सुदीप्ति कम लिखती हैं लेकिन जब भी लिखती हैं, जिस विषय पर भी लिखती हैं कुछ नए बिन्दुओं की तरफ संकेत करती हैं, कुछ नए इंगितों को उठाती हैं. 'रंगरसिया'फिल्म पर उनका यह तब आया है जब फिल्म को लोग भूलने लगे हैं. लेकिन इस लेख को पढ़कर फिल्म की याद आ जाती है. इस फिल्म पर ऐसा विश्लेषणपरक लेख मैंने पहली बार ही पढ़ा. पढ़ा तो सोचा साझा किया जाए- मॉडरेटर
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‘रंगरसिया’ को लेकर हो रहे आह और वाह से परे भी एक भाव है मेरा, गहरे अवसाद और दुःख का. बॉलीवुड की मसाला फिल्मों के गिरते स्तर से हम सब वाकिफ हैं लेकिन जब सिनेमा को चाहने वाले, उसके लिए ज़माने के सितम उठाने वाले, सालों इंतज़ार करने वाले ऐसी फ़िल्में बनाएं तो लगता है कि इससे तो बेहतर था कि करोड़ों को गारत कर कोई भी फिल्म बना लेते मगर अपने चाहने वालों पर यह सितम न करते.
इससे पहले कि रंगरसिया के रस में डूबे सिनेप्रेमी मुझे मेरे असंयम के लिए कोसे और कहें कि सीमाओं के साथ ऐसी फिल्मों को स्वीकार करने का धैर्य हमें विकसित करना चाहिए. अब जबकि कोई हमें पूरा नहीं दे रहा तो ऐसे आधे-अधूरे देय को हम अपनी किस्मत माने और सोच लें कि कोई केतन मेहता तो राजा रवि वर्मा के धूल खाते जीवन-चरित को कृतार्थ करने को आगे तो आया. लेकिन, क्या करें कि हमें यह स्वीकार्य नहीं हो पाता. क्या करें कि यह एक सामान्य काल्पनिक कलाकार की भी कथा होती तो कथा, स्क्रिप्ट, संवाद और तार्किकता के धरातल पर ऐसी ही बिखरी नज़र आती जबकि यह तो राजा रवि वर्मा नामक महान कलाकार का सो कॉल्ड बायो-पिक है. पर अपने प्रिय कलाकार को फिर-फिर रचने और उसके आवेगों-संवेगों से गुजरने के लिए खुद अपने भीतर भी उसे जीना होता है. वर्ना जो बनेगा वह बाहरी, ऊपरी और उथला होगा. यों जैसे –“सूखे केश रूखे भेस मनुवा बेजान”. रूखे और सूखे वेश तो सहे जा सकते हैं लेकिन, बेजान होने पर मर्म तक पहुँचना क्या संभव है?
इस फिल्म को देख मुझे दुःख और निराशा से अधिक क्षोभ हुआ. मेरे क्षोभ को समझने के लिए आपको पृष्ठभूमि की कहानियों को जानना पड़ेगा. वैसे भी हर फिल्म से जुड़ी दर्शक की अपनी कहानियां होती हैं. यही कहानियां तो एक सिनेमा के दीवाने या सनकी दर्शक को आम से अलगाती हैं. इस फिल्म से जुड़ी मेरी एक नहीं दो कहानियां हैं.
पहली कहानी:उड़ती-उड़ती खबर सुनी आज से तीन-चार साल पहले कि राजा रवि वर्मा पर फिल्म बन रही है. तो अपने चित्रकार प्रेमी (जिसने जाने क्यों सालों पहले चित्र बनाना छोड़ दिया) की चिट्ठियों से होता हुआ एक नाम कौंधा जो पटना की एक गर्म दोपहर में सिन्हा लाईब्रेरी की अलमारियों से लग कर पढ़ी एक किताब के पन्नों पर खिलता गया था. आज जबकि लगता है कि वह किताब, जो बच्चों के लिए थी, इस बायोपिक से अच्छी थी तो मुझे बार-बार गूगल कर यह पता करने की वह बीती हुई उत्सुकता व्यर्थ लगती है कि रंगरसिया कब आ रही है? आ भी सकेगी कि नहीं?
दूसरी कहानी:मेरे शहर के सिनेमाघरों में यह फिल्म 12:30 दोपहर और 9:45 रात के दो शो में ही लगी थी. दोपहर में नौकरी के कारण जाना नहीं हो सकता तब रात में जाने के लिए चार लोगों को राज़ी किया. कार्यक्रम बनाया और गए तो हॉल वाले ने चलाने से मना कर दिया क्योंकि सिर्फ हम चार ही थे. अगले शुक्र को उतर जानी थी और किसी तरह ढूंढकर हम एक 70 सीटों वाले विडिओ जैसे हॉल में पहुँच गए तो सामने कॉलेज के छोकरों का एक ऐसा ग्रुप था जो हर लिखी इबारत को बोल-बोलकर पढ़ रहा था और जो फिल्म में मौजूद शारीरिक अंतरंगता के दृश्यों की बात सुनकर ही आया था. उनकी बेहूदी बातों, बेतुकी हंसी और मूर्खता भरी हरकतों के बीच देखी इस फिल्म को मेरी साथिनों ने पसंद किया लेकिन मैं उनकी तरह नाउम्मीद नहीं गयी थी. मेरे साथ मेरा उमंग, मेरी कल्पनाशीलता और रवि वर्मा के प्रति मेरा लगाव भी गया था. और लब्बोलुआब यह है कि मैं छली गयी और रीते हुए वापस आई.
वास्तव में, यह फिल्म अगर फिल्म न होती एक कोलाज़ होता, एक कैनवस होता जिसपर रंगों की कूची फिर रही है, अगर स्लाइड शो होता जिसमें हम रवि वर्मा के चित्रों और उस समय की वास्तुकला की भव्यता देख रहे हों, सुन्दर सिनेमेटोग्राफी का गतिमय चित्र या पॉवर पॉइंट प्रदर्शन भर होता तो मुझ से ज्यादा खुश कोई नहीं होता.
वैसे कायदे से तो मुझे दुखी भी नहीं होना चाहिए क्योंकि मैं जो हूँ सिनेमा में दृश्यों की चाह रखती हूँ और उन्हें ही बेहद करीब से देखती हूँ. फिर तो मेरे लिए तो बहुत कुछ है फिल्म में. केरल और बम्बई दोनों में खूबसूरत रंग संयोजन से भरे सुन्दर प्रकृति और देह के चित्र. लेकिन, क्या करें कि फिल्म सिर्फ चित्र और दृश्य नहीं है. उसमें कहानी, तार्किकता, संवाद और अभिनय के साथ चरित्र के प्रति न्याय भी होना चाहिए. शोध की कमी के साथ-साथ निर्देशक राजा रवि वर्मा के चरित्र की दृढ़ता को भी नहीं समझ पाया है. बाकि उसने कला, धर्म और उसकी राजनीति को बेहद सशक्त तरीके से उठाया है. व्यापारी धर्म बेचता है और उसी धर्म की दूकान से कई अपनी राजनीति चमकाते हैं. आपके धर्म और संस्कृति ने आपको ऐसी उदात्त और बहुअर्थी कहानियां दीं, जो कुछ की चित्रों में आते ही अधिकतर के लिए अश्लील हो उठती हैं. उस धर्म और संस्कृति पर आपको खूब गर्व है पर उन कहानियों की हकीकत देख आपका ही धर्म आहत हो उठता है. क्या विडम्बना है और कैसा मज़ाक है.
वास्तव में, एक ही चीज़ को फिल्म में ज़ोरदार तरीके से उठाया गया है. वह है धार्मिक संकीर्णता और कला की आज़ादी का सवाल. लेकिन, इस सवाल से जूझता एक कलाकार कोर्ट में पूरी तरह बेबस और कमज़ोर नज़र आता है. हम जिस रवि वर्मा को जानते हैं वे कोर्ट में अंतिम दिन बेबसी में मेलोड्रामा करते नहीं बल्कि अपनी ठोस दलीलों और मजबूती से जीते थे. यह फिल्म वास्तविक राजा रवि वर्मा को नहीं दिखाती जैसे ‘जोधा-अकबर’ या ‘महाराणा प्रताप’ जैसे ऐतिहासिक चरित्र-प्रधान धारावाहिक वास्तविक चरित्रों को नहीं उनका काल्पनिक और नाटकीय रूप दिखाते हैं.
फिल्म रंजीत देसाई के उपन्यास ‘राजा रवि वर्मा’ के आधार पर बनी है और लेखक-निर्देशक रचनात्मक छूट लेने के लिए स्वतन्त्र भी है. परन्तु हम जैसे ‘रवि वर्मा के प्रेमी’ भारतीय कला के पितामह को नहीं एक प्लेबॉय को देख निराश होते हैं. याद कीजिए फिल्म से सफलता के नशे में आँखों पर पट्टी बांध रासलीला में डूबे रविवर्मा का चित्र जब उसे अपने महाराज के देहांत की खबर मिली. मुझे तो वह दृश्य वाकई अश्लील लगा. एक कलाकार की गरिमा का हनन और उसकी योग्यता की जगह उसके बिस्तर पर झांकते पेपराज़ी और इसमें क्या फर्क? जहाँ प्रेम, कला और देह मिल गए वह सारे दृश्य अविस्मरणीय है लेकिन जहाँ कला भोग का साधन बस है वहाँ एक स्त्री क्या पाती है और एक दर्शक क्या सोचता है?
दरअसल निर्देशक इस कलाकार के विभिन्न पक्ष दिखाने में बिखर गया है. उससे यह चरित्र संभाला नहीं गया है. कलाकार स्वभावत: भावुक होते हैं, रोमानी भी. पर रवि वर्मा सिर्फ भावुक और कामुक होते तो उनका योगदान इतना बड़ा न होता. उन्होंने कला को आम जनता तक पहुंचा दिया, उन्होंने मनुष्य रूप में अवतारी देवों को मानव शक्ल दी जिस पर सवाल उठे, मुकदमे हुए. लेकिन, उनको सार्वजानिक मंदिरों से निकलकर घर-घर के मंदिरों तक पहुँचाने वाले रवि वर्मा का ज़िक्र भर है जबकि अपनी हर मॉडल से काम-क्रीडा रत रवि वर्मा पर निर्देशक की पकड़ ज्यादा है. फिल्म में धर्म रक्षा समिति के सचिव चिंतामणि जी अपने लठैतों के साथ उनसे पूछते हैं कि देवता तो मंदिर में होते हैं और उनका का चित्र बनाने की इजाजत उसे किसने दी? तो वाकई जिसने देवताओं को मंदिर की चारदीवारी से बाहर निकाला और किसी धमकी की परवाह न की उस लोकतांत्रिक कलाकार को कितना ही कम हम देख पाते हैं इस फिल्म में.
फिल्म में रवि वर्मा से अधिक मानवीय और मज़बूत चरित्र कोई उभरता है तो वह उनके भाई राज वर्मा का. फिल्म के शुरूआती दृश्यों में ही हम देख लेते हैं कि वह रवि वर्मा की ढाल की तरह है. लेकिन, क्या ढाल ही? क्या वह उसको थाम लेने वाली दीवार, उसे ठौर देने वाली ज़मीन नहीं? वैसे तो दो भाईयों का खूबसूरत-सा रिश्ता नज़र आता है लेकिन इसकी खूबसूरती उधड जाती है, जब हम सामंती और संयुक्त परिवार की उस परंपरा को देखते हैं, जिसमें छोटे को अपने को होम कर देना होता है. ऐसा नहीं है कि रवि को भान नहीं है कि उसके भाई में भी असीम संभावनाएं हैं. एक जगह वह स्वीकारता भी है कि मेरे कारण तुम सिर्फ बैकग्राउंड पेंटर बन कर रह गए. एक बार चित्रकला की एक प्रतियोगिता में जब दोनों के चित्र गए तब पुरस्कार राज को मिला. ऐसे में कई बार लगता है कि बरगद का पेड़ जैसे अपने आस-पास किसी और पौधे को भले ही पनपने दे पर एक सुदृढ़ आकार नहीं लेने देता उसी प्रकार एक बड़े कलाकार के पास कोई दूसरा उतना बड़ा नहीं हो सकता. सवाल भी उपजता है कि क्या कलाकार अपने प्रिय जनों से सिर्फ आहुति ही लेता है? जिन चित्रों में राज की भी पूरी ज़िन्दगी की मेहनत लगी थी उनको गिरवी रखने से पहले क्या उससे सलाह की जाती है? जिस प्रिंटिंग प्रेस में उसकी भी सारी पूंजी लगी थी क्या उसे अपने विदेशी मित्र को दान में देते उदार रवि ने अपने भाई के बारे में सोचा? खैर, राज का चरित्र यह बताता है कि उसके बिना रवि का जीवन और उसके चित्र ऐसे सुन्दर न होते और हर ऊँची इमारत की नींव ऐसे ही सच्चे और मासूम लोगों से मजबूत बनती है.
अभिनय की बात करें तो रणदीप हुडा ने कहीं-कहीं अच्छा काम किया हैं. खासकर दैहिक प्रेम और समागम के दृश्यों में. काश यह सीखने के साथ कि स्त्री देह पर रंग कैसे उकेरा जाता है किसी चित्रकार को लम्बे समय तक देख यह भी सीख पाए होते कि चित्र बनाने की भंगिमा कैसी होती है. मुझे तो चित्र उकेरते समय कूची पकड़ने से लेकर बनाने तक की उनकी देहयष्टि अपनी मॉडल को रिझाने वाले नर की ही लगती है. नंदना को जहाँ भी अभिनय करने का मौका मिला है आखिरी दृश्यों को छोड़ वे निष्प्रभाव रही हैं जबकि जहाँ प्रेम और सौन्दर्य का प्रदर्शन करना है वहां वे अद्भुत रूप से कुशल हैं. उनकी इस बात के लिए तो तारीफ करुँगी कि देह को खोलने के वे सारे दृश्य जो इतने उदात और सुन्दर बन पड़े हैं, वे उनकी सुन्दरता ही नहीं उस खुलेपन को निर्दोष बेबाकी से, मुक्ति के भाव से सहजता से स्वीकारने के कारण है. नंदना जब पहली बार उर्वशी बन अपना एक वक्ष खोल खड़ी हो जाती हैं उज़बक जैसे युवा लड़कों के बीच भी वहां हमें कोई झिझक महसूस नहीं होती क्योंकि वह शरीर का खुलापन नहीं भाव मुग्धता, कला और सौन्दर्य का खुलापन था. इस लिहाज से मुझे वे रणदीप जैसे मंजे अभिनेता पर भारी दिखती हैं लेकिन जैसे ही संवाद अदायगी की बारी आती है मुझे उनपर और निर्देशक दोनों पर खीझ होती है. महाराष्ट्रीयन मॉडल ढूंढना इतना भी तो मुश्किल नहीं था न जो थोड़ा अभिनय भी कर लेती. खैर.
अब इन सारे अभावों के बाद भी दो-तीन दृश्यों के लिए फिल्म मैं दुबारा देख सकती हूँ तो उन्हीं दृश्यों की बात करूँ. कुछ भी पूरा नहीं मिलता और जो बुरा है उसमें भी कुछ अच्छा हो सकता है की तर्ज़ पर नहीं जो वास्तविक रूप से है मैं उसकी बात कर रही हूँ.
‘कामिनी’ जो नायर स्त्री की मशहूर पेंटिंग की मॉडल है, वह अछूत-स्त्री है. आश्चर्य होता है कि राजकुमारी पत्नी को अछूत होने के कारण उसके साथ के मेल-जोल पर आपत्ति है ना कि उसके साथ दूसरी तरह के अन्तरंग संबंध के कारण. क्या तत्कालीन समाज में स्त्रियाँ बिना विरोध के सहजता से ऐसे संबंधों को स्वीकार लेती थीं? वह भी तब जब पति की तुलना में सामाजिक हैसियत में ऊँची हों? तार्किक तो नहीं ही लगता है. फिल्म में दिखाया गया है कि चित्रकार तो संन्यासी की भांति अपनी कला-साधना में लगा है जबकि कामिनी स्वयं ही उसे आमंत्रण देती है देह-भोग का. जो भी हो, वहां प्रेम का, राग का आमंत्रण नहीं है पर देह-नेह से उपजे राग-रंग का सुन्दर दृश्य है.
सुदूर दक्षिणी तट पर पछाड़ें खाता समन्दर, उसकी लहरों से चोटिल और भींगी लाल चट्टानें फिर उनके किनारे जलती आग और एक-दूसरे में लीन प्रेमी-युगल. मानो आग देह की है, उत्तेजित लहरें आवेग की हैं और सपनों की खुरदरी पर कलात्मक चट्टानों पर दो खूबसूरत लोग केलि में डूबे हैं. अद्भुत सुन्दर दृश्य था. मोहक. कामना और देह के लाल रंग पर कलात्मक सफ़ेद वस्त्रों में लिपटे कामिनी और रवि वर्मा. लालसा का वह मुक्ताकाश कम ही देखने मिलता है हमारी फिल्मों में.
दूसरा दृश्य बम्बई का है. झूले पर सुगंधा बैठी है, दूर क्षितिज पर सूरज डूब रहा है, पूरे आसमान को उसने अपने रंग में डुबा लिया है. गहरे लोहित रंग का आसमान सुरमई होने लगा है और फिर जाने कितने ज़ोर से झूलते हुए सुगंधा आसमान की बुलंदी पर पहुँच जाना चाहती है. आज रवि उसे रोक लेना चाहता है पर वह तो साँझ ढलने के बाद रुक ही नहीं सकती न. रवि उसे एक टापू पर ले जाना चाहता है जहाँ चारों ओर सिर्फ सुगंधा ही हो और कोई नहीं. स्त्री को
डर है कि कोई उसका टापू खोज लेगा. पुरुष की कामना और स्त्री का डर इस दृश्य की जान है.
अगर आप सोचें तो लगेगा कि जिस स्त्री को पाए बिना कलाकार का जीवन अधूरा था, कला अपूर्ण थी, जिसे वह सबसे दूर ले जाना चाहता था उससे सब पाकर, उसका सब कुछ निचोड़कर एक दिन कहता है कि मैंने तुम्हे मजबूर नहीं किया था. उस दिन वह उसे झटक देता है कि मेरी कल्पना के बाहर तुम हो ही नहीं. मेरे भीतर की स्त्री चीखकर कहना चाहती है कि जब वह प्रेरणा और कल्पना भर ही थी तो उसे कामना के बिस्तर पर तुम क्यों लाए? जब वह तुम्हारी कलात्मकता की भूख को स्वेच्छा से देह के बंध खोल पूरा कर देती है तब तुम्हारे भीतर प्रेम, भोग और समागम की आकांक्षा जगती है जिसमें वह अपनी इच्छा से शामिल है, पर जब वह चौराहे पर बेईज्जत की जाती है तो तुम उसे छोड़ देते हो क्योंकि कल्पना का बहाना कर.
सखी कलावंती जी फिल्म देखकर इतनी उद्विग्न हुई कि उन्होंने फोन किया मुझे और उनका कहा मैं भूल नहीं पाती कि, “जिस चेहरे पर देवी दिख गयी, जिसपर प्रिय का समर्पण दिखा, उसपर तुम्हें आसन्न मृत्यु की परछाई न दिखी? कैसे कलाकार थे तुम? तुम्हारा कहना था कि जीवन कला से सुन्दर होना चाहिए. तो पंखे से लटकती सुगंधा का शरीर जो दृश्य बना रहा था वह तुम्हारे किसी भी चित्र से ज्यादा मार्मिक था. उकेर लेते उसे भी.” इन बातों को सुन मेरे भी कई अनुतरित सवाल उठते है कि क्या वाकई राजा रवि वर्मा ऐसे थे? उनकी महाराष्ट्रियन मॉडल उनकी प्रेमिका भी थी पर क्या उसने फिल्म के जैसे नाटकीय अंत को चुना था? मैंने तो नहीं पढ़ा. पर सबकुछ क्या मेरे पढ़ने के दायरे में ही है? यह फिल्म क्या वाकई एक कलाकार को सामने लाती है? क्या वह इतना निष्ठुर और स्वार्थी होता है? क्या स्त्री की सुन्दरता को चित्र में देखते लोग उसके असल जीवन को कभी सुन्दर रहने देते हैं? जिस प्रकार पुरुषों को ऐसी कई प्रेरणाओं की जरुरत पड़ती है क्या कलाकार स्त्रियों को भी? स्त्री प्रेम, कला और जीवन सबमें छली ही क्यों जाती है? अगर ऐसा है तो बेहतर हैं मेरा बिना प्रसिद्ध हुए मर जाना पर किसी को बुलंदी पर पहुँचाने का माध्यम बनने से.
सवालों से फिर दृश्यों पर आते हैं. कुछ और दृश्य अच्छे बन पड़े हैं. जैसे, सीढ़ियों पर बिलखती सुगंधा जो मोह के भरम से निकल कला के कंटीले यथार्थ को देख रही थी, देश की विविधता को निरखता-परखता कलाकार जो मसान साधने भी निकल पड़ा है ( हालाँकि मुझे मकबूल फ़िदा हुसैन याद आये जो जयपुर की गलियों में होली के दिन रिक्शे पर निकलते थे), उर्वशी-पुरुरवा की कथा सुन उनकी त्रासदी पर मोहित सुगंधा का आँचल खोल खड़े होने की गरिमामय भंगिमा और उन-दोनों के समागम में बिखरे हजारों रंग.
अंत में:फिल्म की एक ही ज़ोरदार आवाज़ है जिसकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकती. वह है धार्मिक कठमुल्लों द्वारा सौ साल पहले भी कला को न समझ उसकी तौहीन करने से लेकर उसे नुकसान पहुँचाना और आज भी अश्लीलता, अनैतिकता और धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाने के नाम पर, हजारों साल पुरानी संस्कृति के नाम पर कला और अभिव्यक्ति का दमन करना. फिर हिन्दू तो जाने किस कछुआ धर्म को मानते हैं जिसके अंतर्विरोध समझन भी आसान नहीं. इनकी हजारों साल पुरानी कहानियाँ कुछ और कहती हैं, उनकी उन्मुक्तता और उनका खुलापन किसी और तरफ इशारा करता है जबकि रक्षकों की संस्कृति कुछ और ही है. अगर आज की संस्कृति के नाम पर धर्म रक्षा में लगे हैं तो कृपया हजारों सालों की कसमें न खाएं. क्योंकि इन हजारों सालों में जाने किन कुंठाओं में आपने अपनी थोड़ी खुली संस्कृति को जब्दी हुई बना डाला है. या फिर देवदत पटनायक की बात को मैं अपनी तरह से कहूँ तो दरअसल अधिकांश हिन्दू अपनी परंपरा का सही बोध नहीं होने के कारण और पाश्चात्य विचारकों की पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर की गई व्याख्याओं को उपयुक्त न मानने के कारण अपने ही संस्कृति प्रतीकों को नकारने लगते हैं, उसे उनपर शर्म आती है और जो राजनीति से प्रेरित होते हैं वे हिंसात्मक भी हो जाते हैं. इससे कला, साहित्य और संस्कृति सबकी स्वतंत्रता और सुन्दरता नष्ट होती है.
'पाखी'से साभार