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वे भाषा की भूलों को कभी नहीं भूलते थे

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पंकज सिंह- पहली बार मदन मोहन झा सर ने उनका नाम लिया था. कहा था कि बहुत बड़े कवि हैं. वे राजनीति शास्त्र पढ़ाते थे. सीतामढ़ी के गोयनका कॉलेज में. मिलना बहुत बाद में हुआ जड़ दिल्ली विश्वविद्यालय में पढता था तब. उनके बारे में किस्से सुनता रहता था. 90 के दशक में जब वे लन्दन, पेरिस में रहते थे तब उनके समकालीन लेखक उनके किस्से सुनाया करते थे. लौट कर आये तो वे दिल्ली में रहने लगे. तब अक्सर मुलाकात होती थी. किसी न किसी कार्यक्रम में. मुझे याद आता है मैंने पहली बार जनसत्ता में मनोहर श्याम जोशी पर कवर स्टोरी की थी. जिससे एक तरह से दिल्ली के लेखकों ने मुझे पहचाना. पंकज जी मिले तो उन्होंने उस लेख का जिक्र किया, फिर मुझे लगा कि तारीफ करेंगे, लेकिन उन्होंने उस लेखक की भाषा की भूलों के बारे में बताया. कहा कि भाषा शुद्ध लिखनी चाहिए.

बाद में जब बहुवचन का संपादन करता था उन दिनों वे भाषा की भूलों, संपादन की भूलों के बारे में अक्सर बताया करते थे. तब बुरा लगता था लेकिन आज सोचता हूँ तो लगता है कि अगर उन्होंने इतना न टोका होता तो भाषा को लेकर इतना सजग नहीं हुआ होता. वैसे शुद्ध आज भी नहीं लिख पाता लेकिन उनके होने पर एक डर बना रहता था कि गलत भाषा देखते ही टोक देंगे. पिछले दिनों फेसबुक पर उनका आतंक था. वे किसी की भी भाषा की भूल दुरुस्त कर दिया करते थे.

जब भी मिलते बज्जिका में बात करते थे- कि लिखई छे! मुजफ्फरपुर के वे अकेले लेखक थे जिनसे मैं बज्जिका में बतियाता था. अनामिका दी और गीता दी से भी नहीं. आज याद करता हूँ तो याद आ रहा है कि जून में उन्होंने मुझे फोन किया और बज्जिका में कहा कि चतुर्भुज स्थान वाली अपनी किताब छपने से पहले मुझे एक बार पढवा दो. यह उनकी बहुत बड़ी पेशकश थी जिसे मैं समझ नहीं पाया. मुझे लगा कि अगर भाषा-शैली को लेकर उन्होंने अधिक आपत्ति की तो फिर मैं क्या करूँगा. इसलिए पढने के लिए उनको नहीं दी. काश दे दी होती तो भाषा तो शुद्ध छपी होती.

वे हम मुजफ्फरपुर वालों के लिए पूरा-नायक की तरह थे. उन्होंने हमारा वितान बड़ा किया. अगर आज हम जैसे लोगों ने थोड़ी-बहुत उपलब्धियां हासिल की हैं तो इसके पीछे उनका रचा वही वितान था. उन्होंने हमें ऊंचाई का रास्ता दिखाया.

उनके अंदर मुजफ्फरपुर वालों की मूल अक्खड़ता थी. यह हमारे शहर का मूल स्वभाव है जो उनमें आखिर तक बना रहा. अपनी ठाठ में रहना, किसी से भी कुछ भी कह देना.

लेखक दो तरह के होते हैं, एक जो इतिहास का हिस्सा बनकर समय के साथ इतिहास के बोझ तले दब जाते हैं, दूसरे वे जो किस्से-कहानियों का हिस्सा बनकर अमर हो जाते हैं. पंकज जी किम्वदंती पुरुष बनकर अमर रहेंगे. हमें याद दिलाते हुए कि अशुद्ध भाषा लिखने से बड़ा अपराध नहीं होता. ऐसे समय में जब भाषा को रोज-रोज भ्रष्ट किया जा रहा हो भाषा की शुद्धता सबसे बड़ा प्रतिरोध है.


पंकज जी, अब मैं शुद्ध भाषा लिखने को अपनी जिम्मेदारी की तरह मानूंगा! 

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