ब्रजेश्वर मदानको मैं तब से जानता था जब डीयू में पढ़ते हुए फ्रीलांसिंग शुरू की थी. दरियागंज में 'फ़िल्मी कलियाँ'के दफ्तर में उनसे मिलने जाया करता था. वे उसके संपादक थे. मनोहर श्याम जोशी से जब बाद में मिलना हुआ और उनसे एक गहरा नाता बना तो वे कहते थे कि ब्रजेश्वर मदान स्वाभाविक जीनियस है. वे आज भी हैं लेकिन हमारी स्मृतियों से दूर हो गए हैं, जाने कहाँ. लेखक शशिभूषण द्विवेदीका यह संस्मरण पढ़ा तो एक ज़माना याद आ गया जिसे भूले एक ज़माना हो गया था. शशिभूषण ने बहुत प्यार से लिखा है. उस सम्मान के साथ जिसके वे हमेशा हकदार थे. हैं. आप भी पढ़िए- प्रभात रंजन
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पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अजीत कौर ने एक बार एक गोष्ठी में सार्वजनिक रूपसे कहा था कि पूरे दक्षिण एशिया में जीवित महान लेखकों में इंतिजार हुसैन के बादअगर कोई दूसरा है तो वो हैं ब्रजेश्वर मदान। हो सकता है कि अजीत कौर की बातमें कुछ अतिश्योक्ति हो लेकिन मदान साहब कई मामलों में अनोखे लेखक तो हैंहीं।हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में वे समान रूप से मकबूल हैं, बल्कि उर्दूमें तो शायद हिंदी से कुछ ज्यादा ही। वे दोनों हाथों से एक साथ लिख सकते हैं-एक हाथ से हिंदी में तो दूसरे से उर्दू या पंजाबी में। हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी के वे समान रूप से विद्वान हैं। लेकिन लेखन की दुनियामेंजब मैं आया तो ब्रजेश्वर मदान को जानता तक नहीं था। मगर जब जाना तब मैं उनकादीवाना हो गया। आगे बढऩे से पहले मैं बता दूं कि अभी हाल ही में मैंने कनॉट प्लेस की अंग्रेजी किताबों की एक दुकान में एक किताब देखी जिसमें हिंदी कीकुछअनूदित कहानियां थीं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का प्रतिनिधित्व करती थीं। इस किताब को बेस्ट सेलर का दर्जा हासिल है और यह शायद हार्पर कालिंस यापेंगुइन से छपी है(प्रकाशक का नाम अब ठीक-ठीक याद नहीं)। इस किताब में हिंदीके जिन लेखकों को प्रतिनिधि लेखक माना गया उनमें-प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव, कृष्णा सोबती, मोहन राकेश, कमलेश्वर, स्वदेश दीपक और ब्रजेश्वर मदान हैं।
इस किताब में मदान साहब की कहानी ‘लेटर बॉक्स’ है। इसी नाम से उनका एकसंग्रहभी है जो हिंदी के एक गुमनाम प्रकाशक ने छापा है और अब शायद आउट ऑफ प्रिंटहै।मदान साहब के अनुसार यह प्रकाशक दरअसल उनका मित्र है (भले ही उसने उनकाकितनाही शोषण किया हो)। मदान साहब की ज्यादातर किताबें ऐसे ही गुमनाम प्रकाशकों ने छापी हैं जो शराब के नशे में उनके दोस्त बन गए। अजीब बात है कि बाद में जब मैं और प्रभात रंजन उनके संपर्क में आए और हमने चाहा कि उनकी किताबें बड़े प्रकाशकों के यहां से ढंग से छपकर आएं तो उन्होंने इंकार कर दिया। उनका कहना था कि ‘यार, दोस्ती भी कोई चीज होती है’, जबकि इन किताबों के लिए उन्हें बाजार दर से ज्यादा पैसे देने की बात हो चुकी थी। प्रभात गवाह हैं। मगर मदान साहब टस-से-मस नहीं हुए। उन दिनों मैं मदान साहब के साथ दिन-रात रहता था और प्रभात ने यह जिम्मेदारी मुझे दी थी कि मैं मदान साहब को मना लूं। लेकिन लाख कोशिश के बावजूद मैं उन्हें नहीं मना सका। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी असफलता है।
उन दिनों मदान साहब मुझे अपना बेटा मानते थे और अपनी वसीयत मेरे नाम करने को उतावले थे। हालांकि यह सब शराब के नशे में होता था। ऐसी हालत में अक्सर वे मुझसे कहते कि ‘यार, सुनील दत्त के पास तो इतना पैसा था कि संजय दत्त का इलाज उसने लंदन में करा लिया। मैं तो अपना सब कुछ बेच-बाच भी दूं तो भी तेरे लिए इतना पैसा नहीं जुटा सकता।’ और मैं सोचता कि मेरे पास तो इतना पैसा भी नहीं कि इसी शहर में आपका इलाज करा सकूं। यानी हम दोनों बाप-बेटे एक दूसरे के इलाज के मुताल्लिक सोचते रहते और यह सब नशे में होता था। होश में आते ही वे मुझे हरामी कहते और मैं उन्हें। हालांकि हमारी उम्र में कम-से-कम तीस-चालीस साल का अंतर था।
लेकिन ये रिश्ता बहुत गहरा था। इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने नौकरी बदल दी और उनसे दूर चला आया। दो-तीन महीने बाद ही पता चला कि मदान साहब को फालिस का अटैक पड़ा है और उनका दायां हिस्सा पूरी तरह बेकार हो चुका है। मैं उन्हें देखने जाना चाहता था लेकिन पता नहीं था कि वे कहां हैं। चूंकि अपने घर में वे अकेले थे और फालिज के अटैक के बाद अपने किसी रिश्तेदार के यहां चले गए थे। यह खबर मिलते ही मैंने प्रभात को फोन किया। न प्रभात न मेरी हिम्मत पड़ी इस अपाहिज हालत में उन्हें देखने की। वे हमारे हीरो थे और अपने हीरो को हम अपाहिज नहीं देख सकते थे। इस दौरान कवि चंद्रभूषण और रंजीत वर्मा से उनकी खोज-खबर मिलती रही। हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पाए। हिंदी के कई धुरंधरों और मठाधीशों को उनके बारे में बताया तो उन्होंने भी कोई रुचि नहीं ली। क्यों लेते? अब उनसे उन्हें कोई लाभ जो नहीं था। यूं भी मदान साहब जिंदगी भर इन लोगों को अंगूठा दिखाते रहे। उनकी ज्यादातर क्लासिक कहानियां बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में नहीं छपीं। अधिकांश कहानियां तो ‘फिल्मी कलियां’ में छपीं जिसके वे अघोषित संपादक थे और जिसका मालिक उन्हें रोज वेतन की जगह शराब की एक बोतल पकड़ा देता था। उन्होंने बताया था कि मुद्राराक्षस से उनकी दोस्ती ‘फिल्मी कलियां’ में छपी उनकी एक कहानी के जरिए ही हुई। जाने क्यों वे मुझे बहुत जहीन और पैदाइशी किस्सागो मानते थे और इस बात को अपने उस बेटे से जोड़ लेते थे जो जन्म के चार-छह महीने बाद ही गुजर गया था। वे अक्सर कहते कि अगर मेरा बेटा जिंदा तो बिल्कुल तेरे जैसा होता। उन दिनों नशे में वे अक्सर मुझे बहुत सारी किताबें डांट-डांट कर पढ़ाते थे। उनकी दी हुई बहुत सी किताबें आज भी मेरे पास हैं जिनमें हेनरी मिलर की ‘ट्रॉपिक ऑफ कैप्रिकॉन’ खास है।
खैर...उनके बेटे से जुड़ी कहानी सचमुच बहुत दुखद है। मदान साहब की जिंदगी की सबसे बड़ी ट्रेजडी। महज बीस-पच्चीस रुपये न होने की वजह से उनका बेटा 30-३५ साल पहले बीमारी में बिना इलाज के मर गया। इस सदमे कोउन्होंने तो जैसे-तैसे बर्दाश्त कर लिया लेकिन उनकी पत्नी नहीं कर पाईं और सारी जिंदगी के लिए साइकिक हो गईं। उस बेटे के कपड़े और मोजे तक उन्होंने संभाल कर रखे थे और उन्हें देखकर अक्सर वे मदान साहब की लानत-मलामत करती थीं। उनका मानना था कि उनके बेटे की मौत के जिम्मेदार मदान साहब ही हैं। यह सब तो मेरा अपना देखा हुआ है। मदान साहब उनकी बात चुपचाप सुनते रहते और उनका कुछ ज्यादा ही खयाल रखने लगते। हालांकि ये बहुत बाद की बात है।
मदान साहब को शराब की लत थी और यह सब उनकी जिंदगी के भयानक दुखों के बायस था। ये दुख इतने बड़े थे कि मैं उन्हें लिख नहीं सकता और लिख दूं तो कोई समझ नहीं पाएगा। जिंदगी में बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो कही नहीं जा सकतीं। मदान साहब से मेरा संबंध सहारा समय और राष्ट्रीय सहारा में नौकरी के दौरान ही बना। इस दौरान उन्हें उसी एक चीज से अरुचि हो गई थी जिसने उन्हें इतनी शोहरत दी यानी फिल्मी लेखन। मनोहर श्याम जोशी को मदान साहब अपना गुरु मानते रहे हैं और प्रभात बताता है कि जोशीजी कहा करते थे कि पूरे दक्षिण एशिया में फिल्म की ऐसी समझ रखने और उस पर लिखनेवाला मदान से बेहतर कोई नहीं। और यह सच भी है। उनकी किताब ‘सिनेमा: नया सिनेमा’ इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
मदान साहब को फिल्म लेखन के लिए हिंदी में पहला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। यह सम्मान उन्हें तब मिला था जब राष्ट्रीय पुरस्कारों में आज की तरह तीन-तिकड़म नहीं चलते थे। विष्णु खरे और विनोद भारद्वाज तो एडिय़ां घिसते रहे और आज तक यह सम्मान हासिल नहीं कर पाए। लेकिन मदान साहब को कभी इस बात का अहंकार नहीं हुआऔर न उन्होंने इसका कोई लाभ ही उठाया। उन्हें तो इसी में खुशी थी कि यह पुरस्कार उन्होंने अपनी बीवी के साथ लिया और उस समय वह बहुत खुश थी। पत्नी की मौत के बाद वह चित्र जिसमें वे उनके साथ वह पुरस्कार ले रही हैं और बहुत खुश हैं, मदान साहब ने अपने सिरहाने रखा हुआ था। उनके तकिए के नीचे हमेशा फिल्म अभिनेत्री माला सिन्हा का चित्र रहता था। एक जमाने में माला सिन्हा से उनका प्रेम चला था, शायद एकतरफा। हालांकि उनके नाम माला सिन्हा के कई भावभीने पत्र मैंने खुद देखे हैं। एक पूरी एल्बम थी जिसमें वे माला सिन्हा के साथ हैं या उनकी बेटी को गोद में खिला रहे हैं (जो अब खुद भी फिल्म अभिनेत्री है।) माला सिन्हा के बारे में वे अक्सर कहते कि इस औरत ने मुझे बर्बाद कर दिया। दरअसल माला सिन्हा के चक्कर में उन्होंने बहुत पापड़ बेले थे। बीए करने के बाद माला सिन्हा के एक परिचित के यहां ट्यूशन पढ़ाया और फिर फिल्मों की दीवानगी के चलते घर (स्यालकोट) से भागकर दिल्ली चले आए। दिल्ली में कोई ठिकाना नहीं था सो ‘फिल्मी कलियां’ और दूसरी फिल्म पत्रिकाओं में बेगारी की। शायद ‘फिल्मी कलियां’ में ही उन्होंने माला सिन्हा पर कोई लेख लिखा था जिसे पढक़र माला सिन्हा ने उन्हें पत्र लिखा और मिलने के लिए बंबई बुलाया। वे अचानक सब कुछ छोड़-छाडक़र बंबई चले गए। माला सिन्हा मिलीं और भी बहुत से लोग मिले।
राजकपूर,दिलीप कुमार और भी उस जमाने के जाने-माने लोग। मणि कौल और कुमार साहनी बाद में उनके दोस्त ही बन गए। इसके बाद से ही वे पूरी तरह फिल्म के हो गए। लेकिन फिल्म उनका पहला प्यार नहीं था। वह मजबूरी का काम था। उनका पहला प्यार तो साहित्य था। लेकिन साहित्य से उन्हें पैसा नहीं मिल सकता था। पैसा मिलता था फिल्म लेखन से। नौकरी उन्होंने कभी की नहीं। की भी तो एकाध साल के लिए जब वे रिटायरमेंट की उम्र में पहुंच गए थे। हिंदी में उनके जैसा ‘होलटाइमर फ्रीलांसर’ मैंने नहीं देखा। पहले होते होंगे तो नहीं जानता। मदान साहब ने जो कुछ पाया-कमाया सिर्फ लेखन से ही। इसके अलावा उन्होंने कभी कुछ और किया-मैं नहीं जानता। एकबार उन्होंने किसी और के जरिए अपना एक ब्लॉग भी बनवाया था जिस पर लिखा था-‘नौकरी कभी कभार, चाकरी कभी नहीं की।’
मंटो और अहमद नदीम कासमी उनके प्रिय लेखक हैं। कासमी तो उनके दोस्त ही थे। कासमी के तमाम संस्मरण अक्सर वे मुझे सुनाते थे। सिर्फ लेखन के दम पर ही उन्होंने नोएडा में इतना बड़ा बंगला बनवाया जिसमें पत्नी की मृत्यु के बाद वे भूत की तरह अकेले भटकते रहते थे। शक्की बहुत थे। जब तक पत्नी जिंदा थीं उन्हीं के हाथ का बना खाना खाया। उसके बाद अपनी साली के हाथ का बना खाना भी उन्होंने कभी नहीं खाया। उन्हें शक था कि ये लोग उन्हें जहर दे देंगे। हालांकि मदान साहब के इस शक या फोबिया के पीछे कुछ तथ्य भी हैं। दरअसल, प्रापर्टी के चक्कर में उनके तमाम रिश्तेदार उनके पीछे पड़े हुए थे। उन्हें डर था कि ये लोग इस चक्कर में उनकी जान ले लेंगे। लेकिन जिंदगी अजीब है। जिस संपत्ति के लिए वे इतने सशंकित थे, फालिज के अटैक के बाद अब वे उसे ही छोडक़र किसी और के यहां पड़े हुए हैं। खैर...
एक जमाना था जब हम लोग ऑफिस के बाद शाम सात बजे नोएडा सेक्टर-१२ की मार्केट में होते थे। पूरी मार्केट में हर दुकानदार उनका परिचित था और उनकी बहुत इज्जत करता था। उनमें बहुत से लोग उनके पाठक भी थे। एक कसाई और एक कपड़े की दुकान वाले को तो मैं खुद जानता हूं जो उनका लिखा जरूर पढ़ते थे। वहां शराब की एक शानदार दुकान है जो शाम को उनका स्थाई अड्डा हुआ करती थी। उस दुकान का मालिक उनका पाठक था और उनकी बहुत इज्जत करता था। चूंकि मदान साहब घर पर नहीं पीते थे (क्योंकि उनकी पत्नी को यह पसंद नहीं था) इसलिए उसने दुकान में ही उनके लिए विशेष इंतजाम कर रखा था। मैंने आज तक कहीं और कभी नहीं देखा कि शराब की दुकान पर किसी का उधार खाता चलता हो। लेकिन उस दुकान पर मदान साहब का उधार खाता बाकायदा चलता था। मैंने खुद उनके खाते से कई बार उधार शराब ली है। इसका एक कारण तो मदान साहब के प्रति उन लोगों की श्रद्धा थी। दूसरा यह कि मदान साहब पे मास्टर थे। ज्यादा दिन वे किसी का उधार नहीं रखते थे और बिना किसी हिसाब-किताब के सबको खुश रखते थे। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मदान साहब कोई शाहखर्च थे। कई बार वे कमीनगी की हद तक कंजूस हो जाते थे। मैंने देखा है कि कई बार उन्होंने बहुत जरूरतमंदों को भी जलील करके भगा दिया। हो सकता है कि इसके पीछे कुछ और कारण हों जिन्हें मैं नहीं जानता। अकारण तो वे किसी को बेइज्जत नहीं करते थे। कई बार फिल्म वालों को मैंने उनकी चिरौरी करते भी देखा है लेकिन उन्होंने उन्हें डांट कर भगा दिया। उन दिनों उन्हें फिल्मों से चिढ़ हो गई थी। यहां तक कि टीवी से भी उन्हें नफरत थी। उनके घर पर एकाध बार मैंने उनका टीवी चला दिया तो वे भडक़ गए और बोले इस ‘इडियट बॉक्स’ को उठाकर बाहर फेंक दे। लोगों को इस मीडियम की कोई समझ नहीं है। टीवी में सब बेवकूफ भरे हुए हैं। मैं उनका मूड देखकर खमोश बैठा रहा।
एक बार की बात है। युवा कथाकार और नया ज्ञानोदय के सहायक संपादक कुणाल सिंह नए-नए दिल्ली आए थे और लोदी कालानी की एक बरसाती में रहते थे। उन्हीं दिनों अजीत कौर की संस्था की तरफ से साउथ एक्स में मदान साहब का कविता-पाठ रखा गया। आमतौर पर मदान साहब नोएडा से बाहर कहीं नहीं जाते थे लेकिन अजीत कौर के प्रस्ताव को वे ठुकरा नहीं पाए और मुझे लेकर वे वहां कविता पाठ के लिए गए थे। यह कवि गोष्ठी काफी सफल रही थी और अजीत कौर ने उसी गोष्ठी में मदान साहब के लिए ‘दक्षिण एशिया में इंतजार हुसैन के बाद दूसरा जीवित महान लेखक’ वाला वक्तव्य दिया था। गोष्ठी के बाद हम लोगों ने मदान साहब के सम्मान में एक पार्टी का आयोजन किया था। यह पार्टी अजय नावरिया की दलित साहित्य अकादमी की तरफ से थी जिसका दफ्तर कुणाल की बरसाती के ठीक बगल में था। पार्टी में हम तीन-चार लोग ही थे। युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय, मैं, अजय नावरिया और मदान साहब। पार्टी जब उरूज पर पहुंची तो अचानक हरेप्रकाश को एक बदमाशी सूझी।
दरअसल,हरे प्रकाश मदान साहब की कंजूसी की कई वारदातें झेल चुका था और उनसे बदला लेना चाहता था। सो हरेप्रकाश और अजय ने वहीं बैठे-बैठे एक योजना बना डाली जिसमें जाने-अनजाने मुझे भी शामिल कर लिया। हरेप्रकाश ने रोनी सूरत बनाकर मदान साहब को बताना शुरू किया कि बगल के ही कमरे में कुणाल सिंह तीन दिन से बीमार पड़ा है। उसके पास खाने तक के पैसे नहीं हैं। शहर में उसे कोई जानता तक नहीं। नौकरी भी नई-नई है, वहां से भी फिलहाल उसे कुछ मिलने की उम्मीद नहीं। हम लोग भी बेरोजगार हैं और शहर में नए-नए हैं। हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे। कुणाल बहुत प्रतिभाशाली लेखक है, उसके लिए कुछ करना चाहिए आदि-आदि। यह सब हरेप्रकाश ने इतने भावुकतापूर्ण अंदाज में कहा था कि मदान साहब भी भावुक हो गए और कहने लगे कि मैंने भी इस शहर में बहुत पापड़ बेले हैं बेटे, चल उसके पास चलते हैं,जो हो सकेगा किया जाएगा। और हम सब मदान साहब के साथ कुणाल की बरसाती में आ गए।
कुणाल बिस्तर पर लेटा कुछ पढ़ रहा था। कमरे की हालत अस्त-व्यस्त थी और उसे देखकर लगता था कि सचमुच उसकी हालत बहुत दयनीय है। मदान साहब उसके बिस्तर पर बैठ गए और जेब से फौरन हजार का नोट निकालकर जबरदस्ती उसे देते हुए बोले,‘बेटे, चिंता मत कर, मैं तेरे पिता की तरह हूं। इस शहर में तू खुद को कभी अकेला मत समझना। कोई भी जरूरत हो, सीधे मुझसे कहना।’ कुणाल की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि आखिर माजरा क्या है। हम लोगों ने कुणाल का मदान साहब से परिचय कराया और आंख मारते हुए कहा कि अब चिंता की कोई बात नहीं कुणाल। मदान साहब तो तुम्हारे पिता की तरह हैं। प्यार से दे रहे हैं, रख लो। कुणाल बार-बार पैसे लेने से इंकार कर रहा था और हम लोग मदान साहब से कह रहे थे कि बड़ा स्वाभिमानी लडक़ा है, ऐसे पैसे नहीं लेगा। इस पर मदान साहब और भावुक हो जाते और कुणाल के सिर पर हाथ फेरते हुए कहते कि बेटा, जिंदगी रहेगी तो स्वाभिमान भी रहेगा। ये पैसे रख ले। कम हों तो और बता। किसी चीज की कोई कमी नहीं होनी चाहिए। तू तो मेरे बेटे जैसा है। बाप से पैसे लेने में कैसी झिझक?याद नहीं कि कुणाल ने पैसे लिये या नहीं, लेकिन मदान साहब उस रात बहुत भावुक होकर घर लौटे। जितनी देर तक यह सारा तमाशा चलता रहा, नीचे मदान साहब की टैक्सी का मीटर भी डाउन रहा। हजार-दो हजार से कम बिल उसका भी क्या आया होगा। खैर...हरेप्रकाश की इस बदमाशी पर बाद में हम लोग देर तक हंसते रहे।
उनके साथ मेरे कई बार झगड़े भी हुए। एक बार झगड़ा हुआ तो उन्होंने कहा कि अब मैं तेरा मुंह नहीं देखना चाहता। तू अपने घर जा और मैं अपने घर जाता हूं। गर्मियों के दिन थे। मैंने कहा कि मैं अपने कमरे पर नहीं जाऊंगा, गर्मी बहुत है और मेरे पास कूलर भी नहीं है। मैं आपके कमरे में अब एसी में सोऊंगा, अपना झगड़ा हम सुबह निपटा लेंगे। लेकिन वे बहुत गुस्से में थे। उन्होंने बाजार से फौरन एक कूलर खरीदकर रिक्शे पर लदवाया और कहा कि कूलर लेकर अपने कमरे पर जा, फिलहाल मैं तेरा मुंह नहीं देखना चाहता। मैं कूलर लेकर चुपचाप चला आया। वह कूलर हाल-फिलहाल तक मेरे पासथा जिसे कबाड़ मानकर हाल ही में मेरी बीवी ने एक कबाड़ी को बेच दिया।
गुस्से में भी मदान साहब का प्यार और फराखदिली मैंने देखी है। एक बार तो हमारा इतना भयानक झगड़ा हुआ कि पूरा सेक्टर-१२ का मार्केट परेशान। उस दिन कवि चंद्रभूषण भी साथ थे। दरअसल, मदान साहब जिसे प्यार करते थे उसके खराब-से-खराब लेखन को भी अपनी सादगी में महान कह देते थे। एेसी ही कोई बात हो रही थी सो मैंने कह दिया कि मदान साहब, आपका क्या है, आप तो अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं को भी महान बता दोगे। बस, मदान साहब भडक़ गए। बोले कि अगर तूने मुझे गाली दी होती तो कोई बात नहीं थी, लेकिन तूने मेरी आइडियोलॉजी को गाली दी है और लगे हंगामा करने। लेकिन हमारे रिश्तों को पूरा मार्केट जानता था इसलिए अगले दिन फिर हमें साथ देखकर सब मुस्कुराने लगे। लेखन का उनका तरीका भी अनोखा है। एक से एक खूबसूरत कहानियां उन्होंने एक झटके में लिखी हैं। एक बार अपने लिखे को वे फिर दुबारा फेयर नहीं करते। जो लिख दिया सो लिख दिया। एक बार की बात है। शाम को मदान साहब ऑफिस से सेक्टर-१२ की मार्केट में आ गए थे और ‘मूड’ में थे। इसी बीच सहारा के समूह संपादक गोविंद दीक्षित का फोन आया। उन्होंने कहा कि शिवाजी गणेशन की मौत हो गई है। उन पर एक राइट-अप जाना है। क्या आप ऑफिस आ सकते हैं। मदान साहब ने कहा कि पीकर मैं ऑफिस नहीं आता। इस पर गोविंद जी ने कहा कि क्या आप लिखने की स्थिति में हैं? तो मदान साहब ने कहा कि लिखने की स्थिति में तो मैं हमेशा रहता हूं। गोविंद जी ने मदान साहब से शिवाजी गणेशन पर फौरन कुछ लिखकर देने का इसरार किया और मदान साहब ने वहीं मार्केट में एक होटल में बैठकर शिवाजी गणेशन पर एक जोरदार राइट-अप लिख दिया, बिना कोई संदर्भ देखे। मुझे याद नहीं कि लिखते हुए उन्हें कभी कोई संदर्भ आदि देखने की जरूरत पड़ती हो। अगले दिन वह लेख अखबार में छपा। शिवाजी गणेशन पर बाकी अखबारों में जो छपा था उसमें सबसे बेहतर लेख मदान साहब का ही था। इस तरह लेखन का स्टाइल मैंने दो ही लोगों में देखा है-एक ब्रजेश्वर मदान और दूसरे शारदा पाठक। शारदा पाठक भी कम दिलचस्प इंसान नहीं थे। अभी ३ साल पहले एक सडक़ हादसे में उनकी मौत हुई। पाठक जी कभी ‘नव भारत’ अखबार के संपादक रह चुके थे। फिल्मी दुनिया के बारे में मदान साहब की तरह शारदा पाठक की जानकारियों का भी कोई ओर-छोर नहीं था। एक जमाने में वे भी राजकपूर के दोस्तों में शुमार थे। उनकी भी लगभग सारी जिंदगी फ्रीलांसिंग में ही गुजरी। किसी भी विषय पर उनसे लिखवाया जा सकता था और वे हाथोंहाथ लिखकर दे देते थे बिना कोई संदर्भ देखे। उनकी जानकारियां और स्मरण शक्ति अद्भुत थी। मेरी उनसे पांच-सात मुख्तसर सी मुलाकातें हैं और मैंने उन्हें कभी निराश, हताश या दुखी नहीं देखा। वे जबलपुर के थे। रजनीश, महर्षि महेश योगी और राजेंद्र अवस्थी भी जबलपुर के थे और ये तीनों ही उनके दोस्त थे। वे मजाक में कहते थे कि जबलपुर ने चार फ्राड पैदा किए हैं। तीन तो मैं ऊपर बता चुका हूं, चौथा बड़ा फ्राड वे खुद को मानते थे। यार लोग बताते हैं कि कभी उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स में भी कुछ दिन नौकरी की थी और एक दिन अचानक यह कहते हुए छोड़ दी कि मजबूरी में तो राजा हरिश्चंद्र ने भी डोम की नौकरी कर ली थी, मैंने तो खैर बिड़ला जी की की। सहारा समय के दफ्तर वे अक्सर आते थे। उस समय सहारा समय में मनोहर नायक सहयोगी संपादक थे। वे भी जबलपुर के हैं। कई बार पाठक जी के आते ही उन्होंने मुझे कूपन देकर कहा कि पाठक जी को खाना खिला लाओ। शुरू-शुरू में तो मेरी समझ में नहीं आया कि आखिर मामला क्या है? बाद में पता चला कि पाठक जी की जेब में पैसे के नाम पर धेला भी नहीं है और वे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से नोएडा तक पैदल चले आ रहे हैं। जब उनसे खाने की बात की गई तो उनका स्वाभिमान जाग उठा और बोले, नहीं मेरा पेट भरा है। बड़ी मुश्किल से उन्हें खाना खिलाया गया। ऐसे लोग अब दुर्लभ हैं। मदान साहब के जिक्र के बीच पाठक जी का जिक्र दरअसल इसलिए किया कि दोनों के बीच एक अद्भुत साम्य है। दोनों जिंदगी भर फ्रीलांसिंग करते रहे और दोनों को ही बुढ़ापे में जानलेवा प्रेम हुआ। कहते हैं कि पाठक जी को बुढ़ापे में एक प्रोफेसर से प्रेम हुआ और उसमें असफल होने पर उन्होंने तेजाब से अपना मुंह धो लिया। मदान साहब को भी बुढ़ापे में प्रेम हुआ और सचमुच जानलेवा प्रेम हुआ। सहारा के उर्दू अखबार में एक लडक़ी थी। निहायत ही खूबसूरत। वह मदान साहब के लेखन की दीवानी थी और अक्सर उनके पास बैठी रहती थी। उसके चक्कर में जिंदगी भर लापरवाह लिबास में रहने वाले मदान साहब अचानक रोज नए-नए सूट पहनने लगे। दिन में वह लडक़ी जिस भी रंग की बात करती, शाम को मदान साहब उसी रंग का महंगे से महंगा सूट खरीद लेते, बिना कोई मोल भाव किए। चेहरे पर क्लिंजिंग मिल्क और दूसरी प्रसाधन सामग्रियों का भी इस्तेमाल करने लगे थे। फोन पर घंटों ज्यातिषियों से अपने प्रेम की सफलता के बाबत पूछते। महंगा मोबाइल और दूसरे महंगे उपहार भी उन्होंने उसे दिए थे। अचानक एक दिन कहने लगे कि इसे लेकर मैं एक फिल्म बनाऊंगा और उसे फिल्म की हीरोइन बनाने का आश्वासन भी दे आए। फिल्म की कहानी भी उन्होंने शायद लिख ली थी। बाद के दिनों में तो वे उसके चक्कर में नमाज तक पढऩे लगे और धर्म परिवर्तन की भी सोचने लगे थे।
इन्हीं दिनों उन पर कविता लिखने का भूत भी सवार हुआ। लेकिन अजीब बात है कि प्रेम वो उस लडक़ी से कर रहे थे और प्रेम कविताएं अपनी दिवंगता पत्नी के नाम लिख रहे थे। मेरे सामने कवि चंद्रभूषण ने एक बार बहुत संजीदगी से उनसे पूछा कि मदान साहब क्या सचमुच आप उस लडक़ी से प्रेम करते हैं? मदान साहब एक रहस्यमय मुस्कान मुस्काए और धीरे से बोले, ‘यार, प्यार तो मैंने अपनी बीवी से ही किया था। ये सब जो कर रहा हूं सब दिल बहलाव है।’ चंद्रभूषण ने कहा कि इसका क्या सबूत है कि आप अपनी पत्नी से प्रेम करते थे। मदान साहब ने कहा कि प्रेम का कोई सबूत नहीं होता, लेकिन हमारी मिट्टी मिलती थी। चंद्रभूषण ने पूछा कि मिट्टी मिलने का क्या मतलब? तो उन्होंने बताया कि दरअसल बिना बोले वो मेरी बात समझ जाती थी और मैं उसकी। लेकिन आखिरकार पत्नी भी उन्हें बीच रास्ते छोडक़र चली गईं और मदान साहब पूरी तरह तन्हा हो गए। मैंने उन्हें अकेले भूत की तरह उस बंगले घूमते देखा है। इस बीच उनका वह बहुप्रतीक्षित कविता संग्रह भी आ गया जिसे ;उन्होंने अपनी पत्नी को समर्पित किया है। लेकिन हाशिए पर पड़े मदान साहब के इस संग्रह को हिंदी साहित्य के हाशिए पर भी जगह नहीं मिली और वह भी उन्हीं की तरह गुमनामी में चला गया। इस बीच कई घटनाएं घटीं। मदान साहब का दिल टूटा और ऑफिस जाना भी उन्होंने लगभग बंद कर दिया। अचानक एक सुबह डायरी लिखते समय उन्हें पक्षाघात हुआ और उनके दाएं हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। अब वे अपने बंगले पर भी नहीं हैं। सुना है कि कहीं किसी भाई के यहां हैं लेकिन कहां, किसी को कुछ पता नहीं। पता नहीं अब किसी को उनकी याद भी है या नहीं।
'वर्तमान साहित्य'से साभार
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