैर छूकर नमस्कार किया। उन सभी ने बहुत विनम्रता दिखाई थी। मैंने उन सबके साथ मुफ्त में मिलने वाला सादा किंतु बहुत स्वादिष्ट खाना खाया। खाते समय मेरे सामने कल्पना में हरदम अस्सी वाले मठ के पुजारी त्रिलोकी नाथ पांडे घंटा पीटने वाली मुंगरी तथा दूसरे पुजारी लोहे का बड़ा चिमटा ताने खड़े नजर आने लगे। मुझे हरदम ऐसा लगता था कि शीघ्र ही मेरे उ$पर प्रहार हो जाएगा। चमार जो था।

भोजन के बाद हीरानंद अपने कमरे में मुझसे बहुत देर तक बात करते रहे क्योंकि गर्मी का दिन था, इसलिए धूप में बाहर नहीं जाने दिया। दिन ढलने पर जब बनारस की तंग गलियां छाया से ढक गईं, मैं झा जी से विदा लेकर पास स्थित मणिकर्णिका घाट चला गया, क्योंकि यह स्थली बनारस में मेरी सबसे चहेती स्थली बन गई थी। इसे देखते ही मेरी मुर्दहिया आंखों के सामने नाचती दोपहरी यानी मृगतृष्णा जैसी दिखाई देने लगती थी। उन्हीं दिनों मैंने बुद्धकालीन एक महान भिक्षुणी पटाचारा के बारे में पढ़ा कि वह भिक्षुणी बनने से पहले श्रावस्ती के श्मशान में शोकग्रस्त होकर अर्धविक्षिप्त अवस्था में नंगधड़ंग पागलों की तरह चिल्लाती-विलखती इधर-उधर घूमा करती थी, क्योंकि एक ही दिन में उसके पति की सांप काटने से मृत्यु हो गई, उसके नवजात शिशु को बाज खा गया, बड़ा बच्चा नदी में डूब गया, माता तथा पिता बारिश में घर गिर जाने से मर गए थे। एक दिन इसी अवस्था में नंगधड़ंग वह जहां बुद्ध उपदेश दे रहे थे, उधर से गुजरी। भिक्षुओं ने उसे भगाने की कोशिश की, किंतु बुद्ध के कहने पर वह पास आ गई। एक भिक्षु ने अपनी संघाटी यानी कमर के उ$पर वाला चीवर उसके उ$पर फेंका, जिसे उसने ओढ़ लिया और बुद्ध के उपदेश को सुनकर वह शोकमुक्त होकर भिक्षुणी बन गई। चीवर ओढ़ने के कारण उसका नाम पटाचारा पड़ा था। इसके बाद मैं अनेक बार मणिकर्णिका गया और हर बार मुझे ऐसा लगने लगता था कि कभी न कभी पटाचारा कहीं न कहीं से घूमती मुझे वहीं मिल जाएगी। जहां तक हीरानंद झा का सवाल है, उन्होंने मुझे कई बार कहा कि आप तो कम्युनिस्ट पार्टी के काम से शहर आते ही रहते हैं, अतः मठ में आकर भोजन कर लिया करिए। किंतु मैं डर के मारे दोबारा उनके यहां नहीं गया। मैं सोचने लगता था कि कहीं अस्सी मठ वाली घटना न दोहरा जाए।

वैचारिक तथा साहित्यिक दृष्टिकोण से सन् 1968-69का वर्ष मेरे लिए जीवनशैली निर्माण का वर्ष सिद्ध हुआ। धर्मांधता का गढ़ होने के कारण होली के अवसर पर हिंदू मुसलमान प्रायः तनातनी का शिकार हो जाते थे। सन् 1968में एक ऐसा ही दंगा हो गया। मैंने पहली बार पाया कि दंगों को हिंसक बनाने के लिए क्या क्या हथकंडे अपनाए जाते हैं। हिंदुत्ववादी लोग अकसर बताते कि बनारस के किसी न किसी प्रख्यात मंदिर के सामने गाय का कटा सिर पाया गया। अफवाहों का बाजार इतना गर्म हो गया था कि सही गलत में फर्क करना मुश्किल हो गया था। मदनपुरा तथा जैतपुरा मुस्लिम बहुल क्षेत्र होने के बावजूद वहां दोनों समुदायों की मिलीजुली आबादी है। अतः उस समय बड़ी भयावह स्थिति पैदा हो जाती थी, जब दंगा के दौरान हिंदू मकानों की छतों से नारे लगाए जाते: हर हर महादेव’, और ऐसे ही मुस्लिम मकानों की छतों से नारे आते: अल्लाह ओ अकबरहर हर महादेववाला नारा बनारसवासियों का एक तरह का तकियाकलाम था। एक विचित्र बात यह थी कि बनारस के राजा विभूति नारायण सिंह अपनी कार में किसी गली में दिखाई देते तो आम लोग हर हर महादेव का नारा लगाते चिल्ला उठते थे। उस समय सन् 1967में उत्तर प्रदेश की पहली मिली-जुली सरकार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रुस्तम सैटिन पुलिस मंत्री थे। वे बनारस के ही रहने वाले थे। उन्होंने दंगे कुचलने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बनारस में मैंने ऐसे कई दंगे देखे और हमेशा अपने को चिंताग्रस्त पाया। उस दंगे के दौरान एक ऐसी घटना हुई, जिससे यह अंदाजा लगा कि कैसे साधारण गरीब लोग सबसे आगे बढ़कर हिंसक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।

बी.एच.यू. की दक्षिणी सीमा के उस पार सीर करहियानामक एक गांव है। वहां से एक ग्वाला साइकिल पर बाल्टांे में दूध रखकर बेचने आता था। कैलाश भवन में अनेक लोग चाय बनाने के लिए उससे एक एक पाव दूध लिया करते थे। मैं भी कभी-कभी उससे दूध ले लिया करता था। जिस दिन दंगा शुरू हुआ उसके बाद तीन दिनों तक वह हम लोगों के पास नहीं आया। उसे लोग सरदार कहते थे। अन्य लोगों के साथ मैं भी चिंतित हो गया था कि सरदार को क्या हो गया? चिंता इस बात की थी कि वह मुस्लिम इलाकों में भी दूध बेचने जाता था। मेरे दिमाग में हरदम यह बात आती थी कि सरदार कहीं दंगों का शिकार न हो गया हो। इन आशंकाओं के बीच चौथे दिन सरदार दूध लिये कैलाश भवन आ धमका। हम सभी कुतूहलवश उसे घेर लिये। पूछने पर उसने बताया: ‘‘हम जगमबाड़ी जात रहली। वोंही कुछ मुसलमानन के बंगाली लोग घेरले रहलैं। म आपन बल्टवा क दुधवा गिराय के बल्टै बल्टै उनहन क कपरा फोड़ि दिहलौं। ओकरे बदवा म बल्टवा वोहीं छोड़ि के भागि अइलों।’’ ऐसा सुनकर मैं दंग रह गया। खैर, सरदार सही सलामत था, इसलिए हम भी उसे पुनः दूध बांटते देखकर बहुत खुश हुए थे। उन दिनों जब भी साम्प्रदायिक दंगे होते बी.एच.यू. के छात्रनेता, मूलतः कम्युनिस्ट तथा लोहियावादी सोसलिस्ट हमेशा शांति कायम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। नागरिक समितियों के माध्यम से साम्प्रदायिक एकता के लिए खूब काम किया जाता था। अपने बनारस प्रवास के दौरान मैंने पूंजीवाद के साथ-साथ साम्प्रदायिकता से भी लड़ना सीखा। साम्प्रदायिकता को मैं आज भी राष्ट्रीय एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानता हूं। बी.ए. में रह चुके मेरे एक सहपाठी मदनपुरा के मो. सलीम अंसारी थे। उनके पिता और बड़े भाई घर के अंदर हथकरधे पर कपड़ा बुनकर सारे परिवार की जीविका चलाते थे। सलीम भाई बी.एच.यू. हाकी टीम के कैप्टन भी थे और मेरे गहरे दोस्त। मैं अकसर उनके घर दंगों के बाद जाया करता था। वे लोग मेरा बड़ी गर्मजोशी से स्वागत करते और खूब खिलाते पिलाते। बाद में हुए एक ऐसे ही दंगे के बाद मैं सलीम के घर गया। उनके पिताजी यह बताते हुए रो पड़े कि दंगाइयों ने हजारों गरीब मुसलमानों के अटेरन हथकरघा आदि को तोड़ दिया, जिससे उनकी रोजी रोटी का एकमात्र सहारा छिन गया। संयोगवश, सलीम का हथकरघा सही सलामत बच गया था। उनके घर का एक नजारा मुझे कभी नहीं भूलता। मैं वहां जब भी जाता, उनके पिताजी मृगछाला की तरह बकरे का चमड़ा बिछाकर मुझे बैठा देते और स्वयं हथकरघे पर अनवरत काम करते हुए बातें करते रहते थे। ऐसे अवसरों पर बिलकुल कबीर का झीनी झीनी बीनी चदरियावाला दृश्य प्रस्तुत हो जाता था।

मदनपुरा मोहल्ले की एक खासियत यह थी कि गोदौलिया से बी.एच.यू. की तरफ जाने वाला सड़क के किनारे वाला पूर्वी हिस्सा अमीर मुसलमानों का होता था और पश्चिम वाला हिस्सा गरीब मुसलमानों का। पश्चिम वाले हिस्से में ठीक सड़क के किनारे एक मकान के प्रथम तल पर बनारस के प्रसिद्ध शायर नजीर बनारसीरहते थे। उनके कमरे के सामने एक खुली छत थी। मैं वहां से जब भी गुजरता नजीर साहब प्रायः अपनी बकरी को पेड़ पौधों की पत्तियां खिलाते नजर आते थे। बी.एच.यू. की स्वर्ण जयंती (1967) के अवसर पर सम्पन्न मुशायरे में उनके द्वारा सुनाई एक नज्म की ये पंक्तियां विशेषकर दंगों के बाद मुझे अकसर याद आ जाती थीं:

अंधेरे ने भीख मांगी थी रोशनी की
मैं अपना घर न जलाता, तो क्या करता?

सन् 1969के आते-आते देश की राजनैतिक हालत में काफी बदलाव आ गया था। सन् 1967के आम चुनावों में जिन नौ प्रांतों में विरोधी दलों की संयुक्त सरकारें बनी थीं, वे सब की सब धराशायी हो गईं और फरवरी 1969में पहली बार इन विधानसभाओं का मध्यावधि चुनाव हुआ। बड़ा प्रांत होने के नाते उत्तर प्रदेश में काफी गहमागहमी थी। इस चुनाव में मैं काफी सक्रिय था। शहर दक्षिणी की सीट पर रुस्तम सैटिन पुनः उम्मीदवार थे। अन्य पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ चुनाव प्रचार में मैंने दिन रात एक कर दिया था। चुनाव प्रचार के दौरान जगह-जगह नुक्कड़ सभाएं होतीं, जिनमें दीपक मलिक, सुनिल दास गुप्ता, विश्वनाथ मुखर्जी जैसे बनारस के कम्युनिस्ट नेताओं के भाषण होते। इन नुक्कड़ सभाओं में पार्टी कार्यकर्ता मो. सिराज के क्रांतिकारी गीतों से खूब रोमांच पैदा हो जाता था। उनके द्वारा गाए गए गीतों में से निम्न पंक्तियां बहुत लोकप्रिय हुई थीं:
दमादम मस्त कलंदर
दमादम मस्त कलंदर।
मेरा नाम है बिरला भाई
मेरा नाम है टाटा।
हम दोनों ने मिलकर
भारत आधा आधा बांटा।

दमादम मस्त कलंदर...

मणिकर्णिका राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है. 

'रॉय'ने मेरे भीतर के ज्ञान-चक्षु खोल दिए हैं!

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फिल्म 'रॉय'की आपने कई समीक्षाएं पढ़ी होंगी. यह समीक्षा लिखी है हिंदी की जानी-मानी लेखिका अनु सिंह चौधरी ने. जरूर पढ़िए. इस फिल्म को देखने के लिए नहीं, क्यों नहीं देखना चाहिए यह जानने के लिए- मॉडरेटर.
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इस 'रॉय'ने मेरे भीतर के ज्ञान-चक्षु खोल दिए हैं। फिल्म ने मेरे तन-मन-दिल-दिमाग पर ऐसी गहरी छाप छोड़ी है कि इसके असर को मिटाने के लिए टॉरेन्ट पर टैरेन्टिनो की कम से कम पांच फ़िल्में डाउनलोड करके देखनी होंगी। बहरहाल, महानुभाव रॉय और उनसे भी बड़े महापुरुष फिल्मकार-लेखक विक्रमजीत सिंह की बदौलत मैंने ढाई सौ रुपए गंवाकर सिनेमा हॉल में जो ज्ञान अर्जित किया, वो आपसे बांटना चाहूंगी। (वैसे भी ज्ञान बांटने से जितना बढ़ता है, सदमा बांटने से उतना ही कम होता है।) 

ज्ञान नंबर १ - अगर आप कबीर ग्रेवाल (अर्जुन रामपाल) की तरह सेलीब्रेटेड फ़िल्म राईटर-डायरेक्टर बनना चाहते हैं, तो आप सिर्फ़ और सिर्फ़ टाईपराईटर पर अपनी स्क्रिप्ट लिखें। फ़िल्म लिखने के लिए 'प्रेरणा'का होना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी आपके सिर पर फेडोरा स्टाईल टोपी का होना। 'प्रेरणा'मलेशिया जैसे किसी देश में मिलती है। मलेशिया जाकर शूट किया जाए तो आधे-अधूरे स्क्रीनप्ले से भी काम निकल जाता है। 

ज्ञान नंबर २ - एक सफल फिल्मकार और लेखक होने के लिए आपका चेन स्मोकर और एल्कोहॉलिक होना अत्यंत आवश्यक है। हां, ध्यान रहे कि आप बार में ड्रिंक मांगे तो द मैकेलैन, वो भी तीन आईस क्यूब्स हों। सिर्फ़ तीन। उसके बाद ही आप गर्लफ्रेंड नंबर २३ को पटाने की ज़ुर्रत करें। ('What were you smoking when you wrote this'जुमले का मतलब आज जाकर समझ में आया है!

ज्ञान नंबर ३ - आपकी फ़िल्म बन सके, इसलिए लिए ईरानी नाम का कोई पपलू फाइनैंसर ढूंढ लें। मीरा नाम की एक असिस्टेंट हो तो और भी अच्छा। बाकी 'प्रेरणाएं'तो आती-जाती रहती हैं।

ज्ञान नंबर ४ - एक फ़िल्म लिख पाने के लिए अपने भीतर के ऑल्टर ईगो को तलाशना ज़रूरी होता है। आप अपने ऑल्टर ईगो के जितने करीब होंगे, फ़िल्म उतनी ही ऐब्स्ट्रैक्ट और कमाल की बनेगी। दर्शक ख़ुद को फ़िल्म और फ़िल्म के किरदारों के करीब महसूस करें, इसकी बिल्कुल ज़रूरत नहीं है।

ज्ञान नंबर ५ - संगीत के लिए तीन किस्म के रिहैश का इस्तेमाल किया जा सकता है - अंकित तिवारी स्टाईल रिहैश, बेबी डॉल स्टाईल रिहैश और ईडीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक डांस म्यूज़िक स्टाईल रिहैश।

ज्ञान नंबर ६ - फ़िल्मों तीन किस्म की होती हैं - एक वो जो दर्शकों के लिए बनाई जाती है - मसाला फ़िल्में टाईप की। दूसरी वो, जो आलोचकों और फेस्टिवल सर्किट के लिए बनाई जाती है। तीसरी किस्म का पता मुझे 'रॉय'फ़िल्म देखकर चला है - वो जो ख़ुद को समझने के लिए बनाई जाती है।

ज्ञान नंबर ७ - डायलॉग लिखने के लिए रॉन्डा बायर्न और पॉलो कोएल्हो को पढ़ना और आत्मसात करना ज़रूरी है। बाद में आपके डायलॉग इनकी बहुत ख़राब कॉपी लगें भी तो कोई बात नहीं।

ज्ञान नंबर ८ - - आप किस तरह के इंसान हैं, ये बात आपकी राईटिंग से पता चलती है। ये ज्ञान मैंने नहीं बघारा, फ़िल्म में जैक़लीन फर्नान्डीज़ कहती हैं।

 ज्ञान नंबर ९ - रणबीर कपूर के मासूम चेहरे पर बिल्कुल नहीं जाना चाहिए। लड़का जितना भोला दिखता है, उतना है नहीं। उसको पता था कि ये फ़िल्म देखकर लोग उसे गालियां देंगे। लेकिन हॉट बेब जैकलीन की कंपनी का लालच गालियों से बढ़कर होता है।


ज्ञान नंबर १० - ब्रेकअप की कोई वजह और बहाना न सूझ रहा हो तो इस वैलेंटाईन अपने बॉयफ्रेंड को रॉय का टिकट तोहफ़े में दें। वो आपको इस धोखे के लिए कभी माफ़ नहीं कर पाएगा, और बैठे बिठाए आपका काम निकल आएगा। (आपको साथ जाने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं। जो ढाई सौ रुपए बच जाएं उसकी मुझे कॉफ़ी पिला दीजिएगा।)

हृषीकेश सुलभ आज साठ साल के हुए!

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आज हृषीकेश सुलभ60 साल के हो गए. जब हम साहित्य की दुनिया में शैशवकाल में थे तब तब पत्र-पत्रिकाओं में लेखकों की षष्ठी पूर्ति मनाई जाती थी. हिंदी साहित्यकारों का तब एक परिवार जैसा था. अब भारतीय समाज की सामाजिकता ही नहीं हिंदी की अपनी पारिवारिकता भी ख़त्म होती जा रही है. लेकिन अब भी कुछ लेखक ऐसे हैं जिनके सान्निध्य में युवाओं को कुछ छांह मिलती है. उन चंद लेखकों में हृषीकेश सुलभ भी हैं. वे हिंदी की गुम होती सहृदयता, सामाजिकता की अनवरत जलती हुई कंदील हैं. हमेशा अपने आसपास रौशनी फ़ैलाने के लिए तत्पर.

वे लोक के आलोक हैं. विलुप्त होती भोजपुरिया संस्कृति, गायब होती लोक चेतना, हाशिये की संस्कृतियों की जैसे हूक उनकी कहानियों, उनके नाटकों में अनवरत सुनाई देती है. इस ग्लोबल दौर में, युनिवर्सल के दौर में वे स्थानीयता की सबसे मुखर आवाज हैं. मुझे नहीं लगता है कि आज हिंदी में कोई दूसरा लेखक है जिसकी स्थानीयता पर इतनी गहरी पकड़ है, और जो तकनीक प्रधान होते समाज की संवेदन शून्यता को भी इतनी गहराई के साथ पकड़ पाता हो. हाल में ही उनका छठा कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है- हलंत. इस संग्रह में एक कहानी है ‘उदासियों का बसंत’. सोशल मीडिया के दौर में संबंधों के इनबॉक्स आउटबॉक्स को लेकर इतनी अच्छी और सकारात्मक कहानी दूसरी नहीं पढ़ी मैंने. यह हिंदी की एक क्लासिक कहानियों में है. एक पाठक के रूप में मैं ख़म ठोककर यह बात कहना चाहता हूँ. हिंदी में आलोचना विश्वविद्यालयों के हिंदी प्राध्यापकों के लिए आलू-चना भर बन कर रह गई है. ऐसे में पाठकों की आवाज अधिक विश्वसनीय बन गई है. मैं वैसा ही एक पाठक हूँ जिसे यह कहानी एक ट्रेंडसेटर कहानी लगती है.

असल में, हृषीकेश सुलभ के लेखन की सबसे बड़ी ताकत ही यही है. वे नाउम्मीद के नहीं उम्मीद के लेखक हैं. उनमें सब कुछ नष्ट हो जाने, बदलते चले जाने का हा हंत भाव नहीं है बल्कि इस तेज बदलाव के दौर में भी वे उम्मीदों की डोर को मजबूती से थामने वाले लेखक हैं. अपने लेखन में वे उन सूत्रों को सूक्ष्मता से पकड़ते हैं जिनसे दुनिया आगे बढती है.

एक लेखक के रूप में मैंने भी स्थानीयता को लेकर कहानियां लिखी हैं, अपने गुमनाम शहर सीतामढ़ी को कहानी की दुनिया में मजबूती से स्थापित करने की कोशिश की है. कर पाया या नहीं यह अलग बात है लेकिन इसकी प्रेरणा मुझे सबसे अधिक सुलभ जी से ही मिलती रही है. मुझे याद आता है अंग्रेज कवि स्टीफेन स्पेंडर का वह कथन जो कभी उन्होंने नेहरु को लेकर कहा था कि बड़ा व्यक्तित्व वह नहीं होता है जिसके व्यक्तित्व से हम आतंकित हो जाएँ, जिसकी विराटता में हम खो जाएँ. बड़ा व्यक्तित्व वह होता है जो जिससे प्रभावित होकर हम उसके जैसा बनना चाहते हैं. हृषीकेश सुलभ का व्यक्तित्व ऐसा ही है जो हम जैसे एकलव्यों को इस बात की याद दिलाता रहता है कि इस विराट समय में हम अपनी स्थानीयताओं को न भूलें, जो परम्परा की थाती है उनको पिछड़ा समझ कर छोड़कर आगे न बढ़ जाएँ.

आज उनकी षष्ठी पूर्ति पर यही कामना है कि वे इसी तरह साहित्य के नए मुहावरे गढ़ते रहें और हम लोगों को प्रेरणा देते रहें. जानकी पुल की तरफ से उनको बहुत बहुत बधाई!


-प्रभात रंजन    

कलीम आजिज़ की स्मृति में उनकी कुछ ग़ज़लें

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आज 'दैनिक हिन्दुस्तान'में पढ़ा कि मीर की परम्परा के आखिर बड़े शायर कलीम आजिज़का निधन हो गया. वे 95 साल के थे. इमरजेंसी के दौरान कहते हैं उन्होंने श्रीमती गाँधी के ऊपर एक शेर लिखा था- रखना है कहीं पाँव तो रखो हो कहीं पाँव/ चलना जरा आया है तो इतराए चलो हो'. इसने उनको बड़ी मकबूलियत दिलाई थी. अभी हाल में ही उनके गज़लों का संकलन वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था- 'दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गई'. सच में बिहार में वे अदब की सबसे बड़ी रवायत थे. उनका जाना उदास कर गया. जानकी पुल की ओर से उनकी स्मृति को प्रणाम- प्रभात रंजन 
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1.
दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो

मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो

हम खाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो

हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है
हम और भुला दें तुम्हें? क्या बात करो हो

दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो

यूं तो कभी मुँह फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मुदारात करो हो

बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो.

2.

मुँह फकीरों से न फेरा चाहिए
ये तो पूछा चाहिए क्या चाहिए

चाह का मेआर ऊंचा चाहिए
जो न चाहें उनको चाहा चाहिए

कौन चाहे है किसी को बेगरज
चाहने वालों से भागा चाहिए

हम तो कुछ चाहे हैं तुम चाहो हो कुछ
वक्त क्या चाहे है देखा चाहिए

चाहते हैं तेरी ही दामन की खैर
हम हैं दीवाने हमें क्या चाहिए

बेरुखी भी नाज़ भी अंदाज भी
चाहिए लेकिन न इतना चाहिए

हम जो कहना चाहते हैं क्या कहें
आप कह लीजे जो कहना चाहिए

कौन उसे चाहे जिसे चाहो हो तुम
तुम जिसे चाहो उसे क्या चाहिए

बात चाहे बेसलीका हो कलीम
बात कहने का सलीका चाहिए.

3.

गम की आग बड़ी अलबेली कैसे कोई बुझाए
अंदर हड्डी हड्डी सुलगे बाहर नजर न आए

एक सवेरा ऐसा आया अपने हुए पराये
इसके आगे क्या पूछो हो आगे कहा न जाए

घाव चुने छाती पर कोई, मोती कोई सजाये
कोई लहू के आँसू रोये बंशी कोई बजाए

यादों का झोंका आते ही आंसू पांव बढाए
जैसे एक मुसाफिर आए एक मुसाफिर जाए

दर्द का इक संसार पुकारे खींचे और बुलाये
लोग कहे हैं ठहरो ठहरो ठहरा कैसे जाए

कैसे कैसे दुःख नहीं झेले क्या क्या चोट न खाए
फिर भी प्यार न छूटा हम से आदत बुरी बलाय

आजिज़ की हैं उलटी बातें कौन उसे समझाए
धूप को पागल कहे अँधेरा दिन को रात बताए

4.

इस नाज़ से अंदाज़ से तुम हाय चलो हो
रोज एक गज़ल हम से कहलवाए चले हो

रखना है कहीं पांव तो रखो हो कहीं पांव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चले हो

दीवाना-ए-गुल कैदी ए जंजीर हैं और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाए चले हो

जुल्फों की तो फितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे
जुल्फों से जियादा तुम्हों बलखाये चले हो

मय में कोई खामी है न सागर में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चले हो

हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाए चले हो

वो शोख सितमगर तो सितम ढाए चले हैं
तुम हो कलीम अपनी गज़ल गाये चले हो.

5.

मौसमे गुल हमें जब याद आया
जितना गम भूले थे सब याद आया

उनसे मिलना हमें जब याद आया
शेर याद आये अदब याद आया

दिल भी होता है लहू याद न था
जब लहू हो गया तब याद आया

तुम न थे याद तो कुछ याद न था
तुम जो याद आये तो सब याद आया

जब भी हम बैठे ग़ज़ल कहने को
शायरी का वो सबब याद आया

जिस का याद आना ग़ज़ब है ‘आजिज़’

फिर वही हाय ग़ज़ब याद आया

रंगभेद नहीं ये किरकेटवाद है!

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क्रिकेट विश्व कप में इण्डिया ने पाकिस्तान को क्या हराया बहुतों ने मान लिया कि इण्डिया ने विश्व कप जीत लिया. सबको अपने अपने क्रिकेट दिन याद आने लगे. युवा लेखक क्षितिज रायने अपने क्रिकेट इतिहास की रोमांचक कथा लिखी है. पढियेगा- मॉडरेटर.
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तो भारत ने छठी बार विश्व कप में पाकिस्तान को हरा दिया. दिल को अजीब सा सुकून मिला. बल्ले और गेंद की कश्मकश के बीज से उपजा ये सुकून ऐतिहासिक है. क्रिकेट से मेरा याराना 1996 विश्वकप के बाद से ही जुड़ गया था. घर पे नया रंगीन टी वी आया था तब, गोदरेज का फ्रिज भी तभी आया था शायद. जीवन का पहला भारत पाक मैच भी तभी देखा था तब. आज भी याद है अजय जडेजा के वे छक्के. पापा कुर्सी से उछ्ल पड़ते थे हर छक्के पर! माँ भी कोने में खड़ी रहती थी...हालाँकि उसे सिवाय सय्यद किरमानी के अलावा किरकेट का ए बी सी भी नहीं पता था! अब भी याद है कि पागल के माफिक चीखा था जब वेंकटेश प्रसाद ने आमिर सोहेल को बोल्ड किया था... पिछली गेंद पे चौका मार के बड़ा हीरो बन रहा था! तब शायद पहली बार मैंने नारे जैसा कुछ लगाया था. ९० के दशक के क्रिकेट के दीवानों की वो चीख शायद समेकित राष्ट्रवादी नारों की शुरुआत थी! १९९६ का वो माहौल आज भी जेहन में ताज़ा है. भारतीय बाजारों के उदारीकरण की तासीर की सबसे अच्छे तरीके से कोई बयां करता है तो वो क्रिकेट है! देखा जाये तो वैश्वीकरण और क्रिकेट के 'इंडिया'को दीवाना बना देने की गति बिलकुल एक जैसी है- विस्फोटक!

घर में फ्रिज का आना और टी-वी पर कोका-कोला के विज्ञापन का आना दोनों अपने में अभूतपूर्व घटना थी! दूरदर्शन युग के मुझ जैसे टी-वी दर्शक के लिए हर ओवर के बाद कोका-कोला और फिलिप्स के तपे रेकॉर्डर का विज्ञापन रोमांच की हद थी! १९९६ के विश्वकप की ही बात है जब सेमी-फ़ाइनल में श्रीलंका और भारत की टक्कर थी! दोपहर के २.३० बजे से मैच शुरू होना था...मैं सुबह से ही मानो ख़ुशी, रोमांच और अनजाने डर के घूँट लगा रहा था! हर मैच से पहले मैं मुख्यतःतीन तरह के डर से जूझता था..पहला की मैच के बीच में बत्ती न गुल हो जाए; बिहार के हर क्रिकेट प्रेमी के लिए मैच वाले दिन विद्युत् विभाग राज्य का सबसे महत्वपूर्ण विभाग होता था..., दूसरा की कहीं सचिन जल्दी आउट न हो जाए.....; तौबा-तौबा, ये एक ऐसा डर है जिसके चलते मैं आज भी टोटके के तौर पर सचिन को पहली गेंद खेलता नहीं देख सकता..., और तीसरा की कहीं भारत हार न जाए!! दोपहर में माँ खाना परोसती, मैं बेचैनी भरे दो कौर निगलता...बार-बार निगाहें ऊपर बल्ब की तरफ जाती...हे दुर्गा माँ..प्लीज़ आज बत्ती मत काटना! पापा भी जल्दी जल्दी पान के बीड़े लगते...और हम टी-वी के सामने जा बैठते! उस समय का क्रिकेट एक्स्ट्रा आज के आइपीएल वाले प्री मैच शोज़ जितना ग्लामोरोसू तो नहीं होता था...तब किरकेट के रहनुमा चीयर गिर्ल्स के चीर हरण का मजा लेने के बजाय इन-स्विंग और आउट-स्विंग पर ज्यादा बतियाते थे! टॉस के टाइम से ही मियाज़ गरमा जाता था....आज भी याद है जब अर्जुन रणतुँगा सिक्का उछाला था..और अजहरुद्दीन टेल्स कहिस था....!

पप्पा जी हनुमान जी का नाम लेकर कमरे से बाहर चले जाते थे...पहली गेंद वो भी नहीं देखते थे..! पर क्या फायदा....जम के थूराए थे प्रसाद एंड कंपनी! जयसूर्या और कालुवितरना पगला गया था उस दिन...मार चौका बुखार छोड़ा दिया था! और हम सब को भक्क मार गया था. पप्पा जी अब भी आशान्वित थे....टिपिकल इंडियन टीम के फैन के माफिक! दुआओं ने कालुवितरना को चलता किया तो ताली बजाते बजाते हाथ दरद दे दिया था..पर अरविन्द दी सिल्वा नाम के प्राणी से पाला पड़ना बाकी था! मैच के बीच में ही पंद्रह ओवर के बीच ड्रिंक्स की ट्रॉली जब मैदान में गयी तो मैं ये ही सोच के हैरान था की कोका कोला की बोतल चलती कैसे है! कोक और पेप्सी से मेरे लगाव का एकमात्र कारण क्रिकेट ही है - इतना न पेप्सी कप और विल्स कप देखा है की अब इनके प्रोडक्ट्स से एक किरकेटिया रिश्ता सा जुड़ गया है! कल पान दूकान पर बेंसन-हेजेस की सिगरेट ली, तब सहसा याद आया की भारत-और साउथ अफ्रीका के बीच भी कई बार यही बेंसन-हेजेस कप हुआ करता था!!

शाम हुई २८० का लक्ष्य था.....सचिन उस दिन भारत का खेवनहार था.....काम्बली-तम्ब्ली से हम लोग कोई उम्मीद न कभी किये थे और ना करते...मांजरेकर तो भार था टीम पर! और वही हुआ जिसका डर था....सचिन टिका तो रहा..पर दिन में जिस पिच पर गेंद बल्ले पर एकदम सीधा आ रही थी..शाम होते-होते मुरली की गेंद उसी पिच पर तांडव नृत्य करने लगी! १२० रन पर ८ विक्केट..मैं खुद को चुट्टी काट रहा था....पापा अब दार्शनिक टाइप से भसनिया रहे थे...'बेटा ये ही जीवन है...आज जीत कल हार.....इ सब चोट्टा है..पैसा के लिए खेलता है....तुमको क्या मिलेगा..जाओ पढो-लिखो!'मुझे पता था..पापा जी भी फ्रस्टिया गए थे...! टी-वी के सामने से कोई भी नहीं हटा....फिर तो आग लगा दी थी सबने! काम्बली रोते हुए बाहर आया था! इडेन जब जल रहा था तो उस आग को बुझाने की औकात सिर्फ एक भगवान् के पास थी - वो सचिन था....सिर्फ एक बार वो मैदान में आया..सब चुप!

क्रिकेट उसके बाद से आदत बन गया! खेल न होके सम्बन्ध बन गया...! भारतीयता पर तमाम अकादमिक किताबें चाटने के बाद भी, मुझे अब भी भारतीयता तब ही समझ आती है जब सचिन बैटिंग कर रहा होता है! मेरे लिए क्रिकेट अब भी सफ़र का वो 'आइस-ब्रेकर'है जिसके सहारे मैं अजनबी चेहरों से सहज संवाद स्थापित कर पाता हूँ! आय भाई जी...क्या स्कोर है...और फिर बातें शुरू हो जाती है जो फिर थकने का नाम नहीं लेती! किरकेट का ये खेल, खेल न होकर हमारे बचपन का वो साथी है जिसके साथ हमारा साहचर्य बे-शर्त न था...किरकेट मेरी जिंदगी का शायद पहला रिश्ता था जिसे मैंने चुना था...मेरा पहला प्यार जो मैंने किया था बगैर किसी से पूछे! क्रिकेट मेरे लिए 'बड़ा'हो जाने का पहला नॉन-सेक्सुअल एहसास है!

मेरे बचपन को कार्टून नेटवर्क नहीं उपलब्ध था....उसके लिए एप्पल का मतलब सेब ही था, आई-पोड नहीं, मेरे बचपन की फ्रेंड-लिस्ट में चार-छे ही दोस्त थे...१२०० नहीं, घर के चारों तरफ बियाबान जंगल था...कोई माल नहीं-कोई मॉल नहीं! न मेरी किस्मत में लिन्किन-पार्क और माइकल जैक्सन थे जिनके लिए मैं दीवाना होता और न ही अंगरेजी फ़िल्में थी जो मुझे अर्नोल्ड के पीछे भगाती! नियति ने मेरी किस्मत में सिर्फ एक बी-पी-एल का टी-वी, दूरदर्शन चैनल, एक रेडियो, एक बल्ला और कुछ दोस्त दिए थे! मुझे बचपन में सिर्फ सचिन, गांगुली और अजहर दीखते थे! मेरे लिए खलनायक मतलब अकरम, अकीब जावेद और शोएब अख्तर हुआ करते थे....दायें-विंग वाले लोग गलत न समझे..वे बस क्रिकेट के मैदान के खलनायक थे...मुस्लिम नहीं!

क्रिकेट मेरा सर-दर्द भी था..और मेरा डिस्प्रीन भी! अब भी याद है एडेन गार्डेन का वो टेस्ट मैच जब अख्तर ने तीन गेंद पर सचिन, द्रविड़ और सदगोपन रमेश को चलता कर दिया था! मैं थर-थर कांपने लगा था....मुझे बुखार चढ़ गया था..और पापा ने डांटा था- 'खेल है, खेल की तरह देखो!'मैं उनको क्या बोलता- 'सचिन मेरे लिए खेल नहीं है....विश्वास है...जितना आप!!'

१९९९ विश्वकप की बात है....भारत और ज़िम्बाब्वे का मैच था.....आखिरी ओवरमें तीन रन चाहिए थे.....नयन मोंगिया ने हद कर दी थी तब....अजीबो-गरीब शक्ल वाले हेनरी ओलंगा ने आखिरी ओवर में श्रीनाथ सहित तीन विकेट ले भारत को तीन रन की करारी शिकश्त दी थी! पापा ने गुस्से में रेडियो पटक दिया था....इ बनरवा साला ओलंगा...मुह न कान है- हरा दिया इंडिया को! रंगभेद नहीं ये किरकेटवाद है, सर! चूर हुए रेडियो को देख माँ हम-दोनों बाप बेटे पर कितना गुस्सा हुई थी- जला दीजिए इंडिया के लिए घर को आप दोनों- ई मैच ना होके जी का जंजाल हो गया है- ना खाते हैं टाइम पे...न सुतते हैं..जब देखो मैच-मैच-मैच!!! मेरा भी मन किया था की पापा को बोले की खेल है, खेल की तरह देखिये!


उस दिन एहसास हुआ था..की किरकेट हम बाप-बेटे को कितना करीब ले आता है...बिलकुल दोस्त की तरह!! कभी कभी तो लगता है की अपने महिला मित्र के बारे में पापा को किसी रोमांचक मैच के आखिरी ओवर के दौरान बता दूंगा...सब मान जायेंगे..शायद ये भी की वो हमारी जात की नहीं! क्रिकेट सब दूरियां पाट देगा! इसीलिए मुझे लगता है की क्रिकेट को भारत में साल भर चलते रहना चाहिए..कई समस्याओं का सटीक और त्वरित निदान हो जाएगा! अगले मैच में पिता के अंतिम संस्कार से लौटे सचिन को छक्का जड़ते देख मेरे पिता ने मेरी और भी देखा था - तुम भी सचिन जैसा ही कुछ करना- येही सोचा था पापा ने उस दिन!

हर सन्डे, मैदान में हम मैच खेलते थे....इधर पापा साधारण ब्याज से मेरी दोस्ती करवाने की फिराक में रहते..उधर हम खिसकने के. आठ साल का था जब पापा पहला बैट ला के दिए थे...मैंने बहुत जिद की थी की एम-आर-एफ का ला दीजिएगा..सचिन उसी से खेलता है! उस दिन ऋषि-नदीम और अपने अन्य मित्रों के बीच मैं हीरो था....! आह...तब हम सबका निक-नेम हुआ करता था...कौन सचिन होगा..कौन गांगुली...कौन द्रविड़..कौन अजहर! अच्छी खासी लड़ाई और कूटनीतिक जोड़-तोड़ के बाद मैं सचिन बन ही जाता था.....अजहर हम अक्सर नदीम को बनाते थे....आज सोच कर बड़ा अजीब लगता है...हम अजहर क्यूँ नहीं कहलाना चाहते थे! वो अजहर को न चुनना शायद इक घटिया शुरुआत थी- अवधारणा के संक्रमण का पहला चिन्ह!

तब एक पत्रिका आती थी - 'क्रिकेट सम्राट', शायद अब भी आती हो. पूरी एक थाक पड़ी है इस पत्रिका की मेरे पास अब भी- अब पढना छूट गया..पर तब चाट जाता था उसको! विश्व क्रिकेट ही नहीं, रणजी-दिलीप ट्राफी-और महिला क्रिकेट हर इक मैच की खबर रहती थी! अब शायद ही किसी को सन १९९७ के इंग्लिश बोलिंग अटैक याद हो- पर हमें अंगेस फ्राज़ेर, एलन मुलाली, फिल टाफ्नेल और मार्क इल्हाम का नाम जुबानी याद रहता था! भारतीय टीम में आये गए कितने होनहारों के फैन बेस के अहम् हिस्सा हुआ करते थे हम - कितने लोग जानते हैं आज विजय भरद्वाज, अबे कुर्विला, रोबिन सिंह, शरणदीप सिंह और ऋषिकेश कानितकर को! उस दिन जब ढाका में independence cup के फ़ाइनल में भारत ने पाकिस्तान के ३१४ का लक्ष्य पाया था और कानितकर ने आखिरी चौका जड़ा था - हमने सरे-शाम कानितकर के नारे लगाये थे.....अब बेचारे को राजस्थान रणजी के कप्तान के तौर पर जब देखता हूँ..लगता है मेरी किरकेटिया दुनिया का एक और हीरो गुमनाम हो गया! तब कर्टनी वाल्श और एम्ब्रोस हमारे लिए नंदन-चम्पक में पढ़ी कहानियों वाले असुर और दानव से कम नहीं थे! लारा के चौकों का डर, चंद्रपौल के जम जाने का डर, मक्ग्राथ का इन स्विंग का डर, अख्तर की रफ़्तार का डर और सचिन के आउट होने डर - ये वो डर हैं जिनसे मैं अपने बचपन से ले कर जवानी तक दहलता आया हूँ! तब कमेन्ट्री सुनने की भी अपनी विधि होती थी - मैं चौकी के एक कोने में बाएं पैर को दायें पे चढ़ा कर बैठता था ताकि भारत का विक्केट न गिरे...और क्या मजाल किसी की कोई मुझे ता-इन्निंग हिला दे मुझे! पांव में झिन-झीनी सी हो जाती थी..तब भी हिलने का नाम नहीं!पापा जी बगल में कुर्सी पर बैठे है- रेडियो के चैनल को सही frequency पर मिलाना भी एक कला थी!

क्रिकेट का मैच हमारे लिए उत्सव था- सचिन हमारा भगवान् और टी-वी, रेडियो वो मंदिर जहाँ हम किरकेटिया श्रद्धालु जमते थे! कल दिल्ली के एक संभ्रांत coffee हाउस में बैठा भारत-पाक मैच देखने के दौरान दिल में थोड़ी टीस उठ रही थी - यहाँ बिजली के गुल होने का डर नहीं था, न ही सचिन के आउट होने का न...मेरे बगल में बैठी दोस्त मैच के बीच में 'the economic times'के पन्ने पलट रही थी! लाहौल- विलाकुवत! मतलब कैसे...कैसे कोई किसी भारत पाक मैच के बीच में कुछ भी और कर सकता है- मेरा टोकना उसे बेतुका सा लगा...! और तब ही मैं समझ गया की ९० का वो सुनहरा दशक और उसकी किरकेटिया यादें कहीं पीछे छूट गयी है. अब कोई बच्चा ड्रिंक्स की ट्रॉली को देख आह्लादित नहीं होता होगा, अब विज्ञापन रोमांचित नहीं करते, और न ही कोई बच्चा मैच शुरू होने के दो घंटे पहले से नरभसाया हुआ प्रतीत होता है! फॉर them it's just another match yaar!!

क्या 'नरक मसीहा'साल का सबसे प्रासंगिक उपन्यास है?

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हिंदी में यह अच्छी बात है कि आज भी किसी लेखक का कद, पद, प्रचार प्रसार किसी पुस्तक की व्याप्ति में किसी काम नहीं आता. अब देखिये न पिछले साल काशीनाथ सिंह का उपन्यास आया, अखिलेश का उपन्यास आया, मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास आया. सबसे देर से आया भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘नरक मसीहा’, लेकिन धीरे धीरे इस उपन्यास ने जिस तरह से पाठकों, लेखकों के बीच अपनी व्याप्ति बनाई है वह लेखन के प्रति मेरी आस्था को बढाने वाला है. आपका कद, आपका पद नहीं अच्छा लेखन ही आज भी ठहरता है. सेलिब्रिटी लेखकों के इस दौर में यही आश्वस्ति की बात है!

पहले मैंने सोचा था इस उपन्यास को पढूंगा ही नहीं, पढना पड़ा, फिर सोचा लिखूंगा ही नहीं, लिखना पड़ा. क्यों? क्या कोई दबाव था! नहीं! मेरी अपनी छवि के साथ अन्याय हो जाता, अगर न लिखता तो. मुझे लोग लेखक भले न मानते हों लेकिन एक अच्छे पाठक के रूप में, टिप्पणीकार के रूप में थोड़ी बहुत व्याप्ति जो है उसके साथ यह न्याय नहीं होता अगर मैं ‘नरक मसीहा’ के ऊपर न लिखता. यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है. 

यह इस साल का सबसे प्रासंगिक उपन्यास है. जिस साल देश की बदलती राजनीति ने एनजीओ वालों के साथ में एक सूबे की सरकार दे दी, किसी जमाने में गुजरात में साम्प्रदायिकता से लड़ाई की प्रतीक बन चुकी एनजीओ वाली तीस्ता सीतलवाड़ को अदालत ने पैसे के हेरफेर के मामले में दोषी पाया है, उस दौर में यह उपन्यास उन मसीहाओं की कहानी कहता है जिन्होंने जनसेवा के नाम पर जन के सपनों के साथ छल किया, अपना नाम चमकाया, दाम कमाया, बड़े बड़े पुरस्कार पाए, लेकिन उस समाज का कोई ख़ास भला नहीं हुआ जिनकी भलाई के संकल्प के साथ एनजीओ बनाए जाते हैं.
यह सच है कि सारे एनजीओ ऐसे नहीं होते जो जनसेवा का काम न करते हों, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे एनजीओ बहुत कम रह गए हैं. जनकल्याण की जो बड़ी उम्मीद ९० के दशक में उभरी थी वह अब टूट चुकी है. जो जनता पहले सरकारी वादों से छली जाती थी वह अब एनजीओबाजों के हाथों छली जा रही है. फॉरेन फंडिंग, फॉरेन के पुरस्कार कमाने वाले एनजीओबाजों समकालीन लुटेरे हैं- लुटे कोई मन का नगर बन के मेरा साथी!

भगवान दास मोरवाल का यह चौथा उपन्यास है लेकिन ईमानदारी से कहूँ तो यह उनका सबसे प्रासंगिक उपन्यास है जिसकी गूँज लम्बे समय तक सुनाई देती रहेगी. हर साल पचासों उपन्यास आते हैं, साल बीतते बीतते सब या तो पुस्तकालयों के गोदामों में डंप कर दी जाती हैं या हर के कूड़ेदानों में- लेकिन नरक मसीहा सालों हमारे बुक सेल्फ पर ठहरने वाला उपन्यास साबित होने वाला है. मोरवाल जी, हरियाणवी का एक मुहावरा बोलूं- आपकी धूल में लट्ठ लग गई है!

एक सवाल विश्वसनीयता का है. आखिर इस तरह के विषय पर मसीहाओं के जीवन से जुडी कहानियों की विश्वसनीयता क्या है? क्या वे सुनी सुनाई बातों पर आधारित हैं. तो लेखक भगवान दास मोरवाल संयोग से ऐसे विभाग में काम करते हैं जहाँ एनजीओ की फंडिंग की जाती है. यानी इस नरक के बहुत सारे मसीहाओं से उनका सीधा साबका पड़ा होगा. ऐसा लगता है. इसलिए उपन्यास में वह ऊष्मा आ पाई है जो उपन्यास के किरदारों को जानदार बनाता है.


अपनी समझ जितनी है उसके आधार पर यह कहना चाहता हूँ कि इस सदी का यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है जिसकी प्रासंगिकता आने वाले सालों में भी बनी रहेगी. इतना मैं दावे से कह सकता हूँ. 

प्रभात रंजन 

अमृत रंजन की नई कविताएं

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अमृत रंजनकी कविताएं तब से पढ़ रहा हूँ जब वह कक्षा 6 में था. अब वह कक्षा 7 में है. डीपीएस पुणे के इस प्रतिभाशाली की कविताएं इस बार लम्बे अंतराल के बाद जानकी पुल पर आ रही हैं. इससे पहले आखिरी बार हमने इसे तब पढ़ा था जब इसने चेतन भगत के उपन्यास 'हाफ गर्लफ्रेंड'की समीक्षा लिखी थी. इसकी कविताओं की भावप्रवणता, प्रश्नाकुलता और उनके बीच अपनी वैचारिक राह बनाने की आकुलता बार बार आकर्षित करती है. आप भी पढ़िए और राय दीजिए- मॉडरेटर.
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(1)

कृष्ण तुमने वह कर दिखाया

हे श्री कृष्ण
तुम हमारे भगवान हो।
तुमसे बड़ा इस पूरे संसार में कोई नहीं है।
तुम भिन्न-भिन्न रूप धारण
करके पृथ्वी पर आते हो।
तुम धर्म और सच्चाई की पूजा करते हो।
फिर...क्यों
तुमने द्रोण
तुम्हारा भक्त,
जो अपने बेटे के खोने के झूठ से,
तपस्या करने चला गया था।
अपने हथियार, सब कुछ फेंक दिए थे।
और उसे तुमने बेरहमी से मार गिराया।
यहाँ धर्म और सच दोनों टूटे।
माना एक गलती हुई,
सबसे होती है।
एक भगवान से भी।
लेकिन तुमने कर्ण,
जिसके रथ का पहिया
मिट्टी में फंस गया था।
उसे मार गिराया।
माना कि दूसरी गलती हुई,
सबसे होती है,
एक भगवान से भी।
लेकिन भीष्म,
तुम जानते थे कि भीष्म
तुम्हारे जैसा नहीं है,
वह धर्म और सच के रास्ते चलता है।
इसलिए शिखण्डी
जो एक और पैदा हुई थी
उसे भीष्म के सामने खड़ा कर दिया।
भीष्म ने तलवार फेंक दी
और तभी तुमने अर्जुन को उन्हें मारने बोला।
लेकिन यह तीसरी गलती
इंसान नहीं कर सकता,
वह एक भगवान ही कर सकता है।
हम इसलिए तुम्हारी पूजा करते हैं
तुमने वह कर दिखाया
जो इंसान नहीं कर सकता।
(सी. राजगोपालाचारी की महाभारत (मूल) पढ़ने के बाद)
(08-01-2015)

(2)

रोज़ा

आगे बैठती थी वह उसके
मालूम नहीं कि कैसे गणित, हिन्दी, अंग्रेजी
सब उसकी जुल्फ़ों को देखकर गुजर जाते।
उसे हर दिन स्कूल
जाने का मन करने लगा।
रोज़े का समय आया,
वह कुछ नहीं खाती
उसके साथ वह भी कुछ नहीं खाता।
एक दिन बड़ा लज़ीज़ कोफ़्ता लाई थी वह,
सब कुछ मैं ही खाए जा रहा था।
वह रोक नहीं सका और एक कोफ़्ता खा लिया।
जब मैं स्कूल ख़त्म होने के बाद उससे मिला
तो वह रो रहा था,
"यार आज मैं उसका साथ नहीं दे पाया।"

 (3)

खुशी का ज़ीना
हताश में एक आदमी नीचे बैठ गया,
उस समय उसके दिमाग में कुछ नहीं आया,
बस खुशी के ज़ीने ने उसे घेर लिया।
दिन रात वह सोचता रहता था
खुशी के बारे में
कुछ भी कर सकता था वह अपनी
खुशी के लिए,
एक तिनके भर खुशी
उसकी जिंदगी का मकसद बन गई।

उसने एक दिन दुख को मरते देखा,
हालात में पड़ गया वह।
जो दुख उसे अभी भी
हताश से तड़पा रहा था
उसके सामने,
उसके पैरों पर,
उससे मदद माँग रहा था।

उसने अपने दिल से सोचा
मन से नहीं।
उसने दुख की जान बचाई,
यह करने से उसके दिल को शांति मिली,
दुख का हाथ उसके कंधे पर था,
दोनों एक साथ चले
अहसास को दोनों में से कोई नहीं जानता था,
साथ चलने को जानते थे।
(04-10-2014)
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(4)
चीड़

जंगलों की सैर करने गया था
आवाज़ों को पीने की कोशिश की थी
लेकिन
पेड़ों ने बोलने से इन्कार कर दिया।
चीड़ की चिकनी छाल को छुआ
लेकिन
उसने मेरे हाथों में काँटे चुभा दिए।

(5)
दिल के पन्ने
इन पन्नों को कई बार पढ़ चुका हूँ,
सुन चुका हूँ।
लेकिन इनमें बस
कुछ शब्द सुनाई पड़ते हैं,
पूरा वाक्य कभी नहीं।

इन नटखट शब्दों से वाक्य को
बेतहाशा जानने का मन करता है,
लेकिन वाक्य कहीं खो जाते,
आँखों के सामने नहीं आना चाहते मेरी।
यह किसके दिल के पन्ने हैं?
कुछ कहना ही नहीं चाहते।

शब्द स्पष्ट होने लगते हैं कि
एक लड़की इन पन्नों को
छीन ले जाती है।
मैं समझ जाता हूँ।
यह उस औरत के पन्ने थे
जो कहानी कहना नहीं जानती।
(12 - 09 - 2014)

(6)
अव्वल सपनों की दुनिया
माँ चाहती थी परीक्षा में अव्वल आऊँ
पा की भी यही चाहत थी।
लेकिन मैं यह नहीं चाहता था।
मैं बस सपनों को देखने की दौड़ में
अव्वल आना चाहता था।
ज़रा सोचिए कि मैंने सपना ही
क्यों चुना?
सपना,
इसलिए कि यह वही चीज़ है
जिसकी आप पूरे दिल से चाहत करो,
तो भी यह अपना मुँह मोड़ के,
किसी और के दिल में
जगह बनाकर
आखिर में
मुँह मोड़ के चली जाएगी।
मैं इस सपने को मना कर,
सपना पूरा करूँगा।
और आख़िर में
सपने से मुँह मोड़ के,
काली रात में

समा जाउँगा।

प्रियदर्शन की कहानी 'बारिश, धुआँ और दोस्त'

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बरसों बाद प्रियदर्शनका दूसरा कहानी संग्रह आया है 'बारिश, धुआँ और दोस्त'. कल उसका लोकार्पण था. उस संग्रह की शीर्षक कहानी. तेज भागती जिंदगी में छोटे छोटे रिश्तों की अहमियत की यह कहानी मन में कहीं ठहर जाती है. पढियेगा और ताकीद कीजियेगा- मॉडरेटर 
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वह कांप रही है। बारिश की बूंदें उसके छोटे से ललाट पर चमक रही हैं।
`सोचा नहीं था कि बारिश इतनी तेज होगी और हवाएं इतनी ठंडी।‍`
उसकी आवाज़ में बारिश का गीलापन और हवाओं की सिहरन दोनों बोल रहे हैं।
मैं ख़ामोश उसे देख रहा हूं।
वह अपनी कांपती उंगलियां जींस की जेब में डाल रही है। उसने टटोलकर सिगरेट की एक मुड़ी सी पैकेट निकाली है।
सिगरेट भी उसकी उंगलियों में कुछ गीली सिहरती लग रही है।
उसके पतले होंठों के बीच फंसी सिगरेट कसमसाती,  इसके पहले लाइटर जल उठा।
फिर धुआं है जो उसके कोमल गीले चेहरे के आसपास फैल गया है। 
`
आपको मेरा सिगरेट पीना अच्छा नहीं लगता है न। `
उसकी कोमल आवाज़ ने मुझे सहलाया।
यह जाना-पहचाना सवाल है।
जब भी वह सिगरेट निकालती हैयह सवाल ज़रूर पूछती है।
जानते हुए कि मैं इसका जवाब नहीं दूंगा। 
लेकिन क्यों पूछती है?
मत दो जवाब,’ इस बार कुछ अक़ड के साथ उसने धुआं उड़ाया। 
मैं फिर मुस्कुराया।
आपकी प्रॉब्लम यही है। बोलोगे तो बोलते रहोगेचुप रहोगे तो बस चुप हो जाओगे।
मैंने अपनी प्रॉब्लम बनाए रखी। चुप रहा तो चुप रहा।
वह झटके से उठीलगभग मेरे मुंह पर धुंआ फेंकतीकुछ इठलाती सी चली गई।
सिगरेट की तीखी गंध और उसके परफ्यूम के भीनेपन ने कुछ वही असर पैदा किया जो उसके पतले होठों पर दबी पतली सी सिगरेट किया करती है।
यह मेरे भीतर एक उलझती हुई गांठ है जो एक कोमल चेहरे और एक तल्ख सिगरेट के बीच तालमेल बनाने की कोशिश में कुछ और उलझ जा रही है।
..............
हमारे बीच 18 साल का फासला है। मैं ४२ का हूंवह २४ की।
बाकी फासले और बड़े हैं।
फिर भी हम करीब है। क्योंकि इन फासलों का अहसास है।
कौन सी चीज हमें जोड़ती है?
क्या वे किताबें और फिल्में जो हम दोनों को पसंद हैं?
या वे लोग और सहकर्मी जो हम दोनों को नापसंद हैं?
या इस बात से एक तरह की बेपरवाही कि हमें क्या पसंद है और क्या नापसंद है?
आखिर मेरी नापसंद के बावजूद वह सिगरेट पीती है।
फिर पूछती भी हैमुझे अच्छा लगता है या नहीं।
मैं कौन होता हूं टोकने वाला।
टोक कर देखूं?
अगली बार देखता हूं।  
...............................

इतना पसीना कभी उसके चेहरे पर नहीं दिखा।
वह थकी हुई हैलेकिन खुश है।
शूट से लौटी है।
पता हैराहुल गांधी से बात की मैंने?’
अच्छाआज तो जम जाएगी रिपोर्ट।
रिपोर्ट नहींकमबख्त कैमरामैन पीछे रह गया था।
मैं घेरा तोड़कर पहुंच गई थी उसके पास।
क्या कहा राहुल ने?’
कहा कि तुम तो जर्नलिस्ट लगती ही नहीं हो।
वाहक्या कंप्लीमेंट हैऔर क्या खुशी है।
मैं हंस रहा हूं।
उसे फर्क नहीं पड़ता।
फिर उसके हाथ जींस की जेब टटोल रहे हैं।
फिर एक सिगरेट उसके हाथ में है।
और जलने से पहले धुआं मेरा चेहरा हो गया है।
उसे अहसास है।
वह फिर पूछेगी- उसने पूछ लिया।
आपको अच्छा नहीं लगता ना?’
क्या?’ मैं जान बूझ कर समझने से बचने की कोशिश में हूं।
मेरा सिगरेट पीना। वह बचने की कोशिश में नहीं है।
मैं बोलूंफेंक दो तो फेंक दोगी?’ मेरे सवाल में चुनौती है। 
हां’,  उसके जवाब में संजीदगी है।
फेंक दो।‘ मेरी आवाज़ में धृष्टता है। 
उसने सिगरेट फेंक दी हैं।
मैं अपनी ही निगाह में कुछ छोटा हो गया हूं।
अक्सर ऐसे मौकों पर वह हंसती है।
लेकिन वह हंस नहीं रही।
उसके चेहरे पर वह कोमलता है जो अक्सर मैं खोजने की कोशिश करता हूं।
उसे बताते-बताते रह जाता हूं कि जब उसके हाथ में सिगरेट होती हैयही कोमलता सबसे पहले जल जाती है।
लेकिन यह कोमलता अभी मुझे खुश नहीं कर रही।
अपना छोटापन मुझे खल रहा है।  
दूसरी सुलगा लो।
वाहमेरे ढाई रुपये बरबाद कराकर बोल रहे हैंदूसरी सुलगा लो। फिर मना क्यों किया था?’
तुम मान क्यों गई?’
वह हंसने लगी। जवाब स्थगित है।
मैं चाहता हूंवह कोई उलाहना दे।
कहे कि मैं पुराने ढंग से सोचता हूं।
लेकिन वह चुप है।
हम दोनों चुप्पी का खेल खूब समझते हैं।
चुप्पी जैसे हम दोनों की तीसरी दोस्त है।
उसकी उम्र क्या हैनहीं मालूम।
कभी वह ४२ की हो जाती हैकभी २४ की।
लेकिन वह फासला बनाती नहीं मिटाती है।
हमारे बीच चुप्पी नहीं होती तो क्या होता?
शब्द होते।
वे दूरी बढ़ाते या घटाते?
वह जा चुकी है। उसके पास ऐसे सवालों से जूझने की फुरसत नहीं।
..........................
वह एक अच्छे वाक्य की तलाश में है।
इतनी संजीदा जैसे बरसों से तप में डूबी हो।
उसे एक कहानी हाथ लगी है।
कहानी क्या होती है?’
एक बार उसने पूछा था।
वह चीजजिसके आईने में हम ज़िंदगी को नए सिरे से पहचानते हैं।
सवाल खत्म नहीं हुआ था।
कहानी कहां से मिलती है?’
जिंदगी को क़रीब से देखने सेरुक करठहर कर।
लगता हैवह जिंदगी को बेहद करीब से देख कर आई है।
उसके चेहरे पर जर्द-जर्द सच्चाई है।
उसकी कांपती उंगलियां स्क्रीन पर एक शब्द लिखती और मिटाती हैं।
मैं पीछे खड़ा हूं।
कहां से शुरू करूं?’ सवाल में कुछ बेचारगी हैकुछ मायूसी।
क्या हुआ?’
मां-बेटे का मामला है। बेटा दो साल से पिता के पास रहा। अब ग्यारह बरस का है। मां अदालतों के चक्कर काटती रही। अब सुप्रीम कोर्ट ने बेटे को मां के पास जाने का आदेश दिया है।
सही फैसला है।
पता नहीं। उसकी आवाज़ में मायूसी है।
क्योंमहिलाओं के हक की तो बात सबसे ज्यादा उठाती हो तुम?’
यह ताना सुनने की फुरसत उसे नहीं है।
वह कहानी खोज रही थी।
जो कहानी मिली हैउसने बताया हैजीवन सरलीकृत रिश्तों से नहीं बनता।
यह इतना आसान नहीं है। मां जब बेटे को अदालत से ले जा रही थीलग रहा थाजबरदस्ती ले जा रही है। बच्चे को जैसे एक अनजानी औरत खींच कर ले जा रही हो।
मां को विलेन बनाओगी?’
नहींमां भी अपनी जगह ठीक हैउसे अपना बच्चा चाहिए। वह उस बच्चे से प्यार करती है।
फिर गलत कौन है?’
आपने कहा था ना एक दिन, गलत यह समय हैजिसमें हम और तुम जी रहे हैं?’
तुम यहीं से शुरू करो। कैसे वक्त ने मां और बेटे को अजनबी बना डाला है।
ठीक है’, वह अनमनी है।
जब कहानी मिली तो ऐसी मिलीजिससे आंख मिलाने से वह बच रही है।
उसकी आंखों में अटके हुए हैं दो बड़े-बड़े आंसू।
उसे कोई न देखे।
मैं दूर चला जाता हूं।
..............................
बाहर धारासार बारिश हो रही है।
आसमान में जैसे काले हाथी दौड़ रहे हैं।
एक छोर से दूसरे छोर तक कड़कती बिजलियों के पीछे।
धरती से आकाश तक मोटी-मोटी बूंदों की एक तूफानी झालर टंगी हुई है।
यह झालर कभी-कभी हमारे चेहरों तक चली आती है
हमारी उंगलियां कभी-कभी उस झालर को छू लेती है।
हमारी निगाह आसमान पर है।
खिड़की से दिखते छोटे से आसमान पर।
जानती होजब अचानक इस तरह मौसम खराब होता है तो मुझे लगता हैकिसी के घर कोई बडा़ दुख घटा है। 
अरे आप तो बड़े रैशनलिस्ट हैंऐसी बातों पर कब से भरोसा करने लगे।
भरोसा नहीं करता। बस सोचता हूं। शायद मेरी कई तकलीफों की याद जुड़ी है ऐसी घनघोर बारिश से। 
पता है,  जब शाम को धूल का अंधड़ होता है तो मुझे क्या लगता है?’
अरेतुम भी इस तरह प्रतीकों में सोचती हो?
मेरे सवाल का जवाब देना उसकी आदत नहीं है। बस वह अपनी बात कह देती है। 
ऐसे मौसम में लगता हैजैसे किसी ने किसी को धोखा दिया हो।
अच्छा? क्यों लगता है ऐसा?’
इतना ही नहींपता है अचानक मुझे लगता है, मैं बहुत कमीनी हूं। किसी को धोखा दे सकती हूं। 
मैं उसका चेहरा देख रहा हूं।
एक मासूम गोल चेहरा।
हंसती हुई आंखें भी मासूम।
न जाने एक हूक सी मेरे भीतर उठती है।
क्या ये काले काले हाथीये बूंदों की झालरये सिहरती हवा
फिर मेरे लिए अपनी पोटली में कोई दुख छुपा कर लाए हैं?
लेकिन कैसा दुखकिस बात का?
ये लड़की मुझसे छल करेगीकैसा छल?
मेरा तो इससे कोई वास्ता भी नहीं।  
........................

वह जोर से हंस रही है- लगभग बेकाबू।
अपने-आप से बेपरवाह ऐसी हंसी अच्छी भी लगती हैहैरान भी करती है।
एक जोक सुनाऊं?’
जोकसुनाओ?’
एक मंदिर थावहां जाने वाले की नीयत अगर ख़राब हो तो वह गायब हो जाता था। शाहरुख ख़ान गयागायब हो गयासलमान खान गयागायब हो गया। इसके बाद बिपाशा बसु गई। इस बार पता हैक्या हुआभगवान गायब हो गए।
इस बार साझा हंसी है।
ऐसे वाहियात चुटकुले कहां से लेकर आती हो?’
रोहित सुनाता हैउसने और भी वाहियात चुटकुले सुनाए हैं। आपको नहीं सुना सकती।
मेरी हंसी में एक ग्रहण सा लग गया है। एक काली छाया। रोहित से इतनी घनिष्ठता का मतलब क्या है?
लेकिन मैं कौन होता हूं टोकने वाला।
मैं अपनी मेज का सामान सहेजने लगता हूं।
उसकी भी हंसी रुक गई है।
वह चुप है।
मुझे देख रही है।
यह वह चुप्पी नहीं है जो हमारी तीसरी सहेली है।
यह दुविधा से भरी चुप्पी है।
उसे अहसास हैचुटकुले की हंसी भाप बनकर उड़ गई है।
हमारे और उसके बीच रोहित के जिक्र की राख बैठी हुई है।
वह इस राख में और राख मिलाने जा रही है।
फिर से उसके हाथ में सिगरेट है। दूसरा हाथ लाइटर टटोल रहा है।
इस बार उसने नहीं पूछा हैमुझे उसका सिगरेट पीना अच्छा लगता है या नहीं।
............................

क्यों पूछूं मैं।
मन ख़राब हो गया।
इतने सीनियर हैंइतनी किताबें पढ़ी हैं। 
इतना कुछ जानते हैं,
इतनी छोटी सी बात नहीं समझते?
लेकिन ऐसा क्यों है?
किस बात से नाराज हुए वो?
क्या चुटकुला शरीफ लोगों का नहीं था?
या उन्हें ये पसंद नहीं आया कि रोहित ने मुझे ये चुटकुला सुनाया।
क्यों नहीं सुना सकता?
मैं २४ साल की हूं।
जानती हूं कि मुझे  क्या सुनना और नहीं सुनना चाहिए?
ये भी तय कर सकती हूं कि कौन मुझसे किस तरह की बात करे।
और रोहित पहले भी तो इस तरह की बात करता रहा है।
रोहित का खयाल बरबस मुस्कुराहट ला देता है।
है मजेदार। एक से एक किस्से सुना सकता है।
ऐसे किस्से तो मैं सर को भी नहीं सुना सकती।
जब वो सुनेंगे तो मुझसे तो बात ही छोड देंगे।
छोड़ो जाने दो।
रोहित का ख़याल दिल खुश कर देता है
मेरे भीतर गुस्सा भाप बनकर उड़ने लगता है
वैसे सर ने भी ऐसा कुछ कहा तो नहीं ही
बस कुछ उदास हो गए होंगे
कि रोहित भी मेरा घनिष्ठ है
इतनी जलन तो सबमें होती है।
जाने दो।
वैसे सर भी अच्छे हैं
सीनियर हैं,  लेकिन दोस्त की तरह पेश आते हैं।
कल वादा किया है क़ॉफी पिलाएंगे
कॉफी का नहींउनके लगातार बोलते रहने का सुख है।
उनको सुनना अच्छा लगता है
कल फिर उनके सामने सिगरेट सुलगाऊंगी।
लेकिन पूछ लूंगी
इतने भर से खुश हो जाएंगे।
कितनी चालाक हूं मैं?

 
...............
रात हैबाहर चमकती हुई रोशनियां हैंकार के भीतर जगजीत सिंह की ग़ज़ल है।
शीशे चढ़ा दो कार एक कमरे जैसी हो जाती है। मस्ती में गप करोगाना सुनो।
ये गाना नहीं ग़ज़ल है।
जो गाया जाएवो गाना है। ग़ज़ल क्या होती है?’
तुम्हारी समझ में नहीं आएगा।
ऐसे तानों की उसे आदत पड़ चुकी है।
वह खिड़की के बाहर देख रही है।
हम दफ़्तर से घर लौट रहे हैं।
पता हैआज वो स्टोरी हेडलाइन बनी।
कौन सी?’
वही मां बेटे वाली। ११ साल के बच्चे से नौ साल बाद मिली मां। आपने बहुत अच्छी शुरुआत करा दी थी।
स्टोरी भी धांसू थी।
लेकिन..’, वह फिर अनमनी है।
क्या हुआ?’
हम इतनी खबरें क्यों दिखाते हैंक्या फायदा होता है इससे?’
मतलब?’
किसी दूसरे की ज़िंदगी में झांकनापूछनारिश्ता तोड़ते या जोड़ते हुए कैसा लग रहा हैकभी कभी मुझे रोने का मन करता है?’
तुम्हेंतुम तो बस रुलाने की एक्सपर्ट हो?’
लेकिन मेरी बात उसने सुनी नहीं है।
याद हैएक बार आपने मुंबई ब्लास्ट पर एक स्टोरी एडिट करने दी थी। वक्त पर नहीं हुई तो बहुत डांटा था?’
मुझे याद है। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले में घायल एक बच्चे की कहानी थी। हमने प्रोमो चलाया थाकि छह बजे दिखाएंगे। वह समय पर दे नहीं पाई थी।
पता हैमैं क्यों नहीं दे पाई थी?
उस पांव कटे बच्चे की आंखें देखकर मैं रोने लगी थी। एडिट वे से भागकर चाय पीने के बहाने नीचे चली गई थी।
बताया क्यों नहीं था?’
क्यों बताती?’
लेकिन पत्रकार को क्रूर होना पड़ता है। डॉक्टर की तरह। रोएगा तो काम कैसे करेगा?’
मुझे न पत्रकार होना है न डॉक्टर।
तो फिर आई क्यों इस फील्ड में?’
बस रोने के लिए। पता हैइस मां-बेटे ने भी मुझे बहुत रुलाया। जब भी अपनी अनजान सी मां का हाथ थामे बच्चे को उसके साथ घिसटते देखती तो रोने लगती. बड़ी मुश्किल से एडिट किया।
मैं उसे देख रहा हूं।
यह लड़की हर बार जैसे कुछ नई हो जाती है।
इसे तो मैंने पहले नहीं देखा है।
एक बिंदास सी लड़की जो अपने ऐंडवेंचरस मूड की वजह से टीवी में चली आई।
बड़े घर की हैनई उम्र की हैदोस्तों के बीच खिलखिलाती है।
कुछ अंग्रेजी उपन्यास पढ़ लेती है और मेरे पास अपनी स्टोरी चेक कराने चली आती है।
खुद को मेरा दोस्त बताती है
और हंसती हैसबसे बूढ़े दोस्त हो आप मेरे।
यह रोती भी हैतस्वीरों में दिखता दुख इसे इतना छूता है?
गाड़ी रेडलाइट पर है। दोपहर होती तो तिल धरने की जगह न होती। रात हैइसलिए कम गाड़ियां हैं।
वह बाहर देख रही है।
शीशा गिराइएशीशा गिराइए’, जल्दी से उसने बटन दबाया है।
बाहर की उमस भरी हवा का झोंका भीतर आता है।
क्या हुआ?’
मेरे सवाल का जवाब देने की जगह वह दूर एक बच्चे को पुकार रही है।
एक नौ-दस साल के बच्चे को। वह ट्रैफिक सिगनल पर गजरे बेच रहा है।
तुम गजरा खरीदोगी?’ मैं हैरान हूं।
वह मेरा दोस्त है।
तुम्हारा दोस्त?’ मुझे पता हैयह लड़का रोज यहां गजरा बेचता है।
यह दोस्त अब शीशे के पास खड़ा है।
सुनोतुम कल मेरे लिए गुलाब के फूल क्यों नहीं लाए थे?’
मैं आपके घर गया था। आप थी कहां?’ लड़के का जवाब है।
अरे हांमैं सुबह निकल गई थी। तुम्हारे घर पानी आया?’ वह फिर पूछ रही है।
हांअब आ रहा है।
सिगनल रेड हो गया है। मैं असमंजस में हूं।
  https://mail.google.com/mail/images/cleardot.gif
कल सुबह ज़रूर ले आना फूल। फिर बात करेंगे। उसने शीशा चढा दियामैंने गाड़ी बढ़ा दी।
उसका दुख छू-मंतर हो चुका है। चेहरे पर बिल्कुल बच्चों वाली हंसी है।
जानते हैंआप मेरे सबसे बडे दोस्त। ये मेरा सबसे छोटा दोस्त। रोज़ हमारी बात होती है?
मैं अवाक हूं। पहले रोहितऔर अब ये बच्चा। न जाने कैसी है ये लडकी।
और न जाने कैसा हूं मैं।
मैं ४२ का। वह २४ की।
कभी-कभी लगता हैवह ४२ की हैमैं २४ का हूं।
क्या हुआ जो मैंने इतनी ज्यादा किताबें पढ़ी हैं।
क्या हुआ जो उसने कम दुनिया देखी है।
गाड़ी उसके घर के सामने खड़ी है। वह चाबियां झुलाती हुई उतर रही है।
उसने हाथ हिलाया है। अब सीढ़ियां चढ़ रही है, 'कल मिलती हूं'
मैंने गाड़ी बढ़ा दी है।
देखें, कल कौन सी लड़की मिलती है।


क्या शादी प्रेम की ट्रॉफी होती है?

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आज विश्व पुस्तक मेला का अंतिम दिन है. इस बार बड़ी अजीब बात है कि हिंदी का बाजार बढ़ रहा है दूसरी तरफ बड़ी अजीब बात यह लगी कि इस बार किताबों को लेकर प्रयोग कम देखने में मिले. प्रयोग होते रहने चाहिए इससे भाषा का विस्तार होता है. लेकिन इस पुस्तक मेले में जिस किताब ने आइडिया के स्तर पर बहुत प्रभावित किया वह ‘बेदाद-ए-इश्क रुदाद-ए-शादी’, जिसका संपादननीलिमा चौहान और अशोक कुमार पाण्डेयने. आइडिया यह है कि कुछ ऐसे जोड़े जिन्होंने परिवार, समाज से विद्रोह करके प्रेम विवाह किया वे अपनी इस स्टोरी को, सुखान्त-दुखांत पहलू को यथार्थ कहानी की तरह लिखें, यथार्थवादी कहानी की तरह नहीं.

किताब में कुल 18 अफ़साने हैं. जो सबसे अच्छी बात है वह यह कि इन कहानियों के माध्यम से परिवार, समाज की उन बाधाओं के बार में भी फर्स्ट हैण्ड इन्फोर्मेशन मिलती है परम्पराओं के नाम पर जिनकी जकड में हमारा समाज न जाने कब से पड़ा है. हालाँकि, इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि नव उदारवाद के दौर के विस्थापन के बाद के दौर में प्रेम विवाह अब बहुत आम हो गए हैं, बिहार, हरियाणा के पारंपरिक समझे जाने वाले समाजों में भी लड़के-लड़कियां बाहर पढने जाते हैं, काम करने के लिए जाते हैं, उनका प्यार होता है, विवाह होता है- यह अब पहले की तरह सनसनीखेज नहीं रह गया है. लेकिन फिर भी हर प्रेम अद्वितीय होता है, हर विवाह ख़ास होता है.

पुस्तक में मुझे सबसे प्रेरक कहानी लगी प्रीति मोंगा की. दृष्टिहीन होने के बावजूद अपने सपनों के प्यार को पाने के लिए जिस तरह से संघर्ष किया वह दाद के काबिल है. इस पुस्तक की सारी कहानियों में वह सबसे अलग तरह की है. किताब में सुमन केशरी की कहानी पहली है. वह और पुरुषोत्तम अग्रवाल हिंदी एक सबसे सेलेब्रेटेड कपल हैं. पुरुषोत्तम जी और सुमन जी को आप कहीं भी देखें दोनों को देखकर ऐसा लगता है कि दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं. सुमन जी की कहानी को पढ़कर लगता है कि पुरुषोत्तम जी का प्यार ही है जिसने उनको समाज, परिवार की तमाम बाधाओं से बेपरवाह कर दिया.

लेकिन अगर मुझसे पूछा जाए तो मुझे विभावरी की कहानी सबसे यादगार लगी. हर प्रेम कहानी उनके लिए तो यादगार होती ही हैं जो उसे जीते हैं लेकिन कुछ प्रेम कहानियां ऐसी होती हैं जो पढने सुनने वालों के लिए भी यादगार बन जाती है. दो विपरीत पृष्ठभूमियों के प्रेमी, समाज के दो अलग-अलग तबकों के लोग जब प्यार में एक हो जाते हैं तो यह विश्वास प्रबल हो जाता है कि हमारे समाज में जात-पांत के बंधन बहुत दिन तक रहने वाले नहीं हैं.

पुस्तक में हर कहानी में कुछ अलग है, कुछ अलग तरह का संघर्ष है, अलग तरह की परेशानियों की गाथा है लेकिन एक बात सामान्य है कि प्यार अंततः सारी बाधाओं को परस्त कर देता है. देवयानी भारद्वाज, प्रज्ञा, नवीन रमण, विजेंद्र चौहान, रूपा सिंह, सुजाता, अशोक कुमार पाण्डेय की कहानियों को पढ़ते हुए अलग अलग दौर, अलग अलग समाजों, अलग अलग पृष्ठभूमियों की परम्पराओं के बारे में पता चलता रहा. लेकिन यह विश्वास भी प्रबल हुआ कि अंत में जीत प्यार की ही होती है.
हालाँकि अंत में एक सवाल इस पुस्तक के सभी प्रेमियों से कि क्या विवाह प्रेम का ट्रॉफी होता है?


पुस्तक का प्रकाशन दखल प्रकाशन ने किया है. संपर्क- 9818656053 

विश्व पुस्तक में क्या रहे ट्रेंड?

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इस बार पुस्तक मेले में चार दिन जाना हुआ. पहले सोचा था नहीं जाऊँगा. लेकिन एक बार जाइए तो बार-बार जाने का मन करता है. एक साथ इतने बड़े लेखकों से मुलाकात, बातें, बतकही- अच्छा लगने लगता है. आज लिख रहा हूँ तो सबकी याद आ रही है. अच्छा मौका होता है. अपने बढ़ते लेखक समाज के नए नए लोगों से मिलना, पुरानों की संगत करना. अच्छा लगने लगता है.

किताबें खरीदते हैं, चाय पीते हैं, बतकही करते हैं, अलग अलग हॉल्स में घूमते हैं, अच्छी अच्छी किताबें दिखती हैं. कुछ अलग दीखता है तो उसकी तरफ ध्यान चला जाता है. आज नवीन शाहदरा के साक्षी प्रकाशन के स्टाल पर 100 रुपये में हंसराज रहबर की इकबाल की शायरी मिल गई. बहुत अच्छा लगा.

हर तरफ फागुन के महीने का प्यार था. अलग बात है कि पूरे मेले के दौरान तीन दिन ऐसे आये जिनकी वजह से आने वालों की संख्या अपेक्षा से कम रही- पहले दिन अरविन्द केजरीवाल का शपथ ग्रहण, दूसरे दिन क्रिकेट विश्वकप में भारत-पाकिस्तान का मैच, और आखिरी इतवार को भारत-दक्षिण अफ्रीका का रोमांचक मैच. बहरहाल, प्यार ही प्यार था. रवीश कुमार के लप्रेक संग्रह ‘इश्क में शहर होना’, फ़िल्मी गीतकार इरशाद कामिल के नज्मों के संकलन ‘एक महीना नज्मों का’ के अलावा नीलिमा चौहान तथा अशोक कुमार पाण्डेय सम्पादित पुस्तक ‘बेदाद-ए-इश्क रुदाद-ए-शादी’ की चर्चा खास तौर पर की जा सकती है. इश्क इस बार पुस्तक मेले का ख़ास ट्रेंड था.

बहरहाल, मेले में जाने वाले किसी भी व्यक्ति को यह अहसास हो सकता था कि रवीश कुमार की किताब इस बार हासिल-ए-मेला किताब रही. मैं विश्व पुस्तक मेले में 1996 से नियमित तौर पर जाता हूँ. तब विश्व पुस्तक मेला दो साल में एक बार आयोजित होता था. मुझे याद है 1996-97 के पुस्तक मेले में अलका सरावगी के उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ की कितनी धूम थी. उस एक उपन्यास की सफलता ने युवा लेखकों की नई खेप तैयार की. मैं खुद भी उसके बाद लेखक बनने वालों में हूँ. हिंदी रचनाशीलता में कलिकथा एक बहुत बड़ा शिफ्ट था. मेरा अपना मानना है कि उसके बाद हिंदी रचनाशीलता में ‘लप्रेक’ बहुत बड़ा शिफ्ट होने वाला है. इसमें कोई संदेह नहीं कि इसने एक नए ट्रेंड की शुरुआत की है. अगर कोई लेखक यह कहता है कि इसके प्रभाव का पता भविष्य में चलेगा तो वह जरूर वर्तमान से आँखें चुरा रहा है.

इरशाद कामिल की किताब का बिक्री के मामले में कैसा प्रदर्शन रहा यह तो नहीं पता लेकिन मेले में उसकी कोई चर्चा नहीं रही. प्रचार प्रसार में यह किताब साफ़ तौर पर पिछड़ती दिखाई दी. स्टार लांच, मीडिया स्टोरी से हिंदी में अगर किताबों की बिक्री के ऊपर, उनकी व्याप्ति के ऊपर अधिक असर पड़ना होता तो हिन्द युग्म हिंदी का नंबर वन प्रकाशन होता.

बहरहाल, ‘गुलाब के बदले किताब’ जैसे ख़ूबसूरत स्लोगन के बावजूद इरशाद कामिल की किताब अपनी कोई ख़ास जगह नहीं बना पाई जबकि बिना किसी स्लोगन के ही दखल प्रकाशन की किताब बेदाद-ए-इश्क रुदाद-ए-शादीकी मेले के अंत तक आते आते अच्छी चर्चा रही. किताबें अब अच्छे आइडिया से चलती हैं- इस किताब ने यह साबित किया.

वरिस्थ लेखक भगवान दास मोरवाल ने बहुत अच्छी तरह एनजीओ संस्कृति को लेकर लिखे गए अपने उपन्यास को चर्चा के केंद्र में बनाए रखने का प्रयास किया लेकिन पाठकों में इस तरह के उपन्यासों को लेकर अब ख़ास रुझान नहीं बचा है. मोटे-मोटे उपन्यास अब कोई नहीं पढना चाहता जब तक कि उसका विषय शम्सुर्ररहमान फारुकी के उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ जैसा न हो. अब समय आ गया है कि लेखक पाठक तक पहुंचे. संघर्ष, विचारधारा के लेखन का वह दौर बीत चुका है जब मोटे मोटे विचारपरक उपन्यासों को पढना सामाजिक संघर्ष का हिस्सा माना जाता था.

बहरहाल, मेले में हिन्द पॉकेट बुक्स ने अच्छी वापसी की उसने कम कीमत पर साहित्यिक लेखकों की किताबों को छापने-बेचने का काम शुरू किया है, जो सफल रहा. किताबों की पैकेजिंग अच्छी है, हालाँकि चयन उतना अच्छा नहीं है. बहरहाल, कल को चयन भी अच्छा हो जायेगा. वितस्ता से आई अनुज धर की किताब 'नेताजी रहस्य गाथा'किताब को मैंने लोगों को लाइन लगाकर खरीदते देखा. एक हमने भी खरीदी. नेताजी से जुड़े फाइलों को खोलने को लेकर सरकार ने आरटीआई के जवाब में इनकार कर दिया. उसके बाद से नेताजी के जीने मरने का रहस्य और गहरा गया है. किताब में अनुज धर ने बड़ी मेहनत से इसकी पड़ताल करने की कोशिश की है.  

हिंदी के साहित्यिक प्रकाशकों के हॉल में इस बार राजा पॉकेट बुक्स ने बड़ा स्टाल लगाया था और उसके स्टाल पर प्रेमचंद, शरतचंद्र, मंटो, बंकिम, टैगोर की कृतियों के साथ प्रसाद के उपन्यास इरावती और कंकाल भी सस्ते संस्करण में आकर्षक साज सज्जा के साथ उपलब्ध थे.

पुस्तक मेले में लोकार्पण का उत्साह रहा, जो होना भी चाहिए. मेले में किताबों का लोकार्पण नहीं होगा तो क्या एमएसजी का लांच होगा.

एक बात अंत में, पिछले कुछ मेलों से हिंदी के हॉल में बड़ी संख्या में नए लेखक-लेखिकाएं, युवा पाठक आने लगे हैं. यह सोशल मीडिया का प्रभाव है. लेखकों के साथ सेल्फी, ग्रुप फोटो मेले में खींचे जा रहे थे, फेसबुक पर तस्वीरें चमक रही थी. धीरे धीरे लगता है साहित्य का ग्लैमर वापस आ रहा है. हिंदी का ग्लैमर वापस आ रहा है. हाँ, अंत में चलते-चलते मेले में आने की वजह से ही शायद रवीश कुमार फेसबुक पर सबसे अधिक सेल्फी में आने वाले सेलिब्रिटी के रूप में ट्रेंड कर रहे थे.
आज सुबह मन उदास है. मेला ख़त्म, अपने एकांत में वापसी. कॉलेज, डेडलाइन, शेड्यूल...

जब यह सब टूट जाता है तो मेला होता है. किताबों का ही नहीं हम लेखकों का भी मेला होता है. सब याद आ रहा है!

जय पुस्तक! जय मेला!  
प्रभात रंजन 
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