इस साल बाबुषाके कविता संग्रह 'प्रेम गिलहरी दिल अखरोट'ने सबका ध्यान खींचा. इस साल की अंतिम कविताएं बाबुषा की. जानकी पुल के पाठकों के लिए ख़ास तौर पर
1.
भाषा में विष
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जिन की भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुःख था
दुखों के पीछे अपेक्षाएँ थीं
अपेक्षाओं में दौड़ थी
दौड़ने में थकान थी
थकान से हताशा थी
हताशा में भाषा थी
भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुःख था
2.
तमीज़
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वहाँ बच्चों का अल्हड़ जंगल है
जिसे वे लोग बदल देना चाहते हैं एक सुरुचिपूर्ण बाग़ में
ये कुछ ऐसा ही है
कि जैसे किसी बेलौस हँसी को नपी-तुली मुस्कुराहट में तराश दिया जाए
वे लोग मस्तमौला बढ़ती लताओं को कुतरते हैं सावधानी से
मिट्टी का प्रकार तय करते हैं
वे बनाते हैं हरा रंग अपनी कलर प्लेट के अनुकूल
मूसलाधार बरसात को मिलीमीटरों में बाँट कर वॉटर बॉटलों में भर देते हैं
ज़रूरत के हिसाब से ही खर्च करते हैं नमी
कुछ ख़ास पौधे रोपते हैं गमलों में
वे गमलों का आकार तय करते हैं
वे सचमुच बेहद क़ाबिल लोग हैं
जो फूलों को महकने की
चिड़ियों की चहकने की
और सूरज की दहकने की तमीज़ सिखाते हैं
मैं नासमझ उनके सलीकों पर सवाल कर बैठती हूँ
वे लोग मुझे बदतमीज़ घोषित करते हैं
वे मेरी बदतमीज़ियों में मेरे कवि होने की शिनाख़्त करते हैं
3.
हत्या
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नेल पेंट छुड़ाने जितना आसान नहीं है
जीवन से दुःख के दाग़ छुड़ा देना
हालाँकि हम एक चमचमाते हुए साफ़ जीवन के साधन ईज़ाद करते रहते हैं
कई बार इन साधनों की खोज करते हुए हम जीने से बहुत दूर भी निकल जाते हैं
ऐसा नहीं कि हम नहीं जानते
कि हमारे साँस लेने और जीने के बीच सन्यास से मोक्ष तक की दूरी है
पर जब भी हम इस दूरी को पाटने का प्रयास करते हैं
बीच सड़क पर हमारी हत्या कर दी जाती है
हमारी पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट से कभी नहीं पता चल पाता
कि हम चाक़ू पिस्तौल या ज़हरखुरानी से नहीं
जीवन को जीने की चाह से मार दिए गए थे
4.
वो औरत
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[ देवीप्रसाद मिश्र की 'मेज'पढ़ने के बाद. ]
वो औरत
जो आदमियों के बीच बैठी है 'देवी प्रसाद मिश्र'की कविता में
"जिसे ज़रूरत है ढेर सारे प्रेम की
मगर वो नहीं जानती ये बात किससे कहे और किस तरह"
वो औरत
किसी अख़बार में उठ न खड़ी हो जाए कोई मसला बन कर
वो औरत हमेशा उत्तर बन कर मिल जाती है
किताबों या जीवन में
डायनिंग टेबल साफ़ करते हुए पोंछती जाती सारे प्रश्नचिन्ह
दुपट्टे की गाँठ में ऊँच-नीच का हिसाब बाँधे
जल्दी-जल्दी पीती है पानी बेझिझक
वो औरत
खुद किसी ठसके की तरह अटक न जाए समय के गले में
वो औरत दायीं या बायीं नहीं वरन् चौकस करवट में सोती है
ठसाठस भरे हैं स्वप्न उसकी नींद में
जाग की दीवारों पर सिर टकराती उसकी नींद सूजी हुई है
स्लीपिंग पिल्स में बंद गहरी नींद की तह खोलती
वो औरत
कहीं खुल न जाए इतिहास के चौराहे पर पूरी की पूरी
वो औरत
संसार का सबसे बड़ा ख़तरा न बन जाए किसी दिन
हालाँकि तब भी न हो सकेगी ख़तरनाक़
चाह की भूख से छटपटाती
नहीं गटकेगी एक निवाला भी प्यार-व्यार के भंडारे में
वो औरत
जो आदमियों के बीच बैठी है 'देवी प्रसाद मिश्र'की कविता में
5.
प्रेम@3am
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तुम्हारे जूतों की थाप से कुचल जाती है मेरी नींद
अंतरिक्ष की खिड़की से झाँकता होगा कोई सितारा अभी
पृथ्वी का आधा पलंग ढँका है आधा उघाड़
छोटी है सूरज की चादर
पाली बदल-बदल के सोती है दुनिया
यहाँ रात का तीजा पहर है
आधी दुनिया के सोने का समय यह
इसी सोने वाली दुनिया का हिस्सा हूँ अभी
और जाग रही हूँ
मैं जाग रही हूँ
इस तरह इस समय सोने वाली दुनिया में जागते हुए
जागने वाली दुनिया का प्रतिनिधित्व कर रही हूँ
अभी तो महज़ तीन बजे हैं घड़ी में
अभी हूँ पूरी दुनिया
प्रेम में होता है इतना बल
कि ज़माने भर की घड़ियों को धता बता कर
समय को एक कर दे
तकिये पर बाल चिपका है मेरी पलक से टूट कर
मुट्ठी पर रख फूँक मारने से पहले
चूमती हूँ तुम्हारा माथा हवा में
कई बार एक सादा-सा चुम्बन सुलझा देता है जीवन की कितनी ही गुत्थियाँ
कभी- कभी कोई चुम्बन मस्तिष्क की जटिल कोशिकाओं में उलझ जाता है
कितने ही थरथराते होठों से अपना नाम सुना होगा तुमने
कभी देखा है अपना नाम उल्टी मुट्ठी पर काँपते हुए
रखना ही है तो मुझे हृदय में रखो
अपनी जेब में नहीं
वक़्त बड़ा ही शातिर जेबकतरा है
बिन जूते उतारे
जाने कब से कर रहे हो पृथ्वी की परिक्रमा
कहीं पहुँचते भी नहीं
मैं कंपकंपाती मुट्ठी पर फूँक मार देती हूँ
पता नहीं धरती के किस कोने में उड़ कर गिरी है मेरी इच्छा
ठीक ही तो है
कि तुम प्रेम में फूँक-फूँक कर कदम रखते हो
6.
एक रात, स्वप्न घड़ी और विदाई
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उस रात मुझे लगा कि जैसे पृथ्वी एक बड़ी-सी घड़ी है, जिसमें तीन किरदार है. तुम, मैं और बची हुई दुनिया.
उस स्वप्न में तुम सेकंड्स वाला काँटा थे जो तेज़ कदम चल कर न केवल अपना चक्कर पूरा करता है बल्कि अपने हर मकाम में बचे रहने की चाह में बार-बार लौटता भी है पल-दर-पल. मगर ठहरता कहीं नहीं. बची हुई दुनिया को मैंने मिनट वाले काँटे के रूप में पाया, जो अपने हिसाब-किताब और जुगाड़ से चलती है. न हद से तेज़ न हद से धीमे. जैसे सौदा-सुलुफ़ के लिए निकली कोई मिडिल क्लास गिरस्थिन औरत मंडी में बार-बार एक ही दुकान के आगे से गुज़र जाती हो. उसकी चाल औसत है, नज़र सब पर है और पूरा बाज़ार ख़रीद लेने की अदम्य इच्छा उसकी मुट्ठी में भिंचे रुपयों से रगड़ खा कर हथेली को पसीने से तर-ब-तर करती हो. तुम उस औरत की हर चाल पर गिर-गिर जाते हो. उसे साठ तरह से निहारते हो. तुम बहुत तेज़ चलते हो, लगभग भागते हुए, बदहवास और बेचैन. तुम कभी उस औरत के पास ठहर जाना चाहते हो तो कभी अपने प्रेम के पास. तुम दौड़ते चलते हो और तुम्हारा संशय तुम्हें कहीं टिकने नहीं देता.
तुम हर जगह हर किसी के पास होना चाहते हो.
टिक टिक लेफ़्ट टिक टिक राईट टिक टिक बैक टिक टिक फ़ॉरवर्ड, टिक टिक अप टिक टिक डाउन...ऑलमोस्ट एवरीव्हेयर.
पल-पल में पलने की बेहिसाब चाह. एक तरह की लस्ट.
मैं इस घड़ी का सबसे छोटा किरदार हूँ. बहुत धीमे सरकने वाला. हर एक मकाम पर जी भर कर ठहरने वाला. एक बार कहीं से गुज़र जाए तो फिर पलट कर न लौटने वाला.
मैं इस घड़ी का योगी काँटा हूँ, जिसने वक़्त को तड़ातड़ काटा नहीं, जिस पर बचे हुए दोनों काँटे बार-बार लौट कर आते रहे. उनकी आमद से मुझे खरोंच लगती थी फिर भी मैंने उन्हें अपने ऊपर से हर बार गुज़र जाने दिया. मैंने हर मकाम को एक फूल की तरह सहेजा, कोमलता से छुआ, आँखें मूँद कर उसकी गंध को अपनी नसों में उतर जाने दिया और जब वो फूल अपनी शाख़ से गिर गया तो मैंने उसे अनंत की नदी में बहा दिया और कहा,
अब मिलना नहीं होगा.
विदा.
-बाबुषा कोहली