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भावना शेखर की कविताएं

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भावना शेखरहिंदी कविता में पटना की आवाज हैं. केंद्र में परिधि की आवाज. कविता के उन मुहावरों से मुक्त जिनके जैसा लिखने को ही कविता मानने की जिद दशकों तक हिंदी के आलोचकों ने ठान रखी थी. हिंदी कविता में अब बड़े-बड़े विचारों की जगह छोटे-छोटी चिंताएं सामें आ रही हैं. जीवन को करीबी नजर से देखने की एक कोशिश की तरह भावना शेखर की इन कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए- मॉडरेटर 
===============

1.
शोर

सुबह उठते ही
सुनती हूँ देखती हूँ शोर
छोटे छोटे शोर
मीठे मीठे शोर
मंदिर की घंटी घोंसलों में हलचल
पत्तो की सरसर पंछी का कलरव
सुबह उठते ही
सुनती हूँ देखती हूँ शोर
बड़े बड़े शोर
तीखे कर्कश शोर
शोर की इक भीड़ शोर का बवंडर
कानो के पास शोर का समन्दर

सुबह होते ही बजा दिया हो
ग्रामोफोन जैसे किसी ने
एक ही धुन एक ही सुर ताल
शोर की ही सरगम शोर का भूचाल

एक उदासी एक खिन्नता झल्लाहट
शाम के संग संग बढ़ती उकताहट
रात किन्तु सखी मेरी बड़ी ही सयानी
जब भी आती
सोख लेती काले ब्लॉटिंग पेपर सी
देह में लथपथ शोर को
सफा कर देती आँखों को
कानो की कोर को

भेज देती चुपके से
चैन को सुकून को
खिड़की के रस्ते
थपथपाते पपोटों को दोनो बारी बारी
सहलाते थकन को दोनों बारी बारी
जड़ देते ताला मुंदी हुई पलको पर

उतरती हैं पुतलियाँ
मन की फिर सीढियाँ
खुलता है ज्यूँ ही
कपाट मेरे अंतस का
खुल जाता बांध जैसे
शोर की नदी का
बड़े बड़े शार्क और व्हेल मुँह फाड़े हैं
ध्यान से देखा
उनके माथे पर चिपकी है
इबारत जानी पहचानी
दिनभर के अपशब्दों उलाहनों विवादों की

काश दिन भर के सारे शोर
अन्तस की मेमरी में सेव न हो पाते
रीसाइकल बिन की तरह पुनर्जीवित न हो पाते
कर पाती  काश उन्हें
सदा के लिए डिलीट
सदा के लिए विदा।

फरमान

क़ुदरत ने किया है सख्त फैसला
जारी हो चुका है फ़रमान
गुलमोहर नहीं खिलाएगा फूल 
बरगद- नीम नहीं बाँटेंगे छाया
मुफ़्त राहगीरों में

मुफ्तखोरों को सबक़ सिखाना ज़रूरी है
अब सूरज ठिठुराएगा
चाँद भी तरसाएगा
दरिया सिकुड़ेंगे
समन्दर फुफकारेगा
बादलों की हड़ताल होगी
हवा भी धरने पे

करना है सन्न
मतलबपरस्ती को
बदनीयती को
ज़रूरी होता है पागलों को
शॉक ट्रीटमेंट देना  

3.
गुमशुदा लम्हे

आज धूल झाड़कर खड़े हो गए 
गुमशुदा से वो लम्हे
जिन्हे बंद कर आई थी बरसों पहले
किसी राज़दार दस्तावेज़ की तरह
वक़्त की सलेटी संदूकची में

मेरे गुनाह मेरी हिमाकतें 
मेरे ऐब और नाशुक्री
सब बंधे थे
एक ही गिरह में कसकर

न जाने कब
कोई मासूम लम्हा
शरीर बच्चे सा
खोल गया बंद किताब के पन्ने

अब स्याह हर्फों में
घूरते हैं मुझे
वही गुमशुदा लम्हे
ऐतबार और बन्दगी के
मुखौटे के पार
जिसे पहनकर स्वांग रचाया किया
उम्र भर

4.
पानी

खिड़की के बाहर पटवन में लगा था
खालिस मज़दूर
हाथ में थामे मोटा सा मटियाला पाइप
जिसके मुहाने पर चेप रखी थी ऊँगली
जैसे मुँह पर ऊँगली धरे
खड़ा हो शरारती बच्चा

पर फूट रही है धार फव्वारा बनकर
घूम रही ऊपर नीचे दाएँ बाएँ
नई बनीं ईंटों की दीवार पर
नहला रही गुदगुदा रही
ज़िद्दी ईंटों को
जो नही देतीं
कोई प्रतिक्रिया कोई नज़राना 

न हँसतीं न खेलतीं
बावजूद निखर जाने के
सूरज के लाल फर्श सी
सुर्ख दमकती ईंटें
धुली धुली ईंटें
अहसान फरामोश ईंटें

फव्वारा है बेफिक्र बेपरवाह
उनकी ज़िद्दी ख़ामोशी से
खुद ही बिखेर रहा खिलखिलाहटें
हज़ारहा बूंदों की शक्ल में
और भी अलमस्त विस्तरित होकर

बेग़ैरतों मग़रूरों के साथ भी
जीया जा सकता है
रहा जा सकता है खुश
बस पानी की ठंडक औ रवानी से
बाबस्ता होना पड़ता है 


हिसाब

मुझे मांगने हैं
कुछ कतरे आँसू
बचपन की आँखों से
जो सहमे सहमे ढूंढ रहे हैं
खिलखिलाहटें और एक रैनबसेरा

मुझे मांगने हैं
चंद मटियाले मोती
खेतों से
जो थिरकते हैं
उसकी मेंड़ पर
चूते हैं मिट्टी में टप टप
सुबह से शाम तलक 
उगाते है सोना

थोड़ी सी थकन, थोड़ी सी गाँठें
उन बाँहों और हाथों से
घंटों कुदाल थामे
जो तोड़ रहे पुरज़ोर कोशिश से
हाशियों को  
बाँध रहे हैं नदियों को
रौंद रहे परबत को

थोड़ी सी बेचैनी और तपन चुरानी है
उस फटी चादर के सुराखों से
जिसमें करवटें बदलती हैं
रात रात भर अधूरी ख्वाहिशें
और भूखे जिस्म

मुझे मलना है सुर्ख रंग अपने गालों पर
उम्मीद और हौंसलों का
भरना है आँखों में
जुगनू का  दिपदिपाता नूर

बदले में दे दूंगी
थोड़ा चैन थोड़ी नींद
उन आँखों को
जो बरसों से तकती हैं राह
परदेस गए बेटे की

बदले में दे दूंगी
थोड़ी चुहल थोड़ी शोखियां
और हरी हरी चूड़ियाँ
दास आँखों, सूनी कलाइयों को

मिट्टी के घरौंदे , चीनी के खिलौने
कुछ कंडीलें और पतंगें
रख छोड़ी हैं उन के लिए
जो भूल गए हैं किलकना,
कूदना, कंकरियां उछालना

ज़िंदगी का जितना बकाया है
जल्द से जल्द चुकाना है
कुछ देना है कुछ लेना है
कहीं देर न हो जाए
किसी का क़र्ज़ मेरे सर न रह  जाए


जूते

बार बार खुल जाते है
मेरे जूतों के फीते आजकल
दो चार कदम चलता हूँ
रुकता हूँ झुकता हूँ
फिर बांधता हूँ गिरह
पीठ पर चुपके से
धौल जमाते बच्चे की मानिंद
चौंकाते हैं
खुल खुल जाते हैं
मेरे जूते के फीते 

मेरे जूते मेरे पंख हैं
सरपट उड़ाए लिए जाते हैं
रूखी पथरीली कंकरीली राहों पर
मुझे गड्ढों खड्डों का भय नही
गर बंधे हैं ये पांवों में
मुझे दे रखी है भरपूर आज़ादी इन जूतों ने
यहां वहां आवाजाही की
मेरे तलवों का कवच हैं
ये जूते 
जानता हूँ मुझे ढोने वाले मेरे पैर
इनके संरक्षण में मरेंगे नहीं
सच कहूँ तो
मेरी दीर्घायु का साधन हैं
मेरे जूते

झाड़ता हूँ चमकाता हूँ इन्हे
हर उड़ान से पहले
फिर लौटकर रख देता हूँ
घर के बाहर रखे रैक के
नीचे वाले खाने में

निष्कासित निर्वासित
तड़ीपार अपराधी की तरह
हाशिए पर
पड़े रहते हैं बेज़ुबान
न कोई प्रतिरोध न प्रतिकार
इंसानी फितरत का शिकार
जो न पैरों की कदर करते
न जूतों की

आज अनुप्राणित हो गए लगते हैं
मांग रहे हैं अधिकार
जाना चाहते हैं धरने पर
तभी तो खुल रहे हैं बार बार
मेरे जूते के फीते










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